गीता
दर्शन-भाग-5-(प्रवचन-1)
अध्याय-11
श्रीमद्रभगवद्रगीता
अथ
एकादशोउध्याय:
अर्जुन
उवाच:
मदनुग्रहाय
परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।
यत्वयोक्तं
वचस्तेन
मोहोउयं
विगतो मम।। 1।।
भवाध्ययौ
हि भूतानां
श्रुतौ
विस्तरशो
मया।
त्वत:
कमलयत्राक्ष
माहात्म्यमपि
चाव्ययम्।।
2।।
एवमेतद्यथात्थ
त्वमात्मानं
परमेश्वर।
द्रष्ट्रमिच्छामि
ते
रूपमैश्वरं
गुरुषोत्तम।।
3।।
मन्यसे
यदि तच्छक्यं
मया द्रछमिति
प्रभो।
योगेश्वर
ततो मे त्वं
दर्शयात्मानमव्ययम्।।
4।।
श्रीभगवानुवान:
पश्य मे
पार्थ रूपाणि
शतशोउथ
सहस्रश:।
नानाविधानि
दिव्यानि
नानावर्णाकृतीनि
च।। 5।।
यश्यादित्यान्वसून्क्रद्रानश्विनौ
मरूतस्तथा।
बहून्यदृष्टयूर्वाणि
पश्याश्चर्याणि
भारत।। 6।।
ड़हैकस्थं
जगत्कृत्स्नं
पश्याद्य
सचराचरम्।
मम देहे
गुडाकेश
यच्चान्यद्दष्ट्रमिच्छसि।।
7।।
इस
प्रकार
श्रीकृष्ण के
विभूति— योग
पर कहे गए वचन
सुनकर अर्जुन
बोला हे भगवन—
मुझ पर
अनुग्रह करने
के लिए परम
गोपनीय अध्यात्म—
विषयक वचन
अर्थात उपदेश
आपके द्वारा
जो कहा गया
उससे मेरा यह
अज्ञान नष्ट
हो गया है।
क्योंकि
हे कमलनेत्रु
मैने भूतों की
उत्पत्ति और
प्रलय आपसे
विस्तारपूर्वक
सुने हैं तथा
आपका अविनाशी
प्रभाव भी
सुना है।
हे
परमेश्वर आप
अपने को जैसा
कहते हो यह
ठीक ऐसा ही
है। परंतु हे
पुरुषोत्तम, आपके
ज्ञान
ऐश्वर्य
शक्ति बल
वीर्य और
तेजयुक्त रूप
को प्रत्यक्ष
देखना चाहता
हूं। इसलिए हे
प्रभो मेरे
द्वारा वह आपका
रूप देखा जाना
शक्य है ऐसा
यदि मानते हैं
तो हे
योगेश्वर आप
अपने अविनाशी
स्वरूप का मुझे
दर्शन कराड़ए।
इस
प्रकार
अर्जुन के
प्रार्थना
करने पर श्रीकृष्ण
भगवान बोले हे
पार्थ मेरे
सैकड़ों तथा
हजारों नान? प्रकार
के और नाना
वर्ण तथा
आकृति वाले
अलौकिक रूपों
को देख।
हे
भरतवंशी
अर्जुन मेरे
में आदित्यों
को अर्थात
अदिति के
द्वादश
पूत्रों को और
आठ वसुओं को
एकादश
रुद्रों को
तथा दोनों
अश्विनी
कुमारों को और
उनचास
मरूदगणों को
देख तथा और भी
बहुत— से पहले
न देखे हुए
आश्चर्यमय
रूपों को देख।
और
हे अर्जुन अब
हल मेरे शरीर
में एक जगह
स्थित हुए
चराचर सहित
संपूर्ण जगत
को देख तथा और
भी जो कुछ
देखना चाहता
है सो देख।
अध्यात्म की
अत्यधिक उलझी
हुई पहेलियों
में एक पहेली
से ये सूत्र
शुरू होते हैं।
वह पहेली है
कि प्रभु बिना
श्रम किए
मिलता नहीं।
और साथ ही जब
मिलता है, तो जिसे
मिलता है, उसे
लगता है कि
मेरे श्रम का
फल नहीं, प्रभु
की अनुकंपा है।
जो उसे पा
लेता है, वह
जानता है कि
जो मैंने किया
था, उसका
कोई भी मूल्य
नहीं है। और
जो मैंने पाया
है, वह सभी
मूल्यों के
अतीत है। जिसे
मिलता है, वह
समझ पाता है
कि यह प्रसाद
है, ग्रेस
है, अनुग्रह
है। लेकिन
जिसे नहीं
मिला है, अगर
वह यह समझ ले
कि प्रभु
प्रसाद से
मिलता है, मुझे
कुछ भी नहीं
करना, तो
उसे प्रसाद भी
कभी नहीं
मिलेगा।
मनुष्य
श्रम करे, श्रम से
परमात्मा
नहीं मिलता, लेकिन
मनुष्य इस
योग्य हो पाता
है कि प्रसाद
की वर्षा उसे
मिल पाती है।
झील, गड्डा,
वर्षा को
पैदा करने का
कारण नहीं है।
लेकिन वर्षा
हो, तो
गड्डे में भर
जाती है और
झील उपलब्ध
होती है।
वर्षा पहाड़ पर
भी होती है, लेकिन पहाड़
के शिखर रूखे
के रूखे रह
जाते हैं। वर्षा
गड्डे पर भी
होती है, लेकिन
गड्डा भर जाता
है, अपूरित
हो जाता है।
गड्डे के किसी
श्रम से नहीं
होती है वर्षा,
लेकिन
गड्डे का इतना
श्रम जरूरी है
कि वह गड्डा
बन जाए।
कोई
श्रम करके
सत्य को नहीं
पा सकता।
क्योंकि सत्य
इतना विराट है
और हमारा श्रम
इतना क्षुद्र
कि हम उसे
श्रम से न पा
सकेंगे। और
खयाल रहे कि
जो हमारे श्रम
से मिलेगा, वह हमसे
छोटा होगा, हमसे बड़ा
नहीं हो सकता।
जिसे मेरे हाथ
गढ़ लेते हैं,
वह मेरे
हाथों से बड़ा
नहीं होगा। और
जिसे मेरा मन
समझ लेता है, वह भी मेरे
मन से बड़ा
नहीं हो सकता।
जिसे मैं पा
लेता हूं वह
मुझसे छोटा हो
जाता है।
इसलिए
श्रम से न कभी
कोई सत्य को
पाता है, न कभी कोई परमात्मा
को पाता है, न कभी कोई
मोक्ष को पाता
है। और साथ ही
यह भी खयाल
रखें कि बिना
श्रम के भी कभी
किसी ने नहीं
पाया है। यह
पहेली है।
श्रम से हम इस
योग्य बनते
हैं कि हमारा
द्वार खुल जाए।
खुले द्वार
में सूरज
प्रवेश कर
जाता है। खुला
द्वार सूरज को
पकड़कर ला नहीं
सकता। लेकिन
खुला द्वार, सूरज आता हो,
तो बाधा
नहीं डालता है।
मनुष्य का
सारा श्रम
बाधा को
तोड्ने के लिए
है।
इस बात
को खयाल में
लें, तो
यह सूत्र समझ
में आएगा।
इस
प्रकार कृष्ण
के विभूति—योग
पर कहे गए वचन
सुनकर अर्जुन
बोला, मुझ
पर अनुग्रह
करने के लिए
परम गोपनीय
अध्यात्म—विषयक
वचन आपके
द्वारा जो कहा
गया, उससे
मेरा अज्ञान
नष्ट हो गया
है।
इसमें
पहला शब्द समझ
लेने जैसा है, अनुग्रह।
अनुग्रह का
अर्थ होता है,
जिसे पाने
के लिए हमने
कुछ भी नहीं
किया। जिसे
पाने के लिए
हमने कुछ किया
हो, वह
सौदा है।
उसमें
अनुकंपा कुछ
भी नहीं है।
जिसे पाने के
लिए हमने कुछ
अर्जित की हो
संपदा, वह
हमारे श्रम का
पुरस्कार है,
उसमें कुछ
प्रसाद नहीं
है।
अर्जुन
कहता है कि
आपके अनुग्रह
से मुझे जो
कहा गया है!
मेरी कोई
योग्यता न थी, और मेरा
कोई श्रम भी
नहीं था, मेरी
कोई साधना भी
नहीं थी। मैं
दावा कर सकूं,
ऐसी मेरी
कोई अर्जित
संपदा नहीं है।
फिर भी आपके
अनुग्रह से
मुझे जो कहा
गया है!
इससे
यह अर्थ आप न
लेना कि
अनुग्रह की इस
घटना में कृष्ण
ने अर्जुन के
साथ कुछ
पक्षपात किया
है। क्योंकि
आपका भी कोई
श्रम नहीं है, आपकी भी
कोई साधना
नहीं है, फिर
यह कृष्ण
अर्जुन को ही
देने पहुंच
गए! और आपके
द्वार को खोजकर
अब तक नहीं आए
हैं! तो ऐसा
लगेगा कि कुछ
पक्षपात
मालूम होता है।
ध्यान
रहे, जो
योग्य है, उसे
ही यह खयाल
आता है कि
मेरी कोई
योग्यता नहीं।
अयोग्य को तो
सदा खयाल होता
है कि मेरी
बड़ी योग्यता
है। जो पात्र
होता है, वही
विनम्र होता
है। अपात्र तो
बहुत उद्दंड
होता है।
अपात्र तो
मानता है कि
मैं योग्य हूं
र अभी तक मुझे
मिला नहीं।
इसमें जरूर नियति,
भाग्य, परमात्मा
का कोई हाथ है।
सब भांति मैं
योग्य हूं और
अगर मुझे नहीं
मिला तो
अन्याय हो रहा
है।
पात्र
मानता है कि
मैं अपात्र
हूं। इसलिए
नहीं मिला, तो दोषी
मैं हूं। और
अगर मिलता है,
तो वह प्रभु
की अनुकंपा है,
अनुग्रह है।
योग्यता का
पहला लक्षण है,
अयोग्यता
का बोध।
अयोग्यता का
पहला लक्षण है,
योग्यता का
दंभ, योग्यता
का अहंकार।
इसलिए
जिन्हें खयाल
है कि वे
पात्र हैं, वे ठीक से
समझ लें कि
उनसे ज्यादा
बड़ा अपात्र खोजना
मुश्किल है।
और जिन्हें
खयाल है कि
उनकी कोई भी
पात्रता नहीं
है, उन्होंने
पात्र बनना
शुरू कर दिया
है।
अर्जुन
पात्र था।
इसलिए सहज भाव
से कह सका कि
मेरी कोई
पात्रता नहीं, आपका
अनुग्रह है।
अपात्र
पर तो अनुग्रह
भी नहीं हो
सकता। उलटे
रखे घड़े पर
वर्षा भी होती
रहे, तो
घड़ा भर नहीं
सकता। उलटा
रखा हुआ घड़ा
अपात्र है।
क्यों उलटा
घड़ा मैं कह
रहा हूं? ताकि
खयाल में आ
सके कि
पात्रता भीतर
छिपी है, लेकिन
उलटी है। और
घड़ा सीधा हो
जाए, तो
पात्र बन जाए।
पात्रता
कहीं पाने भी
नहीं जाना है, हम
पात्रता लेकर
ही पैदा होते
हैं। ऐसा कोई
मनुष्य ही
नहीं है, ऐसी
कोई चेतना ही
नहीं, जो
प्रभु को पाने
की पात्रता
लेकर पैदा न
होती हो। फिर
भी परमात्मा
हमें मिलता
नहीं। उसकी
वाणी सुनाई
नहीं पड़ती, उसके स्वर
हमारे हृदय को
नहीं छूते।
उसका स्पर्श
हमें नहीं
होता, उसका
आलिंगन नहीं
मिलता। हम
पात्र हैं, लेकिन उलटे
रखे हुए हैं।
और उलटे रखे
होने की सबसे
सुगम जो
व्यवस्था है,
वह दंभ है, वह अहंकार
है। जितना
ज्यादा बड़ा हो
मैं का भाव, उतना ही
पात्र उलटा
होता है।
अर्जुन ने कहा
कि आपका
अनुग्रह है।
कठिन
है, क्योंकि
अर्जुन के लिए
और भी कठिन है।
अगर कृष्ण
आपको मिल जाएं,
तो कृष्ण
से अभिभूत
होना कठिन
नहीं होगा।
लेकिन अर्जुन
के कृष्ण हैं
मित्र, सखा,
साथी। उनके
कंधे पर हाथ
रखकर, गले
में हाथ रखकर
अर्जुन चला है,
उठा है, बैठा
है, गपशप
की है। कृष्ण
में अनुग्रह
को देख लेना, मित्र में, जो साथ ही
खड़ा हो! और आज
तो साथ भी
नहीं, अर्जुन
ऊंचा बैठा था
और कृष्ण
सारथी बने
नीचे बैठे थे।
आज तो केवल कृष्ण
के सारथी होने
की स्थिति थी।
अर्जुन ऊंचा
बैठा था। उस
क्षण में भी
अर्जुन
अनुग्रह मान
पाता है, इसके
लिए अत्यंत
निरअंहकारी
मन चाहिए।
इतना विनम्र
मन चाहिए, जो
कि ऊपर बैठकर
भी अपने को
नीचे देख पाता
हो। मित्र को
भी जो
परमात्मा की
स्थिति में रख
पाता हो।
हमें
परमात्मा भी
मिले, तो
हम मित्र की
स्थिति में
रखना चाहेंगे।
संगी—साथी, साथ तल पर
खड़ा कर लेना
चाहेंगे।
अर्जुन मित्र
को परमात्मा
की स्थिति में
रख पाता है।
और जो
परमात्मा को
इतने निकट देख
पाता है, वही
देख पाता है।
दूर आकाश में
बैठे हुए
परमात्मा के
लिए सिर झुकाना
बहुत आसान है।
पास—पड़ोसी में
छिपे
परमात्मा को
सिर झुकाना
बहुत मुश्किल
है। पत्नी में,
पति में, बेटे में, भाई में
छिपे
परमात्मा को
सिर झुकाना
बहुत मुश्किल
है। स्वभावत:,
जो जितने
निकट है, उसके
साथ हमारे
अहंकार का
संघर्ष, प्रतिद्वंद्विता
उतनी ही बड़ी
हो जाती है।
इसलिए यहूदी
कहते हैं कि
कभी भी कोई
पैगंबर अपने
गांव में नहीं
पूजा जाता। न
पूजे जाने का
कारण है।
क्योंकि इतना
निकट है गांव
के लिए पैगंबर,
कि यह मानना
मुश्किल है कि
तुम हमसे ऊपर
हो! असंभव है।
इसलिए गांव
में तो पैगंबर
को पत्थर ही
पड़ेंगे। पूजा
मिलनी बहुत
मुश्किल है।
अर्जुन
कृष्ण को कह
सका कि
तुम्हारा
अनुग्रह है, मेरी कोई
पात्रता नहीं
है। यह उसकी
पात्रता का
सबूत है। यह
धार्मिक जगत
में प्रवेश
करने वाले
व्यक्ति की
पहली योग्यता
है, पहला
लक्षण है। मुझ
पर अनुग्रह
करने के लिए
परम गोपनीय
अध्यात्म—विषयक
वचन अर्थात
उपदेश आपके
द्वारा जो कहा
गया, उससे
मेरा अज्ञान
नष्ट हो गया
है।
दूसरी
बात, परम
गोपनीय
अध्यात्म।
अध्यात्म
प्रेम से भी
ज्यादा
गोपनीय है।
इसे थोड़ा हम
समझ लें। आप
जिसे प्रेम
करते हैं, चाहते
हैं, उसके
साथ एकांत
मिले। दूसरे
की मौजूदगी
खटकती है। दो
प्रेमी किसी
को भी मौजूद
नहीं देखना
चाहते, अकेले
हो जाना चाहते
हैं। क्यों? इतना अकेले
की क्या तलाश
है? अकेले
में इतना क्या
रस है? दूसरे
की मौजूदगी
क्या बाधा
देती है?
