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बुधवार, 20 जून 2018

सर्वसार-उपनिषद--प्रवचन-05

चेतना की धनी नींद और तुरिय—पाँचवाँ प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर,
दिनांक 10 जनवरी 1972 रात्रि:
माथेरान।

सूत्र:

                  चतुर्दशकरणोपरमाद्विशेष
                      विज्ञानभावद्यदा
                     शब्‍दादीन्‍नोपलभते
                   तदाssत्‍मल: सुषुप्‍तम्।
                  अवस्‍थात्रय भावाभावसाक्षी
               स्‍वयंभावरहितं नैरंतर्यं चैतन्‍यं यदा
             तदा तत्‍तुरीयचैतन्‍यमित्‍युच्‍यते ।। 4।।

इन चौहह इंद्रियों के शांत बन जाने पर जिस अवस्था में विशेष ज्ञान नहीं
होने के शब्‍दादि विषयों को ग्रहण नहीं करते हैं, उस समय की आत्मा की
     अवस्था को सुषुप्‍ति कहा जाता है। इन तीनों अवस्थाओं की
      उत्पात और लय को जानने वाला और स्‍वयं उत्पत्ति और
        लय के निरंतर परे रहने वाला ऐसा जो नित्‍य साक्षी
           चैतन्‍य है, वही तुरीय चैतन्‍य है और उसकी
                   अवस्था का नाम तुरीय है।

जाग्रत है पहली अवस्था, स्वप्न है दूसरी, और तीसरी है सुषुप्ति। सुषुप्ति का अर्थ है : न तो बाहर के जगत का कोई बोध हो, न वस्तुओं का कोई अनुभव हो, और न ही वस्तुओं के द्वारा निर्मित आकृतियां, संगृहीत मन के संस्कार, और उनसे निर्मित स्वप्नों की कोई प्रतीति हो--चेतना पूरी तरह सो गई हो; कोई भी बोध शेष न रह जाए... चेतना हो लेकिन बोध न हो; जीवन हो लेकिन बिलकुल सुप्त हो जाए--किसी तरह की कोई प्रतीति न होती हो; ऐसा हो जाए व्यक्ति जैसे कि जड़ है--जीवित रहते हुए जड़ जैसा हो जाए।

दो अवस्थाएं हमने समझी... आंख खोलते हैं, बाहर का जगत दिखाई पड़ता है; आंख बंद कर लेते हैं तो भी बाहर जो देखा है, उसका भीतर स्वप्न दिखाई पड़ता है--कुछ दिखाई पड़ता ही रहता है--न हो जगत, तो जगत से बनी हुई आकृतियां पुन: -पुन: मन के पर्दे पर दौड़ने लगती हैं। लेकिन कोई दृश्य बना ही रहता है।
जहां सभी दृश्य खो जाते हैं, उस अवस्था का नाम सुषुप्ति है। न तो बाहर की वस्तुओं का पता चलता और न भीतर के विचारों का--सभी चित्रों का प्रवाह बंद हो जाता है; पर्दा खाली हो जाता है, शून्य हो जाता हैं, कोई बोध नहीं रह जाता, उस अवस्था का नाम सुषुप्ति है।
अब यहां कुछ बातें समझ लेना बहुत ही जरूरी हैं। पहली बात तो यह समझ लेना जरुरी है कि हमें अपना कोई भी बोध नहीं है। अगर हमें अपना कोई बोध होता, तो जगत खो जाए, स्वप्न खो जाए, कम से कम एक बोध तो बना ही रहता है कि मैं हूं--न दिखाई पड़े चाँद, तारे, सूरज; बंद कर लूं आंख; न चले कोई स्वप्न, तो भी मैं तो हूं। लेकिन हमें स्वयं का कोई बोध नहीं, हमारा सब बोध पर-केंद्रित है; हमें दृसरे का पता है, अपना कोई पता नहीं।
तो जब सभी दूसरे खो जाएंगे, तो बोध भी खो जाएगा, होश भी खो जाएगा। हमें जो भी होश है वह दूसरे का है, अपना तो कोई होश है ही नहीं। पैर में पत्थर लगता है तो हमें पता चलता है पत्थर का, और पता चलता है मन में बनी हुई दर्द की प्रतीति का, अपना कोई पता नहीं चलता; जिसको पता चलता है उसका हमें कोई पता नहीं चलता।
मैं बोल रहा हूं अभी, आप सुनते हैं, तो आपको मेरे शब्दों का पता चलता है, और




