क्या हम दस हजार बुद्धों का उत्सव मना सकते है? (अध्याय—18)
एक
दिन उन्होंने
मुझे अपनी
छोटी सी
कुटिया में
बुलाया। वर्षा
ऋतु थी। पानी
जोरों से बरस
रहा था। हाइकु
ऐसे ही लिखे
जाते है:ध्यान।
छत
पर गिरती
वर्षा की
बूंदें
वे
कविताएं नहीं
है, वे
चित्रात्मक
कृतियां है।
और तब वे लेट
गए और पुन: सो
गए।
ओशो
के लिए एक स्विमिंग
पूल और आधुनिक
व्यायाम
मशीनों से
युक्त एक व्यायाम
कक्ष बनाने की
योजना बनाई
गई। सभी वह हर
सम्भव उपाय
खोज रहे थे जो
ओशो को शरीर
में बने रहने
में सहायक हो
क्योंकि नौ
वर्षों तक उन्हें
विष से लड़ना
था। विष से जो
क्षति पहुंची
है उससे शरीर
इतना ही समय
बच सकता था।
जापान से हमने
वे दवाएं भी
मंगवाई जो
विषैले द्रव्यों
को शरीर से
बाहर फेंकने
में सहायक
होती है। कुछ
विशेष स्नान
प्रसाधनों
तथा रेडिएशन
बेल्ट का
प्रबन्ध भी
किया गया।
उपयुक्त रेडिएशन
वाली इस बेल्ट
के प्रयोग से
कई रोगों की
चिकित्सा
सिद्ध हो चुकी
थी।
विश्व-भर
में मित्रों
ने—इटली के
दूरवर्ती
पहाड़ों के एक
कीमियार से लेकर
जापान के एक
विख्यात
वैज्ञानिक तक
ने ओशो के लिए औषधियां
भेजी। परंतु
ओशो दिन
प्रतिदिन
दुर्बल होते जा
रहे थे। उन्होंने
सुबह के
प्रवचन बंद कर
दिए तथा अनु
बुद्धा व
जापानी आनन्दो
से मालिश के
सैशन शुरू
किए। अब भी वे
सायं हमें
प्रवचन देने
के लिए आते
थे।
उन्हें
मूर्च्छा
आने लगी,ये ‘’ड्रॉप अटेक’’ थे जिससे वे
अचानक धरती पर
गिर जाते। इससे
उनकी रक्त
बाहिकाओं
विशेषकर
ह्रदय की रक्त
बाहिकाओं को
क्षति
पहुंचने की
सम्भावना
बढ़ गई थी।
हमारी चिंता
निरंतर बढ़ती
जा रही थी।
मैं तो सचमुच
भयभीत हो गई
थी। कि ऐसा न
हो कि कभी वे
अकेले में गिर
पड़ें। इससे
हड्डी टूटने
का खतरा था।
फिर भी हम हर
समय उनके आसपास
मंडरा कर उनके
एकांत में
बाधा नहीं
डालना चाहते
थे।
मार्च
में जब हमने
ओशो को
पैंतीसवां
सम्बोधि दिवस
नए बुद्ध
सभागार में
मनाया जो अपनी
छत के साथ अंतरिक्ष
यान जैसा
दिखाई दे रहा
था। तब ‘मिस्टिक
रोज’
शृंखला
प्रारम्भ
हुई। यह वह
शृंखला थी
जिसने एक नए
ध्यान एक नए
ग्रुप एक नए
अभियान को जन्म
दिया। प्रत्येक
चरण ओशो की
सहजता के जादू
को प्रकट करने
वाला था। नए
अभिवादन ‘या
हूं’ और
ओशो जब हॉल
में प्रविष्ट
होते और बाहर
जाते हम अपने
दोनों हाथ
उठाकर एक स्वर
में ‘या
हूं’कहकर
उनका अभिवादन
करते। इससे यह
सच में हर्षित
होते। प्रत्येक
रात्रि जब ओशो
सोने लगते,
मैं बत्तियां
बुझाने से
पहले और चुपके
से कमरे से
बाहर जाने से
पहले उनको कम्बल
ओढ़ती। जैसे
मैं कम्बल
खींचती वे
मेरी और हंसती
हुई नज़रों से
देखते और कहते
‘या हूं, चेतना।’
इस
शृंखला में
पूरे कम्यून
पर झेन छड़ी
पड़ी। जिसके
प्रहार की अनुगूँज
आज भी सुनाई
पड़ती है। कुछ
दिनों से
श्रोताओं के
बीच कुछ हलचल
थी और कुछ
हंसी सुनाई
देती थी। एक
रात ऐसा हुआ
कि ओशो मौन और ‘लेट-गौ’ के सम्बंध में
पूछे गए एक
प्रश्न का
उत्तर दे रहे
थे। वातावरण
बना हुआ था।
कि ऐसा लगा कि जैसे
हम उनके साथ
एक होकर
ऊंचे-ही-ऊंचे
जा रहे है। वह
ऐसा प्रवचन था
कि जिसमे व्यक्ति
सांस लेना भी
भूल जाए। और
जैसे ही वह
शांति और ओशो
की आवाज आकाश
की सीमाओं के
भी पार फैल रही
थी—एक उन्मत
हंसी फूट
पड़ी। ओशो ने
बोलना जारी
रखा। परंतु
हंसी बढ़ती ही
गई। और कुछ और
लोग भी पागलों
की तरह हंसने
लगे। ओशो रुके
और बोले यह बात
मजाक के बाहर
हो गई। लेकिन
हंसी फिर भी
जारी रही।
उड़ान के मध्य
में ही सब गए, कुछ मिनट
बीते गए.....ओशो
ने श्रोताओं
को देखा और बड़ी
गरिमापूर्ण
शांति के साथ
क्लिप बोर्ड
नीचे रखा,
खड़े हुए,
सबको नमस्कार
किया और बुद्ध
सभागार से
बहार चने गए। उन्होंने
कहा—‘कल
रात मेरी
प्रतीक्षा मत
करना।’
जैसे
ही वे उठे,
मैं कार में
उनके साथ कमरे
तक जाने के
लिए दरवाज़े
की और भागी।
मुझे लगा कि
इस आघात ने
मुझे बीमार कर
दिया है। जब
हम कमरे में
पहुंचे,
मैं उनके जूते
बदलने के लिए झुकी।
मैं क्षमा
मांगना चाहती
थी। निश्चित
ही मेरी
मूर्च्छा भी
किसी अन्य से
भिन्न नहीं
है परंतु मैं
कुछ बोल न
पाई। उन्होंने
मुझे नीलम,
आनंदों और
अपने डॉक्टर
अमृतो को
बुलाने के लिए
कहा। उन लोगों
के पहुंचने से
पहले ही वे
बिस्तर पर
लेट गये। वे
उनके साथ अपने
बिस्तर में
लेटे हुए ही
दो घंटे तक
बात करते रहे।
उन्होंने
कहा की वे उन्हें
सुनने में असमर्थ
है। तो उन्हें
रोज़ रात को
बुद्ध सभा गार
में आने की क्या
आवश्यकता
है। वे इतने
कष्ट में थे
और फिर भी
हमारे लिए जी
रहे थे। वे
केवल हमारे
लिए ही हर रात
प्रवचन देने
आते थे। और यदि
हम सुन भी
नहीं सकते....।
कमरे
में जमा
देनेवाली ठंड
और अँधेरा था,
केवल बिस्तर
के पास वाली
बत्ती जल रही
थी। ओशो बहुत
धीमी आवाज में
बोल रहे थे।
अत: सुनने के
लिए नीलम, आनंदों
और अमृतो को
उनके बहुत
निकट होना पड़
रहा था। में आघात
ग्रस्त ओशो के
पैरों के पास
खड़ी थी। और
मुझे यह भी पता
नहीं था कि
मैं क्या
अनुभव कर रही
थी। मैंने स्वयं
से पूछा, ‘क्या महसूस
कर रही हो?’
