साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
प्रेम बड़ा दांव है—तीसरा
प्रवचन
१३ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान, मैं कौन हूं, क्या हूं, कुछ
पता नहीं। आपसे अपना पता पूछने आया हूं।
नारायण शंकर! यह पता तुम्हें
कोई और नहीं दे सकता। न मैं, न कोई और। यह तो तुम्हें खुद ही
अपने भीतर खोदना होगा। बाहर पूछते फिरोगे, भटकाव ही हाथ
लगेगा। बहुत मिल जाएंगे पता देनेवाले। जगह-जगह बैठे हैं पता देनेवाले। बिना खोजे
मिल जाते हैं। तलाश में ही बैठे हैं कि कोई मिल जाए पूछनेवाला। सलाह देने को लोग
इतने उत्सुक हैं, ज्ञान थोपने को एक-दूसरे के ऊपर इतने आतुर
हैं कि जिसका हिसाब नहीं। क्योंकि अहंकार को इससे ज्यादा मजा और किसी बात में नहीं
आता।
जब भी तुम दूसरे को ज्ञान की बातें देने लगते हो, तो दो बातें सिद्ध हो जाती हैं--दूसरा अज्ञानी है और तुम ज्ञानी हो;
दूसरा नहीं जानता और तुम जानते हो। और यह मजा कौन नहीं लेना चाहता।
इसलिए मुश्किल है तुम्हें वह आदमी मिलना जो तुम्हें सलाह न दे, ज्ञान न दे। हालांकि कोई किसी से ज्ञान लेता नहीं। और ज्ञान कुछ ऐसी बात
है भी नहीं कि काई और दे दे। अच्छा ही है कि लोग लेते नहीं। जो दूसरे से ले लिया,
कचरा है।
और जो देने को उत्सुक हैं, आतुर हैं,
उनके पास कचरा ही होगा। क्योंकि जिन्होंने जाना है, उन्हें पता चल ही जाएगा कि यह बात जनायी नहीं जा सकती। जानी तो जा सकती है,
लेकिन जनायी नहीं जा सकती है।
मैं तुम्हें तुम्हारा पता नहीं दे सकता। मुझे मेरा पता है। और कैसे
मुझे मेरा पता लगा, उसकी विधि जरूर तुमसे कह सकता हूं। कैसे मैंने खोदा
अपना कुआं, कैसे पाया आना जलस्रोत, उसकी
विधि तुमसे कह सकता हूं। उस विधि को भी जड़ता से मत पकड़ लेना नहीं तो चूक होगी। यह
मामला नाजुक हैं। नाजुक इसलिए है कि दो व्यक्ति एक जैसे नहीं होते। दो व्यक्तियों
के भीतर का नक्शा भी एक जैसा नहीं होता। तो इशारे समझो। लेकिन इशारों को तुम नक्शे
मत मान लेना।
इस दुनिया में कोई नक्शा नहीं है आत्मज्ञान का। हां, बहुत लोगों ने--बुद्धों ने--इंगित किये हैं। इंगित का अर्थ ही यह होता है
कि समझो, फिर समझपूर्वक अपने अनुकूल ढालो। प्रत्येक व्यक्ति
को अपने धर्म की तलाश करनी होती है। और जो लोग मानकर बैठ जाते हैं--हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई--चूक जाते
हैं। वे सोचते हैं कि मिल गयी बाइबिल, मिल गया कुरान,
मिल गये वेद, अब और क्या करना है? इनको कंठस्थ करें। ग्रामोफोन रिकार्ड हो जाओगे, खुद
का पता न मिलेगा।
खुद का पता पाने की विधि जरूर समझायी जा सकती है मगर वह भी बहुत
बोधपूर्वक लेनी होती है। आदमी का मन यह होता है कि हमें पचा-पचाया मिल जाए, कुछ करना न पड़े, हाथ न हिलाना पड़े, हिलना-डुलना न पड़े, श्रम न करना पड़े, उठना-बैठना न पड़े, यूं कोई दे दे, हम जैसे थे वैसे के वैसे रहे आएं और हमें मिल जाए।
तुम कहते हो, मैं कौन हूं, मैं क्या हूं,
कुछ पता नहीं। तुम हो, इतना तो पता है न?
बस, इतना काफी है। एक किरण को कोई पकड़ ले सूरज
की तो सूरज तक पहुंच सकता है। एक धागा पकड़ में आ जाए, काफी
है। उतना-सा सूत्र पहुंचा देगा तुम्हें मूल उदगम तक। पानी की एक बूंद समझ में आ
जाए तो सारे सागरों का राज समझ में आ गया।
इतना तुम्हें पता है न कि मैं हूं। बहुत पता है। काफी पता है। इसी
आधार पर तो मंदिर बन जाएगा। बस, इसी आधार डुबकी मारो।
मनुष्य के संबंध में एक बात समझ लेनी जरूरी है: और सारे पशु पूरे के
पूरे पैदा होते हैं, आदमी बीज की भांति पैदा होता है, पूरा का पूरा पैदा नहीं होता। यह आदमी की गरिमा भी है और उसके जीवन की महा
चिंता भी। क्योंकि अगर श्रम न किया तो बीज बीज ही रह जाएगा और सड़ जाएगा। जीवन यूं
ही हाथ से वह जाएगा।
आदमी को श्रम करना होगा। तो उसका बीज अंकुरित होगा। तो उसका बीज वृक्ष
बनेगा। तो वृक्ष में फूल आएंगे, फल लगेंगे। तो जीवन में गंध,
सुरभि फैलेगी। तो जीवन में रस होगा; अर्थ होगा,
महिमा होगी, परमात्मा होगा; ज्ञान होगा।
कुत्ता कुत्ते की तरह पैदा होता है और कुत्ते की तरह ही मरेगा। ऊंट
ऊंट की तरह पैदा होगा, ऊंट की तरह मरेगा। कुत्ता कुत्ता होने से नीचे नहीं
गिर सकता। और न कुत्ता कुत्ता होने से ऊपर उठ सकता है। आदमी का खतरा यही--और
सौभाग्य भी यही, ध्यान रखना, दोनों
बातें साथ-साथ हैं। खतरा यह है कि आदमी आदमी से भी नीचे गिर सकता है। गिरता है।
आदमी ऐसे कृत्य कर सकता है कि पशुओं को भी शर्म आ जाए। चंगेजखान, और तैमूरलंग और नादिरशाह और एडोल्फ हिटलर और जोसेफ स्टेलिन, इनकी हत्याओं का, इनकी नृशंस कठोरताओं का, इनकी क्रूरताओं का कौन पशु मुकाबला कर सकेगा? सारे
पशु फीके पड़ जाएंगे। इनको पशु कहना ठीक नहीं है, पशुओं का
अपमान होता है।
हम इस तरह के लोगों को कहते हैं: पाशविक। उचित नहीं है कहना। अगर पशु
से तुम्हारा अर्थ जानवर है तो तुम जानवरों का अपमान कर रहे हो। क्योंकि किसी से
तुम्हारा अर्थ जानवर है तो तुम जानवरों का अपमान कर रहे हो। क्योंकि किसी जानवर ने
जोसेफ स्टेलिन की तरह लाखों लोगों की हत्या नहीं की। हां, पशु से अगर तुम्हारा आध्यात्मिक अर्थ हो तो ठीक। लेकिन पशु से कितने लोगों
को आध्यात्मिक अर्थ होता है? कितने लोगों को पशु का
आध्यात्मिक अर्थ पता भी है? शाब्दिक अर्थ पता है। आध्यात्मिक
अर्थ तो बहुत बहुमूल्य है। पर उसका कोई संबंध जानवरों से नहीं है।
पशु शब्द बना है पाश से। पाश का अर्थ होता है: बंधन। जो बंधा है, वह पशु है। जो पाश में पड़ा है, वह पशु है। वासनाओं
से जो जकड़ा हुआ है, वह पशु है। लेकिन कोई पशु आदमी जैसा
वासनाओं में जकड़ा हुआ नहीं है।
तो आदमी तो पशुओं से बहुत नीचे गिर जाता है। पशुओं में तो एक तरह का
निर्दोष भाव दिखायी पड़ेगा। उनकी आंखों में झांको तो एक तरह की सात्विकता, एक तरह का संतत्व। माना कि पशु भूखे होंगे हो हत्या करेंगे, लेकिन हत्या के लिए कोई पशु हत्या नहीं करता, सिर्फ
आदमी को छोड़कर। आदमी आखेट के लिए जाता है, शिकार के लिए जाता
है। मारता है खेल में। जैसे किसी का जीवन तुम्हारे लिए खेज है, किसी की हत्या तुम्हारे लिए खेल है। कोई पशु आखेट नहीं करता। कोई पशु
युद्ध नहीं करता ऐसे जैसे आदमी करता है, जिसमें करोड़ों लोग
मरते हैं। हिरोशिमा और नागासाकी किसी पशु के कृत्य नहीं हैं, आदमी के कृत्य हैं। एक क्षण में लाखों लोग राख हो गये।
आदमी गिरे तो बहुत बुरी तरह गिरता है। गिरे तो नर्क को छू लेता है।
मगर उठे तो चांदत्तारों के पार निकल जाता है। उठे तो बुद्ध, उठे तो महावीर, उठे तो कृष्ण, उठे
तो क्राइस्ट, उठे जो जरथुस्त्र। उठे तो सारे सूरज फीके हैं।
उठे तो सारे फूल बासे। उठे तो उसके सौंदर्य की कोई तुलना नहीं। उसकी गरिमा का कोई
मुकाबला नहीं है, अद्वितीय है फिर। उठे तो देवताओं को पीछे
छोड़ देता है। इसलिए हमारे पास बड़ी मीठी कथाएं हैं।
जब बुद्ध को परम ज्ञान हुआ तो आकाश से देवता उतरे उनके चरणों में सिर
झुकाने। इंद्र ने आकर बुद्ध के चरणों में सिर रखा और कहा कि हमें उपदेश दें, क्योंकि सदियों-सदियों में कभी कोई बुद्ध होता है। हम माना कि देवता हैं
मगर हम भी वासनाओं में पड़े हैं। माना कि हम आदमियों से बेहतर दुनिया में हैं,
ज्यादा सुखी हैं, ज्यादा संपन्न हैं, मगर चुक जाएगा हमारा पुण्य, जल्दी ही हमारा स्वर्ग
समाप्त हो जाएगा, फिर हमें वापिस धरती पर लौट आना होगा। और
आपने अब ऐसी संपदा पा ली जो कभी नहीं चुकेगी। तो कुछ दान हमें, कुछ इशारा हमें, कुछ बोध हमें भी, हम भी जागना चाहते हैं। नर्क में भी लोग सोए हैं, स्वर्ग
में भी लोग सोए हैं। नर्क में समझो कि कांटों पर सोए हैं, स्वर्ग
में समझो कि फूलों पर सोए हैं, मगर सोए दोनों तरफ हैं। जागे
कोई भी नहीं हैं।
महावीर को जब ज्ञान हुआ, जब ज्योति जली, तो देवताओं ने फूल बरसाए। ये कथाएं
प्यारी हैं। इन कथाओं के इतिहास मत समझना, जैसे ही तुमने
इन्हें इतिहास समझा कि चूक हो जाती है, ये कथाएं पुराण हैं।
पुराण का अर्थ होता है: इतिहास से बहुत बहुमूल्य है। इतिहास तो साधारण घटनाओं का
जोड़ है। पुराण साधारण घटनाओं संबंधित नहीं है। पुराण तो उन अभूतपूर्व अनुभूतियों
से संबंधित है जिनका कहने का कोई उपाय नहीं, इसलिए कथाओं के
माध्यम से कहना होता है। पुराण में बोध कथाएं हैं, इतिवृत्त
नहीं, इतिहास नहीं; शाश्वतता का,
परम सत्य का चित्रण है। लेकिन जब हम परम सत्य का चित्र बनाने चलते
हैं तो रंग तो हमें पृथ्वी के ही उपयोग में लाने पड़ते हैं, शब्द
तो हमें आदमी के ही उपयोग में लाने पड़ते हैं।
तो कथाएं कहती है कि महावीर के भीतर ज्योतिशिखा जली, देवताओं ने फूल बरसाए। झर-झर फूल गिरे। अहोभाग्य अस्तित्व का कि फिर एक
व्यक्ति के जीवन में ज्योति जगी।
आदमी उठे तो देवता भी उससेर् ईष्या खाते हैं। और आदमी गिरे तो पशु भी
शर्मिन्दा हो जाएं। आदमी एक सीढ़ी है, एक सोपान है। नीचे
उतरो तो भी वही सोपान काम आता है, ऊपर चढ़ो तो भी वही सोपान
काम आता है। वही सीढ़ियां दोनों तरफ काम आ जाती हैं। जिन सीढ़ियों से तुम अपने मकान
के नीचे उतरते हो, उन्हीं सीढ़ियों से मकान ऊपर चढ़ते
हो--सीढ़ियां अलग नहीं होतीं।
तुम पूछते हो, मैं कौन हूं, क्या हूं, कुछ पता नहीं है। कैसे तुमने अपना पता खोया? कैसे
तुम नीचे उतर आए अपने मंदिर से? बस उन्हीं सीढ़ियों से ऊपर
चढ़ना होगा। विचारों में खोया है आदमी, इसलिए अपना पता नहीं
चलता । निर्विचार हो जाए तो पता चल जाए। वासनाओं में खोया है तो अपना पता नहीं
चलता। वासनाओं का धुआं घिरा है तो ज्योति दिखायी नहीं पड़ती। वासनाओं का धुआं शांत
हो जाए तो ज्योति प्रगट हो जाए। जैसे बादलों में सूरज ढक जाता है, ऐसे ही तुम ढक गये हो अपने ही खड़े किये बादलों में। और तुम उनको रोज खड़ा
करते चले जाते हो। तुम्हें उनके निर्माता हो। और फिर पूछते फिरते हो कि मैं कौन
हूं!