आपके कान पर जो झनकार बनती है उसका भी पता चलता है, लेकिन इन सबके भीतर छिपा जो सुनने वाला है, उसका कोई पता नहीं चलता। तो अगर बोलना बंद हो जाए, और कान में पड़ने वाले शब्द खो जाएं, और भीतर भी ध्वनि न उठे, तो फिर आपको कोई होश नहीं रह जाएगा।
इसलिए कुछ विचारक तो यहां तक भी कहते हैं... और उनका कहना सौ में निन्यानबे मौके पर सच है--वे कहते हैं. चेतना जैसी कोई चीज ही नहीं है; केवल दूसरी उपस्थित चीजों के प्रति जो प्रतिसंवेदना है, वही केवल चेतना है।
यह जो तीसरी अवस्था है अचेतन हो जाने की, सुप्त हो जाने की, यह बड़े गहरे रहस्य खोलती है। पहला तो यह रहस्य खोलती है कि हम बड़े भ्रम में हैं कि हमारे पास चेतना है; हमारे पास चेतना नहीं है। इसलिए जब आप खाली-खाली होते हैं, तत्काल नींद पकड़ लेती है। खाली जागे रहना बहुत मुश्किल मालूम पड़ता है। व्यस्त नहीं हैं आप तो तत्काल नींद उतरनी शुरू हो जाती है। इसलिए व्यस्त होना जरूरी है। और इसका दूसरा परिणाम भी होता है : जब आप बहुत व्यस्त होते हैं, तो लाख कोशिश करें नींद नहीं आती। रात है, बिस्तर पर पड़े हैं, लेकिन विचार आए ही चले जाते हैं, तो नींद नहीं आती, क्योंकि जब विचार आए ही चले जाते हैं तो आपको चेतन रहना ही पड़ता है, आप सो नहीं सकते; विषय मौजूद है--न सही बाहर का।
अगर कोई आपके पास में बैंड-बाजे बजा रहा है, तो आप नहीं सो पाते हैं, क्यों? क्योंकि वह बैंड-बाजे की चोट आपको चेतन बनाए रखती है, वह नींद में नहीं जाने देती। लेकिन कोई बैंड-बाजे भी न बजा रहा हो, आप आंख बंद करके पड़े हैं, लेकिन आपके मन में बड़े खयाल चल रहे हैं, बड़े स्वप्न चल रहे हैं, तो भी नींद नहीं आती। अगर नींद लाने का विचार भी चल रहा हो तो भी नींद नहीं आती। अगर यह भी खयाल चल रहा हो कि कैसे नींद आ जाए क्या करूं कि नींद आ जाए, तो भी नींद नहीं आती; क्योंकि जब तक कोई ऑब्जेक्ट, कोई विषय बना रहता है तब तक आप चेतन बने रहते हैं। विषय खो जाएं, आप तत्काल अचेतना में डूब जाते हैं।
तो हमारी यह चेतना वस्तुओं पर निर्भर है, इसके हम मालिक नहीं हैं। ठीक से समझें तो यही है बंधन.. गहरे में। दिस इज दि बांडेज। कोई हमें जगाए तो हम जगे रह सकते हैं; अगर कोई न जगाए तो हम तत्काल बेहोश हो जाएंगे। इसलिए आदमी रोज-रोज नई-नई संवेदनाएं खोजता है, नहीं तो जिंदगी बेहोश होने लगती है।
एक ही पत्नी!.. तो जिंदगी बेहोश होने लगती है, तो आदमी पत्नियां बदलना चाहता है। एक ही मकान!.. तो जिंदगी बेहोश होने लगती है, तो आदमी मकान बदलना चाहता है। एक ही भोजन!.. तो जिंदगी बेहोश होने लगती है; तो आदमी रोज भोजन बदलना चाहता है। यह बदलाहट इसलिए ताकि हम जगे रहें, नहीं तो हम सो जाएंगे-- अगर बदलाहट बिलकुल न हो तो हम सो जाएंगे। इसलिए सोने की सब तरकीबें एक काम, एक तरकीब को उपयोग में लाती हैं।
सोने की जितनी भी तरकीबें हैं, जिन लोगों को नींद नहीं आती उनके लिए सरलतम उपाय यह है कि वे कोई एक चीज को दोहराए चले जाएं, तो थोड़ी देर में ऊब जाते हैं; क्योंकि नया नहीं होता तो जगने का कोई कारण नहीं रह जाता। तो आप अगर राम-राम, राम-राम, राम- राम, राम-राम भी दोहराते रहें तो भी नींद आ जाएगी। इसलिए जप करने वालों को जो नींद आ जाती है, मंदिर में पूजा-प्रार्थना करने वालों को जो नींद आ जाती है, उसका कारण यह है कि एक ही शब्द मे, नवीनता न होने से चुनौती नहीं रहती, जागने का कोई कारण नहीं रह जाता। बच्चे को मां माथे पर थपकी दे देती है दस-पांच--वही थपकी... वही थपकी... वही थपकी... वह सो जाता है। थपकी में कुछ और नहीं है, ऊब जाता है; उसमें कुछ नयापन नहीं है, सो जाता है।
इसलिए आपको अपने कमरे में नींद जल्दी आ जाती है, दूसरे के कमरे में देर लगती है, क्योंकि दूसरे का कमरा थोड़ा नया है, आपको अपने ही तकिए पर, अपने ही बिस्तर पर नींद जल्दी आ जाती है, दूसरे के बिस्तर पर, दूसरे के तकिए पर नींद जल्दी नहीं आती; कुछ नया है जो जगाए रखता है। इसलिए सभी लोगों के सोने का एक रिचुअल होता है, क्रियाकांड होता है।
छोटा बच्चा है, परेशान है, वह अपना अंगूठा ही मुंह में ले लेता है। थोड़ी देर में उससे ऊब जाता है, कुछ नया नहीं है, सो जाता है। छोटे बच्चे और बड़े लोगों में कोई बहुत फर्क नहीं है। कोई आदमी है, जो कि रात जब तक सिगरेट न पी ले तब तक सो न सकेगा। तो वह सिगरेट पी लेता है-- अंगूठा चूसने का सब्‍स्‍टियूट है; फिर उसको नींद आ जाती है। फिर उसको नींद आ जाती है! नियमित क्रम है, वह ऊबा देता है जल्दी। नई जगह में, नये लोगों के बीच, नये मकान में नींद मुश्किल से आती है, क्योंकि बहुत कुछ मौजूद है चारों तरफ जो आपको जगाए रखता है-- कहता है, मुझे देखो, जगो, कुछ नया है।
पश्चिम में जो नींद टूट गई है उसका कारण यह है कि पश्चिम इतने जोर से बदल रहा है कि रोज वहां नया मौजूद हो जाता है। पूरब अभी भी नींद के लिहाज से सुखी है-- ज्यादा दिन रहेगा नहीं।
एक गांव का आदमी गहरी नींद सोता है, शहर का आदमी उतनी गहरी नींद नहीं सो पाता। कारण कुछ भी नहीं है, गांव का आदमी पुराने में ही जीता है, ऊबा हुआ ही जीता है; उसमें नया कुछ होता नहीं जो जगा दे। शहर के आदमी को रोज-रोज सब-कुछ नया है--नई फिल्म चलती है, नया अखबार छपता है, नये लोग मिलते हैं, नये सामान बाजार में आ जाते हैं, दुकानों की शो-विन्डोज़ पर नई चीजें टैग जाती हैं, नई फैशन हो जाती है-- रोज नया है। उस नये के कारण जागना सतत हो जाता है, नींद मुश्किल हो जाती है। गांव में सब पुराना है--वही गांव है, वही रास्ता है--सब वही है, वे ही लोग हैं।
