सहज आसिकी नाहिं—(प्रश्नचर्चा)—ओशो
आत्म-श्रद्धा की कीमिया—प्रवचन-तीसरा
दिनांक 03 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न: भगवान,
वर्षों से आप जो समझा रहे हैं और जो कुछ भी मैं
समझ सका, उसे ही दूसरों को समझाने में मैंने अब तक समय बिताया।
लेकिन पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि असल में वह सब तो खुद को ही समझाना
था। भगवान, अब यह समझ ही बोझिल हुई जा रही है। अब इस समझ को
ढोना नहीं, खोना चाहता हूं। अब पीना चाहता हूं परमात्मा को।
अब जीना चाहता हूं भगवत्ता को। अब शिष्य की तरह नहीं, भगवान
अब तो भक्त को ही स्वीकार करें।
अजित सरस्वती,
एक पुरानी अरबी कहावत है कि इस दुनिया में किसी भी बात को ठीक से
समझना हो तो सबसे सुगम उपाय है उसे दूसरों को समझाना। शिक्षक होते ही व्यक्ति
समझने में समर्थ हो पाता है। इस कहावत के पीछे बड़ा राज है। जब तुम दूसरे को समझा
रहे होते हो, तब एक तटस्थता होती है, एक
साक्षी-भाव होता है। जब तुम दूसरे को समझा रहे होते हो, तब
तुम्हारा तर्क शुद्ध होता है, भावना से मुक्त होता है,
तुम्हारी दृष्टि वैज्ञानिक होती है, गणित में
धार होती है। जब तुम दूसरे को समझा रहे होते हो तो दूसरा ऐसे ही तो समझने को राजी
नहीं हो जाएगा; हजार तर्क करेगा, विरोध
करेगा, इनकार करेगा। उसके सारे इनकारों को खंडित करना होगा,
उसके सारे तर्कों को तोड़ना होगा, उसके विचार
के जाल को छांटना होगा। इस सारी प्रक्रिया में तुम्हें अपनी तो सुध ही न रह जाएगी;
तुम यह तो भूल ही जाओगे कि मेरी भी कोई समस्या है। तुम तो समाधान
होकर प्रकट हो जाओगे। और अगर तुम सफल हो गए दूसरे को समझाने में तो एक
आत्म-विश्वास जगेगा, एक आस्था आएगी अपने पर, एक श्रद्धा उमगेगी।
और आत्म-श्रद्धा बड़ी कीमिया है। सबसे बड़ी कठिनाई सत्य के मार्ग पर यही
है कि लोगों को अपने पर श्रद्धा नहीं है। खुद पर भरोसा ही नहीं आता कि मैं भी ठीक
हो सकता हूं। इसके पीछे कारण है; क्योंकि बचपन से ही प्रत्येक को
कहा गया है कि तुम और ठीक! तुम कभी ठीक नहीं हो सकते। महावीर ठीक हैं, बुद्ध ठीक हैं, कृष्ण ठीक हैं, क्राइस्ट ठीक हैं--तुम ठीक! प्रत्येक की निंदा की गई है। प्रत्येक को कहा
गया है कुछ और बनो। किसी को भी नहीं कहा गया है कि तुम वही बनो जो तुम हो।
प्रत्येक को उसके केंद्र से च्युत करने की कोशिश की गई है। समाज के न्यस्त स्वार्थ
इसके बिना जी नहीं सकते। प्रत्येक की प्रतिभा को हजार तरह के कोहरे में ढांक दिया
गया है। प्रत्येक की चेतना पर धूल की परतों पर परतें जमा दी गई हैं। और सबसे आसान
जो तरकीब है--किसी की प्रतिभा पर चोट करने की, किसी की आत्मा
को घावों से भर देने की--वह है, उसे आत्म-निंदा से भर
देना--तुम गलत हो।
बच्चा जो भी करता है, मां-बाप कहते हैं गलत। जो भी करे
वही गलत है। स्वभावतः बच्चे की श्रद्धा अपने पर डांवाडोल होने लगती है, संदेह जगने लगता है। मां-बाप का इसमें हित है, क्योंकि
बच्चे को अगर अपने पर भरोसा हो तो मां-बाप की आज्ञा नहीं मानेगा। और मां-बाप को
इससे प्रयोजन नहीं है कि प्रतिभा बचे कि जाए; मां-बाप का मजा
इसमें है कि बच्चे आज्ञाकारी हों, क्योंकि बच्चे आज्ञाकारी
हों तो मां-बाप का अहंकार प्रफुल्लित होता है। चाहे इस आज्ञाकारिता में बच्चे
गोबर-गणेश हो जाएं--हो ही जाते हैं। प्रतिभाशाली बच्चों को कोई मां-बाप पसंद नहीं
करते। प्रतिभाशाली बच्चा मां-बाप के लिए एक प्रश्नवाचक चिह्न बन जाता है। वह यूं
ही नहीं मान लेता। वह तर्क करेगा, विमर्श करेगा, विवाद करेगा, हजार प्रश्न उठाएगा। और मां-बाप की
सामर्थ्य क्या है, कितनी है? उनको उनके
मां-बाप मिटा गए हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह रोग चलता है। क्योंकि उनके मां-बाप का मजा
यह था कि बच्चे आज्ञाकारी हों। और आज्ञाकारी बच्चे को तो अनिवार्य रूप से अपनी
प्रतिभा को एक तरफ हटा कर रख देना होगा। उसे मां-बाप पर भरोसा करना चाहिए। जिनको न
ईश्वर का पता है, वे समझा रहे हैं कि ईश्वर है। जिन्हें
आत्मा की कोई अनुभूति नहीं, वे बच्चों को बता रहे हैं कि
आत्मा है। स्वर्ग और नर्क हैं। पाप और पुण्य हैं। कर्म का सिद्धांत है। जिन्हें
कुछ भी पता नहीं है वे इतने सिद्धांतों को थोप रहे हैं बच्चों पर। थोप पाने में
सफल हो सकते हैं सिर्फ अगर बच्चे की प्रतिभा को पहले हटा दिया जाए। इसलिए शुरू से
ही बच्चे की प्रतिभा को मिटाने की चेष्टा शुरू हो जाती है।
जिनको हम समझते हैं कि हमारे मंगल के लिए हैं, हमारे हित के लिए हैं--और वे भी सोचते हैं यही कि मंगल और हित के लिए ही
वे कार्य कर रहे हैं! कौन मां-बाप सोचते हैं कि बच्चों का अहित हो रहा है या अहित
वे कर सकते हैं? असंभव। और मैं उनकी नीयत पर शक नहीं करता
हूं। उनकी नीयत बिलकुल ठीक है। मगर उनकी विधि बिलकुल गलत है। नीयत अच्छी होने से
क्या होता है? सवाल है तुम क्या कर रहे हो?
फिर जो मां-बाप आधार रखते हैं बच्चे के लिए उन्हीं आधारों पर पूरा
समाज जीवन का भवन निर्माण करता है। नेतागण नहीं चाहते कि लोगों में बुद्धि हो, प्रतिभा हो। क्योंकि प्रतिभा हो तो इन प्रतिभा-शून्य लोगों को कौन नेता
माने! अगर लोगों के पास अपनी आंखें हों तो अंधों के पीछे कौन चले! और नानक कहते
हैं: अंधा अंधा ठेलिया। अंधे अंधों को ठेल रहे हैं। जरूरी है कि लोगों की आंखों
में अंधेरा भर दिया जाए, तो नेताओं की चांदी है। नहीं तो
बुद्धुओं की इस जमात के पीछे कौन चलेगा? कौन इन्हें मत देगा?