पहली
बात, जिसके
साथ हम गहरे
प्रेम में हैं,
उसमें हम
लीन होना
चाहते हैं और
उसे अपने में लीन
कर लेना चाहते
हैं। जिसके
साथ गहरे
प्रेम में हैं,
उसके साथ हम
द्वैत को तोड़
देना चाहते
हैं, अद्वैत
हो जाना चाहते
हैं। दो न
रहें, एक
ही रह जाए।
लेकिन वह जो
तीसरा मौजूद
है, उसके
साथ तो हमारा
कोई प्रेम
नहीं है। उसकी
मौजूदगी
अद्वैत को
घटित न होने
देगी।
इसलिए
प्रेमी एकांत
चाहते हैं, प्राइवेसी
चाहते हैं, अकेलापन
चाहते हैं। वह
तीसरे की जो
मौजूदगी है, बाधा बन
जाएगी और
द्वैत। बना
रहेगा। वह
मौजूद न हो, तो दो
व्यक्ति लीन
हो सकते हैं
एक में। इसलिए
प्रेम गोपनीय
है, गुप्त
है, सार्वजनिक
नहीं है।
अध्यात्म
और भी गोपनीय
है। क्योंकि
प्रेम में तो शायद
दो शरीर ही
मिलते हैं, अध्यात्म
में गुरु और
शिष्य की
आत्मा भी मिल
जाती है। और
जब तक यह मिलन
घटित न हो कि
गुरु और शिष्य,
प्रेमी और
प्रेमिका की
तरह आत्मा के
तल पर एक न हो
जाएं, तब
तक
अध्यात्म
का संचरण, अध्यात्म
का उपदेश, अध्यात्म
का दान, असंभव
है। इसलिए अध्यात्म
गोपनीय है।
शरीर
भी मिलते हैं
तो गुप्तता
चाहिए, तो जब
आत्माएं
मिलती हैं तो
और भी गुप्तता
चाहिए। इसलिए
अध्यात्म
छिपा—छिपाकर
दिया गया है, चुपचाप दिया
गया है, मौन
में दिया गया
है। कारण, इतना
मौन, इतनी
चुप्पी, इतना
एकांत न हो, तो वह जो
भीतर, दो
का मिलन, संवाद
है, वह
असंभव है।
अर्जुन
कहता है कि
इतनी गोपनीय
बात को आपने
मुझ पर प्रकट
किया, यह
सिवाय
अनुग्रह के और
क्या हो सकता
है!
इस
प्रकटीकरण
में, इस
अभिव्यक्ति
में, इस
गोपनीय मिलन
में और भी एक
बात विचारणीय
है कि यह घटना
घटती है युद्ध
के मैदान पर।
चारों तरफ बड़ा
समूह है। और
साधारण समूह
नहीं, युद्ध
को रत, युद्ध
के लिए तत्पर।
इस युद्ध के
लिए तत्पर समूह
में भी यह
गोपनीयता घट
जाती है। यह
मिलन, यह
कृष्ण का
संवाद अर्जुन
को सुनाई पड़
जाता है, यह
कृष्ण
अनुग्रह कर
पाते हैं।
तो एक
और बात खयाल
ले लेनी
चाहिए। और वह
यह कि दो
शरीरों को
मिलना हो, तो भौतिक
अर्थों में
एकांत चाहिए।
दो आत्माओं को
मिलना हो, तो
भीड़ में भी
मिल सकती हैं।
भौतिक अर्थों
में एकांत का
फिर कोई अर्थ
नहीं है। इस
भीड़ में भी दो
आत्माओं का
मिलन हो सकता
है। क्योंकि
भीड़ तो शरीर
के तल पर है।
यह
बहुत विचार की
बात रही है।
जिन लोगों ने
भी गीता पर
गहन अध्ययन
किया है, उन्हें यह
मन में विचार
उठता ही रहा
है, यह
प्रश्न जगता
ही रहा है, कि
युद्ध के
मैदान पर, भीड
में, युद्ध
के लिए तत्पर
लोगों के बीच,
कृष्ण को भी
कहां की जगह
मिली गीता का
संदेश कहने के
लिए! पर यह
बहुत
सुविचारित मालूम
पड़ता है।
अध्यात्म, शरीर की
भीड़ के बीच भी
एकांत पा सकता
है। अध्यात्म,
बाजार के
बीच भी अकेला
हो सकता है।
और आध्यात्मिक
मिलन युद्ध के
क्षण में भी
घट सकता है।
क्योंकि
युद्ध, बाजार,
शरीरों की
भीड़, सब
बाहर हैं। अगर
भीतर तत्परता
हो, पात्रता
हो, और अगर
भीतर ग्रहण
करने की
क्षमता हो, लीन होने की,
विनम्र
होने की, डूबने
की, चरणों
में गिर जाने
की भावना हो, तो अध्यात्म
कहीं भी घटित
हो सकता है—युद्ध
में भी।
इस बात
को जिस अनूठे
ढंग से गीता
ने जगत को दिया
है, कोई
दूसरा
शास्त्र नहीं
दे सका। और
इसलिए गीता
अगर इतनी
रुचिकर हो गई,
और मन पर
इतनी छा गई, तो उसका
कारण है।
उपनिषद
हैं, वनों
के एकांत में,
मौन, शांति
में, गुरु
और शिष्य के
बीच, बड़े
ध्यान के क्षण
में संवादित
हैं। बाइबिल
है, बहुत
एकांत में
चुने हुए
शिष्यों से
कही गई बातें
हैं। लेकिन
गीता घने
संसार के बीच
दिया गया
संदेश है। और
युद्ध से
ज्यादा घना
संसार क्या
होगा? वहा
भी अध्यात्म
घटित हो सकता
है, अगर
पात्र सीधा हो।
और वह जो
गोपनीय है, अधिकतम
गोपनीय है, जो सबके
सामने नहीं
कहा जा सकता, वह भी कहा जा
सकता है, अगर
पात्र शांत, मौन, स्वीकार
करने को तैयार
हो।
फिर
भौतिक
अकेलेपन का
अर्थ होता है, कोई और
मौजूद नहीं।
आध्यात्मिक
अकेलेपन का
अर्थ होता है,
आप मौजूद
नहीं।
इसे
ठीक से समझ
लें।
भौतिक
भीड़ का अर्थ
होता है, बहुत लोग
मौजूद हैं।
आध्यात्मिक
एकांत का अर्थ
होता है, शिष्य
मौजूद नहीं।
गुरु
तो गैर—मौजूदगी
का नाम ही है, इसलिए
उसकी हम बात
ही न करें।
गुरु का तो
अर्थ ही है कि
जो गैर—मौजूद
हो गया। जो अब
एब्सेंट है, जो उपस्थित
नहीं है, जो
दिखाई पड़ता है
और भीतर शून्य
है।
जब
शिष्य भी गैर—मौजूद
हो जाए, इतना डूब
जाए कि भूल
जाए अपने को
कि मैं हूं तो आध्यात्मिक
एकांत घटित
होता है। और
उस एकांत में
ही वे गोपनीय
सूत्र दिए जा
सकते हैं; किसी
और तरह से दिए
जाने का जिनका
कोई भी उपाय नहीं
है।
तो
अर्जुन ने कहा
कि जो अत्यंत
गोपनीय है, वह भी
अनुग्रह करके
तुमने मुझे
कहा, उससे
मेरा अज्ञान
नष्ट हो गया
है।
इसे
खयाल कर लें।
अज्ञान का
नष्ट हो जाना, यहां शान
का पैदा हो
जाना नहीं है।
ज्ञान तो है
अनुभव।
अज्ञान तो
नष्ट हो सकता
है गुरु के
वचन से भी।
लेकिन
नकारात्मक है।
अर्जुन कह रहा
है, मेरा
अज्ञान नष्ट
हो गया।
वह यह
कह रहा है कि
अब तक मेरी जो
मान्यताएं थीं, वे टूट
गईं। अब तक
जैसा मैं
सोचता था, अब
नहीं सोच
पाऊंगा। आपने
जो कहा, उसने
मेरे विचार
बदल दिए। आपने
जो मुझे दिया,
उससे मेरा
मन रूपांतरित
हो गया, मैं
बदल गया हूं।
मेरा अज्ञान
टूट गया।
लेकिन अभी
ज्ञान नहीं हो
गया है। अभी
बीमारी तो हट
गई है, लेकिन
अभी
स्वास्थ्य का
जन्म नहीं हुआ
है। अभी
नकारात्मक
रूप से बाधाएं
मेरी टूट गईं,
लेकिन अभी
पाजिटिवली, विधायक रूप
से मेरा
आविर्भाव
नहीं हुआ है।
यह
काफी कीमती है, सोचने
जैसा है।
क्योंकि बहुत—से
लोग इस तरह के अज्ञान
मिटने को ही
ज्ञान समझ
लेते हैं।
शास्त्र हैं,
सदवचन हैं,
सदगुरु हैं,
उनके वचनों को
लोग इकट्ठा कर
लेते हैं; और
सोचते हैं, ज्ञान हो
गया; और
सोचते हैं, जान लिया।
क्योंकि गीता
कंठस्थ है, वेद के वचन
याद हैं, उपनिषद
होंठ पर रखे
हैं, तो
शान हो गया।
ध्यान
रहे, अर्जुन
कहता है, अज्ञान
नष्ट हो गया।
अब तक जो मेरी
मान्यता थी
अज्ञान से भरी
हुई, वह टूट
गई। लेकिन अभी
ज्ञान नहीं
हुआ है, क्योंकि
ज्ञान तो तभी
होता है, जब
मैं अनुभव कर
लूं। यह कृष्ण
ने जो कहा है, इस पर भरोसा
आ गया। और कृष्ण
जैसे लोग
भरोसे के
योग्य होते
हैं। उनकी
मौजूदगी
भरोसा पैदा
करवा देती है।
उनका खुद का
आनंद, उनका
खुद का मौन, उनकी शांति,
उनकी
शून्यता, छा
जाती है, आच्छादित
कर लेती है।
उनकी आंखें, उनका होना, पकड़ लेता है
चुंबक की तरह,
खींच लेता
है प्राणों को,
भरोसा आ
जाता है।
लेकिन
यह भरोसा शान
नहीं है। यह
भरोसा उपयोगी
है हमारी
भ्रांत
धारणाओं को तोड़
देने के लिए।
लेकिन भ्रांत
धारणाओं का टूट
जाना ही सत्य
का आ जाना
नहीं है।
पंडित
ज्ञानी नहीं
है। पंडित
अज्ञानी नहीं
है, पंडित
ज्ञानी भी
नहीं है।
पंडित
अज्ञानी और
ज्ञानी के बीच
है। अज्ञानी
वह है, जिसे
कुछ भी पता
नहीं। पंडित
वह है, जिसे
सब कुछ पता है।
और ज्ञानी वह
है, जिसके
पता में और
जिसके अनुभव में
कोई भेद नहीं
है। जो जानता
है, जो
उसकी जानकारी
है, वह
उसका अपना
निजी अनुभव भी
है। वह उधार
नहीं जानता।
किसी ने कहा
है, ऐसा
नहीं जानता।
खुद ही जानता
है, अपने
से जानता है।
अभी
अर्जुन को जो
जानकारी हुई, वह कृष्ण
के कहने से
हुई है। अभी कृष्ण
ऐसा कहते हैं,
और कृष्ण
पर अर्जुन को
भरोसा आया है,
इसलिए
अर्जुन कहता
है कि मेरा अज्ञान
टूट गया।
लेकिन अभी मैं
नहीं जानता
हूं अभी तुम
कहते हो।
इसलिए
अगर कृष्ण
थोड़ा हट जाएं
अलग, अर्जुन
के संदेह वापस
लौट आएंगे।
इसलिए कृष्ण
अगर खो जाएं, तो अर्जुन
फिर वापस वहीं
पहुंच जाएगा,
जहां वह
गीता के
प्रारंभ में
था। उसमें देर
नहीं लगेगी।
और अगर
ईमानदार होगा
तो जल्दी
पहुंच जाएगा,
अगर बेईमान
होगा तो थोड़ी
देर लगेगी।
क्योंकि तब वह
शब्दों को ही
दोहराता
रहेगा, घोंटता
रहेगा। और