मैं अपने गांव कभी जाता हूं साल भर बाद, दो साल बाद, सब वही का वही है। तो गांव में प्रवेश करते हुए मैं जानता हूं स्टेशन पर कौन सा कुली मुझे दिखाई पड़ेगा, वही दिखाई पड़ता है--एक ही कुली है, फिर कौन सा तांगे वाला मुझे मिलेगा, और वह तांगे वाला मुझसे क्या बातें करेगा; क्योंकि वह सालों से वही बातें, जब भी मैं जाता हूं मुझसे करता रहा है। फिर गांव की सड्कों पर से तांगा जाता है तो मैं जानता हूं कि कौन आदमी घर के बाहर सोकर खांस रहा होगा... क्या हो रहा होगा गांव में वह प्रिडिक्टेबल है, वह मुझे पहले से पता है कि यह हो रहा होगा; उसमें कोई न के बराबर फर्क होता है। कभी कोई घटना घटती है. गांव में कोई मर जाता है, कोई जन्मता है--कभी, बाकी सब वैसा ही चलता चला जाता है।
पूरब नींद के संबंध में बड़ा सुखी था, क्योंकि सब ठहरा हुआ था। पश्चिम नींद के संबंध में मुश्किल में पड़ गया, सब बदल रहा है--इतने जोर से बदल रहा है कि पांच साल बाद उसी गांव में जाकर खड़े होकर यह कहना मुश्किल है कि यह वही गांव है, सभी कुछ बदल गया है। तो नींद टूट गई है। नींद... अगर कोई विषय आपको उत्पेरित न करता हो, तो स्वभावत: फलित हो जाती है, और अगर कोई प्रेरणा बाहर बनी रहे तो आप जागे रहते हैं।
सुषुप्ति की यह व्याख्या बड़ी अदभुत है; यह व्याख्या यह कहती है कि बोध--स्व- बोध जैसी कोई चीज हमारे पास नहीं है; सेल्फ कांशसनेस जैसी कोई चीज हमारे पास नहीं है.. दूसरों की चेतना है। दूसरे जगाते हैं तो हम जगे रहते हैं, दूसरे हमें खींचते हैं तो हम जगे रहते हैं; दूसरे चुनौती देते हैं, संघर्ष देते हैं तो हम जगे रहते हैं। अगर कोई हमें न जगाए तो हम तत्काल सो जाएंगे, गहरे में खो जाएंगे।
एक गांव में मैं ठहरा हुआ था, एक आदमी को सांप ने काट लिया था। कोई चिकित्सक गांव में नहीं है, और दूसरे गांव तक उसे ले जाना है, तो गांव के बुजुर्गों ने सलाह दी कि उसे सो मत जाने देना, जगाए रखना, क्योंकि अगर वह सो गया तो शायद उसका लौटना फिर मुश्किल हो जाए। तो दूसरे गांव उसे लोग ले जा रहे हैं, उसे जगाए रखे हुए हैं। उसे जगाए हुए हैं.. -उसे सोने नहीं देते, उसको पानी छिड़क रहे हैं, उसको उठा कर बिठाए हुए हैं, उसे हिला रहे हैं कि वह सो न जाए।
उस दिन उस गाड़ी में उनके साथ थोड़ी दूर मैंने भी यात्रा की और तब मुझे अचानक खयाल आया कि यह आदमी तो सांप का काटा हुआ है, लेकिन हम सब की भी हालत ऐसी ही है। अगर हमें चारों तरफ जगाने वाले लोग न हों तो हम भी खो जाएं और सो जाएं। पूरे वक्त हमें कोई जगाए रखे है। नई उत्तेजना चाहिए तो थोड़ी रौनक आती है। इसलिए देखते हैं, जब युद्ध छिड़ जाता है तो लोगों की आंखों  में रौनक बढ़ जाती है; चेहरे पर ताजगी आ जाती है! नई घटना घट रही है! रोज नया अखबार सुबह! जो कभी ब्रह्ममुहूर्त में नहीं उठते, वे ब्रह्ममुहूर्त में उठ कर अखबार की राह देखने लगते हैं! क्या हो रहा है? हैरानी की बात है, युद्ध से उदासी आनी चाहिए, लेकिन युद्ध से खुशी आती है, युद्ध से पीड़ा होनी चाहिए, लेकिन युद्ध से ताजगी मालूम होती है! मरी-मराई कौमें भी जिंदा मालूम पड़ने लगती हैं कि जिंदा हैं... कुछ खून दौड़ रहा है! क्यों?
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जैसा आदमी है, ऐसे आदमी के रहते हुए हमें लड़ाई जारी रखनी ही पड़ेगी; क्योंकि नहीं तो यह बिलकुल सुस्त... फिर इसको अच्छा ही नहीं लगता! कहीं न कहीं कुछ होते रहना चाहिए--कोई उपद्रव, नहीं तो हम सो जाएंगे। हम सांप-काटे हुए हैं।
यह जो अवस्था है तीसरी--सुषुप्ति, इस अवस्था का अर्थ है जब कोई भी विषय हमें आदोलित करने को नहीं होता--न बाहर, न भीतर; न वस्तुओं के जगत में, न विचार के जगत में, तब जो स्थिति फलित होती है उसे भारतीय सुषुप्ति कहते हैं--जीवित हम होते हैं लेकिन अचेतन होते हैं।
इस चौथी अवस्था का नाम है. 'तुरीय।' जब कोई इस तीसरे को तोड़ डालता है... और सारा जगत मिट जाए, कोई न हो तो भी जागा रह सकता है--चांद-तारे बुझ जाएं, जमीन खो जाए, सब नष्ट हो जाए, कुछ भी न बचे, मैं अकेला ही बचूं और फिर भी जागा रहूं फिर भी मुझे होश हो... चारों तरफ शून्य छा जाए, सब रिक्त हो जाए, खाली हो जाए... अकेला मैं ही बचूं जानने को कुछ भी न बचे, जानने वाला ही बच रहे--कोई ज्ञेय पदार्थ न रह जाए, केवल गाता ही रह जाए; कोई शब्द न सुनाई पड़े, सिर्फ सुनने वाला बचे; कोई दृश्य न दिखाई पड़े, केवल देखने वाली क्षमता रह जाए--उस समय भी अगर मैं होश में रह जाऊं, तो उस अवस्था को भारतीय मनीषा कहती है. वह चतुर्थ अवस्था ही वास्तविक अवस्था है; वही ' तुरीय ' है। उसे जो पा लेता है वह सब-कुछ पा लेता है; जिसने उसे नहीं पाया, वह केवल वस्तुओं को या विचारों को संगृहीत करता रहता है... और धोखे में रहता है, धोखे में रहता है कि मैं जानता हूं कि मैं कौन हूं। छीन लो उसके विषय और छीन लो उसके विचार... और वह खो गया नींद में और कुछ भी नहीं बचा उसके पास।
एक आदमी के पास बहुत धन है, जब हम उसका धन छीनते हैं तो उसे जो तकलीफ होती है वह तकलीफ सिर्फ धन के छिनने की नहीं है; धन के छिनने के साथ-साथ उसकी आत्मा भी छिनती है; क्योंकि आत्मा तो उसके पास है नहीं; वह धन के संबंध में ही थी। जब हम किसी आदमी से उसका महल छीनते हैं तो महल ही नहीं छिनता, उसकी आत्मा भी छिनती है, क्योंकि आत्मा तो उसके पास थी ही नहीं; जितना बड़ा महल था उतनी ही बड़ी आत्मा कावहम था। वह महल छिन गया, उतनीही आत्मा छिन गई।
इसलिए संन्यास ने एक अदभुत प्रयोग किया.. हजारों साल में इस पृथ्वी पर, इस भूमि में संन्यास का एक अनूठा प्रयोग हुआ; वह प्रयोग मैं आपको इस संदर्भ में कहूं। वस्तुत: वह त्याग की बात नहीं है, वह वस्तुत: इस बात की कोशिश है कि एक व्यक्ति सब- कुछ छोड़ कर देखता है कि फिर भी मैं बचता हूं या नहीं?
