साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
प्रार्थना अंतिम पुरस्कार है—छठवां प्रवचन
१६ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान,
चमक-चमक कर हजार आफताब डूब गये
हम अपनी शामे-अलम को सहर बना न सके
कृपया, अब बताइये क्या करें?
अब्दुल कदीर!
चांदत्तारे तो ऊगेंगे, डूबेंगे; सूरज ऊगेगा, डूबेगा; इससे
तुम्हारे अंतरात्मा की अंधकार नहीं मिट सकता है। बाहर का कोई प्रकाश भीतर के
अंधकार को मिटाने में असमर्थ है। वह भरोसा ही छोड़ दो। वह भरोसा रखोगे तो भटकोगे।
और वही हम सबका भरोसा है। वहीं हम चूक रहे हैं। बाहर ही धन खोजते हैं कि भीतर की
निर्धनता मिट जाए। बाहर ही पद खोजते हज कि भीतर की दीनता मिट जाए। और बाहर की
रोशनी पर ही आंखें टिकाते हैं कि भीतर का अंधेरा कट जाए। यह नहीं हो सकता। जो बाहर
है बाहर है, जो भीतर है भीतर है। दोनों का कोई तालमेल नहीं।
दोनों एक-दूसरे का रास्ता नहीं काटते।
भीतर भी तारे हैं और भीतर भी चांद हैं और सूरज हैं और बाहर के
चांदत्तारों से बहुत बड़े हैं, बहुत अलौकिक हैं। पर नजरें बाहर
उलझी हों तो भीतर कैसे देखोगे! नजरें बाहर उलझी होंगी तो लगेगा कि भी तर अंधेरा
है। क्योंकि आंख या तो बाहर देख सकती है या भीतर। जब बाहर देखती है, तो भीतर का जगत छिप जाता है। और जब भीतर देखती है तो बाहर का जगत छिप जाता
है। इसलिए तो जिन्होंने भीतर के अनुभव को पाया, उन्होंने कहा
बाहर का जगत है ही नहीं। नहीं कि बाहर का जगत नहीं है। बाहर का जगत है, बहुत है, अनंत है, लेकिन भीतर
जिसकी आंख मुड़ी उसे स्वभावतः बाहर का जगत ओट में हो गया, उस
पर पर्दा पड़ गया।
इसलिए रहस्यवादी कहेंगे, जगत माया है, भ्रम है, मृगमरीचिका है। उनकी बात में सत्य है भी और
नहीं भी। सत्य है इसलिए कि वे जो कह रहे हैं, वह सूचना है कि
अब आंख भीतर पड़ी है, तो बाहर यूं हो गया जैसे नहीं है। और
सत्य नहीं है इसलिए कि तुमने आंख बंद कर ली बाहर से, इससे
बाहर का जगत नहीं मिट जाता।
इसलिए मैं मायावादियों से राजी नहीं हूं। मैं उनके वक्तव्य के सत्य को
अनुभव करता हूं, लेकिन उनके वक्तव्य को संपूर्णतः सत्य नहीं कह सकता
हूं। उनका वक्तव्य उतना ही सत्य है जितना तुम्हारा वक्तव्य। जैसे तुम कहते हो,
अब्दुल कदीर,
चमक-चमक कर हजार आफताब डूब गये
हम अपनी शामे-अलग को सहर बना न सके
तुम कहते हो: कितने चांदत्तारे ऊगे, डूबे, लेकिन हमारी सांझ थी, उदास थी, अंधेरी थी, अंधेरी ही रही, उदास
ही रही, हम उसमें उत्सव न ला सके: हम उसे आलोकित न कर सके;
वहां कोई आनंद की धुन न बजी; वहां कोई गीत न
जन्मा; वहां कोई बांसुरी न बजी, कोई
कोयल न पुकारी, कोई पपीहा न पी-पी कहा। वहां रेगिस्तान ही
रहा। बाहर बहुत फूल खिले और झरे, झर-झर झरे, गंध ही गंध उड़ी और भीतर? भीतर कुछ भी न था। तुम्हारी
बात में जितना सत्य है, उतना ही सत्य है मायावादियों की बात
में। वे कहते हैं, हमने जब भीतर का जगत रोशन किया, जब भीतर का दीया जला, तो बाहर का जगत ही न रहा। बाहर
सब अंधकार हो गया, सब झूठ हो गया। दोनों जगत हैं। बराबर सत्य
हैं। एक ही सत्य के दो पहलू हैं। जैसे एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं।
मैं इस अर्थ में अद्वैतवादी हूं, क्योंकि पहलू दो हों
लेकिन सिक्का एक है। और इस अर्थ में द्वैतवादी हूं, क्योंकि
सिक्का भले एक हो, पहलू दो हैं। लाख उपाय करो, एक पहलू का सिक्का तुम न बना सकोगे।
जिसको हम भौतिकवादी कहते हैं, उसकी भी चेष्टा यही
है कि एक पहलू का सिक्का बना ले। हार जाता है जिंदगी भर, टूट
जाता है, मगर सफल नहीं होता। और जिसको हम अध्यात्मवादी कहते
है उसकी चेष्टा में भी भेद नहीं। वह भी कहता है, एक ही पहलू
का सिक्का बनाऊंगा। बस, जो है भीतर, , ही सत्य है, बाहर सब असत्य है।
सूफी फकीर हुई राबिया। अदभुत स्त्री थी। इस पृथ्वी पर थोड़ी ही
स्त्रियों ने वह स्थान पाया है, जिसको हम बुद्ध का स्थान कहें;
वह ऊंचा पायी है, जो बुद्ध की है। उन थोड़ी-सी
स्त्रियों में राबिया एक है। पुरुषों के नाम भी केवल उंगलियों पर गिने जा सकते हैं,
मगर स्त्रियों की संख्या तो और भी कम है। अभागी है यह बात! और
जुम्मा पुरुष का है। पुरुष ने स्त्रियों को उठने न दिया, जगने
न दिया। पुरुष ने स्त्रियों को वंचित रखा है। सदियों से उन्हें वेद पढ़ने की मनाही
है। मस्जिदों में प्रवेश का अधिकार नहीं है। यहूदियों के सिनागाग में उन्हें पर्दे
की ओट में ऊपर छज्जे पर बैठना होता है, दूर। पुरुषों के साथ
मंदिर के प्रांगण में प्रवेश का उन्हें अधिकार नहीं है। जैन कहते हैं, स्त्रियों के पर्याय से मोक्ष नहीं उपलब्ध हो सकता। मर कर उन्हें पहले
पुरुष होना होगा; क्योंकि पुरुष की ही पर्याय से मोक्ष हो
सकता है।
ये सब पुरुष की अस्मिता की घोषणाएं हैं और कुछ भी नहीं। और इस सबका
परिणाम हुआ कि बहुत कम स्त्रियां बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकीं। लेकिन कुछ स्त्रियां
इस सबके बावजूद भी उपलब्ध हुई। उनमें मीरा है, सहजो है, दया है, कश्मीर की लल्ला है। लल्ला ने तो वह ऊंचाई
पायी कि कश्मीर के लोग कहते हैं, हम दो ही नाम जानते हैं:
अल्ला और लल्ला। और उन्हीं में राबिया है।
राबिया के घर एक सूफी फकीर हसन मेहमान था। सुबह ही सुबह उठा, झोपड़े के बाहर गया। राबिया तो आंख बंद किये मस्ती में डोलती थी। उसने बाहर
सूरज को निकलते देखा। बड़ी सुंदर सुबह थी। ऐसी सुंदर जैसी उसने कभी देखी न थी।
बादलों पर सूरज के रंग छितरे जा रहे थे। सब सुर्ख हो उठा था सूरज के साथ। पक्षी
गीत गा रहे थे। कलियां चटक-चटक कर खिल रही थीं, फूल बन रही
थीं। हवाओं में गंध थी। सुबह की शीतल मंद पवन बह रही थी। उसने राबिया का आवाज दी
कि राबिया, तू भीतर बैठी-बैठी क्या करती है, बाहर आ, देख परमात्मा ने कितना प्यारा जगत बनाया है!
और कितनी प्यारी सुबह हुई है! और कैसे रंग आकाश में भरे हैं! और कैसे कंठों में
पक्षियों के गीत डाले हैं! और कैसी फूलों में सुगंध उड़ रही है! और कैसी शीतल मंद
पवन बह रही है! बाहर आ! भीतर क्या करती है!
राबिया खिलखिला कर हंसने लगी। यूं खिलखिलायी कि हसन थोड़ा हतप्रद भी
हुआ।
जैसे कोई पागल हंसे। और फिर राबिया ने कहा, हसन, कब तक बाहर भी भटके रहोगे? भीतर आओ! मैं तुमसे कहती हूं कि माना कि परमात्मा ने बहुत सुंदर सुबह
बनायी होगी--तुम कहते हो तो जरूर बनायी होगी, तुम कुछ झूठ न
कहोगे--मगर मैं तुमसे कहती हूं कि भीतर आओ और क्यों नहीं उस परमात्मा को देखते
जिसने सुबह का सूरज बनाया, जिसने सुबह के फूल खिलो, जिसने पक्षियों के कंठों में गीत डाले? कब तक सृष्टि
को देखते रहोगे, सृष्टा को देखो, भीतर
आओ!
हसन ने तो बात कुछ और कही थी, राबिया ने तो ढंग ही
बदल दिया। यही सदगुरु की कला है। तुम पूछो कुछ, जवाब दे कुछ।
तुम्हारे प्रश्न में चाहे जान भी न हो, तो भी अपने उत्तरों
में प्राण भर दे। उसके उत्तर को सुन कर तुम्हें पहचान आती है कि तुम्हारे प्रश्न
में कितने प्राण थे। हसन को तो यह ख्याल ही न था, उसने तो एक
बात कही थी कि बाहर आ। उसने यह न सोचा थी कि बात का इतना आध्यात्मिक रूप हो जाएगा।
मगर राबिया जैसे व्यक्तियों के हाथ में तो बात पड़ जाए, कंकड़-पत्थर
भी पड़ जाए तो कोहिनूर हो जाए। मुर्दा हाथ में आ पाए तो जीवित हो उठे। राबिया तो गंगाजल
छू दे तो शराब हो जाए, कि जो पी ले तो ऐसा मस्त हो कि फिर
मस्ती न टूटे। हसन ने कहा, राबिया, तूने
तो बात ही बदल दी, तूने तो मुझे बहुत झेंपाया। क्षमा कर,
आता हूं, भीतर आता हूं, तू
ही ठीक कहती है।
और राबिया ने कहा, बाहर तो सब माया है। भ्रम है,
सत्य भीतर है। वहां में राजी नहीं हूं। बाहर भी सत्य है, भीतर भी सत्य है। तुम्हारी नजर जहां पड़ जाए। तुम बाहर को देखोगे तो भीतर
के सत्य से वंचित रह जाओगे। और तुम भीतर देखोगे तो तुम बाहर के सत्य से वंचित रह
जाओगे। और अब तक यही हुआ। पूरब ने भीतर देखा, बाहर के सत्य
वंचित रह गया। इसलिए दीन है, दरिद्र है, भूखा है, प्यासा है, उदास है,
क्षीण है। जैसे मरणशय्या पर पड़ा है। क्योंकि बाहर तो सब माया है। तो
फिर कौन विज्ञान को जन्म दे? कौन उलझे माया में? और कौन खोजे माया के सत्यों को? और माया में सत्य हो
कैसे सकते हैं?
इस देश की दरिद्रता में तुम्हारे अध्यात्मवादियों का हाथ है। जाने न
सही तो अनजाने सही, मगर हाथ तो है; उसे इनकारा नहीं
जा सकता।
और पश्चिम? बाहर के सत्य पर ही अटक गया। उसने भीतर देखा ही नहीं।
पश्चिम कहता है, भीतर कुछ भी नहीं है। भीतर जैसी कोई चीज ही
नहीं है। यह सब बकवास है। जो है, बाहर है।
मगर एक बात ख्याल रखना, दोनों का तर्क एक ही
है। इस तर्क में जरा भी भेद नहीं है। शंकराचार्य के तर्क में और कार्ल माक्र्स के
तर्क में जरा भी भेद नहीं है। शंकराचार्य कहते हैं, बाहर जो
है, असत्य है, सत्य भीतर है, और कार्ल माक्र्स कहता है, भीतर जो है, सब असत्य है और बाहर जो है, वही सत्य है। मगर दोनों
अद्वैतवादी हैं, यह ख्याल रखना। दोनों एक को मानते हैं। और
वही दोनों को भ्रांति है। और वही दोनों एक को मानते हैं। और वहीं दोनों की भ्रांति
है। और वहीं दोनों की चूक है।
मैं चाहूंगा एक ऐसा मनुष्य पृथ्वी पर जो भीतर और बाहर के बीच सम्मिलन
बना सके। जो भीतर और बाहर के बीच सेतु निर्मित कर सके। जो इतना कुशल हो कि आंख बंद
करे तो भीतर स्रष्टा को देख। न तो भीतर के कारण बाहर को झुठलाए, न बाहर के कारण भीतर को झुठलाए। झुठलाए ही नहीं। इनकार ही न करे। जिसका
स्वीकार इतना बड़ा हो कि उसमें बाहर और भीतर दोनों समा जाएं। तो धर्म और विज्ञान का
मिलन हो। तो पूरब और पश्चिम का मिलन हो। मेरे संन्यासी से मैं वही आशा करता हूं कि
उसमें दोनों मिलेंगे। उसमें भौतिकवाद और अध्यात्म का मिलन होगा।
इसलिए मेरे संन्यासी को दो तरह की आलोचनाएं सहनी पड़ेंगी।
भौतिकवादी कहेगा कि तुम भी क्या अध्यात्म की बातें करते हो!
