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सोमवार, 6 नवंबर 2017

गीता दर्शन-(भाग—4)-प्रवचन-108



जीवन के ऐक्‍स का बोध—अ—मन में—(प्रवचन—आठवां)

गीता दर्शन-(भाग—4)-प्रवचन-108
अध्‍याय9
सूत्र:

तपाम्यहमहं वर्ष निग्ष्टृणान्स्पृउजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चछमर्जुन ।। 19।।
त्रैविद्या मां सोमया: पूतपापा
यज्ञैरिष्टवा स्वग्रतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमामाद्य सुरेन्द्रलस्केम्
अश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ।। 20।।

मैं ही सूर्यरूप हुआ तपता हूं तथा वर्क को आकर्षित करता हूं और वर्षाता हूं। और हे अर्जुनमैं ही अमृत और मृत्‍यु एवं सत और असत भीसब कुछ मैं ही हूं।

परंतु जो तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम क्रमों को करने वाले और सोमरस को पीने वाले एवं पापों से पवित्र हुए पुरूष मेरे को यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति को चाहते हैवे पुरुष अपने पुण्‍यों के फलरूप इंद्रलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगता हैं।


 जीवन है एकअस्तित्व है एकलेकिन मन सभी कुछ तोड़कर देखता है। मन जब तक तोड़ न लेतब तक देख ही नहीं पाता है। मन के देखने की प्रक्रिया में ही जीवन खंड-खंड हो जाता है।

इसे ऐसा समझेंप्रकाश की एक किरण हैउसे एक कांच के प्रिज्‍म से निकालेंतो सात टुकड़ों में टूट जाती हैसात रंगों में विभाजित हो जाती है। प्रकाश की किरण अविभाज्य हैअपने में अखंड है। प्रिज्म के टुकड़े से गुजरकर टूट जाती हैहिस्सों में बंट जाती है।
हमारा मन अस्तित्व की किरण को भी ऐसे ही तोड़ देता है। हमारा मन जहां भी देखता हैवहां पूरे को कभी भी नहीं देख पाता है। बड़ी चीजों की तो बात ही छोड़ देंछोटी-सी चीज को भी मन पूरा देखने में असमर्थ है। एक छोटा-सा कंकड़ का टुकड़ा आपके हाथ में रख दूंतो भी आपकी आखेंआपकी इंद्रियांआपका मन उस टुकड़े को पूरा नहीं देख सकतेएक हिस्सा छिपा रह जाएगा। और जब आप दूसरा हिस्सा देखेंगेतो पहला हिस्सा छिप जाएगा। एक छोटा-सा कंकड़!
उसे भी छोड़ दें। एक धूल कारेत का टुकड़ा अपने हाथ पर रख लें। उसे भी आपकी इंद्रियां पूरा नहीं देख सकती हैंउसे भी तोड़कर ही देखेंगी। एक हिस्सा दिखाई पड़ेगाएक अनदेखा रह जाएगा। जो अनदेखा हैउसका आप अनुमान ही करेंगे कि होगावह दिखाई नहीं पड़ेगा। और ऐसा कभी नहीं कर सकते कि दोनों हिस्सों को आप एक साथ देख लें। एक छोटे-से रेत के टुकड़े के भी दोनों हिस्से एक साथ नहीं देखे जा सकते हैं। जब एक देखेंगेदूसरा ओझल हो जाएगा। तो विराट की तो कठिनाई और भी बढ़ जाती है।
हमारा मन अंश को ही देख पाता है। यह पहली बात ठीक से समझ लें। यदि यह बात ठीक से समझ में आ जाएतो बहुत-सी बातें समझ में आ सकेंगी। और अगर यह बात ठीक से समझ में न आए तो धर्म के बहुत से सूत्र बेबूझ रह जाते हैं। यह बहुत बुनियादी है।
मन की सामर्थ्य ही नहीं है किसी चीज को उसकी पूर्णता में देखने की। मन का स्वभाव ही नहीं है किसी चीज को उसकी पूर्णता में देख लेने का। वैसे हीजैसे आंख चाहे भीतो भी ध्वनि को सुन नहीं सकतीऔर कान चाहे भीतो भी रूप को देख नहीं सकता। कान का स्वभाव नहीं हैआंख का स्वभाव नहीं है कि ध्वनि को सुन सके। आंख देख सकती हैसुन नहीं सकती।
फिर अगर कोई आंख से सुनने की कोशिश करेऔर उसे कुछ भी सुनाई न पड़ेऔर उसे लगे कि जगत् में कोई ध्वनि नहीं हैतो कसूर किसका होगाऔर अगर कोई कान से देखने की कोशिश करेऔर उसे कुछ भी दिखाई न पड़ेऔर वह कहे कि जगत में कुछ भी नहीं हैतो कसूर किसका होगाकान का कोई कसूर नहीं हैक्योंकि कान देख ही नहीं सकता। आंख का कसूर नहीं हैक्योंकि आंख सुन ही नहीं सकती। कसूर उस व्यक्ति का हैजो आंख और कान के स्वभाव को नहीं समझ पा रहा है।
मन के स्वभाव के संबंध में पहली बात कि मन किसी भी वस्तु को उसकी समग्रता मेंटोटेलिटी में नहीं देख सकता है। जब भी देखेगाअंश को देखेगापूर्ण को नहींपहली बात।
आज तक किसी व्यक्ति के मन ने किसी चीज की पूर्णता नहीं देखी है। इसलिए जहां भी मन होगावहां अपूर्ण ही अनुभव होगाअपूर्ण ही दृष्टि होगीअधूरा ही खयाल होगा। इसलिए जो लोग मन से पूरे का निर्माण करते हैंउनका निर्माण काल्पनिक हो जाता हैअनुमान हो जाता है। जो उन्हें नहीं दिखाई पड़ताउसका वे अनुमान करके पूरा कर लेते हैं। जो दिखाई पड़ता हैउसमें उसे भी जोड़ देते हैंजिसको वे सोचते हैं कि होगा। इसलिए मन से निर्मित दुनिया में जितने भी शास्त्र हैंवे सभी व्यर्थ हैंपूर्ण की तरफ ले जाने वाले नहीं है।
और दुनिया में दो तरह के शास्त्र हैं। एक तो वे शास्त्र हैंजो उन लोगों ने कहे हैंजिन्होंने मन को मिटाकर पूर्ण को जाना। और एक वे शास्त्र हैंजो उन लोगों ने कहे हैंजिन्होंने मन को व्यवस्थित करकेशिक्षित करकेअध्ययन सेविचार से,मनन सेचिंतन सेतर्क सेअनुभव से मन को विकसित किया और फिर जगत के संबंध में दृष्टि को लिपिबद्ध किया। फिलासफी और रिलिजनधर्म और दर्शन में यही फर्क है।
धर्म उन लोगों के वक्तव्य हैंजिन्होंने मन को मिटाकर जानाजिन्होंने मन के प्रिज्‍म को तोड़ डाला और अस्तित्व की किरण को सीधा देखा-अविभाज्यबिना बंटा हुआअखंड। और दर्शनफिलासफी उन लोगों के वक्तव्य हैंजिन्होंने मन को खूब विकसित कियाट्रेन कियाप्रशिक्षित कियासमझायासिखायापढ़ायाऔर फिर जगत के संबंध में एक दृष्टि निर्मित की।
इसलिए सबफिलासफीज अधूरी हैंहोंगी ही। कोई और उपाय नहीं है। साक्रेटीज कितनी ही बड़ी बात कहेवह बात मन की ही है। और साक्रेटीज के पास मन का कितना ही विकसित रूप होवह मन ही है। अगर साक्रेटीज यह भी कहे कि ये सातों जो रूप टूट गए हैं किरण केइनको जोड लेने से फिर एक किरण बन सकती हैतो भी वह मन का ही अनुमान है। अरस्तु कितना ही कहेप्लेटो कितना ही कहेकाट और हीगल कितना ही कहेंवे जो कह रहे हैंवह उनके विचार का निष्कर्ष हैअनुभव का नहीं। 1 वे जो कह रहे हैंवह उनका तर्कबद्ध आयोजन हैप्रतीति नहीं। वह उनके मन की ही दृष्टि हैमन से मुक्त उनका साक्षात्कार नहीं। मन से पैदा होती है फिलासफी। मन के पार उठ जाने से जो पैदा होता हैवही धर्म है।
मन जो भी कहेगावह अधूरा होगा। इसलिए मेरा मन जो कहेगा और आपका मन जो कहेगाउसमें मेल होने का कोई भी उपाय नहीं है। मन का कहना करीब-करीब वैसा ही हैजैसा पंचतंत्र की एक पुरानी कथा में हम सब जानते हैंपांच अंधे एक हाथी को अनुभव करते हैं। और वे जो भी कहते हैंवह सभी सच है। जिस अंधे ने हाथी के पैर को छुआ हैउसने कहाकिसी महल के सुदृढ़ स्तंभों की भांति है हाथी। और जिसने हाथी के कानों को छुआउसने कहा कि जैसे स्त्रिया अनाज को साफ करती हैं सूप मेंवैसे सूप की भांति है हाथी!