अपने को
समझाता रहेगा
कि मुझे मालूम
है, मुझे
मालूम है।
लेकिन
अर्जुन
ईमानदार है।
और इस
जगत में सबसे
बड़ी ईमानदारी
अपने प्रति ईमानदारी
है। आप दूसरे
को धोखा देते
हैं, उससे
कुछ बहुत बनता—बिगड़ता
नहीं। अच्छा
नहीं है, लेकिन
कुछ बहुत बनता—बिगड़ता
नहीं। थोड़ा
पैसे का!
नुकसान
पहुंचा देंगे,
कुछ और
करेंगे।
लेकिन जो धोखा
आप अपने को दे
सकते हैं, उससे
आपका पूरा
जीवन मिट्टी
हो जाता है।
और हम धोखा
देते हैं।
सबसे बड़ा धोखा
जो हम अपने को
दे सकते हैं, वह यह है कि
बिना स्वयं
जाने हम मान
लें कि हमने
जान लिया है।
अगर
कोई आपसे पूछे, ईश्वर है?
तो आप चुप न
रह पाएंगे। या
तो कहेंगे, है; या
कहेंगे, नहीं
है। यह न कह
पाएंगे कि
मुझे पता नहीं
है। अगर आप यह
कह पाएं कि
मुझे पता नहीं,
तो आप
ईमानदार आदमी
हैं। अगर आप
कहें कि हां
है, और
लड़ने—झगड़ने को
तैयार हो जाएं,
और बिना कुछ
अनुभव के, तो
आप बेईमान हैं।
अगर आप कहें, नहीं है; और
तर्क करने को
तैयार हो जाएं,
बिना किसी
अनुभव के, तो
भी आप बेईमान
हैं।
जिनको
हम आस्तिक और
नास्तिक कहते
हैं, वे
बेईमानी की दो
शक्लें हैं।
ईमानदार आदमी
कहेगा, मुझे
पता नहीं। मैं
कैसे कहूं कि
है, मैं
कैसे कहूं कि
नहीं है! कोई
कहता है कि है,
कोई कहता है
कि नहीं है।
कभी एक पर
भरोसा आ जाता
है, अगर
आदमी बलशाली
हो।
बुद्ध
जैसा आदमी
आपके पास खड़ा
हो, तो
भरोसा दिला
देगा कि ईश्वर
वगैरह कुछ भी
नहीं है। यह
बुद्ध की वजह
से। महावीर
जैसा आदमी
आपके पास खड़ा
हो, तो
भरोसा दिलवा
देगा कि ईश्वर
वगैरह सब
बकवास है। और कृष्ण
जैसा आदमी पास
खड़ा हो, तो
आस्था आ जाएगी
कि ईश्वर है।
और जीसस जैसा
आदमी पास खड़ा
हो, तो
आस्था आ जाएगी
कि ईश्वर है।
लेकिन आपका
अपना अनुभव
कोई भी नहीं
है।
लेकिन कृष्ण
के कारण जो
झलक आती है, वह भी
उधार है।
बुद्ध के कारण
जो झलक आती है,
वह भी उधार
है। उधार
झलकों से
अज्ञान मिट
जाता है, लेकिन
ज्ञान अपनी ही
झलक से पैदा
होता हे।
इसलिए
अर्जुन कहता
है कि आपने जो
मुझे कहा, उससे
मेरा अज्ञान
नष्ट हो गया
है। क्योंकि
हे कमलनेत्र,
मैंने
भूतों की
उत्पत्ति और
प्रलय आपसे
विस्तारपूर्वक
सुने हैं, आपका
अविनाशी
प्रभाव भी
सुना। हे
परमेश्वर, आप
अपने को जैसा
कहते हो, यह
ठीक। ऐसा ही
है। ऐसा भी
मैंने अनुभव
लिया, ऐसा
भी मुझे समझ
में आया, कि
आप जैसा कहते
हो, ऐसा ही
है, ऐसी
मेरी श्रद्धा
बनी।
परंतु
हे
पुरुषोत्तम........।
और यह
परंतु
विचारणीय है।
नहीं तो बात
खतम हो गई।
अर्जुन कहता
है, जैसा
आप कहते हो, ऐसा ही है।
ऐसी भी मेरी
श्रद्धा हो
गई। अब बात
खतम हो जानी
चाहिए। जब
श्रद्धा ही आ
गई, तो अब
लेकिन—परंतु
का क्या अर्थ
है! अब चुप हो
जाओ। गीता समाप्त
हो जानी चाहिए
थी। यहां बात
पूरी हो गई।
हम अगर
होते, तो
गीता यहां
समाप्त हो गई
होती। हम इसी
जगह रुक गए
हैं आकर। श्रद्धा
आ गई है, मंदिर
में पूजा कर
लेते हैं, शास्त्र
को सिर झुका
लेते हैं, गुरु
के चरण में
फूल चढ़ा आते
हैं। बात
समाप्त हो गई।
हमें शब्द याद
हैं, सिद्धांतों
का पता है, शास्त्र
हमारे मन पर
हैं। अब और
क्या बाकी बचा
है?
अभी
कुछ भी नहीं
हुआ। अभी नौका
किनारे से भी नहीं
छूटी। इसलिए
अर्जुन कहता
है, परंतु
हे
पुरुषोत्तम, आपके ज्ञान,
ऐश्वर्य, शक्ति, बल,
वीर्य और
तेजयुक्त रूप
को प्रत्यक्ष
देखना चाहता
हूं। यह तो
आपकी आंखों से
जो आपने देखा
है, वह
मुझे कहा। यह
मेरे कानों ने
सुना है, लेकिन
आपकी आंखों का
देखा हुआ है।
अब मैं अपनी
ही आंख से
देखना चाहता हूं, प्रत्यक्ष।
और जब तक मैं न
देख लूं, तब तक आप
भरोसे योग्य
हैं, भरोसा
करता हूं।
लेकिन जब तक
मैं न देख लूं,
तब तक ज्ञान
का जन्म नहीं
होता है।
शब्द
पर मत रुक
जाना, शब्द
पर रुकने वाला
भटक जाता है।
और सारी दुनिया
शब्द पर रुकी
है। कोई कुरान
के शब्द पर
रुका है, वह
अपने को
मुसलमान कहता
है। कोई गीता
के शब्द पर
रुका है, वह
अपने को हिंदू
कहता है। कोई
बाइबिल के
शब्द पर रुका
है, वह
अपने को ईसाई
कहता है।
लेकिन ये
शब्दों पर रुके
हुए लोग हैं।
दुनिया
में सब
संप्रदाय, शब्दों
के संप्रदाय
हैं। धर्म का
तो कोई
संप्रदाय हो
नहीं सकता।
क्योंकि धर्म
शब्द नहीं, अनुभव है।
और अनुभव
हिंदू
मुसलमान, ईसाई
नहीं होता।
अनुभव तो ऐसा
ही निखालिस एक
होता है, जैसे
एक आकाश है।
कृष्ण
से बड़ी तरकीब
से अर्जुन ने
यह बात पूछी है।
कहा कि आस्था
पूरी है, आप जो कहते
हैं; भरोसा
आता है। आप
कहते हैं, ठीक
ही कहते
होंगे। अब यह
कहने की कोई
भी गुंजाइश
नहीं कि आप
गलत कहते हैं।
आपने मुझे ठीक—ठीक
समझा दिया।
जैसा आपने कहा
है, वैसा
ही है। लेकिन
अब मैं अपनी आंख
से देखना
चाहता हूं।
और जो
शिष्य अपने
गुरु से यह न
पूछे कि मैं
अपनी आंख से
देखना चाहता
हूं वह शिष्य
ही नहीं है।
जो गुरु के
शब्द मानकर
बैठ जाए और
उन्हें घोंटता
रहे और मर जाए, वह शिष्य
नहीं है। और
जो गुरु अपने
शिष्य को शब्द
घुटाने में लगा
दे, वह
गुरु भी नहीं
है। कृष्ण
प्रतीक्षा ही
कर रहे होंगे
कि कब अर्जुन
यह पूछे। अब
तक की जो
बातचीत थी, वह बौद्धिक
थी। अब तक
अर्जुन ने जो
सवाल उठाए थे,
वे
बुद्धिगत थे,
विचारपूर्ण
थे। उनका
निरसन कृष्ण
करते चले गए।
जो भी अर्जुन
ने कहा, वह
गलत है, यह
बुद्धि और
तर्क से कृष्ण
समझाते चले गए।
निश्चित ही, वे
प्रतीक्षा कर
रहे होंगे कि
अर्जुन पूछे;
वह क्षण आए,
जब अर्जुन
कहे कि अब मैं आंख
से देखना
चाहता हूं।
आमतौर
से गुरु
डरेंगे, जब आप
कहेंगे कि अब
मैं आंख से
देखना चाहता
हूं। तब गुरु
कहेंगे कि
श्रद्धा रखो,
भरोसा रखो,
संदेह मत
करो। लेकिन
ठीक गुरु
इसीलिए सारी
बात कर रहा है
कि किसी दिन
आप हिम्मत
जुटाएं और
कहें कि अब
मैं देखना
चाहता हूं। अब
शब्दों से
नहीं चलेगा।
अब विचार काफी
नहीं हैं। अब
तो प्राण ही
उसमें एक न हो
जाएं, मेरा
ही
साक्षात्कार
न हो, तब तक
अब कोई चैन, अब कोई
शांति नहीं है।
तो
अर्जुन ने कहा, हे
कमलनेत्र, हे
परमेश्वर, अब
मैं आपके
विराट को
प्रत्यक्ष
देखना चाहता हूं।
यह
प्रश्न अति
दुस्साहस का
है। शायद इससे
बड़ा कोई
दुस्साहस
जीवन में नहीं
है। क्योंकि
विराट को अगर आंख
से देखना हो, तो बड़े
उपद्रव हैं।
क्योंकि
हमारी आंख तो
सीमा को ही देखने
में सक्षम है।
हम तो जो भी
देखते हैं, वह रूप है, आकार है।
हमारी आंख ने
निराकार तो
कभी देखा नहीं।
हमारी आंख की
क्षमता भी
नहीं है
निराकार को
देखने की।
हमारी आंख बनी
ही आकृति को
देखने के लिए
है। तो विराट
को देखने के
लिए यह आंख
काम नहीं
करेगी।
सच तो
यह है कि इस आंख
की तरफ से
बिलकुल अंधा
हो जाना पड़ेगा।
यह आंख छोड़
देनी पड़ेगी।
यह आंख तो बंद
ही कर लेनी
पड़ेगी। और इस आंख, इन दो आंखों
से जो शक्ति
बाहर
प्रवाहित हो
रही है, उस
शक्ति को किसी
और आयाम में
प्रवाहित
करना होगा, जहां कि नई आंख
उपलब्ध हो सके।
जिससे
मैं देख रहा
हूं इन आंखों
के द्वारा...।
ध्यान रहे, हम आंख से
नहीं देखते; आंख के
द्वारा देखते
हैं। आंख से
कोई नहीं
देखता। आंख के
द्वारा देखते
हैं। आंख के
पीछे खड़े हैं
हम। आँख हमारी
खिड़की है, उससे
हम देखते हैं।
इस खिड़की से
तो विराट को
देखा नहीं जा
सकता, क्योंकि
यह खिड़की ही
विराट पर
ढांचा बिठा
देती है। यह
खिड़की के कारण
ही विराट पर
आकार बन जाता
है। आप अपनी
खिड़की से आकाश
को देखते हैं।
आकाश भी लगता
है कि खिड़की
के ही आकार का
है। उतना ही
दिखाई पड़ता है,
जितना
खिड़की का आकार
है।
तो इन आंखों
से तो विराट
देखा नहीं जा
सकता। इसलिए
बड़ी हिम्मत की
जरूरत है, अंधा हो
जाने की। इन आंखों
से तो सारी
शक्ति को खींच
लेना पड़े। और
उस दिशा में
शक्ति को
प्रवाहित
करना पड़े, जहां
कोई खिड़की
नहीं है, खुला
आकाश है, तब
विराट देखा जा
सके। उस घटना
को ही हम
तीसरा नेत्र,
थर्ड आई, शिव नेत्र
या कोई और नाम
देते हैं। वह
तीसरी आंख खुल
जाए, वह
दिव्य—चु, तो!
