सबै सयाने एक मत-(संत दादू दयाल)
दिनांक 16 सित्मबर सन् 1975,
श्री ओशो आश्रम पूना।
छठवां -प्रवचन
तथागत जीता है तथाता में
प्रश्न-सार
1—क्या झेन संत बोकोजू का अपनी मृत्यु का पूर्व-नियोजन तथाता के
विपरीत नहीं था?
2—दादू कहते हैं: ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे, अपने बल नाहीं।
इसी तरह का एक पद संत मलूक का है--
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कहि गए, सब के दाता राम।।
क्या संत मलूक भी सही हैं?
3—साधक या भक्त के लिए मन का कोई विधायक उपयोग है अथवा नहीं?
4—आपने कहा, अस्तित्व एक दर्पण है जिसमें हम अपने को ही देखते हैं।
यदि यह सच है, तो सर्वथा शुद्ध और शून्य हो
गए संतों को हम सांसारिकों की पीड़ा, पाप और नरक कैसे दिखाई पड़ते
हैं?
5—आपने कहा कि चित्त की अनेक आकांक्षाओं के साथ भगवत-प्राप्ति को एक
अतिरिक्त आकांक्षा की तरह नहीं जोड़ा जा सकता।
धर्म-पथ की यात्रा फिर आरंभ कैसे होगी?
6—कभी-कभी नगरवासी आपके और आश्रम के संबंध में प्रश्न पूछते हैं।
उनके कुछ प्रश्न इस प्रकार हैं:
7—आपके भगवान का पूरे दिन का कार्यक्रम क्या है?
8—वे लोगों को खानगी मुलाकात क्यों नहीं देते?
9—आश्रम में इतनी गोपनीयता क्यों है?
10-आश्रम में इतने अधिक विदेशी
क्यों हैं,
भारतीय
क्यों नहीं हैं?
11-यहां आश्रम में सुंदर और युवा
युवतियों का इतना आधिक्य क्यों है?
12-कुछ विदेशी संन्यासिनियों के
गर्भवती होने की खबर क्या सच है?
13-आश्रम के लिए धन कहां से आता
है?
पहला प्रश्न: क्या झेन संत बोकोजू का अपनी मृत्यु का पूर्व-नियोजन
तथाता के विपरीत नहीं था?
ऊपर से
देखने पर लग सकता है। लेकिन संतों को जो भी ऊपर से देखेगा, वही उन्हें देखने से वंचित रह
जाएगा। संत को देखने का वह ढंग ही नहीं है। संत को देखने की दृष्टि और ढंग मूलतः
और प्रकार का है। गौर से बोकोजू में देखोगे, तो न तो वहां किसी संत को पाओगे और न किसी
बोकोजू को। यही संत का होना है कि वह शून्य है।
मृत्यु
का पूर्व-नियोजन किया नहीं; जो हुआ, उसे होने दिया। यह घटना जो
घटी कि मृत्यु के पहले बोकोजू उठ कर खड़ा हो गया और उसने कहा कि मुझे मरघट तक चलने
दो, क्योंकि मैं न चाहूंगा कि
किसी के कंधे पर लद कर जाऊं। मेरी मृत्यु तक मुझे ही जाने दो। मेरा जीवन था, मृत्यु भी मेरी हो। और वह
मरघट तक गया। उसने अपने हाथ अपनी कब्र खोदी, लेट गया और उसके प्राण विसर्जित हो गए। ऊपर
से देखने पर लगेगा कि यह तो कर्ता की बात हो गई। भीतर से देखने पर कर्ता का कोई
सवाल नहीं है। ऐसा बोकोजू को हुआ। उस क्षण ऐसी ही भाव-दशा बनी, ऐसा ही फूल खिला।
हां, बोकोजू अगर सोचता कि यह तो
पूर्व-नियोजन हो जाएगा, यह
मुझे नहीं करना,
तो
कर्ता पैदा हो जाता; तो
तथाता से चूक जाता। अगर वह कहता कि यह बात लोग सोचेंगे पीछे, ऐसा करना उचित नहीं, कभी किसी ने किया नहीं। वह जो
आविर्भाव हुआ था,
उससे
भिन्न अगर वह विचार करता और तय करता, निर्णय लेता बुद्धि से, तो तथाता के विपरीत होता।
लेकिन जो हुआ वह होने दिया। जैसे वृक्ष में फूल खिलता है, ऐसा उस घड़ी यह भाव बोकोजू में
खिला।
एक साधक
अपने गुरु के पास था। उसने वर्षों तक गुरु ने जैसा कहा वैसा ही किया। जितनी
प्रार्थना करनी थी उतनी प्रार्थना की--दिन में पांच बार। सूफी फकीर का शिष्य था।
उसकी दूर-दूर तक ख्याति हो गई। हजारों लोग उस शिष्य को भी सदगुरु की तरह मानने
लगे। लेकिन गुरु ने कभी उसकी प्रशंसा न की; एक बार भी उसके सम्मान में एक शब्द न कहा।
और ऐसा नहीं था कि गुरु शब्दों में कृपण था; जब भी वह किसी में कुछ घटते देखता तो जरूर
दो प्रशंसा के शब्द उसके मुंह से निकलते थे। लोग चकित थे कि और पीछे आने वाले लोग
भी स्वीकृत-सम्मानित हुए; लेकिन
जिसकी सर्वाधिक ख्याति है, उसके
संबंध में गुरु ने एक शब्द भी न कहा।
और एक
दिन ऐसा हुआ कि सुबह की प्रार्थना चूक गया शिष्य। पहली प्रार्थना, पहली नमाज में न आया। और जब
दोपहर को लौटा,
तो
गुरु ने पहली दफे उसकी तरफ प्रशंसा से देखा, और कहा कि जो होना था वह आज हुआ।
लोग तो
चकित हुए। उन्होंने कहा, यह कौन
सा गणित है?
आज तो
हम सोचते थे कि यह आपकी नजर से और भी गिर जाएगा। कभी उठा ही न था आपकी नजर में, और आज तो और गिर गया।
पर
गुरु ने कहा,
नहीं।
यह प्रार्थना तो करता था; लेकिन
करनी चाहिए इसलिए करता था। यह सहज न था। इसकी प्रार्थना भीतर से आविर्भूत न होती
थी। नियम था,
पालन
करता था। आज पहली बार यह सहज हुआ। अब इससे जो प्रार्थना होगी वही प्रार्थना है।
नियम
से कहीं प्रार्थना हुई है? विधि-विधान
से कहीं पूजा हुई है? कर्तव्य
पूरा हो जाता है;
लेकिन
हृदय का आवेदन कैसे होगा? हृदय
कहीं बंधे हुए नियमों को मान कर चलता है? हृदय के अपने ही ढंग हैं। गुरु ने कहा, आज यह सरल हुआ। आज नियम के
कारण नहीं आया है। आज जब इसकी सरलता ही इसे ले आई है तब आया है। आज अपने कारण नहीं
आया है;
आज
परमात्मा ही ले आया है तब आया है। बस आज से पुराना आदमी मरा, नये का जन्म हुआ।
ऊपर से
देखने पर हमें लगेगा कि बोकोजू तो तथाता में नहीं चल रहा है; यह तो आयोजन कर रहा है।
तथाता
अगर आयोजन करा रही है, तो
आयोजन कर रहा है;
तथाता
अगर न कराएगी आयोजन, तो न
करेगा। तुम बाहर से न जांच सकोगे। बात तो भीतर की है। करने वाले का भाव न हो, तो जो भी होगा वह तथाता से हो
रहा है। करने वाले का भाव हो, तो जो
भी होगा वह अहंकार से घटित हो रहा है। तुम करने वाले हो। तुम कैसे जांचोगे बाहर से? तुम तो एक ही बात जानते हो कि
अगर कोई जाता है,
तो
जाना चाहता होगा इसलिए जाता है; करता
है, तो करना चाहता होगा इसलिए करता
है; उठता है, तो उठना चाहता होगा इसलिए
उठता है। अपने आप तो तुमने जीवन में कुछ होने नहीं दिया। सहज से तो तुम्हारा कोई
संबंध नहीं बना। तुमने तो सब किया है। तुमने तो जीवन की ऐसी अनूठी बातें, जो की ही नहीं जा सकतीं, वे भी की हैं। प्रेम किया है।
घर लौटे हो तो पत्नी के प्रति प्रेम दर्शाया है, बच्चे की पीठ ठोंकी है। वह भी
तुम कर रहे हो। वह भी तुमसे हो नहीं रहा है। उसका भी आविर्भाव नहीं हो रहा है। वह
भी ऐसा नहीं है कि तुम अगर न करते तो भी होता; तुम न करते तो होता ही नहीं। तुम अगर न
मुस्कुराते तो मुस्कुराहट न आती। कोई मर गया है, तुम अगर चेष्टा न करते तो
आंसू न बहते;
तुमने
चेष्टा की है तो आंसू बहे हैं।
आंसू
और प्रेम और मुस्कुराहट जैसी अनूठी घटनाएं भी तुम्हारे कृत्य से हो रही हैं। इसलिए
तुम बाहर से बोकोजू जैसे व्यक्तियों को न पहचान पाओगे। उनको पहचानना हो तो तुम्हें
थोड़ी सी उनकी दुनिया में प्रवेश करना होगा। एक बार ऐसा करो कि चौबीस घंटे के लिए
कर्ता-भाव से छुट्टी ले लो। वही छुट्टी सार्थक है, और कोई छुट्टी सार्थक नहीं।
तुम करने से तो बहुत बार छुट्टी ले लेते हो कि आज दफ्तर न जाएंगे, कि आज दुकान न खोलेंगे। कर्म
से तो तुम बहुत बार छुट्टी ले लेते हो। लेकिन वह कोई छुट्टी है! तुम चौबीस घंटे के
लिए एक बार कर्ता से छुट्टी ले लो कि चौबीस घंटे अब जो होगा वही होने देंगे, हम न करेंगे। शायद कुछ बातें
घटें उन चौबीस घंटों में, जो
अपने आप हों।
तब
तुम्हें पहली दफा स्वाद मिलेगा कि जब अपने आप कोई बात होती है तो कैसी होती है।
उसकी गंभीरता और! उसका सौंदर्य और! उसकी गहराई और! वह इस जगत की ही नहीं है। वह
किसी और लोक से आती है और तुम पर आविष्ट हो जाती है। परमात्मा तुम्हें उठाता है, चलाता है, बिठाता है। तुम न उठते, तुम न चलते, तुम न बैठते।
लेकिन
इसका स्वाद न हो तो नहीं होगा। तुम कभी कोशिश करो। चौबीस घंटे में कुछ बिगड़ न
जाएगा,
संसार
बरबाद न हो जाएगा। चौबीस घंटे में कुछ भी हानि न होगी। अगर चौबीस घंटे में एक क्षण
को भी ऐसा हो गया कि कर्ता न रहा; तुम
उठे--उठाए गए;
बैठे--बिठाए
गए; तुम्हारे भीतर कोई सोच-विचार, योजना न रही। भूख लगी--तुमने
भोजन मांगा। प्यास लगी--तुमने पानी पीया। नींद आई--तुम सो गए; तो शायद तुम बोकोजू को थोड़ा
समझ पाओ;
तो ही
शायद तुम दादू को समझ पाओ।
दूसरा प्रश्न: किसी और ने इस संबंध में पूछा है। दादू कहते
हैं--ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे, अपने बल नाहीं। इसी तरह का एक
पद संत मलूक का है--
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कहि गए, सब के दाता राम।।
और यह लोकप्रिय पद हम तमाम आलसी लोगों के लिए नारा बन गया है। क्या
संत मलूक भी सही हैं?
संत
मलूक ही सही हैं। लेकिन उन्हें समझना बहुत कठिन है। आलसियों ने नारा बना लिया है, क्योंकि मनुष्य तो सत्य से भी
अपने असत्य को ही सहारे खोजता है। मनुष्य तो धर्म में से भी धन को ही खोदने की
चेष्टा करता है। मनुष्य तो प्रेम के आधार पर भी घृणा के ही संप्रदाय निर्मित करता
है। मनुष्य तो असीम की भी बात सुनता है तो सीमा को बनाता है। इसमें कोई दास मलूक
का कसूर नहीं। दास मलूक तो शुद्धतम सत्य कह रहे हैं, सभी संतों का सार कह रहे हैं।
और जिस ढंग से मलूक ने कहा है, किसी
ने भी नहीं कहा है।
अजगर
करै न चाकरी,
पंछी
करै न काम।
दास
मलूका कहि गए,
सब के
दाता राम।।
वे कह
रहे हैं कि अजगर चाकरी नहीं करता, फिर भी
भोजन तो मिल ही जाता है। पक्षी काम नहीं करते, फिर भी जीते तो हैं ही, और मनुष्य से बेहतर जीते हैं।
तो एक बात तो सुनिश्चित है--मलूक कहते हैं--कि देने वाला राम है। अगर तुम करने
वाले न भी बनो तो भी देना जारी है। चाकरी नहीं कर रहा अजगर, उसको मिल रहा है। पक्षी काम
नहीं कर रहे हैं,
वे भी
पा रहे हैं। तुम करते हो, इसलिए
मिलता है--यह तुम्हारी भ्रांति है। क्योंकि यहां चारों तरफ बिना किए भी मिल रहा
है। तुम न करो तो भी मिलेगा।
लेकिन
न करने का मतलब आलस्य नहीं है। वहीं थोड़ा सा फर्क है। जब तुम मलूक को पढ़ते हो तो
तुम सोचते हो,
कर्म
छोड़ने की बात कह रहे हैं। मलूक कर्ता को छोड़ने की बात कह रहे हैं। वही छुट्टी, जो मैंने तुमसे कही। बस उतना
सा फर्क हो जाता है--कर्म और कर्ता। मलूक कह रहे हैं, कर्ता-भाव छोड़ो। इसका यह मतलब
नहीं है कि तुम कुछ भी न करोगे; बहुत
कुछ होगा,
करने
वाले तुम न रहोगे।
पक्षी
काम नहीं करते?