गलत दोनों ने नहीं कहागलत पांचों ने नहीं कहाऔर पांच हजार अंधे भी इकट्ठे हो जातेतो कोई भी गलत न कहता। वे सभी ठीक कहते। फिर भी उनका ठीक आशिक था। और भूल उनके कहने में नहीं थीभूल उनके विस्तार में थी। जब किसी अंधे ने कहा कि हाथी किसी महल के खंभों की भांति हैतब भूल इसमें नहीं थीजो उसने जाना था। जो उसने जाना थावह उसने पैर जाने थेजो उसने कहावह हाथी के बाबत कहा। जो जाना थावह अंश थाऔर जिसके संबंध में कहावह पूर्ण था। और जब भी कोई अंश को पूर्ण के संबंध में कहता हैतो असत्य हो जाता है।
इसलिए मन परमात्मा के संबंध में जो भी कहेगावह असत्य होगा।
ध्यान रहेवे लोग जो कहते हैंईश्वर है-मन सेउतने ही असत्य होंगेजितने वे लोग जो कहते हैंईश्वर नहीं है-मन से। मन अंश को ही जानता हैऔर मन की इच्छा होती है कि पूर्ण को कह दे कि यही है।
ये पांचों अंधे अगर एक-दूसरे की बात सुनकर चुप रह जाते-पर नहींसंभव नहीं था कि चुप रह जाते! क्योंकि अंधों में कलह अनिवार्य हो गई। क्योंकि जब एक अंधे ने कहा कि हाथी खंभों की तरह हैऔर दूसरे अंधे ने कहा कि हाथी सूप की तरह हैऔर तीसरे ने कुछ और चौथे ने कुछ कहातो उन सबने कहा कि ये सभी सही तो नहीं हो सकते। और मेरा अनुभव सही है,तो निश्चित ही दूसरे लोग गलत हैं।
इसलिए फिलासफीज लड़ती रहती हैंसंघर्ष चलता रहता है। पांच हजार साल में मनुष्य ने बहुत तरह के दर्शनशास्त्रों को जन्म दियावे सब एक-दूसरे से कलह करते रहते हैं। वे कहते हैं कि तुम गलत होहम सही हैं। और जब वे कहते हैंहम सही हैंतो निश्चित ही कारण हैंउनकी प्रतीति है।
वह जो आदमी कह रहा है कि हाथी खंभे की तरह हैवह गलत नहीं कह रहा है। और चूंकि उसे हाथी खंभे की तरह मालूम पड़ता हैवह कैसे मान ले कि हाथी सूप की तरह भी हैये दोनों बातें एक साथ सही कैसे हो सकती हैं?
लेकिन जिनके पास आंख हैवे जानते हैंये दोनों बातें एक साथ सही हैं। हाथी सूप भी हैहाथी खंभा भी हैहाथी और बहुत कुछ भी है। और जितने अंधे आते चले जाएंहाथी उतने ही रूप लेता चला जाएगा।
मन जो भी देखता हैवह सही हैलेकिन आशिक-स्व बात। और इसलिए मन के अनुभव को कभी पूर्ण पर मत फैलाना,अन्यथा वही फाँसीबन जाती है। और मन के अनुभव पर कभी मत कहना दूसरे को गलतक्योंकि दूसरे का मन जो जानता है,वह भी सही हो सकता है।
धर्मों में विवाद नहीं हैहो नहीं सकतासब विवाद दर्शनों का है। और प्रत्येक धर्म जन्मता तो उनके बीच हैजो पंडित नहीं होतेलेकिन हाथ उनके पड़ जाता है अंततःजो पंडित होते हैं। यह दुर्भाग्य हैलेकिन यह भी नियम है।
जब पूगई धर्म का जन्म होता हैतो वह उस आदमी में होता हैजिसका मन खो गया होता एंतब वह पूर्ण को जानता है। लेकिन जब लोग उससे समझते हैंतो वे मन से ही समझेंगेकोई और उपाय नहीं है। अगर मैं कोई ऐसी बात आपसे कहूं जो मैंने मन के पार जानी होतो आपसे जब कहूंगा और आप जब सुनेंगेतो आप मन से ही सुनेंगे। और मन से सुनकर अगर आपने उसे मान लिया या न मानाआपने कोई भी नतीजा लियातो वह नतीजा आशिक होगा। और उस नतीजे पर ही कल मेरी बात के आधार पर कोई निर्माण हो सकता हैकोई शास्त्र बन सकता हैकोई धर्म बन सकता है। वह धर्म अधूरा होगा और झूठा हो जाएगा।
धर्म जब जन्मते हैंतो पूर्ण होते हैं-महावीर मेंकृष्ण मेंया बुद्ध मेंया मोहम्मद में। और जब चलते हैंतो अपूर्ण हो जाते हैं। चलते हैं मन के सहारेअधूरे हो जाते हैं। और अधूरे होते ही दूसरे अधूरे वक्तव्यों से संघर्ष शुरू हो जाता है। मोहम्मद का और महावीर का कोई संघर्ष नहीं है। बुद्ध का और कृष्ण का कोई संघर्ष नहीं है। लेकिन हिंदू और मुसलमान का हैजैन और बौद्ध का है। होगा ही।
जहां मन मिट गया हैवहा सभी वक्तव्यों के भीतर जो छिपा हैवह दिखाई पड़ जाता है। और जहां मन हैवहा एक वक्तव्य सही और शेष गलत मालूम पड़ते हैं। यह मन की पहली अड़चन है कि मन बांटकर देखता है।
दूसरी अड़चनजो इससे भी कठिन हैऔर वह यह है कि मन विरोध में बांटकर देखता है। मन जब भी दो चीजों को तोड़ता हैतो दोनों के बीच विरोध देखता है। जैसे जीवन है। अगर जीवन को मन देखेगातो उसे जीवन में दो हिस्से दिखाई पड़ेंगेजन्म और मृत्यु। और मन कैसे माने कि जन्म और मृत्यु एक ही हैंबिलकुल उलटे हैं। एक कैसे हो सकते हैंकहां जन्म और कहां मृत्युजीवन को बांटेगा मनतो दो हिस्से दिखाई पड़ेंगेजन्म का और मृत्यु का। और दोनों उलटे मालूम पड़ेंगेकट्राडिक्टरीएक-दूसरे के विरोध में। जब भी मन बांटेगातो विरोध में बांटेगा ,-और जीवन अविरोधी हैनान-कंट्राडिक्टरी है। जीवन में कोई तकलीफ ही नहीं है। जन्म और मृत्युजीवन में एक ही चीज के दो नाम हैंएक ही चीज का विस्तार है। जो जन्म की तरह शुरू होता हैवही मृत्यु की। तरह पूर्ण होता है। अगर जन्म प्रारंभ है जीवन कातो मृत्यु उसकी पूर्णता है।
जन्म और मृत्यु में अगर मन को हम बीच में न लाएंतो कोई भी विरोध नहीं है। लेकिन मन को हम बीच में कैसे न लाएं! हमारे पास और कोई उपाय नहीं है। मन ही हमारे पास उपाय है जानने के लिए। जैसे ही मन को हम लाते हैंमन जीवन को दो हिस्सों में तोड़ देता हैएक हिस्सा जन्म हो जाता हैएक हिस्सा मृत्यु हो जाती है। यह मन सभी जगह चीजों को दो में तोड़ देता है। यह कहता हैयह आदमी अच्छा हैवह आदमी बुरा है। सच्चाई बिलकुल उलटी हैअच्छाई और बुराई एक ही चीज का विस्तार है। तो जब हम कहते हैंयह आदमी अच्छा है और वह आदमी बुरा हैया हम कहते हैंयह बात अच्छी है और वह बात बुरी हैतब हमने तोड़ दिया।
बड़ी अड़चन होगी यह मानने में कि अच्छाई और बुराई एक ही चीज का विस्तार है। यह मानने में बड़ी कठिनाई होगी कि साधु और असाधु एक ही चीज के दो छोर हैं। यह मानने में बड़ी कठिनाई होगी कि राम और रावण दुश्मन हैं हमारे मन के कारणअन्यथा अस्तित्व में एक ही लीला के दो छोर हैं।
इसे ऐसा समझेंक्या रामायण संभव है रावण के बिनाअगर संभव होतो रावण को विदा करके सोचने की कोशिश करें। रावण को हटा दें राम की कथा से। और तब आप पाएंगे कि राम के भी प्राण निकल गए! राम के प्राण भी रावण से जुड़े हैं। इधर रावण प्तीरेगातो राम भी गिर जाएंगे। राम भी रावण के बिना खड़े नहीं। रह सकते।
और अगर इतना गहरा जोड़ हैतो विपरीत कहना नासमझी है। अगर इतना गहरा जोड़ है कि राम का अस्तित्व नहीं हो सकता। रावण के बिनान रावण का अस्तित्व हो सकता है राम के बिनातो दोनों को दुश्मन देखना हमारे मन की भूल है। एक खेल के दोनों ' ही हिस्से हैंजिसमें दोनों अनिवार्य हैंजिनमें एक भी छोड़ा नहीं जा सकता।
लेकिन मन तो तोड़कर ही देखेगा। मन कैसे मान सकता है कि राम और रावण एक हैं! कभी भी नहीं मान सकता। मन कहेगाकैसी बात कर रहे होकहां रामकहां रावण! विपरीत हैंतभी
तो इतना संघर्ष है दोनों मेंतभी तो युद्ध है। तब फिर ऐसा देखेंएक को हटा दें।
अगर सच में रावण राम के दुश्मन हैंतो रावण अगर न रहेतो राम और भी खिलकर प्रकट होना चाहिए। अगर रावण सच में ही राम का दुश्मन हैतो रावण के हटते ही राम की प्रतिभा और खिल जानी चाहिए। अगर रावण विरोध में हैतो रावण के हटते ही राम के फूल की सब पंखुड़ियां पूरी खिल जानी चाहिए। क्योंकि विरोधी रोक रहा था खिलावट कोविरोधी दुश्मन था,अड़चन डाल रहा थाअड़चन हट गईअब राम को पूरा खिलना चाहिए।
