सहज आसिकी नाहिं—(प्रश्नचर्चा)—ओशो
अंतर-आकाश के फूल—प्रवचन-दसवां
दिनांक 09 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न: भगवान,
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्
यस्मिन
देवा अधि विश्वे निषेदुः।
यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति
य इत् दद्
विदुस्त इमे समासते।।
जिसमें सब देवता भलीभांति स्थित हैं उसी अविनाशी
परम व्योम में सब वेदों का निवास है। जो उसे नहीं जानता वह वेदों से क्या निष्कर्ष
निकालेगा? परंतु जो जानता है
उसे वह उसी में से भलीभांति मिल जाता है।
भगवान, श्वेताश्वर उपनिषद के
इस सूत्र को हमारे लिए खोलने की अनुकंपा करें।
सत्यानंद,
यह सूत्र उन थोड़े-से अदभुत सूत्रों में से एक है जिन्हें गलत समझना तो
आसान, सही समझना बहुत मुश्किल। एक-एक शब्द की गहराई में
उतरना जरूरी है। एक-एक शब्द जैसे जीवन-अनुभव का निचोड़ है। हजारों गुलाबों से जैसे
इत्र की कुछ बूंदें बनें, ऐसे हजारों समाधि के अनुभव इस एक
सूत्र में पिरोए हुए हैं।
पहले एक-एक शब्द को अलग-अलग समझ लें, फिर उनकी माला बना
लेना कठिन न होगा। पहला शब्द है: ऋचा। विश्व की किसी भाषा में ऐसा शब्द नहीं है।
ऋचा का साधारण अर्थ तो होता है कविता, मगर वह तो कविता से ही
प्रकट हो जाता है, उसके लिए ऋचा शब्द की कोई आवश्यकता नहीं
है। कविता के पर्यायवाची शब्द दुनिया की सभी भाषाओं में हैं। संस्कृत अकेली भाषा
है, जिसमें कविता के लिए दो शब्द हैं--कविता और ऋचा। कविता
वह, जो मनुष्य निर्मित करता है, बांधता
है छंद में, राग में, गीत में, सौंदर्य देता है, निखारता है, रूप
देता है, रंग देता है।
जैसे कोई चित्रकार तितली बनाए; प्यारे हों रंग,
सुंदर हो आकृति; अब उड़ी तब उड़ी ऐसा लगे--मगर
उड़े कभी भी नहीं, उड़ सके ही नहीं। कैनवास पर ही रहेगी;
न कहीं आएगी न कहीं जाएगी। बगीचे में फूल भी खिलेंगे तो भी वह तितली
कैनवास पर ही रहेगी। सूरज भी निकलेगा, किरणें संदेश भी
लाएंगी कि चलो यात्रा पर चलो, हवाएं भी आएंगी, शायद कैनवास भी फड़फड़ाएगा; लेकिन तितली के पंख नहीं
खुलेंगे। नहीं खुल सकते हैं। वह तो केवल तस्वीर है।
कविता मात्र आदमी के द्वारा बनाई गई तस्वीर है; कितनी ही प्यारी हो फिर भी तस्वीर है। और ऋचा--जब मनुष्य मिट जाता है। मन
मिट जाता है तो मनुष्य मिट जाता है। मन नहीं तब ध्यान। उस ध्यान में जो उतरता है
आकाश से, अंतरिक्ष से, वह है ऋचा। उसके
छंद नहीं बिठाने होते। उसके बंध नहीं बिठाने होते। उसकी मात्राएं नहीं जुटानी
होतीं। वह गीत जीवित है। वह जीवंत काव्य है। वह बहता है। जैसे तितली उड़ती है। जैसे
असली फूल खिलते हैं। वह कागज का फूल नहीं है, गुलाब की झाड़ी
पर खिला फूल है। वह तस्वीर नहीं है दीए की, सच में ही दीया
है।
ऋचा उतरती है समाधिस्थ चेतना में। काव्य है सौंदर्य की संवेदनशीलता।
और ऋचा है परमात्मा को अपने में से बहने देना। जब कोई बांस की पोंगरी की तरह हो
जाता है, शून्य, खाली, तो बस परमात्मा के ओंठों पर बांसुरी बन जाता है।
इसलिए कविता तो कवि की होती है, ऋचा ऋषि की होती है।
दोनों ही गाते हैं, दोनों ही गुनगुनाते हैं; मगर दोनों की गुनगुनाहट के स्रोत अलग हैं। ऋषि वह है जो परमात्मा के साथ
एक हो गया। उस एकता से जो आनंद की लहरें उठती हैं, उस एकता
से जो नृत्य उठता है, जो घूंघर बज उठते हैं--वह है ऋचा। उस
एकता के बिना मनुष्य अपने सौंदर्य-बोध से, अपने मन से,
जो निर्मित करता है--कितना ही प्रीतिकर हो, मगर
रहेगा मुर्दा। परमात्मा के बनाए बिना किसी चीज में कोई जीवन नहीं होता है। आदमी
केवल लाशें गढ़ सकता है, मूर्तियां बना सकता है, लेकिन उनमें प्राण का संचरण नहीं कर सकता, उनमें
श्वास नहीं फूंक सकता।
ऋचा है सांस लेती हुई कविता। ऋचा है सप्राण काव्य। कविता है केवल देह, जब देह में आत्मा भी विराजित होती है तो ऋचा।
दूसरा शब्द है: अक्षर। वर्णमाला को हम--केवल हम सारी पृथ्वी पर--अक्षर
से शुरू करते हैं। अ अक्षर का प्रतीक है। अच्छा नहीं किया लोगों ने कि अभी कुछ
वर्षों से वर्णमाला क ख ग से शुरू होने लगी। वह अ से ही शुरू होनी चाहिए। अ यानी
अक्षर। अक्षर परमात्मा का दूसरा नाम है। सभी यात्रा उसी से शुरू होनी चाहिए। शब्द
की यात्रा के पहले कदम में ही अक्षर की झलक होनी चाहिए। इसलिए हमारी वर्णमाला
अक्षरमाला है। हम ही हैं केवल पृथ्वी पर जो अक्षर जैसे अनूठे भाव का प्रयोग कर रहे
हैं वर्णमाला के लिए। और वर्णमाला की यात्रा का जो पहला कदम है, अ, वह अक्षर का संकेत है--जिसका क्षय न हो; जो कभी झरे न; जो कभी मिटे न; जो
है, सदा था, सदा रहेगा।
तीसरा शब्द है: व्योम। आकाश ही कहने से चल जाता। लेकिन आकाश वह है जो
हमारे बाहर फैला है। और व्योम आकाश से भी बड़ा है। व्योम का अर्थ है: बाहर का आकाश
+ भीतर का आकाश। एक तो अस्तित्व है जो हमारे बाहर फैलता चला गया है; कहो संसार, कहो विश्व, ब्रह्मांड।
और एक है अस्तित्व जो हमारे भीतर फैलता चला गया है। दोनों असीम हैं। दोनों के जोड़
का नाम व्योम है। व्योम का अर्थ होता है जो सदा विस्तीर्ण ही होता चला जा रहा है,
फैलता ही चला जा रहा है, जिसकी कोई सीमा नहीं
आती। कितना ही चलो, लेकिन कभी ऐसा क्षण न आएगा कि कह सको कि
बस, अब आगे और कुछ भी नहीं है। फिर भी शेष है। फिर भी शेष
है। जो सदा शेष है; कितनी ही डुबकी मारो, जिसकी थाह नहीं मिलती; और कितना ही विचार करो,
