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मंगलवार, 14 मार्च 2017

हीरा पायो गांठ गठियायो-प्रवचन-07

रजनीशपुरम—2  (अध्‍याय—07)

                ब तक न्‍यायालय हमारे पक्ष में कोई निर्णय न दे व्‍यावसायिक क्षेत्र (कमार्शियल-जोन) में न होने के कारण हम कोई व्‍यवसाय स्‍थापित नहीं कर सकते थे; पर्याप्‍त टेलीफ़ोन भी लगवा सकते थे। निकटतम क़सबा एंटिलोप था जिसके लगभग चालीस निवासी थे। यह क़सबा ऊंचे-ऊंचे पॉपलर (पहाड़ी पीपल) वृक्षों के बनों में बसा हुआ था। तथा रजनीशपुरम से अठारह मील की दूरी पर था। व्‍यापार के लिए हम वहां एक ट्रेलर ले गए थे। मात्र एक ट्रेलर और थोड़े से संन्‍यासी, और हम पर कस्बे पर अधिकार जमाने का आरोप लगा। भय के कारण स्‍थानीय निवासियों ने अपने नगर का अनिवासी करण कर दिया। हमने उनके विरूद्ध न्‍यायालय में मुकदमा दायर कर दिया। जीत हमारी हुई। इस घटना ने ऐसे कुरूप नाटक का रूप ले लिया कि अमरीका वासियों में इसकी चर्चा उनके नवीनतम धारावाहिकों से भी अधिक होने लगी।

      समाचार पत्र तथा टेलीविजन स्‍टेशन इसमे बहुत रूचि दिखाने लगे थे। समाचार-पत्रों और टेलीविज़न पर शीला एक बहुत बड़ी जादूगरनी सी प्रतीत होती थी। एंटिलोप के निवासियों ने अपना भय प्रकट करा शुरू किया और अपना घर बचाते गृह स्‍वामी का नाटक छेड़ दिया।
      यह नाटक विकसित होता गया। अंत में और अधिक संन्‍यासी शहर में प्रविष्‍ट हो गए। उन्‍होंने अपना मेयर स्‍वयं निर्वाचित किया। घरों का पुनर्निर्माण किया और शहर को नया नाम दिया—रजनीश नगर यह सब करेन के पश्‍चात वे रजनीशपुरम घाटी की और लौट आए और सब छोड़ दिया। इस दौरान एंटिलोप के निवासी अभी वहां थे परंतु अब उनके जीवन का एक अर्थ था उनका महत्‍व बढ़ गया था। टेलीविज़न में उनका इंटरव्‍यू होता। लड़ाई अब भी जारी थी।
      शीला स्‍वयं को स्‍टार समझने लगी थी। उसे बहुत से टी. वी. कार्यक्रमों के लिए आमन्‍त्रित किया जाने लगा। किसी भी प्रश्‍न का उत्‍तर जिस अदा से वह दे रही थी वह उसके मूल्‍य को ऊपर चढ़ाने में सहायक हो रहा था।  
      यूरोप से अब अनेक नए संन्‍यासी आ रहे थे जिन्‍होंने ओशो को पहले कभी नहीं देखा था। उनके लिए शीला धर्मगुरू पोप थी। रजनीशपुरम में पूरे कम्‍यून के लिए आयोजित उनकी सभाओं में वह ऐसे युवा लोगो से घिरी रहती जिनके चेहरों पर भक्‍ति भाव झलकता जो यूरोप के कम्‍यूनों से नए-नए आए थे। और जो उसकी प्रत्‍येक बात पर तालियां बजाने को आतुर रहते। वे सभाएँ मुझे भयभीत कर जाती थी। मुझे वे सभाएँ हिटलर की युवा लहर सी प्रतीत होती थी।
      मैं और अधिक पहाड़ियों में शरण लेने लगी जैसे ही शीला ने बाहरी जगत के साथ अपनी लड़ाई तेज़ कर दि, उधर भीतर (कम्‍यून में) भी एक लड़ाई शुरू हो गई है। कम्‍यून के सदस्‍यों को इस बात का आश्‍वासन दिया ने के लिए उनमें कहीं कोई दरार नहीं है। एक रात शीला और विवेक ने मग्दालिन कैफेटेरिया में सभा बुलाई। यद्यपि सभी बहुत ही मार्मिक प्रतीत हो रही थी। परंतु इसने सबके संदेह को पुष्‍ट कर दिया था दोनों मे सचमुच कोई संघर्ष चल रहा था। अन्‍यथा सभी आयोजन से क्‍या अभिप्राय है।
      विवेक शिला का रति भर विश्‍वास नहीं करती थी। उसे ओशो के घर की चाबी रखने की भी अनुमति नहीं थी। जब भी वह ओशो से मिलने आती, उसे विवेक को पहले टेलीफ़ोन पर सुचना देनी पड़ती थी। फिर ठीक समय पर उसके लिए दरवाजा खोला जाता था। और अंदर जाने के बाद बंद कर दिया जाता। ओशो के ट्रेलर की और जाने के लिए हमारे घर से होकर जाने की भी शीला को मनाही थी। उसे साथ वाला दरवाज़ा इस्‍तेमाल करना होता था। यह बस इसलिए था कि हमारे ट्रेलर से गुज़रते हुए वह कोई न कोई मुसीबत अवश्‍य खड़ी कर देती; लेकिन इस बात से वह परेशान अवश्‍य थी। यह बात उसके लिए बहुत अपमानजनक थी। वास्‍तव में बात तो यह थी कि सत्‍ता किसके हाथ में थी।
      शीला इन छोटे-छोटे तू-तू, मैं-मैं के झगड़ों की खबर ओशो को कभी न देती थी क्‍योंकि उसके पास इस बात की पूरी समझ थी कि ओशो का कोई भी समाधान उसकी सत्‍ता को समाप्‍त कर देगा। मैंने उन्‍हें कभी नहीं बताया क्‍योंकि जिस गति से रजनीशपुरम विकसित हो रहा था, उसकी तुलना में यह सब बहुत महत्‍वहीन था। मैं इस भ्रम में थी कि यदि शीला हमसे जो लोग ओशो के साथ उनके घर में रहते थे—अप्रिय व्‍यवहार करती है, उनसे नाराज़ हाथी है तो वह इस पर ही अपना क्रोध निकाल लेगी। और कम से कम शेष कम्‍यून-वासियों के प्रति तो उसका व्‍यवहार अच्‍छा रहेगा। में इस बारे में अंजान ही बने रहना चाहती थी।  
      रजनीशपुरम में मुझे किसी प्रकार का कोई कष्‍ट नहीं था। यद्यपि में बारह घंटे प्रति दिन कार्य करती थी। हम क्‍या-क्‍या कर सकते और क्‍या-क्‍या नहीं इसके लिए नियम बढ़ते जा रहे थे। मुझे याद है जब एक बार ओशो ने मुझसे पूछा था कि मैं थक तो नहीं गई हूं। तो मैंने उत्‍तर दिया था कि थकान क्‍या होती है, मैं भूल ही गई हूं। मैं सोचती थी की प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति आनंदित है। क्षमा करें, लेकिन मुझे कभी ऐसा प्रतीत नहीं हुआ कि वह एक कठिन समय था। अपनी बेहोशी में हम स्‍वयं को ऐसे लोगों के समूह से शासित होने दे रहे थे जिन्‍हें हमारी बुद्धिमता पर ही संदेह था। जो हमें दबाने के लिए हमें नियंत्रण में रखने के लिए यदा-कदा हमारे भीतर भय पैदा कर रहे थे। परंतु इस बात को ऊपर सतह पर आने में समय लगा और इस दौरान हम स्‍वयं में आनंदित थे। यदि आप संन्‍यासियों के एक समूह को इकट्ठा करें तो उसे जिस नाम की संज्ञा दी जा सकती है वह है हास्‍य।
      विवेक ने कम कष्‍ट नहीं पाया। अंत स्‍त्राव (हार्मोनल) रासायनिक असंतुलन की शुरूआत थी जो उदासी के दौरों के रूप में प्रकट होता। मैं यह भी सोचती हूं कि वह अति संवेद शील थी और शीला व उसके गुट के बारे में उसकी अंतर्बोध उसे पागल किए जा रहा था। एकाएक उसे उदासी पकड़ जाती। कई बार दो-तीन सप्‍ताह तक वह अंधेरी कोठरी में पड़ी रहती। हम हर प्रकार से उसकी सहायता करने की चेष्‍टा करते परंतु कोई लाभ न होता। अंत में उसकी इच्‍छानुसार उसे अकेला छोड़ दिया जाता। उसने कम्‍यून छोड़ने का निश्‍चय कर लिया। एक मित्र जिसका नाम जॉन था, उसे विवेक को 250 मील दूर सैलेम तक छोड़ आने के लिए कहा गया ताकि वह वहां से सीधी लंदन के लिए हवाई जहाज़ पकड़ सके। जॉन हॉलीवुड सैट’—संन्‍यासियों के उस छोटे से ग्रुप का सदस्‍य था जो पूना में ओशो के साथ था और अब इस महा प्रयोग में सम्‍मिलित होने के लिए जिसने बेवरली हिल्‍ज़ ठाठ-बाट भरे जीवन को त्‍याग दिया था। उस दिन बर्फानी तूफ़ान चल रहा था; सड़क पर फिसलन थी; सामने कुछ दिखाई न दे रहा था। अठारह घंटे कार में सफ़र करने के पश्‍चात वे ठीक समय पर हवाई अड्डे पर पहुंच गए और विवेक विमान पकड़ पाई।
      जॉन जोखिम भरी यात्रा तय कर कम्‍यून लौट आया। उसके पहुंचने से पहले ही विवेक का लंदन से फ़ोन आया कि वह कुछ घंटे अपनी मां से मिल ली है और अब कम्‍यून लौटना चाहती है। ओशो ने कहा, हां ठीक है। जॉन को फिर से एअरपोर्ट जाना था क्‍योंकि वही उसे छोड़ने गया था। वह फिर वापस जाने के लिए ठीक समय पर रजनीशपुरम पहुंच गया था। अब सड़क पर बर्फ़ की तह इतनी मोटी हो चुकी थी कि बहुत से रास्‍ते बंद हो चुके थे। और बर्फ़ अब भी गिर रही थी। जैसे-तैसे यात्रा संभव हुई। विवेक का खुली बांहों से स्‍वागत हुआ। हमेशा की तरह उसके अंदर कोई अपराध भाव नहीं था। कोई शर्मिंदगी नहीं थी। वह पुन: सिर ऊँचा किए अपना काम काज इस तरह करने लग गई जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। इसमे मुझे गुरजिएफ विधि का स्‍मरण हो आता है। यद्यपि इसमे विधि जैसा कुछ भी न था। एक दिन ओशो के साथ रजनीशपुरम की घुमावदार सड़क पर कार चलाते हुए ज्‍यों ही हम एक मोड़ पर पहुंचे तो सड़क के साथ-साथ घूमने की अपेक्षा वे सीधा किनारे की और बढ़ने लगे। कार अपने अगले भाग पर खड़ी हो गई। जो कि लगभग एक तिहाई हिस्‍सा हवा में था। हमारे नीचे तीस  फ़ुट गहरी खाई थी। उसके बाद तो नीचे घाटी की और ढलान-ही ढलान थी।
      ओशो ने कहा, तुम देखो क्‍या होता है.....?’
      मैं स्‍थिर बैठी थी। सांस लेने की भी हिम्‍म्‍त न कर पा रही थी कहीं हल्‍की सी हिल-डुल संतुलन को बिगाड़ कर हमें नीचे की और ढकेल दे। वे इंजन को फिर से चलाने के पहले कुछ क्षण रुके, मैं अस्‍तित्‍वहीन परमात्‍मा से प्रार्थना कर रही थी। कृपया इसे रिवर्स गियर में डाल दो। और कार धीरे-धीरे सड़क पर पहुंच गई। और हम घर की और जा रहे थे। मैं समझ न पाई इसलिए बात जारी रखी, क्‍या होता है... ?’