कम्युनिस्ट मेरे विरोध में हैं। उनका विरोध मुझसे यह है कि मैं लोगों को ध्यान
जैसी भ्रामक दिशा में गतिमान कर रहा हूं। लाखों लोगों को भीतर की तरफ ले जा रहा
हूं। जबकि असली सवाल बाहर है। क्रांति बाहर होनी है। सूरज बाहर निकलना है, चांद बाहर है, रोशनी बाहर है, और
मैं लोगों को भीतर भटका रहा हूं। मैं उनका क्रांति से छीने ले रहा हूं। मैं
क्रांति का दुश्मन हूं।
और अध्यात्मवादी मुझसे नाराज है। सारे अध्यात्मवादियों के अलग-अलग
फिरके मेरे खिलाफ हैं। उनकी खिलाफत का कारण? उनका कहना यह है कि
मैं अपने संन्यासी को भौतिकवाद की शिक्षा दे रहा हूं। मैं उससे नहीं कहता कि संसार
को छोड़ो। मैं उससे नहीं कहता कि संसार माया है। मैं उससे कहता हूं जीओ, जी भर कर जीओ! मैं उसे भोगी बना रहा हूं! मैं उसे योग से तोड़ रहा हूं। मैं
उसे भरमा रहा हूं, भटका रहा हूं; मैं
उसे भ्रष्ट कर रहा हूं।
उन दोनों की आलोचनाएं मुझे सहनी पड़ेंगी। सदियों पुरानी दोनों की
धारणाएं हैं।
मगर यह बड़े मजे की बात है कि दोनों कभी एक ही व्यक्ति के संबंध में
राजी न हुए थे आज तक। कि दोनों ने मिल कर एक की ही आलोचना की हो। यह नयी घटना है।
जिसकी आलोचना अध्यात्मवादी करते थे, उसका समर्थन
भौतिकवादियों ने हमेशा किया। और जिसकी आलोचना भौतिकवादियों ने की, उसका समर्थन अध्यात्मवादियों ने हमेशा किया। मैं उनके लिए बेबूझ हुआ जा
रहा हूं। उनकी भी समझ के बाहर है कि मेरे संबंध में वे दोनों राजी क्यों हैं?
वे राजी इसलिए हैं कि उन दोनों का तर्क एक है। वे आधे को मानते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी पत्नी को कहा, आधा गिलास पानी ले आ!
थोड़ी देर राह देखी, फिर जोर से आवाज दी कि फजलू की मां,
बड़ी देर लगा रही है। अरे, आधा गिलास पानी ले
आ! उसने कहा, वही तो मैं सोच रही हूं कि तुम्हारा प्रयोजन
क्या है? आधा भरा, कि आधा खाली?
पहले बात साफ करो।
यह फजलू की मां दार्शनिक रही होगी। इसने भी गजब का सवाल उठाया है कि
आधा खाली कि आधा भरा? मैं क्या लाऊं? आधा भरा या आधा
खाली?
आधे-आधे गिलास को मानने वाले लोग पृथ्वी पर रहे हैं।
मैं चाहता हूं तुम्हारी आंखें तरल होनी चाहिए, तुम्हारी दृष्टि तरल होनी चाहिए। --न अंतर्मुखी, न
बहिर्मुखी। अंतर्मुखी हुए तो बाहर से टूटे। उसका फल भोगोगे। पूरब भोग रहा है फल,
बुरी तरह भोग रहा है फल। और बहिर्मुखी हुए, तो
भीतर से चूक जाओगे। पश्चिम उसका फल भोग रहा है, बुरी तरह फल
भोग रहा है। अंतर्मुखी हुए तो दीन होओगे, दरिद्र होओगे,
गुलाम होओगे। और बहिर्मुखी हुए, तो विक्षिप्त
होने लगोगे। वित्त तनावग्रस्त हो जाएगा, संताप से भर जाएगा।
दौड़धूप तो बहुत होगी, आपाधापी तो बहुत होगी, मगर कोई विराम न बचेगा जीवन में, शांति के काई क्षण
न मिलेंगे; अर्थ खो जाएगा; एक
अर्थहीनता छा जाएगी। धन बड़े तकनीकी विकास होंगे, एक-से-एक
अदभुत चीजें विज्ञान खोज कर हाथ में दे देगा, चांदत्तारों पर
पहुंचने की ताकत आ जाएगी, मगर भीतर दीया भी न जलेगा, मोमबत्ती भी न जलेगी, भीतर अंधेरा रहेगा। और भीतर
अंधेरा हो तो तुम चांद पर भी पहुंच जाओ तो क्या करोगे? तुम
तो तुम ही रहोगे। चांद पर भी पहुंचने से क्या होगा? तो भी
तुम्हारे भीतर का चांद नहीं ऊगेगा। अब्दुल कदीर! तुम तो कहते हो, चमक-चमक कर हजार आफताब डूब गये, तुम आफताब पर भी
पहुंच जाओ तो भी कुछ न होगा, तुम्हारे भीतर का अंधेरा अछूता
रहेगा।
ये दोनों परंपराएं हार गयीं, थक गयीं, टूट गयीं। इन दोनों के दिन लद गये मैं
दोनों को ही अधूरा मानता हूं, इसलिए रुग्ण मानता हूं। मनुष्य
को एक तरल दृष्टि चाहिए।
इस शब्द को समझने की कोशिश करो--तरल दृष्टि। अगर इस शब्द को तुम समझ
लो तो मेरी भाषा तुम्हें समझ में आ जाएगी। मेरा जीवन को देखने का ढंग तुम्हारी समझ
में आ जाएगा। मैं अंतर्मुखी नहीं, बहिर्मुखी नहीं। और न चाहता हूं
कि तुम अंतर्मुखी बनो या बहिर्मुखी बनो। मैं चाहता हूं, तुम
चुनाव करना मत, तुम तरल रहो, तुम जब
चाहो तब आंख बंद करो। जैसे आंख झपकते हो; जैसे रात सो जाते
हो, जैसे सुबह आंख खोल लेते हो, इतनी
ही तरलता चाहिए। जड़ मत हो जाओ। एक ही घेरे में आबद्ध मत हो जाओ। बाहर आना और भीतर
जाना सुगम होना चाहिए। जैसे अपने घर के बाहर-भीतर आते हो। सुबह-सुबह बाहर निकल आते
हो, बगिया में बैठते हो, धूप सुहानी
लगती है। और फिर धूप थोड़ी देर में तेज होने लगती है, पसीना
बहने लगता है, फिर तुम उठे और चुपचाप घर के भीतर, घर की छाया में चले जाते हो। अब छाया प्यारी थी, अब
तेज हो गयी, प्रखर हो गयी, आग बरसने
लगी, अब छाया चाहिए, अब तुम भीतर सरक
आते हो। जैसी ये, जिद्द नहीं करते कि मैं तो अंतर्मुखी हूं
तो मैं भीतर ही बैठूंगा, चाहे सर्दी में ठिठुरूं, चाहे दांत कटकटाएं।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने डाक्टर के पास गया था और कहने लगा कि बड़े जोर
से सर्दी लगती है; बुखार-सा मालूम होता है। डाक्टर ने पूछताछ की,
पूछा कि दांत भी कटकटाते हैं कि नहीं? उसने
कहा, यह मैंने देखा नहीं, क्योंकि दांत
तो मैं रात में टेबल पर रख कर सो जाता हूं। पक्का नहीं, कटकटाते
हों या न कटकटाते हों! आज रात देखूंगा उठ कर।
दांत अलग ही हों तो बात अलग! टेबल पर रख कर सो जाते होओ तो बात अलग!
लेकिन अगर तुमने जिद कि की मैं तो भीतर ही रहूंगा, तो दांत कटकटाएंगे।
अंधेरे में तुम जीओगे फिर। अगर तुमने बाहर ही रहने की जिद की, तो पसीने-पसीने हो जाओगे; तो नाहक नर्क भोगोगे। जिद
में पड़ना मत। हठ से बचना।
हमने तो हठ को इतना आदर दिया कि हमने उसका पूरा योग बना दिया--हठ योग!
हठी लोगों को हम बड़ा आदर देते हैं। जिद्दी लोगों का हम त्यागीत्तपस्वी कहते हैं।
होते सिर्फ जिद्दी हैं। हठी, झंझट, दंभी,
अकड़ से भरे हुए लोग। ऐसी अकड़ से भरे हुए कि रस्सी भी जल जाए तो भी
उसकी अकड़ नहीं जाए। कोई एक ही पैर पर खड़ा है वर्षों से। इसको तुम कहते हो, महायोगी! एक ही पैर पर खड़ा है! है कुल जमा यह जिद्दी किस्म का आदमी।
जड़बुद्धि होगा। क्योंकि सिर्फ जड़बुद्धि ही हठी होते हैं।
कि कोई आदमी सिर्फ सप्ताह में एक दफा भोजन करता है। कि काई आदमी सिर्फ
दूध ही पीता है। कि कोई आदमी सिर्फ पानी ही पी कर जिंदा रहने की कोशिश करता है। कि
कोई आदमी सिर के बल ही खड़ा है। कि किसी आदमी ने एक हाथ ऊपर उठा लिया है। तो उसका
नीचे नहीं करता। ऊपर ही किये हुए है। हाथ सूख गया है। अब तो वह नीचे करना भी चाहे
तो कर नहीं सकता। मांसपेशियों ने गतिमयता खो दी है; लोच खो दी है। इनको
हम तपस्वी कहते हज, ज्ञानी कहते हैं। इनके हम चरण धोते हैं,
पानी पीते हैं इनके चरणों को धोकर। ये सिर्फ जिद्दी किस्म के लोग
हैं। इनकी आंखों में झांको, न प्रतिभा होगी, न आनंद होगा, न उत्सव होगा, न
परमात्मा की कोई झलक मिलेगी।
हठ मनुष्य को आग्रहपूर्ण बनाता है। और सब तरह के आग्रह खतरनाक हैं। न
तो बाहर का आग्रह करना, न भीतर का। आग्रह ही मत करना। निराग्रही होना धार्मिक
होना है। मैं तो सत्याग्रही होने को भी नहीं कहता। क्योंकि सत्य का भी आग्रह जहां
आया, वहां सत्य असत्य हो जाता है। आग्रह जहर है। वह सत्य को
भी जहरीला कर देता है। सत्याग्रही भी मत होना। आग्रह ही मत रखना। निराग्रही होना।
कोई आग्रह नहीं होना चाहिए जीवन में। एक तरलता, ए सरलता,
एक बहाव, एक लोच। जब जरूरत हो, भीतर, जब जरूरत हो, बाहर।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं: जब समय मिल जाए आंख बंद करो, भीतर डुबकी मारो, भीतर के मोती चुगो। और जब जरूरत
पड़े तो बाहर के जगत में श्रम करो। बाहर का जगत भी तुम्हारा है। वह भी परमात्मा की
देन है। बाहर के चांद-सूरज भी तुम्हारे हैं। मगर भीतर के भी चांद-सूरज हैं। बाहर
भी एक आकाश है और भीतर भी एक आकाश है।
पश्चिम के बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुंग ने मनुष्य का दो
कोटियों में बांटा है: अंतर्मुखी और बहिर्मुखी सच है। मैं मानता हूं कि पुराने
मनुष्य के संबंध में उनका यह विभाजन बिलकुल सच है लेकिन भविष्य के मनुष्य के संबंध
में उनका यह विभाजन झूठ हो जाने वाला है। हो जाना चाहिए। इसे झूठ करने के लिए ही मेरा
सारा प्रयास है। कार्ल गुस्ताव जुंग को झूठ करना ही है। एक ऐसा आदमी चाहिए, जिसको कोटियों में न बांटा जा सके। जो बाजार में हो और ध्यानी हो। जो
ध्यानी हो और भीड़ में हो। जो भीड़ में भी अकेला होने में समर्थ हो। जो बाजार में भी
बैठ कर आंख बंद कर ले तो हिमालय के द्वार खुल जाएं।
तुम पूछ रहे हो, अब्दुल कदीर, अब बताइए क्या करें? तुमने अपेक्षा ही गलत की थी।
तुम्हारी आकांक्षा ही गलत थी। तुम सोचते थे बाहर के चांदत्तारे, बाहर का सूरज तुम्हारे भीतर की रोशनी बन जाएगा! वह भ्रांत थी धारणा। अभी
तुमने कुछ किया ही नहीं। तुम तो इस तरह पूछ रहे हो कि जैसे तुम बहुत कर चुके,
अब क्या करें? तुमने कुछ किया नहीं। तुम एक
गलत धारणा में जिए। तुम्हारी आशा ही भ्रांत थी।
मुल्ला नसरुद्दीन एक बैंक में किसी काम से गया था। झुक कर उसने कुछ
उठाया और जोर से चिल्लाया कि किसी के सौ-सौ के नोट सुतली में बंधे हुए गिर तो नहीं
गये हैं? पांच-सात आदमी...भारत है यह तो!...पांच-सात आदमी एकदम
दौड़ पड़ और बोले, गिरे हैं, हमारे गिरे
हैं, सौ-सौ के नोट हैं, सुतली में बंधे
हैं। मुल्ला नसरुद्दीन बोला: शांति, शांति! अभी तो मुझे केवल
सुतली मिली है, अभी नोट नहीं मिले।
ये आशावादी आदमी को लक्षण हैं। सुतली क्या मिल गयी, एकदम क्या मिल गयी, एकदम सौ-सौ के नोट की कल्पना
करने लगा! और बेईमानों की तो यहां जमात है। पांच-सात दौड़ पड़े, एकाध भी नहीं!
