गीता दर्शन-(भाग-04)-प्रवचन-093
अध्याय ८
चौथा प्रवचन
भाव और भक्ति
प्रयाणकाले मनसाचलेन
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।। १०।।
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।। ११।।
वह भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य में
प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ
उस दिव्य स्वरूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है।
और हे अर्जुन, वेद के जानने वाले जिस परम पद को
(अक्षर) ओंकार नाम से कहते हैं और आसक्तिरहित यत्नशील महात्माजन जिसमें
प्रवेश करते हैं, तथा जिस परमपद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का
आचरण करते हैं, उस परमपद को तेरे लिए संक्षेप में कहूंगा।
अंतिम
क्षण समस्त जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षण है। क्योंकि वही आगे की जीवन की
यात्रा का बीज है। अंतिम क्षण में हम अपने जीवन का सब कुछ सिकोड़ कर पुनः इकट्ठा कर
लेते हैं, नई यात्रा के लिए। अंतिम क्षण में वह सब संगृहीत हो जाता है, जिसके सहारे आगे की यात्रा होती है।
ठीक
से समझें, तो जब कोई जन्म लेता है, तो जन्म का क्षण प्रारंभ
नहीं है। क्योंकि जन्म में तो वही बीज अंकुरित होता है, जो
पिछली मृत्यु में संगृहीत हुआ था। ठीक प्रारंभ का क्षण मृत्यु का क्षण है। उस समय
बीज बनता है। फिर वृक्ष तो जन्म से शुरू होता है, अंकुरित
होता है और यात्रा पर जाता है।
जो
नहीं जानते, वे जन्म को प्रारंभ कहते हैं। जो जानते हैं, वे
मृत्यु को ही प्रारंभ कहते हैं। एक अर्थ में मृत्यु दोनों है। पिछले जन्म का अंत
है और नए जन्म का प्रारंभ है। शायद सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षण है। क्योंकि इसी समय
अगर हम छलांग ले सकें; संसार की तीव्रता से घूमती हुई जो
विक्षिप्त दशा है, जो वर्तुल है पागल; अगर
मृत्यु के क्षण में हम छलांग ले सकें उसके बाहर, तो उससे
ज्यादा सरलता से छलांग और कभी नहीं ली जा सकती। क्योंकि मृत्यु के क्षण में शरीर
छूटता है। अगर आप शरीर के छूटने के साक्षी बन सकें, मोही
नहीं, तो आप उस अशरीरी का अनुभव कर सकते हैं, जिसे शरीर में रहते हुए अनुभव करना कठिन मालूम पड़ता है।
नया
जन्म प्रारंभ नहीं हुआ;
पुराना समाप्त हो रहा है। बीच की उस संधिकाल घड़ी में यदि प्रभु का
स्मरण हो, तो चेतना की यात्रा संसार को छोड़कर ब्रह्म की ओर
शुरू हो जाती है।
इसलिए
कृष्ण यहां अर्जुन को उस अंतिम क्षण में क्या किया जा सकता है और उस अंतिम क्षण
में स्मरण करता हुआ पुरुष कैसी यात्रा पर निकल जाता है, उसकी बात
कह रहे हैं।
कृष्ण
कहते हैं, वह भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को
अच्छी प्रकार स्थापन करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ
उस दिव्य स्वरूप को ही प्राप्त होता है।
इसमें
बहुत-सी बातें समझने जैसी हैं।
भक्तियुक्त
पुरुष! भक्ति क्या है और भक्तियुक्तता क्या है? मनुष्य की चेतना में विचार की एक
क्षमता है। एक और क्षमता है, भाव की। विचार उपकरण है संसार
में गति का; भाव उपकरण है संसार के पार गति का।
मनुष्य
की चेतना की दो क्षमताएं हैं। एक, विचार की। विचार की क्षमता संसार के लिए उपयोगी
है। संसार में विचार के बिना एक कदम भी चलना असंभव है। लेकिन ठीक ऐसे ही एक और
क्षमता है, भाव की। उस भाव की क्षमता के बिना एक कदम भी
परमात्मा की तरफ चलना मुश्किल है।
लेकिन
एक बड़ी भूल हो जाती है। चूंकि संसार में हम विचार के सहारे चलते हैं, जीवन का
अनुभव अनेक जीवन का अनुभव, विचार का ही अनुभव होता है। और
हमारा यह भी अनुभव होता है कि जितना हम विचार करते हैं, उतनी
ही सफलता मिलती है संसार में। अनंत-अनंत जीवन का निचोड़ यह बन जाता है कि बिना
विचार किए कोई सफलता ही नहीं है। और बिना विचार किए भटक जाने का डर है। तो फिर हम
परमात्मा की तरफ भी अगर कभी चलते हैं, तो उसी विचार के उपकरण
को लेकर चलते हैं--भटक न जाएं इसलिए, असफल न हो जाएं इसलिए।
और
जिसे हम समझते हैं,
सफलता का साधन, वही असफलता का कारण बन जाता
है। और जिसे हम समझते हैं कि भटकाव से बच जाएंगे, वही भटकाव
है। क्योंकि जो उपकरण संसार में काम करता है, वह परमात्मा की
तरफ काम नहीं करता है। जैसे कोई व्यक्ति कान से देखने की कोशिश करने लगे और आंख से
सुनने की कोशिश करने लगे और मुश्किल में पड़ जाए, वैसा ही वह
व्यक्ति भी मुश्किल में पड़ जाता है, जो भाव से संसार में
चलने लगे, विचार से परमात्मा में चलने लगे।
लेकिन
भाव से संसार में चलने की भूल कोई भी नहीं करता है। और अगर कोई करता भी है, तो एक दो
कदम पर ही समझ जाता है कि भूल हो गई, कदम वापस लौटा लेता है।
लेकिन परमात्मा की तरफ चलने में विचार के सहारे चलने की भूल सौ में निन्यानबे लोग
करते हैं। और कदम भी नहीं लौटाते। क्योंकि इतनी गहरी यह धारणा है हमारी कि बिना
विचार के तो एक कदम भी ठीक चला नहीं जा सकता, गलती हो ही
जाएगी। यह सच है, लेकिन आयाम, डायमेंशन
संसार का और है और परमात्मा का और है। इन दोनों के आयाम को ठीक से समझ लें,
तो भक्तियुक्त पुरुष समझ में आ जाएगा कि क्या है।
विचार
है तर्क की प्रतिक्रिया। विचार है चिंतना का मार्ग। विचार है विश्लेषण की विधि।
यदि किसी चीज को नियम में लाना हो, तो विचार और तर्क जरूरी है। बिना
तर्क के कोई नियम निर्धारित नहीं होता। यदि किसी विचार को प्रबल बनाना हो, तो चिंतन, निरंतर चिंतन के द्वारा ही वह प्रबल होता
है। यदि गलत विचार को अलग करना हो, तो तर्क के अतिरिक्त कोई
उपाय नहीं है। अगर ठीक विचार की खोज करनी हो, तो तर्क की ही
छैनी से काट-काटकर ठीक विचार को बचाया जा सकता है, खोजा जा
सकता है। यदि किसी चीज को तोड़कर उसका निरीक्षण करना हो, तो
विश्लेषण के सिवाय कोई उपाय नहीं। तोड़ो, जांचो, परखो।
और
इसीलिए विचार विज्ञान का जन्मदाता बन जाता है। और इसीलिए विचार जीवन के व्यवसाय का
वाहन है। और इसीलिए विचार अंतर्यात्रा का मार्ग नहीं है। क्यों? क्योंकि
भीतर के उस जगत में, उस परमात्मा की खोज में जो जा रहा है,
वह किसी वस्तु का विश्लेषण करके नहीं जा सकेगा। क्योंकि विश्लेषण
करते से ही चीजें मर जाती हैं।
यदि
हम एक व्यक्ति की जांच भी करते हैं शरीर की, तो अभी-अभी विज्ञान को भी अनुभव
होना शुरू हुआ है कि हम भूल कर रहे हैं। एक चिकित्सक है। अगर मेरा शरीर बीमार है,
तो वह मेरे खून की जांच करता है शरीर से खून को निकालकर। लेकिन शरीर
से निकलते ही खून डेड हो गया, मुर्दा हो गया। मेरे शरीर के
भीतर उसकी जो आर्गेनिक, जीवंत स्थिति थी, वह शरीर के बाहर निकलते ही नहीं रह गई। मेरी आंख है; मेरे शरीर के भीतर जीवंत आंख की जो स्थिति है, आंख
को बाहर आपने निकाल लिया, तो आपको धोखा भला हो कि यह वही आंख
है। यह वही आंख नहीं है, क्योंकि अब यह देख नहीं सकती। और जो
देख नहीं सकती, उसको आंख कौन कहेगा? सिर्फ
दिखाई पड़ती है कि आंख है। अब यह एक मुर्दा चीज है। अब इस मुर्दा चीज की जांच होगी
और हम जांच करना चाहते थे जीवंत की; भूल हो जाएगी।
हम
जो भी विश्लेषण करके जांच पाते हैं, वह हमेशा मुर्दा होता है। इसलिए
चिकित्सक आत्मा को कभी भी नहीं खोज पाता। आत्मा को खोजने का कोई डायग्नोसिस का
रास्ता भी नहीं है, कोई निदान भी नहीं है। तो चिकित्सक जितनी
ही खोज करता है, उतनी ही मुर्दा चीजें भीतर पाता है। आखिर
