धैर्य कन्था।
उदासीन कौपीनम्।
विचार दंड:।
ब्रह्ममावलोक योग पट्ट:।
श्रिया पादुका:।
परेच्छाचरणम्।
कुंडलिनी बंध:।
परापवाद मुक्तो जीवनमुका:।
धैर्य उनकी गुदड़ी (संन्यास की झोली ) है।
उदासीन वृत्ति लंगोटी है।
विचार दंड है।
ब्रह्म—दर्शन योग—पट्ट है।
संपत्ति उनकी पादुका है।
परात्पर की अभीप्सा ही उनका आचरण है।
कुंडलिनी उनकी बंध है।
अनंत धैर्य, अचुनाव जीवन और परात्पर की अभीप्सा
धैर्य कन्या— धैर्य उनकी गुदड़ी है।
धैर्य को कई दिशाओं से समझना जरूरी है। शायद धैर्य से बड़ी कोई क्षमता नहीं है। और जो सत्य की खोज पर निकले हों, उनके लिए तो धैर्य के अतिरिक्त और कोई सहारा भी नहीं है।
धैर्य का अर्थ है, अनंत प्रतीक्षा की क्षमता—टु वेट इनफिनिटली। आज ही मिल जाए सत्य, अभी मिल जाए सत्य, ऐसी मन की वासना हो तो कभी नहीं मिलता। और मैं प्रतीक्षा करूंगा, कभी भी मिल जाए सत्य; मैं मार्ग देखता रहूंगा, राह देखता रहूंगा, बाट देखता रहूंगा;
कभी भी अनंत—अनंत जन्मों में, कभी भी जब उसकी कृपा हो मिल जाए, तो अभी और यहीं भी मिल सकता है। जितना बड़ा धैर्य, उतनी ही जल्दी होती है घटना; जितना ओछा धैर्य, उतनी ही देर लग जाती है।
प्रभु की तरफ पहुंचने के लिए प्यास तो गहरी चाहिए लेकिन अधैर्य नहीं। अभीप्सा तो पूर्ण चाहिए, लेकिन जल्दबाजी नहीं। जितनी बड़ी चीज को हम खोजने निकले हों, उतना ही मार्ग देखने की तैयारी चाहिए। और कभी भी घटे घटना, जल्दी ही है, क्योंकि जो मिलता है उसे समय से नहीं तौला जा सकता। अनंत— अनंत जन्मों के बाद भी प्रभु का मिलन हो, तो बहुत जल्दी हो गया। कभी भी देर नहीं है। क्योंकि जो मिलता है, अगर उस पर ध्यान दें, तो अनंत—अनंत जन्मों की यात्रा भी ना—कुछ है। जो मंजिल मिलती है, उस पर पहुंचने के लिए कितना भी भटकाव ना—कुछ है।
तो ऋषि कहता है, धैर्य कन्या।
संन्यासी के कंधे पर जो झोली टंगी होती है, उसका नाम है कन्था। ऋषि कहता है, वस्तुत: संन्यासी की जो गुदड़ी है, झोली है, वह तो धैर्य है। और धीरज की इस गुदड़ी में बड़े हीरे आ जाते हैं।
लेकिन धैर्य तो हमारे भीतर जरा भी नहीं होता। और क्षुद्र के लिए तो हम प्रतीक्षा भी कर लें, विराट के लिए हम जरा भी प्रतीक्षा नहीं करना चाहते। एक व्यक्ति साधारण सी शिक्षा पाने विश्वविद्यालय की यात्रा पर निकलता है, तो कोई सोलह—सत्रह वर्ष स्नातक होने के लिए व्यय करता है। पाता कुछ भी नहीं, कचरा लेकर घर लौट आता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति ध्यान की यात्रा पर निकलता है, तो वह पहले दिन ही आकर मुझे कहता है कि एक दिन बीत गया, अभी तो कुछ नहीं हुआ।
क्षुद्र के लिए हम कितनी प्रतीक्षा करने को तैयार हैं, विराट के लिए कोई प्रतीक्षा नहीं! इससे एक ही बात पता चलती है कि शायद हमें खयाल ही नहीं है कि विराट क्या है। और शायद हमारी चाह इतनी कम है कि हम प्रतीक्षा करने को तैयार नहीं। क्षुद्र की हमारी चाह बहुत है, इसलिए हम प्रतीक्षा करने को राजी हैं।
एक आदमी थोड़े से रुपए कमाने के लिए जिंदगीभर दांव पर लगा सकता है और प्रतीक्षा करता रहता है कि आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। चाह गहरी है धन को पाने की, इसलिए प्रतीक्षा कर लेता है। परमात्मा के लिए वह सोचता है कि एकाध बैठक में ही उपलब्ध हो जाए। और वह बैठक भी वह तब निकालता है जब उसके पास अतिरिक्त समय हो, जो धन की खोज से बच जाता हो। छुट्टी का दिन हो, अवकाश का समय हो, तो। और फिर वह चाहता है, बस जल्दी निपट जाए। वह जल्दी निपट जाने की बात ही यह बताती है कि ऐसी कोई चाह नहीं है कि हम पूरा जीवन दाव पर लगा दें।
और ध्यान रहे, विराट तब तक उपलब्ध नहीं होता, जब तक कोई अपना सब कुछ समर्पित करने को तैयार नहीं होता। और सब कुछ समर्पित करना भी कोई बारगेन नहीं है, कोई सौदा नहीं है। नहीं तो कोई कहे कि मैंने सब कुछ समर्पित कर दिया, अभी नहीं मिला। अगर इतना भी सौदा मन में है कि मैंने सब समर्पित कर दिया तो मुझे प्रभु मिलना चाहिए, तो भी नहीं मिल सकेगा। क्योंकि हमारे पास है क्या जिससे हम प्रभु को खरीद सकें? क्या छोड़ेंगे आप? छोड़ने को है क्या आपके पास? आपका कुछ है ही नहीं, जिसे आप छोड़ दें। सभी कुछ उसी का है। उसी का उसी को देकर सौदा करेंगे?
है क्या हमारे पास? शरीर हमारा है, जमीन हमारी है, ज्ञान हमारा है, क्या है हमारे पास? और हो सकता है, धन भी हमारा हो, जमीन भी हमारी हो, लेकिन एक बात पक्की है कि भीतर गहरे में वह जो हमारे छिपा है, वह हमारा बिलकुल नहीं है। क्योंकि न तो हमने उसे बनाया है, न हमने उसे खोजा है, न हमने उसे पाया है। वह है।
तो धन तो हो भी सकता है आपका हो, लेकिन आप अपने बिलकुल नहीं हैं। क्योंकि कह सकते हैं, धन मैंने कमाया। लेकिन यह जो भीतर दीया जल रहा है चेतना का, यह तो प्रभु का ही दिया हुआ है। आपका इसमें कुछ भी नहीं है। आप अपने बिलकुल नहीं हैं, इसलिए देंगे क्या?
मारपा, तिब्बत का एक बहुत अदभुत ऋषि जब अपने गुरु के पास पहुंचा, तो उसके गुरु ने कहा, तू सब दान कर दे। मारपा ने कहा, लेकिन मेरा अपना कुछ है कहा? गुरु ने कहा, तो कम से कम तू अपने को समर्पित कर दे। तो मारपा ने कहा, मैं! मैं तो उसका ही हूं। समर्पण करके, उसकी चीज उसी को लौटाकर, कौन सा गौरव होगा! तो उसके गुरु ने कहा, भाग जा, अब दुबारा इस तरफ मत आना। क्योंकि जो मैं तुझे दे सकता था, वह तो तुझे मिल ही गया है। वह तेरे पास है ही। मारपा ने कहा, मैं सिर्फ कोई जानने वाला पहचान ले, इसलिए आपके चरणों में आया हूं। अनजान हूं जो मिल गया है, उसे भी पहचान नहीं पाता, क्योंकि पहले वह कभी मिला नहीं था। आपने कह दिया, मुहर लगा दी।
असल में गुरु की अंतिम जरूरत साधना के शुरू के चरणों में नहीं पड़ती, अंतिम जरूरत तो उस दिन पड़ती है, जिस दिन घटना घटती है। उस दिन कोई चाहिए जो कह दे कि हौ, हो गया। क्योंकि अपरिचित, अनजान, पहले तो कभी जाना हुआ नहीं है, उस लोक में प्रवेश हो जाता है। रिकगनीशन नहीं होता, पहचान नहीं होती कि जो हो गया है, वह क्या है। तो गुरु की जरूरत पड़ती है प्राथमिक चरणों में, वह बहुत साधारण है। अंतिम क्षण में गुरु की जरूरत बहुत असाधारण है कि वह कह दे कि ही, हो गई वह बात जिसकी तलाश थी। वह गवाही बन जाए, वह साक्षी बन जाए।
धैर्य का अर्थ है, हमारे पास न दाव पर लगाने को कुछ है, न परमात्मा को प्रत्युत्तर देने के लिए कुछ है, न सौदा करने के लिए कुछ है, हमारे पास कुछ भी नहीं है। और मांग हमारी है कि परमात्मा मिले। प्रतीक्षा तो करनी पड़ेगी। धैर्य तो रखना पड़ेगा और अनंत रखना पड़ेगा। ऐसा नहीं कि चुक जाए कि दो—चार दिन बाद फिर हम पूछने लगें। तो उसमें वैसा ही नुकसान होता है, जैसे छोटे बच्चे कभी आमकी गुही को बो देते हैं जमीन में और दिन में चार दफे उखाड़कर देख लेते हैं कि अभी तक, अभी तक अंकुर नहीं निकला? अधैर्य, अंकुर कभी नहीं निकलेगा। यह चार दफे उखाड़ने में अंकुर कभी नहीं निकलेगा। अंकुर निकलने का मौका भी तो नहीं मिल पा रहा है, अवसर भी नहीं मिल पा रहा है।
जमीन में बीज को बोकर भूल जाना चाहिए, प्रतीक्षा करनी चाहिए। ही, पानी डालें जरूर, पर अब बीज को उखाड़—उखाड़कर मत देखते रहें—अभी तक बीज फूटा, नहीं फूटा! नहीं तो फिर कभी नहीं फूटेगा, बीज खराब ही हो जाएगा। तो ध्यान करके हर बार न पूछें कि अभी पहुंचे, कि नहीं पहुंचे। बोते जाएं, सींचते जाएं। जब अंकुर निकलेगा, पता चल जाएगा। जल्दी न करें, बार—बार उखाड़कर मत देखें।
एक सूफी फकीर हुआ बायजीद। अपने गुरु के घर बारह वर्षों तक था। बारह वर्षों तक उसने यह भी न पूछा कि मैं क्या करूं। बारह वर्ष बाद एक दिन गुरु ने कहा, बायजीद, किसलिए आया है, कुछ पूछता भी नहीं। तो बायजीद ने कहा, प्रतीक्षा करता हूं जब आप पाएंगे कि मैं योग्य हूं तो आप खुद ही कह देंगे।
यह संन्यासी का लक्षण है। बारह वर्ष! सांझ आकर पैर दाब जाता है, सुबह कमरा साफ कर देता है, चुपचाप बैठ जाता है, दिनभर बैठा रहता है। रात जब गुरु कह देता है कि अब मैं सो जाता हूं तो चला जाता है। बारह वर्ष बाद गुरु पूछता है बायजीद, बहुत दिन हो गए तुझे आए, कुछ पूछता नहीं है! तो बायजीद कहता है, जब मेरी पात्रता होगी, जब आप समझेंगे कि क्षण आ गया कुछ कहने का, तो आप ही कह देंगे। मैं राह देखता हूं। और बायजीद ने कहा कि जो मैं पूछता उससे मुझे जो मिलता, वह इस राह देखने में अनायास मिल गया। अब मैं बिलकुल शात हो गया हूं। यह बारह वर्ष कुछ किया नहीं, बैठकर बस आतुर प्रतीक्षा की है। तो मैं एकदम शात हो गया हूं। भीतर कोई विचार नहीं रहे हैं।
आतुरता विचार ला देती है। जल्दबाजी विचार पैदा करवा देती है। अगर प्रतीक्षा हो, तो विचार शांत हो जाते हैं। जल्दी कुछ हो जाए, इसी से मन में तूफान उठते हैं। कभी भी हो जाए, जब होना हो। और न भी हो, तो भी परमात्मा पर छोड़ देने का नाम प्रतीक्षा है। कोई शिकायत नहीं।
धैर्य उनकी गुदड़ी है।
कोई शिकायत नहीं। वह जो दिखा दे ठीक, वह जो न दिखाए ठीक। अंतहीन।
इसका यह अर्थ नहीं है कि अंतहीन हो जाती है बात। इतनी तैयारी हो, तो इसी क्षण घट जाती है बात; क्योंकि इतनी तैयारी वाले व्यक्ति के लिए अब और रोकने का कोई कारण नहीं है। जिसके पास धैर्य की गुदड़ी है, उसके पास सत्य का धन तत्क्षण उपलब्ध हो जाता है।
उदासीन वृत्ति उनकी लंगोटी है!