अब तुम कहते हो, आपसे अपना पता पूछने आया हूं।
मैं तुम्हें कुछ भी कह दूं, उससे तुम्हारा पता तुम्हें नहीं
मिलेगा। मैं लाख कहूं कि तुम आत्मा हो, कि तुम परमात्मा हो,
कि तुम वही हो जिसको उपनिषदों ने घोषणा की है: अहं ब्रह्मास्मि,
तुम ब्रह्म स्वरूप हो, तत्वमसि, कि तुम वही हो जो सारे जगत का केंद्र है और आधार है, कि मंसूर ने जो चिल्ला कर कहा: अनलहक, कि मैं सत्य
हूं, तुम भी वही हो। ये तुमने सुनी हैं बातें, जरूर सुनी होंगी, पढ़ी हैं, जरूर
पढ़ी होंगी, कुछ एकदम नये-नये, ताजेत्ताजे
मेरे पा न आ गये होओगे। सोचा होगा, विचारा होगा, पढ़ा होगा, मनन किया होगा, पूछा
होगा न-मालूम कितने लोगों से, न-मालूम कितने द्वारों पर
दस्तक दी होगी, तब तुम आए हो। मैं भी तुम्हें कुछ कह दूं,
सुंदर से सुंदर वचन कह दूं क्या होगा? वचन किस
काम आएगा?
नहीं, तुम्हें अपने भीतर खोदना होगा। तुम्हें अपने भीतर से
विचार का धुआं, वासना की भीड़, स्मृतियों
का ऊहापोह, कल्पनाओं का जाल काटना होगा। तुम्हें ऐसे क्षण
खोजने होंगे अपने भीतर जब मन बिलकुल ही चुप होता है, जब मन
होता ही नहीं, उस अ-मनी दशा में तत्क्षण आत्म-साक्षात्कार हो
जाता है।
और व्यर्थ की बातों में मत उलझ जाना। नहीं तो कुछ लोग जिंदगी भर आसन
ही लगाते रहते हैं। कोई सिर के बल ही खड़े रहते हैं। सिर के बल भी खड़े हो जाओगे, कि चाहे पैर के बल खड़े रहो, चाहे इस करवट लेटो कि उस
करवट लेटो, तुम तुम ही हो, कुछ फर्क न
पड़ेगा।
एक कौवा पश्चिम की तरफ उड़ा जा रहा था। एक कोयल ने पूछा, चाचा, बड़ी तेजी में हो, कहां
भागे जाते हो? उस कौवे ने कहा कि ये पूरब के लोग कुछ
सुरत्ताल जानते नहीं, तो मैं गीत गाता हूं, जहां गाता हूं वही से भगाया जाता हूं, इन्हें
शास्त्रीय संगीत का बोध नहीं है, चाचा, तुम कहीं भी जाओ, तुम जहां भी कांव-कांव करोगे वहां
से भगाए जाओगे, वही अड़चन खड़ी होगी। अपना कंठ बदलो, पूरब से पश्चिम जाने से क्या होगा? अपना कंठ बदलो।
अपने को बदलो! बदलाहट भीतर होनी चाहिए।
लेकिन लोग बाहर बदलाहटें करने में लगे रहते हज। हिंदू मुसलमान हो जाता
है, मुसलमान ईसाई हो जाता है। सोचते हैं कि बस, ऐसा तिलक
न लगाया, वैसा तिलक लगाया, चोटी धारण
कर ली... क्या-क्या खेल लोग नहीं कर लेते हैं! पांच ककार पूरे कर दिये हैं,
तो सिक्ख हो गये। इतनी सरल होती अगर बात कि केश बढ़ा लिए, एक क; कि कड़ा पहन लिया, दूसरा
क; कि केश में कंघी लगा ली, तीसरा क;
कृपाण धारण कर ली, चौथा क; कच्छा पहन लिया, पांचवां क; पांच
क हो गये, बस सिक्ख हो गये।
सिक्ख शब्द बना है शिष्य से। शिष्य का पंजाबी रूपांतरण है। इतना आसान
है शिष्य होना! शिष्य होने कि लिए समर्पण चाहिए, अहंकार का विसर्जन
चाहिए। लेकिन लो सस्ती तरकीबें निकाल लेते हैं।
मैंने सुना है कि सरदार बलदेव सिंह जब पंडित जवाहरलाल नेहरू के
कैबिनेट में मंत्री थे, तो बड़ी बास आती थी। तो जवाहरलाल ने उनसे कहा कि बलदेव
सिंह, इतनी बास किस बात की आती है? उन्होंने
कहा कि पता नहीं किस बात की आती है। शायद कच्छे से आती होगी, क्योंकि यह कच्छा मैं साल-दो साल में एकाध दफे बदलता हूं। तो उन्होंने कहा
कि साल-दो साल में एकाध दफा बदलते हो! तो बास तो आएगी ही। तो आज शाम को किसी
समारोह में जाना है, वहां बड़े अतिथि, राजदूत
और विदेशी मेहमान आनेवाले हैं, कृपा करके कच्छा बदलकर आना!
नहीं तो यह बास आएगी, क्या लोग सोचेंगे! कहा, अब आप कहते हैं, जरूर बदल कर आ जाऊंगा।
आए तो बास दुगुनी थी। तो जवाहरलाल भी बहुत घबड़ाए, उन्होंने कहा कि तुम पहले ही भले थे; यह मामला क्या
है? कैसा तुमने कच्छा बदला? कच्छा यानी
जांघिया। यह बास दुगुनी है, बदला कि नहीं बदला? अरे, उन्होंने कहा कि बदला। आप भरोसा न करेंगे,
इसीलिए मैं पहला कच्छा भी खीसे में रखकर लाया हूं। निकालकर वह कच्छा
बता दिया, कि यह देखो! फिर भी जवाहरलाल ने कहा, कि यह बास बहुत भयंकर है। इससे तो आ ही रही है तुम्हारे खीसे से, मगर दुगुनी मालूम हो रही है हमेशा से। तो उन्होंने कहा कि दुगुनी तो होगी
ही। क्योंकि दो कच्छे! और मेरा जो ड्राइवर है, विचित्तर सिंह,
उससे कच्छा ले लिया-- अब दोत्तीन साल से उसने भी नहीं बदला होगा--अब
दो-दो कच्छे हैं तो बास तो दुगुनी हो ही जाएगी। आपने ही कहा था बदल लेना, तो बदल लिया, विचित्तर सिंह का ले लिया।
सारे धर्म क्षुद्रताओं में उलझ जाते हैं। एक धर्म नहीं, सारे धर्म क्षुद्रताओं में उलझ जाते हैं। जो बातें कभी सहज जीवन के लिए
उपयोगी रही होंगी, वे इतनी जड़ता से पकड़ ली जाती हैं कि फिर
उनको पूरा कर लिया तो सब पूरा हो गया।
अभी कुछ दिन पहले एक निहंग सिख यहां अंदर सभी में आना चाहते थे। अब
निहंग तो अपनी कृपाण छोड़ता ही नहीं। तो वे कृपाण छोड़कर नहीं आना चाहते थे। उनको
कहा कि आपको कृपाण बाहर छोड़नी पड़े, संत ने उसको कहा कि
नहीं तो फिर आप भी बाहर। उन्होंने कहा कि यह हो कैसे सकता है कि निहंग सिख और
कृपाण छोड़ दे! तो फिर पांच ककार कैसे रहे, चार ही रह गये। वह
कृपाण तो साथ होनी ही चाहिए।
अब यहां सभा में सुनना है कि कोई कृपाण चलानी है!
मगर इस तरह पकड़ लेते हैं लोग--व्यर्थ की चीजों को, औपचारिक चीजों को। और फिर इन औपचारिक चीजों का जाल बढ़ता जाता है, बढ़ता जाता है...। बौद्ध ग्रंथों में बौद्ध भिक्षु के लिए तैंतीस हजार
नियमों का उल्लेख है। उनको याद रखना भी मुश्किल है, पूरा
करना तो दूर।...और कोई होगा पागल जो उन्हें पूरा करे। तैंतीस हजार नियम पूरे करोगे,
कर ही जाओगे पूरे करते-करते। और असली बात कब होगी? ध्यान कब होगा? अंतर्प्रवेश कब होगा?
