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शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

भारत का भविष्य—प्रवचन-08



भारत का भविष्य—(ओशो)
ए रेडियो टाक बाए ओशो,
(नोट-प्रवचन एक से सात तक उपलब्ध नहीं है)
डिस्कोर्स नं० ८
प्रवचन-08
(उदगोश्किाओं में बतचीत का माहौल)

नोकरानी-- . . . तुम कुछ नहीं करती पर मैं तो बहुत कुछ करना भी चाह रही हूं बीबी जी, सच।
मालकिन---हां, लेकिन फिर वही बात की आपने आप करना चाह रही हैं। या कुछ कर रही हैं। मैं तो यह जानना चाहती हूं।
नोकरानी--बीबी जी, देखिए देश विवाह हमारा पहला कर्तव्य है, पहला धर्म है बस इसी के लिए हम कुछ योजनाएं बना रहे हैं।
मालकिन---हां, यानि की और भी उपयोग हैं आपके पास . . .
नोकरानी--मेरी भी पड़ौसने भी अपना सहयोग दे रही हैं।
मालकिन---. . . भई वाह. . .
नोकरानी--हम लोग सप्ताह में एक बार मिल बैठते हैं और बैठक में बहुत-सी बातें होती हैं।

मालकिन---अच्छा, जरा किस विषय पर बातें होती हैं मैं भी तो सुनूं।
नोकरानी--बस देश के हित लिए बहुत सी योजनाएं बनाते हैं।
मालकिन---अच्छा, तब तो बहुत अच्छी-अच्छी योजनाएं होंगी और देखिए हमें भूलना नहीं चाहिए कि भारत के निर्माण के लिए नारी बहुत कुछ कर सकती हैं। उसका प्यार, उसकी प्रेरणा से क्या नहीं हो सकता और आज इसी विषय पर आचार्य रजनीश जी के विचार हम बहनों को सुनवाते हैं।