      उनहोंने कहा: मैं कार को कीचड़ भरे गड्ढे से बचा रहा था क्‍योंकि चिन् जो कार साफ करता है उसके लिए मुश्‍किल हो जाती।
      शीला ने ओशो के घर तथा उद्यान के इर्द-गिर्द दस फुट ऊंची बिजली के करंट वाली तार लगवा दी। हिरनों को उद्यान से दूर रखने के लिए।
      चाहे वे कुछ भी कहें पर हम घेर लिए गये थे। मेरा धुलाई क्षेत्र इस बाड़ से बाहर था मुझे भरोसा दिलाया गया था कि बाहर जाने के लिए जो दरवाजा है उस पर बिजली के करंट का कोई प्रभाव नहीं है। लेकिन जब भी मैं दरवाजे के बाहर निकलती मुझे ऐसा झटका लगता जैसे किसी घोड़े ने पेट पर लात मार दि हो। जब पहली बार ऐसा हुआ तो घुटनों के बल गिर पड़ी। और इसके बाद मैंने वमन किया। पहाड़ियों में बीतने वाले मेरे समय का अंत आ गया था। पहाड़ियों के बीच से कैनटीन तक भागने की अपेक्षा अब मैं अन्‍य सभी की भांति बस स्‍टॉप के रास्‍ते पर चलती और वॉच टावर पर बैठा पहरेदार मुझ पर नज़र रखता। हां सच, एक ऐसा वॉच टावर भी था। जिसमे दो व्‍यक्‍ति मशीनगन लिए चौबीस घंटे पहरा देते रहते। आतंक बाड़ के दोनों ओर बढ़ता जा रहा था।
      अप्रैल, 1983 में ओशो ने कम्‍यून को एक संदेश भेजा। देवराज ने उन्हें उस निदानहीन रोग एड्स की सूचना दी जो पूरे विश्‍व में फैलता जा रहा था। ओशो ने कहा की यह रोग दो-तिहाई मानव जाती को नष्ट कर देगा। कम्‍यून को इससे बचना होगा। उन्‍होंने सुझाव दिया कि संभोग करते समय कंडोम तथा रबड़ के दस्‍तानों का उपयोग किया जाना चाहिए। प्रेम ने इस समाचार को उछाला और उस रोग से बचाव के लिए क़दम उठाने को मज़ाक उड़ाया। जिसका अभी पता ही नहीं है। पाँच वर्ष बीते, तथा हज़ारों मौत.....बाद में अमरीका के स्‍वास्‍थ्‍य अधिकारी भी इस रोग के ख़तरे के प्रति सतर्क हुए और उसने बचने के वही सुझाव देने लगे। अब 1991 है और हमारे कम्‍यून में प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को हर तीन महीने बाद एड्स परीक्षण किया जाता है।
      मनुष्‍य की प्रकृति का शायद एक दुखद तथ्‍य यह है कि यदि एक व्‍यक्‍ति या व्‍यक्‍तियों का समूह आपसे भिन्‍न है, तो आप भयभीत हो जाते है। में इंग्‍लैंड के एक छोटे से नगर कॉर्नवाल में पली थी जहां पड़ोस के गांव के लोग भी अजनबी कहलाते थे। उस नगर में जनम लेने से ही आप उसके वासी नहीं समझें जाते थे। आपके माता पिता दोनों में से एक का वहां जन्‍म होना भी अनिवार्य था। तभी वे आपको स्‍वीकार कर सकत थे। इसी कारण ऑरेगान के स्‍थानीय लोगों की हमारे प्रति जो प्रतिक्रिया थी उससे मुझे कोई हैरानी नहीं हुई। यद्यपि यह प्रतिक्रिया कुछ ज्‍यादा ही थी। हिंसात्‍मक थी। उनके स्‍थानीय चर्च के धार्मिक नेता के नारे....शैतान के पुजारियों, अपने घर वापस चल जाओ। उनकी टी-शर्टों पर वह छपाई—लाल होने से बेहतर मौत। ओशो की और तनी बंदूकों के दृश्‍य, पोर्टलैंड में बम-विस्‍फोट यह सब अतिशय था।
      हां, तब मुझे ऐसा आभास भी न था कि पूरी सरकार की प्रतिक्रिया ऐसी पक्षपातपूर्ण वे उत्‍तरदायित्‍वहीन होगी। हमारा कम्‍यून पर्यावरण सुरक्षा (इकोलॉजी) का एक सफल प्रयोग था। जब हम रजनीशपुरम पहुंचे थे वह एक बंजर मरुस्थल था तथा इसे रूपान्‍तरित करने का भरसक प्रयास किया जा रहा था। बाँध बनाकर पानी इकट्ठा किया जा रहा था। फिर इससे सिचाई की जाती थी। कम्‍यून को स्‍वावलम्‍बी बनाने के लिए पर्याप्‍त अन्‍न उगाया जा रहा था। कम्‍यून का सत्‍तर प्रतिशत कचरा रिसायकल किया जाता –एक सामान्‍य अमरीकन नगर अधिकतर पाँच से दस प्रतिशत कचरे को ही रिसायकल करता है। और अधिकतर शहरों को इस बात की चिंता ही नहीं थी। हम भूमि का ख्‍याल रखते और मिट्टी को किसी प्रकार से प्रदूषित न होने देते। मल-जल निष्‍कासन प्रणाली कुछ इस ढंग से काम करती कि पाइप द्वारा मल जल एक ताल में छोड़ दिया जाता। जिसे वहां पर जैविक विभाग (बायोलॉजिकली ब्रेक डाउन) से गुजरकर एक फिल्‍टर सिस्‍टम से छन कर पाईप में से हाता हुआ सीधा नीचे घाटी में जाता और अंत में खेतों की सिचाई के काम आता। भूमि अपरदन को बचाने के प्रयत्‍न चल रहे थे। घाटी में दस हज़ार पेड़ रोपित कर दिए गये थे। आज फिर से उजड़ गई उस धरती पर दस वर्ष बाद भी बहुत पेड़ खड़े है। मैंने सूना है कि पेड़ फलों से इस प्रकार लदे हुए है कि उनकी शाखाएं टूट जाती है।
      1984 में ओशो ने कहां था:
      वे इस नगर को अपने भूमि  उपयोग क़ानूनों की आड़ में नष्‍ट कर देना चाहते है—मूर्खों में से एक भी यह देखने नहीं आया कि हम कैसे इस भूमि का उपयोग कर रहे है। क्‍या वे हमसे अधिक सृजनात्‍मक ढंग से इसका इस्‍तेमाल कर सकत है। और पिछले पचास वर्षों से कोई भी व्‍यक्‍ति इस भूमि का कुछ उपयोग नहीं कर रहा था। और वे प्रसन्‍न थे कि यह उसका दुरूपयोग था। अब हम इसमें उत्‍पादन कर रहे है। हमारा कम्‍यून एक स्‍वावलम्‍बी कम्‍यून है। हम खाद्य पदार्थों, सब्‍जियों आदि का उत्‍पादन कर रहे है। हम इसे स्‍वावलम्‍बी बनाने का हर संभव उपाय कर रहे है।
      यह मरुस्थल....लगता है कि यह मेरे जैसे सभी व्‍यक्‍तियों के भाग्‍य में लिखा है। मूसा भी अंत में मरुस्थल में ही पहुंच गये। और मैं भी वही पहूंच गया। हम इसे उर्वर बनाने का प्रयास कर रहे है। हमने इसे हरा-भरा बना दिया है। यदि आप मेरे घर के आस-पास जाएं और देखें तो विश्‍वास नहीं होगा कि यह ऑरेगान है, लगेगा कि यह काश्‍मीर है। और वे यह भी देखने नहीं आते कि यहां क्‍या-क्‍या हो चुका है। केवल राजधानी में बैठे-बैठे वे यह निर्णय लेते है कि यह भूमि उपयोग है। तो वह भूमि उपयोग नियमों के सर्वथा विरूद्ध है। तो तुम्‍हारे सभी नियम झूठ है, उन्‍हें जला देना चाहिए। परंतु पहले आओ, देखो तथा यह सिद्ध करो कि यह भूमि उपयोग कानून के सर्वथा विरूद्ध है, परंतु उन्‍हें यहां आने में भय लगता है.....’(द रजनीश बाइबल)
      भूमि उपयोग नियमों का मामला उच्‍च न्‍यायालय तथा अन्‍य छोटे न्‍यायलयों के चक्‍कर लगाता रहा। अंत में हमने यह मुकदमा जीत लिया, परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। एक वर्ष पूर्व ही कम्‍यून उजाड़ दिया गया था। सभी सन्‍यासी जा चुके थे और अब यह कहने में कोई खतरा नहीं था कि हमारा नगर गैर-कानूनी नहीं था।
      ओशो ने जब पेड़ों की अनुपस्‍थिति की चर्चा की तो शीला ने उन्‍हें एक चीड़ के वृक्षों के जंगल के बारे में बताया जो कि इस स्‍थान से बहुत दूर था। उन्‍हें पेड़ों से बहुत प्‍यार था। वे अक्‍सर मुझसे पूछते, क्‍या तुमने वह चीड़ का जंगल देखा है? कितने पेड़ है? कितने बड़ है? क्‍या खूब घना है? यहां से कितनी दूर है? क्‍या मैं वहां तक कार से जा सकता हूं?’