इनका हित यही है कि लोगों के पास आंख न हो, देखने
की क्षमता न हो, सोचने की कला न हो, उनके
पैर डगमगा रहे हों; वे अपने पैरों पर खड़े न हो सकते हों तो
नेताओं की बैसाखियां मांगने को मजबूर हो जाएंगे। मांगनी ही पड़ेंगी। अपनी आंख नहीं
तो किसी के चश्मे पर निर्भर होना पड़ेगा।
लोगों को अंधा बनाने का पूरा आयोजन राजनीति करती है। और वही काम जो
नेता बाहर के जगत में करता है, धर्मगुरु भीतर के जगत में करता
है। इसलिए पुरोहित में और राजनेता में पुराना समझौता है, साजिश
है। पंडित और पुरोहित और सत्ताधिकारी हमेशा साथ रहे हैं। उन्होंने एक-दूसरे को
सहयोग दिया है, क्योंकि दोनों का हित इसी में है: राजनेता
तुम्हें बाहर से अंधा बनाए और धर्मगुरु तुम्हें भीतर से अंधा बनाए। धर्मगुरुओं ने
कैसी पोप-लीला फैला रखी है कि अगर धर्मगुरुओं की सारी लीला को समझने की कोशिश की जाए
तो तुम चौंक जाओगे कि मनुष्य-जाति के साथ कैसा अनाचार हुआ है!
कल मैं स्वामी निखिलानंद की विवेकानंद पर लिखी हुई किताब देख रहा था।
निखिलानंद विवेकानंद के शिष्य हैं, विवेकानंद की
जीवन-कथा लिखी। विवेकानंद से किसी ने पूछा कि आप किस स्वर्णयुग की बातें कर रहे हैं?
कौन-सा था वह स्वर्णयुग? तो जानते हो
विवेकानंद ने स्वर्णयुग की क्या परिभाषा की! स्वर्णयुग की परिभाषा उन्होंने की: जब
पांच ब्राह्मण मिल कर एक पूरी की पूरी गाय को हड़प जाते थे, वह
था स्वर्णयुग।
विवेकानंद खुद मांसाहारी थे और विवेकानंद गलत नहीं कह रहे थे। हिंदू
धर्म मांसाहारियों का धर्म है। आज भला लाख बकवास करते हों कि गऊ-हत्या नहीं होनी
चाहिए, लेकिन सदियों से इनके पंडित और पुरोहित यज्ञों में
गऊओं की हत्या करते रहे। गऊओं की ही नहीं, घोड़ों की, और पशुओं की; और पशुओं की ही नहीं, आदमी की भी! जैसे गौमेध-यज्ञ होते थे वैसे ही नरमेध-यज्ञ भी होते थे
जिनमें आदमियों की बलि चढ़ा दी जाती थी।
और वेद और ब्राह्मण-ग्रंथ कहते हैं कि इससे बड़ा कोई पुण्य नहीं है कि
यज्ञ में गऊ की आहुति दी जाए। इसके दो लाभ हैं। जो गऊ की आहुति देता है उसका
स्वर्ग निश्चित है और जिस गऊ की आहुति दी जाती है उसका गोलोक निश्चित है, वह भी बैकुंठ जाएगी। देने वाला भी स्वर्ग जाएगा, मारी
गई गऊ भी स्वर्ग जाएगी। और फिर विवरण है कि गऊ के अंगों को किस तरह बांटा जाए,
किस-किसको बांटा जाए। जिनको बांटा जाता है वे सब ब्राह्मण
पंडित-पुरोहित हैं। किसको सिर मिले, किसको हृदय मिले,
किसको टांग मिले--कोई चूक नहीं की, पूरा हिसाब
बांट दिया है, किसको क्या मिलना चाहिए। आज यही पंडित-पुरोहित
गऊ-हत्या नहीं होनी चाहिए इसका आंदोलन चलाते हैं, क्योंकि अब
इसमें ज्यादा लाभ है कि गऊ-हत्या न हो। अब इसी के नाम पर जनता को विमूढ़ित किया जा
सकता है। तब उसमें लाभ था। लाभ से प्रयोजन है। आम खाने हैं, कोई
गुठलियां तो गिननी नहीं।
तुम्हारे शास्त्र इस तरह के अनाचारों से भरे हैं कि अगर उनको उठा कर
देखा जाए तो तुम भरोसा न कर सकोगे कि इनको धर्मशास्त्र कहें या अधर्मशास्त्र कहें।
लेकिन पंडितों-पुरोहितों और सत्ताधिकारियों के बीच पुरानी साजिश चल रही है। इन
दोनों ने मिल कर आदमी को खूब चूसा है। और आदमी को चूसना हो, उसका शोषण करना हो तो सबसे पहला काम है उसे डगमगा दो, उसके पैरों को कंपा दो, उसके आत्म-विश्वास को खंडित
कर दो। तो आदमी को समझाया गया है: परमात्मा पर भरोसा करो अपने पर नहीं। और जो अपने
पर ही भरोसा नहीं करता वह क्या खाक परमात्मा पर भरोसा करेगा? जो अपने पर भरोसा नहीं करता वह अपने भरोसे पर कैसे भरोसा करेगा? यह थोड़ा सोचो तो! जिसे अपने पर श्रद्धा नहीं है, उसे
अपनी श्रद्धा पर कैसे श्रद्धा होगी? बीज ही गलत हो गए,
तो अब इन गलत बीजों से ठीक-ठीक फूल और ठीक-ठीक फल कैसे आ सकते हैं?
प्रत्येक बच्चे को मां-बाप, शिक्षक, पंडित-पुरोहित, राजनेता उसके केंद्र से च्युत करने
में लगे हैं--हटाओ, उसकी जड़ों को उखाड़ दो, ताकि वह जिंदगी भर डरता रहे, घबड़ाता रहे, भयभीत रहे। जितना भयभीत रहे उतना ही अच्छा है। तो नर्क का डर बिठाओ उसके
प्राणों में, स्वर्ग का लोभ बिठाओ उसके प्राणों में। और यह
सारी मनुष्यता इन्हीं लोगों ने निर्मित की है।
इसलिए अजित, प्रत्येक व्यक्ति यहां पैदा तो होता है बड़ी
आत्म-श्रद्धा लेकर, लेकिन जल्दी ही उसकी आत्म-श्रद्धा पोंछ
दी जाती है। चंपा से कहा जाता है चमेली हो जाओ, चमेली से कहा
जाता है गुलाब हो जाओ, गुलाब से कहा जाता है कमल हो जाओ।
किसी को भी सुविधा नहीं है स्वयं होने की--कुछ और हो जाओ। और हैरानी की बात यह है
कि इस पृथ्वी पर जितने सुंदर फूल खिले, वे तभी खिले जब
उन्होंने अनुकरण छोड़ दिया।
जीसस यहूदी परिवार में पैदा हुए, यहूदी वातावरण में
पैदा हुए, लेकिन यहूदी नहीं थे; यहूदी
होते तो यहूदी सूली न लगाते। बगावत की, विद्रोह किया। किस
बात से बगावत की? इसी बात से बगावत की कि दूसरे का अनुकरण
नहीं करेंगे, अपने ढंग से जीएंगे, अपने
रंग में जीएंगे, अपना छंद खोजेंगे, अपना
गीत गाएंगे। क्यों गाएं किसी और का गीत? क्यों उधार जीएं?