और मैं नहीं
जानती थी। मैं
शून्य सी
खड़ी थी मेरे
साथ जो घट रहा
था मैं उसे स्मृति
में न रख पाई।
ओशो कह रहे
थे। कि वे
शरीर त्याग
देंगे। और
नीलम रो पड़ी।
आनंदों ने ओशो
से मज़ाक करने
की कोशिश की
लेकिन ओशो की
विनोद वृति काम
नहीं कर रही
थी—एक बहुत ही
भयभीत कर देने
वाला संकेत।
अंतत: मेरी
भावनाएं ज्वरित
तरंगों की
भांति उठी और
में सिसक-सिसक
कर रोने लगी। ‘नहीं आप हमे
छोड़ नहीं
सकते। अभी हम
तैयार नहीं है।
यदि आप हमें
छोड़ कर जाते
है तो मैं भी
आपके साथ जा
रही हूं।’
वे रुके और
मुझे देखने के
लिए तकिए से
सर उठाया। और
मैं रोती रही, फिर भी ऐसा
लग रहा था
जैसे मैं किसी
नाटक में होऊं।
हम सभी सर्दी
से कांप रहे
थे। और रो भी
रहे थे। अब
अंत में नीलम
ने कहा, ‘आओ, हम
ओशो को सोन
दें।’
ओशो
रात को
कुछ-न-कुछ अल्पहार
लेते थे। उसमे
उनकी इच्छानुसार
बदलाहट भी
होती थी।
परंतु पिछले
कुछ महीनों से
वे रात को दो
या तीन बार
अल्पाहार
लिया करते थे।
पेट भरा होने
पर उनके लिए
सोना आसान
होता। एक बार
उन्होंने
बताया भी था
कि यह तब से
शुरू हुआ था
जब नानी देखभाल
करती थी। और
वे उन्हें मिठाईया
खिलाया करती
थी। आधी रात
को उनके अल्प
आहार का समय
हुआ। उन्होंने
मुझे बुलाया,
मैं उन्हें
लेकर भीतर गई।
वे अपने बिस्तरे
पर बैठे थे।
और मैं फ़र्श
पर बैठी थी।
मैंने
प्रतीक्षा
की....परंतु
अपने शरीर-त्याग
के सम्बंध
में उन्होंने
और कुछ नहीं
कहा। वे दूसरी
बातें तो करते
रहे। जैसे कि
कुछ हुआ ही
नहीं। अत: मैं
बिलकुल चुप
बैठी रही। उन्होंने
कुछ भी स्मरण
नहीं दिलाया।
अगली
रात वे प्रवचन
के लिए आए और
उस रात के बाद श्रावक,
श्रावक न रहे—वे
सभा साधकों की
हो गई। हमारे
श्रवण की गुणवता
बदल गई। और आज
भी जो लोग
वहां आते है
वे सहज रूप से
इसमें प्रवेश
करते है।
कुछ सप्ताह
उपरांत ओशो
हमे एक ध्यान
में प्रवेश
कराने लगे जो
जिबरिश से
शुरू होता था।
हॉल में प्रत्येक
व्यक्ति
अपने मन के
निरर्थक कचरे
को अनाप शनाप
बोल कर बाहर
फेंकता। फिर
ओशो हमे ऐसे
थम जाने को
कहते जैसे कि
हम जम गए हों। और
हम मूर्तिवत
स्थिर बैठे
रहते। फिर ‘लेट-गौ’,और
हम फर्श पर
गिर जाते। जब हम
फर्श पर होते,
ओशो हमें
धीरे-से उस मौनवस्था
में जाने की
कहते जो अंतत:
हमारा घर होने
वाला था। उन्होंने
हमें पहली बार
अंतर जगत का
अनुभव दिया।
जहां हम
सदा-सदा के
लिए वास करना
है। और फिर वे
हमें वापस ले
आते और पूछते: ‘क्या
हम दस हजार
बुद्धों का
उत्सव मनाए?’
ओशो ने एक
नहीं कई
अवसरों पर
मुझसे कहा कि
अमरीका ने
उनके कार्य को
नष्ट कर दिया
है। मैं उस
समय इस बात का
अभिप्राय समझ
नहीं पाई और उनसे
कहती, ‘नहीं,
अब कम से कम
सारा विश्व
आपको जानता तो
है। और आपके
संन्यासी
परिपक्व हुए
है तथा उनका
अति सुंदर
विकास हुआ है।’
परंतु मैं समझ
न पाई। मुझ
मालूम नहीं था
कि विष उनका
समाप्त कर
रहा है।
पिछले तीन
वर्षों को
पीछे मुड़कर
देखने पर मैं
पाती हूं कि पूना
में जैसी उच्च
ऊर्जा को हमने
सामूहिक रूप
में अर्जित
किया था वैसा
ही ऊर्जा को
निर्मित करने के
लिए ओशो को
कितना कार्य
करना पड़ रहा
था।
मुझे स्मरण
है जब एक दिन
वे पूरा दिन
विश्राम कर
रहे थे, वे दोपहर
भोजन के लिए
उठे फिर बिस्तर
पर लौटते समय
उन्होंने कहा
कि उनके पास
कुछ काम नहीं
है। मैंने कहा, ‘कुछ न
करते हुए आप
इतना काम कर
रहे है।
हजारों लोग है
जो अनुभव कर
रहे है कि आप
उनका काम कर
रहे है।’
उन्होंने
कहा, ‘यह
सच है।’
उरूग्वे
में एक प्रवचन
में मैंने उन्हें
यह कहते सूना
था:
‘मैंने
देखा है कि
मेरे हज़ारों
लोगों में
उनके जाने
बिना
परिवर्तन हो
रहा है। वे
बदल रहे है।
परंतु यह
परिवर्तन
चुपचाप भीतर
ही भीतर घटित
हुआ था। यहां
तक कि उनके
मस्तिष्क
को भी इसमें
सहभागी होने
की अनुमति
नहीं मिली।
ह्रदय से
ह्रदय तक
संवाद होता
रहा।’
बियॉंड साइकोलाजी
मैं
जानती हूं कि
यह सच है क्योंकि
मैंने ओशो के
सान्निध्य
में कितने ही
लोगों को
पूर्णत:
रूपान्तरित
होते देखा है।
कई बार हमे
पता तक नहीं
चलता। हममें
कितना
परिवर्तन आ
गया है। क्योंकि
हम एक दूसरे
के बहुत समीप
रहते है—ठीक वैसे
ही जैसे कोई
माता-पिता
अपने बच्चे
को प्रतिदिन
देखते हुए यह
जान नहीं पाते
कि यह कैसे
बड़ा हो रहा
है। परंतु कई
बार ऐसा होता
है कि एक
फासला बन जाता
है—भौतिक
फासला नहीं, परंतु
फासला मेरे
भीतर निर्मित
होता है,
जब मैं ध्यान
कर रही होती
हूं तो हम
अवस्था में