ओशो--भारत की संस्कृति, भारत की संपदा यह कहकर आपके द्वार पर खड़ी है।
सैकडों वर्षों के अंधकार, गुलामी और दीनता के बाद इस देश में एक जीवन का क्षण आया है। इस नए निर्माण में अकेले पुरुष का ही हाथ नहीं होगा नारी का भी हाथ होगा और यह सहयोग आश्चर्यजनक मालूम होता है। लेकिन सत्य है कि अब तक इस देश के निर्माण में नारी का कोई हाथ नहीं रहा। नारी गुलाम थी, दास थी, अनुचर थी, प्रेमिका थी। लेकिन योगी और स्वतंत्रता नहीं थी।
इसके दुष्ट परिणाम हुए हैं। एक सभ्यता बनी जो अकेले पुरूष की सभ्यता थी। कठोर परुषत हींसा, और क्रोध और युद्ध से भरी। नारी का कोमल अंग-अंग उस सभ्यता को नहीं मिला। वह संस्कृति वैसी ही अधूरी थी जैसे कोई देश हो। जहां सिर्फ पुरुष हों और स्त्रियां न हों। तो वह देश जैसे रसहीन, सौंदर्यहीन, संगीतहीन और प्रेमहीन होगा। वैसी ही यह संस्कृति निर्मित हुई।
आने वाले भविष्य में कोई समयक और पूर्ण संस्कृति और सभ्यता को जन्म देना हो तो नारी का अत्यंत सहयोग और मूल्यवान स्थान उस निर्माण में होना जरूरी है।
एक ऐसा देश निर्मित करना है जो अभय को उपलब्ध हो, प्रेम को उपलब्ध हो स्वतंत्रता को, प्रकाश को, आनंद को। इस निर्माण के लिए कुछ सूत्रों पर विचार करना उपयोगी है। तीन सूत्रों पर निश्चित रूप से।
नारी अब तक मनुष्य से पुरुष के पीछे थी अनुचर थी, गुलाम थी। उससे कोई सम्मान स्थान ना था। स्वभावतः गुलाम संस्कृतियों के निर्माण नहीं करते हैं। संस्कृति के निर्माण के लिए स्वतंत्र जैसा व्यक्ति चाहिए। नारी स्वतंत्र जैसा व्यक्ति अब तक नहीं थी।
फर्क आया है, परिवर्तन हुआ है, नारी ने मांग की है समानता की। लेकिन समानता की मांग के पीछे खतरा भी है। कहीं समान होने की दौड़ में वह पुरुष जैसा होने की प्रवृत्ति में न पड़ जाए। जैसा की सारी दुनिया में हो भी रहा है।
नारी अगर पुरुष जैसी होने की कोशिश में पड़ेगी तो फिर अनुचर रह जाएगी, छाया रह जाएगी। फिर भी उसे व्यक्तित्व उपलब्ध नहीं होगा उसे निजिता और आत्मा उपलब्ध नहीं होगी। पुरुष बनने की दौड़ में नारी एक द्वतीय महत्त्व के स्थान पर ही खड़ी रह जाएगी। सिर्फ छाया ही होगी व्यक्तित्व उसे मिल सकता है तभी जब यह समझ आ जाए की नारी भिन्न है, असमान है, लेकिन भिन्नता और असमानता का यह अर्थ नहीं की उसे समाधार उपलब्ध न हो। समाधार उपलब्ध होना चाहिए। लेकिन समानता झूठी बात है। स्त्री और पुरुष समान बिलकुल भी नहीं हैं और यही उनका आकर्षण भी है, यही उनका बल भी है।
स्त्री उतनी ही आकांशा के योग्य है, उतनी ही जीवन के रस से भरने वाली है जितनी भिन्न है उसकी भिन्नता में ही, उसके भिन्नता के विकास में ही ना केवल उसका जीवन कर्थात होगा। बल्कि आने वाली संस्कृति भी समयक और पूर्ण हो सकती है।
तो यह पहला सूत्र ध्यान में रखने के लिए है और वह यह है कि--स्त्री को हम उसकी भिन्नता में विकसित होने दें पुरुष के समान बनाने की चेष्ठा न करें। अन्यथा एक भूल पीछे कि के वह गुलाम थी और अब दूसरी भूल होगी कि वह पुरुष की झूठी छाया है। एक मिथ, मिथ्या पुरूष बनकर रह जाएगी।
अब तक ऐसा ही हुआ कि जब तक नारी पुरुष जैसी होती हैं हम प्रशंसा करते हैं, रानी झांसी की प्रशंसा करते हैं, जॉन आफ आर्क की प्रशंसा करते हैं। कहते हैं खूब लड़ी मर्दानी। लेकिन मर्दाना होना पुरुष जैसा होना नारी के लिए सम्मान योग्य नहीं उसका अपना निजी आस्तित्व है और वह विकसित हो, प्रेम का, संगीत का, घर का, परिवार का, परिवार के केन्द्र का वह जो आंतरिक जीवन है मनुष्य के हृदय का। उसे वह तभी पूरा कर सकेगी जब वह ठीक अर्थों में नारी ही हो। पुरुष जैसी न हो।
भारत की आने वाली संस्कृति में नारी को अपनी भिन्नता को परिपूर्ण रूप से विकसित करना है। ताकि वह ठीक-ठीक नारी का अनुदान, संस्कृति, ?ए देश के निर्माण में दे सके। स्वभावतः इसके साथ दूसरी बात ध्यान में रखनी जरूरी है कि इसकी शिक्षा पुरुष जैसी न हो, न उसे व्यवसाय पुरुष जैसे दिए जाएं, न तो पुरुष जैसे व्यवसाय की नारी को जरूरत है और न वैसी शिक्षा की। क्योंकि वैसी शिक्षा, वैसा प्रतिस्पद्र्धा, वैसा प्रशिक्षण उसे एक झूठा व्यक्तित्व ही दे सकता है। उसकी आत्मा का समयक और ठीक विकास नहीं और जिसका अपना ही व्यक्तित्व ठीक से विकसित न हुआ हो। वह देश के, समाज के, व्यक्तित्व को परिपूरक नहीं बना सकती।
दूसरी बात ध्यान में रखनी जैसी है और वह यह है कि नारी अगर ठीक से विकसित हो तो वह पुरुष से ज्यादा बलवान है। क्योंकि बच्चों का सारा निर्माण उसके हाथ में है, परिवार का प्राण वह है। जीवन के जो भी महत्त्वपूर्ण अंग उस पर उसकी छाया और उसका प्रभाव है। सभी पुरुष उसकी छाया में बड़े होते हैं और उसके प्रेम में जीते हैं। उसकी साहनभूती में, उसकी करूणा में, उसकी ममता में जीते हैं। अगर यह ममता, यह प्रेम और यह करूणा ठीक-ठीक जगह परीयुत्त हों तो देश के निर्माण में क्रांतिकारी परिणाम लाए जा सकते हैं।
देश के निर्माण का अंतिम अर्थ व्यक्तियों का ही निर्माण होता है और व्यक्तियों के निर्माण का केंद्रीय तत्व मां है, पत्नी है, बहन है, वह जो नारी घेरे हुई है पुरुष को चारों और से अगर इसकी ममता और इसका प्रेम सर्ज      नातमक हो और पुरुषों को चनौती देता हो और विकास के लिए आमंत्रण देता हो और उन दूर देश के सपनों को पूरा करने के लिए प्रेरणा देता हो। तो ही, एक नया समाज, एक नया देश और एक नए भारत का जन्म हो सकता है।
लेकिन यदि नारी अतीत के भरोसे रहे कि पुरुष की दासी है अगर अतीत का बहुत बोझ रहा तो यह नहीं हो सकेगा और यदि नारी पश्चिम ढंग की है तो पुरुष के समकक्ष और सम्मान खड़े होने की चेष्ठा में रत तो भी यह विकास नहीं हो सकेगा।
नारी को अगर भारत के निर्माण में अपना ठीक स्थान ग्रहण करना है। तो दो बातों से बचना है एक तरफ कुआं है और एक तरफ खाई है। एक उसका अतीत है और एक उसके सामने खड़ा हुआ और एक उसके सामने खड़ा हुआ पश्चिम। अगर अतीत के बोझ से नारी बचें और पश्चिम के प्रभाव से तो ही भारत के समयक निर्माण में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान उपलब्ध हो सकता है। बहुत कुछ उसके हाथ में है बहुत क्षमता, बहुत शत्ति। लेकिन यह सारी शक्तियां और क्षमता का जब तक उसके ही अनुकूल उसके ही आत्मा के अनुकूल विकास न हो तब तक देश के लिए कुछ भी उपलब्ध नहीं हो सकता।
उदगोश्किा--आचार्य रजनीश जी ने जो अपने विचार हमारे सामने रखे हैं उन्हें . . .....


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