में वह पाता है कि आदमी सिवाय पदार्थ के जोड़ के और कुछ भी नहीं है। आत्मा चूक जाती
है।
विश्लेषण
के द्वारा, काटने के द्वारा, खंडन के द्वारा, हम केवल मुर्दा, मृत पदार्थ को ही जान सकते हैं।
इसीलिए विज्ञान पदार्थ से संबंधित दिशाओं में बहुत सफल हुआ है, लेकिन चेतना से संबंधित दिशाओं में बिलकुल भी सफल नहीं हुआ है। असल में
चेतना का कोई विज्ञान नहीं बन सका है अब तक। शायद बन भी नहीं सकेगा। क्योंकि विचार
उसका मार्ग नहीं है। अगर जीवन को जानना है, जीवंत, तो भाव उसका मार्ग है।
विचार
तोड़ता है, तब जांचता है। भाव जोड़ता है, तब जांचता है। विचार
पहले चीजों को तोड़ता है, फिर उनके भीतर प्रवेश करता है। भाव
पहले किसी से जुड़ जाता है और फिर भीतर प्रवेश करता है। एक तो फिजियोलाजिस्ट की,
शरीरशास्त्री की जानकारी है कि वह आपके शरीर को काट-काटकर बता देगा
कि भीतर क्या है, क्या नहीं है। एक प्रेमी की भी जानकारी है,
वह भी जिसे प्रेम करता है, तो वह भी उसके संबंध
में बहुत कुछ जान लेता है। लेकिन वह जानना प्रेमी को काटकर नहीं होता, प्रेमी से जुड़कर होता है।
भाव
प्रेम का ही मार्ग है। वहां हम, परमात्मा है या नहीं, इसे
तर्क से जानने नहीं जाते, इसे भाव से जुड़कर जानने की चेष्टा
करते हैं।
निश्चित
ही, तोड़ने की जो विधि है, वह जोड़ने की विधि नहीं बन
सकती। इसलिए विचार प्रभु की तरफ ले ही नहीं जाता। और इसलिए दुनिया जितनी तथाकथित
रूप से विचारवान होती जाती है, उतनी परमात्मा से वंचित होती
चली जाती है।
इधर
पांच हजार वर्षों में हमने आदमी को विचार करने में बड़ा कुशल बना लिया है, लेकिन भाव
करने की कुशलता बिलकुल खो गई है। मंदिर-मस्जिद सब मुर्दा हैं आज। पूजा-प्रार्थना
सब सड़ गई है। कारण है। क्योंकि भाव की जिस क्षमता से मंदिर जीवित होता था, और भाव की जिस धारा से मस्जिद प्राणवान थी, और भाव
के जिस प्रवाह से प्रार्थना में गति आती थी, खून बहता था,
और भाव के जिस स्पंदन से पूजा के हृदय की धड़कन धड़कती थी, वह भाव ही खो गया है। और भाव का कोई प्रशिक्षण नहीं है।
भाव
के प्रशिक्षण का नाम ही भक्ति की साधना है। और भाव में जो प्रशिक्षित हो गया, वही भक्त
है। जिसने विचार को छोड़ा और भाव को जीया। और जिसने कहा, हम सोचेंगे
नहीं, भावेंगे। हम प्रश्न न पूछेंगे, हम
प्रेम करेंगे। हम काटेंगे नहीं, हम जुड़ जाएंगे और जानना
चाहेंगे कि क्या है।
एक
फूल को तोड़कर भी देखा जा सकता है--विज्ञान वैसे ही देखता है, विचार
वैसे ही देखता है--फूल को तोड़कर देखा जा सकता है। तोड़ लें फूल को, तो पता चल जाता है, किन केमिकल्स से, किन रासायनिक तत्वों से मिलकर फूल बना है। कितना खनिज है उसमें; कितनी मिट्टी है; कितना पानी है; कितनी सूरज की किरण है। सब बांट-छांटकर आपको पता चल जाता है। लेकिन जब तक
आप छांटकर, बांटकर पता लगाने तक पहुंचते हैं, तब तक आप एक बात भूल गए, फूल कभी का खो चुका है। फूल
वहां नहीं है। और फूल का जो सौंदर्य का अनुभव था, वह इस
कटे-छंटे, एनालाइज्ड फूल के टुकड़ों से मिलने वाला नहीं है।
अगर
आप अब इस फूल की अलग-अलग टेस्ट-टयूब में, परखनलियों में रखी हुई रासायनिक
लाश को किसी कवि को दिखाएं और कहें कि अब कविता करो फूल की, क्योंकि
तुम जिस फूल को देखते थे, उससे बहुत ज्यादा जानकारी अब इस
परखनली में कैद है! कोई कविता पैदा न होगी। क्योंकि वहां कोई फूल ही नहीं है। अब
कहें किसी सौंदर्य के प्रेमी को कि गाओ गीत। नाचो इस फूल के आस-पास। क्योंकि तुम
जिस फूल के पास नाच रहे थे, वह निपट अज्ञान से घिरा था।
तुम्हें कुछ पता ही नहीं था। अब फूल के बाबत सब कुछ पता है। अब तुम ज्यादा अच्छा
गीत गा सकोगे!
यह
नहीं होगा; गीत का जन्म नहीं होगा। क्योंकि फूल को जानने का जो ढंग है--फूल को,
फूल की विषय-वस्तु को नहीं; फूल की देह को नहीं,
फूल के प्राण को जानने का जो मार्ग है। फूल की देह को जानने का तो
यही मार्ग है, क्योंकि देह मृत है। लेकिन फूल के प्राणवान,
वह जो फूल के भीतर लपट है भागती हुई जीवन की, वह
जो फूल के भीतर सौंदर्य का खिलाव है, वह जो इस फूल में
परमात्मा झलका है, अगर उसे जानना है, तो
फूल के पास बैठकर अति प्रेम से डूबे हुए, अति प्रेम में लीन,
किसी भाव-लोक में प्रवेश करना होता है।
और
यह बड़े मजे की बात है। जब आप विचार से किसी चीज को सोचते हैं, तो जिसे
आप सोचते हैं, वह नष्ट हो जाता है, आप
बचे रहते हैं। और जब भाव से आप किसी चीज को जोड़ते हैं, तो
फूल तो बच जाता है, थोड़ी देर में आप खो जाते हैं।
विचार
से जब किसी चीज की तरफ जाते हैं, तो विचार आक्रामक है, एग्रेसिव
है, हिंसात्मक है, वह तोड़-फोड़कर रख
देता है। आप तो बच जाते हैं, चीज टूट-फूट जाती है। वैज्ञानिक
के आस-पास इसी तरह टूटी-फूटी मुर्दा चीजों का फैलाव है, कबाड़खाना
है। सब मरा हुआ है उसके आस-पास; सिर्फ वैज्ञानिक जिंदा है।
वह भर बैठा है बीच में, बाकी सब कबाड़खाना है उसके आस-पास
मुर्दा चीजों का।
एक
कवि भी होता है कहीं किसी फूल के पास बैठा हुआ, एक प्रेमी भी होता है कहीं। तब एक
दूसरी घटना घटती है। उसके पास चांदत्तारे होते हैं--बहुत मुखर, बहुत जीवित--लेकिन कवि खो गया होता है। वह नहीं होता वहां।
रवींद्रनाथ
से कोई पूछता था कि इतने अच्छे गीत तुमने लिखे! रवींद्रनाथ, तुम कभी
असफल भी हुए हो? तो रवींद्रनाथ ने कहा, जब-जब मैं रहा, तभीत्तभी असफल हुआ। जब-जब मैं मिटा,
तभीत्तभी सफलता थी। अगर गीत लिखते वक्त मैं मिट गया, तो सफल हुआ; और अगर गीत लिखते वक्त मैं बना रहा,
तो कभी सफल नहीं हुआ।
अब
अगर वैज्ञानिक,
विचार करने वाला अगर मिट जाए, टूट जाए,
खो जाए, न रह जाए...। कभी-कभी कोई वैज्ञानिक
भी प्रयोगशाला में खो जाता है। जब वह खो जाता है, तब वह
वैज्ञानिक नहीं है, तब वह कवि हो जाता है। और अक्सर
वैज्ञानिक भी कवि होकर ऐसे गहरे हीरे खोज लाता है, जो
वैज्ञानिक होकर उसने कभी भी नहीं खोजे। और कभी-कभी कवि भी नहीं खोता, फूल ही खो जाता है, तब वह कवि नहीं होता, तब वह वैज्ञानिक ही हो जाता है। तब फूल के संबंध में वह जो भी खोजकर लाता
है, वह काव्य नहीं होता, मुर्दा
तुकबंदी होती है।
यह
जो भाव है हमारे भीतर,
इस भाव को परमात्मा की ओर प्रवाहित करने का नाम भक्ति है।
लेकिन
हम परमात्मा के पास भी विचार को लेकर पहुंच जाते हैं। हम अपना पूरा तर्कशास्त्र
साथ लेकर पहुंच जाते हैं। हम अपनी सब पोथी विचार की साथ ही ढोते हैं। और हमें मौका
मिले, तो हम परमात्मा को भी चीर-फाड़ करके, शल्यक्रिया करके,
सर्जरी करके, ठीक से उसकी जांच करके, बच्चों के पढ़ने के लिए स्कूल की किताब में लिखना पसंद करें।
लेकिन
इस विचार को ढोने वाले आदमी को उससे कभी मिलना नहीं हो पाता, इसलिए
उसकी शल्यक्रिया नहीं कर पाते। नहीं तो बहुत लोग परमात्मा का पोस्टमार्टम करने को
इतने उत्सुक हैं! मिल भर जाए कहीं उसकी लाश, तो वे
पोस्टमार्टम कर लें! परमात्मा में उनकी उत्सुकता नहीं है; उनकी
उत्सुकता अपने विचार और अपने सिद्धांतों में है।
मुल्ला
नसरुद्दीन अपने गांव में बुजुर्ग आदमी था, तो कभी-कभी लोग उससे दवा भी पूछ ले
जाते थे। गांव का बुजुर्ग था, कुछ दवाएं जानता था।
एक
संदेहशील आदमी उसके पास आया और उसने कहा कि मुल्ला, दवा तो तुम्हारी लेता हूं,
लेकिन अब चिकित्सकों का कोई भरोसा नहीं रहा। मेरा एक मित्र था,
चिकित्सक उसका निमोनिया का इलाज करता रहा और आखिर में जब वह मरा,
तो पोस्टमार्टम में पता चला कि वह टी.बी. का बीमार था!