उदासीन वृत्ति। थोड़ा समझ लें। साधारणत: जो हम उदासीन से समझते हैं, वह अर्थ नहीं है। उदासीन से हम समझते हैं कि जो व्यक्ति, जहा—जहा वासनाएं रस लेती हैं, वहा—वहा अपने को उदास रखता है, दूर रखता है; रस नहीं लेता, विराग रखता है, विरस रहता है। जहा—जहा इंद्रिया मांग करती हैं, वहा—वहा अपने को रोक लेता है।
नहीं, उदासीन का यह अर्थ नहीं है। अगर व्यक्ति अपने को पॉजिटिवली, विधायक रूप से रोकता है, तो फिर उदासीन नहीं रहा। चुनाव शुरू हो गया।
मेरे मन ने कहा कि यह बड़ा भवन मुझे मिल जाए, मैंने कहा कि नहीं दूंगा, मैं उदासीन हूं? मैं इस महल की तरफ देखूंगा ही नहीं। मैं सिर नीचा करके, आंख बंद करके गुजर जाऊंगा। मैं उदासीन नहीं रहा, मैंने पक्ष ले लिया। मेरे भीतर दो पक्ष हो गए। एक, जो मांग करता था कि यह महल मिल जाए, और एक जो कहता था कि नहीं, महल से क्या होगा? इन दो पक्षों में मैंने एक पक्ष ले लिया, तो मैं उदासीन न रहा। उदासीन का अर्थ है कि मन का एक कोना कहता है कि महल मिल जाए, मन का एक कोना कहता है कि नहीं लेंगे, क्या रखा है महल में —दोनों के प्रति जो दूर खड़ा रहे, तटस्थ रह जाए, न्युट्रल हो जाए, चुनाव 'न करे, च्वायसलेस हो। मन की ये दोनों बात चलती रहें, वह द्वंद्व में से कुछ भी न चुने। पीछे खड़ा रह जाए।
उदासीनता अचुनाव है। उदासीनता का अर्थ है कि हम द्वंद्व में कोई भी चुनाव नहीं करते। मन का एक हिस्सा कहता है, क्रोध करो; मन का दूसरा हिस्सा कहता है, क्रोध जहर है। न हम मन के पहले हिस्से की सुनते हैं, न हम दूसरे हिस्से की सुनते हैं। हम दूर खड़े होकर दोनों हिस्सों को देखते हैं। न हम यह किनारा चुनते हैं, न वह किनारा चुनते हैं। हम कुछ चुनते ही नहीं। अचुनाव उदासीनता है। और प्रतिपल मन द्वंद्व खड़े करता है, क्योंकि मन का स्वभाव द्वंद्व है—टु बी डुअल। मन एक से जी नहीं सकता। मन दो होकर ही जीता है।
आपने मन में कभी कोई ऐसी लहर न पाई होगी जिसकी विपरीत लहर मन तत्काल पैदा नहीं कर देता। जहा आकर्षण होता है, तत्काल विकर्षण वहीं पैदा हो जाता है। मन का एक हिस्सा कहता है, बाएं चलो, दूसरा फौरन कहता है, दाएं चलो। मन सदा ही द्वंद्व खड़ा करता है। मन का स्वभाव द्वंद्व है। अगर मन निर्द्वंद्व हो जाए, तो मर जाए; अगर द्वंद्व खो जाए तो मन समाप्त हो जाए। अगर इस द्वंद्व में से आपने कुछ भी चुना, तो आप मन के साथ ही हैं। और जिसको आप चुनेंगे, उसके विपरीत जो है वह मौजूद रहेगा, वह मिटेगा नहीं। वह प्रतीक्षा करेगा आपकी कि ठहरो, थोड़े दिन में ऊब जाओगे उस चुनाव से, फिर मुझे चुन लोगे। यही तो हो रहा है पूरे वक्त।
एक स्त्री को आप प्रेम करते हैं या एक पुरुष को आप प्रेम करते हैं, मन उस वक्त भी द्वंद्व में होता है। मन का एक हिस्सा कहता है कि ठीक है, बहुत प्रीतिकर है, साथ रहें। मन का एक कोने का हिस्सा कहता है कि कहां फंस रहे हो, किस उपद्रव में जा रहे हो, मुसीबत में पडोगे! फिर इसमें जो मेजर पार्ट होता है, जो हिस्सा वजनी मालूम पड़ता है उस क्षण वासना को, आप उसका चुनाव कर लेते हैं। दूसरा पड़ा रह जाता है।
थोड़े ही दिन में उस स्त्री या उस पुरुष के साथ रहकर दुख शुरू होते हैं, क्योंकि दूरी में सब आकर्षण है। पास आते ही डिसइत्थूजनमेंट, सारे आकर्षण गिरने शुरू हो जाते हैं। वह स्त्री, जो अप्सरा मालूम पड़ती थी, चार दिन साथ रहने के बाद साधारण स्त्री हो जाती है। बीच का सम्मोहन गिर जाता है। वह जिसके शरीर से सुगंध मालूम होती थी, उसके शरीर से भी पसीने की दुर्गंध आने लगती है। वे जो हाथ ऐसे मालूम पड़ते थे कि छू लेंगे तो शायद फूलों का स्पर्श होगा, अब ऐसा होता है कि ये हाथ भी ठीक हाथ हैं हड्डी और मांस के, और बात सब साधारण हो जाती है।
फ्रांस के एक बहुत विचारशील व्यक्ति आस्कर वाइल्ड ने एक बात अपनी डायरी में लिखी है जीवनभर के अनुभवों के बाद। लिखा है, देयर आर टू मिस्फारज्यून्स इन मैन्स लाइफ। वन इज़ नाट टू गेट द वन, वन लव्स, एंड द अदर इज टू गेट हिम आर हर। एंड द सेकेंड वन इज द वर्स। दो ही दुर्भाग्य हैं मनुष्य के जीवन में। एक, जिसे प्रेम करते हैं र उसे न पा सकें। दूसरा, जिसे प्रेम करते हैं, उसे पा सकें। और दूसरा पहले से बदतर है। क्योंकि जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे अगर न पा सकें, तो सम्मोहन सदा के लिए बना रह जाता है।
मजनू को पता नहीं है असली दुर्भाग्य का। असली दुर्भाग्य तब होता जब लैला मिल जाती। बच गए, असली दुर्भाग्य से बच गए। नहीं मिली, सपना कायम रहा, आशा जगती रही, वासना प्रज्वलित रही। मिल जाती, तो जैसे आग पर पानी पड़ जाए, ऐसी लैला मजनू पर पड़ जाती।
आस्कर वाइल्ड कहता है, और दूसरा पहले से बदतर है। दुर्भाग्य तो दोनों हैं, क्योंकि पहले में भी परेशानी है और दूसरे में भी परेशानी है। लेकिन फिर भी पहला बेहतर है, क्योंकि परेशानी में भी एक रस है, दूसरी परेशानी में रस भी नहीं है।
लेकिन मन दोनों ही बातें पैदा करता है। पहले कहता है, पाओ। पा लेने पर कहता है, क्या रखा है! यह जो क्या रखा है, यह पहले भी मौजूद था, सिर्फ यह माइनर पार्ट था, अल्पमतीय था, इसलिए दबा पड़ा रहा। यह प्रतीक्षा करेगा कि मेरा भी अवसर तो आएगा। तब मैं ऊपर उठ आऊंगा। और कहूंगा, देखो, पहले ही कहा था, सुना नहीं। अब, अब मुसीबत में पड़ गए हो।
मन द्वंद्व में जीता है। आप ऐसी कोई चीज नहीं चाह सकते, जिसके प्रति एक दिन अचाह पैदा न हो। आप ऐसा कोई प्रेम नहीं कर सकते, जिसमें आपको किसी दिन घृणा न जन्म जाए। आप ऐसा कोई मित्र नहीं बना सकते, जो किसी दिन शत्रु न हो जाए। जो भी चाहा जाएगा, उसका भ्रम टूटेगा। आप ऐसी कोई चीज पा नहीं सकते, कि एक दिन ऐसा न लगे कि गले में फासी लग गई। इतनी मेहनत करके जो हम पाते हैं, आखिर में हम पाते हैं, अपनी ही फांसी बना ली।
वोलेयर ने लिखा है कि वक्त था एक, जब मुझे कोई भी नहीं जानता था। तो रास्ते से मैं गुजरता था, तब बहुत पीड़ित होता था कि कोई नमस्कार भी नहीं करता। मन में एक ही आकांक्षा थी कि कब वह दिन आएगा कि लोग मुझे भी जानेंगे और जहां से गुजर जाऊंगा, आंखें मेरी तरफ फिर जाएंगी।
वह दिन आ गया—दूसरे नंबर का दुर्भाग्य। वह दिन आ गया। तो वोलेयर की हालत यह हो गई कि उसको चोरी से पुलिस को छिपाकर उसके घर पहुंचाना पड़ता था। क्योंकि इतना लोग उसको जानने लगे और. इतना मानने लगे कि वह घर कपड़े पहने हुए नहीं पहुंच सकता था। फ्रांस में ऐसा रिवाज है कि जिसे हम आदर करते हैं, उसके कपड़े के टुकड़े का ताबीज.। तो वह घर तक पहुंचते वक्त तक उसके कपड़े फट जाते थे सब। तब उसने कहा, हे भगवान, किसी तरह इनसे बचाओ। इससे तो पहली वाली हालत अच्छी थी। कम से कम सुरक्षित घर तो आ जाते थे। कभी भीड़ में वह लुच भी जाता, हाथ में चोट लग जाती, क्योंकि लोग कपड़े फाड़ते।
वह दिन फिर आ गया। वक्त बदलने में देर नहीं लगती, जैसा मौसम बदलने में देर नहीं लगती। लोगों के मनों का क्या भरोसा है, क्षण— क्षण में बदल जाते हैं। वह वक्त फिर आ गया, वोलेयर बदनाम हो गया। मरते वक्त वोलेयर को कब पहुंचाने तीन आदमी और—चार प्राणी—क्योंकि एक उसका कुत्ता भी था। तो उसको पहुंचाने चार प्राणी गए थे, तीन उसके मित्र और एक कुत्ता। लोग भूल चुके थे।
मरते वक्त फिर वही पीड़ा थी। कि अब वह उतर आता है स्टेशन पर, कोई लेने नहीं आता। रास्ते से गुजरता है, कोई खयाल नहीं करता। जब मरने की खबर सुनी, तभी अनेक लोगों ने कहा, अरे, वोलेयर अभी जिंदा था! हम तो समझते थे कि कभी का मर चुका होगा। बहुत दिनों से नाम नहीं देखा, सुना नहीं।
जो भी हो जाए, उसी से मन दूसरे पहलू पर लौटने लगता है। यश मिल जाए, तो यश से परेशानी हो जाती है। यश न मिले, तो न मिलने से परेशानी होती है। धन मिल जाए, तो परेशानी देता है, धन न मिले, तो परेशानी होती है। इस संसार में ऐसी कोई भी चीज नहीं है, जो दोनों हालत में परेशानी न दे। और उसका कारण है कि मन सदा द्वंद्व में जीता है। एक को चुना कि दूसरा भी तैयार हो गया। जब यह थक जाएगा, तो दूसरा ऊपर आ जाएगा।
उदासीन का अर्थ है, चुनाव ही नहीं। इसलिए उदासीन धन्यभागी है, क्योंकि उदासीन दुखी नहीं हो सकता। वह जो आस्कर वाइल्ड ने दो विकल्प कहे, वह दोनों ही विकल्प नहीं चुनता। वह कहता है, हम मन का कोई भी विकल्प नहीं चुनते। हम मन में चुनाव ही नहीं करते। हम कहते हैं, मन, तुझे जो करना है, सोच। हम दूर ही खड़े हैं। हम तुझे न चुनेंगे। न यह, न वह। न पक्ष, न विपक्ष। हम तटस्थ हैं!
