ध्यान योग शिविर
दिनांक 15 जनवरी 1972 रात्रि:
माथेरान।
सूत्र :
नाहं कर्ता नैव भोक्ता प्रकृते: साक्षीरूपक:।
मत्सान्निध्यात् प्रवर्तन्ते देहाद्या अजडा इव।। 18।।
स्थाणुर्नित्य: सदानन्द: शुद्धो ज्ञानमयोऽमल:।
आत्माउहं सर्वभूतानां विशु: साक्षी न संशय:।। 19।।
मैं कर्ता नहीं हूं और भोक्ता भी नहीं हूं, परंतु केवल प्रकृति का साक्षी हूं और समीपत्व के कारण देह आदि को सचेतन होने का आभास होता है और वे वैसी ही क्रिया करते हैं।
मैं तो स्थिर, नित्य, सदैव आनंदरूप, शुद्ध, ज्ञानमय निर्मल आत्मा हूं, और सब प्राणियों में श्रेष्ठ हूं, साक्षीरूप व्याप्त हो रहा हूं, इसमें संशय नहीं।
उस अस्तित्व की और गहनता में और गहराई में प्रवेश करना हो तो कुछ और निषेध भी समझ लेने जरूरी हैं।
कल हमने समझा, शरीर नहीं हूं मैं, इंद्रियां नहीं हूं मन नहीं हूं बुद्धि नहीं हूं चैतन्य हूं। लेकिन उससे भी सूक्ष्म आवरण हैं। और वे सूक्ष्म आवरण सिर्फ समीप होने के कारण निर्मित हो जाते हैं चैतन्य, जो भी उसके समीप होता है उसे आपूरित कर देता है। जैसे प्रकाश, जौ भी समीप होता है उसे प्रकाशित कर देता है। दीया जलाया हमने, जलते ही दीये के जो भी उस दीये के घेरे में पड़ जाता है, सब प्रकाशित हो जाता है।
ऐसी ही चेतना जो हमारे भीतर है, उसके जो भी निकट है वह सभी प्रकाशित हो जाता है। उस प्रकाशित होने में ही कठिनाई शुरू होती है। अगर दीये को भी होश आ जाए.. दीया नहीं था, अंधेरा था, तब कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था.. फिर दीया जला, अगर दीये में भो चेतना हो, तो जो-जो प्रकाशित हो रहा है, दीये को भी भ्रांति होगी कि वह भी मैं ही हूं प्रकाश को यह भांति हो जाएगी कि जो भी प्रकाशित है वह भी मैं ही हूं। क्योंकि जब मैं नहीं होता तब यह कुछ भी तो नहीं होता--न दीवालें दिखाई पड़ती हैं कमरे की, न फर्नीचर दिखाई पड़ता है कमरे का.. जब मैं नहीं होता हूं तो कुछ भी नहीं होता है, जब मैं होता हूं तभी यह सब होता है। स्वभावत:, सीधा तर्क है कि मेरे होने में ही इनका होना भी समाया हुआ है।
चैतन्य का भी अनुभव यही है : चैतन्य अगर नहीं होता तो न शरीर होते हैं पांच, न मन होता है, न बुद्धि होती है, न इंद्रियां होती हैं--कुछ भी नहीं होता, चैतन्य के आविर्भाव के साथ ही सब होता है। चैतन्य अगर बेहोश हो जाए, गहन निद्रा में खो जाए, तो भी शरीर का पता नहीं चलता फिर; फिर बुद्धि का कोई पता नहीं चलता। इसीलिए तो आपका ऑपरेशन करना होता है तो बीच में एक गहरी बेहोशी की पर्त चैतन्य के चारों तरफ खड़ी करनी पड़ती है; फिर आपका हाथ कटता है तो पीड़ा नहीं होती; फिर आपके पूरे शरीर को भी टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाए तो पता नहीं चलता; क्योंकि दीये के जिस प्रकाश में यह सब दिखाई पड़ता था वह दीये का प्रकाश आवृत्त है बेहोशी से।
चैतन्य जिस चीज को भी प्रकाशित करता है, उस चीज से समीपत्व के कारण एकता अनुभव होती है; निकटता के कारण लगता है, यह भी मैं ही हूं। यही हमारी सारी तादात्म्य की भूल है। और फिर जिससे हम अपने को एक समझ लेते हैं उसी तरह का हम व्यवहार करने लगते हैं।
जैसे, श्वास लेते हैं हम। अगर चैतन्य भीतर से विदा हो जाए तो श्वास विलीन हो जाएगी। श्वास की प्रक्रिया चलती है, चैतन्य का प्रकाश श्वास की प्रक्रिया पर पड़ता है और चैतन्य को लगता है--जब मैं होता हूं तभी श्वास चलती है, जब मैं नहीं होता हूं श्वास नहीं चलती है। तो मैं ही श्वास हूं मैं ही श्वास ले रहा हूं।
लेकिन यह बात सच नहीं है। आपने कभी भी श्वास नहीं ली है। श्वास चल रही है, आप केवल साक्षी हैं। निश्चित ही आपके होने पर ही श्वास के चलने का बोध होता है, लेकिन श्वास का चलना बिलकुल अलग है, आपकी बेहोशी में भी चल सकती है। और अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि आप मर भी गए हों तो भी हम यंत्रों से संयुक्त करके श्वास की प्रक्रिया को चलाए रख सकते हैं।
श्वास एक अलग यंत्र है, एक अलग व्यवस्था है; आपको उसका पता भर चलता है। आपने कभी श्वास ली है? अगर आप श्वास लेते होते तो कभी के मर गए होते; एक क्षण को भी चूक जाते कि टूट जाते सिलसिले से। और आदमी सब तरह की भूलें करे, चल जाए; श्वास न लेने की भूल हो जाए तो नहीं चलेगा। इसलिए श्वास आप लेते नहीं, चलती है, आप उसके कर्ता नहीं हैं, सिर्फ साक्षी हैं।
खून आपके शरीर में बहता है, आप बहाते नहीं हैं; आप उसके कर्ता नहीं हैं। हृदय धड़कता है, आप उसके कर्ता नहीं हैं, सिर्फ साक्षी हैं।
और अगर हृदय, श्वास और धड़कन की बात समझ में आ जाए, खून की गति भी समझ में आ जाए, तो बुद्धि भी चलती है, आप चलाते नहीं हैं र यह समझना बहुत कठिन नहीं होगा। वह भी यंत्र है; मन भी यंत्र है।
एक आदमी कामवासना से भर जाता है, तो शायद सोचता है कि यह कामवासना मैं कर रहा हूं; तो भूल करता है। यह भी हो रहा है। ये भी शरीर की ग्रंथियां हैं, ग्रंथियों में फैलते हुए रस हैं। तो जब ग्रंथियां प्रौढ़ हो जाती हैं चौदह वर्ष में तो कामवासना जगती है। ग्रंथियां काट लें, कामवासना विदा हो जाएगी। आप कर्ता नहीं हैं वासना के भी, इसीलिए तो वासना से छूटना बहुत मुश्किल हो जाता है। अगर कर्ता होते तो कितनी आसान बात थी--बंद कर देते। अगर कर्ता ही होते वासना के तो अड़चन क्या थी? कह देते कि नहीं करते हैं अब, बात समाप्त हो जाती।
लेकिन आप कहे चले जाते हैं कि अब वासना नहीं करेंगे और वासना उठती ही चली जाती है, वह पीछा ही नहीं छोड़ती। क्यों? अगर आप कर्ता हैं तो इतनी कठिनाई क्या है? कठिनाई एक है कि आप कर्ता नहीं हैं। और कर्ता मान कर आप दोहरी झंझट में पड़ते हैं। पहले तो समझ लेते हैं कि मैं कर्ता हूं। और इसी समझने के कारण फिर यह भी सोचते हैं कि मैं चाहूंगा तो नियंता भी हो जाऊंगा; जब कर्ता ही मैं हूं तो रोकना चाहूंगा तो रोक लूंगा। वह रुकती भी नहीं--न आपके चलाए चलती है, न आपके रोके रुकती है।