क्यों बासा जीवन अंगीकार करें? क्यों किसी और
के वस्त्र पहनें? यही कसूर था जीसस का कि वे यहूदियों के
संप्रदाय, परंपरा, संस्कारों से अपने
को मुक्त कर लिए।
स्वतंत्र व्यक्ति को समाज कभी क्षमा नहीं कर पाता। विद्रोही को समाज
हर तरह से सजा देता है, हर तरह से सूली पर लटकाता है। और यह भी खयाल रखना कि
जीसस ईसाई भी नहीं थे। ईसाई तो हो ही कैसे सकते थे? अभी ईसाई
संप्रदाय तो पैदा ही न हुआ था। अभी तो पोप का कोई आगमन न हुआ था। अभी तो ईसाई
पादरी और पुरोहितों का जाल नहीं फैला था। यहूदी थे नहीं जिनका कि जाल था और ईसाई
तो हो कैसे सकते हैं, अभी तो ईसाइयों को आने में समय था। फिर
जीसस कौन थे? जीसस सिर्फ जीसस थे--न यहूदी, न ईसाई।
बुद्ध कौन थे? हिंदू घर में पैदा हुए थे मगर हिंदू नहीं थे। हिंदू
होते तो हिंदुओं ने उन्हें वही सम्मान दिया होता जो शंकराचार्य को दिया है। और मजा
यह है कि शंकराचार्य जो भी कहते हैं सब उधार है। सौ में निन्यानबे प्रतिशत तो
बुद्ध से ही उधार लिया है। रामानुज ने ठीक कहा है कि शंकराचार्य प्रच्छन्न बौद्ध
हैं, छिपे हुए बौद्ध हैं। मगर भाषा हिंदू धर्म की है,
विचार तो बुद्ध के हैं। लेकिन वस्त्र पहना दिए हैं शास्त्रों
के--हिंदू शास्त्रों के। सिर्फ शब्दों का हेर-फेर है। लेकिन शंकराचार्य को सम्मान
मिला, क्योंकि शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य किया,
उपनिषदों पर टीकाएं लिखीं, गीता की व्याख्या
की और खूब प्रशंसा की, खूब स्तुति की। बुद्ध ने ईमानदारी से
जैसी बात थी वैसी कही; जो गलत था उसे गलत कहा, जो ठीक था उसे ठीक कहा। और शास्त्रों में निन्यानबे प्रतिशत तो गलत है।
तो बुद्ध हिंदू नहीं थे। हिंदू घर में पैदा हुए थे। संस्कार हिंदुओं
के डाले गए थे, लेकिन वे उस जाल में फंसे नहीं। उन्होंने जाल तोड़
दिया, जंजीरें गिरा दीं। वे कारागृह के बाहर हो गए। और जाहिर
रहे कि बौद्ध तो हो ही नहीं सकते बुद्ध, अभी बौद्धों के आने
में तो देर थी। अभी अनुयायी तो पैदा होंगे, मंदिर बनेंगे,
प्रतिमाएं बनेंगी, शास्त्र बनेंगे, पंडित-पुरोहित आएंगे। अभी समय था। फिर बुद्ध कौन थे? बुद्ध सिर्फ बुद्ध थे--किसी समाज के अंग नहीं, किसी
संस्कार परंपरा के हिस्से नहीं।
यही सत्य है उन सारे लोगों के संबंध में जिनके जीवन से यह पृथ्वी
सुवासित हुई है; जो इस पृथ्वी के नमक हैं; जिनके
कारण यहां जिंदगी में थोड़ा स्वाद है; जिनके कारण कुछ दीए जले
हैं और कुछ रोशनी हुई है।
अजित सरस्वती, मुझसे तुम जो समझते हो उसे जब तक तुम औरों से न कहोगे
वह तुम्हें ही साफ न हो पाएगा। औरों से कहोगे तभी तुम्हें साफ हो पाएगा। औरों से
कहने में ही साफ हो पाएगा। उसमें निखार आएगा। जैसे कि कोई आईने के सामने खड़ा हो
तभी अपने चेहरे को देख सकता है। आईने के सामने खड़ा न हो तो चेहरे को कैसे देखेगा?
तुमने मुझसे सुना, जब तुम किसी से कहोगे तो
तुम आईने के सामने खड़े होओगे, दूसरा तुम्हारे लिए आईना बन
जाएगा। उससे कहते समय ही तुम्हें समझ में आएगा कि तुम समझे भी या नहीं समझे। अगर
उसे समझा पाए तो समझे, अगर उसे नहीं समझा पाए तो क्या खाक
समझे!
इसलिए यह बात ठीक ही है। यह तुम्हारा अनुभव ठीक ही है कि तुम कहते हो, "जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि असल में वह सब तो खुद को ही
समझाना था।'
लेकिन इसमें कोई कसूर नहीं। इसमें कुछ अपराध नहीं। यह बिलकुल सम्यक
है। मुझसे तुम जो पाओ, जो तुम्हारे हृदय में गूंज उठे, उस गूंज को तुम समझ ही तब पाओगे जब तुम किसी और के हृदय में वही गूंज
उठाने में सफल हो जाओ। मैं तुम्हारे हृदय की वीणा के तार छेडूं, उन्हें तुम तभी सुन पाओगे जब तुम किसी और की वीणा के तार छेड़ दोगे। तब
तुम्हें भरोसा आएगा, तुम्हारे पैरों में बल आएगा, तुम्हें जड़ें मिलेंगी। तब तुम्हें लगेगा कि नहीं, मैं
समझा तो ठीक ही समझा। तुम पर आत्म-श्रद्धा का पुनः अवतरण होगा। जो छीन ली गई है,
जो समाज की साजिश में खो गई है, मैं तुम्हें
उसे वापस देना चाहता हूं।
मेरे संन्यासी मेरे अनुयायी नहीं हैं। मेरे संन्यासी मेरे प्रेमी हैं, मेरे मित्र हैं, मेरे अनुयायी नहीं। मेरे संन्यासी
मेरे सहयात्री हैं; मेरे पीछे चलने वाले नहीं हैं, मेरे साथ चलने वाले हैं, मेरे संगी-साथी हैं। मेरे
संन्यासी, और तुमने जो अब तक संप्रदाय देखे हैं, उस भांति के लोग नहीं हैं। जीसस के साथ जो लोग चले थे, थोड़े-से लोग, वे जीसस के अनुयायी नहीं थे, उनके प्रेमी थे। जो लोग बुद्ध के साथ चले थे वे भी उनके प्रेमी थे। जब भी
कोई जीवंत चेतना इस पृथ्वी पर चलती है तो उसके अनुयायी नहीं होते, उसके मित्र होते हैं, संगी होते हैं, साथी होते हैं, सहयात्री होते हैं। जब बुद्ध,
महावीर, जरथुस्त्र, लाओत्सु
जैसे लोग विराट में लीन हो जाते हैं तो सिर्फ समय के तट पर रेत पर उनके छूट गए
पदचिह्नों को पकड़ कर फिर मंदिर बनते हैं, अनुयायी खड़े होते
हैं, संप्रदाय निर्मित होते हैं।
अभी तो मैं जिंदा हूं। इसलिए जो मेरे साथ अभी हैं बस उनको ही लाभ मिल
सकता है। मेरे पीछे तो बात वही हो जाएगी जो सदा होती रही है, उससे अन्यथा होने वाली नहीं है। एस धम्मो सनंतनो। कुछ किया नहीं जा सकता।
कोई उपाय नहीं है। पंडित-पुरोहित आएगा ही आएगा। वह राह ही देख रहा है। वह
प्रतीक्षा ही कर रहा है किनारे पर खड़ा हुआ कि उसे मौका मिल जाए। वह अनुयायी पैदा
करेगा।
मेरे साथ तुम हो तो तुम्हें जो भी समझ में आ रहा है, जब तुम मेरे पास बैठे हो, तब तुम्हारे हृदय में जरूर