उदासीनता बड़ी अदभुत शांति है। क्योंकि जब आप मन का चुनाव ही नहीं करते, तो धीरे— धीरे दोनों द्वंद्व मर जाते हैं। चुनाव से ही जीते हैं, आपके सहयोग से ही जीते हैं। दोनों धीरे— धीरे सूख जाते हैं, उनको जल मिलना बंद हो जाता है। और जिस दिन मन का द्वंद्व सूख जाता है, उसी दिन मन भी सूख जाता है। इसलिए कहा ऋषि ने, उदासीनता उनकी लंगोटी है।
वे प्रतीक की तरह बात कर रहे हैं, ताकि खयाल में आ जाए कि क्या है संन्यासी का रूप।
विचार उनका दंड। विचार दंड:
उनके हाथ की जो लकड़ी है, वह विचार। लेकिन यहां विचार से थोड़ा समझ लें। विचार एक बात है और विचारों की भीड़ बिलकुल दूसरी बात है। अगर एक विचार हो, तो हाथ की लकड़ी बन सकता है, और अगर बहुत विचार हों, तो हाथ की लकड़ी नहीं बनता, फिर सिर पर लकड़ी का गट्ठर बन जाता है। फिर वह सहारा नहीं रहता, बोझ हो जाता है। विचारों में नहीं है संन्यासी, विचार!
एक तो फर्क यह समझ लें कि हम सदा विचारों में होते हैं, विचार में नहीं। हमारे भीतर एक भीड़ होती है विचारों की। निर्जन, ख्यात, अकेला विचार हमारे भीतर कभी नहीं होता। असंगत भीड़ होती है। एक से दूसरे पर छलांग लगाते रहते हैं। विपरीत भीड़ होती है। एक विचार यह और उसका उलटा भी वहीं मौजूद होता है, उसके पीछे ही खड़ा होता है। अनेक विचार साथ ही खड़े रहते हैं। वही तो हमारी विक्षिप्तता है, पागलपन है, इनसेनिटी है।
इतने विचारों के बीच हम सिर्फ दब जाते हैं। और जब विचार का आधिक्य हो जाता है, तो विवेक क्षीण हो जाता है। जैसे आकाश बदलियों में दब जाए या किसी झील पर पत्ते ही पत्ते फैल जाएं और झील का जल दिखाई पड़ना बंद हो जाए, ऐसे ही हमारे भीतर जो विवेक है, चेतना है, वह विचारों की पर्तों में दब जाती है। उसका हमें फिर पता ही नहीं चलता। बहुवचन में विचार नहीं—नाट थाट्स।
विचार दंड है।
संन्यासी अपनी चेतना के समक्ष एक विचार से ज्यादा को एक साथ नहीं आने देता। क्योंकि एक आए, तो ही उसकी परीक्षा हो सकती 'है। और एक आए, तो ही चेतना उसको जांच और परख सकती है। एक आए, तो चेतना निर्णय कर सकती है। एक आए, तो तत्काल दिखाई पड़ जाता है, ठीक या गलत। सोचना नहीं पड़ता। लेकिन एक फर्क और समझ लें।
यहां विचार से अर्थ थाट का भी नहीं है, थिंकिंग का है। एक तो विचार का अर्थ होता है विचार—आब्जेक्टिव। जैसे आपके भीतर एक विचार आया कि भूख लगी है, खाना—खाना चाहिए; नींद आ रही है, सो जाना चाहिए। एक विचार आपके भीतर आया। यह विचार का आ जाना जरूरी नहीं है कि आप विचारवान हों कि आपके भीतर थिंकिंग की, विचारणा की क्षमता हो। क्योंकि जब आपको खयाल आया कि भूख लगी, तब विचारवान जो है, वह इसी विचार से नहीं जीएगा। वह इस विचार पर भी विचार करेगा। एक दूसरी पर्त पर खड़े होकर विचार करेगा कि सच में भूख लगी?
क्योंकि बहुत बार तो भूख सच में नहीं लगती, सिर्फ आदत से लगती है। अगर एक बजे खाना खाते हैं और घड़ी ने एक का घंटा बजा दिया, बस विचार आ जाता है, भूख लगी। वह भूख सच्ची नहीं है। अगर घड़ी ने गलती से, बारह ही बजे हों और एक का घंटा बजा दिया हो, तो भी लग आती है। वह भूख सच्ची नहीं है। और अगर आप घंटेभर रुक जाएं—तो वह भूख, चूकिं सच्ची नहीं थी, सिर्फ हैबीन्यूअल थी, आदतन थी—तो घंटेभर बाद आप पाएंगे, भूख मर गई। अगर भूख सच्ची हो, तो घंटेभर बाद और बढ़ जानी चाहिए। लेकिन झूठी भूख घंटेभर बाद मर जाएगी, क्योंकि मन तो सिर्फ यंत्रवत चल रहा है।
आपके भीतर जो विचार चलते हैं, वे आदतन हैं। वे आपकी चिंतन। का परिणाम नहीं हैं। वे आपके होश से नहीं जन्मे हैं, आपकी पुरानी जड़ आदतों से, आपके अतीत और आपकी स्मृति की पैदाइश हैं—ए मेमोरी प्रोडक्ट। एक आदत का समूह बना हुआ है, वह रोज काम करता रहता है।
आप घर आते हैं, तो आपको सोचना थोड़े ही पड़ता है, विचार थोड़े ही करना पड़ता है कि अब बाएं घूमें, अब दाएं घूमें, अब अपने घर में जाएं, अब घर आ गया तो साइकिल का ब्रेक लगाएं। ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता। आपकी खोपड़ी में हजार चीजें चलती रह सकती हैं। हाथ वक्त पर ब्रेक लगाता है, हाथ साइकिल को मोड़ देता है। बाएं घूम जाते हैं, दाएं घूम जाते हैं, घर के पास पहुंच जाते हैं। कभी आपने खयाल किया है कि आपको साइकिल चलाते वक्त सोचना नहीं पड़ता कि अब कहां, अब किस तरफ—आदतन। जरूरी भी है, क्योंकि जिंदगी में अगर सभी चीजें सोचनी पड़े, तो चलानी बहुत मुश्किल हो जाए, जिंदगी चलानी। अगर रोज—रोज सोचना पड़े कि यह अपना ही घर है! बाहर खड़े होकर अगर विचार करें, तो मुश्किल हो जाए। वैसे लोग भी हैं, जिनको रोज सोचना पड़ता है कि अपना ही घर है!
