धर्म और आनंद-(प्रश्नोंत्तर-विविध)-ओशो
नौवां प्रवचन
मेरे
प्रिय आत्मन्!
अभी
एक भजन आपने सुना। मैंने भी सुना। मेरे मन में खयाल आया, कौन से
घूंघट के पट हैं जिनकी वजह से प्रीतम के दर्शन नहीं होते हैं? बहुत बार यह सुना होगा कि घूंघट के पट हम खोलें। तो वह जो प्यारा हमारे
भीतर छिपा है उसका दर्शन हो सकेगा? लेकिन कौन से घूंघट के पट
हैं जिन्हें खोलें? आंखों पर कौन सा पर्दा है? कौन सा पर्दा है जिससे हम सत्य को नहीं जान पाते हैं? और जो सत्य को नहीं जान पाता, जो जीवन में सत्य का
अनुभव नहीं कर पाता, उसका जीवन दुख की एक कथा, चिंताओं और अशांतियों की कथा से ज्यादा नहीं हो सकता है। सत्य के बिना न
तो कोई शांति है, न कोई आनंद है। और हमें सत्य का कोई भी पता
नहीं है। सत्य तो दूर की बात है, हमें स्वयं का भी कोई पता
नहीं है। हम क्यों हैं और क्या हैं, इसका भी कोई बोध नहीं
है। ऐसी स्थिति में जीवन भटक जाता हो अंधेरे में, दुख में और
पीड़ा में, तो यह कोई आश्चर्यजनक नहीं है।
इस सुबह मैं इस संबंध में ही थोड़ी सी आपसे बात करूं। कौनसा
पर्दा है और उसे हम कैसे उठा सकते हैं?
चारों
तरफ देखेंगे,
तो दिखाई पड़ेगा, मनुष्य को छोड़ कर सारी
प्रकृति में एक अदभुत प्रकार का संगीत है। पशुओं में, पक्षियों
में, पौधों में एक अलौकिक संगीत और शांति है, लेकिन मनुष्य में नहीं। यह तथ्य आश्चर्यजनक है। मनुष्य में तो और भी गहरा
संगीत और शांति होनी चाहिए। क्योंकि उसके पास विचार है, विवेक
है, सोचने और समझने की क्षमता है। लेकिन उलटा हुआ है,
हमारी सारी सोचने-समझने की क्षमता, हमारा
विवेक और विचार हमारे जीवन के शांति और आनंद में सहयोगी बनने की बजाय बाधक बन गया
है।
बहुत
पुरानी कथा है,
सुनी होगी आपने। बाइबिल में एक बहुत पुरानी कथा है, मनुष्य आनंद में था, स्वर्ग के राज्य में था,
लेकिन उसने ज्ञान का फल चखा और परमात्मा ने उसे बहिश्त के एक बगीचे
से बाहर निकला दिया। यह कथा आश्चर्यजनक है, ज्ञान का फल चखने
से मनुष्य के जीवन से आनंद और शांति और स्वर्ग छिन गए? ज्ञान
के कारण स्वर्ग छीना, यह कथा हैरान करनी वाली है! लेकिन यह
सच मालूम होती है। तो जरूर ज्ञान को हमने कुछ गलत ढंग से पकड़ा होगा। जिसके परिणाम
में जीवन की शांति और संगीत नष्ट हुए हैं। यह तो असंभव है कि ज्ञान मनुष्य के जीवन
से सुख को छीन ले। लेकिन जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता गया है वैसे-वैसे यह तथ्य की बात है
कि शांति और संगीत और आनंद कम होते गए हैं। मनुष्य जितना सभ्य हुआ है, जितनी ज्ञान की उसने खोज की है, उतना ही उसका जीवन
उदास, दुख और पीड़ा से भर गया। उसके लिए यह व्यर्थता जीवन में
आई है जितना हमारा ज्ञान बढ़ा। होना तो उलटा चाहिए, ज्ञान बढ़े
तो जीवन में गहराई बढ़े, ज्ञान बढ़े तो जीवन में प्रकाश बढ़े,
ज्ञान बढ़े तो जीवन में अंधकार कम हो, ज्ञान
बढ़े तो जीवन में आनंद बढ़े, दुख विलीन हो, होना तो यही था, लेकिन यह हुआ नहीं। और इस बात
का...के साथ-साथ जो होना था वह नहीं हुआ है। बल्कि अब तो ऐसा लगता है कि मनुष्य का
यह ज्ञान कहीं पूरी मनुष्य-जाति का अंत न बन जाए।
अज्ञान
ही कहीं ज्यादा आनंदपूर्ण था। होना उलटा था, नहीं वैसा हुआ तो कुछ कारण हैं।
कारण यह है कि ज्ञान की सारी खोज, मनुष्य की पूरी खोज मनुष्य
के बाहर जो है मात्र उससे ही संबंधित हो गई है। मनुष्य के भीतर जो छिपा है उस
संबंध में हम अब भी गहरे अज्ञान में हैं। भीतर अज्ञान है, भीतर
अंधकार है, और बाहर है सारा ज्ञान। बाहर के ज्ञान से बहुत
शक्ति उपलब्ध हुई है, लेकिन वह सारी शक्ति अज्ञानी मनुष्य के
हाथ में है। और अज्ञान के हाथों में शक्ति हो तो खतरनाक हो जाती है। ज्ञान के
हाथों में शक्ति हो तो सौभाग्य है, अज्ञान के हाथों में
शक्ति हो तो बहुत दुर्भाग्य है। अज्ञान शक्ति का क्या करेगा? अज्ञान के हाथों में शक्ति केवल विनाश बन सकती है।
तैमूरलंग
का नाम आपने सुना होगा,
वह जब हिंदुस्तान आया, उसने एक बहुत बड़े वृद्ध
फकीर से पूछा, कि मैं सुनता हूं कि बहुत अधिक नींद लेना बुरा
है, बहुत सोना बुरा है। मैं तो बहुत सोता हूं, क्या यह बुरा है? उस वृद्ध फकीर ने कहा: तुम जैसे
मनुष्यों का चौबीस घंटे सोना ही बेहतर है। बुरा आदमी सोया रहे यह शुभ है। भले आदमी
का जागना शुभ होता है, बुरे आदमी का नहीं। उस फकीर ने कहा:
जिस किताब में यह लिखा हो उसमें यह भी जोड़ लेना।
ऐसे
ही मैं आपसे कहना चाहूंगा: शक्ति सदा शुभ नहीं है। शक्ति केवल ज्ञान के ही हाथों
में ही शुभ है,
अज्ञानपूर्ण हाथों में अशुभ और दुर्भाग्य है।
मनुष्य
के जीवन का दुख इस केंद्रीय तथ्य पर निर्भर हो गया है: भीतर है अज्ञान, बाहर है
शक्ति। भीतर है अंधकार, बाहर है विज्ञान की ज्योति। हाथ हैं
अज्ञान के और शक्ति है महत्। उस शक्ति से जो भी हो रहा है वह घातक हो रहा है। उस
शक्ति से हमने जो भी जाना है, वही हमारे जीवन के विरोध में
खड़ा हो गया है। हमने जो भी बनाया है, वही हमारा विनाश हो रहा
है। इसलिए एक और प्रगति दिखाई पड़ती है, दूसरी और मनुष्य के
जीवन में एक आंतरिक ह्रास होता चला जाता है।
क्या
हो? क्या रास्ता है? एक रास्ता है, उन लोगों ने सुझाया, जो मानते हैं कि मनुष्य पीछे
वापस लौट चले--वैज्ञानिक खोजों को छोड़ दे, वह जो शक्ति हाथ
में आई है उसे त्याग दे, वापस लौट चले पीछे की तरफ। यंत्रों
को छोड़ दे, यंत्र-विज्ञान को, टेक्नालॉजी
को छोड़ दे, जो उसने जान लिया है उसे भूल जाए और पीछे वापस
लौट चले। रीचर्ड से लेकर गांधी तक के लोगों ने यही सुझाव दिया है--पीछे वापस लौट
चलो।
लेकिन
मैं आपसे कहूं,
जीवन में पीछे लौटना असंभव है। पीछे लौटने जैसी बात ही असंभव है।
कोई पीछे नहीं लौटता। और जो हमने जान लिया है उसे भूला नहीं जा सकता। वस्तुतः पीछे
की तरफ कोई रास्ता ही नहीं होता है कि लौटा जा सके। जिस समय से हम गुजर कर आगे आ
गए हैं वह कहीं भी नहीं है। अब उसमें पीछे जाना असंभव है। जैसे जवान आदमी पीछे
बचपन में नहीं जा सकता और बूढ़ा आदमी पीछे जवानी में नहीं जा सकता, वैसे ही मनुष्य का समाज भी पीछे जाने में असमर्थ है।
दो
ही विकल्प दिखाई पड़ते हैं,
एक तो जिस भांति हम आगे जा रहे हैं उसी भांति आगे चले जाएं, जो कि खतरनाक मालूम होता है, जो कि आगे किसी बहुत
बड़े गङ्ढे में ले जाएगा। दूसरा रास्ता जो लोग सुझाते हैं वह यह है कि पीछे लौट
जाएं, जो कि असंभव है।
जिस
रास्ते पर हम हैं वह मौत में ले जाएगा। वह करीब-करीब मौत में ले गया है। हम
नाममात्र को जीवित हैं,
जीवन का कोई आनंद हमारे भीतर नहीं है। हम नाममात्र को जीते हुए कहे
जा सकते हैं। क्योंकि हम श्वास लेते हैं, क्योंकि हम चलते
हैं, और हमारी आंखें खुलती हैं और बंद होती हैं इसलिए हम
अपने को जीवित समझ लें, तो बात दूसरी है। लेकिन जीवन की
ऊर्जा, जीवन का संगीत, भीतर प्राणों का
आनंद कुछ भी नहीं है। अगर श्वास का चलना ही जीवन है तो दूसरी बात।
आगे
एक रास्ता है,
जो हमें निरंतर-निरंतर नीचे ले जा रहा है, जड़ता
में ले जा रहा है। पीछे लौटने की बात व्यर्थ है, पीछे लौटना
संभव नहीं है। जो जान लिया जाता है वह भूला नहीं जा सकता। ज्ञान को पोंछना असंभव
है। फिर क्या है मार्ग? क्या कोई और मार्ग नहीं है?
