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रविवार, 10 सितंबर 2017

भारत का भविष्य—प्रवचन-09



भारत का भविष्य—ओशो
ए टाक गिवन इन राजकोट इंडिया
(नोट-प्रवचन एक से सात तक उपलब्ध नहीं है)
डिस्कोर्स नं० ९
प्रवचन-09

मेरे प्रिय आत्मन् ,
जैसे, जैसे शाम के संबंध में बहुत से प्रश्न आए। कुछ मित्रों ने पूछा है कि भारत सैकड़ों वर्षों से दरिद्र है इस दरिद्रता में, इस दरिद्रता में तो गांधीवाद का हाथ नहीं हो सकता है। वह क्यों दरिद्र है इतने वर्षों से? गांधीवाद का हाथ तो नहीं है लेकिन गांधीवाद जैसी ही विचारधाराएं इस देश को हजारों साल से पीड़ित किए हुए हैं।
उन विचारधाराओं का हाथ है। न कोई हमसे शर्त करता है कि इन विचाराधाराओं को हम क्या नाम देते हैं? दो विचारधाराओं पर ध्यान दिलाना जरूरी है। एक तो भारत में कोई तीन-चार हजार वर्षों से संतोष की, कंटेंनटमेंट की जीवनधारणा को स्वीकार किया है। संतुष्ट रहना है जितना है उसमें संतोष कर लेना है। जो भी है उसमें भी तृप्ति मान लेनी है।

अगर हजारों वर्ष तक किसी देश की प्रतिभा को, मस्तिष्क को संतोष की ही बात समझाई जाए। तो विकास के सब द्वार बंद हो जाते हैं। संतोष आत्मघाती है जरूर एक संतोष है जो आत्मज्ञान से उपलब्ध होता है उस संतोष का इस सभापति संतोष से कोई संबंध नहीं है। एक संतोष है जो व्यक्ति स्वंय को जानकर या प्रभु के मंदिर प्रवेश करके उपलब्ध करता है। वह संतोष बनाना नहीं पड़ता, समझना नहीं पड़ता, सोचना नहीं पड़ता अपने पर थोपना नहीं पड़ता। वह परम उपलब्धि से पैदा हुई छाया है।
 लेकिन जिसे हम संतोष समझते हैं कि जीवन में जो कुछ है, दीनता है, दरिद्रता है , रोग है, बीमारी है उसमें ही संतुष्ट रह जाना है। ऐसा संतोष आत्मघाति हैं सौसाईडल हैं।
जीवन के विकास के लिए चाहिए एक तीव्र असंतोष। जीवन की सब दिशाओं में विकास के लिए असंतोष के अतरिक्त कोई मार्ग नहीं। और जो देश संतोष की बातों में अपने को भुला लेगा। संतोष की ओथीनिटी में खो जाएगा। उस देश की यही स्थिति हो सकती है जो हमारे देश की हुई। नहीं! जीवन के विकास में एक जरूरत है डिस्कंटेंटमेंट एक प्रजनात्मक असंतोष की जरूरत हैं। और यह मत सोचे कि जीवन के विकास के लिए जो प्रजनात्मक असंतोष हैं वह भीतर अशांति बनता है। कभी भी नहीं।
प्रश्न तो यह है कि जितने लोग अपने को जबरदस्ती संतोष में ढाप लेते हैं। संतोष के वक्त ओड़ लेते हैं वे भीतर निरन्तर जलते रहते हैं और असंतुष्ट परेशान और अशांत रहते हैं। फैलता हुआ संतोष कभी भी सत्य नहीं हो सकता। ऊपर से आरोपित किए गए संतोष के भीतर असंतोष की आग जलती ही रहती है। असंतोष चाहिए बाहर भीतर चाहिए संतोष हमने उल्टी हालत पैदा कर ली हैं। संतोष थोप लिया है ऊपर से और भीतर असंतोष है।
इसे ठीक से समझ लेना जरूरी है हमने ऊपर से तो संतोष के वस्त्र पहन लिए हैं और भीतर भीतर सब तरह का असंतोष हैं, सब तरह की अशांति, सब तरह की वासना पीड़ित करती है। चाहिए उलटा जीवन के समस्त बाहरी उपक्रम में चाहिए असंतोष चाहिए, विकास की उदामता, तीव्रता और भीतर निरंतर बाहर के असंतोष के बीज, बीज चाहिए। एक शांति चाहिए, एक मोन । यह हो सकता है बैलगाड़ी का चाक आपने चलते देखा होगा। बैलगाड़ी का चाक चलता है और बीच में एक कील स्थिर और बिना चले हुए रहती हैं। उसी स्थिर कील के ऊपर सारा चाक घूमता है। अगर कील भी घूमने लगे तो चाक वहीं गिर जाएगा बैलगाड़ी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ेगी। बैलगाड़ी का चाक घूम सकता है इसलिए की एक ना घूमने वाली कील के ऊपर खड़ा है।
भीतर तो चाहिए शांति, परिपूर्ण शांति एक स्थिरता और जीवन के इस चक्र पर चाहिए तीव्र गति। जब तक कोई समाज, कोई देश अपनी मंशा को इस भांति व्यवस्थित नहीं करता कि भीतर हो परम शांति और बाहर हो एक दिव्य असंतोष का चक्र। जब तक वह देश विकसित नहीं हो सकता। तबत्तक वह देश रोज-रोज मरता चला जाएगा।
लेकिन हम आज तक इस पेराडोक्सीकल इस विरोधी देखने वाली चीज को समझने में समर्थ नहीं हो पाए। हम यह नहीं समझ सके कि शांत व्यक्ति भी जीवन की गति में जीवन को बदलने के लिए आगे हो सकता है। हम यह भी नहीं समझ पाए कि एक परिपूर्ण शांत व्यक्ति भी युद्ध के क्षेत्र पर तलवार लेकर लड़ने को तैयार हो सकता है। हम कहेंगे जो शांत है वह लड़ने कैसे जाएगा?
मैंने सुना है खलीफा उमर के संबंध में एक बात सुनी है। उमर एक दुश्मन से सात वर्षों से लड़ रहा था। युद्ध निर्णायक नहीं हो पाता था। हर वर्ष युद्ध दौड़ता था लेकिन कोई निर्णय नहीं होता था। सातवें वर्ष युद्ध के मैदान पर उस दिन उमर ने भाला फ्का। दुश्मन का घोड़ा मर गया, दुश्मन नीचे गिर पड़ा। वह उसकी छाती पर सवार हो गया उसने भाला उठाकर उसकी छाती पर भौंपने को था नीचे पड़े दुश्मन ने उमर के मुंह पर थूक दिया। उमर ने थूक पौंछ लिया और उस दुश्मन को कहा अब ठीक है। अब कल फिर से हम लड़ेंगे। आज बात खत्म हो गई है। उस दुश्मन के कहा, "तुम पागल हो सात वर्षों में यह मौका तुम्हें पहली बार मिला है कि तुम मेरी छाती पर हो और चाहो तो मुझे खत्म कर सकते हो। तुम मुझे छोड़ क्यों रहे हो?'