तार छिड़ते हैं, स्वर बजता है--मद्धिम-मद्धिम, इतना मद्धिम कि तुम उसे पकड़ना चाहो तो एकदम पकड़ न पाओगे। जब तुम किसी को
समझाओगे तब वही मद्धिम स्वर प्रकट होगा, अभिव्यक्त होगा।
तुम्हें दूसरे से कहने के लिए शब्द खोजने पड़ेंगे। और वे शब्द ही तुम्हें पहली बार
बताएंगे कि तुम समझ पाए या नहीं; उन शब्दों में समाया शून्य
ही तुम्हें बताएगा कि तुम्हारे भीतर कुछ उतरा या नहीं, कोई
बूंद तुम्हारे गले के भीतर गई या नहीं। दूसरे की आंखों में जब तुम देखोगे चमक,
सन्नाटा, स्वीकार, श्रद्धा,
तब दूसरा तुम्हारे लिए दर्पण बन गया।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि जो भी तुम समझते हो मुझसे, जरूर दूसरे को समझाओ। यह समय को गंवाना नहीं है। यह सत्य के अन्वेषण में
अनिवार्य प्रक्रिया है। जीसस ने कहा है अपने शिष्यों से कि चढ़ जाओ मकानों की
मुंडेरों पर और जोर से चिल्लाओ, क्योंकि लोग बहरे हैं,
सुनेंगे नहीं। मगर चिल्लाए जाओ। हजार से कहोगे तो एक तो सुनेगा।
हजार सुनेंगे तो एक तो समझेगा। हजार समझेंगे तो एक तो चलेगा।
अगर तुम एक को भी सत्य की दिशा में गतिमान कर पाए तो इसका अंतिम
परिणाम यह होगा कि तुम्हें अपने पर भरोसा आ जाएगा कि तुम ठीक मार्ग पर हो। अगर
किसी का दीया तुम्हारी बातों से जल गया तो साफ हो जाएगा कि तुम्हारा दीया भीतर जल
चुका है। दूसरा हमेशा दर्पण का काम करता है। इसलिए ऐसा कभी भूल कर मत सोचना कि
दूसरे को समझाने में जो समय गया वह व्यर्थ गया।
तुम कहते हो, "अब यह समझ ही बोझिल हुई जा रही है।'
वह शुभ है। समझ तो शुरुआत है। समझ के पार जाना है। सत्य समझ के बहुत
पार है। लेकिन समझ की सीढ़ियां बनानी होंगी। समझ की सीढ़ियों के बिना तुम समझ के पार
भी न जा सकोगे। हां, समझ पर रुकना मत, अटकना मत।
सीढ़ियों को जकड़ कर बैठ मत जाना। सीढ़ियां पड़ाव नहीं हैं, ठहराव
नहीं हैं। मंजिल तो बिलकुल नहीं हैं। अगर थोड़ी-बहुत देर विश्राम करने को भी रुको
तो सावधान, क्योंकि खतरा यह है कि कहीं उसी विश्राम को तुम
मंजिल न समझ लो। और हर ऊपर की सीढ़ी मंजिल जैसी मालूम होगी, क्योंकि
तुम्हें मंजिल का तो पता नहीं है। इसलिए हर ऊपर की सीढ़ी पहली सीढ़ी से तो गहरी होगी,
ऊंची होगी, सारगर्भित होगी, रसपूर्ण होगी, आनंद की तरंगें उठेंगी, कुछ फूल खिलेंगे, कुछ गंध उड़ेगी, कुछ दीप जलेंगे, कुछ रोशनी होगी। मगर ध्यान रहे,
बढ़ते जाना है, बढ़ते जाना है।
उपनिषद का बहुमूल्य एक सूत्र है कि बढ़ते रहो, बढ़ते रहो। कहीं भी रुकना मत, कहीं भी ठहरना मत। उस
समय तक बढ़ते रहो जब तक कि मार्ग शेष रहे। जरा भी लगे कि अभी और आगे बढ़ा जा सकता है
तो ठहरना मत। ठहरने का मन बहुत बार होगा। बहुत बार लगेगा कि आ गई मंजिल, क्योंकि मन तो रुक जाना चाहता है। जहां भी मौका मिल जाए, वहीं रुक जाना चाहता है। मन की तो एक ही आकांक्षा है कि बस यहीं ठहर जाओ।
मन अलाल है, आलस्य से भरा है।
यह है सूत्र:
चरैवेति। चरैवेति।।
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः।
शेते
निपद्यमानस्य चराति चरतो
भगः।।
चरैवेति। चरैवेति।।
"चलते रहो! चलते रहो! बैठे हुए का सौभाग्य बैठा
रहता है, खड़े हुए का सौभाग्य खड़ा हो जाता है। पड़े रहने वाले
का सौभाग्य सोता रहता है, और चलने वाले का सौभाग्य चलने लगता
है। चरैवेति। चरैवेति।। चलते रहो! चलते रहो!'
उस समय तक चलते रहना है जब तक चलने को जरा-सा भी अवकाश रहे। हां, जब रास्ता ही समाप्त हो जाए तब तो क्या करोगे! जब चलने को ही जगह न बचे,
जब अंतिम पड़ाव आ जाए, जिसके आगे कोई मार्ग न
हो, जैसे गौरीशंकर पर कोई चढ़ जाए, तो
जब गौरीशंकर के शिखर पर पहुंच जाएगा तो आगे कोई मार्ग नहीं। अब तो उतार है,
अब चढ़ाव नहीं। जब ऊंचाई का वैसा शिखर आ जाए कि उसके आगे कदम उठाने
का अर्थ उतार हो, तब रुक जाना। लेकिन तब तक चलते चलना है।
समझ तो रोज-रोज बोझिल होती जाएगी। अगर कभी तुम पहाड़ की यात्रा पर गए
हो तो यह तुम्हें अनुभव हुआ होगा। जितनी ऊंचाई पर बढ़ोगे उतनी ही चीजें भारी मालूम
होने लगती हैं। जरा-सा झोला भी कंधे पर लटकाया हो, नाश्ता साथ लिया हो
कि थर्मस लटका रखी हो, वह भी भारी होने लगती है। कैमरा भी
भारी होने लगता है। सब छोड़ देना पड़ता है। जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती है वैसे-वैसे
तुम्हें निर्भार होना होगा। समझ भी बोझिल हो जाती है।
यह स्मरण रहे कि जो आज उपयोगी है वह जरूरी नहीं कि कल भी उपयोगी हो।
बीमार के लिए औषधि उपयोगी है, लेकिन स्वस्थ के लिए खतरनाक है।
जब स्वस्थ हो जाओ तो औषधि छोड़ देनी है। इस पार से उस पार जाना हो तो नाव उपयोगी है,
लेकिन उस पार पहुंच जाओ तो फिर नाव छोड़नी पड़ेगी। फिर नाव को सिर पर
लेकर मत घूमने लगना, नहीं तो बोझिल तो हो ही जाएगी।
तुम कहते हो, "भगवान, अब यह समझ ही
बोझिल हुई जा रही है।'
अच्छा हो रहा है, शुभ लक्षण है। इस बात का लक्षण
है कि ऊंचाई बढ़ रही है। इसलिए समझ बोझिल हो रही है। शब्द मात्र भी बोझ हो जाता है।
शून्य निर्भार है। शब्द में थोड़ा भार तो होगा। सिद्धांत में और भी ज्यादा भार
होगा। शास्त्र तो बहुत भारी होता है। इसलिए शास्त्रों को पकड़ कर जो बैठ गए हैं
उनके लिए पंख नहीं मिल सकते। वे आकाश में कभी उड़ न पाएंगे। यह नीला आकाश और इसकी
विराटता उनके लिए नहीं है।
आईना टूट गया, अक्स भी टूटा होगा
किसने सोचा था
ये अंजामेत्तमन्ना होगा
सब टूट जाता है; आईने भी टूट जाते हैं, अक्स भी टूट जाते हैं।
किसने सोचा था
ये अंजामेत्तमन्ना होगा
अभिलाषा का, अभीप्सा का यह अंतिम परिणाम होगा, यह किसने सोचा था? शून्य होने को कौन चलता है?