उसके बिना
परमात्मा के
प्रत्यक्ष
रूप को नहीं
देखा जा सकता।
तब जो
भी हम देखते
हैं, वह
परोक्ष है। जो
भी हम देखते
हैं, वह
अनेक—अनेक
परदों के पीछे
से देखते हैं।
उसे सीधा नहीं
देखा जा सकता।
हमारे पास जो
उपकरण हैं, वे ही उसे
परोक्ष कर
देते हैं। इन
उपकरणों को
छोड्कर, इंद्रियों
को छोड्कर, आंखों को
छोड्कर, किसी
और दिशा से भी
देखना हो सकता
है।
तो
पहला तो
दुस्साहस, अंधा
होने का।
क्योंकि इन आंखों
से ज्योति न
हटे, तो
तीसरी आंख पर
ज्योति नहीं
पहुंचती।
दूसरा
दुस्साहस, विराट को
देखना बड़ा
खतरनाक है।
जैसे कि कोई
गहन गडु में
झांके, तो
घबड़ा जाए; हाथ—पैर
कंपने लगे, सिर घूम जाए।
कभी किसी पहाड़
की चोटी पर
किनारे, बहुत
किनारे जाकर
गहु में
झांककर देखा
है? तो जो
भय समा जाए, मृत्यु
दिखाई पड़ने
लगे उस गडु
में।
लेकिन
वह गहु तो कुछ
भी नहीं है।
परमात्मा तो
अनंत गड्डा है, विराट
शून्य है, जहां
सब आकार खो
जाते हैं, जहां
फिर कोई तल और
सीमा नहीं है।
जहां फिर
दृष्टि चलेगी
तो रुकेगी
नहीं कहीं, कोई जगह न
आएगी, जहां
रुक जाए। वहां
घबड़ाहट
पकड़ेगी। परम
संताप पकड़
लेगा। और
लगेगा, मैं
मिटा, मैं
मरा, मैं
गया। विराट के
साथ दोस्ती
बनाने का मतलब
ही खुद को मिटाना
है।
तो
पहला काम तो
अंधा होना पड़े, तब वह आंख
खुले। और
दूसरा काम, मरने की
तैयारी
दिखानी पड़े, तब उस जीवन
से संस्पर्श
हो।
इसलिए
कीर्कगार्ड
ने, एक
ईसाई
रहस्यवादी
संत ने कहा है
कि परमात्मा
को खोजना सबसे
बड़े खतरे की
खोज है— दि
मोस्ट डेंजरस
थिंग। है भी।
सबसे बड़ा जुआ
है। अपने जीवन
को ही दांव पर
लगाने का
उपद्रव है। यह
ऐसे ही है, जैसे
बूंद सागर को
खोजने जाए, तो मिटने को
जा रही है।
जहां सागर को
पाएगी, वहां
मिटेगी; फिर
लौटना भी
मुश्किल हो
जाएगा। सीमा
असीमा को
खोजती हो; क्षुद्र
विराट को
खोजता हो; आकार
निराकार को
खोजता हो; तो
मृत्यु की खोज
है यह।
इसलिए
बुद्ध ने
ईश्वर नाम ही
नहीं दिया उसे।
इसलिए बुद्ध
ने कहा, वह है
महाशून्य; ईश्वर
नाम मत दो।
क्योंकि
ईश्वर नाम
देने से हमारे
मन में आकृति
बन जाती है। हमने
ईश्वर की
आकृतियां बना
ली हैं इसलिए।
इसलिए बुद्ध
ने कहा, ईश्वर
की बात ही मत
करो, वह है
महाशून्य।
इसलिए लोगों
ने जब बुद्ध
से पूछा कि
क्या वहां परम
जीवन है? बुद्ध
ने कहा, जीवन
की बात ही मत
करो। वह है
परम मृत्यु, वह है
निर्वाण, सबका
मिट जाना।
बुद्ध
के पास से भी
लोग भाग खड़े
होते थे।
हमारे इस बड़े
आध्यात्मिक
मुल्क में भी
बुद्ध के पैर
न जम सके। और
उसका कारण एक
ही था। उसका
कारण कुल इतना
था कि बुद्ध
के पास भी जाने
में खतरा था।
बुद्ध के पास
भी वह खाई थी।
बुद्ध के पास
जाने का मतलब
था कि वह परम
शून्य..।
बुद्ध में झांकना, बुद्ध से
दोस्ती बनानी,
उस परम
शून्य के साथ
दोस्ती बनानी
थी। और बुद्ध
आकृति की बात
ही न करते; वे
कहते, मिटना,
समाप्त
होना। सागर को
खोजने की बात
मत करो। वे
कहते थे, बूंद
मिटने की
तैयारी रखती
हो, तो
सागर यहीं है।
तो कृष्ण
से पूछा जा
रहा है वह परम
खतरनाक सवाल
अर्जुन के
द्वारा, कि मैं
तुम्हें अपनी
ही आंखों से
देखना चाहता
हूं
प्रत्यक्ष।
यह खतरनाक
सवाल है, इसलिए
अर्जुन एक
शर्त भी रख
देता है। वह
कहता है, इसलिए
हे प्रभो!
मेरे द्वारा
वह आपका रूप
देखा जाना
शक्य है, ऐसा
यदि मानते हों,
तो
योगेश्वर, आप
अपने अविनाशी
स्वरूप का
मुझे दर्शन
कराइए।
भय तो
उसे पकड़ा होगा।
वह जो कह रहा
है, वह
खतरनाक है। वह
जो देखना
चाहता है, वह
मनुष्य की
आखिरी
आकांक्षा है।
वह असंभव चाह
है, इम्पासिबल
डिजायर है।
और
मनुष्य उसी
दिन पूरा
मनुष्य हो
पाता है, जिस दिन यह
असंभव चाह उसे
पकड़ लेती है।
तब तक हम कीड़े—मकोड़े
हैं। तब तक
हमारी चाह में
और जानवरों की
चाह में कोई
फर्क नहीं है।
हम भी
धन इकट्ठा कर
रहे हैं, जानवर भी
परिग्रह करते
हैं। थोड़ा
करते
हैं हमसे, तो उसका
मतलब हुआ, हमसे
थोड़े छोटे
जानवर हैं। हम
थोड़ा ज्यादा
करते हैं। वे
एक मौसम का
करते हैं, तो
हम पूरी
जिंदगी का
करते हैं। तो
हमारा जानवरपन
थोड़ा
विस्तीर्ण
है। वे भी
कामवासना की
तलाश कर रहे
हैं—स्त्री
पुरुष को खोज
रही है, पुरुष
स्त्री को खोज
रहा है—हम भी
वही कर रहे
हैं। तो पशु
में और हममें
फर्क क्या है?
हमारी
भी वासना वही
है, जो
पशु की है।
लेकिन एक
वासना है, परमात्मा
की वासना, जो
मनुष्य की ही
है। कोई पशु
विराट को नहीं
खोज रहा है।
और जब तक आप
विराट को नहीं
खोज रहे हैं, तब तक जानना
कि पशु की
सीमा का आपने
अतिक्रमण नहीं
किया। मनुष्य
विराट की खोज
है, असंभव
की चाह है।
सभी
पशु अपने को
बचाने की
कोशिश में लगे
हैं। कोई भी
पशु मरना नहीं
चाहता, कोई पशु
मिटना नहीं
चाहता। सिर्फ
मनुष्य में कभी—कभी
कोई मनुष्य
पैदा होते हैं,
जो अपने को
दांव पर लगाते
हैं, अपने
को मिटाने की
हिम्मत करते
हैं, ताकि
परम को जान
सकें। अकेला
मनुष्य है, जो अपने
जीवन को भी
दांव पर लगाता
है।
जीवन
को दांव पर
लगाने का साहस, असंभव की
चाह है।
विराट
को आंखों से
देखने की
वासना, यह अभीप्सा।
अर्जुन को लगा
होगा, पता
नहीं मेरी
योग्यता भी है
या नहीं! यह
शक्य भी है या
नहीं! यह संभव
भी है या नहीं!
और मैं भी इस
जगह आ गया हूं
या नहीं, जहां
ऐसा सवाल पूछ
सकूं! यह सवाल
कहीं मैंने
जरूरत से
ज्यादा तो
नहीं पूछ लिया?
यह सवाल
कहीं मेरी
सीमा का
अतिक्रमण तो
नहीं कर जाता?
यह सवाल
कहीं ऐसा तो
नहीं है कि
अगर कृष्ण इसे
पूरा करें, तो मैं
मुसीबत में पड़
जाऊं?
इसलिए
उसने कहा कि
वह आपका रूप
देखा जाना
शक्य हो, संभव हो, योग्यता
हो मेरी, पात्रता
हो मेरी, ऐसा
यदि आप मानते
हों! क्योंकि
यहां मेरी
मान्यता क्या
काम करेगी? जिसे हमने
जाना नहीं है,
उसके संबंध
में हम पात्र
भी हैं, यह
भी हम कैसे
जान सकते हैं?
बिना किए
पात्रता का
कोई पता भी तो
नहीं चलता। जो
हमने किया ही
नहीं है, वह
हम कर सकेंगे
या न कर
सकेंगे, इसे
जानने का उपाय,
मापदंड भी
तो कोई नहीं
है।
इसलिए
शिष्य पूछता
है, लेकिन
उत्तर मिले ही,
इसका आग्रह
नहीं करता। और
जो शिष्य इसका
आग्रह करता है
कि उत्तर
मिलना ही
चाहिए, उसे
अभी पता ही
नहीं है कि वह
बचकानी बात कर
रहा है।
प्रश्न
पूछा जा सकता है, लेकिन
उत्तर तो गुरु
पर ही छोड़
देना होगा।
पता नहीं, अभी
समय आया या
नहीं! अभी फल
पका या नहीं!