एक आदमी के एक बस में नोट खो गये। पूरी की पूरी थैली खो गयी। उसने खड़े
हो कर घोषणा की कि मेरे दस हजार रुपये थे एक थैली में, वह खो गयी है। किसी को मिली हो, तो मैं उसे हजार
रुपये दूंगा और बड़ा अनुगृहीत होऊंगा। एक आदमी बस के पीछे से बोला कि मैं दो हजार
दूंगा।
यहां तो बड़ी बेईमानी है। जैसे नीलामी हो रही हो।
तुमने अभी कुछ किया तो है नहीं, जो तुम पूछ रहे हो:
अब क्या करूं? भारत के जितने अदभुत शास्त्र हैं, वे सब एक अपूर्व शब्द से शुरू होते हैं: "अथातो'। जैसे ब्रह्मसूत्र भारत का अदभुत शास्त्र है। नहीं इसकी कोई तुलना है
दुनिया में। ब्रह्मसूत्र शुरू होता है: "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' अब हम ब्रह्म की जिज्ञासा करें। ऐसा ही नारद का भक्तिसूत्र है। इतना ही
अपूर्व। जैसे ब्रह्म के संबंध में ब्रह्मसूत्र है, वैसा
भक्ति के संबंध में नारदसूत्र है। वह भी शुरू होता है: "अथातो भक्ति जिज्ञासा'
अब हम भक्ति की जिज्ञासा करें। "अब'। यह
"अब' अस बात की खबर देता है कि तुम बहुत कुछ कर चुके,
तुम और सब कर चुके, अब आओ असली बात करें। इसके
पहले तुम्हारे सारे जीवन, अनंत-अनंत जीवन गुजर चुके और जो भी
तुम कर सकते थे, तुम कर चुके हो। नहीं उससे तुमने कुछ पाया।
अब आओ ठीक दिशा में प्रयाण करें, प्रस्थान करें।
तुम भी मुझसे पूछ रहे हो, अब्दुल कदीर, अब बताइए क्या करें? अथातो? मगर
तुमने अभी कुछ किया नहीं। सुतली भी हाथ लगी, इसका भी संदेह हैं मुझे। तुम
सिर्फ आशा बांधे रहे। आशा यह थी कि मिल जाएगा। बाहर की रोशनी से भीतर का जगत रोशन
हो उठेगा-- और इसलिए हताशा लगी हाथ, निराशा लगी हाथ। कसूर
चांदत्तारों का नहीं हैं, कसूर तुम्हारी आशा का, अपेक्षा का है। गलत अपेक्षा! कोई तेल निकालना चाहे रेत से और फिर न निकले
तो कुछ रेत का कसूर है? खुद की ही भूल है। अब तक तुमने कुछ
भी नहीं किया है।
इस भ्रांत धारणा को तोड़ दो, छोड़ दो। भीतर दीया जल
रहा है। वही तो तुम्हारा जीवन है। तुम जीवित हो, इतना तो
पक्का है। जीवित हो तो ज्योति जल रही है--बिना ज्योति के कोई जीवित कैसे होगा?
जीवन ही तो ज्योति है।
तुम पूछ सकते हो प्रश्न तो
तुम्हारे भीतर उत्तर भी छिपा पड़ा है। इसी प्रश्न की गहराई में कहीं उत्तर दबा है।
इसी से और आगे उतरते चलोगे, थोड़ी खुदाई करोगे, तो उत्तर भी
मिल जाएगा।
ध्यान करो अब! उतरो अपने भीतर! मगर एक बात ख्याल रखना, बाहर से छूट मत जाना, टूट मत जाना। बाहर पैर मजबूती
से जमाए रखना। नहीं तो फिर अधूरे के अधूरे हो जाओगे। एक अधूरापन गया, दूसरा अधूरापन आ जाएगा। और मनुष्य का मन ऐसा है कि एक अति से दूसरी अति पर
बड़ी सरलता से चला जाता है। एक भ्रांति से दूसरी भ्रांति में उतर जाता है। पहले तो
लोग कहते हैं, संसार सत्य है; जगत सत्य,
ब्रह्म मिथ्या--यही नास्तिक की घोषणा है-- फिर तथाकथित आस्तिक कहते
हैं, ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। ये
दोनों अधूरे हज। न तो नास्तिक धार्मिक है न आस्तिक धार्मिक है। धर्म तो समग्रता का
नाम है। धार्मिक व्यक्ति तो कहेगा: जगत भी सत्य, ब्रह्म भी
सत्य। क्योंकि जगत ब्रह्म की ही परिधि है और ब्रह्म जगत का ही केंद्र है। जैसे
तुम्हारी देह भी सत्य है। तुम्हारी देह तुम्हारी आत्मा की ही अभिव्यक्ति है। और
तुम्हारी आत्मा तुम्हारी देह में ही विराजमान है। वह जो दीए में जल रही ज्योति है,
वह उतनी ही सत्य है जितना वह मिट्टी का दीया जिसमें ज्योति जली है।
जितनी ज्योति सत्य है, उतना ही दीया भी सत्य है और दोनों मिल
कर ही समग्र सत्य है।
इसलिए मैं बाहर के और भीतर के बीच काई व्यवधान खड़ा नहीं करना चाहता
हूं। मैं बाहर और भीतर के बीच कोई विरोध खड़ा नहीं करना चाहता हूं। बहुत हो चुका वह
विरोध। और आदमी ने बहुत गंवाया उस विरोध में। उस विरोध के कारण आदमी के भीतर एक
तरह की खंडित अवस्था हो गयी पैदा। यहां तथाकथित धार्मिक भी अधूरे रहे, अधार्मिक भी अधूरे रहे। अब चाहिए एक पूरा मनुष्य और पूरे मनुष्य की एक
संस्कृति, जिसमें आस्तिकता और नास्तिकता एक स्वर में लयबद्ध
हो जाएं; जिसमें आस्तिकता और नास्तिकता को संगीत संयुक्त हो
उठे। कुछ महिमा नास्तिकता की भी है, कुछ महिमा आस्तिकता की
भी है। और दोनों जब मिलें तो परम शिखर प्रगट होता है।
मेरी आस्तिकता नास्तिकता को आत्मसात करती है, इनकार नहीं करती। तुम भीतर उतरा और बाहर भी पैर मजबूती से जमाए रखना। बाहर
से हाथ हटा नहीं लेना है और भीतर पहुंचने की कला भी सीख लेनी है। इसलिए बाहर से
पीठ मत मोड़ना--भगोड़े मत बनना, पलायनवादी मत बनना। मैं नहीं
चाहता कि हिमालय भाग जाओ, गुफाओं में बैठ जाओ; मैं चाहता हूं--जहां हो, घर में हो, गृहस्थी में हो, परिवार में हो, वहीं। लेकिन घड़ी-दो घड़ी अपने लिए बचा लो। चौबीस घंटों में से बाईस घंटे दे
दो संसार को, पत्नी का, बच्चों को,
परिवार को, जगत को--जरूरत है वह! और यूं मत
देना कि शिकायत भरे दे रहे हो। आनंद से देना। परमात्मा ने अपने का जगत को कितना
दिया है!
उसके बिना जगत चल सकता है एक क्षण? वही तो श्वास है
हमारी। वही तो गंध है फूलों की। वही तो रंग है। वही तो सारा विस्तार है। उसके बिना
तो सब सिकुड़ जाएगा, सब मर जाएगा। अभी पतझड़ हो जाएगा। उसी से
तो बसंत है, मधुमास है। उसी से तो जीवन कितने-कितने रंगों और
कितने-कितने ढंगों में अभिव्यक्त होता है! कितनी बहुविध अभिव्यंजना है! और सारी
अभिव्यजना के बीच कैसा तारतम्य है, कैसी लयबद्धता है,
कैसा समस्वर गूंज रहा है!
वैसी ही समस्वरता तुम्हारे जीवन में भी होनी चाहिए। बाईस घंटे सारे
जगत को दे दो, दो घंटे अपने लिए बचा लो! उन दो घंटों में जगत को भूल
जाओ, अपने में डूब जाओ। फिर-फिर लौट आओ। जैसे पानी में कोई
डुबकी मारता है। डुबकी मारी, फिर निकल आता है।
तीन बच्चे स्कूल में बात कर रहे थे। बचपन से ही यह रोग सवार हो जाता
है--दंभ का घमंड का। बचपन से ही बच्चे अपने-अपने गौरव-गरिमा में मंडित होने लगते
हैं। एक बच्चा कह रहा था, मेरे पिताजी डुबकी मारते हज, पांच-पांच
मिनिट पानी में डूबे रहते हैं। दूसरे बच्चे ने कहा, यह कुछ
भी नहीं, मेरे पिता डुबकी मारते हैं तो आधा-आधा घंटा। तीसरे
बच्चे ने कहा, यह कुछ भी नहीं मेरे पीता ने डुबकी मारी,
आज सात साल हो गये, निकले ही नहीं।
ऐसी डुबकी मारने को मैं नहीं कह रहा हूं कि फिर निकलना ही मत! डुबकी
भी मारो, निकलो भी! खूब निकलो, खूब डुबकी
मारो! और इन दोनों के बीच कोई विरोध न रह जाए। एक पैर भीतर, एक
पैर बाहर। एक पैर समय में, एक पैर शाश्वत में। एक पैर पदार्थ
पर, एक पैर परमात्मा में।
और ये दो नावें नहीं हैं। ये एक ही नाव के दो ढंग हैं। ये एक ही नाव
के दो पहलू हैं, दो कक्ष हैं। ये दो घोड़े नहीं हैं, यह एक ही घोड़ा है। दोरंगा है। एक तरफ से देखो तो काला है, एक तरफ से देखो तो सफेद है।
अमरीका में एक आदमी हुआ, राबर्ट रिप्ले। उसे
उल्टे-सीधे काम करने की आदत थी। उसे उल्टी-सीधी चीजों में रुचि भी बहुत थी। उसने
दुनिया का सबसे बड़ा संग्रह इकट्ठा कर रखा था अजीब-अजीब चीजों का, अजीब चीजों में उसे ऐसा रस था। उसने अपने संग्रह के बाबत किताबें लिखी
हैं--मानो या न मानो उन किताबों का नाम है; "बिलीव इट
आर नाट'। और उसने जो भी संग्रह किया है, वह कोई भी ऐसी चीज नहीं है जो एकदम से तुम मान लो। जैसे, उसके पास एक मछली है, जो उल्टी तैरती है। वह सारी
दुनिया में अकेली मछली है। उसने उसके लिए बहुत पैसा खर्च किया पाने के लिए उससे
जिसके पास थी। उसके पास एक बाल है जिस पर एक प्रेम-पत्र लिखा हुआ है। वह आदमी का
बाल है। तुमने चावल तो देखे होंगे शायद कभी जिन पर लोग प्रेम-पत्र लिखते हैं,
या राम-राम, राम-राम, लिख
देते हैं, मगर आदमी का बाल, उस पर पूरा
प्रेम-पत्र! उसके पास सबसे पुरानी आदमी की खाल है, सात हजार
वर्ष पुरानी, जिस पर एक वक्तव्य छपा हुआ है। उसके पास एक
आदमी की खोपड़ी है, उसको कैसे ही फेंको, कुछ भी करो, वह हमेशा सीधी हो जाती है।
कब मरा यह आदमी?
हो गये होंगे दस-पंद्रह हजार साल, वैज्ञानिक कहते हैं,
कम-से-कम पंद्रह हजार साल पुरानी खोपड़ी है, मगर
गजब का आदमी है, अभी तक अपनी जिद पर अड़ा है। इसका कहते हैं
कि रस्सी जल गयी, एंठ नहीं गयी। क्या गजब का आदमी है! खोपड़ी
अभी भी तुम उल्टी नहीं कर सकते! कुछ भी करो, कैसे ही फेंको,
इधर, उधर, वह जल्दी से
सीधा हो जाता है। उसकी खोपड़ी नीचे की तरफ बजनी है। जिंदगी में बड़ी मुश्किल रही
होगी उस आदमी को। सिर उसका लटका ही रहता होगा। या एक नौकर-चाकर सम्हल कर रखता होगा
उसका सिर।
कभी-कभी कुछ बच्चे होते हैं,छुटपन में, जिनकी खोपड़ी बड़ी होती है। और शरीर छोटा होता है, तो
उनका सिर ऐसा डोलता रहता है। या नीचे लटका रहता है। एक तरफ झूला खाता रहता है। इस
आदमी की खोपड़ी आखिर तक ऐसी रही होगी कि उसकी नीचे की तरफ तो खोपड़ी बड़ी है और वजनी
है और ऊपर की तरफ खोपड़ी हलकी है। कुछ भी करो, कैसे ही फेंको,
खोपड़ी सदा सीधी हो जाती है। घबड़ाने वाली खोपड़ी है। थोड़ा डर भी लगे
एकांत में, अंधेरे में अगर करो यह काम, कि वह खोपड़ी सीधी हो कर बैठ जाए और तुम उसको उल्टा करो, वह सीधी हो जाए। तो लगे भी कि कोई भूत-प्रेत तो नहीं बैठा इसके भीतर?
अब तक कोई आदमी इसका पीछा तो नहीं कर रहा?