तो क्या इसका यह अर्थ हुआ कि कामवासना से आप कभी मुक्त न हो सकेंगे? मुक्त हो सकते हैं इसी क्षण, बस कर्ता का भाव खो जाए, आप सिर्फ साक्षी रह जाएं तो वासना से आप मुक्त हो जाते हैं। वासना अपनी तरफ पड़ी रह जाती है, यंत्र अलग पड़ा रह जाता है, आप अलग हो जाते हैं, बीच में फासला हो जाता है।
एक बात और समझ लेनी जरूरी है कि आप कर्ता तो नहीं हैं इस यंत्र के, लेकिन इस यंत्र के चलने के लिए आपकी मौजदूगी जरूरी है--सिर्फ मौजूदगी; जस्ट योर प्रेजेंस। आप कर्ता नहीं हैं।
सुबह सूरज निकला, तो सूरज आकर एक-एक कली को खोलने की कोशिश नहीं करता है। शायद उसे पता भी नहीं होगा कि उसने कितने फूल बना दिए पृथ्वी पर, कितने पक्षी गीत गाने लगे; इनका वह कर्ता नहीं है, यद्यपि उसके बिना भी यह नहीं होगा। अगर सूरज कल सुबह न निकले तो पक्षी फिर गीत नहीं गा सकेंगे, और फूल में फिर पंखुड़ियां नहीं खिलेंगी, और कमल बंद ही रह जाएंगे। लेकिन फिर भी सूरज कर्ता नहीं है; क्योंकि करने का कोई सवाल नहीं है--आ-आ कर उसकी एक-एक किरण एक-एक कली को नहीं जगाती, एक-एक किरण आकर एक-एक पक्षी के गले में गीत नहीं बनती है। कोई चेष्टा नहीं है, सिर्फ मौजूदगी; सिर्फ उसका मौजूद होना।
विज्ञान एक बात को स्वीकार करता है--कैटेलिटिक एजेंट को; विज्ञान कहता है कि कुछ चीजें हैं जिनकी मौजूदगी मात्र परिणामकारी है। जैसे हाइड्रोजन और ऑक्सीजन मिल कर पानी बनता है। लेकिन आप हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को छोड़ दें तो पानी नहीं बनेगा। आप कितना ही हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को घोल-मेल करें, पानी नहीं बनेगा, क्योंकि कैटेलिटिक एजेंट अभी मौजूद नहीं है, सब बात मौजूद है, क्योंकि पानी में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के अलावा कुछ भी नहीं है।
यह कैटेलिटिक एजेंट की बात ठीक से समझ लेनी चाहिए, क्योंकि यह साक्षी को समझने में बहुत गहरी उपयोगी बनेगी। पानी को हम विभाजित करते हैं तो ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के अतिरक्ति उसमें कुछ भी नहीं पाते--बस, यही दो चीजें हैं। तो हम हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को मिलाएं तो पानी क्यों नहीं बनता है? --क्योंकि पानी में दो के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। तो दो को मिलाने से पानी बन जाना चाहिए; वह नहीं बनता है, जब तक कि बिजली मौजूद न हो। इसलिए आकाश में जो बिजली कड़कती है वर्षा में, उसके कड़कने की वजह से पानी निर्मित हो रहा है; नहीं तो बादल भटकते रहें, पानी निर्मित नहीं हो पाएगा।
लेकिन वितान बड़ा परेशान रहा है कि इस बिजली का दान क्या है पानी में? तो दान कुछ पता चलता नहीं; बिजली का कुछ भी पानी में जाता नहीं। इसलिए जब हम पानी को तोड़ते हैं तो बिजली मिलती नहीं, तो बिजली ने क्या किया? बिजली ने कुछ भी नहीं किया, लेकिन उसकी मौजूदगी जरूरी थी; उसकी बिना मौजूदगी के यह घटना नहीं घटती है।
तो बिजली कैटेलिटिक एजेंट हो गई। कैटेलिटिक एजेंट का मतलब हुआ कि मौजूदगी के बिना नहीं होगा, और यह कुछ करता भी नहीं है। तो आपकी मौजूदगी के बिना श्वास नहीं चलेगी, आपकी मौजूदगी के बिना हृदय की धडकन नहीं होगी, आपकी मौजूदगी के बिना बुद्धि काम नहीं करेगी; फिर भी आप कर्ता नहीं हैं।
इसी से कर्ता की भ्रांति होती है कि जब मेरे बिना नहीं होगा, तो मैं कर्ता हूं; क्योंकि हमारे मन में दो ही धारणाएं हैं : कि अगर मैं कर्ता हूं तो होता है--मेरे होने पर ही होता है, मेरे न होने पर नहीं हो जाता है; तो स्वाभाविक निष्कर्ष है कि मैं कर्ता हूं।
हमें उस तीसरी दिशा का कोई पता नहीं है जब कि सिर्फ मौजूदगी, सिर्फ उपस्थिति काम करती है। यह उपस्थिति कर्तृत्व बन जाती है, यही हमारा बंधन है। यह उपस्थिति सिर्फ उपस्थिति रह जाए तो यही हमारा साक्षीत्व है। हम इतना ही जान पाएं कि हम साक्षी हैं; हमारी मौजूदगी में होता है जरूर, लेकिन हम कर्ता नहीं हैं।
तो हमारे और यंत्र के बीच एक फासला निर्मित हुआ। और तब बड़ी गहरी बातें हैं इस मौजूदगी में। कामवासना का केंद्र, कामवासना की ग्रंथि कहे जाए कि मुझे प्रकट होना है, और आप साक्षी बने रहें तो प्रकट नहीं हो सकेगी; क्योंकि साक्षी बनते से ही कामवासना की ग्रंथि में आपकी गैर-मौजूदगी हो गई; साक्षी बनते ही आप अपने में सरक गए और ग्रंथि से दूर हो गए। तो ग्रंथि के पास जो नैक्टय चाहिए था, निकटता चाहिए थी, आपकी उपस्थिति चाहिए थी, वह टूट गई। तो ग्रंथि कंपित होती रहे, और ग्रंथि पुकारती रहे, और ग्रंथि के द्रव्य और रस कहते रहें कि वासना चाहिए, वासना चाहिए, लेकिन वह जो मौजूदगी थी आपकी...।
इसलिए कई बार बड़ी अदभुत घटनाएं घटती हैं. आप कामवासना से भरे हुए बैठे हैं, चित्त वासना में डूबा हुआ है, और अचानक किसी ने जोर से चिल्लाया कि मकान में आग लग गई... अब वासना एकदम तिरोहित क्यों हो जाती है--एक क्षण में? क्योंकि चित्त वहां से हट कर मकान में आग लग गई--उपस्थिति मन की वहां हो गई। नहीं तो एक क्षण में आप अलग करके देखें वासना से चित्त को, तब आपको पता चलेगा कि वह नहीं होता अलग। नहीं होता अलग! पर यह एक क्षण में मकान में आग लग गई यह खबर 'आते ही--चाहे न भी लगी हो आग--किसी ने चिल्लाया कि मकान में आग लग गई और जैसे कि अचानक सारा यंत्र बंद हो गया वासना का; भूल गए आप, बात समाप्त हो गई।
क्या हुआ? आपकी मौजूदगी हट गई। इतना जरूरी काम आ गया इमरजेंसी का-- आपातकालीन कि अब चित्त को और कहीं होना संभव नहीं रहा, वह हट गया। इस हट जाने में ही वासना तिरोहित हो गई। वासना का यंत्र अपनी जगह है, आप भी यंत्र के भीतर मौजूद हैं, फिर क्या फर्क पड़ा? फर्क इतना ही पड़ा कि आप वासना के निकट उपस्थित न रहे, आपकी उपस्थिति खो गई; आप अनुपस्थित हो गए; आपका ध्यान वहां से हट गया।
वासना से मुक्ति चेष्टा से नहीं मिलती है, निष्चेष्ट साक्षीभाव से मिलती है; क्योंकि आप कर्ता नहीं हैं।
तो ऋषि इस सूत्र को शुरू करता है.
