कथा--तीसरी (ग्रंथियों की खोज)
एक वृद्ध मेरे पास आते हैं। वे कहते
हैं : ‘नयी पीढ़ी बिल्कुल बिगड़ गयी है।’ यह उनकी रोज की ही कथा है।
एक दिन मैंने उनसे एक कहानी कही :
‘एक व्यक्ति के ऑपरेशन के बाद उसके शरीर में बंदर की ग्रंथियाँ लगा दी गयीं थीं।
फिर उसका विवाह हुआ। और फिर कालांतर में पत्नी प्रसव के लिए अस्पताल गई। पति
प्रसूतिकक्ष के बाहर उत्सुकता से चक्कर लगा रहा था। और जैसे ही नर्स बाहर आई, उसने हाथ पकड़
लिए और कहा : ‘भगवान के लिए जल्दी बोलो। लड़का या लड़की?’
उस नर्स ने कहा : ‘इतने अधीर मत
होइए। वह पंखे से नीचे उतर जाये, तब
तो बताऊं?'
वह व्यक्ति बोला : ‘हे भगवान! क्या
वह बंदर है?'और
फिर थोड़ी देर तक वह चुप रहा और पुनः बोला : ‘नयी पीढ़ी का कोई भरोसा नहीं है। लेकिन
यह तो हद हो गई कि आदमी से और बंदर पैदा हो?'
उसने यह सब तो कहा लेकिन एक बार भी
यह नहीं सोचा कि यह नयी पीढ़ी आकस्मिक नहीं है और बंदर की ग्रंथियाँ स्वयं उसके
शरीर में ही लगी हुई हैं जिनका कि यह स्वाभाविक परिणाम है।
लेकिन पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी को दोष
देती है और नयी पीढ़ी फिर और नयी पीढ़ी को दोष देती है, और एसे वे
ग्रंथियाँ सुरक्षित रही आतीं हैं जो कि मनुष्य की सारी विकृतियों के मूल में हैं।
और यह क्रम सदा से चलता चला आ रहा है। पुरानी से पुरानी किताबें यही कहतीं हैं कि
नयी पीढ़ी बिल्कुल बिगड़ गई है। लेकिन जब तक यह बात कही जाती रहेगी तब तक नई पीढ़ियाँ
बिगड़ती ही रहेंगी।
हाँ, किसी दिन जब कोई पीढ़ी इतनी समर्थ और
साहसी और समझदार होगी कि कह सके कि ‘हमारी पीढ़ी ही रुग्ण और बीमार है’ तो शायद वह
स्वयं की उन ग्रंथियों को खोज सके जो कि दुर्भाग्य की काली छाया की भाँति मनुष्य
का पीछा कर रही हैं। और एक बार उन ग्रंथियों की खोज हो सके तो उनसे मुक्त होना
कठिन नहीं है। वस्तुतः तो उन्हें जान लेना ही उनसे मुक्त हो जाना है।
(ओशो)
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