मुल्ला
ने कहा, बेफिक्र रहो, जब मैं निमोनिया का इलाज करता हूं,
तो आदमी हमेशा निमोनिया से ही मरता है! और अब तक हर पोस्टमार्टम की
रिपोर्ट में मैं सही सिद्ध हुआ हूं। तुम बेफिक्र रहो। अगर मेरी दवाई से मरोगे,
तो निमोनिया से ही मरोगे। ऐसा कभी नहीं होता है कि कोई दूसरी बीमारी
से मर जाता हो।
विचारवादी
उत्सुक है अपने विचार में। वह कहता है कि अगर मैंने कहा कि निमोनिया है, तो
निमोनिया से ही मरोगे। और अगर नहीं मानते, तो पोस्टमार्टम की
रिपोर्ट सिद्ध करेगी कि निमोनिया से ही मरे। न तुमसे उसे प्रयोजन है--विचार को
अपने अहंकार से प्रयोजन है। इसलिए विचार के आस-पास जो लोग घूमते रहते हैं, वे अहंकार के आस-पास घूमते रहते हैं। और अहंकार से परमात्मा का क्या
लेना-देना है!
ध्यान
रहे, भाव की दशा में अहंकार नहीं बचता। भाव का कोई अहंकार नहीं है। क्यों?
क्योंकि अहंकार पैदा होता है दूसरों के संसर्ग में। इसलिए जब आदमी
अपने से बाहर जाता है, तो अहंकार पैदा होता है। क्योंकि जहां
तू है, वहां मैं के पैदा होने की जरूरत पड़ जाती है। लेकिन जब
आदमी अपने भीतर जाता है, वहां कोई तू है ही नहीं, तो वहां मैं को पैदा होने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। मैं अकेला नहीं जी
सकता; उसके लिए तू का छोर चाहिए।
भाव
अंतर्प्रवेश है,
जैसे गंगा गंगोत्री की तरफ लौटने लगे वापस। भाव जो है, गोइंग बैक, वापस लौटना है। विचार जो है, दौड़ना है बाहर की ओर। इसलिए विचार चांद पर ले जाएगा, मंगल पर ले जाएगा, महासूर्यों पर ले जाएगा। बस,
एक जगह नहीं ले जाएगा--आदमी के भीतर। विचार कहेगा, चलो और दूर, और दूर। जितनी दूर की यात्रा होगी,
उतना विचार प्रसन्न होगा। सिर्फ एक यात्रा पर विचार इनकार कर देगा,
भीतर की यात्रा पर। वह कहेगा, क्या बेकार के
काम में लगे हो? भीतर जाने की जरूरत क्या है? और भीतर कहीं कुछ है कि जा सकोगे? चांद पर चलो,
आकर्षण तीव्र है। भीतर क्या रखा है?
और
अगर कभी विचार थक भी गया बाहर से और भीतर जाने की कोशिश की, तो भी वह
भीतर नहीं जा पाता। फिर भी वह बाहर-बाहर ही घूमता है। विचार भीतर जा ही नहीं सकता।
वह है ही बाहर के लिए। वह आयाम ही उसका बाहर है।
भाव
भीतर जाता है। लेकिन भाव का हमें कोई खयाल नहीं है। कोई भी खयाल नहीं है। आमतौर से
जिसे हम भाव कहते हैं,
वह भी भाव नहीं है।
एक
मां अपने बेटे को प्रेम करती है। निश्चित ही, हम कहेंगे, यह
विचार नहीं, भाव है। लेकिन उस मां को आज ही पता चल जाए कि यह
बेटा उसका नहीं है। जब वह प्रसव-पीड़ा में पड़ी थी, तब अस्पताल
में किसी ने उसका बेटा बदल लिया। बीस साल से वह प्रेम करती थी। यह आज पता चला,
डाक्युमेंट हाथ में आ गए, सारे प्रमाणपत्र मिल
गए कि बेटा उसका नहीं, किसी और का है। क्या आप सोचते हैं,
प्रेम ठीक वैसी ही धारा में बहता रहेगा, जैसा
बह रहा था एक क्षण पहले तक?