मैं
आपसे निवेदन करना चाहूंगा,
और मार्ग है। जिस भांति हम विज्ञान के जगत में आगे गए हैं, उसी भांति अगर हम आत्मज्ञान के जगत में भी आगे जाएं तो मार्ग है। आगे भी
मार्ग है। जितनी शक्ति और जितना ज्ञान हमने पदार्थ का उपलब्ध किया है अगर उतना ही
भीतर जो चेतना छिपी है उसका ज्ञान भी उपलब्ध हो तो मार्ग है। और जो बाहर दिखाई
पड़ता है उससे बहुत ज्यादा भीतर है। क्योंकि बाहर तो जड़ता दिखाई पड़ती है, भीतर चैतन्य है। बाहर तो पदार्थ है, भीतर तो पदार्थ
से ज्यादा कुछ है। भीतर तो परमात्मा है। लेकिन वह परमात्मा आदृत मालूम होता है,
ढंका मालूम होता है, उसका कोई पता नहीं चलता।
जो हमारे निकटतम है वही हमसे सबसे ज्यादा दूर मालूम होता है। कौनसा पर्दा है उसके
ऊपर जिसे उठाएं कि भीतर भी जीवन में ज्ञान हो जाए? क्या करें
जिससे वह पर्दा उठे?
कुछ
हम करते हैं--कोई मंदिर जाता है उसी पर्दे को उठाने के लिए, कोई
मस्जिद जाता है। कोई भगवान की मूर्ति बना कर पूजता है और प्रार्थना करता है,
उसी पर्दे को उठाने के लिए। कोई गीता, कुरान
और बाइबिल पढ़ता है और याद करता, उसी पर्दे को उठाने के लिए।
कोई भजन गाता है, कोई कुछ और करता है, कोई
उपवास करता है, मंदिर बनाता है, दान-पुण्य
करता है, कोई संन्यासी हो जाता है--कपड़े छोड़ता है, भोजन छोड़ता है, उसी पर्दे को उठाने लिए। लेकिन क्या
इन सारी बातों से पर्दा उठता है?
मैं
आपसे कहना चाहूंगा,
नहीं उठता है। नहीं उठता इसलिए, इसलिए नहीं
उठता है कि मंदिर भी बाहर है, गीता भी बाहर है, कुरान भी बाहर है, वह मूर्ति भी बाहर है, वह प्रार्थना भी बाहर है, वह भजन भी बाहर है। इनमें
से कोई भी भीतर नहीं है। मनुष्य जो भी कर सकता है, वह सब
बाहर है। इसलिए पर्दा नहीं उठ सकता है। गीता को पढ़ेगा, गीता
बाहर है। और वे शब्द जो गीता के भीतर ले जाएगा, वे भी भीतर
नहीं जा सकते, वे भी स्मृति में अटक कर रह जाएंगे। स्मृति भी
बाहर है। स्मृति भी भीतर नहीं है। वह जो भजन और गीत गाएगा, वे
भी भीतर नहीं हैं।
इस
तथ्य को बहुत,
बहुत विचारपूर्वक समझना आवश्यक है। भीतर जाने के लिए यदि हम बाहर
कुछ करेंगे तो जाना नहीं हो सकता। लेकिन मंदिर भीतर कैसे बनाया जाए? वह तो बाहर ही बनाया जाएगा और मूर्ति भी बाहर ही रखी जाएगी। आप कहेंगे,
हम तो भीतर भी मंदिर बना सकते हैं और मन में भी मूर्ति रख सकते हैं।
यही
मुझे आपसे कहना है,
वह मूर्ति भी बाहर होगी। क्योंकि मन में जिस मूर्ति को आप रखेंगे
भगवान की, अगर भीतर विचार करेंगे तो उस मूर्ति से भी आप जो
इस मूर्ति को देखने वाले हैं, अलग होंगे। वह मन में होगी
भगवान की मूर्ति, लेकिन आप जो कि देखने वाले हैं उससे दूर
खड़े होंगे। वह फासला उतना ही है जितना कि फासला मंदिर में रखी पत्थर की मूर्ति का
और आपका है। आप हमेशा दूर होंगे उससे जो आपके मन में है। गीता आपके मन में है,
कुरान आपके मन में है, बाइबिल, महावीर और बुद्ध के वचन आपके मन में हैं, वे भी बाहर
हैं, वे भी आपके बाहर हैं। वह जो आपका होना है, वह जो आपका बीइंग है, वह जो आपकी आत्मा है उसके बाहर
हैं। मन भी आपकी आत्मा के बाहर है। मन में भी बैठी हुई बातें आपकी आत्मा के बाहर
हैं।
इस
तथ्य को बहुत गहराई से देखने और जानने की जरूरत है कि मेरे बाहर क्या है और मेरे
भीतर क्या है?