''मैं कर्ता नहीं हूं। मैं भोक्ता भी नहीं। ''
कर्ता नहीं हूं यह भी समझ में आ जाए; मैं भोक्ता भी नहीं हूं यह और भी दुस्तर है; क्योंकि करने में तो हम बाहर की तरफ कुछ करते हैं। कर्म हमेशा बाहर की तरफ होता है और भोग भीतर की तरफ होता है... जब हम कुछ करते हैं तो हम अपने से बाहर जाते हैं और जब हम कुछ भोगते हैं तो अपने भीतर जाते हैं।
भोग भीतर की तरफ होता है, इसलिए और भी निकट है। इसलिए यह भी आदमी समझ ले कि मैं कर्ता नहीं हूं यह समझना बहुत मुश्किल हो जाता है कि मैं भोक्ता भी नहीं हूं। लेकिन जो कर्ता नहीं है वह भोक्ता भी नहीं हो सकता; क्योंकि भोग भी गहन कर्म है। भोगना भी कर्म है। मैंने भोगा, ऐसा कहना भी सूक्ष्म कर्म है, मैंने किया, यह तो कर्म है ही स्थूल; मैंने भोगा, यह भी सूक्ष्म कर्म है।
तो जब कर्ता का भाव बाहर होता है तो भीतर भोक्ता का भाव होता है। और जितना बड़ा कर्ता का भाव होता है उतनी ही भोक्ता की आकांक्षा होती है। इसलिए जितना बड़ा कर्ता का भाव, उतना ही जीवन में विषाद आता है; क्योंकि उतनी ही भोग की वासना। और जितनी बड़ी वासना, उतनी ही अतृप्ति छूट जाती है। इसलिए बहुत करने वाले अक्सर बहुत दुखी पाए जाते हैं, क्योंकि उनको लगता है, इतना किया... और मिला क्या? भोगा क्या? सच तो यह है कि आदमी करता चला जाता है इस आशा में कि कल भोगेगा, कल भोगेगा--जीवन भर करता है और भोग का क्षण नहीं आ पाता।
यह हमारे भीतर एक दूसरा सामीप्य है कि जब आप भोजन कर रहे हैं, तो यह भी हम मान लें कि भूख आप पैदा नहीं करते इसलिए उसके आप कर्ता नहीं हैं; यह कठिन नहीं है बात। भूख आप पैदा नहीं करते, भूख लगती है। और न लगे तो कोई उपाय नहीं है कि आप उसको पैदा कर लें। तो साफ इतना तो है कि भूख लगती है, हम उसे पैदा नहीं करते। इसलिए भोजन कर रहे हैं क्योंकि भूख लगी है।
लेकिन स्वाद तो हमें आता है--सुखद लगता है, दुखद लगता है; तिक्त लगता है, कड़वा लगता है, मीठा लगता है; स्वाद तो हमें मिलता है। तो मान लो कि भूख हमें नहीं लगती, भूख हम नहीं लाते, लगती है; भूख के हम पैदा करने वाले नहीं, लेकिन स्वाद तो हम लेते ही हैं। स्वाद और भी सूक्ष्म है। सच में ही क्या हम स्वाद लेते हैं? या स्वाद भी हमारे यंत्र में ही घटित होता है? और सिर्फ निकटता के कारण हमें लगता है कि मैं स्वाद ले रहा हूं! स्वाद भी हमारे यंत्र में ही घटित होता है। इसलिए जब आप बुखार में होते हैं तो स्वाद नहीं ले पाते। आप तो वही हैं, लेकिन यंत्र अभी शिथिल है, और स्वाद लेने में सक्षम नहीं है। यंत्र में ही स्वाद घटित होता है।
पावलफ ने रूस में बहुत से प्रयोग किए हैं। उन प्रयोगों में इस संबंध में कुछ समझने जैसी बात है। पावलफ कहता है कि स्वाद सुखद है या दुखद... आप भोजन कर रहे हैं; जब भी आप भोजन करते हैं तब एक दुर्गंध आपके चारों तरफ छोड़ दी जाती है, तो धीरे- धीरे भोजन करना दुखद हो जाएगा। या जब भी आप भोजन करते हैं तो आपकी कुर्सी से एक बिजली का शॉक आपको दे दिया जाता है। तो दस-पंद्रह दिन में भोजन करते वक्त आप दुख की प्रतीक्षा करते रहेंगे कि अब...। आज शॉक न भी दिया जाए तो भी भोजन में स्वाद नहीं ले पाएंगे।
अनेक माताओं की तकलीफ यही होती है कि उनके बच्चे भोजन नहीं करते हैं.. लाख चेष्टा करती हैं और भोजन नहीं करते हैं। और उनको खयाल में नहीं होता कि बच्चे का इसमें कसूर नहीं है। असल में बच्चे के साथ, जब भी उसने दूध मांगा है, मां ने जो व्यवहार किया है, वह भोजन को ही अरुचिकर कर गया है, एसोसिएशन हो गया है। जब भी बच्चे ने दूध मांगा है, तभी मां ने बहुत सदव्यवहार नहीं किया है। तो वह जो दुर्व्यवहार है वह भोजन के साथ संयुक्त हो गया है।
पुरुषों के मन में इतना आकर्षण स्त्रियों के स्तनों के प्रति वस्तुत: माताओं का बच्चों के साथ स्तन को छुड़ाने की चेष्टा का परिणाम है। हर मां अपने बच्चे से स्तन को छुड़ाने की कोशिश में लगी है कि जल्दी अलग हो जाओ। वह जिंदगी भर अलग नहीं हो पाता; बुढ़ापे तक भी वह स्तन को ही देखता रहता है। यह जो पुरुषों का इतना आकर्षण है स्तन में, यह अकारण नहीं है। वह बचपन.. जब स्तन सब-कुछ था, जीवन था, इस बुरी तरह छीना-झपटा गया है उससे कि अब वह जिंदगी भर उसी स्मृति के आस-पास घूमता रहता है; वह उसके मन को पकड़े ही रहता है।
और स्तन में एक बिलकुल ही विद्वता पैदा हो जाती है, बिलकुल विद्वता पैदा हो जाती है। स्त्री के शरीर में वही महत्वपूर्ण मालूम होने लगता है। चित्रकार जिंदगी इसी में गवाते रहते हैं। लोग कहते हैं, बहुत मेधावी हैं, वे कुल इतना काम कर रहे हैं कि स्त्रियों के स्तन बनाते रहते हैं; मूर्तिकार मूर्तियां गढ़ते रहते हैं; कवि कविताएं लिखते रहते हैं। ये सब बुद्धिमान लोग हैं। स्तन के आस-पास इतनी कविता, इतनी मुर्तियां, इतने चित्र विक्षिप्तता बताते हैं। आदमी पागल है। लेकिन घटना छोटी सी है, जिससे सब शुरुआत हो जाती है। इसलिए जिन कौमों में माताएं स्तन पिलाने में बच्चों को आनंद लेती हैं, उन कौमों में स्तन का कोई आकर्षण नहीं होता। आदिवासी कौमें हैं, प्रिमिटिव बिलकुल, अविकसित, तो मां आनंद लेती है।
और यह बड़े मजे की बात है कि दूध पीने में बच्चे को ही आनंद आता है, यह आधी बात है; दूध पिलाने में मां को उससे ज्यादा आनंद आता है-- अगर संस्कार और सभ्यता और दूसरी बातें बाधा न डालें, तो मां हलका अनुभव करती है, रिलैक्स्ड होती है; बच्चा उसके हजारों तनावों को मुक्त करा देता है।
इसलिए जो कौमें आदिम हैं उन कौमों में स्तन में कोई रस नहीं है। इसलिए हमें हैरानी होती है कि आदिवासी स्त्रियां स्तन उघाड़े हुए क्यों चल रही हैं? हैरानी इस पर होनी चाहिए कि हम ढांक कर क्यों चल रहे हैं? जो है उसको ढांकने में पागलपन है। और बड़ा मजा यह है कि ढांकने की कोशिश दिखाने की चेष्टा का हिस्सा है; क्योंकि अगर स्तन बिलकुल उघडे हों तो कोई भी नहीं देखेगा। देखने जैसा कुछ भी नहीं है। शरीर के जो भी हिस्से उघडे हैं उन्हें कोई नहीं देखता। जिस हिस्से को दिखाना हो उसे खूब साज-संवार कर ढांकना चाहिए, तो वह दिखाई पड़ता है।
तो दोहरा हिसाब है। जिसे दिखाना हो उसे ढांको, जिसे प्रकट करना हो उसे छिपाओ। यह जो सारा का सारा रोग पैदा हो जाता है, फिर इसके परिणाम होने शुरू हो जाते हैं।
भोजन आप कर रहे हैं, उसमें जो भी सुख-दुख मालूम पड़ता है, वह आस-पास की व्यवस्था से निर्मित होता है। और आपके यंत्र पर जो संघात पड़ जाते हैं, आपका यंत्र वही कहे चला जाता है कि यह सुखद है, यह दुखद है। इसलिए हैरानी होती है, जो लोग मछली नहीं खाते उन्हें हैरानी होती है कि मछली कोई कैसे खा सकता है? इतनी बदबू आती हुई मालूम होती है। लेकिन किसी को बड़ी स्वादिष्ट है।