एक
अर्थ में नहीं करते। क्योंकि न तो किसी एम्पलायमेंट दफ्तर के सामने क्यू लगा कर
खड़े होते हैं,
न कहीं
कोई अर्जी देते हैं; न कोई
वर्दी पहन कर पुलिस में भर्ती होते हैं कि मिलिट्री में खड़े होते हैं; न हर महीने तनख्वाह लेने जाते
हैं, न कोई तनख्वाह मिलती है; न कोई पदोन्नति होती है, न किसी की खुशामद करते हैं; न कोई सीनियारिटी है, न कोई जूनियारिटी है; कुछ भी नहीं है।
लेकिन
इसका यह मतलब मत समझना कि पक्षी काम नहीं करते। सुबह से सांझ तक काम में लीन हैं।
पक्षियों को देखो! घोंसला बना रहे हैं, घास-पात ला रहे हैं, भोजन जुटा रहे हैं--काम तो चल
रहा है,
कर्ता
नहीं है। अजगर भी किसी की चाकरी नहीं करता, अपने भोजन की तलाश तो करता ही है; हिलता-डुलता है, चलता-फिरता है, खोजबीन करता है। लेकिन कर्ता
का भाव नहीं है।
मलूक इतना
ही कह रहे हैं कि पूरी प्रकृति बिना कर्ता के भाव के चल रही है। परमात्मा उसे
चलाता है। तुम नाहक बोझ लिए हो। तुम भी ऐसा ही चलो जैसे पक्षी चलते हैं।
इसका
यह मतलब नहीं है कि तुम काम मत करना; इसका इतना ही मतलब है, काम तुम परमात्मा को करने
देना तुम्हारे द्वारा, तुम मत
करना। परमात्मा करने लगे काम तुम्हारे माध्यम से। वही कर रहा है, तुम्हें समझ में आ जाए--बस
इतना ही फर्क है। तो तुम्हारा बोझ चला जाएगा, चिंता मिट जाएगी। काम तो जारी रहेगा, चिंता और बोझ और भार, तुम्हारी थकान, तुम टूटे-टूटे हुए जा रहे
हो--उतना भर विसर्जित हो जाएगा। तुम्हारे जीवन में तब काम एक खेल होगा। तब
तुम्हारे भीतर कर्ता का अहंकार न होने से वजन नहीं होगा, तुम निर्भार होओगे; तुम पक्षियों की भांति उड़
सकोगे,
फूलों
की भांति खिल सकोगे।
यह
संदेश आलस्य का नहीं है; यह
संदेश अकर्ता-भाव का है। और मलूक ठीक कह रहे हैं, सभी संतों का सार कह रहे हैं।
तीसरा प्रश्न: आपने कहा कि मन के पार हुए बिना मुक्ति संभव नहीं।
इस संदर्भ में कृपापूर्वक बताएं कि साधक या भक्त के लिए मन का कोई विधायक उपयोग है
अथवा नहीं!
यही
विधायक उपयोग है कि उसको सीढ़ी बनाओ और उसके पार हो जाओ। इससे अन्यथा कुछ भी किया
तो नकारात्मक उपयोग हो जाएगा। अगर मन मंजिल हो गई और तुम वहीं रुक रहे सीढ़ी पर, तो तुमने आत्महत्या कर ली; तुम जीवन को कभी जान ही न
पाओगे।
मन का
इतना ही उपयोग है कि उसे पार कर जाओ। गुजरो उससे जरूर, क्योंकि इस सीढ़ी से गुजरना ही
होगा। रुको मत। गुजरो पूरी तरह, पूरे
होश से,
ताकि
इस सीढ़ी का पूरा अनुभव हो जाए और वापस लौट-लौट कर इस सीढ़ी को देखने की इच्छा न हो।
पीछे लौटने का मन ही न हो, इस तरह
चलो। क्योंकि पीछे लौट कर देखने का मन भी यही कहता है कि तुम जहां से गुजर गए, वहां पूरी तरह अनुभव नहीं हो
पाया, कुछ अधूरा रह गया, कुछ अपरिपक्व रह गया, कुछ होनेऱ्होने को था, हो नहीं पाया--तो फिर तुम
पीछे लौट कर देखोगे।
यह जो
पुनर्जन्म की जीवन-चिंतना है, वह
इतनी ही है--वह पीछे लौट-लौट कर देखना है। तुम गुजरे बहुत बार जीवन से, लेकिन भोग न पाए; मन में खटक रह गई; ऐसा लगता ही रहा कि अभी कुछ
और मिलने को था। थोड़ा और धन मिल जाता तो सुख मिलता, थोड़ा और पद मिल जाता तो आनंद
मिलता,
थोड़ी
देर और जी लेते,
थोड़ी
देर और युवा रह लेते, तो
शायद सुख की थोड़ी सी प्रतीति होती--बस ऐसा पीछे लौट कर देखने का मन रह गया। जिस
दृश्य से तुम गुजर गए, गुजर न
गए, आंखें अटकी ही रहीं, पीछे तुम देखते ही रहे; चले आगे को, देखा पीछे को--यही पुनर्जन्म
का सिद्धांत है। लौट तुम आओगे। तुम अपने ही हाथ से लौटने का इंतजाम कर रहे हो।
वापस-वापस उसी गङ्ढे में गिरते रहोगे, जब तक कि तुम इस गङ्ढे से पूरी तरह मुक्त न
हो जाओ। और मुक्त होने का एक ही ढंग है कि तुम इसे पूरा का पूरा अनुभव कर लो।
अनुभव के अतिरिक्त कोई मुक्ति नहीं है।
मैं
त्याग को मुक्ति नहीं कहता; मैं
भोग को मुक्ति कहता हूं।
उपनिषदों
ने कहा है: तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। उन्हीं ने त्यागा जिन्होंने भोगा।
यह वचन
बड़ा क्रांतिकारी है। क्योंकि जिसने भोगा ही नहीं वह त्यागेगा कैसे! तुम बिना भोगे
भी त्याग सकते हो;
तब तुम
लौट आओगे। तुम्हें वह दृश्य पीछा करता रहेगा। अनभोगा रस तुम्हें बुलाएगा, बार-बार उसी जगह बुलाएगा। तुम
लाख उपाय करो,
तुम
कुछ कर न पाओगे;
तुम्हें
आना ही पड़ेगा। शरीर चलता जाएगा, मन
पीछे लौटता रहेगा। लेकिन अगर तुमने किसी बात को पूरा भोग लिया, जान लिया, सब पहलुओं से पहचान लिया, कुछ छोड़ा नहीं, निचोड़ लिया सारा सार, देख लिया पूरा का पूरा, कुछ देखने को न बचा--तो लौट
कर आने का सवाल कहां? लौट कर
देखोगे भी क्यों?
वहां
से मुक्ति हो गई। जो जान लिया, उसी से
मुक्त हो गए।
ज्ञान
मुक्ति है। अनुभव मुक्ति है। और जो अनुभव में जल्दी करेगा, कच्चा भागना चाहेगा, वह फिर लौट आएगा। ऐसे देर ही
होगी। ऐसे ही तो अनंत जन्मों की देर हो गई है।
तो मन
का एक उपयोग है,
और वह
है, उसके पार होना। जल्दी में उसे
छोड़ना मत। नहीं तो छूटेगा नहीं। कोई जल्दी नहीं है। ठीक से पहचान लो, ठीक से जान लो। मन को ठीक से
देख लो। जितना तुम जानोगे, जितना
देखोगे,
उतना
ही पाओगे--रेत है। इस रेत से हम तेल निकालने की चेष्टा कर रहे हैं। जिस दिन यह
तथ्य पूरी तरह आत्मसात हो जाएगा कि रेत से तेल नहीं निकलता, मन से शांति नहीं मिलती, उसी दिन तुम मुक्त हो गए, मन के पार हो गए। विधायक
उपयोग यही है मन का। उसकी सीढ़ी बनाओ। उस पर पैर रखो और आगे निकल जाओ।
व्यर्थ
नहीं है मन। कोई सीढ़ी व्यर्थ नहीं है। लेकिन तुम उस पागल की तरह हो, जो सीढ़ी को पकड़ लिया। भला
सीढ़ी सोने की हो,
हीरे-जवाहरात
जड़ी हो,
तो भी
सीढ़ी सीढ़ी है। उस पर बैठ कर तुम रोते रहोगे, उस पर बैठ कर तुम नाच न सकोगे। यात्रा करनी
है, आगे जाना है।
मन एक
पड़ाव है,
उससे
गुजर जाओ। वह एक सेतु है, उस पार
जाना है। बीच सेतु पर मत बैठ रहो। अन्यथा बहुत धक्के-मुक्के खाओगे, क्योंकि हजारों लोग गुजर रहे
हैं सेतु से। तुम्हें कभी शांति न मिलेगी, चैन न मिलेगा।
मन को
ठीक से पहचानते ही ध्यान का जन्म होता है। मन ध्यान के आगे की सीढ़ी है। ध्यान पर
भी रुकना नहीं है। क्योंकि ध्यान पर जो रुक गया, वह समाधि तक न पहुंच पाएगा।
समाधि तक पहुंचना है। समाधि का अर्थ होता है: समाधान हो गया, अब कुछ प्रश्न न रहा, न कोई जिज्ञासा रही, न कोई अनुभव करने की आकांक्षा
रही, न कोई जिजीविषा रही--सब शांत
हो गया। समाधि का अर्थ है: सभी लहरें झील में शांत हो गईं, कोई तरंग नहीं उठती, झील परिपूर्ण मौन है। इस
समाधि की अवस्था में ही सत्य का, परमात्मा
का, साइयां का मिलन है।
मन से
जाना है ध्यान पर,
ध्यान
से जाना है समाधि पर।
ये तीन
अवस्थाएं हैं। तुम अभी मन पर खड़े हो। अगर तुमने मन को ही पकड़ लिया और समझा कि यही
सब कुछ है--तुम रोओगे, दुखी
होओगे,
नरक
भोगोगे। इसलिए तो सभी ज्ञानी पुरुष तुम्हें मन से ध्यान की तरफ खींचना चाहते हैं।
ध्यान
मन की कोई क्रिया नहीं है, मन का
शांत हो जाना है। मन का अभाव है ध्यान। जैसे एक कांटे को हम दूसरे कांटे से निकाल
लेते हैं,
ऐसे ही
मन के कांटे को ध्यान के कांटे से निकाल लेते हैं। लेकिन फिर दूसरे कांटे को भी
सम्हाल कर रखने की जरूरत नहीं। वह भी बेकार हो गया। फिर दोनों कांटों को फेंक देते
हैं।
बहुत
नासमझ,
अधिक
नासमझ,
मन से
जकड़े हुए हैं। फिर तुम्हारे साधु-संन्यासी हैं, वे ध्यान से जकड़े हुए हैं। उन्होंने पहला
कांटा तो छोड़ दिया, वह
बाजार का कांटा तो छोड़ दिया, आश्रम
का कांटा पकड़ गया। दुकान का कांटा छोड़ दिया, मंदिर का कांटा पकड़ गया। बही-खाते का कांटा
छूट गया,
गीता-कुरान-बाइबिल
का कांटा पकड़ गया। मन के कांटे से किसी तरह छुटकारा किया बामुश्किल, अब वह जिस कांटे से मन के
कांटे को निकाला है, अब
उसकी पूजा जारी है, अब
उसको उन्होंने घाव में रख लिया है। वह उतना ही कांटा है। उसे धन्यवाद दो, उसे भी फेंक दो। जिस दिन मन
और ध्यान दोनों ही फिंक जाते हैं, उस दिन
समाधि।
समाधिस्थ
व्यक्ति ध्यान करता नहीं। मन ही न रहा तो अब ध्यान का क्या सवाल है? बीमारी ही न रही तो औषधि का
क्या करेंगे?
जिस
दिन तुम्हारी बीमारी ठीक हो जाती है, तुम औषधि की शीशी को कचरे में फेंक आते हो।
क्या करोगे औषधि का?
ध्यान
औषधि है। और जब बीमारी और औषधि दोनों ही चली गईं...क्योंकि कुछ पागल ऐसे हैं कि
बीमारी चली जाए तो औषधि की बोतल छाती से लगाए घूम रहे हैं। यह एक नई बीमारी हो गई।
अब वे कहते हैं,
हम यह
बोतल न छोड़ सकेंगे, क्योंकि
इस बोतल ने बड़ा सहारा दिया।
माना
कि सहारा दिया,
धन्यवाद
दो और छुटकारा पाओ। अन्यथा तुमने बीमारी की जगह फिर कुछ पकड़ लिया। थोड़े दिन में यह
बोतल ही बीमारी हो जाएगी। थोड़े दिन में ध्यान ही फिर तुम्हारा मन बन जाएगा।
क्योंकि यह भी कांटा है, यह भी
घाव पैदा करेगा।
इसलिए
बुद्धपुरुषों ने कहा है, जब
ध्यान का काम पूरा हो जाए, एक
क्षण रुकना मत,
ध्यान
को फेंक देना। उस पर मोह मत करना। संसारी मन पर मोह करता है, साधक ध्यान का मोह करने लगता
है। धार्मिक वही है जो दोनों को छोड़ देता है। तब समाधि है।
चौथा प्रश्न: आपने कहा, अस्तित्व एक दर्पण है जिसमें
हम अपने को ही देखते हैं। पाप-पुण्य, अशुभ-शुभ, दुख-सुख, नरक-स्वर्ग, सब हमारे ही प्रक्षेपण हैं।
यदि यह सच है, तो सर्वथा शुद्ध और शून्य हो गए संतों को हम सांसारिकों की पीड़ा, पाप और नरक कैसे दिखाई पड़ते
हैं?