जो भी मुझसे बाहर है उस पर मैं कुछ भी श्रम करूं, कुछ भी प्रयास करूं, पर्दा नहीं उठ सकेगा। क्योंकि
वही तो पर्दा है। जो बाहर है वही पर्दा है। अगर मुझे यह दिखाई पड़ जाए कि क्या-क्या
बाहर है और उसे मैं छोड़ सकूं, तो जिस दिन मेरे मन पर बाहर का
कुछ भी न रह जाए उसी दिन पर्दा उठ जाएगा, जिस दिन मैं अकेला
रह जाऊं भीतर, मेरा अकेला होना रह जाए, उसी क्षण मेरे ऊपर कोई पर्दा नहीं होगा।
लेकिन
हम बाहर के पर्दों को मिटाते नहीं इकट्ठा करते हैं। और कभी मिटाने का खयाल भी पैदा
होता है तो एक को मिटाते ही दूसरा बना लेते हैं। एक पर्दे को मिटाते हैं दूसरा
पर्दा बना लेते हैं। एक काम को छोड़ते हैं दूसरा काम हाथ में ले लेते हैं। लेकिन
कोई न कोई क्रिया जारी रहती है, कोई न कोई काम जारी रहता है, कोई न कोई एक्टिविटी, कोई न कोई क्रिया मन के तल पर
करती रहती है, काम करती रहती है, वही
क्रिया पर्दा बन जाती है।
क्या
यह संभव है कि मन ऐसी स्थिति में ले जाया जा सके जहां वह निष्क्रिय हो, जहां कोई
क्रिया मन न कर रहा हो? जहां मन पर कोई क्रिया न हो रही,
मन बिलकुल शांत और निष्क्रिय हो, क्या यह संभव
है? अगर यह संभव है तो ही पर्दा उठ सकता है। यह संभव है।
तीन
सूत्र मैं आपसे कहूं जिनके आधार पर यह संभव हो सकता है। यह कठिन नहीं है। यह कठिन
नहीं है कि मन ऐसी स्थिति में पहुंच जाए जहां कि कोई क्रिया नहीं हो रही है। उसी
क्षण पर्दा उठ जाता है और हम उसको जानते हैं जो भीतर बैठा है। उसको जानते ही जीवन
कुछ से कुछ हो जाता है। उसको जानते ही जीवन उपलब्ध होता है, उसके पहले
तो हम मुर्दों की भांति हैं। उसको जानते ही आत्मिक शक्ति का जन्म होता है, उसको जानते ही भीतर हृदय आलोक से भर जाता है। और तब फिर जीवन में जो भी
होगा वह अशुभ नहीं हो सकता। फिर जीवन में जो भी होगा वह अधर्म नहीं हो सकता। भीतर
प्रकाश का दीया जलता हुआ हो, तो जीवन में सारा आचरण सुगंध से
परिपूर्ण हो जाता है। भीतर ज्ञान की ज्योति जागी हुई हो, तो
जीवन में अहिंसा और प्रेम और सत्य और ब्रह्मचर्य अपने आप फलित होते हैं, उन्हें कहीं से लाना नहीं पड़ता, उन्हें खोजना नहीं
पड़ता।
अब
यह सारी दुनिया में यह खयाल चलता है कि कैसे मनुष्य का आचरण ठीक हो, कैसे उसके
जीवन में सत्य हो और सच्चाई हो, कैसे उसके जीवन में प्रेम हो,
घृणा न हो, हिंसा न हो, क्रोध
न हो, लेकिन हम सफल नहीं हो पाते हैं। नहीं सफल हो पाते हैं
इसलिए कि ये सारे के सारे तत्व, ये सारे के सारे फूल केवल
उसी व्यक्ति में लगते हैं जिसके भीतर आत्म-ज्योति जाग्रत हो। आत्म-ज्योति जाग्रत न
हो, तो जीवन में अहिंसा नहीं हो सकती, हिंसा
ही होगी। आत्म-ज्योति जाग्रत न हो, तो जीवन में प्रेम नहीं
हो सकता, घृणा ही होगी। आत्म-ज्योति जाग्रत न हो, तो जीवन में जो भी होगा वह शुभ नहीं हो सकता, अशुभ
ही होगा। आखिर नहीं बदला जा सकता है जब तक कि भीतर आत्मा जाग्रत न हो।
मेरे
देखे अनाचरण का और कोई अर्थ नहीं है: आत्मा का सोया हुआ होना अनाचरण है, आत्मा का
जागा हुआ होना आचरण है। वहां भीतर सम्यक रूप से आत्मा जागी हुई हो, आचरण अपने आप सम्यक हो जाता है। प्रकाशित आत्मा का प्रकाशित आचरण होता है।
अंधकारपूर्ण आत्मा का अंधकारपूर्ण आचरण होता है। जीवन की साधना, जीवन की कला, जीवन में कुछ पाने की खोज उसी बिंदु पर
अटकी हुई है कि क्या भीतर का पर्दा उठता है? अगर नहीं उठता
तो हम कुछ भी करेंगे, वह व्यर्थ होगा। और हमारे सब करने से
पर्दे और घनीभूत होंगे।
बच्चे
के मन पर कम पर्दा होता है,
बूढ़े के मन पर और ज्यादा पर्दा हो जाता है। उसने जीवन भर जो किया
उससे पर्दे और सख्त और मजबूत हो गए। बूढ़ा आदमी स्वयं की आत्मा से और भी दूर खड़ा
है। होना तो यह चाहिए था कि बूढ़ा और करीब पहुंचता। लेकिन जीवन में हम जो करते हैं
उससे पर्दे और मजबूत होते हैं। फिर कैसे पर्दा उठे? कैसे
भीतर मन शांत हो जाए?
तीन
सूत्र मैं आपसे कहना चाहता हूं। पहला सूत्र है: संयम। लेकिन संयम शब्द से वह मत
समझना जो आप समझते हैं। संयम से मेरा अर्थ नहीं है जो आपने संयम से समझा होगा।
संयम से मेरा अर्थ है: अति जीवन में न हो, एक्सट्रीम जीवन में न हो। संयम से
मेरा अर्थ है: जीवन अतियों में न चले, मध्य में हो। जितना
जीवन मध्य में होता है उतना ही जीवन शांत हो जाता है। सभी प्रकार के एक्सट्रीम,
सभी प्रकार की अति जीवन को तनाव से भरती है, चिंता
से भरती है, आंदोलन से भरती है। लेकिन यह ध्यान रखना बहुत
कठिन है कि क्या अति है? आमतौर से तो यह होता है, एक अति से ऊब कर हम दूसरी अति पर चले जाते हैं।
बुद्ध
एक गांव में गए,
उस गांव में श्रोण नाम का एक राजकुमार था। उसकी दूर-दूर तक ख्याति
थी। जितने बुद्ध प्रसिद्ध थे उनसे कम वह भी प्रसिद्ध न था। उसकी प्रसिद्धि थी भोग
के लिए। उस जैसा भोगी आदमी शायद उस समय कोई भी नहीं था। यहां तक कहा जाता है कि वह
अपने पास चिकित्सक रखता था; भोजन कर लेता था, चिकित्सक उसे वॉमिट करा देते थे, ताकि वह फिर से
भोजन का आनंद ले सके। ऐसा दिन में वह दस-दस, पंद्रह-पंद्रह
बार भोजन करता था।
ऐसे
और भी पागल हुए हैं। नीरो का नाम आपने सुना होगा। नीरो भी यही करता था। वह भी
डाक्टर लगाए हुए था। भोजन कर लेता था, डाक्टर भोजन बाहर निकलवा देते थे,
ताकि फिर भोजन का फिर मजा ले सके।
वह
श्रोण भी ऐसा ही था। नशा करके दिन-रात धुत पड़ा रहता था, मुश्किल
कभी होश में आता था। सारे राज्य की सुंदरतम स्त्रियों को पकड़वा कर उसने अपने हरम
में बंद करवा लिया था। जिन सीढ़ियों से वह चढ़ता था, तो वहां
कोई डंडा नहीं लगा रखा था जिस पर हाथ रख कर जाए, वहां नग्न
स्त्रियां खड़ी कर रखता था जिनके कंधे पर हाथ रख कर ऊपर चढ़ता था। उसका घर भोग और
विलास का घर था।
बुद्ध
उस गांव में आए। श्रोण भी उनका नाम सुना। वह भी उन्हें सुनने गया। लोग चकित हुए!