तो स्वाद क्या है? एक कंडीशनिंग है, एक आदत है। और वह आदत आपके यंत्र में घटित होती है। आप उसके पीछे निकट ही मौजूद हैं। वह निकटता इतनी ज्यादा है कि आपसे जो भी प्रकाशित होता है वह आप समझ लेते हैं, मैं ही हूं। स्वाद भी आपके बिना अनुभव नहीं हो सकता इसलिए आप स्वाद हो जाते हैं, भोक्ता हो जाते हैं।
वस्तुत: गहरे में देखें तो स्वाद के भी आप साक्षी ही हैं। आपको पता चलता है कि मुझे मीठा स्वाद आ रहा, कडुवा स्वाद आ रहा--जिसे पता चलता है वह आप हैं। मीठे का स्वाद आप नहीं हैं। मीठे के स्वाद का जिसे बोध हो रहा है वह आप हैं। क्योंकि तीन घटनाएं घट रही हैं. मीठा खाया जा रहा है, मीठे के स्वाद का अनुभव हो रहा है, अनुभव का बोध हो रहा है। तो जिसे यह अनुभव का बोध हो रहा है वह आप हैं।
इसलिए ऋषि कहता है
''न मैं कर्ता हूं न मैं भोक्ता हूं मैं तो केवल प्रकृति का साक्षी हूं। ''
देख रहा हूं.. और सब-कुछ प्रकृति में हो रहा है। पुरुष केवल देख रहा है, सब- कुछ प्रकृति में हो रहा है। सब-कुछ आस-पास हो रहा है, आप केवल देख रहे हैं।
लेकिन यह देखना खो जाता है--या तो हम कर्ता बन जाते हैं या हम भोक्ता बन जाते हैं। जैसे ही हम कर्ता या भोक्ता बनते हैं वैसे ही पीड़ा शुरू हो जाती है।
सुना है मैंने, एक आदमी के मकान में भाग लग गई है। वह रो रहा है छाती पीट कर। तभी एक पड़ोसी आकर कहता है कि घबड़ाते क्यों हो? क्योंकि मुझे पक्की तरह पता है, कल तुम्हारे लड़के ने तो यह मकान बेच भी दिया; पैसे भी दे लिए गए हैं। आंसू खो गए, रोना खो गया, वह आदमी एकदम स्वस्थ हो गया। क्या हुआ? मकान अभी भी जल रहा है। यह आदमी वही का वही है। अभी कहीं भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ। अगर हम खोजने जाएं प्रकृति में तो रत्ती भर फर्क नहीं हुआ है। प्रकृति ठीक वही है। मकान की लपटें और बड़ी हो गई हैं। जोर से रोना चाहिए इसे, लेकिन अब नहीं रो रहा है। सन्निधि टूट गई, निकटता मिट गई-- अपना नहीं है, बात खत्म हो गइ।
लेकिन, तभी मैंने सुना है कि लड़का भागा हुआ आया, और उसने कहा कि क्या कर रहे हो खड़े हुए? बाप भी देख रहा है। लड़के ने कहा, क्या कर रहे हो खड़े हुए? बातचीत चली थी, मकान बिका नहीं है। फिर रोना वापस आ गया, फिर छाती पीटी जाने लगी। प्रकृति अब भी ठीक वैसी की वैसी है। पर यह बीच में क्या हुआ था? एक घड़ी भर को, क्षण भर को यह बीच में क्या हो गया था? आग की लपटें थीं, लेकिन आंसू क्यों खो गए थे? निकटता टूट गई थी। जैसे ही हमें लगता है मेरा, निकट हो जाते हैं; जैसे ही लगता है, मेरा नहीं, निकटता टूट जाती है।
निकटता ही सूत्र है, सामीप्य ही सूत्र है--हमारे सुख का, दुख का, कर्ता होने का, भोक्ता होने का निकटता ही सूत्र है।
सुना है मैंने, एक सराय में एक आदमी रात मेहमान हुआ और सुबह चार बजे उठ कर चला गया। साल भर बाद वापस लौटा उसी राह से, सराय में रुका। सराय का मालिक हैरान होकर खड़ा हो गया और कहा कि तुम अभी जिंदा हो? उस आदमी ने कहा. क्या मतलब? क्या तुमने कोई अफवाह सुनी कि मैं मर गया? उसने कहा कि अफवाह का सवाल ही नहीं है, जिस रात तुम यहां रुके थे उस रात जितने लोगों ने भोजन किया, वे सब सुबह मर गए, सिर्फ तुम चार बजे चले गए थे, वह भोजन जहरीला हो गया था। उस आदमी ने कहा क्या कहा? और बेहोश होकर गिर पड़ा।
यह वास्तविक तथ्य है। हुआ क्या? अचानक वही घटना फिर घट गई जो उस मकान के जलते हुए घटी। उस समय बीच में फासला टूट गया, इसमें वापस समीपता आ गई। जहर इसने समीप अनुभव किया; बेहोश हो गया और मर गया। जहर से कम लोग मरते हैं, जहर की समीपता से अधिक लोग मरते हैं। जहर इतना प्रभावी नहीं है; उससे भी समीपता चाहिए।
मैं ब्रह्मयोगी की बात कर रहा था, जो दस मिनट श्वास रोक लेते थे; वे तीस मिनट तक किसी भी तरह का जहर भी अपने शरीर में रख लेते थे--मुंह से ले जाते थे, पेट में रख लेते थे; और पेशाब से बाहर निकाल देते थे। तीस मिनट तक वे रख सकते थे। लेकिन रंगून में उनकी मौत हुई, क्योंकि तीस मिनट से ज्यादा नहीं रख सकते थे। मगर तीस मिनट थोड़ा मामला नहीं है। जो भी रसायनविद हैं वे चकित थे और हैरान थे, क्योंकि जो जहर जीभ पर जाते ही मौत बन जाता है... जीभ पर जाते ही, खबर देने को भी नहीं बचता आदमी--जीभ पर जहर रखा और मर जाता है.. यह भी नहीं कह पाता कि मैं मर रहा हूं। वह जहर भी यह आदमी तीस मिनट तक शरीर में रख लेता था।
तो हैरानी थी!... बात क्या थी? राज क्या था? इसकी भी मौत हो गई। ब्रह्मयोगी की भी मौत इसी प्रयोग में, रंगुन में हुई। सान विश्वविद्यालय में उन्होंने जहर लिया, और जहां वे रुके थे उस तरफ चले, लेकिन बीच में गाड़ी बिगड गई, और पहुंचे तो पैंतीस मिनट हो गए थे। तो वे बेहोश ही पहुंचे, तीस मिनट से ज्यादा तो वे रख हो नहीं सकते थे। वह पांच मिनट की जो देरी हो गई गाड़ी के बिगड़ जाने से, वह मौत का कारण बनी। वह तो उनका सीक्रेट था कि वह तीस मिनट में अपनी जगह पहुंच कर उसको निकाल डालते थे।
उनसे जब भी पूछा जाता था कि तुम करते क्या हो? तीस मिनट भी इस जहर को करते क्या हो? तो वे कहते थे, मैं अपनी समीपता नहीं बनने देता, मैंने जहर लिया है इस भाव को मैं नहीं बनने देता। बस, तीस मिनट से ज्यादा मेरा बस नहीं है। तीस मिनट में मैं शिथिल होने लगता हूं। और ऐसा लगता है कि जहर लिया है, कहीं मर न जाऊँ। जैसे ही यह खयाल आता है वैसे ही उपद्रव शुरू हो जाता है। सामीप्य! यह खयाल तत्काल चेतना को निकट लाता है। और चेतना कर्ता और भोक्ता हो जाती है। चेतना दूर रखी जा सके तो कुछ भी हो सकता है। हिप्नोटिज्म,. सम्मोहन के आपने अगर प्रयोग देखे हों तो आप चकित होंगे। चकित होंगे बिलकुल।
आपको अगर दो कुर्सियों पर लिटा दिया जाए पीठ के बल, दूर-दूर कुर्सियां रख दी जाएं, एक तरफ पैर रखा जाए, एक तरफ आपका सिर रखा जाए, तो क्या आप सीधे पड़े रह सकते हैं? एक कुर्सी पर आपके दोनों पैर टिका दिए, दूर रखी एक कुर्सी पर आपकी गर्दन टिका दी, यह बीच का हिस्सा क्या सीधा टिका रह सकता है? यह कैसे टिकेगा? आप फौरन नीचे गिर जाएंगे।
लेकिन आपको सम्मोहित कर दिया--बेहोश--और आपको कहा कि आप एक लकड़ी के तख्ते हो गए हो, जो झुक ही नहीं सकता, और पैर आपके कुर्सी पर टिका दिए और सिर आपका दूसरी कुर्सी पर--आपके ऊपर आदमी चल जाए इधर से उधर तक, आप झुकेंगे नहीं। क्या हो गया? शरीर वही है, इसलिए शरीर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। हड्डियां जहां से झुकती थीं वहीं अब भी झुकती हैं। आपकी छाती पर एक आदमी बैठा है और कमर नहीं झुक रही है; बात क्या हो गई?