      मैं एक दिन मोटरसाइकिल पर वहां गई। वहां कोई सड़क नहीं थी। वह पन्‍द्रह मील दूर हमारी सम्‍पति के एक छोर पर  छोटी-सी घाटी में स्‍थित था। रजनीशपुरम से बाहर ड्राइव करना ओशो के लिए दिन-वे-दिन खतरनाक होता जा रहा था। इसलिए चीड़ के जंगल की और सड़क बनानी आरम्‍भ कर दी गई। काम बहुत धीमी गति से हो रहा था। अभी थोड़ी सी सड़क की कटाई शुरू होती कि लोगों को काम के लिए कहीं और बुला लिया जाता। फिर बारिश हो जाती और सड़क वह जाती। सन् 1984 तक दस मील तक सड़क बन कर तैयार हो गई थी। ओशो प्रतिदिन कार चलाते हुए उस अदृश्‍य चीड़ के जंगल के समीप और समीप पहुंच जाते। वह एक शानदार ड्राइव थी, लेकिन जंगल का अभी कोई नामोनिशान न था।
      जिस जंगल को देखने की उनकी प्रबल इच्‍छा थी, उस तक सड़क के पहुंचने से पहले ही ओशो वहां से जा चुके थे। जब से यह परियोजना आरम्‍भ हुई थी मिलारेपा और विमल इस सड़क पर काम कर रहे थे। वे घनिष्‍ठ मित्र थे। विमल की विनोद वृति और सरलता को पूरी तरह प्रकट करने का समय अभी आना था—वर्षों बाद सभागार में सन्ध्या कालीन सभा में मनीषा की नकल उतारने के लिए साड़ी पहनकर और एक अन्‍या रात्रि को गुरिल्‍ला की खाल पहनकर उसने ओशो को और हमको खुब हंसाया। यह सब कुछ होने से पहले वे दोनो मिलकर अपने सदगुरू को जंगल दिखाने के लिए एक छोटा सा मार्ग बना रहे थे।
      उनहोंने इतने लम्‍बे समय तक संकल्‍पपूर्वक उस काम को किया था कि जब उसे छोड़ देने का समय आ गया तब भी वे दोनों अकेले ही जुटे रहे। जब अन्‍य हर व्‍यक्‍ति मशीनों को बेचने के लिए उन्‍हें वापस ला रहा था, तब भी वे दोनों चीड़ के जंगल ते पहुचने का प्रयास कर रहे थे। इस आशा में कि शायद ओशो वापस आ जाए।
      जैसे-तैसे सप्‍ताह और महीने बीतते गए—संन्‍यासियों की ऊर्जा छलक-छलक जाती थी। संभाले न संभल रही थी। जब ओशो कार चलाते हुए गुजरते उस समय सड़क के दोनो और खड़े होकर उन्‍हें नमस्‍कार करना ही पर्याप्‍त न था। एक दोपहर जब ओशो कार-ड्राइव कर रहे थे। इटालियन संन्‍यासियों का एक छोटा सा ग्रुप सड़क के किनारे खड़ा होकर ओशो के लिए संगीत बजाने लगा। वे कुछ देर रुके और संगीत का आनंद लिया। और फिर तो क्‍या एक सप्‍ताह के भीतर ही घाटी की सड़क पर गाते-नाचते लाल रंग के वस्‍त्र पहने संन्‍यासियों की कतार लग गई। लाओत्‍सु गेट से लेकर बाँध तक तथा बाशो सरोवर के पार, रजनीश मंदिर के बाद धूल भरी सड़क के साथ-साथ नीचे रजनीशपुरम की ऊपर पहाड़ियों तक। यह तो शुरू आत थी उस उद्दाम उत्‍सव की । आनेवाले वर्षों में भीषण गर्मी और कड़कती सर्दी के बीच भी प्रतिदिन चलता रहा। यह उन लोगो के आनंद का सहज विस्‍फोट था जिनके पास ओशो के प्रति अपना प्रेम अभिव्‍यक्‍त करने का यही एक उपाय था।
      विश्‍व-भर से संगीत वाद्य आने शुरू हो गए जिनमें सबसे लोकप्रिय थ ब्राजीलियन ड्रम: परंतु बांसुरियां, वायलिन, गिटार, डफलियां—सभी आया में को झकझोर दिया। वाद्य यंत्र, सैक्‍सो फ़ोन, क्‍लारिनेट, ट्रमपेट—हमारे पास सब थे। जिनके पास वाद्य नहीं थे अपने स्‍थान पर खड़े-खड़े गाते उछलते नाचते रहे।
      ओशो को अपने लोगों को प्रसन्‍न देखना बहुत अच्‍छा लगता था। वे इतनी धीरे कार चलाते कि रोल्‍स रॉयस के इंजन की विशेष ढंग से ट्युन करना पडा। वे संगीत की ताल और धुन पर अपने हाथ हिलाते और कुछ संगीत कारों के पास तो कुछ देर रूक भी जाते। मनीषा जो ओशो की माध्‍यमों में से एक थी और जिसे बाद में ओशो का रिकार्डर बनना था। (जैसे प्लेटों सुकरात का था) उत्सव कारी मनाने वाले अपने एक छोटे समूह के साथ वहां होती। ओशो उसके सामने रुकते और मैं उसे डफ़ली और लहराते रिब्‍बनों के साथ हर्षोंन्मादक के उद्दाम चक्रवात में विलीन होते देखती रहती। उसके लम्‍बे काले बाल उसके चेहरे के आस-पास उड़ते उसका शरीर हवा में उछलता फिर भी उसकी काली आंखें शांत और स्‍थिर हो ओशो को निहारती रहती। ओशो अपने बोंगोवादक रूपेश के साथ अधिक समय बिताते, रूपेश के माध्‍यम से ओशो का ड्रम बजाना कुछ आलोकिक था। भारतीय कीर्तन तथा ब्राजीलियन संगीत के सम्‍मिश्रण के बावजूद संगीत में एक अद्भुत समस्‍वरता थी। लयबद्धता थी। उत्‍सवकारियों की कतार के साथ-साथ ड्राइव करते हुए लगभग दो घंटे लग जाते क्‍योंकि ओशो किसी भी ऐसे व्‍यक्‍ति के लिए बाधा नहीं बनना चाहते थे जो वास्‍तव में उसमे डूब रहा हो। जब वे अपनी बांहें हिलाते कार ऊपर नीचे उछलती तथा मैं सदा अचम्‍भित रहती कि उनकी बांहों में इतनी देर तक कहां से इतनी शक्‍ति आ जाती है।
      वह ड्राइव—बाई, किसी भी ऊर्जा दर्शन की भांति अंतरंग सघन थी। कभी-कभी मैं ओशो के साथ कार में होती और इसलिए उन लोगों के चेहरे देख पाती थी। यदि इस पृथ्‍वी ग्रह को बचाने का कोई उपाय हो सकता था तो वह बस यही था। कतार में खड़े लोग कभी कल्‍पना भी नहीं कर सकते थे कि वे कितने सुंदर दिखाई देते है। मैं प्रात: आनंद विभोर हो जाती, अश्रु बहने लगते और एक बार मेरी सूं-सूं की आवाज सुनकर ओशो ने पूछा—
      तुम्‍हें जुकाम है।
      नहीं ओशो मैं रो रही हूं।
      हुं रो रही हो, क्‍या हुआ है?
      कुछ नहीं, ओशो, बस यूं ही यह सब कितना सुंदर है?
      घर वापस पहुंचे, ओशो के दांतों में बहुत तकलीफ़ थी। उनके नौ दांतों की रूप कनॉलिंग हो चुकी थी। जब चिकित्‍सा चल रही थी तब उन्‍होंने इस अवसर का पूरा लाभ उठाया और दंत चिकित्‍सक की गैस के प्रभाव में वे बोलते रहे। ओशो के दंत चिकित्‍सक देवगीत के लिए ऐसे मुख पर अपना कार्य करना सरल बात न थी जो अधिकतर समय हिलता रहे। ओशो ने तीन पुस्‍तकें बोली।
      हमें लगा कि यह सब रिकार्ड करने योग्‍य है और हमने वह सब रिकॉर्ड कर लिया जो उनहोंने बोला। तीन पुस्‍तकें, ग्‍लिम्‍प्‍सिस ऑफ़ गोल्‍डन चाइल्‍ड हुड’, बुक्‍स आई हैव लव्‍ड’, नोटस ऑफ ऐ मैडमैन विलक्षण है। एक दिन कार-भ्रमण के दौरान कुछ घुड़सवार ग्‍वालों ने ओशो की कार पर पत्‍थर फेंके। वे निशाना चूक गये परंतु मैंने उन लोगों को अच्‍छी तरह देख लिया था। उस समय ओशो की कार के पीछे हमारे सुरक्षा दल के पाँच व्‍यक्‍ति थे जिनमे से एक ने भी कुछ देखा नहीं कि वहां क्‍या हुआ था,  यद्यपि मैंने मोटरोला पर उनके साथ सम्‍पर्क भी स्‍थापति किया था।
      ड्राइव के पश्‍चात मुझे जीसस ग्रोव (शीला का घर) जाकर सुरक्षा दल के सामने कुछ बोलने को कहा गया। मैं उस दिन की नायिका थी। मेरा अहंकार फूल उठा तथा अपने भीतर एक तीव्र ऊर्जा प्रवाह अनुभव किया,कमरे में बैठा हर व्‍यक्‍ति मुझे सुन रहा था और मैं समझ रही थी कि किस प्रकार उन्हें अपना काम बेहतर ढंग से करना चाहिए। मीटिंग लंच के समय समाप्‍त हुई। मैं बस पकड़ने के लिए कैनटीन की और चल दी, बस स्‍टॉप पर खड़े मैं स्‍वयं को, ऊँचा महसूस कर रही थी। भीतर मैं बोलती जा रही थी, बात करना बंद नहीं हो रहा था, बातों का सैलाब मेरे साथ बहे चला जा रहा था। अचानक भीतर एक घिनौना-सा धमाका हुआ—मैंने देखा यह है सत्‍ता, सत्‍ता की अनुभूति ऐसी होती है। यह वह नशीला पदार्थ है जिसके कारण लोग ख़रीदे जा सकते है। तथा जिसके लिए लोग अपनी आत्‍मा तक बेच डालते है।
      शीला अपने ग्रुप के लोगों को सत्‍ता प्रदान कर या छीनकर उन्‍हें अपने नियन्‍त्रण में रखती थी। मेरे विचार में सत्‍ता एक नशा है तथा नशीले पदार्थों की भांति यह व्‍यक्‍ति की चेतना को नष्‍ट कर देता है। सत्‍ता लोभ उस व्‍यक्‍ति को कभी नहीं पकड़ सकता जो ध्‍यानी है। फिर भी यह बड़ी विचित्र बात है। हमनें शीला को कम्‍यून पर पूरी तरह सत्‍ता का प्रयोग करने दिया। लोग रजनीशपुरम में ओशो के कारण रहना चाहते थे,उनकी सन्‍निधि में रहना चाहते थे और वहां से निकाल दिए जाने की धमकी ऐसी बात थी जिससे शीला के हाथ ताकत आ गई। मेरा विचार है कि हम भी उस समय स्‍वयं की जिम्‍मेदारी लेने को तैयार नहीं थे। जो कुछ हो रहा है उसकी ज़िम्‍मेदारी स्‍वयं पर लेने की बजाएं निर्णय लेने का और व्‍यवस्‍था करने का काम किसी दूसरे पर छोड़ना बहुत सरल है। जिम्‍मेदारी का अर्थ है स्‍वतंत्रता,और जिम्‍मेदारी के लिए एक विशेष प्रकार की पौढ़ता चाहिए। पीछे मुड़कर देखें तो लगता है हमे बहुत कुछ सीखना था।
      जब मैं विदा हो जाऊँगा, तो मुझे उस व्‍यक्‍ति के रूप में स्‍मरण करना जिसने तुम्‍हें स्‍वतंत्रता और निजता दी है। –ओशो
      .....ओर उन्‍होंने दी है, निससन्‍देह दी है।
      मैं जो हूं वैसा होने की स्‍वतंत्रता अपने व्‍यक्‍तित्‍व की झूठी परतों से गुजरकर स्‍वयं की खोज के साथ शुरू हो चुकी है। वैयक्‍तिक विशिष्‍टता स्‍वयं को अभिव्‍यक्‍ति करने के साहस से ही मिलती है। भले ही इसका अर्थ यह हो कि मैं किसी भी दूसरे व्‍यक्‍ति से भिन्‍न हूं। मेरी निजता, मेरी वैयक्‍तिकता तथा विकसित हो सकती है। जब मैं स्‍वयं को स्‍वीकार कर सकूं और बिना किसी निर्णय के कह सकूं यह मैं हूं, मैं ऐसी ही हूं।
