सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो
बुद्ध का शून्य: मीरा की वीणा—प्रवचन-चौथा
दिनांक 24 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न: भगवान,
भारत के लोग सदियों से गुलाम और गरीब रहने के
कारण भयानक हीनता के भाव से पीड़ित हैं, और इसलिए पश्चिम का
अंधानुकरण कर रहे हैं। क्या यह अंधानुकरण अस्वस्थ नहीं है? और
क्या उन्हें अपना मार्ग और गंतव्य स्वयं ही नहीं ढूंढना चाहिए? इस संदर्भ में आप हमें क्या मार्गदर्शन देंगे?
मृत्युंजय देसाई,
यह प्रश्न तो महत्वपूर्ण है, लेकिन उत्तर शायद
तुम्हें चोट पहुंचाए। क्योंकि इस प्रश्न के भीतर और बहुत-से प्रश्न छिपे हैं,
शायद तुम्हें उनका बोध भी न हो।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो विचारणीय यह है, जैसा तुम कहते हो कि
भारत के लोग सदियों से गुलाम और गरीब रहने के कारण भयानक हीनता के भाव से पीड़ित
हैं, पूछना यह चाहिए कि सदियों से भारत के लोग गुलाम और गरीब
क्यों हैं? इनकी गुलामी और गरीबी का कारण कहां है? इनकी गुलामी और गरीबी की बुनियाद कहां है? जड़ें कहां
हैं? यूं ही तो गुलाम और गरीब नहीं हैं। कोई दिन दो-चार दिन
के लिए, माह दो माह के लिए, वर्ष दो
वर्ष के लिए जबरदस्ती गुलाम बनाया जा सकता है; लेकिन दो हजार
वर्षों तक कोई जबरदस्ती गुलाम बनाया जा सकता है?
और जो भी
आया उसी ने गुलाम बना लिया! और छोटी-छोटी कौमें--हूण आए, शक
आए, तुर्क आए, मुगल आए, अंग्रेज आए, पुर्तगाली आए--जो आया, जिनकी कोई सामर्थ्य न थी, जिनकी कोई संख्या न थी,
वे इस विराट देश को गुलाम बनाते चले गए!
जरूर इस देश की आत्मा में गुलाम रहने की कोई छिपी हुई संभावना है। यह
देश जैसे निमंत्रण देता है गुलामी को। ये विजेता यूं ही नहीं चले आए; जैसे अनजाने में हमने इन्हें आमंत्रण भेजा था कि आओ। शायद हमें भी पता न
हो कि हमने कब आमंत्रण भेजा, मगर दूर-दूर से विजेता आते रहे,
तो जरूर हमारे पास कुछ बात होगी। वह बात क्या है? और कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसी को तुम अपना भारत, अपनी
भारतीय संस्कृति और अपना भारतीय धर्म कहते हो? अगर ऐसा हुआ
तो बहुत मुश्किल हो जाएगी।
मेरे देखे, वही तुम्हारी संस्कृति है और वही तुम्हारा धर्म
है--वही, जिसने तुम्हें गुलाम रखा और जिसने तुम्हें गरीब
रखा। गरीब तुम और भी पुराने दिनों से हो। गुलामी तो बाद में आई, गरीबी तो सनातन है। भारत एक ही सनातन धर्म को तो जानता है, वह है गरीबी। जो कहानियां तुमने सुनी हैं कि कभी भारत सोने की चिड़िया था,
उन कहानियों में मत भटक जाना। जिनके लिए कभी भारत सोने की चिड़िया था
उनके लिए अब भी भारत सोने की चिड़िया है। वे थोड़े-से लोग। लेकिन निन्यानबे प्रतिशत
लोगों के लिए कहां का सोना, कैसी सोने की चिड़िया! वे सदा से
गरीब रहे हैं, वे सदा से भूखे रहे हैं। असल में वे भूखे रहे
हैं, इसीलिए कुछ लोग सोने की चिड़ियां ढाल सके। वे गरीब रहे,
इसलिए कुछ लोग सोने के महल खड़े कर सके।
तो तुम जिसे अपने भारत की निजता कहते हो, अगर उस निजता में ही कहीं कोई रोग हो, तब बहुत
सोच-समझ कर विचार करना होगा। नहीं तो निजता को बचाने में तुम आत्मघात कर लोगे। और
मेरे देखे तुम्हारी निजता में ही रोग है।
भारत गुलाम रहा, क्योंकि भारत ने बाहर के जगत को
माया कह कर इनकार कर दिया। तुम्हारे शंकराचार्य, तुम्हारे
आदर के जो बड़े पात्र हैं, वे ही जिम्मेवार हैं। तुम्हारे
शास्त्र, जिन्होंने कहा बाहर का जगत तो स्वप्नवत है, उन्होंने ही तुम्हें गुलाम बनाया। अब अगर बाहर का जगत स्वप्नवत है तो
गुलाम रहे कि मालिक रहे, क्या फर्क पड़ता है! रात सपने में
गरीब रहे कि अमीर रहे, सुबह जाग कर तो सब खो जाता है। रात के
सपनों का मूल्य ही क्या है?
एक बार जब इस देश ने इस मूढ़तापूर्ण बात को अंगीकार कर लिया कि संसार
माया है, तो गुलामी की आधारशिला रख दी गई। तो जो संसार को
यथार्थ मानते थे, उनसे तुम कैसे जीतते? तुम संसार को झूठ मानते थे; उनकी टक्कर में तुम्हें
हारना पड़ा, जो संसार को यथार्थ मानते थे। क्योंकि उन्होंने
यथार्थ के ढंग से युद्ध किए और तुम्हारे लिए तो बात सपने की थी; हार हुई कि जीत, सब बराबर। हारे तो भी सपना है,
जीते तो भी सपना है। और सभी को मिट्टी में मिल जाना है--भिखमंगे को
भी और सम्राट को भी।
तुम ऐसी-ऐसी अच्छी बातें कहने में कुशल हो गए! तुमने थोथी बातों को
ऐसे सुंदर शृंगार दिए! तुमने अपनी मूढ़ता को ऐसी बातों में ढांका, ऐसा आडंबर पहनाया। उसका तुमने फल भोगा। किसी और ने तुम्हें गुलाम नहीं
किया। तुम गुलाम होने को आतुर थे। यह जिम्मेवारी किसी और पर मत छोड़ना। यह
जिम्मेवारी तुम्हारी है।
और जब तक यह देश जगत को यथार्थ नहीं मानेगा, तब तक इस देश में सौभाग्य का उदय नहीं हो सकेगा। क्योंकि जो यथार्थ ही न
हो जगत, तो विज्ञान कैसे जन्मेगा? और
विज्ञान शक्ति है। सपनों का तो क्या विज्ञान बनेगा! कैसी भौतिकी, कैसा रसायनशास्त्र, कैसा गणित? सपनों का तो कोई अस्तित्व ही नहीं है। तो तुम कैसे न्यूटन पैदा करोगे,
कैसे एडीसन पैदा करोगे, कैसे आइंस्टीन पैदा
करोगे, कैसे रदरफोर्ड पैदा करोगे? अगर
जगत माया है तो इन सबकी कोई जरूरत नहीं।
तुम पैदा करोगे कहीं मुक्तानंद, कहीं
अखंडानंद--भोंदुओं की एक जमात, जो उन्हीं-उन्हीं बातों को
तोतों की तरह तुम्हें दोहराते रहें और तुम्हारी खोपड़ी में वही गोबर भरते रहें
सदियों पुराना और तुम्हें गौमूत्र पिलाते रहें, क्योंकि यह
तो पंचामृत है! गोबर मिला लो, गौमूत्र, दूध, घी, दही, पांचों को मिला कर गटक जाओ--पंचामृत हो जाता है! और गऊ की पूजा करो,
क्योंकि वैतरणी जब पार करोगे तो यही गऊमाता, इसकी
ही पूंछ पकड़ कर वैतरणी पार कर पाओगे। सो गऊमाता की पूजा करो, संसार माया है ऐसा समझो, हार-जीत में कुछ सार नहीं,
धन व्यर्थ है। जब धन व्यर्थ है तो पैदा कैसे करोगे? व्यर्थ को कोई पैदा करने में लगता है?
तुम्हारी गुलामी के बीज शंकराचार्य के इस वक्तव्य में हैं--ब्रह्म
सत्य, जगन्मिथ्या। यह तुम्हारी गुलामी का बीज-मंत्र है: जगत
मिथ्या है, ब्रह्म सत्य है। तो स्वभावतः जो मिथ्या है,
उसमें क्या छीना-झपटी करनी? जो है ही नहीं,
उसके लिए क्या लड़ना? आए सिकंदर, आए नादिरशाह, आए चंगेजखान, क्या
पड़ी हमें! सपनों को लूट कर ले जाएं, ले जाएं! पागल हैं,
अज्ञानी हैं! हम तो ज्ञानी, अपनी धूनी रमाए
बैठे रहेंगे! हम तो अपनी माला पर राम-राम जपते रहेंगे! हम तो आंख बंद रखेंगे। ये
बाहर के ठीकरे जिनको इकट्ठे करने हों वे कर लें!
और फिर तुम कहते हो कि हम सदियों से गरीब रहे। कौन जिम्मेवार है? चंगेजखान नहीं, तैमूरलंग नहीं, नादिरशाह नहीं, सिकंदर नहीं--शंकराचार्य तुम्हारी
गुलामी की आधारशिला रख गए। और एकाध शंकराचार्य होते तो ठीक था, सदियों-सदियों से उसी तरह के लोग, वही बकवास! आज भी
वही बकवास जारी है। और मगन भाव से लोग पी रहे हैं इसी कूड़ा-करकट को! इसी को
निचोड़-निचोड़ कर, इन्हीं शास्त्रों को दुह-दुह कर अभी भी
सत्संग चल रहा है! बीसवीं सदी में भी इस देश में अभी अमावस की रात है, सुबह नहीं हुई।
सुबह उस दिन होगी जिस दिन तुम इस सूत्र को स्वीकार करोगे कि जगत भी
सत्य है और ब्रह्म भी सत्य है। मैं तुमसे यही कहना चाहता हूं, दोनों सत्य हैं। और दोनों ही सत्य हों तो ही सत्य हो सकते हैं, एक सत्य नहीं हो सकता। क्योंकि ब्रह्म है भीतर और जगत है बाहर। अगर बाहर
का हिस्सा झूठ है तो भीतर का हिस्सा सच नहीं हो सकता। जिस सिक्के का एक पहलू झूठ
है, उस सिक्के का दूसरा पहलू सत्य नहीं हो सकता। या तो दोनों
पहलू झूठ होंगे, या दोनों पहलू सत्य होंगे। जिस मटकी के बाहर
का हिस्सा तो झूठ है, क्या तुम सोचते हो उस मटकी के भीतर का
हिस्सा सच होगा? बाहर और भीतर एक ही मटकी को बनाते हैं।
कबीर ने गुरु की परिभाषा में कहा है कि गुरु शिष्य के साथ वही करता है
जो कुम्हार मटकी के साथ करता है। जब कुम्हार मटकी बनाता है तो एक हाथ से भीतर
सहारा देता है और एक हाथ से बाहर थपकी देता है, तब कहीं मटकी बनती
है। भीतर भी सत्य है, उसको भी सहारा देना है; और बाहर भी सत्य है, उसको भी थपकी देनी है। तब कहीं
मटकी का आकार आता है। तब कहीं मटकी निर्मित होती है।
हम एक अत्यंत मूर्खतापूर्ण, जड़तापूर्ण दार्शनिकता
से परेशान रहे हैं--भीतर तो सत्य है और बाहर मिथ्या! अगर बाहर मिथ्या है तो भीतर
यानी क्या? जब बाहर है ही नहीं तो भीतर क्या होगा? भीतर कुछ भी हो सकता है तो बाहर के संदर्भ में ही हो सकता है। हम इस तरह
की बकवास कर रहे हैं कि जैसे तख्ता तो झूठ है और तख्ते पर लिखे हुए अक्षर सत्य
हैं। जब तख्ता ही झूठ है तो उस पर लिखे अक्षर कैसे सत्य होंगे? जब देह ही झूठ है तो देह के भीतर विराजमान चेतना कैसे सत्य होगी? झूठ के भीतर सत्य कैसे विराजमान हो सकता है? अगर जगत
झूठ है तो उसको बनाने वाला कैसे सत्य हो सकता है? उसको चलाने
वाला कैसे सत्य हो सकता है?