क्योंकि श्रोण का और बुद्ध को सुनने जाना एक आश्चर्य था। बुद्ध से किसी ने पूछा कि
यह श्रोण भी आपको सुनने आया है, क्या इसमें आश्चर्य नहीं? बुद्ध ने कहा: कोई आश्चर्य नहीं। यह एक अति से ऊब गया, अब यह दूसरी अति पर जाएगा। और सच में ऐसा ही हुआ, उसी
दिन संध्या बुद्ध को सुन कर वह संन्यासी हो गया।
लोग
समझे कि बुद्ध का इसमें चमत्कार है। बुद्ध के एक भिक्षु ने कहा: आपका चमत्कार है
यह कि श्रोण जैसा व्यक्ति,
जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि संन्यासी हो जाएगा। वह संन्यासी
हो गया।
बुद्ध
ने कहा: मेरा चमत्कार नहीं है, उसका मन एक अति से ऊब गया, अब वह दूसरी अति पर आया। इसलिए आप बहुत हैरान न हों। दुनिया में बड़े से
बड़े संन्यासी राजाओं के पुत्र ही हुए हैं, इसमें कुछ आश्चर्य
की बात नहीं। यह एक एक्सट्रीम से, एक अति से ऊब कर दूसरी अति
पर चले जाना है। जैसे घड़ी का पेंडुलम एक जगह से हटता है तो दूसरे कोने पर पहुंच
जाता है, बीच में नहीं रुकता। एक कोने से दूसरा कोना,
ऐसा पेंडुलम चलता है, ऐसे मनुष्य का मन चलता
है। इसलिए जो आदमी जितना हिंसक होगा, एक दिन अहिंसा का व्रत
लेगा। जो आदमी जितना भोगी होगा, किसी दिन ब्रह्मचर्य की कसम
खाएगा। जो आदमी जितना परिग्रह को इकट्ठा करेगा, एक दिन दान
करने लगेगा। वह एक्सट्रीम्स हैं जिनमें हमारा मन चलता है।
बुद्ध
ने कहा: मेरा कोई प्रभाव नहीं है, इसका मन एक अति से ऊब गया। अब दूसरा खतरा यह है
कि यह दूसरी अति पर जाएगा। दूसरे दिन से ही उसने उपवास शुरू कर दिए। जिसने
चिकित्सक लगा रखे थे भोजन अति करवाने के लिए, उसने दूसरे दिन
उपवास शुरू कर दिए। जो कभी रथ के नीचे उतर कर जमीन पर नहीं चला था; जब भिक्षुओं का संग चलता आगे, तो भिक्षु तो उस मार्ग
पर चलते जहां कांटे न हों, वह उस मार्ग पर चलता जहां कांटे
जरूर हों। वह अपने शरीर को कष्ट देने लगा। उसने जो-जो भोगा था, उसके रिएक्शन में, उसकी प्रतिक्रिया में उससे
उलटा-उलटा करने लगा। खूब सोता था, तो अब न सोने की कसम ले
ली। रात भर जागा हुआ खड़ा रहता।
तीन
महीने बुद्ध ने उसे कुछ भी नहीं कहा। वह सूख कर हड्डी हो गया। आया था तब बहुत
सुंदर युवा था। तीन महीने में सूख कर हड्डी हो गया। और उसकी आंखें गङ्ढों में चली
गईं। उसके शरीर से दुर्गंध आने लगी, अब वह स्नान नहीं करता था। पहले तो
उसने इत्र बहुत छिड़के थे और गुलाब के फूल के जलों से नहाया था। अब वह स्नान उसने
बंद कर दिए थे। अब उसके शरीर से दुर्गंध फैलती थी। गहरे उपवास कर रहा था, शरीर सूख कर हड्डी हो गया था। वह बदला ले रहा था। उसने जो अपने मन से किया
था उससे उलटा होकर बदला ले रहा था। पहली बात भी भूल थी तो दूसरी बात कोई कम भूल न
थी। पहली बात मूर्खतापूर्ण थी तो दूसरी बात कोई बहुत ज्ञानपूर्ण न थी। सभी अतियां
मूर्खतापूर्ण होती हैं।
बुद्ध
एक दिन संध्या उसके द्वार पर गए जिस झोपड़े में वह ठहरा था और उन्होंने उससे कहा:
श्रोण, मैं कुछ तुझसे पूछने आया हूं। मैं तुझसे पूछना चाहता हूं, मैंने सुना है, जब तू राजकुमार था और भिक्षु न हुआ
था, तो संगीत में तेरी बड़ी गति थी, वीणा
बजाने में तू बहुत कुशल था। तो मैं एक बात पूछने आया हूं, मैं
यह पूछने आया हूं कि वीणा के तार जब बहुत ढीले होते हैं तो उनसे संगीत पैदा होता
है या नहीं?
श्रोण
ने कहा: कैसे पैदा होगा?
तार ढीले होंगे तो संगीत कैसे पैदा होगा?
बुद्ध
ने कहा: और यह भी मुझे पूछना है, तार जब बहुत कसे होते हैं तब संगीत पैदा होता
है या नहीं?
उस
श्रोण ने कहा: जब तार बहुत कसे होते हैं तब भी संगीत पैदा नहीं होता, तार टूट
जाते हैं।
फिर
बुद्ध ने पूछा,
संगीत कब पैदा होता है?
उस
श्रोण ने कहा: संगीत तब पैदा होता है, तार जब तो न ढीले होते हैं और न
कसे हुए होते हैं। बीच में एक मध्य का बिंदु भी है, जब तार
को न तो कहा जा सकता है कि ढीला है और न कहा जा सकता है कि कसा हुआ है। उस मध्य के
बिंदु पर जब तार होता है तो संगीत पैदा होता है।
बुद्ध
ने कहा: यही तुझे याद दिलाने आया हूं: जीवन की वीणा में भी तभी संगीत पैदा होता है
जब तार न बहुत कसे होते हैं न बहुत ढीले। जीवन का संगीत भी ऐसे ही पैदा होता है।
संयम
से मेरा अर्थ है: जीवन में संगीत पैदा होने की विधि। संयम से मेरा अर्थ है: संगीत।
संयम से मेरा अर्थ है: मध्य के बिंदु को खोजना। अति पर जाना बहुत आसान है। मध्य को
खोज लेना सवाल है। मध्य को खोजना तपश्चर्या है।
तो
जीवन में देखें,
जीवन की सारी क्रियाओं में संयम हो, मध्य हो,
संगीत हो। अति न हो, एक्सट्रीम न हो। कोई
दूसरा आपको यह नहीं बता सकता कि वह मध्य-बिंदु कहां होगा। वह तो निरंतर-निरंतर
जीवन में जी कर आपको खोजना होगा। जो मेरे लिए मध्य-बिंदु है जरूरी नहीं आपके लिए
मध्य-बिंदु हो। जो आपके लिए मध्य है वह दूसरे के लिए मध्य न होगा।
तो
जीवन की सारी क्रियाओं में,
जीवन की सारी गति में, जीवन के सारे आचरण में
मध्य के बिंदु को खोजना साधना है। जो व्यक्ति मध्य के बिंदु को खोजने से वंचित हो
जाता है वह अतियों में भटकता है और दुख उठाता है।
मैं
आपसे कहूं, भोग भी अति है और त्याग भी। संसार भी अति है और संन्यास भी। ठीक-ठीक संयमी
वह है जिसके जीवन के तार न तो कहे जा सकते कि ढीले हैं और न कहे जा सकते कि कसे
हैं, जहां बिलकुल मध्य में जीवन के तार ठहरे हैं। जिसमें
जीवन की हर क्रिया में--चाहे वह भोजन हो, चाहे वह वस्त्र हो,
चाहे वह श्रम हो, चाहे वह विश्राम हो, चाहे वह जागना हो, चाहे सोना हो, जिसने जीवन की हर क्रिया में मध्य के बिंदु की खोज की है और धीरे-धीरे
मध्य के बिंदु को उपलब्ध हो गया है।
निरंतर
सजग रहने से उस मध्य के बिंदु को खोज लेना कठिन नहीं है। बहुत कठिन नहीं है। जो
सजग होकर अपने जीवन में खोजेगा, वह पाएगा कि मध्य का बिंदु पाया जा सकता है।
मिल गया मध्य का बिंदु, यह कैसे समझेंगे हम? जैसे ही मध्य का बिंदु किसी भी क्रिया में मिलेगा, उस
क्रिया से आप मुक्त हो जाएंगे। उस क्रिया का कोई भार, कोई
बोझ, कोई टेंशन, कोई तनाव आपके ऊपर
नहीं होगा। जीवन की जिस वृत्ति में मध्य का बिंदु मिल जाएगा, उसी वृत्ति के आप बाहर हो जाएंगे। उस वृत्ति की कोई पकड़ और जकड़ आपके ऊपर
नहीं होगी। वह वृत्ति आपसे, आपके ऊपर बाधा नहीं होगी,
बोझ नहीं होगी।
पहला
सूत्र है: जीवन में निरंतर खोजते रहना, क्या है मध्य? क्या है संयम?
लेकिन
हम तो संयम का विचार उठे,
तो शास्त्रों में खोजते हैं कि संयम का क्या अर्थ लिखा है? किसी गुरु से जाकर पूछते हैं कि संयम यानी क्या? और
तब एक बुनियादी भूल होती है, उस व्यक्ति के लिए जो संयम है
वही आपको कह देता है। वह संयम आपके लिए संयम नहीं हो सकता। प्रत्येक व्यक्ति अनूठा
है, प्रत्येक व्यक्ति यूनीक है, अद्वितीय
है। इसलिए किसी एक व्यक्ति का आचरण किसी दूसरे व्यक्ति के लिए आदर्श नहीं है और न
हो सकता है।
सारी
दुनिया में जो कठिनाई पैदा हुई है वह इसलिए पैदा हुई है कि व्यक्तियों के आदर्श
हमने सामूहिक आदर्श बना लिए हैं। एक व्यक्ति के लिए जो ठीक था वह हमने आदर्श बना
लिया है सबके लिए। वह सबके लिए ठीक नहीं है और न हो सकता है। इस कारण एक जबरदस्ती
जीवन में अनुभव होती है। महावीर के लिए जो ठीक है, बुद्ध के लिए जो ठीक है,
क्राइस्ट के लिए जो ठीक है वह मेरे और आपके लिए ठीक नहीं भी हो सकता
है। लेकिन जब हम क्राइस्ट को पकड़ लेंगे और ठीक उन जैसे होने की कोशिश करेंगे तो
अपने जीवन में आत्महिंसा शुरू हो जाएगी, हम अपने साथ
जबरदस्ती शुरू कर देंगे। क्योंकि हम उनका अनुसरण करेंगे और उनके पीछे होने की
कोशिश करेंगे। उसमें व्यक्तित्व मरेगा, विकसित नहीं होगा।
मनुष्य की पूरी जाति इस भूल के कारण व्यक्तित्व की हत्या में लगी हुई है।
कभी
विचार करें, दूसरा क्राइस्ट पैदा हुआ? कभी विचार करें, दूसरा महावीर पैदा हुआ? दूसरा बुद्ध पैदा हुआ?