लेकिन राम को खिलना तो बहुत दूररावण को अगर बिलकुल हटा देंतो राम का आपको पता ही नहीं चलेगा कि वह कभी हुए हैं! उनका पता ही नहीं चलेगा। और यह बात दोनों तरफ लाग है। राम के बिना रावण को भी होने का कोई उपाय नहीं है। अगर यह ऐसा हैतो फिर हमारे देखने में कहीं भूल है। वह जो हम शत्रुता देखते हैंवह हमारी भूल है। कहना चाहिएएक ही चीज के दो छोर हैं। और एक भी छोर दूसरे के बिना नहीं हो सकता। अनिवार्य छोर! तो जब भी राम होंगेतब रावण होगा। और जब भी रावण होगातब राम होंगे। यह युद्ध नहीं हैयह युद्ध हमारे मन की प्रिज्‍म में से गुजरकर दिखाई पड़ता है। जब मन को कोई हटा देगातो पता चलेगाएक ही ऊर्जाएक ही शक्ति दोनों तरफ है। उस शक्ति के बहाव के लिए दोनों उतने ही जरूरी हैं।
ऐसा समझें कि गंगा बहती है दो किनारों के बीच। और हम मान ले सकते हैं कि दोनों किनारे अलग हैं। एक किनारे को हटा दें और फिर गंगा को बहाकर देखेंतब पता चलेगा कि वे दोनों किनारे अलग न थे। और हमें ऐसा भी लग सकता है कि एक किनारे से दूसरे किनारे की प्रतिद्वंद्विता हैकापिटीशन हैऔर एक किनारा दूसरे से मुठभेड़ ले रहा है। और हमें ऐसा भी लग सकता है कि एक किनारा गंगा को अपनी तरफ खींचने की कोशिश में लगा है। लेकिन ध्यान रहेगंगा उन दोनों किनारों के बीच ही चलती है। वे दोनों किनारे गंगा के ही दो छोर हैं। और एक को भी हटाकर दूसरा नहीं बचेगा!
कठिन होगी यह बातऔर हमारी बुद्धि को अति कठिन पड़ेगीक्योंकि हमें सदा तोड़कर देखने में आसानी हो जाती है। राम को अच्छा बना लेते हैंरावण को बुरा बना देते हैंगणित साफ हो जाता है। रावण छोड़ने जैसा हैराम पूजने जैसे हैं। रावण बुरा हैराम अच्छे हैं। बंटाव सीधा हो गयागणित साफ हो गया।
जिंदगी हमारे गणित को नहीं मानती। जिंदगी हमारे गणित के सब हिसाब को अस्तव्यस्त कर देती है। राम इसको भलीभांति जानते हैं। राम को यह भलीभांति पता है। इसलिए संघर्ष गहरा हैलेकिन द्वेष कहीं भी नहीं है। युद्ध प्रगाढ़ हैलेकिन खेल से ज्यादा महत्ता नहीं है। राम को भलीभांति पता है कि वह जो दूसरा छोर हैवह अलग नहीं है। इसलिए लक्ष्मण को भेज देते हैं रावण के पास ज्ञान जानने के लिए।
राम को भी पता है कि मेरा भी जो अनुभव हैवह एक छोर का हैरावण का भी जो अनुभव हैवह दूसरे छोर का है। और ज्ञान पूरा लक्ष्मण का तभी होगाजब वह दोनों छोरों को संयुक्त रूप से जान ले। राम को तो उसने जाना हैउसे रावण के पास भेजते हैं अंत में कि तू उससे भी शिक्षा ले लेवह महापंडित हैवह महाज्ञानी हैउसका भी अपना अनुभव हैउसकी भी अपनी यात्रा हैउसने भी कुछ जाना है दूसरे किनारे सेजो कि अनूठा होगा और तू अधूरा रह जाएगा। तू राम को ही मत जान,रावण को भी जान ले। और दोनों को जानकर तू ज्यादा पूर्ण होगाअनुभव ज्यादा समृद्धज्यादा सघन होगा।
और विपरीत जहां मिल जाते हैंवहां अनुभव पूर्ण हो जाता है। लेकिन हमारा मनहमारा मन ऐसा है कि राम की पूजा करेंगे और रावण को आग लगाएंगे। यह हमारा मन है! मन हमारा ऐसा है कि हम एक को पूजेंगेदूसरे की निंदा करेंगेएक को मित्र मानेंगेदूसरे को शत्रु मानेंगे।
(किसी ने बीच से उठकर मन की परिभाषा पूछी।)
पूछ रहे हैं एक मित्र कि मन की परिभाषा क्या हैतो मन की थोड़ी परिभाषा समझें। अब देखेंजो मैं कह रहा था,पूछते हैंमन की परिभाषा कैसे है?
लेकिन आप उनकी तरफ मत देखें! आप ऐसे देख रहे हैंजैसे उन्होंने बड़ी शत्रुता से पूछा हैवहीं भूल हो जाती है। आवाज जरा जोर की हैलेकिन मित्र की हैऐसा क्या परेशान होना! उनकी तरफ मत देखें।
मन की परिभाषामन का अर्थ होता हैमननविचारचिंतनजो दिखाई पड़ेउसके साथ चिंतन की धारा को जोड़ना। समझेंएक फूल मुझे दिखाई पड़ता है। जहां तक दिखाई पड़ता हैवहां तक मन नहीं आतालेकिन जैसे ही मैं कहता हूं सुंदर है,मन आ गयाजैसे ही मैं कहता हूं सुंदर नहीं हैमन आ गयाजैसे ही मैं कहता हूं बहुत प्यारा हैमन आ गयाजैसे ही मैं कहता हूंबेकार
हैमन आ गया। जब तक दर्शन हैतब तक मन नहीं है। जैसे ही दर्शन के साथ शब्द और विचार जुड़ते हैंमन की गति शुरू हो गई। मन का अर्थ हैविचार कोशब्द को पैदा करने वाला यंत्र।
मन का अर्थ हैविचार को जन्म देने वाला स्रोत। फूल को अगर मैं देखता रहूं और सोचूं नतो मेरी आत्मा और फूल के बीच मिलन होगा। अगर सोचूं  तो मेरी आत्मा और फूल के बीच में एक नई विचारों की श्रृंखला खड़ी हो जाएगीशब्दों का एक जाल खड़ा हो जाएगा। तब मैं फूल को न देख पाऊंगा सीधातब इन शब्दों के पार सेइन शब्दों के भीतर से फूल को देखूंगा। तब फूल के संबंध में जो भी निर्णय मैं लूंगावह फूल के संबंध में नहींमेरे मन के संबंध में है। क्योंकि अगर मैं बचपन से ऐसे घर में बडा हुआ हूंजहां गुलाब को सुंदर समझा जाता हैअगर मुझे बचपन से सिखाया गया है कि गुलाब सुंदर हैतो मेरे मन में विचारों की एक श्रृंखला है गुलाब के संबंध मेंसौंदर्य की। अब अगर गुलाब का फूल मैंने देखा और मेरे मन की धारा खड़ी हुईमेरे विचार खड़े हुएऔर उन्होंने कहाफूल सुंदर हैतो यह मेरी प्रतीति न हुईयह मेरे मन का वक्तव्य हुआ। और मन का वक्तव्य शब्दों का वक्तव्य है। निःशब्द जब कोई होता हैतो मन खो जाता है।
इसका अर्थ यह हुआ कि शब्दों की हमारे भीतर जो प्रक्रिया हैदि वेरी प्रोसेस आफ लैंग्वेज इज माइंड। हमारे शब्दों की जो प्रक्रिया हैहमारे शब्दों का जो संग्रह हैहमारे शब्दों का जो जाल हैवह हमारा मन है। मन हमारे समस्त शब्दहमारी समस्त भाषाहमारे समस्त सोचने की क्षमता का इकट्ठा जोड़ है।
आदमी गैर-मन की हालत में दो तरह से हो सकता है। बेहोश पड़ा होतो भी गैर-मन की हालत में हो जाता है। यह मन से नीचे की अवस्था है। आदमी समाधि में होतो भी मन के बाहर हो जाता है। यह मन से ऊपर की अवस्था है।
इसलिए ऋषियों ने कहा है कि प्रगाढ़ निद्रा में भी आदमी समाधि जैसी अवस्था में पहुंच जाता है। एक ही लक्षण समान हैमन नहीं होता। प्रगाढ़ निद्रा में भी मन नहीं होताक्योंकि विचार खो जाता है। लेकिन विचार तो खो जाता हैहोश भी खो जाता है। समाधि में भी प्रगाढ़ निद्रा की घटना घटती हैमन खो जाता हैलेकिन होश पूरा होता है।
मन हमारे चिंतन का यंत्र है। और इसलिए जितना ही ज्यादा हम इस चिंतन के यंत्र का उपयोग करके जगत को देखते हैंउतना ही जगत बंट जाता है। इस बंटाव में कई कारण हैं। हमारी भाषा चीजों को तोडकर देखती हैक्योंकि मन से निर्मित है। और मन भी चीजों को तोड़कर देखता हैक्योंकि भाषा के पार मन का कोई अस्तित्व नहीं है। यही मैं कह रहा था कि हम जहां भी कुछ देखते हैंवहा तत्काल विपरीत का अनुभव शुरू हो जाता है। अगर हम सौंदर्य देखते हैंतो कुरूप का बोध तत्काल शुरू हो जाता है। क्या आप ऐसा कर सकते हैं कि किसी चीज को सुंदर कहें बिना किसी चीज को असुंदर कहे?