जगत तो झूठ है, लेकिन ब्रह्मा, विष्णु, महेश की पूजा चल रही है, जय-जयकार चल रहा है!
क्योंकि उन्होंने संसार बनाया--और संसार मिथ्या है! जो है ही नहीं उसको बनाया कैसे?
जो है ही नहीं उसको बनाया क्यों? और जो है ही
नहीं उसको बनाने वाले कैसे हो सकते हैं? किसको धोखा दे रहे
हो?
यह तो यूं हुआ, जैसे स्कूल में एक शिक्षिका ने अपने बच्चों को कहा कि
जो भी तुम्हें बात प्यारी हो, उसकी तस्वीर बनाओ। और सारे
बच्चों ने तस्वीर बनाने में घंटों लिए। एक छोटा बच्चा, टिल्लू
गुरु, चंदूलाल मारवाड़ी का बेटा, एकदम
उठ कर खड़ा हो गया और उसने कहा, यह रही तस्वीर!
शिक्षिका भी हैरान हुई। अभी वह कह भी नहीं पाई है पूरी बात और तस्वीर
बन भी गई! उसने टिल्लू गुरु की तस्वीर देखी, वहां कुछ भी न था,
कोरा कागज था। उसने कहा, यह किस चीज की तस्वीर
है?
टिल्लू गुरु ने कहा, यह आधुनिक कला है। जरा गौर से
देखिए। गाय खेत में चर रही है।
शिक्षिका ने कहा, यहां तो कोई खेत दिखाई पड़ता
नहीं। अरे, खेत हरा होता है और यह तो कोरा सफेद कागज है!
टिल्लू गुरु मुस्कुराए, जैसे ज्ञानियों को
मुस्कुराना चाहिए। इसीलिए तो उनका नाम टिल्लू गुरु! मुस्कुराए और बोले कि अब हरी
घास कहां से होगी, गाय तो घास चर गई!
शिक्षिका ने पूछा, चलो यह भी ठीक कि गाय घास चर गई,
मगर गाय कहां है?
टिल्लू गुरु और भी मुस्कुराए। उन्होंने कहा कि जब गाय घास चर गई तो घर
चली गई। अब गाय यहां क्या भाड़ झोंकेगी? अब जब घास ही नहीं
बची तो गाय क्यों रुके?
न गाय है, न घास है--और तस्वीर पूरी हो गई! और परमात्मा ने यह
विराट सृष्टि रची--और यह सब मिथ्या है! न गाय, न घास! और
परमात्मा महान सर्जक है! खूब आधुनिक कला जानता है तुम्हारा परमात्मा!
जिन्होंने तुम्हें समझाया है कि जगत झूठ है, उन्होंने तुम्हारे पैरों के नीचे से जमीन खींच ली। उन्होंने तुम्हें नपुंसक
बना दिया। उन्होंने तुम्हें दीन बना दिया, हीन बना दिया। और
उन्हीं की तुम अभी भी पूजा किए चले जा रहे हो। अब भी तुम्हें बोध नहीं आया,
होश नहीं आया। अब भी तुम्हें अकल नाम की चीज छू भी नहीं गई!
पहली तो बात है कि जगत सत्य है। और जगत सत्य हो तो फिर जगत से ऊर्जा
निर्मित होती है, फिर जगत की ऊर्जा को काम में संलग्न किया जा सकता है।
फिर जगत की ऊर्जा को संपत्ति में बदला जा सकता है। फिर विज्ञान होगा, तकनीक होगा, उद्योग होंगे।
पश्चिम अगर समृद्ध हो गया है तो यूं ही नहीं हो गया है। कोई परमात्मा
खुश नहीं हो गया कि उसने खुश होकर एकदम छप्पर फाड़ दिया और धन बरस गया। आदमी ने
मेहनत की है। और आदमी मेहनत कर सका, क्योंकि पश्चिम कभी
इस मूर्खतापूर्ण विचार में नहीं पड़ा कि जगत माया है। बहुत और गलतियां की होंगी
पश्चिम ने, लेकिन यह बुनियादी गलती नहीं की कि जगत माया है।
और इस बुनियादी गलती के न करने के कारण शक्तिशाली हो सका। और शक्ति में ही आ जाती
है संपदा।
यहां तो हरेक कोई समझा रहा है कि सुख धन से नहीं पाया जा सकता। चाहे
जिस सत्संग में चले जाओ--जैनों का सत्संग हो, कि हिंदुओं का सत्संग
हो, कि ईसाइयों का सत्संग हो, कि
मुसलमानों का सत्संग हो--इस देश में तो जो भी सत्संग चल रहे हैं वे एक ही बात समझा
रहे हैं: सुख धन से नहीं खरीदा जा सकता।
कहा किसने तुमसे कि सुख धन से खरीदा जा सकता है? लेकिन और चीजें खरीदी जा सकती हैं--रोटी खरीदी जा सकती है, कपड़े खरीदे जा सकते हैं, छप्पर खरीदा जा सकता है। और
सुख तो बहुत बाद की जरूरत है, पहले रोटी तो चाहिए, कपड़े तो चाहिए, छप्पर तो चाहिए। ये ही न होंगे तो
सुख कैसे होगा? माना कि धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता,
लेकिन धन से वे चीजें खरीदी जा सकती हैं जिनके बिना सुख कभी नहीं
पाया जा सकता।
मैं तुमसे यह दूसरा सत्य भी बहुत स्पष्ट भाषा में कह देना चाहता हूं:
धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता, लेकिन धन के बिना भी सुख की
संभावना नहीं बचती। जिन्होंने तुमसे कहा है कि धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता,
उनसे तुम यह पूछो कि क्या निर्धनता से सुख खरीदा जा सकता है?
यह सवाल ही कोई नहीं पूछता। क्या निर्धनता से सुख खरीदा जा सकता है?
लेकिन यही छिपी हुई तर्क पद्धति है: धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता,
इसका मतलब है कि निर्धन होने में बिलकुल मजा है। क्यों चिंता में
पड़ते हो धन की? जब धन से सुख मिलना ही नहीं और न मालूम कितनी
अशांति, चिंता, विचार पैदा होंगे;
इससे तो निर्धन होना अच्छा।
तो महावीर ने धन छोड़ दिया, इसलिए हम पूजा करते
हैं महावीर की। तो फिर दरिद्रता के लिए क्यों रोते हो? बुद्ध
ने महल छोड़ दिए, इसलिए हम पूजा करते हैं बुद्ध की। तो फिर
दरिद्रता के लिए आंसू क्यों बहाते हो? तो तुम ज्यादा
धन्यभागी हो बुद्ध और महावीरों से; उनको तो बेचारों को धन
छोड़ना पड़ा। भगवान की तुम पर बड़ी अनुकंपा है, तुम्हें दिया ही
नहीं! तुम्हें पहले से ही बुद्ध और महावीर की स्थिति में पैदा किया।
महावीर को तो कपड़े छोड़ने पड़े, इतनी चेष्टा तो करनी
ही पड़ी। वह काम भगवान ने तुम्हारे लिए पहले ही कर दिया, बिना
ही कपड़ों के भेज दिया। महावीर को तो उपवास करके बड़ी मेहनत से साधना करनी पड़ी;
इस देश में आधे देश को तो भगवान उपवास करवा ही रहा है। जिनको उपवास
नहीं करवा रहा है, वे भी कम से कम एकासन कर रहे हैं, एक ही बार भोजन लेते हैं। भोजन भी ज्यादातर कचरा है, जिसमें न तो पौष्टिकता है, न वे सूक्ष्म तत्व हैं
जिनसे बुद्धि विकसित होती है; जिसमें बुनियादी रूप से कमी है;
जिसमें वैज्ञानिक रूप से अभाव है। मगर धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता;
इसलिए धन के पीछे क्यों दौड़ना? इसलिए धन को
पैदा करने में क्यों लगना? और धन में है ही क्या! अरे,
हाथ का मैल है!
क्या-क्या बातें! और अब भी तुम इन बातों को सुन रहे हो। तीन हजार, चार हजार साल से यह बकवास चल रही है, इसका फल भी खूब
भोगा। सारी जिंदगी कांटों से छिद गई। जहां फूल की शय्याएं हो सकती थीं, वहां कांटे ही कांटे बिछ गए। और अभी भी तुम्हें खयाल है इस बात का कि भारत
को अपनी निजता...।
और तुम्हारी निजता क्या है? तुम निजता को खोजने
कहां जाओगे? तुम इसी सड़े-गले अतीत में अपनी निजता को
खोजोगे--इन्हीं शास्त्रों में, इन्हीं गुरुओं में, इन्हीं पाखंडियों में, इन्हीं ऊंची-ऊंची बातें करने
वालों में, जिन्होंने तुम्हें गङ्ढों में गिरा दिया। बातें
तो उनकी आकाश की हैं, लेकिन पहुंचा दिया पाताल में। बातें
बड़ी प्यारी, लेकिन परिणाम बड़े कष्टपूर्ण। क्या तुम्हारी
निजता? तुम्हें थोड़ी अपनी निजता खोनी होगी। यह अतिशय निजता
का आग्रह घातक सिद्ध हुआ है, अब और नहीं। बहुत हो चुका।
तुमने पूछा, "भारत के लोग सदियों से गुलाम और गरीब रहने के
कारण भयानक हीनता के भाव से पीड़ित हैं...।'
मगर कौन इन्हें गरीब कर रहा है? कौन इन्हें दीन कर
रहा है? कौन इन्हें दास बना रहा है? तुम्हारी
मनोवृत्ति अभी भी पीछा नहीं छोड़ रही।
महात्मा गांधी दरिद्रों को नया नाम दे गए--दरिद्रनारायण। अब जब दरिद्र
नारायण हो तो दरिद्र को मिटाना कैसे? नारायण को मिटाओगे
क्या? नारायण की तो पूजा होती है। मंदिर में स्थापित करो
गरीब को, पूजा करो इसकी! धन्यभागी है, गरीब
है! अछूतों को हरिजन कह गए। हम तो शब्दों में बड़े होशियार हो गए हैं। कहां तो हम
हरिजन कहते थे उन लोगों को जिन्होंने परमात्मा को पा लिया और कहां महात्मा गांधी
भंगी-चमारों को हरिजन कह गए। हरि को तो जाना नहीं और हरिजन हो गए! इससे तो अछूत
शब्द अच्छा था। उसमें दंश था, पीड़ा थी। हरिजन शब्द तो बड़ा
मिठास भरा हो गया। भीतर जहर है, ऊपर थोड़ी-सी चासनी है। अब
गटक जाओ। अब तो हरिजन होने में बड़ा मजा आ गया!