दो हजार साल होते हैं क्राइस्ट को मरे, दो
हजार साल में कितने लोगों ने क्राइस्ट जैसे बनने की कोशिश की है, कोई दूसरा व्यक्ति क्राइस्ट जैसा पैदा हुआ? कोई
दूसरा महावीर हम पैदा कर सके? कोई दूसरा बुद्ध, कोई दूसरा कृष्ण हम पैदा कर सके? नहीं कर सके,
तो यह स्मरण होना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति बिलकुल अद्वितीय है।
प्रत्येक व्यक्ति बिलकुल बेजोड़ है। और कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की नकल होने
को पैदा नहीं हुआ है, कोई किसी की टुकॉपी होने को पैदा नहीं
हुआ है। और अगर यह हम कोशिश करें कि हम उन जैसे हो जाएं, तो
इस होने में उन जैसे तो हम हो नहीं पाएंगे।
हमें
सिखाया जाता है महावीर जैसे बनो। हमें शिक्षा दी जाती है कृष्ण जैसे बनो। हमें
बताया जाता है राम जैसे बनो। यह शिक्षा बिलकुल झूठी है। शिक्षा यह होनी चाहिए, अपने जैसे
बनो। तुम जो बन सकते हो, तुम्हारे भीतर जो बीज छिपा है उसे
विकसित करो। कोई किसी दूसरे जैसा नहीं बन सकता है। और बनने की कोई आवश्यकता भी
नहीं है। और अगर बनने की कोशिश करेगा तो जीवन में केवल पाखंड होगा, दमन होगा, जबरदस्ती होगी, उसमें
जीवन के सहज फूल विकसित नहीं हो पाएंगे।
अगर
कोई राम जैसा बनने की कोशिश करेगा, तो रामलीला का राम बन जाएगा,
असली राम नहीं। और रामलीला के रामों की बिलकुल भी जरूरत नहीं है।
उनकी वजह से तो जीवन में हिपोक्रेसी, पाखंड फैला है।
नाटक
नहीं है जीवन कि हम दूसरे जैसे बन सकें। नाटक में भर दूसरे जैसा बना जा सकता है।
नाटक में तो यहां तक हो सकता है कि असली राम हार जाएं रामलीला के राम से। इसमें
कोई कठिनाई नहीं है। एक बार ऐसा हुआ।
एक
बार ऐसा हुआ,
चार्ली चैपलिन का नाम आपने सुना ही होगा। उसकी जब बहुत ख्याति थी।
तो लंदन में कुछ लोगों ने एक काम्पिटीशन रखा, एक
प्रतिस्पर्धा रखी। इस बात की प्रतिस्पर्धा रखी कि जो व्यक्ति चार्ली चैपलिन का पाठ
अदा कर सके सफलता से उसे बहुत बड़ा पुरस्कार दिया जाए। इंग्लैंड के गांव-गांव में
प्रतियोगिता हुई। अनेक लोगों ने भाग लिया और चार्ली चैपलिन का पार्ट अदा किया। फिर
सौ लोग चुने गए और लंदन में उनकी अंतिम प्रतियोगिता हुई।
लंदन
की प्रतियोगिता में चार्ली चैपलिन ने सोचा कि मैं भी झूठे नाम से सम्मिलित क्यों न
हो जाऊं? पुरस्कार तो मुझे पहला मिल ही जाएगा। शक ही क्या था। चार्ली चैपलिन खुद ही
झूठे नाम से सम्मिलित होगा, तो उसको तो पहला पुरस्कार मिल ही
जाएगा। लेकिन नहीं, पहला पुरस्कार नहीं मिल सका, उसको दूसरा पुरस्कार मिला। यह तो बाद में बात खुली कि चैपलिन खुद भी
सम्मिलित हुआ था। लेकिन वह नंबर दो आया। जो आया नंबर एक वह दूसरा आदमी था।
नाटक
में यह हो सकता है महावीर हार जाएं, बुद्ध हार जाएं। लेकिन जीवन में
कोई दूसरे जैसा नहीं हो सकता है। और अगर हम नाटक के ही नियमों से जीवन को चलाएंगे
तो जीवन नाटकीय हो जाएगा, सच्चा नहीं हो सकता। जो भी आदमी
किसी दूसरे जैसा होने की कोशिश करता है उसका व्यक्तित्व नाटकीय हो जाता है,
झूठा हो जाता है, सच्चा नहीं रह जाता। वह अपनी
आत्मा का घात कर रहा है।
तो
पहली बात आपसे मैं यह कहना चाहता हूं, संयम क्या है, यह किसी के अनुकरण से, किसी शास्त्र से नहीं पूछा जा
सकता, यह तो जीवन के शास्त्र में ही खोजना पड़ता है। यह सलाह
मुफ्त नहीं मिल सकती। और स्मरण रखें, जो सलाह मुफ्त मिलती हो
उसकी कोई कीमत नहीं है। अनुभव करके खोजना पड़ता है कि कौनसा तथ्य है जो मेरे लिए
संयम है। धर्म की सारी कठिनाई यही है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म खोजना पड़ता
है। धर्म की सारी कठिनाई यही है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म खोजना पड़ता है।
लेकिन हम तो जन्म से धर्म को उपलब्ध हो जाते हैं। कोई जैन घर में पैदा होता है तो
जैन हो जाता है। कोई हिंदू घर में पैदा होता है तो हिंदू हो जाता है। कोई मुसलमान
घर में पैदा होता है तो मुसलमान हो जाता है। ये कोई धर्म नहीं हैं, ये केवल पैदाइशी संयोग हैं। जन्म से कोई धर्म नहीं मिलता। जीवन में खोजने
से स्वधर्म खोजना पड़ता है। जीवन में निरंतर सजग होकर, निरीक्षण,
परीक्षण, आब्जर्वेशन करने से, खोजना पड़ता है कि मेरे लिए क्या धर्म है?
मेरे
देखे दुनिया में उतने ही धर्म हैं जितने व्यक्ति हैं। जितने व्यक्ति हैं दुनिया
में उतने ही धर्म हैं। क्योंकि उतने ही व्यक्तित्व हैं। उतने ही व्यक्तित्व के
विकास की अपनी-अपनी गति,
अपनी ऊर्जा, अपना संयम, अपना
संगीत। इसलिए व्यक्ति को आदर्श के पीछे न जाकर जीवन में स्वधर्म को खोजने में
संलग्न होना चाहिए। आदर्श लड़ाते हैं, बनाते नहीं। अगर आदर्श
बनाते होते, अब तक दुनिया बेहतर हो गई होती, सारे मनुष्य बन गए होते। आदर्श लड़ाने के लिए काफी हैं, बनाने के लिए काफी नहीं हैं। हिंदू आदर्श मुसलमान आदर्श से लड़ाता है;
जैन आदर्श बौद्ध आदर्श से लड़ाता है। लड़ने के लिए आप जैन हैं,
होने के लिए आप जैन नहीं हैं। लड़ने के लिए हिंदू हैं, होने के लिए हिंदू नहीं हैं। इसलिए जब लड़ाई की बात उठे तो आप जान दे सकते
हैं, लेकिन जीवन की बात उठे तो न आप हिंदू हैं, न मुसलमान हैं, न जैन हैं, न
कोई हैं।
जीवन
में अधर्म है और जब लड़ने का सवाल उठे तो धर्म के झंडे खड़े हो जाते हैं। आदर्श लड़ा
सकते हैं बनाते नहीं।
आदर्श
के पीछे न जाएं बल्कि जीवन में खोजें निरीक्षण से कि क्या है जो मैं हो सकता हूं? और क्या
है जो मेरे होने का विज्ञान बन सकता है?