मुल्ला नसरुद्दीन की जब शादी हुई, तो पत्नी पहले ही दिन बहुत परेशान हो गई। और अपनी पड़ोसन से उसने कहा कि मैं तो बहुत दुखी हो गई हूं। उसने कहा, क्या हो गया पहले ही दिन? उसने कहा, जब खाना खाकर मुल्ला उठा तो उसने मेरे हाथ में टिप रख दी। तो उसकी पड़ोसन ने कहा, इसमें कोई ऐसी चिंता की बात नहीं। आदतन। बेचारा कुंवारा आदमी, अब तक होटल में ही खाता। पर उसकी पत्नी ने कहा कि नहीं, इससे भी उतनी चिंता न हुई। चिंता तो तब हुई, जब टिप रखने के बाद उसने मुझे चूम भी लिया। अगर टिप भी आदतन है और यह भी आदतन है, तो फिर खतरनाक मामला है।
हम जीते हैं ऐसे ही। सब जड़ हो जाता है। सब बंध जाता है। एक लीक हो जाती है, उस पर हम चलते हैं। बाहर की जिंदगी में ठीक भी है। काम करना मुश्किल होगा। लेकिन भीतर की जिंदगी में बहुत खतरनाक है, क्योंकि विचारणा कम होती चली जाती है।
इसलिए बच्चे जितने विचारशील होते हैं, के उतने विचारशील नहीं होते; यद्यपि बच्चों के पास विचार कम होते हैं और बूढ़ों के पास बहुत होते हैं।
इसलिए फर्क को खयाल में ले लें। बूढ़े के पास विचार तो बहुत होते हैं, विचारशीलता कम हो गई होती है। क्योंकि सब विचार उसकी आदत बन गए होते हैं, अब उसे विचार करना नहीं पड़ता। विचार आ जाते हैं। वे नियमित हो गए हैं। बच्चे के पास विचार तो बहुत कम होते हैं, इसलिए विचारशीलता बहुत होती है। फिर धीरे— धीरे विचारों की पर्तें जमती जाएंगी। वह भी कल का हो जाएगा, तब विचार करने की जरूरत न पड़ेगी। विचार रहेंगे उसके पास। जब जिस विचार की जरूरत होगी, वह अपनी स्मृति के खाने से निकालकर और सामने रख देगा।
ध्यान रहे, बूढ़े के पास अनुभव होता है, विचार होते हैं, लेकिन विचारशीलता कम होती चली जाती है। क्योंकि बहुत पत्ते झील पर इकट्ठे हो जाते हैं। बच्चा खाली झील की तरह है जिस पर पत्ते अभी नहीं हैं।
इसलिए अगर बच्चों को ही ध्यान सिखाया जा सके, तो इस जगत में क्रांति हो सकती है, अन्यथा क्रांति नहीं हो सकती। क्योंकि बूढ़े के साथ उलटी मेहनत करनी पड़ती है। जिंदगीभर उसने कचरा इकट्ठा किया है। इकट्ठा करने के पहले ही अगर उसको यह बोध आ जाता कि व्यर्थ इकट्ठा नहीं करना है, या इकट्ठा भी कर लेना है, तो उससे तादात्म्य नहीं करना है; और कितने ही विचार इकट्ठे हो जाएं, विचारशीलता को मरने नहीं देना है...।
अपने विचार के प्रति भी तटस्थता का नाम विचारशीलता है। दूसरे के विचार के प्रति तो हम तटस्थ होते ही हैं। अपने विचार के प्रति भी तटस्थता का नाम विचारशीलता है। अपने विचार को भी पुनर्विचार करने की क्षमता का नाम विचारणा है। और प्रतिदिन, आदतवश नहीं, होशपूर्वक। क्योंकि कल का कोई विचार आज काम नहीं पड़ सकता है। सब बदल गया होता है, विचार थिर हो जाता है, जड़ हो जाता है। वह पत्थर की तरह भीतर बैठ जाता है। और जिंदगी तो तरल है, लिक्विड है, वह बदलती जाती है और हम कंकड़—पत्थर भीतर इकट्ठे करते चले जाते हैं।
रमजान का महीना था और मुल्ला नसरुद्दीन ने भी तय किया कि वह भी उपवास कर ले। तो सोचा रोज—रोज हिसाब रखना पड़ेगा, कितने दिन हो गए। उपवास में रखना ही पड़ता है। नहीं तो आदमी मर जाए। आशा लगाए रखता है कि चलो, एक दिन चुका। अब इतने, पंद्रह दिन बचे, अब चौदह दिन बचे —गुजर ही जाएगा, गुजर ही जाएगा। पर इतनी तकलीफ उठाए, कौन हिसाब रखे; तो उसने एक मटकी रख ली और रोज उसमें एक कंकड़ डालता गया। जब भी जरूरत होगी, कंकड़ गिन लेंगे।
कोई पंद्रह दिन बीते होंगे उपवास के दिनों के और कोई यात्री राह से गुजरता हुआ, तीर्थयात्रा पर जाता हुआ नसरुद्दीन के द्वार पर रुका। और नसरुद्दीन से उसने पूछा कि मैं जरा भूल गया हूं रमजान के कितने दिन निकल गए? तो नसरुद्दीन अपनी मटकी लाया। थोड़ा डरा भी, जब मटकी उसने उलटाई।
यात्री से कहा कि तुम जरा बाहर बैठो, मैं गिनकर आता हूं। गिने, बड़ा हैरान हुआ। हुआ ऐसा कि उसके लड़के को भी यह देखकर कि बाप रोज कंकड़ डालता है मटकी में, लड़का भी कंकड़ ला—लाकर डालता चला गया। बाहर जाकर उसने कहा कि माफ करना भाई, पैंतालीस दिन हो गए हैं। उस आदमी ने कहा, पैंतालीस! महीने में पैंतालीस दिन होते हैं? नसरुद्दीन ने कहा, यह तो मैं बहुत कम करके बता रहा हूं। पत्थर तो डेढ़ सौ हैं। यह तो मैंने काफी कम करके बताए।
विचार भी ऐसे ही पत्थरों की तरह भीतर इकट्ठे होते चले जाते हैं। जिंदगी बहुत तरल है, विचार बहुत ठोस हैं। फिर आखिर में उन्हीं कंकड़—पत्थरों को गिनकर हम जिंदगी का हिसाब रखते हैं। और जैसा नसरुद्दीन के लड़के ने बहुत पत्थर डाल दिए, विचार सब आपके नहीं होते, आपके तो थोड़े ही होते हैं बाकी तो दूसरे आप में डाल देते हैं। आखिर में आपके घड़े में जो पत्थर निकलते हैं, वे सब आपके भी नहीं होते हैं। सब डाल रहे हैं आपके घड़े में पत्थर। आखिर में गिनती आप करेंगे, समझेंगे अपने हैं। बाप बेटे के में डाल रहा है, पत्नी पति की खोपड़ी में डाल रही है, शिक्षक विद्यार्थी के, गुरु शिष्यों के। वे कंकड़—पत्थर इकट्ठे हो जाएंगे। उनका नाम विचार नहीं है। विचारों के संग्रह का नाम विचार नहीं है।
विचार एक शक्ति है—सोचने की, देखने की, निष्पक्ष होने की, अपने ही विचार के प्रति तटस्थ होने की। वह जो कल का विचार था, वह भी पराया हो गया, उसके प्रति भी पुनर्विचार की जो योग्यता है—संन्यासी का वह दंड है। विचार दंड :। वह सोचकर चलता है। सोचकर चलने का अर्थ, वह जड़ता से और आदत से नहीं जीता।
मुल्ला नसरुद्दीन पर एक मुकदमा था। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि आपकी उम्र क्या है? उसने कहा, चालीस वर्ष। मजिस्ट्रेट थोड़ा चौंका। उसने कहा कि चार साल पहले भी तुम आए थे, तब भी तुम्हारी उम्र चालीस ही वर्ष थी? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि मैं वचन का पक्का आदमी हूं जो एक दफे कह दिया, कह दिया। असंगत मैं कभी नहीं होता—नेवर इनकसिस्टेंट। जब अदालत के सामने कह दिया चालीस साल, तो अब तो बात खतम हो गई। अब तुम कभी भी पूछ लो—सोते से जगाकर—मैं चालीस साल का ही हूं। और तुम्हीं ने तो कसम दिलाई थी, ओथ पर रखा था मुझे कि सत्य ही बोलना। जब बोल चुके सत्य, तो बोल चुके।
ऐसी ही जड़ता हमारे भीतर पैदा होती है। सख्त हो जाती है। वह जो पांच साल की उम्र में सोचा था, वह पचास साल की उम्र में भी हमारे काम पड़ता है। आपको खयाल नहीं है कि आप पचास साल की उम्र में भी कभी—कभी पांच साल के बच्चे जैसा व्यवहार करते हैं।
एक आदमी के मकान में मैंने आग लगी देखी। उस गांव में मैं मेहमान था। सामने के ही मकान में आग लग गई थी। वह आदमी तो होगा कम से कम पचास—पचपन का, लेकिन आग लगी देखकर वह छोटे बच्चों जैसा कूदने लगा, चिल्लाने लगा और रोने लगा और छाती पीटने लगा।
रिग्रेसन, इसको मनोवैज्ञानिक कहते हैं, वह रिग्रेस कर गया। असल में छोटे बच्चे चिल्ला सकते हैं कूद सकते हैं, अपने को मार सकते हैं, रो सकते हैं, और तो कुछ कर नहीं सकते। अब आग लग गई, तो पचपन साल के आदमी के लिए यह व्यवहार ठीक नहीं है—अगर विचारपूर्ण हो तो। विचार तो इस आदमी के पास बहुत होंगे। यह अपने बेटे को काफी ज्ञान दे रहा होगा, जो भी मिल जाता होगा उसको सलाह देता होगा। इसलिए हमारे पास दूसरों को देने के लिए बहुत सलाहें होती हैं। खुद पर मुसीबत आए, तब पता चलता है कि सलाह काम पड़ेगी नहीं, क्योंकि हम रिग्रेस कर जाते हैं फौरन। हम उस अवस्था में पहुंच जाते हैं, जिसका हमें पता ही नहीं।
अब यह आदमी पांच साल के बच्चे का व्यवहार कर रहा है। इस वक्त इसकी उम्र पांच साल से ज्यादा नहीं है। इस वक्त इसके भीतर वही हो रहा है, जो पांच साल में इसने सीखा होगा कि जब कोई मुसीबत की बात आ जाए और कुछ करते न बने, तो हाथ—पैर पटककर रोना—चिल्लाना चाहिए। बच्चे के लिए तो ठीक है, क्योंकि पांच साल का बच्चा जब हाथ—पैर पटककर रोता—चिल्लाता है तो वह परिणामकारी है। क्योंकि उसकी मां झुक जाती है, बाप राजी हो जाता है कि खोपड़ी मत खाओ, जो चाहिए वह ले लो। लेकिन अभी कोई बाप नहीं है यहां, कोई मां नहीं है। मकान में आग लगी है।