दरिद्रता को मिटाना है कि पूजा करनी है उसकी? दरिद्रनारायण! तो मंदिर बनाओ!
रवींद्रनाथ ने कहा है, मेरा परमात्मा तो
वहां है जहां मजदूर पत्थर तोड़ रहा है। मेरा परमात्मा तो वहां है जहां किसान भरी
दुपहरी में जब सूरज आग बरसाता है तो अपने खेत में बीज बो रहा है।
तो ठीक है, फिर जितने ज्यादा लोग सड़कों पर बैठ कर पत्थर तोड़ें,
उतने ज्यादा भगवान। फिर जितनी धूप तेज बरसे और जितने लोगों का पसीना
बहे, जितने लोगों का खून पसीना बने, उतने
ज्यादा भगवान।
इस सारी रुग्ण अवस्था को शृंगार दे-देकर सजा-सजा कर बचा रहे हो! और
कौन है जिम्मेवार इसके लिए? जिम्मेवार है तुम्हारा भाग्यवाद। सदियों से तुम्हारे
तथाकथित धर्मगुरु और तुम्हारे पावन शास्त्र तुम्हें समझा रहे हैं कि प्रत्येक
व्यक्ति जैसा है वह भाग्य से निर्मित है। गरीब है तो भाग्य से और अमीर है तो भाग्य
से। करने को तो कुछ बचता नहीं। भाग्य ही सब कुछ है तो पुरुषार्थ तो मर जाता है।
पुरुषार्थ के लिए उपाय नहीं बचता। और संपदा पैदा होती है पुरुषार्थ से, भाग्य से नहीं। शक्ति पैदा होती है पुरुषार्थ से, भाग्य
से नहीं। यह भाग्यवादी देश गरीब और गुलाम न होता तो क्या होता!
मगर अभी भी...अभी भी तुम बैठे हो ज्योतिषियों के पास जनम-कुंडली लिए
हुए। अभी भी तुम हस्तरेखाविदों को हाथ दिखा रहे हो। और तुम्हीं नहीं, तुम्हारे तथाकथित नेतागण। दिल्ली में जितने ज्योतिषी और तांत्रिक और तरहत्तरह
के चालबाज और बेईमान इकट्ठे हो गए हैं, भारत में कहीं भी
नहीं हैं। क्योंकि हर राजनेता को हस्तरेखा पढ़ने वाला, कुंडली
का अध्ययन करने वाला, भविष्य बताने वाला--कि चुनाव में
जीतोगे कि नहीं, कि किस घड़ी किस पहर में किस मुहूर्त में
जाकर नामजदगी का फार्म भरो तो जीत निश्चित है; अगर जरा
मुहूर्त-पल की भूल हो गई, अगर नक्षत्र यहां से वहां हो गए,
तो हार हो जाएगी।
हर राजनेता यज्ञ करवा रहा है कि कहीं उसे कोई हानि न हो जाए। क्योंकि
उसके दुश्मन यज्ञ करवा रहे हैं हानि करवाने के लिए। तांत्रिकों ने अड्डा जमा रखा
है दिल्ली में। साधारणजन ही मूढ़ नहीं हैं, तुम्हारे नेता महामूढ़
हैं। और फिर भी तुम किस निजता की बात कर रहे हो!
यह भाग्यवाद जला डालो! और जहां-जहां भाग्यवाद की लकीरें मिलती हों
जिन-जिन शास्त्रों में, उनको भी खाक कर दो, उनसे
छुटकारा कर लो। अगर भाग्य रहेगा तो भारत का दुर्भाग्य जारी रहेगा। यह भाग्य की
धारणा ही महा जहर की तरह है, जो हमारे रक्त-मांस-मज्जा में
समाविष्ट हो गया है। तुम गरीब इसलिए नहीं हो कि तुम्हारे भाग्य में विधाता ने लिख
दिया कि तुम गरीब रहो। तुम गरीब इसलिए हो कि तुमने यह भाग्य की धारणा पकड़ ली। और
भाग्य की धारणा पकड़ना सुगम मालूम पड़ी, क्योंकि पुरुषार्थ तो
करना पड़ता है, श्रम करना होगा, चेष्टा
करनी होगी, संघर्ष करना होगा, जूझना
पड़ेगा प्रकृति से। भाग्य में आलस्य है, कुछ करने की जरूरत
नहीं है, अब जो होना है वही होगा।
और छोटे-मोटे लोग ही भाग्य नहीं सिखा रहे हैं, तुम्हारे तथाकथित बड़े से बड़े लोग भाग्य की ही बकवास कर रहे हैं। कृष्ण ने
अर्जुन से कहा है कि तू मत डर, युद्ध कर! जिनको मरना है उनके
भाग्य में मरना लिखा है, तू थोड़े ही मारने वाला है। परमात्मा
पहले ही मार चुका है। वह तो लिख चुका है इनकी खोपड़ी में कि फलां घड़ी-मुहूर्त में
मरोगे। अगर तू निमित्त न बनेगा तो कोई और निमित्त बनेगा। ऐसे अर्जुन को राजी कर
लिया एक महा हत्या के लिए, जिसमें इतिहासज्ञों का अनुमान है
कि अगर हम शास्त्रों की बात को प्रमाण मान लें कि अठारह अक्षौहिणी सेनाएं लड़ीं,
तो करीब-करीब एक अरब से लेकर सवा अरब लोग मरे। इन सवा अरब लोगों के
मारने के लिए कौन जिम्मेवार है? यह धारणा--कि जिनको मरना है
वे मरेंगे और जिनको मारना है वे मारेंगे। यह सब तो नियति है। इसमें हमारे हाथ में
क्या है?
जहां नियति की धारणा ऐसी छाती पर बैठी हो चट्टान की तरह, वहां गुलाम न होओगे तो क्या होओगे? नियति की धारणा
का अर्थ ही गुलामी है।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं: तुम कोरा कागज लेकर आते हो। तुम्हारा भाग्य
कोरा कागज है। फिर तुम्हें ही उस पर अपनी लिखावट लिखनी होती है। फिर जो चाहो लिखो।
गालियां लिखनी हों गालियां लिखो और भजन लिखने हों तो भजन लिखो। गरीबी लिखनी हो तो
गरीबी लिखो, अमीरी लिखनी हो तो अमीरी लिखो। तुम कोई नियति लेकर
पैदा नहीं होते। प्रत्येक बच्चा शून्य की तरह पैदा होता है, निराकार
से आता है, निराकार आता है; फिर स्वयं
को आकार देता है; फिर स्वयं का निर्माता होता है।
कोई भाग्य नहीं है। भाग्य की विडंबना बहुत हो चुकी। और तुम अगर कहते
हो कि गुलामी और गरीबी के कारण भयानक हीनता के भाव से पीड़ित है, तो तुम गलत कहते हो। तुम भयानक हीनता के भाव से पीड़ित रहे, इसलिए गुलाम हुए, इसलिए गरीब हुए। तुम बैलों को गाड़ी
के पीछे न बांधो।
मृत्युंजय देसाई, ठीक से देखने की कोशिश करो।
हीनता का भाव तुममें पुराना है। गरीबी बाद में आई, गुलामी
बाद में आई। हीनता का भाव भाग्य में ही निर्भर है--क्या कर सकते हैं हम, अवश हैं, विवश हैं, वहीं से
हीनता पैदा हो जाती है। फिर हीनता का भाव पैदा होगा तो तुम किसी न किसी के पीछे
चलोगे। या तो अपने अतीत का अंधानुकरण करोगे। अपने पंडित-पुरोहितों का अंधानुकरण
करोगे। अपने राजनेताओं का अंधानुकरण करोगे। लेकिन करोगे अंधानुकरण ही। क्योंकि हीन
व्यक्ति कर क्या सकता है! उसकी सामर्थ्य कितनी! वह तो हमेशा किसी का पल्लू पकड़ कर
ही चलेगा। उसके लिए तो आगे कोई चाहिए, नहीं तो वह इंच भर न
हिलेगा। वह तो लकीर का फकीर होगा। वह तो लीक पर चलेगा। वह तो भेड़ है, आदमी नहीं। और अगर इसमें ही चुनना हो कि भारत के सड़े-गले अतीत का पल्लू
पकड़ कर चलना है कि पश्चिम का पल्लू पकड़ कर चलना है, अगर इन
दो ही विकल्पों में चुनना हो, तो मैं कहूंगा: पश्चिम का
पल्लू पकड़ कर चलना ज्यादा बेहतर है, कम से कम नया तो होगा।
हालांकि मैं नहीं मानता हूं कि ये दो ही विकल्प हैं; तीसरा भी विकल्प है। और मैं तीसरे विकल्प की चर्चा करूंगा। लेकिन अगर दो
ही विकल्प हों तो मैं कहूंगा, यह बेहतर है कि पश्चिम का
अंधानुकरण करो--अगर अंधानुकरण ही करने की जिद किए बैठे हो। यह मैं नहीं सुझा रहा
हूं कि अंधानुकरण करो। मैं तो यह कह रहा हूं कि अंधानुकरण ही करना हो तो मनु
महाराज की बजाय आइंस्टीन का अंधानुकरण करना बेहतर है। मैं तो यह कह रहा हूं कि अगर
अंधानुकरण ही करना हो तो कोकशास्त्र की बजाय सिग्मंड फ्रायड का अंधानुकरण बेहतर
है। मैं तो यह कह रहा हूं: अंधानुकरण ही करना हो तो बैलगाड़ी के पीछे चलने की बजाय
हवाई जहाज में सवार होना बेहतर है।
पश्चिम प्रतीक है विज्ञान का आज, पुरुषार्थ का। मनुष्य
की गरिमा की घोषणा है। जैसे तुम प्रतीक हो मनुष्य की हीनता के, मनुष्य की दीनता के, ऐसे पश्चिम आज मनुष्य की गरिमा
का प्रतीक है, गौरव का प्रतीक है। मनुष्य ने जूझ कर जो पाया
है, उसका प्रतीक है।
लेकिन ये ही दो विकल्प नहीं हैं। इसलिए मेरी बात को गलत मत समझना। मैं
नहीं कह रहा हूं कि पश्चिम का अंधानुकरण करो। मैं तो कह रहा हूं: अंधानुकरण करो ही
मत। और अब पूरब और पश्चिम का भेद मिटाना है। मेरी तो चेष्टा उस दिशा में है, पूरब और पश्चिम का भेद मिटाना है। यह सारी दुनिया एक है। इसलिए जहां जो
सुंदर है, उसको चुनो। जब तुम एक सुंदर बगिया बनाते हो तो तुम
सुंदर से सुंदर फूल चुनते हो। सारी दुनिया से फूल चुनो। जो फूल जहां सर्वाधिक
सुंदर हो, वहां से चुनो। यह सारी दुनिया हमारी है। यह
भेद-भाव क्या? यह पूरब और पश्चिम क्या?