सामीप्य हटा लिया गया। जो झुकने का भाव था सदा का कि मैं झुक जाऊंगा, अगर ऐसा हुआ तो गिर जाऊंगा, वह तोड़ दिया गया--वह भाव भर तोड़ दिया गया है, शरीर वही का वही है। चेतना को वहां से हटा लिया गया और चेतना को नया भाव दे दिया गया है कि तुम लकड़ी के सख्त तख्ते हो।
राममूर्ति अपनी छाती पर हाथी को खड़ा कर लेता था; राज क्या था? छाती इतनी मजबूत नहीं होती कि हाथी खड़ा हो जाए--किसी की भी नहीं होती, न राममूर्ति की थी। हो नहीं सकती, वह कोई सवाल ही नहीं है। आदमी की छाती आदमी की छाती है, कितनी ही मजबूत हो, हाथी का पैर चकनाचूर कर देगा। राममूर्ति के भी उस प्रयोग में सामीप्य को हटा लेने की कला के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और आप भी हटा लें तो हाथी खड़ा हो जाए तो आप नहीं टूटेंगे। टूटते ही इसीलिए हैं कि टूटा, यह खयाल सघन हो जाता है, हाथी नहीं तोड़ता, यह बहुत मजे की बात है।
लाओत्सु ने कहा है कि बैलगाड़ी में चार लोग बैठे हुए हैं। एक शराब पीए हुए है, तीन होश में हैं। बैलगाड़ी उलट जाती है, शराबी को चोट नहीं लगती, तीनों के हाथ-पैर टूट जाते हैं। शराबी की क्या कला है? इसको क्या खूबी मिली हुई है कि ये जनाब गिरे, सबसे ज्यादा इनका टूटना चाहिए था। शराब पीए बैठे हैं, नरक का रास्ता तय कर रहे हैं, इनकी हड्डी-पसली नहीं टूटी, ये मजे से सड़क के किनारे लेटे हुए हैं, और बाकी तीनों चीख-चिल्ला रहे हैं, उनकी हड्डी-पसलियां सब टूट गईं!
असल में इसको पता ही नहीं है कि गाड़ी उलट रही है और हाथ-पैर टूट जाएंगे। यह होश चाहिए था, तो सामीप्यता आती। ये बेहोश हैं। इन्हें पता ही नहीं है कि गाड़ी उलट गई है या चल रही है या क्या हुआ कि गाड़ी में हैं कि गाड़ी के बाहर हैं। तो हड्डी के पास, समीप नहीं आ पाते इसलिए हड्डी बच जाती है। इसलिए बच्चे इतने गिरते रहते हैं। शराबी आप देखते हैं, सड़क पर गिरे पडे रहते हैं। कोई खास नुकसान होता हुआ मालूम नहीं पड़ता। सुबह वे फिर भले-ताजे अपने रास्ते पर चले जा रहे हैं। आप जरा इतना गिर कर देखो.. बिना पीए! बस एक ही बार काफी होगा, फिर बिस्तर से उठाना मुश्किल हो जाएगा।
समीपता! तत्काल चेतना समीप आ जाती है कि मरा, हड्डी टूटी, उलट गए। तो जो- जो आप कह लेते है भीतर संक्षिप्त में, वह हो जाता है। अगर यह दूरी बनी रहे, तो भेद पड़ता है.. तो भेद पड़ता है।
''न मैं कर्ता, न मैं भोक्ता, मैं केवल प्रकृति का साक्षी हूं। और समीपत्व के कारण सचेतनपन का आभास होता है और वह वैसी ही क्रिया करने लगती है। ''
और वैसा ही मान लेती है कि ऐसा हूं। यह हमारी मान्यता है। हमारा संसार हमारी मान्यता है। और जब तक हमारी मान्यता न टूटे तब तक हमारे मोक्ष का कोई उपाय नहीं है।
''मैं तो स्थिर, नित्य, सदैव आनंदरूप, शुद्ध, ज्ञानमय निर्मल आत्मा हूं और सब प्राणियों में साक्षीरूप व्याप्त हो रहा हूं इसमें संशय नहीं। ''
जैसे ही कर्ता, भोक्ता का भाव विदा हो, साक्षा का अनुभव शुरू होता है। जैसे ही साक्षी का अनुभव आप करना शुरू करें, भोक्ता और कर्ता का भाव टूटना शुरू होता है। कहां से शुरू करें, यह आप पर निर्भर है। कहीं से भी शुरू करें, दूसरी घटना घटनी शुरू होती है। करते में कर्ता न रहें, भोगते में भोक्ता न रहें तो साक्षी का जन्म होने लगता है। साक्षी के जन्म की कोशिश करते रहें, निरंतर होशपूर्वक रहने की कोशिश करें तो भोक्ता और कर्ता विलीन होने लगते हैं। ये एक ही चीज के दो छोर हैं।
इसके दो उपाय हैं. एक उपाय है ध्यान, और एक उपाय है तप। तप है उपाय भोक्ता न रहने का, कर्ता न रहने का, और ध्यान है उपाय साक्षी होने का। कहीं से भी शुरू करें, घटना वही घट जाएगी।
यह समझ लेने जैसा है कि तपस्वी दुख में क्यों खड़ा होता है? आखिर तपस्वी दुख को क्यों वरण कर लेता है? क्या जरूरत है कि महावीर धूप में नग्न खड़े हों? क्या जरूरत है कि सर्दी में उघाड़े बदन कंपते रहें? क्या जरूरत है कि नंगे पैर ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलें? और क्या जरूरत है कि महीनों भोजन न लें? या तो वे पागल हैं, जो कि नहीं है तथ्य, क्योंकि उन जैसा शांत, और उन जैसा स्वस्थ, और उन जैसा विवेकपूर्ण व्यक्ति खोजना मुश्किल है। इसलिए पागल कहने का उपाय नहीं है।
पश्चिम के मनस्विदों को कभी-कभी जीसस के पागल होने पर शक होता है, लेकिन महावीर पर वह भी शक नहीं कर सकते, क्योंकि जीसस के कुछ वक्तव्य ऐसे मालूम पड़ते हैं कि जरूर यह आदमी पागल हो गया होगा। वक्तव्य. कि मैं ईश्वर का बेटा हूं कि मेरे अतिरिक्त ईश्वर का कोई बेटा नहीं है, कि मैं सारे सृष्टि-साम्राज्य का सम्राट हूँ कि मोक्ष में प्रभु के सिंहासन के बगल में मेरा सिंहासन होगा, कि जो मेरे साथ आएंगे वे बच जाएंगे और जो मुझसे भटकेंगे वे अनंत नरक में गिर जाएंगे। और फिर अचानक फांसी पर लटकाया जाना इस आदमी का, और इस आदमी का ऐसे ही मर जाना जैसे कोई भी साधारण आदमी मर जाता है।
यह किस साम्राज्य का मालिक था? और यह किसको बचाने की बात कर रहा था और कह रहा था कि सारे जगत को मैं बचा लूंगा, और खुद को नहीं बचा पाया! और अगर यह परमात्मा का बेटा ही था, तो परमात्मा ने कैसे आज्ञा दी कि इसको सूली लग जाए?