सवाल यह नहीं है कि संसार बुरा है इसलिए छोड़ दो; और सवाल यह नहीं है कि घर बुरा है इसलिए छोड़ दो; और सवाल यह नहीं है कि पत्नी पाप है इसलिए छोड़ दो; संन्यास का जो अनूठा प्रयोग प्राथमिक रूप से हुआ, वह इस चेष्टा में था कि क्या मैं सब छोड़ कर भी बचता हूं? अगर नहीं बचता हूं तो मैं नहीं ही था--धोखे में था। अगर सब छोड़ कर भी बच सकता हूं--पत्नी नहीं मेरी, बेटा नहीं मेरा, मित्र नहीं मेरे, घर नहीं मेरा, धन नहीं मेरा--निपट नंगा, अकेला खड़ा हूं राह पर--फिर भी क्या मैं बचता हूं? अगर बच सकता हूं तो ही मेरे पास आत्मा है, अगर नहीं बचता हूं तो मुझे आत्मा की खोज करनी चाहिए।
यह इसलिए नहीं था छोड़ना कि चीजें बुरी हैं; यह इसलिए था छोड़ना कि चीजों के साथ रहने पर खयाल आना मुश्किल होता है कि मैं भी हूं या केवल चीजों का जोड़ ही है। जंगल छोड़ कर जाता था साधक, इसलिए नहीं कि शहर कुछ बुरा है; और इसलिए भी नहीं कि गांव में सत्य नहीं मिल सकता है; इसलिए भी नहीं कि परमात्मा कुछ भयभीत है गांव में आने को। वहां भी आ सकता है। छोड़ कर जाता था एकांत में सिर्फ इसलिए कि क्या अकेले में भी मैं बचता हूं कि सो जाता हूं? अकेले में भी मुझे होश रहता है कि खो जाता है? जब मैं सबको छोड़ देता हूं फिर भी मैं होता हूं या नहीं होता? अगर होता हूं तो ही मेरे पास आत्मा की कोई छोटी-मोटी संपदा है, अन्यथा नहीं है। अगर नहीं है तो खोज पर निकलूं अगर है तो उसे बड़ा करूं।
इसलिए जब बुद्ध या महावीर अपनी आत्मा को पा लेते है, तो गांव वापस लौट आते है, अब कोई बहुत डर नहीं है; अब कोई चिंता भी नहीं है; अब वे जानते हैं कि वे हैं।
हम बिलकुल नहीं हैं, इसलिए हमें वस्तुओं से इतना मोह होता है, वह मोह वस्तुओं का नहीं है, वे हमारी आत्माएं हैं। जब कोई आपसे आपकी कमीज छीनता है, तो कमीज नहीं छीन रहा है, आपके प्राण छीन रहा है। वह कमीज नहीं है सिर्फ! कमीज ही होती तो इतने परेशान होने की बात न थी।
जीसस ने कहा है अपने अनुयायियों को : अगर तुमसे कोई तुम्हारा कोट छीने तो कमीज भी उसे दे देना, पता नहीं, जरूरत हो और संकोच वश न छीनता हो। इसलिए नहीं, इसीलिए कि तुम इतने जोर से कमीज को मत पकड़ लेना कि ऐसा लगे, तुम्हारी आत्मा है। और अगर कोई तुमसे कहे कि एक मील तक बोझ को ढोओ, तो तुम दूसरे मील तक ढो देना, सिर्फ इसीलिए कि ताकि तुम कह सको कि इस शरीर को मैं अपना ही नहीं मानता, यह तुम्हारा भी उतना ही है।
चैतन्य पैदा होता है, सुषुप्ति को तोड़ने से।
मैंने गुरजिएफ का नाम लिया। गुरजिएफ अपने साधकों को कहता था कि अपनी घड़ी पर नजर रखो--सेकेंड का कांटा घूम रहा है, तुम एक छोटा सा प्रयोग करो, सेकेंड के कांटे को याद रखो और देखते रहो कि सेकेंड का कांटा घूम रहा है--और साथ ही यह भी याद रखो कि मैं इसको याद रख रहा हूं। सिर्फ छोटी सी बात है, लेकिन इतनी छोटी नहीं। करेंगे तो पता चलेगा, बड़ा कठिन है। एवरेस्ट पर चढ़ जाना आसान है; यह बहुत छोटा सा प्रयोग, बहुत दुस्तर! यह घड़ी का कांटा घूम रहा है सेकेंड का, यह साठ सेकेंड में एक मिनट का चक्कर पूरा करेगा, गुरजिएफ कहता था : अगर तुम पूरे एक मिनट भी इतना याद रख सको, तो मैं कहूंगा, तुम्हारे पास थोड़ी बहुत आत्मा है। इतना भी--एक मिनट-- कि कांटा घूम रहा है यह भी याद बना रहे, और यह भी याद बना रहे कि मैं याद रख रहा हूं-  -डबल एरोड कांशसनेस; दोहरा तीर--इधर कांटे को भी देखते रहो और इधर स्वयं को कि मैं देख रहा हूं। और आप हैरान होंगे कि तीन-चार सेकेंड भी नहीं चल पाता कि झपकी आ जाती है! तीन-चार सेकेंड नहीं चल पाता--या तो कांटा भूल जाता है या खुद को भूल जाते हैं--दो में से एक भूल जाते हैं।
एक मिनट याद रखना मुश्किल है कि मैं हूं। तो सुषुप्ति बड़ी गहरी होगी। अगर कांटा भूलता है, तो भी सो गए.. काटा कब भूलता है? कांटा तब भूलता है जब कोई और विचार बीच में आ जाता है और ध्यान वहां खिंच जाता है--कांटा भूल जाता है। अगर कांटा नहीं भूलता और जबर्दस्ती रोक कर कांटे पर ध्यान रखते हैं तो भीतर से ध्यान खिसक जाता है कि मैं ध्यान रख रहा हूं।
अत्यंत दयनीय मालूम पड़ती है आदमी की स्थिति कि एक मिनट भर याद न रख सके कि मैं हूं! लेकिन इसका कारण है। और इसका कारण है, सुषुप्ति की धारा को हमने कभी छुआ ही नहीं; हम गहरे में सोए ही हुए हैं। थोड़ी बेचैनी बाहर होती है.. एक आदमी सो रहा है आप उसकी टांग खींच देते हैं तो वह करवट लेकर जरा सी आंख खोलता है और कुछ बड़ बडा कर फिर सो जाता है--बस, ऐसी हमारी जागृति है।
मजबूरी है, भूख लगती है, इसलिए सुबह उठना पड़ता है। मजबूरी है, नौकरी करनी पड़ती है, बच्चों को भोजन जुटाना पड़ता है, इसलिए दफ्तर जाना पड़ता है। चले जा रहे हैं खिंचे हुए, जैसे कोई टांग खींच रहा है नींद में से। और जैसे ही फुर्सत मिलती है, छोड़ कर आदमी सो जाता है।
अगर आपको कोई मौका दे चौबीस घंटे सोने का, आप जगना चाहेंगे? कोई अगर व्यवस्था कर दे कि सोओ चौबीस घंटे, आप जगना चाहेंगे? जगना मजबूरी है। इसलिए जिनके पास सुविधा हो जाती है वे शराब पीकर सोने लगते हैं; क्योंकि अब जगने की कोई जरूरत नहीं रही। जिन्हें और सुविधा हो जाती है, एल एस डी है, मारीजुआना है, मेस्कलीन है, उनमें डूब जाते हैं।
जब भी कोई समाज थोड़ी सी सुविधा जुटाता है तो पहला खर्चा शराब पर करता है। समाज की छोड़ दें, एक आदमी भी थोड़ी सी सुविधा जुटा लेता है, तो पहला खर्चा शराब पर कर देता है। क्यों? बेहोश होने की इतनी आकांक्षा क्यों? क्या होश इतना दुखद है? जिस होश को हम जानते हैं, वह बड़ा दुखद है--वह ऐसे ही है, जैसे जबर्दस्ती कोई खींच कर जगाए रखे औरमौका मिले और आप तत्काल नींद में खो जाएं और गिर जाएं।
सुषुप्ति की पर्त हमारे भीतर भरी है, नींद हमारे भीतर भरी है। यह तीसरी अवस्था है और साधक को जान लेनी ठीक से जरूरी है, क्योंकि इसको तोड़े बिना चौथे तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है।