और अगर पूरब-पश्चिम का भेद करोगे तो फिर गुजरात और महाराष्ट्र का भेद
करने में कितनी देर लगेगी? तो महाराष्ट्रीयन कहेगा, क्यों
हम गुजराती संस्कृति का अनुकरण करें? यह गरबा नृत्य नहीं
चलेगा? हम तो तमाशा करेंगे! कि हम क्यों बंगालियों का अनुकरण
करें? यह दुर्गोत्सव नहीं चलेगा। हम तो गणपति महोत्सव
मनाएंगे। गणपति बाप्पा मोरया! यह हम दूसरे की मां क्यों मानें जब अपना बाप मौजूद
है!
लेकिन फिर कहां रुकोगे? फिर महाराष्ट्र में
भी मराठवाड़ा है, और फिर महाराष्ट्र में भी देशस्थ ब्राह्मण
हैं और कोंकणस्थ ब्राह्मण हैं; फिर कहां रुकोगे? फिर पूना की अपनी संस्कृति है। कोई कोल्हापुरी चप्पलें पहनोगे! पूना के हो
कर शरम नहीं आती कि कोल्हापुरी चप्पलें पहने हुए हो! कैसी गुलामी, कैसी दीनता, कैसी हीनता! और पूना, जहां लोकमान्य तिलक हुए और गोखले हुए और क्या-क्या नहीं हुए! नाथूराम
गोडसे तक हो गए! ऐसे महान पूना की संस्कृति और तुम कोल्हापुरी चप्पलें पहने हो,
शरम नहीं आती? अरे, डूब
मरो चुल्लू भर पानी में!
लेकिन कोल्हापुर की अपनी संस्कृति है, जहां एक शूद्र शिवाजी
महाराज हो गए। शूद्र थे, मगर तुम भूल ही गए कि शूद्र थे।
क्योंकि इतना शोरगुल मचाया शिवाजी महाराज का कि ब्राह्मण तक भूल गया, वह तक फूल चढ़ा रहा है शिवाजी महाराज की मूर्ति पर। कोल्हापुर की अपनी अकड़
है! फिर मोहल्ले-मोहल्ले की अकड़ें हैं।
मैं जबलपुर में बहुत दिनों तक था। वहां गणेशोत्सव पर गणेश की बड़ी लंबी
शोभायात्रा निकलती है। मगर उसमें बंटाव है। सबसे पहले ब्राह्मणों के मोहल्ले के
गणेश होते हैं और सबसे आखिरी में चमारों के गणेश होते हैं। चमारों के ही गणेश हैं, पीछे ही होंगे, आगे कैसे हो सकते हैं! एक बार ऐसा
हुआ कि ब्राह्मणों के मोहल्ले के गणेश जरा देर से पहुंचे और चमारों के गणेश आगे हो
गए जुलूस में। जुलूस तो वक्त पर निकलना था सो निकला। मगर जैसे ही ब्राह्मणों के
गणेश पहुंचे, ब्राह्मणों ने कहा, रुको।
चमारों का गणेश आगे नहीं हो सकता! हटाओ! कमबख्त को पीछे करो! और चमारों के गणेश को
पीछे जाना पड़ा--अरे, चमारों के ही गणेश हो, कोई अकल, कोई तरीका, कोई सलीका
होना चाहिए! अपनी हैसियत से रहो!
तो कैसे तय करोगे? अब चमारों का गणेश चमार हो गया!
और ब्राह्मणों के गणेश ब्राह्मण हो गए! वही गणेश, एक ही
दुकान में बने हैं, एक ही आदमी ने रंगे-पोते, दोनों को जाकर नदी में सिरा देना है, दोनों एक ही
नदी में विसर्जित हो जाएंगे। यह थोड़ी देर अरथी ढोने की बात है, किसकी अरथी आगे किसकी पीछे! मगर ब्राह्मणों के गणेश की अरथी आगे, चमारों के गणेश की पीछे--अपनी हैसियत से ही होनी चाहिए सब बात! यह कहां
रुकोगे तुम?
भारत का क्या अर्थ है? कभी बर्मा भारत का
हिस्सा था; अब? कभी पाकिस्तान भारत का
हिस्सा था; अब? कभी बंगला देश भारत का
हिस्सा था; अब? अब बंगला देश की
संस्कृति तुम्हारी संस्कृति है या नहीं? तुम्हारी निजता है
या नहीं? और लाहौर और करांची, इनको भूल
गए? अब ये तुम्हारे गौरव के प्रतीक हैं या नहीं?
ये भौगोलिक सीमाओं का कोई मूल्य नहीं है। और कहां पूरब खतम होता है और
पश्चिम शुरू होता है, कोई बताए तो! जमीन गोल है। कहीं पूरब शुरू नहीं होता,
कहीं पश्चिम समाप्त नहीं होता। तुम सोचते हो कि तुम पूरब हो और
इंग्लैंड पश्चिम है। और जापानी सोचते हैं कि तुम पश्चिम हो, क्योंकि
जापान सूर्य के उदय का देश। लेकिन जापान के भी पूरब में कोई और है, और उसके भी पूरब में कोई और है। जमीन अगर गोल है तो तुम किसी के पूरब में
हो और किसी के पश्चिम में हो। तुम जहां भी हो दोनों हो--पूरब भी और पश्चिम भी।
राष्ट्रों की यह धारणा ही अंधी है।
मृत्युंजय देसाई, तुम कहते हो कि हम हीनता के भाव
से पीड़ित हैं, इसलिए पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं।
अंधानुकरण तुम सदियों से कर रहे हो; किसका कर रहे हो,
यह और बात है। अंधा कभी इसके पीछे चलेगा, कभी
उसके पीछे चलेगा। जो मिल जाएगा उसी के पीछे चलेगा। अंधे को तो पूछना ही पड़ेगा।
अंधे को तो किसी का सहारा लेना ही पड़ेगा।
मैंने सुना, एक अंधा रास्ते के किनारे खड़ा था, उसको पार जाना था रास्ते के। उसके पास ही एक और आदमी खड़ा था। उसने कहा,
भाई, मुझे रास्ता पार करवा दो। दोनों ने
एक-दूसरे का हाथ पकड़ा और दोनों रास्ता पार कर लिए। अंधे ने दूसरे को कहा कि भई
धन्यवाद, बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं कि मुझे रास्ता पार करवा
दिया। वह दूसरा हंसा और उसने कहा कि सच बात यह है कि मैं भी अंधा हूं और मुझे भी
रास्ता पार करना था, एक से दो भले, सो
मैंने सोचा कि तुम्हारा हाथ पकड़ लूं चलो। मैं भी अंधा हूं, धन्यवाद
तुम्हारा कि तुमने मुझे पार करवा दिया!
यहां अंधे अंधों का अनुसरण कर रहे हैं, अंधे अंधों के हाथ
पकड़े हुए हैं। फिर तुम किस अंधे का पकड़ते हो, इससे क्या फर्क
पड़ता है? यह तुम्हारी पुरानी आदत है। दकियानूसी होना
तुम्हारी पुरानी आदत है। तो तुम पश्चिम का अंधानुकरण करोगे।
लेकिन समझदारी भी हो सकती है। अंधानुकरण बिलकुल छोड़ा जा सकता है। न तो
अपने अतीत का अंधानुकरण करो, क्योंकि उसमें कुछ भी ऐसा
महत्वपूर्ण नहीं; न किसी और का अंधानुकरण करो। एक बार तय करो
कि अंधानुकरण ही छोड़ देंगे, अपनी आंखें खोलेंगे। और अपनी
आंखें खोलने वाला व्यक्ति जहां जो सुंदर होगा वहां से चुन लेगा।
पश्चिम में विज्ञान सुंदर है, जरूर चुन लो; और पूरब में ध्यान सुंदर है, जरूर चुन लो। पश्चिम के
लोगों से भी मैं यही कहता हूं: तुम्हारे पास विज्ञान सुंदर है, उसे छोड़ मत देना। और तुम्हारे पास ध्यान नहीं है, उसे
इसलिए मत रोक रखना कि वह पूरब का है। जैसा मृत्युंजय देसाई परेशान हैं, ऐसा ही पश्चिम के लोग भी परेशान हैं।
एम्स्टरडम विश्वविद्यालय ने मेरे संबंध में एक व्याख्यानमाला शुरू की
है, छह महीने तक चलेगी। उसमें मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक,
चिकित्सक, दार्शनिक, धर्मशास्त्री,
सभी को आमंत्रित किया है। आखिर हालैंड में मेरे संबंध में छह महीने
तक व्याख्यानमाला चलाने का प्रयोजन क्या है? प्रयोजन में
उन्होंने यह कहा है कि हमें यह खतरा पैदा हो गया है कि हालैंड से रोज लोग पूना जा
रहे हैं, कहीं हमारे युवक भारत के अंधानुकरण में न पड़ जाएं।
उनको इस अंधानुकरण से रोकना जरूरी है।
पश्चिम के बड़े मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुंग ने लिखा है कि पश्चिम
को अपना योग खुद खोजना चाहिए, अपना ध्यान भी खुद खोजना चाहिए,
पूरब का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए।
यह बड़े मजे की बात है। जैसे कि पश्चिम का ध्यान कुछ अलग हो सकता है!
ध्यान का मतलब होता है: निर्विचार होना। जुंग ने भी खूब मूढ़ता की बात कही! मगर रहे
होंगे मृत्युंजय देसाई जैसे ही। जैसे कि ध्यान भी पूरब और पश्चिम का हो सकता है!
अरे, ध्यान तो सिर्फ ध्यान है, वहां
कहां पूरब और कहां पश्चिम!
गुस्ताव जुंग भारत आया था। ताजमहल देखने गया, खजुराहो गया, कोणार्क गया, अजंता-एलोरा
गया। महर्षि रमण जिंदा थे। अनेक लोगों ने उससे कहा कि महर्षि रमण के पास जाओ।
क्योंकि अगर पूरब की जो गहरी से गहरी खोज है वह समझनी है--जिससे कि खजुराहो पैदा
हुए और अजंता-एलोरा पैदा हुए और ताजमहल पैदा हुआ, जिस चेतना
से ये सारी अनूठी कृतियां जन्मी हैं--जब महर्षि रमण जैसा व्यक्ति जिंदा हो तो जाकर
उसके चरणों में थोड़ी देर बैठो। वह नहीं गया। उसने कहा कि मैं नहीं जाऊंगा। पश्चिम
को अपना ध्यान, अपना योग स्वयं खोजना है; हम किसी का अंधानुकरण नहीं करेंगे।
न तो ध्यान पश्चिम का होता है, न पूरब का। ध्यान का
अर्थ होता है: निर्विचार होना। जहां विचार ही न रहे वहां पूरब और पश्चिम का विचार
कैसे रह जाएगा? ध्यान का अर्थ होता है: भीतर जागरूकता। अब
जागरूकता भी कोई पूरब-पश्चिम की होती है? कि गोरा आदमी
जागेगा तो गोरी जागरूकता और काला आदमी जागा तो काली जागरूकता! कि लंबी नाक वाला
जागा तो लंबी जागरूकता और चपटी नाक वाला जागा तो चपटी जागरूकता! क्या पागलपन की
बातें कर रहे हो!
मगर ये पागलपन की बातें छोटे-छोटे लोगों ने नहीं कीं। जुंग पर मत
हंसो। तुम्हारे बड़े-बड़े लोग भी यही कहते रहे। महावीर ने कहा है कि स्त्री की देह
से मोक्ष नहीं है। यह वही बात है। इसमें कुछ भेद नहीं है। क्या स्त्री ध्यान करेगी
तो ध्यान में कुछ फर्क होगा पुरुष के ध्यान से? अगर स्त्री शांत होगी
तो शांति उसकी स्त्रैण होगी और पुरुष की पुरुष होगी? शांति!