नहीं; धारा
अवरुद्ध हो जाएगी, सब बिखर जाएगा। तो यह बेटे से भाव का
संबंध था या यह भी विचार का ही संबंध था? चूंकि यह मेरा बेटा
है। मेरा बेटा है, तो संबंध था; और
मेरा नहीं है, तो संबंध एकदम शिथिल होगा और खो जाएगा।
भाव
मेरात्तेरा नहीं जानता। सिर्फ विचार ही मेरा और तेरा जानता है। इसलिए जिस मां ने
मां होने का आनंद नहीं लिया और सिर्फ मेरे बेटे को प्रेम किया, अभी उसके
भाव का जन्म नहीं हुआ है। यह भी विचार है।
भाव
मेरात्तेरा जानता ही नहीं,
भाव सिर्फ प्रेम जानता है। वह मेरा हो तो भी, और
तेरा हो तो भी। और भाव जब गहन होता है, तो कोई भी मौजूद न हो,
तब उस निर्जन में भी भाव की धारा प्रेम की वर्षा करती रहती है।
बुद्ध
जैसा व्यक्ति जब कहीं बैठता है, या कृष्ण जैसा व्यक्ति जब कहीं खड़ा होता है,
कोई भी न हो वहां, तो भी प्रेम की किरणें वैसी
ही फैलती रहती हैं, जैसे एकांत में जलते हुए दीए से प्रकाश
झरता रहता है। वह किसी के लिए निवेदित नहीं है, वह किसी के
लिए एड्रेस्ड नहीं है। वह सिर्फ भाव है। और उस भाव में रमने में परम आनंद है।
जिस
दिन भाव अनएड्रेस्ड होता है, उसी दिन परमात्मा के लिए एड्रेस्ड हो जाता है।
जिस दिन भाव बिना किसी पते के घूमने लगता है, भीतर से बहने
लगता है, उसी दिन वह परमात्मा के चरणों पर पहुंचना शुरू हो
जाता है। लेकिन यह भाव अंतर्गमन है, अपने पर वापस लौटना है।
तो
जिसे भी भाव की तरफ चलना हो, उसे पहली शर्त तो यह है कि वह विचार से सावधान
हो। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह विचार छोड़ दे। इसका इतना अर्थ है कि वह विचार बाहर
के लिए करे और भीतर के संबंध में विचार को बाधा न देने दे। वैसे विचार की आदत
इंटरफिअर करने की है हर चीज में। और अगर आप विचार से कहेंगे कि मत डालो बाधा,
तो विचार ही आपसे कहेगा कि तुम्हीं उलटे मेरे काम में बाधा डाल रहे
हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन बैठा है अपने घर में। चिट्ठी डालने वाला दरवाजे के नीचे से चिट्ठी डाल
गया है। पत्नी उठी। मुल्ला उठ ही रहा था कि पत्नी उठ गई। उसने चिट्ठी उठाई। पता
पढ़ा। मुल्ला ने पूछा,
किसकी है? उसने कहा, मेरे
मायके से है। किसके नाम है? तो पत्नी ने कहा, मेरे नाम है। पत्नी ने चिट्ठी खोली, पढ़ने लगी।
मुल्ला ने पूछा, क्या लिखा है? पत्नी
ने कहा, चिट्ठी मेरे नाम है, मेरे
मायके से है, आप इतनी उत्सुकता क्यों ले रहे हैं? मुल्ला ने कहा, फिर वही नासमझी! हजार दफे कहा कि
मेरे काम में बाधा मत डाला कर।
चिट्ठी
उसकी है, उसके मायके से है। वह पढ़ रही है। बाधा मुल्ला डाल रहा है। लेकिन वह कहता
है, फिर वही नासमझी! मेरे काम में बाधा मत डाला कर।
विचार
पूरे समय भाव के लिए बाधा डालता है। और अगर आपने विचार से कहा कि बाधा मत डालो, तो विचार
कहेगा, मेरे काम में आप बाधा डाल रहे हैं। और विचार से आप
इतने आब्सेस्ड हैं, विचार से ऐसे रुग्ण हैं कि आप यह भूल ही
गए हैं कि आप विचार से अलग हैं। यही सबसे बड़ी कठिनाई है।
आप
जब भी विचार करते हैं,
समझते हैं, मैं कर रहा हूं। और जब भी भाव आता
है, तो आप समझते हैं, कोई विजातीय चीज
भीतर आ रही है। हमारी आइडेंटिटी विचार से जुड़ गई है, हमारा
तादात्म्य। तो आदमी जब विचार करता है, तो कहता है, मैं विचार कर रहा हूं। जब भाव करता है, तो समझता है
कि कोई फारेन, कोई विजातीय चीज भीतर बाधा डाल रही है। भाव से
हमारा कोई तादात्म्य नहीं है, जब कि भाव ही हमारी जड़ है,
वही हमारा आधार है।
तो
पहला काम तो भक्ति-युक्त चित्त की तरफ यह है कि हम विचार को भीतर के मार्ग पर बाधा
देने के लिए पाबंदी कर दें। कह दें कि नहीं, तेरा वहां कोई काम नहीं है।
कठिनाई
पड़ेगी। लेकिन कठिनाई ज्यादा नहीं पड़ेगी, अगर संकल्प है। और बहुत शीघ्र एक
डिमार्केशन, एक सीमा-विभाजन हो जाएगा--विचार बाहर के लिए,
भाव भीतर के लिए। जो व्यक्ति ऐसा अपने भीतर स्पष्ट रेखा नहीं खींच
पाता, वह विचार के द्वारा सदा ही अपने भाव के जगत को नष्ट
करने में लगा रहता है।
जरा
प्रेम उठेगा और विचार कहेगा, यह क्या गलती में पड़ रहे हो! इल्लाजिकल,
तर्कहीन बातों में जा रहे हो! ध्यान करने गए। विचार कहेगा, यह क्या कर रहे हो? कीर्तन करने लगे। विचार कहेगा,
यह क्या कर रहे हो? पागल हो रहे हो, मूढ़ हुए जा रहे हो? भाव ने कहा, कूद पड़ो संन्यास में। विचार कहेगा, क्या होश खो रहे
हो? क्या दिमाग खराब है? पहले सोचो।
आप
भी कहेंगे कि सोचना तो जरूर चाहिए कुछ भी करने के पहले। लेकिन क्या आपको पता है, कुछ चीजें
सोचकर की ही नहीं जा सकतीं। जैसे कोई प्रेम करने के पहले सोचे। निश्चित ही सोचना
चाहिए।
सुना
है मैंने, एक आदमी ने सोचा है बहुत। वह आदमी था जर्मनी का एक बहुत बड़ा विचारक
इमेनुअल कांट। एक स्त्री ने उससे निवेदन किया कि मैं विवाह के लिए निवेदन करती
हूं। इमेनुअल ने नीचे से ऊपर तक उसे देखा, वैसे ही जैसे
विचारक किसी चीज को परख करते वक्त देखते हैं। उन्होंने ने कहा, ठीक। मुझे विचार का मौका दें।
स्त्री
में थोड़ी भी प्रतीति रही होगी, तो उसी वक्त जान लेती कि यह आदमी काम का नहीं है।
फिर महीनों पर महीने निकल गए। वर्ष निकल गया। तीन वर्ष निकल गए। और तीन वर्ष बाद
इमेनुअल उसके दरवाजे पर पहुंचा।
उसके
पिता ने उसे बिठाया और पूछा कि आप कैसे आए? ख्यातिलब्ध आदमी था! इमेनुअल ने
कहा कि कुछ समय हुआ आपकी लड़की ने निवेदन किया था मुझसे विवाह का। तीन साल मैंने सब
तरह अध्ययन किया, चिंतन किया, मनन किया,
विवाह के पक्ष में और विपक्ष में सारी युक्तियां, सब तर्क! यही कहने आया हूं कि अभी तक कोई निर्णय नहीं हो पाया है।
लेकिन
उसके पिता ने कहा,
अब आप चिंता छोड़ें। लड़की के विवाह हुए भी दो साल हो गए। एक बच्चा भी
हो चुका है। वैसे भी काफी देर हो चुकी है। और अब तो आप चिंता ही छोड़ दें।
इमेनुअल
कांट विचारक था। प्रेम को अगर विचार करने गए, तो विचार हाथ लगेगा, प्रेम कभी का खो चुका होगा।
लेकिन
प्रेम के संबंध में हम यह नासमझी नहीं करते। लेकिन प्रार्थना के संबंध में जरूर
करते हैं। क्यों करें प्रार्थना? यह क्यों सवाल विचार का है; यह सवाल भाव का नहीं है। भाव क्यों पूछता ही नहीं। भाव पूछता है, कैसे करें प्रार्थना? भाव पूछता है, क्या है प्रार्थना? क्यों नहीं। क्या मिलेगा
प्रार्थना से, यह भी भाव नहीं पूछता। कभी प्रेम ने पूछा है
कि क्या मिलेगा प्रेम से? प्रार्थना करने वाले ने भी कभी
नहीं पूछा है। लेकिन हम प्रार्थना करने वाले निरंतर पूछते रहते हैं, क्या मिलेगा? क्या मिला है? कुछ
मिल रहा है कि नहीं मिल रहा है?
नहीं, भाव नहीं
है वहां। विचार को हटाएं, अन्यथा भाव के जगत में कोई गति
नहीं होगी। विचार को कहें कि तेरी सीमा है, वहां तू काम कर।
बाहर, घर के बाहर; घर के भीतर नहीं।
कुछ मेरे अंतस्तल का भी जगत है, जहां तू बाधा न डाल। तू
पदार्थ से जूझ, तू परमात्मा से जूझने मत चल, अन्यथा मुझे हराकर रहेगा। तू पदार्थ को काट, लेकिन
प्रेम को काटने की तैयारी मत कर। तू पदार्थ की परीक्षा कर, लेकिन
परमात्मा की परीक्षा लेने मत जा।
तो
फिर दूसरा कदम उठाया जा सकता है, भाव के विकास का। जहां भी चिंतन को गति न मिलती
हो और प्रतीति को गति मिलती हो, वहां-वहां ज्यादा से ज्यादा
समय देना शुरू करें।
संगीत
सुन रहे हैं,
उसे भी हम संगीत की तरह नहीं सुनते।
सुना
है मैंने कि एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ, शूवर्ट, एक
गांव में संगीत बजाने गया है। जब वह अपना वायलिन बजा रहा है, तब सामने बैठा एक बूढ़ा बार-बार कह रहा है, बेकार है;
कुछ भी नहीं है। शूवर्ट परेशान हो गया। वह सामने की कुर्सी पर बैठा
हुआ है, और बार-बार कह रहा है। और वह अपनी बगल के आदमी से भी
कान में कुछ-कुछ पूछता है। जब उसने बगल के आदमी से पूछा, तब
राज खुला। बगल के आदमी से उसने पूछा, यह कब सिक्खड़ हटेगा,
शूवर्ट कब आएगा? वह शूवर्ट ही बजा रहा है। तो
बगल के आदमी ने कहा, महानुभाव, यह शूवर्ट
ही है! उसने कहा, अरे, वंडरफुल,
आश्चर्य! क्या अदभुत संगीत है! वह शूवर्ट सुन रहा है सामने ही बैठा!