अपने सभी
सहयात्रियों
के पाँव छूने
को मन होता
है।
मेरे हीरक
दिनों में
केवल हीरे को
तराशे जाने के
ही दिन ने थे
बल्कि ऐसे
कितने ही दिन
थे जो
प्रकाशमय थे।
ओशो की सन्निधि
में उनके लिए
छोटे-छोटे काम
करना;
जैसे कि उनके
लिए भोजन लेकर
जाना, उनके
कपड़ों की
धुलाई करना।
उनकी देख-रेख
करना। मात्र
उनके समीप
होना। और उन्हें
सरल ढंग से
जीते हुए
देखना। उनका
वह जीने का
ढंग कितना
समग्र कितना
शांतिपूर्ण
सौम्यता
पूर्ण है। उन्हें
छोटे-छोटे काम
करते देखना—जैसे
कि बिस्तर के
एक किनारे रखे
जाने वाले
तौलिया की तह
लगाना ही
पर्याप्त
होता,
परंतु इन
छोटी-छोटी
बातों का
वर्णन छूट
जाता है;
अत: बहुत से
बहुत मूल्य
हीरे अनकहा रह
जाएंगे।
ओशो के वस्त्रों
की सिलाई का
कमरा अनूठा
था। गाथन, अर्पिता, आशीष,
सन्ध्या
तथा सुनीति
निरंतर व्यस्त
रहते क्योंकि
ओशो वस्त्रों
के मामले में
नाजुक-मिज़ाज
नहीं है और है
भी (दोनों सच
है)
जब भी उन्हें
जो भी दिया
जाता वे बड़ी सहजता
से पहन लेते
और उन्हें
पहले से यह
सभी मालूम न
होता कि उनके
रोब कैसे
होंगे। यहां
तक कि उत्सव
के दिनों वाले
रोब के बारे
में भी उन्हें
कुछ पता नहीं
होता था। उनके
पहनने के लिए
रोब को उनके
पास मेल खाती
टोपी और
जुराबों के
साथ रख दिया
जाता।
पंख वाला चौड़े
कंधोवाला
डिजायन
कभी-कभी हमें
बड़ी कठिनाई में
डाल देता, जब कपड़ा
इतना सख्त
होता कि उसका पंख
नुमा डिजाइन
बनाना कठिन
होता और वह
बड़ा विचित्र
दिखाई देता।
एक ऐसी पोशाक
थी जो कवच की
भांति चौड़ी
बन गई और बड़ी
हास्यास्पद
दिख रही थी।
ओशो ने गायन
को अपने कमरे
में बुलाया यह
देखने के लिए
कि सीने में
कहां गलती है।
प्रवचन आरम्भ
होने में पाँच
मिनट रह गये
थे। मैंने
उनसे कहा कि
मैं उन्हें
कोई दूसरा रोब
देती हूं।
नहीं-नहीं
मुझे यहीं
पहनने दो
देखते है लोग
क्या कहते
है।
इस अवसर पर
मैंने जिद
पकड़ ली कि वे
यह रोब नहीं
पहनेंगे।
मुझे मालूम था
कि लोग जरूर
हंसेंगे।
परंतु उन्हें
कोई परवाह
नहीं थी। और
दूसरी और
दूसरी और कपड़ों
का स्वयं
चुनाव करना
उन्हें अच्छा
लगाता था। कई
बार उसी कपड़े
की पोशाक
तैयार हो जाने
पर वे उसे
नापसंद कर
देते थे। मैं
उनसे कहती, परंतु
मैं उन्हें
कहती की कपड़े
का चुनाव तो
आप ने ही किया
था। वे कहते
की हां....परंतु
मुझे हमेशा
पता तो नहीं
होता। वे
मुझसे कहते, ‘मेरे
उत्सव वाले
रोब निकाल कर लाओ.....प्रत्येक
दिन ही तो उत्सव
है।’ और
फिर एक सप्ताह
के पश्चात
कहते: ‘तुम
मुझे भड़कीली
सुनहरी
पोशाकें क्यों
देती हो?
मुझे सादे वस्त्र
पंसद है।’
जब कोई रोब
उन्हें बहुत
अच्छा लगता तो
वे उसे छूते
और प्रसन्न
होकर कहते,
‘यह सच मुच
सुंदर है।
सादा फिर भी
कितना
बढ़ीया।’
और वे हर बार
ऐसा ही कहते।
जितनी बार भी
उसे पहनते,जैसे
कि वे उसे
पहली बार पहन
रहे हो। उन्हें
काला रोब
पहनना सबसे
अच्छा लगता
था।
जब विवेक
थाईलैंड से
लौटी तो नई
शुरूआत के लिए
उसने अपना नाम
निर्वाणों
में बदल लिया।
वहां से वह
ओशो के लिए
ट्रे भरकर
बनावटी सोने
और हीरे की घड़ियाँ
लाई। उन्हें
ये घड़ियाँ
बहुत पसंद आई।
आगामी वर्षों
में उन्हें
ऐसी घड़िया
मिलती रहीं।
और वे उन्हें
बटोरते रहे।
जो भी व्यक्ति
बैंकाक जा रहा
होता हम उसे
ओशो के लिए
घड़ी लाने को
कहते ताकि वे
उसे किसी को
दे सकें। ओशो
को उपहार देना
बहुत पसंद था।
वह भले ही
बहुत मूल्य
का हो या छोटा
हो। वह उसी
प्रेम से दिया
जात। इस बात
से कोई अंतर नहीं
पड़ता कि वह
क्या है। और
वह किसे दिया
जा रहा है।
हमने उनके लिए
उपहारों की एक
अलमारी बना
रखी थी और वे
बड़े ध्यान
से लोगों के
लिए वस्तुओं
का चुनाव करते
थे। वे अलमारी
का दरवाज़ा देखते
कि लोगों को
क्या-क्या
देना है। कई
बार वे मुझ
अपने बेड़ रूम
में बुलाते
पालथी मार कर
अपनी बाथरुम
की अलमारी में
देखते ओर
एक-एक शेम्पो, क्रीम
बाहर निकालते
और साथ-साथ और
यह भी बताते
कि यह किसे
देना। यह उसे
देना....कभी-कभी
जब सात बजने
में कुछ ही
मिनट होते ओर
बुद्ध सभागार
में जाने का
समय हो जाता ओर
वे मुझे बारह
या उससे भी
अधिक उपहार
लोगों को
बांटने के लिए
दे देते।
बुद्ध सभागार
से लौटते समय
वे मुझसे
पूछते कि अभी
वे उपहार दिए
या नहीं। ओशो
के साथ सभी
कुछ ‘अभी’ करना होता
था। उनके लिए
दूसरा कोई समय
है ही नहीं।
हीरा
संसार की सबसे
कठोर पदार्थ
है और ओशो के
साथ मेरे वे
दिन बहुत कठोर
थे जब वे मेरे
भीतर सुषुप्त