मौन! इसमें भी स्त्रीलिंग और पुल्लिंग आ जाएंगे? जब भीतर
सन्नाटा होगा, अनाहत का नाद बजेगा, तो
वहां भी कोई स्त्री और पुरुष होगा? लेकिन महावीर ने कहा है
कि स्त्री-पर्याय से कोई मोक्ष नहीं जा सकता। स्त्री-पर्याय से ज्यादा से ज्यादा
इतना ही हो सकता है कि कोई खूब तपश्चर्या करे, खूब ध्यान करे,
तो अगले जन्म में पुरुष हो। फिर पुरुष के जन्म को पाकर, पुरुष की देह पाकर मोक्ष उपलब्ध होगा।
और ये सारे लोग, जो कहते हैं देह मिट्टी है,
फिर स्त्री-पुरुष की देह में ऐसा क्या फर्क है? अगर देह मिट्टी है तो जिस मिट्टी से एक पुतली बनी है उसी से पुतला बना है।
अब पुतला-पुतली में इतना क्या फर्क कर रहे हो? और इनकी आत्मा
तो मिट्टी नहीं है! और आत्मा को मोक्ष जाना है, मिट्टी को
मोक्ष जाना नहीं है। मिट्टी यहीं पड़ी रह जाएगी--स्त्री की भी और पुरुष की भी। और
जब तुम स्त्री को जला आते हो मरघट पर, या पुरुष को, तो क्या राख से पता लगा सकोगे कि जिसको जलाया वह स्त्री थी कि पुरुष था?
मिट्टी तो बस मिट्टी है। मगर महावीर तक को अड़चन है।
जैनों में एक तीर्थंकर स्त्री थी, लेकिन जैनियों को यह
बात बरदाश्त के बाहर रही कि कोई स्त्री और तीर्थंकर हो जाए! रही होगी स्त्री बहुत
बलशाली--इतनी बलशाली कि जब जिंदा थी तो मानना ही पड़ा। महावीर से भी ज्यादा बलशाली
रही होगी; क्योंकि स्त्री का और तीर्थंकर होना और मनवा लेना
लोगों को, साधारण बात न रही होगी। बड़ी हिम्मत की स्त्री रही
होगी। मल्लीबाई उसका नाम था। लेकिन मरते ही जैनियों ने उसका नाम बदल दिया, मल्लीनाथ कर दिया।
मैं तो जैन घर में पैदा हुआ--दुर्भाग्य से! मगर दुर्भाग्य से कहीं न
कहीं पैदा होना ही पड़ता है। हिंदू घर होता, कि मुसलमान घर होता,
कि ईसाई घर होता, सभी दुर्भाग्य। अभी सौभाग्य
से पैदा होना तो असंभव ही है। आगे संभावना हो जाएगी। मेरे संन्यासियों के घर जो
बच्चे पैदा होंगे, वे सौभाग्य से पैदा होंगे, क्योंकि वे न हिंदू होंगे, न मुसलमान होंगे, न ईसाई होंगे; वे सिर्फ मनुष्य होंगे।
मुझे बचपन में यह कभी पता ही नहीं चला कि चौबीस तीर्थंकरों में एक
स्त्री थी, क्योंकि मल्लीनाथ के नाम से तो पता ही नहीं चलता।
मूर्तियां भी तुमने जाकर जैन मंदिरों में देखी होंगी, चौबीसों
मूर्तियां पुरुषों की हैं। मल्लीनाथ की प्रतिमा भी पुरुष की है। क्या बेईमानी है!
यह तो बाद में मुझे पता चला कि मल्लीबाई थी।
उसको, मल्लीबाई को कैसे स्वीकार करें, क्योंकि वह उनकी पूरी धारणा के विपरीत जाती है। स्त्री मोक्ष चली जाए,
मोक्ष ही न चली जाए, तीर्थंकर हो जाए! और जरूर
हिम्मतवर औरत रही होगी--नग्न होना। क्योंकि जैनियों में तो तीर्थंकर होने के लिए
नग्न होना अनिवार्य है। बड़ी हिम्मत की स्त्री रही होगी। आज होती तो मेरी
संन्यासिनी होती। कपड़े फेंक दिए होंगे, और जुझारू रही होगी।
रही होगी, जैसा कि रानी झांसी--खूब लड़ी मर्दानी! बड़ा संघर्ष
करना पड़ा होगा। लेकिन मरते ही जैनियों ने लीपा-पोती कर दी। उसको मल्लीनाथ कर दिया।
प्रतिमा तक पुरुष की बना दी। एक भी स्त्री की प्रतिमा नहीं है! क्यों स्त्री देह
से मोक्ष नहीं हो सकता?
वही जुंग भूल कर रहे हैं। वे भी सोचते हैं कि ध्यान पूरब का अलग है, पश्चिम को अपना मार्ग खोजना पड़ेगा; जैसे मृत्युंजय
देसाई कह रहे हैं। विज्ञान में तुम क्या खाक अपना मार्ग खोजोगे? और क्या जरूरत है खोजने की? तीन सौ साल पश्चिम ने
मेहनत की और तीन सौ साल की मेहनत में विज्ञान खड़ा हुआ, तुम
क्या नया कर लोगे? तुम जोड़ोगे तो दो और दो पांच हो जाएंगे
क्या? वे चार ही रहेंगे, पश्चिम में
जोड़ो कि पूरब में। तुम पानी को गरम करोगे तो क्या तुम सोचते हो कि पुण्यभूमि भारत
में पानी सौ डिग्री से पहले ही गरम हो जाएगा? कि पुण्यात्मा
लोग पानी गरम कर रहे हैं, परमहंस लोग पानी गरम कर रहे हैं,
तो क्या इतनी देर लगानी, जरा जल्दी ही हो जाओ।
वह सौ डिग्री पर ही गरम होगा; सौ डिग्री पर ही भाप बनेगा,
चाहे पश्चिम में बनाओ, चाहे पूरब में बनाओ।
क्या तुम सोचते हो कि तुम अणु का विस्फोट करोगे तो तुम कुछ और खोज लोगे जो पश्चिम
ने खोजा? वही न्यूट्रॉन, वही
इलेक्ट्रॉन, वही पाजिट्रॉन। तुम क्या सोचते हो बिजली की तुम
खोज करोगे तो कुछ और कर लोगे?
यह मूर्खतापूर्ण बात होगी कि पश्चिम की तीन सौ साल की महत खोज को तुम
इनकार करो और सोचो कि हम अपना मार्ग खुद बनाएंगे। तो क ख ग से सीखना पड़ेगा। तो तुम
पश्चिम से हमेशा पीछे रहोगे और हमेशा बुद्धू गिने जाओगे। न तो मैं कहता हूं पश्चिम
से कि तुम ध्यान खोजो, क्योंकि पूरब ने कोई पांच हजार वर्षों में ध्यान खोजा
है। यह संपदा सहज ही मिलती है, इसको क्यों इनकार कर रहे हो?
लेकिन जुंग इनकार करता है। वह कहता है हम योग भी अपना बनाएंगे।
पश्चिम में शीर्षासन करोगे तो किस तरह से करोगे? शीर्षासन तो ऐसे ही करना होगा। इसमें क्या फर्क करोगे? पद्मासन लगाओगे तो पश्चिम में कुछ और ढंग से लगाओगे? सिद्धासन में बैठोगे तो किसी और ढंग से बैठोगे? वही
करना होगा। पांच हजार साल की खोज को सिर्फ इसलिए झुठलाओगे, क्योंकि
वह भारत में हुई? यह वही पागलपन हुआ जैसे कि हम पश्चिम की
खोजों को झुठलाएं; हम कहें कि हम तो फिर से खोजेंगे
पेनिसिलिन, हम पश्चिम की पेनिसिलिन को नहीं मानेंगे, हम तो भारतीय शुद्ध, स्वदेशी पेनिसिलिन खोजेंगे। कि
हम तो रेलगाड़ी बिलकुल अपनी ही खोजेंगे, हम तो हवाई जहाज अपना
खोजेंगे!
जो खोज हो चुकी, किसी ने भी की हो, खोज होते ही वह पूरी मनुष्य-जाति की संपदा हो जाती है। पश्चिम ने विज्ञान
खोजा है, वह सबका हो गया; इस पर कोई
पश्चिम की बपौती न रही। पूरब ने ध्यान खोजा है, वह सबका हो
गया; इस पर कोई पूरब की बपौती न रही। पूरब का ध्यान, पश्चिम का विज्ञान, दोनों मिल जाएं तो आदमी पहली दफे
समग्र हो, तो आदमी पहली दफा अधूरा न रहे, अपंग न रहे। अभी तो लंगड़ा-लंगड़ा कर चल रहा है; एक
टांग तुम्हारे पास, एक टांग उनके पास। वे भी एक टांग से कूद
रहे हैं, तुम भी एक टांग से कूद रहे हो।
तुमने कहानी सुनी है न पंचतंत्र की? एक जंगल में आग लग
गई। उस जंगल में एक अंधा था और एक लंगड़ा था। दोनों भिखारी। मगर बड़े समझदार रहे
होंगे। उन्होंने जल्दी से निर्णय कर लिया कि हम साथ हो जाएं, क्योंकि अंधे को दिखाई नहीं पड़ता था; लंगड़े को दिखाई
पड़ता था लेकिन चल नहीं सकता था। लंगड़ा देख सकता था कि आग लगी है, कहां से रास्ता है, लेकिन चलने में असमर्थ था। अंधा
चल सकता था, लेकिन देख नहीं सकता था कि कहां आग है और कहां
आग नहीं है। दोनों जुड़ गए। अंधे ने लंगड़े को अपने कंधे पर बिठा लिया। यूं आंखों और
हाथों का जोड़ हो गया। अलग-अलग तो दोनों मर जाते; इकट्ठे हो
कर दोनों बच गए। अंधा बता नहीं सकता था, चल सकता था, चलता रहा; लंगड़ा चल नहीं सकता था, बता सकता था, बताता रहा--कि यूं मुड़ो यूं मुड़ो,
यहां चलो यहां चलो, बचो इधर से। लंगड़ा देखता,
अंधा चलता। दोनों संयुक्त हो गए।
करीब-करीब ऐसी अवस्था है मनुष्यता की आज। आधी संपदा भारत के पास है, जैसे आंखें भारत के पास हैं। लेकिन भारत लंगड़ा है; विज्ञान
के पैर उसके पास नहीं हैं। पश्चिम के पास विज्ञान की शक्ति है--पैर हैं, बलशाली पैर हैं। चांद तक पहुंच गया है; बलशाली पैर
होने ही चाहिए। कल और तारों तक पहुंच जाएगा। लेकिन ध्यान की आंख नहीं है, अंतर्दृष्टि नहीं है। इसलिए कितने ही दूर निकल जाए, दूर
निकल कर भी क्या करेगा? देखने को, समझने
को जो प्रज्ञा चाहिए, उसका अभाव है।
काश ये अंधे और लंगड़े मिल जाएं! पूरब की आंख और पश्चिम के पैर, पूरब का ध्यान और पश्चिम का विज्ञान, तो हम एक अखंड
मनुष्यता को जन्म दे सकते हैं।
इसलिए मैं यह नहीं कहता हूं कि अंधानुकरण करो किसी का, लेकिन इतना जरूर कहता हूं कि इस कारण बचना भी मत कि यह पश्चिम का है,
हम तो अपना चरखा चलाएंगे, कि हम तो तकली
कातेंगे, कि हम तो अपने पूर्वजों को ही मान कर चलेंगे,
कि हम तो गंडात्ताबीज बांधेंगे, कि हमारे
बाप-दादे ऐसा करते रहे तो हम अन्यथा कैसे कर सकते हैं! तो फिर बाप-दादों पर जो
गुजरी, वही तुम पर गुजरेगी--वही गरीबी, वही गुलामी, वही हीनता का भाव।
और पश्चिम को भी मैं यही कहता हूं। पूरब से कहना चाहता हूं बाहर के
जगत के सत्य को स्वीकार करो और पश्चिम को कहना चाहता हूं भीतर के जगत के अस्तित्व
को स्वीकार करो। पूरब ने अब तक कहा है: ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है। और
पश्चिम ने कहा है: जगत सत्य है और ब्रह्म मिथ्या है। ये दोनों ही बातें अपंग हैं, अधूरी हैं।
मैं कहता हूं: जगत भी सत्य है, ब्रह्म भी सत्य है;
पदार्थ भी सत्य है, परमात्मा भी सत्य है। और
ये दोनों सत्य एक ही सत्य के दो पहलू हैं। और जिस दिन हम इन दोनों सत्यों को एक
साथ स्वीकार करने में समर्थ होंगे, उस दिन न तो पूरब को कोई
हीनता की जरूरत है और न पश्चिम को। अभी दोनों हीन हैं--अलग-अलग दृष्टि से, मगर दोनों हीन हैं। अभी दोनों एक-दूसरे का अंधानुकरण करने को मजबूर हैं।
यह अंधानुकरण मिट सकता है, सम्मिलन हो सकता है, समन्वय हो सकता है। ये दीवारें गिरानी हैं, ये
दीवारें मिटानी हैं।
खलील जिब्रान के ये शब्द विचारणीय हैं--
मेरे दोस्तो! मेरे हमराहियो!