      यद्यपि हमारे घर पर पाँच टावर में शीला के सुरक्षा दल का पहरा चौबीस घंटे रहता, फिर भी प्रत्‍येक रात्रि हमारे ट्रेलर में से किसी एक को बारी-बारी उठकर तैयार होना पड़ता—जिसका अर्थ था पूरी तैयारी क्‍योंकि बाहर शून्‍य डिग्री से नीचे तापमान होता, प्रात: वर्षा या हिमपात हो रहा होता—और हमें मोटरोला के साथ घर के आस पास चक्‍कर लगाने होते और उस समय घना अंधकार, फिसलता और भयावह वातावरण होता। स्‍विमिंग पूल के अंतिम छोर पर ढलान पर चढ़ते हुए बांस के पेड़ो में रेंगते हुए मैं उस नाले के ऊपर से कूद जाती जिसमे से विचित्र मरमर की ध्‍वनियां सुनाई देती थी और प्रात: इस स्‍थान पर मोटरोला में से एक चीख़ निकलती। मैं शव की भांति अकड़े खड़ी धड़कते ह्रदय से बर्फ़ से जमे अपने मुख पर एक बे-आवाज चीख़ लिए अंधेरे को एकटक घूरती रहती। यह हम से बदला लने की शीला कीओर से शुरू आत थी। अभी उसकी ईर्ष्‍या को पागलपन की सीमाओं को पार करना था क्‍योंकि हम ओशो के निकट थे।
      बदले में हम इस बात का पूरा ध्‍यान रखते कि शीला किसी भी तरह हमारे जाने बिना घर में प्रवेश न कर सके। वह घर के दरवाजे का ताला बदलने के लिए आने आदमियों को भेजती और विवेक आशीष को औज़ारों की दूकान से एक कूँड़ी चुराकर(इसके सिवाय और कोई रास्‍ता नहीं था। लाने के लिए भेजती और दरवाजे के दूसरी और उसे लगवा कर नया ताला लगवा देती। सह विवेक के जीवन को बचाने के लिए था। शीला ने अपने चार व्‍यक्‍तियों को क्लोरोफार्म और विष से भरी सिरिजदेकर विवेक के कमरे में भेजा। विवेक के मित्र राफिया को किसी काम से उस रात रैंच से बाहर भेज दिया। परंतु हत्‍या करने का प्रयत्‍न किसी कारण विफल कर दिया गय। क्‍योंकि वे घर व घर के भीतर प्रवेश न कर सके। जब तक शीला ने रैंच छोड़ नहीं दिया और उसके गिरोह के कुछ व्‍यक्‍तियों की एफ. बी. आई. द्वारा पूछताछ नहीं हो गई हमने इस षड्यन्‍त्र के बारे में कुछ खोज नहीं की।
      जून 1984 की बात है मुझे शीला ने फोन किया। उसकी आवाज में ऐसा लगा कि वह बहुत ही प्रसन्‍न है मानों उसके हाथ लौटरी लग गई हो और वह इतनी जोर से चिल्‍ला रही थी कि मुझे टेलीफ़ोन चोगे को कान से दो फुट दूर रखना पडा।
      हमारे हाथ में जैक पॉट लग गया।
      वह चीख़ती सी आवाज में बोल रही थी।
      यह सोचते हुए कि कोई बहुत बड़ी बात हो गई है, मैंने पूछा कि क्‍या हो गया है। और उसने उत्‍तर दिया कि पता चला है कि देवराज, देवगीत और आशु जो ओशो के दांतों की देखभाल करते है उन्‍हें आंखों का संक्रामक रोग कॉन्‍जंक्‍टिवायटिस है। इससे यह सिद्ध होता है, उसने कहा, कि वे गंदे सुअर है। और उन्‍हें ओशो की देखभाल नहीं करनी चाहिए।
      मैंने यह सोचते हुए टेलीफ़ोन नीचे रख दिया कि हे परमात्‍मा यह औरत वास्‍तव में भटक गई है।
      दूसरा क़दम यह था कि वह चाहती थी कि पूजा आकर ओशो की आंखों की जांच करे। पूजा जो नर्स मैन्‍गेले के नाम से जानी जाती थी। न तो कोई उसे चाहता था और न ही विश्‍वास करता था। उसका चेहरा सांवला था और ऐस फूला हुआ था जैसे सूजा हुआ हो। आंखें जो मात्र एक चीर थी। जो सदा रंगीन चश्‍मे के पीछे छिपी रहती थी। मैंने ओशो को बताया कि शीला, पूजा को उसकी आंखों की जांच करने के लिए भेजना चाहती है। उन्होंने कहा कि, जबकि इस रोग का कोई उपचार ही नहीं है और रोगियों को अलग रखने की जरूरत होती है, फिर इसकी क्‍या आवश्‍यकता है।
      शाली ने इस बात पर जोर दिया कि घर के सभी व्‍यक्‍ति जाकर अपनी आंखों की जांच करवाएं। अत: निरूपा, जो ओशो की देखभाल करती थी, को छोड़कर हम सब चिकित्‍सा केंद्र गए। और क्‍या आप विश्‍वास करेंगे कि हम सब उस रोग से ग्रस्‍त थे। विवेक, देवराज, देवगीत और मुझे एक कमरे में रखा गया। और बाद में शीला के दूसरे बाहर लोग जिनमे सविता भी थी हमारे साथ शामिल हो गये। सविता वही महिला थी जो मुझे इंग्‍लैंड में मिली थी और अब एकाउंटस का सारा काम उसी के अधिकार में था। इसके बाद जिस ढंग से जांच की गई वह इतनी भद्दी थी कि मैंने संकल्‍प कर लिया कि यदि ओशो का देहावसान पहले हो जाता है तो मैं निश्‍चित रूप से आत्‍म हत्‍या कर लुंगी। कमरे में प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति के पास कुछ अप्रिय, घृणित बात कहने के लिए थी। ऐसा प्रतीत होता था जैसे नीचे विचारों की शराब बहुत समय से तैयार हो रही थी। और उन्‍हें हमारे उपर उंडेलने का अवसर मिल गया था। सविता कहती रहती कि प्रेम सदा सुखद नहीं होता वह दुःख भी होता है। हम पर ओशो को देखभाल ठीक से न करने का आरोप लगया जाता। वे लोग ओशो के बारे में कुछ इस प्रकार बातें करते जैसे कि उन्‍हें वास्‍तव में  पता नहीं कि वे क्‍या कर रहे है। उन्‍हें आवश्‍यकता है किसी की जो उनके लिए सोच सके।
      यद्यपि हममें रोग के कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहे थे परंतु चिकित्‍सकों के जांच-परिणाम को लेकिर हम बहस नहीं कर सकत थे।
      अगले दिन ओशो के दाँत में दर्द शुरू हो गया तथा उन्‍होंने राज,गीत और आशु को परिचर्या के लिए बुलाया। शीला ने अपने डॉक्‍टर और दंत-चिकित्‍सक को भेजने का प्रयास किया परंतु ओशो ने मना कर दिया। उन्‍होंने कहा खतरे की परवाह न करते हुए उन्‍हें अपने लोगों को पास रखना स्‍वीकार है। ।अंतत: वे तीनों ओशो गृह में लौट गए। वहां उन्‍हें पूरी तरह कीटाणु मुक्‍त किया गया और उन्‍हें ओशो के उपचार की अनुमति मिल गई।
      पूरे कम्‍यून का इस रोग के लिए जिसे ओशो बोगस डिसीज (झूठा रोग) कहते थे। परीक्षण किया गया और प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति में यह रोग पाया गया। चिकित्‍सा केंद्र पर लोगों की भीड़ जमा होने लगी। कम्‍यून की देखभाल के लिए कोई नहीं बचा। अंतत: एक डॉक्‍टर ने नेत्र विशेषज्ञ से बात की और पता चला कि परीक्षा करते समय कार्निया पर जो छोटे-छोटे धब्बे दिखाई दे रहे थे वे ऐसे किसी भी व्‍यक्‍ति के लिए साधारण बात थी जो शुष्‍क और धूल भरी जलवायु में रहता है।
      तीन दिन के पश्‍चात हमें वापस अपने घर भेज दिया गया। ड्राइव-वे पर चलते हुए मैंने देखा कि हमारा सारा सामान रास्‍ते पर और लॉन में बिखरा पडा है। तो मुझे बहुत हैरानगी हुई। सफ़ाई करनेवाले एक दल ने शीला की आज्ञानुसार हमारे घर का सारा सामान यह कहकर बाहर फेंक दिया था कि वह दूषित हो गया था। हमारे ऊपर अलकोहल का छिड़काव किया गया। और उसके पश्‍चात हमारा एक और परीक्षण से स्‍वागत हुआ। और इस बार एक टेपरिकार्डर जिसे शीला ने इसलिए लगवाया था कि जो कुछ भी कहा जाए उसकी सही-सही रिपोर्ट उसे मिल सके। यह सब बताने के लिए विवेक ओशो के कमरे में गई। जब वह उनका यह संदेश लेकिर लौटी कि वे लोग यह सब बकवास बंद कर वापस लौट जाएं तो किसी ने भी उसका विश्‍वास नहीं किया। यह तो शिकारी कुत्‍तों को उस समय वापस बुलाने जैसी बात थी जब उन्‍होंने शिकार की माँद सूंघ ली हो। उन्‍होने कहा, विवेक झूठ बोल रही है। हम उठे और वहां बैठे सभी लोगों को छोड़कर चल दिए। प्रतिपाद जो शीला की टीम में एक थी, पूरे जोर से टेप-रिकार्डर में चिल्‍ला-चिल्‍लाकर गालियां दे रही थी क्‍योंकि अब वहां कोई बचा ही नहीं था जिस पर वह चिल्‍ला सके।    
      अगले दिन अपने कमरे में ओशो ने कुछ लोगों की मीटिंग बुलाई इसमे सविता, शीला तथा उसके कुछ अनुयायी भी थे। ओशो ने कहा कि यदि हम मिलकर प्रेमपूर्वक नहीं रह सकते तो वे 6 जूलाई को अपना शरीर छोड़ देंगे। कम्‍यून के बाहर पहले ही पर्याप्‍त संघर्ष चल रहा था। उन्‍होंने सत्‍ता के दुरूपयोग की चर्चा की।
       इस घटना के कुछ दिन पश्‍चात ओशो ने कम्‍यून में रहनेवाले इक्‍कीस व्‍यक्‍तियों की सूची दी जो सम्‍बोधि को उपलब्‍ध थे। इसने हलचल मचा दी। यह धमाका ही कम न था कि तीन और संसदों की घोषणा की गई 8 जिनमें सम्‍बुद्ध, महासत्‍व तथा बोधिसत्‍व शामिल थे। ओशो के साथ कुछ घट जाने पर ये लोग कम्‍यून का कार्य भर संभालेंगे। न तो शीली का नाम किसी भी सूची में था और नहीं उनके किसी अंतरंग मित्र का। ऐसा करके ओशो ने शीला के उतराधिकारी होने की सभी सम्‍भावनाएं समाप्‍त कर दी। उसके हाथ कोई शक्‍ति न रही।
      एक बुद्ध पुरूष कैसे जीता है और किस प्रकार हम पर कार्य करता है....उस दिन की घटना द्वारा बताया जा सकता है। जब मैं उनके साथ कार में जा रही थी।