नारी के संस्कारों
पर चोट कर रहे
थे। सदियों
पुराने संस्कार
जो इतने गहरे
है कि स्वयं
को उनसे पृथक
कर पाना और यह
देखना कि ये
मैं नहीं हूं
बहुत कठिन है।
यह
आपको समझना
होगा कि ‘सदियों
पुरानी संस्कारिता
से मेरा
अभिप्राय है
कि मेरा स्त्री
मन मेरी मां
द्वारा संस्कारित
हुआ है। और
उसका उसकी मां
द्वारा इत्यादि।
साथ ही यदि आप
इसे स्वीकार
नहीं करें तो
कम-से-कम इस
विचार से अपना
मन तो बहला
सकते है कि
हमारे मन ‘नए’
नहीं है।
हमारा मन
विचारों का ढाँचों
का संग्रह है
जो सदियों से गूजरें
है।’
ओशो
ने स्त्री को
व्यक्ति के
रूप में
विकसित होने
तथा पराधीनता
से मुक्त
होने के जितने
अवसर दिए है
उतने कभी किसी
ने नहीं दिए।
ओशो के आसपास
स्त्री
प्रधान समाज
था।
वर्षों
तक ओशो के
प्रवचनों में
स्त्री के
गुणवान को
सुनकर मैंने
रस लिया है और पुरूष
संन्यासियों
को अपने भाग्य
की कोसते सुना
है। कि इस
जीवन में
पुरूष बनकर क्यों
जन्म लिया।
परंतु 1988 के
प्रारम्भ
में ओशो ने स्त्रियों
पर अलग ढंग से
कार्य किया।
ऐसा लगता था
कि हमें यह करूणा
इसलिए मिली थी
क्योंकि
इसकी हमें
आवश्यकता
थी। स्त्रीयों
के संस्कारों
को तोड़ना
अधिक कठिन है।
क्योंकि उन्होंने
स्वयं अपने
साथ गुलामों
जैसा व्यवहार
किया होता है।
और गहरे में
आज भी मानसिक
तोर पर गुलाम
है। एक बार
मनीषा द्वारा
यह पूछे जाने
पर कि कुछ
संन्यासियों
के साथ विशेष
व्यवहार क्यों
किया जाता है।
उन्होंने
कहा: ‘मनीषा
यह प्रश्न
नहीं है कि
विशेष व्यवहार
का अर्थ है।
लाओत्सु (ओशो
का घर) में
रहने तथा
सदगुरू के साथ
प्रतिदिन
निजी
वार्तालाप
करना। यदि
तुम्हें पता
है कि तुम क्या
पूछ रही हो.....क्या
तुम अपनी
ईर्ष्या को
देखती हो। क्या
तुम अपने भीतर
की स्त्री को
देखती हो?’
वे
स्पष्ट
करते रहे कि
लोग केवल यहां
काम के लिए
आते है। कम्यून
में प्रत्येक
व्यक्ति तो
वही काम कर
सकता है। किसी
को उनका भोजन
लाना होगा,
तो किसी को
उनके सचिव का
कार्य करना
होगा। और नोटस
लेने होंगे।
उन्होंने
बताया कि
आनंदों का काम
क्यों उसी के
लिए था और
मनीषा का क्यों
मनीषा के लिए
था। वे कहते
गए:
‘पहला
कम्यून भी स्त्रियों
की ईर्ष्या
के कारण नष्ट
हुआ। वे
निरंतर
झगड़ती रही
थी। दूसरा कम्यून
नष्ट हुआ। स्त्रियों
के कारण। और
यह तीसरा कम्यून
है और अंतिम
क्योंकि मैं
थक गया हूं।
कभी-कभी मैं
सोचता हूं कि
शायद बुद्ध
ठीक थे। उन्होंने
बीस वर्षों तक
किसी स्त्री
को अपने संघ
में प्रवेश
करने की
अनुमति नहीं दि।
लेकिन मैंने
दो बार अपने
हाथ जला लिए।
और यह हमेशा
स्त्रियों
की ईर्ष्या
के कारण हुआ
है। फिर भी
मैं बड़ा हठी
हूं,दो कम्यून
के असफल
प्रयत्न के
बाद अब मैंने
तीसरा कम्यून
शुरू किया है।
फिर भी मैंने
कोई भेदभाव नहीं
किया है। अब
भी इसे स्त्रियां
चला रही है।
मैं नहीं
चाहता कि इस
कम्यून में
स्त्रियां-स्त्रियां
की भांति व्यवहार
करें। लेकिन
ये छोटी-छोटी
ईष्याएं.....’
(हयाकुजो:
द एवरेस्ट ऑफ
ज़ेन)
एक
सन्ध्या
कालीन प्रवचन
में मुझे भी
एक झटका मिला, जब ओशो ने
कहा: ‘....आज
सुबह ही
देवगीत मेरे
दांतों पर काम
कर रहा था।
इतने वर्षों
में पहली बार
मैंने
दंत-चिकित्सक
की कुर्सी से
उठते समय पूछा, क्या तुम संतुष्ट
हो। क्योंकि
मैं उसके
असंतोष को देख
पा रहा था—कि
जैसे वे मेरे
दांतों पर काम
करना चाहता था
वैसा कर नहीं
पाया है।’
‘सायंकाल
को मैंने उसे
कहा कि वह
अपना काम
समाप्त कर
सकता है। क्योंकि
कल का किसे
पता है। मैं
यहाँ होऊं भी
या नहीं,
तब मेरे दाँत
लगाने का क्या
अर्थ रह
जाएगा। उसने
अपनी और से
भरसक चेष्टा
की परंतु मैं
एक गुरु हूं
जो सबको यही
सिखाता है कि
वर्तमान के हर
क्षण में कैसे
जिया जाता है।
और वे लोग भी
जो मेरे निकट है
मुझसे पूछते
रहते है, ‘ओशो आप
मुझसे प्रेम
करते है।’
‘मैं
इसके अतिरिक्त
कुछ भी नहीं
कर सकता।
प्रश्न आपके
गुणों का नहीं
है। मेरा
प्रेम बेशर्त
है। लेकिन मैं
मनुष्य के
ह्रदय की
दीनता को देख
सकता हूं। यह
पूछता ही रहता
है। क्या
मेरी आवश्यकता
है? आरे जब
तक तुम आवश्यकता
होने की कामना
से मुक्त
नहीं हो जाते, तुम स्वतंत्रता
को कभी समझ
पाओगे। तुम
प्रेम को कभी
नहीं समझ पाओगे।
तुम सत्य को
कभी नहीं समझ
पाओगे।’
इस कहानी
के कारण मैं
तुम्हें
बताना चाहता
हूं: शुन्यों
निरंतर
परिश्रम करती
है,
मेरा पूरा ध्यान
रखती है।
परंतु वह फिर
भी पूछती रहती
है, ‘क्या
आप मुझे प्रेम
करते है?