शायद भ्रांति में रहा होगा, ऐसा पश्चिम के मनस्विद को शक पैदा होता हैं। उस शक में सच्चाई नहीं है, जीसस की भाषा को समझने में भूल है। जीसस जिनसे बोल रहे थे, वे थे अति ग्रामीण, अशिक्षित लोग, उनसे जो भाषा बोलनी पड़ती थी वह भाषा वेदांत की नहीं हो सकती थी, वह भाषा संसार की ही हो सकती थी।
लेकिन महावीर पर तो ऐसा शक भी नहीं उठाया जा सकता है, क्योंकि जो भाषा बोल रहे हैं वह अति सुसंस्कृत है, उसमें कहीं छिद्र भी नहीं खोजा जा सकता है कि इस आदमी का दिमाग खराब रहा हो। फिर भी ये महावीर अपने हाथ से दुख को क्यों खोजते फिरते हैं? इसका कारण है. भोक्ता और कर्ता को तोड़ने का प्रयोग है यह।
असल में सुख में आप आसानी से भोक्ता होते हैं, दुख में आसानी से नहीं हो पाते। दुख भोक्ता होने ही नहीं देता। पैर में कांटा गड़ रहा है, उस समय आप साक्षी हो ही जाते हैं; क्योंकि इसको कैसे भोगिएगा? इसमें कोई रस तो आ नहीं रहा; इसमें कोई स्वाद तो मिल नहीं रहा; इससे आप दूरी चाहते ही हैं। दुख से एक दूरी निर्मित हो जाती है अपने आप, सामीप्य टूट जाता है; क्योंकि दुख के कोई भी निकट नहीं रहना चाहता। दुख से हमारी निकटता की आकांक्षा ही नहीं है... दुख आ जाए, यह दूसरी बात; परंतु हम अपनी दूरी कायम रखना चाहते हैं।
लेकिन जब सुख आता है, तब हम सरक कर बिलकुल पास आ जाते हैं; तब हम दूरी नहीं रखना चाहते हैं। जब कोई गले में फूलमालाएं डाल दे, तो ऐसा नहीं लगता कि हम अब साक्षी रहें; इस क्षण में साक्षी रहने में कोई रस नहीं मालूम पड़ेगा; इस समय है। ऐसा लगेगा कि हम बिलकुल गला ही गला हो जाएं, और फूलमालाएं ही फूलमालाएं लद जाएं। इस समय ऐसा भी नहीं होगा कि यह आदमी गलती कर रहा है; इस समय ऐसा भी नहीं होगा कि यह किसी और के गले में डालने आया होगा, मेरे गले में डाल दी है, इस समय ऐसा भी नहीं होता कि यह सब प्रकृति का खेल है; इस समय मन कहता है. प्रकृति का खेल नहीं है, यह तो बहुत पहले डाली जानी चाहिए थीं, इतनी देर तुमने की, सिर्फ नासमझी के कारण, अब तुम समझ पाए मुझे; अब तक समझ नहीं पाए थे, जो कभी का होना था वह अब हुआ है।
लेकिन कोई जूते की माला गले में डाल दे लाकर, एक फासला तत्काल निर्मित हो जाता है--हम जानते हैं, यह हमारे गले में नहीं डाली गई; यह आदमी भूल में है; यह किसी और को डालने लाया होगा, या पागल है, या दुष्ट है, या शैतान है। हम जिम्मेवार नहीं रहते उस वक्त, वह आदमी जिम्मेवार होता है। और जब कोई फूलमाला डालता है तब हम जिम्मेवार होते हैं, वह आदमी जिम्मेवार नहीं होता।
तो निकटता बनती है फूल की माला से। सुख से एक निकटता की आकांक्षा है, क्योंकि सुख हमने चाहा है। जिसे हमने चाहा है उसके हम पास सरकते हैं। दुख हमने कभी चाहा नहीं, सदा चाहा है कि न हो, इसलिए मिल भी जाता है तो हम दूर हटते हैं।
तपश्चर्या का सूत्र बन जाता है यह कि दुख में खड़े हो जाओ.. ताकि धीरे- धीरे, धीरे- धीरे, धीरे- धीरे साफ हो जाए कि मैं भोक्ता नहीं, मैं कर्ता नहीं।
तो महावीर तीस दिन भूखे रहते हैं, भूख में जानते हैं कि यह भूख है, मैं साक्षी हूं। फिर इकतीसवें दिन गांव में आकर भोजन लेते हैं, तब भोजन में जानते हैं कि न मैं भूख था, न मैं भोजन हूं वह भी मेरे बाहर घटना थी, यह भी मेरे बाहर घटना है। दुख में देखते रहते हैं कि दूरी है, फिर उसी दूरी को सुख में भी निर्मित करते हैं।
तो तप एक सूत्र है। तप का अर्थ हुआ हम कर्ता और भोक्ता को तोड़ते हैं। तो साक्षी का जन्म होना शुरू हो जाता है, इधर कर्ता- भोक्ता बिखरा कि उधर साक्षी जन्मने लगता है। इसे कभी प्रयोग करके देखें। जरूरी नहीं है कि कोई दुख को खोजने जाएं, क्योंकि दुख आपको खोजते हुए काफी ऐसे ही चले आते हैं। जब दुख आए तब थोड़े तप के सूत्र का प्रयोग करें। आपको महावीर जैसा तप करने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि महावीर जिस घर से आते थे वहां उन्हें काफी सुख मिल चुका था। शायद उन्हें दुख का अनुभव ही नहीं था, इसलिए दुख चुनना पड़ा।
आप जहां जी रहे हैं वहां दुख ही दुख है, कहीं और दुख खोजने की जरूरत नहीं है।
उस दुख में ही कर्ता और भोक्ता को तोड़ने का प्रयोग करें। जब बीमारी आए तब बीमारी के भीतर दूर पड़े रह जाएं और बीमारी को देखते रहें। ऐसा मत अनुभव करें कि मैं बीमार हूं ऐसा ही अनुभव करें कि मैं बीमारी का द्रष्टा हूं। और तब आप बहुत चकित हो जाएंगे : ऐसा अनुभव करते ही बीमारी क्षीण होने लगती है; ऐसा अनुभव करते ही आप और बीमारी के बीच अनंत फासला होने लगता है र ऐसा अनुभव करते ही अचानक आप पाते हैं कि भीतर सब स्वस्थ है--अचानक! जैसे अचानक अंधेरे में कोई दीया जला दे और सब स्पष्ट हो जाए। और वह स्पष्ट होने का जो क्षण है, वह साक्षी का क्षण है।
दूसरा सूत्र है. ध्यान। महावीर का जोर तप पर है, बुद्ध का जोर ध्यान पर है। इसलिए बुद्ध और महावीर के अनुयायी एक-दूसरे को बिलकुल नहीं समझ सके; दोनों समसामयिक, लेकिन अनुयायी बिलकुल नहीं समझ सके। क्योंकि जोर बिलकुल अलग-अलग है और विपरीत मालूम पड़ता है। क्योंकि महावीर कहते हैं, तप के बिना ध्यान कैसा! और बुद्ध कहते हैं, ध्यान के बिना तप नासमझी है। और दोनों ही ठीक कहते हैं। और जगत का मजा यह है कि यहां विपरीत होने से ही दो बातें गलत हो जाती हैं, ऐसा नहीं है; यहां विपरीत बातें भी एक साथ सही हो सकती हैं। जगत इतना जटिल है और रहस्यपूर्ण है कि यहां विपरीत बातें भी जरूरी रूप से दोनों ही गलत हों ऐसा नहीं है।
सामान्य तर्क कहता है कि अगर दो बिलकुल विपरीत बातें हैं तो या तो दोनों गलत होंगी, यह हो सकता है; या एक सही होगी और एक गलत होगी, यह हो सकता है, लेकिन यह कभी नहीं हो सकता कि दोनों ही सही हों। लेकिन यह जीवन के रहस्य से अपरिचय के कारण है, जीवन का रहस्य कहता है, दोनों एक साथ सही हो सकती हैं। इसलिए महावीर और बुद्ध दोनों एक साथ सही हैं, बराबर सही हैं; यात्रा का पथ, दिशा अलग-अलग है।
महावीर शुरू करते हैं भोक्ता-कर्ता को तोड़ कर, जो टूट कर बच जाता है वह साक्षी है। बुद्ध साक्षी को जगाना शुरू करते हैं, साक्षी जगता है तो ये टूटने लगते हैं दोनों। जिस दिन साक्षी पूरा जग जाता है, कर्ता- भोक्ता टूट जाते हैं। इसलिए बुद्ध का प्रभाव सारी दुनिया में महावीर से बहुत ज्यादा पड़ा, उसका कारण है। उसका कारण मौलिक रूप से यही है कि कोई आदमी इतने सुख में नहीं है कि अब दुख को खोजने जाए; अब आदमी इतने दुख में हैं कि और दुख को वरण करने की बात ही व्यर्थ मालूम पड़ती है। ऐसे की काफी दुख है।