उमर ने कहा, "मैंने एक निर्णय किया था कि लडूंगा तभी तक जब तक शांत रहूंगा। तुम्हारें थूकने के कारण मैं अशांत हो गया इसलिए मैंने कहा कि मैं लड़ाई बंद कर देता हूं। इन सात वर्षों में मैं शांति से लड़ता था। लेकिन तुमने मेरे ऊपर थूक दिया और क्रोध आ गया मुझे अब अशांति में तुम्हारी हत्या करूं तो यह ठीक नहीं होगा।'
सात वर्षों तक कोई शांति से युद्ध में लड़ सकता है। लड़ सकता है हम कृष्ण जैसे आदमी को जानते हैं युद्ध के मैदान में खड़ा है लेकिन भीतर जितनी शांति में जरा भी फर्क नहीं। लेकिन हमने विरोधी दिखने वाली बात को आसान बना लिया। दो रास्ते निकाल लिए, एक तो जो अशांत है दुनिया की फिक्र करें जो शांत है वह दुनिया से हट जाए। इस तरह हमने दुनिया को गहरा नुकसान पहुंचाया है।
 अशांत आदमी भीतर से अशांत आदमी जब जीवन के उपक्रम में लगता है। तो उपक्रम में विकास तो दिखाई पड़ता है। लेकिन मूलतः का विकास नहीं होता और भी खतरनाक स्थितियां पैदा होती हैं। जब अशांत आदमी भीतर से अशांत आदमी जीवन का विकास करता है तो जीवन में वह जिन चीजों को विकसित करता है। वह विध्वंसात्मक होती है सत्य होती है कभी प्ररेणात्मक नहीं होती हैं।
पश्चिम ने एक ऐसी भूल कर दी है। पश्चिम लगा है अशांति और असंतोष में भीतर है अशांति और बाहर है असंतोष--परिणाम, परिणाम यह हुआ कि वह उस जगह पहुंच गए हैं जहां जागृतिक आत्मघात हो सकता है। वह वहां पहुंच गए है जहां सारी मनुष्यता को सारे जीवन को नष्ट कर सकते हैं।
जीवन का उनका सारा विकास ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे परम मृत्यु की तरफ ले जाने वाला विकास बन गया। एक उन्होंने भूल की है हमने दूसरी भूल की है। हम भीतर भी शांत; बाहर भी शांत होने का इंतजाम कर लिया। इस शांति का एक मतलब यह हुआ कि पूरा मुल्क एक लम्बा मरघट हो गया है। जहां एक मुरदली छाई हुई है, जहां न कोई खुशी है, जहां न कोई आनंद है, न कोई जीवन का नृत्य है, न कोई जीवन का रस है। हम सिर्फ प्रतिष्ठा कर रहे हैं कि कब भगवान हमें पृथ्वी से उठा ले और आधा जन्म से छुटकारा हो जाए।
नहीं, इन दोनों के बीच कोई सेतू बनाना जरूरी है। भीतर चाहिए शांति और बाहर चाहिए असंतोष और यह हो सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। भीतर की शांति के सूत्र अलग है और बाहर के जीवन को प्रजना, प्रजनात्मक रूप से विकसित करने के सूत्र अलग है। शांत होने का मतलब मर जाना नहीं है, शांत होने का मतलब पलायनवादी हो जाना नहीं है। शांत होने का मतलब है कि जो काम हम अशांति से करते थे उसे शांति से करना है।
जो विकास हम अशांति से करते थे उसे शांति से करना है। जीवन को बदलने की चेष्टा हम अशांति से करते थे उसे शांति से करना है और निश्चित ही शांति के माध्यम से किया गया विकास ज्यादा सुंदर, ज्यादा सच्चा, ज्यादा जीवनपूर्ण कहलाने वाला होगा।
लेकिन हम एक संतोष की झोपड़ी में संतोष की भावना लिए हुए बैठे हैं। मैं एक संन्यासी के पास था संन्यासी के पास उनके दस-पच्चीस भक्त भी इकट्ठे थे। यह संन्यासी मुझे एक गीत सुनाने लगे जो उन्होंने लिखा है। यह गीत उसके शब्द बहुत सुंदर थे, उसकी रचना सुंदर थी वह बड़े भाव से गीत गाने लगे। उनके भत्तों के सिर हिलने लगे। उन्होंने गीत में कहा था किसी सम्राट को संबोधन किया था कहा था कि सम्राट तुम अपने राजसिंहासन पर हो, रहो, मुझे तुम्हारें राजसिंहासन की कोई वासना नहीं है, कोई लालसा नहीं। मैं तो अपनी इस धुन में ही मजे में हूं। मैं तुम्हारे राजसिंहासन की कोई फिक्र भी नहीं करता। रहो तुम अपने स्वर्ण सिंहासन पर मैं तो अपनी धुन में भी आनंदित हूं। फिर उन्होंने गीत गाकर मुझसे पूछा कि, "आप को गीत कैसा लगा?' मैंने उनसे कहा, मैं बहुत हैरान हूं। अगर आपको स्वर्ण सिंहासन से कोई भी मतलब नहीं है तो यह स्वर्ण सिंहासन और यह सम्राट आप को दिखाई क्यों पड़ते हैं।
मैं तो कभी किसी सम्राट को यह गीत गाते नहीं सुना हैं आज तक पूरी पृथ्वी पर इतिहास में कोई उल्लेख नहीं कि किसी सम्राट ने किसी फकीर को यह संबोधन किया हो कि तू रह मजे में अपनी धुन में। मैं अपने स्वर्ण सिंहासन में ही मजे में हूं मुझे तेरी कोई फिक्र नहीं। ऐसा किसी सम्राट ने अब तक नहीं कहा। लेकिन फकीर को क्यों सम्राट और उसके राज सिंहासन दिखाई पड़ते हैं। भीतर, भीतर वासना जल रही है, भीतर आकांक्षा जल रही है ऊपर से संतोष थोपा गया है और यह जो गाली दी जा रही है स्वर्ण सिंहासन को यह उसी संतोष को थोपने की प्रक्रिया का उत्तर है।
हम जिस चीज से भयभीत होते हैं, जिसकी हमारे भीतर आकांक्षा होती है। उसकी हम निंदा करते हैं और निंदा से अपने को समझा लेना चाहते हैं कि वह पाने योग्य नहीं है जितने साधु संन्यासी स्त्रियों को छोड़कर भाग कर जाते हैं वह निरंतर स्त्रियों को गाली देते रहते हैं। नरक का द्वार है, बचना चाहिए स्त्री पाप का घर है और कुल कारण इतना है कि स्त्री उन्हें भीतर से आकर्षित कर रही हैं। अन्यथा स्त्री को गाली देने की कोई जरूरत नहीं, कोई प्रयोजन नहीं। यह जो भीतर स्त्री का आकर्षण है वह स्त्री को गाली देकर अपने आकर्षण को रोकने और दबाने की चेष्टा कर रहे हैं।
जिनके मन से वासना की समाप्ति हो गई है उन्हें तो स्त्री पुरुष में भेद दिखाई पड़ना भी असंभव है उन्हें खयाल भी नहीं आ सकता कौन स्त्री है कौन पुरुष? लेकिन भीतर से भेद मौजूद है आकांक्षा मौजूद है इन आकांक्षा से भाग कर गए हैं, आकांक्षा पीछे से धक्के दे रही है भीतर ब्रह्मचारी है, भीतर वासना है, भीतर से ब्रह्मचारी का कोई भी मूल्य नहीं है। क्योंकि जो भीतर है वही सत्य है। ऊपर शांति, संतोष है भीतर असंतोष है।
हम जो इस मुल्क में भोतिकवाद को इतनी गाली देते हैं उसका कारण यह मत समझ लेना की हम बड़े अध्यात्मिक लोग हैं। हम से ज्यादा भौतिकवादी लोग पृथ्वी पर खोजने मुशकिल हैं। लेकिन हम भौतिकवाद को गाली देते हैं और बड़ी तृप्ती पाते हैं कि हम बड़े अध्यात्मिक हैं। भौतिकवाद को गाली देने से सिर्फ आपके भीतर छुपे हुए भौतिकवादी वासनाओं का पता चलता है और कुछ भी नहीं।
मैं एक घर में ठहराता था उस घर के ऊपर स्वीजरलैंड के कुछ. . . दो परिवार रहते थे। जब भी मैं उनके घर में गया उस घर के लोगों ने मुझे कहा कि, "यह बड़े भौतिकवादी हैं, यह बड़े मैटीरीयलइस्ट हैं सिवाए खाने पीने के, नाच गाने के इन्हें कोई काम ही नहीं है रात बारह-बारह बजे तक नाचते रहते हैं। एक दम नीरे भौतिकवादी हैं इन्हें सिवाए सुख सुविधा के किसी चीज से कोई प्रयोजन नहीं न आत्मा से कोई मतलब है न परमात्मा से कोई मतलब है बस धन-धन खाना कमाना मौज करना बस यही इनका जीवन है।