लोग तो पूर्ण होने को चलते हैं, क्योंकि पूर्ण
की भाषा अहंकार को प्रीतिकर लगती है कि मैं और पूर्ण हो जाऊं। मगर सत्य बात पूछते
होओ तो पूर्ण होने की बात तो सिर्फ निमित्त मात्र है। चूंकि तुम पूर्ण होना चाहते
हो, इसलिए सदगुरु पूर्ण की बात करते हैं, लेकिन वे जानते हैं कि पूर्ण होने की जो विधि तुम्हें देंगे उसमें तुम
शून्य हो जाओगे। और शून्य हो जाओगे तभी तुम जानोगे कि शून्य होने में ही तृप्ति है,
पूर्ण होने में नहीं; या यूं कहो कि शून्य
होने में ही पूर्ण होना है, और कोई पूर्णता नहीं है।
आईना टूट गया, अक्स भी टूटा होगा
किसने सोचा था ये अंजामेत्तमन्ना होगा
रात उमड़ी ही चली आती है तूफां की तरह
बुझ गई दर्द की कंदील भी, अब क्या होगा
सदियों-सदियों से, जन्मों-जन्मों से तुम दर्द की
कंदील लिए हुए चल रहे हो। लोग कहते जरूर हैं कि हमें दुख से छूटना है, लेकिन मुश्किल से मुझे कोई दिखाई पड़ता है जो दुख से सच में छूटना चाहता
है। दुख को लोग छाती से लगाए हुए हैं--संपदा की भांति। और उसका कारण क्या है?
कारण यह है कि दुख के सिवाय कुछ और तो तुम्हारे पास नहीं है। और यह
भी छूट गया तो बिलकुल खाली हाथ रह जाओगे। लोग कहते हैं: ना-कुछ से तो जो कुछ है
वही भला। दुख ही सही, दर्द ही सही, नर्क
ही सही--कुछ तो है!
रात उमड़ी ही चली आती है तूफां की तरह
बुझ गई दर्द की कंदील भी, अब क्या होगा
तेजतर वक्त की रफ्तार हुई जाती है
दम-बखुद शाम कि पैगामे-सहर क्या होगा
और जैसे-जैसे मनुष्य विकसित हो रहा है वैसे-वैसे समय की रफ्तार तेज
होती जा रही है।
तेजतर वक्त की रफ्तार हुई जाती है
दम-बखुद शाम कि पैगामे-सहर क्या होगा
अभी तो शाम ही है और दम तक घुटा जा रहा है। दम साधे हुए बैठे हैं।
किसी तरह अपने को सम्हाले बैठे हैं। और डर भी लग रहा है कि जब शाम से ही यह हाल है
तो सुबह का संदेश क्या होगा, कौन जाने! सुबह कैसी होगी,
कौन जाने!
तेजतर वक्त की रफ्तार हुई जाती है
दम-बखुद शाम कि पैगामे-सहर क्या होगा
मुस्कुराते हुए जख्मों के हसीं फूलों पर
बेनियाजी को तिरी प्यार तो आया होगा
तेरी महफिल न सही, दर्द की महफिल होगी
जिंदगी के लिए
कोई तो सहारा
होगा
तुम पूछते हो अजित सरस्वती, "जीना है
भगवत्ता को, जीना है परमात्मा को।'
जरूर जीना है, मगर कठिनाई यह है कि हम दर्द को किसी न किसी रूप में
कहीं न कहीं पकड़े हैं। वह छूट जाए तो परमात्मा अभी मिल जाए। एक दर्द छोड़ते हैं तो
दूसरा दर्द पकड़ लेते हैं।
तेरी महफिल न सही, दर्द की महफिल होगी
जिंदगी के लिए
कोई तो सहारा
होगा
दर्द भी लोगों के लिए सहारा है।
फिक्र टूटे हुए
ख्वाबों से हरारत
लेगी
चलो कोई फिक्र नहीं, टूटे हुए ख्वाबों से ही थोड़ी-सी
गर्मी तो मिलेगी!
फिक्र टूटे हुए ख्वाबों से हरारत लेगी
दिल पे बीते
हुए अय्याम का
साया होगा
चलो न सही कोई भविष्य, लेकिन जो बीत गए दिन
उनकी छाया ही बहुत है; उनकी सुरक्षा ही बहुत है।
कट रही हैं बस एक उम्मीद पे राहें "ताबां'
बेठिकानों का भी
कोई तो ठिकाना
होगा
बस उम्मीद पर जीए जाते हैं। उम्मीद, आशा। सब सपने हैं।
भगवत्ता तो अभी उपलब्ध हो जाए, इस क्षण, ठीक इसी क्षण! मगर हमारी अड़चन यह है कि हम दुख को नहीं छोड़ पा रहे हैं। हम
दुख में जीने के बहुत आदी हो गए हैं।
आईना टूट गया, अक्स भी टूटा होगा
किसने सोचा था ये अंजामेत्तमन्ना होगा
रात उमड़ी ही चली आती है तूफां की तरह
बुझ गई दर्द की कंदील भी, अब क्या होगा
तेजतर वक्त की रफ्तार हुई जाती है
दम-बखुद शाम कि पैगामे-सहर क्या होगा
मुस्कुराते हुए जख्मों के हसीं फूलों पर
बेनियाजी को तिरी प्यार तो आया होगा
तेरी महफिल न सही, दर्द की महफिल होगी
जिंदगी के लिए कोई तो सहारा होगा
फिक्र टूटे हुए ख्वाबों से हरारत लेगी
दिल पे बीते हुए अय्याम का साया होगा
कट रही हैं बस एक उम्मीद पे राहें "ताबां'
बेठिकानों का भी कोई तो ठिकाना होगा
बस उम्मीद पर जीए जाते हैं, आशा पर जीए जाते हैं।
ध्यान रहे अजित, परमात्मा को पीना है, भगवत्ता को जीना है--इसे उम्मीद न बनाना, इसे आशा न
बनाना, इसे कामना न बनाना, इसे
प्रार्थना न बनाना। सिर्फ दुख को छोड़ दो, सिर्फ सपनों को छोड़
दो। और भगवत्ता तो तुम्हारा स्वरूप है, उसे जीने की कोई अड़चन
नहीं है। आश्चर्य तो यह है कि हम भगवत्ता को क्यों नहीं जी रहे हैं! कठिनाई यह
नहीं है कि भगवत्ता को कैसे जीएं; कठिनाई, आश्चर्य, चमत्कार, जो भी कहो,
यह है कि हमने कैसे भगवत्ता को भुला दिया है--जो हमारे प्राणों का
प्राण है। जो हमारे भीतर दीया जल ही रहा है सदियों से, सदा
से, अनंत काल से, उसे हम कैसे विस्मरण
कर दिए हैं! बस स्मरण की बात है। और स्मरण अभी आ जाए, यह दुख
छूटे।
इसलिए दुख को किसी भी रूप में बचाना मत। हम नए-नए दुख बना लेते हैं।
जैसे उदाहरण के लिए "भगवत्ता को जीना' यह नया दुख बन सकता
है, कि अभी तक भगवान नहीं मिला। मोक्ष पाना है, अभी तक मोक्ष नहीं मिला। निर्वाण कैसे होगा? यह
जिंदगी बीती जाती है और निर्वाण का कुछ पता नहीं चल रहा है, कहीं
यूं ही खाली हाथ समय न चला जाए! यह नया दुख हो गया।
मेरी सारी चेष्टा यही है कि तुम्हें सजग करूं इस बात के प्रति कि कुछ
पाना नहीं है। जो पाना है वह मिला है और पाने की उम्मीद में ही चूका जा रहा है।
तुम कहते हो अजित, "अब शिष्य की तरह नहीं,
भगवान अब तो भक्त को ही स्वीकार करें।'
मेरी तरफ से तो कब अड़चन है? अड़चन तो जब भी है
तुम्हारी तरफ से है। मेरी तरफ से तो तुम भक्त की तरह ही स्वीकृत हो। तुम मानो या न
मानो। मैं तुम्हारे मानने न मानने की फिक्र थोड़े ही करता हूं। मेरी तरफ से तो तुम