क्या हुआ! यह आदमी संगीत सुन रहा है? यह, शूवर्ट कौन है, तो प्रभावित होता है। नहीं तो नहीं
प्रभावित होता है।
विनसेंट
वानगाग के चित्र अनेक लोगों के घरों में थे। विनसेंट वानगाग गरीब चित्रकार था।
किसी से कुछ सिगरेट उधार ले ली थीं, उसके पास पैसे चुकाने को नहीं थे,
तो एक पेंटिंग उसको दे आया। जो आदमी सिगरेट के पैसे नहीं चुका सकता,
उसकी पेंटिंग कोई अपनी दूकान में टांगेगा? पान
वाला भी नहीं टांगेगा। उसने उसको कबाड़खाने में डाल दिया।
विनसेंट
वानगाग के मरने के बीस-पच्चीस वर्ष बाद उसकी तस्वीरों की खोज शुरू हुई, जैसा
अक्सर होता है। विनसेंट वानगाग को खाने के पैसे नहीं थे और अब विनसेंट वानगाग की
एक-एक तस्वीर चार और पांच लाख रुपए की होती है। खोजबीन मच गई कि कहां उसकी
तस्वीरें हैं? क्योंकि उसकी एक तस्वीर जिंदगी में बिकी नहीं
कभी; एक नहीं बिकी! तो वे तो मुफ्त उसने दे दी थीं। मित्र
उसका अनुग्रह करके तस्वीर टांग देते थे अपने बैठकखाने में, और
जैसे ही वह जाता था, उतारकर पीछे हटा देते थे। और कभी फिर घर
आने को है, तो जल्दी से उसकी तस्वीर टांग देते थे कि उसको
बुरा न लगे।
लोगों
ने खोजबीन की,
तस्वीरें एकदम कीमती हो गईं। नकली, लोगों ने
विनसेंट वानगाग की तरह ही चित्र बना-बनाकर लाखों रुपए कमा लिए। जो तस्वीर पीछे घर
में पड़ी थी, जैसे ही घर के मालिक को पता लगा कि विनसेंट
वानगाग की है। वानगाग है! तस्वीर बैठकखाने में आ गई! अभी तक कबाड़खाने में पड़ी थी।
इस
आदमी का तस्वीर से कोई भी संबंध बन पा रहा था? कोई संबंध नहीं था।
आपके
घर में भी हीरा पड़ा हो और पत्थर आपको पता हो, तो उससे कोई संबंध नहीं बनता। और
पत्थर पड़ा हो और वहम आ जाए कि हीरा है, तो संबंध बन जाता है।
तो आपके सौंदर्य से कोई भाव का लेना-देना नहीं है। यह सब विचार का ही मामला है।
भाव
जहां हो! संगीत बज रहा है। छोड़ें फिक्र, कौन बजा रहा है। छोड़ें फिक्र,
क्या बजा रहा है। इतनी ही फिक्र करें कि मन, जहां
बुद्धि हट जाती है और भाव--सिर्फ भावत्तरंगें होती हैं--क्या यह संगीत इन भाव की
तरंगों को छू रहा है? अगर छू रहा है, तो
बुद्धि को एक तरफ रख दें उतारकर और इस भाव की धारा में बहें।
चाहे
फूल हो, और चाहे आकाश के तारे हों, चाहे संगीत हो, चाहे किन्हीं दो सुंदर आंखों में मिली कोई झलक हो, चाहे
किसी चेहरे का सौंदर्य हो, चाहे किसी पत्थर का सौंदर्य हो,
चाहे मंदिर हो, चाहे मस्जिद--जहां भी आपको
लगता हो कि बुद्धि के गहरे में जाकर कोई चीज छू रही है, बुद्धि
को हटा दें और अपने हृदय को खुला कर दें, ताकि वह आपके हृदय
पर स्पर्श करके उसको जगा पाए।
अगर
कोई व्यक्ति इतनी ओपनिंग,
इतना दरवाजा अपने में बना ले, तो बहुत शीघ्र
ही वह पाएगा कि भाव का एक अनूठा अंकुरण उसके भीतर हो जाता है। और इस भाव के अंकुरण
के साथ आता है प्रेम, निर्बाध प्रेम। इस भाव के अंकुरण के
साथ आता है प्रार्थना का लोक--लोभरहित, बेशर्त। इस भाव के
साथ आती है धीरे-धीरे भक्ति।
भक्ति
का अर्थ है, एक के प्रति नहीं, समस्त के प्रति प्रेम। एक के
प्रति नहीं, समस्त के प्रति प्रेम। जब तक सुंदर में ही सुंदर
दिखाई पड़ता है, तब तक अभी पूर्ण सौंदर्य का अनुभव नहीं हुआ।
और जब कुरूप में भी सौंदर्य के दर्शन शुरू हो जाते हैं, तो
पूर्ण सौंदर्य का अनुभव होता है। जब तक मित्र से ही प्रेम बनता है, तब तक पूर्ण प्रेम का कोई पता नहीं; और जब शत्रु से
भी प्रेम बन जाता है, तभी पूर्ण प्रेम का पता है।
जिस
दिन भाव की यह धारा समस्त के प्रति बिना किसी कारण के, बिना किसी
निर्णय के, बिना किसी चुनाव के बहनी शुरू हो जाती है,
भक्ति बन जाती है।
कृष्ण
कहते हैं, भक्तियुक्त पुरुष, ऐसे भाव से भरा हुआ व्यक्ति,
अंतकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य प्राण को अच्छी प्रकार
स्थापन करके...।
ये
जो दो आंखें हैं आपकी,
ये जो दो भृकुटियां हैं, आई ब्रोज हैं,
इनके बीच में जगह है एक, जो इस शरीर में
सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वह थर्ड आई, तीसरी आंख की जगह है,
शिव-नेत्र की जगह है। जिस व्यक्ति का समस्त के प्रति प्रेम भाव है,
प्रार्थना भाव है, पूजा भाव है, जो इस जगत में सिवाय परमात्मा के और किसी को देखता नहीं, ऐसा व्यक्ति अंत समय में भृकुटी के मध्य में ध्यान को स्थिर कर लेता है।
क्यों? क्योंकि जिसका ध्यान भृकुटी के मध्य में स्थिर हो,
उसकी आगे की शरीर-यात्रा बंद हो जाती है।
आगे
की शरीर-यात्रा,
आवागमन, तीसरी आंख पर अगर ध्यान न हो, तो जारी रहता है। इस तीसरी आंख पर अगर ध्यान हो, तो
यह द्वार है संसार से छूट जाने का। यहां मार्ग है, जहां से
एक संधि है छोटी, जहां से हम शरीर के पार हो जाते हैं। इस पर
अगर ध्यान हो और प्रेम से भरा हुआ चित्त हो, भाव से भरा हुआ
चित्त हो, विचार की कोई तरंग ही न हो, भाव
की गहनता हो, बस। विचार की कोई लहर ही न हो, क्योंकि जैसे ही विचार की लहर आती है, भृकुटी से
ध्यान हट जाता है। इसे समझ लें।
विचार
की जरा-सी तरंग,
और भृकुटी से ध्यान हट जाता है। और विचार निस्तरंग, भाव परिपूर्ण, और भृकुटी पर ठहर जाता है। इस भृकुटी
पर ठहरा हुआ चित्त, निश्चल मन से स्मरण करता हुआ दिव्य
स्वरूप परमात्मा को प्राप्त होता है।
निश्चल
विचार कभी होता ही नहीं,
सिर्फ भाव होता है। अगर आप कहते हैं कि मेरा विचार बहुत दृढ़ है,
तो आप बड़ी गलत बात कहते हैं। विचार दृढ़ होता ही नहीं। जैसे कोई कहे
कि मेरी नदी में जो लहरें उठती हैं, वे बड़ी निश्चल हैं,
वह पागलपन की बात कर रहा है। लहरें निश्चल होती ही नहीं। नदी निश्चल
हो सकती है, लेकिन तभी, जब लहरें न
हों। भाव निश्चल हो जाता है तभी, जब विचार की तरंगें नहीं
होती हैं।
विचार
तो तरंग है, इसलिए निस्तरंग विचार का अर्थ होता है, न-विचार,
निर्विचार। विचार ही कंपन है, इसलिए अकंप
विचार नहीं होता। जब अकंप विचार होता है, तो विचार होता ही
नहीं। और जब भी विचार होता है, तो कंपन जारी रहते हैं।
अगर
जरा-सा भी कंपन है,
तो भृकुटी पर नहीं ठहराया जा सकता। आदमी चूक जाता है। और भृकुटी की
जो संधि है, वह इतनी छोटी है कि अगर आप बालभर भी कंप गए,
तो चूक गए। अगर बालभर भी कंपन हुआ, तो चूक गए।
वह जगह बहुत एटामिक है, बहुत आणविक है; वह बहुत बड़ी जगह नहीं है; बहुत सूक्ष्म संधि है।
उसमें तो सिर्फ वे ही लोग प्रवेश करते हैं, जो कंपना जानते
ही नहीं, जिन्हें कंपन का पता ही नहीं रहा है अब।
और
ध्यान रहे, भाव बड़ा निष्कंप है। कभी आपने किसी को अगर प्रेम किया हो, जैसा कि होता नहीं। मुश्किल से कभी कोई सौभाग्यशाली होता है कि किसी को
प्रेम करता है। अगर कभी किसी को प्रेम किया हो, तो सब करते
हुए--सब चलते, उठते, काम में लगे
हुए--भीतर कोई एक अकंप भाव उस प्रेमी का बना ही रहता है।
कबीर
से कोई पूछता है कि तुम ये सब काम में लगे हुए कैसे उसको स्मरण करते होओगे? कबीर ने
कहा, कभी समय आएगा, तो बताऊंगा। फिर एक
दिन स्नान करके नदी से लौटते हैं कबीर। साथ में पूछने वाला भी है। वह फिर पूछता है,
बताया नहीं! तो कबीर ने कहा--पास में दो ग्राम-वधुएं अपने सिर पर
घड़ा लिए पानी से भरा हुआ, दोनों हाथ छोड़े गपशप करती हुई
रास्ते से गुजर रही हैं। कबीर ने कहा, देखते हो इन्हें,
पानी से भरा हुआ घड़ा है, माथे पर रखा है,
हाथ का सहारा नहीं, दोनों हाथ छोड़कर गपशप करती
हुई वे मार्ग से चलती हैं। क्या तुम सोचते हो, इन्हें घड़े का
स्मरण नहीं होगा?