असहाय जरूर है वह आदमी, वैसा ही जैसा पांच साल का बच्चा होता है। उसको एक खिलौना चाहिए। अब उसके पास कोई उपाय नहीं है, न पैसे हैं, न सुविधा है, वह कहा से लाए। वह चिल्लाता है, रोता है। मा—बाप परेशान हो जाते हैं। इस परेशानी से दो—चार रुपए खर्च करना ज्यादा सस्ता काम है। बार्गेनिंग हो जाती है। एकाध दफे डांटते हैं पहले। वे कोशिश करते हैं, पांच रुपए बच सकें तो बेहतर है। नहीं बचते, फिर राजी हो जाते हैं। यह बच्चा एक ट्रिक सीख जाता है। इसने एक ट्रिक सीख ली कि अगर कोई ऐसी अवस्था हो जहा कुछ न सूझे करते, वहा रोना—चिल्लाना, पैर पटककर भी काम होता है।
अब यह पचपन साल का आदमी है, मकान में आग लग गई है। अवस्था, परिस्थिति वही आ गई है, अब कुछ करते इसे बनता नहीं। वह पांच साल का बच्चा हो गया है। अब वह चिल्ला रहा है, रो रहा है, पीट रहा है। यह पांच साल में जो कंकड़ उसने इकट्ठे किए थे, पचपन साल में उपयोग कर रहा है। नहीं, यह विचारपूर्वक नहीं है बात। नहीं तो वह भी सोचेगा, हाथ—पैर पटकने से क्या होगा! विचार तो हैं उसके भीतर बहुत। अब जब मकान में आग लगी है, तो बहुत ज्यादा होंगे। लेकिन अब किसी काम के नहीं हैं।
विचारपूर्वक होने का अर्थ है, अपने अतीत से निरंतर छुटकारा—डाइंग टु द पास्ट, अपने अतीत के प्रति रोज मरते जाना। स्मृति तो इकट्ठी होगी, लेकिन अपने विचार को अलग रखना और अपनी स्मृति पर भी विचार बनाए रखना।
तो संन्यासी का दंड है विचार। वह चलता है स्मृति से नहीं, टटोलता है स्मृति से नहीं, मार्ग खोजता है स्मृति से नहीं, विचार से। जब भी कोई परिस्थिति होती है, वह सदा पुनर्विचार करने को, रिकंसीडर करने को राजी है।
स्वभावत:, संन्यासी को असंगत होना पड़ेगा। अगर मुल्ला नसरुद्दीन संगत है तो संन्यासी को असंगत होना पड़ेगा। परिस्थिति बदल जाएगी, तो विचार बदलना पड़ेगा। नया क्षण होगा, तो नए विचार को जन्म देना पड़ेगा। आदत कहेगी, पुराने से काम चला लो; स्मृति कहेगी, तैयार है; रेडीमेड उत्तर है, दे दो। लेकिन विचार कभी रेडीमेड उत्तर नहीं देता। कोई तैयार विचार, विचार नहीं है, स्मृति है।
विचार सदा स्पाटेनियस है, सहज स्फूर्त, उसी क्षण में पैदा होता है, पूरी चेतना से पैदा होता है। एक क्षण में आप मुकाबला करते हैं चुनौती का, विचार जन्म लेता है। अगर आपने पुरानी स्मृति का ही उपयोग किया, तो विचार नहीं है, आप एक मरे हुए आदमी हैं। संन्यासी जीवंत है, वह प्रतिपल सहज स्फृर्त जीता है। इसका, इसका अर्थ, विचार उसका दंड है। ब्रह्म— दर्शन उसका योग— पड है।
ब्रह्म—दर्शन ही उसका सर्टिफिकेट है, उसका प्रमाणपत्र है—और कोई भी नहीं। ब्रह्म को देख लेना ही उसकी परीक्षा, ब्रह्म को देख लेना ही उसका परीक्षा—फल, ब्रह्म को देख लेना ही उसका प्रमाणपत्र, ब्रह्म को देख लेना ही उसका योग—पट्ट है। उससे कम पर उसका कोई राजी होने का सवाल नहीं है। ध्यान रहे, ब्रह्मसूत्र पढ़ लेने से नहीं, ब्रह्म के दर्शन से। ब्रह्म के संबंध में शास्त्र पढ़ लेने से नहीं, ब्रह्म के दर्शन से। दर्शन से कम पर संन्यासी राजी नहीं है। इससे कम का कोई सवाल नहीं है।
श्वेतकेतु वापस लौटा ज्ञान लेकर, सब शास्त्र पढ़कर। लेकिन पिता ने उससे पूछा, तू सब पढ़ आया, लेकिन वह तूने जाना या नहीं, जिसे जान लेने से सब जान लिया जाता है? श्वेतकेतु ने कहा, यह क्या है? यह तो हमारे कोर्स में नहीं था। यह क्या बला है? हम सब सीखकर लौटे हैं। ज्योतिष तो हम जानते हैं, आयुर्वेद तो हम जानते हैं, संगीत तो हम जानते हैं, चारों वेद हम जानते हैं, उपनिषद हम पढ़कर आए हैं, ब्रह्म का पूरा ज्ञान लेकर आए हैं। लेकिन यह तो कोई सवाल ही समझ में नहीं आता कि उसको जानकर आए कि नहीं—उस एक को—जिसको जान लेने से सब जान लिया जाता है और जिसको न जानने से सब जाने हुए का कोई भी मूल्य नहीं है!
उस युवक ने कहा कि मैं तो बड़े गौरव से भरकर आ रहा था, बहुत प्रमाणपत्र लेकर आ रहा था और आपने तो सब पानी गिरा दिया। पिता ने कहा, तो तू वापस जा। तू जो बटोर लाया है, वह शान नहीं है। वह केवल शान की राख है। बेटे को वापस लौटा दिया।
वर्षों बाद बेटा वापस आया। दूर अपनी झोपड़ी की खिड़की से बाप ने देखा कि श्वेतकेतु वापस लौट रहा है। उसने अपनी पत्नी से कहा, पीछे का दरवाजा खोल दे, मैं भाग जाऊं। पलूाई ने कहा, क्या कहते हो! बेटा वापस आ रहा है। उसके पिता ने कहा, लेकिन वह उसे जानकर आ रहा है, जिसे मैंने भी अभी जाना नहीं। वह भी मैंने शास्त्र में पढ़ा था कि उस एक को जान, जिसको जानने से सब जान लिया जाता है। वह भी मैंने शास्त्र में पढ़ा था। और वह लड़का झझटी है। मैं तो पूछा था ऐसे ही। वह चला ही गया वापस। अब वह जानकर लौट रहा है। उसकी चाल कहती है, उसके आसपास की हवाएं खबर ला रही हैं, उसका चेहरा कहता है, उसकी आंखें कहती हैं। उसके चारो तरफ जो आभामंडल है, वह कहता है। मैं भाग जाऊं, क्योंकि अब उससे पैर छुलाना ठीक न होगा। अब जब तक मैं न जान लूं तब तक इस बेटे के दर्शन करना ठीक नहीं। भाग गया बाप पीछे के दरवाजे से।
ब्रह्म— दर्शन.,.।
उससे कम पर संन्यासी की तृप्ति नहीं है; शब्दों से नहीं, शास्त्र के सिद्धातों से नहीं, शान की परीक्षाओं से नहीं। वेद की परीक्षा से कहीं वेद मिलता है? कि वाराणसी में बैठकर संस्कृत के श्लोक कंठस्थ कर लेने से कोई ज्ञान मिलता है? कितने पंडित नहीं हैं? ही, एक अकड़ जरूर मिल जाती है। अज्ञान तो भीतर होता है और पांडित्य अकड़ दे देता है कि मैं जानता हूं। और जब अज्ञान को यह खयाल आ जाता है कि मैं जानता हूं तो अज्ञान से भी बदतर स्थिति पैदा होती है। अज्ञान को यह पता रहे कि मैं नहीं जानता, तो अज्ञान विनम्र होता है, कभी न कभी टूट सकता है। अज्ञान को यह खयाल आ जाए कि मैं जानता हूं तो अज्ञान अहंकार से भर जाता है, अकड़ से मजबूत हो जाता है, टूटना भी मुश्किल हो जाता है। इसलिए अज्ञानी तो ब्रह्म तक पहुंच भी जाए, पंडित बड़ी मुश्किल से पहुंच पाता है।
ब्रह्म—दर्शन ही—उससे कम नहीं—वही उसकी परीक्षा, वही उसका शास्त्र, वही उसका ज्ञान वही उसका योग—पट्ट, वही उसका प्रमाण, बस वही सब कुछ है।
ध्यान रखें दर्शन शब्द पर। अंग्रेजी में शब्द है फिलासॉफी। अब तो हम हिंदी से दर्शन को अनुवाद करते हैं, तो फिलासॉफी ही कहते हैं। या फिलासॉफी को हिंदी में अनुवाद करते हैं, तो दर्शन कहते हैं। वह ठीक नहीं है, क्योंकि दर्शन फिलासॉफी नहीं है। फिलासॉफी का मतलब है. विचार, चिंतन मनन—दर्शन नहीं। दर्शन का मतलब है, देखना।
एक अंधा आदमी भी प्रकाश के संबंध में सोच सकता है, सुन सकता है। बेल लिपि में लिखा गया हो, तो पढ़ भी सकता है। एक अंधा प्रकाश के संबंध में खूब चिंतन कर सकता है। और यह भी हो सकता है कि अंधा अगर ठीक और बुद्धिमान हो, तो प्रकाश के संबंध में कोई सिद्धांत भी खोज सकता है, प्रकाश के संबंध में कुछ आविष्कार भी कर सकता है। प्रकाश के संबंध में कुछ ऐसे सिद्धांत निर्मित कर सकता है जो कि प्रकाश की उलझन को सुलझाने में सहयोगी हो जाएं। कोई बाधा नहीं है। लेकिन अंधा दर्शन नहीं कर सकता। दर्शन और ही बात है।
विचार तो खोपड़ी तक ही तैरते हैं, दर्शन हृदय तक पहुंच जाता है। और विचार तो सिर्फ छाया मात्र हैं, दर्शन प्रतीति है, अनुभव है। इसलिए जर्मन विचारक हरमन हेस ने सिर्फ पिछले पचास वर्षों में—न डा राधाकृष्णन ने और न विवेकानंद ने और न रामतीर्थ ने, जिन लोगों ने भी भारतीय दर्शन को पश्चिम में पहुंचाने की कोशिश की है, उन्होंने नहीं—एक जर्मन विचारक हरमन हेस ने दर्शन के लिए फिलासॉफी शब्द का उपयोग करने से इंकार किया। और उसने कहा कि मैं नया शब्द गढंगूा, जो कि पश्चिम की भाषाओं में नहीं है। वह शब्द उसने गढ़ा फिलासिया।
फिलासॉफी में दो शब्द है—फिला और सॉफी। सॉफी का मतलब होता है ज्ञान और फिला का अर्थ होता है प्रेम—ज्ञान का प्रेम। हरमन हेस ने एक नया शब्द बनाया, फिलासिया। फिला का अर्थ होता है, प्रेम और सिया का अर्थ होता है, टु सी—दर्शन का प्रेम।
भारत में फिलासॉफी जैसी चीज रही ही नहीं। विचार का प्रेम भारत में नहीं है। भारत में दर्शन की आकांक्षा है। देखे बिना, देखे बिना क्या होगा! कितना ही सुनो, कितना ही समझो, कितना ही कंठस्थ करो, देखे बिना क्या होगा! देखना पड़ेगा—ब्रह्म—दर्शन। तो संन्यासी की अभीप्सा है ब्रह्म—दर्शन।
श्रिया पादुका:।
यह बड़ा अदभुत सूत्र है।
संपत्ति उनकी पादुका।