भक्त की तरह ही स्वीकृत हो। तुम कहते हो, शिष्य हूं, तो मैं कहता हूं चलो कोई बात नहीं। धीरे-धीरे समझ जाओगे कि हो तो भक्त ही।
शिष्य का मतलब ऐसे ही जैसे चदरिया ओढ़े बैठे हैं और हो तो भीतर नंगे ही, चदरिया ही ओढ़ ली तो क्या फर्क पड़ता है? आदमी तो नंगा
ही है, चाहे चादर ओढ़े, चाहे कंबल ओढ़े,
चाहे सूट-पैंट पहने, चाहे टाई बांधे, कुछ भी करे। मगर सब कपड़ों के भीतर आदमी नग्न है। यूं ही भक्ति है। तुम
कितने ही आवरण ऊपर से ओढ़ लो, भीतर तो भक्त मौजूद ही है।
किसको पड़ी है, कौन बंटाए किसी का गम
अपनी सलीब आप उठाए हुए हैं हम
इस दौरे-कमखुलूस में क्या गुफ्तगू का लुत्फ
अलफाज के हुजूम में घुटने लगा है दम
कैसे दिलों का रब्त बने मसलहत का रब्त
अब दाद का भरम है, न बेदाद का भरम
हर लम्हा हयात का मांगे खुलूसे-शौक
जुल्फों के पेचो-खम हों कि राहों के पेचो-खम
एक ऐसी रहगुजर भी है, हर रहगुजर से दूर
बहके हैं लाख बार जहां वक्त के कदम
कमबख्त उनके रहम के काबिल है जिंदगी
किस्मत में जिनकी बादाफरावां है प्यास कम
"ताबां' है जिंदगी की हमें
हर अदा अजीज
महरूमियों का रंज न बर्बादियों का गम
कुछ थोड़े-से वस्त्रों को गिराने की बात है। हम हजार बार दरवाजे पर
पहुंच-पहुंच कर लौट आते हैं।
एक ऐसी रहगुजर भी है, हर रहगुजर से दूर
बहके हैं लाख
बार जहां वक्त
के कदम
बहुत बार हम द्वार पर जाते हैं और लौट आते हैं। हाथ में द्वार की
सांकल भी ले लेते हैं, बजाते-बजाते रुक जाते हैं। शायद डर जाते हैं।
रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मैं परमात्मा को खोजता रहा, खोजता रहा, खोजता रहा। और खोजते-खोजते कभी वह उस
तारे के पास दिखाई पड़ता, कभी उस तारे के पास दिखाई पड़ता। जब
तक दूर-दूर दिखाई पड़ता रहा मैं खोजता रहा। खोज में बड़ा आनंद था। अब मिला अब मिला;
बड़ी आशा थी, बड़ी उम्मीद थी।
और फिर एक दिन सारी आशाओं पर पानी फिर गया और सारी उम्मीदें मिट गईं, क्योंकि मैं उसके दरवाजे पर पहुंच गया, जहां तख्ती
लगी थी कि यही उसका मकान है। छाती ठिठकी, मन घबड़ाया। अब तक
तो खोज थी, अब क्या होगा? आगे क्या
करूंगा? पहले तो चढ़ गया सीढ़ियां। पुरानी धुन थी। हाथ में
सांकल भी ले ली द्वार की। बजाने को ही था कि मन ने कहा, जरा
सोच ले। क्या कर रहा है? परिणाम का पहले विचार कर ले। तूने
द्वार खटखटाया, काश द्वार खुल गया, फिर?
काश परमात्मा सामने आ गया, फिर? काश उसने आलिंगन में ले लिया, फिर? फिर किसको खोजेगा? फिर सब खतम। फिर न कोई खोज है,
न कोई दौड़ है, न कोई उम्मीद है, न कोई आशा है, न दूर तारों के पास परमात्मा की झलक
है। और जी ऐसा घबड़ाया...स्वभावतः घबड़ा जाएगा। तुम खुद ही सोचो, तुम होते उस जगह।
तो रवींद्रनाथ ने कहा कि मैंने चुपचाप सांकल छोड़ दी कि कहीं भूल से बज
न जाए। आहिस्ता से छोड़ दी। जूते उतार कर हाथ में ले लिए कि सीढ़ियां उतरूं, कहीं आवाज हो जाए और कहीं वह दरवाजा खोल ही दे और कहे, कहां जा रहे हो, अब आ ही जाओ! तो फिर भागते भी न
बनेगा। आखिर लाज-संकोच भी कोई चीज है, शिष्टाचार भी कोई चीज
है! और फिर जूते हाथ में लेकर सीढ़ियों से उतर कर जो भागा हूं सो पीछे लौट कर नहीं
देखा। जितने दूर निकल सकता था निकल गया।
अब फिर जूते पहन लिए हैं। अब फिर उसको खोज रहा हूं। दूर तारों के पास
उसकी झलक दिखाई पड़ती है और चित्त आह्लादित होता है। फिर उम्मीद बनने लगी है। फिर
उम्मीद में नए अंकुर आने लगे हैं। फिर आशा में नए फूल खिले, फिर कल्पना के नए दीए जले, फिर सपनों और ख्वाब के नए
ताने-बाने बुने, फिर मजा आने लगा है। फिर गीत गुनगुनाने लगा
हूं। फिर मस्ती है चाल में। फिर खोज के इरादे हैं। कुछ करके दिखाने का रस है।
हालांकि अब मुझे पता है कि उसका घर कहां है। इसलिए उस घर को छोड़ कर और सब जगह
खोजता हूं।
यह गीत बड़ा अर्थपूर्ण है और बड़े अनुभव से भरा हुआ है।
तुम कहते हो अजित, "अब शिष्य की तरह नहीं,
भगवान अब तो भक्त को ही स्वीकार करें।'
मेरी तरफ से तो कब से स्वीकार किया, तुम मानते ही नहीं।
तुम अभी भी कहे जा रहे हो कि नहीं, आप तो भक्त की तरह
स्वीकार करें! मैं तो स्वीकार ही किए हूं। मैं तो जब भी किसी को संन्यास दे रहा
हूं तो मैं तुम्हारी अंतिम संभावना पर ही ध्यान रखे हुए हूं। तुम ही छिटक-छिटक
जाते हो। मैं तो जब तुम्हारे गले में संन्यास की माला डालता हूं तो परमात्मा के
गले में ही डाल रहा हूं। मेरी तरफ से तो कोई कमी नहीं है। मगर तुम्हारा भी ध्यान
रखना पड़ता है कि तुम अगर कहते हो मैं तो अभी विद्यार्थी हूं, तो मैं कहता हूं चलो ठीक, कुछ तो हो। कहते हो शिष्य
हूं, तो मैं कहता हूं चलो यही ठीक। कुछ तो आगे बढ़े। अब तुम
कहते हो, भक्त होना चाहता हूं, भक्त की
तरह स्वीकार करें। और भी ठीक। रही मेरी तरफ से अगर तुम पूछो तो मैंने सदा उसी तरह
स्वीकार किया है। संन्यास दे ही उसको रहा हूं जिसके भीतर, चाहे
बीज में ही सही, भक्त होने की संभावना पड़ी है।
और भक्त के बाद फिर क्या शेष रह जाता है? भक्त के बाद अगला कदम भगवान का है। जो भक्त हुआ, अब
देर नहीं, जल्दी ही भगवत्ता अवतरित हो जाएगी। भक्त होने का
अर्थ है घड़ा खाली है, स्वच्छ है; अब जब
भी मेघ से वर्षा होगी अमृत झरेगा, घड़ा भर जाएगा। भक्त है
शून्य होना, निर्मल होना, प्रेम-मग्न
होना। और जो भक्त है उसके द्वार पर देर-अबेर परमात्मा दस्तक देगा ही। जब भी हमारी
भक्ति परिपूर्ण होगी, हमारा शून्य पूरा होगा, बेशर्त होगा, उसी क्षण परमात्मा उतर आता है। वसंत आ
जाता है, मधुमास आ जाता है--और ऐसा मधुमास जो आता है तो फिर
कभी जाता नहीं!
दूसरा प्रश्न: भगवान,
आप सिंधियों का ऐसा मजाक क्यों उड़ा रहे हैं? क्या उनमें कोई खूबियां नहीं हैं?