अभी बड़ी पकी
या नहीं! अभी
उस जगह हूं या
नहीं, जहां
तीसरी आंख
खुले सके! और
अगर खुल भी
सके, तो
मैं झेल भी
सकूंगा उस
विराट को या
नहीं!
विराट
को देखना, उसे
झेलना, उसे
आत्मसात कर
लेना, आग
के साथ खेलना
है। तो यह हो
सकेगा मुझसे
या नहीं, इसे
ध्यान रखें।
अर्जुन
ने बड़ी समझ की
बात कही है कि
आप ऐसा मानते
हों तो, तो ही मुझे
प्रत्यक्ष
कराएं।
अन्यथा मैं
रुक सकता हूं।
जल्दी नहीं
करूंगा, धैर्य
रख सकता हूं
प्रतीक्षा
करूंगा। और जब
समझें कि मैं
योग्य हुआ...।
कई बार
ऐसा हुआ है कि
शिष्यों को
वर्षों प्रतीक्षा
करनी पड़ी।
इसलिए नहीं कि
गुरु को उत्तर
पता नहीं था।
इसलिए भी नहीं
कि गुरु कुछ
मजा ले रहा था, कि काफी
समय व्यतीत हो
जाए और आप
उसकी सेवा—स्तुति
करते रहें।
सिर्फ इसलिए
कि शिष्य जब
तक इसके योग्य
न हो जाए कि
झांक सके अनंत
गहु में, विस्तारहीनता
में झांक सके,
जब तक इसके
योग्य न हो
जाए। नहीं तो
होगा क्या? अगर अर्जुन
थोड़ा भी कच्चा
हो, तो
पागल होकर
वापस लौटेगा,
विक्षिप्त
हो जाएगा।
अनेक
साधक
विक्षिप्त हो
जाते हैं, जल्दबाजी
के कारण, पागल
हो जाते हैं।
और साधारण
पागल का तो
इलाज हो सकता
है। साधक अगर
पागल हो जाए, तो
मनोचिकित्सक
के पास इलाज
का कोई भी
उपाय नहीं है।
क्योंकि उसकी
बीमारी शरीर
की बीमारी
नहीं है, उसकी
बीमारी मन की
भी बीमारी
नहीं है, उसकी
बीमारी मन के
जो अतीत है, उससे संपर्क
से पैदा हुई
है। उसके इलाज
का कोई उपाय
नहीं है।
आपने
उन फकीरों के
संबंध में
सुना होगा, जिनको हम
मस्त कहते हैं,
सूफी जिनको
मस्त कहते हैं।
मस्त का मतलब
ही केवल इतना
है कि अभी कुछ
कच्चा था आदमी,
और कूद गया।
तो देख तो
लिया उसने, लेकिन सब
अस्तव्यस्त
हो गया। उस
अराजक में
झांककर वह भी
अराजक हो गया।
सब
अस्तव्यस्त
हो गया। वापस
लौटना
मुश्किल हो
गया। अगर वह
वापस भी लौट
आए, तो जो
उसने देखा है,
उसे भूल
नहीं सकता। जो
उसने जाना है,
वह उसका
पीछा करेगा।
जो उसने अनुभव
कर लिया है, वह उसके
रोएं—रोएं में
समा गया है।
अब उससे
छुटकारा नहीं
है। और अब वह
बेचैन करेगा।
और अब उसे
जीने नहीं
देगा, और
मुश्किल में
डाल देगा।
विक्षिप्तता
घटित होती है, अगर साधक
जल्दबाजी करे।
और सभी साधक
जल्दबाजी
करने की कोशिश
करते हैं।
क्योंकि जो भी
उसकी तलाश में
है, प्यासा
है; चाहता
है, जल्दी
पानी मिल जाए।
लेकिन जल्दी
मिला हुआ पानी
हो सकता है
जहर साबित हो।
जल्दी जहर है।
हो
सकता है, अभी प्यास
ही न थी इतनी, और पानी का
सागर ऊपर टूट
पड़े, तो भी
मुसीबत हो जाए।
फिर हमारी आदत
सागर के पानी
को पीने की
नहीं है। सागर
का पानी मिल
भी जाए, तो
हम प्यासे मर
जाएंगे। हम तो
पानी, छोटे—छोटे
कुएं, गड्डे
खोदकर, पीने
की हमारी आदत
है। वहीं
हमारा तालमेल
भी है। अचानक
विराट का
संपर्क
अस्तव्यस्त
कर जाता है।
केआस!
नीत्शे
को ऐसा हुआ।
यह जर्मन
विचारक
नीत्शे उसी
हैसियत की
चेतना थी, जिस
हैसियत की
बुद्ध, महावीर।
लेकिन
विक्षिप्त हो
गया यह आदमी।
और विक्षिप्त
होने का एक ही
कारण था। इस
आदमी ने अति
आग्रह किया
अनंत में उतर
जाने का; सब
सीमाओं को
तोडकर—विचार
की, शब्द
की, शास्त्र
की, सिद्धांत
की, समाज
की—सब सीमाओं
को तोड़कर
नीत्शे ने
हिम्मत जुटाई
अनंत में
झांकने की, बिना गुरु
के।
कभी—कभी
बुद्ध जैसा
व्यक्ति बिना
गुरु के भी
वापस लौट आया
है। लेकिन
शायद पीछे
अनंत जन्मों
की साधना होगी।
नीत्शे, ऐसा लगता है
कि बिलकुल
अपरिपक, उस
विराट के आमने—सामने
खड़ा हो गया।
नीत्शे
ने कहा है कि
जैसे समय से
हजारों मील ऊपर
मैं खड़ा हूं।
समय से हजारों
मील ऊपर! कोई
मतलब नहीं
होता इसका।
क्योंकि समय
और मील का
क्या संबंध? लेकिन
मतलब एक है कि
समय के बाहर
खड़ा हूं।
हजारों मील
बाहर खड़ा हूं
और देख रहा
हूं विराट
अराजकता को।
उसके
बाद नीत्शे
फिर कभी
स्वस्थ नहीं
हो सका। उसके
बाद जो भी
उसने लिखा, उसमें
हीरे हैं; ऐसे
हीरे हैं, जो
कि मुश्किल से
मिलें र' लेकिन
सब हीरे
विक्षिप्त
मालूम पड़ते
हैं। सब हीरे
जैसे जहर में
बुझाए गए हों।
उसकी वाणी में
झलक बुद्ध की
है, और साथ
में पागलपन भी
है। कहीं—कहीं
आकाश झांकता
है विराट का, और सब तरफ
पागलपन दिखाई
पड़ता है।
क्या
हुआ इसे? इसने कुछ
देखा जरूर।
लेकिन शायद
अभी उचित न था
देखना। समय के
पहले देख लिया।
नीत्शे पागल
ही मरा।
अर्जुन
डरा होगा कि
जो मैं पूछता
हूं छोड़ दूं कृष्ण
पर ही। यदि
शक्य हो, यदि आप
समझें कि यह
रूप देखा जाना
शक्य है, तो
अपने अविनाशी
स्वरूप का
मुझे दर्शन
कराइए। अब
मुझे कहिए मत
कुछ, अब
मुझे दिखाइए।
अब मैं स्वाद
लेना चाहता
हूं। सुनना
नहीं चाहता, हो जाना
चाहता हूं।
अनुभव! कि मैं
भी वही जान
सकूं, जो
आप जानते हैं।
और वही जान
सकूं, जो
आप हैं।
इस
प्रकार
अर्जुन के
प्रार्थना
करने पर कृष्ण
ने कहा, हे पार्थ, मेरे सैकड़ों
तथा हजारों
नाना प्रकार
के और नाना
वर्ण तथा आकृति
वाले अलौकिक
रूपों को देख।
अर्जुन
बिलकुल तैयार
था। और उसकी
रुकने की
तैयारी लक्षण
है। अधैर्य
रुग्ण चित्त
का लक्षण है।
जो कहता है, मैं रुक
सकता हूं
प्रतीक्षा कर
सकता हूं जब
समझें कि
योग्य हूं तब
तक राह
देखूंगा, वह
इसी वक्त
योग्य हो गया।
इतना धैर्य
योग्यता है।
जो कहता है, अभी दिखा
दें, अभी
करवा दें, अभी
हो जाए, जल्दी
हो जाए..। मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं, ध्यान
कितने दिन
करें तो
परमात्मा का
अनुभव हो जाए!
कितने दिन!
कितने जन्म
पूछें, तो
संगत मालूम
पड़ता है। वे
पूछते हैं, कितने दिन!
मैं उनसे
पूछता हूं
चौबीस घंटे
करिएगा? कहते
हैं, नहीं।
आधा घंटा, पंद्रह
मिनट रोज
निकाल सकते
हैं। पंद्रह
मिनट भी सच
में मौन हो
जाइएगा? वे
कहते हैं, कहीं
एकाध क्षण को
पंद्रह मिनट
में हो गए तो हो
गए, कुछ
पक्का नहीं है।
पर कितने दिन
लगेंगे? और
अगर मैं उनको
कह दूं एक साल,
दो साल, तो
ऐसा लगता है, यह उनके वश
के बाहर की
बात है। उनको
लगता है, कोई
उनको कहे कि
ऐसा दस—
पंद्रह दिन
में हो जाएगा,
तो भरोसा
आता है।
इतना
अधैर्य हो, तो फिर
वही चीजें हम
पा सकते हैं, जो दस—
पंद्रह दिन
में मिलती हैं।
फिर वे चीजें
नहीं पा सकते,
जो जन्मों—
जन्मों में
मिलती हैं।
फिर मौसमी
पौधे लगाना
चाहिए हमें।
जो लगाए नहीं
कि दो—चार दिन
में फूल देना
शुरू कर देते
हैं। लेकिन बस
मौसम में ही
रौनक रहती है।
फिर हमें उन
वृक्षों की
आशा छोड़ देनी
चाहिए, जो
सदियों तक
लगते हैं।
उनकी हमें आशा
छोड़ देनी
चाहिए।
क्योंकि इतना
अधैर्य हो, तो जड़ें
गहरी नहीं जा
सकतीं। और
जड़ें जितनी
गहरी जाएं, वृक्ष उतना
ऊपर जाता है।
जितना होता है
वृक्ष ऊपर, उतना ही
जड़ों में होता
है नीचे। तो
वह जो मौसमी
पौधा है, उसकी
कोई जड़ तो
होती नहीं।
उतना ही ऊपर
होता है, उतनी
ही देर टिकता
है।
इसलिए
बहुत लोग
ध्यान सीखते
हैं; बस, मौसमी पौधा
होता है; दो—चार
दिन टिकता है,
फिर खो जाता
है। दो—चार
दिन कहते हुए
सुने जाते हैं,
बड़ी शांति
मिल रही है।
फिर दों—चार
दिन के बाद
उनका पता नहीं
चलता। वह जो
बड़ी शांति मिल
रही होती है, वह मौसमी
फूल था, उसकी
कोई जड़ नहीं थी।
अधैर्य की कोई
जड़ें नहीं
हैं। धैर्य
चाहिए।
और
अर्जुन ने यह
जो कहा कि अगर
शक्य हो..।
मुझे कुछ पता
नहीं है। और
मुझे पता हो
भी नहीं सकता।
जिस अनंत में
मैं झांका
नहीं हूं
उसमें झांक सकूंगा, यह मैं
कैसे कहूं? आप ही तय कर
लें। जो शिष्य
गुरु पर छोड़ता
है इतनी हिम्मत
से—यह समर्पण
है—वह इसी
क्षण भी तैयार
हो गया। इसलिए
कृष्ण ने अर्जुन
की योग्यता की
बात ही नहीं
की। उन्होंने
तत्क्षण कहा
कि ठीक है, तो
तू मेरे
अलौकिक रूपों
को देख।
और हे
भरतवंशी
अर्जुन, मेरे में
आदित्यों को,
अदिति के
द्वादश
पुत्रों को, आठ वसुओं को,
एकादश
रुद्रों को, अश्विनी
कुमारों को, मरुदगणों को
देख और भी
बहुत—से पहले
न देखे हुए
आश्चर्यमय
रूपों को देख।
और हे अर्जुन,
अब इस मेरे
शरीर में एक
जगह स्थित हुए
चराचर सहित
संपूर्ण जगत
को देख और भी
जो कुछ देखना
चाहता है सो
देख।
इसमें
कुछ बातें समझ
लेने जैसी
हैं। पहली तो
बात यह कि कृष्ण
ने फिर
योग्यता की
बात ही न की। कृष्ण
ने फिर शक्यता
की बात ही न
की। कृष्ण ने
फिर यह सवाल
ही नहीं उठाया
इस संबंध में
कि तू पात्र
हो गया या
नहीं, घड़ी
आ गई या नहीं। कृष्ण
ने कहा, देख।
यही अर्जुन
अगर गीता में
थोड़ी देर पहले
यह पूछता, तो
कृष्ण दिखाने
को इतनी सरलता
से राजी नहीं
हो सकते थे।
तो अर्जुन ने
क्या अर्जित
कर लिया है इस
बीच में, उस
पर हम खयाल कर
लें, तो वह
आपको भी
सहयोगी हो जाए,
कि जिस दिन
आप उतना
अर्जित कर लें,
उस दिन आपको
भी परमात्मा
क्षणभर नहीं
रुकाता है, उसी क्षण
दिखा देता है।
और ऐसा
मत सोचना कि
अर्जुन के पास
तो कृष्ण थे, आपके पास
तो कोई भी
नहीं है। हर
अर्जुन के पास
कृष्ण है। और
जब आप अर्जुन
की इस घड़ी में
आ जाते हैं, तब आप अचानक
पाएंगे कि कृष्ण
मौजूद है।
आपको भी जो
चला रहा है, वह कृष्ण
ही है। आपका
भी जो सारथी
है, वह कृष्ण
ही है। आपने न
कभी उससे पूछा
है, न कभी
उसकी तरफ
ध्यान दिया है,
न कभी उसकी
सुनी है।
अगर हम
आदमी को एक रथ
समझ लें, तो आपका मन
अर्जुन है; और आपके
भीतर जो
साक्षी
चैतन्य है, वह कृष्ण
है। आपके भीतर
वह जो मन को भी
देखने वाला है,
वह जो
विटनेस है, वह जो मन को
भी जानता है, उसका
द्रष्टा है, वह कृष्ण है।
लेकिन
आपने अर्थात
मन ने कभी उस
तरफ देखा नहीं।
और अगर वहां
से कोई आवाज
भी आई, तो
कभी सुना नहीं।
जिस दिन भी आप
तैयारी पूरी
कर लेंगे, कृष्ण
को आप अपने
निकट पाएंगे
सदा—सदा।
इसलिए उसकी
फिक्र छोड़ दें।
वह कृष्ण की
चिंता है, वह
आपकी चिंता
नहीं है।
आपमें
क्या हो जाए
कि आप कहें कि
परमात्मा, मुझे
दिखा! और
परमात्मा कहे
कि देख! और बीच
में एक क्षणभर
का भी अंतराल
न हो। अर्जुन
ने इस बीच
क्या कमाया है?