ऋषि ने कहा है : ''सब इंद्रियों के शांत बन जाने पर, विशेष ज्ञान न होने पर, विषय जब ग्रहण नहीं होते तब, उस समय आत्मा की अवस्था को सुषुप्ति कहा जाता है।''
''और इन तीनों अवस्थाओं की उत्पत्ति और लय को जानने वाला और स्वयं उत्पत्ति और लय से निरंतर परे, ऐसा जो नित्य साक्षी चैतन्य है,
वही तुरीय है।''
ये हैं तीन अवस्थाएं जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, लेकिन किसकी हैं ये अवस्थाएं? कौन है जो इन तीनों में चलता है? कौन है जो जागता, और कौन है जो स्वप्न देखता, और कौन है जो सोता है? निश्चित ही वह अलग होगा। निश्चित ही वह अलग होगा!
मैं एक स्टेशन से गुजरता हूं फिर दूसरी स्टेशन से गुजरता हूं फिर तीसरी स्टेशन से गुजरता हूं--ये तीनों स्टेशन हैं; निश्चित ही यात्री अलग होगा। मैं स्टेशन नहीं हूं नहीं तो दूसरी स्टेशन पर कैसे पहुंच पाता! दूसरी स्टेशन भी मैं नहीं हूं क्योंकि मैं तीसरी पर पहुंच जाता हूं; और तीसरी भी मैं नहीं हूं क्योंकि मैं फिर दूसरी पर, फिर पहली पर चला आता'
हूं।
आदमी जागता है, स्वप्न देखता है; सोता है, फिर सोता है, फिर जागता है, फिर स्वप्न देखता है--तीनों में डोलता रहता है। इसलिए ऋषि कहते हैं कि जो इन तीनों में डोलता रहता है वह चौथा होना चाहिए, वह तीन में से कोई भी नहीं हो सकता।
क्या करें? कैसे संभव होगा? इस सुषुप्ति को कैसे तोड़ पाएंगे? सब तरफ घेरे हुए है नींद। चलते हैं सोए हुए, उठते हैं सोए हुए, बैठते हैं सोए हुए... जो भी कर रहे हैं, सोए हुए।
बुद्ध गुजरते हैं एक राह से। तब की है बात जब वे बुद्ध न थे। एक मित्र साथ है, एक मक्खी बुद्ध के कंधे पर आकर बैठ गई। बुद्ध ने इस मित्र से बातें जारी रखीं, राह पर चलते रहे, मक्खी को हाथ मार कर उड़ा दिया.. फिर ठिठक कर खड़े हो गए। मित्र ने पूछा. क्या मक्खी ने काटा? लेकिन बुद्ध ने आंखें  बंद कर लीं। मित्र को जवाब न दिया, हाथ को उठाया, वापस उस जगह ले गए जहां थोड़ी देर पहले मक्खी थी-- अब नहीं थी, उड़ाया उस मक्खी को जो अब वहां नहीं थी, वापस हाथ को नीचे लाए।
मित्र ने कहा. पागल हो गए हैं? मक्खी तो उड़ गई पहली ही चोट में, अब क्या उड़ाते हैं?