जिसका वर्णन नहीं होता है; और कितने ही गीत
गाओ, जो अनगाया ही रह जाता है--उसका नाम है, व्योम। व्योम में अंतर-आकाश सम्मिलित है।
अब तुम्हें पहली पंक्ति का अर्थ समझ में आ सकता है।
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्।
ऋचा अविनाशी परम व्योम में झरती है। वह फूल उस अंतर-आकाश में खिलता
है। वह कमल चैतन्य की झील में उमगता है। और उस कमल की गंध ही ऋचा बन जाती है, वेद बन जाती है। वेद से तुम अर्थ न लेना उन चार वेदों का। उनमें तो
निन्यानबे प्रतिशत व्यर्थ की बातें हैं। कहीं भूले-चूके कोई हीरा मिल जाए, मिल जाए, नहीं तो सब कंकड़-पत्थर हैं। वेद का अर्थ
होता है: तुम्हारे भीतर जो जानने की क्षमता है, उसका परम
निखार--विद का परम निखार। विद यानी ज्ञान, बोध। बुद्धत्व है
वेद का अर्थ। इसलिए बुद्ध ने चारों वेदों को इनकार कर दिया, क्योंकि
जिसे पांचवां वेद उपलब्ध हो उसे चारों को इनकार करना ही होगा। उन चार में जो खो
जाता है वह पांचवें को नहीं पा पाता है।
यस्मिन देवा अधि विश्वे निषेदुः।
और इस व्योम में ही विश्व के सारे देवताओं का निवास है।
देवता शब्द भी समझने जैसा है, नहीं तो भ्रांति हो
जाएगी। क्योंकि तुमने देवता शब्द सुना कि तुमने समझा श्री गणेशाय नमः! कि गणेश जी,
कि हनुमान जी, कि इंद्र महाराज, कि ब्रह्मा-विष्णु-महेश। इन सबसे देवता का कोई संबंध नहीं है।
देवता शब्द बड़ा वैज्ञानिक शब्द है। देवता बनता है दिव से। दिव का अर्थ
होता है: प्रकाश। उसी से दिवस बना है, दिन। उसी से अंग्रेजी
का डे बना है--दिव से। उसी से अंग्रेजी का डिवाइन बना है। उसी से हिंदी का दिव्य
बना है। और तुम चकित होओगे जान कर, उसी से अंग्रेजी का डेविल
बना है। दिव्य भी उसी से और अदिव्य भी उसी से। क्योंकि वही है, और कोई भी नहीं है। उठो तो उसमें, गिरो तो उसमें।
जागो तो उसमें, सोओ तो उसमें। डेविल का अर्थ होता है जो सोया
है; जो गिर गया है; जो सिर के बल खड़ा
है। मगर इससे क्या फर्क पड़ता है? है तो उसकी ऊर्जा भी दिव्य।
यूं समझोगे तो तुम्हें यह बात समझ में आ जाएगी कि क्यों चांद को देवता
कहा गया है, क्यों सूरज को देवता कहा गया है। इसीलिए कि वे प्रकाश
के स्रोत हैं। प्रकाश के कारण ही उन्हें देवता कहा गया है। इसीलिए अग्नि को देवता
कहा गया है।
लेकिन लोग तो नासमझ हैं। वे अग्नि की पूजा करने लगे। वे सूर्य-नमस्कार
करने लगे। उन्होंने समझा कि सूर्य देवता है। जैन मुनि बहुत नाराज थे जब पहली दफे
अमरीकी यात्री चांद पर उतरे। जैन मुनियों ने तो एक भारी संगठन खड़ा किया कि ऐसा
नहीं होना चाहिए, क्योंकि देवता के ऊपर और मनुष्य के चरण पड़ें! आदमी और
देवता पर चले, यह बात शोभा देती है? क्योंकि
हमने देवता का अर्थ ही गलत समझ लिया है।
यूं तो पृथ्वी भी देवता है। जिन्होंने चांद पर खड़े होकर पृथ्वी को
देखा वे चकित हुए, क्योंकि देखा कि पृथ्वी भी इतनी ही ज्योतिर्मय है,
जैसा चांद। चांद से पृथ्वी ज्योतिर्मय मालूम होती है, चांद मिट्टी रह जाता है। दूर के ढोल सुहावने! जमीन से चांद लगता है
प्रकाशित, चांद से पृथ्वी लगती है प्रकाशित। क्योंकि
प्रकाशित लगने का कारण सूर्य की किरणों का वापिस लौटना है। सूर्य की किरणें चांद
पर पड़ कर वापिस लौटती हैं, वापिस लौटती किरणें जब तुम्हारी
आंखों को मिलती हैं तो लगता है कि चांद प्रकाशित है। चांद पर खड़े होकर देखोगे तो
पृथ्वी से सूरज की किरणें वापिस लौट रही हैं। वे तुम्हारी आंखों से मिलती हैं तो
लगता है पृथ्वी प्रकाशित है।
जैसे कि कोई टार्च को दर्पण के ऊपर मारे तो दर्पण से ज्योति निकलनी
शुरू हो जाए; दर्पण प्रतिफलित कर देगा प्रकाश को और तुम्हें लगेगा
कि शायद दर्पण से ज्योति आ रही है। ठीक ऐसा ही चांद है, ऐसी
ही पृथ्वी है, ऐसा ही मंगल है। ये कोई व्यक्ति नहीं हैं।
लेकिन देवता शब्द से व्यक्ति की भ्रांति पैदा होती है। सिर्फ अर्थ है: इस जगत में
जो भी प्रकाशित है, इस जगत में जो भी प्रकाश है, आलोक है, वह सब इसी परम अविनाशी व्योम में, इसी भीतर के महाशून्य में, उसका स्रोत है।
"जिसमें सब देवता भलीभांति स्थित हैं उसी अविनाशी
परम व्योम में सब वेदों का निवास है।'
और जहां से यह प्रकाश आ रहा है, जहां से तुम्हारी
चेतना आ रही है--क्योंकि चेतना से ज्यादा प्रकाशित इस जगत में और कुछ भी नहीं है,
न चांद, न सूरज, न तारे;
चेतना इस जगत में सबसे ज्योतिर्मय है, सर्वाधिक
प्रकाशोज्ज्वल अनुभूति है--इस चेतना में ही सब वेदों का निवास है, अर्थात सारे ज्ञान का निवास है।
यही मैं तुमसे कह रहा हूं रोज कि खोदो अपने भीतर। कहीं और जाना नहीं
है--न वेद में, न गीता में, न कुरान में,
न बाइबिल में। खोदो अपने भीतर। लो ध्यान की कुदाली और खोदो अपने
भीतर। जो अपने भीतर खोदता है उसी को मैं संन्यासी कहता हूं। जो बाहर की खुदाई में
लगा है वह संसारी है। जो भीतर की खुदाई में लग गया है वह संन्यासी है। और जिसने
भीतर खोदा है उसने सब वेद पा लिए, सब कुरान पा लिए, सब बाइबिलें पा लीं। उसके भीतर बुद्ध भी मिल गए, महावीर
भी मिल गए, कृष्ण भी मिल गए, जरथुस्त्र
भी, जीसस भी। उसके भीतर मोहम्मद भी बोले, फरीद भी बोले, नानक भी बोले, कबीर
भी बोले, पलटू भी बोले। उसके भीतर सारे संतों का समागम हो
गया। सारे देवता वहां विराजमान हैं। सारे वेद वहां विराजमान हैं। क्योंकि बोध वहां
विराजमान है।
"जो उसे नहीं जानता वह वेदों से क्या निष्कर्ष
निकालेगा?'