बुद्ध मे महाकाश्यप ने पूछा है। महाकाश्यप एक दिन सुबह बुद्ध के पास पहुंचा हैउनका एक प्रमुख शिष्य है। सूरज उग रहा हैपक्षी गीत गा रहे हैं और महाकाश्यप बुद्ध से पूछता है कि यह जो चारों तरफ फैला हैक्या यह सुंदर नहीं है?
बुद्ध चुप रह जाते हैं। महाकाश्यप की तरफ देखते हैंमुस्कुराते हैंलेकिन बोलते नहीं। महाकाश्यप फिर पूछता है कि क्या मेरे प्रश्न में कोई असंगति हैआप उत्तर क्यों नहीं देते हैं?
बुद्ध फिर चारों तरफ देखते हैंफिर महाकाश्यप की तरफ देखते हैंमुस्कुराते हैं और चुप रह जाते हैं। महाकाश्यप तीसरी बार पूछता है कि इतना ही कह दें कि आप जवाब न देंगे।
बुद्ध फिर चारों तरफ देखते हैं और चुप रह जाते हैं। महाकाश्यप से वे तब कहते हैं कि तू जो पूछ रहा हैउससे तू मुझे बड़ी मुश्किल में डाल रहा है। मुश्किल में इसलिए डाल रहा है कि अगर मैं कहूंयह सब सुंदर हैतो मैं किसको कुरूप कहूं?क्योंकि जब भी सुंदर का उपयोग करेंतो कुरूप की धारणा सुनिश्चित हो जाती है।
और बुद्ध ने कहा कि अब मुझे न कुछ कुरूप रहा है और न कुछ सुंदर रहा हैजो जैसा हैवैसा ही रह गया है। यह मन के बाहर से देखा गया जगत है। कांटा कांटा हैफूल फूल हैगुलाब गुलाब हैचंपा चंपा है। न कुछ सुंदर हैन कुछ कुरूप है। जो जैसा हैवैसा है।
बुद्ध ने कहाजो जैसा हैवह मुझे दिखाई पड़ता है। यह सुंदर है या कुरूपयह मैं कैसे कहूंक्योंकि जिस मन से मैं बांटता थावह खो गया है। मन जो मेरे पास थाजिससे मैं तौलता थावह खो गया है।
समझेंएक तराजू है हमारे पासउससे हम तौल लेते हैंकौन-सी चीज वजनी हैकौन-सी चीज गैर-वजनी है। तराजू खो गया। फिर कोई मुझसे पूछता है कि यह ज्यादा वजनी है या कम वजनी हैमैं अपने हाथ पर रखकर थोड़ा अंदाज कर सकता हूंहाथ से तराजू का काम ले सकता हूं। यद्यपि उतना सुनिश्चित तो नहीं होगातोला-तोलारत्ती-रत्ती नहीं बता सकूंगा;लेकिन फिर भी कह सकता हूं कि यह सेरभर हैयह तीन पाव है! साफ तो नहीं होगा उतना।
लेकिन मेरा हाथ भी टूट गयाअब मेरे पास कोई भी उपाय नहीं हैजिससे मैं इसे नाप लूं। तो अब मैं आंख से ही देखकर अंदाज लगाऊंगा कि यह थोड़ा ज्यादा मालूम पड़ता हैयह थोड़ा कम मालूम पड़ता है। मात्रा देखकर कहूंगा। भूल अब ज्यादा होगी। लेकिन मेरी आंख भी चली गईं। अब मेरे पास कोई भी उपाय नहीं है कि मैं कहूं कि कौन ज्यादा हैकौन कम है! हाथ नहींतराजू नहींआंख नहीं। अब तो मैं यही कहूंगा कि यह यह है और वह वह है। लेकिन मेरे पास वह तौलने का यंत्र नहीं हैजिससे मैं तौल लेता,' बांट लेताकौन कम हैकौन ज्यादा है।
बुद्ध ने कहाजो हैवह है। सूरज उग रहा है। फूल खिल रहे हैं। पक्षी गीत गा रहे हैं। और मैं यहां बैठा सुन रहा हूं। लेकिन वह जो कह सकता था सुंदर और असुंदरवह मौजूद नहीं है। वह खो गया है।
ध्यान का अर्थ हैमन का खो जाना। ध्यान का अर्थ हैभाषा काशब्द काविचार का भीतर से तिरोहित हो जाना।
इसका यह अर्थ भी नहीं है कि जो ध्यान में प्रवेश करेगावह बोल न सकेगा। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि जो ध्यान में प्रवेश करेगावह शब्द का उपयोग न कर सकेगा। सच तो यह है कि वही उपयोग कर सकेगा। लेकिन तब उपयोग उपयोग होगावह मालिक होगा। बुद्ध भी बोल रहे हैंवे कह रहे हैं कि मेरा मन खो गया। शब्द का उपयोग हो रहा हैभाषा का उपयोग हो रहा हैलेकिन बस उपयोग की तरह। जैसे आदमी जब चलता हैतो पैर का उपयोग करता हैजब बैठ जाता हैतो पैर का उपयोग बंद कर देता है।
लेकिन आपका मन पागल हैआप नहीं भी काम लेना चाहते हैं उससेवह काम करता ही चला जाता है। आप कहते हैं,चुप हो जाओवह चुप होता ही नहीं! आप कहते हैंबंद करोमुझे सोना हैऔर वह बंद नहीं होत। और आप कहते हैंठहर जाओयह बात मुझे सोचनी ही नहीं हैऔर वह सोचे चला जाता है। और आप बिलकुल बेबस हैं।
यह आपकी विवशतायह आपकी बेचैनीयह आपकी मजबूरी-आपकी आत्मा की मालकियत खो गई है और मन आपका मालिक है। यह मालकियत मिटेमन नीचे उतरेआप मालिक हो जाएंतो आप जगत को दूसरे ढंग से देखना शुरू करेंगे। यह मैंने क्यों कहायह मैंने इसलिए कहा कि कृष्ण का यह जो सूत्र हैयह आपकी तभी समझ में आ सकेगाजब आप मन और गैर-मनदो ढंग से जगत को देखने की व्यवस्था को समझने में समर्थ हो जाएं।
कृष्ण कहते हैंमैं ही सूर्यरूप हुआ तपता हूं और मैं ही वर्षा को भी आकर्षित करता हूं। मैं ही बरसात। हूं मैं ही वर्षा हूं।
इसे हम ऐसा समझेंआग को और जल को हम सदा विपरीत देखते हैं। अगर आग लगी होतो हम पानी से उसे बुझा देते हैं। और अगर हम पानी में आग लगाना चाहेंतो कोई उपाय नहीं है। आग और पानी हमारे लिए विपरीत हैं। आग की पानी से क्या मैत्रीपानी दुश्मन है।
पर कृष्ण कहते हैंमैं ही हूं आग और मैं ही हूं जलमैं ही भभकता हूं मैं ही बुझाता हूंमैं ही हूं सूर्यजो तपता हैऔर मैं ही हूं वह वर्षाजो आकर्षित होती है सूर्य से।
अगर हम मन का हिसाब छोड़ दें और जरा अस्तित्व को देखेंतो पता चलेगासूर्य ही तो खींचता है सागर से पानी को,सूर्य ही तो बनाता है बादलों कोसूर्य ही तो बरसाता है। तो आग और पानी में जो वैमनस्य हमें दिखाई पड़ता हैवह कहीं न कहीं हमारे मन के कारण ही होगा! वह वैमनस्य राम और रावण जैसा ही है। सूर्य के बिना पानी नहीं हो सकेगा। पानी के बिना सूर्य नहीं हौ सकेगा। वे कहीं बहुत गहरे में संयुक्त और इकट्ठे हैं।
उनके संयुक्त होने की खबर वे देते हैं और कहते हैंहे अर्जुनमैं ही अमृत हूं और मैं ही मृत्यु।
दुनिया में ईश्वर के संबंध में जिन लोगों ने भी सोचा हैउनमें सिर्फ हिंदू दृष्टि ईश्वर के साथ मृत्यु को भी जोड़ती है,बाकी कोई भी नहीं जोड़ता है। पृथ्वी पर जितनी चिंतनाए हैंवे सभी कहती हैं कि ईश्वर जीवन हैलेकिन कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं करता कि ईश्वर मृत्यु भी है। उसका कारण है। वह जो हमारे मन का विभाजन हैउसमें हम कैसे दोनों कहेंकैसे?ईश्वर दोनों कैसे हो सकता है?