मैं दंत
चिकित्सक की
कुर्सी पर
अधिकतम
मात्रा में
गैस के प्रभाव
में हूं और
अपने दंत
चिकित्सक से
वादा किया है
कि मैं
बोलूंगा
नहीं.....परंतु
यह असम्भव
है।’
क्योंकि
मैंने यह नहीं
कहा ‘मैं
तुमसे प्रेम
करता हूं।’
वह इतना घबरा
गई होगी कि
मेरे बाथरुम
में तौलिया
रखना भूल गई
और मुझे
तौलिया के बिना
ही स्नान
करना पडा। बाद
में जब मैंने
उससे पूछा तो वह
बोली ‘मुझे
क्षमा करें।’
परंतु यह
केवल उसी की स्थिति
नहीं है।
प्रत्येक व्यक्ति
की यही हालत
है। और मेरी
सारी शिक्षा
यही है कि
तुम्हें स्वयं
का आदर करना
होगा। यह
पूछना अपनी
गरिमा से च्युत
होना है—और
विशेष रूप से
उस सदगुरू से
जिसका प्रेम
तुम सबको पहले
से ही मिल रहा
है। भिखमँगे
क्यों होते
हो। यहां मेरा
प्रयास तुम्हें
सम्राट बनाने
का है।
जिस दिन
जिस घड़ी तुम
वर्तमान में
होने के अनूठे
गौरव को जान
जाओगे उस दिन
किसी (वस्तु)
की आवश्यकता
नहीं रह
जाएगी। तुम
पर्याप्त
हो। उसी मैं
से अति आनंद
का जन्म होता
है। ‘अहा! हे भगवान:
मैं यही था और
सब जगह खोज रहा
था।’
मैंने
सचेतन इसकी
मांग नहीं की
थी कि क्या
आप मुझसे
प्रेम करते है, लेकिन
सदगुरू तो
अचेतन पर भी
काम करता है।
वह हमारी
अचेतन में दबी
इच्छाओं को
सतह पर ले आता
है। क्योंकि
यदि हम उन्हें
देख सकें और
समझ सकें तब
वे व्यक्ति
को प्रभावित
नहीं कर सकती।
यह घटना
दंत सत्र की
श्रंखला के
बीच विकसित हुई
थी। जब देवगीत
उनके दांतों
पर काम कर रहा
था। और वे
मेरे अचेतन पर
काम कर रहे
थे।
उधर जब
देवगीत
दांतों के
औज़ारों को
संभाले ओशो के
मुंह पर काम
कर रहा होता, उनका
वार्तालाप
जारी रहता।
किसी विशेष
सत्र में अमृतो, देवगीत, नीति और
आनंदों भी उपस्थित
होते। आनंदों
ओशो की दाई और
स्टूल पर
बैठती जहां वह
नोटस लेती।
मैं उनके बाई
और नीति के
पीछे होती।
ओशो बीच-बीच
में कम्बल से
हाथ निकालकर
देवगीत की
सहायता कर रही
नीति या आशु
को छेड़ देते।
यह फिर उनमें
से किसी का
हाथ पकड़ लेते, इससे उसके
लिए काम करना
कठिन हो जाता।
वे आनंदों से
बटन खींच
लेते। या उसके
गले और ह्रदय
चक्र को
थपथपाते। यह
सब मनोरंजक
होता परंतु मैं
सत्रों में
अकसर उस हंसी
मज़ाक में सम्मिलित
न हो पाती,
भीतर एकालाप
चलता रहता।
ओशो: ‘मैं तुम्हारे
विचारों को
सुन सकती हूं.....शुन्यों, यह ऐसा नहीं
है...शुन्यों
साक्षी
बनो...मेरी
आनंदों कहां है।
(आनंदों का
हाथ पकड़ते
है)....शुन्यों
को अपने स्थान
पर ही रहना
होगा। यह उसका
हाथ नहीं है।
मैं किसी की
स्वतंत्रता
में बाधा नहीं
बनना चाहता....शुन्यों
तुम मुझे
बोलने के लिए
विवश कर रही
हो। मैं तुम्हें
तुमसे अधिक
जानता हूं।
तुम्हें कोई
चाहे यह इच्छा
छोड़ दो.....मैं
तुम्हारे
अंतर को देख
रहा हूं। (वे
मेरे हाथ को
पकड़े हुए
है)...शुन्य
चुप हो जाओ।
साक्षी रहो।
मेरा हाथ छोड़
देते है।(वे
उसे एक दम से
छोड़ देते और
अपना हाथ कम्बल
में रख लेते
है।) शुन्यों
वही रहो। केवल
वहीं। हां,
अपने आंसुओं
के साथ। मैं
कठोर हूं,
परंतु मैं क्या
कर सकता हूं।
मुझे अपने साथ
भी कठोर होना
पड़ता है। बस, ईर्ष्या-रहित
हो जाओ।
देवगीत (जी
ओशो) शुन्यों
मुझे बहुत तंग
कर रही है। क्या
तुम केवल तुम
नहीं हो सकते।
यही तो मेरी
सारी शिक्षा
है। शुन्यों
कहा है। बस
मेरा हाथ पकड़
लो। नहीं तो
तुम खो जाओगी।
कभी-कभी में
कठोर बातें
कहता हूं। जो
मैं
साधारणतया
नहीं कहता।
बुरा मत
मानना। केवल मैं
कठोर बातें
कहता हूं,
केवल इस पर ध्यान
करो....शुन्यों, यदि तुम
चाहो तो तुम
जा सकती हो।
और काम कर
सकती हो।
अचेतन के लिए
कोई बहाना
उचित है.....मुझे
एक सिसकी
सुनाई दे रही
है और दरवाज़े
का खुलना और बंद
होना भी.....मैं
चाहता हूं कि
तुम सदा के
लिए यहीं रहो।
परंतु इसे
बार-बार मत
पूछो। शांत हो
जाओ और यहीं
रहो। मैं निष्ठुर
हूं, मैं
परिणामों की
चिंतन नहीं
करता। यदि
तुमने फिर
पूछा शुन्यों....नहीं।
शुन्यों रो
रही है। लेकिन
रोने से कुछ
नहीं होने
वाला। क्या
तुम शुन्यों
के लिए मेरे
आंसू देख सकते
हो। चाहत की
मांग करना यही
तो उसे त्यागिनी
है.....इस छोटे से
रंगमंच पर यह
कैसा नाटक,
जहां मेरे
अतिरिक्त और
कोई भी
होशपूर्ण
नहीं है.....खाली
नाटकशाला में
हंसी.....जहां तक
समझ का प्रश्न
है स्त्रियों
के साथ बड़ी
कठिनाई है....गुरू
होना कितना दुष्कर
कार्य है.....नोट
कर लो, आनंदों
शुन्यों अब भी
चाह रही है, उसके पास सब
कुछ है। जो
मैं उसे दे
सकता था। फिर
वे आनंदों की
पोशाक का बटन
ढूंढने लगते
है। और कहते
है, बटन की
खोज
करना....तुम्हारे
बटनों का क्या
हुआ। लिखो कि
मैने बटन
ढूंढने की
चेष्टा की
लेकिन मुझे
नहीं मिला। यह
वहीं होना चाहिए।
तुम छिपा रही
हो....शुन्यों,मैं तुम्हारे
मन को सुन
सकता हूं,जरूरत
की चाहत की एक
शाश्वता
मांग है। मैं चाहता
हूं कि तुम सब
यहां मेरे साथ
होओ। प्रेम के
कारण जरूरत के
कारण नहीं.....।’
ऐसे सैशन
घंटो चलते और
उनके दांतों
की चिकित्सा
लम्बे समय तक
चलने वाली थी।
मैं इन दिनों
ठीक से सो नहीं
पाती थी। क्योंकि
रात को हर दो
घंटे के बार
उन्हें अल्पाहार
लेना होता था।
वे मुझे
बुलाते,मैं उनके
लिए हल्का
नाश्ता ले कर
जाती। जब वे
खा रहे होते
मैं वहीं रुकती
और फिर बर्तन
वापस रसोई में
रखती। जैसे ही
मैं बिस्तर
पर जाती और
मुझे सोए लगभग
एक घंटा ही
हुआ होता।
अगले नाश्ते
का समय हो
जाता। लगभग दस
सप्ताह में
एक ही समय पर
लगातार दो
घंटे भी सो
नहीं पाई।
मेरा अनुमान
है कि जिसे आप आर.