बुद्ध ने कहा. अब मैं इस तरह उड़ाता हूं जिस तरह मुझे पहले उड़ाना चाहिए था; मैंने बेहोशी में उड़ा दिया। यह हाथ ऐसे उठ गया जैसे नींद में.. मुझे पता ही न चला, मैं तुमसे बात करने में लगा रहा, हाथ उठ गया, मक्खी उड़ गई तब मुझे पता चला कि मैंने मक्खी उड़ाई और मुझे पता ही नहीं था कि मैं उड़ा रहा हूं। यह नींद थी। इसे तोड़ने के लिए अब मैंने कोशिश करके देखी कि मुझे मक्खी कैसे उड़ानी चाहिए थी। यह हाथ उठा, इसके साथ चेतना उठी, यह हाथ होशपूर्वक गया कंधे पर, इसने मक्खी को उड़ाया। जब मैंने इस मक्खी को उड़ाया तब मैं जान रहा था कि मैं क्या कर रहा हूं। तब मैं यह भी जान रहा था कि मैं क्या कर रहा हूं और मैं यह भी जान रहा था कि मैं जान रहा हूं कि मैं क्या कर रहा हूं। दिस इज डबल एरोड कांशसनेस, यह है दोहरा तीर चेतना का। बुद्ध ने कहा. अब दूबारा मक्खी बैठे, तो ऐसे मैं उड़ाऊं-गा, इसका थोड़ा अभ्यास किया, आगे चलें।
अगर हम ऐसा सोचें तो हमारे... हमारे सारे के सारे काम नींद में मालूम पड़ेंगे। अब जो आदमी मक्खी भी नहीं उड़ा सकता बेहोशी में, क्रोध कर सकेगा? गाली दे सकेगा? ईष्‍या कर सकेगा? द्वेष कर सकेगा? सभी कुछ नींद में होता है, होश के साथ गिरना शुरू हो जाता है।
आनंद बुद्ध के साथ वर्षों था। एक दिन बुद्ध से उसने पूछा कि और तो सब ठीक है, एक बात भर मेरी समझ में नहीं आती, रात में सोते हैं आप कि नहीं? बुद्ध ने कहा रोज तू जानता है कि मैं सोता हूं। आनंद ने कहा. वह तो मैं भी देखता हूं लेकिन जहां पैर रखते हैं वहीं रखा रहता है रात भर; और जहां हाथ रखते हैं वहीं रखा रहता है। कल तो पूरी रात जाग कर मैं बैठा रहा कि देखें भी यह आदमी हाथ-पैर भी हिलाता, करवट भी बदलता है कि नहीं! तो वहीं के वहीं हाथ रखे रहे, रात भर सम्हल कर सोते हैं? तो क्या सो पाते होंगे! कैसे सोएंगे?
बुद्ध ने कहा : एक दफा भर जीवन में ऐसा हुआ था... कि मैंने करवट बदली थी और मुझे पता नहीं था। उस दिन के बाद करवट ही नहीं बदली; उस दिन से करवट ही छोड़ दी। ऐसी चीजों से दोस्ती ही क्या रखनी! सोया रहता हूं जागा हुआ। हाथ जहा रखा है वहीं रहना चाहिए, हाथ मेरा है; और बिना मेरी आज्ञा के हिले तो मैं गुलाम हो जाता हूं मैं मालिक नहीं हूं।
तो जागरण से जागना शुरू करना पड़े.. जिसे अभी हम जागरण कहते हैं, उसमें जागना शुरू करना पड़े। जागते जाएं--कोशिश करें.. कोशिश करें... और जागे। फिर धीरे- धीरे जब जागने में जागना पैदा हो जाता है, तो आप दूसरी तरफ प्रवेश कर सकते हैं। जो जागने में जाग गया, अचानक नींद में उसे सपनों का पता चलने लगता है कि यह रहा स्वप्न। और जैसे ही यह पता चलता है, वैसे ही स्वप्न खो जाते हैं; क्योंकि होशपूर्वक स्वप्न नहीं हो सकते; स्वप्न के लिए बेहोशी जरूरी है।