सूत्र बड़ा प्यारा है।
यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति।
और जिसने भीतर के वेद को नहीं पहचाना वह पागल बाहर के वेदों के अर्थ
कर रहा है! पंडित लगे हैं व्याख्याएं करने में। अपना पता नहीं है और शास्त्रों के
अर्थ कर रहे हैं। अर्थ क्या करेंगे, अनर्थ कर रहे हैं!
अर्थ कर ही नहीं सकते। उनसे अर्थ हो ही नहीं सकता, केवल
अनर्थ ही हो सकता है। मगर मजे से करते चले जाते हैं।
चैतन्य कीर्ति ने पूछा है कि एक जैन मुनि श्री मधुकर ने आपके खिलाफ एक
लेख लिखा है जिसमें उन्होंने लिखा है कि संभोग से समाधि असंभव है।
जहां तक मुझे याद पड़ता है, मधुकर मुनि मुझे मिले
हैं। राजस्थान में ब्यावर में तीन दिन तक मुझे रोज मिले हैं। और एक ही उनकी
जिज्ञासा थी कि ध्यान कैसे लगे।
ध्यान का पता नहीं है और संभोग और समाधि की व्याख्या में लगे हैं!
दोनों शब्द एक ही बीज से निकले हैं: सम। संभोग भी और समाधि भी। जहां समता है, जहां सब सम्यक हो गया, वहीं संभोग है। क्षण भर को
होगा, लेकिन उस क्षण भर को सब ठहर गया, सब सम हो गया, कुछ विषम न रहा। कोई विचार न रहा,
कोई चिंता न रही, कोई मैंत्तू का भाव न रहा,
ऐसी ही घड़ी को तो संभोग कहते हैं। वह एक क्षण को ठहरेगी, फिर खो जाएगी। समाधि ऐसा संभोग है जो आया तो आया, फिर
जाता नहीं है। अगर संभोग बूंद है तो समाधि सागर है। मगर दोनों सम से ही बने हैं,
खयाल रहे। संभोग शब्द को गाली मत देना। उसे गाली दी तो तुम सम शब्द
को गाली दे रहे हो।
लेकिन उन्हें ध्यान का तो कुछ पता नहीं, न समाधि का कुछ पता
है। लेकिन पंडित हैं तो उन्होंने व्याख्या कर दी समाधि की: सम + आधि। और संभोग
रहेगा तब तो आधि रहेगी, आधि से व्याधि पैदा होगी, व्याधि से उपाधि पैदा होगी। चले! अब शब्द में से शब्द निकलते जाएंगे।
समाधि का कोई अनुभव नहीं है। समाधि की कोई झलक नहीं है। लेकिन समाधि शब्द की
व्याख्या शुरू हो गई। और फिर व्याख्या में अनर्थ तो होने वाला है।
समाधि की क्या व्याख्या की! कि जो आधियों के बीच अपने मन को संतुलित
रखता है। सुख आए कि दुख आए--आधियां आती हैं--सफलता मिले कि असफलता मिले, जो दोनों के बीच अपने मन को सम रखता है वह समाधिस्थ।
मन को सम रखता है! मन कभी सम होता ही नहीं। मन है ही विषमता का नाम।
जब तक यह दिखाई पड़ रहा है कि यह सफलता है और यह असफलता, क्या खाक मन को सम रखोगे? जिस दिन मन नहीं रहता उस
दिन समता आती है। मन का अभाव है समता। मन कभी सम नहीं होता। मन का तो स्वरूप विषम
है। मन तो डांवाडोल ही रहेगा, नहीं तो मन ही न रहेगा।
लेकिन भाषा में हम इस तरह के उपयोग करते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक होटल खोली और पहला ही आदमी भीतर आया--चंदूलाल
मारवाड़ी। मुल्ला ने तो सिर पीट लिया कि यह कहां सुबह-सुबह मारवाड़ी दिखाई पड़ गया!
और पहले ही दिन होटल खोली है, हो गया बंटाढार! लेकिन अब क्या
कर सकता था? कहा कि विराजिए; क्या सेवा
करूं?
चंदूलाल बोले कि बड़ी गर्मी है, बड़ी धूप पड़ रही है,
एक पानी का गिलास।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, पानी का गिलास असंभव।
पानी का गिलास यहां है ही नहीं। गिलास में पानी दे सकता हूं, लेकिन पानी का गिलास कहीं और खोजो। रास्ता पकड़ो।
भाषा में चल जाता है--पानी का गिलास। मगर मुल्ला नसरुद्दीन भी मुल्ला
है, मौलवी है। अरे किसी मुनि से पीछे थोड़े ही है! किसी मधुकर मुनि से पीछे
थोड़े ही है! आधि से व्याधि, व्याधि से उपाधि--चले! उसने वहीं
तरकीब निकाल ली। मारवाड़ी को वहीं ठंडा कर दिया कि जा भाग, कहां
पानी का गिलास मांग रहा है! पानी का कहीं गिलास होता है?
तूफान आता है, सागर में लहरें ही लहरें उठ आती हैं; उत्तुंग लहरें, जैसे आकाश को छू लेंगी। नावें
डांवाडोल होती हैं, डूबती हैं, जहाज
टकराते हैं। फिर तूफान चला गया। तुम कहते हो, तूफान शांत हो
गया। लेकिन यह सिर्फ उसी तरह का शाब्दिक उपयोग है, जैसे पानी
का गिलास। तूफान शांत हो गया या नहीं हो गया? तूफान शांत
होने का अर्थ तो यह हुआ कि तूफान है तो, मगर अभी शांत है।
अगर शब्द को ही पकड़ो--और पंडित के पास कुछ और तो पकड़ने को होता नहीं, सिर्फ शब्द ही पकड़ने को होते हैं। तूफान शांत है, इसका
अर्थ है कि तूफान तो है मगर शांत है। अब कब अशांत हो जाएगा, क्या
पता! जंजीरें डाल दी हैं, शांत बैठा है। है तो। लेकिन जब तुम
कहते हो तूफान शांत हो गया तो असल में तुम्हारा मतलब यह है कि तूफान नहीं हो गया,
अब तूफान नहीं है।
मन शांत नहीं होता। मन को शांत कहने का कोई अर्थ नहीं है। मन को शांत
कहने का अर्थ है: अमनी दशा। नानक ने कहा: अमनी दशा। मन नहीं रहा। वही शांत है मन
का होना। जहां मन नहीं है वहां समाधि है।
मगर मधुकर मुनि व्याख्या कर रहे हैं: सफलता में असफलता में, सुख में दुख में, हार में जीत में--समभाव रखना। मगर
अभी हार और जीत दिखाई तो पड़ती है न! जब दिखाई पड़ती है तो समभाव कैसे रहेगा?