एम.आई.
नींद कहते है
वह खराब हो गई
थी। स्वप्न
देखने की आवश्यकता
इतनी हो गई थी
कि सोने से
पहले ही मुझे
स्वप्न आने
लगते थे।
मैंने ओशो को
कहते सुना है
कि यदि एक व्यक्ति
आठ घंटे सोता
है तो उसमे से
छ: घंटे स्वप्न
निंद्रा के
होते है।
मैं विस्मित
थी। कि मेरे
अचेतन में सब
गड़बड़ थी।
दिन,महीने
बीत जाते,
जीवन बड़ा सरल
और प्रत्येक
वस्तु
ठीक-ठाक
प्रतीत होती
और अचानक मुझे
यह देखने का अवसर
मिलता कि रात
को क्या चल
रहा है। और
मुझे ज्ञात
होता कि मेरा
मन पूरी तरह पागल
है।
साधारणतया एक
व्यक्ति
अपने स्वप्नों
के बारे में
सजग नहीं होता
परंतु यदि उसे
बार-बार स्वप्न
में से जगा
दिया जाए तो
वह देख सकता है।
मैं इतनी ‘चिड़चिड़ी’ हो गई थी कि
कुछ कहती भी
नहीं थी। पीछे
मुड़कर देखने
पर यह असम्भव
लगता है कि
कैसे इतनी
आसानी से मैं
शिकार हो जाती
थी। लेकिन ओशो
जानते है कि
ठीक हमारे बटन
कहां है। और
उन्हें कब
दबाना है। यह
भी असम्भव
लगता है कि जो
ओशो करना चाह
रहे थे मैं
उसे समझ न पाई, बड़े खेद की बात
है। मेरा
अहंकार,मेरा
मन और इसकी
चालाकियां सब
इतना
पारदर्शी,
इतना स्पष्ट
था, मैं
उसे देख क्यों
न पाई?
मैं
क्रोधित थी, रोती थी।
तथा परेशान थी
और ओशो से
पूछती कि वे मुझ
पर क्यों
चिल्ला रहे
थे। उन्होंने
कहा कि वे
मुझे शांत
होकर बैठने को
तथा मेरे
आसपास क्या
हो रहा है
उसके प्रति
साक्षी होने
को कह रहे थे—और
वह मेरे लिए
पर्याप्त न
था। मेरे लिए
मौन होकर बैठ
जाना ही
पर्याप्त
नहीं था। उन्होंने
कहा कि वे मुझ
पर नहीं चिल्ला
रहे थे,
लेकिन मेरे
अचेतन पर चिल्ला
रहे थे। क्या
में देख नहीं
सकती थी कि ये
सब मेरे संस्कार
है। मेरा मन
है जो मुझ पर
हुक्म चला
रहा है। उन्होंने
कहा कि मैं
आनंदों से
अपनी तुलना कर
रही थी। कि
उसका पर तुमसे
ऊँचा है। उन्होंने
कहा कि आनंदों
केवल अपना काम
कर रही है। और
मैं अपना काम
करूं। लेकिन
मेरी
कंडीशनिंग कह
रही थी कि उसे अधिक
मिल रहा है।
वे कहते
रहते कि वे
सोचते है कि
इसी कारण बुद्ध
ने स्त्रियों
को दीक्षित
नहीं किया था
स्त्रियों
को उपयोगी वस्तु
समझा जाता था।
और उन्होंने
समर्थन किया।
स्त्रियां
चाहती है कि
उसकी आवश्यकता
को अनुभव किया
जाए और सोचती
है कि यदि उनकी
आवश्यकता न
रही तो उनके
स्थान पर
किसी अन्य का
उपयोग किया
जाएगा। और वे
व्यर्थ हो
जाएंगी। किसी की
आवश्यकता
बनने की इच्छा
का संस्कार
बहुत प्रबल और
बहुत गहरा है, कि इसे स्वयं
देख पाना सम्भव
नहीं है। कोई
दूसरा ही इसे
तुम्हें
दिखा सकता है।
जरूरतमंद होना
गौरवशाली
होना है।
यह
अपमानजनक है, अकेले
खड़े होओ। उन्होंने
कहा, ‘आप
अपने लिए
पर्याप्त
बनो।’जब यह
वार्तालाप चल
रहा था,
ओशो ने अपना
भोजन अभी-अभी
समाप्त किया
था। आनंदों
मैं फर्श पर
बैठी थी। और
ओशो खाने की
मेज पर। मैंने
उनकी ओर देखा, वे कितने
थके हुए लग
रहे थे। ऐसा
लगता था कि वे जो
प्रयास कर रहे
है वह कितना
निराशाजनक और
निष्फल है।
वे मुझे जगाने
की चेष्टा कर
रहे थे। और
मैं उन पर
नाराज हो रही
थी। मैंने उन्हें
देखा, वे
थकावट से
ज़रा-सा कंधों
को झुकाएं थे, मेरी
सहायता करके
उन्हें क्या
मिला। कुछ भी
तो नहीं। वे
एक प्रचीन
ऋषि-मुनि
दिखाई दे रहे
थे। जिसके एक
असम्भव
कार्य हाथ में
लिया हो। उनकी
करूणा अपार है, उनका धैर्य
आरे प्रेम
इतना विराट है
जितना आकाश।
मैं रोने लगी
और उनके पाँव
छू लिए।
एक महीना
बीत गया और
ओशो का स्वास्थ्य
और भी बिगड़
गया। कितनी ही
बार वे मुझे
कहते कि उन्हें
विश्वास ही
नहीं होता कि
अमरीकन सरकार
इतनी क्रूर हो
सकती है।
उन्होंने
मुझे मार ही
क्यों न
डाला। उन्होंने
कहा।
उनके जोड़ों
में खास कर
उनके दाएं
कंधे तथा
दोनों बांहों में
दर्द बढ़ गया।
ऐसे लगता है
जैसे मेरी बाँहें
जवाब दे रही
है। जब वे
चलते लड़़खडा
जाते और उनका
अधिक समय बिस्तर
में बीतने
लगा। उनका समय
दिन प्रतिदिन
नज़दीक आता जा
रहा था। एक दिन
वे प्रात:
पाँच बजे उठे
स्नान किया
मेज पर रखी
घड़ी पर पड़ी
और बोले, ‘ओह! सात
बजे है। मेरा
दिन समाप्त
हो गया। दूसरा
दिन।’ सुबह
के सात बजे थे
और उनके लिए
यह दिन का अंत
था। वे हंसा
करते की हम
उनके भोजन को
नाश्ता,
लंच सप्पर
कहते है। क्योंकि
वास्तव में
वे केवल नाश्ते
ही थे और उन्हें
पता ही नहीं
चलता था कि क्या
समय हुआ होगा
जब तक कि हम
नाश्ते का
नाम न बताते
थे।
वे दिन में
अधिक समय तक
सोने लगे। वे
पहले की तरह
नीलम वे
आनंदों के साथ
ऑफिस का काम
नहीं करते थे।
लंच या सप्पर
के समय कभी