दया का पात्र है वह देश,
जहां धौंस देने वाले नेता माने जाते हैं!
जो वैभवशाली विजेता को,
उदारता का जामा पहनाते हैं!
लानत भेजो उस राष्ट्र पर,
जिसके नेता लोमड़ी जैसे चालाक हों,
जिसके दार्शनिक मदारी हों,
जिसकी कला पैबंद और भौंडी नकल मात्र हो!
दया का पात्र है वह देश,
जो उन वस्त्रों को धारण करता है,
जिन्हें वह खुद नहीं बनाता!
वह रोटी खाता है,
जिसकी फसल वह नहीं उगाता!
लानत भेजो उस देश पर,
जो विचार से लदा है,
लेकिन धर्म और संस्कृति से शून्य है!
करुणा करो उस देश पर,
जो सपनों में जिस चीज से
नफरत करता है,
जाग्रत अवस्था में उसी के आगे
सिर झुकाता है!
दया का पात्र है वह देश,
जिसके संत-महात्मा
बूढ़े और गूंगे हैं!
और जिसके महापुरुष अभी
पालने में झूल रहे हैं!
लानत भेजो उस देश पर,
जो टुकड़ों में बंटा है
और हर टुकड़ा अपने को
एक राष्ट्र समझता है!
देखते हो हमारा देश, यहां राष्ट्र के भीतर
महाराष्ट्र! दुनिया में ऐसा चमत्कार कहीं भी नहीं। छोटे डब्बे के भीतर बड़ा डब्बा!
तुमने चीनी डब्बों की कहानियां सुनी हैं कि डब्बे के भीतर डब्बा, डब्बे के भीतर डब्बा...। लेकिन छोटे डब्बे के भीतर बड़ा डब्बा चीनी भी नहीं
रख पाए, हमने वह भी चमत्कार करके दिखा दिया। राष्ट्र के भीतर
महाराष्ट्र! कुछ शर्म भी नहीं, कोई संकोच भी नहीं। लानत भेजो
ऐसे देश पर।
और यहां सब खंडों में बंटे हैं। बंगाली ऐसा नहीं मानता कि तुम्हारे
साथ एक है। उसका देश, बात और है! बंगाली बात करता है तो लोगों से पूछता है,
क्या भारत से आ रहे हो? बंग-भूमि! सोनार
बांगला! बाकी भारतवासी। कितने खंडों में यह देश बंटा है! कितनी भाषाओं में यह देश
बंटा है! कितनी जातियों में यह देश बंटा है! लानत भेजो ऐसे देश पर! यह गुलाम न
होगा तो और क्या होगा? यह गरीब न होगा तो और क्या होगा?
किन-किन छोटी-छोटी बातों पर झगड़े चलते रहते हैं! वर्षों हो गए,
एक जिले के ऊपर महाराष्ट्र में और कर्नाटक में झगड़ा चल रहा है कि वह
कहां होना चाहिए। छुरेबाजियां हो जाती हैं, दंगे-फसाद हो
जाते हैं। और जिला जहां का तहां रहने वाला है। कहीं आएगा नहीं, कहीं जाएगा नहीं।
मैंने एक कहानी सुनी है कि जब भारत और पाकिस्तान बंटा, तो एक पागलखाना था जो दोनों देशों की सीमा पर पड़ता था। अब पागलखाने को
लेने में कौन उत्सुक था! न भारत को बहुत फिक्र थी, न
पाकिस्तान को बहुत फिक्र थी। लेकिन अधिकारी चिंतित थे पागलखाने के कि पागलखाना
कहां जाए! सीमा बिलकुल बीच से निकलती थी; आधा पागलखाना उधर
पड़ जाता था, आधा इधर। आखिर उन्होंने कहा कि पागलों से ही पूछ
लो कि तुम कहां जाना चाहते हो?
तो सारे पागल इकट्ठे किए गए। कोई दोत्तीन हजार पागल उस पागलखाने में
थे। उनकी बड़ी सभा हुई, बड़ी गुफ्तगू हुई। पागलों ने एक-दूसरे के कान में
कुछ-कुछ फुसफुसाया और खूब खिलखिलाएं और हंसें। एक-दूसरे को गुदगुदाएं। अधिकारी
बहुत हैरान हुआ कि बात क्या है, तुम इतने खुश किस बात से हो
रहे हो?
उन्होंने कहा, हम इस बात से खुश हो रहे हैं कि हमारी कुछ समझ में
नहीं आता, हम तो पागल हैं, मगर आप तो
समझदार हैं। आप कहते हो कि हम भारत में रहें कि पाकिस्तान में। और हम पूछते हैं कि
अगर हम पाकिस्तान में जाएंगे तो क्या हमारा पागलखाना पाकिस्तान में चला जाएगा,
तो आप कहते हो कि नहीं-नहीं, पागलखाना तो यहीं
रहेगा! हम पूछते हैं कि अगर हम भारत में जाएंगे तो क्या हमारा पागलखाना भारत में
चला जाएगा; आप कहते हो, नहीं-नहीं,
पागलखाना तो यहीं रहेगा, मगर तुम कहां जाना
चाहते हो यह बताओ! इस पर हमें हंसी आ रही है। हमारी समझ में नहीं आता कि पागल हम
हैं कि आप हो! अगर पागलखाना यहीं रहना है तो जाने का सवाल ही क्या? जब जाना ही नहीं कहीं तो हम क्यों यह निर्णय करें? इससे
हमें बहुत हंसी आ रही है।
लाख समझाया अधिकारी ने। इधर से समझाया, उधर से समझाया,
कि भई समझने की कोशिश करो; पागलखाना तो यहीं
रहेगा, मगर तुम्हें कहां जाना है? जब
देखा अधिकारी ने कि यह तो कोई रास्ता इनसे बन नहीं सकता, ये
तो हंसते हैं, खिलखिलाते हैं, गुदगुदाते
हैं, तो उसने कहा एक ही रास्ता है, बीच
में से एक दीवार उठा दो। आधा पागलखाना पाकिस्तान में हो गया, आधा हिंदुस्तान में, बीच में से दीवार उठा दी गई।
मैंने सुना है कि अभी भी दीवार पर पागल चढ़ जाते हैं। पाकिस्तानी पागल, हिंदुस्तानी पागल कहलाते हैं आजकल वे। और अभी भी खिलखिलाते हैं, एक-दूसरे को गुदगुदाते हैं कि हद हो गई, बीच में एक
दीवार क्या हो गई, तुम पाकिस्तानी हो गए, हम हिंदुस्तानी हो गए! हम पुराने दोस्त, पुराने
नाते-रिश्ते, बस दीवार से टूट गए! दीवार पर चढ़ कर बैठ जाते
हैं सर्दियों के दिनों में, खास कर इन दिनों में, और एक-दूसरे से खूब खिलखिला कर बातें करते हैं कि हद हो गई, क्या गजब हो गया, तुम भी वहीं हम भी वहीं, कोई कहीं गया नहीं, एक बीच में दीवार खड़ी हो गई,
तुम पाकिस्तानी हो गए, हम हिंदुस्तानी हो गए!
अब हम उस तरफ नहीं आ सकते, वीसा चाहिए। तुम इस तरफ नहीं आ
सकते, वीसा चाहिए।
लानत भेजो ऐसे देश पर!