और जब स्वप्न खो जाते हैं तो जागरण तीसरी दशा में प्रवेश करता है; फिर जागरण का तीर सुषुप्ति में घुसता है। और तब आदमी को पता होता है कि मैं सो रहा हूं। और उसका अर्थ यह हुआ कि उसको पता होता है कि शरीर विश्राम कर रहा है, बस। वैसे व्यक्ति की निद्रा एक विश्राम है; और आपकी निद्रा भी एक श्रम है। एक आदमी को सोते हुए देखें तब आपको पता चले, कि दिन भर जितनी मेहनत नहीं की उतनी वे नींद में, सोते में कर रहे हैं--हाथ पटक रहे हैं, सिर पटक रहे हैं, मुंह बना रहे हैं--पता नहीं, क्या-क्या कर रहे हैं! अभी सोए हुए आदमियों की फिल्में ली गई हैं, उनको खुद को दिखाई गईं, तो वे बोले, क्या मामला है? यह मैं करता हूं? यह नहीं हो सकता; कुछ धोखा धड़ी है, कुछ चालबाजी है।
आपकी फिल्म अगर रात भर उतारी जाए, और फिर सुबह आपको दिखाई जाए, तब आपको पता चले कि आप ही करते रहे। इतनी.. इतना उपद्रव नींद में भी! उधर भी चैन नहीं?
हमारी नींद भी एक श्रम है। और ऐसे व्यक्तियों का जागना भी एक विश्राम है। ऐसे व्यक्तियों का जागना भी एक विश्राम है, हमारी नींद भी एक श्रम है। हम नींद के बाद भी थके हुए उठते हैं; क्योंकि रात भर इतनी मेहनत हो जाती है जिसका कोई हिसाब नहीं।