उसने अपनी कार को दो रंगों में रंग छोड़ा था, रिप्ले ने, आधा काला, आधा
सफेद। एक तरफ से काली और एक तरफ से सफेद। एक तरह बिलकुल काली कर रखी थी उसने और एक
तरफ बिलकुल सफेद। बीच से कार को दो हिस्सों में रंग छोड़ा था। उसके गाड़ी चलाने का
ढंग भी बेहूदा थी। अक्सर दुर्घटनाएं कर बैठता था। मगर बड़ा मजा आता था मुकदमों में,
क्योंकि गवाह उल्टी गवाहियां देते थे। इस तरफ से जिसने देखी थी,
वे कहते थे काली कार थी; उस तरफ से जिसने देखी
थी, वे कहते थे सफेद कार थी। और वह खड़े हो कर हंसता थर। वह
कहता, पहले ये लोग तय तो कर लें कि कार कैसी थी! यह तो बाद
में पता चला कि इसने कार को दो रंगों में रंग छोड़ा है। आधी सफेद है, आधी काली है। और जब गवाह ही उल्टे-सीधे जवाब दे रहे हों तो मामला रद्द उसी
वक्त हो जाए। कोई गवाह ही राजी नहीं है। गाड़ी के रंग पर भी राजी नहीं है। इतनी बड़ी
गाड़ी--उसकी बड़ी गाड़ी थी।
परमात्मा आधा बाहर, आधा भीतर। तुम्हें भी उसी के ढंग
से होना होगा। जीवन को यूं जीओ। जीवन एक कला है।
यह आसान है--संसारी होना, और यह भी आसान
है--पुराने ढंग के संन्यासी होना। ये दोनों आसान बातें हैं। पुराना संन्यासी भगोड़ा
होता है। नये ढंग का संन्यासी, मेरा संन्यासी भगोड़ा नहीं है।
न वह संसारी है, न संन्यासी है। या, यूं
कहो कि वह दोनों है, साथ-साथ है--संन्यासी है और संसारी है।
वह योगी है और भोगी है। एक साथ है। उसे भ्रष्ट करने का उपाय नहीं। उसे डिगाने का
उपाय नहीं। कहां डिगाओगे? उसे ललचाने का उपाय नहीं। कैसे
ललचाओगे? उसने दोनों जीवन के पहलुओं पर पैर जमा रखे हैं।
यही तुमसे कहूंगा, अब्दुल कदीर! संन्यास की यह नयी
परिभाषा सीखो! धर्म का यह नया रूप समझो! जीवन को समग्रता से जीने की इस कला में
प्रवेश करो! और जरूर तुम्हारी सांझ भी सुबह हो जाएगी; तुम्हारी
रात भी दिन में बदल जाएगी। संध्या को प्रभात बना देना कठिन नहीं है, सरल है। इतना ही सरल है जैसे चाबी जरा घुमाई कि ताले खुल जाते हैं। लेकिन
अब कोई तालों के ऐसी ही खटखटाता रहे और हथौड़ियों से ठोंकता रहे, तो और मुश्किल हो जाती है! फिर चाहे चाबी भी मिल जाए तो खोलना मुश्किल हो
जाता है। चाबी तो सरलता से खोल देती है। ऐसी खटखटाने से, पत्थर
मारने से, हथौड़े ठोंकने से ताले नहीं खुलते। और शायद खोलना
मुश्किल हो जाए।
मैं तो जीवन को बहुत सरल पाता हूं, बहुत सुगम पाता हूं,
इसमें जटिलता जरा भी नहीं है। जटिलता है तो हमारी दृष्टि में है।
जरा-सी दृष्टि बदलती है कि सृष्टि बदल जाती है।
दूसरा प्रश्न: भगवान, आप ज्ञान के सागर दिखते हैं। किंतु आपने तत्वज्ञान या शिक्षा में भक्ति का
संपूर्ण दिखाई देता है। अध्यात्म में भक्ति बिना ज्ञान मनुष्य का अहंभाव ही
प्रदर्शित करता है। अहंभावी व्यक्ति महान गुरु हो, यह असंभव
है।
प्रेम नारायण, मैं
और ज्ञान का सागर! तुमसे कुछ गलती हो गयी। ज्ञान के सागर तो आज हैं!! आपने प्रश्न
थोड़े ही पूछा है, उत्तर दिया है। मैं तो अज्ञानी हूं, महा अज्ञानी, जिसको कुछ भी पता नहीं। आप जैसा ज्ञानी
यहां कैसे आ गया? बड़े भाग्य जो आप पधारे, और बोध दिया और सोते को जगाया, नहीं तो हम तो सोते
ही रह जाते! गजब की बात लिखी है! लिखा--आप ज्ञान के सागर दिखते हैं। दिखता ही
होऊंगा; हूं नहीं। बूंद भी नहीं हूं, तुम
सागर की बातें कर रहे हो! यहां बूंद भी नहीं बची, तुम सागर
की बातें कर रहे हो!
तुम्हें सब पता है! तुमने यह प्रश्न ही क्यों पूछा! तुम पैसे
बुद्धपुरुष प्रश्न पूछते नहीं फिरते। यह तो करुणावश ही आज आ गये होंगे। कह रहे हो
कि आपके तत्वज्ञानी में या शिक्षा में...। किसने कब कहा कि मेरा कोई तत्वज्ञान है? मैंने कभी कहा? मैं तो तत्वज्ञान की बात ही नहीं
करता। अज्ञानी करे भी तत्वज्ञान की बात तो कैसे करेगा? मैं
तो सीधी-सीधी बातें करता हूं। दो और दो चार, ऐसी बातें।
इनमें कहां तत्वज्ञान? तुम अपनी ही कल्पना को थोप कर परेशान
हो रहे हो। मैं कहूं कि तत्वज्ञानी हूं, तो फिर तुम्हारे
प्रश्न की सार्थकता है। मैं तो नहीं तत्वज्ञानी अपने को कहता, अज्ञानी कहता हूं। सुकरात के जीवन में ऐसा उल्लेख है कि जब वृद्ध हो गया
सुकरात तो उसने कहा कि मुझे तो सिर्फ एक ही बात पता है कि मुझे कुछ भी पता नहीं।
जिस दिन उसने यह बात कही कि मुझे तो बस इतना ही ज्ञान है कि मुझे कुछ ज्ञान नहीं,
उस दिन यूनान में देल्फी का प्रसिद्ध मंदिर था, उस मंदिर के देवता ने घोषणा की कि सुकरात महाज्ञानी हो गया। कुछ लोग इस
घोषणा को सुन कर सुकरात को कहने आए। उन्होंने कहा कि तुमने सुना सुकरात? नाचो! उत्सव मनाओ! भोज दो मित्रों को, डुंडी पीट दो
सादे एथेंस में कि देल्फी के परमदेव ने घोषणा कर दी है कि तुम महाज्ञानी हो!
सुकरात ने कहा, कुछ फूल हो गयी होगी देवता से। और क्यों न हो?
आदमी से भूल हो सकती है तो देवता से भी हो सकती है। कुछ भूल हो गयी
होगी, कुछ चूक हो गयी होगी। मैं और परमज्ञानी? मैं कहा अज्ञानी हूं। तुम जाओ और देवता को कह दो कि सुकरात इनकार करता है।
वे लोग तो बहुत चौंके।
वे वापिस देल्फी के मंदिर गये और उन्होंने देवता से कहा,...यह देल्फी का मंदिर बड़ा प्रसिद्ध मंदिर था यूनान का और इसमें देवता की एक
प्रतिमा थी जो खोखली थी और जिसके भीतर पुजारी खोखली प्रतिमा में खड़ा हो जाता था।
लेकिन यह समझा जाता था कि जब उस खोखली प्रतिमा में पुजारी खड़ा होता है तो वह
आविष्ट हो जाता है, वह स्वयं के भान को खो देता है और पैसे
जगत का प्राण उससे बोलने लगता है। जरूर बोलने लगता होगा। इस घटना से तो कम-से-कम
सिद्ध होता है। क्योंकि जब ये लोग वापिस पहुंचे और उन्होंने कहा कि हे परमदेव! आप
कहते हैं सुकरात महाज्ञानी है, हम उससे पूछने गये थे। उसने
हमसे कहा कि कह दो देवता से कि कुछ फूल हो गयी होगी, अपने
शब्द वापिस ले ले। सुकरात स्वयं तो कहता है--मैं परम अज्ञानी हूं। अब आप क्या कहते
हैं? और देल्फी ने घोषणा की--इसीलिए तो मैंने कहा कि वह
परमज्ञानी है।
तत्वज्ञानी थोड़े ही तत्वज्ञानी होते हैं। तत्वज्ञानी तो शब्दज्ञानी
होते हैं, शास्त्रज्ञानी होते हैं। जिनका तत्व का सच में ही पता
चला है, वे तत्वज्ञानी नहीं होते, वे
तो तत्व के साथ एकाकार हो जाते हैं। फिर कहां ज्ञान? ज्ञाता,
ज्ञान और ज्ञेय का भेद कहां? सारे भेद गिर
जाते हैं।
मेरा कोई तत्वज्ञान नहीं है, कोई मेटाफिजिक्स नहीं
है, कोई फिलासफी नहीं है, कोई
दर्शनशास्त्र नहीं है। मैं कोई यहां दर्शन थोड़े ही पढ़ा रहा हूं लोगों को! मैं कोई
शिक्षक थोड़े ही हूं! मैं तो सिखा नहीं रहा हूं, सहायता कर
रहा हूं कि जिस तरह मैं भूल गया हूं, तुम भी भूल जाओ।
रमण महर्षि को एक जर्मन दार्शनिक ने आकर कहा,...बहुत प्रसिद्ध दार्शनिक थी जर्मनी का; काउंट
केसरलिंग। और यह बिलकुल संयोग की ही बात है कि काउंट केसरलिंग का भतीजा यहां मौजूद
है और हमारा संन्यासी है।...काउंट केसरलिंग ने रमण महर्षि को कहा कि मैं दूर
जर्मनी से आया हूं, आपके चरणों में बैठ कर कुछ सीखने। महर्षि
रमण यूं बोलते नहीं थे ज्यादा, उस दिन इतना बोले कि फिर
तुमने गलत जगह चुन ली। फिर तुम कहीं और जाओ। सीसखना हो तो कहीं और जाओ। यहां मेरे
पास बैठे तो खतरा है। केसरलिंग ने पूछा, क्या खतरा है?
रमण ने कहा कि यहां तो हम सिखाते नहीं, भुलाते
हैं। यहां तो तुम जो सीखे हो, वह भुलाएंगे हम। भूलना हो तो
यहां रुको। सीखना हो तो फिर बहुत विश्वविद्यालय पड़े हैं। फिर बहुत से आचार्य हैं;
जगदगुरु हैं; तत्वज्ञानी हैं, अध्यात्मवादी हैं; फिर वहां जाओ।
काउंट केसरलिंग क्षण भर को तो सकते में आ गया। उसने सोचा भी नहीं था।
लेकिन वह कोई भारतीय नहीं थी। नहीं तो सोचता, अरे, मैं भी कहां अज्ञानी के पास आ गया! यूं तो ज्ञानी दिखता है, ज्ञान का सागर दिखता है, और निकला अज्ञानी! लौट गया
होता। भारतीय पंडित होता--जैसे प्रेम नारायण यहां आ गये हैं, अगर इस कोटि का व्यक्ति होता तो लौट गया होता। वही टिक गया। उसने कहा कि
चाहे सिखाओ, चाहे भुलाओ, तुम्हारी आंख
मैंने पहचान ली। तुम्हारी गंध मुझे आ गयी। अब यहां से हटूंगा नहीं। चाहे मिटाओ तो
मिटा दो! और काउंट केसरलिंग मिट कर ही लौटा। काउंट केसरलिंग जाग कर ही लौटा।...जान
कर नहीं; जानना तो बचकानी बातें हैं। जानने में तो भेद रह ही
जाता है। जिसे तुम जानते हो, वह अन्य होता है, तुम अन्य होते हो-- जानने वाले होते हो। जागना!
यह कोई तत्वज्ञान नहीं है जो मैं यहां सिखा रहा हूं। न तो यह
तत्वज्ञान है और न मैं सिखा रहा हूं। यह तो जागरण की प्रक्रिया है।
मगर तुम्हारी अपनी दृष्टि होगी। तुमने सुना होगा पुरी के शंकराचार्य
को, आचार्य तुलसी को; तुमने सुना होगा स्वामी अखंडानंद
को; तुमने सुने होंगे सामकिंकर महराज;तुम
तथाकथित ज्ञानियों से भरे हुए आ गये हो। उसी भ्रांति में तुम मुझे देख रहे हो। तुम
उसी कोटि में मुझे रखना चाहते हो कहीं। मैं उस कोटि में कहीं नहीं आता। अच्छा हो
तुम समझ लो कि मैं अज्ञानी हूं।
मगर लोग तो अपनी-अपनी नजर से देखते हैं।
चंदूलाल खड़े थे तीस मंजिल ऊपर बंबई के एक मकान में। नीचे झांक कर देखा, लगा कि एक रुपया चमकता हुआ पड़ा है। उतरे। लिफ्ट बंद, बिजली कट, सो सीढ़ियों से उतरना पड़ा। हांफ गये दस
मंजिल उतरते-उतरते। बीसवीं मंजिल से फिर गौर से देखा, एक दफा
गौर से तो देख लूं कि है भी रुपया कि कोई उठा ले गया इस बीच? बड़े हैरान हुए। रुपया तो नहीं, ऐसा मालूम पड़ता है कि
चांदी का कोई और बड़ा सिक्का। मगर रुपये से बड़ा सिक्का क्या होगा? लगता है चांदी का कोई गहना पड़ा हुआ है। और तेजी से भागे, भूल गये हांफना। जब दस ही मंजिल रह गये, तो प्राण
बिलकुल आए रहे जाए रहे हालत में थे--आयाराम गयाराम की अवस्था थी--एक दफा और देख
लें, काई उठा तो नहीं ले गया, नहीं तो
बेकार इतनी मेहनत हो रही है! और चकित हुए, और भी बड़ा दिखाई
पड़ा चांदी का चकता। ऐसा लगा कि काई चांदी का पाट ही पड़ा है। एकदम भागे। फिर
उन्होंने सोचा कि अब जीवन रहे कि जाए! नीचे जा कर देखा तो बड़े हैरान हुए। वहां कुछ
भी न था। एक भिखमंगे की थाली थी। वह उसे नल पर धो-धा कर, पोंछ-पांछ
कर रख कर सुखा रहा था। वहीं पास में ही बैठा था झाड़ के नीचे। सिर पीट लिया अपना।
लोग अपनी-अपनी धारणाओं से देखते हैं। कुछ लोग हैं जिनको रुपये ही
रुपये नजर आते हैं--जहां देखते हैं वहीं रुपये नजर आते हैं।
दो ईसाई फकीर एक रास्ते से गुजर रहे थे। दूर पहाड़ी पर बने चर्च की
संध्या के घंटियां बजने लगी। एक फकीर ने दूसरे से कहा, सुनते हो ये प्यारी घंटियां! उसने कहा क्या? कहा,
सुनते हो, ये प्यारी घंटियां! हृदय को
गुदगुदाती हैं, गदगद करती हैं। और उस दूसरे ने कहा कि यह
घड़ियाल बंद हो, यह चर्च का घंटा बंद हो तो मैं सुनूं कि तुम
क्या कह रहे हो।
अब तो कुछ कहने को बचा ही नहीं! पहले आदमी ने सोचा, अब क्या कहना! वह प्रशंसा कर रहा था चर्च की सुमधुर घंटियों की और यह कह
रहा है--यह मूरख घंटा! एकदम घंटियों को घंटा कर दिया उसने। कहां प्यारी-प्यारी
घंटियां थी, स्त्रैण, और एकदम घंटा कर
दिया। उसने कहा, नहीं-नहीं, जाने दो।
फिर भी उसने कहा, तुम क्या कह रहे थे? उसने
कहा, तम क्या कह रहे थे? उसने कहा कि
अब कहने का कुछ सार नहीं। मैं उन्हीं घंटियों के संबंध में कह रहा था:सुमधुर!
