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अध्याय १-२
दसवां प्रवचन
जीवन की
परम धन्यता--
स्वधर्म की पूर्णता में
प्रश्न: भगवान श्री, अट्ठाइसवें श्लोक पर सुबह बात
हुई--
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिवेदना।।
इसमें
कहा गया है कि आदि में अप्रकट, अंत
में अप्रकट और मध्य में प्रकट है जो, तो यह जो मैनिफेस्टेड है, प्रकट है, इसमें ही द्वैतता का अनुभव
होता है। और जो अप्रकट है, उसमें
अद्वैत का दर्शन किया जाता है। तो यह जो मध्य में मैनिफेस्टेड है, उसमें जो द्वैतता है, डुअलिज्म है, उसका परिहार करने के लिए आप
कोई विशेष प्रक्रिया का सूचन देंगे?
अव्यक्त
है प्रारंभ में,
अव्यक्त
है अंत में;
मध्य
में व्यक्त का जगत है।
जिब्रान
ने कहीं कहा है,
एक रात, अंधेरी अमावस की रात में, एक छोटे-से झोपड़े में बैठा था, मिट्टी का एक दीया जलाकर।
टिमटिमाती थोड़ी-सी रोशनी थी। द्वार के बाहर भी अंधकार था। भवन के पीछे के द्वार के
बाहर भी अंधकार था। सब ओर अंधकार था। केवल उस छोटे-से झोपड़े में उस दीए की थोड़ी-सी
रोशनी थी। और एक रात का पक्षी फड़फड़ाता हुआ झोपड़े के द्वार से प्रविष्ट हुआ, उसने दो या तीन चक्कर झोपड़े
के भीतर टिमटिमाती रोशनी में लगाए, और पीछे के द्वार से बाहर हो गया। जिब्रान
ने उस रात अपनी डायरी में लिखा कि उस पक्षी को अंधेरे से प्रकाश में दो क्षण के
लिए आते देखकर,
फिर
प्रकाश में दो क्षण फड़फड़ाते देखकर और फिर गहन अंधकार में खो जाते देखकर मुझे लगा
कि जीवन भी ऐसा ही है।