बड़ा अजीब है। संपत्ति का और संन्यासी से क्या लेना—देना। और सब तो ठीक है, ब्रह्म—दर्शन करो, ठीक है। संपत्ति से संन्यासी का क्या लेना—देना? वही सूचना है इसमें।
संपत्ति उनकी पादुका।
दो—तीन बातें हैं। एक, हम सब संपत्ति की पादुकाएं हैं, संपत्ति की जूइतयां। संपत्ति चलती है, हम जूते का काम करते हैं। गुलाम संपत्ति के। संन्यासी ही मालिक हो सकता है संपत्ति का। संपत्ति को जूते की तरह पैर में डालकर चल सकता है। इसलिए कि संपत्ति की उसकी कोई मांग नहीं है।
सुना है मैंने, कबीर का बेटा था कमाल। कभी—कभी ऐसी बातें कह देता था कबीर से कि कबीर ने कहा कि बेहतर हो कि तू एक अलग झोपड़ा ही बना ले। क्योंकि ऐसे असमय में कह देता था कि कभी—कभी अकारण कठिनाई पैदा हो जाती। जैसे कबीर ने एक सूत्र कहा कि चलती हुई चक्की देखकर कबीर रोने लगा कि दो पार्टी के बीच में जो भी पड़ गया, वह पिस गया। ठीक ही कहा था, बिलकुल ठीक था। कमाल बोला कि नहीं, कमाल चलती चक्की देखकर खूब हंसा। दो पाट तो पीस रहे थे, लेकिन जिसने बीच के दंड का सहारा ले लिया था, वह बच गया।
यह झंझट अकारण है, यह भी ठीक है। कबीर बिलकुल ठीक कह रहे हैं। यह कमाल भी बिलकुल ठीक कह रहा है। जरूरी नहीं कि सत्य और असत्य में ही उपद्रव होता है। कई बार दो सत्यों में सीधा उपद्रव हो जाता है।
कबीर ने कहा कि बेटा, तू दूसरा ही झोपड़ा बना ले, क्योंकि यहां अकारण उपद्रव होता है। तो कमाल अलग रहने लगा। कबीर ने कह दिया, तो ठीक। उसने पास में ही एक झोपड़ा बना लिया। कुछ लोग कमाल को भी सुनने आते थे। आदमी कमाल का ही था। कबीर ने ही तो नाम दिया था कमाल उसको, था वह कमाल का ही। और कबीर का बेटा अगर कमाल न हो, तो कबीर को ही तो ग्लानि उठानी पड़े। कबीर ने तो सिर्फ इसलिए कहा था कि उस झोपड़ी में कबीर कहते थे, व्यर्थ का विवाद खड़ा न हो और लोगों के मन में शंका न आए। तू अलग हो जा, यहां से लोग सुनकर तुझे भी सुन लेंगे। तेरी बात भी सुन जाएंगे।
मगर शिष्यों में तो विरोध शुरू हो गया। कोई कमाल के शिष्य हो गए, ' कोई कबीर के शिष्य हो गए। उपद्रव भी बना। कबीर के शिष्यों ने उड़ाना शुरू किया कि कमाल तो कोई तानी नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि लोग पैसा दे जाते, तो यह रख लेता है। कबीर को दो, तो वे तो नहीं रखते।
वह कबीर का ढंग है। शायद इसीलिए न रखते हों कि कहीं जो पैसा लेकर आया है, वह कबीर से टूट न जाए। क्योंकि अगर कोई पैसा लेकर आए, न रखो, तो बड़ा प्रसन्न होता है, बड़ा प्रभावित होता है। कहता है कि त्यागी है। लेकिन आग्रह करता है कि रखो। और दुखी मालूम पड़ता है कि आप मेरा इतना सा भी आग्रह नहीं मानते। अगर रख लो तो सुखी नहीं होता। चिंतित होकर जाता है कि कहीं चक्कर में तो नहीं पड़ गए। यह आदमी तो तत्काल रख लिया। आदमी का मन ऐसा है। कुछ भी करो, दुखी होगा। कबीर तो इंकार कर देते थे। तो बहुत लोग दुखी होते थे कि हमें कोई सेवा का अवसर नहीं देते। आदमी के मन का एक बड़ा दुख है।
पशुओं की दुनिया में, पशुओं की जरूरतें पूरी हो जाएं, तो पशु तृप्त हो जाते हैं। उनकी जरूरतें पूरी हो जाएं—खाना मिल जाए विश्राम मिल जाए, नींद मिल जाए कामवासना तृप्त हो जाए—पशु तृप्त हो जाते हैं। दे हैव नीड्स, इफ दे आर फुलफिल्ड, दे आर फुलफिल्ड।
लेकिन आदमी में एक और अदभुत बात है। सब जरूरतें पूरी हो जाएं, तो भी आदमी तृप्त नहीं होता। एक बड़ी अदभुत जरूरत आदमी में है—ए नीड टु बी नीडेड। दूसरे लोगों को भी उसकी जरूरत मालूम पड़नी चाहिए—कि मैं किसी के काम पड़ रहा हूं किसी के उपयोग में आ रहा हूं मेरे बिना बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। सब जरूरतें पूरी हो जाएं, तो भी एक जरूरत भीतर रह जाती है, वह यह है कि मेरी जरूरत भी दूसरों को होनी चाहिए। अगर ऐसा लगे कि मेरी जरूरत किसी को भी नहीं, तो जिंदगी बेकार है। भोजन है, कपड़ा है, नींद है, सब पड़ा रह गया। मेरी कोई जरूरत नहीं।
तो जब कोई आदमी आता है कबीर जैसे आदमी के पास और कबीर इंकार कर देते हैं कि नहीं भाई मैं कुछ न लूंगा, तो वे भी करुणा से ही इंकार कर रहे हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अगर वे ले लेंगे, तो यह आदमी परेशान जाएगा, हो सकता है रात सो न सके कि कहां के भोगी के पास पहुंच गए।
कमाल, कोई ले आता, तो रख लेता। कहता, बड़ी खुशी, रख जाओ। वह भी कृपा और करुणा है। क्योंकि इस आदमी को अगर ऐसा लगे कि कमाल इसके बिना न जी सकेगा, तो भी इसके भीतर एक फूल खिलने का उपाय बनता है। जिंदगी बहुत पहेली है।
तो कबीर के शिष्यों ने उड़ाना शुरू कर दिया कि कमाल तो बेईमान दिखता है, कोई संन्यासी नहीं दिखता। काशी का सम्राट एक दिन कबीर के पास आया था, तो शिष्य बड़े बेचैन थे कि कहीं दूसरे झोपड़े में न जाए। तो उन्होंने कहा कि चलिए—चलिए, सीधे जल्दी चलिए। पर उन्होंने कहा कि जरा यह कमाल को भी मिल लूं कबीर का बेटा यहा रहता है। पर उन्होंने कहा, वह आदमी ठीक नहीं है। पैसे पर उसकी बड़ी पकड मालूम पड़ती है। सम्राट ने कहा, तो चलें, परीक्षा कर लें।
वह गया। हाथ में हीरे की बहुमूल्य अंगूठी थी, लाखों उसके दाम थे। सम्राट ने वह निकाली और कमाल से कहा कि यह रख जाता हूं। कमाल ने कहा, मर्जी। सम्राट थोड़ा चौंका, इतनी जल्दी! पहले न करना चाहिए, ही करना चाहिए, मना करना चाहिए। इतनी जल्दी! मन हुआ कि वापस अपनी अंगुली में डाल ले, लेकिन बड़ी बेइज्जती होगी। यह शिष्यों ने ठीक ही कहा था कि यहां मत जाना। अब फंस गए। तो जरा रुका, तो कमाल ने कहा कि रख ही दो, अब रुकते क्या हो? तो उसने पूछा कि कहां रखें? कमाल ने कहा, जहां मर्जी हो। तो उसने सनोलियो की झोपड़ी थी, उसमें खोंस दी अंगूठी।
सो नहीं सका होगा। एक दिन, दो दिन बड़ी बेचैनी रही कि कहां उलझ गए! कबीर आदमी अच्छा डै। एक पैसा भी दो, तो कहता है कि नहीं, ले जाएं, क्या करेंगे, सब है। यह आदमी कैसा है। पंद्रह दिन बाद नहीं माना मन। वापस गया। देखें कि क्या हुआ उस अंगूठी का! अब तक तो बिक गई होगी। नाच — गान पता नहीं क्या हो गया होगा। यह आदमी ही ऐसा दिखता है कि जरा रुके तो कहने लगा, रख ही दो, अब —ठहरते क्या हो।
गया तो कमाल बैठा था। पूछा कमाल ने, फिर ले आए क्या अंगूठी? आदमी कैसे हो! अब नहीं सहा गया उससे भी। उसने कहा कि आदमी कैसे हो! तो कमाल ने कहा, कैसे आए? क्योंकि पिछली दफा अंगूठी लेकर आए थे, तो मैंने सोचा फिर। नहीं, उसने कहा, अंगूठी लेकर नहीं आए। यह पता लगाने आया हूं कि अंगूठी कहा है। उसने कहा, तुम जहां रख गए थे वहां देख लो। अगर कोई न ले गया हो, तो वहां होगी। अगर कोई ले गया हो, तो हमने कोई ठेका नहीं लिया था उसकी रक्षा का। सम्राट उठा, देखा, सनोलियो में अंगूठी अटकी है।
यह अर्थ है—संपत्ति संन्यासी की पादुका। मगर कोई अंगूठी ले भी जा सकता था। तब कमाल के संबंध में एक नासमझी सदा के लिए शेष रह जाती। लेकिन संपत्ति पादुका ही है। उसकी इतनी भी मालकियत संन्यासी स्वीकार नहीं करता कि इनकार भी करे। क्या करना है इनकार, या क्या करना है ही। मिट्टी है, तो है।
छोड़ने और पकड़ने दोनों में हम संपत्ति को मूल्य देते हैं। जब हम कहते हैं, संपत्ति चाहिए, तब भी मूल्य है। और जब हम कहते हैं कि नहीं, हम संपत्ति न छुके, तब भी मूल्य है। संन्यासी के लिए कोई मूल्य ही नहीं है, निर्मूल्य हो गई बात। तुम कहते हो रख जाएं, तो कहता है रख जाओ। मिट्टी को इनकार भी क्या करना।
इतनी मालकियत संपत्ति की हो, तो ऋषि कहता है, तब संन्यासी है। पर पहचानना सदा मुश्किल है। क्योंकि एक—एक संन्यासी पर निर्भर करेगा कि वह क्या करे। वह उसकी अपनी निजी अभिव्यक्ति होगी। पर एक बात तय है कि संपत्ति उसके लिए मालकियत नहीं रखती, उसके ऊपर मालकियत नहीं रखती। संपत्ति उसे पजेस नहीं कर सकती।
और ध्यान रखें, हम सबको खयाल होता है कि वी आर द पजेसर्स, हम संपत्ति के मालिक हैं। लेकिन हम भ्रम में हैं। संपत्ति हमारी मालिक हो जाती है। क्योंकि जब आप रात सोते हैं, तो आपके तिजोरी के रुपए, चिंता में रातभर नहीं जगते, सोए रहते हैं। आप जगते हैं। मालिक कौन है? जब आपके हाथ से रुपया गिर जाता है, तो रुपया नहीं रोता कि मालिक मैं जिसका था, वह कहां गया। इतना भी नहीं रोता। आप रोते हैं। और मालिक आप हैं?