फिर दोबारा में उनके घर गया तब वह लोग जा चुके थे वह घर की ग्रहणी मुझे कहने लगी, "वह लोग चले गए बड़े अजीब लोग थे। वह अपनी बासन बर्तन मलने वाली नौकरानी को सारे स्टील के बर्तन दे गए बिलकुल असली स्टील, वह अपना रेडियो पड़ौसियों को भेंट कर गए, वह अपने कपड़े-लत्ते सब बांट गए मौहल्ले में। बड़े अजीब लोग थे।'
मैंने उनसे पूछा कि, "तुम्हें भी कुछ उन्होंने बांटा, दिया।' वह कहने लगे कि नहीं। हमें तो वह यह सोचकर कि यह लोग पैसे वाले हैं कही दुःखी न हों कुछ भी नहीं दे गए। लेकिन उन्होंने जब यह कहा तब उनका मन बड़ा दुःखी था कि वह कुछ भी नहीं दे जाएं। फिर भी मैंने कहा कि, "उनकी लड़की भीतर से एक रस्सी उठा लाई, एक रेशम की रस्सी उसने कहा यह है वह लोग छोड़ गए थे पीछे आंगन में बंधी तो हमारी मां खोल लाईं। बहुत बड़िया रस्सी है यह हिंदुस्तान में मिल नहीं सकती।' भौतिकवादी, भौतिक संपन्नता से कोई भौतिकवादी नहीं होता। पदार्थ को पकड़ लेने की कामना से, वासना से कोई भौतिकवादी होता है।
मैं जयपुर में था एक मित्र आए और कहने लगे कि एक बहुत बड़े मुनि ठहरेंगे आप उनसे मिलने चलेंगे। मैंने कहा, "वह बहुत बड़े मुनि तुमने किस तराजू पर और कैसे तोला?' उन्होंने कहा, "इसमें क्या बड़ी बात है? खुद जयपुर महराज उनके चरण छूते हैं।' मैंने कहा, "इसमें जयपुर महाराज बड़े हो गए? कि मुनि बड़े हो कौन बड़ा हुआ? अगर जयपुर महराज उनके चरण न छुएं तो मुनि छोटे हो जाएगे। जयपुर महराज चरण छूते हैं तो मुनि बड़े हो गए। क्यों? क्योंकि जयपुर महराज बड़े हैं यह धन की प्रतिष्ठा है या त्याग की प्रतिष्ठा है यह प्रतिष्ठा किसकी है। यह प्रतिष्ठा धन की प्रतिष्ठा है।
हमारे मन में धन की वासना है ऊपर से निर्धनता का संतोषपूर्ण स्वीकार है। हमसे ज्यादा धन को पकड़ने वाले लोग कहां मिलेंगे। लेकिन हम गालियां देते रहेंगे कि सारी दुनिया भौतिकवादी है और हम अज्ञातवादी हैं। यह जो भौतिकवाद को हम गाली देते हैं वह भीतरी हमारी इच्छाओं को दबाने का फल है यह पूछना है जिस दिन हिंदुस्तान आध्यात्मिक होगा उस दिन किसी को भौतिकवादी कहने मिलने जैसे शब्दों का उपयोग नहीं करे।
हम सिवाए गालियों के और कुछ भी उपयोग नहीं कर रहे हैं। यह सब ऊपर से दिखाई पड़ने वाला संतोष, झूठा है। इसने विकास को अवरुद्ध किया। मनुष्य को विकसित नहीं किया न तो इसने आत्मा की तरफ पहुंचाने में सहायता दी और न जीवन की सुविधाओं को जुटाने के लिए यह मार्ग बन सका। इस दुनिया में, कुंठा में, एक भीतरी पीड़ा में एक अंधकार में घेर कर खड़ा कर दिया। नहीं, गाधीवाद तो नहीं था लेकिन ठीक गांधीवाद जैसी विचारधारा सदा से इस मुल्क के मन को पकड़े रही है। एक तो संतोष ने हमे नुकसान पहुचाया और दूसरी विचारधारा हमने जो कर्म फलता सिद्धांत अपने मुल्क में तीन हजार वर्ष से पकड़ रखा है वह हमारे प्राण ले रहा है।
हमने यह मान रखा है कि एक आदमी गरीब इसलिए है कि उसके पिछले जन्मों के कर्मों का फल भोग रहा है। उसने बुरे कर्म किए हैं इसलिए गरीब है और एक आदमी इसलिए अमीर है क्योंकि उसने अच्छे कर्म किए हैं।
इस व्याख्या में हमारे मुल्क को विकास के परिवर्तन के ढांचे को बदलने की सारी संभावना समाप्त कर दी। गरीब ने यह मान लिया गरीब इसलिए गरीब है क्योंकि उसने पाप किए। अमीर इसलिए अमीर है क्योंकि उसने पुण्य किए। तब फिर समाज की व्यवस्था को बदलने का कोई उपाय न रहा। क्योंकि गरीबी अमीरी को हमने समाज की व्यवस्था से अलग कर के व्यक्ति के कर्मों की अनुज व्यवस्था से जोड़ दिया है।
यह तरकीब बहुत कारगर साबित हुई। इसलिए हिंदुस्तान में दरिद्रों की तरफ से कोई क्रांति नहीं हो सकी और आज भी नहीं पा रही है और कल भी संभावना कम दिखाई पड़ती है कि जब तक कर्म फल इस भ्रांत भावना से हम बंधे हुए हैं। तब तक हिंदुस्तान के सामाजिक ढांचे और रचना को बदलना मुश्किल है।
मैं यह नहीं कहता हुं कि कर्म फल नहीं होते न मैं यह कहता हूं कि पिछले जन्म नहीं होते। लेकिन मैं यह कहना चाहता हूं कि संपत्ति का बंटवारा किन्हीं कर्म फलों से संबंधी नहीं हैं। संपत्ति का बंटवारा सामाजिक व्यवस्था का बंटवारा है। संपत्ति का विभाजन सामाजिक ढांचे का विभाजन है। उसका कर्म फलों से कोई संबंध नहीं और यह भी मैं कहना चाहता हूं कि कर्म फल एक एक दो दो जन्मों तक प्रतिक्षा नहीं करते। अभी मैं आग में हाथ डालूंगा। तो अगले जन्म में नहीं जलूंगा अभी जल जाऊंगा। यह अगले जन्म तक प्रतिक्षा नहीं करेगी आग कि आप हाथ अभी डालिए और अगले जन्म में जलिएगा।
जीवन के नियम, कोसीलिटी के नियम, कार्य कारण के नियम तत्काल फल लाने वाले हैं। अगर मैं क्रोध करूंगा तो क्रोध की आग में अभी जल जाऊंगा अभी दुःख भोग लूंगा। अगर मैं प्रेम करूंगा तो प्रेम के आनंद की वर्षा अभी हो जाएगी। अभी मैं प्रेम के आनंद को भोग लूंगा। मैं जो भी कर रहा हूं त्तक्षण उसी क्षण उसके साथ लगा हुआ फल है। अगले जन्म तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। लेकिन यह अगले जन्म की प्रतीक्षा का नियम क्यों खोजना पड़ा हमें यह खोजना पड़ा। गरीबी और अमीरी को समझाने के लिए क्योंकि हमारे पास कोई उपाय न था।
उपाय यह था एक आदमी गरीब दिखाई पड़ता है और साथ में यह भी दिखाई पड़ता है यह जो गरीब आदमी है, भला है, अच्छा है, ईमानदार है। साथ में यह भी दिखाई पड़ता है धनी है, सबकुछ है उसके पास लेकिन न ईमान है, न सचाई है। अब धार्मिक गुरु कैसे समझाए? वह कहता था अच्छे कर्मों का फल अच्छा मिलता है, बुरे कर्मों का फल बुरा मिलता है। अच्छे आदमी दुःख में दिखाई पड़ते हैं, बुरे आदमी सुख में दिखाई पड़ते हैं अब इसको कैसे समझाए। इसको समझाने का एक ही रास्ता था क्योंकि अगर अभी कर्म फल मिलता है तो बुरे आदमी दुःख भोगने चाहिएं, अच्छे आदमी सुख भोगने चाहिएं वह दिखाई नहीं पड़ता।
बुरे आदमी सुख में और अच्छे आदमी दुःख में दिखाई पड़ते हैं अब कैसे समझाएं इसे एक ही रास्ता है पिछले जन्मों से समझाओ । इस आदमी ने पिछले जन्म में बुरे कर्म किए होंगे अभी अच्छे कर रहा है इसलिए दुःख भोग रहा है क्योंकि यह पिछले जन्मों का कर्म फल है। अभी यह अच्छे करेगा अगले जन्म में फिर अच्छे फल भोगेगा। अगले जन्मों का कोई ठिकाना नहीं है कोई पता नहीं है।