गंवाने
से शुरू करें।
क्योंकि इस
अध्यात्म के
जगत में कमाई
गंवाने से
शुरू होती है।
अर्जुन ने
अपने संदेह
गंवाए। अब
उसका कोई
संदेह नहीं है।
अब वह कहता है, आप जो
कहते हैं, ऐसा
ही है, यह
मेरी भी
श्रद्धा बन गई।
अब तक
वह पूछ रहा था, सवाल उठा
रहा था, संदेह
कर रहा था। वह
कहता था, अगर
ऐसा करूंगा, तो ऐसा होगा।
अगर युद्ध में
जाऊंगा, तो
इतने लोग मरेंगे।
अगर मर जाएंगे,
तो इतना पाप
लगेगा। तो
संन्यास ले
लूं सब छोड़
दूं विरक्त हो
जाऊं? क्या
करूं, क्या
न करूं? और कृष्ण
जो भी कहते थे,
वह उस पर दस
नए सवाल उठाता
था। अब उसके
कोई सवाल न
रहे।
जिस
दिन आपके भीतर
कोई सवाल न
रहे, आप
समझना कि आपने
कुछ कमाया। एक
लिहाज से तो
गंवाया, क्योंकि
हम समझते हैं,
सवाल ही
हमारी
संपत्ति है।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
एक सवाल पूछते
हैं, मैं
जवाब भी नहीं
दे पाया कि वे
दूसरा पूछते हैं!
मैं जवाब दे
रहा हूं इसकी
भी उन्हें
फिक्र नहीं, उन्हें
पूछने की ही
फिक्र है!
मैंने क्या
जवाब दिया, यह भी मैं
लौटकर उनसे
पूछता हूं तो
वे कहते हैं, कुछ याद
नहीं आता।
उन्हें सवाल
पूछने हैं।
जैसे सवाल
पूछना ही उनकी
कुल जिंदगी है।
और अगर उन्हें
एक जवाब दें, तो उस जवाब
में से कल वे
दस सवाल फिर
खोज कर आ जाते
हैं। जवाब का
वे एक ही
उपयोग करते
हैं, नए
सवाल बनाने के
लिए। बाकी
उनके लिए कोई
उपयोगिता
नहीं है। जैसे
उन्होंने यही
काम चुन रखा
है कि सवाल इकट्ठे
कर लेने हैं!
लेकिन
क्या होगा
सवालों से? और लाख
सवाल भी आप
पूछ सकते हों,
तो भी लाख
सवाल से एक
जवाब भी तो
बनता नहीं है।
लाख सवाल भी
जोड़ लें, तो
एक जवाब नहीं
बनता। और एक जवाब
आपके पास आ
जाए, तो
लाख सवाल
तत्क्षण
विलीन हो जाते
हैं, हवा
में खो जाते
हैं।
इसलिए
जो व्यक्ति
उत्तर की तलाश
में है, उसे पहले तो
अपने सवाल
खोने की
तैयारी
दिखानी चाहिए।
यह जरा कठिन
लगेगा।
क्योंकि हम
कहेंगे, यह
तो बड़ी उलटी
बात आप कह रहे
हैं। उन्हीं
का तो हमें
जवाब चाहिए, जिनको आप
छोड़ने को कह
रहे हैं। अगर
उनको छोड़
देंगे, तो
फिर जवाब किस
चीज का!
बुद्ध
के पास कोई
जाए, तो
वे यही कहते
कि तेरे
सवालों का
जवाब हम दे देंगे,
कुछ दिन तू
सवालों को
छोड़ने की
फिक्र कर। और
जिस दिन तू
कहे कि अब
मेरे भीतर कोई
सवाल नहीं, हम उसी दिन
तेरा जवाब दे
देंगे।
तो एक
युवक
मौलुंकपुत्त
ने बुद्ध से
कहा कि लेकिन
अभी क्या
तकलीफ है आपको
जवाब देने में? तो बुद्ध
ने कहा, तू
सवालों से
इतना भरा है
कि जवाब
सुनेगा कौन? और सवाल
तुझे इस तरह
घेरे हुए हैं
कि मेरा जवाब
भीतर प्रवेश
कैसे करेगा? और जब मेरा
जवाब तेरे
भीतर जाएगा, तो तेरे
सवाल मेरे
जवाब को तोड़कर
हजार सवाल खडे
कर लेंगे और
कुछ भी नहीं
होगा।
हमारे
चारों तरफ
सवालों की एक
भीड़ है। उसमें
रंचभर भी जगह
नहीं है भीतर
कि कुछ प्रवेश
हो जाए। तो जो
भी जवाब मिलता
है, हमारे
सवाल उस पर
हमला कर देते
हैं, उसे
तोड़कर दस सवाल
बना देते हैं;
वापस लौटा
देते हैं कि
अब इनको पूछकर
आओ। और भीतर
हमारे कोई
जवाब नहीं
पहुंच पाता।
हम बिना उत्तर
के मर जाते
हैं, क्योंकि
हम —सवालों से
भरे हुए जीते
हैं।
अर्जुन
ने पहली तो
कमाई यह कर ली
कि अब उसके पास
कोई सवाल नहीं
है। वह यह
कहने को तैयार
हो गया है कि
तुम जो कहते हो
कृष्ण, ऐसा ही है।
अब इसमें मुझे
कुछ पूछना
नहीं है।
और जब
पूछना न हो, तभी
देखने की
क्षमता पैदा
होती है। जो
पूछना चाहता
है, वह अभी
देखना नहीं
चाहता, सुनना
चाहता है।
फर्क समझ लें।
जो पूछता है, वह सुनना
चाहता है कि
कुछ कहो।
प्रश्न का
मतलब है, कुछ
सुनाओ।
प्रश्न का
मतलब है, मेरे
कान में कुछ
डालो।
लेकिन
सत्य कान के
रास्ते से कभी
भी गया नहीं है।
अब तक तो नहीं
गया है। और
अभी तक कोई
उपाय नहीं
दिखता कि कान
के रास्ते से
सत्य चला जाए।
सत्य जब भी
गया है, आंख के
रास्ते से गया
है।
इसलिए
हम सत्य के
जानने वाले को
कहते हैं, द्रष्टा।
श्रोता नहीं, द्रष्टा।
इसलिए
जिन्होंने
जान लिया उनके
शान को हम कहते
हैं, दर्शन।
श्रवण नहीं, देखा। इसलिए
हम तीसरी आंख
की खोज करते
हैं, तीसरे
कान की नहीं।
कोई तीसरा कान
है ही नहीं।
पूछते
हैं जब आप, तो आप
चाहते हैं, आपके कान
में कुछ डाला
जाए। सत्य उस
रास्ते नहीं
आता। और ध्यान
रहे, कान
का अनुभव सदा
ही उधार होता
है। सदा ही
उधार है। आंख
का अनुभव ही
अपना हो सकता
है। जब तक
सवाल हैं, तब
तक आप उन
लोगों की तलाश
कर रहे हैं, जो आपके कान
को कचरे से
भरते रहें।
जिस दिन आपके
पास कोई सवाल
नहीं है, उस
दिन आप उस
आदमी की खोज
करेंगे, जो
आपको दिखा दे।
तो
अर्जुन का यह
कहना कि जो आप
कहते हैं, ऐसा ही है,
खबर देता है
कि उसके सवाल
गिर गए।
दूसरी
बात। जिंदगी
में एक तो
हमारे
रोजमर्रा की
उलझनें हैं।
अर्जुन जहां
से यात्रा
शुरू किया, वह
रोजमर्रा की
उलझन थी, युद्ध
का सवाल था।
क्षत्रिय के
लिए रोजमर्रा
की उलझन है।
मारना, नहीं
मारना, नैतिक,
अनैतिक; क्या
करें, क्या
न करें, क्या
उचित है क्या
करने योग्य है,
वह उसकी
चितना थी।
सवाल तो शुरू
हुआ था जिंदगी
से। जिंदगी की
सामान्य उलझन
थी।
हम
सबको भी वही
उलझन है कि यह
करें या न
करें? इसका
क्या फल होगा?
पुण्य होगा,
पाप होगा? न करें तो
अच्छा है कि
करें तो अच्छा
है? अंतिम
परिणाम
जन्मों—जन्मों
में क्या
होंगे? हम
सब की भी
चिंता यही है।
मांसाहार
करें या न
करें? पाप
होगा कि पुण्य
होगा? धन
इकट्ठा करें
कि न करें? क्योंकि
कहीं कोई गरीब
हो जाएगा; तो
हम पुण्य कर
रहे हैं कि
पाप कर रहे
हैं? क्या
करें? क्या
उचित, क्या
अनुचित? यही
उसकी चितना थी।
इसी से यात्रा
शुरू हुई थी।
अभी तक वह यही
पूछता रहा था।
लेकिन
अचानक इस बात
को कहने के
बाद— कि अब जो
आप कहते हैं, वैसा ही
है, ऐसी
श्रद्धा का
मुझमें जन्म
हुआ— वह एक
दूसरा ही सवाल
उठा रहा है, जो जीवन की
उलझन का नहीं,
जीवन के पार
है। वह कह रहा
है कि अब मैं
विराट को
देखना चाहता हूं।
यह आयाम, यह
डायमेंशन अलग
है।
जब तक
आप उन सवालों
को पूछ रहे
हैं, जिनका
संबंध इस जीवन
के चारों तरफ
के विस्तार से
है, तब तक
आप दर्शन की
यात्रा नहीं
कर सकते। जिस
दिन आप इस
उलझन के थोड़ा
पार उठते हैं
और परम
जिज्ञासा
करते हैं कि
इस जीवन का
स्वरूप क्या
है? उस दिन
ही दर्शन की
बात संभव हो
सकती है।
लोग
आते हैं मेरे
पास। वे कहते
हैं कि मन में
बड़ी अशांति
रहती है। मैं
पूछता हूं, क्या
कारण है? वे
कहते हैं, नौकरी
नहीं है। किसी
को बेटा नहीं
है। किसी का
धंधा ठीक नहीं
चल रहा मन में
बड़ी अशांति
रहती है। उनके
जितने भी कारण
हैं अशांति के,
उनमें एक भी
कारण
आध्यात्मिक
नहीं है।
नौकरी नहीं
चलती है, इसलिए
अशांति है। और
आते हैं कि
ध्यान से शायद
शांति मिल जाए।
अगर
ध्यान से
नौकरी मिलती
होती, तो
शांति मिल
सकती थी।
ध्यान से
नौकरी मिलेगी
नहीं। अगर
ध्यान से
बच्चा पैदा हो
सकता था, तो
शायद शांति
मिल जाती। अगर
बच्चे पैदा
होने से शांति
मिलती हो तो।
क्योंकि
जिनको है, उनको
बिलकुल नहीं
है। वे कहते
हैं, ये
बच्चों की वजह
से अशांति है।
लोग
मेरे पास आते
हैं, वे
कहते हैं, कब
इस नौकरी से
छुटकारा होगा?