तो मैं तुमसे एक ही बात कहूंगा, नारायण शंकर, एक ही सूत्र को स्मरण रखो: ध्यान। ध्यान विधि है स्वयं के आविष्कार की,
स्वयं के अनावरण की। बहुत। सी धूलधवांस में दब गये हो, ध्यान उस धूल-धवांस को पोंछ देता है। जैसे दर्पण पर धूल जम जाए और दर्पण
धूल में ही खो जाए। लेकिन लोगों की मूढ़ताएं अदभुत हैं।
एक नयी-नयी महिला ने एक नौकरानी को घर में रखा सफाई के लिए। तीन दिन
बाद उसने नौकरानी को कहा कि देख, पियानो पर इतनी धूल जमी हुई है
कि मैंने तेरा नाम लिखा है पियानो पर धूल में तो नाम लिख गया। आज तीन दिन से नाम
लिखा हुआ पड़ा है, फिर भी तूने ध्यान नहीं दिया। उसने कहा,
ध्यान दिया, बाईजी, नहीं
दिया ध्यान ऐसा नहीं है, ध्यान दिया, आपने
नाम गलत लिखा है। ये मेरे नाम के हिज्जे ठीक नहीं हैं।
धूल को तो देखना ही नहीं है। मालकिन तो और हैरान हुई, उसने कहा कि तू ध्यान किस बात पर लगा रही है? हिज्जे
पर? अरे, मैं तुझसे कह रही हूं की धूल
इतनी जमी है कि इस पर नाम लिखा जा सकता है। तू सफाई के लिए है यहां। उसने कहा,
यह धूल इतनी है कि यह मुझ से पहले की जमी होगी। तीन दिन में इतनी
नहीं जम सकती। और तीन दिन से आपने लिखा हुआ है, अभी भी नाम
मिटा नहीं है, जाहिर है कि तीन दिन में ज्यादा धूल नहीं जमी
हैं। धूल पुरानी है, अब किसी और नौकरानी ने जो आपके यहां काम
करती थी उसने जमाई होगी, इसमें मेरा क्या कसूर है?
आदमी अपनी भूल देखना ही नहीं चाहता। और बिना भूल देखे न-मालूम क्या-क्या
उपाय करने लगता है। कोई शीर्षासन करेगा, कोई उपवास करेगा,
कोई व्रत करेगा, कोई तीर्थयात्रा करेगा,
कोई गंगास्नान करेगा, कोई काबा जाएगा, कोई कुरान पढ़ेगा, कोई गीता कंठस्थ करेगा। और इस सबसे
कुछ भी होनेवाला नहीं है।
पर्वत न हुआ, निर्झर न हुआ,
सरिता न हुआ, सागर न हुआ;
किस्मत कैसी लेकर आया,
जंगल न हुआ पांतर न हुआ,
जब-जब नीले नभ के नीचे
उजले ये सारस के जोड़े,
जल बीच खड़े खुजलाते हैं
पांखें अपनी गर्दन मोड़े,
तबत्तब आकुल हो उठता मन,
किस अर्थ मिला ऐसा जीवन
जलचर न हुआ, जलखर न हुआ
पुरइन न हुआ, पोखर न हुआ
जबत्तब साखू-वन में उठते
करमा की धुन के हिलकोरे,
मादल की थापों के सम पर
भांवर देते आंचल कोरे,
तबत्तब रो उठता है यह मन
कितना अभिशप्त मिला जीवन।
पायल न हुआ, झांझर न हुआ,
गुदना न हुआ, काजर न हुआ
जब-जब झोंपड़ियों की बस्ती
बनती है सावन की रानी,
गदराये तन नर्तन करते
बादल होता पानी-पानी,
तबत्तब पागल हो उठता मन,
क्या होगा जीकर यह जीवन।
झूला न हुआ, झूमर न हुआ,
कजरी न हुआ, चांचर न हुआ
जब-जब आ कर दस्तक देता
अनपहचाना मादक गुंजन,
प्राणों की बंद किवाड़ों की
बजने लगती सांकल झनझन,
तबत्तब पूछा करता है मन,
क्यों है इतना अनमिल जीवन
बाहर जो था, भीतर न हुआ
भीतर जा था बाहर न हुआ
आदमी यूं ही जीवन गंवाता है और सोचता यह है कि कैसा दुर्भाग्य है, कैसा अभागा हूं, किन अभिशप्त घड़ियों में पैदा हुआ;
कैसे थे ग्रह-नक्षत्र मेरे खराब? न
ग्रह-नक्षत्र खराब थे, न घडियां बुरी थीं, तुम उतनी ही क्षमता लेकर पैदा होते हो जिता कोई भी बुद्ध कभी पैदा हुआ है,
लेकिन क्षमता की तलाश नहीं करते और दौड़त फिरते हो बाहर, पूछते हो औरों से अपना पता। अपना पता पूछना हो तो आंख बंद करो। अपना पता
पूछना हो तो विचार बंद करो। अपना पता पूछना हो तो मारो गहरे से गहरे डुबकी अपने
में। उतरो भीतर! वहीं से रसधार मिलेगी
ध्यान का इतना ही अर्थ है। निर्विचार हो जाने की कला। और जिसके हाथ
में निर्विचार होने की कला गयी, सोने की कुंजी आ गयी, जो सब ताले खोल दे।
मैं तुम्हें ध्यान दे सकता हूं, ज्ञान नहीं दे सकता।
इस भेद को ठीक से समझ लो। पंडित-पुरोहित तुम्हें ज्ञान देते हैं, ध्यान नहीं। और ज्ञान बासा है, उधार है, तुम्हारा नहीं, किसी काम का नहीं। मैं तुम्हें ध्यान
देता हूं--सिर्फ खोदने की विधि, एक कुदाली, कि ये रही कुदाली, इससे खोदो, अपना
कुंआ बनाओ। यह बात कुछ ऐसी है कि आने कुएं से ही पानी पी सकोगे। किसी और के कुएं
से कोई पानी नहीं पी सकता। यह कुआं भीतर है। और यह प्यासा भी भीतर है। दूसरे का
कुआं बाहर होगा; और बाहर का कुआं और भीतर की प्यास भी भीतर
है। दूसरे का कुआं बाहर होगा; और बाहर का कुआं और भीतर की
प्यास को कोई मिलन नहीं होता।
शास्त्रों में तो सब सत्य पड़े हैं, सदगुरुओं ने तो सारी
बातें कह दी हैं, कहने को कुछ बचा नहीं है; कुछ जोड़ा जा सके, ऐसा कुछ शेष नहीं रहा है, लेकिन फिर भी क्या सार मिलता है? गीता कंठस्थ हो
जाती है, तुम कृष्ण तो नहीं होते! अगर गीता ही कंठस्थ होने
से कोई कृष्ण होता होता, तो कितने लोग कृष्ण न हो गये होते।
धम्मपद तो कंठस्थ हो जाता है लेकिन बुद्ध नहीं होते तुम। नहीं हो सकते हो। हालांकि
तुम भी वही बोलने लगते हो जो बुद्ध बोलते थे। ठीक वैसा ही। वही शब्द, वही भावभंगिमा।
वैसे ही उठ सकते हो, वैसे ही बैठ सकते हो, वैसे ही कपड़े पहन सकते हो, वैसा ही भोजन कर सकते हो,
सब चर्या वैसी ही बना सकते हो, मगर फिर भी सब
ऊपर-ऊपर रहेगा, नाटक रहेगा और तुम भीतर जैसे कोरे थे,
कोरे के कोरे रहोगे। तुम्हारी गागर में परमात्मा का सागर नहीं
भरेगा।
विज्ञान दूसरों से मिल सकता है। इसलिए विज्ञान की शिक्षा होती है।
स्कूल में, कालेज में, विश्वविद्यालय में।
केमिस्ट्री पढ़ो, फिजिक्स पढ़ो, बायोलाजी
पढ़ो, पढ़ायी जा सकती है। न्यूटन ने खोज लिया एक सत्य, गुरुत्वाकर्षण का, अब हर एक को खोजने की जरूरत नहीं
है। किसी बगीचे में और किसी सेव के वृक्ष के नीचे बैठने की जरूरत नहीं है। कि बैठे
हैं, अब सेव गिरेगा और फिर हम सोचेंगे कि अच्छा, सेव नीचे ही गिरा; नीचे ही क्यों गिरा, ऊपर की तरफ क्यों न गया? जरूर जमीन में कोई कशिश है,
गुरुत्वाकर्षण है, गुरुत्वाकर्षण है, ग्रेविटेशन है। एक दफा खोज ली बात खोज ली।
बाहर के सत्य ऐसे हैं कि बाहर से मिल जाते हैं। मगर भीतर का सत्य तो
बार-बार खोजना पड़ता है, प्रत्येक को अपना खोजना होता है। यही इसका सौंदर्य भी
है। क्योंकि यह सदा नितनूतन होता है, यह भी पुराना नहीं
पड़ता। जब भी तुम चखोगे तब यह किसी और का चखा हुआ नहीं होगा। यह बासा नहीं होगा,
जूठा नहीं होगा। यह सत्य बिलकुल ही नया होगा। एकदम ताजा होगा।
तुम्हारा होगा।
मैं तुम्हें ज्ञान नहीं दे सकता। ज्ञान चाहिए, पंडित-पुरोहितों से पूछो। वे तुम्हें ज्ञान देंगे। यहां आए हो, ध्यान पूछो। रास्ता बता सकता हूं; कैसे चलो, यह बता सकता हूं; लेकिन पहुंच कर क्या मिलेगा,
वह अनिर्वचनीय है। शब्दों में समाता नहीं। भाषा एकदम नपुंसक है। उसे
तो केवल मौन में ही समझा जा सकता है। मौन हो जाओ और समझो।
दूसरा प्रश्न: भगवान, ठीक एक महीने के बाद मेरी शादी होनेवाली है। मैं क्या करूं और क्या न करूं,
कुछ समझ में नहीं आता। मैंने आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करने का व्रत
लिया है। आपके संन्यास में भी उत्सुकता है।
चंद्रशेखर दुबे!
तुम गलत जगह आ गये। तुम जाओ विनोबा भावे के पास पवनार आश्रम में, वहां तुम्हें सम्यक मार्गदर्शन मिलेगा। यहां तो मैं तुम्हें भटका दूंगा।
पहले ही से चेता देता हूं। फिर पीछे मुझसे मत कहना।
यूं हुआ कि विनोबा का एक आश्रम है बिहार में, समन्वय आश्रम, बोधिगया में। उस आश्रम के संयोजक मेरे
प्रेम में पड़ गये। उन्होंने मेरा एक शिविर आश्रम में रख लिया। विनोबा को जब पता
चला तब तो वे बहुत नाराज हुए, क्योंकि विनोबा तो मेरी
किताबों को भी पवनहार आश्रम में, जहां वे रहते हैं, प्रवेश नहीं करने देते। आश्रमवासी मेरी किताबें चोरी से पढ़ते हैं। और मेरा
शिविर उनके आश्रम में हो, यह उनको बाद में पता चला। हो गया
तब पता चला। नहीं तो हो नहीं पाता।
शिविर में ऐसी घटना घटी, तुम जैसा ही कोई
व्यक्ति, चंद्रशेखर दुबे, रहा। विनोबा
तो हर किसी को व्रत दिला देते हैं, आजन्म ब्रह्मचर्य का।
जिसने अभी वासना नहीं जानी, उसे ब्रह्मचर्य का व्रत दिलाओगे,
इससे ज्यादा और मूढ़ता की बात कुछ भी नहीं हो सकती। जिसने अभी स्वाद
ही नहीं लिया वासना का कि कड़वी है कि मीठी, उसको तुमने व्रत
दिलवा दिया--और आजन्म! आजन्म से कम तो वे बात ही नहीं करते। हर चीज आजन्म। भूमिदान
होता, जीवनदान होता,...जीवनदान! कल का
पता नहीं आदमी को, घड़ी भर बाद का पता नहीं, वह जीवनदान करता है! और सब जीवनदानी धोखा खा गये। और सब जीवनदानी धोखा दे
गये। खुद जयप्रकाश नारायण जैसे जीवनदानी, जोकि सबसे पहले
जीवनदानी थे, वे भी विनोबा को धोखा दे गये। क्योंकि जीवनदान
में एक शर्त थी कि राजनीति में भाग नहीं लेना। उसी बात पर कलह हो गयी। वह राजनीति
में भाग लिये ही नहीं, इस देश की पूरी राजनीति को गड़बड़ कर
गये, इस देश की पूरी राजनीति को अस्त-व्यस्त कर गये। और खुद
ही नहीं गये और न-मालूम कितने जीवनदानियों को साथ ले गये।
तो एक युवक को और एक युवती को, दोनों को आजन्म
ब्रह्मचर्य का व्रत दिलवा दिया। अब इन्हें कुछ पता नहीं कि क्या ब्रह्मचर्य है और
क्या अब्रह्मचर्य। विनोबा ने कहा तो ठीक ही कहते होंगे विनोबा। प्रभावित थे,
व्रत ले लिया। और व्रत लेने का एक मजा होता है। भीड़ में अहंकार की
तृप्ति होती है, लोग तालियां पीटते हैं, फूलमालाएं लोगों ने पहनाईं, मैं आ गया! फिर दोनों को
आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत दिला कर भूदान के काम से गांव-गांव यात्रा पर भेज दिया।
दोनों साथ रहे, प्रेम में पड़ गये--जो कि बिलकुल स्वाभाविक
है। साथ उठे, साथ बैठे, साथ चले,
साथ सफर किया--अब एक झंझट हुई दोनों को, क्योंकि
दोनों आजन्म ब्रह्मचर्य का व्रत ले चुके हैं। अब दोनों की इच्छा विवाह करने की! तो
अब क्या करना?
