सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो
ठहरो, विराम में आओ—प्रवचन-ग्याहरवां
दिनांक 31 जनवरी, सन्
1981 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न: भगवान,
संत बुल्लेशाह की ते काफी इस प्रकार है--
तंग छिदर नहीं विच तेरे, जिथे कख न इक समांवदा ए।
ढूंढ वेख जहां दी ठौर किथे, अनहुंदड़ा नजरी आंवदा ए।
जिवें ख्वाब दा खयाल होवे सुत्तियां नूं, तरहां तरहां दे रूप दिखांवदा ए।
बुल्लाशाह न तुझ थीं कुझ बाहर, तेरा भरम तैनूं भरमांवदा ए।
अर्थात, हे प्यारे, तू इतना तंग है कि तुझमें कोई छिद्र झरोखा नहीं, जिसमें
एक तिनका भी नहीं समा सकता है।
ढूंढ कर देख कि इस जहान की ठौर कहां है? अनहोना नजर आ रहा है।
जिस प्रकार सोए हुओं को ख्वाब के खयाल होते हैं, ऐसे ही तरहत्तरह के रूप दिख रहे हैं।
बुल्लेशाह कहते हैं कि तुझसे कुछ भी बाहर नहीं है, किंतु तेरा भरम ही तुझे भरमा रहा है।
भगवान, निवेदन है कि
बुल्लेशाह की इस काफी को हमें समझाएं।
ऊषा,
मनुष्य एक अद्वितीय स्थिति है। और ध्यान रखना शब्द--स्थिति। एक जगत है
मनुष्यों के नीचे पशुओं का। वे पूरे ही पैदा होते हैं; उन्हें जो होना है, वैसे ही पैदा होते हैं। और एक
जगत है मनुष्य के ऊपर बुद्धों का। उन्हें जैसा होना है वे हो गए हैं, अब कुछ होने को नहीं बचा। और दोनों के मध्य में मनुष्य की चिंता का लोक
है। उसे जो होना है अभी हुआ नहीं; जो नहीं होना है वह अभी
है। इसलिए तनाव है, खिंचाव है।