      कार में एक मक्‍खी थी जो हमारे सिरों के ऊपर भिनभिना रही थी। मैं उसे पकड़ने के चक्‍कर में अपनी दोनों बांहें घूमा रही थी। हम एक चौराहे पर जाकर रुके और ट्रैफिक के चलने की प्रतीक्षा करने लगे। मैं खिड़कियों और सीटों पर हाथ मार रही थी। ओशो सामने देखते हुए शांत बैठे थे और मैं मक्‍खी को पकड़ने के लिए पसीना-पसीना हो रही थी। अपना सिर बिना घुमाएं, यहां तक कि बिना आंखें घुमाएं.....उन्‍होंने खिड़की पर लगा स्‍वचलित बटन बड़ी कोमलता से दबाया। उनकी और से खिड़की का शीशा नीचे हुआ और वे चुपचाप प्रतीक्षा करते रहे। जब मक्‍खी उन के पास से उड़ी तो उन्‍होंने धीरे से अपना हाथ हिलाया और मक्‍खी खिड़की से बाहर उड़ गई। फिर उन्‍होंने बटन को छुआ तथा खिड़की बंद हो गई। उन्‍होंने एक बार भी आंखें सड़क से नहीं हटाई। कितना ज़ेन, कितना गरिमापूर्ण।
      शीला के साथ भी उनकी यहीं ढंग था। जब तक वह स्‍वयं निर्वासित नहीं हो गई उन्‍होंने गरिमापूर्ण ढंग से प्रतीक्षा की। वे अब भी उसके गुरु थे। उसे प्रेम करते थे और उसके भीतर बैठे बुद्ध में उनका विश्‍वास था।
      मुझे मालूम है कि ओशो को शीला पर भरोसा था क्‍योंकि मैं उन्‍हें पिछले पंद्रह वर्षों से देख रही हूं। और वह साक्षात श्रद्धा है; आस्‍था है। जिस ढंग से उन्‍होंने अपना जीवन जीया वह आस्‍था था और जि ढंग से उन्‍होंने शरीर छोड़ा वह भी यही दर्शाता है। उनकी आस्‍था कितनी गहरी थी।
      मैंने उनसे पूछा कि एक आस्‍थावान और भोले-भाले सीधे व्‍यक्‍ति में क्‍या अंतर है। तो उन्‍होंने कहा कि सीधा-साधा होने का अर्थ है बुद्धू और आस्‍थावान का अर्थ है बुद्धिमान।
      धोखा दोनो के साथ होगा, ठगे दोनों ही जाएंगे परंतु भोले-भाले व्‍यक्‍ति को लगेगा कि उसके साथ धोखा हुआ है, छल हुआ है। उसे क्रोध आएगा। लोगों पर उसकी आस्‍था मिटने लगेगी। उसका भोलापन आज नहीं तो कल अविश्‍वास में बदल जायेगा।
      और वह व्‍यक्‍ति जो आस्‍थावान है। धोखा उसके साथ भी होगा। छल उसके साथ भी होगा; परंतु उसे चोट नहीं पहुँचेगी। जिन लोगों ने उसे धोखा दिया है उन पर भी उसकी करूणा ही बरसेगी और उसकी आस्‍था में कोई अंतर नहीं आएगा। छल और कपट के बावजूद उसकी आस्‍था बढ़ती जाएगी। उसकी आस्‍था कभी मानवता के प्रति अनास्‍था का रूप न लेगी।
      शुरू में वे दोनों एक समान दिखाई देते है। परंतु अंत में भोले होने का गुण अनास्‍था में बदल जाता है। और आस्‍थावान होने का गुण और भी आस्‍थावान और भी करूणा वान तथा मानवीय दुर्बलताओं के प्रति समझ को और भी गहरा बना देता है। आस्‍था इतनी मूल्यवान है कि अपना सब कुछ खोया जा सकता है। लेकिन आस्‍था खोई नहीं जा सकती।(बियॉंड इनलाइटमेंट)
      कभी-कभी मुझे आश्‍चर्य होता कि क्‍या ओशो भविष्य द्रष्टा है। क्योंकि यदि मुझे आनेवाली घटनाओं की झलक कभी-कभी मिल जाती है। तो उन्हें तो निश्‍चित ही पूरा चित्र ही दिखाई दे जाता होगा। ऐसा तो मैं समझती हूं यद्यपि उनकी पूरी शिक्षा यही है—वर्तमान में होना। यही पल सब कुछ है। भविष्‍य की कौन चिंता करे। मैं अब जी रही हूंओशो
      विवेक शीला से मिलने जीसस ग्रोव गई। एक कप चाय पीने के बाद वह बीमार हो गई। और शीला उसे घर छोड़ने आई। मैंने अपने धुलाई के कमरे की खिड़की से उन दोनों को देखा। शीला ने विवेक को ऐसे सँभाला हुआ था जैसे वह चल ही न पा रही हो। देवराज ने उसका परीक्षण किया, उसकी नब्‍ज़ एक सौ साठ और एक सौ सत्‍तर के बीच चल रही थी। उसके ह्रदय की गति भी असामान्‍य थी।
      कुछ दिनों पश्‍चात ओशो ने अपना मौन भंग किया तथा अपने कमरे में प्रवचन प्रारम्‍भ किए। कमरे में लगभग पचास लोगों के लिए ही स्‍थान था। इसलिए हम बारी-बारी से जाते और प्रवचन का विडियो; अगली सन्‍ध्‍या रजनीश मंदिर में पूरे कम्‍यून को दिखाया जाता। वे आज्ञाकारिता के विरोध में विद्रोह पर स्‍वतंत्रता और उतरदायित्‍व पर बोले और उन्‍होंने यह भी कहा कि वे हमे तानाशाही शासन के हाथों में नहीं सौंप देंगे। उन्‍होंने कहा की अन्ततः: वे उन लोगों से जो उन्‍हें स्‍वीकार करते है। वहीं कह रहे है। जो उन्‍हें कहना ही है। तीस वर्षों से वह अपना संदेश बुद्ध,महावीर,जीसस इत्‍यादि के सुत्रों के बहाने दे रहे है। अब धर्मों के बारे में नग्‍न सत्‍य कहने वाले है। उन्‍होंने बार-बार इस बात को बलपूर्वक कहा कि बुद्धत्‍व की प्राप्‍त करने के लिए कुंवारी कोख से जन्‍म लेना अनिवार्य नहीं है। वास्‍तवमें बुद्ध पुरूषों के सम्‍बंध में सभी कहानियां पंडितों ने घड़ रखी है।
      मैं आपकी भांति एक साधारण मनुष्‍य हूं, अपनी सभी दुर्बलताओं के साथ सभी कमियों के साथ। इस बात पर निरंतर जोर देने की आवश्‍यकता है क्‍योंकि तुम इसे भूल-भूल जाओगे। मैं इस पर इतना जौर क्‍यों दे रहा हूं....ताकि तुम इस महत्‍वपूर्ण बात को समझ पाओ। कि यदि एक साधारण मनुष्‍य, जो बिल्‍कुल तुम्‍हारे जैसा है—बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हो सकता है तो तुम्‍हारे लिए भी कोई कठिनाई नहीं है। तुम भी बुद्धत्‍व को प्राप्‍त हो सकते हो।
      मैंने तुम्‍हें कोई वचन नहीं दिया, कोई प्रलोभन नहीं दिया है, ओ कोई आश्‍वासन नहीं दिया है। मैं तुम्‍हारी और से कोई जिम्‍मेदारी नहीं ले सकता हूं। क्‍योंकि मैं तुम्‍हारा आदर करता हूं। यदि मैं अपने ऊपर कोई ज़िम्‍मेदारी लेता हूं तो तुम गुलाम हो गए। तब मैं नेता हूं, तुम अनुयायी हो। हम सहयात्री है। तुम मेरे पीछे नही हो लेकिन मेरे साथ हो—बिलकुल मेरे साथ-साथ। मैं तुमसे महान नहीं हूं....बस तुम मैं से ही एक हूं......मैं किसी श्रेष्‍ठता या किसी विशिष्‍ट शक्‍ति का दावा नहीं करता। क्‍या तुम इस बात को समझते हो। तुम्‍हारे जीवन के प्रति तुम्‍हें उतरदायी बनाने का अर्थ है तुम स्‍वतंत्रता देना।
      स्‍वतंत्रता एक बहुत बड़ा खतरा है, जोखिम है....कोई भी व्‍यक्‍ति वास्‍तव में स्वतन्त्रता नहीं होना चाहता। ये सब बातें है। प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति निर्भर रहना चाहता है। प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति यही चाहता है कि कोई उसका दायित्‍व ले ले। स्‍वतंत्रता में तुम अपने प्रत्‍येक कृत्‍य, प्रत्‍येक विचार, प्रत्‍येक गतिविधि के स्‍वयं उत्‍तरदायी होते हो। तुम अपनी कोई बात किसी पर लाद नहीं सकते।
      मुझे स्‍मरण है कि एक बार जब बहुत अस्‍त-व्‍यस्‍तता थी तथा विवेक को कठिनाई आ रही थी तो ओशो ने थोड़ी हैरानगी से देखते हुए मुझसे कहा था:
      तुम बहुत शांत हो।
      मैंने उत्‍तर दिया कि वह उन्‍हीं के सहयोग के कारण है। उन्‍होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन मुझे लगा कि मेरे शब्‍द हवा में जग गए है तथा बिखर कर मेरे पैरों पर गिर पड़े है। मैं अपनी शांति तक का दायित्‍व भी नहीं उठा सकी।
      उन्‍होंने पूछा कि अब मुझे कम्‍यून कैसा लगता है। यही प्रश्‍न उन्‍होंने अपने मौन के समय पूछा था। मैंने उत्‍तर दिया कि अब उन्‍होंने पुन: बोलना आरम्‍भ कर दिया है इसलिए अब यह उनका कम्‍यून प्रतीत होता है। अब यह शीला का कम्‍यून नहीं लगता।
      शीला का बुलंद सितार डूबने लगा। अब ऐसा नहीं था कि केवल वही ओशो को मिल सकती है। अब हर कोई उन्‍हें देख पाता और इतना नहीं प्रवचन के लिए हम भी उनसे प्रश्‍न पूछ सकते थे। ओशो जो कुछ बोल रहे थे लोगों की आंखें खोल देनेवाला था।
      ईसाइयत पर उनके प्रवचन उन लोगों के लिए भी; जो उन्‍हें वर्षों से सुन रहे थे गहरी चोट करनेवाले थे। जो जैसा है ओशो उसे वैसा ही कह रहे थे। दूध का दूध और पानी का निपटारा कर रहे थे।
      निश्‍चित ही इन प्रवचनों ने कट्टर ईसाइयों के ह्रदय में कही गहरे में भय उत्‍पन्‍न कर दिया होगा। उनके पास वैध टूरिस्‍ट बीजा नह था यह उसका कारण नहीं हो सकता है। शीला ने पूरे कम्‍यून के लिए सभा बुलाई, जो रजनीश मंदिर में होने वाली थी। विवेक को संदेह था कि शीला ओशो को बोलने से मना करने की चेष्‍टा करनेवाली है। इसलिए हमने एक योजना बनाई कि हममें से कुछ लोग मंदिर में इधर-उधर बिखर कर बैठ जाएंगे। उन्‍हे बोलने दो। इस प्रकार लोग जान जायेंगे कि क्‍या हो रहा है। तथा प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति इसमे शामिल हो जाएगा। और कहने लगेगा की उन्‍हें बोलने से न रोका जाये। मैं मंदिर में पीछे बैठ गई तथा अपनी जैकेट में छिपाया हुआ टेप-रिकार्डर चला दिया ताकि मीटिंग की बातें सही-सही रिकॉर्ड हो सके। शीला ने बोलना शुरू किया—आने वाले उत्‍सव के कारण कार्य भार बढ़ गया है और पिछला शेष कार्य(बैक-लॉग) भी है। उत्‍सव की तैयारी के साथ-साथ प्रवचन में जा पाना सम्‍भव नहीं होगा। मेरा विचार....
      मैं गला फाड़कर चिल्‍लाई, उन्‍हें बोलने दें,उन्‍हें बोलने दें। एक चुप्‍पी....