बिलकुल
दिखाई नहीं पड़ते। यही तो उलझन है। जिसको दिखाई पड़ता हो, वह तुम्हारी ही दुनिया का
हिस्सा है। इसलिए जिन संतों को तुम्हारा नरक, दुख और पीड़ा दिखाई पड़ती हो, वे अभी संत नहीं हैं जानना।
वे तुम्हारा दुख मिटाने की चेष्टा करेंगे। जैसे तुम दुख मिटाने की चेष्टा कर रहे
हो, वे भी तुम्हारा दुख मिटाने की
चेष्टा करेंगे। वे बड़े सेवक बन जाएंगे, महात्मा हो जाएंगे। लेकिन संत नहीं हैं।
क्योंकि भूल तो वही है।
तुम्हें
भूल है कि तुम दुख में हो; और वे
भी उसी भूल में हैं कि तुम दुख में हो। तुम्हारी भी भूल यही है कि यह दुख कैसे
मिटे; और उनकी भी भूल यही है कि
तुम्हारा दुख कैसे मिटाया जाए। तुम इन संतों की बड़ी पूजा करोगे, क्योंकि वे बड़े सेवक होंगे।
लंगड़े-लूलों के हाथ-पैर दबाएंगे, अंधों
की सेवा करेंगे,
बीमारों
की चिकित्सा करेंगे, दीन-दरिद्र
के लिए फिक्र करेंगे। वे चौबीस घंटे सेवा में रत रहेंगे। भले लोग हैं, लेकिन संत नहीं। भला होना
संतत्व के लिए काफी नहीं है। संतत्व बहुत बड़ी घटना है; भले-बुरे से बहुत दूर है।
नेति-नेति का भवन है, दोनों
किनारों के पार है।
तुम
संत को समझने में बड़ी अड़चन पाओगे। क्योंकि संत को यह दिखाई पड़ता है कि तुम दुख में
नहीं हो,
तुम
माने हुए हो। उसे तुम्हारा दुख दिखाई ही नहीं पड़ता। तुम्हारी अवस्था संत के सामने
ऐसे है जैसे सन्निपात में पड़े हुए, बुखार में डूबे हुए आदमी की। वह आदमी
चिल्लाता है कि मेरी खाट आकाश में उड़ रही है। तुम क्या करोगे? तुम उसकी खाट पकड़ कर जमीन पर
ठोंकने की कोशिश करोगे? खूंटियों
से बांधोगे?
तुम
जानते हो कि यह आदमी सन्निपात में है; खाट कहीं उड़ नहीं रही है, खाट जमीन पर रखी है। तुम इस
आदमी को होश में लाने की कोशिश करोगे, खाट पकड़ने की कोशिश नहीं करोगे।
सेवक, जिनको तुम महात्मा कहते हो, वे खाट को पकड़े हुए हैं। जो
इस सन्निपात में पड़े आदमी की भ्रांति है कि मैं दुख में हूं, वही उनकी भी भ्रांति है। वे
भी मानते हैं कि यह ठीक कह रहा है। लेकिन वास्तविक जिसको बोध हुआ है, वह देख रहा है कि कहीं खाट
नहीं उड़ रही है। तुम्हें होश में लाना है। तुम्हारे बुखार को कम करना है। तुम जब
होश में आओगे,
तब
तुमको भी दिखाई पड़ जाएगा कि खाट नहीं उड़ रही है, कोई दुख नहीं है।
तो
वास्तविक संतपुरुषों ने सेवा नहीं की है, सत्संग किया है। वास्तविक संतपुरुषों ने
तुम्हारा दुख नहीं मिटाया है, तुम्हारे
चित्त को जगाया है। यह बड़ी अलग बात है।
बुद्ध
ने या महावीर ने या कृष्ण ने किसकी सेवा की है? तुम उनको सर्वोदयी नहीं मान सकते हो। किसकी
सेवा की है?
बुद्ध
को तुमने कभी अस्पताल में देखा? कि
तुमने उन्हें भूदान करते-करवाते देखा? नहीं, सच तो यह है, अब सर्वोदयी ढंग से सोचने
वाले लोग कहते हैं, इसका
मतलब है कि बुद्ध के संतत्व में थोड़ी कुछ कमी है। क्योंकि संत तो सेवक होगा। वह तो
जी-जान लगा देगा,
कुर्बान
हो जाएगा--तुम्हारा दुख मिटाने को।
लेकिन
बुद्ध ने ऐसा कुछ किया नहीं। कारण? कारण साफ है। बुद्ध ने तुम्हें जगाने की
कोशिश की है। क्योंकि बुद्ध को तो दिखाई ही नहीं पड़ता कि कहीं दुख है। दुख तुम्हें
दिखाई पड़ रहा है। बुद्ध तुम्हारी दृष्टि में सहभागी नहीं हो सकते।
ऐसा ही
समझो कि मैं बैठा हूं और मुझको दिखाई पड़ रहा है कि एक रस्सी पड़ी है। तुम वहां दूर
खड़े हो और चिल्ला रहे हो कि सांप! सांप! अब दो ही उपाय हैं। या तो मैं भी लकड़ी
लेकर तुम्हारे साथ सांप को मारने निकल चलूं। और मुझे दिखाई पड़ रहा है कि सांप वहां
है नहीं,
केवल
रस्सी पड़ी है। अगर मैं तुम्हारे दुख को मिटाने में लग जाऊं तो उसका मतलब यह है कि
मैंने लकड़ी उठा ली और तुम्हारे साथ चल पड़ा सांप को मारने। तुम्हें सांप दिखाई पड़
रहा है,
यह सच
है। तुम्हारी पीड़ा भी मैं समझता हूं। लेकिन लकड़ी उठा कर तुम्हारे साथ न चलूंगा।
ज्यादा से ज्यादा लालटेन लेकर तुमसे कहूंगा, आओ, थोड़ा चल कर देख लें, सांप है भी? अगर होगा तो लकड़ी उठा लेंगे।
पर इस लालटेन से पहले ठीक पहचान हो जाए।
संतपुरुषों
ने तुम्हें ध्यान दिया है, बोध
दिया है,
होश
दिया है। ताकि तुम ठीक से देख लो कि दुख है? या कि दुख तुम्हारी मान्यता है? नरक है? या नरक तुम्हारे भीतर घिरे
हुए भय का नाम है?
तुम्हें
कोई सता रहा है?
या कि
तुमने मान रखा है कि तुम सताए जा रहे हो? यह तुम्हारी विक्षिप्तता है। वास्तविक गहराई
में तुमने न तो कभी दुख पाया है, न
तुम्हें दुख दिया जा सकता है।
इसलिए
कृष्ण गीता में कहते हैं, न
हन्यते हन्यमाने शरीरे। शरीर भी काट डाला जाए तो तुम्हें काटा नहीं जा सकता। अग्नि
में जलाया जाए तो तुम्हें जलाया नहीं जा सकता। शस्त्रों से छेदा जाए तो तुम्हें
छेदा नहीं जा सकता। तो तुम्हें दुख कैसे दिया जा सकता है? तुम दुखी हो कैसे सकते हो? दुखी होना असंभव है। लेकिन
तुम दुखी हो,
यह मैं
देखता हूं।
संत को
तुम्हारा दुख दिखाई नहीं पड़ता; तुम
दुखी हो,
इतना
दिखाई पड़ता है। इस फर्क को ठीक से समझ लेना। उसे यह दिखाई पड़ता है कि तुम काफी
शोरगुल मचा रहे हो, हाथ-पैर
पीट रहे हो,
डूब
रहे हो;
नदी
कहीं नहीं दिखाई पड़ती जिसमें तुम डूब रहे हो। चिल्लाते तुम दिखाई पड़ते हो, उछलते-कूदते हो कि मारा, मरा! कि डूबा, बचाओ! लेकिन नदी कहीं नहीं
दिखाई पड़ती। किसी स्वप्न की नदी में तुम डूबते हो। तुम्हारी चिल्लाहट, तुम्हारी पुकार उसे सुनाई
पड़ती है।
अब दो
उपाय हैं: या तो संत भी कूद पड़े नदी में जो है ही नहीं; तब वह सर्वोदयी हो गया। या
संत तुम्हें जगाने की कोशिश करे कि सपना है, एक दुखस्वप्न तुम देख रहे हो।
लेकिन
तुम भी पसंद करोगे कि संत भी कूद पड़े तुम्हारी नदी में। क्योंकि तब तुम्हें लगेगा
कि इसमें दया है,
करुणा
है। संत वहीं बैठा रहे नदी के किनारे पर--तुम्हारी नदी के, क्योंकि उसके लिए तो कोई नदी
है नहीं--और वह मुस्कुराता रहे और कहे कि ठीक है, थोड़ा और उछल-कूद करो, थोड़ी देर में समझ आएगी। तो
तुम कहोगे,
यह
आदमी दुष्ट है।
बुद्धपुरुष
तुम्हें कठोर मालूम पड़े हैं, क्योंकि
तुम्हारे दुख की दुनिया में उतर नहीं आते। ठंडे मालूम पड़े हैं, पिघलते नहीं। तुम इतनी पीड़ा
से भरे हो और ये सच्चिदानंद की बात करते चले जाते हैं! संसार इतने दुख में है...।
मेरे
पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, संसार
इतने दुख में है और आप ध्यान की बात कर रहे हैं? पहले दुख मिटना चाहिए।
संसार
सदा से दुख में है। और अगर पहले दुख मिट सकता होता तो मिट गया होता। पहले ध्यान
होगा तो ही दुख मिट सकता है, दूसरा
कोई उपाय नहीं है। क्योंकि दुख होता तो मिट भी जाता। दुख है नहीं; मान्यता है, बड़ी गहरी मान्यता है। ऐसा ही
नहीं कि गरीब दुखी है, अमीर
भी दुखी है। ऐसा ही नहीं कि जिनके पास कुछ नहीं है, वे दुखी हैं; जिनके पास सब कुछ है, वे भी दुखी हैं। तो होने न
होने से दुख का कोई संबंध मालूम नहीं पड़ता; झोपड़े-महल से कोई संबंध मालूम नहीं पड़ता; दृष्टि से मालूम पड़ता है, बेहोशी से मालूम पड़ता है। और
अगर बेहोशी है,
तो अब
दो उपाय हैं: या तो तुम्हारे दुख को मिटाया जाए, जो कि बेहोशी से पैदा हो रहा
है। तो हम उस दुख को मिटाते रहेंगे, और दुख पैदा होता रहेगा। एक मिटाएंगे, दो दुख पैदा हो जाएंगे। पत्ते
काटेंगे,
नये
पत्ते निकल आएंगे। वृक्ष समझेगा कि कलम की जा रही है, और प्रसन्नता से पत्ते पैदा
करने लगेगा।
तो
संसार में दुख मिटाने वाले लोग भी सदा से रहे हैं। वे अपनी कोशिश करते रहते हैं
मिटाने की,
दुख
मिटता नहीं।
एक
दूसरा वर्ग है,
छोटा
सा वर्ग है--जागे हुए व्यक्तियों का--जो देखता है कि जड़ कहां है! जड़ तुम्हारी
मूर्च्छा में है। वह तुम्हारे दुख की चिंता नहीं करता। दुख है ही नहीं जिसकी चिंता
करनी पड़े। वह तुम्हारी मूर्च्छा की फिक्र करता है। वह मूर्च्छा को काटता है।
लेकिन
तुम्हें भी उसका काम काम जैसा नहीं मालूम पड़ता। तुम्हें भी ऐसा लगता है कि यह आदमी
कुछ भी नहीं कर रहा है।
बुद्ध
बैठे हैं वृक्ष के नीचे, क्या
कर रहे हैं?
कुछ भी
नहीं कर रहे,
खाली
बैठे हैं। उठो,
कुछ
मरीजों की सेवा ही करो। इतने दीन-दुखी हैं। लोगों को समझाओ कि दहेज मत लो। विधवाओं
का विवाह करवा दो।
जैसे
कि जिनका विवाह है, वे बड़े
सुखी हैं! जैसे सधवाएं बहुत सुखी हों! सधवाएं दुखी हैं, विधवाएं दुखी हैं। दहेज लेने
वाले दुखी हैं,
न लेने
वाले दुखी हैं। गरीब दुखी हैं, अमीर दुखी
हैं। बीमार दुखी हैं, स्वस्थ
दुखी हैं। अलग-अलग दुख हैं। बीमार का दुख है कि स्वस्थ नहीं है। स्वस्थ का दुख है
कि अब क्या करें?
स्वास्थ्य
है, अब करना क्या? इसको कहां बरबाद करें? कहां जाएं? शराबघर में जाएं? वेश्यालय में जाएं? कहां जाएं? अब यह स्वास्थ्य है, इसका क्या करें?