हार हार है, जीत जीत है। मिट्टी पड़ी है,
सोना पड़ा है, दोनों के बीच समभाव से बैठे हैं
मधुकर मुनि कि समभाव रखना है। सोना सोना है, मिट्टी मिट्टी
है, अपने को क्या लेना-देना? मगर जब तक
सोना सोना दिखाई पड़ रहा है और मिट्टी मिट्टी दिखाई पड़ रही है, तब तक तुम लाख अपने को समझा कर बिठाए रखो, यह
जबरदस्ती थोपा गया संयम तो हो सकता है, लेकिन समाधि नहीं।
समाधि तो बड़ी और बात है।
कबीर का बेटा था: कमाल। कबीर ने उसे नाम ही कमाल दिया--इसीलिए कि कबीर
से भी एक कदम आगे छलांग ली उसने। कबीर का ही बेटा था, आगे जाना ही चाहिए। वह बेटा ही क्या जो बाप को पीछे न छोड़े! हर बाप की यही
आकांक्षा होनी चाहिए कि मेरा बेटा मुझे पीछे छोड़ दे। हर गुरु की यही आकांक्षा होनी
चाहिए कि मेरा शिष्य मुझे पीछे छोड़ दे। यही उसकी सफलता है। यही उसका सौभाग्य है।
कबीर के पास लोग धन ले आते चढ़ाने, सोना ले आते। कबीर
कहते, नहीं भाई, यह सब तो मिट्टी है।
इस मिट्टी को क्या करेंगे, ले जाओ! कमाल कबीर के झोपड़े के
बाहर ही बैठा रहता। वह कहता, भैया, मिट्टी
लाए और मिट्टी फिर ले जा रहे! अरे रख जाओ, मिट्टी ही है! जब
मिट्टी ही है तो कहां ले जा रहे हो? एक तो लाने की भूल की,
अब कम से कम दूसरी भूल तो न करो। रख दे, रख
दे!
कबीर को लोगों ने शिकायत की कि आप ऐसे महात्यागी और यह लड़का तो शैतान
है! आप तो भीतर से कह देते हो लोगों को कि यह मिट्टी है, ले जा भाई, हम क्या करेंगे, हम
तो फकीर आदमी हैं; और यह लोगों से कहता है कि अरे मिट्टी है,
कहां ले जा रहे हो? एक तो यहां तक ढोई,
यह कष्ट सहा; अभी भी अज्ञान में ही पड़े हो?
अरे छोड़ दे, रख दे! यहीं रख दे! रखवा लेता है।
कबीर ने कहा, यह बात तो ठीक नहीं। कमाल को कहा कि यह बात ठीक नहीं।
कमाल ने कहा, आप ही कहते हो कि मिट्टी है, तो फिर बात ठीक क्यों नहीं? बेचारों ने यहां तक ढोया,
अब उनको फिर वापिस ढोने के लिए कह रहे हो! कुछ तो दया करो! अरे दया-ममता
तो होनी ही चाहिए फकीर में, संन्यासी में!
कबीर ने कहा कि मेरीत्तेरी न बनेगी, तू अलग ही एक झोपड़ा
बना ले। तो उसने अलग ही झोपड़ा बना लिया। काशी-नरेश कबीर के पास आते थे। उन्होंने
पूछा, बहुत दिन से कमाल नहीं दिखाई पड़ता, वह तो बाहर ही बैठा रहता था। कबीर ने कहा, उसे अलग
कर दिया, क्योंकि वह लोगों से धन-पैसा ले लेता था।
काशी-नरेश ने कहा कि देखें, परीक्षा करें। वे गए
एक बड़ा बहुमूल्य हीरा लेकर। कमाल बैठा था अपने झोपड़े में। उन्होंने हीरा चढ़ाया।
कमाल ने कहा, अरे, क्या पत्थर लाए! न
खा सकते, न पी सकते, क्या पत्थर लाए!
कुछ लाते काम की चीज।
काशी-नरेश ने सोचा कि यह तो बात बड़ी गजब की कह रहा है और इसको कबीर ने
अलग कर दिया! सो उठा कर वह अपने हीरे को वापिस जेब में रखने लगे। अरे--कमाल ने
कहा--अब छोड़ रे! अरे मूर्ख! यहां तक ढोया पत्थर को, अब कहां ले जा रहा है?
रख!
तब काशी-नरेश ने समझा कि यह तो आदमी होशियार है! यह तो बड़ा...अब इससे
कुछ कह भी नहीं सकते, क्योंकि इनकार ही अगर करना था कि पत्थर नहीं है तो
पहले ही करना था। पहले तो हां भर ली कि हां भई है तो पत्थर ही, अब कैसे इनकार करें? किस मुंह से इनकार करें?
इसने तो खूब फंसाया।
तो काशी-नरेश ने पूछा, कहां रख दूं?
कमाल ने कहा, वही गलती, वही गलती, गलती पर गलती। अरे पत्थर को कोई पूछता है कहां रख दूं? अभी भी तुम हीरा ही मान रहे हो? अरे कहीं भी रख दो,
जहां रखना हो। या पड़ा रहने दो जहां पड़ा है। रखना क्या?
मगर काशी-नरेश भी तय ही करके आया था कि परीक्षा पूरी कर लेनी उचित है।
तो उसने--बहुमूल्य हीरा था, मुश्किल था उसको पड़ा रहने देना--छप्पर में खोंस दिया।
पंद्रह दिन बाद लौटा। सोचा उसने कि मैं इधर बाहर निकला कि इसने हीरा निकाला।
पंद्रह दिन बाद वापिस लौटा, इधर-उधर की बात की,
आया तो पता लगाने था हीरे का। पूछा कि मैं पंद्रह दिन पहले हीरा
लाया था, क्या हुआ? हीरे का क्या हुआ?