गलत नहीं कह रहा हूं नींद के बाद भी हम इस बुरी तरह थके हुए उठते हैं। और यह रोज का सिलसिला है : दिन भर के थके रात सो जाते हैं, रात भर के थके सुबह उठ आते हैं। जिंदगी हमारी एक लंबी थकान है। एक बोझ जिसको हम ढोए चले जाते हैं। वह मौत अगर न आए तो इस बोझ से हमारा छुटकारा ही न हो। मौत आ जाती है, जबर्दस्ती हमसे बोझ छीन लिया जाता है। मगर हम इतनी वासना से भरे हैं और बोझ से हमारा इतना मोह है कि मर भी नहीं पाते कि नये जन्म की यात्रा पर हमारी चेतना निकल जाती है--नये बोझ की तलाश में, नई बीमारियों की खोज में, नये उपद्रव...।
जैसे ही चेतना का तीर प्रवेश करता है सुषुप्ति में, प्रगाढ़ निद्रा को पार करता है, वैसे ही फिर निद्रा शरीर का विश्राम रह जाती है।
कृष्ण ने जो गीता में कहा है कि योगी सोया हुआ भी सोता नहीं। यह नहीं कहा है कि रात भर आंख खोल कर खड़ा रहता है--जैसे कुछ पागल खड़े रहते हैं। यह पागलपन है। यह दूसरा पागलपन हुआ। कुछ पागल आंख बंद करके भी नहीं सो पाते, कुछ पागल आंख खोल कर खड़े रहते हैं कि कहीं नींद न आ जाए; क्योंकि कृष्ण ने कहा है : योगी सोकर भी नहीं सोता.. पर वे समझे नहीं कि ' सोकर भी। ' ऐसे खड़े होने को नहीं कहा है कि आंख खोल कर खड़ा रहे। ऐसे कुछ लोग हैं...।
अभी मैं एक गांव में गया तो वहां हैं एक खड़े श्री बाबा। लोगों ने मुझे आकर कहा कि आप खडेश्री बाबा के संबंध में कुछ जानते हैं? क्या हुआ... मैंने कहा : उनको क्या हो गया? दस साल से खड़े हैं, इसलिए खडेश्री बाबा उनका नाम है। मैंने कहा : उनके दिमाग का इलाज करवाओ और क्या करूं मैं? किसी तरह बिठाने की कोशिश करो, किसी तरह सुलाओ। पर अब वह उनको बिठाया नहीं जा सकता; पैर हाथी-पाव हो गए हैं। पैर सब लहू से भर गए हैं, सब नसें जकड़ गई हैं; अब वे बैठ भी नहीं सकते हैं। मैंने लोगों से कहा : कुछ भी करो, इन्हें बैठे श्री बनाओ। रुको मत। बुद्धि बिलकुल क्षीण हो गई है.. हो ही जाएगी; सब खून पैरों में चला गया, बुद्धि के पास कुछ बचा नहीं। आंखें  देखें, पथरा गई हैं। यह आदमी जिंदा मौत में खड़ा है।
लेकिन पूछेंगे : क्यों खड़ा है? आदमी अहंकार के लिए कुछ भी कर सकता है। पैरों पर लोग सिर रख रहे हैं, फूल चढ़ाए जा रहे हैं, रुपये रखे जा रहे हैं, मंदिर खड़े हो रहे हैं! मंहगा नहीं है, सौदा सस्ता है। इतने मंदिर और इतने फूल और इतने सिर! जैसे वह आदमी मुझे दिखाई पड़े--निपट बुद्धिहीन, वह पचास जन्म कोशिश करें तो एक मंदिर न बना पाएंगे। मंहगा नहीं है सौदा। और अब तो अभ्यास मजबूत हो गया, अब तो उलटा अभ्यास करने में बडी मसाज की जरूरत पड़ेगी। बहुत मुश्किल है। शायद ही अब पैर उनके वापस मुड़ पाएं। जड़ की भांति खड़े हैं। लेकिन क्या...।
अगर कृष्ण से कहीं मुलाकात हुई तो ये उन पर मुकदमा चलाएंगे कि क्यों कहा था गीता में कि योगी सोकर भी सोता नहीं? कृष्ण भलीभांति सोते रहे, वे कभी खड़े हुए नहीं! फिर भी गीता का खयाल नहीं उठता। कोई बुद्धिमान आदमी नहीं खड़ा रहा है। जो उनके चरणों में सिर रखते हैं वे भी नहीं पूछते कि कृष्ण तक ऐसा अभ्यास नहीं किए, बुद्ध ऐसा अभ्यास नहीं किए, क्राइस्ट ऐसा अभ्यास नहीं किए, आप क्या उनसे भी आगे निकले जा रहे हैं?
लेकिन हमें खयाल नहीं आता। यह जो सोकर भी नहीं सोता.. सो जाता है शरीर, सो जाते हैं तंतु, सो जाते हैं स्नायु--सब सो जाता है और भीतर चेतना का दीया जला रहता है। घिर जाते हैं बादल चारों तरफ और सूरज अपनी रोशनी में मौजूद बना रहता है।
जब यह सुषुप्ति पार होती है तो तुरीय, चौथी अवस्था उपलब्ध होती है। अवस्था केवल शब्द के प्रयोग के लिए कहते हैं; अवस्था वह नहीं है, वह हमारा स्वभाव है; वह हम हैं ही। और ऐसा नहीं है कि जब हम भ्रांति में पड़े हैं बहुत, तब हम बदल गए हों। नहीं, हमारी भांति ठीक वैसी ही है, जैसे कोई लकड़ी को पानी में डाले, तो पानी में जाते ही सीधी लकड़ी तिरछी दिखाई पड़ने लगती है। होती नहीं तिरछी, हो नहीं जाती तिरछी, सिर्फ दिखाई पड़ने लगती है; बाहर निकालें, फिर सीधी हो जाती है--हो नहीं जाती, सीधी थी ही। जब तिरछी दिखाई पड़ती थी तब भी सीधी थी। जब बाहर निकालते हैं तो सीधी दिखाई पड़ती है। पानी केवल देखने में भ्रम पैदा करता है, होने में नहीं।
तो जब चेतना उतरती है तीन अवस्थाओं में--सुषुप्ति में, स्वप्न में, जाग्रत में--तो लगता है, खो गई; खोती नहीं, खोती जरा भी नहीं, लगता है खो गई। जब वापस लौटती है तो पता चलता है, मिल गई; मिलती नहीं है, मिली ही हुई थी.। लेकिन यह भ्रम जरूर पैदा हो जाता है। इस भ्रम को तोड़े बिना जीवन में कोई भी आनंद की झलक नहीं उपलब्ध होती, इस भ्रम को तोड़े बिना अमृत का कोई स्वाद नहीं मिलता; इस भ्रम को तोड़े बिना सत्य की कोई प्रतीति नहीं।
इस भ्रम को तोड़ना हो तो समझना बहुत काफी नहीं है--समझना जरूरी है, काफी नहीं है, समझना आवश्यक है, पयार्प्त नहीं है। चलना पड़े, यात्रा करनी पड़े; एक यात्रा हमने की है, वापस लौटना पड़े। घर से हम दूर निकल आए, घर की फिर खोज करनी पड़े। हजार उपाय हो सकते हैं इस खोज के। कोई भी एक उपाय पकड़ लें तो भी पहुंचना हो जाता है। लेकिन अक्सर मैं देखता हूं तीन तरह के लोग हैं--
एक तो वे लोग हैं, जो इस डर से कि कुछ करना न पड़े--कहते हैं, ये सब बातें पागलपन की हैं, ये हैं ही नहीं। ये हैं ही नहीं! मैं बहुत से ऐसे लोगों को जानता हूं जो इसलिए ईश्वर को इनकार करते हैं--इसलिए नहीं कि ईश्वर से उनकी कोई दुश्मनी है; इसलिए भी नहीं कि उन्हें पता है कि ईश्वर नहीं है; इसलिए भी नहीं कि वे कोई नास्तिक हैं, -बल्कि सिर्फ इसलिए कि वे अत्यंत आलस्य से भरे हैं। अगर ईश्वर है तो फिर यात्रा की शुरुआत होगी, फिर झंझट शुरू होगी। बेहतर पहले से ही इनकार कर देना है कि ये सब बातें हैं ही नहीं। इससे निश्चितता रहती है। इससे अपने आलस्य में हम प्रफुल्लित रहते हैं। जो है ही नहीं उसको खोजने क्या जाना? अगर होगा, तो खोजने न भी गए तो भी बेचैनी शुरू हो जाएगी। अगर है तो फिर आप पड़े रहें अपने घर में ही बिस्तर पर, तो भी बेचैनी शुरू हो जाएगी, कहीं कोई पुकार भीतर होने लगेगी कि जो है उसे खोजो।
इसलिए बहुत बार मैं देखता हूं कि बहुत से धार्मिक लोग अधार्मिक होने का आवरण खड़ा किए रहते हैं--सिर्फ इसलिए, ताकि निकलना न पड़े, कहीं जाना न पड़े, कुछ करना न पड़े। उनका आलस्य उनकी नास्तिकता बन जाती है।
दूसरे वे लोग हैं, जो अपने आलस्य को नास्तिकता नहीं बनाते, वे और भी कुशल हैं, वे अपने आलस्य को आस्तिकता बना लेते हैं। वे अपने आलस्य में पड़े रहते हैं अपनी जगह पर और ब्रह्मचर्चा करते रहते हैं।
ब्रह्म चर्चा में कुशल हो जाना बड़ी सरल बात है। किसी और चर्चा में इतना कुशल होना सरल बात नहीं है, क्योंकि आप झंझट में पड़ोगे। अगर आपने कहीं पत्थर के संबंध में कोई वक्तव्य दिया तो प्रयोगशाला में सिद्ध करना पड़ेगा। ब्रह्म के संबंध में जो मौज आए, कहिए; न कोई सिद्ध कर सकता है, न कोई असिद्ध कर सकता है। कोई उपाय ही नहीं आपको गलत करने का--सही करने का भी नहीं, गलत करने का भी नहीं। इसलिए ब्रह्मचर्चा इतनी मजे की चर्चा है कि बुद्ध से बुद्ध कर सकता है। इसलिए जो कुछ और नहीं करते वे ब्रह्मचर्चा करने लगते हैं--जो कुछ और कर नहीं सकते। अगर वे कोई वक्तव्य दें जमीन के संबंध में तो पचास झंझटों में पड़ेंगे; ब्रह्मलोक के संबंध में.. कुछ झंझट नहीं। अगर आप नक्‍शा बनाएं माथेरान का, तो आपको सिद्ध करना पड़ेगा, नाप-जोख करनी पड़ेगों हजार मेहनत उठानी पड़ेगी। कहां झंझट में पड़ते हैं! सत्यखंड का नक्‍शा बनाइए, ब्रह्मलोक का नक्‍शा बनाइए, कोई दुनिया में आपको चैलेंज भी नहीं कर सकता; क्योंकि आप बिलकुल चुनौती के बाहर हैं। इसलिए लोग अपनी खाटों पर बैठे हैं और ब्रह्मचर्चा कर रहे हैं! हिलते नहीं वहां से। आस्तिक समझते हैं अपने को, आस्तिक नहीं हैं।
आस्तिकता चर्चा से तृप्त नहीं होती; आस्तिकता अनुभूति मांगती है।
तो एक तो वे हैं जो कहते हैं, ये सब बातें ही नहीं हैं, इसलिए जाना कहां? एक वे, जो कहते हैं, ये सब बातें हैं लेकिन हमें सब पता ही है, इसलिए जाना कहां? जाने की जरूरत क्या है? जो भी है वह सब शास्त्रों में रखा है। ऋषि-मुनि पहले ही कह गए हैं, उस सबकी हमें अब कोई खोजने की जरूरत नहीं है।
ध्यान रहे, विज्ञान और धर्म में यह बुनियादी फर्क है. विज्ञान में जो चीज एक बार खोज ली गई, दूसरे को खोजने की जरूरत नहीं होती; लेकिन धर्म में जो चीज खोज ली गई, कोई इस भ्रम में न रहे कि अब वह सदा के लिए खोज ली गई और आपको खोजनी न पड़ेगी। धर्म वैयक्तिक खोज है, प्रत्येक को पुनः-पुन: खोजनी होती है। और यही तो मजा है। इसलिए धर्म सदा ताजा है, बासा नहीं होता; विज्ञान तो बासा हो जाता है। अब न्यूटन बिलकुल बासा है आज, लेकिन यह सर्वसार आज भी ताजा है, क्योंकि बार-बार खोजना पड़ता है।
धर्म प्रेम जैसा है। आप यह नहीं कहते कि देखो, मजनू कितना प्रेम कर चुका, फरिहाद कितना प्रेम कर चुका, अब हम और क्यों झंझट में पड़े? तो प्रेम के संबंध में सब लिखा हुआ रखा है--पढ़ लेंगे, सीख लेंगे, तुकबंदी कर लेंगे, अब हम प्रेम की झंझट में क्यों पड़े?
नहीं, किसी ने कितना ही प्रेम किया हो, और फरिहाद कितना ही कर चुके होंगे, आप न मानेंगे, आप भी करेंगे, बिना किए आप राजी न होंगे। प्रेम वैयक्तिक है। करोड़- करोड़ लोग कर चुके हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, वह बासा नहीं होता। आप फिर करते हैं। और आप जब करते हैं तभी जानते हैं, उसके पहले आप जानते नहीं।
फरिहाद से जानने का कोई उपाय नहीं है, बुद्ध से भी जानने का कोई उपाय नहीं है। यह प्रेम जैसा मामला है.. यह परमात्मा बिलकुल प्रेम का मामला है; यह फिर खोजना पड़ता है।
यह जो चौथा है, जिससे तीन का जन्म होता--निद्रा घनी होती, स्वप्न बनते, जागृति होती; और फिर तीनों जिसमें वापस लीन हो जाते। यह चौथा न तो किसी से जन्मता है और न किसी में लीन होता है; यह शाश्वत सिद्धांत है जीवन का; यह जीवन का आधार है-- प्रारंभ भी यही, अंत भी यही। और जिसने इसे नहीं जाना, वह केवल बीच की परिभ्रमणाओं में भटकता है।

आज इतना ही।

अब हम प्रयोग की तैयारी करें। दो-तीन बातें आपसे प्रयोग के लिए कह दूं। कल तो धूल से आपको बहुत तकलीफ हो गई, इसलिए आज जो लोग तेजी से करने वाले हैं वे मंच पर ऊपर रुकेंगे; जो थोड़ा धीमे करना चाहते हों वे थोड़े नीचे फैले जाएंगे।
इस प्रयोग में बहुत क्रांतिकारी परिणाम आ सकते हैं, लेकिन आपको अपनी पूरी शक्ति लगानी जरूरी है। इसलिए इसे रात में रखा है। सुबह का प्रयोग, दोपहर का प्रयोग, आपकी सामर्थ्य को, हिम्मत को बढ़ाएगा, तो आप रात के आखिरी प्रयोग में पूरा दांव लगा सकें। और फिर सो ही जाना है, इसलिए थकने का डर न करें। थक ही जाएंगे न! कुछ बिगड़ा नहीं जा रहा है। नींद गहरी आ जाएगी और कुछ ज्यादा नहीं होगा। पूरी ताकत लगानी जरूरी है।
ओशो

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