रोका
उन्हें, पूछा। तो उन्होंने कहा, अगर घड़े का स्मरण सतत न बना
रहे, तो हाथ हटाया नहीं जा सकता। हाथ हटा ही इसलिए सके हैं
कि स्मरण तो घड़े का बना ही हुआ है। वह स्मरण ही सम्हाले हुए है।
सारे
काम में लगा हुआ व्यक्ति भी अगर भाव से भर जाए, तो फिर सब तरफ उलझा रहे, भीतर कहीं कोई चीज सम्हली ही चली जाती है। वह सम्हली ही बनी रहती है। उस
भाव की दशा में यदि अंत क्षण आ जाए, तो समस्त भाव सिकुड़कर
भृकुटी पर केंद्रित हो जाता है।
कृष्ण
कहते हैं, योगबल से!
क्योंकि
भृकुटी पर ध्यान को केंद्रित करने का जिन्होंने अभ्यास किया हो, उन्हीं के
लिए आसान होगा कि अंत क्षण में उनका भाव भृकुटी पर आ जाए, अन्यथा
संभव नहीं होगा। क्योंकि शरीर के भीतर रास्ते हैं। और अगर रास्ते टूटे हुए न हों,
तो आखिरी समय में रास्ते बनाना बहुत मुश्किल है।
आप
शायद ही कभी अपनी भृकुटी की तरफ ध्यान ले जाते हों। ध्यान जाता है सेक्स सेंटर की
तरफ, ज्यादा से ज्यादा। ज्यादा से ज्यादा आदमी का ध्यान उसके काम-केंद्र की तरफ
दौड़ता रहता है। काम-केंद्र बिलकुल उलटा है तृतीय नेत्र से, दूसरे
छोर पर है। ये दो छोर हैं।
ऐसा
समझ लें, काम-केंद्र का चिंतन अगर ज्यादा चलता हो, तो हमारे
भीतर चेतना को जाने के लिए एक ही रास्ता होता है बना हुआ; वह
बिलकुल, कहें कि हाईवे है चेतना के लिए भीतर। बिलकुल सपाट
रास्ता तैयार है। जरा खिसके कि काम-केंद्र पर पहुंच जाएंगे। बीमार पड़े हैं खाली,
तो कामवासना पकड़ेगी। खाली बैठे हैं, कोई काम
नहीं है दफ्तर में, तो कामवासना पकड़ेगी। कार में बैठे हैं
खाली, तो कामवासना पकड़ेगी। या तो करते रहो विचार कुछ न कुछ,
उलझे रहो, और या फिर कामवासना पकड़ेगी। एक सपाट
रास्ता भीतर बना है, चित्त जरा खाली हुआ, भागा।
एक
दूसरा केंद्र है भृकुटी के मध्य में, योगी उसे आज्ञा-चक्र कहते हैं,
या कोई और नाम देते हैं। यह जो केंद्र है, यह
ठीक उलटा है। भक्त का, जैसे ही समय मिला, ध्यान भागा और भृकुटी पर आया। लेकिन इस भृकुटी के कांशसनेस के लिए,
इसके चैतन्य के लिए, इसके बोध के लिए योग का
अभ्यास जरूरी है। धीरे-धीरे आपको शरीर में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा आज्ञा-चक्र
मालूम पड़ने लगे, और जब भी सुविधा हो, समय
हो, शक्ति हो, ध्यान तत्काल आज्ञा-चक्र
की तरफ भाग जाए।
अगर
यह रास्ता तैयार रहा,
तो अंत समय में समस्त भाव आज्ञा-चक्र पर इकट्ठा होकर शरीर के आवागमन
के बाहर हो जाता है। लेकिन अगर यह न रहा, तो कठिनाई पड़ जाती
है।
इसलिए
कृष्ण कहते हैं,
योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी तरह स्थापन करके,
फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परम पुरुष
परमात्मा को प्राप्त होता है।
और
हे अर्जुन, वेद के जानने वाले जिस परम पद को अक्षर, ओंकार नाम
से कहते हैं और आसक्तिरहित यत्नशील महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं, तथा जिस परम पद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तेरे लिए संक्षिप्त में कहूंगा।
वेद
के जानने वाले!