दूसरे ने कहा, हद हो गयी, तुम्हें क्या
खाक उसमें सुमधुर सुनाई पड़ा! पहले तो इतने दूर चर्च है और यहां बाजार का इतना
शोरगुल और इसमें तुम्हें उसकी सुमधुर घंटियां सुनाई पड़ी, बड़ा
संगीत सुनाई पड़ा!
उस पहले फकीर ने तत्क्षण एक रुपया अपने खीसे से निकाला और जोर से सड़क
पर पटका, खन्न से आवाज हुई, कोई सौ आदमी
एकदम दौड़ पड़े बाजार में, एकदम भीड़ लग गयी कि मेरा रुपया गिर
गया, मेरा रुपया गिर गया! उस पहले फकीर ने कहा, देखा? बाजार में इतना शोरगुल मचा है, सांझ का वक्त है, लोग अपनी दूकानें उठा रहे हैं,
फड़ाफड़ दरवाजे बंद हो रहे हैं, बैलगाड़ियां निकल
रही हैं, ट्रक पर सामान लादा जा रहा है, हम्माल चिल्ला रहे हैं, जल्दी है, सांझ हुई जा रही है, सबका अपने घर लौटना है, मगर एक रुपये का गिरना और सौ आदमियों ने सुन लिया!
रुपये पर जिसकी नजर लगी हो, वह हजार शोरगुल मचा
हो, रुपये की खन्न की आवाज उसे सुनाई पड़ जाएगी। हम वही सुन
लेते हैं जो हमारी धारणा में बसा होता है।
तुम्हारा रस होगा तत्वज्ञान में, तो तुमने तत्वज्ञान
मुझ पर आरोपित कर दिया। मेरा कोई कसूर नहीं, मेरा कुछ हाथ
नहीं। तुम्हारा रस होगा ज्ञान में। मुझे दोषी न ठहराओ! ज्ञान वगैरह में मेरी कोई
उत्सुकता नहीं। मेरी तो उत्सुकता है, तुम्हारे ज्ञान को कैसे
पोंछ डालूं! तुम ज्ञान से भरे हो, ज्ञान कचरा है। तुम्हारी
खोपड़ी मग सिवाय कचरे के कुछ भी नहीं है। भले तुमने चाहे शास्त्र कंठस्थ कर लिये
हों। सो तो तोते भी कर लेते हैं, इससे ज्ञानी नहीं हो जाते,
तत्वज्ञानी नहीं हो जाते।
जब तुम्हारे चित्त में सारे विचार समाप्त हो जाते हैं, तब तुम्हारे भीतर बोध का जन्म होता है, बुद्धत्व का
जन्म होता है। लेकिन तुम अपनी धारणाएं बीच में लिए बैठे हो। उनका पर्दा बनाए बैठे
हो। तो तुमने सुन लिया होगा तत्वज्ञान।
और शिक्षा? यहां कौन शिक्षा दे रहा है? मैं
कोई शिक्षक हूं? और कभी शिक्षा देता भी हूं तो मराठी भाषा के
अर्थों में। अच्छी शिक्षा देता हूं। मराठी भाषा में शिक्षा बड़ा महत्वपूर्ण अर्थ रखती
है--कि क्या शिक्षा दी! यहां मराठी में शिक्षा का अर्थ होता है।
कुटाई-पिटाई।...महाराष्ट्र में तो कुछ खूबियां हैं ही! शिक्षा का भी क्या गजब का
अर्थ! एक तो महाराष्ट्र ही गजब की जगह है! एक तो राष्ट्र में महाराष्ट्र, यही गजब का मामला है! यह दुनिया में कहीं नहीं हो सकता। तुमने बड़े-बड़े
जादूगर देखे होंगे, डिब्बे में से डिब्बा निकालते हैं,
मगमेंछोटे डिब्बे में से बड़ा डिब्बा कोई निकाल दे, ये जादूगर तुमने भी नहीं देखा होगा! ऐसे तो राष्ट्र ही बीमारी है, और महाराष्ट्र, यह तो फिर महाबीमारी है! और राष्ट्र
के भीतर महाराष्ट्र! यह चमत्कार सिर्फ भारत में हो सकता है और कहीं नहीं हो सकता।
यह भारत तो जादूगरों का देश है। यहां तो सत्य साईं बाबा जगह-जगह भरे पड़े हैं। क्या
धूल वगैरह निकाल रहे हो, राख वगैरह निकाल रहे हो, अरे, राष्ट्रों में महाराष्ट्र निकल रहे हज! लेकिन
महाराष्ट्र में कुछ खूबियां हैं! कम-से-कम शिक्षा का तो ठीक-ठीक अर्थ महाराष्ट्र
में है। भारत में और किसी को इसका ठीक-ठीक अर्थ मालूम नहीं।...तो शिक्षा अगर देता
भी हूं कभी, तो महाराष्ट्र के अर्थ में देता हूं। जब तक
महाराष्ट्र में हूं तो कुछ तो महाराष्ट्र से सीख लेनी चाहिए। इतनी ही सीख पाया हूं
मराठी और कुछ ज्यादा आती नहीं। मगर इतने से काम चल जाता है।
कैसी शिक्षा?
और तुम कहते हो, भक्ति का संपूर्ण अभाव दिखाई
देता है। आंखें हैं तुम्हारे पास? कि चश्मा लगाए हुए हो?
और कई लोग तो चश्मा भी क्या लगाए हुए हैं। यहां भक्ति के सिवा और क्या
है? मगर तुम्हारी धारणा की भक्ति शायद न हो। यहां तुम्हारी
धारणा का कुछ भी नहीं हो सकता। यहां तो तुम धारणाएं अगर दरवाजे पर रख आओ, तो ही तुम्हें कुछ दिखाई पड़ सकता है। नहीं तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा।
यहां भक्ति ही भक्ति है। लेकिन यहां भक्ति की अपनी अलग ही भंगिमा है। यहां
तुम्हारी भक्ति नहीं है। न मैं जानूं अर्चन वंदन, न पूजा की
रीत। वैसी भक्ति तुम्हें यहां नहीं मिलेगी। कोई थालियां नहीं उतारी जा रही है,
आरती नहीं उतारी जा रही, जय गणेश-जय गणेश नहीं
हो रहा, हनुमान जी के सामने बैठे हुए हनुमान चालीसा नहीं पढ़ा
जा रहा; ऐसी भक्ति-भावना यहां तुम्हें नहीं दिखाई पड़ेगी।
यह तो अच्छा हो कि चार्ल्स डार्विन विकासवाद का सिद्धांत लिखने के
पहले भारत नहीं आया। नहीं तो हनुमान जी की मूर्तियों को देख लिया होता उसने और
भक्ति-भावना देख ली होती तो अपने विकासवाद के सिद्धांत में एक आधार इसको निश्चित
बनाया होता कि आदमी बंदर से ही पैदा हुआ है, इसका सबसे बड़ा सबूत
है हनुमान जी की पूजा और भक्ति-भावना। निश्चित उसने यह निष्कर्ष निकाला होता कि
हनुमान जी की पूजा किसी बहुत प्राचीन समय में हुए आदिम उस महापुरुष की पूजा है,
उस पहले बंदर की, जो उतरा वृक्षों से और चार
हाथ-पैर से चलना छोड़ कर जो दो पैर के बल खड़ा हुआ। उस परमपिता कि, परम पितामह की पूजा का सबूत इसको वह मानता। नहीं तो आदमी और बंदर की पूजा
करें!
यहां तुम्हें कुछ मूर्तियां नहीं दिखाई पड़ेंगी जिनके सामने लोग बैठें
हैं, पूजा कर रहे, पाठ कर रहे,
घंटियां बजा रहे, फूल चढ़ा रहे, धूप-दीप जलाए हुए हैं, तो लगेगा तुम्हें स्वाभाविक
कि यहां तो कोई भक्ति-भाव हो ही नहीं रहा है। तुम्हारी धारणा की भक्ति यहां नहीं
तुम पाओगे। लेकिन यहां भक्ति की एक अपनी अनिर्वचनीय गंगा बह रही है। यहां भक्त ही
इकट्ठे हैं। लेकिन इस भक्ति का आधार और, इस भक्ति की रसधार
और, यह भक्ति किसी विश्वास पर खड़ी नहीं है। जो भक्ति विश्वास
पर खड़ी होती है, झूठी होती है, नपुंसक
होती है। क्योंकि विश्वास का अर्थ ही होता है--तुम्हें जिसका पता नहीं है, उसको माने बैठे हो।
तुम जब आरती उतार रहे हो किसी मूर्ति की, तुम्हें पता है तुम क्या कर रहे हो? तुम्हें बोध है
अपने कृत्य का? तुम्हारे भीतर कोई प्रमाण है ईश्वर के होने
का? तुमने जाना है, पहचाना है ईश्वर को?
कोई अनुभूति है? अगर अनुभूति है तो अब यह क्या
भाड़ झोंक रहे हो? और अगर अनुभूति नहीं है तो फिर क्या भाड़ झोंक
रहे हो? और इसका तुम भक्ति कह रहे हो! दो ही हालत में हो
सकता है। या तो तुम्हें अनुभव है। अनुभव है तो इसकी कोई जरूरत नहीं रह गयी। और अगर
अनुभव नहीं है, तो तुम्हारी भक्ति झूठी है, थोथी है, ऊपर-ऊपर थोपी है।
मैं भक्ति और प्रार्थना पर बल नहीं दे रहा हूं। निश्चित ही। उसके कारण
हैं। क्योंकि उस तरह का बल लोगों में सिर्फ पाखंड फैलाता है। सारी पृथ्वी
पाखंडियों से भरी है। कौन जिम्मेवार है? छोटे-छोटे बच्चों को
तुम भक्ति सिखा रहे हो!
मैं छोटा था तो मुझे भी मंदिर में ले जाया जाता था। मुझे भी मेरे पिता
कहते कि झुके। मैं उनसे कहता कि मैं झुकूं क्यों? मुझे दिखाई पड़ता नहीं
यहां। कि माना कि ये बैठे हैं पत्थर के सुंदर भगवान, लेकिन
क्यों झुकूं? इनको तो मैं खुद झुका सकता हूं। तो वे कहते,
इस तरह की बात नहीं करते। और जब मंदिर में कोई में कोई भी नहीं होता,
तो मैं भगवान को झुका कर देख आता; कि यह कुछ
नहीं है मामला, झुक जाते हैं! इधर से धक्का देता, उधर से धक्का देता, देख लेता, इने
कुछ बनता नहीं, कुछ करते नहीं। यह भी नहीं करते कि चीख-पुकार
मचा दें कि अरे, बचाओ! कि धर्म संकट में है! कुछ नहीं करते
कि चीख-पुकार मचा दें कि अरे, बचाओ! कि धर्म संकट में है!
कुछ नहीं कर पाते। चपत लगा आता उनको! और जब देखता वे कुछ नहीं कर रहे, तो अब इनके सामने क्या झुकना है? क्यों झुकना है?
क्या प्रयोजन?