दया का पात्र है वह देश,
जहां धौंस देने वाले नेता माने जाते हैं।
मगर वही धौंस देने वाले तो तुम्हारे नेता हैं--तरहत्तरह के दादा। जो
तुम को जितना धमका सकें, डरा सकें, उनकी जेब में उतने ही
मत चले जाते हैं।
जो वैभवशाली विजेता को,
उदारता का जामा पहनाते हैं।
जो जीत जाता है, उसकी ही तुम स्तुति करने लगते
हो। जो शक्ति में आ जाता है, उसके ही प्रशंसा-गीत शुरू हो
जाते हैं, प्रस्तुति-गान शुरू हो जाते हैं। और यह तुमने
सदियों से किया है। यह कोई आज की बात नहीं। यह गुलाम आत्मा का लक्षण है।
लानत भेजो उस राष्ट्र पर,
जिसके दार्शनिक मदारी हों।
लेकिन तुम कैसे लानत भेजोगे? तुम तो सत्य साईं
बाबा को पूजोगे। घड़ियां कौन निकालेगा--कोई दार्शनिक, कोई ऋषि,
कोई बुद्ध पुरुष? एच.एम.टी. में बनी हुई
घड़ियां? लेकिन राख निकालो हाथ से--और इस देश में सम्मान का
कोई अंत नहीं! कुछ भी मदारीपन करो और लोग राजी हैं, सम्मान
देने को राजी हैं। सत्य के लिए कोई सम्मान नहीं है, मदारीपन
के लिए सम्मान है। और क्या करोगे राख निकाल कर भी? राख की
कोई कमी है? कुछ और निकालो। सत्य साईं बाबा को मैं कहता हूं
कि निकालना है तो कुछ कोहिनूर निकालो। निकालना है तो कुछ ऐसी चीज निकालो।
मगर कोहिनूर तो नहीं निकालते। कोहिनूर लाएं कहां से निकालने को? राख निकालते हैं। राख तो इस देश में इकट्ठी ही है, इतने
दिनों से मुर्दे मर रहे हैं और राख ही राख तो रह गई है। और तो कुछ बचा ही नहीं।
अंगार तो बचे ही नहीं, राख निकालते हैं। लेकिन राख को भी हम
विभूति कहते हैं। शब्द तो हम सुंदर देने में इतने कुशल हैं। राख को विभूति कह दिया
कि बस दिल खुश हो जाता है। और राख कोई भी मदारी सड़क के किनारे निकाल देता है। कोई
भी मदारी निकाल सकता है। मगर अगर सड़क के किनारे मदारी निकाले, बंदरिया को नचा कर निकाले, तो बेचारा गरीब मदारी,
दो पैसे दे दो तो बहुत। मगर यही कोई महात्मा का रूप-रंग रख कर
निकाले राख, तो बस सारा देश चरणों में झुका हुआ है।
लानत भेजो ऐसे देश पर,
जो विचार से लदा है,
लेकिन धर्म और संस्कृति से शून्य है।
और विचार से तुम लदे हो, बहुत लदे हो। विचार
ही विचार से लदे हो। इतने लद गए हो कि चल भी नहीं सकते हो, इतना
वजन है। लेकिन न तो धर्म है और न संस्कृति है। बातें करते हो संस्कृति और धर्म की;
वही तो विचार। विचार यानी संस्कृति और धर्म की बातें। लेकिन व्यवहार
में न तो कोई संस्कृति है, न कोई धर्म है।
अब यहां पश्चिम से इतने संन्यासी मेरे पास हैं। जो व्यवहार उनके साथ
भारतीय तथाकथित धार्मिक और सांस्कृतिक लोग कर रहे हैं, ये क्या खबरें ले जाएंगे पश्चिम में तुम्हारे बाबत! इनके सारे भ्रम टूट
गए। ये आए थे इस खयाल से कि भारत महान सांस्कृतिक और धार्मिक देश है। जा रहे हैं
इस खयाल से कि इससे ज्यादा बेहूदा और भोंडा कोई देश नहीं है, क्योंकि किसी पश्चिमी स्त्री का संन्यासिनी का सड़क पर निकलना मुश्किल है।
भारतीय संस्कृति के रक्षक धक्का ही मार देंगे, च्यूंटी ले
देंगे, कपड़ा ही खींच देंगे, साइकिल ही
चढ़ा देंगे, कार से ही धक्का मार कर निकल जाएंगे। कितने बलात्कार
करने की कोशिश की गई है! और कितनी हत्याएं!
अभी चार-छह दिन पहले एक युवा जर्मन संन्यासी की हत्या की गई। और हत्या
का कुल कारण इतना मालूम पड़ता है कि उसके पास एक बहुमूल्य गिटार था। और उसका गिटार
हड़प लेने के लिए कुछ भारतीय पीछे पड़े हुए थे। और चूंकि वह एक दिन बाद ही जाने वाला
था, उसी रात वह मुझसे विदा लेकर गया था और दूसरे दिन सुबह उसकी हत्या कर दी
गई। और हत्या भी ऐसे भोंडे और बेहूदे ढंग से की गई--कुल्हाड़ी से! यह भारतीय
संस्कृति है! ये भारतीय संस्कृति के और धर्म के रक्षक हैं! और ये रक्षक मुझे
गालियां दे रहे हैं!
यहां प्रति वर्ष कोई पचास हजार से एक लाख पश्चिम से संन्यासी आते हैं।
एक भारतीय महिला पर किसी पाश्चात्य संन्यासी ने न तो धक्का मारा है, न बलात्कार करने की कोशिश की है। लेकिन कितने भारतीयों ने कितनी पाश्चात्य
संन्यासिनियों के साथ अपनी सारी संस्कृति और अपने सारे धर्म को एक तरफ रख कर दुर्व्यवहार
करने की कोशिश की है, इसका कोई हिसाब लगाने बैठे तो हैरानी
होती है।
हर भारतीय पश्चिम से आए हुए व्यक्ति से चीजें झपट लेने में लगा हुआ
है। घड़ी मिल जाए, रेडियो मिल जाए, टेप-रिकार्डर
मिल जाए, जो मिल जाए, खींच लो, झपट लो। रोज चोरियां होती हैं। पुलिस के पास लाखों रुपए का सामान इकट्ठा
हो गया है। लेकिन जब तक वह सामान इकट्ठा होता है, तब तक वह
संन्यासी चला गया होता है। अब वे कहते हैं कि हम आश्रम को दे नहीं सकते, हम तो उसी व्यक्ति को देंगे।
अब उस व्यक्ति का कौन पता रखे कि वह व्यक्ति कहां से आया था!
न्यूजीलैंड से आया था, कि कोरिया से आया था, कि
केलिफोर्निया से आया था, कि स्वीडन से आया था, कौन पता रखे! किसकी घड़ी है, किसका गिटार है, किसका टेप रिकार्डर है! पुलिस के पास इतना सामान इकट्ठा है कि वे रोज यहां
खबर भेजते हैं कि इसका क्या करें हम!
यह तुम्हारी भारतीय संस्कृति है! बस विचार ही रह गए हैं--थोथे विचार।
और भीतर सब तरह की गंदगी इकट्ठी है। और फिर भी तुम अपनी निजता बचाना चाहते हो।
करुणा करो उस देश पर,
जो सपनों में जिस चीज से
नफरत करता है,
जाग्रत अवस्था में उसी के आगे
सिर झुकाता है।
तुम जरा अपने सपनों और अपनी जागृति को तो गौर से देखो! जिसे तुम जागने
में इनकार करते हो उसको सपने में भोगते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन से उसका मित्र चंदूलाल कह रहा था कि कल रात गजब का
सपना देखा, किसी को बताना मत। और देखो, टिल्लू
गुरु की मां को बिलकुल पता न चले। अब तुम तो अपने हो तो बिना कहे नहीं रहा जाता।
रात यूं देखा सपने में कि एक तरफ हेमामालिनी बैठी है, एक तरफ
परवीन बाबी बैठी है। दोनों नंग-धड़ंग! और नाव में नौका-विहार कर रहा हूं! पूरा चांद
निकला हुआ है। ऐसा आनंद आ रहा था...।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, अरे हद हो गई! तो
दोस्ती किस लिए है तुमसे? फिर मुझे क्यों नहीं बुलाया?
चंदूलाल ने कहा, बुलाया नहीं! क्या बातें करते
हो! मैं तो गया था। मैंने तुम्हारी पत्नी को कहा भी, गुलबदन
को, कि नसरुद्दीन कहां हैं? उसने कहा,
वे ध्यान कर रहे हैं। सो मैंने कहा, ध्यान में
बाधा देना उचित नहीं है।
नसरुद्दीन ने कहा, भाड़ में जाए ध्यान! अरे, ध्यान इन्हीं का तो कर रहा था। और कमबख्त तू मजा लूटता रहा, मैं सिर्फ ध्यान ही करता रहा। ध्यान किसका कर रहा था?
एक तो तुम्हारा बाहर का दिखावा है, पाखंड है, धोखा है, तुम्हारी जाग्रत जिंदगी का एक रंग-रूप है;
और एक तुम्हारे सोने की दुनिया है, नींद की
दुनिया है। सपने में तुम अपनी ज्यादा असलियत में होते हो। जाग्रत में तुम जिस बात
को इनकार करते हो, सपने में उसको पूजते हो। सपने में जिसको
इनकार करते हो, जाग्रत में उसको पूजते हो। तुम विभाजित हो।
तुम खंडित हो।
लानत भेजो उस देश पर,
जिसके संत-महात्मा
बूढ़े और गूंगे हैं।
तुम्हारे संत-महात्माओं की खूबी क्या है? गूंगा होना बहुत जरूरी है, क्योंकि अगर सत्य बोले तो
मुसीबत हुई। मैं अनुभव से कह रहा हूं। जो सत्य है उसको वैसा ही कह देना मैं पसंद
करता हूं, लेकिन उसके उत्तर में सिवाय गालियों के और कुछ भी
नहीं मिलता। इसलिए तुम्हारे संत-महात्मा गूंगे हो गए हैं, वे
बोलते ही नहीं। उन्होंने तो महात्मा गांधी के तीन बंदरों से सिखावन ले रखी है।
वे तीन बंदर महात्मा गांधी को जापान से एक मित्र ने भेंट किए थे। वे
जापानी बंदर हैं। जापान में उनका अर्थ और था, भारतीय संस्कृति के
संदर्भ में उनका अर्थ बिलकुल बदल जाता है। जापान में उनका अर्थ था कि जो बंदर अपने
कानों पर अंगुलियां डाले बैठा है, उसका मतलब है कि बुरी बात
मत सुनो। भारत में उसका मतलब बिलकुल दूसरा हो जाता है: सत्य बात मत सुनो। सुनी कि
झंझट, सुनी कि खतरे में पड़े। जो सत्य बोल रहा है, वह भी खतरे में पड़ेगा और तुम भी पड़ोगे। इसलिए बेहतर है कि सुनो ही मत। जो
बंदर मुंह पर हाथ लगाए बैठा है, उसका मतलब है--जापान में--कि
बुरी बात मत कहो। भारत में उसका मतलब होता है: सत्य बात मत कहो। कहा कि मुसीबत को
बुलाया। और एक तीसरा बंदर है, जो आंखों पर हाथ रखे बैठा है।
जापान में उसका मतलब होता है: बुरी बात मत देखो। भारत में उसका अर्थ होता है: जहां
भी सत्य हो वहां एकदम आंखें बंद कर लेना। क्योंकि अगर देख लिया तो कहीं भूल-चूक से
कह जाओ। अगर देख लिया तो कहना ही पड़ेगा। सत्य को देखो तो कहे बिना नहीं रहा जा
सकता।
ये भारत के संत-महात्मा इन तीन बंदरों के जैसे हो गए हैं--लेकिन
भारतीय अर्थ में। न सत्य बात देखो, न सत्य बात बोलो,
न सत्य बात सुनो--और तुम्हारे जीवन में खूब समादर मिलेगा, खूब सत्कार मिलेगा। लोग जय-जयकार करेंगे, फूलमालाएं
पहनाएंगे, और करना क्या है!