कमाल ने कहा, गजब करते हो! कैसा हीरा? कब लाए
थे? मैंने तो नहीं देखा।
काशी-नरेश ने कहा, अरे हद! मेरे सामने ही झूठ बोल
रहे हो! मेरा वजीर भी मौजूद था, मैं उसको साथ लेकर आया हूं
गवाह। तो कबीर ठीक ही कहते हैं कि यह आदमी गड़बड़ है।
कमाल ने कहा, अरे तुम उस पत्थर की बात तो नहीं कर रहे जो एक दिन
लाए थे पंद्रह-बीस दिन पहले? उसी पत्थर को हीरा कह रहे हो,
अभी भी हीरा कह रहे हो? यह तो तय हो गया था,
यह तो निर्णय हो चुका था पत्थर है।
काशी-नरेश ने कहा, हां निर्णय हो गया था, मैं उसको खोंस गया था झोपड़े में। तूने निकाला होगा।
कमाल ने कहा, मुझे क्या पड़ी निकालने की? तुम
देख लो। अगर कोई और निकाल कर ले गया हो तो मैं कुछ कर नहीं सकता, क्योंकि मैं कोई पहरेदार नहीं हूं यहां तुम्हारे पत्थरों का। और अगर किसी
ने न निकाला हो तो होगा झोपड़े में।
नरेश चकित हुआ देख कर हीरा वहीं के वहीं छप्पर में खुंसा हुआ था।
पैरों पर गिर पड़ा कमाल के और कहा, मुझे क्षमा कर दो।
पर, उसने कहा, इसमें क्षमा करने की
बात ही क्या है? तुम गलती ही गलती किए चले जा रहे हो। अरे
पत्थर है, उसको मैंने नहीं निकाला, तो
इसमें खूबी की क्या बात है? पत्थर तो बाहर बहुत पड़े हैं। कोई
पत्थर बीनने के लिए यहां बैठा हूं। यहां पैरों पर किसलिए पड़ रहे हो? अगर तुम उसे हीरा ही मानते हो तो भैया ले जाओ और दुबारा इस तरह की चीजें
यहां मत लाना।
हिम्मत तो नहीं पड़ी ले जाने की काशी-नरेश की। लेकिन यह कमाल कबीर से
भी गहरी बात कह रहा है। अगर तुम्हें दिखाई पड़ने लगा कि सोना मिट्टी है तो फिर
मिट्टी और सोने में फर्क कहां रह जाएगा? फिर समता का सवाल
कहां है? अगर सफलता और असफलता सच में ही समान हो गए तो किसको
सफलता कहोगे, किसको असफलता कहोगे? किसको
प्रशंसा, किसको अपमान?
ये मधुकर मुनि सिर्फ लफ्फाजी कर रहे हैं। न इन्हें संभोग शब्द का अर्थ
पता है, क्योंकि अनुभव नहीं, समता का
कोई अनुभव ही नहीं। एक क्षण नहीं जाना समता का। मेरे सामने गिड़गिड़ाते थे, पूछते थे कि ध्यान कैसे लगे? और उस लेख में उन्होंने
ध्यान समझाया है--चित्त की एकाग्रता ध्यान है। और धारणा ध्यान बन जाती है जब मजबूत
होती है। और जब ध्यान मजबूत होता है तो समाधि बन जाती है।
मजबूत! जैसे धारणा डंड-बैठक लगाए तो ध्यान बने, फिर ध्यान अखाड़ाबाजी करे तो समाधि बने! मजबूत! कौन करेगा धारणा? धारणा तो मन में होती है। अगर धारणा मजबूत होगी तो मन मजबूत होगा, ध्यान मजबूत नहीं होगा। और चित्त की एकाग्रता से तो चित्त ही मजबूत होगा,
इससे समाधि कैसे आ जाएगी? मगर यही चलता है।
यह सूत्र ठीक कहता है कि जो उसे नहीं जानता, जो स्वयं के भीतर के वेद को नहीं पढ़ा है अभी, वह
वेदों से क्या निष्कर्ष निकालेगा? मगर वे ही लोग व्याख्याएं
कर रहे हैं, टीकाएं कर रहे हैं, बड़ी
विस्तीर्ण व्याख्याएं लिखते हैं। ब्रह्म का कोई अनुभव नहीं है और ब्रह्म-सूत्र पर
भाष्य लिखते हैं। योग की कोई झलक भी नहीं मिली। योग मतलब जोड़। परमात्मा से मिलने
की कोई प्रतीति ही नहीं हुई और पतंजलि के योग-सूत्र पर लिखे चले जाते हैं। अभी
भगवान ने कोई गीत भीतर गाया नहीं, अभी भगवतगीता जन्मी नहीं।
हां, मगर वह जो बाहर की गीता है उस पर कितनी टीकाएं हैं! एक
हजार तो प्रसिद्ध टीकाएं हैं और अनेक हजार अप्रसिद्ध टीकाएं होंगी।
यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति।
पहले भीतर के वेद को तो खोल लो। वह कोरी किताब तो पढ़ लो। उसे पढ़ते ही
सब समझ में आ जाता है। क्यों? क्यों सब समझ में आ जाता है?
इसलिए कि--
य इत् दद् विदुस्त इमे समासते।
क्योंकि जो भीतर को जानता है वह भीतर के साथ एक हो जाता है। जो उसे
जानता है, जो चैतन्य को जानता है, वह
चैतन्य की परिपूर्णता को उपलब्ध हो जाता है, वह चैतन्य के
साथ तदाकार हो जाता है। बूंद सागर को जानने जाएगी, सागर में
उतरेगी कि सागर हो जाएगी। और जानने का एकमात्र यही उपाय है--वही हो जाओ। बाकी सब
जानना बाहर-बाहर से है।
यही विज्ञान और धर्म का भेद है। विज्ञान यूं है जैसे फूल के चारों तरफ
चक्कर लगाओ, लगाए जाओ चक्कर। इधर से जानो, उधर
से जानो। इस कोने से देखो, उस कोने से देखो। इधर से परखो,
उधर से परखो। बाहर-बाहर। और धर्म है: फूल में प्रवेश कर जाओ।
चीन की एक बहुत पुरानी झेन कथा है। एक सम्राट ने, जिसे हिमालय से बहुत प्रेम था, एक झेन फकीर को कहा,
जो उस समय का सर्वाधिक बड़ा कलाविद था, चित्रकार
था--कि क्या तुम मेरे लिए हिमालय की छबि उतार दोगे? मेरे
सोने के कमरे में, पूरी दीवार पर हिमालय की वे उत्तुंग आकाश
को छूते हुए शिखर! वे हिमाच्छादित शिखर! वे कुंवारे हिमाच्छादित शिखर, जिन पर कोई कभी चला नहीं! उनकी तुम छबि बना दो।
उस चित्रकार ने कहा, बनाऊंगा। लेकिन समय बहुत लगेगा।
और जब तक पूरी बात न हो जाए, पूरा चित्र न बन जाए, भीतर किसी को आने की आज्ञा न होगी।
सम्राट राजी हुआ। तीन वर्ष लगे। प्रतीक्षा बढ़ती गई, उत्सुकता बढ़ती गई कि तीन वर्ष झेन फकीर क्या कर रहा है! तीन वर्ष बाद उसने
एक दिन कहा कि बस आज आप आएं। दरवाजा खोला, सम्राट भीतर गया।
उसके दरबारी भीतर गए, उसकी रानी भीतर गई।
अवाक खड़ा रह गया, आंख की पलकों ने झपकना बंद कर दिया।
हिमालय देखा था, मगर इस फकीर ने तो गजब कर दिया था। ऐसा सजीव
हो उठा था हिमालय दीवार पर कि वह भूल ही गया कि यह चित्र है! वह पूछने लगा,
यह कौन-सा शिखर है? यह कौन-सा शिखर है?