इसकी वजह से
अशांति है।
रिटायर हो
जाएं।
विश्राम मिल
जाए, तो
थोड़ा शांति से
ध्यान करें।
जो बेकार हैं,
वे कहते हैं,
नौकरी कब
मिले! जो
नौकरी में हैं,
वे कहते हैं,
बेकार कब हो
जाएं कि थोड़ी
शांति मिले।
लेकिन
इनकी कोई भी
जिज्ञासा
आध्यात्मिक
नहीं है। इनका
प्रश्न
जिंदगी के
रोजमर्रा काम
से उलझा हुआ
है। इस
रोजमर्रा के
काम से सत्य
के दर्शन का
कोई भी संबंध
नहीं है। ये
जो पूछ रहे
हैं, यह
धार्मिक
जिज्ञासा ही
नहीं है।
अब तक
अर्जुन जो पूछ
रहा था, वह नैतिक
जिज्ञासा थी,
धार्मिक
नहीं। अब वह
जो जिज्ञासा
कर रहा है, वह
धार्मिक है।
अर्जुन भूल
गया कि युद्ध
में खड़ा है।
इसको
खयाल में रखें।
इस घड़ी आकर
अर्जुन भूल
पाया कि युद्ध
में खड़ा है।
इस घडी आकर वह
भूल पाया कि
प्रियजन
सामने खड़े हैं
और मैं इनको
मारने को आया
हूं। इस घड़ी
युद्ध विलीन
हो गया। वह जो
चारों तरफ
शस्त्र—
अस्त्र लिए
हुए योद्धा
खड़े थे, वे खो गए, जैसे
स्वप्न में
चले गए हों।
वे नहीं हैं
अब। अब सिर्फ
दो ही रह गए उस
बड़ी भीड़ में—
अर्जुन और कृष्ण।
आमने—सामने
खड़े हैं। भीड़
तिरोहित हो गई
है।
ऐसा
नहीं कि भीड़
कहीं चली गई।
भीड़ तो जहां
है, वहीं
है। पर अर्जुन
के लिए अब उस
भीड़ का कोई भी
पता नहीं है।
अर्जुन अब उस
भीड़ के संबंध
में नहीं सोच
रहा है। यह
संसार हट गया।
अब अर्जुन एक
सवाल पूछ रहा
है कि जो आपने
कहा, अनंत,
जिस विराट
लीला की आपने
बात कही, जिस
अमृत, अनंत
धारा का आपने
स्मरण दिलाया,
मैं उसे
देखना चाहता
हूं। संसार खो
गया। यह
जिज्ञासा, यह
जिज्ञासा
धर्म की
जिज्ञासा है।
भारत
का अनूठा
ग्रंथ ब्रह्म—सूत्र
जिस वचन से
शुरू होता है, वह बड़ा
अदभुत है। वह
वचन है, अथातो
ब्रह्म जिज्ञासा,
यहां से
ब्रह्म की
जिज्ञासा। और
यहां से शुरू
होता है, इसके
पहले कुछ है
नहीं। तो जो
किताबों को
पकड़ते हैं, वे सोचते
हैं कि शायद
इसका पहला हिस्सा
खो गया है।
अथातो ब्रह्म
जिज्ञासा!
इसका मतलब हुआ, यहां से
ब्रह्म की
जिज्ञासा। तो
इसका मतलब है,
यह किताब
अधूरी है। आगे
का हिस्सा
कहां है? इस
वाक्य से ऐसा
ही लगता है कि यहां
से ब्रह्म की जिज्ञासा,
तो अभी आगे
की बात, इसमें
पहले कोई और
भी बात रही
होगी, इसका
कोई पहला खंड
खो गया है।
नहीं तो अथातो
ब्रह्म
जिज्ञासा की
क्या जरूरत है
कहने की!
इस
किताब का कोई
हिस्सा नहीं
खो गया है। यह
किताब पूरी है।
यह वचन अधूरा
लगता है, उसका कारण
दूसरा है।
जिससे यह कहा
गया है और
जिसने यह कहा
है, आयाम
की बदलाहट है।
अब तक हो रही
थी संसार की
बकवास। अब
गुरु ने कहा, अथातो
ब्रह्म जिज्ञासा।
अब छोड़ यह
बकवास। अब हम
यहां से
ब्रह्म की
चर्चा शुरू
करें। या शिष्य
ने यहां कोई
सवाल उठाया
होगा, जिससे
आयाम बदल गया।
जगत खो गया, स्वप्न हो
गया, और
ब्रह्म वास्तविक
लगने लगा।
इसलिए यहां से
ब्रह्म की जिज्ञासा।
अर्जुन
को यहां युद्ध
खो गया, संसार मिट
गया। और उसने
पूछा कि अब
मैं देखना
चाहता हूं
क्या है
अस्तित्व! सीधा,
प्रत्यक्ष, आमने—सामने,
सीधे देख
लेना चाहता
हूं। अब मैं
आपको भी बीच में
लेने को तैयार
नहीं हूं।
जिस
दिन शिष्य
कहता है गुरु
से कि अब आप भी
हट जाएं, अब मैं सीधा
ही देखना
चाहता हूं उस
दिन गुरु के
आनंद का कोई पारावार
नहीं है। जब
तक शिष्य कहता
रहता है, मैं
तो आपके चरण ही
पकड़े रहूंगा;
चाहे आप नरक
जाएं, तो
मैं नरक
चलंगूा; जहां
जाएं, आपको
छोड़ नहीं सकता;
तब तक गुरु
पीड़ित होता है।
क्योंकि फिर
यह एक नया मोह,
एक नई
आसक्ति, एक
नया उपद्रव, एक नया
संसार...।
यहां
अर्जुन क्या
कह रहा है? बहुत
डिप्लोमेटिकली,
बहुत राजनैतिक
ढंग से—
क्षत्रिय था,
होशियार था,
कुशल था—
बड़े शिष्ट ढंग
से वह कृष्ण
से क्या कह
रहा है, आप
समझें! वह यह कह
रहा है कि हटो
तुम अब, अब
मुझे सीधा ही
देख लेने दो।
अब तुम्हारा
रूप भी हटा लो।
अब तुम्हारी
आकृति भी विदा
कर लो।
अब तुम
भी न हो जाओ।
अब तुम्हारा
दरवाजा भी हट
जाए और मैं
खुले आकाश को
सीधा देख लूं।
अथातो
ब्रह्म
जिज्ञासा।
ऐसे ही क्षण
में ब्रह्म की
जिज्ञासा
शुरू होती है।
यहां संसार खो
गया।
इसीलिए
शंकर ने बहुत—बहुत
आग्रह करके
कहा है कि
संसार माया है, स्वप्न
है। इसलिए
नहीं कि संसार
स्वप्न है।
बहुत
वास्तविक है।
अगर स्वप्न
होता, तो
शंकर समझाते
किसको? लिखते—बोलते
किसके लिए? स्वप्न के
पात्रों के
लिए? सिर
खोलते उनके
साथ? सिर
खपाते, वाद—विवाद
करते पूरे
मुल्क में
भटकते, स्वप्न
के पात्रों के
साथ? गांव—गांव
खोजते? तब
तो खुद ही
पागल साबित
होते।
संसार
अगर सच में ही
स्वप्न है, तो शंकर
को फिर हिलना—
डुलना ही नहीं
था अपनी जगह
से। फिर बोलने
का कोई कारण
नहीं था।
किससे बोलना
है? जब आप
जाग जाते हैं
सुबह और जानते
हैं कि रात जो
देखा, वह
स्वप्न था, तब आप
स्वप्न के
पात्रों से
कोई चर्चा
करते हैं? उनको
समझाते हैं कि
सब झूठा था जो
देखा। वे होते
ही नहीं, समझाइएगा
किसको?
नहीं।
शंकर जब कहते
हैं, जगत
स्वप्न है, तब इसका एक
डिवाइस, एक
उपाय की तरह
उपयोग कर रहे
हैं। वे यह कह
रहे हैं कि
अगर तुम जगत
को एक स्वप्न
देख पाओ, थोड़ी
देर के लिए भी,
तो
तुम्हारी आंख
उस तरफ हट
सकती है, जो
जगत के पार है।
जब तक तुम्हें
जगत सत्य
मालूम पड़ता है,
तब तक तुम
किसी और सत्य
की खोज में
निकलोगे ही कैसे!
जब तक
तुम्हारे
चारों तरफ
जिसने तुम्हें
घेरा है, वह
तुम्हें इतना
वास्तविक
मालूम पड़ता है
कि जीवन इसी
में लगा दें, इसी दुकान
में, इसी
दो—दो पैसे को
इकट्ठा करने
में, इसी मकान
को खड़ा करने
में, इन्हीं
बच्चों को
पालने—पोसने
में, तुम्हें
इतनी
वास्तविकता
लगती है कि
अपने जीवन को
इसमें
तिरोहित कर
दें, समाप्त
कर दें, शहीद
हो जाएं, तब
तक तुम उठोगे
कैसे? उस
तरफ आंख कैसे
उठाओगे जो
सत्य है?
इसलिए
अगर यह बात
खयाल में आ
जाए कि यह
स्वप्न है, घडीभर को
भी; यह बोध
में गहरा उतर
जाए कि चारों
तरफ जो है, एक
स्वप्न है, तो खोज शुरू
हो जाती है कि
सत्य क्या है!
सत्य की खोज
हो सके, इसलिए
शंकर ने बड़े
अनुग्रह से
समझाया है
लोगों को कि
जगत स्वप्न है।
लेकिन
लोग बड़े
मजेदार हैं।
वे इस पर
बैठकर विवाद
करते हैं कि
स्वप्न है या
नहीं! स्वप्न
है, तो
किस प्रकार का
स्वप्न है! और स्वप्न
है, तो
किसको आ रहा
है! और स्वप्न
है, तो
ब्रह्म से
स्वप्न का
क्या संबंध
है! यह स्वप्न
ब्रह्म को आ
रहा है कि
आत्मा को आ
रहा है! अगर
ब्रह्म को आ
रहा है, तो
फिर यह
वास्तविक हो
गया। और अगर
आत्मा को आ
रहा है, तो
यह आत्मा को
शुरुआत इसकी
कैसे हुई? लोग
इसकी चर्चा
में लग जाते
हैं!
अगर
शंकर हों, तो वे
अपना सिर
पीटें।
उन्होंने कहा
था कि थोड़ी
देर के लिए
तुम अपने इस
उपद्रव के
प्रति आंख बंद
कर सको। तो एक
उपाय था कि
तुम्हें कहा
कि यह स्वप्न
है। छोड़ो भी
इसे। थोड़ा और
तरफ भी देखो। आंख
को थोड़ा मुक्त
करो यहां से।
देखने की
क्षमता यहां
से थोड़ी हटे, तो नई
यात्रा पर
निकल जाए।
और
निश्चित ही, जो उस नई
यात्रा पर
निकल जाता है,
उसे लौटकर
यह जगत स्वप्न
मालूम पड़ता है।
लेकिन स्वप्न
इसलिए मालूम
पड़ता है कि अब
सापेक्ष रूप
से उसने जो
जाना है, वह
इतना विराटतर
सत्य है कि
तुलना में यह
बिलकुल फीका
और मुर्दा हो
गया है। उसे
ठीक यह ऐसे ही
स्वप्नवत हो
जाता है, जैसे
आपने कागज के
फूल देखे हों,
और फिर आपको
असली फूल
देखने मिल
जाएं। और तब
आप कहें कि ये
कागज के फूल
हैं। लेकिन
जिन्होंने
कागज के फूल
ही देखे हों, उनको इसमें
कुछ भी अर्थ न
मालूम पड़े, क्योंकि फूल
का मतलब ही
कागज के फूल
होता है, और
तो फूल कोई
होता नहीं!