बीमार
को पता नहीं कि स्वस्थ आदमी की क्या तकलीफ है। गरीब को पता नहीं कि अमीर की क्या
तकलीफ है। और मजा यह है कि अमीर भी सोचता है, गरीब ज्यादा सुखी है। और गरीब भी सोचता है, अमीर ज्यादा सुखी है। शहरों
में रहने वाले लोग सोचते हैं, गांवों
में रहने वाले लोग सुखी हैं। गांव में रहने वाले तड़पते हैं, किसी तरह शहर पहुंच जाएं।
हमेशा
दूसरा सुखी दिखाई पड़ता है, क्योंकि
दूसरे की स्थिति का हमें कुछ पता नहीं। उसके भीतर की परेशानियों का हमें कुछ पता
नहीं। गरीब मान ही नहीं सकता कि अमीर को रात नींद क्यों नहीं आ रही है! कोई कारण
ही नहीं है। तुम्हारे पास सब है, अब सो
जाओ। मगर अमीर नहीं सो पाता। सच तो यह है कि यह अमीर होने की योग्यता का हिस्सा है
कि नींद खो जाए। अगर नींद आती रहे तो इसका मतलब है, अभी तुम थोड़े गरीब हो, अभी ठीक अमीर नहीं हुए हो।
असफल
आदमी सोचता है कि अब तुम सफल हो गए, अब क्या कर रहे हो! लेकिन सफल आदमी चालीस और
पैंतालीस साल के बीच में हार्ट अटैक, अल्सर, सब तरह के उपद्रव से घिर जाता है। अमरीका
में तो ऐसी कहावत हो गई है कि अगर पैंतालीस साल के पहले हार्ट अटैक न हो तो जीवन
बेकार गया। क्योंकि उसका मतलब है, तुम
असफल मर रहे हो। सफल आदमी को हो ही जाता है हार्ट अटैक उस समय तक। इतनी दौड़-धूप, इतना उपद्रव, इतनी चिंता, इतनी परेशानी, बेचैनी, कि हार्ट अटैक न हो
चालीस-पैंतालीस के बीच में, तो
जीवन ऐसे ही गंवा दिया, सस्ते
में बीत गया।
इस
सारे दुख को दूर करना है--सीधा? तो जो
दुख दूर करने में लगा है, उसे भी
अभी जागरण नहीं है, वह भी
जागा नहीं है। जिसने अपने भीतर का दुख दूर किया, उसको यह भी दिखाई पड़ गया है
कि मूर्च्छा कटे तो ही दूर हो सकता है। तो तुम्हारे दुख में सिर्फ तुम्हारा अज्ञान
दिखाई पड़ता है उसे। तुम्हारा शोरगुल, उछलकूद दिखाई पड़ती है, सामने पड़ी हुई रस्सी भी दिखाई
पड़ती है,
सांप
नहीं दिखाई पड़ता। और तुम किस चीज को मारने के लिए तत्पर खड़े हो तलवार उठा कर, वह भी दिखाई नहीं पड़ता। वह
तुम्हारे उपद्रव को देख कर तुम्हें शांत करने की कोशिश करेगा, जगाने की कोशिश करेगा। सांप
को नहीं मारना है,
तुम्हारी
बेहोशी को मारना है। दुख को नहीं मिटाना है, तुम्हारी मूर्च्छा को मिटाना है। जड़ कट जाए, वृक्ष अपने आप सूख जाता है।
नहीं, संतपुरुषों को तुम्हारी पीड़ा
नहीं दिखाई पड़ती। तुम पीड़ित हो रहे हो, यह दिखाई पड़ता है। और तुम पीड़ित नाहक हो रहे
हो, यह भी दिखाई पड़ता है।
संतपुरुष तुम पर हंस सकते हैं, दया का
कोई कारण नहीं है। तुम्हारी बात मूढ़तापूर्ण है। तुम्हारी अवस्था मूढ़तापूर्ण है।
नहीं हंसते,
क्योंकि
तुम और परेशान होओगे। चेहरा गंभीर बनाए रखते हैं, कि नाहक तुम और नाराज न हो
जाओ, नहीं तो सांप को छोड़ कर उन्हीं
पर हमला करने लगोगे। वे तुम्हें सांत्वना दिए रहते हैं कि ठीक है, बहुत दुख में हो माना, धीरे-धीरे कुछ उपाय होगा।
लेकिन तुम्हारा दुख बिलकुल मूढ़ताजन्य है।
यही तो
अर्थ है। सारे शास्त्र यही कह रहे हैं कि अज्ञान से जन्मता है दुख--मूर्च्छा से, बेहोशी से। तो मूर्च्छा ही
तोड़नी है। दीया जलाना है।
पांचवां प्रश्न: आपने कहा कि चित्त की अनेक आकांक्षाओं के साथ
भगवत-प्राप्ति को एक अतिरिक्त आकांक्षा की तरह नहीं जोड़ा जा सकता।
अंतर एक जु सो बसे, औरां चित्त न लाऊं।
इस संदर्भ में बताएं कि धर्म-पथ की यात्रा फिर आरंभ कैसे होगी?
बहुत
आकांक्षाएं हैं। हजारों चीजें पानी हैं। स्वभावतः लगता है कि परमात्मा की आकांक्षा
भी पैदा होगी तो इन्हीं आकांक्षाओं में एक आकांक्षा की तरह पैदा होगी। अगर सभी
आकांक्षाएं मिट जाएं और तब परमात्मा की आकांक्षा सार्थक हो सकती है तो वह पैदा
कैसे होगी?
समझें!
हजार आकांक्षाएं हैं, परमात्मा
एक हजार एकवीं आकांक्षा नहीं हो सकता। फिर प्रारंभ कहां से होगा? प्रारंभ यहां से होगा कि ये
जो हजार आकांक्षाएं हैं, इनकी
व्यर्थता तुम्हें दिखाई पड़ने लगे। हजार तो सार्थक रहें और एक हजार एकवीं और सार्थक
हो जाए,
तो
तुम्हारा संसार ही बड़ा हो रहा है, धर्म
का जन्म नहीं हो रहा है। ये हजार में तुम्हें दिखाई पड़ने लगे कि ये तो व्यर्थ हैं।
यह तो मैं मृग-मरीचिकाओं के पीछे दौड़ रहा हूं। इनमें से एक-एक आकांक्षा गिरने लगे, नौ सौ निन्यानबे रह जाएं, तो वह जो जगह खाली हो गई वह
जगह परमात्मा को समर्पित हुई। नौ सौ अट्ठानबे रह जाएं, और थोड़ी जगह खाली हो गई, वह जगह भी परमात्मा को
समर्पित हो गई। अभी वहां परमात्मा की आकांक्षा पैदा नहीं हो सकती, लेकिन जगह पैदा हो रही है, जहां आकांक्षा समाविष्ट हो
सकेगी।
ऐसे
तुम्हारी रोज-रोज आकांक्षाओं का बोध आकांक्षाओं को मारता जाएगा, गिराता जाएगा। एक दिन ऐसी घड़ी
आती है कि तुम्हारी हजार ही आकांक्षाएं गिर गईं, उनकी बैसाखियां टूट गईं, उनका अर्थ खो गया। उस
शून्य-दशा में,
जहां
बाकी सब आकांक्षाएं गिर गईं, एक
प्रचंड तूफान की भांति एक आकांक्षा का जन्म होता है। वह आकांक्षा परमात्मा की
आकांक्षा है। वह विराट की आकांक्षा है। वह और आकांक्षाओं के साथ नहीं हो सकती; वह अकेली ही हो सकती है।
एक
कदम--कि जब और आकांक्षाएं गिर जाएं तब परमात्मा की आकांक्षा पैदा होती है। दूसरा
कदम--जब परमात्मा की भी आकांक्षा गिर जाए तो परमात्मा से मिलन होता है। क्योंकि
उतनी एक आकांक्षा भी बाधा रहेगी।
इसलिए
पहले तो संतपुरुष समझाते हैं कि सब आकांक्षाओं को गिरा दो, परमात्मा की आकांक्षा को
जगाओ। फिर जब ऐसी घड़ी आ जाती है, सौभाग्य
की घड़ी,
कि
तुम्हारे भीतर एक ही अभीप्सा रही परमात्मा की, तब संतपुरुष समझाते हैं, अब इसे भी छोड़ दो। आकांक्षा
मात्र छोड़ दो। और सब आकांक्षाएं छोड़ दीं, अब यह आकांक्षा भी जाने दो; अब तुम निराकांक्षा से भर जाओ, निर्वासना में खड़े हो जाओ।
उसी क्षण तुम परमात्मा हो गए। अब कुछ बाधा न रही।
यह
अपने आप घट जाता है। क्योंकि जब संसार की आकांक्षाएं व्यर्थ हो जाती हैं तो आधी
घटना तो घट गई कि संसार की सब आकांक्षाएं व्यर्थ हैं। जब परमात्मा की आकांक्षा से
तुम चलना शुरू करते हो तो तुम्हारे जीवन में प्रार्थना पैदा होती है, भक्ति पैदा होती है, भाव पैदा होता है, बड़ी उत्फुल्लता आती है, एक नया उन्मेष होता है, एक नये नृत्य का जन्म होता
है। लेकिन तुम पाते हो कि यह छोटी सी जो आकांक्षा है परमात्मा को पाने की, यह एक पर्दे की तरह है।
परमात्मा आमने-सामने है अब, लेकिन
एक झीना सा परदा है। हाथ तुम बढ़ाते हो, परदे से ही टकराता है। आंख परदे को ही देखती
है। उसके पीछे छिपी हुई झलक दिखाई पड़ती है। लेकिन सीधा-सीधा परमात्मा प्रकट नहीं
होता। तब तुम्हें समझ में आएगा कि यह जो छोटी सी आकांक्षा अभी शेष रह गई है
परमात्मा को पाने की--पाने की आकांक्षा जो शेष रह गई है--वही तुम्हें पूरा नहीं
होने दे रही है। इसे भी छोड़ दो।
वह भी
गिर जाती है। उस परदे के गिरते ही फिर भक्त भगवान है। फिर ऐसा नहीं कि भक्त खड़ा है, भगवान सामने खड़े हैं, आरती उतार रहा है। नहीं, तब भक्त ही भगवान है। तब सब
फासले गिर गए,
तब
अद्वैत का जन्म हुआ।
तो तुम
एक हजार आकांक्षाओं में परमात्मा की आकांक्षा को मत जोड़ लेना। वे एक हजार आकांक्षाएं
तो गलत हैं ही,
उन एक
हजार आकांक्षाओं में तुम परमात्मा की आकांक्षा भी जोड़ लोगे, वह आकांक्षा भी दूषित हो
जाएगी,
उसकी
भी पवित्रता नष्ट हो जाएगी।
मैंने
सुना है कि एक सूफी फकीर अपने एक शिष्य के साथ हज की यात्रा को गया। हजारों मील से
पैदल चल कर वे आ रहे थे। मरुस्थल में मार्ग खो गया। बड़ी प्यास लगी। किसी तरह खोज
कर एक छोटा सा झरना मिल गया। बड़े प्रसन्न हुए। न केवल झरना मिला, बल्कि झरने के पास ही पड़ा एक
पात्र भी मिल गया,
क्योंकि
उनके पास पात्र भी न था। उनके आनंद का कोई ठिकाना न रहा। उन्होंने उस पात्र में झरने
का पानी भरा,
लेकिन
जब पीने गए तो वह इतना तिक्त और कड़वा था, जहरीला था, कि घबड़ा गए कि यह तो मरने की
बात हो जाएगी। यह तो झरना जहर का है।
उस
झरने को तो छोड़ा,
दूसरे
झरने की तलाश में निकले, लेकिन
पात्र को साथ ले लिया। दूसरे झरने पर जाकर पानी पीया, वह भी जहरीला था। अब तो बहुत
घबड़ा गए कि मौत निश्चित है। जल सामने है, पी नहीं सकते। कंठ सूख रहा है।
तीसरे
झरने की तलाश में गए, वह भी
मिल गया;
लेकिन
पानी पीया तो वह भी कड़वा था। पर तीसरे झरने पर एक और आदमी, एक फकीर बैठा था। उससे
उन्होंने कहा कि हम समझते नहीं कि यह मामला क्या है, सब झरने कड़वे हैं! उस फकीर ने
गौर से देखा उन्हें और कहा कि झरने तो कड़वे नहीं हैं, जरूर तुम्हारे पात्र में कुछ
खराबी होगी। क्योंकि मैं तो इन्हीं झरनों पर जी रहा हूं। तुम झरने से सीधा पानी
पीओ, पात्र में मत भरो।
सीधा
पानी पीया तो ऐसा मीठा पानी कभी पीया ही न था। वह पात्र गंदा था। वह पात्र जहरीला
था।
तो जिस
आकांक्षा के पात्र में तुमने सारे संसार के जहर भोगे हैं, उसी आकांक्षा के पात्र में
परमात्मा को भी डाल लोगे, वह भी
कड़वा हो जाएगा। इसीलिए तो तुम्हारी परमात्मा की आकांक्षा भी दुख ही देती है, सुख कहां देती है!
अक्सर
मैं देखता हूं कि धार्मिक आदमी जिसे तुम कहते हो, वह उससे भी ज्यादा दुखी होता
है जिसको तुम सांसारिक कहते हो। सांसारिक को धन चाहिए, पद चाहिए--ठीक है; यह धार्मिक को धन भी चाहिए, पद भी चाहिए, परमात्मा भी चाहिए। इसकी
बीमारी और भी भयंकर है। सांसारिक का गणित कम से कम सीधा-साफ-सुथरा है: पद चाहिए, धन चाहिए, यश चाहिए; ठीक है; खाओ-पीओ, मौज करो। तुम उसे थोड़ा
कभी-कभी मुस्कुराते भी देख लोगे, हंसते
भी देख लोगे। धार्मिक आदमी की हालत तो बहुत ही खस्ता है। उसके हाल तो बड़े बुरे
हैं। उसको धन भी चाहिए, पद भी
चाहिए,
यश भी
चाहिए,
परमात्मा
भी चाहिए,
ध्यान
भी चाहिए,
शांति
भी चाहिए। उसकी हालत ऐसी है जैसे एक ही बैलगाड़ी में दोनों तरफ बैल जुते हों।
अस्थिपंजर बैलगाड़ी के डगमगा जाएंगे, दोनों तरफ बैल खींच रहे हैं। यात्रा तो हो
ही नहीं सकती।
उस
पात्र को ही गिरा देना पड़ेगा। जिससे संसार के जल पीए, जहर पीए, जिससे केवल दुख जाने, उस पात्र को ही गिरा देना
होगा। उस पात्र में परमात्मा की आकांक्षा को मत रखना। अगर पात्र न हो तो हाथों से
अंजुलि भर कर ही परमात्मा का जल पी लेना, लेकिन उस गंदे पात्र में उसको मत गिरने
देना।
और एक
दिन तुम पाओगे कि आकांक्षा मात्र ही गंदा पात्र है। आकांक्षा की किसी चीज की, कि वह गंदी हो गई। मांगा, कि विषाक्त हुए। बिन मांगे जो
मिल जाए,
बिन
चाहे जो मिल जाए,
वही
परमात्मा है। और मिल जाता है बिन मांगे, बिन चाहे।
असली
सवाल न तो मांगने का है, न
चाहने का है;
असली
सवाल अपने को देने का है। अपने को देने को जो राजी है, उसे मिल जाता है।
आखिरी प्रश्न: हमें आश्रम से नगर में जाने का अवसर आता है। कभी-कभी
नगरवासी आपके और आश्रम के संबंध में प्रश्न पूछते हैं। हम तो अपनी ओर से
संत-श्रेष्ठ दादू का यह वचन दोहराना पसंद करते हैं: समरथ सब बिधि साइयां, ताकी मैं बलि जाऊं। लेकिन
इससे उन मित्रों की तसल्ली नहीं होती। उनके कुछ प्रश्न इस प्रकार हैं:
पहला प्रश्न: आपके भगवान का पूरे दिन का कार्यक्रम क्या है?