नहीं, जिसकी भी हम मालकियत करने की कोशिश करते हैं, वही हमारा मालिक हो जाता है। द पजेसर इज आलवेज द पजेस्ट। जो भी मालिक बनेगा, स्वामित्व ग्रहण करेगा, वह गुलाम हो जाएगा। संन्यासी संपत्ति की मालकियत की बात ही नहीं करता। वह कहता है, संपत्ति है कहां? जिसको तुम संपत्ति कहते हो, अगर तुम्हारी शकल देखे, तो विपत्ति मालूम पड़ती है। संपत्ति वालों की अगर शकल देखें, तो ऐसा मालूम पड़ता है कि इनके पास विपत्ति है। संपत्ति तो बिलकुल नहीं मालूम पड़ती। संपत्ति तो संन्यासी के पास मालूम पड़ती है। उसकी प्रफुल्लता, उसका आनंद, उसका खिला हुआ फूल जैसा व्यक्तित्व। न कोई चिंता, न कोई फिक्र, न कोई तनाव। संपत्ति तो उसके पास मालूम पड़ती है, पर है उसके पास कुछ भी नहीं। और जिनके पास सब कुछ है, वे बड़ी विपत्ति में घिरे मालूम पड़ते हैं।
संन्यासी के लिए ऋषि कहता है, संपत्ति उसकी पादुका जैसी है।
उसे पता भी नहीं चलता। पैरों में पड़ी है, तो पड़ी है। उसका उपयोग कर लेता है पादुका का, लेकिन कभी उस पादुका को अपने सिर पर रखकर नहीं चलता।
बोधिधर्म हिंदुस्तान से जब चीन गया, तो वह अपनी पादुका को एक को सिर पर रखे था और एक को पैर में पहने हुए था। वह बहुत अनूठा संन्यासी था बोधिधर्म। चौदह सौ वर्ष पहले वह चीन गया भारत से। सम्राट उसके स्वागत को आया था। हजारों भिक्षु इकट्ठे हुए थे, क्योंकि भारत से बुद्ध की हैसियत का आदमी पहली दफा चीन आ रहा था—बोधिधर्म। बड़ा स्वागत का समारोह था।
लेकिन सम्राट बहुत बेचैन हुआ। संन्यासी भी बहुत हैरान हुए। एक—दूसरे को देखने लगे कि यह क्या हो गया! यह आदमी तो पागल मालूम पड़ रहा है। एक जूता पैर में पहने था, एक सिर पर सम्हाले था। सम्राट से न रहा गया। थोड़ा ही मौका मिला, तो उसने कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं, इससे बड़ी मुश्किल हो रही है। हम तो बड़ा प्रचार किए कि बहुत महान ज्ञानी आ रहा है। और यह आप क्या कर रहे हैं? इससे खबर पहुंच जाएगी कि पागल हैं।
तो बोधिधर्म ने कहा, सिर पर जो रखे हैं, वह तुम्हारे खयाल से; और पैर में जो पहने हैं, वह अपने खयाल से। सिर पर जो रखे हैं, वह तुम्हें याद दिलाने को कि तुम आदमी कैसे हो, तुम मुझको पागल कह रहे हो, और तुम दोनों रखे हो, और हम सिर्फ एक रखे हैं।
जूतियों को हम सिर पर रखे हैं, अगर संपत्ति को हम सिर पर रखे हैं। संपत्ति जहां होनी चाहिए वहा होनी चाहिए। वह पैर का उपयोग है। जीवन की जरूरत हो सकती है, तो उसका उपयोग किया जा सकता है। लेकिन उसे मालिक नहीं बनाया जा सकता। पर भूल इसलिए हो जाती है कि हम मालिक होने जाते हैं और आखिर में गुलाम हो जाते हैं। जो मालिक होने जाएगा, वह गुलाम होने पर समाप्त होगा।
इसलिए संपत्ति के मालिक होने जाना ही मत। अपने मालिक हो जाना, संपत्ति गुलाम हो जाती है। इसलिए हम संन्यासी को स्वामी कहते हैं। किसी और का मालिक नहीं, अपना मालिक। और तो उसके पास कुछ है ही नहीं। अपना जो मालिक है, वह स्वामी है। संपत्ति उसके लिए गुलाम है, पादुका है। परात्पर की अभीप्सा ही उनका आचरण है।
वह जो पार और पार—बियाड एंड बियांड—वह जो दूर और दूर फैला है और अतिक्रमण कर जाता है हमारी सारी सीमाओं का, उसको पा लेने की प्यास ही उनका आचरण है। वे इस भांति जीते हैं कि उनके उठने में, उनके बैठने में, उनके चलने में, उनके सोने में एक ही प्यास भीतर हृदय में धड़कती रहती है। और एक ही प्यास उनकी श्वास—श्वास में गूंजती रहती है। उनका होना सिर्फ एक ही बात के लिए है कि वह जो परात्पर ब्रह्म है, वह जो पार छिपा हुआ, और पार छिपा हुआ अशात का लोक है, उससे मिलन हो जाए। वही उनका आचरण है। वही उनका चलना, उठना, बैठना, खाना, पीना, ओढ़ना—सब वही है।
कबीर ने कहा है कि मेरा ओढ़ना भी राम, मेरा बिछौना भी राम। सोता भी उसी पर, बैठता भी उसी पर। चलता भी उसी पर, चलता भी वही।
यह साधारण सा जो हमें आचरण दिखाई पड़ता है, आपने कभी खयाल नहीं किया होगा, किसलिए? आप सुबह क्यों उठ आते हैं रोज? कौन सी आकांक्षा उठने को कहती है, उठो, चलो। क्यों रोज भोजन कर लेते हैं? कौन सी आकांक्षा कहती है कि शरीर को बचाओ? क्यों धन इकट्ठा करते हैं? कौन सी वासना कहती हे कि धन के बिना नहीं चलेगा न: आपके आचरण का क्या है आधार, क्या है केंद्र?
अगर हम एक शब्द में कहें तो काम, सेक्स। उसके लिए उठते हैं, चलते हैं, कमाते हैं, मकान बनाते हैं, धन, यश सब। अगर गहरे में खोजने जाएं, तो बस काम है। आदमी अपने को धोखा दे सकता है, लेकिन आदमी को छोड़ दें थोड़ी देर को, और जानवरों को देखें, और पशु —पक्षियों को देखें, तो कामवासना बहुत स्पष्ट दिखाई पड़ेगी। आदमी धोखा देता है थोडा, इसलिए अस्पष्ट हो जाती है। लेकिन गहरे में उतरकर देखें, तो कामवासना ही हमारे भीतर चलती रहती है। उसी के लिए हम जीते हैं। सारी उधेड़बुन उसी के लिए है। वही हमारा आचरण है, काम ही हमारा आचरण है।
संन्यासी का आचरण राम है। वह भी उठता है सुबह, जैसे आप उठते हैं। लेकिन उसकी अभीप्सा, उसकी अभीप्सा उस परात्पर को पाने के लिए है। वह भी खाना खाता है, लेकिन आप जिस लिए खाना खाते हैं, उस लिए खाना नहीं खाता है। वह इसलिए खाता है कि यह शरीर साधन बन जाए उस परात्पर तक पहुंचने के लिए। वह भी रात सोता है। वह भी शरीर पर वस्त्र ढांक लेता है, सर्दी होती है। धूप होती है, तो छाया में बैठ जाता है। लेकिन सारी बातों के पीछे, सारे आचरण के पीछे एक ही अभीप्सा कि वह परात्पर का दर्शन कैसे हो जाए!
तो कई बार आपको लगता है संन्यासी भी आप ही जैसा खाना खाता, आप ही जैसा उठता, आप ही जैसे कपड़े पहनता, तो फर्क क्या है? फर्क भीतर है, फर्क जीवन के केंद्र पर है। फर्क उस बात में है कि किसलिए? फार हाट? किसलिए जी रहे हैं?
अगर संन्यासी को पता चल जाए कि कोई परात्पर नहीं है, कोई है ही नहीं पार; बस यही उठना—बैठना, खाना—कमाना, दुकान, जीवन, मर जाना, तो संन्यासी की दूसरी सांस न चले फिर। बात ही खतम हो गई, बात ही समाप्त हो गई। अगर वह है, तो जीने का कोई अर्थ है। अगर उसे पाया जा सकता है र तो जीवन का कोई प्रयोजन है। अगर उस तक पहुंचा जा सकता है, तो जीवन जीवन है, अन्यथा जीवन मरने की एक लंबी प्रक्रिया के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
कुंडलिनी बंध:।
संन्यासी की जो शक्ति का मूल स्रोत है, वह कुंडलिनी है। जैसा मैंने कहा, हमारे जीवन की, हमारी चर्या की जो आधारभूत भित्ति है, वह कामवासना है। इसलिए हमारी शक्ति का जो स्रोत है, वह सेक्स सेंटर है, काम—केंद्र है। उसी से हमारी सारी शक्ति आती है। हमारे शरीर में जो ऊर्जा दौड़ती है, वह काम—केंद्र की ऊर्जा है। हमारी आंखों से जो शक्ति देखती है, वह कामवासना है। हमारे कानों से जो शक्ति सुनती है, वह कामवासना है। हमारे हाथों से जो शक्ति स्पर्श करती है, वह कामवासना है। हमारी शक्ति का केंद्र, हमारी शक्ति का मूल स्रोत काम—केंद्र है।
काम—केंद्र के बिलकुल निकट कुंडलिनी का केंद्र है। उसके पास ही एक दूसरा सरोवर भी है। लेकिन उसको हमने छुआ भी नहीं है कभी। वही केंद्र संन्यासी के जीवन का आधार है। वहीं से वह शक्ति पाता है कुंडलिनी को जगाकर ही। वह एक दूसरे शक्ति आयाम में प्रवेश करता है।
और मजे की बात यह है कि जैसे ही कुंडलिनी जगती है, कामवासना की सारी शक्ति कुंडलिनी के केंद्र पर गिर जाती है और रूपांतरित हो जाती है, ट्रांसफार्म हो जाती है। क्योंकि कामवासना बहुत छोटा सा सरोवर है। बड़ा छोटा सा झरना है। झरना भी ऐसा है कि रोज—रोज उस शक्ति को हमें खाने से, पीने से, विश्राम से इकट्ठा करना पड़ता है। तब वह झरना थोड़ा सा भरता है बूंद—बूंद। और मजा है कि हम अजीब पागल हैं, बूंद—बूंद भरते हैं उसको और फिर उसको उलीच देते हैं। फिर उसको भरते हैं, फिर उसको उलीच देते हैं। फिर भरते हैं।
इसके पीछे जो कुंडलिनी का, इससे ही बिलकुल निकट, बिलकुल इसके ही पड़ोस में जो बड़ा विराट केंद्र है, वह भोजन से नहीं बनता, वह पानी से नहीं बनता, वह विश्राम से नहीं बनता। वह परमात्मा का ही दिया हुआ है। तो काम—केंद्र के लिए तो हमें रोज अर्जन करनी पड़ती है शक्ति, उसके लिए अर्जन नहीं करनी पड़ती। गिवेन, वह मिली हुई है, वह हमारा स्वभाव है। संन्यासी के लिए वही ऊर्जा का स्रोत है।
कुंडलिनी बंध:।
वह उसी से जगाता, उसी को जीता। और जब वह शक्ति जग जाती है, तो यह काम—केंद्र का जो छोटा सा झरना है, यह उसमें अपने आप गिर जाता है और कामवासना भी रामवासना में रूपांतरित हो जाती है।
ध्यान में हम यहां उसकी ही कोशिश कर रहे हैं कि वह कुंडलिनी पर चोट पड़ जाए। जो मैं इतना आग्रह करता हूं कि जोर से श्वास की चोट करें, वह इसीलिए आग्रह करता हूं कि उस श्वास की चोट से कुंडलिनी के केंद्र का बंद द्वार टूट सकता है। जो आपसे कहता हूं र दिल खोलकर नाचे और कूदे, वह इसीलिए कहता हूं कि उस हलन—चलन में वह जो सोई हुईं शक्ति, ऊर्जा है, वह कंपित होकर उठ सके। जो आपसे कहता हूं कि हुंकार करें, हू की आवाज करें पागल की तरह, तो हू की जितने जोर से आवाज होती है, उतने ही सेक्स सेंटर के निकट तक पहुंचती है, जहां कुंड़लिनी का केंद्र है, जहा उस पर चोट पड़ती है।
श्वास से, शरीर की गति से, ध्वनि से, चोट करते हैं उस पर। वह टूट जाएगी र अगर आप चोट करते ही गए; हैमरिंग जारी रही, तो वह टूट जाएगी। और जिस दिन वह टूटेगी, उस दिन कामवासना तत्क्षण राम की यात्रा पर निकल जाती है। फिर यह शरीर लक्ष्य नहीं रह जाता, साध्य नहीं रह जाता, सिर्फ साधन हो जाता है।
जो दूसरों की निंदा से रहित हैं वे जीवन— मुक्त हैं। परापवाद मुक्तो जीवनमुक्त: जो दूसरों की निंदा से रहित हैं वे जीवन— मुक्त हैं।
हमारे मन में निंदा का बड़ा रस है। उसका कारण है। असल में जब हम दूसरे की निंदा करते हैं, तभी हमको लगता है कि हम भी हैं। जब हम दूसरे को नीचे गिरा देते हैं, तभी हमको ल्वाता है कि हम ऊंचे हैं। जब हम दूसरे को बुरा सिद्ध कर देते हैं, तभी हमें लगता है कि हम भले हैं। जब हम दूसरे को चोर जाहिर कर देते हैं, तभी हमें लगता है कि हम अचोर हैं। हैं तो हम नहीं, इसलिए दूसरे की तरफ से हमें अपने को सिद्ध करना पड़ता है। जो है अचोर, वह दूसरे को चोर सिद्ध करके अपने को अचोर सिद्ध नहीं करता, वह है। जो ब्रह्मचर्य को उपलब्ध है, वह दूसरे को व्यभिचारी सिद्ध करके अपने को ब्रह्मचारी सिद्ध नहीं करता, वह है।
निंदा में इसीलिए रस है। और प्रशंसा में बड़ी पीड़ा होती है। अगर कोई आपसे आकर कहे कि फलां व्यक्ति बड़ा साधु पुरुष है, धक से चोट लगती है कि ऐसा हो कैसे सकता है! मेरे रहते, और कोई दूसरा साधु पुरुष हो सकता है? जब अभी हम ही जमीन पर मौजूद हैं!