यह आदमी बुरा है आज धन है, महल है यह पिछले जन्मों के कर्मों के अच्छा फल है। अभी बुरे कर रहा है अगले जन्म में बुरे फल भोगेगा। सिवाए इसके हमारे पास कोई तरकीब न थी लेकिन यह तरकीब बहुत महंगी पड़ गई।
 मैं आपसे कहना चाहता हूं जन्म है, पुनर्जन्म है, कर्मों का फल है। लेकिन कर्मों का फल प्रतिक्षण उपलब्ध हो जाता है आगे के लिए शेष नहीं रहता। आप अभी बुरा करेंगे और आप पाएंगे सिर्फ उस बुराई के कारण सारे दुःख झेल लिए सारी पीड़ाएं झेल लीं। आप अभी भला करेंगे और पाएंगे भले के पीछे एक शांति थी, एक आनंद की लहर दौड़ गई उसका फल उपलब्ध हो गया। आप हमेशा अपने कर्मों को करके फल भोगते हैं उनके बाहर निकल जाते हैं। अगले जन्मों तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।
इस दूसरे सिद्धांत में--दरिद्रता और अमीरी को समझाने की व्यवस्था कर दी है और फिर जब व्यवस्था मिल गई, व्याख्या मिल गई फिर जीवन को बदलने का कोई सवाल न रहा। हमने जीवन को स्वीकार कर लिया। अपने-अपने कर्म बदलने हैं जीवन और समाज को नहीं बदलना है।
तीसरी बात--जिसने हमारे जीवन को और बुरी तरह से गिरफत किया। वह यह था कि हमने प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत दृष्टि दी, समाजिक दृष्टि एक कलक्षण जीवन को सोचने की भावना हममें विकसित नहीं की। हमने कहा एक एक आदमी के अपने अपने कर्म फल हैं, अपना अपना जीवन है अपनी यात्रा है। दूसरे से कोई संबंध नहीं दूसरे से कुछ लेना देना नहीं।
 समाज की भावना कि सारा समाज सुख-दुःख में सहभागी है कि सारा समाज जैसा है वैसा व्यक्ति को भोगना पड़ता है। समाज के साथ जीना और विकसीत होना पड़ता है। यह धारणा हममें विकसित नहीं है।
हिंदुस्तान में सैल्फ सेंटरड एक एक व्यक्ति को आत्म केंद्रीत बना दिया। समाज केंद्रीत, समाज से संबंधित धारणा हमने विकसित नहीं की। स्वभावतः एक एक व्यक्ति इतने बड़े समाज को बदलने में असमर्थ हैं। जब तक हम समाज को अमूल्य सामूहिक रूप से बदलने का कोई उपाय न करें।
तीसरी बात यह है कि एक एक व्यक्ति को अपना अपना ध्यान रखना है। एक और नई बात पैदा कर दी। वह बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने पिछले जन्मों, आने वाले जन्मों का विचार करना है। यह जन्म, यह जीवन तो सराए में ठहरने जैसा है। यह क्या मालूम थोड़ी देर रुके हैं फिर आगे बढ़ जाना है।
हमने जीवन का सम्मान नहीं किया है, हमने जीवन का बहुत अपमान किया है और ध्यान रहे जो समाज जीवन का अपमान करेगा। वह समाज जीवन के रस और आनंद को उपलब्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता है। हमने सदा यही कहा कि जीवन है आसार है, जीवन है व्यर्थ, जीवन है दुःखसार। जीवन तो किसी तरह बिगाड़ देना समय और स्मरण करते रहना है परमात्मा का कि कब मुझे इस जीवन से छुटकारा मिले?
जीवन को हमने धनता नहीं माना है, जीवन को हमने अनुग्रह नहीं माना, जीवन को पाकर हम भगवान को धन्यवाद नहीं दिए हमने क्रोध प्रकट किया है, जीवन के लिए हम पछताए हैं। यह कैसे अजीब दृष्टि, यह कैसी जीवन विरोधी जैसी लाईफ निगेटीव, यह जीवन के प्रतिकार की, विरोध की, निगेट की कैसे दृष्टि है? और जिसका हम निगेट करेंगे उससे हम कैसे आनंद को, समृद्धि को, वैभव को, धैर्य को, शरीर को उपलब्ध हो सकती है। कैसे उपलब्ध हो सकते हैं? मैं अदभुत सी हालत देखता हूं कि हम निरंतर कंडेमनेशन में आनंद लेते रहे हैं और ध्यान रहे हम जीवन के प्रति जो दृष्टि लेते हैं। धीरे धीरे जीवन वैसा ही दिखाई पड़ने लगता है।
जीवन हमारी दृष्टि का प्रतिफलन बन जाता है हम अगर जीवन को बुरा सोचते हैं निंदनीय तो धीरे धीरे जीवन निंदनीय हो जाता है बुरा हो जाता है। हम जैसा सोचते हैं जीवन के प्रति उस पर ही निर्भर करता है जीवन कैसा हो जाएगा? हमारी भावना जीवन को निर्मित करती है और अगर हम पांच हजार वर्षों से निरंतर जीवन के शत्रु का व्यवहार किए हैं तो जीवन भी अगर हमारा मित्र न रह गया तो इसमें आश्चर्य क्या है? हम प्रत्येक चीज की निंदा के अतरिक्त कुछ भी नहीं कर रहे हैं।
मैं एक गांव में था। मेरे एक मित्र पूर्णिमा की रात थी और मुझे पहाड़ियों में एक जलप्रपात दिखाने ले गए। अब वह जलप्रपात था हम उस जलप्रपात के पास पहुंचे और रास्ते पर गाड़ी रोकी कोई एक मील पैदल जाना था। पहाड़ियों में प्रपात की गुंज सुनाई पड़ने लगी। उसका निमंत्रण, उसका बुलावा, मैं और मेरे मित्र उतर कर चलने लगे। तो मुझे खयाल आया कि ड्राईवर गाड़ी में भीतर रह गया। मैंने अपने मित्र को कहा कि, "अपने ड्राईवर को भी बुला लें वह क्यों इस अंधेरी गाड़ी में बैठा रहे। इतना चांद बरसता है, इतना चपाट निकट है, इतने जोर सी उसकी आवाज आती है। पहाड़ियां बुलाती हैं उसे बुला लें।'
वह हंसने लगे और कहा, "आप ही बुला लें।' मैं उनके हंसने का मतलब नहीं समझा। मतलब बाद में समझ में आया मैं उस ड्राईवर के पास गया और मैंने कहा, "दोस्त तुम भी बाहर आ जाओ। चलो हमारे साथ यहां अंधेरे में बैठे हुए क्या करोगे?'
तो उसने कहा, "क्या रखा है वहां उस जलप्रपात में कुछ पहाड़, कुछ पत्थर ऊपर से पानी गिर रहा। मैं तो हैरान हूं कि लोग इतनी अंधेरी रात में, उजली रात में, दिन में, दोपहर में, धूप में, क्या देखने वहां आते हैं? वहां कुछ भी नहीं है कुछ पत्थर पड़े हैं और पानी गिर रहा है। पत्थरों के ऊपर पानी गिर रहा है और लोग उसे देखने जाते हैं। आप ही जाईए मुझे जाने की जरूरत नहीं है।'
मैं बहुत हैरान हुआ मैने अपने मित्र से कहा कि तुम्हारे ड्राईवर ने बड़ा गलत प्रदर्शन दिया अगर वह धर्म गुरु हो जाता तो बड़ा सफल हो सकता था। उसे जीवन को निंदा करने का सूत्र मालूम है। जलप्रपात जैसे अभूतपूर्व घटना को उसने दो छोटी-सी चीजों में तोड़ दिया पत्थर और पानी में और क्या रखा है? वहां, अब इसकी बात को आप गलत भी नहीं कह सकते हैं। बिलकुल ही वैधानिक बात मालूम पड़ती है कि पत्थर और पानी और है क्या वहां?
लेकिन यह जलप्रपात पत्थर और पानी ही नहीं है। जलप्रपात पत्थर और पानी से कुछ बहुत बड़ी बात है। लेकिन वह उन्हीं को दिखाई पड़ सकता है। जो पत्थर और पानी के भीतर और गहरे और पार देखने में समर्थ हों। किसी को मैं प्रेम से गले से लगा लूं। तो कोई मुझसे आकर कह सकता है कि--क्या रखा है गले से लगाने में? हड्डियों से हड्डियां मिल जाती हैं और क्या होता है?