कोई
कार्यक्रम नहीं। करने को कुछ बचा नहीं। करने की कुछ आकांक्षा भी नहीं। करना हो
सकता है,
इसकी
संभावना भी नहीं। कर्ता ही टूट जाए, तभी तो भगवत्ता का अनुभव शुरू होता है।
तो जब
पूछे कोई कि तुम्हारे भगवान का पूरे दिन का कार्यक्रम क्या है? तो कहना, कोई कार्यक्रम नहीं है।
उन्हें तसल्ली हो या नहीं, यह
सवाल नहीं है। क्योंकि उनकी तसल्ली होनी चाहिए, इसकी हमारी जिम्मेवारी है क्या? उत्तर सही होना चाहिए, तसल्ली की फिक्र मत करना।
क्योंकि जिसने तसल्ली की फिक्र की, उसके उत्तर का सही होना खंडित हो जाता है।
क्योंकि तब ध्यान यह होता है कि इसकी तसल्ली होनी चाहिए। अब अज्ञानी की तसल्ली
करनी हो तो झूठ बोले बिना कोई रास्ता नहीं। मूढ़ की तसल्ली करनी हो तो मूढ़तापूर्ण
उत्तर चाहिए। तसल्ली की चिंता ही मत करना। इस संसार में कोई किसी को तसल्ली देने
के लिए नहीं है। और हम किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने
प्रति उत्तरदायी है। तुम तो जो सत्य हो वह कह देना।
सत्य
इतना ही है कि यहां कोई कार्यक्रम नहीं है। यहां तुम सुबह मुझे सुनने आते हो। शायद
तुम सोचते होओ कि चूंकि तुम आठ बजे आते हो, इसलिए मैं आठ बजे बोलता हूं। तुम गलती में
हो। चूंकि मैं आठ बजे बोलता हूं, इसलिए
तुम आठ बजे आते हो। इसका ध्यान रखना। तुम्हारी व्यवस्था से मैं नहीं बोल रहा हूं।
यह वक्त बोलना होता है, तुम्हें
बुला लेता हूं। जिस दिन नहीं होगा उस दिन तुमसे कह दूंगा कि अब नहीं होता।
जब
मुझे नींद आती है तब सो जाता हूं; जब
बोलने का मन होता है, बोलता
हूं; जब चुप होने का मन होता है तब
चुप होता हूं। कोई कर्तव्य नहीं है। तुम्हारी कोई सेवा नहीं कर रहा हूं। इस
भ्रांति में मत पड़ना कि तुम्हारी कोई सेवा कर रहा हूं। यह मेरा आनंद है। जैसे फूल
खिलता है अपने आनंद से। किसी को सुगंध मिल जाए, बात और; न मिले, कोई हर्ज नहीं। अगर मुझे बोलना ही हो, तुम न भी होओगे तो भी बोल
लूंगा--वृक्षों से बोल लूंगा, पक्षियों
से बोल लूंगा।
पक्षी
सुबह गीत गाते हैं। उनका गीत जैसे अर्थहीन है, प्रयोजनहीन है, वैसे ही मेरा बोलना है।
तुममें कोई परिवर्तन हो, यह
आकांक्षा नहीं है। क्योंकि दूसरे में परिवर्तन की आकांक्षा भी दूसरे को नियंत्रित
करने की चेष्टा है। परिवर्तन हो जाए, बात और; न हो, सब ठीक है, कोई अंतर नहीं पड़ता है। मैं
बोलता हूं अपने आनंद से, तुम
सुनते हो अपने आनंद से। अगर इन दोनों के बीच कुछ घटता हो अपने आप, घट जाए; न घटता हो, न घटे। लेकिन ध्यान रखना कि
कोई कार्यक्रम मेरा नहीं है।
मुझसे
भी लोग आकर पूछते हैं कि आपका मिशन क्या है?
मैं
कोई पागल हूं?
पागलों
के मिशन होते हैं। मिशन का मतलब है: दूसरों के लिए कुछ करना है, दूसरों को सुधारना है, दूसरों को बदलना है। दूसरे को
कभी कोई बदला है?
दूसरे
को कभी कोई बदल सका है? मेरा
कोई मिशन नहीं है। मैं अपने आनंद में आनंदित हूं। अगर तुम्हें मेरे साथ नाचने में
आनंद आता हो तो नाच लेना; मेरे
पास बैठने में आनंद आता हो तो बैठ लेना। मैं अपने आनंद से बैठा हूं, तुम अपने आनंद से बैठ लेना। न
तुम मुझ पर कृपा करना, न मैं
तुम पर कृपा कर रहा हूं। न मैंने तुम्हारी कोई सेवा की है, न तुम्हें मेरी सेवा करने की
कोई जरूरत है। तुम अपने आनंद की तलाश में हो। अगर मेरे पास तुम्हें कोई झलक मिलती
है तो ठीक,
अन्यथा
तुम अपनी यात्रा पर आगे बढ़ जाना।
हमारे
बीच कोई सौदा नहीं है, धर्म
का भी सौदा नहीं है। मैं तुम्हें कुछ दे नहीं रहा हूं। मैं कुछ हूं। अगर मेरे पास
होने से तुम्हारे भीतर कोई प्रतिसंवेदन पैदा हो जाता हो--जो मैं हूं, उसमें से तुम्हें कुछ देने का
उपाय नहीं है--अगर उसके पास होने से तुम्हारे भीतर भी कोई धुन पैदा होने लगे और
तुम्हारा स्वभाव प्रकट होने लगे, तो बस
बात हो गई।
यह
थोड़ा समझ लेने जैसा है। जिस दिन तुम पाओगे उस दिन तुम ऐसा न पाओगे कि मैंने दिया
था; उस दिन तुम ऐसा पाओगे कि मेरे
पास, तुम्हारे पास जो छिपा था, उसका तुम्हें पता चल गया। न
मैंने कुछ दिया,
न
तुमने कुछ लिया;
सिर्फ
मेरे पास तुम्हें यह अहसास आ गया कि अगर एक व्यक्ति को ऐसा हो सकता है, तो मुझे क्यों नहीं? जैसे कोई बीज किसी वृक्ष के
पास आ जाए और उसे यह अहसास आ जाए कि अगर एक बीज वृक्ष हो गया, तो मैं भी बीज हूं, मैं भी वृक्ष हो सकता हूं। बस
इतनी प्रतीति तुम्हें हो जाए। वह भी मैंने दी नहीं, वह भी तुमने ही ली। क्योंकि मैं
कैसे दे सकता हूं?
कौन
किसको दे सकता है?
इस
संसार में प्रत्येक स्वयं होने को है। और प्रत्येक अपने भीतर पूरा का पूरा छिपाए
बैठा है। सिर्फ किसी में वैसी घटना घटती देख कर तुम्हें अपनी संभावना की प्रतीति
हो जाए,
तुम्हें
अपने भविष्य की थोड़ी झलक मुझमें मिल जाए, बस समाप्त हो गई बात। तुम यात्रा पर चल पड़े।
कोई
कार्यक्रम नहीं है।
पूछना
लोगों का स्वाभाविक है। क्योंकि उनकी इच्छा होती है, संतपुरुष उनकी सेवा करें। लोग
कहते तो हैं ऊपर से कि हम संतों की सेवा करते हैं, लेकिन भीतर से चाहते हैं कि
संतपुरुष उनकी सेवा करें। मैं किसी की सेवा करता दिखाई नहीं पड़ता। मेरा कोई
समाज-उद्धार और समाज-रूपांतरण का कोई आयोजन नहीं है, क्योंकि मैं ऐसी मूढ़ता में
विश्वास ही नहीं करता।
समाज
सदा ऐसा ही रहेगा,
क्योंकि
समाज सोए हुए लोगों की भीड़ है। इसमें से कुछ लोग जाग सकते हैं। जो जाग जाएंगे, वे तत्क्षण इस समाज के हिस्से
नहीं रह जाते;
वे
किसी एक और दूसरे ही लोक के हिस्से हो जाते हैं। सोया हुआ आदमी और जागा हुआ आदमी
दो अलग तरह के आदमी हैं। एक सपनों में खोया है, एक सत्य में उठ गया है। जो कुछ होता है इस
जगत में,
वह
व्यक्ति में घटित होता है, भीड़
में नहीं;
क्योंकि
भीड़ के पास कोई आत्मा नहीं है।
मैं
तुमसे अलग-अलग बोल रहा हूं, तुम्हारी
भीड़ से नहीं। भीड़ से क्या बोलना है? भीड़ कोई है? तुममें से एक-एक व्यक्ति उठ
कर चला जाएगा,
फिर
पीछे भीड़ छूट जाएगी? कोई भी
नहीं बचेगा,
जगह
खाली हो जाएगी,
शून्य
रह जाएगा। मैं तुमसे एक-एक से बोल रहा हूं सीधे-सीधे। तुम एक-एक मुझे सुन रहे हो।
समुदाय और समाज और राष्ट्र कोरे शब्द हैं; इन शब्दों के पीछे कुछ भी नहीं है। और इन
शब्दों ने बड़े उपद्रव पैदा कर दिए हैं।
तो
मेरा न तो कोई कार्यक्रम है, न कोई
मिशन है,
न किसी
को बदलने की कोई इच्छा है। क्योंकि मैं तो मानता हूं, वह भी हिंसा है। दूसरे को
बदलने की इच्छा गहरी हिंसा है। मैं कौन हूं बदलने वाला? यह मेरा आनंद था मैं बदल गया।
तुम्हारा आनंद होगा तुम बदल जाओगे। और अगर तुमने यही तय किया है कि नहीं बदलना है, यही तुम्हारा आनंद है, तो मेरे आशीर्वाद। तुम्हें
तुम्हारे स्वभाव से जरा भी च्युत करने की आकांक्षा नहीं है। तुम जो हो सकते हो, वही हो जाओ। उसमें जरा भी
बाधा मेरे कारण न पड़े। इसलिए तुम्हारे मार्ग पर बिलकुल नहीं आता। इसलिए तुम्हें
कोई ऐसा अनुशासन नहीं देता कि जिससे तुम कारागृह में बंद हो जाओ; तुम्हें कुछ ऐसे विधि-विधान
नहीं देता जिनमें तुम जकड़ जाओ। यही तो अड़चन है बाहर लोगों को कि मैं अपने शिष्यों
को, अपने संन्यासियों को एक
विशिष्ट आचरण की विधि, एक
अनुशासन,
एक
ढांचा,
एक
मर्यादा क्यों नहीं देता?
मर्यादा
तुम्हारे बोध से आनी चाहिए। मैं तुम्हें बोध देता हूं। और अगर बोध मैं न दे पाऊं
और मर्यादा दे दूं, तो मैं
तुम्हारा दुश्मन हूं। वही तो तुम्हारे अन्य धर्मों ने किया है। उन्होंने तुम्हें
बोध नहीं दिया,
मर्यादा
दी। उन्होंने तुम्हें आंख नहीं दी, उन्होंने लकड़ी दी है टटोल-टटोल कर चलने के
लिए। मैं तुम्हें लकड़ी नहीं देता; मैं
तुम्हें आंख देता हूं। तुम्हें दिखाई पड़ने लगे। फिर भी तुम्हें अगर गङ्ढे में
गिरना हो तो मौज से गिरना, देख कर
गिरना। अगर तुम्हारी यही आकांक्षा है गङ्ढे में गिरने की, तो शायद यही परमात्मा की
आकांक्षा होगी,
इसे ही
होने देना। इतना ही कहता हूं, आंख से, खुली आंख से गङ्ढे में गिरना, देखते हुए गिरना। अगर देखते
हुए कोई गङ्ढे में गिर सकता है तो कोई हर्जा नहीं।
लेकिन
मैंने कभी देखते हुए किसी को गङ्ढे में गिरते देखा नहीं। आंख रहते कौन दीवाल से
निकलने की कोशिश करता है?
मैं
तुम्हें दरवाजा नहीं बताता, मैं
तुम्हें आंख देता हूं। इस फर्क को बहुत गौर से समझ लो। क्योंकि जिन्होंने दरवाजे
बताए हैं,
उन
सबने तुम्हें कारागृह में बंदी बना दिया। उन सबने बंधे नियम दे दिए हैं--कि दिन
में भोजन करना,
रात
में भोजन मत करना,
तो एक
बंधी हुई बात हो गई। अब तुम दिन में भोजन कर लेते हो, रात में भोजन नहीं करते।
लेकिन तुम दिन में भोजन करने वाले और रात में भोजन करने वाले आदमी में कोई फर्क
देखते हो?