यह कौन-सी नदी बह रही है? और तभी उसने पूछा,
यह पहाड़ के पास से एक पगडंडी जाती है, यह कहां
जाती है?
उस फकीर ने कहा कि इस पगडंडी पर जाकर मैंने देखा नहीं। मैं जरा जाकर
देखूं।
और कहते हैं कि वह फकीर उस पगडंडी पर जो गया सो गया, लौटा ही नहीं।
अब यह कहानी बड़ी बेबूझ हो गई। कहीं कोई चित्र की पगडंडी पर जा सकता
है! और जाए भी तो लौटे ही नहीं! थोड़ी दूर तक तो सम्राट को दिखाई पड़ता रहा, फिर पहाड़ की ओट में चली गई थी पगडंडी, पीछे की तरफ
मुड़ गई थी, फिर उसका कोई पता न चला।
मगर यह कहानी बड़ी प्रीतिकर है। यह कहानी यही कह रही है कि धर्म के
जानने का ढंग विज्ञान के जानने के ढंग से भिन्न है। विज्ञान बाहर से जानता है, चारों तरफ चक्कर मारता है। इसलिए विज्ञान में ज्ञान नहीं है, केवल परिचय है, पहचान है। धर्म ज्ञान है, वेद है, बोध है। व्यक्ति प्रविष्ट हो जाता है। यूं
प्रविष्ट हो जाता है कि लौटने की जगह ही नहीं बचती। अब बूंद सागर में उतरेगी तो
फिर क्या लौटेगी? यही कह रही है यह कहानी।
ठीक कहता है सूत्र, "जो उसे जानता है वह उसी
में भलीभांति मिल जाता है।'
और जब तक हम एकाकार न हो जाएं अस्तित्व से तब तक हमने जाना नहीं।
बुद्ध ने इसी व्योम को शून्य कहा है। कबीर ने भी इसी व्योम को सुन्न गगन कहा है।
निर्वाण कहो इसे। लेकिन बात एक ही है। इस तरह मिट जाना है कि खोजने से भी अपना पता
न चले।
जिस दिन तुम इस भांति मिट जाओगे कि अपना कोई पता न चलेगा, उसी दिन पता चलेगा कि परमात्मा क्या है। और उसी दिन पता चलेगा जीवन का
अर्थ, जीवन का गीत, जीवन का नृत्य,
जीवन का उत्सव!
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्
यस्मिन
देवा अधि विश्वे निषेदुः।
यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति
य इत् दद्
विदुस्त इमे समासते।।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
मेरी कामवासना नहीं जाती। क्या करूं?
* हरिकृष्णदास ब्रह्मचारी,
ब्रह्मचर्य के कारण ही नहीं जाती होगी। वासना गई नहीं, और ब्रह्मचारी तुम हो कैसे गए? वासना जाए तब
ब्रह्मचर्य है। लेकिन लोग उलटे कामों में लगे हैं: पहले ब्रह्मचर्य की कसमें खाते
हैं, फिर वासना को हटाने में लगते हैं। ऐसे नहीं होगा। ऐसा
जीवन का नियम नहीं है। तुम जीवन के नियम के विपरीत चलोगे तो हारोगे, दुख पाओगे। और तब तुम एक मूर्च्छा में जीओगे।
अब तुम मान रहे हो कि मैं ब्रह्मचारी हूं। कसम खा ली है, तो ब्रह्मचारी हूं। मगर कसमों से कहीं मिटता है कुछ? कसमों से कहीं कुछ रूपांतरित होता है? अब ऊपर-ऊपर
ढोंग करोगे पाखंड का, ब्रह्मचर्य का झंडा लिए घूमोगे,
और भीतर? भीतर ठीक इससे विपरीत स्थिति होगी।
यह दुनिया बड़ी विचित्र है, हरिकृष्णदास ब्रह्मचारी।
लास एंजिल्स के एक बाईस वर्षीय युवक ने अखबार में एक विज्ञापन दिया कि
मैं अकेला हूं और एक ऐसी लड़की की तलाश में हूं जो मेरे साथ दक्षिण अमेरिका की
यात्रा पर चल सके। बाक्स नंबर के साथ दिए इस विज्ञापन के जवाब में केवल एक पत्र
आया। जानते हैं, वह किसका था? उसी युवक की अति
धार्मिक विधवा मां का। अति धार्मिक विधवा मां! मगर चूंकि बाक्स नंबर था, उसे क्या पता कि अपने ही बेटे को उत्तर दे रही है। पाखंड कहीं न कहीं से
खुलेगा ही, खुलना अनिवार्य है।
दादा चूहड़मल फूहड़मल नशे की पीनक में ऊंघ रहे थे। मैं पास ही बैठा
अखबार पढ़ रहा था। एक खबर पढ़ कर मैंने कहा, दादा, अरे देखो किसी ने कुएं में गिर कर जान से हाथ धो लिए।
दादा बोले, कोई पागल था, अरे जब कुएं में
गिर ही गया तो जान से हाथ क्यों धोए, पानी से धो लेता!
होश नहीं है, एक बेहोशी है। अब तुम कम से कम अपने को ब्रह्मचारी
लिखना तो बंद करो! इतना तो कर ही सकते हो। कामवासना जाए या न जाए, कम से कम ब्रह्मचर्य को तो जाने दो। इतना ही कर लिया तो बहुत। मगर दो-दो
नाव पर सवार हो, बहुत मुश्किल में पड़ोगे। दो-दो घोड़ों पर
सवार होओगे, अड़चन आएगी। बहुत अड़चन आएगी।
फादर पैरट नाम के एक ईसाई पादरी इस बात पर अति क्रुद्ध थे कि मैंने
पोप के इस वचन की आलोचना क्यों की कि स्वयं की पत्नी को वासनामयी नजरों से देखना
पाप है। फादर पैरट ने एक संन्यासी स्वामी सत्यानंद से कहा, सुनो स्वामी, तुम्हारे भगवान ने ठीक नहीं किया जो पोप
की निंदा की। पोप कहीं गलत बोल सकते हैं? जो भी व्यक्ति अपनी
बीबी को कामुक नजरों से देखेगा वह निश्चित ही नरक में पाप का फल भोगेगा।
फिर कुछ दिनों बाद ऐसा संयोग हुआ कि सत्यानंद ब्लू डायमंड में नाश्ता
कर रहे थे, उन्होंने देखा कि उनकी बगल में ही टेबल पर वेश बदल कर
साधारण कपड़े पहने फादर पैरट बैठे हुए हैं और टकटकी लगा कर सामने बैठी एक सुंदर
युवती को इस तरह देख रहे हैं, मानो अभी इनकी आंखों से लार
टपकने वाली है। सत्यानंद ने आश्चर्य से कहा, हलो फादर,
गुड माघनग! आप यहां क्या कर रहे हैं? क्या आप
पोप की शिक्षा भूल गए कि अपनी बीबी को वासना की दृष्टि से देखना भी पाप है?