सहज
ही खयाल आता है कि वेद की जो चार संहिताएं हैं, उनको जानने वाले, वेदपाठी पंडित, कृष्ण उनकी बात कर रहे होंगे! कृष्ण
जैसे व्यक्ति उनकी बात नहीं कर सकते। शास्त्र को जानने वाला, कृष्ण जैसे व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण नहीं होता। लेकिन वेद अनूठा शब्द
है। वेद का अर्थ होता है केवल ज्ञान। वेद का अर्थ शास्त्र तो परोक्ष से होता है।
सीधा-सीधा अर्थ होता है ज्ञान।
जिसे
हम वेद कहते रहे हैं,
वह केवल उस ज्ञान की एक भनक है, एक प्रतिछवि।
अनंत वेद पैदा हो सकते हैं, अगर हम उस परम ज्ञान के सामने
जितने दर्पण ले जाएंगे, उतने वेद पैदा हो सकते हैं। लेकिन
वेद का इशारा उस परम ज्ञान की तरफ है। अगर वेद की चारों संहिताएं भी खो जाएं,
तो भी वेद नहीं खो जाएगा। और वेद की अगर करोड़ों संहिताएं भी पैदा हो
जाएं, तो भी वेद चुक नहीं जाएगा।
जिन
चार संहिताओं को हम वेद कहते हैं--ऋग्वेद को, यजुर्वेद को, अथर्व को, साम को--यह मनुष्य जाति के स्मरण में उस
परम वेद की पहली प्रतिछवि है। कुरान भी वेद है, और बाइबिल भी
वेद है, और महावीर के वचन भी, और बुद्ध
के वचन भी--ये बाद की प्रतिछवियां हैं। लेकिन जो लोग पहली प्रतिछवि से आग्रहग्रस्त
हो गए, उन्होंने कहा, अब इसके बाद और
कोई वेद नहीं है।
वेद
निरंतर जन्मता रहेगा। जब भी कोई व्यक्ति परमभाव को उपलब्ध होता है, तब दर्पण
बन जाता है। और वह जो परम वेद है, जो शाश्वत ज्ञान है,
जो परमात्मा के हृदय में विराजमान है, वह फिर
अपनी प्रतिछवि बनाता है।
निश्चित
ही, वह छवि दर्पण के अनुसार अलग-अलग होती है। ऋग्वेद एक छवि है। कुरान दूसरी,
वह मोहम्मद का दर्पण है। बाइबिल तीसरी, वह
जीसस का दर्पण है। बुद्ध या महावीर, और लाओत्से, हजार-हजार लोग प्रतिबिंब दिए हैं, वे सभी वेद हैं।
वेद
किसी मुर्दा किताब का नाम नहीं। वेद उस परम ज्ञान का नाम है, जिसके
समक्ष परिपूर्ण शून्य हुआ व्यक्ति खड़ा होता है।
तो
कृष्ण जब वेद की बात करते हैं, तो कोई इस भ्रांति में न रहे कि वे कोई हिंदुओं
के वेद की बात कर रहे होंगे। नहीं, कृष्ण जैसे लोग विशेषण की
भाषा में नहीं बोलते। हिंदू, और मुसलमान, और ईसाई, और जैन की भाषा में नहीं बोलते। उनकी भाषा
तो परम भाषा है। वेद से उनका अर्थ है, वह वेद, जो दर्पण बन गए लोगों में प्रतिबिंबित होता रहा है।
ऐसे
वेद को जानने वाले उस परम पद को अक्षर, ओंकार नाम से पुकारते हैं। अक्षर,
जो कभी क्षरता नहीं, क्षीण नहीं होता, नष्ट नहीं होता।
हम
तो सभी वर्णमाला को अक्षर कहते हैं। अ, ब, स,
द, क, ख, ए, बी, सी, डी--सभी अक्षर हैं। लेकिन सभी क्षर जाते हैं। और सभी नष्ट हो जाते हैं।
इनको अक्षर कहना ठीक नहीं है। अगर मैं न बोलूं, तो ये अक्षर
पैदा भी नहीं हो सकते। अगर आप चुप रहें, तो ये अक्षर खो जाते
हैं। इनको अक्षर कहा नहीं जा सकता।
इसलिए
कृष्ण कहते हैं,
जानने वाले उस परम पद को अक्षर कहते हैं और वह अक्षर ओंकार है। एक
ऐसा अक्षर भी है, ओम, जो आप न बोलें,
तो ही बोला जाता है।
इसे
थोड़ा समझ लेना पड़ेगा।
और
सब अक्षर आप बोलें,
तो ही बोले जाते हैं; न बोलें, तो खो जाते हैं। एक अक्षर ऐसा भी है, जो आप जब तक
बोलते रहें, तब तक न बोला जाता और न सुना जाता। जब आप बोलना
बंद कर दें, चुप हो जाएं, मौन हो जाएं,
भीतर भी शब्द न रह जाएं, तब भी एक गूंज,
प्राणों के प्राण में एक आवाज, एक नाद उठना
शुरू हो जाता है। उस नाद का नाम, जानने वाले, वेद को जानने वालों ने अक्षर कहा है। उस नाद का जो प्रतीक है, वह ओम या ओंकार है।
जब
कोई परम मौन होता है,
तब उसके भीतर भी एक ध्वनि गूंजती है। वह ध्वनि हमारी पैदा की हुई
नहीं है, क्योंकि हम तो चुप हैं। वह ध्वनि हमारा अस्तित्व
है। अस्तित्व की ध्वनि है; कहें कि अस्तित्व ही ध्वनित होता
है; हमारा होना ही ध्वनित होता है। उस ध्वनि का नाम अक्षर है।
क्योंकि हम जब नहीं थे, तब भी वह ध्वनि ध्वनित हो रही थी;
और हम नहीं होंगे, तब भी वह ध्वनित होती
रहेगी। शायद हम उस ध्वनि की एक वेव लेंथ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। शायद उस
परम ध्वनि का ही हम एक सघन रूप हैं, ए पर्टिकुलराइज्ड फार्म
आफ दैट साउंड, दैट साउंडलेस साउंड; उस
ध्वनिरहित ध्वनि का एक सघन रूप हैं। उस ध्वनि का नाम ओंकार है, ओम है।
यह
ओम कोई शब्द नहीं है,
इसमें कोई अर्थ नहीं है। यह अस्तित्व बोधक मात्र है, इंगित मात्र है। इसलिए ओम को लिखने का जो पुराना ढंग है, वह पिक्टोरियल है; चित्र बनाकर है। ओम को हम अ,
उ, म से भी लिख सकते हैं। अंग्रेजी में ओम
लिखना हो, तो हम ओ और एम से लिख सकते हैं। लेकिन नहीं,
वह वर्णाक्षरों में लिखना ठीक नहीं है। ओम को हम लिखते हैं
पिक्टोरियल, एक चित्र में। शब्द नहीं देते उसे, चित्र देते हैं, आकृति देते हैं सिर्फ। और वह आकृति
इसीलिए देते हैं, ताकि हमारे और अक्षरों से वह एक न हो जाए,
संयुक्त न हो जाए।
वस्तुतः
वही अक्षर है,
शेष सब जिन्हें हम अक्षर कहते हैं, उसकी ही
पैदावार हैं। ओम में अ, उ और म तीन की ध्वनियों का तालमेल
है। यह ओम तो अक्षर है, फिर अ, उ,
म उसकी तीन उत्पत्तियां हैं। और फिर हमारे सारे वर्णाक्षर उन तीन के
और विस्तार हैं।
पूर्वीय
मनीषा ने जाना है ऐसा कि सत्य है एक; और जब सत्य संसार बनता है, तो होता है तीन; और फिर तीन से हो जाता है अनेक। ओम
है एक। फिर अ, उ, म। और फिर सारे
वर्णाक्षर पैदा होते हैं। लेकिन वे सब अक्षर नहीं हैं। अक्षर तो सिर्फ ओम ही है।
इस
परम पद को जानने वालों ने ओंकार कहा है, अक्षर कहा है। और आसक्तिरहित,
यत्नशील महात्माजन इसमें प्रवेश करते हैं--इस ओम में, इस अक्षर में।
जैसे
ही किसी का भाव भृकुटी के मध्य थिर हो जाता है, वैसे ही उस थिरता में ओंकार का नाद
शुरू होता है। उस नाद के साथ ही व्यक्ति संसार से मोक्ष में प्रवेश करता है। कहें
कि वह नाद वाहन है। भृकुटी के मध्य में जैसे-जैसे व्यक्ति करीब पहुंचने लगता है,
नाद घनघोर होने लगता है, गहन होने लगता है।
कबीर
कहते हैं, कैसी जोर की बिजली कड़कती है! कैसे घनघोर बादल बरसते हैं! कैसे अमृत की
बरसा हो रही है! और यह कैसा नाद, जो कहीं पैदा नहीं हो रहा
है और सुनाई पड़ रहा है!
जैसे-जैसे
भृकुटी के मध्य आएंगे,
वैसे-वैसे पूरे तन-प्राण में एक नाद गूंजने लगेगा। उस क्षण में आप
केवल ध्वनि का एक संग्रह मात्र रह जाएंगे--शरीर नहीं, नाद
मात्र। और इस नाद पर सवारी करके ही व्यक्ति भृकुटी के छिद्र से ऊपर उठता है और परम
पद में प्रवेश करता है।
इसे
जिसे ओंकार कहते हैं ज्ञानीजन, आसक्तिरहित--ये शब्द समझ लेने जैसे
हैं--आसक्तिरहित यत्नशील महात्माजन उसमें प्रवेश करते हैं।
आसक्तिरहित!
जिनकी इतनी भी आसक्ति नहीं रही है कि हम मोक्ष में प्रवेश करें। क्योंकि बाकी
आसक्ति तो छोड़े कोई,
तभी भृकुटी तक पहुंचता है, लेकिन एक आसक्ति
फिर भी रह जाती कि मैं मोक्ष में प्रवेश करूं। अगर इतनी आसक्ति भी भीतर शेष रह गई
कि मैं मुक्त हो जाऊं, मोक्ष में प्रवेश करूं, परम पद पा जाऊं, प्रभु को पा लूं, इतनी आसक्ति भी अगर रह गई, तो बाधा बन जाती है। पाने
का जहां खयाल शेष रह गया, वहां संसार शुरू हो जाता है। जहां
वासना आ गई कोई भी, वहीं हम फिर पुनः संसार की यात्रा पर
वापस लौट जाते हैं।
यह
बहुत समझ लेने जैसी बात है।
प्रभु
के खोजी को प्रभु के पाने के पहले, प्रभु को पाने की वासना भी छोड़
देनी पड़ती है। मोक्ष के खोजी को मोक्ष के द्वार पर मोक्ष की वासना को भी उतारकर रख
देना पड़ता है। उतनी-सी वासना भी संसार में लौटा लाने के लिए पर्याप्त है।
आसक्तिरहित, लेकिन
यत्नशील; यह बहुत अदभुत बात है। आसक्तिरहित और यत्नशील!