कोई
फर्क नहीं दिखाई पड़ता। कुछ फर्क होना चाहिए था। शायद मूल बात चूक गई।
वह
जिसने कहा था तुमसे कि रात भोजन मत करना, उसकी आकांक्षा रात और दिन का सवाल न थी, उसने चाहा था कि तुमसे हिंसा
न हो। महावीर ने जब लोगों से कहा कि रात भोजन मत करना, तब प्रकाश न था, घरों में दीये न थे; केवल सम्राट और बहुत धनी-मानी
व्यक्तियों के घर में दीये हो सकते थे। गरीब आदमी अंधेरे में ही सोता, अंधेरे में ही खाता, अंधेरे में कीड़े-मकोड़े भी गिर
जाते। वह न तो स्वास्थ्यकर था, न
स्वच्छतापूर्ण था और हिंसात्मक भी था। महावीर ने कहा, रात मत खाना। लेकिन मतलब यह
था कि हिंसा मत करना।
अब आज
बिजली है। दिन से ज्यादा प्रकाश रात में तुम कर सकते हो। अब कोई अड़चन नहीं है। मगर
तुम नियम मान कर चल रहे हो कि रात भोजन नहीं करना। और हिंसा से तुम्हें कोई चिंता
नहीं है,
हिंसा
जितनी करनी हो करना--दिन में कर लेना। पानी छान कर पीना, खून बिना छाने पी जाना! तो एक
बड़े आश्चर्य की बात देखने में आती है कि तुम जैनों को जितना क्रोधी पाओगे उतना तुम
दूसरों को क्रोधी न पाओगे। क्योंकि हिंसा को निकलने की कोई जगह तो रह नहीं जाती।
मनोवैज्ञानिकों
ने गहरे अध्ययन किए हैं। और एक बड़ी हैरानी की बात पता चली है कि शिकारी, जो लोग जंगलों में जानवरों का
शिकार करते रहते हैं, वे बड़े
सरल-चित्त लोग होते हैं। क्योंकि हिंसा निकल जाती है। मनोवैज्ञानिकों ने यह भी
अनुभव किया है कि जो लोग लकड़ी काटने का काम करते हैं, वृक्षों को काटने का काम करते
हैं, वे लोग सरल-चित्त होते हैं।
काटने-पीटने में काटने-पीटने का मन हलका हो जाता है। उठाई कुल्हाड़ी, मारी वृक्ष पर--उतना ही मजा आ
जाता है जैसे किसी की गर्दन में मारने का आता हो और चित्त हलका हो जाता है।
लेकिन
जो आदमी न कुल्हाड़ी से जंगल में लकड़ी काटता, न शिकार करता, चौबीस घंटे पानी छान कर पीता
है, रात भोजन नहीं करता, सब तरह से अपने को बचाए चले
जाता है हिंसा से--उसके भीतर महाक्रोध इकट्ठा हो जाता है। इसलिए जैन साधुओं से
ज्यादा क्रोधी साधु तुम्हें दूसरे न मिल सकेंगे। तुम्हें क्रोध पता न चलता हो तो
थोड़ा उकसा कर देखना, तब
तुम्हें पता चलेगा। नाम उनका भला शांतिनाथ हो, बाकी शांति तुम न पाओगे।
जीवन
जटिल है। वह बोध से बदलता है, नियमों
से नहीं। अंधों की तरह लकीरों पर चलने से कोई क्रांति घटित नहीं होती। इसलिए मैं
तुम्हें कोई मर्यादा नहीं देता; मैं
तुम्हें सिर्फ एक मर्यादा देता हूं, वह बोध की मर्यादा। तुम जाग कर जीना! फिर
तुम्हें जो ठीक लगे, तुम
करना। और वह भी मैं तुम पर थोपना नहीं चाहता। वह भी, उस ढंग से मुझे जीवन में आनंद
हुआ है,
तो मैं
निवेदन कर देता हूं। शायद किसी को रुच जाए, जंच जाए, प्रीतिकर लगे। काम आ जाए किसी के तो ठीक; किसी के काम न आए तो कुछ
हर्जा नहीं है। क्योंकि मेरे काम आ गया है, मेरा काम पूरा हो गया है।
तुम्हारे
रूपांतरण पर मेरा सुख निर्भर नहीं है; मैं पूरा सुखी हूं। तुम बदलोगे, तब तक मैं प्रतीक्षा नहीं कर
रहा हूं सुखी होने की। तब तो कोई सुखी न हो पाएगा। मैं सुखी हूं। तुम सब भी आनंद
को उपलब्ध हो जाओ,
परमात्मा
को, तो मेरे आनंद में रत्ती भर
बढ़ती नहीं होगी। और तुम नरक में भटकते रहो तो मेरे आनंद में रत्ती भर कमी नहीं
होगी।
इसलिए
मेरा कुछ लेना-देना नहीं है। बस ऐसे ही है जैसे कि राह पर मुझे दिखाई पड़ रहा है कि
पास में गङ्ढा है,
तुम जा
रहे हो,
तुमसे
कह देता हूं कि पास में गङ्ढा है, गिरना
हो तो देख कर गिरना, न
गिरना हो तो देख कर आगे निकल जाना। और अगर देखने की क्षमता आ जाए, तो इस गङ्ढे से तो बचोगे ही, भविष्य के सारे गङ्ढों से भी
बच जाओगे।
अगर
बंधा हुआ नियम कोई दे दे, तो हो
सकता है एक गङ्ढे से तुम बच जाओ, लेकिन
बाकी गङ्ढों से कैसे बचोगे? खुली
आंख चाहिए।
दूसरा प्रश्न: लोग पूछते हैं कि वे लोगों को खानगी मुलाकात क्यों
नहीं देते?
कोई
प्रयोजन नहीं है। जो मुझे कहना है, वह सबके काम का है। जो मुझे कहना है, वह किसी एक व्यक्ति के काम का
है, ऐसा नहीं है। वह सभी के काम
का है।
और फिर, तुम्हारी बीमारियों को मैं
बहुत दिन अनुभव करके इस नतीजे पर पहुंचा कि वे अलग-अलग नहीं हैं। अगर दस आदमी हों
और उनको मैं अलग-अलग मौका दूं बात करने का, तो एक-एक को आधा-आधा घंटा लगेगा। प्रश्न वही
हैं--क्रोध है,
कामवासना
है, लोभ है, अशांति है, बेचैनी है। अगर दस लोग हों, आधा-आधा घंटा दूं, तो पांच घंटे जाएंगे। अगर उन
दसों को इकट्ठा बिठाल लूं, तो वही
सवाल हैं,
आधे
घंटे में काम हो जाता है।
मैंने
बहुत दिन तक लोगों को खानगी मुलाकात दी। फिर मैंने पाया, यह तो व्यर्थ है, इसमें कोई सार नहीं है। लोगों
के अलग-अलग सवाल नहीं हैं। हो भी नहीं सकते। आदमी की बीमारियां एक जैसी हैं।
मात्राओं के थोड़े-बहुत भेद होंगे। किसी को थोड़ा लोभ ज्यादा सताता है, किसी को क्रोध थोड़ा ज्यादा
सताता है। वे मात्राओं के भेद हैं। तो अब एक-एक आदमी को अलग-अलग उसकी बीमारी की
चर्चा करना अकारण है।
लेकिन
मैं जानता हूं कि लोग खानगी में मिलना पसंद करते हैं--कई कारणों से। मैं क्यों
खानगी मुलाकात नहीं देता, वह
मैंने बता दिया कि मुझे व्यर्थ लगता है; समय खोने की कोई जरूरत नहीं है। लोग क्यों
खानगी मुलाकात चाहते हैं? पहला
तो यह कि दूसरों के सामने वे अपनी बीमारी बताने में डरते हैं। अगर दस लोग बैठे हैं
तो तुम्हें डर लगता है बताने में--मैं कैसे बताऊं कि मुझे कामवासना सताती है? तुम एकांत चाहते हो।
अब यह
तुम्हारी समस्या है, मेरी
नहीं है--एकांत। तुम अपनी समस्या मुझ पर क्यों थोप रहे हो? और अगर इतना डर है तुम्हें
अपनी समस्या रखने में तो मैं नहीं मानता कि तुम हल कर पाओगे। इतने साहसहीन लोग
कहीं समस्याओं को हल कर पाते हैं? जो
प्रकट तक नहीं कर पाते, वे हल
क्या खाक करेंगे! और कौन सा कारण है तुम्हें डर का कि तुम बताने में डर रहे हो कि
मेरी कामवासना की समस्या है? वह
अहंकार है। बाहर शायद तुम चर्चा कर रहे हो कि मैं ब्रह्मचारी हूं।
साधु-संन्यासी
मेरे पास आते हैं,
वे तो
बिलकुल खानगी में चाहते हैं। वे कहते हैं, कभी नहीं सामने दूसरों के। क्योंकि उनकी
समस्याएं वे हैं,
जो कि
अगर उनके शिष्य सुन लें तो भाग खड़े होंगे।
एक जैन
मुनि मुझे मिलने आए। उनके साथ उनके कुछ दस-पांच शिष्य थे। उन्होंने आते से ही
मुझसे कहा,
एकांत
में! तो मैंने कहा, ये
शिष्य आपके ही हैं, मेरे
नहीं हैं। इनसे क्या छिपाना? मेरे
भी होते तो कुछ डर की बात थी।
न, उन्होंने कहा कि वह ठीक है, लेकिन खानगी में ही ठीक होगा।
उनके
शिष्यों को बाहर विदा कर दिया, तो
उनके प्रश्न वही हैं जो कि किसी साधारण आदमी के होते। कुछ छिपाने का नहीं है
उनमें।
लेकिन
अब उन्होंने एक अपनी प्रतिमा बना रखी है कि वे गुरु हैं अनेक लोगों के। और शिष्यों
को अगर पता चल जाए कि स्वामी जी को भी कामवासना सता रही है, तो शिष्य दूसरे स्वामी जी को
खोजेंगे;
कि
स्वामी जी को भी अभी लोभ सताता है, भय सताता है; कि स्वामी जी को भी अभी ध्यान
नहीं आता,
चित्त
में विचार चलते रहते हैं; तो यह
शिष्य जो स्वामी जी की मान कर उपवास कर रहा है, व्रत कर रहा है, पर्युषण-पर्व रख रहा है, इसकी तो सारी नैया डगमगा
जाएगी--कि जब अभी इन्हीं को ही शांति नहीं मिली तो इनकी मान कर हमें कैसे शांति मिलने
वाली है?
तो एक
धंधा है,
उसको
बचाना है;
एक
अहंकार है,
एक
प्रतिमा है,
उसको
बचाना है।
यह
मेरे निदान का हिस्सा है और चिकित्सा का भी हिस्सा है--कि तुमसे मैं कहता हूं कि
तुम अपनी समस्या को ऐसा निवेदन कर दो सबके सामने कि जैसे कोई भी मौजूद न हो। आधी
बीमारी तो इसी से हल हो जाएगी। क्योंकि जिस व्यक्ति ने इतना साहस जुटा लिया--अपनी
प्रतिमा को नीचे उतारने का, अपने
अहंकार को नीचे उतारने का, चार
लोगों के सामने जिसने अपनी बीमारी की स्वीकृति कर ली--यह आधा तो हलका अभी हो
जाएगा। एकांत में यह हलका न हो पाता।
फिर
मैंने यह भी अनुभव किया कि जब यह अपनी बीमारी प्रकट करेगा दस लोगों के सामने, और दस लोग भी अपनी बीमारियां
प्रकट करेंगे इसके सामने, तब इसे
एक अहसास होगा कि मनुष्य मात्र की तकलीफ यही है। मैं कुछ अलग और विशिष्ट नहीं हूं।
लोग बीमारी तक में विशिष्ट होना चाहते हैं--कि मेरी बीमारी भी कुछ खास है, वह किसी दूसरे की नहीं है।
अहंकार ऐसा विक्षिप्त है कि बुराई में भी पृथकता चाहता है, भेद चाहता है। और जब तुम्हें
ऐसा पता चलता है कि सबकी यही तकलीफ है, तब तुम्हें एक गहरी आत्मीयता का बोध होता है
मनुष्य मात्र के साथ। तब तुम्हें लगता है कि प्रश्न मेरी बीमारी का नहीं है, पूरी मनुष्यता के भीतर बीमारी
का है। आधे तो तुम यहीं हलके हो जाते हो। क्योंकि अब तक तुम अपने भीतर जो निंदा का
स्वर सुनते थे,
कि मैं
अपने को निंदित कर रहा था चौबीस घंटे कि मैं बुरा हूं, पापी हूं; तुम्हें पता चलता है कि न तुम
बुरे हो,
न तुम
पापी हो,
तुम
सिर्फ मनुष्य हो। ऐसे ही और भी मनुष्य हैं। सभी मनुष्य ऐसे हैं।
यह एक
बहुत बड़ी क्रांतिकारी प्रतीति है कि मनुष्य मात्र एक ही तरह की बीमारी से रुग्ण है, एक ही बीमारी ने ग्रसा हुआ
है। तो इससे तुम्हारी एक तो आत्मनिंदा का भाव कम होगा।
दूसरी
बात, तुम्हें मनुष्य के प्रति एक
करुणा का उदय होगा कि सभी इसी तरह परेशान हैं। हम सभी एक ही नाव पर सवार हैं। और
एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने की जरूरत नहीं है, एक-दूसरे को साथ देने की जरूरत है। नाव
हमारी एक साथ डूबेगी।
ऐसी
हालत है,
मैंने
सुना है,
मुल्ला
नसरुद्दीन यात्रा कर रहा था नाव से। वह जहां बैठा था नाव में, वहां एक छेद करने लगा। लोग
चिल्लाए,
उन्होंने
कहा कि तू यह क्या कर रहा है?