इस
खोज में पहला सूत्र खोजने जैसा होता है--मध्य-बिंदु।
कनफ्यूशियस
एक गांव में गया एक बार। उस गांव में लिटेन नाम का एक बहुत बड़ा विद्वान था। कि
गांव के लोगों ने कनफ्यूशियस से गांव के बाहर ही कहा: हमारे गांव में एक अदभुत
विद्वान है, लिटेन, आप उससे मिल कर बहुत खुश होंगे। कनफ्यूशियस
ने कहा: उसकी क्या खूबी है? जिसकी वजह से तुम प्रशंसा करते
हो। उन लोगों ने कहा: उसकी खूबी यह है कि इतना बड़ा विचारशील आदमी है वह, किसी भी काम को करने के पहले तीन बार सोचता है। कनफ्यूशियस ने कहा कि थोड़ी
गलती हो गई, दो बार सोचना काफी है। एक बार सोचना कम है,
तीन बार सोचना ज्यादा हो गया। तुम्हारा विद्वान मध्य में नहीं है,
अति पर है। यह खबर लिटेन को पहुंची कि कनफ्यूशियस ने कहा है कि एक
बार सोचना कम, तीन बार सोचना ज्यादा हो गया। दो बार सोचना
काफी है।
जो
एक बार सोचता है वह काम गलती कर लेता है। जो तीन बार सोचता है वह काम कर ही नहीं
पाता। इसलिए विचारकों ने दुनिया में कोई काम नहीं किया। उनसे काम हो नहीं सकता, सोचने में
ही सब व्यतीत हो जाता है।
लिटेन
को खबर पहुंची,
उसने कहा कि ठीक कहा: मेरी भूल दुरुस्त हुई। सच में यह तीन बार
सोचना काफी हो गया, ज्यादा हो गया। एक बार सोचना अल्प है,
तीन बार सोचना अति हो गई। ठीक कहा कि दो बार सोचना पर्याप्त है।
लिटेन गया और कनफ्यूशियस के पैर छुए और कहा कि मैं धन्यवाद देता हूं, सोचने के संबंध में मध्य-बिंदु आपने मुझे सुझाया।
ऐसे
जीवन के हर संबंध में मध्य-बिंदु खोजना जरूरी है। सजग कोई हो तो खोज लेना कठिन
नहीं है। मध्य-बिंदु की खोज को मैं संयम कहता हूं।
कितना
सोना, कितना खाना, कितना पीना, कितना
श्रम, कितना विश्राम, प्रत्येक व्यक्ति
को खोजना जरूरी है। अगर कोई व्यक्ति ठीक-ठीक मध्य की चित्त स्थिति में आ जाए,
उसका मन एकदम शांत होने लगेगा। मन में जो अशांति है वह अति से पैदा
होती है। मन में जो अशांति है वह अति से पैदा होती है। जहां अति नहीं वहां
सम्यकत्व है, वहां समता है, इक्वॉलिटैरिअन
है। वहां, वहां से जीवन में संगीत का जन्म होना शुरू होता है,
शांति होनी शुरू होती है।
पहला
सूत्र है: संयम,
संगीत या मध्य के बिंदु को खोजना।
दूसरा
सूत्र है: जीवन को निरंतर सृजनात्मक दिशा में गति देना। क्रिएटर गति देना।
सामान्यतया
जीवन की गति विनाशात्मक है। सामान्यतया जीवन की गति डिस्ट्रक्टीव है। क्यों है, उसके भी
कारण हैं। जीवन की गति विनाशात्मक है, क्यों? वह इसलिए कि जीवन अंत में मृत्यु में जाकर समाप्त होता है। जिस दिन आप
जन्मते हैं उसी दिन आपके भीतर विनाश शुरू हो जाता है, आप
मरने लगते हैं। एक दिन मौत आती है आखिर में मरना पूरा हो जाता है। जन्म का दिन
मरने की शुरुआत का दिन है। उसी दिन से मरना शुरू हो गया, मौत
आनी शुरू हो गई। कहते हैं आप कि मेरा जीवन बढ़ रहा है, लेकिन
समझेंगे तो पाएंगे कि जीवन घट रहा है, जीवन उतर रहा है।
पहले
दिन जो बच्चा पैदा हुआ उस वक्त उसकी सबसे ज्यादा उम्र है। फिर रोज उम्र कम होती
चली जा रही है,
रोज क्षण-क्षण घटता जा रहा है। जीवन मौत की तरफ बह रहा है। इसलिए
जीवन की सहज वृत्ति डिस्ट्रक्टीव है, मरणशील है, मरणधर्मा है। यह जो जीवन स्वयं मरणधर्मा है, यह
दूसरी चीजों को भी तोड़ता है, मिटाता है। यह दूसरी चीजों की
भी मृत्यु सोचता है। यह दूसरी चीजों का भी विनाश करता है। जो स्वयं मृत्यु की तरफ
जा रहा है, वह दूसरों के संबंध में भी मृत्यु का ही चिंतन
करता है। सामान्यतया जो होश से भरा हुआ नहीं है, वह जीवन भर
दूसरों का भी विनाश करता है। दूसरों को भी चोट पहुंचाता है, नुकसान
करता है, हिंसा करता है। हिंसा का और क्या अर्थ है? हिंसा का अर्थ है: डिस्ट्रक्टीव माइंड। हिंसा का अर्थ है: विनाश करने को
उत्सुक चित्त।
यदि
हम सजग न हों,
तो हमसे विनाश होगा। अनेक-अनेक रूपों में होगा। प्रतिस्पर्धा,
काम्पिटीशन, एंबीशन, महत्वाकांक्षा,
सब विनाशात्मक हैं। सब पड़ोसी को नष्ट करने की दौड़ है। जब आप
प्रतिस्पर्धा में हैं, आप पड़ोसी को नष्ट करने को उत्सुक हैं।
एक-एक आदमी दूसरे आदमी को नष्ट करने को उत्सुक है। एक देश दूसरे देश को नष्ट करने को
उत्सुक है। सारी दुनिया प्रतिस्पर्धा में है। सारी दुनिया विनाश, विनाश की और उन्मुख है। इसलिए रोज आए दिन युद्ध खड़े हो जाते हैं। और जीवन
भी चौबीस घंटे कलह में बीतता है। यदि हम सजग न हों तो जीवन अपने आप हिंसा में ले
जाता है। सजग हों तो जीवन सृजनात्मक हो सकता है।
धार्मिक
जीवन का प्रारंभ सारी ऊर्जा को, सारी शक्ति को सृजनात्मक दिशा देने में है।
इसलिए उन संन्यासियों को मैं धार्मिक नहीं कहता हूं जो कुछ भी सृजन नहीं करते हैं,
जो क्रिएटिव नहीं हैं। केवल वे ही लोग ठीक अर्थों में धार्मिक हैं
जो क्रिएटिव हैं, जो कुछ पैदा करते हैं, जो निर्मित करते हैं।
चौबीस
घंटे इस बात का होश रहना जरूरी है कि मेरी जीवन-शक्ति कुछ चीजों को बनाने में लग
रही है या मिटाने में?
मेरा चिंतन चीजों को नष्ट करने में लग रहा है या निर्माण करने में?