लेकिन ईश्वर दोनों हैक्योंकि जीवन दोनों है। हमारे तर्क में न आएतो हमें तर्क छोड्कर देखना चाहिए। लेकिन हमारे तर्क के पीछे जीवन चलने को आबद्ध नहीं है। अगर हम पूछें किसी और सेतो वह कहेगाईश्वर जीवन है। लेकिन ईश्वर मृत्यु हैयह कहने में घबड़ाहट होगी उसे। क्योंकि मृत्यु को हम सोचते हैंवह जीवन के विपरीत है। और जीवन को हम अच्छा और मृत्यु को बुरा समझते हैं।
इसलिए मित्र के लिए हम जीवन की प्रार्थना करते हैंऔर शत्रु के लिए मृत्यु की प्रार्थना करते हैं। चाहते हैं मित्र जीए,और चाहते हैं शत्रु मर जाए। लेकिन हमें पता नहींमर तो वही सकता हैजो जीएगा। और हमें यह भी पता नहीं कि जो जीएगाउसे मरना ही पड़ेगा। तो जब हम किसी की मृत्यु की प्रार्थना करते हैंतब हम उसके जीवन की भी प्रार्थना कर रहे हैं। और जब हम किसी के जीवन के लिए शुभकामना करते हैंतब हम मृत्यु की भी शुभकामना कर रहे हैं। क्योंकि जीवन बिना मृत्यु के हो नहीं सकता हैवे एक ही चीज के दो छोर हैं।
जीवन और मृत्यु बड़े विपरीत छोर हैं। हम सबको ऐसा अब तक लगता रहा होगा कि जीवन को जो समाप्त करती हैवह मृत्यु है। लेकिन वह दृष्टि गलत है। जीवन को जो पूर्ण करती हैवह मृत्यु है। जीवन मृत्यु में जाकर अपने चरम शिखर को छूता है।
इसलिए भारत ने जवानी को बहुत मूल्य नहीं दियावार्धक्य को मूल्य दिया। पश्चिम जवानी को मूल्य देता हैवृद्ध को कोई मूल्य नहीं देता। वृद्ध होना अवमूल्यित हो जाना हैडिवेल्युएशन हो जाता है। आदमी का हुआ पश्चिम में कि डिवेल्युएशन हुआउसका अवमूल्यन हो गया। उसका जो भी मूल्य था जगत सेवह खो गया।
क्योंक्योंकि अगर जीवन और मृत्यु विपरीत हैंतो फिर जवान ही जीवन के शिखर को छूता हैका तो मौत की तरफ जाने लगा। इसे ऐसा समझेंअगर मृत्यु बुरी हैतो का अच्छा कैसे हो सकता हैक्योंकि के का मतलब हैजो मृत्यु में जाने लगा। वह मृत्यु का पथिक हैमृत्यु उसके करीब आने लगी। के का मतलब हैजिससे मृत्यु प्रकट होने लगी। तो फिर जवान शिखर है जीवन का। अगर मृत्यु जीवन के विपरीत हैतो जवानी जीवन होगी। फिर जवानी का मूल्य होगाबूढ़े का अवमूल्यन हो जाएगा
पश्चिम ने मृत्यु को जीवन की समाप्ति समझा हैइसलिए बूढ़ा अनादृत हो गया। इस भाव के साथ बूढ़े का कोई आदर नहीं हो सकता। पूरब ने मृत्यु को जीवन की पूर्णता समझा हैइसलिए बूढ़ा आदृत हुआ। क्योंकि वही चरम शिखर है जीवन का,जवान नहींवृद्ध ही चरम शिखर है जीवन का। और मृत्यु का क्षण सिर्फ अज्ञान के कारण अवसाद का क्षण हैअगर समझ हो,तो उत्सव का क्षण भी हो सकता है।
च्चांगत्से की पत्नी मर गई हैसम्राट उसे दुख प्रकट करने आया हैऔर च्चांगत्से खंजड़ी बजाकर वृक्ष के नीचे बैठा गीत गा रहा है। सम्राट थोड़ा बेचैन हुआ। यह च्चांगत्से बड़ा फकीर थातभी तो सम्राट खुद आया था चलकर कि उसकी पत्नी मर गई है तो उसे जाकर दो शब्द संवेदना के कह आए। लेकिन यहां संवेदना का कोई उपाय ही न था! यह आदमी खंजड़ी बजाकर गीत गा रहा था! संवेदना प्रकट करनी तो दूर रही.।
सम्राट तय करके आया थाजैसा कि सभी लोग तय करके जाते हैंजब कोई मर जाता हैकि क्या कहना! कैसे शुरू करना! कठिन मामला भी है। किसी के घर कोई मर गयाकहा से शुरू करो! क्या कहो! भाषा मुश्किल में पड़ती हैसाहस जवाब देता है।
सब तय करके आया थायह-यह कहूंगाऐसे-ऐसे बात शुरू करूंगाकिसी तरह निपटाकर निकल आऊंगा। लेकिन यहां और मुश्किल बढ़ गईक्योंकि च्चांगत्से खंजड़ी पीट रहा है। सम्राट बिलकुल उदास होकर आया थातैयार होकर आया था।
स्वभावत:दूसरे का जीवन हमें जब प्रफुल्लित नहीं करतातो दूसरे की मृत्यु हमें दुखी क्यों करेगी! और अगर दूसरे का जीवन हमें प्रफुल्लित ही कर पाएतो हम उस स्थिति को जान लेंगेजहां फिर मृत्यु भी दुखी नहीं कर पाती।
सम्राट आया था उदास बाना पहनकर। देखातो रहा नहीं गया। उसने च्चांगत्से से कहा कि महानुभाव! दुख न मनाए,इतना ही काफी है। लेकिन खंजड़ी बजाए और गीत गाएंयह जरा ज्यादा हो गया! दुख न मनाएचलेगाठीक है। लेकिन यह जरा ज्यादा हो गया!
च्चांगत्से ने कहाक्या कहते हैं! जिसके साथ मैंने जीवन के परम आनंद जानेऔर जिसके साथ जीवन की लंबी यात्रा पूरी कीक्या उसके पूर्ण होने के क्षण में मैं गीत गाकर विदा भी न दे सकूं! मगर यह कुछ और ढंग है देखने का। यह मन से देखी गई बात नहीं है। अगर मन से देखी गई होतो मृत्यु दुख का कारण हैजन्म खुशी का कारण है। यह मन के कहीं पार से देखी गई बात हैजहां जन्म और मृत्यु विपरीत नहीं रह जातेजहां दोनों ही एक ही जीवन की धारा के अंग हो जाते हैं। और जहां जीवन मृत्यु और जन्म के बीच की धारा बन जाता हैदोनों किनारे उसी के हो जाते हैं।
तो च्चांगत्से कहता है कि उसकी महापूर्णता के क्षण में मैं उसे गीत गाकर विदा न दे सकुं तो मुझसे ज्यादा अकृतज्ञ कौन होगा?
सम्राट की समझ में नहीं पड़ा होगा। आपकी भी समझ में पड़ना मुश्किल पड़ेगा। लेकिन जिनकी समझ में पड़ जाएवे ही केवल समझदार हो पाते हैं।
प्रयोजन इतना ही है कि जिसे हम विपरीत कहते हैंवह विपरीत नहीं है। विपरीत हमारी भ्रांति है। और जहां-जहां विरोध दिखेवहा-वहा खोजेंगेतो नीचे एकता की धारा मिल जाएगी। कांटा हैगुलाब है। फूल खिला हैकांटा लगा है। आप फूल तोड्ने जाते हैंकांटा हाथ में छिद जाता हैलहू की धार फूट पड़ती है। स्वभावत:आपको लगेगा कि फूल और कांटा दुश्मन हैं। कहां फूलकहां कांटा! गए थे फूल तोड्नेलग गया कांटा!