फादर पैरट एक क्षण को तो सकपका गए, फिर सम्हल कर बोले,
मगर स्वामी, तुम यह क्यों भूल रहे हो कि यह
स्त्री मेरी बीबी नहीं है!
फिर आदमी तर्क निकालता है। फिर एक से एक अर्थ निकालता है। फिर बचने के
उपाय निकालता है।
पहली तो बात यह समझ लो कि इस ब्रह्मचर्य को जाने दो--यह दो कौड़ी का
ब्रह्मचर्य। लेकिन अहंकार इस तरह की सजावटें पसंद करता है।
एक जिज्ञासु खट्टमल ने दादा चूहड़मल फूहड़मल से पूछा कि दादा, एक प्रश्न तो बताओ। मेरा बेटा मुझे बहुत परेशान किए हुए है, बार-बार पूछता है और मैं उत्तर नहीं दे पाता।
दादा ने कहा, पूछो-पूछो। अरे जिज्ञासा न करोगे तो ज्ञान कैसे होगा?
क्या प्रश्न है?
खट्टमल बोले, मेरा बेटा मुझसे पूछता है कि पाजामा एक वचन है या
बहुवचन?
दादा कुछ सोचे, आंख बंद करके धारणा साधी, धारणा
से ध्यान मजबूत किया, ध्यान से समाधि मजबूत की, फिर बोले, बच्चा, ऊपर से एक
वचन और नीचे से बहुवचन।
आदमी को अपनी रक्षा तो करनी ही पड़ेगी।
दादा चूहड़मल फूहड़मल के सत्संगी खट्टमल को कुछ दिनों से बुखार आ रहा
था। दादा गए देखने, बोले, बच्चा, अब बुखार का क्या हाल है?
खट्टमल ने कहा, दादा, अब बुखार तो टूट गया है,
अब केवल कमर में दर्द है।
दादा बोले, घबड़ाओ मत, ईश्वर ने चाहा तो वह
भी टूट जाएगी।
ज्ञानियों से बचो। किसी ज्ञानी के चक्कर में पड़े हो। नहीं तो यह
ब्रह्मचारी कैसे हो गए तुम? पहले तो कामवासना जानी चाहिए, फिर
ब्रह्मचर्य तो अपने आप आ जाएगा; लाना तो नहीं पड़ता है। मगर
कोई ज्ञानी का सत्संग कर रहे हो; उसने तुम्हें उलझन में डाल
दिया, फांसी लगा दी।
एक दिन दादा चूहड़मल फूहड़मल सत्संग करवा रहे थे। बोले कि कल रात मैं दो
बजे तक शास्त्रों का अध्ययन करता रहा। एक गोपी से न रहा गया और उसने कहा, दादा, अरे झूठ तो न बोलो। रात तो कल ग्यारह बजे के
बाद सारे गांव की बिजली ही चली गई थी।
दादा बोले, चली गई होगी, मैं तो
शास्त्र-अध्ययन में इतना मगन था कि मुझे पता ही नहीं चला कि बिजली कब चली गई।
थोड़ी होश की बात करो। इतने मगन न हो जाओ।
कामवासना जीवन की एक अनिवार्यता है; अनुभव से जाएगी,
कसमों से नहीं; ध्यान से जाएगी, व्रत-नियम से नहीं। छोड़ना चाहोगे, कभी न छोड़ पाओगे,
और जकड़ते चले जाओगे। इसलिए पहली तो बात, यह
छोड़ने की धारणा छोड़ दो। जो ईश्वर ने दिया है, दिया है। और
दिया है तो कुछ राज होगा। इतनी जल्दी न करो छोड़ने की, कहीं
ऐसा न हो कि कुंजी फेंक बैठो और फिर ताला न खुले।
कामवासना कोई पाप तो नहीं। अगर पाप होती तो तुम न होते। पाप होती तो
ऋषि-मुनि न होते। पाप होती तो बुद्ध महावीर न होते। पाप से बुद्ध और महावीर कैसे
पैदा हो सकते हैं? पाप से कृष्ण और कबीर कैसे पैदा हो सकते हैं? और जिससे कृष्ण और कबीर, बुद्ध और महावीर, नानक और फरीद पैदा होते हों, उसे तुम पाप कहोगे?
जरूर देखने में कहीं चूक है, कहीं भूल है।
कामवासना तो जीवन का स्रोत है। उससे ही लड़ोगे तो आत्मघाती हो जाओगे।
लड़ो मत, समझो। भागो मत, जागो। मैं नहीं
कहता कि कामवासना छोड़नी है; मैं तो कहता हूं समझनी है,
पहचाननी है। और एक चमत्कार घटित होता है; जितना
ही समझोगे उतनी ही क्षीण हो जाएगी, क्योंकि कामवासना का
अंतिम काम पूरा हो जाएगा। कामवासना का अंतिम काम है तुम्हें आत्म-साक्षात्कार करवा
देना।
तुम हैरान होओगे मेरी बात सुन कर। इसीलिए तो मुझे गालियां दी जाती
हैं। कामवासना का पहला काम है तुम्हें जीवन देना और दूसरा काम है तुम्हें जीवन के
स्रोत से परिचित करा देना। बस दो काम पूरे हो गए कि कामवासना अपने आप चली जाती है।
सीढ़ी के तुम पार हो गए, अब सीढ़ी की कोई जरूरत न रही। परमात्मा उसे खुद खींच
लेता है। जैसे दी है वैसे ही खींच लेता है। न तुमने बनाई है, न तुम मिटा सकते हो--इतना मैं तुमसे कहे देता हूं। जिसने बनाई है वही मिटा
सकता है। तुम उपयोग कर लो।
एक काम तो हो गया कि तुम्हें जीवन मिल गया, अब दूसरा काम बाकी रह गया है, अधूरा है। अगर उसे
पूरा न किया तो फिर-फिर आना पड़ेगा, फिर-फिर आना पड़ेगा। दूसरा
काम है कि अब अपनी कामवासना को समझने में लगो कि यह है क्या। और निंदा मत करना।
निंदा की तो समझोगे कैसे? दुश्मनी कर ली पहले से तो फिर
आंखें ही न मिला सकोगे।
निष्पक्ष भाव से समझने की कोशिश करो, यह कामवासना क्या है।
इसके साक्षी बनो। जिस दिन तुम पूरे साक्षी हो जाओगे, चमत्कार
घटित होता है: कामवासना तिरोहित हो जाती है। फिर तुम लाना भी चाहो तो नहीं ला
सकते। अभी तुम कहते हो, कैसे जाए? तब
तुम पूछो भी हरिकृष्णदास ब्रह्मचारी कि लाना है वापिस, फिर
कोई उपाय नहीं। फिर लाख उपाय करो तो सब व्यर्थ है। काम पूरा हो गया कि गई।
लड़ो मत। लड़ाई अति है। एक अति है कामुक व्यक्ति की, जो चौबीस घंटे कामवासना में डूबा हुआ है; दूसरी अति
है ब्रह्मचारी की कि चौबीस घंटे लड़ रहा है। मगर दोनों का केंद्र कामवासना है।
दादा चूहड़मल फूहड़मल एक दिन कह रहे थे, कुछ भी करो, लोग नाराज ही होते हैं।
मैंने पूछा, अपनी बात जरा साफ करिए।
कहने लगे, पहले मैं उस मारवाड़ी मूरख चंदूलाल को कामदेव की औलाद
कहता था, क्योंकि उसका बाप बहुत ही कामुक, लफंगा और एक जाना-माना गुंडा था। इस बात पर वह बहुत गुस्सा होता था। सत्य
उसे कड़वा लगता था। मैंने सोचा कि चलो इस चंदूलाल को खुश करने के लिए आज झूठ बोल
दूं। मैं झूठ बोला, मगर फिर भी उस मारवाड़ी को बात मीठी न
लगी। साला क्रोध में भनभना उठा।
मैंने पूछा, दादा, आपने ऐसा कौन-सा झूठ बोल
दिया जिससे वह क्रोध में भनभना उठा? आपने क्या कहा था?