उसने
कहा कि तुम अपनी जगह का खयाल रखो, इस जगह
के पैसे मैंने चुकाए हैं। और यहां अगर मैं छेद कर रहा हूं तो तुम्हारी जगह में छेद
नहीं कर रहा हूं। अगर डूबेंगे तो हम डूबेंगे अपने छेद से, तुम क्यों परेशान हो रहे हो?
लेकिन
नाव में एक छेद हो तो पूरी नाव डूब जाती है। तुम्हारी बीमारी से तुम अकेले नहीं
डूब रहे हो;
तुम्हारी
बीमारी सारी मनुष्यता से जुड़ी है, संयुक्त
है। तुम उठोगे तो सारी मनुष्यता भी तुम्हारे साथ उठेगी; तुम गिरोगे तो सारी मनुष्यता
भी तुम्हारे साथ गिरेगी।
तुम जब
सारे मनुष्यों के भीतर के रोग को ठीक से देख पाते हो, तुम्हें एक महाकरुणा का उदय
होता है। तुम्हें अपने पर भी दया आती है, दूसरों पर भी दया आती है; कठोरता पिघल जाती है। तब तुम
किसी आदमी को चोर देख कर, बेईमान
देख कर एकदम हिंसक और हत्यारे न हो जाओगे। तुम कहोगे, यह सामान्य है। यह प्रत्येक
मनुष्य के भीतर छिपा है। इसमें कुछ बहुत अनूठा नहीं हो गया है। यह व्यक्ति क्षमा
योग्य है।
अदालतों
में जो मजिस्ट्रेट चोरों को सजा दे रहे हैं, अगर उनको यह समझ में आ जाए कि जो चोर सामने
खड़ा है,
वही
चोर उनके भीतर भी बैठा हुआ है; जो चोर, सजा दी जा रही है जिसको, और जो सजा दे रहा है, वे एक ही मनुष्यता के हिस्से
हैं। और अगर मजिस्ट्रेट गौर से देखे तो उसको भी पता चल जाएगा--कितनी बार उसने चोरी
की है! कितने सूक्ष्म रास्तों से! हो सकता है उसके रास्ते ज्यादा कुशल हों। वह
ज्यादा पढ़ा-लिखा है, होशियार
है। यह आदमी गंवार है। यह पकड़ा गया, यह बचा न सका अपने को। इसके पास बचने की
सुविधा नहीं है।
लेकिन
अगर यह दिखाई पड़ना शुरू हो जाए कि सारी मनुष्यता एक ही नाव में सवार है, तो मजिस्ट्रेट को सजा देने
में कठिनाई मालूम पड़ेगी। शायद मजिस्ट्रेट चाहेगा कि इस व्यक्ति की चिकित्सा की जाए, बजाय इसकी फांसी लगाई जाए।
इसे सहारा दिया जाए, इसे
शिक्षा दी जाए,
इसे
रोटी-रोजी दी जाए। क्योंकि मजिस्ट्रेट समझेगा कि जो मेरे भीतर छिपा है मनुष्य, वही इसके भीतर भी छिपा है।
मैंने
बहुत अलग-अलग लोगों से बात करके देख ली। मैंने पाया कि जब मैं लोगों को निजी
मुलाकात देता था तो मेरे पास और तरह के लोग आते थे। राजनेता, धनपति, सम्मानप्राप्त समाज के लोग, पंच, मेयर--इस तरह के लोग आते थे, क्योंकि एकांत!
अब
मेरे पास ज्यादा सीधे-सादे लोग आ रहे हैं, जिनके ऊपर कोई अहंकार का रोग नहीं है।
क्योंकि अहंकार का रोग वाला तो वहीं डर जाता है।
यहां
एक सरकारी अधिकारी ने आने की आज्ञा चाही थी। मैंने कहा, मजे से आ जाएं। मैं बाहर
बगीचे में बैठा था, दस-पंद्रह
लोगों से उनके प्रश्नों की बात कर रहा था। वे सज्जन आए। वे बगीचे के किनारे तक आए, वहां खड़े होकर एक क्षण
उन्होंने देखा,
फिर
वहां से एकदम लौट गए। मैंने पुछवाया कि क्या हुआ?
उन्होंने
कहा कि मैं एकांत में मिलना चाहता था। मैं बड़े पद पर हूं। अगर लोगों को पता हो जाए
कि मैं भी वहां आया, और
मेरे भी मन की ऐसी-ऐसी छोटी-छोटी बातें हैं, बीमारियां हैं, तो मेरे पद का क्या होगा? तो आपसे तभी मिलने आ सकता हूं
जब एकांत हो।
तो
मैंने पाया कि इन अहंकारियों को मिलने का न कोई अर्थ है...। क्योंकि अगर इनका
अहंकार मेरे पास आकर भी नहीं टूटता है, अगर यह टूटने की तैयारी नहीं है, तो मेरी बातें भी इन तक
पहुंचेंगी नहीं। वह अहंकार की दीवार भीतर जाने ही न देगी।
फिर
मैंने यह भी अनुभव किया कि जब तुम आकर मुझसे कोई सवाल पूछते हो सीधा-सीधा अपने
संबंध में--तुम पूछते हो कि कामवासना से पीड़ित हूं, क्या करूं--तो तुम सवाल से
इतने ग्रसित होते हो, तुम
इतने चिंतित होते हो, तुम
इतने व्यथित होते हो कि जो मैं कहता हूं उसे तुम ठीक से सुन नहीं पाते। लेकिन दस
जो दूसरे लोग बैठे हैं उनका भी सवाल तो यही है, जब मैं तुमसे बात कर रहा हूं तब वे गौर से
सुन लेते हैं। उनकी कोई चिंता नहीं, उनका यह सवाल नहीं है। अनजाने ही, ज्यादा शांत, ज्यादा सौमनस्य, ज्यादा धीरता से सुन लेते हैं, कि यह दूसरे का सवाल है, अपना क्या लेना-देना! हालांकि
सवाल यह उनका भी है, मनुष्य
मात्र का है। लेकिन उस शांति में सुन लिया गया जो विचार है, वह गहरे में उतर जाता है। फिर
जब उनसे मैं बात करूंगा, तब तुम
भी सुन लोगे;
क्योंकि
तब तुम निश्चिंत बैठे हो, अब
तुम्हारी कोई झंझट नहीं है।
मैंने
यह अनुभव किया कि जब मैं किसी से सीधा-सीधा बोलता हूं तो सुनना मुश्किल होता है; जब मैं किसी और से बोलता हूं
तब सुनना आसान होता है, तब
चीजें ज्यादा साफ हो जाती हैं।
तुम्हें
भी अनुभव में आया होगा कि अगर कोई दूसरा मुसीबत में हो तो तुम अच्छी सलाह दे पाते
हो; वही मुसीबत तुम पर हो तो तुम
खुद ही अपनी सलाह भूल जाते हो।
जैसे
किसी के घर में कोई मर गया। तुम चले जाते हो, एकदम आत्मज्ञानी हो जाते हो कि आत्मा तो अमर
है। आप क्यों रो रहे हैं? क्या
सार है?
शरीर
तो पड़ा रह जाएगा,
मिट्टी
तो मिट्टी मिलती है; आत्मा
का तो परमात्मा से मिलन हो गया। रोना बेकार है। सभी को जाना है।
कल
तुम्हारे घर जब कोई मरेगा तब तुम यही बातें अपने से न कह पाओगे। हो सकता है पड़ोसी, जिसे तुम कह आए थे, वह आकर तुमसे कहे, क्यों रो रहे हो? क्या परेशान हो रहे हो? आत्मा तो अमर है।
दूसरे
को सलाह देना आसान क्यों होता है? और
दूसरे को अच्छी सलाह मिलती है, लेकिन
आसान होती है देना। कारण यह होता है कि तुम्हारी कोई अपनी परेशानी तो होती नहीं; तुम तटस्थ होते हो। तटस्थ भाव
से जो भी दिखाई पड़ता है वह ज्यादा साफ-सुथरा होता है। उलझन अपनी नहीं होती, दूसरे की है। तुम दूर खड़े हो, तुम द्रष्टा मात्र हो।
तो
मैंने भी अनुभव किया कि जब मैं किसी से बात कर रहा हूं, तब दूसरों को ज्यादा समझ में
आ जाती है। जिससे बात कर रहा हूं, वह तो
परेशान होता है। पहले तो पूछना कैसे? पूछना कि नहीं? पूरी बात कहना कि नहीं? किसी तरह घबड़ा कर कह भी देता
है, तो फिर डरता है कि पता नहीं
लोग क्या सोच रहे हैं! अब वह इतनी उलझन में पड़ा है कि वह सुन न पाएगा।
इसलिए
मैंने खानगी मुलाकात तो बंद ही कर दी। मुझे दिखाई पड़ा कि मनुष्य मात्र बीमार है।
यह कोई व्यक्तिगत बीमारी नहीं है, व्यक्तिगत
सवाल नहीं है। और अहंकारियों से मैं बचना चाहता हूं; वे न ही आएं वही अच्छा है।
तीसरा प्रश्न: आश्रम में इतनी गोपनीयता क्यों है?
आश्रम
कोई बाजार नहीं है, भीड़-भाड़
के लिए खुला नहीं है। यहां मैं उन थोड़े से लोगों के लिए उपलब्ध हूं, जो वस्तुतः रूपांतरित होना
चाहते हैं। तमाशबीन, राह
चलते लोग,
उनके
लिए कोई यहां आने का प्रयोजन नहीं है। यहां तो उन्हीं के लिए निमंत्रण है जो सच
में ही रूपांतरित होने के करीब आ गए हैं, उन थोड़े से लोगों के लिए है।
इसलिए
सब तरह की गोपनीयता है। और गोपनीयता बढ़ती जाएगी। क्योंकि जैसे-जैसे मैं पाऊंगा कि
और व्यर्थ लोग छांटे जा सकते हैं, उनको
मैं छांट दूंगा। क्योंकि न तो उनको कोई लाभ होता, न उनके कारण दूसरों को वे लाभ
होने देते।
मैंने
बहुत दिन सबके लिए खुला रह कर देख लिया। मैंने पाया, उसमें जो व्यर्थ के लोग हैं
उनकी भीड़ इतनी हो जाती है कि सार्थक आदमी को मौका ही नहीं मिल पाता। उसमें कुतूहल
वाले लोग इतना घेर लेते हैं कि जिज्ञासु पीछे ही खड़ा रह जाता है। मुमुक्षु तो
विनम्र होता है। वह कहता है, जब
मुझे मौका मिलेगा तब मैं पूछ लूंगा। उसको मौका ही नहीं मिलता। जो व्यर्थ कूड़ा-करकट
पूछने चले आए हैं,
वे आगे
खड़े हो जाते हैं--अखबारनवीस, जर्नालिस्ट, वे आगे आ जाते हैं। उन सबसे
छुटकारा कर लिया है।
गोपनीयता
का कुल कारण इतना है कि अब उन्हीं के साथ--केवल उन्हीं के साथ--गहराई का संवाद
करना चाहता हूं,
जो
बिलकुल ही तैयार हैं बदलने को। जो देख लिए जीवन को और कुछ न पाया। जिनकी हजार
आकांक्षाओं में मैं भी एक आकांक्षा नहीं हूं, जिन्होंने हजार आकांक्षाएं गिरा दीं और अब
मेरे पास होने की एकमात्र आकांक्षा जिनकी आकांक्षा है, बस उनके लिए हूं। इसलिए
गोपनीयता है। और गोपनीयता बढ़ती जाएगी, क्योंकि कूड़े-करकट को लेने का कोई प्रयोजन
नहीं है। उससे उसको भी कोई सार नहीं है। समय भी व्यतीत होता है। और जिनके लाभ का
मैं हो सकता था,
वे भी
वंचित रह जाते हैं।
चौथा प्रश्न: आश्रम में इतने अधिक विदेशी क्यों हैं, भारतीय क्यों नहीं हैं?
आश्रम
न तो भारत का है,
न चीन
का है,
न
जापान का है;
आश्रम
मनुष्यों का है। यह एक अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी है। और स्वभावतः विदेश का मतलब शायद
लोग समझते नहीं कि क्या होता है। जब विदेश शब्द का लोग उपयोग करते हैं तो ऐसा लगता
है कि विदेश किसी देश का नाम है। भारत को छोड़ कर सारा जगत विदेश है। दुनिया में छह
आदमियों में एक भारतीय है, वही
अनुपात इस आश्रम में भी होना चाहिए। छह विदेशी, उसमें एक भारतीय; तो ही यह अंतर्राष्ट्रीय
बिरादरी होगी। तो भारत का अनुपात थोड़ा ज्यादा है, जितना होना चाहिए उससे। वह भी
स्वाभाविक है,
क्योंकि
भारत करीब है आश्रम के, इंग्लैंड
थोड़ा दूर है।
भारत
का नहीं है आश्रम--याद रखना। भारत में हो सकता है, लेकिन भारत का नहीं है; इंग्लैंड का नहीं है, अमरीका का नहीं है। भारत पास
हो सकता है,
अमरीका
थोड़ा दूर हो सकता है; लेकिन
आश्रम के लिए न भारतीय से कुछ लेना-देना है, न अमरीकी से कुछ लेना-देना है।
आश्रम
राजनीति में भरोसा नहीं करता। देशों का विभाजन राजनीति का भरोसा है। यह भारत है, यह पाकिस्तान है, यह चीन है--ये राजनीति की
सीमाएं हैं। और अगर धर्म भी इन सीमाओं को मानता है तो उसे भी मैं राजनीति कहता हूं, वह धर्म नहीं है।
यहां
तो अनुपात यही होगा: छह व्यक्ति होंगे तो एक भारतीय होगा, पांच विदेशी होंगे। और विदेश
कोई एक देश नहीं है। भारतीयों का अनुपात जरूरत से ज्यादा है। वह भी स्वाभाविक है।
उनको आना सुगम है। वे पास हैं।
अंतर्राष्ट्रीय
बिरादरी,
एक ऐसा
छोटा सा परिवार यहां बसता जाता है, बसेगा--जिसमें कोई भारतीय न होगा, कोई विदेशी न होगा; कोई अपना न होगा, कोई पराया न होगा। छोटा है
आश्रम,
लेकिन
आज पृथ्वी पर कोई ऐसी दूसरी जगह खोजनी मुश्किल है जहां सभी जातियों, सभी धर्मों, सभी राष्ट्रों के लोग हों, और बिना किसी भेद-भाव के जहां
संगम पूरा हुआ हो।
यू.