मैं कुछ सृजन कर रहा हूं या कुछ निर्मित कर रहा हूं। अगर इसका होश
रहे, तो आप पाएंगे कि जीवन में हिंसा असंभव हो जाएगी। और यह
मैं निवेदन कर दूं कि जो व्यक्ति सृजन करता है, सतत क्रिएट
करता है, वह क्रिएटर के निकट पहुंच जाता है। जो सतत सृजन
करता है, वह स्रष्टा के निकट पहुंचने लगता है। और जो व्यक्ति
विनाश करता है, वह परमात्मा से उतना ही दूर होता चला जाता
है। जितना ज्यादा क्रिएटिव होगा व्यक्ति, जितना सृजनशील होगा,
सृजनात्मक होगा, उतना परमात्मा की तरफ जाता
है। प्रार्थना करने से नहीं जा सकता, किताब पढ़ने से नहीं जा
सकता, गीता को सिर लगाने से नहीं जा सकता, लेकिन अगर उसका पूरे जीवन का प्रवाह सृजनात्मक है, वह
जो भी कर रहा है हमेशा बनाने की भाषा में सोच रहा है, मिटाने
की भाषा में नहीं। उसकी वृत्तियां, उसके कृत्य, उसके विचार, उसके भाव, सब
निर्माण की भाषा में सोच रहे हैं। ऐसा जो व्यक्ति है वह क्रमशः परमात्मा के निकट
पहुंचने लगता है, चाहे परमात्मा को मानता हो या न मानता हो।
मानने से कोई संबंध नहीं है।
सारे
जीवन का आवर्तन क्रिएटिव हो, सृजनात्मक हो। गीत बनाएं, एक मूर्ति बनाएं, एक चित्र बनाएं, एक बूढ़े आदमी की सेवा करें, या एक बच्चे को खड़ा करें
और उसको जीवन में विकास दें। आपके हाथ और आपका मन निरंतर कुछ बनाने में सक्रिय हो,
कुछ निर्मित करने की दिशा में अग्रसर हो। चौबीस घंटे सृजन में बीते,
तो आपकी सारी शक्तियां अदभुत शांति को उपलब्ध होंगी।
जो
आदमी विनाश करता है,
किसी भी तरह से विनाश करता है, उसके भीतर
शांति असंभव है। वह कितने ही मंत्र पढ़े और कितने ही राम-राम जपे, अगर उसकी सारी दृष्टि विनाश की है, तो उसके भीतर
शांति असंभव है। शांति केवल उसी चित्त में संभव है जिसकी सारी दृष्टि सृजन की है।
जो निरंतर सृजन की भाषा में सोचता है, सृजन में सहयोगी होता,
सृजन में जीवन का दान करता, क्रमशः उसके भीतर
एक अदभुत आनंद; निर्माण करने का आनंद, बनाने
का आनंद, चीजों को जीवन देने का आनंद खड़ा होता चला जाता है।
जितना उसके भीतर सृजनात्मक गति होती है उतने उसके प्राण आनंद से और शांति से भरने
लगते हैं। इसलिए दूसरा यह सूत्र है, इसमें बहुत गहरे जाना
जरूरी है, लेकिन संभव नहीं होगा। दूसरा यह सूत्र है, यह ध्यान में रहे कि मेरी शक्तियां विनाशोन्मुख तो नहीं हैं। अगर हैं तो
मैं जीवन में आनंद को और शांति को नहीं पा सकूंगा, सत्य को
नहीं पा सकूंगा। मैं पर्दे को नहीं उठा सकूंगा और स्रष्टा को नहीं देख सकूंगा।
इसको
ही मैं अहिंसा कहता हूं,
यह सृजनात्मक दृष्टि को अहिंसा कहता हूं, प्रेम
कहता हूं। इस भाषा में सोचें सदा।
बुद्ध
एक पहाड़ से निकले और एक हत्यारे ने उनको पकड़ लिया। और उस हत्यारे ने कहा कि मैं
आपकी हत्या करूंगा। वह सैकड़ों लोगों की हत्या करने को उत्सुक था। वह उत्सुक था कि
अनेक लोगों की हत्या कर दे। उसने अनेक लोगों की हत्या की और उनके सिर काटे और उनकी
माला पहनी थी। बुद्ध वहां से निकले, तो उसने कहा कि मैं बुद्ध को भी
रोकूं। उसने बुद्ध को रोका और उसने कहा कि अगर तुम वापस लौट जाओ तो मैं छोड़ दूं
अन्यथा यह मेरी तलवार तुम्हारी गर्दन को काट देगी। बुद्ध ने कहा: एक दिन तो यह
गर्दन गिर ही जानी है, अगर तुम्हारे काम आ जाए तो मैं तैयार
हूं। लेकिन इसके पहले कि तुम मेरी गर्दन काटो, क्या तुम एक
छोटा सा काम मुझ पर कृपा करके कर सकोगे?
उस
आदमी ने कहा: कौनसा काम?
और मरते आदमी की कौनसी इच्छा को कौन पूरा नहीं कर दे। उस हत्यारे ने
भी कहा: कौन सा काम?
बुद्ध
ने कहा: यह जो सामने वृक्ष लगा है इसकी थोड़ी सी पत्तियां मुझे तोड़ दो। वह थोड़ा
हैरान हुआ, उसने कहा: पत्तियों का क्या करोगे?
बुद्ध
ने कहा: फिर भी तुम तोड़ दो।
उसने
अपनी तलवार मारी और एक छोटी सी शाखा काट कर बुद्ध के हाथ में दे दी।
बुद्ध
ने कहा: इतना तुमने किया,
एक छोटा काम और, इसे वापस जोड़ दो।
वह
व्यक्ति बोला,
यह तो मुश्किल है। यह तो मुश्किल है।
तो
बुद्ध ने कहा: तोड़ने का काम तो बच्चा भी कर सकता था। तुम तो पुरुष हो, जोड़ने का
काम करो। तोड़ने में कौन सा गौरव है? बुद्ध ने कहा:
अब...गर्दन काट दे।
उस
आदमी ने तलवार नीचे पटक दी। उसने कहा: बात आई और गई हो गई, अब मैं
कोई चीज तोड़ नहीं सकूंगा।
सच
में तोड़ना तो कमजोर भी कर सकता है। उस आदमी ने कहा: मैं तो यह सोचता था कि तोड़ना
बहादुरी है, इसलिए तोड़ता था। आज मुझे दिखाई पड़ा कि सवाल तो जोड़ने का है। जो जोड़ता है
वही पुरुष है, उसमें ही पुरुषार्थ है।
प्रेम
में पुरुषार्थ है,
घृणा में नहीं। क्योंकि घृणा तोड़ती है, प्रेम
जोड़ता है और बनाता है। हिंसा में कोई शक्ति नहीं है, हिंसा
कमजोर का लक्षण है। अहिंसा उसका जो कमजोर नहीं, वह सृजन करता
है, जोड़ता है, बनाता है, निर्मित करता है।
तो
जीवन सृजनात्मक हो,
जीवन की दिशा सृजनात्मक हो। हम चौबीस घंटे सृजन की भाषा में सोचें,
सृजन में जीएं, सृजन में सोएं, तो कोई असंभव नहीं है कि पर्दा न उठ जाए। पर्दा उठेगा। पर्दा उठा ही हुआ
है। एक दफा निर्णय हमारे मन में हो कि हम सृजन करेंगे और जहां विनाश का सवाल होगा
हम दूर हटेंगे। तोड़ेंगे नहीं, जोड़ेंगे। बनाएंगे, मिटाएंगे नहीं। डिस्ट्रक्टीव नहीं होगी हमारी वृत्ति, क्रिएटिव होगी, निर्माण की तरफ होगी। दूसरा सूत्र
है।
पहला:
संयम। दूसरा: सृजन। और तीसरा सूत्र है: इन दोनों की ही भूमिका में वह विकसित हो
सकता है, इन दोनों की ही भूमिका में वह तीसरा सूत्र भी गति पा सकता है, इन दोनों को ठीक से समझेंगे तो तीसरे का हो जाना कठिन नहीं है।
पहला:
संयम। चित्त को शांत करेगा,
मध्य में लाएगा। दूसरा: सृजन। चित्त को आनंद से भरेगा, प्रसन्नता से भरेगा। क्योंकि जब हम सृजन करते हैं तो हम आनंद से भरते हैं।
और जब हम विनाश करते हैं तो हम दुख से भरते हैं। यदि चित्त दुखी हो तो जानना कि
आपके जीवन की दिशा विनाशात्मक है। अगर चित्त दुखी रहता हो तो समझ लेना कि क्या
आपने जीवन में कुछ निर्मित नहीं किया, कोई सृजन नहीं किया।
ये दो सूत्र संयम और सृजन के और तीसरा सूत्र है, निरंतर,
निरंतर इस बात के प्रति सजग रहना कि मेरे भीतर अहंकार घनीभूत न हो।
मेरे भीतर अहमता, ईगो, दंभ, मैं कुछ हूं, यह भाव घनीभूत न हो। निर-अहंकारिता
पूरे जीवन पर छा जाए।
अभी
तो हम चौबीस घंटे अहंकार से भरे हैं। बिलकुल व्यर्थ, बिलकुल फ्यूटाइल ईगो से।
जिसका कोई अर्थ नहीं। उस अहंकार से भरे हैं। और अहंकार के आधार भी कोई नहीं। पता
नहीं क्यों आप जन्में, पता नहीं क्यों आप मर जाएंगे, इतनी भी ताकत नहीं है कि जो श्वास चल रही है उसे सदा चलाए रखें, एक दिन आता है श्वास बंद हो जाती है। कहते हैं हम यही हैं कि मैं श्वास ले