अगर आप किसी को कांटा भेंट करने जाएंतो वह भी चौंकेगा कि आपका दिमाग तो खराब नहीं हो गया है! भेंट तो फूल किए जाते हैं। कभी देखेंगुलाब के काटे तोड़कर किसी को भेंट करने चले जाएं। फिर दुबारा वह आपको दिखाई भी नहीं पड़ेगा। आपसे बचकर निकलने लगेगा। जिस रास्ते आप गुजरते हैंउस रास्ते नहीं गुजरेगा।
लेकिन फूल और काटे क्या दुश्मन हैंतो फिर जरा गुलाब की शाखा में नीचे उतरें। शाखा में बहती हुई रसधार से पूछें कि यह फूल और यह कांटा क्या अलग- अलग जगह से आते हैं?
वही रस कांटा बनता हैवही रस फूल बनता है। ये दोनों अलग- अलग हमें दिखाई पड़ते होंगेये अपने में अलग- अलग नहीं हैं। और गुलाब के सब कांटे तोड़ डालेंतो फूल भी उदास हो जाएंगेक्योंकि भीतर की रसधार को चोट लगेगी। वही रसधार तो है। और जब गुलाब के फूल तोड़ लिए जाते हैंतो कांटे भी पीडा अनुभव करते हैं। क्योंकि वे तो संयुक्त हैंअस्तित्व इकट्ठा है। मन बांटता हैफिर फूल अच्छे हो जाते हैंकाटे बुरे हो जाते हैं। फिर काटे को कोई भेंट नहीं दे सकताफूल को ही भेंट देना पड़ता है। लेकिन अस्तित्व कांटे और फूल एक साथ उगाए चला जाता है। अस्तित्व एक साथ दोनों को जीवन दिए चला जाता है।
कृष्ण कहते हैंमैं ही हूं अमृतमैं ही मृत्यु हूं।
जब पहली बार भारतीय चिंतन की कुछ झलक भारत के बाहर फैलनी शुरू हुईतो जो सबसे बड़ी हैरानी अनुभव होनी स्वाभाविक थीवह यही थी। सबसे ज्यादा हैरान करने वाला पश्चिम में जो हमारा प्रतीक हैवह महादेव काशिव का है। कभी आपने खयाल नहीं किया होगाक्योंकि न हम देखतेन हम सोचतेन हम खोजते!
आपने देखा हैजगह-जगह सड़क के किनारे एक वृक्ष के नीचे शंकर का शिवलिंग रखा है। कभी आपने खयाल किया कि शंकर मृत्यु के देवता हैंविध्वंस उनके हाथ में है। ब्रह्मा बनाता हैविष्णु सम्हालता हैशंकर विध्वंस में ले जाते हैं। शिव विध्वंस के देवता हैं! लेकिन जो शिवलिंग रखा हैवह फैलिक सिंबल हैवह जननेंद्रिय का सिंबल हैवह सृजन का प्रतीक है। वह जो शिवलिंग हैवह जन्म और जीवन का प्रतीक है। और शंकर देवता हैं विध्वंस केउनके काम जो जिम्मा हैवह है मिटाने का।
बडी हैरानीबड़े पागल लोग थे ये हिंदू! जब पहली दफा पश्चिम में शंकर का यह प्रतीक पहुंचातो उन्होंने कहाये कैसे लोग हैं! विध्वंस का देवता हैजिसे कि दुनिया को नष्ट करना हैऔर यह फैलिक सिंबल है! और यह जननेंद्रिय का सिंबल है,जीवन का प्रतीकजहां से समस्त जीवन जन्मता है और विकसित होता है! यह किस प्रकार का प्रतीक हैयह प्रतीक होना ही नहीं ' चाहिए। यह प्रतीक शंकर के साथ मेल नहीं खाता।
खाता भी नहीं है। अगर हम भी सोचेंगे गणित सेतो मेल नहीं ! खाता। अगर विध्वंस का देवता हैतो कुछ विध्वंस की बात होनी चाहिए थी। यह तो जीवन है। जीवन का प्रतीक चुना है और विध्वंस का देवता है। कारण वही है।
कृष्ण कहते हैंमैं ही अमृत और मैं ही मृत्यु हूं।
ये विपरीत प्रतीक हमें मालूम पड़ते हैंलेकिन भारत ने सदा यह कोशिश की है कि विपरीत के भीतर जो एक धारा है,वह खयाल में आए। इसलिए जानकर विध्वंस के देवता के सामने सृजन का प्रतीक रखा हैजानकरसोचकरबहुत खोजकर। यही प्रतीक उनका प्रतीक हो सकता है। क्योंकि जिसे विध्वंस की अंतिम सीमा छूनी हैउसे जन्म के पहले क्षण में भी उपस्थित होना चाहिए। जिसे मृत्यु का रास्ता बनना हैउसे जन्म का भी द्वार बनना चाहिए। इसलिए दोनों विपरीत-मृत्यु उनका काम,जन्म उनका प्रतीक। यहां भी इतनी ही बात होतीतो भी आसान थाऔर भी कठिन सूत्र है।
कृष्ण कहते हैंएवं सत और असत भी मैं ही हूं।
सत का अर्थ हैजो हैऔर असत का अर्थ हैजो नहीं है। जो हैवह तो मैं हूं हीजो नहीं हैवह भी मैं ही हूं! यह आखिरी कंट्राडिक्यान है। तर्क मेंचिंतन मेंविचार की पद्धति मेंजो है और जो नहीं हैयह सबसे बड़ा विरोध है। होना और न होनायह सबसे बड़ी खाई है। इससे बड़ी कोई भी खाई नहीं हो सकती।
तो कोई मान भी ले सकता हैथोड़ा कल्पना को फैलाए तो मान ले सकता है कि जन्म और मृत्यु जुड़े हैं-चलो एग्रीड;माना। कोई यह भी मान ले सकता है- थोड़ी हिम्मत जुटाएथोड़ी आदतों को तोड़े-कि चलो माना कि राम और रावण की कथा भीएक गिर जाएतो नहीं हो सकेगीकिसी तरह दोनों जुड़े हैंमाना। यह भी माना जा सकता है कि फूल और कांटा जुड़े हैं। लेकिन यह तो बिलकुल नहीं माना जा सकता कि जो हैवह उससे जुड़ा हैजो है ही नहीं! क्योंकि जो है ही नहींउससे जोड़ कैसाजोड़ का तो मतलब ही होता है कि दो चीजें होंतो जोड़ हो सकता है। जो नहीं हैउससे कैसा जोड़?
यह आत्यंतिक खाई हैहोने में और न होने में। न होने और होने के बीच तो हमारा मन बिलकुल ही इनकार कर देगा कि जोड़ बन नहीं सकता। खींच-तानकर राम और रावण के बीच बना लेंखींच-तानकर शत्रु और मित्र के बीच बना लेंखींच-तानकर जन्म और मृत्यु के बीच बना लेंसुंदर-असुंदर के बीच बना लेंप्रकाश-अंधकार के बीच बना लेंलेकिन जो है ही नहीं,दैट व्हिच इज नाटएंड दैट व्हिच इजइन दोनों के बीच क्या जोड़ हैऔर जोड बनेगा कैसे?
दो किनारों के बीच जोड़ हो सकता हैक्योंकि दोनों किनारे हैं। लेकिन एक किनारा है और दूसरा किनारा नहीं हैइनके बीच जोड़ कैसे होगा?
यह सर्वाधिक कठिन मालूम पडेगाऔर मन के लिए सबसे बड़ी चोट भी है। लेकिन इसे समझेंतो समझ में आ सकेगा। इसे हम दो -तीन प्रकार से समझने की कोशिश करें। थोड़ा कठिन हैलेकिन असंभव नहीं कि खयाल में झलक न आ जाए। और खयाल में झलक ही आ सकती हैअनुभव तो खयाल में नहीं आ सकता। झलक आ जाएतो अनुभव की तरफ कदम बढ़ाए जा सकते हैं। थोड़ी मेहनत लें।
एक वृक्ष हैकल नहीं थाआज हैकल फिर नहीं हो जाएगा। तो होना और न होना किसी न किसी तरह जुड़े होने चाहिए। वृक्ष कल नहीं थाआज हैकल फिर नहीं हो जाएगा। तो जो नहीं थावह हो सकाजो हैवह कल नहीं हो जाएगा। आप कल नहीं थेआज हैंकल फिर नहीं हो जाएंगे। नहीं से आते हैंनहीं को लौट जाते हैं। तो वह जो बीच में थोड़ी देर के लिए होना हैवह दो नहीं के बीच में है।
अब इसे हम ऐसा समझें कि दो नहीं किनारे हैं और होना बीच की नदी है। दो नहीं किनारे हैंकल मैं नहीं थाकल फिर नहीं हो जाऊंगाआज हूं। आज मेरे होने की गंगा बहती है। दो मेरे किनारे है'। कल भी '' नहीं थाकल फिर ''नहीं रहूंगा। यह न
मेरे दो किनारे हैंऔर मेरा होना बीच की धारा है। उन दो के बिना मैं नहीं हो सकूंगा। वे दोनों मेरे तरफ मुझे घेरे हुए हैं।
सुबह थीसांझ हो गईरात आ गईफिर सुबह आएगी। कभी आपने देखाहर दिन को दोनों तरफ दो रातें घेरे हुए हैं। हर रात को दोनों तरफ दो दिन घेरे हुए हैं। विपरीत किनारा बना हुआ है। जो भी हैवह दोनों ओर नहीं से घिरा है। और जो भी नहीं हैवह भी दोनों ओर है से घिरा है।
होना और न होना इतने विपरीत नहीं हैंक्योंकि एक-दूसरे में हम बदलते हुए देखते हैं। जो आदमी थावह अब नहीं हो गया। इसका मतलब हुआ कि जो थावह नहीं है में प्रवेश कर जाता हैलिक्विड हैबह सकता हैठोस विभाजन नहीं मालूम होता।
आदमी जवान हैफिर यही जवान का हो जाता है। आप बता सकते हैंकब का हो जाता हैकौन-सी तिथि मेंकौन-सी तारीख मेंकौन-सी समय की सीमा पर जवानी चली जाती है और बुढ़ापा आ जाता है?