एन. ओ. में लोग मिलते हैं, लेकिन
दुश्मन की तरह। वह कोई बिरादरी नहीं है। वह कोई दोस्ती नहीं है। वहां हाथ बढ़ता भी
है तो सशर्त;
उसके
पीछे शर्त है। यहां सारा भेद-भाव मिट गया है। यहां एक संगम बनाने की चेष्टा है, एक तीर्थ बनाने की चेष्टा है।
लेकिन
भारतीयों को,
खासकर
जो बाहर हैं आश्रम से, उनको
लग सकता है कि विदेशी क्यों हैं?
तुम्हारी
आंखें अंधी हैं। तुम्हें आदमी नहीं दिखाई पड़ता; तुम्हें सिर्फ देशी-विदेशी दिखाई पड़ते हैं, गोरा-काला दिखाई पड़ता है; भीतर की आत्मा नहीं दिखाई
पड़ती, जिसका किसी देश से कोई
लेना-देना नहीं है। यहां परमात्मा के खोजी हैं। यहां न कम्युनिस्ट हैं, न गैर-कम्युनिस्ट हैं, न सोशलिस्ट हैं, न चीनी हैं, न भारतीय हैं, न पाकिस्तानी हैं; यहां परमात्मा की खोज पर
निकले लोग हैं,
जो
अपने को खोने को तैयार हैं। उसमें वे अपने देश को भी खोने को तैयार हैं, अपनी जाति को भी खोने को
तैयार हैं,
अपने
धर्म को भी खोने को तैयार हैं।
स्वभावतः
बाहर के राजनैतिक बुद्धि के लोगों को तकलीफ होती होगी, क्योंकि उन्हें इसमें अड़चन
लगती होगी। मगर उनकी अड़चन के लिए हम जिम्मेवार नहीं हैं। उनको अपनी बुद्धि को थोड़ा
हलका, स्वच्छ करना चाहिए। उनको
तृप्त करने के लिए कोई चेष्टा मत करना। जो सच हो वैसा ही उनसे कह देना। वे तृप्त
हों न हों,
यह
उनकी मर्जी है।
पांचवां प्रश्न: यहां आश्रम में सुंदर और युवा युवतियों का इतना
आधिक्य क्यों है?
यह बात
जरूर सोचने जैसी है। क्योंकि आमतौर से आश्रम में वृद्धा, बूढ़ी, लंगड़ी, लूली, इस तरह की स्त्रियां दिखाई
पड़ेंगी। क्योंकि आमतौर से आश्रम में स्त्रियां तभी जाती हैं जब संसार में उनके लिए
कोई उपाय नहीं रहता। आश्रम तो ऐसे हैं जैसे कबाड़खाने, जब जिंदगी का कोई उपयोग न हो
किसी का तो वहां लोगों को फेंक देते हैं।
तुम
सुंदर स्त्रियों को आश्रम में न पाओगे। क्योंकि सुंदर स्त्री धर्म में उत्सुक ही
नहीं होती;
उसे
जीवन में काफी रस है। कुरूप स्त्रियां धर्म में उत्सुक हो जाती हैं; क्योंकि जीवन में रस नहीं है
और जीवन का उनमें रस नहीं है। तो अब उनके लिए कोई उपाय नहीं बचता, वे आश्रमों को घेर लेती हैं।
एक नगर
में मैं एक घर में मेहमान था। एक अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन हो रहा था। तो घर
के लोग जाते थे,
वे
मुझे भी कहने लगे कि आप भी चलें।
मैंने
कहा, मैं तो उत्सुक नहीं हूं। तुम
जाते हो तो एक बात खयाल रखना, कितनी
कवयित्रियां आई हैं, उनमें
कितनी सुंदर हैं,
वह तुम
मुझे खबर करना।
वे
कहने लगे,
क्यों?
मैंने
कहा, आप लौट कर आएं, फिर देखेंगे।
वे आए, उन्होंने कहा कि ग्यारह
कवयित्रियां हैं। पर आपने हद कर दी, सब असुंदर हैं!
मैंने
कहा, कोई सुंदर स्त्री कविता लिखती
नहीं। वह खुद ही कविता है, वह
क्या खाक कविता लिखेगी! जब स्त्री कुरूप होती है तब वह कुछ उपद्रव करती है।
साधारणतः,
स्त्री
अगर सुंदर हो,
स्वस्थ
हो, तो वह पर्याप्त है; उसको कुछ और करने की जरूरत
नहीं। न वह समाज-सेवा करती, न वह
कविता करती,
न वह
आश्रम में जाकर बैठती, न वह
राजनीति करती,
उस
सबसे कोई मतलब नहीं है।
इसलिए
उनकी अड़चन स्वाभाविक है, क्योंकि
उन्होंने लूले-लंगड़े-अंधे, उनके
आश्रम देखे हैं,
स्वस्थ-सुंदर
व्यक्तियों के नहीं।
लेकिन
यहां हम सौंदर्य का ही प्रयोग कर रहे हैं। मेरी तो मान्यता ही यह है कि धर्म
असुंदर और कुरूप व्यक्तियों और लंगड़े-लूलों के कारण लंगड़ा-लूला हो गया। वहां तो
जीवंत व्यक्तियों का आगमन होना चाहिए। धर्म तो एक उत्सव है। वहां तो श्रेष्ठतम
इकट्ठे होने चाहिए। इसका यह मतलब नहीं है कि वहां दूसरे इकट्ठे न हों; लेकिन दूसरे भी आएं, वे गौण ही हों, वे प्रमुख न हो जाएं। जीवन का
राग वहां प्रमुख हो, मृत्यु
का स्वर वहां जोर से न बजने लगे। मृत्यु आए तो भी जीवन के पीछे छिपी-छिपी। इसलिए
मैं तो सौंदर्य का पक्षपाती हूं, यौवन
का पक्षपाती हूं।
फिर भी, और भी बात समझ लेनी चाहिए।
स्त्रियां यहां उतनी ही हैं जितने पुरुष हैं, ज्यादा नहीं हैं। और यही सम्यक अनुपात होना
चाहिए। जिस मस्जिद में तुम सिर्फ पुरुषों को नमाज पढ़ते देखते हो, वह मस्जिद झूठी है; क्योंकि स्त्रियों का क्या
हुआ? वह सच्ची नहीं है।
जैन
कहते हैं,
स्त्री-पर्याय
से मोक्ष ही नहीं हो सकता, पुरुष-पर्याय
से ही होता है।
यह
पुरुषों की राजनीति होगी, धर्म
का इससे कोई संबंध नहीं। स्त्री और पुरुष से क्या लेना-देना है मोक्ष का? मोक्ष आत्मा का होता है कि
शरीर का?
यह तो
शरीर के ढांचों का सवाल हो गया। यह तो हड्डी-मांस-मज्जा का मोक्ष हो गया। आत्मा भी
कहीं स्त्री और पुरुष होती है!
लेकिन
जहां भी जीवन घटेगा और जहां भी जीवन संतुलित होगा, वहां स्त्री और पुरुष हमेशा
समान मात्रा में होंगे। होने ही चाहिए। मैं इस आश्रम को पुरुषों का क्लब नहीं
बनाना चाहता,
न
स्त्रियों का। यहां स्त्री-पुरुषों का समान अनुपात होना चाहिए। और जहां भी
स्त्री-शक्ति और पुरुष-शक्ति समान होती है, वहां एक तरह का संगीत बजता है, जो और कहीं नहीं बज सकता।
तुमने
कभी खयाल किया?
अगर दस
पुरुष एक कमरे में बैठे हों तो एक तरह का रूखापन होता है। एक स्त्री कमरे में आ
जाए--एक ताजगी चली आती है, एक हवा
का झोंका आ जाता है। दस पुरुष रूखे हो जाते हैं। दस पुरुष ऐसे ही हैं जैसे एक ही
ढंग की विद्युत हो, जो
एक-दूसरे को विकर्षित करती है। चुंबक को तुमने देखा? ऋण और ऋण चुंबक एक-दूसरे से
अलग हटते हैं,
धन और
धन चुंबक एक-दूसरे से अलग हटते हैं। ऋण और धन चुंबक पास आते हैं, निकट आते हैं। एक नैकटय और एक
आत्मीयता घटती है।
स्त्री
और पुरुष का अनुपात सारी पृथ्वी पर समान है। जब परमात्मा उस अनुपात को मानता है तो
इस आश्रम में हम उसी का प्रतिनिधित्व करते हैं, उससे भिन्न नहीं। वही अनुपात होगा।
और
क्यों युवक और सुंदर और स्वस्थ लोग हैं? होने ही चाहिए। अब तक धर्म को लोगों ने समझा
है, मरने के वक्त आखिरी काम। मैं
उसे जीवन का प्रधान मूल आधार मानता हूं। तुम जब युवा हो, जवान हो, ऊर्जा से भरे हो, तभी प्रार्थना करना, तभी तुम्हारी प्रार्थना की
उत्तुंग ऊंचाई होगी। जब तुम्हारी सांस टूटने लगेगी, जराजीर्ण देह होगी, तब तुम राम-राम भी कहोगे, लेकिन वह तुम्हारे हृदय की
हड्डियों के बाहर आवाज न जा सकेगी।
इसका
मतलब यह नहीं कि मैं वृद्धों को नहीं कहता कि वे आएं। इसका मतलब यही है कि मेरे
पास तो वे ही वृद्ध आएंगे जो किसी अर्थ में जवान हैं। तुम अगर किन्हीं दूसरे
आश्रमों में कभी किसी जवान को भी देखोगे तो तभी, जब वह जवान किसी अर्थ में
वृद्ध होगा।
इस
फर्क को तुम ठीक से समझ लेना।
मेरे
पास तो वृद्ध भी आएंगे तो तभी, जब वे
किसी अर्थ में युवा हैं और उन्होंने जीवन की ऊर्जा नहीं खो दी है। नहीं तो उनसे
उनका-मेरा संबंध ही नहीं बन सकेगा। मेरी बात ही उन्हें न जंचेगी। उनके भीतर की
युवा क्षमता को ही मेरी बात जंच सकती है। और दूसरे आश्रमों में तुम अगर युवक को भी
पाओ तो तुम मरे हुए युवक को पाओगे; वह किसी कारण वृद्ध हो गया होगा समय के पहले, इसीलिए वहां पहुंच गया है; नहीं तो वहां उसकी कोई जगह
नहीं है।
अब तक
धर्म आखिरी जीवन का हिस्सा रहा है; मैं उसे प्रथम बनाना चाहता हूं। और धर्म को
मैं जीवन के सौंदर्य, जीवन
के काव्य और जीवन की महिमा से मंडित करना चाहता हूं। इसलिए तुम्हें जो भी यहां
दिखाई पड़ रहा है,
वह
बिलकुल स्वाभाविक है। और अगर तुम्हें उसमें प्रश्न उठते हैं तो सिर्फ इसलिए कि
तुम्हारा मन दूषित है, और
तुम्हारा मन बहुत अस्वाभाविक धारणाओं से भरा है।
छठवां प्रश्न: कुछ विदेशी संन्यासिनियों के गर्भवती होने की खबर
क्या सच है?
बिलकुल
सच है। वृक्षों में फूल लगते हैं, स्त्रियों
में बच्चे लगते हैं। लगने ही चाहिए। हम यहां कोई स्त्रियों को बांझ करने के लिए
नहीं बैठे हैं,
न
पुरुषों को नपुंसक करने की कोई आकांक्षा है। यहां तो हम उनकी जीवन की धारा को
कितनी सम्यक,
कितनी
संगीतपूर्ण बना सकें। यहां हम जीवन से तोड़ने का कोई विचार ही नहीं रखते; यहां तो हम जीवन को ही उसकी
समग्रता में परमात्मा को समर्पित कर देने की धारणा लिए बैठे हैं।
संन्यासिनी
को बच्चे होने चाहिए। सुंदर बच्चे होंगे; साधारण स्त्री से ज्यादा सुंदर बच्चे होंगे; ध्यान से आएंगे, समाधि से आएंगे, भीतर के गहन आनंद से आएंगे।
संसार सुंदर होगा। संसार को उजाड़ने का कोई सवाल नहीं है; संसार को ज्यादा परमात्म-भाव
से भरने का सवाल है।
लोगों
की अड़चन स्वाभाविक है। संन्यासियों से मतलब उनका होता है: बांझ, जिनमें कुछ फल नहीं लगते, फूल नहीं लगते। मेरे संन्यासी
और ही ढंग के हैं--जैसे वृक्ष में फूल लगते हैं, फल लगते हैं। तुम किसी ऐसे
वृक्ष की प्रशंसा कभी नहीं करते--कि इसमें फल-फूल नहीं लगते, बड़ा महान वृक्ष है।
बिलकुल
स्वाभाविक है। स्वभाव से विपरीत जाने की यहां कोई आकांक्षा नहीं है। अगर स्वभाव ही
किसी को ब्रह्मचर्य में ले जाए--ठीक, धन्यभाग! अगर स्वभाव किसी को विवाह में ले
जाए, प्रेम में ले जाए--धन्यभाग!
सौभाग्य!
सहजता
से जीने का नाम संन्यास है।
और आखिरी सवाल: आश्रम के लिए धन कहां से आता है?
लक्ष्मी की बात लक्ष्मी से पूछनी चाहिए।
आज इतना ही।
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