शास्त्रों के सामने झुको! मैंने अपने पिता का कहा भी कि आपको मालूम
नहीं है कि मैं अकेले में आकर इन शास्त्रों की कुटाई-पिटाई कर जाता हूं। अरे, बोले, इस तरह का तो कभी करना ही नहीं!! तुम मंदिर
आया ही मत करो! तुम्हें आने की कोई जरूरत नहीं। और मैं पुजारी को बता दूंगा कि कभी
एकांत में तुम्हें घुसने न दे। मैंने कहा, पुजारी भी इधर-उधर
जाता है। कोई पुजारी यहां बैठा रहता है! वह भी तभी आता है जब सुबह भक्तगण आते हैं।
क्योंकि उसको भी दूसरे काम हैं। और इन किताबों में झुकने का क्या सवाल है। समझने
का सवाल है। पत्थर की मूर्ति सुंदर है, प्रशंसा के योग्य है,
जिसने बनायी उसकी कला का मैं गौरव कर सकता हूं, गुणगान कर सकता हूं लेकिन और तो मुझे कुछ दिखाई पड़ता नहीं।
जबरदस्ती झुका दोगे छोटे-छोटे बच्चों को,फिर
ये जिंदगी भर झुकते रहेंगे। और सोचेंगे, इनका झुकना भक्ति है,
पूजा है, अर्चना है। और वही झूठ जो प्रथम दिन
इनको जबरदस्ती झुका दिया था, अब भी इनका पीछा कर रहा है।
यहां मैं किसी को जबरदस्ती झुकाना नहीं चाहता। किसी भी चीज के सामने
नहीं झुकाना चाहता। क्यों, जरूरत ही नहीं है किसी का जबरदस्ती झुकाना नहीं
चाहता। किसी भी चीज के सामने नहीं झुकाना चाहता। क्यों, जरूरत
ही नहीं है किसी का जबरदस्ती झुकाने की। अनुभूति के बाद एक अहोभाव पैदा होना शुरू
होता है। वह अहोभाव भक्ति है। एक अनुग्रह शुरू होता है। एक अनुग्रहीतता की भावना
पैदा होती है। वह भक्ति है। वह कोई प्रगट भक्ति नहीं है। कोई शोरगुल नहीं मचाए
फिरता आदमी, कि जय गणेश-जय गणेश चिल्लाता फिरे, लेकिन भीतर एक मधुर नाद बजने लगता है। जीवन प्रेमपूर्ण हो उठता है।
तुम यहां मेरे संन्यासियों का जीवन जितना प्रेमपूर्ण देखोगे, पृथ्वी पर कहीं भी तुम्हें किन्हीं का इतना जीवन प्रेमपूर्ण नहीं दिखाई
पड़ेगा। लेकिन प्रेम को तो तुम भक्ति समझते ही नहीं! तुम तो थोथी चीजों का भक्ति
समझते हो। और मैं प्रेम के भक्ति का आधार मानता हूं, बुनियाद
मानता हूं--भय को नहीं। हालांकि तुमने भय को ही भक्ति समझा हुआ है।
सारी दुनिया की भाषा में ऐसे बेहूदे शब्द हैं: धर्मभीरु। धार्मिक
व्यक्ति को कहते है: धर्मभीरु। गाड फियरिंग। ईश्वर से डरने वाला आदमी। प्रेम में
और भय? और जहां भय है वहां कहीं प्रेम हो सकता है! लेकिन तुम
तो बाबा तुलसीदास को कंठस्थ किये बैठे हो! तुलसीदास कहते हैं:"भय बिन होय न
प्रीति'। इससे ज्यादा गलत बात कभी किसी आदमी ने कही नहीं। भय
के बिना प्रीति हो नहीं सकती, तुलसीदास कहते हैं। और मैं
तुमसे यह कहना चाहता हूं, जोर से, कि
जब तक भय है तब तक प्रीति हो ही नहीं सकती। भय और प्रीति? तो
फिर घृणा कैसे होगी? जिसको तुम भयभीत करोगे, वह तुम्हें घृणा करेगा, प्रीति नहीं कर सकता।
परमात्मा तुम्हें भयभीत नहीं कर रहा है। जरा भी भयभीत नहीं कर रहा है।
अस्तित्व तुम्हें भय नहीं देता अस्तित्व को अगर तुम समझोगे, अगर तुम अपनी नींद तोड़ोगे और तुम्हारे थोथे शब्दों का जाल तोड़ोगे, तो तुम देख जाओगे कि सारा जगत प्रेम से परिप्लावित है। यहां प्रेम ही
प्रेम बह रहा है। वही वृक्षों में हरा है, वही फूलों में लाल
है, वही सूरज में सुर्ख है वही तारों में छिटका हुआ है। वही
तुम्हारे प्राणों में भी मधुर नाद का गुंजन कर रहा है। वही झरनों में कलकल है। वही
मोरों का नृत्य है। पपीहा की पुकार है। वही तुम्हारे भीतर भी छिपा पड़ा है। लेकिन
प्रेम को जगाने की जरूरत है। और प्रेम को जगाने के लिए कोई विश्वास नहीं चाहिए,
कोई अंधश्रद्धा नहीं चाहिए, प्रेम को जगाने के
लिए ध्यान का निखार चाहिए। और वहीं, प्रेम नारायण,...नाम तो प्रेम नारायण का है, लेकिन मैं नहीं समझता
तुम अपने नाम का अर्थ भी समझे कभी। प्रेम नारायण का अर्थ होता है: प्रेम ही
परमात्मा है। उसके अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है।
ध्यान तुम्हारे भीतर से उस सारे उपद्रव को काट देता है जिसने प्रेम के
गहने में अड़चनें डाल रखी हैं। मैं यहां ध्यान सिखाता हूं, भक्ति तो फल है। मैं यहां बीज बोता हूं। और अगर तुम किसी को बीज बोते
देखोगे तो तुम शायद सोचोगे, यह आदमी क्या कर रहा है? हम तो सोचते थे यह फल बोता होगा तो बीज बो रहा है! फूल कहां बो रहा है?
हम तो सोचते थे यह फल बोता होगा और यह तो बीज बो रहा है। अब कहां
बीज और कहां फल और कहां फूल! कितना फासला है! बड़ा फासला है। मगर जिसका फल चाहिए और
फूल चाहिए, उसे बीज ही बोने पड़ते हैं। मैं बीज बो रहा हूं।
उसके लिए जरा आंखें चाहिए, उसे बीज ही बोने पड़ते हैं मैं बीज
बो रहा हूं। उसके लिए जरा आंखें चाहिए देखने की। इन्हीं बीजों से फिर फल भी आते
हैं, फूल भी आते हैं, गंध भी आती है।
ध्यान बीज है, प्रार्थना फल है। शुरुआत ध्यान से होगी, अंत प्रार्थना में होगा। प्रार्थना अंतिम परिणति है, अंतिम पुरस्कार है। ध्यान साधना है, प्रार्थना
परमात्मा का प्रसाद है। तुम प्रार्थना नहीं कर सकते। तुम करोगे तो झूठ होगी। इसलिए
मैं तुमसे प्रार्थना करने का कहता ही नहीं। कहूं भी क्यों, क्योंकि
मैं जानता हूं, अगर तुमने ध्यान की साधना की, तो प्रार्थना एक दिन अपने से आएगी। और जब अपने से आए तो उसका सौंदर्य और,
उसका रस और, उसका आनंद और। फिर वह हिंदू नहीं
होती, मुसलमान नहीं होती, ईसाई नहीं
होती, बौद्ध नहीं होती, बौद्ध नहीं
होती, जैन नहीं होती, सिर्फ प्रार्थना
होती है। और ध्यान तो ईसाई, जैन, बौद्ध
होता ही नहीं; हिंदू, मुसलमान होता ही
नहीं; ध्यान तो वैज्ञानिक होता है। ये दो बातें तुम ख्याल
में रख लो।
ध्यान वैज्ञानिक प्रक्रिया है। तुम जब चिकित्सक के पास जाते हो, तो तुम यह नहीं कहते कि मैं हिंदू हूं, मुझको हिंदू
दवा देना। वह कहेगा, बाहर निकल जाओ! कभी दोबारा यहां आना मत!
दवाएं हिंदू नहीं होती! न बीमारियां हिंदू होती हैं!
बीमारियां बीमारियां हैं, दवाएं दवाएं हैं। और
तुम चाहे हिंदू होओ तो भी तुम्हारी टी.बी.के लिए वही पेनिसिलिन काम आएगी, और चाहे तुम मुसलमान होओ तो भी वही पेनिसिलिन काम आएगी। चिकित्सक को पूछने
की जरूरत नहीं होती कि तुम पहले यह तो बताओ कि तुम हिंदू हो कि मुसलमान? फिर मैं तय करूं कि दवा क्या देनी है। चिकित्सक को निदान करना होता है
बीमारी का।
तुम्हारी बीमारी क्या है? मन तुम्हारी बीमारी
है। पांडित्य तुम्हारी बीमारी है। ज्ञान तुम्हारी बीमारी है शास्त्र तुम्हारी
बीमारी है। हां, शास्त्र हिंदू होते हैं। ज्ञान हिंदू होता
है, मुसलमान होता है, जैन होता है,
ईसाई होता है। मैं तत्वज्ञानी नहीं हूं। इसलिए मैं यहां किसी को
हिंदू नहीं बनाता, मुसलमान नहीं बनाता। यहां तो हिंदू आएगा
तो धीरे-धीरे आदमी हो जाएगा, मुसलमान आएगा तो आदमी हो जाएगा,
ईसाई आएगा तो आदमी हो जाएगा। ये रोग गये। आदमी हो जाना पर्याप्त है।
मैं तुम्हें तुम्हारे जाल से मुक्त होने की सिर्फ एक कीमिया देता हूं। उस कीमिया
का नाम ध्यान है। ध्यान का इतना ही अर्थ है कि कैसे तुम्हारे भीतर मौन हो जाए,
चुप्पी हो जाए। मन कैसे बिलकुल शांत हो जाए। जब मन शांत हो जाता है,
तो तुम भीतर की आवाज को सुन पाते हो। वही आवाज प्रार्थना है। वही
आवाज अर्चना है। वही आवाज वंदना है। फिर उसकी कोई रीति नहीं होती, कोई विधि-विधान नहीं होता, यज्ञ-हवन नहीं होता,
पंडित-पुरोहित नहीं होते। वह तो फिर उठने लगती है तुम्हारे भीतर से।
जैसे दीये से ज्योति झरती है, ऐसे ध्यान से प्रार्थना झरती
है। तब एक भक्ति होती है, जो सिर्फ आंख वाले को ही पहचान में
आएगी। तुमको पहचान में नहीं आ सकती। तुम तो अपने आग्रह लिए बैठे हो।
आग्रहों के कारण बड़ी मुसीबत है। क्योंकि आग्रह वाला व्यक्ति देखता ही
इस ढंग से है कि उसके देखने में ही चूक हो जाती है।
ढब्बू जी अपने डाक्टर के पास गये और कहा, डाक्टर थोड़ा हैरान हुआ, उसने कहा, क्या इसी कारण तुम्हें बेचैनी रहती है? ढब्बूजी ने
कहा, जी नहीं, इस कारण बिलकुल नहीं
रहती। डाक्टर और भी हैरान हुआ। तो उसने कहा, फिर तुम आए
किसलिए हो? बेचैनी का कारण यह है, ढब्बूजी
बोले, कि मैंने चावल बोए थे।
अब चावल बोए हो और गेहूं ऊग आएं, तो बेचैनी तो होगी न!
तुम एक धारणा ले कर आते हो। तुमने कुछ बो रखा है पहले से। और तुम यहां
कुछ और देखते हो। मैं तुम्हारी धारणा के अनुकूल नहीं हूं। इसलिए तुम्हें अड़चन होती
है।
एक महिला ने अपने पति से भिखारियों की शिकायत करते हुए कहा, आज के भिखारी बड़े धोखेबाज हो गये हैं। मैंने कल एक अंधे भिखारी को एक
रुपया दिया, तो वह कहने लगा, भगवान
आपकी सुंदरता कायम रखे। पति ने मुस्कुरा कर कहा, तब तो तुम्हें
उसके अंधे होने पर संदेह नहीं करना चाहिए। मैं तो सोचता था मैं ही अंधा हूं,
दुनिया में दो अंधे हैं, एक मैं और एक वह
भिखारी। मुझे भी यही भ्रांति हुई थी।
मां ने बेटी से पूछा, तुम्हें भाषण प्रतियोगिता में
प्रथम पुरस्कार मिला, यह सुनकर तुम्हारे पिताजी क्या बोले?
बेटी ने जवाब दिया, कुछ उदास हो गये और बोले,
तू भी अपनी मां पर जा रही है।
धारणाएं मजबूत हैं, तो आदमी उन्हीं धारणारओं से
सुनेगा न!
जज साहब ने अभियुक्त से पूछा, "तुमने फिर चोरी
करनी शुरू कर दी? बीच के दो माह में क्या करते रहे?' अभियुक्त ने जवाब दिया, "जी, बीमार पड़ गया था।'
जज बोला, "ऐसा छोटा-मोटा झगड़ा तो तुम लोग अदालत के बाहर
ही निपटा सकते थे।'
"हुजूर, हम यही तो कर रहे थे
कि यह सिपाही पकड़ कर हमें यहां ले आया।'
एक सुनिश्चित धारणा तुम्हारी है, उस धारणा के कारण तुम
कुछ का कुछ देख रहे हो, प्रेम नारायण! जो यहां है ही नहीं,
वह तुम्हें दिखाई पड़ रहा है। जो है, वह दिखाई
नहीं पड़ रहा। लेकिन तुम्हारा भी क्या कसूर? सभी व्यक्ति
धारणाओं में बड़े होते हैं। और सभी व्यक्ति अपनी धारणाओं को ऐसे पकड़ते हैं जैसे बड़ी
संपदाएं हैं वे। मरने-मारने को उतारू रहते हैं। किसी की धारणा को जरा चोट पहुंच
जाए कि एकदम मरने-मारने के लिए तैयार हो जाता है। जैसे धारणा उसके जीवन से भी
बहुमूल्य है।
ढब्बूजी एक दिन नसरुद्दीन से पूछ रहे थे, नसरुद्दीन, तुम हमेशा हजामत बनवाते समय नाई से मौसम
के बारे में ही बातें क्यों करते हो? नसरुद्दीन ने उत्तर
दिया, तो क्या तुम्हारा मतलब है कि जो आदमी मेरी गर्दन पर
उस्तरा टिकाए हो, उससे राजनीति या धर्म पर बहस करूं?