बुद्ध की बात ज्यादा समझ में पड़ी, क्योंकि बुद्ध की बात दुख बढाने की कोशिश में नहीं है, सीधे साक्षी का प्रयोग है जिससे दुख कम होगा।
तो महावीर की बात हो सकता है किसी दिन प्रभावी हो जाए, जिस दिन दुनिया बहुत समृद्ध हो उस दिन बुद्ध की बात खो जाए। संभव है, आने वाली सदी में अमरीका में महावीर की बात का पुनरुद्घोष हो जाए--इतनी समृद्धि हो जाए कि दुख में भी रस आने लगे, इतना सुख हो जाए कि दुख में भी परिवर्तन मालूम पड़े कि चलो...।
अभी दो विदेशी संन्यासिनियां यहां वृक्षों के नीचे सो रही हैं। तो आज मुझे सुबह आकर उन्होंने कहा कि हम बड़े परेशान हैं कि सभी भारतीय इससे बहुत चिंतित हैं। और जो भी मिलता है, वह कहता है कि ऐसा मत करो, यह क्या कर रही हो? और हमें बहुत आनंद आ रहा है। तो मैंने उनको कहा तुम्हें पता नहीं, भारतीय को आनंद अभी नहीं आ सकता वृक्ष के नीचे; हम वृक्ष के नीचे वैसे ही पड़े हैं, तुम्हें आ सकता है, क्योंकि वृक्ष से तुम्हारे फासले इतने हो गए हैं कि वृक्ष के नीचे होना एक अभूतपूर्व घटना है।
दोनों से किसी भी भांति घटना घटित हो, साक्षी शेष रह जाए, तो यह जो साक्षी है, यह फिर हमारे भीतर भला हो, हमारा नहीं है; यह फिर सभी में व्याप्त है। साक्षी का अनुभव करते ही अहंकार खो जाता है, क्योंकि अहंकार कर्ता और भोक्ता का जोड है-- मैंने किया, मैंने भोगा, मैंने पाया, इससे ही ‘मैं’ निर्मित है; मैंने किया नहीं, मैंने भोगा नही, मैंने पाया नहीं, तो मैं कहां हूं फिर? वह जोड़ खो जाता है।
तो साक्षी मेरा नहीं होता। इसे ठीक से समझ लें। साक्षी मेरा नहीं होता, साक्षी होता हूं मैं उसका जिसे मैं मेरा कहता रहा हूं। साक्षी होते ही ‘मैं’ विलीन हो जाता है। तो साक्षी हमारे भीतर फैला हुआ सागर है। वह मेरे भीतर भी है, आपके भीतर भी है--सबके भीतर है-- कहीं सोया है, कहीं जगा है, कहीं करवट ले रहा है, कहीं पूर्ण होश में है, कहीं सपने देख रहा है, कहीं निद्रा में दबा है।
लेकिन वह साक्षी एक ही है। वह वृक्ष के भीतर भी वही है, पत्थर के भीतर भी वही है--बहुत गहन निद्रा में, प्रगाढ़ निद्रा में। पक्षु के भीतर भी वही है-- थोड़ा सा हलन-चलन में। हमारे भीतर भी वही है--कभी-कभी क्षण भर को जागा हुआ। बुद्ध के भीतर भी वही है, और क्राइस्ट के भीतर भी वही है--पूरी तरह जागा हुआ।
ये मात्राओं के भेद हैं। लेकिन जिसने पूरी तरह उसे जागा हुआ जाना, तत्क्षण वह पाता है कि वह सागर है।
साक्षी एक सागर है, जो हम सबको घेरे हुए है--हम सब उसमें हैं, और वह हममें है; लेकिन वह एक है, वह सर्वव्यापक है।
ऋषि कहता है :
''इसमें संशय नहीं। ''
इसे जान कर कहता हूं; इसे अनुभव करके कहता हूं; ऐसा मैंने पाया है।
बहुत बार ऐसा लगता है कि ऋषियों के वक्तव्य अत्यंत अहंकार की घोषणाएं हैं। जो नहीं जानते उन्हें लगेगा ही। जो अहंकार की भाषा के अतिरिक्त और कोई भाषा नहीं समझते उन्हें लगेगा ही। यह कहना कि इसमें कोई भी संशय नहीं है, क्या दावेदारी नहीं है? क्या कृष्णमूर्ति को अगर यह वचन हम दें, तो कृष्णमूर्ति को नहीं लगेगा कि यह अथॉरिटेटिव है, क्या यह आप्तवचन बनाने की चेष्टा नहीं है? क्योंकि कृष्यमुर्ति पसंद नहीं करेंगे ऐसा कहना कि जो मैं कहता हूं इसमें कोई भी संशय नहीं है, क्योंकि वे कहते हैं कि ऐसा कहने का मतलब है कि मैं आप पर दबाव डाल रहा हूं कि मुझे मानो।
शायद उनकी बात भी थोड़ी ठीक है; क्योंकि ऐसे लोग हैं--जो इसीलिए घोषणा करते हैं अधिकारपूर्ण वक्तव्य की ताकि वह मान लिया जाए। लेकिन ऐसे ही लोग हैं, ऐसा मान लेना भी गलत है। इन ऋषियों जैसे लोग भी हैं जो किसी पर दावेदारी नहीं कर रहे हैं, जो केवल एक तथ्य की सूचना दे रहे हैं.. एक विनम्र सूचना है यह कि इसमें मुझे कोई भी संशय नहीं है। और अगर नहीं है संशय, तो क्या यह सूचना करनी गलत है? या कि सिर्फ इस डर से... यह सुचना अधिकारपूर्वक न मालूम पड़े, ऐसा कहना उचित होगा कि मुझे संशय है? या ऐसा कहना उचित होगा कि मुझे पता नहीं संशय है या नहीं है? या ऐसा कहना उचित होगा कि इस संबंध में मैं कुछ भी न कहूंगा कि मुझे संशय है या नहीं है-- सिर्फ इस डर से कि किसी के लिए यह अधिकार-वचन न बन जाए?
लेकिन इस डर से भी कहां फर्क पड़ता है? कृष्णमूर्ति जीवन भर कहते रहे कि मैं किसी का गुरु नहीं हूं और मेरे वचन को आप्तवचन न समझा जाए, और मैं जो कहता हूं उसको मान लेने की कोई जरूरत नहीं है, मैं कोई अथॉरिटी नहीं हूं। लेकिन बड़े मजे की बात है, सैकड़ों लोग उनको अथॉरिटी मानते हैं, और अधिकारपूर्ण मानते हैं। और मजा तो और भी गहरा तब हो जाता है, और मजाक भी--इसीलिए अधिकारी मानते हैं कि जो आदमी अधिकार का इनकार कर रहा है वह जरूर अधिकारी है, इसीलिए गुरु के योग्य मानते हैं, क्योंकि यह आदमी कहता है कि मैं गुरु नहीं हूं।
अब यह एक बड़ा खेल है आदमी के मन का. जब कोई आपसे कहता है कि मैं गुरु नहीं हूं तो आपके अहंकार को तृप्ति मिलती है कि चलो, इस आदमी से दोस्ती बन सकती है, इसके पैर छूने की जरूरत नहीं, इससे गले मिला जा सकता है, इससे दोस्ती बांधी जा सकती है.. यह ऊपर नहीं है हमसे कोई।
सच है यह बात कि कोई आदमी ऊपर होने की कोशिश करे, यह अहंकार है; लेकिन कोई आदमी इसकी घोषणा करे कि मैं ऊपर नहीं हूं इसलिए आपको अच्छा लगे, यह भी अहंकार है--दूसरे बाजू से; आपकी तरफ से। एक आदमी कहता है, मेरे पैर छुओ, तो हमें लगता है यह अहंकारी है; और एक आदमी कहता है, हमारे पैर मत छूना, क्योंकि मेरे पैसे मैं क्या खूबी है? तब आपको पता नहीं लगता कि आपको जो रस मिल रहा है वह आपका अहंकार है। और यह आदमी अगर आपके पैर भी छू दे, तब तो कहना ही क्या!
एक मित्र मेरे पास आए थे, उन्होंने कहा कि बस, मुझे कृष्णमूर्ति ही प्रीतिकर लगे, वही आदमी मालूम होते हैं कि ज्ञानी हैं। मैने कहा : क्या कारण है? ऊहोंने कहा जब मैं उनके पास मिलने गया, तो वे मेरे पास सरक आए और मेरा पैर थपथपाने लगे। उन्होंने किसी प्रेम के क्षण में थपथपाया होगा, लेकिन उन्हें पता नहीं है, पैर उन्होंने थपथपाया होगा, इसका अहंकार थपथपा गया है; यह कह रहा है, यह आदमी जंचता है।
आदमी बड़ी उलझी पहेली है!