      मेरे अराजकतावादी संगी-साथी कहां थे? उन्हें बोलने दें......मैं चिल्‍लाती जा रही थी। लोग आस-पास देखने लगे कि कौन मूर्ख सभा को भंग करने का प्रयत्‍न कर रहा है। मैंने उनके चेहरों पर संदेह का भाव देखा—चेतना, चेतना। लेकिन वह तो बहुत शांत प्रकृति की है। जरूर पागल हो गई होगी।
      प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को मालूम था कि पिछला शेष-कार्य कुछ भी नहीं था परंतु कोई भी समझ नहीं पा रहा था की शीला क्‍या चाहती थी। अत: सब गड़बड़ हो गया और सभा एक समझौते के साथ समाप्‍त हो गई। हमारे सदगुरू जो कहते है कि समझौते कभी मत करना और हमने अनजाने में समझौता कर लिया था। जिसका परिणाम यह निकला कि ओशो प्रत्‍येक रात्रि कुछ व्‍यक्‍तियों के सामने बोलेंगे तथा उनकी वीडियो हमें बारह घंटे काम करने के बाद रात्रि-भोजन के उपरांत दिखाई जायेगी। वह अलग बात थी कि उनका सबसे अधिक निष्‍ठावान समर्पित शिष्‍य भी विडियो के दौरान सो जाता था। केवल इतना ही नहीं कि उनके वचन सुनाई न देते बल्‍कि जागे न रह पाने के कारण उन्‍हें अपराध भाव भी महसूस होता।
      एकबार रैंच पर जब विवेक ओशो के साथ ड्राइव पर थी तो खाड़ी (क्रीक) के पास वे कुछ लोगों के समूह के पास से गुज़रे जो कुछ सूखी टहनियाँ व  पत्‍थर उठा रहे थे।
      वे क्‍या कर रहे है?’ ओशो ने पूछा।
      वे अवश्‍य ही पिछला शेष कार्य(बैक-लॉग) ढूंढ रहे होंगे, विवेक ने कहां।
      पिछले शेष-कार्य को ढूंढना सभी संन्‍यासियों के लिए एक मजाक बन गया।
      ओशो बहुत बीमार पड़ गए तथा उनकी देखभाल के लिए एक विशेषज्ञ को बुलाया गया। उनके कान के माध्‍य भाग में इन्‍फेक्‍शन हो गया। और छह सप्‍ताह तक उसमें बहुत पीड़ा होती रही। प्रवचन और कार-ड्राइव भी बंद करने पड़े।
      मैं लगभग एक वर्ष से उद्यान में काम कर रही थी तथा ओशो के कपड़ों की धुलाई विवेक कर रही थी। मैं अपने मानसिक आघातों तथा परेशानियों से अछूती न थी। पेड़ों और पौधों के बीच कार्य करने से कुछ राहत मिलती थी। अब ओशो गृह के चारों और सैकड़ों वृक्ष थे—चीड़, ब्‍लू स्प्रूस और रेडबुड के वृक्ष रोपित कर दिए गये थे। और उनमें से कुछ साठ फुट ऊंचे हो चुके थे।
      स्‍विमिंग पूल के पास ओशो की खिड़की के निकट एक जल-प्रपात था जो वेदमजनूं (वीपिंग-विल्‍लो) पेड़ों से घिरे ताल में जा गिरता।
      वहीं एक छोटी सी जलधारा थी जिसके किनारे पुष्‍पित चेरी के पेड़, ऊंची पैम्‍पस घास, बांस और मंगोलिया वृक्ष लगे थे। ओशो के भोजन कक्ष के ठीक सामने गुलाब के फूलों की एक बगिया थी और उनके कार पोर्च में एक फव्‍वारा था जहां बुद्ध की आदमक़द मूर्ति थी। ड्राइव-वे के दोनों और पॉपलर वृक्षों (पहाड़ी-पीपल) की कतार थी। और इसका अंत रजत भूर्ज (बर्ची) पेड़ों की बनी में जाकर होता। अब तक लॉन हरियाली से भर गए थे। आस-पास की पहाड़ियों पर जंगली फूल खिले थे।
      उद्यान में तीन सौ मोर थे। जो अपने मन-मोहक रंगों से नृत्‍य करते। उनमें से छह शुभ्र श्‍वेत थे और छहों सबसे अधिक नटखट थे। वे ओशो की कार के सामने अपने हिम कणों जैसे पंखों को पंखे की भांति फैलाकर खड़े हो जाते तथा उनकी कार को वहां से गुजरने द देते। ओशो को हमेशा उद्यानों और सुंदर पशु-पक्षियों के बीच रहना प्रिय था। वे चाहते थे की रजनीशपुरम में एक हिरण पार्क भी बनाया जाए। हिरणों के लिए हमें...अलफा-अलफा (लहसुन घास) भी उगाना था ताकि वे इससे आकर्षित हो शिकारियों से दूर रह सकें। उन्‍होंने भारत में एक ऐसे स्‍थान का उल्‍लेख किया जहां वे एक झरने के पास जाया करते थे। वहां सैकड़ों की संख्‍या में हिरण थे। वे रात्रि के समय वहां पानी पीने के लिए आते थे। उनकी आंखें ऐसे चमकती थीं जैसे हजारों लपटें अंधेरे में नृत्‍य कर रही हों।
      बाशो ताल से पहले उद्यान के नीचे की और पुल के एक और काले व दूसरी और सफेद हंस रहत थे। वहां बहुचर्चित छियानवे रोल्‍स रॉयस कारों का गैरेज था। भारत में ओशो की एक मरसीडीज़ को लेकर इतना हंगामा हुआ था लेकिन अमेरिका में इस उद्देश्‍य की पूर्ति के लिए सौ रॉल्स कारों की आवश्‍यकता पड़ी।
      बहुत से लोगों के लिए ये कारें ही ओशो व उनके बीच व्‍यवधान बन गई थी।
      ऐसा कहा जाता था की सूफ़ी संत छद्दमवेश धारण किया करते थे। ताकि वे छिपे-छिपे अपना कार्य कर सके। उन लोगों पर समय व्‍यर्थ न करें जा साधक नहीं है।
      छियानवे रोल्‍स रॉयस कारों की कोई आवश्‍यकता नहीं थी। मैं छियानवे रोल्‍स रॉयस कारें एक साथ इस्‍तेमाल नहीं कर सकता। वहीं मॉडल वही कार। लेकिन मैं यह बात स्‍पष्‍ट कर देना चाहता था कि एक रोल्‍स रॉयस पाने के लिए तुम सत्‍य, प्रेम एवं आध्‍यात्‍मिक विकास की अपनी सारी इच्‍छाएं त्‍यागने को तैयार हो। मैं जान बूझकर ऐसी परिस्‍थिति बना रहा था कि ईष्‍र्या करने लगो। एक सदगुरू का कार्य बहुत विचित्र होता है। इसे इस बात के लिए तुम्‍हारी सहायता करनी है कि तुम अपनी चेतना की अंतर संरचना को समझ सको—वह ईर्ष्‍या से भरी है।....उन कारों ने अपना काम कर दिया। उन्‍होंने पूरे अमेरिका के सभी सुपर-धनाढ्यों को ईर्ष्‍या से भर दिया। यदि वे थोड़े से भी बुद्धिमान होते तो मेरे शत्रु होने की अपेक्षा मेरे पास आकर ईर्ष्‍या से छुटकारा पाने का उपाय पूछते। क्‍योंकि यही तो है उनकी समस्‍या। ईर्ष्‍या आग है जो तुम्‍हें जला डालती है। बुरी तरह जला डालती है।‘’ (बियॉंड सॉयकॉलाजी)
      अपने जीवन में मैंने जो कुछ भी किया है उसका कोई प्रयोजन नहीं है। यह एक विधि है तुम्‍हारे भीतर से बाहर निकाल लेने की जिसका तुम्‍हें बोध भी नहीं है.......’’ओशो

      चौथा वार्षिक विश्‍व उत्‍सव आरम्‍भ हुआ तथा ओशो रजनीश मंदिर में हम सब के बीच ध्‍यान के लिए आए। देवराज संगीत की पृष्‍ठभूमि में ओशो की पुस्‍तकों से चुनकर उद्धरण पढ़ता। छह जुलाई गुरु पूर्णिमा का दिन था। मैं उत्‍सव में बैठी थी। मुझे कुछ भी अच्‍छा नहीं लग रहा था। मैंने स्‍वयं से कहा कि मैं ओशो के सामने बैठी हूं और उत्‍सव का दिन है, फिर बात क्‍या है। जब प्रात: कालीन उत्‍सव समाप्ति हुआ तो मैं मनीषा के साथ कार में बैठी देवराज की प्रतीक्षा कर रही थी। मुझे कुछ घबराहट सी महसूस होने लगी। और मैंने अपने बटन खोल दिये। हम तब तक प्रतीक्षा करती रही जब तक रजनीश मंदिर में कोई नहीं बचा। वह अभी तक वहां क्‍या कर रहे है। हां हमारे पास सक एक एम्बुलेंस अवश्‍य ही तेज़ी से गुजरी।
      मनीषा ने घर तक कार चलाई और जब हम ड्राइव वे से गुजर रहे थे तो किसी ने हमें बताया कि उत्‍सव के दौरान किसी ने देवराज को विष का टीका लगा दिया था और उनकी दशा बहुत चिंताजनक है। मेरे मन में विचार आया कि देवराज की हत्‍या के लिए कोई रजनीशपुरम क्‍यों आयेगा। मंदिर में ऐसे विक्षिप्‍त व्‍यक्‍ति को प्रविष्‍ट क्‍यों होने दिया गया। मैं काले चमड़े की पोशाक और कवच पहने चार्ल्स‍ मेन सन जैसे पात्रों की कल्‍पना करने लगी।  
      माहौल उलटा हो चुका था।
      जो चिकित्‍सा सुविधाएं ओशो के लिए बनाई गई थी उनका प्रयोग देवराज के रक्‍त परीक्षण के लिए किया जा सकता था। मैंने डॉक्‍टरों को यह कहते सूना कि इस समय इस व्‍यक्‍ति की हालत चिंताजनक है। यह बचेगा नहीं। देवराज को समीप के एक अस्‍पताल के इन्‍टेन्‍सिव केयर यूनिट में ले जाया गया। खांसी के साथ खून आ रहा था जो इस इंगित कर रहा था कि उसका ह्रदय काम नहीं कर रहा है।
      चौबीस घंटे के पश्‍चात हम जान सके की अब उनकी हालत खतरे से बाहर है।
      इस समय मैं मनीषा के साथ बाशो-ताल के पास ड्राइव-बाई के साथ ओशो का अभिवादन करने के लिए खड़ी थी। ओशो की कार आने से पहले शीला शांति भद्रा, विद्या और सविता कार में भ्रमण करती हुई गुजरी। चारों ने आगे झुककर मुझे और मनीषा को अवज्ञा पूर्वक, अविनय पूर्वक देखा। वह एक खौफनाक पल था जो सदा के लिए अमिट छाप छोड़ने वाले पलों की मेरी फाइल में अंकित हो गया था।
      उन्‍होंने कार रोकी और घूर-घूरकर देखने लगी; फिर उनहोंने भारतीय संन्‍यासिन तरू (बड़े डील-डोल वाली मोट तरू जो कई वर्षों तक ओशो के हिन्‍दी प्रवचनों के समय सूत्र गया करती थी।) को बुलाया तथा कुछ पूछा। मुझे बाद में पता चला कि वे उससे यह पूछ रही थी कि प्रात: उत्‍सव में उसने कुछ देखा तो नहीं।
      उसने निस्संदेह कुछ देखा था। जिसका बाद में पता चला। उसने देवराज की पीठ पर इंजेक्‍शन की सुई से हुए घाव को देखा था। और देवराज के पास से गुजरते हुए उसको बताया था कि शांति भद्रा ने उसे विष का टीका लगाया था।  
      तरू ने यह सब उन कार में बैठी उन भावी हत्‍यारिनों को नहीं बताया क्‍योंकि स्‍वभावत: उसे अपने प्राणों का भय था।
      मैंने यह बात फुसफुसाहट में सुनी कि शांति भद्रा (शीला की निकटतम सहयोगिनी) ने देवराज की हत्‍या करने का प्रयत्‍न किया था। साथ ही इसका खंडन भी कर दिया गया और मुझे बताया गया कि देवराज घबराया हुआ था और बहुत बीमार लग रहा था शायद ब्रेन ट्यूमर हो।
      कोई भी इस नृशंस अत्‍याचारपूर्ण कहानी पर विश्वास करने को तैयार नहीं था। कि देवराज को अपने साथी संन्‍यासी द्वारा टीका लगया जा सकता है। ओर देवराज ने यह किसी को यहां तक की अस्‍पताल में डॉक्टरों को भी नहीं बताया वह इस तथ्‍य के प्रति जागरूक था कि इसका परिणाम कम्‍यून में पुलिस का प्रवेश होगा। अफवाहें पहले ही फैल गई थी। और इस बात की पुष्‍टि एक सरकारी स्मरण-पत्र (मेमो) ने भी कर दी कि राज्‍य सेना नज़र रखे हुए है और कम्‍यून पर आक्रमण करने के आदेश की प्रतीक्षा में है। अफवाहें तो ये भी फैल रही थी कि कम्‍यून में बहुत सी बंदूकें है। इस बात की छानबीन करने का किसी के पास समय नहीं था। कि वह हमारा स्‍व–प्रशिक्षित सुरक्षा दल था जिनके पास ठीक ऐसी ही बंदूकें थी जैसे अमरीका की पुलिस के पास थी।