ठीक कहता है नसरुद्दीन! जो आदमी उस्तरा बिलकुल गर्दन पर रखे बैठा है, उससे झगड़ा करना, राजनीति या धर्म पर कोई बात उठाना,
फैसला ही कर दे वह एक सेकेंड में! उससे तो मौसम की ही बात करनी ठीक
रहती है। उसमें काई झगड़ा नहीं है। कि आज बड़ी बारिश हो रही है। हो ही रही है। कि आज
क्या सूरज निकला है! भई, निकला ही हुआ है, इसमें कोई झगड़ा नहीं।
अंग्रेज, पूरी जाति मौसम के संबंध में बातचीत करती है, और किसी संबंध में बातचीत नहीं करती। उसका कारण यह है कि अंग्रेज इसको
अशिष्टाचार मानते हैं किसी बात पर विवाद करना। और विवाद न करना हो तो निर्विवाद
विषय तो एक ही है--मौसम में बातें करने को! तुम भी देख रहे हो कि सूरज निकला है,
हम भी देख रहे हैं कि सूरज निकला है।
लाओत्सू के जीवन में उल्लेख है कि वह घूमने जाता था, तो उसका एक पड़ोसी भी उसके साथ जाता था। पड़ोसी के धर एक दिन एक आदमी मेहमान
हुआ। उस मेहमान ने कहा, मैं भी आ जाऊं? उसने कहा, भई, मैं लाओत्सू से
पूछ लूं। क्योंकि वह पसंद नहीं करता; कुछ बातचीत नहीं करना
बिलकुल। कोई बातचीत नहीं करना। उसने कहा, मैं वायदा करता हूं,
बातचीत बिलकुल नहीं करूंगा। तो उसने कहा फिर ठीक है, आ जाओ।
तीनों चले। घंटा भर हो गया। सुंदर पहाड़ी, सूरज निकलने लगा, उस आदमी ने कुछ बात की भी नहीं थी,
अपने को किसी तर सम्हाले था--संयमी आदमी रहा होगा। मगर कब तक संयम
साधोगे? और फिर यह बात कोई खास बात न थी, उसने सिर्फ इतना कहा कि बड़ी सुंदर पहाड़ी है और क्या सुंदर सूरज निकल रहा
है! लाओत्सु वहीं रुक गया। उसने कहा, भई इस आदमी को विदा करो,
यह बहुत बकवासी है।
वह आदमी भी बड़ा चौंका और वह जिसका मेहमान था, उसने भी कहा, बकवासी? यह सिर्फ
एक शब्द बोला घंटे भर में। उसने कहा कि इसने मुझे अंधा समझा है?--लाओत्सू ने कहा। अब मुझे भी दिखाई पड़ रहा है कि पहाड़ी सुंदर है, इसको भी दिखाई पड़ रहा है और तुमको भी दिखाई पड़ रहा है; सूरज निकल रहा है, तीनों को दिखाई पड़ रहा है,
इसमें कहना क्या है? इसको विदा करो! और कल से
तुम भी मत आना। क्योंकि अगर तुम कहते हो कि यह बकवासी नहीं है, तो तुम भी किसी दिन बोलोगे। क्षमा चाहता हूं। ऐसी बात ही क्या करनी?
अब एक तो यह लाओत्सू है, जो कहता है, जब हमें भी दिखायी पड़ रहा है, तुमने हमें अंधा समझा
है? यह अगर इंग्लैंड में जाता तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाता।
वहां जो आदमी मिलेगा वही बात करेगा--मौसम। और दूसरी बात नहीं छोड़ते लोग। शिष्टाचार
के कारण।
लेकिन मैं तो यहां जो बातें छेड़ रहा हूं, वे बातें मौसम की नहीं हैं। मैं किसी शिष्टाचार को मानता नहीं। मैं तो
केवल वे बातें छेड़ रहा हूं जो जीवन के रूपांतरित करने वाली हैं।
तुम्हें अड़चन हुई होगी। तुम कहते हो, आपके तत्वज्ञान या
शिक्षा में भक्ति का संपूर्ण अभाव दिखाई देता है। चौंका दिया तुमने मुझे! और यहां
मेरे पास जितने लोग हैं वे भी चौंक गये होंगे। क्या कह रहे हो? कुछ पते की तो बात करो! चिंदी भी हो और तुम सांप बनाओ तो भी ठीक। पर चिंदी
भी नहीं है और तुमने सांप बना लिया। जरा पुनर्विचार करो, जरा
आंखों को मींड़ कर, ठंडे पानी के थोड़े छींटे दे कर फिर से
देखो। यहां भक्ति ही भक्ति है। यहां प्रेम ही प्रेम है। यह तो प्रेमियों का और
मतवालों का समूह है, दीवानों की दुनिया है। यह तो मस्तों की
मधुशाला है। यहां तो हम प्रेम की ही शराब पीते हैं और पिलाते हैं। ज्ञान वगैरह से
किसको लेना देना है!
और तुम कहते हो, अध्यात्म में भक्ति बिना ज्ञान
मनुष्य का अहंभाव ही प्रदर्शित करता है। बड़ी पते की बात कह रहे हो! तुम्हें सब कुछ
तो मालूम है तुम यहां आ कैसे गये! तुममें कमी क्या है? नाहक
कष्ट किया। अरे, खबर भेज देते, हम खुद
ही हाजिर होते! वहीं सेवा करते आपकी! शिक्षा ग्रहण करते!
ठीक कह रहे हो, अगर भक्ति नहीं है तो अहंभाव ही है। और कुछ हो भी
कैसे सकता है? लेकिन यहां भक्ति ही भक्ति है। यहां कहां
अहंभाव? मगर तुम्हें दिखाई पड़ रहा है। तुम्हारे भीतर कहीं
गांठ है। तुम पीलिया के मरीज हो। तुम्हें सब पीला-पीला सूझ रहा है। कहते हैं सावन
के अंधे को हरा ही हरा दिखाई पड़ता है। सावन में जो अंधा हो जाएगा, उसको याददाश्त हरे ही हरे की रहती है। अंधा सावन में हुआ, जब सब हरा था, फिर सब सूख भी जाए तो भी बेचारा वह तो
अपने स्मृति में जीता है, उसको हरा ही हरा दिखाई पड़ता रहता
है। उसको जिंदगी भर हरा ही हरा दिखाई पड़ता रहता है।
तुम अपने अहंकार से भरे होओगे। अहंकारी को कहीं भी अहंकार दिखाई पड़
गया। क्यों? क्योंकि मंसूर ने घोषणा कर दी अनलहक की, कि मैं सत्य हूं। बस, उनको लगा कि यह अहंकार की बात
हो गयी। मैं सत्य!? प्रेम नारायण को अगर मिल जाएं उपनिषदों
के ऋषि कहीं भूलचूक से और वे कहें, अहं ब्रह्मास्मि, कि मैं ब्रह्म हूं, तो प्रेम नारायण कहेंगे, बस यह तो अहंकार की बात हो
गयी!
तुम्हारे भीतर अहंकार पड़ा है, उसको तुम प्रक्षेपण
कर रहे हो। तुम्हें वही दिखाई पड़ रहा है। नहीं तो जिसने कहा, अहं ब्रह्मास्मि, वहां तो कह ही इसीलिए रहा है कि अब
मैं नहीं बचा, इसलिए जो बचा है वह परमात्मा है। लेकिन क्या
करें? मजबूरी है, तुम्हारी भाषा का
उपयोग करना पड़ता है।
मैं भी तुम्हारी भाषा का उपयोग कर रहा हूं। इसलिए बहुत सोच-समझ कर जिन
शब्दों का मैं उपयोग करता हूं उनको ग्रहण करना। नहीं तो तुम्हें अड़चन हो ही जाएगी।
जिसने कहा, अहं ब्रह्मास्मि, उसने यह भी कह
दिया कि तुम भी ब्रह्म हो। तत्वमसि भी तो उसने कहा। लेकिन बड़े मजे की बात है!
मैं बीस वर्ष तक भारत के गांव-गांव में घूमता रहा। उन बीस वर्षों में
मैंने लाखों लोगों से लाखों बार यह कहा, कि "आप सबके
भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं', और एक व्यक्ति ने
भी एतराज न उठाया। एक व्यक्ति ने भी एतराज न उठाया। बल्कि लोग मुझसे कहते थे कि जब
आप कहते हैं कि मैं आपके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, तो हमारा हृदय गदगद हो जाता है, हमारी आंखों से आंसू
झरने लगते हैं। फिर मैंने कहा, बीस साल काफी हो गये
कहते-कहते फिर एक दिन मैंने कहा,"अहं ब्रह्मास्मि'!
और वे लोग बहुत चौंके। और मैंने उनसे कहा कि अब मेरे भीतर बैठे
परमात्मा का प्रणाम करो! उन्होंने कहा, आप कहते क्या हैं?
यह तो अहंकार की बात हो गयी। बीस साल से अहंकार की बात नहीं थी। जब
तक मैं उनसे कह रहा था तुम्हारे भीतर भगवान विराजमान है, तब
तक मैं विनम्र था। और जब मैंने कहा कि मेरे भीतर भगवान विराजमान है। तो मैं
अहंकारी हो गया। तुम्हारे अहंकार को भरूं तो हृदय गदगद होता है, आंखों में आंसू आते हैं। जब मैंने घोषणा की अनलहक की, तो तुम्हारे अहंकार को चोट पड़नी शुरू हो गयी।
हालांकि मैं वही कह रहा हूं जो तब कह रहा था। तुम्हारे भीतर भी वहीं
बैठा है, मेरे भीतर भी वही बैठा है। सबके भीतर वही बैठा है।
उसके अतिरिक्त कोई है ही नहीं। लेकिन जिनकी आंखें गदगद हो जाती थी। और जिनके हृदय
एकदम भर आते थे, वे सब नदारद हो गये--जब मैंने अपने भगवत्ता
की घोषणा की, वे सब भाग खड़े हुए; उनका
पता नहीं रहा। उनको बड़ी चोट लग गयी कि यह आदमी अहंकारी हो गया। बीस साल से मैं
उनके भगवत्ता की घोषणा कर रहा था और अहंकारी नहीं था। कैसा मजा है! किसी ने भी न
पूछा था।
जरा सोचना, प्रेम नारायण! यहां कहां अहंकार! मैं हूं ही नहीं
भगवान ही है। न तुम हो, भगवान ही है। लेकिन तुम्हें अभी
ख्याल है कि तुम हो। तुम्हें अभी पकड़ है तुम्हारे होने की। और तुम वही देख सकते हो
जो तुमने अपनी सीमा बना रखी है।
तुम अपने ही ढंग से सोच सकते हो। दर्पण के सामने आओगे तो तुम्हें क्या
दिखाई पड़ेगा? बंदर दर्पण के सामने आएगा तो क्या सोचते हो उसको एकदम
देखता दिखाई पड़ेंगे दर्पण में? बंदर ही दिखाई पड़ेगा। और बंदर
अगर खिसियाएगा, तो दर्पण में भी दिखाई पड़ेगा कि उधर का भीतर
का बंदर भी खिसिया रहा है। एक राजमहल में एक बार एक कुत्ता भीतर खो गया रात,
निकल न पाया, दरवाजे ओ गये। उस राजमहल में
दर्पण ही दर्पण थे। वह कुत्ता सुबह मरा हुआ पाया गया। रात भर उस महल के पड़ोस में
रहने वाले लोगों ने कुत्ते की चीख-पुकार सुनी, ऐसी जैसी कभी
किसी कुत्ते की न सुनी थी। हुआ यूं कि उस कुत्ते ने देखा, जहां
देखा वहीं कुत्ते दिखाई पड़े। और कुत्ता देखे कुत्तों को तो भौंके। भौंके तो वे
कुत्ते भौंके। झपटे तो वे कुत्ते झपटें। ऐसे टकराता रहा दर्पणों से। सुबह उसकी लाख
पड़ी मिली। और सारे दर्पणों पर खून के दाग पड़े हुए मिले। और वहां कोई भी न था। वह
अकेला था।
मैं तो सिर्फ एक दर्पण हूं, इससे ज्यादा नहीं।
अगर तुम्हें कुछ दिखाई पड़ता हो, तो पहले तो यह सोचना कि
तुम्हारे भीतर तो नहीं पड़ा है? तुम्हारे भीतर पड़ा है तो वही
दिखाई पड़ेगा। तुम भी अगर शून्य हो कर मेरे पास बैठोगे, तो
तुम्हें मेरे भीतर शून्य दिखाई पड़ेगा। जो संन्यस्त हो कर मेरे पास बैठे हैं,
जिन्होंने अपने अहंकार को सरकाकर एक तरफ रख दिया है, जैसे कोई जूते उतार आता है ऐसे अपने अहंकार को उतार दिया है, उन्हें कोई अहंकार दिखाई नहीं दिखाई पड़ता।
मगर तुम नये-नये हो, स्वाभाविक। दर्पणों के इस महल
में खो जाओगे। जरा सोच-समझ कर, नहीं तो नाहक भौंकोगे और
परेशान होओगे।
तुम कहते हो, अहंभावी व्यक्ति महान गुरु हो, यह
असंभव है। कहा किसने कि अहंभावी व्यक्ति गुरु हो सकता है? गुरु
का अर्थ ही यही होता है। गुरु शब्द बड़ा प्यारा है। इसका अर्थ होता है: जिसने भीतर
प्रकाश हो गया। और इतना ही नहीं, जिसके भीतर का प्रकाश
दूसरों के भीतर प्रकाश का जगाने में समर्थ है। जिसकी ज्योति जल गयी और जिसमें भी
साहस हो अपनी बुझी ज्योति को उसके पास ले आए, उसकी ज्योति भी
जी जाएगी। मगर जिस ढंग से तुमने प्रश्न पूछा है, वह पास आने
का ढंग नहीं है, दूर जाने का ढंग है। दीवाल खड़ी करने का ढंग
है। आए भी, चूकोगे। आए भी खाली हाथ, जाओगे
भी खाली हाथ।
और मैंने ये जो बातें कहीं, इनसे तुम्हें चोट पड़
सकती है, बेचैनी हो सकती है। क्योंकि मैं दो-टूक बातें कहना
पसंद करता हूं। चोट पड़नी हो तो जरूर पड़नी चाहिए। चौंक पड़ेगी तो ही शायद तुम
तिलमिलाओ और जागो। शायद बेचैनी होगी, शायद आज दिन भर तुम
परेशान रहोगे, रात सो न सकोगे। ईश्वर करे नींद तुम्हारी सदा
के लिए टूट जाए! तुम सदा के लिए जग जाओ! बेचैनी ऐसी हो जाए कि जब तक चैन न मिले,
मिटे ही न। यहां जो मेरे पास आना चाहते हैं, उन्हें
इतना साहस ले कर आना चाहिए।
और अपनी धारणाओं से मुझे मत देखो, थोड़ा सुनो थोड़ा समझो,
थोड़ा गुनो, थोड़ा पास बैठो, थोड़ा पास सरको। दीवालें मत बनाओ, सेतु बनाओ।
सिद्धांतों को बीच में मत लाओ, प्रेम को फैलाओ। थोड़ा इस
उत्सव में सम्मिलित होओ। थोड़ी इस मदिरा को पीओ। यह कोई मंदिर नहीं है, मयखाना है; मयकदा है। यह पियक्कड़ों की जमात है। यहां
रिंद इकट्ठे हुए हैं। यहां तुम ज्ञानचर्चा मत छेड़ो! यहां तुम शास्त्रों के मत बीच
में लाओ! यहां शब्दों की ओट से मत मुझे देखने की चेष्टा करो! क्योंकि वे सब बचने
के उपाय हैं। यहां तो नाचो! पैरों में घुंघरू बांधो! ढोल पर थाप दो! मृदंग बजाओ!