मेलाराम
असरानी,
साईं, बड़ी खूबियां हैं! कहावत है कि अगर सिंधी आदमी और सांप
रास्ते पर मिल जाएं तो पहले सिंधी आदमी को मारना। अरे सांप का काटा तो बच जाए,
सिंधी का काटा तुमने कभी सुना है बचा हो? असंभव।
बड़ी खूबियां हैं। खूबियां ही खूबियां हैं। मजाक यूं ही थोड़े उड़ा रहा
हूं। खूबियां हैं, तभी उड़ा रहा हूं। जिनकी खूबियां हैं उन्हीं की चर्चा
करता हूं। जिनमें कुछ भी खूबियां नहीं उनकी क्या खाक चर्चा करो! सिंधी तो पहुंचे
हुए साईं हैं!
अब कल ही मैंने तुमसे कहा न--दादा चेनानी! यह उनका पुराना नाम है, अब तो वे स्वामी अरूप कृष्ण! मैंने उनसे कहा कि साईं, कब तक पापड़ बेलोगे? पापड़ ही बेलते थे, आधुनिक ढंग के पापड़। आलू-चिप्स की फैक्ट्री चलाते थे। यह भी पक्का नहीं कि
आलू भी असली कि नकली! सिंधी आलू का क्या भरोसा! मगर हिम्मतवर आदमी हैं। उन्होंने
कहा, अच्छी बात। तो अब क्या करना है? मैंने
कहा, अब भरम जाल फैलाओ, भरम-ज्ञान
फैलाओ। भरम-ज्ञान फैलाने लगे। तो वह पापड़ बेलना बंद कर दिया उन्होंने, अब सच में ही साईं हो गए। पहले नाममात्र के साईं थे, अब तुम्हें सत्संग करना हो तो इधर-उधर जाने की कोई जरूरत नहीं, कि दादा झामनदास का सत्संग करने जा रहे हैं! एक से एक साईं यहां मौजूद
हैं--सब रंग के, सब ढंग के।
स्वामी दयाल भारती हैं। उसने भी पूछा है कि भगवान, आपने सब सिंधी साइयों की बात की, मुझे भूल ही गए!
अरे मैं भी यहीं हूं! लिखा है, भगवान, मां
बित सिंधी आहियां दादा साईं। मुंखे छा भुलिजी विया तव्हां? दादा
साईं मैं भी तो सिंधी हूं, क्या आप मुझे भूल गए? अरे भूला नहीं, याद हो तुम भी। सिर्फ राह देख रहा था
जब मौका आए...।
(इतने में बुद्धाहाल की छत पर बंदरों के कूदने की
आवाजें तथा पक्षियों का शोरगुल। सब हंसते हैं। भगवान श्री हंसते हुए प्रवचन जारी
रखते हैं।)
देखा, मौका जब आता है...।
सीता मैया ने लिखा है। लिखा है, भगवान, मैंने तीन-चार दिन पहले मां से यह बात कही कि भगवान सब पर तो बोलते हैं,
पर सिंधियों पर जाने क्यों नहीं बोलते! माना कि सिंधी दाल में नमक
के बराबर हैं, फिर भी हैं तो। और जाने कैसे आपने सुन लिया और
दूसरे ही दिन आपने सिंधियों को भी याद किया और तीन दिनों से रोज ही याद कर रहे
हैं। यह सिर्फ एक दिन की बात नहीं है, मेरे साथ तो कितनी बार
यह घटित हो चुका है। प्रभु, आप एक जगह बैठे-बैठे सब कुछ कैसे
जान लेते हैं, सुन लेते हैं?
सीता मैया, इसीलिए तो एक जगह बैठा रहता हूं कि इधर-उधर जाओ,
इस बीच चूक जाओ कुछ, न सुन पाओ। एक ही जगह
बैठा रहता हूं, ताकि कुछ चूक न जाए। सुन ली मैंने तेरी
पुकार। मैंने कहा कि ठीक, बात तो ठीक तू कह रही है। मगर एक
बात तूने गलत लिखी है कि माना कि सिंधी दाल में नमक के बराबर हैं, फिर भी हैं तो--यह बात गलत है। सिंधी अगर दाल में नमक के बराबर भी हों तो
दाल नमक के बराबर हो जाती है और सिंधी दाल के बराबर हो जाते हैं। मौका भर उन्हें
मिल जाए कहीं प्रवेश का, फिर वे कब्जा पूरा करते हैं।
उल्हासनगर सिंधी एसोसिएशन वालों ने एक ऐसी गोली बनाई है जिससे मोटापे
की बीमारी दूर करना बाएं हाथ का खेल हो गया है। मेरी एक संन्यासिनी है--प्रीति।
तुम उसके पुराने नाम से परिचित हो--प्रीति गांगुली; अशोक कुमार की लड़की
है, अभिनेत्री है। अभी यहां चार-पांच दिन से थी, कोई उसे पहचाना ही नहीं। क्योंकि पहले वह इतनी वजनी थी, इतनी मोटी थी कि हमारी जरीन है, तीन चढ़ जाएं अकेली
प्रीति पर। तरु वगैरह तो पासंग में समझो। वह बिलकुल दुबली हो गई है। हालांकि फिल्म
बनाने वाले बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं, क्योंकि उसको पार्ट
ही मिलता था मोटेपन के कारण। वह कई फिल्मों में काम कर रही थी, अब वे फिल्म वाले बड़ी मुश्किल में पड़े हैं कि अब करें क्या। क्योंकि आधा
पार्ट कर चुकी है, आधी फिल्म बन चुकी है और अब उसको फिल्म
में लेने से लगता है कि वह कोई और ही है। अब तो बिलकुल हीरोइन मालूम होती है,
अब वह पुराना टुनटुन वाला रूप गया। उसने यही उल्हासनगर सिंधी
एसोसिएशन वालों ने जो गोली बनाई, इसका उपयोग किया।
खूब विज्ञापन होता है इस गोली का। सिर्फ एक गोली के उपयोग से आधा किलो
वजन प्रतिदिन कम कीजिए। यह आश्चर्यजनक दवा की गोली पांच सौ रुपए में आती है। साथ
ही गोली का प्रयोग किस प्रकार करें, इसका सचित्र वर्णन
करने वाली पुस्तिका मुफ्त में मिलती है। पुस्तिका में लिखा है कि गोली को सामने
जमीन पर रख कर खड़े हो जाइए और झुक-झुक कर सुबह-शाम बीस-बीस बार स्पर्श करिए। दूसरी
विधि है: गोली को एक धागे से बांध कर छत से इस प्रकार लटकाइए कि वह आपके सिर से
पांच फीट ऊपर रहे, उसे उचक-उचक कर छूने का दिन में दस बार
प्रयास कीजिए। तीसरी विधि: ब्रह्ममुहूर्त में उठ कर गोली को बाएं हाथ में रख कर एक
मील तक जाइए, फिर दाहिनी मुट्ठी में बंद करके एक मील और आगे
तक जाइए। फिर गोली को जेब में रख कर घर लौट आइए। इसी प्रक्रिया को शाम के वक्त भी
दोहराने से दो गुना लाभ होता है। चौथी विधि है कि खाना खाने से पहले जमीन पर एक दो
इंच चौड़ा और दो इंच लंबा कागज का टुकड़ा रखिए। फिर उससे दस फीट दूर खड़े होकर गोली
को इस तरह उछालिए कि गोली कागज पर जाकर गिरे। यदि गोली कागज के इस तरफ रह जाए तो
उस दिन उपवास करिए। यदि गोली कागज के उस पार निकल जाए तो सिर्फ एक प्लेट दलिया
मात्र ही उस दिन खाइए। और यदि सौभाग्य से गोली कागज पर जाकर ही रुक जाए तो चार बार
ईश्वर का स्मरण करिए और गोली को फिर से उछालिए।
और तुम कह रहे हो कि सिंधियों में क्या खूबियां हैं! अरे खूबियां ही
खूबियां हैं! अब यह गोली देख रहे हो! दुनिया भर के चिकित्साशास्त्री परेशान हैं कि
कोई दवा खोजें कि आदमी का मोटापा कैसे कम हो। और इन्होंने एक ऐसी गोली खोजी कि एक
गोली से सारी दुनिया का मोटापा कम कर दें; एक खरीद लाओ गोली,
घर भर के काम आए। सुबह बाप साध रहा है, फिर
मां साध रही है, फिर बहन साध रही है, फिर
चाचा-चाची, जो भी साधना हो सब साधें। एक गोली काफी है। और एक
जनम में साधो, दो जनम में साधो, तीन
जनम में साधो, एक गोली काफी है। इसको कहते हैं खोज।
कल झामनदास मिलने आए थे। एकदम गमगीन सूरत, सूरत पर बिलकुल बारह बजे, सिर झुकाए, दाढ़ी-मूंछें बढ़ाए। मैंने पूछा, झामन, क्या बात है साईं? तुम तो बिलकुल ही बदले-बदले नजर आ
रहे हो! क्या कोई मुसीबत का पहाड़ ऊपर आ गिरा?