और तुम्हारे सारे महात्मा बूढ़े हैं। उम्र से ही होते तो कोई बात बुरी
न थी। उम्र से तो सभी को बूढ़ा होना पड़ता है। लेकिन बूढ़े हैं आत्मा से। सड़ गए हैं
बिलकुल। बूढ़े हैं, क्योंकि अभी भी पुराने को दोहरा रहे हैं, पिटे-पिटाए को दोहरा रहे हैं। बूढ़े हैं, क्योंकि
सनातन-पुरातन उनके लिए सत्य का पर्यायवाची है। जब कि सत्य सदा नूतन है, नित नूतन है, प्रतिक्षण नया है और ताजा है। सत्य को
वही जानता है जो प्रतिक्षण नए और ताजे के संपर्क में रहता है, सान्निध्य में रहता है। जो वर्तमान में जीता है वही सत्य को जानता है। और
जो वर्तमान में जीता है वह सदा युवा रहता है। लेकिन तुम्हारे सब संत-महात्मा अतीत
में जी रहे हैं। रामायण की कथा और श्रीमदभागवत की कथा और पुराण, सब व्यर्थ की बकवास, निन्यानबे प्रतिशत कचरा है;
मगर उसको दोहरा रहे हैं। श्रोतागण सुन रहे हैं, महात्मागण दोहरा रहे हैं; दोनों मजे में हैं। न
उन्हें प्रयोजन है सत्य से, न इन्हें प्रयोजन है सत्य से।
सत्य तो झंझट लाता है, क्योंकि सत्य बगावत है, क्रांति है।
अभागा है वह देश।
लानत भेजो ऐसे देश पर,
जिसके महापुरुष अभी पालने में झूल रहे हैं।
लेकिन पालना ही झुलाते हैं हम तो। झांकी के दिन आ जाते हैं, कृष्ण कन्हैया पालने में झूलते हैं। कब तक कृष्ण कन्हैया को पालने में
झुलाओगे? कृष्ण कन्हैया अगर जिंदा होते, उचक कर पालने के बाहर आ जाते। मुर्दा कृष्ण कन्हैया, उनको जब लिटाओ तो लेट जाते हैं, बिठाओ तो बैठ जाते
हैं। किसी छोटे-से जिंदा बच्चे को तो ऐसा करके देखो--लिटाओ, उठाओ,
बिठाओ। ऐसा उपद्रव मचाएगा...।
एक छोटा बच्चा मुझसे कह रहा था कि मेरी मां बिलकुल पागल है। तेरी मां
को क्या हुआ--मैंने पूछा। उसने कहा कि जब मुझे जागना होता है, तब मुझे सुलाती है। जब मुझे सोना होता है, तब मुझे
उठाती है। अब इसको पागलपन न कहें तो और क्या कहें? रात को
मुझे जागना है, सो वह सुलाती है, जबरदस्ती
सुलाती है। दबा-दबा देती है। चारों तरफ से कंबल लपेट देती है। भूत-प्रेत का डर
बतलाती है। अंधेरा करके दरवाजा बंद कर देती है। मजबूरी में सोना पड़ता है। और सुबह
जब मुझे सोना है, मधुर-मधुर निद्रा आ रही है, मीठी-मीठी नींद, एक करवट और, तब
वह एकदम पीछे पड़ जाती है कि उठो। ठंडा पानी आंखों पर मारती है। अरे, यहीं तक नहीं, कुत्ते को मेरे ऊपर फेंकती है।
मैंने कहा, कुत्ते को तेरे ऊपर फेंकती है! इससे तेरे जागने का
क्या संबंध?
उसने कहा, आप समझे नहीं। मैं अपनी बिल्ली को साथ लेकर सोता हूं।
सो कुत्ते को फेंक देती है। उन दोनों में ऐसा घमासान छिड़ता है कि मुझे उछल कर बाहर
निकलना ही पड़ता है, कोई रास्ता ही नहीं रह जाता है। नहीं तो
लोंच-खरोंच मेरी हो जाए।
ये कृष्ण कन्हैया को तुम झूला झुला रहे हो। इनको चक्कर आने लगा होगा, कितनी सदियां हो गईं। मुझे झूला बिलकुल पसंद नहीं। मतलब मुझे खुद झूलना तो
पसंद है नहीं, दूसरा भी झूलता हो तो मुझे देखना भी पसंद
नहीं। मुझे देख कर भी चक्कर आता है कि यह क्या गधापच्चीसी है! झूले से मुझे हमेशा
नफरत रही। कृष्ण कन्हैया पर मुझे दया आती है कि इन पर क्या गुजर रही होगी, कि झूलना हो कि न झूलना हो, झुलाए जा रहे हैं। झूला
झूलें कन्हैया लाल! और जब दिल हो तब उनको लिटा दिया--चित करो, पट्ट करो, जैसा उनको करना हो; जब
चाहो पट बंद कर दो, जब चाहो पट खोल दो। भोग लगाना हो,
भोग लगा दो; भूखे रखना हो, भूखे रखो। क्या कर रहे हो तुम!
और तुम सोचते हो कि "यह पश्चिम का जो अंधानुकरण हो रहा है, क्या अस्वस्थ नहीं है?'
सभी अंधानुकरण अस्वस्थ हैं। कृष्ण का भी, राम का भी, बुद्ध का भी, महावीर
का भी, मेरा भी, सब अंधानुकरण अस्वस्थ
हैं। और अंधानुकरण ही नहीं, अगर तुम मुझसे पूछो तो अनुकरण भी
अस्वस्थ है। क्योंकि अंधानुकरण शब्द में एक खतरा है, शायद
तुम इसमें बचाव कर रहे हो। तुम कहोगे कि अनुकरण बात और है, अंधानुकरण
बात और; अंधानुकरण नहीं होना चाहिए, अनुकरण
होना चाहिए। मगर मैं तुमसे कहता हूं: सब अनुकरण अंधानुकरण होता है। आंख वाला
अनुकरण करेगा ही क्यों! आंख वाला समझ कर जीता है, समझ कर
चलता है, समझ कर उठता है, समझ कर बैठता
है। उसके भीतर अपनी ज्योति होती है। वह अपनी ज्योति के प्रकाश में चलता है।
और जिसके पास अपनी ज्योति है, वह किसी के पीछे नहीं
चलता--न मनु के, न मोजेज के, न मोहम्मद
के, न क्राइस्ट के, न कृष्ण के,
न कनफ्यूसियस के। वह किसी के पीछे नहीं चलता। वह समझता सबको है। वह
सबसे फूल चुन लेता है, लेकिन चलता है अपने बोध से। फूल भी
चुनता है अपने बोध से।
न तो पश्चिम का अनुकरण करना है, न पूरब का अनुकरण
करना है, न अतीत का अनुकरण करना है। अनुकरण ही नहीं करना है।
बोध से जीना है। और काश हम दुनिया में बोध की हवा और वातावरण पैदा कर सकें! वही
मेरा प्रयास है। काश हम जगत में बोध को सम्मान दे सकें, सत्कार
दे सकें, तो न पश्चिम बचेगा, न पूरब
बचेगा, न मुसलमान बचेंगे, न हिंदू
बचेंगे, न ईसाई बचेंगे, न जैन बचेंगे,
न बौद्ध बचेंगे--सिर्फ बोध बचेगा और बोध को उपलब्ध व्यक्ति बचेंगे।
ऐसे ही व्यक्तियों से इस जगत में गौरव है, गरिमा है। ऐसे ही
व्यक्ति इस जगत के नमक हैं।
बोध के इस नशे को पीओ। चौंकोगे तुम, क्योंकि मैं इसे बोध
का नशा कहता हूं। आमतौर से सोचा जाता है बोध और नशा विपरीत चीजें हैं। मैं ऐसा
नहीं सोचता। बोध से बड़ी कोई शराब नहीं, क्योंकि बोध जगाता भी
है और गहरी मस्ती भी ले आता है; जगाता भी है और खुमारी भी
देता है।
मैकदे से उठा के पिला साकिया
मैकदे में मेरा दम घुटा साकिया
मैकदे से उठा के पिला साकिया
परदा रुख से न चाहे हटा साकिया
मैं हूं तेरा बस इतना बता साकिया
मैकदे से उठा के पिला साकिया
अपनी नजरों पे मुझको भरोसा नहीं
पास आके गले से लगा साकिया
मैकदे से उठा के पिला साकिया
मैं तेरी आंख का एक आंसू सही
पर नजर से न मुझको गिरा साकिया
मैकदे से उठा के पिला साकिया
परमात्मा से एक ही प्रार्थना करो कि मुझे होश की शराब पिलाओ; कि मुझे ऐसा होश से लबालब भर दो कि होश मेरी मस्ती हो जाए; कि मैं इतना होश से भर जाऊं कि बेहोशी भी मुझे बेहोश न कर सके; कि बेहोश भी रहूं, डगमगाऊं भी। यूं भी चलूं जैसे
शराबी चलता है और यूं भी जैसे बुद्ध चलते हैं।
मैं बुद्ध में थोड़ी कमी पाता हूं। मैं मीरा में भी थोड़ी कमी पाता हूं।
मीरा में होश की कमी है, बुद्ध में मस्ती की कमी है। मैं पश्चिम में थोड़ी कमी
पाता हूं, मैं पूरब में थोड़ी कमी पाता हूं। लोगों ने आधे-आधे
अंग को चुन लिया है, क्योंकि आधा-आधा अंग तर्कयुक्त मालूम
होता है। पूरे को चुनने में बड़ी अतार्किकता हो जाती है, असंगति
हो जाती है। मैं तो ऐसा व्यक्तित्व चाहता हूं पृथ्वी पर, जिसमें
बुद्ध जैसा जागरण हो और मीरा जैसी मस्ती हो; बुद्ध जैसा
शून्य हो और मीरा जैसे गीत हों। बुद्ध का शून्य जब मीरा के हाथ की वीणा बन जाए,
तो समझना कि हमने पृथ्वी पर धर्म को अवतरित किया।
एक जाम और
साकी--एक जाम और,
एक जाम और।
रोज-रोज पीकर भी प्राण न अघाए।
जितना पीयो, प्यास बढ़ती ही जाए।
कुछ मय भी कड़वी, कुछ हमें पीना न आए।
कंप जाए जाम और मय ढुलक-ढुलक जाए।
ऐसे अब पिला कि नशा आके फिर न जाए।
सूली बने सेज,
जहर अमरित हो
जाए।
जुड़ जाए मीरा-मंसूरों
में--एक नाम और, एक नाम
और।
आंखों में जब मय के सुरूर हुए गहरे।
पांव हुए डगमग, पर मन के राही ठहरे।
बदले संदर्भ और अर्थ के ककहरे।
राम में दिखे कई दशानन के चेहरे।
फिर भी उनके
सिर मर्यादा के
सेहरे।
रावण में देखा
है--एक राम और,
एक राम और।
मैकदे के द्वार बिके राम की चदरिया।
जिस पर फिसले हर गाहक की नजरिया।
चादर का सूत-सूत रामरस भीना।
धन-पद से नहीं इसे जा सकता कीना।
उनका भी न काम, जिन्हें हिसाबों में जीना।
बोली वह लगाए, जो रखे जुआरी का सीना।
खुद को दे
देना बस--एक दाम और, एक दाम
और।
टूट गए सारे संबंधों के दरपन।
घर बाहर सभी ओर एक अजनबीपन।
कुछ टूटा-टूटा तन कुछ बिखरा-बिखरा मन।
घर में बाजार, बाहर भीड़ों का एक वन।
अपने भी पास नहीं अब तो अपनापन।
भीतर के गौतम को अब मिले एक वेणुवन।
बाहर के कान्हा
को--एक धाम और,
एक धाम और।
घिसे-पिटे नामों को तोते दुहराएं।
खुद भी भरमें, औरों को भी भरमाएं।
वहां से भी चूकें और यहां भी गंवाएं।
पर कुछ ऐसे पंछी, जिन्हें पिंजरे न भाएं।
रामरस चखें वे और नभ में चहचहाएं।
नामों में अब
एक और अर्थ
पाएं।
अर्थों को देना
है--एक नाम और,
एक नाम और।
जाने किस देश उड़े दूधिया उजाले।
छोड़ गए धरती को रात के हवाले।
चांद हुए अंधे, सूरज हुए काले।
हर कोई फंसा है, कौन किसको निकाले।
मौत की मकड़ी बुनती रोज नए जाले।
एक किरन-कलम मगर हर कोई है सम्हाले।
चलो, सुबहों के नाम लिखें--एक शाम और, एक शाम और।
एक जाम और
साकी--एक जाम और,
एक जाम और।
आज इतना ही।
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