गीत गाओ! उत्सव में सम्मिलित होओ! यह तो महोत्सव है! यहां तो ही रोज होली है,
हर रोज दीवाली है!
आखिरी प्रश्न: भगवान, क्या प्रत्येक व्यक्ति कृष्ण, क्राइस्ट या बुद्ध हो
सकता है?
सुखदेव सिंह, न
तो प्रत्येक को बुद्ध होने की जरूरत है, न कृष्ण होने की,
न क्राइस्ट होने की। और होना भी चाहे तो हो नहीं सकता। प्रत्येक
व्यक्ति को स्वयं होना है। क्यों कोई क्राइस्ट हो? क्यों कोई
अभिनय में पड़े? और अभिनय तुम करोगे तो ऊपर ही ऊपर रहेगा,
भीतर न पहुंच सकेगा। लाख रामलीला के राम बनो, रामलीला
के ही राम रहोगे। बिलकुल धनुष-बाण लिये चलो, सीता मैया पीछे
चल नहीं हैं, हनुमान जी साथ हैं, लक्ष्मण
जी चले आ रहे हैं, कुछ भी नहीं होगा! रामलीला के राम रामलीला
के ही राम रहोगे।
असल में इस अस्तित्व में दो व्यक्ति एक जैसे कभी पैदा हुए हैं, न हो सकते हैं। तुमने सुना, कितना समय हो गया बुद्ध
को हुए, कोई ढाई हजार साल हो गये, कोई
दूसरा व्यक्ति बुद्ध हो सका? क्यों नहीं हो सका? क्या लोगों ने कुछ कम कोशिश की? क्या कम लोगों ने
कोशिश की? लाखों लोगों ने प्रयास किया, जीवन लगा दिये, सब दांव पर लगा दिया, मगर कोई दूसरा व्यक्ति बुद्ध नहीं हो सका। हो ही नहीं सकता। यह ऐसा ही
पागलपन है जैसे गुलाब जुही होना चाहे, जुही चंपा होना चाहे,
चंपा केवड़ा होना चाहे, केवड़ा कमल होना चाहे।
पागल हो जाएंगे सब। पूरा जंगल पागल हो जाएगा। लेकिन जंगल पागल नहीं होता, जुही जुही रहते है, चंपा चंपा रहती है। किसको पड़ी है?
जुही जरा भी फिक्र नहीं करती कि चंपा हो जाए। न चंपा फिक्र करती कि
रातरानी हो जाए। न रातरानी को चिंता है कि नरगिस हो जाए। ये सब पागलपन आदमी को
सवार होते हैं और तब आदमी झंझट में पड़ जाता है। कोई ईसा बनने की कोशिश में लगा है।
ईसाई बन कर रह जाता है बेचारा, ईसा नहीं बन पाता। और ईसाई
बनता, कार्बन कापी! राम बनने की चेष्टा में हिंदू बन कर रह
जाता है, राम नहीं बन पाता। और बुद्ध बनने की चेष्टा में
बौद्ध बन कर रह जाता है, राम नहीं बन पाता। और बुद्ध बनने की
चेष्टा में बौद्ध बन कर रह जाता है, बुद्ध नहीं बन पाता।
फ्रेड्रिल नीत्शे ने ठीक कहा है कि प्रथम और अंतिम ईसाई दो हजार साल
पहले सूली पर मर गया। प्रथम और अंतिम,...ध्यान रखना! ठीक
कहा है उसने। वह आदमी थोड़ा झक्की था, लेकिन बात कभी-कभी
झक्की पते की कह जाते हैं। ठीक पते की बात कह दी। असल में किसी दूसरे की जिंदगी
तुम्हारी जिंदगी कैसे हो सकती है? जरूरत भी नहीं है। दुनिया
बड़ी बेरौनक हो जाएगी। जरा सोचो तो, यहां जगह-जगह धनुर्धारी
राम दिखाई पड़ें, जहां जाओ वहीं रामचंद्र जी चले जा रहे हैं,
एक-एक हनुमान जी को साथ लिए, एक-एक सीता मैया,
पीछे लक्ष्मण जी चले आ रहे हैं, जहां देखो
वहीं, घबड़ा जाओगे एकदम! सिर ठोंक लोगे कि यह क्या हो गया?
जीवन का वैविध्य खो जाएगा। जीवन का सौंदर्य खो जाएगा। जहां देखो वहीं
कृष्णकन्हैया खड़े हैं। बांसुरी लिए, पैर पर पैर नृत्य की
मुद्रा में टिकाए, बांसुरी बजा रहे हैं; रुक्मिणी बैठी घर में रो रही हैं, और न मालूम किसकी
राधा उनके आसपास नाच रही है; उपद्रव हो जाएगा। एक कृष्ण
पर्याप्त हैं। सुखदेव सिंह,तुम सुखदेव सिंह ही बनो! परमात्मा
ने तुम्हें एक विशिष्टता दी है, तुम्हें एक व्यक्तित्व दिया
है। इन झूठों में मत पड़ो।
मैंने सुना है, एक बार अकबर ने अपने दरबार में कहा, अपने नवरत्नों को बुला कर कि अब मैं बूढ़ा हुआ, इधर
मैं बहुत प्रशंसा सुनता हूं इस देश में रामायण की, तो मैं
कोई राम से छोटा राजा तो नहीं हूं, क्या मेरे जीवन पर रामायण
नहीं लिखी जा सकती? आठ रत्न तो चुप ही रहे। क्या कहें?
यह भी कोई बात है? अकबर कितने ही बड़े सम्राट
हों, मगर रामायण कैसे इनके ऊपर लिखी जा सकती है? एक रत्न बोले, बीरबल, वे रत्न
कम थे, रतन ज्यादा थे। महारतन! उन्होंने कहा कि लिखी जा सकती
है। क्यों नहीं लिखी जा सकती? आपमें क्या कमी है? अरे, राम का राज्य आपसे छोटा ही था। आपका राज्य तो
और भी बड़ा है, आप तो शहनशाहों के शहंशाह हैं। वे तो राजा राम
थे केवल। लिख दूंगा, मैं लिख दूंगा। पर काम मेहनत का है,
शास्त्र बड़ा है, एक लाख अशर्फी पेशगी और एक
साल का समय। अकबर ने कहा, करो, कोई
फिक्र नहीं, इसी समय एक लाख, जो पेशगी
मांगते हो ले जाओ। साल भर की छुट्टी।
वे एक लाख अशर्फियां ले कर साल भर बीरबल गुलछरें उड़ाते रहे। न तो कोई
किताब लिखी--लिखनी-विखनी थी ही नहीं, वह तो महारतन थे!
अकबर बीच-बीच में खबर लेता रहा कि क्या हुआ? कहां कि लिखी जा
रही है, बस अब लिखी जा रही है, जैसे ही
साल पूरा हुआ कि हाजिर कर दूंगा।
साल पूरा हुआ, बीरबल आए, किताब वगैरह कुछ भी न
लाए। अकबर ने पूछा, किताब कहां है? बीरबल
ने कहा कि और सब पूरा हो गया है, सिर्फ एक ब्यौरे की बात रह
गयी है। जो आपके बिना कोई बता नहीं सकता; उसके बिना रामायण
पूरी नहीं होगी। हमारे राम की सीता को रावण चुरा कर ले गया था। आपकी बेगम को कौन
रावण चुरा कर ले गया? उसका पता दो; उसका
नाम बताओ। वह कौन हरामजादा है, कौन गुंडा है? अकबर तो गुस्से में आ गया, उसने तलवार खींच ली कि
तुम पागल हो गये हो? मेरी बेगम पर कोई आंख तो उठाए। आंखें
निकलवा लूं! कोई जबान तो खोले! जबान काटवा दूं! तुम कैसी बातें करते हो, जी? बीरबल ने कहा, महाराज,
फिर रामायण नहीं लिखी जा सकती। क्योंकि हमारे राम की सीता को रावण
चुरा कर ले गया था। और तीन साल तक अशोकवाटिका में लंका में बंद रहीं सीता जी। फिर
उनको छुड़ा कर लाया। बिना इसके तो रामायण बनेगी नहीं, मजा ही
नहीं आएगा। असली बात ही निकल गयी, जान ही निकल गयी!
अकबर ने कहा, अगर ये झंझट करनी है, तो हमें
रामायण लिखवानी ही नहीं। भाड़ में जाए रामायण! बीरबल ने कहा, जैसी
मर्जी, मगर मेहनत साल भर गयी मेरी फिजूल! तो फिर आप कहो तो
महाभारत लिख दूं। अकबर ने कहा कि महाभारत को भी नाम बहुत सुना है। यह तो और भी बड़ी
किताब है। दो लाख अशर्फियां लगेंगी, पेशगी, बीरबल ने कहा। अकबर ने कहा, तो वे मिल जाएंगी,
मगर यह मैं पहले पूछ लूं कि इसमें रावण वगैरह तो नहीं आता? सीता तो नहीं होगी? कभी नहीं। रावण आता ही नहीं!
सीता की चोरी भी नहीं होती, तुम फिक्र ही न करो! इसमें झंझट
नहीं है। उसने कहा, तू पहले ही कहता। साल भर भी खराब गयी,
एक लाख अशर्फियां भी गयीं। कोई बात नहीं, लेकिन
जो हुआ हुआ। ये ले दो लाख अशर्फियां।
साल भर फिर उसने गुलछर्रे किये। अब दो लाख अशर्फियां, मजा ही मजा लूटा। बीच-बीच में खबर पहुंचाता रहा कि बस बन रही है, बन रही है, बन रही है, बन रही
है। आखिरी दिन आ गया, आ गया खाली हाथ फिर। कहां, किताब कहां है? महाभारत कहां है? उसने कहा कि महाराज, एक ब्योरे की बात आपके बिना कोई
नहीं बता सकेगा, उसके बिना किताब अधूरी रह जाएगी, मजा ही नहीं आएगा। द्रौपदी के पांच पति थे, आपकी
बेगम के आप तो एक पति हो, बाकी चार बदमाश कौन हैं? उनके नाम बताओ!
पहली बार तो अकबर ने सिर्फ म्यान पर हाथ ही रक्षा था, इस बार तो तलवार निकाल ली! कहा, तू ठहर, बीरबल का बच्चे! तूने समझा क्या है? तू मुझे समझता
क्या है? मेरे रहते, मेरे जिंदा
रहते...! बीरबल ने कहा, महाराज, मैं
क्या कर सकता हूं? आप तलवार अंदर रखो। आप ही कहते हो,
लिखो किताब, लिखता हूं तो उसमें अड़चनें आती
हैं। तो फिर कहो तो वेद ही लिख दूं! उसने कहा, हमें लिखवाना
ही नहीं। एक बात समझ में आ गयी की कोई दूसरे की कहानी किसी दूसरे पर चस्पां नहीं
की जा सकती। उसने कहा कि आपको जल्दी समझ में आ गयी। कई तो ऐसे नासमझ हैं कि
जनम-जनम समझ में नहीं आती।
किसी दूसरे की कहानी किसी और पर चस्पां नहीं की जा सकती। न तुम्हें
कृष्ण होना है, न राम होना है, न क्राइस्ट होना
है, तुम तो तुम ही हो जाओ, बस उतना
काफी है। तुम्हारा फूल खिले, तुम्हारी सुगंध उड़े, तुम्हारा दीया जले! जरूर तुम जब खिलोगे तो तुम्हारे भीतर भी वही महिमा
होगी जो कृष्ण की है, और वही महिमा होगी जो बुद्ध की है,
मगर कहानी वही नहीं होगी। रस वही होगा, रंग
वही नहीं होगा। अनुभूति वही होगी, अभिव्यक्ति वही नहीं होगी।
वाद्य वही होगा, लेकिन धुन तुम पर तुम्हारी बजेगी, गीत तुम पर तुम्हारा उठेगा।
और धन्यवाद करो प्रभु का कि उसने तुम्हें झूठे बनने का कोई अवसर ही
नहीं छोड़ा है। तुम बन ही नहीं सकते, लाख कोशिश करो। तुम
सिर्फ वही बन सकते हो जो तुम हो, जो तुम वस्तुतः हो। जो तुम
जन्म के साथ ही स्वभाव लेकिन आए हो, उसकी ही अभिव्यक्ति होनी
है।
नकल में मत पड़ना। नकल में बहुत लोग भटक गये हैं।
आज इतना ही।
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