रहा हूं। अगर हम में समझ हो, तो हम कहेंगे, श्वास आ रही है और जा रही है, मैं कहां ले रहा हूं।
क्योंकि अगर मैं ले रहा होता, तो फिर तो श्वास जब तक चाहता
तब तक लेता, फिर तो मौत आ नहीं सकती थी। श्वास के भी हम
मालिक नहीं हैं। वह जो श्वास प्रतिक्षण आ रही है और जा रही है वह भी मेरा कृत्य
नहीं है, फिर मेरे अहंकार को और क्या गुंजाइश है। जन्म मेरा
नहीं, मृत्यु मेरी नहीं, श्वास मेरी
नहीं, फिर मेरे मैं को क्या गुंजाइश, क्या
जगह, क्या कारण, कैसे इस मैं को मैं
पोषित करता रहूं? जितना यह मैं पोषित होता है, उतना ही हम विश्व सत्ता से दूर हट जाते हैं। यह मैं ही दीवाल बन जाती है
और पर्दा बन जाता है। इस सतत, इस बोध को रहना जरूरी है कि
मेरे भीतर मैं तो घनीभूत नहीं होता। क्या मेरा मैं क्रमशः विलीन होता जाता है,
लीन होता जाता है, एक घड़ी आती है जीवन मैं आप
होते हैं और मैं नहीं होता। उसी क्षण पर्दा गिर जाता है।
तीसरा
सूत्र है: निर-अहंकार बोध। निर-अहंकारिता, ईगोलेसनेस। कोई भी व्यक्ति
परमात्मा को उपलब्ध होने में समर्थ है जो अपने मैं को छोड़ देने में समर्थ है। और मजा
यह है कि मैं है ही नहीं, केवल छाया है, केवल एक भ्रम है। केवल एक भ्रम है कि मैं कुछ हूं। क्या हैं आप? इस पर निरंतर सोचें कि मैं क्या हूं? क्या है मेरा
होना? क्या है मेरी शक्ति। क्या है मेरा सामर्थ्य? क्या है मेरी समृद्धि? क्या है? जितना सोचेंगे उतना पाएंगे कि ना-कुछ हूं, नो-बडी
हूं। जितना सोचेंगे उतना पाएंगे कि नथिंगनेस है, क्या हूं
मैं। जितना यह बोध गहरा होता जाए उतना ही जीवन में सत्य के निकट आना आसान होता चला
जाता है।
एक
छोटी से कहानी मैं अपनी चर्चा को पूरा करूंगा।
एक
राजमहल के निकट पत्थरों का ढेर लगा हुआ था। कुछ बच्चे वहां खेलते थे, एक बच्चे
ने पत्थर उठाया और महल के खिड़की की तरफ फेंका। पत्थर उठा, नीचे
ढेर में बहुत पत्थर पड़े थे, उस उठते हुए पत्थर ने कहा:
मित्रो, मैं थोड़ी आकाश की यात्रा को जा रहा हूं। उसका कहना
ठीक ही था, उचित ही था। जरूर ही जा रहा था। नीचे के पत्थर
एतराज भी न कर सके। एतराज करने की गुंजाइश भी नहीं थी। वे पड़े थे पत्थरों की तरह,
और एक पत्थर ऊपर जा रहा था, संकोच में पड़े रह
गए, जलते हुए पड़े रह गए, दुख और पीड़ा
में पड़े रह गए। बहुत इनफिरिआरिटी, बहुत हीनता अनुभव की होगी
कि हम नहीं उड़ सकते और एक पत्थर है कि उड़ रहा है। महापुरुष होगा, भगवान का अवतार होगा, या कुछ होगा, कोई बात होगी कि उड़ा जा रहा है। कोई विशिष्ट बात होगी। कोई प्रभु की कृपा
होगी, इसलिए उड़ा जा रहा है।
और
जो उड़ा जा रहा था उसका अहंकार तो मजबूत हुआ ही। उसने कहा: मित्रो, मैं थोड़ा
आकाश की सैर करके अभी लौटता हूं।
वह
उठा, जाकर महल की कांच की खिड़की से टकराया। कांच की खिड़की चकनाचूर हो गई। उस
पत्थर ने कहा: मैंने कितनी बार नहीं कहा कि मेरे रास्ते में कोई न आए नहीं तो
चकनाचूर हो जाएगा।
यह
भी कहना उचित था,
कांच के टुकड़े सुनते रहे, क्या कहते? बात तो सच थी। टुकड़े चकनाचूर हो गए थे। भीतर जाकर पत्थर महल के कालीन पर
गिरा। गिरते ही उसने कहा: बहुत थक गया, और रास्ते में एक
शत्रु से भी मुकाबला हुआ, शत्रु को नष्ट भी किया, थोड़ा विश्राम कर लूं। वह उस कालीन पर विश्राम करने लगा। महल के नौकर भागे
हुए आए, पत्थर की आवाज से कांच के टूटने से, उन्होंने आकर पत्थर को वापस उठा कर खिड़की से नीचे फेंक दिया। जब वह वापस
उठा तो उसने कहा: बहुत विश्राम हो गया, अब घर की बहुत याद
आती है, और मित्रों की, तो वापस चलें।
जब वापस वह अपने ढेर में गिर रहा था, तो उसने कहा: मित्रो,
बड़ी अदभुत यात्रा हुई। लेकिन तुम्हें उस यात्रा का क्या पता,
तुम तो सदा से यहीं नीचे पड़े रहे हो। मैंने बहुत अदभुत यात्रा की,
एक शत्रु भी नष्ट किया, एक महल में शाही
मेहमान भी बना, फिर अब घर की याद आई, तुम्हारी
बहुत याद आई, तो मैं वापस आ रहा हूं, वह
पत्थर वापस अपनी ढेरी पर गिर गया।
इस
पत्थर की कथा से ज्यादा हमारी कोई कथा है? इस पत्थर से ज्यादा हमारा कोई जीवन
है? इस पत्थर की यात्रा से ज्यादा हमारी कोई यात्रा है?
लेकिन पत्थर का अहंकार हमें लगेगा बिलकुल व्यर्थ और अपना अहंकार
लगेगा बहुत सार्थक।
सोचें, देखें,
खोजें, धीरे-धीरे पता चलेगा, यह मैं, इससे ज्यादा मूढ़ता और कुछ भी नहीं है।
जैसे-जैसे यह बोध गहरा हो, सजग हो, वैसे
इस मैं को विदा करें, इसे जाने दें। अगर परमात्मा को आमंत्रण
देना हो, तो मैं को विदा किए बिना कोई रास्ता नहीं है। इस
मैं को जाने दें। जिस क्षण यह मैं नहीं होगा, उसी क्षण
परमात्मा उपस्थित है।
परमात्मा
तो निरंतर भीतर मौजूद है,
लेकिन मैं के पर्दे के कारण, वह मैं का घूंघट
है, और उसकी वजह से उसे नहीं देखा जा सकता।
ये
तीन छोटी सी बातें मैंने कहीं। ये बातें बहुत छोटी हैं, लेकिन अगर
जीवन में ये छोटे से बीज भी पड़ जाएं, तो जीवन में विराट
वृक्ष का जन्म हो सकता है। ये बातें बहुत छोटी हैं। बीज बहुत छोटे होते हैं। लेकिन
उनसे क्या पैदा नहीं हो सकता? उनसे वृक्ष पैदा होता है। और
बीज को देखने से कल्पना भी नहीं हो सकती कि इससे वृक्ष पैदा होगा। और बीज को देखने
से कल्पना भी नहीं होती कि इसमें फूल लगेंगे। और बीज को देखने से कल्पना भी नहीं
होती कि उन फूलों में सुगंध होगी।
थोड़े
से ये बीज-सूत्र तीन मैंने आपसे कहे। ये बहुत छोटे हैं, इनमें
क्या छिपा है, यह इनको देख कर नहीं समझा जा सकता। इनको तो
थोड़ा हृदय की जमीन में इनको बो दें, थोड़ा इनको बढ़ने दें,
थोड़ा इनमें फूल-पत्ते और अंकुर आने दें, और
इनसे वे फूल पैदा होते हैं जो जीवन को परम आनंद से भर देते हैं। इनसे वे फूल पैदा
होते हैं जो जीवन को आलोक से भर देते हैं। इनसे वे फूल पैदा होते हैं जो जीवन को
धन्यता से, कृतज्ञता से भर देते हैं।
इन
फूलों को उपलब्ध हुए बिना जीवन व्यर्थ है। इस स्थिति को उपलब्ध हुए बिना जीवन का
अवसर व्यर्थ गया। हमने पाया मौका और खो दिया। बीज हमारे पास थे, लेकिन हम
उनको अंकुरों तक, वृक्षों तक नहीं पहुंचा सके।
प्रत्येक
मनुष्य के भीतर क्षमता है। लेकिन बहुत कम मनुष्य अपनी क्षमता को विकसित करते हैं।
परमात्मा करे आपके जीवन में चिंतन और विचार का जन्म हो, आपके जीवन
में सोच-विचार का जन्म हो, आप अपने जीवन के साथ कुछ कर सकें,
उससे कुछ पाया जा सके, उससे कुछ पैदा हो सके,
इसकी कामना करता हूं।
मेरी इन बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना है, उससे
बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। आपके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।