आनंदों और
नीलम उनसे
बातचीत करने आती।
उन्होने
अपने भोजन के
समय आनंदों को
एक पुस्तक
लिखवाई—जिसमें
उनका समस्त
दर्शन समाहित
है। ‘द
फिलोसिया आफ एग्ज़िसटैंस:
द वर्ल्ड आफ
ओशो’ यह
बड़ा अंतरंग
दृश्य था ओशो
एक छोटी सी
मेज के सामने
बैठे है सदा
की भांति मेज़
के नीचे एक
टाँग पर दूसरी
टाँग रखे हुए
है। गद्दी या
कुर्सी का
सहारा लिए हुए
है। आनंदों और
नीलम
अपने-अपने नोट
पेड़ व पत्र
लिए फर्श पर
बैठी है। भोजन
कक्ष की एक
दीवार पूरी की
पूरी शीशे की थी
जिससे बाहर
गुलाब की बग़िया
दिखाई देती
थी। जो रात के
समय बत्तियों
से प्रदीप्त
हो उठती थी।
एक ऐसे ही
अवसर पर ओशो
ने कहा, ‘शुन्यों
एक पुस्तक
लिख सकती है, और उन्होंने
उसका शीर्षक
दिया है ‘माई
डायमंड डेज
विद भगवान’
उपशीर्षक था ‘द न्यू
डायमंड
सूत्रा’।
मैंने उन्हें
बताया कि जब
मैंने संन्यास
लिया था,
मैंने उन्हें
लिखा था कि
मैं उन्हें
एक हीरा दूंगी
और मैं उस समय
उलझन में पड़ गई
कि मैंने ऐसा
वादा क्यों
किया था। क्योंकि
मैं जानती थी
कि उन्हें
हीरा देने के
लिए मेरे पास
कभी इतने पैसे
न होंगे। उन्होंने
मुझे पुस्तक
लिखने को दी, मैं समझ न
पाई कि वे
मुझे क्या
उपहार दे रहे
थे। और इसलिए
मैं कभी उनका
धन्यवाद न कर
सकी।’
उन्होंने
इस पुस्तक के
लिए मेरा कोई
मार्ग दर्शन
नहीं किया और न
ही जैसे-जैसे समय
बीतता गया यह
पूछा कि क्या
मैंने लिखना
शुरू कर दिया
है। उन्होंने
एक बार मेरे
साथ ‘डायमंड
डेज़’ की
चर्चा की थी।
और यह घटना
रहस्यमयी
थी। यह अगस्त
1988 की बात है,
ओशो ने मुझे ‘बीप करके
बुलाया। आधी
रात का समय
था। मैं
चिंतित सी
गलियारे में
भागती हुई आई
कि कहीं ओशो
को दमे का
दौरा तो नहीं
पड़ गया। मैंने
दरवाजा खोला
और देखा कि वे
बिस्तर पर
पूरी तरह जागे
हुए बैठे है।
कमरे में बिस्तर
के साथ वाली बत्ती
का प्रकाश के
अतिरिक्त
अँधेरा था।
ठंडी हवा तथा
कमरे की
पुदीने जैसी
सुगंध ने मुझे
नींद से जगा
दिया, ‘एक
नोट पैड लाओ,’ उन्होंने
कहा, ‘मुझे
तुम्हारी
पुस्तक के
लिए कुछ देना
है।’
मैं नोट
पैड तथा पैन
लेकिर वापस आई
और उनके बिस्तर
के एक किनारे
पर बैठ गई
ताकि वे देख पाएँ
कि मैं क्या
लिख रही हूं।
उन्होंने
निम्नलिखित
पृष्ठ मुझे
से लिखवाया और
मुझे सारे नाम
गोलाकार में
लिखने को कहा।
उन्होंने
पक्का किया
था मैं ठीक
लिख रही थी।
और फिर लेट गए
और सो गए। मैंने
फिर कभी उनसे
इस बारे में
कुछ नहीं पूछा
और न ही उस
सूची की चर्चा
की। मैंने उसी
चुपचाप अपनी
फाइल में रख
लिया और बस।
मैंने कभी किसी
को इसके विषय
में नहीं
बताया, और हमेशा
यही समझा कि
यह ‘पुस्तक
के लिए’
है। यह बड़े
मजे की बात है
कि यद्यपि उन्होंने
बारह लोगों की
बात की थी,
नाम तेरह दिए।
लेकिन फिर
निर्वाणो का
नाम उसमें से
निकल
जानेवाला था
और तब यह बात
मालूम नहीं
थी।
अमृतो, आनंदों, हास्य, शुन्यों, डेविड,
नीलम देवगीत, जयेश,
आविर्भावा, निट्टी(नित्या
मो),
निर्वाणो,
कवीशा,
मनीषा।
बारह के
नाम दिए जा
सकते है, तेहरवां
अनाम रहेगा।
यह मेरा
गुह्म समूह
मध्य में
अज्ञान भगवान
आठ महीने
बाद ओशो ने
इनर सर्कल की
स्थापना की
जिसमें इक्कीस
सदस्य है।
ओशो ने उपर्युक्त
‘गुह्म
समूह’ को
कभी कोई कार्य
सौंपने की बात
नहीं कहीं,
वे केवल वही
है जो वे है—एक
गुह्म समूह।
ओशो थोड़े
समय से बीमार
थे जब वे पुन:
प्रवचन देने
के लिए आए थे
बहुत दुर्बल
दिखाई दे रहे
थे और ऐसा लग
रहा था जैसे
वे हमसे ‘प्रकाश वर्ष’ दूर हो गये
है। परंतु
जैसे ही उन्होंने
प्रवचन देने
प्रारम्भ
किए, उनमें
धीरे-धीरे शक्ति
संचार होने
लगी। यह ध्यान
देने की बात
है। कि कैसे
उनकी वाणी
सशक्त हो गई।
और दो-चार
दिनों में ही
उनमें अंतर आ
गया। वे हमेशा
कहते थे कि ये
हमसे बोलना ही
उन्हें शरीर
में बनाए हुए
है। और जिस
दिन वे हमसे
बोलना बंद कर
देंगे उसके
बाद वे अधिक
देर तक जीवित
नहीं रह पाएंगे।
बोलते समय वे
इतने सबल दिखते
थे कि यह विश्वास
करना कठिन था
कि वे बीमार
हे। परंतु
पूरे दिन में
वही एक एकसा
समय था जब उनमें
शक्ति होती।
हमें प्रवचन
देने के लिए
सारी शक्ति
बचा रहे थे।
प्रवचन के
समाप्त होने
के पश्चात
ओशो को कभी
उसकी चर्चा
नहीं करते
सुना था जो
उन्होने
प्रवचन में
कहा था,
ऐसे लगता जैसे
कि उन्होंने
जो कुछ प्रवचन
में कहा वह
कहीं आकाश से उतरा
हो और उनकी स्मृति
का हिस्सा बन
सका। हो।
परंतु एक रात
प्रवचन के बाद
ओशो ने मुझसे
कहा कि क्या
मैं ऐसा नहीं
सोचती कि उन्होंने
एक सारभूत बात
बहुत स्पष्ट
रूप से कहा