तो जाकर विनोबा को ही उन्होंने प्रार्थना की कि आपने हमें व्रत दिलवा
दिया और हमें विवाह की इच्छा होती है दोनों की; हम दोनों प्रेम में
पड़ गये हैं। पहले तो विनोबा ने बहुत समझाया-बुझाया कि इस तरह व्रत नहीं तोड़ते;
यह महा पाप है; यह संकल्पहीनता है, इससे आत्मा का पतन होगा। मगर वे तो सब राजी थे, आत्मा
का पतन हो तो हो जाए। महापाप हो तो हो जाए।...और मैं नहीं मानता कि कुछ गलती की
उन्होंने, कुछ भूल की। यह बिलकुल स्वाभाविक है। एक उम्र है,
जबकि प्रेम होगा--होना चाहिए, न हो तो ही कुछ
गड़बड़ है। न हो तो कुछ विकृति है। न हो तो कुछ बात रुग्ण है। यह तो स्वस्थ लक्षण
था।
मगर विनोबा ने बहुत अपराधभाव पैदा करवा दिया। फिर भी नहीं माने वे
दोनों तो उनका विवाह भी करवा दिया। आनी ही उपस्थिति में भूदान सम्मेलन में उनका
विवाह भी करवा दिया। अपनी ही उपस्थिति में भूदान सम्मेलन में उनका विवाह करवा
दिया। और जब दोनों का विवाह हो गया और दोनों आशीर्वाद लेने आए तो आशीर्वाद देते
समय कहा कि अब तुम दोनों अपना आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत छोड़ना मत। अब भीड़ के सामने
विनोबा ने फिर कहा, सो उन्होंने फिर हां भर दिया, सिर
हिला दिया कि ठीक। फिर ताली पिटी। फिर फूलमालाएं पहनाई गयी कि यह और भी ऊंची बात
हुई कि अब विवाह भी हो गया और आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत, सो
दोनों दुनिया सधी। यह दुनिया भी और वह दुनिया भी। इस पार भी रहे और उस पार भी
पहुंच गये।
अब इनकी मुसीबत तुम समझ सकते हो। और सीधे-सादे युवक थे। ग्रामीण युवक
और ग्रामीण युवती थी। चालबाज होते, बेईमान होते होशियार
होते, विश्वविद्यालय में पढ़े-लिखे होते, तो साध लेते दोनों भी--पाखंडी हो जाते। ऊपर-ऊपर दिखाते कि ब्रह्मचर्य चल
रहा है और भीतर-भीतर जो चलना था चलता। मगर सीधे-साधे ग्रामीण थे तो दिक्कत में पड़
गये। अब विवाह के बाद यह ब्रह्मचर्य कैसे सधे? और अगर
ब्रह्मचर्य ही साधना था तो इस विवाह की जरूरत क्या थी? यह तो
विना ही विवाह के सध सकता था। कोई ब्रह्मचर्य साधने के लिए विवाह आवश्यक नहीं था।
न इससे कुछ सहयोग मिलने वाला था।
तो इतना कष्ट उनको हो गया कि जब मैं आश्रम गया तो उन दोनों ने मुझसे
निवेदन किया कि हम बिलकुल पागल हुए जा रहे हैं। हालत हमारी इतनी बुरी हो गयी कि
हमने निवेदन किया तो विनोबा ने कहा, तुम एक काम करो,
कि अगर तुमसे नहीं संभलता है तो दोनों अलग-अलग कमरों में रहो। और
लड़की को कहा कि तू आनी तरफ से ताला लगाकर चाबी उस तरफ फेंक दिया कर खिड़की में से;
सो चाबी उस तरफ रहेगी, ताला तेरी तरफ रहेगा,
तो न यह खोल सकता है न तू खोल सकती है। सो वे यही काम कर रहे थे
बिचारे, वालो लगाकर चाबी उधर फेंक दें। एक के पास चाबी,
एक के पास ताला, ब्रह्मचर्य सधेगा ही! मगर ऐसे
कहीं ब्रह्मचर्य साधने का कोई अर्थ हो सकता है! अब अगर वे दोनों पगला रहे थे तो
कुछ आश्चर्य नहीं था। न रात नींद आए, न दिन चैन। एक अपना
ताला जकड़े बैठा है, एक अपना चाबी पकड़े बैठा है। और ताले में
चाबी लगनी नहीं है क्योंकि वह ब्रह्मचर्य, आजन्म ब्रह्मचर्य!
ताला-चाबी दूर-दूर!
उन दोनों ने मुझसे कहा कि हम क्या करें?! मैंने कहा, तुम बिलकुल बेवकूफ हो? मैं तुम्हें मुक्ति दिलवा
देता हूं। ताली ही बजवानी है न! तो मेरे शिविर में आए लोग ताली बजाएंगे। फूलमाला
पहननी है, फूलमाला पहना देंगे। उन्होंने तुम्हें व्रत
दिलवाया, यह बंधन हो गया, मैं तुम्हें
मुक्ति दिलवाता हूं व्रत से। सो मैंने उनकी मुक्ति करवा दी। और मैंने कहा, ताला-चाबी मुझको दे दो, झंझट खतम करो। ताली पिटीं
खूब, उनको फूलमाला पहनाईं, उनको
आशीर्वाद मैंने दे दिया।
फिर विनोबा बहुत नाराज हुए, जब उनको पता चला।
उन्होंने कहा कि उनका शिविर ही यहां नहीं रखना थी। अब इन दोनों को भ्रष्ट कर दिया।
चंद्रशेखर दुबे! तुम एक तरफ तो कहते हो कि मैंने आजन्म ब्रह्मचर्य
पालन करने का व्रत ले लिया है। और ठीक एक महीने बाद मेरी शादी होनेवाली है। अब तुम
खुद भी झंझट में पड़ोगे और किसी गरीब लड़की को भी झंझट में डालोगे। उस लड़की ने
तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? तुमने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है, तो कृपा करो, अपना ब्रह्मचर्य व्रत संभालो, अब विवाह करने की क्या जरूरत है? और अगर विवाह ही
करना है तो यह आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत किसलिए लिया है? और
लेने वाले तुम हो तो मालिक तुम हो; तो लिया तो तोड़ दिया। अरे,
जब ले सकते हो तो तोड़ भी सकते हो! अपने दिल की बात है। टोपी पहन ली
तो उतारें कैसे! व्रत लिया है,किसी भूलचूक में ले बैठे,
छोड़ो! और मैं नहीं मानता कि यह व्रत कुछ टिकानेवाला है, या किसी अर्थ का है।
और तुम्हें मेरे संन्यास में भी उत्सुकता है। तुम्हें बिलकुल ही होना
है--क्या है? मतलब दो ही टांगें हैं तुम्हारे पास या तीन टांगें
हैं? तीन तरफ कैसे जाओगे ऐसे तो दो टांगों से भी दो तरफ जाना
मुश्किल है। एक तो विवाह, फिर ब्रह्मचर्य, फिर मेरा संन्यास! तुम बिलकुल विक्षिप्त हो जाओगे। तुम्हें संन्यास ही
लेना हो तो पुरी के शंकराचार्य के पास जकर ले लो। उनका संन्यास तुम्हारे काम पड़ेगा--कम-से-कम
तुम्हारे ब्रह्मचर्य के पक्ष में तो रहेगा। और वे तुम्हें समझा देंगे कि पत्नी नरक
है, और पत्नी तो पाप की गठरी है, और
पत्नी में रखा ही क्या है--हड्डी-मांस-मज्जा, मवाद, पीप इत्यादि भरी है--वे तुम्हें ऊंची-ऊंची बातें समझा देंगे।
तुम मेरे संन्यास में भी तुम्हारी उत्सुकता है। अगर मेरे संन्यास में
उत्सुकता है, तो फिर तुम्हें थोड़ा समझना पड़ेगा। फिर मूढ़ताओं में
पड़ने की मैं सलाह नहीं दूंगा। पहली तो बात, यह आजन्म
ब्रह्मचर्य की बकवास बंद करो! ब्रह्मचर्य आता है, थोपा नहीं
जाता। ब्रह्मचर्य कोई व्रत नहीं है, जीवन के अनुभव का निचोड़
है। पहले जीवन को जीओ तो। आ जाएगा ब्रह्मचर्य, लेकिन पहले
जीवन को जीओ तो। जीवन के कड़वे-मीठे घूंट तो पीओ। अभी कोई दूसरा तुमसे कहेगा,
उसका क्या मूल्य? तुम्हारे अपने अनुभव में तो
अभी वासना भरी होगी, अभी वासना तरंगें लेगी,उठान मारेगी, उफान आएगा, और
तुम उसे दबा-दबा कर थक मारोगे। तुम्हारा राम-राम जपना और माला फेरना, सब उसीको दबाने के लिए होगा। तुम दमित हो जाओगे, कुंठित
हो जाओगे; तुम रुग्ण हो जाओगे और विक्षिप्त हो जाओगे।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि दुनिया में निन्यानबे प्रतिशत मानसिक
बीमारियां दमित वासना के कारण हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि निन्यानबे प्रतिशत मानसिक
बीमारियों के कारण तथाकथित धार्मिक गुरु, पंडित-पुरोहित हैं और
जब तक ये पंडित-पुरोहित दुनिया में हैं, मनुष्य का मानसिक
रोगों से छुटकारा नहीं है सकता। क्योंकि ये तुम्हें उलटी बातें सिखा रहे हैं;
ये कहते हैं: दबाओ।
समझो! अनुभव करो! अनुभव तुम्हें बहुत कुछ सिखाएगा।
लड़की के पिता ने उस नवयुवक से जिसके साथ वह शादी करना चाहती थी, पूछा,"मेरी बेटी ने तुम्हें पसंद कर लिया है,
तुम शादी कब करना चाहोगे?'
"यह आपकी बेटी जाने।'--नवयुवक
ने उत्तर दिया।
"और क्या शादी चुपचाप करोगे या बारात लाओगे?'
"यह आपकी बेटी की मां जाने।'
"पर शादी करके तुम मेरी बेटी के साथ रहोगे कहां?
खाओगे कहां से?'