      देवराज को डर था कि उसे अस्‍पताल के बिस्‍तर पर ही समाप्त न कर दिया जाये। वह यह भी जानता था कि यदि वह जीवित रहा तो उसे रजनीशपुरम वापस जाना पड़ेगा। अत: देवराज ने केवल मनीषा, विवेक और गीत को ही बताया और उन्‍होंने इस बात का काई ठोस प्रमाण न मिलने तक चुप रहने का निर्णय किया। हममें से कुछ को ऐसा लगा कि देवराज अपनी मानसिक शक्‍ति खो बैठा है। उसे अगले आक्रमण का भी भय था। लेकिन फिर भी एक-एक दिन ऐसे जी रहा था जैसे सब सामान्‍य रूप से चल रहा है। कल्‍पना कीजिए देवराज के विश्‍वास की कि एक और उनके मित्र थे जो उसे पागल समझ रहे थे और दूसरी ओर वह उन लोगों से घिरा था जिन्‍होंने उसकी हत्‍या करने की चेष्‍टा की थी और जो अब भी प्रयास कर सकते हे।
      जिस दिन देवराज अस्‍पताल से घर लौटा ओशो ने जीसस ग्रोव में प्रेम कॉन्‍फेंस बूलानी शुरू कर दी। यह बहुत बड़ा बँगला था जहां शीला और उसका गिरोह रहता था। इसमे एक कमरा अत्‍यधिक शीत तापमान पर रात्रि के समय ओशो के प्रवचन के लिए रखा गया था। विश्‍व-भर से आए पत्रकारों का उनसे साक्षात्‍कार हुआ। ओशो जब आते और वापस जाते, संगीत बजता और गलियारों व उनके घर तक ड्राइव वे पर खड़े लोगों के साथ वे नृत्‍य करते। शीला के लोगों में ये यदि किसी को यह संदेह था कि कौन उनका गुरु है। यह देख पाने का एक अच्‍छा अवसर था।
      ओशो मंदिर में हमारे साथ नृत्‍य करते, वे लोगों को पोडियम पर आकर नृत्‍य करने का निमंत्रण देते। वे हमारे डिस्‍कोथके, ऑफिस तथा मेडिकल सेंटर केंद्र में भी आए। उन्‍होंने अपनी उपस्‍थिति से रजनीशपुरम के प्रत्‍येक स्‍थान को धन्‍य किया। वे लोगों को दिखा रहे थे, देखो, मैं परमात्‍मा नहीं हूं,….मैं एक साधारण मनुष्‍य हूं,ठीक आपकी तरह।
      ओशो का साधारण मनुष्‍य मानना मेरे लिए कठिन था। उनके देह-त्‍याग के पश्‍चात जब मैं उनकी स्‍मृतियों से भर गई तो एहसास हुआ वे कितने साधारण थे, कितने मानवीय थे। उनकी नम्रता उनकी कोमलता तब स्‍पष्‍ट हुई जब मैं उन पर निर्भर नहीं हो सकत थी।
      जब तक मैंने उन्‍हें ईश्‍वरीय रूप में देखा मैंने अपने बुद्धत्‍व के दायित्‍व को भी अपने उपर लेने की आवश्‍यकता न समझी। मेरा आत्‍मा बोध भी मुझसे उतना ही दूर था जितना दूर वे प्रतीत होते थे।
      और मैं खर्राटे लेती रहीं....ओर अपनी गहरी नींद में कुनमुनाती रही....एक जागने का भ्रम लिये।
      देवराज का स्वास्थ्य सुधरने लगा। शीला कुछ सप्‍ताहों के लिए कम्‍यून से बाहर गई हुई थी। वह यूरोप, आस्‍ट्रेलिया और अन्‍य देशों के केंद्रों को देखने गई थी। वास्‍तव में वह उन सभी स्‍थानों पर घुसने गई थी जहां-जहां उसे अब भी एक स्‍टार समझा जा रहा था। उसने ओशो को एक पत्र लिखा कि अब रजनीशपुरम लौटने का उसमे कोई उत्‍साह नहीं है। 13 सितम्‍बर 1985 को एक प्रवचन में ओशो ने सबके सामने उसके पत्र का उत्‍तर दिया:
       शायद उसे मालूम नहीं, तथा यह स्‍थिति सभी की है—वह नहीं जानती कि अब वह यहां उत्‍साह का अनुभव क्‍यों नहीं करती। यह इसलिए कि अब मैं बोल रहा हूं तथा अब वह केंद्र-बिंदु नहीं रही। अब वह बहुचर्चित व्‍यक्‍ति नहीं है। जब मैं तुमसे सीधा बोल रहा हूं, तो मेरे विचारों और भावों को तुम तक पहुंचाने के लिए मध्‍यस्‍थ के रूप में उसकी अब जरूरत नहीं रही। अब मैं प्रेस, रेडियों व टेलिविज़न के पत्रकारों से बोल रहा हूं। और वह छाया में सरक गई है। और पिछले साढ़े तीन वर्षों से वही सबके सामने आ रही थी। क्‍योंकि मैं मौन था।     
      हो सकता है उसे स्‍पष्‍ट न हो कि यहां आने के लिए उसमे कोई उत्‍साह नहीं रहा और यूरोप में वह क्‍यो प्रसन्‍न है। यूरोप में वह अब भी लोक-विख्‍यात है—साक्षात्‍कार, टेलीविज़न कार्यक्रम, रेडियों समाचार-पत्र यहां यह सब कुछ उसके जीवन से समाप्‍त हो चुका है। यदि मेरे होते हुए तुम इस तरह का मूर्खतापूर्ण और मूर्च्‍छित आचरण कर सकते हो तो जब मैं चला जाऊँगा तुम सब तरह की राजनीतियां सब तरह के झगड़े पैदा कर लोगे। फिर बाह्म जगत और तुममें क्‍या अंतर है। तब मेरा सारा प्रयास विफल है। मैं चाहता हूं तुम नए मनुष्‍य की तरह व्‍यवहार करो।
      मैंने शीला को संदेश भेजा है कि यहीं कारण है: अत: इस पर विचार करो और मुझे बताओ। यदि तुम अपने उत्‍साह के कारण चाहती हो कि मैं बोलना बेद कर दूं तो मैं ऐसा कर सकता हूं।
      मुझे इसमें कोई कठिनाई नहीं है। सच तो यह है कि यह एक मुसीबत है। दिन में पाँच घंटे मैं तुमसे बोल रहा हूं और इससे उसका मन अप्रसन्‍न होता है अत: उसे अपना शो-बिज़नैस करने दो। मैं फिर मौन में जा सकता हूं। लेकिन इससे एक बात का संकेत मिलता है कि जिनके पास सत्‍ता होगी वे कहीं गहरे में मुझे जीवित देखना पसंद नह करेंगे। कारण जब तक मैं यहां हूं कोई भी अपनी सत्‍ता का उपयोग नहीं कर सकता। किसी का सत्‍ता हथियाने का इरादा पूरा न होगा। वे भले ही इससे अनभिज्ञ हों। केवल परिस्‍थितियों ही सत्‍ता के नशे को उघाड़ती है।
      अगले ही दिन अपने पंद्रह साथियों के साथ शीला विमान से रजनीशपुरम से चली गई, अमरीका से बाहर हमारे जीवन से दूर।
      शीला के कम्‍यून छोड़कर चले जाने पर मैं बहुत प्रसन्‍न नहीं हुई थी। मैं चिंतित और उदास हो गई। इसका अर्थ यह था कि वह ओशो को छोड़ रही थी। लेकिन क्‍यों।
      मुझे शीध्र ही उत्‍तर मिल गया क्‍योंकि कम्‍यून के उन सदस्‍यों की बहुत सी बातें कानों में पड़ने लगी जिनके दुर्व्‍यवहार किया था। उसने हत्‍या के प्रयास तथा तारों में जोड़ लगाकर बातें सुनना एवं निकट के शहर की वॉटर सप्‍लाई में विष मिलाने जैसे कई अपराध किए थे।
      ओशो ने शीध्र ही जांच पड़ताल करने के लिए एफ. बी. आई. तथा सी. बी. आई. को बुलाया। उन्‍हें रैंच के मुख्‍य गृह में ठहराया गया। उन्‍होंने वहां सबको बारी-बारी से बुलाया और पूछताछ की। उन्‍होंने ओशो से साक्षात्‍कार नहीं  किया यद्यपि मिलने के लिए कई बार समय भी निश्‍चित किया; परंतु अधिकारी उसे स्‍थगित करते रहे।
      मुझे अपने बारे में भी कई कहानियां (जिसका कोई विशेष महत्‍व नहीं था) सुनने को मिली। शीला कैसे लोगों से कहती थी कि मैं एक जासूस हूं। इसलिए मुझसे बात न करें। मेरा तो इस तरफ़ कभी ध्‍यान ही नहीं गया था। जो गार्ड लाओत्‍सु हाऊस जहां हम रहते थे—पर पहरा देते थे उन्‍हें सतर्क कर दिया गया था कि हो सकता है किसी दिन उन्‍हें हम लोगों पर गोली चलानी पड़े,इसलिए वे हमसे मित्रता न करें। किसी अंतर्बोध के कारण मैं टेलीफ़ोन पर हमेशा सावधान रहती थी। इसलिए यह सुनकर मुझे आश्‍चर्य नहीं हुआ कि हमारे फ़ोन बग कर लिए गए थे। परंतु यह जानकर मैं आश्‍चर्यचकित रह गई कि ओशो का कमरा भी बग किया गया था।
      सौ के करीब पत्रकार रजनीशपुरम आए तथा कुछ सप्‍ताह वहां रहे। पहली बार और केवल इसी बार उन्‍हें अपने बीच देखकर मैंने राहत की सांस ली। क्‍योंकि मुझे लगा की वे एक प्रकार से हमारी सुरक्षा थे।
      चार्ल्स टर्नर, यू. एस. अटर्नी को कम्‍यून के अंत के कुछ मास उपरांत जब यह पूछा गया कि भगवान श्री रजनीश पर किसी भी अपराध का आरोप क्‍यों नह लगाया गया तो उसने प्रेस के सामने यह वक्‍तव्‍य दिया:
      ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला कि भगवान ने कोई जुर्म किया हो, परंतु सरकार का मुख्‍य उदेश्‍य शुरू से ही कम्‍यून को समाप्‍त करना था।
      हमारा कम्‍यून ऐसा था जहां लोग बाहर से चौदह घंटे प्रतिदिन काम करते। दोपहर के भोजन के समय एक साथ मिलकर उत्‍सव मनाते और रात को डिस्कोथके मे नृत्य करते—और क्‍या नृत्‍य था वह। वास्‍तव में अनियन्‍त्रित उद्यान और ऊर्जा पूर्ण। वह नृत्‍य ऐसा न था जैसा मैंने अन्‍य डिस्‍कोथक कों में देखा था। जहां लोग दूसरों को देखने और स्‍वयं को दिखाने आते है। रजनीशपुरम का वातावरण बहुत जीवंत और प्रसन्‍नता पूर्ण था। उदाहरण के लिए बसें। जब भी बस में सफर करती दूसरी बसों में बैठी सवारियों से इसकी तुलना किए बिना न रह पाती। लंदन को ही लो—लटके हुए चेहरे। कोई बस के देरी से पहुंचने की शिकायत कंडक्‍टर से कर रहा है। तो कोई टिकट के मूल्‍य को लेकिर झगड़ रहा है। कुछ लोग ड्राइवर पर बरस रहे है कुछ एक दूसरे को धक्‍के देते हुए कोहनियां मार रहे है, तो कोई विकृत कामी पुरूष झटके से बस से उतरते समय किसी महिला की छाती पर हाथ माने का प्रयत्‍न कर रहा है। रजनीशपुरम में मैं बस के उतरते समय बहुत प्रसन्‍नता का अनुभव करती क्‍योंकि ड्राइवर या कंडक्‍टर के साथ बस में यात्रा करने का बड़ा मजा आता। वह संगीत बजाता तथा बस में चढ़ती प्रत्‍येक सवारी का अभिवादन करता। यात्री अक्‍सर हंसते रहते और आनंदित होते। जिन लोगों को देखे बहुत समय हो गया होता उन्‍हें मिलने का भी वह एक अच्‍छा अवसर होता।
      विमान यात्रा तो ऐसी थी जैसे आप अपने घर में सभी सुविधाओं के साथ बैठे हों और उपर से एक मित्र आपके लिए खाने-पीने की वस्‍तुएं ला रहा है। जब भी मैं अपने उस शहर की और दृष्‍टि दौड़ाती तो वास्‍तव में मुझे ऐसा प्रतीत होता कि जैसे हम छोटे बच्‍चे है—कोई अग्‍निशामक का, कोई किसान का, कोई दूकानदार बनने का खेल-खेल रहा है। इस खेल में कोई गम्‍भीरता नहीं थी। यद्यपि यह खेल बड़ी भावुकता और ईमानदारी से खेला जा रहा था।
