अध्याय—11
सूत्र—(134)
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा विशन्ति नाशाय
समृद्धवेगाः।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवायि वक्ताणि समृद्धवेगाः।।
29।।
लेलिह्यमे ग्रसमान:
समन्ताल्लोकान्समग्रान्त्रदनैर्ज्वलदभि:।
तेजोभिरायर्य जगत्ममग्रं भासस्तवोग्रा: प्रतयन्ति विष्णो।। 3०।।
आख्याहि मे को भवागुग्ररूपो नमोउख ते देववर
प्रसीद।
विज्ञखमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।
3।।
अथवा जैसे पतंगा मोह
के वश होकर नष्ट होने के लिए प्रज्वलित अग्नि में अति वेग से युक्त हुए प्रवेश
करते हैं वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में अति वेग से युक्त
हुए प्रवेश करते हैं।
और आप उन संपूर्ण
लोकों को प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रसन करते हुए सब ओर से चाट रहे हैं। हे विष्णो
आपका उग्र प्रकाश संपूर्ण जगत को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके तपायमान करता है।
हे भगवन— कृपा करके
मेरे प्रति कहिए कि आप उग्र रूप वाले कौन हैं! हे देवों में श्रेष्ठ आपको नमस्कार
होवे। आय प्रसन्न होड़ए। आदिस्वरूप आपको मैं तत्व से जानना चाहता हूं क्योंकि आपकी
प्रवृत्ति को मैं नहीं जानता।