बोले, आज मैंने उससे कहा था, कहो
ब्रह्मचारी के बच्चे, क्या हाल हैं!
एक अति से दूसरी अति पर जाने में देर नहीं लगती। कहां कामदेव की
औलाद--उल्लू मर गए औलाद छोड़ गए! और आज तुम अचानक कहोगे--लल्लू मर गए औलाद छोड़ गए!
मतलब तो वही निकलेगा। आज कहने लगे कि ऐ ब्रह्मचारी के बच्चे! उसे और ही गुस्सा आ
गया। पहले कम से कम बात सच भी थी, अब तो बात की हद हो गई।
मगर ऐसी ही अतियों पर चित्त डोलता रहता है।
भजन-प्रतियोगिता थी। दादा भी गए थे। कहने लगे मुझसे कि मैंने माइक पर
एक भजन गाया तो किसी दुष्ट ने एक जूता फेंका।
मैंने कहा, दादा, यह तो हद हो गई! फिर क्या
हुआ? फिर आपने क्या किया?
अरे--बोले--करते क्या! मेरे लिए एक जूता बेकार था, सो मैंने एक भजन और सुना दिया।
कामवासना को समझो। यह भजन गाने से जाएगी नहीं; और जूते पड़ जाएंगे। आदमी अपने ही हाथ से पिटता है; खुद
को ही पीटता है। थोड़ा सजग होओ। थोड़ी बुद्धिमत्ता का उपयोग करो।
कामवासना बड़ा रहस्य है जीवन का, सबसे बड़ा रहस्य। उसके
पार बस एक ही रहस्य है--परमात्मा का। इसलिए मैं कहता हूं, जीवन
में दो रहस्य हैं--एक संभोग और एक समाधि। तीसरा कोई रहस्य नहीं है। संभोग ने
तुम्हें जीवन दिया है और समाधि तुम्हें नया जीवन देगी। संभोग ने तुम्हें देह का
जीवन दिया है, समाधि तुम्हें आत्मा का जीवन देगी।
लेकिन तुम कामवासना को एक किनारे कर दो। तुम उससे झगड़ो मत, उलझो मत, लड़ो मत। उसे मिटाने की चेष्टा न करो। तुम
ध्यान में अपनी ऊर्जा को लगाओ। ध्यान आएगा, वासना ध्यान में
रूपांतरित हो जाएगी। अभी तुमने बच्चों को जन्म दिया; यह एक
कामवासना का रूप हुआ। जब ध्यान में जीओगे तो स्वयं को जन्म देने में समर्थ हो
जाओगे। ऐसे व्यक्ति को ही हमने द्विज कहा है; वही ब्राह्मण
है।
आखिरी प्रश्न: भगवान,
बस आखिरी बार दादा चूहड़मल फूहड़मल के संबंध में
थोड़ा हलुवा और बांटें। और यह भी बताएं कि मियां जुम्मन का बकरा कमरे से क्यों निकल
भागा था और फिर लौटा क्यों नहीं?
* जोगेंदर सिंह,
सत श्री अकाल! सिंधी हलुवा में और तुम्हारा ऐसा कृपाण लेकर और साफा
बांध कर कूद पड़ना, जैसे कि कोई समोसा पग्गड़ बांध ले और लेकर कृपाण और
सिंधी हलुवा में कूद पड़े और एकदम गदर मचा दे!
कहावत है न: दाल-भात में मूसरचंद। उसको बदल दो। कहो: दाल-भात में
मूसरसिंह! कहां मूसरचंद, गए वे जमाने!
मगर एक बात तुमने सच कही कि दादा चूहड़मल फूहड़मल के संबंध में थोड़ा
हलुवा और! सिंधी हलुवा गजब की चीज है। और सब मिठाइयां, बस मिठाइयां हैं--सांसारिक समझो। सिंधी हलुवा आध्यात्मिक। मैं अनुभव से
कहता हूं। मैंने चखा नहीं। चखने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
मैं जिस रास्ते से कालेज पढ़ाने जाता था, उस रास्ते पर सिंधी
हलुवा बिकता था--बड़ा रंगीन, रंग-बिरंगे ढंग से बिकता था! और
इतना सस्ता कि मैं चकित होता था कि आठ आना सेर! हलुवा और आठ आना सेर! एक दिन मैंने
कहा कि ले तो चलूं, किसी को चखाऊंगा। जब मैंने हलुवा लिया तो
मैं और हैरान हुआ, वह यूं कंपे जैसे मनुष्य का मन कंपता है।
मैं और डरा कि यह क्या, चीज क्या है यह! जिनके घर में मैं
रहता था, वहां लाया, उन्होंने सबने
मुझसे कहा--बाहर फेंको! सिंधी हलुवा है, बाहर करो! यह काहे
के लिए लाए? आठ आने किसलिए खराब किए?
मैंने कहा, मैंने तो सोचा, इतनी सस्ती
मिठाई, ले चलूं।
उन्होंने कहा, नहीं-नहीं, इसको एकदम हटा दो।
पास में एक बुढ़िया रहती थी, भिखारिन, उसको
दे आओ। तो मैंने उस भिखारिन को दिया। उसने देखते ही से कहा, फेंक
दे! फेंक दे! सिंधी हलुवा है!
सो मैंने चखा नहीं, मगर इतना अनुभव मुझे है। और
समोसा और उसमें कूद पड़े तो सब गड़बड़ हो जाएगी। इसलिए बहुत हो चुका, अब और नहीं।
आज इतना ही।
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