नहीं बता पाएंगे। इसका मतलब क्या हुआइसका मतलब यह हुआ कि बुढापा और जवानी दो चीजें नहीं हैंतरल हैं,लिक्विड हैंएक-दूसरे में बह जाती हैं। पता ही नहीं चलताकब जवान का हो गया। कब तक का जवान थायह भी पता नहीं चलता। कब बच्चा जवान होता हैयह भी पता नहीं चलता!
तो जवानी या बुढ़ापा विपरीत दिखाई पड़ते हैंलेकिन एक-दूसरे में बह जाते हैंएक-दूसरे में डोलते रहते हैं। होना और न होना भी इसी तरह एक-दूसरे में डोलता रहता है। अभी बीज हैवृक्ष नहीं है। यह बीज अचानक कल वृक्ष के होने में प्रकट हो जाएगा। तो होनान होनाअस्तित्वअनस्तित्वसत और असत-ये विपरीत हमें दिखाई पड़ते हैंविपरीत नहीं हैं।
इसे हम और एक तरह से देखें।
जो भी चीज है म उसकी संभावना है कि वह नहीं हो जाएगी। ऐसी कोई चीज आप जानते हैंजो नहीं न हो जाएजो भी हैवह नहीं हो सकती है। दैट व्हिव इजकैन बी दैट व्हिच इज नाट। इजकैन बी इज नाट।
(भीड़ में से कोई खड़ा होकर कुछ चिल्लाकर कहता है। भगवान श्री हंसते हुए उसे समझाते हैं और साथ ही सभी लोगों को शांत रहने को कहते हैं। और अपनी बात जारी रखते हैं।)
छोड़िए! अपन अपनी बात शुरू करें।
जो नहीं है और जो हैउन दोनों के बीच कोई अलंध्य खाई नहीं है। वे दोनों एक के ही दो रूप हैं। जो नहीं हैवह है में प्रवेश कर सकता हैजो हैवह नहीं है में प्रवेश कर सकता है। लेकिन हम बांटकर देखते हैंइससे कठिनाई हो जाती है।
आप शांत बैठे हैंएक मित्र अशांत हो गएइतनी देर तक शांत थे। शांति अशांति में चली गई। फिर शांत हो जाएंगे। क्योंकि कितनी देर अशांत रहेंगेजब शांति अशांति बन सकती हैतो अशांति फिर शांति बन जाएगी। इतनी देर मौन से बैठे थे,क्रोध में आ गए। मौन क्रोध बन सकता है। कितनी देर रहेगाजब मौन क्रोध बन सकता हैतो क्रोध फिर मौन बन जाएगा। लेकिन हम विपरीत में एकता को नहीं देख पाते हैंउससे अड़चन हो जाती हैउससे कठिनाई हो जाती है। आप भी शांत बैठे हैं,आपको खयाल भी नहीं आ सकता कि आप भी इसी तरह अशांत हो सकते हैं! बिलकुल हो सकते हैं। क्योंकि अब तक वे भी आप ही जैसे बैठे हुए थे।
वह जो विपरीत हैउसमें हम डोल सकते हैं कभी भीकिसी भी क्षण मेंकिसी भी क्षण में। और मन हमारा बांटकर देखता है। उनके मन को बंटकर दिखाई पड़ गया कि यह हिंदी हैयह अंग्रेजी हैहिंदी होनी चाहिएअंग्रेजी नहीं होनी चाहिए! बांटकर जहां भी हम देखते हैंवहा विपरीत दिखाई पडना शुरू हो जाता है।
अब मजा यह है कि अगर हम भाषाओं के भीतर भी थोड़ा प्रवेश ' करेंतो हम पाएंगे कि एक ही स्वर गूंजता है। सारी दुनिया की भाषाओं में अगर हम थोड़ा-सा गहरे उतरेंतो लगता है कि कोई एक ही भाषा बहुत-बहुत ढंग से बोली गई है। और अंग्रेजी और हिंदी तो भीतर इतनी गहरी जुड़ी हैं कि जिसकी हमें कल्पना नहीं हो सकतीसिस्टर लैंग्वेजेज हैं। संस्कृत से दोनों का जन्म हुआ हैअंग्रेजी का भी और हिंदी का भी। और हिंदी जितनी संस्कृत के करीब हैउतनी ही करीब अंग्रेजी भी है। अगर हम दोनों में थोड़ा प्रवेश करेंतो हमें पता लगेगा कि दोनों के बीच वैपरीत्य नहीं हैएक धारा बह रही है।
हिंदी में आप मां कहते हैंसंस्कृत में मातृ कहते हैंलैटिन और ग्रीक में मैटर हो जाता हैअंग्रेजी में मदर हो जाता है। वह मदर मातृ का ही रूप हैजैसे मां और माता मातृ का ही रूप है। संस्कृत में पितृ कहते हैंपितर कहते हैंहिंदी में पिता कहते हैंअंग्रेजी में वह फादर हो जाता हैपीटरपैटर और फिर फादर हो जाता है।
लेकिन अगर कोई पिता कहेतो हमें लगेगाहमारी भाषा बोलीऔर कोई फादर कहेतो लगेगाकोई विदेशी भाषा बोल दी। नासमझी है। पिता और फादर जिस शब्द से पैदा हुए हैंवह एक है। ये फासले कितने ही हो जाएंइससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है। संस्कृत में जो मूल रूप हैंवे सारी दुनिया की भाषाओं में फैल गए हैं।
इसलिए संस्कृत किसी की भाषा नहीं हैसंस्कृत सब भाषाओं की भाषा है। लेकिन जल्दी हमारा मन करता है और कठिनाइयां खड़ी कर लेता है। मन बांटकर देखता है और बंटकर मुसीबत में पड़ जाता है।
कृष्ण कहते हैंसत भी मैं हूंअसत भी मैं हूं। जो हैवह भी मैं ही हूऔर जो नहीं हैवह भी मैं ही हू। यह सबसे कठीन कोटि हैसबसे कठिन कैटेगरी हैक्योंकि नहीं है को हम सोच भी नहीं पातेलेकिन प्रतिपल घटना घट रही है। जो तारा कल नहीं थावह आज निर्मित हो गया है।
वैज्ञानिक कहते हैंरोज नए तारे निर्मित होते हैं। और जो तारा ' कल थावह आज खो गया है।
आप रात को जब आकाश में तारे देखते हैंतो आप इस भ्रांति में न रहें कि जो तारे आप देखते हैंसब वहां हैं। क्योंकि तारों से प्रकाश आने में करोड़ों-करोड़ों वर्ष लग जाते हैंअरबों वर्ष भी लग जाते हैं। और यह हो सकता है कि वह तारा कभी का मिट चुका हो। लेकिन जब वह थातब उसका प्रकाश चला थाऔर अब आज की रात आपको वह दिखाई पड़ता हैवह प्रकाश। हो सकता हैकरोड़ वर्ष पहले वह प्रकाश चला होवह तारा कभी का मिट गया। लेकिन उसका प्रकाश पृथ्वी तक आने में समय लगता है। वह आज की रात आ पाया। आज की रात वह है नहीं। एक तो पक्की बात है कि उस जगह तो है ही नहींजहां से प्रकाश चला था। जहां आपको दिखाई पड़ेगावहां तो नहीं है। और दूसरी बात भी संभव है कि वह मिट ही गया होअब कहीं हो ही नहीं। फिर भी दिखाई पड़ रहा है।
प्रतिपल चीजें बन रही हैं और मिट रही हैं। बनना और मिटना एक साथ चल रहा है। अगर हम और गौर से देखेंतो बनना और मिटना दो अलग-अलग समय में नहीं घटतेएक ही समय में घटते हैं। जब मैं जवान हो रहा हूं तभी मैं का भी हो रहा हूं। इसीलिए तो पता नहीं चलता कि किस दिन का हो गया। जब मैं जी रहा हूं तभी मैं मर भी रहा हूं। इसीलिए तो पता नहीं चलता कि



 मृत्यु कहां से आ गई। यह मृत्यु कहीं बाहर से नहीं आती। जब मैं जी रहा हूं तभी मैं मर भी रहा हूं।
जब आप एक मकान बना रहे हैंतभी उसका गिरना भी शुरू हो गया। लेकिन यह दिखाई नहीं पड़ताक्योंकि सौ साल बाद गिरेगाहजार साल बाद गिरेगा। गिरने की प्रक्रिया हजार साल में पूरी होगीलेकिन गिरना शुरू हो गया इसी क्षण। बच्चा पैदा हुआ और मरना शुरू हो गया। सत्तर साल बाद पूरी होगी यह प्रक्रिया। सत्तर साल बाद आपको पता लगेगाचाहे आप बचेंगे भी नहीं तब तक। दूसरों को पता लगेगा कि यह आदमी जो सत्तर साल पहले पैदा हुआ थाआज मर गया। लेकिन सत्तर साल पहले जिस दिन जन्मा थाउसी दिन मौत शुरू हो गईमरना शुरू हो गया।