वह ठीक कहता है अगर हम प्रयोगशाला में जाएं और जांच पड़ताल करें तो हड्डियों से हड्डियां ही गले में लगने से मिलेंगी कुछ और मिलता हुआ नहीं दिखाई पड़ेगा। लेकिन जिन्होंने कभी भी किसी को ह्रदय से लगाया है प्रेम से वह जानते हैं कि हड्डियों के पीछे कुछ और भी है जो मिल जाता है। लेकिन उसे प्रयोगशाला में जांचने का कोई उपाय नहीं।
धर्म गुरु कहता है क्या है जीवन में, जन्म, जरा, मृत्यु क्या है जीवन में रोग, शोक, दुःख बीमारियां क्या है जीवन में? शरीर, शरीर में रखा क्या है कुछ हड्डी, मांस, मज्जा स्तन, जोड़। वैज्ञानिक कहते हैं अगर आदमी के शरीर को हम तोड़ें फोड़ें तो मुश्किल से पास छः रुपए का समान उसमें से निकलता है।
आप किसी को प्रेम करते हैं बेकार प्रेम करते है पांच-छः रुपए खीसे में रखें उन्हीं से प्रेम करते रहें। कोई आदमी या किसी स्त्री के शरीर में पांच-छः रुपए से ज्यादा का समान नहीं है कुछ थोड़ा एलमूनियम है, कुछ लोहा है, कुछ फास्फोरस है, कुछ हड्डियां हैं, यह वह सब मिलाजुला कर कहते हैं पांच, छः रुपए का सामान है। पांच, छः रुपए के समान के लिए लोग जान लगा देते हैं दांव पर, जीवन गवां देते हैं।
बाप अभी गलती में पड़े हैं वह। जीवन की निंदा के सूत्र हमने पकड़ रखे हैं और वह सूत्र क्या हैं? वह सूत्र हैं विश्लेषण, जीवन की बड़ी ईकाई को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ दो और निंदा कर दो।
शायद आपने मार्क टूवेन का नाम सुना हो। मार्क टूवेन अमेरीका का एक अदभुत हंसोड़ विचारक था। एक मित्र का था मार्क टूवेन का वह मित्र एक बहुत बड़ा उपदेशक था। सारी अमेरीका में उसकी ख्याति थी। उस दिन उसने मार्क टूवेन को कहा, "कभी मेरे व्याख्यान सुनने जरुर आओ। हजारों लाखों लोग सुनने आते हैं। तुम कभी नहीं आए।' मार्क टूवेन ने कहा क्या, "रखा है तुम्हारें व्याख्यान में कुछ शब्दों के सिवाए होटों को हिलाने और गले से आवाज करने के सिवाए वहां होगा क्या?' उस मित्र ने कहा, "सिर्फ तुम व्याख्यान का इतना ही अर्थ समझते हो। फिर भी तुम आज आओ मुझे सुनोगे तो शायद तुम्हारी भावना बदल जाए।' नहीं माना तो मार्क टूवेन सुनने गया हजारों लोग सुनने आए थे। मार्क टूवेन सामने ही बैठ गया।
 उसके मित्र ने जो कुछ भी उसके जीवन में श्रेष्ठतम भावनाएं रही होंगी, जो भी उसके मन में काव्य रहा होगा, जो भी उसके जीवन में सौंदर्य के अनुभव रहे होंगे। सब उड़ेल दिए उस दिन। लेकिन बार-बार उसने देखा मार्क टूवेन की तरफ वह हजारों लोग मंत्रमुक्त होकर सुन रहे थे। लेकिन मार्क टूवेन ऐसे बैठा हुआ था कि जैसे कोई शिक्षक परीक्षार्थी के सामने बैठा रहता है।
वह ऐसे देख रहा था जैसे कोई इंस्पेक्टर किसी चोर की खाना तलाशी ले रहा हो। मार्क टूवेन एक क्षण को भी, उसके चेहरे पर ऐसा भाव नहीं आया कि कुछ बात कहीं गई है। मित्र तो घबरा गया इस तरह लौटा गाड़ी में बैठा तो हिम्मत न पड़ी पूछने की। आखिर उसने पूछा, "घर पहुंच कर आप को कैसा लगा?' मार्क टूवेन ने कहा, "लगने का क्या था एक घंटा मेरा खराब किया। तुम सिवाए शब्दों के कुछ भी नहीं बोलते थे। शब्द ही शब्द, शब्दों में क्या रखा है और भी मैं तुम्हें बता दूं कि तुमने जो भी बोला रात में मैं एक किताब पढ़ रहा था उसमें एक एक शब्द लिखा हुआ है जो भी तुमने बोला है। उस किताब में सब तुम्हारे शब्द लिखे हुए हैं एक भी शब्द तुमने अपना नहीं बोला कोई विचार नया नहीं था।'
उस मित्र ने कहा, "हद करते हो। यह तो हो सकता है कि मैंने जो कहा उसका कोई विचार किसी किताब में लिखा हो। लेकिन मैंने जो बोला एक एक शब्द लिखा है बिलकुल झूठ बोलते हो मार्क टूवेन ने कहा यह हांथ रहा है। सौ-सौ रुपए की सौ-सौ डालर की शर्त लग जाए। शर्त लग गई मित्र ने सोचा कि मार्क टूवेन हार ही जाएगा। क्योंकि ऐसी किताब कहां खोजी जा सकती है जिसमें मेरे सारे शब्द हों। लेकिन दूसरे दिन मार्क टूवेन जीत गया और मित्र को सौ डालर उसे देने पड़े। उसने सुबह ही एक डिक्शनरी एक शब्दकोश भेज दिया कि इसमें तुम्हारे सब शब्द लिखे हुए हैं। वह एक एक शब्द जो तुम बोले हुए हो इसमे लिखा हुआ है तुम कोई मौलिक, कोई नई बात नहीं बोले। एक काव्य, एक सच एक कई गई आनंद की बात शब्दकोष के शब्दों में छोड़ी जा सकती है और सब व्यर्थ हो गई बेमानी हो गई।
जीवन की निंदा हमने इस भांति की है कि जीवन में कुछ भी नहीं है। जो भी है उसे तोड़त्तोड़ के बताया है और लगा कि जीवन में कुछ भी नहीं है। हिंदुस्तान को हिंदुस्तान की प्रतिभा को जीवन को प्रेम करना सीखना पड़ेगा। तो ही हम जीवन की संपदा जीवन के विकास को उपलब्ध हो सकते हैं। जीवन की निंदा से कभी नहीं, जीवन के विरोध से कभी नहीं, जीवन के दुश्मन और शत्रु बनकर कभी नहीं, जीवन के प्रेमी बनकर, जीवन में रस लेकर, जीवन में आनंदित होकर, जीवन के लिए परमात्मा को धन्यवाद देकर ही हम जीवन को विकसित कर सकते हैं। अन्यथा हम जीवन को विकसित नहीं कर सकते।
गांधीवाद तो नहीं था लेकिन इन तीन विचारधाराओं ने इस देश के प्राणों को संघातक चोट पहुंचाई और आज भी हमारा धर्म गुरु हमारा विचारक, हमारा नेता उन्हीं बातों को किए चले जा रहा है। बिना जाने, बिना सोचे जिनसे हमारे प्राण जड़ हो गए हैं, पुलकित हो गए हैं, अवरुद्ध हो गए हैं। जीवन की धारा को तोड़ने के लिए वापिस जीवन की धारा फिर उधाम देश से बह सके इस देश में। तो हमे इस जीवन को समझने की कोई फिलोसफी जीवन को प्रेम करने वाला कोई दर्शन, कोई लाईफ एफरमेटीव फिलोसफी कोई जीवन को सिद्ध करने वाली, जीवन को स्वीकार करने वाली दृष्टि अंगगीकार करनी जरुरी है। अन्यथा हम विकसित नहीं हो सकते।