      वह विशाल कैफेटेरिया जहां हम सब इकट्ठे भोजन करते थे बहुत ही जीवंत था, उसमें बहुत रौनक थी। भोजन इतना अच्‍छा था कि प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति हष्ट-पुष्‍ट हो गया। सब संन्‍यासी मिलकर खाते, काम करते या नाचते। शीला की तानाशाह-शासन-व्‍यवस्‍था के बावजूद लोग उत्‍साह और उमंग से भरे थे। वह हमारी फ़ोन पर होनेवाली प्रत्‍येक बातचीत को यहां तक कि हम अपने कमरों में जो बातचीत करते उसको भी सुनती थी। इससे यही स्‍पष्‍ट होता कि उसका विक्षिप्‍तता किसी सीमा तक बढ़ गई थी।
      शीला का अद्भुत ऊर्जा एक मरुस्थल को एक नगर में रूपांतरित करने में कितनी सहायक हुई: इस बात की प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जा सकता। लेकिन वह विक्षिप्‍त हो गई थी। सत्‍ता के लोभ ने उसे भ्रष्‍ट कर दिया था। ओशो की किसी शिक्षा से उसका कोई प्रयोजन नहीं था। शीला के आवास स्‍थल के नीचे एक सुरंगें तथा कक्ष पाए गए। पहाड़ियों में विष तैयार करने की प्रयोग शाला भी पाई गई। वह नर्स मेंजली का विभाग था।
      जब शीला कम्‍यून छोड़ कर चली गई तो मेरे विचार में कई लोगों ने महसूस किया कि उनको मूर्ख बनाया गया था। मूर्ख इसलिए क्‍योंकि उनकी नाक के नीचे इतना कुछ चल रहा था और किसी के पास इतना साहस नहीं था, या इतना होश नहीं था कि कह सके, ठहरो,एक मिनट रूको.... तथा उन्‍हें इस्‍तेमाल किया गया था क्‍योंकि प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति ने एक स्वप्न को, एक कल्‍पना को साकार करने के लिए इतना परिश्रम किया था, और सब उसे नष्‍ट किए जा रहे थे। कुछ संन्‍यासी केवल नकारात्‍मक पहलू को ही याद रखेंगे और उनकी उल्लासपूर्ण घड़ियाँ जो मैंने उनके चेहरे पर देखी थी—वे फीके पड़ गए स्‍वप्‍नों की भांति हो जाएंगी। काई इस बात को अस्‍वीकार नहीं कर सकता कि हम सभी ने उस मरुस्थल को मरूद्यान बनाने में योगदान देते समय आनंद प्राप्‍त किया था। हम सब वहां और किस कारण थे। निस्‍संदेह,वहां ऐसे लोग भी थे जिनका धन लेकिन शीला भाग गई। अनुदान के लिए इकट्ठे किए एक धन से चार करोड़ डालर चोरी करके स्‍विस बैंक में जमा करा दिया गया था।
      निश्‍चित ही हमने सोए हुए व्‍यक्‍तियों की तरह व्‍यवहार किया। लेकिन इसे जीने और देखने का,और फिर नए सिरे से सजगता से प्रारम्‍भ करने का ऐसा अच्‍छा अवसर था। यह ऐसा था जैसे हमने इतने थोड़े समय में बहुत से जीवन जी लिए हो।      
      शीला के प्रस्‍थान के बाद ओशो अपने शिष्‍यों और पत्रकारों से दिन में तीन बार(लगभग सात से आठ घंटे) बोलते। स्‍वयं को परम आलसी कहने वाले व्‍यक्‍ति के लिए यह एक बहुत बड़ा कार्य था। और परिणाम यह होता की वह थक जाते।
      ओशो: अभी एक रात ऐसा ही हुआ इंटरव्‍यू लेने के लिए आया एक पत्रकार बोलता ही चला गया। ऐसा लगता था कि उसके प्रश्‍नों का कभी अंत ही नही होगा। उसके पास प्रश्‍नों की पूरी एक पुस्‍तक थी। उसे बीच में कहीं रोकने के लिए....रात के दस बजने वाले थे और उसने पूछा, क्‍या आप सुकरात से सहमत है।
      मैंने कहा, हां पूरी तरह सहमत हूं। और मुझे उठकर खड़े होना पडा और उससे कहना पड़ा कि मैं सहमत हूं। नहीं तो वह इंटरव्‍यू कभी समाप्‍त नहीं होता। नहीं तो बूढ़े सुकरात से जो समलैंगिक था उससे कौन सहमत होता।
      एक पत्रकार ने पूछा कि यदि वे बुद्ध पुरूष है तो उन्‍हें कैसे पता नहीं चला कि उनके आस-पास क्‍या हो रहा है। ओशो ने उत्‍तर दिया:
      जाग्रत होने का अर्थ है मैं स्‍वयं को जानता हूं, इसका अर्थ यह नहीं कि मैं यह भी जानता हूं कि मेरा कमरा बग किया गया है। (द लास्‍ट टेस्‍टामेंट)
      26 सितम्‍बर, 1985। हीरे को काटने के लिए हीरा चाहिए। मैं समझ गई कि जो आगे आनेवाला है वह पीड़ादायक है। ओशो ने प्रवचन दिया.....
      और आज मैं एक बहुत महत्‍वपूर्ण घोषणा करने जा रहा हूं.....क्‍योंकि मुझे लगता है कि इसी कारण शीला और उसके लोग आपका शोषण कर सके। मैं नहीं जानता कल मैं यहां होऊं या न होऊं, अत: अच्‍छा है कि मेरे रहते ही यह हो जाए। मैं तुम्‍हें ऐसी किसी तानाशाह—व्‍यवस्‍था का शिकार होने की सम्‍भावना से मुक्‍त करता हूं।
      आज से तुम किसी भी रंग के वस्‍त्र पहनने को स्‍वतंत्र हो। यदि तुम लाल रंग के वस्‍त्र पहनना चाहो तो यह भी तुम्‍हारी स्‍वतन्‍त्रता है। यह संदेश संसार के सभी कम्‍यूनों को भेज दिया जाए। सभी रंगों को होना और भी सुंदर होगा। मैंने सदा तुम्‍हें इंद्रधनुषी रंगों में देखने की कल्‍पना की है। आज हम घोषणा करते है कि सभी इंद्रधनुषी रंग हमारे है।
      दूसरी बात: तुम अपनी माला लौटा दो—यदि तुम रखना चाहो ता भी ठीक है। वह तुम्हारी स्‍वतंत्रता है लेकिन अब यह अनिवार्य नहीं। तुम अपनी माला प्रैजिडेंट हास्‍या को लौटा दो। लेकिन तुम अगर रखना चाहो तो तुम्‍हारी इच्‍छा है।
      तीसरी बात: आज से जो व्‍यक्‍ति भी संन्‍यास दीक्षा लेना चाहेगा उसे माला नहीं दी जायेगी। और उसे लाल कपड़े पहनने को नहीं कहा जायेगा।
      तुम इस तरह से सारे विश्‍व में छा सकते हो।
      (फ्रॉम बांडेज़ टु फ़्रीडम)
      ओशो के ये शब्‍द अशुभ के सूचक थे, लेकिन बुद्धा हाल में करतल एवं हर्ष-ध्‍वनि ने मुझे भयभीत कर दिया। यह वह मूर्ख भीड़ जैसा था, और तालियां ऐसी थी जैसे शीला की सभाओं में बजती थी। बहुत से लोग रजनीश मंदिर से अति प्रसन्‍न निकले तथा बुटीक में नए रंगों के कपड़े खरीदने चले गए। मैंने विवेक को देखा हम इस परिवर्तन से सतर्क हो गई। और उसने मुझसे कहा, सम्‍भवत: अब उनका अगला क़दम कम्‍यून को भंग करने का ही होगा।
      8 अक्‍टूबर, 1985 ओशो ने प्रवचन में कहा:
      ‘….तुम तालियां बजा रहे थे क्‍योंकि मेंने लाल कपड़े ओर माला छोड़ देने को कहा। और जब तुम तालियां बजाते हो तुम्‍हें पता नहीं कि तुम मुझे कितना कष्‍ट पहुंचाते हो। इसका अर्थ है कि तुम कितना ढोंग करते हो।
      तुम लाला वस्त्र पहन ही क्‍यों रहे थे। जबकि उन्‍हें त्‍यागने में तुम्‍हें इतनी प्रसन्‍नता प्राप्‍त हो रही है। तुम माला क्‍यों पहन रहे थे। जैसे ही मैं कहता हूं त्‍याग दो तुम हर्षित होते हो। और लोग तो कपड़े बदलने के लिए बुटीक की और भागे, उन्‍होंने अपनी मालाएँ भी उतार दीं।
      परंतु तुम नहीं जानते तालियां बजाकर या वस्‍त्र बदलकर तुमने मुझे कैसा धाव दिया है।
      अब मुझे एक बात और कहनी होगी,अब मैं देखना चाहूंगा कि तुममें तालियां बजाने का साहस है या नहीं। वह यह है कि अब कोई बुद्ध क्षेत्र नहीं है। अत: यदि तुम्‍हें बुद्धत्‍व चाहिए तो स्‍वयं पर व्‍यक्‍तिगत रूप से काम करना पड़ेगा। अब कोई बुद्ध क्षेत्र नहीं है। बुद्धत्‍व उपलब्‍धि के लिए तुम बुद्ध क्षेत्र की ऊर्जा पर निर्भर नहीं हो सकते।
      अब तुम चाहे जितनी जोर से तालियां बजाना चाहों बजा सकते हो...।
      अब तुम पूर्णरूप से स्‍वतंत्र हो। अपने बुद्धत्‍व के लिए भी स्‍वयं उतरदायी हो। और मैं तुमसे पूर्णतया मुक्‍त हूं।
      तुम मूर्खों की भांति आचरण कर रहे हो......
      और यह देखने का कि कितने लोग मेरे अंतरंग है, एक अच्‍छा अवसर मिला। यदि तुम अपनी माला इतनी आसानी से छोड़ सकते हो.....मेरे अपने घर में एक संन्‍यासिन है जिसने तुरंत बड़ी प्रसन्‍नतापूर्वक नीले वस्‍त्र पहन लिए। इससे क्‍या स्‍पष्‍ट होता है। यह बताता है कि लाल वस्‍त्र तुम पर कितना बोझ थे। वह जैसे-तैसे अपनी इच्‍छा के विरूद्ध लाल वस्‍त्र पहन रही थी।
      परंतु मैं नहीं चाहता कि तुम अपनी इच्‍छा के विरूद्ध कोई काम करो।
      अक्‍टूबर के अंतिम दिनों एक राम मैंने स्‍वप्‍न देखा कि ओशो जल्‍दी में घर छोड़ रहे है। घर में शोर मचा हे। मैं ओशो का रोग हैंगर में लिए कमरों में भाग रही हूं। यह विशेष सुरमई रोब—बड़ी विचित्र बात हे। कि जिस समय उन्‍हें गिरफ़्तार किया गया। उन्‍होंने वही रोग पहना हुआ था। सपने में शीला की साथिन सविता मेरा रास्‍ता रोकने का प्रयास कर रही थी।
      उस रात मेरे अचेतन मन ने आनेवाली घटनाओं की तरंगों को पकड़ लिया होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि भविष्‍य वर्तमान में किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता है।
      अगली दोपहर मुझे बताया गया कि ओशो अवकाश के लिए पहाड़ों पर जा रहे है। मैं मुक्‍ति( जो उनके लिए भोजन पकता थी) निरूपा, देवराज, विवेक और जयेश के उनके साथ थे। जयेश कुछ माह पूर्व ही रजनीशपुरम आया था। कार से गुजरते ओशो की आंखों में एक बार देखा और वापस अपने होटल आया, कनाडा में जहां वह एक सफल उद्योगपति था, फोन किया और उस जीवन को तिलांजलि दे दी। कोई भी ऐसा व्‍यक्‍ति जिसे यह ज्ञान न हो कि सत्‍य का खोजी अपने सदगुरू को कैसे पहचान लेता है यही कहेगा कि वह सम्‍मोहित हो गया होगा।  
      जयेश एक सुंदर सुशिक्षित सांसारिक संन्‍यासी है। जैसे उसमें दृढ़ और प्रबल इच्‍छा शक्‍ति है वैसी ही विनोद प्रियता भी है। उसने ओशो के तीव्र गति से विकासमान और अंतिम कम्‍यून का पत्‍थर रखा। और मैंने बहुत बार ओशो को यह कहते सूना है कि जयेश के बिना यह कार्य अति कठिन हो जाता। हास्‍या—जिसे ओशो ने अपनी नई सैक्रेटरी के रूप में चुना था—ने जयेश को काम करने के लिए प्रेरित किया। हास्‍या शीला के सर्वथा विपरीत थी। वह हॉलीवुड से थी तथा बहुत ही सुशिष्‍ट मनमोहक और मेधावी महिला थी।
      जब हम हवाई अड्डे की और जा रहे थे उस समय ढलते सूर्य के कारण आकाश का रंग चमकता केसरी था। दो जेट हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। एक में मैं, निरूपा तथा मुक्‍ति बैठ गई। हमने बटन दबाकर खिड़की खोली तथा सड़क पर खड़े अपने मित्रों को हाथ हिलाकर अलविदा कहा। कुछ ही मिनटों में हम आकाश पर थे। हम नह जानते थे कि हम कहां जा रहे थे। और इस बात ने हमे हंसा दिया।


 मा प्रेम शुन्‍यो-(चेतना)

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