हम रोज जी भी रहे हैं और मर भी रहे हैं। इसका मतलब कि हम रोज हो भी रहे हैं और नहीं भी हो रहे हैंबन भी रहे हैं और मिट भी रहे हैं। यह एक साथ चल रहा है। ये हमारे दो पैर हैंबायां और दायां। जब बायां चलता हैतो दायां रुका मालूम पड़ता हैजब दायां उठता हैतो बायां रुका मालूम पड़ता है। लेकिन बायां इसलिए रुकता है कि दायां उठ जाएदायां इसलिए रुकता है कि बायां उठ जाए। जब आप लगते हैं कि जवान हैंतब बुढ़ापा उठ रहा है। जब आप लगते हैं कि जी रहे हैंतब मौत भी कदम उठा रही है। वे दोनों साथ चल रहे हैं। होनान होनाएक ही अस्तित्व के हिस्से हैं।
कृष्ण कहते हैंदोनों मैं हूं।
परंतु जो तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वालेसोमरस को पीने वाले एवं पापों से पवित्र हुए पुरुष,मेरे को यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति को चाहते हैंवे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप इंद्रलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।
कृष्ण कहते हैंलेकिन.।
इस लेकिन शब्द पर खयाल रखना-परंतु। यह तो उन्होंने जो बात कहीआत्यंतिक हैअल्टिमेट हैआखिरी है। लेकिन लोगवेदों में जो कहा हैउन कर्मों कोयज्ञों कोहवनों कोक्रियाकांडों को करकेअपने को पापों से मुक्त करके स्वर्ग जाने की कामना करते हैंसुख को पाने की कामना करते हैं।
यह परंतु बहुत महत्वपूर्ण है। इसका मतलब यह हुआ कि ऐसे लोग अभी भी स्वर्ग और नर्क को बांटते हैं। इसका अर्थ हुआऐसे लोग अभी भी सुख और दुख को बांटते हैं। ऐसे लोग अभी भी सुख चाहते हैंदुख से बचना चाहते हैं। ऐसे लोग अभी भी मन से ही जी रहे हैं।
सकाम का अर्थ हैमन से जीनाअभी कामना मिटी नहींअभी कामना बाकी है। अगर इस जगत की कामना से ऊब गए हैंतो उस जगत की कामना शुरू हैअगर यहां मकान नहीं बनानातो स्वर्ग में कोई मकान बन जाएइसकी चेष्टा करनी है,अगर यहां धन नहीं जुटानातो कोई पुण्यों की संपदा इकट्ठी हो जाएइसका प्रयास करना है। लेकिन अभी उनकी भाषा नहीं बदलीअभी उनका सोचने का ढंग नहीं बदलाअभी उनकी दृष्टि नहीं बदलीअभी उनका ढाचा वही है।
फिर भीऐसे लोग अपने को पापों से छुड़ाते हैंपुण्य करते हैंबुरा नहीं करतेभला करते हैंवेदविहित कर्म करते हैं;पूजायज्ञहवन करते हैं। इन पुण्यों के फलस्वरूप इंद्रलोक को प्राप्त होकर वे स्वर्ग में दिव्य देवताओं के सुखों को भोगते हैं,लेकिन मुझे उपलब्ध नहीं होते।
मुझे तो वही उपलब्ध होगाजिसे स्वर्ग और नर्क में भेद न रहा। मुझे तो वही उपलब्ध होगाजिसे पुण्य और पाप में भेद न रहा। मुझे तो वही उपलब्ध होगाजिसे मृत्यु और जीवन एक हुए। मुझे तो वही उपलब्ध होगाजो चुनाव ही नहीं करता। जो नहीं कहतायह छोडूंगावह पाऊंगायह नहीं चाहिए वह चाहिएऐसा जो चुनाव ही नहीं करतावन हू हैज बिकम च्चाइसलेस,जो बिलकुल चुनावरहित हो गयाजिसके मन में कोई विकल्प न रहा। जो कहता हैजो भी हैराजी हूं। दुख हैतो दुख से राजी हूंसुख नहीं चाहिए। सुख हैतो सुख से राजी हूंसुख के त्याग की भी चिंता नहीं करता हूं। जीवन हैतो धन्यवाद। और मृत्यु आएतो स्वागत। और नर्क में डाल दोतो भी तुम्हीं को देखता रहूंगाऔर स्वर्ग में भेज दोतो भी तुम्हीं मेरे सुख हो।
जो ऐसा हुआवह तो मुझे उपलब्ध होता है। लेकिन इसके पहले वे कहते हैंपरंतु ऐसे लोग भी हैंजो शायद इतनी निर्द्वंद्वइतनी द्वंद्वातीतइतनी अद्वैत की दृष्टि को न पा सकेंवे लोग भी इंद्रलोक को तो पा ही सकते हैंस्वर्ग को तो पा ही सकते हैं।
स्वर्ग का मतलब हैजो कम बुरा करेगाकम पाप करेगाकम दूसरों को दुख पहुंचाएगावह ज्यादा सुख पा सकता है-आनंद नहींध्यान रखना! इसके भेद को ठीक से समझ लेना जरूरी होगाआनंद नहींसुख पाएगा।
आनंद है सुख और दुख दोनों के पार। आनंद वह पाता हैजिसके सुख और दुख दोनों की दृष्टि खो जाती है। आनंद तीसरी बात है। आनंद सुख नहीं है। जैसा कि आमतौर से लोग समझते हैं कि आनंद सुख का ही परम रूप है। बिलकुल नहीं है। आनंद का सुख से उतना ही लेना-देना हैजितना दुख से। आनंद न दुख हैऔर न आनंद सुख है। इसलिए सुख दुख के विपरीत हैदुख सुख के विपरीत है। जिसको विपरीतता दिखाई पड़ रही हैवह सुख दुख में घूमेगा।
कृष्ण अगले सूत्र में कहते हैं कि यह स्वर्ग भी मिल जाएतो फिर लौटकर आना पड़ेगा। क्योंकि फिर दुख में आना पड़ेगा। जो सुख में गया हैउसे दुख में आना ही पड़ेगा। द्वंद्व में जिसने विभाजन किया हैवह एक से दूसरे में जाएगा। जिसने जन्म को पकड़ाउसे मरना ही पड़ेगा। जिसने सुख को पकड़ापकड़ते ही दुख में जाना शुरू हो गया।
कृष्ण कहते हैंउसे तो लौट आना पडेगा। उसने अच्छे कर्म किएउसने सदभाव रखेउसने धार्मिक जीवन जीयावह स्वर्ग तक पहुंच सकता है। सुख के आखिरी छोर को छू लेगालेकिन छूते ही लौटना शुरू हो जाएगा।
जैसे घड़ी का पेंडुलम जाता है बाएं तरफआखिरी छोर पर पहुंच जाता है। पहुंचते से ही वापस यात्रा शुरू हो जाती है। दाएं तरफ जाने लगता है।
ठीक ऐसे ही सुख का आखिरी बिंदु आ जाएगा। फिर यात्रा शुरू हो जाएगी वापसी। क्योंकि द्वंद्व में कोई मुक्ति नहीं है। वह वापस लौट आएगा। उसके कर्म चुक जाएंगे और वह वापस जमीन पर खड़ा हो जाएगा। मुझे नहीं पा सकेगा।
मुझे तो वही पा सकेगाजो सत में और असत मेंस्वर्ग में और नर्क मेंपाप में और पुण्य मेंदोनों में ही बिना किसी भेद- भाव के मुझ को ही देख लेता है। फिर कोई उपाय न रहाफिर टूट गया पेंडुलम। फिर उसकी कोई यात्रा न रहीकोई मोमेंटम न रहा।
कृष्ण का सारा संदेश इस सूत्र में है कि द्वंद्व न दिखाई पड़े। लेकिन मन हैतो द्वंद्व दिखाई पड़ेगा ही। तो इस सूत्र का मतलब हुआमन न रहेनो माइंडअ-मन पैदा हो जाए। तो ही हम जीवन के ऐक्य को देख पा सकते हैं। ऐक्य ही मुक्ति है और ऐक्य ही आनंद।
आज इतना ही।
लेकिन पांच मिनट रुके। कीर्तन में सम्मिलित हों और फिर जाएं। कोई बीच में न उठे।

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