यह सवाल कुछ मित्रों ने पूछा कि--क्या सिर्फ टैक्नोलौजी के विकास से सब हो जाएगा? यह ध्यान रखें कि टैक्नोलौजी के सिर्फ विकास से कुछ न हो जाएगा। टैक्नोलौजी भी तभी विकसित होगी जब भीतर जीवन को विधेयक के रूप में हम स्वीकार करेंगे। टैक्नोलौजी या विज्ञान वह सब जीवन को विस्तार करने वाली बातें हैं। जो लोग जीवन का निशेद्ध करते हैं वह उन बातों को पैदा कैसे कर सकते हैं। यह थोड़ा सोचने जैसा है कि हमारे मुल्क में विचारकों की कमी नहीं रही और यह भी जानने जैसी बात है कि हमने जितने बड़े विचारक दिए हैं शायद हमनें जितने बड़े विचारक पैदा किए हैं। कोई एक अकेला देश उतने बड़े विचार के धनी लोगों का दवा नहीं कर सकता है।
परसनजली से लेकर अरविंद तक हमारी एक लंबी परंपरा है। इतने अदभुत लोग हमने पैदा किए हैं, जिनकी बौद्धिक क्षमता की कोई टक्कर नहीं है ना गारजीन, या बिजनाक, या धर्मकृति, या शंकराचार्य इनका कोई मुकाबला है दुनिया में। लेकिन इतने बड़े विचारक पैदा करने के बाद बुद्ध, गौतम और कोर्णाक जैसे अदभुत मनुष्य पैदा करने के बाद भी हम वैज्ञानिक पैदा नहीं कर पाए।
 एक आईनस्टीन पैदा नहीं कर पाए, एक नयूटन पैदा नहीं कर पाए, यह आश्चर्य की बात है इतने बड़े विचारक जो इस देश में पैदा हुए हैं वहां कोई भी विचार का धनी वैज्ञानिक नहीं हो पाया है। उसका कारण है जीवन का विरोध है हमारा, विज्ञान जीवन का प्रेम से पैदा होता है। विज्ञान जीवन के विरोध से पैदा नहीं होता।
जीवन के विरोध हमारे व्यक्तित्व में घर कर गया, खून में मिल गया इसलिए हमने विचारक पैदा किए। मोक्ष की तरफ ले जाने वाले, हमने वह विचारक पैदा नहीं किए जो जीवन की तरफ ले जाते हैं। हमारी सारी विचार की शक्ति, मोक्ष, भ्रम, परमात्मा उसकी खोज में लग गई।
हमारे जीवन की सारी शक्ति जीवन को समृद्ध करने की दिशा से बिलकुल मुड़ गई। वह धारा कहीं और ही चली गई। इस धारा को वापिस लौटाना है। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम जीवन की धारा में सम्मलीत, संयुक्त हो जाए। तो हम परमात्मा और प्रभु को सोचना बंद कर देंगे। मेरी अपनी समझ यह है कि जो जीवन को भी जीने में समर्थ नहीं है वह परमात्मा को पाने में कैसे समर्थ हो सकते हैं? जीवन को जीने में जो समर्थ हो जाते हैं उनको ही जीवन की गहराईयों में पहली बार परमात्मा के वास्तविक हस्ताक्षर दिखाई पड़ते हैं। जीवन के अनुभव की गहराईयों में ही प्रभु का मंदिर है। प्रभु जीवन के विरोध में पीठ किए हुए नहीं खड़ा है।
अगर प्रभु जीवन के विरोध में होता तो इस जीवन को कभी का नष्ट कर देना चाहिए था। इस जीवन को रचे जाने की, सृजन किए जाने की जरूरत क्या है? लेकिन हमारे महात्मा और परमात्मा से भी ज्यादा बुद्धिमान होने का सबूत देना चाहते हैं। वह कहते हैं कि परमात्मा भूल में है जो जीवन को सृजन कर रहा है। वह कहते हैं असली समझदार तो वह है जो जीवन को छोड़कर भाग रहे हैं।
जीवन को छोड़कर नहीं भागना है जीवन को जीना है उसकी परिपूर्णता में और उसकी परिपूर्णता के रस से ही जो अनुभव उपलब्ध होगा। वही अनुभव प्रभु की और ले जाने वाला अनुभव बनता है। पीठ दिखाकर जीवन की तरफ, सूर्य की तरफ पीठ करके कोई भी प्रकाश को उपलब्ध नहीं हो सकता। इस बात की शीध्रतम घोषणा कर सके हम मुल्क के प्राणों में। तो मुल्क में विज्ञान पैदा होगा। क्योंकि विज्ञान किसी अंतर्दृष्टि का परिणाम है। तो टैक्नोलौजी पैदा होगी क्योंकि टैक्नोलौजी कोई ऊपर से नहीं थोपी जा सकती। इसलिए तो हम पश्चिम से जाकर सीख कर आ जाते हैं। हमारा युवक जाता है वह टेक्नीशीयन होकर आ जाता है। हमारा युवक जाता है वह विज्ञान का एक नाटक होकर आ जाता है।
लेकिन विज्ञान बुद्धि साईंटिफिक आउटलुक पैदा नहीं होता। साईंटिफिक आउटलुक जरा भी पैदा नहीं होता। वह यूरोप से लौट आएगा औक्सफोर्ड और क्रमलीन से होकर लोट आएगा और उसकी टोपी के नीचे देखो तो चोटी में राख दबी मिल जाएगी।
एक संन्यासी की किताब में पढ़ रहा था वह वैज्ञानिक विज्ञान पढ़े हुए संन्यासी ने और उन्होंने उस किताब में यह सिद्ध करने कि कोशिश कि हिंदुस्तान में जो कुछ भी चलता है सब वैज्ञानिक है। चोटी भी वैज्ञानिक है मैं तो बहुत हैरान हुआ कि चोटी कैसे वैज्ञानिक है? किताब पढ़ी तो दंग रह गया कि इस बीसवीं शदी में भी कोई यह बातें लिख सकता है।
विज्ञान का एक नाटक है यह आदमी। लिखा है कि चोटी वैज्ञानिक है और उदाहरण दिया है कि आपने देखा होगा कि बड़ी बड़ी बिल्डिंगों पर लोहे की लकड़ी लगाते हैं ताकि बिजली का असर न पड़े। हिंदुओं ने बहुत पहले यह खोज कर ली थी इसलिए चोटी को बांध कर खड़ा रखते थे। इसलिए कि बिजली का कोई असर आदमी के ऊपर न पड़े।
चोटी वैज्ञानिक है, खड़ाऊं वैज्ञानिक है क्योंकि हमने बहुत पहले हमारे ऋषि महात्माओं ने खोज कर ली थी कि अंगूठे में एक नस होती है अगर वह दबी रहे तो आदमी ब्रह्मचार्य को उपलब्ध हो जाएगा।
सारे शरीर शास्त्र की खोज भी हो चुकी है अंगूठे में ऐसी कोई नस नहीं है जिसके दबे रहने से आदमी ब्रह्मचार्य को उपलब्ध हो जाए। अगर ऐसी कोई नस मिल जाए तो संतत्ती नियमन वगैरह की कोई जरूरत न रहे। सब को खड़ाऊं पहना दी जाए और काम हल हो जाए और खड़ाऊं में भी खतरा है कभी खड़ाऊं उतारोगे तो न कम से कम रात सोते वक्त तो खड़ाऊं उतारनी पड़ेगी। तो हम नस का कोई ओपरेशन नहीं कर सकते हैं, नस को स्थाई रूप से बांध सकते हैं लेकिन हमारी बुद्धि वैज्ञानिक नहीं हो पाती हमारे जीवन को देखने का ढंग वैज्ञानिक नहीं हो पाता। उसका कारण हजारों साल से हमें श्रद्धा सिखाई गई। जहां-जहां श्रद्धा का प्रभाव है वहां-वहां विज्ञान पैदा नहीं होता। विज्ञान पैदा होता है संदेह से, डाउट से, बिलीफ से नहीं।
विज्ञान का जन्म होता है संदेह से जब हम अतीत पर संदेह करते हैं तो हम विकसित होते हैं जो लोग अतीत से श्रद्धा किए चले जाते हैं। वह विकसित कभी भी नहीं होते।