"यह आप जानें।'--नवयुवक ने
उत्तर दिया।
पहले तो कोई ऐसे ढंग की जगह खोजो।
एक स्त्री ने अपने पति से कहा," जब भी आप किसी
खूबसूरत लड़की को देखते हैं, तो यह भूल जाते हैं कि आप
विवाहित हैं।'
भूलता कहां हूं? उस समय तो यह एहसास और भी तीव्र
हो उठता है'--पति ने उत्तर दिया--"कि हाय, मैं विवाहित हूं! कि हे राम, किस दुर्भाग्य के क्षण
में विवाहित हो गया!'
पहले इन कष्टों से गुजरो!
पत्नी अपने पति से कह रही थी: "सुनोजी, आपने इतना बढ़िया खाना बनाना कहां से सीखा? अपनी मां
से क्या?'
पति ने कहा,"नहीं-नहीं, अपने पिताजी
से।' कुछ गुजरो!
बीबी ने अपने पति से कहा,"आप अपने मित्र
के भूले ही जा रहे हैं क्या? उसकी बीबी मर गयी है, उसकी अर्थी तैयार है, वे सब आपकी प्रतीक्षा कर रहे
हैं, उसने आपको विशेष रूप से बुलाया है, आप उसकी बीबी की शवयात्रा में शामिल नहीं होंगे क्या?'
"मैं नहीं जाऊंगा।'-- पति ने
कहा।
"अरे, क्यों?'--बीबी ने विस्मित होकर कहा--"वह आपका इतना गहरा मित्र है।'
"क्या यह अच्छा लगता है कि वह मुझे चौथी बीबी की
शवयात्रा पर बुला रहा है और मैं उसे अभी तक एक बार भी नहीं बुला सका?'
फिर ब्रह्मचर्य आसान होगा। इतनी जल्दी नहीं!
मोरारजी देसाई के संबंध में सुना है कि सत्ता छिन जाने के बाद वे
चमचों से इस तरह घबड़ाने लगे हैं कि खाने की मेज पर चमचों के बजाय हाथ से खाने लगे
हैं।
अनुभव बड़ी चीज है। दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है।
एक महिला अपनी पड़ोसिन से पूछ रही थी कि आप अपनी सेहत का राज बता सकती
हैं?
" मैं जब अपने पति के पीने के लिए दूध लेकर जाती
हूं तो किसी बात पर उनसे लड़ बैठती हूं। तब वे क्रोध में आकर कह देते हैं कि मैं
दूध नहीं पीऊंगा। बस, मैं दूध पी जाती हूं।'--पड़ोसिन ने कहा।
अभी नहीं, चंद्रशेखर! थोड़े ठहरो। ब्रह्मचर्य आएगा। अगर तुमने
थोपा ब्रह्मचर्य तो कभी नहीं आएगा। तुम जिंदगी भर वासना से भरे रहोगे। और अगर
तुमने ब्रह्मचर्य थोप दिया अपने ऊपर, तो तुम बड़ी मुश्किल में
पड़ोगे। संसार में इतनी स्त्रियां हैं, कैसे रक्षा करोगे?
पत्नी की यही तो खूबी है कि वह बाकी स्त्रियों से तुम्हारी रक्षा
करती है। नहीं तो तुम जगह-जगह मुश्किल में पड़ोगे। प्रत्येक पति को एक पत्नी चाहिए
ही, नहीं तो उसकी रक्षा कौन करेगा? पति
यह सोचते हैं कि वे पत्नी की रक्षा कर रहे हैं। वे गलती में हैं, बिलकुल गलती में हैं, पत्नी उनकी रक्षा करती है।
नहीं तो वे कभी भी मुंह मार बैठें, कहीं भी भागे, कुछ भी उलटा-सीधा करें!
आनंद अमृता ने एक प्यारी और सच्ची घटना लिख कर भेजी है। अमृता अमरीका
से अपना सब कुछ छोड़-छाड़कर यहां आ गयी है। लिखा है उसने--
"मेरी एक मित्र के पिताजी एक बार अमरीका आए। बड़े
धार्मिक हुए जा रहे हैं, ऐसा वे सोचते थे। परिवार को
अधार्मिकता से बचाने के लिए उन्हें नित्य उपदेश देते। अपी संस्कृति और धर्म का
गुणगान करते। भारतीय परंपराओं को बनाए रखने के लिए उन्हें प्रेरित करना उनका
नित्यकर्म था। परिवारवाले किसी भी भांति वृद्ध पिताजी के उपदेशों को गले से
उतारते।
कुछ महीनों के पश्चात उन्होंने अचानक धार्मिक भाषण बंद कर दिया। पूछने
पर भी चुप रह जाते। गजब की चुप्पी साध ली थी उन्होंने। सभी हैरान थे। मामला क्या
है, समझ में कुछ न आ रहा था। वे एक खिड़की पर बैठ जाते और अपना जाप करते रहते।
होंठ हिलते दिखायी देते। जप करते समय आंखों के सामने अखबार न जाने वे क्यों रखने
लगे। और अखबार को निरंतर आंखों के सामने ऊपर-नीचे करते रहते। परिवार वाले बेचैन
हुए कि वृद्ध पिताजी को यह कोई रोग तो नहीं हो गया। उनकी बेचैनी को पिताजी ने भाप
लिया। उन्होंने अखबार ऊपर-नीचे करना बंद कर दिया। पर उसमें एक छेद कर लिया। अब तो
सबकी हैरानी की सीमा न रही।
भगवान, आप बता सकते है कि खिड़की के सामने क्या था? उसमें से वे क्या देख रहे थे?
सामने के बंगले में पड़ोसी की युवा कन्याएं सूर्य-स्नान कर रही होती
थी।'
वह सारी संस्कृति और सारा धर्म मिट्टी में मिल गया। अब यह अखबार में
छेद करके सह सत्संग कर रहे हैं। राम-राम जप रहे हैं! थोपा होगा जबर्दस्ती अपने ऊपर
सारा धर्म। इस देश में अधिक लोगों की यह दुर्दशा है। लोग थोपे हुए हैं।
मैं जबर्दस्ती किसी भी चीज के थोपने के विरोध में हूं।
तुमने तीन बातें चाही हैं, चंद्रशेखर; एक तो कि मेरे संन्यास में तुम्हारी उत्सुकता है। वह तुम पहला काम करो।
इसलिए उसे मैं पहला कहता हूं कि उसके बाद तुम ढंग की पत्नी खोज सकोगे। क्योंकि
मेरे संन्यासी नियोजित विवाह में भरोसा नहीं करते हैं, प्रेम-विवाह
में भरोसा करते हैं। नियोजित विवाह जबर्दस्ती है, बलात्कार
है, हिंसा है। जिस स्त्री को तुमने कभी चाहा नहीं, जिस स्त्री ने तुम्हें कभी चाहा नहीं, किन्हीं
पंडित-पुरोहित के मंत्र पढ़ देने से तुम अधिकारी नहीं हो जाते कि उस स्त्री के साथ
किसी भी तरह का संबंध बनाओ। तुम्हारा संबंध अनैतिक है।
मेरे हिसाब में नियोजित विवाह से पैदा हुए सभी बच्चे नाजायज हैं। सात
चक्कर लगा लिए इससे जायज हो गये बच्चे! सात क्या तुम सत्तर लगा लो चक्कर चक्कर में
क्या रखा है? घन-चक्कर पैदा होंगे!
प्रेम के अतिरिक्त इस जगत में तुम जो भी संबंध बनाओगे, वे संबंध थोथे होंगे, ऊपरी होंगे। उनके कारण क्या हो
सकते हैं? कुछ और ही कारण होंगे-- प्रेम तो है ही नहीं कारण।
धन होगा कारण, कि कितना दहेज मिलेगा: परिवार होगा कारण,
प्रतिष्ठा होगी कारण; नौकरी अच्छी मिल जाएगी;
बड़े पद पर पहुंच जाओगे--मगर यह प्रेम है? और
इस पत्नी को तुम सोचते हो कि यह तुम्हारी पत्नी है? तुम इसके
पति हो? तुम्हारे बीच कोई सेतु है?
इसलिए बिलकुल संयोग की बात है; इस देश में अगर सौ
में से एक जोड़ा भी सच में जोड़ा मिल जाए, तो वह बिलकुल
सांयोगिक बात है। निन्यानबे जोड़े तो झूठे हैं।
इसलिए उनकी जिंदगी कलह ही कलह में बीतती है।
पहला काम तो करो संन्यास। फिर दूसरा काम, तुम्हारे जीवन में जब प्रेम उदय हो, किसी से
तुम्हारा लगाव बने, ऐसा लगे कि किसीके साथ रहने का रस है,
किसीके साथ तुम रहना चाहों इसकी अदम्य आकांक्षा उठे, तो जरूर साथ रहे। उस साथ रहने को ही मैं विवाह कहता हूं। और विवाह का कोई
अर्थ नहीं है।
और तब तक ही साथ रहो तब तक कि तुम्हारे भीतर यह प्रेम की धारा बहती
रहे। जिस दिन तुम पाओ कि प्रेम की धारा सूख गयी है, उसके बाद जबर्दस्ती न
करो; उसके बाद क्षमा मांग लो, कि बात
समाप्त हो गयी। जिस प्रेम के कारण हम इकट्ठे हुए थे, वह
प्रेम तिरोहित हो गया।
और इस भ्रांति में मत रहना कि सच्चा प्रेम कभी नहीं मरता। जितना सच्चा
हो, उतने जल्दी मर जाता है: झूठे फूल टिकते हैं, सच्चे
फूल सुबह खिलते हैं, सांझ समाप्त हो जाते हैं। सचाई में एक
गहराई तो होती है, लंबाई नहीं होती। झूठ में लंबाई तो होती
है, गहराई नहीं होती। और इसीलिए विवाह टिकता है। विवाह टिकाऊ
है। प्रेम-विवाह कि लिए इसीलिए सदियों से लोगों ने, होशियार
लोगों ने, समझदार लोगों ने, चालबाज
लोगों ने रोक रखा है कि प्रेम-विवाह खतरनाक है। क्योंकि प्रेम का क्या भरोसा?
टिके, न टिके। आज है, कल
नहीं हो जाए।
यह आग ऐसी है कि न लगाए लगे, न बुझाए बुझे। लगे तो
लग जाए और बुझे तो बुझ जाए, तुम्हारे हाथ के बाहर है। यह
बेबूझ पहेली है। मगर प्रेम की बेबूझ पहेली से ही तुम्हारे कदम परमात्मा की तरफ
उठते हैं। क्योंकि परमात्मा और भी बड़ी बेबूझ पहेली है।
तो मैं कहूंगा कि प्रेम के साथ जोखम लेनी चाहिए। यह टिकाऊपन का जो भाव
है, यह जो बाजारूपन है दिमाग में कि चीजें स्थायी होनी चाहिए, ये व्यवसायी बुद्धि के लक्षण हैं। और व्यवसायी बुद्धि का आदमी जगत में कुछ
भी नहीं पाता। हां, कुछ ठीकरे जोड़कर मरेगा। बस ठीकरे ही
जोड़ने में मर जाएगा। उसकी आत्मा कुछ ठीकरों में बिक जाएगी। जुआरी चाहिए जिंदगी
में। दांव लगाने वाले लोग चाहिए। और प्रेम बड़ा दांव है।
तो पहता तो काम, चंद्रशेखर संन्यास। ताकि तुम सीख
सको प्रेम की कला, ध्यान की कला, मौन
की कला--और साहस जुटा सको। फिर अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम का कोई फूल खिले,
तो जरूर उस व्यक्ति के साथ रहना, बेफिक्री से
रहना। लेकिन जब तक प्रेम का फूल खिला रहे तभी तक। जब प्रेम विदा हो जाए, तो एक क्षण को भी झूठ को मन खींचना, झूठ को मत
दोहराना। क्योंकि जो झूठ को दोहराता है, झूठ हो जाता है। जो
झूठ को थोपे रहता है; वह धीरे-धीरे मुर्दा हो जाता है,
मर जाता है, पाखंडी हो जाता है। जिससे प्रेम
नहीं है, उससे कहना पड़ता है कि प्रेम है। बताना पड़ता है कि
प्रेम है। दिखाना पड़ता है कि प्रेम है। हजार उपाय करने पड़ते हैं--क्योंकि अब प्रेम
तो रहा नहीं। प्रेम तो रहा नहीं। प्रेम तो पर्याप्त है, न
साड़ी लानी पड़ती, न फूल के गुलदस्ते लाने पड़ते, न हार खरीदने पड़ते हैं--प्रेम काफी है। प्रेम की हवा और, गंध और। और जब प्रेम मर जाता है तो फिर साड़ी लाओ, गहने
लाओ, उपहार लाओ; फिर किसी तरह से
पूर्ति करो, वह जो मर गया है प्रेम, उसकी
जगह कुछ थोथे उपकरण जुटाओ; धोखा बनो रखो कि प्रेम है।
क्योंकि कभी वायदा किया था। अब वायदे से मुकरना कैसा! लेकिन तुम कर क्या सकते हो?!