आसक्त तो यत्नशील दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि जहां आसक्ति है, वहां
यत्न है, एफर्ट है, चेष्टा है। जहां
कुछ पाना है, वहां पाने की कोशिश होगी। लेकिन दूसरी घटना जो
घटती है--घटना कहें या दुर्घटना--जब कोई व्यक्ति कहता है, अब
कोई आसक्ति ही न रही, तो अब चेष्टा भी क्या? आसक्ति है, तो यत्न है। आसक्ति छूटी, तो लोग यत्न भी छोड़ देते हैं। लेकिन दोनों में ही खतरे हैं।
कृष्ण
एक और ही बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, आसक्तिरहित यत्नशील। पाना कुछ भी
नहीं है, फिर भी प्रयास में रत्तीभर कमी नहीं। यह बड़ी कठिन
बात है। पाना कुछ भी नहीं है, फिर भी प्रयास में रत्तीभर कमी
नहीं। दौड़े ऐसे ही जा रहे हैं जैसे मंजिल पर पहुंचना हो, और
पहुंचना कहीं भी नहीं है। यह कैसे होगा?
यह
कभी-कभी होता है। अगर दौड़ने में ही आनंद आ रहा हो, तो होता है।
एक
तो दौड़ है, कहीं पहुंचने में आनंद छिपा है, कोई खजाना मिलने को
है यात्रा के अंत पर, तो दौड़ रहे हैं। दौड़ने में कोई आनंद
नहीं है। आनंद तो छिपा है वहां, अंत में। मिलेगा, तो आनंद मिलेगा। दौड़ तो रहे हैं उसे पाने के लिए।
अगर
ऐसे व्यक्ति से कहो कि आसक्तिरहित दौड़ो, तो वह बैठ जाएगा वहीं। वह कहेगा,
जब पहुंचना ही नहीं है कहीं, दौड़ना किसलिए?
और कृष्ण कहते हैं, दौड़ो और पहुंचने का खयाल
मत करो। इसका अर्थ हुआ, दौड़ो दौड़ने के ही आनंद में।
असल
में जब कोई साधक गहरा उतरना शुरू होता है, तो वह यह नहीं कहता कि मैं ध्यान
किसलिए कर रहा हूं। वह जानने लगता है कि ध्यान ही आनंद है, योग
ही आनंद है। वह यह नहीं कहता कि प्रार्थना मैं इसलिए कर रहा हूं कि परमात्मा मुझे
यह मिल जाए। वह कहता है, परमात्मा न भी हो, तो चलेगा; प्रार्थना के बिना नहीं चल सकता। वह कहता
है, प्रार्थना आनंद है, इसलिए कर रहा
हूं।
भक्तों
ने बड़ी अदभुत बातें कही हैं। और भक्तों ने भगवान से ऐसी शानदार टक्करें ली हैं, जिसका
हिसाब लगाना मुश्किल है। एक भक्त कहता है कि मुझे तेरे मोक्ष-वोक्ष से कोई प्रयोजन
नहीं। मुझे तेरी वृंदावन की गली में ही जन्म ले लेना काफी है। मुझे तेरे
मोक्ष-वोक्ष को नहीं चाहिए। इतना ही खयाल रखना कि वृंदावन में जहां तू चला,
वहीं मैं हो जाऊं, वहीं रह जाऊं, उसी धूल में पड़ा रहूं। मैं तेरे मोक्ष को छोड़ सकता हूं, तेरी वृंदावन की गली नहीं।
अब
यह आनंद किसी और बात की खबर है। मोक्ष को छोड़ने की हिम्मत की बात जो कह सकता है, उसने
मोक्ष पा ही लिया। उसे अब पाने को कुछ शेष न रहा। वृंदावन की गली भी उसके लिए
मोक्ष हो जाएगी। धूल में पड़ा हुआ वह परम सिद्ध-शिला पर विराजमान हो जाएगा।
कृष्ण
कहते हैं, आसक्तिरहित और यत्नशील। आसक्ति तो करना मत कुछ, लेकिन
यत्न मत छोड़ देना। यत्न जारी रखना। निश्चित ही, अब यत्न तभी
जारी रह सकता है, जब यत्न ही आनंद हो जाए।
मेरे
पास लोग आते हैं,
वे कहते हैं, संन्यास किसलिए? वे संन्यास की बात ही चूक गए; बात ही खतम हो गई।
संन्यास किसलिए! संसार किसलिए--सार्थक है। संन्यास किसलिए-- सार्थक नहीं है यह
प्रश्न। संन्यास संन्यास के लिए। और तो कोई अर्थ नहीं होता। अगर संन्यास ही आनंद
है, तो ही संन्यासी हो सकते हैं। अगर आपने सोचा कि संन्यास
इसलिए लेते हैं कि यह-यह मिलेगा, तो आप संन्यास को भी संसार
की एक चीज बना रहे हैं। संन्यास अपने में ही आनंद है। प्रार्थना अपने में ही आनंद
है। पूजा अपना ही फल है।
यत्न
जारी रखना, आसक्ति छोड़ देना, तो कृष्ण कहते हैं, ऐसे महात्माजन उस ओंकार की अक्षर ध्वनि में प्रवेश करते हैं। तथा जिस परम
पद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं...।
और
यह वही परम पद है,
जिसको चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं। यह आखिरी सूत्र बहुत
कीमती है। ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं जिसे चाहने वाले।
ब्रह्मचर्य
का अर्थ होता है,
प्रभु जैसी चर्या। जिसे प्रभु को पाना हो, उसे
प्रभु को पाने के पहले ही प्रभु जैसी चर्या शुरू कर देनी चाहिए। अन्यथा प्रभु
सामने खड़ा होगा और हम उसके पात्र न होंगे। अन्यथा उसके द्वार पर भी पहुंच जाएंगे,
तो द्वार की सांकल बजाने की हमारी हिम्मत न होगी। इसके पहले कि
प्रभु-मिलन हो, हमें ऐसे जीना शुरू ही कर देना चाहिए,
जैसे कि वह मिल गया है। हमें ऐसे जीना शुरू ही कर देना चाहिए,
जैसे कि वह मिल गया है, जैसे कि वह घर में आकर
बैठ गया है, जैसे कि वह मौजूद है। साथ चल रहा है; हृदय की धड़कन-धड़कन में खड़ा है; पैर-पैर में वही कंप
रहा है। साधक को ऐसे जीना शुरू कर देना चाहिए कि परमात्मा साथ है, मिला हुआ है।
तो
उसकी चर्या धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे इस प्रभु के साथ होने के भाव से ब्रह्मचर्य बन जाती है,
ब्रह्म जैसी बन जाती है। और जिस दिन चर्या ब्रह्म जैसी बन जाती है,
उसी क्षण मिलन घटित हो जाता है।
मुझसे
लोग कहते हैं कि अभी तो मन बदला नहीं; यदि संन्यास ले लेंगे, तो क्या होगा? पहले मन पूरा बदल जाए, तो फिर हम संन्यास ले लेंगे।
संन्यास
की चर्या भी शुरू करने से संन्यास के आने का द्वार खुलता है। प्रार्थना के लिए
होंठ हिलाने से भी परम नाद की तरफ का मार्ग खुलता है। मंदिर की तरफ चलने का खयाल
भी भीतर के मंदिर के द्वार को खोलने के लिए कारण बन जाता है।
चर्या
शुरू करें। ऐसे जीना शुरू कर दें कि परमात्मा है। और एक दिन आप पाएंगे कि जिसे
चर्या में शुरू किया था,
वह अनुभूति में आ गया है।
आज
इतना ही।
लेकिन
पांच मिनट अभी कोई उठेगा नहीं। और आज कीर्तन सब बैठकर ही करने वाले हैं, इसलिए
आपको उठकर देखने की जरूरत न रहेगी। आप भी बैठकर सम्मिलित हों। एक धारा बहती है
आनंद की, यहां मौजूद ही है; और गंगा
किनारे से बहती हो, तो पागल न बनें, एक
डुबकी आप भी लें।
इतने
लोग इकट्ठे हैं,
अगर इतने लोग कीर्तन को पूरे भाव से करें, तो
न मालूम कितनी शुद्ध किरणें चारों तरफ व्याप्त हो जाती हैं और न मालूम कितने लोगों
के लिए लाभ की हो सकती हैं। एक वर्षा ओंकार की हो सकती है अभी और यहीं। हम सारे
लोग भाव से सम्मिलित हों। तालियां बजाएं। कीर्तन बोलें। बैठकर ही आनंदित हों।
डोलें बैठकर ही। यह बैठकर ही कीर्तन होगा।
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