जिस
दिन हम विराट
को देख पाते
हैं, उस
दिन सीमित
स्वप्न जैसा
फीका, मुर्दा,
बेजान, अर्थहीन
मालूम पड़ने
लगता है।
रिलेटिव, वह
सापेक्ष
दृष्टि है। वह
हमने कुछ और
जान लिया।
जैसे कोई सूरज
को देख ले, फिर
घर में लौटकर
मिट्टी के दीए
को देखकर कहे कि
यह बिलकुल
अंधेरा है।
अंधेरा है
नहीं, क्योंकि
घर में जो
बैठा है, उसके
लिए दीया ही
सूर्य है।
लेकिन जो सूरज
को देखकर लौटा
है, उसे
दीए की ज्योति
दिखाई भी नहीं
पड़ेगी। इतने
विराट को
जिसने जाना है,
दीए की
ज्योति अब
उसकी आंखों
में कहीं पकड़
में नहीं आएगी।
वह कहेगा, दीया
यहां है ही
नहीं। तुम
अंधेरे में
बैठे हो।
यह
सूर्य की
तुलना में है।
सब शब्द
सापेक्ष हैं।
अर्जुन
को जिस क्षण
यह बाहर का
सारा जगत कृष्ण
की तल्लीनता
में स्वप्नवत
हो गया, वह भूल गया
कि मैं कहां
खड़ा हूं। कभी
आप भूले हैं
एकाध क्षण को
कि आप कहां
खड़े हैं? कभी
आप भूले हैं, एकाध क्षण
को, अपनी
पत्नी को, बच्चे
को, घर को, दूकान को, मकान को? कभी
एकाध क्षण को
ऐसा हुआ है कि चौंककर
आपको खयाल हुआ
हो कि मैं कौन
हूं? कहां
खड़ा हूं।
क्या है मेरे
चारों तरफ?
अगर
ऐसा कोई क्षण
आपको आ जाए, तो समझना
कि उसके बाद
अथातो ब्रह्म
जिज्ञासा, उस
क्षण के बाद
ब्रह्म—सूत्र
शुरू होता है।
लेकिन वह क्षण
हमें आता ही
नहीं। हमें सब
पता है कि मैं कौन
हूं। नाम का
पता है। पते
का पता है।
अपने घर का, बैंक बैलेंस
सब पता है।
कौन कहता है
कि नहीं पता
है!
अर्जुन
इस घड़ी में
ऐसी जगह आ गया, जहां उसे
कुछ भी पता
नहीं रहा। वह
भूल ही गया कि
युद्ध होने के
करीब है। थोड़ी
देर में शंख
बजेंगे, युद्ध
में कूद जाना
पड़ेगा। वह
नीति—अनीति, वह क्षुद्र
सब प्रश्न, सब खो गए।
अभी थोड़ी देर
पहले उसे बड़े
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ते थे।
वह मरना—जीना,
अपने—पराए,
वे सब खो
गए। अब उसके
लिए एक ही बात
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ती है, यह
अस्तित्व
क्या है? एक्सिस्टेंस,
यह होना ही
क्या है? तो
कृष्ण को
कहता है, तुम
भी हट जाओ।
मुझे आमने—सामने
सीधा हो जाने दो
मैं एक दफा
सीधा ही देख
लूं क्या है।
यह
योग्यता उसने
अर्जित की
गीता के इस
क्षण तक। जब जीवन
की क्षुद्रता
प्रश्न नहीं
बनती, तभी
जीवन का विराट,
जिज्ञासा
बनता है।
जिसने हमें
चारों तरफ घेर
रखा है अभी और
यहां, समय
के धेरे में, जब अचानक
हमें उसका पता
भी नहीं चलता,
तो वह जो समय
के पार है, हमें
आच्छादित कर
लेता है। जब
क्षुद्र को हम
भूल तो विराट
की स्मृति आती
है।
सब
उपाय धर्म के
क्षुद्र को भूलने
के उपाय हैं।
कहो उसे प्रार्थना
कहो ध्यान, कहो पूजा,
कहो जप; जो
भी नाम देना
हो, दो।
क्षुद्र को भूलने
के उपाय हैं।
और क्षुद्र
भूल जाए, तो
हम उस किनारे पर
खड़े हो जाते
हैं, जहां
से नौका विराट
में छोड़ी जा
सकती है। थोड़ी
देर को भी
क्षुद्र भूल
जाए, तो
कुछ हो सकता
है; कोई नए तल
पर हमारा होना,
कोई नई
दृष्टि, कोई
नया हृदय हम
में धड़क सकता
है। कोई नया
स्वर, जो
भीतर निरंतर
बजता रहा है, सनातन है।
लेकिन हमारे
लिए नया है, क्योंकि हम
पहली दफा
सुनेंगे। वह चारों
तरफ की भीड़, आवाज, शोरगुल,
बंद हो जाए
क्षणभर को,
तो वह भीतर की
धीमी—सी आवाज,
सनातन आवाज,
हमें सुनाई
लगता है।
अर्जुन
भूल गया है।
संसार का
विस्मरण, युद्ध का
विस्मरण, परिस्थिति
का विस्मरण, उसके लिए
ब्रह्म की
जिज्ञासा बन
गई है। और
कृष्ण ने उससे
एक बात भी
नहीं कही। कहा
कि देख।
यह भी
थोड़ा सोच लेने
जैसा है कि
क्या अर्जुन को
अब कुछ करना
नहीं है। कृष्ण
कहते हैं, देख। और
अर्जुन देखना
शुरू कर देगा!
क्या हुआ होगा?
यह बहुत
बारीक है। और
जो अध्यात्म
में गहरे
उतरते हैं, उन्हें समझ
लेने जैसा है।
या उतरना
चाहते हैं कभी,
तो इसे
सम्हाल—सम्हालकर
रख लेने जैसा
है।
वह जो
तीसरी आंख है, दो
प्रकार से
सक्रिय हो
सकती है। या
तो साधक
चेष्टापूर्वक
अपनी दोनों आंखों
की ज्योति को
भीतर खींच ले,
आंख को बंद
करके। वर्षों
की लंबी साधना
है, आंखों
को निज्योंति
करने की।
क्योंकि आंख
से हमारी जो
चेतना बह रही
है बाहर, उसे
आंख बंद करके
भीतर खींच
लेने की। इसको
कबीर ने आंख
को उलटा कर
लेना कहा है।
मतलब है कि
धारा जो बाहर
बह रही थी, वह
भीतर बहने लगे।
आपने कृष्ण
की प्रेयसी
राधा का नाम
सुना है। आपको
खयाल न होगा, वह धारा
का उलटा शब्द
है। कृष्ण के
समय के जो भी
शास्त्र हैं,
उनमें राधा
का कोई उल्लेख
नहीं है। राधा
के नाम का भी
कोई उल्लेख
नहीं है। बहुत
बाद में, बहुत
बाद की
किताबों में
राधा का
उल्लेख शुरू
हुआ।
जिन्होंने
उल्लेख शुरू
किया, वे
बड़े होशियार
लोग थे।
उन्होंने एक
प्रतीक में
बड़ा रहस्य
छिपाकर रखा।
लेकिन लोगों
ने फिर राधा
की मूर्तियां
बना लीं। और
फिर लोग कृष्ण
और राधा बनकर
मंच पर रास—लीला
करने लगे!
राधा
एक यौगिक
प्रक्रिया है।
वह जो जीवन की
धारा बाहर की
तरफ बह रही है, जिस दिन
उलटी हो जाती
है, उस दिन
उस धारा का
नाम राधा हो
जाता है।
सिर्फ शब्द को
उलटा कर लेने
से।
वह जो आंख
से हमारी जीवन—
धारा बाहर जा
रही है, जब भीतर आने
लगती है, तो
वह राधा हो
जाती है। और
भीतर हमारे
छिपा है कृष्ण,
मैंने कहा,
साक्षी। वह
साक्षी, जो
हमारे भीतर
छिपा है, जब
हमारी जीवन—
धारा उसकी
राधा बन जाती
है, उसके
चारों तरफ
नाचने लगती है,
बाहर नहीं
जाती; भीतर,
और रास शुरू
हो जाता है।
उस रास की बात
है।
और हम
नौटंकी कर रहे
हैं, मंच
वगैरह सजाकर।
ऊधम करने के
बहुत उपाय हैं।
उपद्रव करने
के बहुत उपाय
हैं। और आदमी
हर जगह से
उपद्रव खोज
लेता है। और
अपने को भरमा
लेता है, और
सोचता है, बात
खतम हो गई।
राधा
हमारी जीवन—
धारा का नाम
है, जब
उलटी हो जाए, वापस लौटने
लगे स्रोत की
तरफ। अभी जा
रही है बाहर
की तरफ। जब
जाने लगे भीतर
की तरफ, अंतर्यात्रा
पर हो जाए, तब,
तब जो रास भीतर
घटित होता है,
परम रास, वह जो परम
जीवन का अनुभव
और आनंद, वह
जो एक्सटैसी
है, वह जो
नृत्य है भीतर,
उसकी बात है।
तो एक
तो उपाय है कि
हम चेष्टा से, श्रम से,
योग से, तंत्र
से, साधन
से, विधि
से, मैथड
से, सारी
जीवन चेतना को
भीतर खींच लें।
एक उपाय है
साधक का, योगी
का।
एक
दूसरा उपाय है
भक्त का, समर्पित
होने वाले का,
कि वह
समर्पण कर दे।
जिस व्यक्ति
की अंतर्धारा
भीतर की तरफ
दौड़ रही हो, उसको समर्पण
कर दे।
तो
जैसे अगर आप
एक चुंबक के
पास एक साधारण
लोहे का टुकड़ा
रख दें, तो चुंबक की
जो चुंबकीय धारा
है, जो
मैग्नेटिक
फील्ड है, वह
उस लोहे के
टुकड़े को भी
मैग्नेटाइज
कर देता है, उस लोहे के
टुकड़े को भी
तत्काल चुंबक
बना देता है।
ठीक वैसे ही
अगर कोई
व्यक्ति उस
व्यक्ति की तरफ
अपने को पूरी
तरह समर्पित
कर दे, जिसकी
धारा भीतर की
तरफ जा रही है,
तो तत्क्षण
उसकी धारा भी
उलटी होकर
बहने लगती है।
अर्जुन
ने न तो कोई
साधना की अभी।
अभी साधना
करने का उपाय
भी नहीं। अभी
तो यह चर्चा
ही चलती थी।
और अचानक
अर्जुन ने कहा
कि अगर आप
समझें मुझे योग्य, समझें
शक्य, अगर
यह संभव हो, आपकी मर्जी
हो, तो
दिखा दें। और
कृष्ण ने कहा,
देख।
इन
दोनों शब्दों
के बीच में जो
घटना घटी है, वह
मैग्नेटाइजेशन
की है। वह
अर्जुन का यह
समर्पण भाव कि
आप जो कहते
हैं, वह
ठीक ही है, मैं
तैयार हूं; अब मेरा कोई
विरोध नहीं, अब मेरा कोई
असहयोग नहीं;
अब मैं
सहयोग के लिए
राजी हूं; अब
मेरी समग्र
स्वीकृति है! कृष्ण
ने कहा, देख।
इन
दोनों के बीच
जो घटना घटी, उसका कोई
उल्लेख गीता
में नहीं है, हो भी नहीं
सकता। उसका
क्या उल्लेख
हो सकता है! वह
घटना यह घटी कि
समर्पण के साथ
ही, वह जो कृष्ण
की भीतर बहती
हुई धारा थी, अर्जुन की
धारा उसके साथ
भीतर की तरफ
लौट पड़ी। कृष्ण
खो गए और
अर्जुन ने
देखना शुरू कर
दिया।
इस
देखने की बात
हम कल करेंगे।
लेकिन
पांच मिनट
उठेंगे नहीं।
पांच मिनट कीर्तन
करें। वह मेरा
प्रसाद है।
फिर जाएं। कोई
भी उठेगा
नहीं। अपनी
जगह बैठकर
ताली बजाए।
अपनी जगह
बैठकर कीर्तन
में सहयोगी
हों, और
फिर जाएं।
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