यह आग ऐसी है कि न तुम लगा सकते, न तुम बुझा
सकते। तुम बेबस हो। प्रेम तुमसे बहुत बड़ा है! बाढ़ की तरह आता है। और कब चला गया,
पता नहीं। टिक जाए टिक जाए, न टिके न टिके।
मगर जिसने प्रेम को जीया है, उसके सुख-दुख दोनों
भोगे हैं--दोनों हैं। प्रेम तुम्हें नर्क के कष्ट देगा और तुम्हें स्वर्ग के क्षण
भी देगा। तुम्हें ऊंचाइयों से ऊचांईयों पर उड़ाएगा और तुम्हें नीचाइयों से नीचाइयों
पर ले जाएगा। तुम्हें गहरे से गहरे अंधकार में गिराएगा। और तुम्हें प्रकाशोज्ज्वल
शिखरों पर भी उठाएगा। प्रेम की जड़ें हैं जो पाताल तक जाती हैं और प्रेम की शाखाएं
हैं जो आकाश तक जाती हैं।
इन दोनों को जानने के बाद, इस अनुभव की
परिपक्वता से ब्रह्मचर्य का उदय होता है।
ब्रह्मचर्य का अर्थ यह होता है; प्रेम ने तुम्हें
इतना पका दिया कि अब तुम्हें प्रेम भी बचकाना मालूम पड़ने लगा। अब तुम्हारा घड़ा
कच्चा न रहा, पक गया। अब तुम उस आग से गुजर गये जो पका देती
है। अब तुम्हारे जीवन में अगर ब्रह्मचर्य होगा तो यह ब्रह्मचर्य जबर्दस्ती नहीं
होगी, थोपा हुआ नहीं होगा, आरोपित नहीं
होगा, यह सहज होगा, स्वस्फूर्त होगा।
और जब स्वस्फूर्त ब्रह्मचर्य होता है तो व्रत नहीं होता, ध्यान
रखना। व्रत का अर्थ होता है: थोपा हुआ।
मैं व्रतों का विरोधी हूं। मैं सहजता का पक्षपाती हूं। मेरे लिए सहजता
ही साधुता हैं। और सहजता के साथ बहने का नाम समर्पण है। और सहजता के लिए जो भी
चुकाना पड़े उसको चुकाने की तैयारी संन्यास है। जीवन भी जाए तो जाए मगर असहज मत
होना। तो एक दिन जरूर ब्रह्मचर्य का फूल तुम्हारे जीवन में खिलेगा।
मगर उसके खिलने की पूरी प्रक्रिया है। आज तुम चाहो कि आजीवन
ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर बैठ जाओ, तो तुम कष्ट पाओगे। मैं तुम्हें
ऐसे कार्य में कोई सहयोग नहीं दे सकता। तुम्हें ऐसे कार्य में सहयोग चाहिए तो पूरी
के शंकराचार्य जैसे आदमी ठीक रहेंगे। या विनोबा भावे के पास चले जाओ। या इस देश
में कुछ कमी है; मुक्तानंद, अखंडानंद,
ढेर लोग हैं! एक मुझको छोड़कर तुम कहीं भी जाओ, मैंने तुमसे जो कहा है, वह तुमसे कोई भी नहीं कहेगा।
क्योंकि मुझे न किसी परंपरा के पालन की इच्छा है, न किसी
परंपरा के पोषण का कोई भाव है। मैं तो सच जैसा है, मेरे लिए
सत्य जैसा है वैसा ही तुमसे निवेदन कर देता हूं, उसमें
रत्तीभर भेद नहीं करना चाहता। मुझे कुछ लाज नहीं, संकोच नहीं
है। में किन्हीं शिष्टाचारों में भरोसा नहीं करता। सत्य के लिए सारे शिष्टाचार भी
छोड़ देने पड़ें तो मैं तैयार हूं।
तुम जैसी मूढ़तापूर्ण बात कर रहे हो, इसके लिए तो तुम्हें
पुरी के शंकराचार्य जैसे व्यक्ति ही समर्थन कर सकते हैं। मेरे पास तो तुम गलत जगह
आ गये। मैं तो तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा। तुम्हारी सारी भावदशा गलत है। तुम
एकदम दकियानूसी किस्म की बात कर रहे हो। यह जवान आदमी को बात ही नहीं करनी चाहिए
इस तरह की। यह तो जवानी के पहले बुढ़ापा आ गया। युवा न हुए और मर गये। मरने के बहुत
पहले मर गये। अर्थी तो निकलेगी चालीस-पचास साल बाद, मर गये
अभी तुम। और अगर ऐसा ही तुम्हें करना हो, आजन्म ब्रह्मचर्य
का व्रत ही लेना हो, तो कृपा करके किसी स्त्री को क्यों कष्ट
देना चाहते हो, उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? अब यह महीने भर बाद शादी होनेवाली है, महीना भर काफी
है, भाग निकलो जितने दूर निकल सको। महीने भर में तो अगर पैदल
भी चलोगे तो चीन पहुंच जाओगे।
तीसरा प्रश्न: भगवान, पांण कच्छ हलोंता? (हम कच्छ चलेंगे?)
सचमुच कच्छ प्रदेश के भाग्य बलशाली हैं! धन्य
होगी भूमि भगवान के वहां पधारने से! अब तक कच्छ सबसे--कच्छियों से भी--उपेक्षित
रहा है। पर आश्रम के वहां जाने की बात से अचानक कच्छ के हितेच्छुओं (!) को
भूमिप्रेम, सुरक्षा, पता नहीं और क्या-क्या
भाव जाग जाते हैं! जो लोग अभी आश्रम के कच्छ-प्रवेश की बात पर विरोध आंदोलन चलाते
हैं, वे अधिकांश लोग आपकी महावीर-वाणी के प्रवचन से प्रभावित
थे। पर अब...!
आप कुछ संदेश देने की अनुकंपा करें!
(आंउ कच्छी अंइया।--मैं कच्छी हूं।)
योग हंसा! अरे, जो कच्छा पहने सो कच्छी! मगर कच्छा बदलते रहना! और बदलो तो सरदार विचित्तर
सिंह से मत बदल लेना।
चलेंगे, हंसा, कच्छ चलेंगे! पांण कच्छ
हलोंता। तू ही थोड़े कच्छी है। आंउ कच्छी अंइया। मैं भी कच्छी हूं।
कश्मीर से लेकर मैं कन्याकुमारी तक गया हूं, बंबई से लेकर कलकत्ता तक, सिर्फ कच्छ कभी नहीं गया।
उसको मैंने छोड़ रखा है कि वहां जाऊंगा तो फिर वहां से हटूंगा ही नहीं। एक ही जगह
मैंने पूरे देश में छोड़ रखी है, कच्छ। बहुत बार कच्छियों ने
मुझसे कहा कि कच्छ चलें, मैंने कहा, आऊंगा।
आऊंगा तो बस फिर आऊंगा। फिर क्या जाना? कच्छ से फिर कहां
जाना? तो कच्छ चलेंगे, कोई फिक्र न कर
तू! विरोध वगैरह तो बिलकुल स्वाभाविक है।
और कुछ खास विरोध नहीं, दो-चार-दस लोग। थोड़ा
रस ही रहेगा चलने में, विरोध रहेगा तो। यूं मेरी जमात कहीं
जाए और बिना विरोध के पहुंच जाए, बात कुछ शोभादयक नहीं होगी।
ऐसा कुछ जिंदाबाद-मुर्दाबाद तो होना ही चाहिए। पूरा कच्छ कंपना ही चाहिए पहुंचने
से। लेकिन सौ में से निन्यानबे प्रतिशत लोग साथ हैं; एक
प्रतिशत लोग विरोध में हैं। और जो विरोध में हैं, उनके
स्वार्थ हैं। उनको घबड़ाहट है।
और तू ठीक कहती है कि ये वे ही लोग हैं, जो महावीर-वाणी के
प्रवचन सुनकर बहुत प्रभावित थे। वे मुझसे प्रभावित नहीं थे। वे तो इसलिए प्रभावित
थे कि मैंने उनके महावीर की प्रशंसा कर दी। जैसे महावीर पर उनकी कोई बपौती है। मैं
तो अपनी ही बात कर रहा था। महावीर तो खूंटी किसीकी हो। हर खूंटी पर मैं अपना कोट
टांगता हूं। खूंटियों से मैं कोई चिंता ही नहीं लेता। खूंटी न हो खीली हो तो खीली
पर टांग देता हूं। कोट तो कहीं न कहीं टांगना ही होगा।
तो फिर जीसस हों कि महावीर हों, कि बुद्ध हों,
कि तिलोपा हो, कि सरहा हो, क्या फिक्र! मैं फिक्र ही नहीं करता, किसी भी खूंटी
पर टांग देता हूं--खूंटी के रंग-ढंग से क्या फर्क पड़ता है! मुझे अपनी बात कहनी है
और मैं अपनी ही बात कहता हूं। मगर लोग ऐसे मूढ़ है! मुझे अपनी बात कहनी है और मैं
आनी ही बात कहता हूं। मगर लोग ऐसे मूढ़ हैं कि बस महावीर की खूंटी पर कोट टंगा देखा
तो उन्होंने सोचा, अरे, महावीर स्वामी
का कोट है। वे एकदम गदगद हो गये। और जब मैं अपना कोट उतार कर चलने लगता हूं तो बस!
और कोट मेरा है। इसमें महावीर स्वामी का क्या लेना-देना? वे
तो नंग-धड़ंग थे, वैसे भी उनके पास कोट वगैरह था नहीं। और अब
मैं उन्हीं पर कोट टांगे रहूं तो दूसरी खूंटियों का क्या हो? वही कोट फिर मैं बुद्ध पर टांग देता हूं। तो बुद्ध को मानने वाले बड़े
प्रसन्न हो जाते हैं मगर अड़चन उनको आनेवाली हैं, सभी को आने
वाली है।
जब मैं महावीर पर बोला, तो जैन बड़े प्रसन्न
हुए। उनको लगा कि चलो, महावीर की वाणी को दुनिया के
कोने-कोने तक पहुंचाने वाला कोई व्यक्ति मिल गया।
महावीर के अहंकार में उन्होंने अपना अहंकार जोड़ा हुआ है। महावीर का
नाम उन्हें लगता है उनका नाम। महावीर से सारी दुनिया प्रभावित हो जाए तो उनका झंझा
फहर जाए। और मुझे किसी के झंडे फहराने से कोई मतलब नहीं है। मुझे तो महावीर में
कोई बात प्रीतिकर लगी तो मैंने कही। कहीं भी तो मैंने अपने अर्थ दिये हैं। जरूरी
नहीं कि महावीर मेरे अर्थों से राजी हों। हो भी नहीं सकते पच्चीस सौ साल का फासला
है, महावीर मेरे अर्थों से राजी हो भी कैसे सकते हैं! पच्चीस सौ सौ साल में
आदमी वहीं तो नहीं रुका है। पच्चीस सौ साल में कितनी क्रांति हो चुकी, आदमी कहां से कहां पहुंच गया, गंगा का कितना पानी बह
गया!