उन्होंने दार्शनिक अंदाज में कहा, मुझ अकेले पर नहीं
भगवान, इस सारे देश पर मुसीबत आ पड़ी है, और अभी और आने वाली है। उन्नीस सौ अस्सी का यह वर्ष देश के लिए अत्यंत
खतरनाक सिद्ध हुआ है। एक के बाद एक भारत मां के सुपुत्र विदा होते जा रहे हैं। यह
दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है? महापुरुषों की मृत्यु हो रही
है।
मैंने पूछा, साईं, जरा विस्तार से कहो।
तुम्हारा तात्पर्य क्या है?
उनकी आंखों में आंसू छलक आए। रूमाल से पोंछते हुए दुखी स्वर में बोले, यह उन्नीस सौ अस्सी का साल भूतपूर्व राष्ट्रपति वी.वी.गिरी को खा गया।
संजय गांधी विमान-दुर्घटना में असमय काल-ग्रसित हुए। फिर महान गायक मोहम्मद रफी का
देहावसान हुआ। और अभी दो दिन से मुझे भी कुछ सर्दी-जुकाम महसूस हो रहा है। पता
नहीं ईश्वर की क्या मर्जी है!
देख रहे हो! और तुम कहते हो कि सिंधियों में खूबी क्या! अरे खूबियां
ही खूबियां हैं।
झामनदास की पत्नी एक दिन उनके आफिस पहुंच गई। देखा कि आफिस की
टाइपिस्ट लड़की साईं की गोद में बैठी है, और दोनों में खूब
घुट-घुट कर बातचीत चल रही है। जैसे ही पत्नी को देखा, झट
साईं ने उस लड़की को धकाते हुए कहा, हट, कमबख्त कहीं की! कितनी बार कहा कि यदि दफ्तर में कुर्सियों की कमी है,
तो इसका यह मतलब नहीं है कि मेरी गोद में चढ़-चढ़ कर बैठो। चल उतर! यह
बदतमीजी मुझे जरा भी पसंद नहीं आती।
साईं की बीबी बोली, अच्छा तो यह बात है कि आपके आफिस
में कुर्सियों की कमी है!
साईं ने कहा, तुम ठीक कहती हो। मगर यह तो बताओ कि तुम इस समय
अनायास यहां कैसे आ गईं!
जवाब मिला, पहले तुम यह बताओ कि तुम अभी-अभी क्या कर रहे थे!
शर्म नहीं आती तुम्हें? जरा सोचो, क्या
सरकार तुम्हें इसी काम के लिए पैसे देती है?
साईं बोले, अरे इसमें शर्म की भला कौन-सी बात है? यह काम तो मैं मुफ्त में ही कर देता हूं।
तुम पूछ रहे हो कि "आप सिंधियों का ऐसा मजाक क्यों उड़ा रहे हैं? क्या उनमें कोई खूबियां नहीं?'
मेलाराम असरानी, खूबियां ही खूबियां हैं। इतनी
खूबियां हैं कि अगर तुम कहो तो मैं उड़ाता ही रहूं उनका मजाक। मगर फिर दूसरे नाराज
हो जाएंगे। यह बड़े अदभुत लोगों की जमात है! अगर मैं कुछ दिन मारवाड़ियों को भूल
जाता हूं, फौरन मुझे कोई लिख देता है, मारवाड़ी
ही कोई लिख देता है कि क्या बात है भगवान, मारवाड़ियों को
बिलकुल भूल गए!
यह मस्त लोगों की जमात है। सिक्खों को भूल जाता हूं, कोई सरदार जी लिख देते हैं, क्या बात है, सरदार विचित्तर सिंह का क्या हुआ? अहमक अहमदाबादी की
कुछ दिन से चर्चा नहीं की, प्रश्न आ गया है। कोई गुजराती
सज्जन पूछ रहे हैं कि आप अहमक अहमदाबादी की बिलकुल बात नहीं कर रहे हैं?
उस दिन अमृत प्रिया ने प्रश्न पूछा था कि ये सत्यानंद, ये सहजानंद, ये सूत्तर-मूत्तर की ही बात करते रहते
हैं! एक सज्जन को बहुत गुस्सा आ गया। उन्होंने लिखा कि ये सूत्तर के साथ मूत्तर
जोड़ दिया, यह बात ठीक नहीं है। कारण उन्होंने जो बताया वह यह
कि मूत्तर शब्द सुन कर मुझे मूत्तर जी भाई देसाई की याद आ गई।
अजीब मस्त लोगों की जमात है यह! यहां कोई रोते-धोते धार्मिक लोग
इकट्ठे नहीं हुए हैं। अब कोई गुजराती कहे--मूत्तर जी भाई देसाई! अब वे तो बेचारे
भूत-प्रेत हो गए, अब छोड़ो भी उनको, जाने भी दो!
मगर मैं छोडूं भी तो छोड़ने नहीं देते। मुझे भी याद आई थी, कोई
तुम्हीं को याद आई थी? अरे जब साफ सूत्तर-मूत्तर की बात हो
रही है तो कैसे मूत्तर जी भाई देसाई को कोई भूल सकता है? कम
से कम मैं तो नहीं भूल सकता। मगर मैं चुप्पी साध गया, संयम
साध गया। हालांकि संयम में मेरा भरोसा नहीं है, मगर कभी-कभी
साध जाता हूं कि अरे जाने भी दो। भूत-प्रेत हो चुके, अब इनकी
क्या चर्चा करना! मगर कोई दुष्ट गुजराती छेड़ ही दिया बात।
अब मेलाराम असरानी, खुद ही छेड़ दिए।
मेलाराम, तुम कब तक मेलाराम बने रहोगे? अरे
रामजी, अब संन्यासी बनो! बहुत हो चुका मेलाराम, अब मैं तुमको शुद्ध राम बनाऊं। क्या मेलाराम? आजकल
शुद्ध राम तो कहीं मिलते नहीं। यहां कई आते हैं, कोई बुलाकी
राम, कोई मेलाराम, तरहत्तरह के राम आते
हैं! रामजी तो बिलकुल लापता ही हो गए। तुम तो अब संन्यास ले डालो मेलाराम। शुद्ध
राम का तुम्हें नाम दूंगा। अब असली में साईं होने का समय आ गया।
और सब सिंधी छिपे हुए साईं हैं। उघाड़ना है बस। जरा चादर ओढ़े बैठे हैं, चादर सरकाई कि साईं प्रकट हुए। खूबियां तो बहुत हैं। और तुम कहो तो फिर
उनकी चर्चा जारी रखी जाए। जैसी तुम्हारी मर्जी। कल लिख कर भेज देना।
आज इतना ही।
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