मुल्ला नसरुद्दीन मर रहा है। आखिरी घड़ी, उसके सब शिष्य इकट्ठे हो गए हैं। आंख बंद किए पड़ा है। मरते क्षण, शिष्य जितनी प्रशंसा कर सकते हैं, कर रहे हैं। एक शिष्य कह रहा है कि ऐसा ज्ञानी हमने कभी नहीं देखा। शास्त्र तो जीभ पर रखे थे। मुल्ला थोड़ी सी आंख खोलकर देखता है और आंख बंद कर लेता है। दूसरा शिष्य कहता है, ऐसा दानी भी हमने नहीं देखा। कोई भी आ जाए, सदा देने को तैयार था। मुल्ला थोड़ी सी आंख खोलकर ?? आंख बंद कर लेता है। तीसरा कहता है, इतना सेवा से भरा हुआ व्यक्ति हमने कभी नहीं देखा। मुल्ला फिर आंख खोलकर बंद कर लेता है। फिर वे सब चुप हो जाते हैं। कुछ और बचता भी नहीं बताने को।
तो मुल्ला कहता है कि एक चीज तुम छोड़े ही दे रहे हो। मुझसे ज्यादा विनम्र आदमी भी कोई नहीं था।
विनम्रता में भी अहंकार पुस जाता है। मुल्ला कहता है, मुझसे ज्यादा विनम्र आदमी भी कोई नहीं था, यह भी तो खयाल करो। अब मुझसे ज्यादा विनम्र भी कोई नहीं था, यही तो अहंकार होगा। और क्या अहंकार हो सकता है?
दूसरे की प्रशंसा सुनकर चोट लगती है कि मुझसे भी आगे कोई! इसलिए हम प्रशंसा को कभी मानते नहीं, सुन भी लें, तो भी मानते नहीं। हम जानते हैं कि जरूर कहीं न कहीं कोई ट्रिक होगी, कहीं न कहीं कोई गड़बड़ होगी ही। पता नहीं चला होगा अब तक, लेकिन कहीं न कहीं कोई बात होगी, जो कल पता चल जाएगी और सब राज खुल जाएगा। लेकिन जब कोई निंदा करता है किसी 'की, तो देखें, हमारे मुंह में कैसा पानी आ जाता है। फिर हम बिलकुल नहीं पूछते कि सच कह रहे हो, झूठ कह रहे हो, कोई प्रमाण है? और हम कभी नहीं सोचते कि यह आदमी जो कह रहा है, गलत भी हो सकता है, कभी न कभी पता चल जाएगा कि निंदा गलत थी। नहीं, यह खयाल नहीं आता।
निंदा कोई करे, तो हम तत्काल मान लेते हैं। कोई कहे कि फलां व्यक्ति साधु, हम कभी नहीं मानते। हम कहते हैं, पता लगाकर देखेंगे। कोई कहे, फला आदमी चोर, व्यभिचारी, बदमाश, बिलकुल राजी हैं। बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप, हमें पहले ही पता था। बुराई तो होगी ही, उसमें कोई शक का सवाल ही नहीं है। भलाई संदिग्ध है सदा।
संन्यासी के लिए ऋषि कहता है, वे दूसरे की निंदा से रहित हैं वे ही जीवन—मुक्त हैं।
इसका यह अर्थ नहीं है कि संन्यासी के सामने चोर हो, तो संन्यासी उसे चोर नहीं कहेगा। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि व्यभिचारी को संन्यासी व्यभिचारी नहीं कहेगा। अगर संन्यासी व्यभिचारी को व्यभिचारी न कहे, तब तो असत्य होगा उसका वक्तव्य। गलत को गलत न कहे, तो असत्य होगा। फर्क एक पड़ेगा, संन्यासी गलत को ही गलत कहेगा और उसमें कोई रस नहीं होगा उसे। रस नहीं होगा कि तुम गलत हो, तो उसको मजा आ जाए। तुम गलत हो, तो यह गणित की तरह गलत होगा कि दो और दो तीन नहीं होते। इसमें कोई रस नहीं है।
संन्यासी भी चोर को चोर ही कहेगा। लेकिन चोर को ही चोर कहेगा और कोई रस नहीं लेगा इस बात में कि तुम चोर हो, तो उसे कोई रस आ रहा है; या तुम्हारे चोर होने से उसके अचोर होने में कोई सुविधा मिल रही है; या तुम्हारे असाधु होने से उसके साधु होने को कोई सहारा मिल रहा है। नहीं, इसमें कोई रस नहीं होगा।
वे पर निंदा से मुक्त होते हैं। अ अ है, ब ब है, अंधेरा अंधेरा है, प्रकाश प्रकाश है। जो जैसा है, वैसा उसे देखते हैं। लेकिन कोई रस नहीं है इस बात में। एक फर्क जरूर पड़ता है और वह फर्क यह है कि दूसरे में जो भी भलाई दिखाई पड़े, उसकी चर्चा करने में वे जरूर रस लेते हैं। रस इसलिए लेते हैं कि जिसमें हम रस लें, उसके बढ़ने की संभावना हो जाती है।
अगर हम इस बात में रस लें कि दूसरा बेईमान है, तो हमें पता हो या न हो, हम उसकी बेईमानी को बढ़ाने के लिए रास्ता बना रहे हैं। हमारा रस उसके लिए सहारा बनता है। अगर हम एक बेईमान में भी एक गुण खोज लेते हैं और कहते हैं, बेईमान कितना ही हो, लेकिन आदमी बड़ा सरल है या आदमी बड़ा सीधा है, बेईमान कितना ही हो, लेकिन आदमी बड़ा शात है, तो हम उस आदमी की शांति को बढ़ने के लिए सहारा दे रहे हैं। और अगर शांति बढ़ जागरण, तो बेईमानी टिक न सकेगी ज्यादा दिन। अगर सरलता बढ़ जाए, तो आदमी बेईमान कैसे रहेगा? तो हम उसकी बेईमानी मिटाने में भी सहयोगी हो रहे हैं।
हम जिस बात में रस लेते हैं, वह बढ़ती है, क्योंकि रस लेना पानी सींचना है। इसलिए निंदा में संन्यासी को कोई रस नहीं है, तथ्य में जरूर रस है। और जो शुभ है, उसको जरूर वह सींचने की कोशिश करता है।
आज इतना ही।
शेष कल।
अब हम छगन में प्रवेश करेंगे। पूरी शक्ति लगानी है।
दस मिनट तक श्वास, दस मिनट तक शरीर का नृत्य, दस मिनट तक हुंकार, फिर दस मिनट तक प्रतीक्षा।
दूर—दूर फैल जाएं। यहां सामने मेरे बहुत लोग इकट्ठे हो जाते हैं, तो उनमें आपस में धक्का लगता है और परेशानी होती है। और जिन लोगों को खयाल है कि वे बहुत जोर से नाचेंगे —कूदेंगे, वे जरा बाहर मैदान में आ जाएं। और जिन लोगों को पता है कि वे दौड़ेंगे, वे तो बिलकुल बाहर आ जाएं, क्योंकि दौड़कर वे कई लोगों को बाधा पहुंचाते हैं। अपने पर खयाल कर लें और बाहर आ जाएं।
और बहुत घने कहीं भी खड़े न हों। इतना मैदान है, भर दें! कपड़े जिन्हें भी अलग करने हों, जितने भी अलग करने हों, वे अलग कर दें, कोई चिंता न लें। और बीच में भी खयाल कपड़े गिरा देने का हो तो तत्काल गिरा दें। गिराते ही ध्यान में गति गहरी हो जाएगी।
आंख में पट्टियां बांध लें। आंख में पट्टियां बांध लें, दूर—दूर फैल जाएं। और देखें, दर्शक की तरह कोई बीच मैदान में न हो। किसी को देखना हो दूर पहाड़ी पर बैठ जाए। और जो देखने को बैठे हों, वे कृपा करके जरा भी बातचीत नहीं करेंगे, चुपचाप रहेंगे।
बांध लें पट्टियां। दूर—दूर हट जाएं। पूरे ग्राउंड को भर दें। जितना फासला होगा उतना अच्छा, कूदने —नाचने की सुविधा होगी। और कोई टकरा जाए, तो चिंता न लें। आप अपना काम करें, दूसरे को अपना करने दें।
शुरू करें!
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