अगर इस देश में टैक्नोलौजी और विज्ञान को पैदा करना है और उसके बिना हमारा कोई भविष्य नहीं हो सकता। तो ध्यान रहे हमारे चिंतन की सारी प्रक्रिया के आधार बदलने होंगे। श्रद्धा की जगह संदेह को मूल्य देना होगा। देश के हर विद्यार्थी को बचपन से ही संदेह की कला सिखानी जानी चाहिए। आर्ट आफ डाउट! कैसे संदेह करें? हम कैसे संदेह करते चले जाएं और तब तक न मानें जब तक कि हमें निसंद्धित रूप से संदेह करने की आगे कोई संभावना न रह जाए और तब भी इतना ही माने कि अभी जितना हम संदेह कर सकते हैं उसमे यह सत्य मालूम पड़ता है। हो सकता है कल हम और संदेह कर सकें और यह सत्य न रह जाए। तब विज्ञान विकसित होता है तब विज्ञानीक दृष्टि विकसित होती है।
विज्ञान का जन्म होता है संदेह से। अविज्ञाान का जन्म होता है विश्वास से, श्रद्धा से। हम श्रृद्धालु लोग हमारा धंधा विश्वास पर नहीं खड़ा, हमने संदेह नहीं किया। इसलिए, इसलिए संदेह नहीं किया तो जीवन विकसित नहीं हुआ संदेह होगा तो जीवन विकसित होगा। हर बाप को यह कामना करनी चाहिए कि उसका बेटा उस पर संदेह करे। हर गुरु को यह कामना करनी चाहिए। उसका विद्यार्थी उस पर संदेह करे। क्योंकि आने वाली पीढ़ी जितना संदेह करेगी उतनी ही पिछली पीढ़ी से आगे जाएगी और अगर विश्वास करेगी तो पिछली पीढ़ी के ही साथ बंधी रह जाएगी आगे नहीं जा सकती।
यह सारी बातें थीं जिन्होंने इस मुल्क के प्राणों को जकड़ रखा है। एक इंप्रीसनमेंट में , एक कारागृह में बांध रखा है। एक-एक जगह तोड़ देने की जरूरत है। तब इस देश की चित्तधारा फैलेगी। लेकिन हमें डर लगता है हमें डर यह लगता है कि अगर विश्वास उठ गया। तो क्या होगा? हमें डर लगाता है अगर पुरानी पीढ़ियों पर नई पीढ़ियों ने संदेह किया तो क्या होगा? हमें डर लगता है अगर सारा पुराना पुराना छोड़कर लोग आगे बढ़ गए। तो क्या होगा? कुछ भी नहीं होगा जितनी देर तक आप पकड़ते हैं उतनी देर तक परेशानी होगी। जिस दिन आप परिपूर्ण रूप से नई पीढ़ियों को मुक्त करने के लिए राजी हो जाएंगे। बल्कि उनकी मुक्ति में सहयोगी हो जाएंगे उसी दिन आप पाएंगे कि नई पीढ़ियां आपके प्रति अत्यंत आदर से भर गई है।
यह जो आप सारी दुनिया में और इस मुल्क में. . . किसी विद्यार्थी ने यह पूछा है कि हमारे और पुरानी पीढ़ी के बीच फांसला बढ़ता जा रहा है। कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता हम क्रोध में हैं हम चीजों को तोड़ रहे हैं हम क्या करें? यह बच्चे तब तक तोड़े चले जाएंगे जबतक उनके भीतर की जो प्रतिभा है उसको हम विकसित होने के परिपूर्ण स्वतंत्र मार्ग नहीं खोल देते। जब तक पुरानी पीढ़ियां इनको जकड़ने की कोशिश करेंगी। तब तक यह क्रोध में चीजों को तोड़ेंगे। चीजों को नुकसान पहुंचाएंगे। लेकिन पुरानी पीढ़ियां इन्हें मुक्त करने के लिए पूरी तरह राजी हो जाएंगी। उस दिन यह उनके अनुगत हो जाएंगी। उस दिन खुद एक अनुशासन एक डिसीप्लेन पैदा होंगी। जो अनुशासन जबरदस्ती नहीं लाया जाता बल्कि विवेक से उत्पन्न होता है।
यह इस देश की प्रतिभा को मुक्त करने के लिए पुरानी पीढ़ी को बड़ी सोच की बड़ी समझ की जरूरत है। नहीं, मत बांधो इन्हें पुराने विश्वास से। इनसे कहें कि जगाएं विवेक, इनसे कहें कि जगाओ विचार को, इनसे कहो कि जगाओ संदेह को तुम्हारे लिए एक बहुत नए देश, तुम्हारे लिए बहुत नए लोग, तुम्हारे लिए बहुत नया भविष्य जीतना है। अतीत खो चुका है अतीत से बंधे मत रह जाओ। अतीत को तुम्हारे चित्त पर बोझ मत बनने दो। यह तुम्हारा बर्डन न बने तुम उसके उपर खड़े हो जाओ अतीत। वह तुम्हारे पैर की सिला बने तुम्हारे सिर का बोझ नहीं।
तुम खड़े हो जाओ उसके कंधे पर और देखो आगे भविष्य में जहां नए सूरज उगेंगे, जहां नई प्रभात होगी, जहां नया समाज होगा, जहां नया ज्ञान होगा, जहां नया जीवन होगा। वहां तुम देखो उसकी पुकार सुनो भविष्य की, छोड़ो अतीत को, आगे जाओ।
जीवन की धारा निरंतर आगे जाती है। गंगा निकलती है गंगोत्री से फिर पीछे तो नहीं लौटती, फिर पीछे लौटकर भी तो नहीं देखती। फिर भागती है, भागती है उस अज्ञायात सागर की तरफ जिसका उसे कोई भी पता नहीं कहां होगा? अगर वह डर जाए और सोचे की कहां जाती हूं अंजान रास्तों पर पहाड़ होंगे, खाईयां होंगी, खंडहर होंगे, जंगल होंगे। न मालूम कैसा क्या होगा? कहां जाऊं? यही गंगोत्री में सिमट कर रह जाऊं। पीछे लौटकर देखती रहूं पकड़े रहूं गंगोत्री को ही। तो फिर गंगा सागर तक नहीं पहुंचेगी।
ऐसी भयभीत गंगा सागर तक नहीं पहुंच सकती। क्यों उसे छोड़ देना पड़ता है गंगोत्री को। बह जाती है आगे पीछे को छोड़ती चली जाती है। अंजान अपरिचित रास्तों पर न कोई पुलिस का आदमी मिलता है रास्ते में जिससे पूछ लें कि सागर कहां है न कोई धर्म गुरु मिलते हैं जिनसे पता लगा ले कि सागर कहां है। नहीं अतीत, अतीत को ज्ञात है भविष्य सदा अज्ञात है। भागती जाती है, भागती जाती है। लेकिन एक दिन सागर पर पहुंच जाती है।
जीवन की सारी धारा भविष्य की तरफ है। एक बच्चा मां के पेट से पैदा हुआ। रुक नहीं जाता मां के गर्भ को पकड़कर। कहे कि नहीं जाता कहां भेजती है, कहां जाऊं, अंजान रास्ते हैं अपरिचित दुनिया है। क्या होगा, क्या नहीं होगा? गर्भ बहुत सुरक्षित है सीक्योरिटी है कंफरटैबल है। उससे ज्यादा सुविधापूर्ण जगह फिर दुनिया में मिलने वाली नहीं है। कितने भी अच्छे कोच बनाओ, कितने ही अच्छे कमरे बनाओ। मां के गर्भ से ज्यादा सुविधापूर्ण और आनंदायक जगह मिलने वाली फिर नहीं। कहां जाऊं? न भोजन की फिक्र है, न कोई चिंता है, न कोई नौकरी है, न कोई बेकारी है। आनंद में हूं चौबीस घंटे आनंद में हूं। कहां जाऊं? बच्चा अगर इनकार कर दे और मां के गर्भ में रह जाए तो क्या होगा?