है। उन्होंने
जिस ढंग से इस
बात पर बल
दिया मुझे
उसका पुनरावलोकन
करना पडा: और
वह थी—
‘रंगमंच
पर यह सब
अभिनय है।’
रंगमंच पर
यह सब मात्र
नाटक है।
रंगमंच के
पृष्ठ भाग
में शुद्ध मौन
है।
शून्यता,
विश्रान्ति।
सब कुछ
पूर्ण शांति
में चला गया।‘’
उन्होंने
झेन पर बोलना
प्रारम्भ
किया परंतु वे
सम्भवत: शब्दों
की बजाय मौन
की वातावरण
तैयार कर रहे
थे। वे रूक
जाते और कहते, ‘……यह
मौन....’ बिल्कुल
उसे इंगित
करते हुए,
यह फिर रूक
जाते और हमारे
ध्यान को
आसपास हो रही
ध्वनियों की
और आकर्षित
करते—ऊंचे-ऊंचे
बांस के
पेड़ों के बीच
हवा की चीत्कार:
सुनो.....’वे
कहते है,
और मौन का एक
वितान बुद्ध
सभागार पर छा
जाता है।’
मैं यह कभी
न जान पाई कि
ओशो मज़ाक कर
रहे थे या
परिस्थिति
विशेष का एक
उपाय के रूप
में उपयोग कर
रहे थे या
चीजें वास्तव
में वैसी ही
थी जैसी वे
दिखाई देती
थी। उदाहरण के
लिए,
भूत-प्रेत:
ओशो ने अपने
प्रवचनों में बहुत
बार कहा है कि
भूत-प्रेत
जैसी कोई चीज
नहीं है। वे
केवल मनुष्य
के मन का भय
है। वे यह भी
जानते थे कि
मैं भूतों के
विचार का
शिकार हो जाती
हूं। और एक
बार मैंने उन्हें
बताया भी था
कि मैं मित्र
भूतों से मिली
थी। और मुझे
उनसे भी नहीं
लगा था। ओशो
के समीप होते
हुए किसी भी
परिस्थिति
में मेरे लिए
केवल एक ही
उपाय होता था
कि उसे
ईमानदारी से
स्वीकार
करूं क्योंकि
वे ऐसे ही थे।
प्रेतात्माओं
और भूतों के
विषय में वे
यह कहते थे कि
उन्हें
भूत-प्रेतों
से कोई आपत्ति
नहीं है। जब
तक कि वे उनकी
नींद खराब न
कर दें। उन्होंने
मुझे कई
अवसरों पर
बुलाया और
पूछा कि क्या
कोई उनके कमरे
में आया था।
एक बार उन्होंने
आनंदों को
बुलाया और
बताया कि उन्होंने
एक आकृति को
दरवाज़े से
होकर उनके
बिस्तर की और
आते और जाकर
उनकी कुर्सी
के पीछे खड़े
होते देखा।
फिर लौटने से
पहले चरण छूने
की चेष्टा की, और फिर
दरवाजे से
बाहर निकल
गया। उन्होंने
बताया की वे
शांति से सौ
रहे थे। और इस
आत्मा ने
उनकी नींद
खराब कर दी।
उन्हें पक्का
नहीं था कि वह
मृतात्मा थी
या कोई ऐसा व्यक्ति
था जिसकी मेरे
साथ होने की
गहन आकांशा
हो। उन्होंने
सोचा कि कहीं
वे मैं तो न थी
क्योंकि
उसका आकार मुझ
जैसा था। मैं
वास्तव में
उस समय सो रही
थी जब वह आत्मा
दरवाजे से
भीतर गई। वह
विशेष रूप से एक
पोषक निद्रा
थी, वह
नींद उस समय
की थी जब व्यक्ति
आधा नींद में
और आधा जागा
हुआ होता है।
परंतु पूर्ण
विश्राम में
होता है। अत: जब
आनंदों ने
मुझे यह बात
बताई मैंने
अच्छी तरह
सोचा कि हो
सकता,यह
मैं होउँ। हो सकता
है कि मेरी
इच्छा मेरे
शरीर के
विश्राम करते
समय पूरी हो
गई हो और शायद
इसीलिए मेरी
नींद इतनी
पोषक थी।
ओशो का
कमरा एक छोटे
से गलियारे के
पीछे है और उस
गलियारे तक
पहुंचने के
लिए दोहरे
शीशे का दरवाज़ा
है, जो
प्राय: ताले
से बंद रहता
है। और उनके
कमरे में भी
ताला लगा रहा
है। गलियारे
के एक सिरे पर
ओशो का कमरा
है और दूसरे
सिरे पर एक
कमरा है जहां में
कभी-कभी तब
रहती हूं जब
ओशो की देखभाल
में मुझे
सहायता करनी
होती थी। अनेक
बार ओशो ने मुझे
अपने कमरे में
बुलाया और कहा
कि उन्होंने
दरवाज़े पर
दस्तक सूनी
है। यह सम्भव
नहीं था क्योंकि
दरवाज़े बंद
रखे जाते थे।
और गलियारे के
पिछले एक दो वर्षों
से ऐसा
कभी-कभी होता
रहा। पहली बार
यह तब हुआ जब
निर्वाणो
यहां थी और
उन्होंने
उसे यह बताया
कि कोई उनका
दरवाज़ा खटखटा
रहा था यह पता
करे कि वह कौन
था। रात दो
बजे का समय
था। वह सबके
कमरे में
पूछने गई कि
कौन था जो ओशो
का दरवाज़ा
खटखटा रहा था।
परंतु कोई न
गया था और
लाओत्से गेट
के गार्डों ने
किसी को भीतर
जाते नही देखा
था।
11 दिसम्बर 1988
के ओशो के जन्म
दिवस के उत्सव
से पहले ओशो
बहुत बीमार हो
गए। निर्वाणो
और अमृतो उनकी
देखभाल कर रहे
थे और उनके
कमरे के साथ
वाले कमरे में
मैं उनके वस्त्रों
की धुलाई का
काम करती थी।
पूरे घर में
मृत्यु जैसा
सन्नाटा और
अँधेरा था। वे
बहुत बीमा थे, परंतु
मैं नहीं
जानती थी कि
क्या बात थी, वे क्यों
बीमार थे। फिर
एक सप्ताह तक
उनका कोई भी
वस्त्र
धुलाई के लिए
नहीं आया और
मुझे पता चला
कि वे बिस्तर
से बाहर नहीं
आ रहे नहीं
चाहते थे कि
लोगों को पता
चले कि वे कितने
बीमार है। क्योंकि
फिर वे चिंतित
और निराश हो
जाते है और
पूरे आश्रम की
ऊर्जा क्षीण
हो जाती है। इन
कुछ सप्ताहों
में उनके भीतर
जीवन नी बचा
था।
मा प्रेम शुन्यो
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