महावीर से मेरा मिलना हो तो उन्होंने कहा है, उसमें और मेरे कहने में बहुत फर्क रहेगा, जमीन-आसमान
का फर्क रहेगा, पच्चीस सौ साल का फर्क रहेगा। यद्यपि हम
एक-दूसरे को समझ पाएंगे। क्योंकि जिस अनुभव से उन्होंने कहा है, वह मेरा भी अनुभव है। अनुभव में हम सहमत होंगे, लेकिन
हमारे वक्तव्य तो भिन्न होने वाले हैं। निश्चित भिन्न होने वाले हैं। मेरी भाषा और,
उनकी भाषा और। उनके कहने के तौरत्तरीके और, मेरा
तौरत्तरीका और। उनका अंदाजे-बयां और, मेरा अंदाजेबयां और।
मेरे सोचने की प्रक्रिया और। मैं बीसवीं सदी के लोगों से बात कर रहा हूं। वे
पच्चीस सौ साल पहले और ही तरह के लोगों से बात कर रहे थे। फर्क तो हो ही जानेवाला
है। बहुत फर्क हो जानेवाला है।
इसलिए महावीर के जब मैं अर्थ करता हूं तो ख्याल रखना, वे अर्थ मेरे हैं। लेकिन जैन प्रसन्न हुए। मगर वह प्रसन्नता ज्यादा देर
टिकने वाली नहीं है। हां, उसमें से मैंने कुछ जैन पकड़ लिए।
जो सच में ही प्रसन्न हुए थे। जिन्होंने इसकी फिक्र नहीं की कि महावीर की प्रशंसा
मैंने की। जो आंदोलित हो गये, सच में आंदोलित हो गये। जिनका
हृदय सच में गदगद हुआ। जिनका कोई जैन होने का अहंकार तृप्त नहीं हुआ वहन जिन्हें
राह मिली, मार्ग मिला, दृष्टि मिली। वे
मेरे साथ हो लिये। आखिर हंसा भी तो ऐसे ही मेरे साथ हुई। उसमें से कुछ जैन मेरे
साथ हो गये। बस, उनके लिए ही मैंने जाल फेंका था। जो मछलियां
मेरी थी वे मेरे जाल में आ गयीं। और सभी कूड़े-करकट को मुझे करना भी क्या था?
तो जैसे ही मैंने जीसस की बात की, वे जो सिर्फ
महावीर का झंडा फहराने को उत्सुक थे, वे जीसस का नाम सुनकर
ही बहुत हैरान हो गये।
मुझसे एक जैन मुनि ने कहा कि आप महावीर और जीसस का नाम एक ही साथ ले
देते हैं, यह अच्छा नहीं है। कहां महावीर तीर्थंकर और कहां
जीसस! जीसस को सूली लगी। सूली तो उसी को लगती है जिसने बहुत महापाप किये हों पिछले
जन्मों में। जैन धर्म के हिसाब से तो कोई निर्णय निर्णायक की कोई खुशामद करो तो
बचा दे। कि प्रशंसा करो, अपने बालों को बचा ले। जो न मानें
उनको नर्क में डाल दे, जो मानें उनको स्वर्ग ले जाए। जैन
धर्म में तो कोई ईश्वर की धारणा नहीं है। जैन धर्म में तो ईश्वर की जगह कर्म का ही
सिद्धांत है। और कर्म का सिद्धांत तो बिलकुल ही निष्पक्ष है, तटस्थ है। सिद्धांतों में कोई पक्षपात तो होता नहीं। तो सूली क्यों लगी?
जैनों की तो धारणा यह है कि महावीर को तो कांटा भी नहीं चुभ सकता;
सूली लगना तो दूर। जब महावीर चलते हैं तो रास्ते पर अगर कांटा सीधा
पड़ा हो तो तब जब कोई पाप किया हो। पाप तो समाप्त हो गये। जीसस को सूली लगी तो किसी
महापाप को ही फल होगा।
तो जैन मुनि ने मुझसे कहा कि आप कैसे जीसस का नाम ले देते हैं! आप तो
हद कर देते हैं, मुहम्मद तक का नाम ले देते हैं, जो आदमी तलवार लेकर लड़ता रहा! आप कृष्ण का भी नाम ले देते हैं उसी पंक्ति
में! कृष्ण को जैन शास्त्रों ने नर्क में डाला हुआ है। क्योंकि इसी आदमी ने
महाभारत का युद्ध करवाया। अर्जुन तो बेचारा जैन हुआ जाता था। वह तो यह कह रहा था
कि हम जैन मुनि होंगे। वह तो सब छोड़-छाड़कर जाना चाहता था। उसको तो बड़ा वैराग्यभाव
पैदा हुआ था। और कृष्ण ने उसकी खूब मार-ठोंक की।...जैसे अभी चंद्रशेखर को मैंने
मारा-ठोंका! ऐसे कृष्ण ने अर्जुन को खूब मारा-ठोंका। उसकी बुद्धि बिलकुल ठिकाने ला
दी। वह तो कह रहा था मेरा गाण्डिव ही हाथ से खिसका जा रहा है। वह तो बैठ ही बया था
कि मेरे हाथ शिथिल हो गये। मुझसे उठा ही नहीं जाता। उसको एकदम लकवा लगा जा रहा था।
कृष्ण ने उसको फिर से खड़ा कर दिया। धक्कम-धुक्की देकर उसको पूरी गीता ऐसी पिलायी!
लाख उसने बचने की कोशिश की--इधर से भागा, उधर से भागा,
उन्होंने बस दरवाजे बंद कर दिये! और ऐसा नहीं लगता कि अर्जुन उनसे
अंततः भी राजी हुआ। वह तो घबड़ा कर बोला कि भइया, अब क्षमा
करो! मेरे सब संदेह गये! बजाय तुमसे सिर पचाने के लड़ ही जाने में सार है! अब कब तक
सिर पचाना है? तो लड़ गया बेचारा।
जैनों की धारणा है कि कृष्ण ने हिंसा करवा दी।
तो जैन मुनि मुझसे बोले कि आप इन सबका नाम महावीर के साथ ले देते हैं।
कहां महावीर तीर्थंकर, परम पुरुष, परमज्ञान को उपलब्ध,
समाधिस्थ और कहां ये लोग! तो उनको कष्ट होना शुरू हो गया।
लेकिन जब मैं जीसस पर बोला तो ईसाई बहुत प्रभावित हुए। जैन तो छट
गये--हंसा जैसे जैन रह गये, जिनमें हिम्मत थी मेरे साथ रहने की वे रुक रहे--लेकिन
ईसाई आने शुरू हुए। जब तक मैं जीसस पर बोला, ईसाई मुझसे बहुत
खुश थे। जीसस पर मेरी बोली गयी किताबें करीब-करीब दुनिया की सारी भाषाओं में
अनुवादित हो गयीं। ईसाई चर्चों में जीसस पर मेरे बोले गये वचनों के उद्धरण दिये
गये। ईसाई पादरी दूर देशों से यहां सुनने आये, समझने आये।
उनको लगा कि किसी व्यक्ति ने जीसस के संबंध में वे बातें कह दी हैं जिनका हमें
ख्याल ही नहीं था, जिनका हमें पता ही नहीं था। लेकिन जब मैं लाओत्सु
पर बोलने लगा, तो वे भाग खड़े हुए। कुछ उसमें से बच गये। यह
होनेवाला था।
इसलिए मैं इन अलग-अलग लोगों पर बोला हूं, क्योंकि लोग तो बंटे हुए हैं। आज ऐसा आदमी तो खोजना कठिन है जो बंटा हुआ न
हो। मेरे जैसे व्यक्ति के सामने बड़े से बड़ा सवाल यह है कि किन व्यक्तियों को चेताओ,
सब वर्गों में बंटे हुए हैं। कोई जैन है कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई
बौद्ध है--सब बंटे हुए हैं। तो मुझे तो इन्हीं बंटे हुए लोगों में से खोजना होगा।
मुझे तो इन्हीं में पुकार देनी होगी। इनमें पुकार देने का एक ही ढंग है कि इन्हें
के ढंग से पुकार दे दो। उसमें समझ सकेंगे, वे ठहर जाएंगे। जो
नहीं समझेंगे, वे चले जाएंगे। जब मैं लाओत्सू पर बोला तो बस,
उनको कठिनाई शुरू हुई। जब मैं बुद्ध पर बोला तो उनको बहुत कठिनाई
शुरू हुई।
तुम जान कर हैरान होओगे कि जीसस पर मेरी बोली गयी किताबें तो पश्चिम
की सारी भाषाओं में अनुवादित हो गयी, लाओत्सू पर और बुद्ध
पर बोली गयी किताबें जापानी भाषा में अनुवादित हुई, लेकिन
जीसस पर बोली गयी किताब जापानी भाषा में अनुवादित नहीं हुई। जैनों के सिवाय किसीने
उसको पढ़ा ही नहीं। उपनिषदों पर बोला, हिंदुओं ने पढ़ा। गीता
पर बोली, हिंदुओं ने पढ़ा, जैनों ने
नहीं पढ़ा। यह मेरी अपनी विधि है। मुझे अपने लोग खोज लेने हैं जगह-जगह से। वे बंटे
हुए हैं। वे किसी-किसी भीड़ में खोये हुए हैं। उनको मैं कैसे चुनूं? क्या उपाय है? मैं थोड़ी देर को उनकी भाषा बोलूं। उस
भाषा में जो भी चेत सकते हैं, वे चेत कर मेरे साथ हो जाएंगे।
लेकिन जब मैं किसी और पर बोलूंगा तो उनको कठिनाई शुरू हो जाएगी--तत्क्षण कठिनाई
शुरू हो जाएगी।
जब मैं बुद्ध पर बोला तो जैनों को बहुत दुख शुरू हो गया। क्योंकि
जैनों और बौद्धों में बड़ी पुरानी स्पर्धा है। बुद्ध और महावीर समसामयिक थे, तो उन दोनों में विरोध प्राचीन चल रहा है, संघर्ष
भारी है और जैनी बुरी तरह पछाड़ खा गये हैं, क्योंकि बौद्धों
ने सारे एशिया में फैलाव कर लिया और जैन तो सिकुड़ कर रह गये-- कोई पैंतीस लाख
संख्या उनकी, कोई संख्या है! तो बहुत भीतर कचोट है, बुद्ध के प्रति बहुत नाराजगी है। और जब मैं बुद्ध पर बोला, तब तो उनकी बेचैनी की सीमा न रही। वे एकदम मेरे विरोध में होने शुरू हो
गये। और पतंजलि पर बोला, तिलोपा पर बोला; या जब विज्ञान भैरव तंत्र पर बोला तब तो एकदम भागदौड़ मच गयी! क्योंकि उनकी
सारी धारणा दमन की है। मैंने तो महावीर में फी अर्थ यही किये थे कि दमन नहीं। मैं
तो अर्थ ही वही करूंगा जो मेरे हैं। मगर महावीर का नाम था तो उन्होंने सुन लिया और
जब मैं शुद्ध तंत्र पर ही भाषा की, तो बस उनके छक्के छूट
गये।
तो परेशान हो रहे हैं कि अगर मैं कच्छ गया...और मैं जाऊंगा ही।
मोरारजी मुझे रोकने की कोशिश में खुद चले गये। मैं प्रतीक्षा करता रहा, मैंने कहा, ठीक। सासवड़ का तो मैंने बहाना ले किया था
कि चलो, नजर बचेगी, यह लगेगा कि मैंने
कच्छ जाने का ख्याल ही छोड़ दिया। मगर सासवड़ मैं गया भी नहीं। तुम जरूर उदघाटन करने
गये, मैंने कदम नहीं रखा। मैं जाऊंगा तो कच्छ--पांण कच्छ
हलोंता। सासवड़ कोई दूर नहीं है, कुल बीस-पच्चीस मील, मैं देखने भी नहीं गया। तुम जाकर उदघाटन भी कर आये, तुम
जाकर समारोह भी मना आये। लेकिन मैं जानता था कि मोरारजी एंड कंपनी कोई ज्यादा देर
टिकने वाली तो है नहीं। यह तो बिलकुल बिल्ली के भाग्य से हंडी टूट गयी थी, छींका टूट गया था, संयोग की बात थी कि मोरारजी छाती
पर बैठ गये। अन्यथा न तो योग्यता थी, न कोई प्रयोजन था,
न कुछ उनसे देश का हित था। तो कितनी देर छाती पर बैठे रह सकते थे!