तो यह ऋषि जब कहता है. 'इसमें कोई संशय नहीं', तो इसका यह अर्थ नहीं है कि यह कहता है कि मैं जो कहता हूं उसे मानो। न, इसका इतना ही अर्थ है कि मैं जो कहता हूं वह कहता ही नहीं हूं जान कर कहता हूं। और इसे कहने में कहीं भी कोई बुराई नहीं है। यह अपने असंशय की घोषणा करता है। और यह घोषणा--अगर ऐसा है, तो बुराई क्या है? अगर इसे ज्ञात है तो कहना ही चाहिए।
सत्य को निवेदन करना ही विनम्रता है।
अब बड़े मजे की बात है, हम कहते फिरते हैं--खासकर इस पिछले सौ वर्षों में एक नासमझी की बात गहन हो गई, और लोगों को बहुत प्रभावकारी हुई, क्योंकि हम कहते हैं, सभी लोग समान हैं--कोई नीचा नहीं, कोई ऊंचा नहीं। इसका यह मतलब नहीं है कि हम अपने को ऊंचा मानना बंद कर देते हैं, इसका केवल इतना मतलब है हम किसी को ऊंचा मानना बंद कर देते हैं। जब हम कहते हैं कोई नीचा नहीं, कोई ऊंचा नहीं, तो उसका यह मतलब नहीं है कि अब हम किसी को नीचा नहीं मानेंगे; उसका कुल मतलब इतना है कि अब हम किसी को ऊंचा नहीं मानेंगे।
और जब हम कहते हैं, सब समान हैं, तो यह बहुत गहरे अर्थों में तो ठीक है, लेकिन उस गहराई का तो हमें कोई पता नहीं। जहां यह बात ठीक है वहां हम गए नहीं, और जहां हम हैं वहां यह बात बिलकुल गलत है; हम समान बिलकुल नहीं हैं; हम बिलकुल असमान हैं। जहां यह बात ठीक है वहां हम गए नहीं, और जहां यह बात बिलकुल गलत है, जहा हम हैं वहा यह बात बिलकुल गलत है। और वहां हम इसको मान लेते हैं।
और दूसरी उपद्रव की स्थिति पैदा होती है कि जो व्यक्ति इसको मान लेगा, हम समान हैं, वह कभी उस जगह नहीं पहुंच पाएगा जहां यह समानता संभव है। जो व्यक्ति असमान मान कर चलेगा वह किसी दिन वहां पहुंच जाएगा जहां समानता संभव है;
क्योंकि असमान मान कर जो चलता है वह कुछ करेगा--कोई यात्रा, कोई निखार, कोई संस्कार, कोई परिष्कृति, कोई साधना; लेकिन जिसने माना कि बुद्ध और मैं समान हूं.. इससे बुद्ध को कोई नुकसान नहीं होता है। अगर बुद्ध को नुकसान होता तो कोई हर्जा भी नहीं था, इससे नुकसान मानने वाले को हो जाता है। लेकिन अगर बुद्ध उससे यह कहें कि नहीं, तू गलती में है, तो लगेगा यह आदमी अहंकारी है.. लगेगा यह आदमी अहंकारी है; अपने ही मुंह से कह रहा है कि तू समान नहीं है!
तो बुद्ध क्या करें? या तो कहें कि नहीं, बिलकुल समान हैं--समान ही कहा, मुझसे भी ऊंचा है--तो हमारे अहंकार को तो तृप्ति मिलती है, लेकिन हमारे परिष्कार की और परिवर्तन की यात्रा नहीं हो पाती। और या बुद्ध सहजता से कहें कि नहीं, समान नहीं हैं, तो हमारे अहंकार को बड़ी पीड़ा पहुंचती है।
बुद्ध या महावीर या कुष्ण और क्राइस्ट ने समानता की घोषणा नहीं की है, जहां हम हैं वहां। निश्चित ही वे जानते हैं कि हम समान हैं किसी बिंदु पर, किसी केंद्र पर, लेकिन वह हमारा अंतिम पड़ाव है, जहा हम हैं वहां हम समान नहीं हैं। यात्रा के पथ पर हममें बड़े फासले हैं, मंजिल पर हममें कोई फासले नहीं है।
इसलिए कृष्णमूर्ति की बात लोगों को प्रीतिकर लगती है लेकिन खतरनाक है; क्योंकि कृष्णमूर्ति यात्रा के पथ पर कहते हैं कि हम सब समान हैं--कोई गुरु नहीं, कोई शिष्य नहीं, कोई आगे नहीं, कोई पीछे नहीं। यह बात सच है मंजिल पर, यात्रा-पथ में यह बात बिलकुल ही सच नहीं है। और यात्रा-पथ में जिसने इसमें भरोसा किया वह मंजिल पर कभी भी नहीं पहुंच पाएगा।
जब ऋषि कहता है : 'इसमें संशय नहीं ', तो सिर्फ आत्म-निवेदन है। वह यह कहता है, मैंने सोच-सोच कर ऐसा नहीं कहा है, ऐसा जान-जान कर कह रहा हूं।
और भी एक अर्थ में यह बात उपयोगी है : क्योंकि हम जी रहे हैं अनास्था में, हम जीते हैं संशय में। जैसा मैंने आपसे कहा कि नया पक्षी है, अंडे से निकला है, पर तौलता है बैठ कर अपने घोसले के बाहर। हिम्मत नहीं पड़ती है, क्योंकि कभी उड़ा नहीं... पता नहीं कि ये पंख उड़ने के काम भी आ सकते हैं!
यह भी भरोसा नहीं आता कि ये पंख छोटे-छोटे और इतना बड़ा आकाश विराट, और ये पंख इस आकाश में उड़ने के काम पड सकते हैं! और भरोसा आए भी कैसे?
क्योंकि जो अज्ञात है, उसका भरोसा कैसे हो? जो अपरिचित है, जाना नहीं, जिस मार्ग पर गए नहीं, जिस गगन में उड़े नहीं, उड़ने का विश्वास कैसे जगे?
लेकिन कोई पक्षी उड़ रहा है, तब भी यह भरोसा नहीं आता कि यह उड़ रहा है इसलिए मैं उड़ सकूंगा; क्योंकि जरूरी नहीं कि जो दूसरा कर रहा हो, वह मैं कर सकूं।
लेकिन अगर वह पक्षी कह सके इस पक्षी से कि इसी दशा से मैं भी गुजरा हूं एक दिन ऐसे ही घोसले के बाहर बैठ कर मैं भी चिंतातुर था; मुझे भी भरोसा नहीं आता था अपने पंखों पर कि आकाश में जा सकूंगा, क्योंकि अनुभव नहीं था। लेकिन अब मैं तुझसे अनुभव से कहता हूं इसमें जरा भी संशय नहीं है. तेरे छोटे-छोटे पंख, लेकिन यह आकाश छोटा है, तू उड़ सकता है। तेरे पंख काफी बड़े हैं, यह पूरा आकाश भी छोटा है, तू उड़ सकता है। इसमें जरा भी संशय नहीं है, मैं तुझे अनुभव से कहता हूं।
और अनुभव का मतलब होता है, जिसने दोनों स्थितियां जानी हों, अन्यथा अनुभव नहीं होता। जिसने पहली स्थिति जानी हो, जिसमें यह पक्षी आज पर फड़फड़ाता है लेकिन साहस नहीं जुटा पाता, यह भी जिसने जाना हो और दूसरा आकाश में उड़ने का अनुभव भी जिसने जाना हो, वह इससे कह सकता है-- भय न कर, छलांग लगा।
''.. इसमें जरा भी संशय नहीं है। ''
यह घोषणा सहयोगी है। इस घोषणा का यह अर्थ नहीं है.. जैसा कि कृष्णमूर्ति अनिवार्यत: ले लेते हैं; वह अर्थ भी होता है, अनिवार्य नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह पक्षी अधिकार पैदा कर रहा है, वह कह रहा है कि मैं कहता हूं इसलिए मान ले।
यह भी इसका अर्थ नहीं है कि वह पक्षी यह कह रहा है कि तू अनुयायी बन मेरा, मैं तेरा गुरु हूं। नहीं, यह कुछ भी नहीं है। यह भी हो सकता है--यह भी हो सकता है, लेकिन यह जरूरी नहीं है। वह पक्षी सिर्फ इतना ही कह रहा है कि देख मुझे; और मैं जो कह रहा हूं वह ऐसे ही नहीं कह रहा हूं जान कर कह रहा हूं। और अगर तू मुझे देख पाए और जान पाए तो शायद यह भरोसा संक्रामक हो जाए और तेरा आत्मविश्वास पैदा हो।
गुरु उपद्रव हो जाता है जब अपने में विश्वास पैदा करवाता है; गुरु सहयोगी हो जाता है जब वह दूसरे में स्वयं का विश्वास जगाता है।
दोनों ही स्थिति में असंशय होने की घोषणा आवश्यक है।
अब हम ध्यान के प्रयोग में लगें।...
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