नहीं लेकिन जाना पड़ता है जीवन की धारा आगे की तरफ है। मां को उसे छोड़ देना पड़ता है मां बहुत प्यारी है। छोड़ने का यह मतलब नहीं कि मां से प्रतिप्रेम कम हो गया। लेकिन जीवन का सूत्र यह है कि मां को बच्चे को छोड़ देना पड़ेगा। वह अलग होगा मां से बड़ेगा। वह दिल फिर भी मां से चिपका रहेगा। आशा है फिर जवान हो जाएगा। फिर अपनी दुनिया के रास्ते पर चला जाएगा।
शायद मां उसे भूल भी जाएगी कोई और स्त्री उसके प्रेम को पकड़ लेगी किसी और स्त्री के पीछे वह पागल हो जाएगा। शायद मां की स्मृति भी खो जाएगी। जीवन आगे जा रहा है, आगे जा रहा है, आगे जा रहा है। आगे बढ़ता चला जा रहा है। प्रश्न पीछे रुकने का उपाय नहीं। जीवन की पूरी चेतना निरंतर आगे जा रही है।
एक बीज है टूट जाता है मिट जाता है फिर एक अंकुर की यात्रा शुरू होती है। तो यह हम ध्यान में रखें कि अतीत के साथ जकड़ जाना जीवन के विकास में बाधा है और हमारा मुल्क अतीत के साथ बहुत बुरी तरह जकड़ा हुआ है।
उन सिद्धांतों के नाम कुछ रहे हों उन वादों के नाम कुछ रहे हों। लेकिन हमारे देश हमारी प्रतिभा अतीत से जकड़ी हुई प्रतिभा है। उसकी अतीत से मुक्ति चाहिए। उसका अतीत से मुक्त हो जाए बिना उसको भविष्य में गति नहीं मिल सकती।
एक छोटी-सी बात और मैं अपनी बात पूरी कर दूंगा। कुछ मित्रों ने यह पूछा है कि आप की टैक्नोलौजी और साईंस के विकास की बातें हमें भौतिकवादी न बना देगी। तुमने कभी यह नहीं पूछा तुम्हारा शरीर तुम्हें भौतिकवादी नहीं बना देता। तो हत्या कर लो अपनी, गर्दन काट दो अपनी क्योंकि शरीर भौतिकवाद है। तुमने कभी नहीं सोचा कि खाना खाने से भौतिकवाद हो जाओगे। क्योंकि भोजन, भोजन भूख है, पदार्थ है। तुमने कभी नहीं सोचा यह कि जीवन भौतिकता और अध्यात्म का जोड़ है।
जीवन अकेली आत्मा नहीं है और जीवन अकेला शरीर भी नहीं है जीवन दोनों का जोड़ है। शांति विकसित होनी चाहिए ध्यान विकसित होना चाहिए, मैडीटेशन विकसित होना चाहिए। वह टैक्नोलौजी है अंतकक्ष में जाने की। वह भी टैक्नोलौजी है ध्यान है, योग है, समाधि है, धर्म है, प्रार्थना है, वह भी टैक्नोलौजी है। वह टैक्नोलौजी है आत्मा में जाने की विज्ञान है, तर्क है, वह, वह, वह टैक्नोलौजी है पदार्थ में जाने की और जीवन, जीवन दोनों का जोड़ है।
मैंने सुना है कि रोम में एक सम्राट बीमार पड़ा था। वह इतना बीमार था कि मरने के करीब था। चिकित्सकों ने कह दिया कि ठीक नहीं हो सकेगा। फिर अचानक एक खबर आई कि एक फकीर आया है गांव में, कहते हैं कि वह तो मुर्दों को जगा देता है उसे ले आओ । उस फकीर को लाया गया उस फकीर ने कहा कि कौन कहता है कि सम्राट बीमार है? जरा-सी बीमारी है ठीक हो जाएगी। एक छोटा-सा इंतजाम कर लो। जाओ नगर में और किसी समृद्ध और सुखी आदमी के वस्त्र ले आओ । वह वस्त्र इसे पहना दो यह ठीक हो जाएगा।
वजीर भागे उन्होंने कहा यह तो बड़ा सरल उपाय है। वह गए, नगर में जो सबसे बड़ा धनपति था उसके पास और कहा कि तुम अपने कपड़े दे दो। सम्राट स्मरण से व्यापक है और एक फकीर ने कहा है अगर एक सुखी और समृद्ध आदमी के कपड़े मिल जाएं तो अभी ठीक हो जाएगा। जल्दी कपड़े दे दो, उस धनपति ने कहा कपड़े मैं अपनी जान भी दे सकता हूं सम्राट को बचाने के लिए। लेकिन मेरे कपड़े काम नहीं करेंगे, नहीं पड़ेंगे काम। मैं समृद्ध तो बहुत हूं लेकिन सुख, सुख से मेरा कोई भी संबंध नहीं।
फिर वह गांव के बड़े-से-बड़े लोगों के पास भटकते रहे शाम हो गई। सभी जगह यही उत्तर मिला जिनके पास धन था उन्होंने कहा धन तो है लेकिन सुख, सुख हमारे पास नहीं है, सुख से हम अपरिचित हैं। फिर तो वजीर घबरा गया और अपने साथ दौड़ते हुए नौकर से कहने लगा अब क्या होगा? मैं तो सोचता था कि बड़ा सरल उपाय है। वह नौकर हंसने लगा उसने कहा मालिक, तुम जब दूसरे की तरफ कपड़े मांगने गए तभी मैं समझ गया कि उपाय आसान नहीं। सम्राट का वजीर खुद अपने कपड़े देने के लिए सोच रहे हैं। किसी और के पास मांगने जाएगा।
वजीर कहने लगा किस मुंह को लेकर हम जाएं सम्राट के पास। अंधेरा पड़ जाने दो, रात उतर आने दो फिर हम चलेंगे अंधेरे में कह देंगे कि नहीं हो सकता है महाराज। नहीं उपाय नहीं बन पाया। रात होते-होते वह पहुंचे महल के पास जब पहुंचे थे, पीछे की महल के पास नदी उस पार कोई जंगल से बांसुरी बजाता था। महल की दीवारों तक नदी की लहरों पर उस बांसुरी की आवाज गूंजती थी। वह बांसुरी की आवाज कुछ ऐसी शांत, कुछ ऐसी आनंदपूर्ण थी कि वह वजीर कहने लगा हो सकता है इस आदमी को आनंद मिल गया हो, सुख मिल गया हो। चलो इसको आओ पूछने वह नदी पार करके उस व्यक्ति के पास गए।
वह एक अंधेरे वृक्ष के नीचे, एक चट्टान पर बैठकर बांसुरी बजाता था। अंधेरा था, कुछ दिखाई नहीं पड़ता था उस व्यक्ति के पास जाकर उन्होंने पूछा कि, "मेरे भाई तुम्हें शायद शांति मिल गई हो। तुम्हारे संगीत में ऐसा आनंद मालूम होता है। शायद तुमने सुख जाना हो क्या तुमने सुख जाना है?' उस व्यक्ति ने कहा, "सुख मैं सुख से भरा हुआ हूं। सुख ही सुख है मेरे पास कहो कैसे आए?'
 वह कहने लगे, "हम बहुत खुश हुए, धन्य है हमारा भाग्य। तुम मिल गए सम्राट मरणशैया पर है उसके लिए वस्त्रों की जरूरत है।' फकीर ने कहा, "किसी सुखी और समृद्ध आदमी के वस्त्र मिल जाएं तो सम्राट बच सकता है।' वह आदमी एक दम चुप हो गया बांसुरी बजाने वाला और कहने लगा मैं अपनी जान दे सकता हूं सम्राट को बचाने के लिए सुखी भी मैं बहुत हूं शांत भी बहुत हूं लेकिन वस्त्र मैं नंगा बैठा हूं। अंधेरे मैं तुम्हें शायद दिखाई नहीं पड़ता। मेरे पास कपड़े नहीं हैं। कपड़े मेरे पास हैं ही नहीं मैं क्या कर सकता हूं।
उस रात वह सम्राट मर गया क्योंकि लोग मिले जिनके पास कपड़े थे लेकिन शांति न थी। फिर एक आदमी मिला जिसके पास शांति थी लेकिन कपड़े न थे।
पश्चिम मर रहा है कपड़ों के कारण, हम मर रहे हैं नंगेपन के कारण इन दोनों के बीच कोई सेतू चाहिए। इन दोनों के बीच कोई संथीसीस, कोई समन्वय चाहिए। एक ऐसी मनुष्यता चाहिए जिसके पास शांति भी हो, और समृद्धि भी हो। अगर हम ऐसी मनुष्यता नहीं खोज सकते तो आदमी पृथ्वी पर बहुत दिन नहीं रह सकेगा। या तो वस्त्रों के ढेर में दबकर मर जाएगा या नंगेपन में मर जाएगा। इसके सिवाए बचने का कोई उपाय नहीं। नहीं यह मत सोचें कि टैक्नोलौजी और विज्ञान के विकास से आप भौतिकवादी हो जाएंगे।
जीवन तो भूत है जीवन में मैटर की जगह है और जीवन में आत्मा की भी जगह है। इन दोनों को एक ही साथ काटा जा सकता है वह एक साथ दबे हुए हैं। आप के पास कहां शरीर समाप्त होता है, कहां आत्मा शुरू होती है। दोनों जुड़े हैं दोनों एक साथ हैं।
जीवन एक अदभुत समन्वय है और जब हम अपनी विचार दृष्टि में भी भूत और परमात्मा के बीच समन्वय स्थापित करते हैं तो हम समग्र संस्कृति को पैदा करने की आधार शिला रखते हैं। अब तक की सारी संस्कृतियां खण्डित संस्कृतियां थीं। या तो भौतिकवादी थी या अध्यात्मकवादी थी।
पहली बार एक संपूर्ण संस्कृति चाहिए जो भौतिकवादी और अध्यात्मवादी एक साथ हो तब उस संस्कृति के पास शरीर भी होगा और आत्मा भी होगी और तभी हम मनुष्य को सुख, शांति सुव्यवस्था और सब कुछ देने में समर्थ हो सकते हैं।
इन तीन दिनों में मेरी इन सब बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना। उससे बहुत अनुग्रहित हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।

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