उनका उतरना निश्चित था। साल-दो-साल मैंने कहा प्रतीक्षा कर लो, कोई हर्जा नहीं। अब कच्छ जाने का समय करीब आया जा रहा है। उनके विरोध
वगैरह से कुछ होने वाला नहीं है। उन्हीं का हाथ है पीछे। उनके विरोध वगैरह से कुछ
होने वाला नहीं है। उन्हीं का हाथ पीछे। वे जो लोग आज विरोध कर रहे हैं, उनके पीछे मोरारजी का हाथ है। मोरारजी को लगता है कि यह उनकी प्रतिष्ठा का
सवाल है। उनको लगता है,...उन्होंने सब तरह से झूठे उपाय करके
कच्छ जाने से रोका।
जिस समुद्र तट को हम आश्रम बनाना चाहते थे, वहां के सरकारी अधिकारियों पर दबाव डाल कर--स्वभावतः वे दबाव डाल सकते थे,
सत्ता उनके हाथ में थी-- झूठी रिपोर्टें लिखवाई। अब सारी फाइलें
देखने में आई हैं, सब झूठी रिपोर्टें हैं। ऐसी झूठी
रिपोर्टें लिखवाई जिनका कोई हिसाब नहीं है। लिखवाया है कि यहां से केवल तीस
किलोमीटर की दूरी पर एयरफोर्स का अड्डा है, इसलिए एयरफोर्स
के संबंध में कोई भी चीज गुप्त नहीं रह सकेगी अगर आश्रम यहां बनता है, तीस किलोमीटर बहुत पास है। अभी जाकर पता लगाने से पता चला है कि वह तीस
किलोमीटर नहीं है अड्डा, पचास मिल है। और जब कलेक्टर को पूछा
गया कि यह क्यों तीस किलोमीटर लिखा गया, तो उसने कहा,
हम क्या करें, हम तो पेट के लिए नौकरी करते
हैं। हम पर दबाव डाला गया कि तीस किलोमीटर ही बताओ। तो तीस किलोमीटर बता दिया।
और यह भी बात झूठी प्रचारित की कि एयरफोर्स विरोध कर रहा है कि इतने
पास आश्रम नहीं बनना चाहिए। जबकि अब सब फाइलें देखी गयीं, तो एयरफोर्स की तरफ से कोई विरोध किया ही नहीं गया था।
अब उनके पास कुछ और तो उपाय नहीं है। अब एक उपाय है कि बंबई के
कच्छियों को इकट्ठा करके कुछ शोरगुल मचाए। वह मचवाने की कोशिश कर रहे हैं। उससे
कुछ हानि होने वाली नहीं है। उससे कुछ अड़चन होने वाली नहीं है। उससे लाभ ही होगा।
सत्य को कभी हानि पहुंचती नहीं। हानि पहुंचाने के सब उपाय व्यर्थ जाते
हैं। थोड़ी देर-अबेर हो सकती है। पर देर-अबेर से क्या चिंता! सत्य के लिए तो शाश्वत
काल पड़ा हुआ है। और मुझे ऐसी जगह चाहिए जो एक तरह से बिलकुल अलग हो, ताकि मैं जो गहरे-से-गहरे प्रयोग करना चाहता हूं, वे
किये जा सकें। वे गहरे प्रयोग भीड़-भाड़ में नहीं किये जा सकते, बाजार में नहीं किये जा सकते, नगरों में किये जा
सकते। और वैसी जगह कच्छ में उपलब्ध है। क्योंकि कच्छ की आबादी कम।-- कच्छी सब वहां
से छोड़ कर चले गये हैं। कच्छी वहां कोई रहते नहीं। न के बराबर संख्या है। पूरे
कच्छ की आबादी सात लाख है। कच्छ के पास काफी जगह है, जहां हम
बिलकुल एकांत पा सकते हैं। ऐसा एकांत कि वहां न कभी कोई आये न कभी कोई जाये। जिसे
आना है साधना के लिए, वही आए। और आये तो दुनिया से जैसे
बिलकुल टूट जाए। जैसे दुनिया भूल ही गयी। जैसे कि कोई चांद पर चला आया, इतने दूर दुनिया से हो गया। ऐसी मुझे कोई जगह चाहिए। वह जगह मेरे नजर में
है। उस जगह को मैं छोडूंगा नहीं। और कितना ही विरोध किया जाए। विरोध करनेवाले
चूंकि बिलकुल ही झूठा विरोध कर रहे है...
कच्छ को आश्रम के पहुंचने से सिवाय लाभ के कोई हानि नहीं है। आश्रम की
मौजूदगी पूना को डेढ़ लाख रुपया रोज दे रही है। आश्रम के हटते ही से पूना को पता
चलेगा कि रौनक गयी! कि होटलें खाली पड़ गयी। कि चीजों के दाम नीचे गिर गये! कच्छ के
लिए डेढ़ लाख रुपया रोज...और यह तो अभी आश्रम की सिर्फ शुरुआत है, क्योंकि पास कोई इंतजाम नहीं है, अभी केवल तीन हजार
संन्यासी यहां है। कच्छ में मैं दो साल के भीतर दस हजार संन्यासियों को आबाद कर
दूंगा। दस हजार संन्यासी आने को तत्पर बैठे हैं सिर्फ जगह का सवाल है। एक दफा जगह
हाथ में हुई कि दस हजार संन्यासियों की गैरिक बस्ती बस जाएगी। वह इस पृथ्वी पर
अपने ढंग का अनूठा प्रयोग होगा। दुनिया में कभी इतने बड़े पैमाने पर कोई आश्रम न
हुआ है, न है। और इतना विश्वजनीन, जहां
सभी जातियों के, सारे धर्मों के, सारे
देशों के लोग होंगे।
कच्छ के तो सौभाग्य हो जाएंगे। कच्छ की दीनता मिट जाएगी। कच्छ में
पांच हजार लोग बेकार हैं। पांच हजार लोगों का तो हमें काम दे सकेंगे--सिर्फ हमीं
काम दे सकेंगे। कच्छ की पूरी बेकारी तो हमीं अलग कर देंगे। क्योंकि दस हजार लोगों
के लिए रहने के लिए इंतजाम करना, मकान बनाना, आवास बनाना! और मैं कोई दीनता-हीनता में भरोसा नहीं करता कि झोपड़े तनाने
हैं। वे पांच हजार लोग जो कच्छ में बेकार हैं, उनकी बेकारी
एकदम खतम हो जाएगी। और जब दस हजार संन्यासी वहां आकर रहेंगे--और ये संन्यासी कोई
साधारण संन्यासी नहीं हैं। ये हैं, सुशिक्षित लोग हैं। ये
नवनीत हैं, दुनिया के। इसमें बड़े वैज्ञानिक हैं, इंजीनियर हैं, आर्किटेक्ट हैं, चित्रकार हैं, मूर्तिकार हैं, अन्वेषक
हैं, अभिनेता है, संगीतज्ञ हैं,
नर्तक हैं...और ये सब वहां काम शुरू हो जाने वाला है।
यहां "विनोद' बैठे हुए हैं,"विनोद' को मैंने कह ही रखा हुआ है कि जैसे ही आश्रम
बनता है, संन्यासियों का अपना फिल्म उद्योग। दुनिया भर में
बकवास होती है इस बात की कि फिल्म में यह नहीं होना चाहिए, वह
नहीं होना चाहिए, मगर कोई यह तो बताए कि क्या होना चाहिए!
कोई एकाध फिल्म तो बनाकर बताए कि क्या होना चाहिए।
हमारे पास सुंदरतम कलाकार हैं, अभिनेता हैं, मूर्तिकार हैं, चित्रकार हैं। हम वहां सब तरह के
उद्योग डालने वाले हैं। क्योंकि मैं कोई संन्यासी को खाली बिठालना नहीं चाहता।
हमारा संन्यासी सिर्फ कोई भाव-भजन करने वाला संन्यासी नहीं है। श्रम उसके लिए
साधना है। और सृजन उसके लिए ध्यान है।
ये दस हजार संन्यासी कच्छ को इस देश में सर्वाधिक संपन्न भूमि बना
देंगे। एक पांच साल के भीतर मैं जो कह रहा हूं उस सत्य का तुम्हें पता चल जाएगा।
कि सारा देशर् ईष्या से भर जाएगा कि हम चूक गये। हमने क्यों न निमंत्रित कर लिया
आश्रम को! और तब ये लोग जा आज विरोध कर रहे हैं, इनको पता चलेगा। तब
इनको होश आएगा। ठिकाने इनके होश तब आएंगे। कि तुम कच्छ को कुछ भी नहीं दिये हो।
तुम कच्छ से खुद भाग गये हो, भगोड़े हो। मैं कच्छ में दुनिया
भर से लोगों को ले जा रहा हूं। और वहां एक सृजन का पूरा-का पूरा नया छोटा-सा जगत
निर्मित हो जाएगा।
अभी तो शुरू में छोटे उद्योग होंगे, लेकिन जल्दी ही...मैं,
छोटी चीजों में मेरा भरोसा ही नहीं है। ...उद्योग बड़े हो जाएंगे।
कच्छ के आश्रम के पास वैसा अस्पताल होना चाहिए जैसा अस्पताल पूरे भारत में दूसरा न
हो।
और होगा, वसा अस्पताल होगा!
हमारी अपनी खेती-बाड़ी होगी। जिसमें हम सारे आधुनिकतम तंत्र का उपयोग
करेंगे। हमारे अपने सब चीज के उद्योग होंगे। आश्रम स्वावलंबी तो होगा ही होगा लेकिन
आश्रम के सहयोग से पूरे कच्छ की रौनक बदल जाएगी, कच्छ में पुनरुज्जीवन
आ जाएगा।
योग हंसा! चलेंगे, बिलकुल फिकिर मत कर! तू इसकी
फिकिर ही मत कर तू ही कच्छी नहीं है। आंऊ कच्छी अंइया! और, पांण
कच्छ हलोंता!
आज इतना ही।
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