सोलहवां प्रवचन--उदासी नहीं--उत्सव है भक्ति
दिनांक १६ मार्च, १९७६; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार
1—राजा हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रहलाद की पुराणकथा
तथा होली उत्सव पर प्रकाश डालें।
2—यारी करके देखा यार मिलता नहीं, बेवफा मिलता है लेकिन बावफा मिलता नहीं।
3—भगवान इस समय हमारे और आपके बीच क्या करवाता है?
4—जो अनुभव आपके सान्निध्य और प्रवचन में होता है, वह कैसे अधिक समय तक रहे?
5—आपके जानने से पहले राधास्वामी संत से प्रभावित
था,...मांस और शराब छोड़ने की शर्त थी। फिर अपनी
किताब...बढ़िया अनूभव करता हूं। अब संन्यास...क्या केवल माला से ही काम नहीं चल
सकता?
पहला प्रश्न: पुराण-कथा है, प्रहलाद नास्तिक राजा हिरण्यकश्यप के यहां जन्म लेता है, और फिर हिरण्यकश्यप अपनी नास्तिकता सिद्ध करने के लिए प्रहलाद को नदी में
डुबोता है, पहाड़ से गिरवाता है, और अंत
में अपनी बहन होलिका से पूर्णिमा के दिन जलवाता है। और आश्चर्य तो यही है कि वह
सभी जगह बच जाता है, और प्रभु का गुणगान गाता है। और तब से
इस देश में होली जालाकर होली का उत्सव मनाते हैं, रंग गुलाल
डालते हैं, आनंद मनाते हैं। कृपा करके इस पुराण-कथा का मर्म
हमें समझाइए।
पुराण इतिहास नहीं है। पुराण महाकाव्य है। पुराण में जो हुआ है, वह कभी हुआ है ऐसा नहीं, वरन सदा होता रहता है। तो
पुराण में किन्हीं घटनाओं का अंकन नहीं है, वरन किन्हीं
सत्यों की ओर इंगित है। पुराण शाश्वत है।
ऐसा कभी हुआ था कि नास्तिक के घर आस्तिक का जन्म हुआ? ऐसा नहीं; सदा ही नास्तिकता में ही आस्तिकता का जन्म
होता है। सदा ही; और होने का उपाय ही नहीं है। आस्तिक की तरह
तो कोई पैदा हो ही नहीं सकता; पैदा तो सभी नास्तिक की तरह
होते हैं। फिर उसी नास्तिकता में आस्तिकता का फूल लगता है। तो नास्तिकता आस्तिकता
की मां है, पिता है। नास्तिकता के गर्भ से ही आस्तिकता का
आविर्भाव होता है।
हिरण्यकश्यप कभी हुआ या नहीं , मुझे प्रयोजन नहीं
है। व्यर्थ की बातों में मुझे रस नहीं है। प्रहलाद कभी हुए, न
हुए, प्रहलाद जानें। लेकिन इतना मुझे पता है, कि पुराण में जिस तरफ इशारा है, वह रोज होता है,
प्रतिपल होता है, तुम्हारे भीतर हुआ है,
तुम्हारे भीतर हो रहा है। और जब भी कभी मनुष्य होगा, कहीं भी मनुष्य होगा, पुराण का सत्य दोहराया जाएगा।
पुराण सार-निचोड़ है; घटनाएं नहीं, इतिहास
नहीं, मनुष्य के जीवन का अंतर्निहित सत्य है।
समझो। पहली बात--
साधारणतः तुम समझते हो कि नास्तिक आस्तिक का विरोधी है। वह गलत है।
नास्तिक बेचारा विरोधी होगा कैसे! नास्तिकता को आस्तिकता का पता नहीं है।
नास्तिकता आस्तिकता से अपरिचित है, मिलन नहीं हुआ। लेकिन
आस्तिकता के विरोध में नहीं हो सकती नास्तिकता, क्योंकि
आस्तिकता तो नास्तिकता के भीतर से ही आविर्भूत होती है। नास्तिकता जैसे बीज है और
आस्तिकता उसी का अंकुरण है। बीज का अभी अपने अंकुर से मिलना नहीं हुआ। हो भी कैसे
सकता है? बीज अंकुर से मिलेगा भी कैसे? क्योंकि जब अंकुर होगा तो बीज न होगा। जब तक बीज है तब तक अंकुर नहीं है।
अकुंर तो तभी होगा जब बीज टूटेगा और भूमि में खो जाएगा। तब अंकुर होगा। जब तक बीज
है तब तक अंकुर हो नहीं सकता। यह विरोधाभासी बात समझ लेनी चाहिए।
बीज से ही अंकुर पैदा होता है, लेकिन बीज के विसर्जन
से, बीज के खो जाने से, बीज के तिरोहित
हो जाने से। बीज अंकुर का विरोधी कैसे हो सकता है! बीज तो अंकुर की सुरक्षा है। वह
जो खोल बीज की है, वह भीतर अंकुर को ही सम्हाले हुए है--ठीक
समय के लिए, ठीक ऋतु के लिए, ठीक अवसर
की तलाश में। लेकिन, बीज को अंकुर का कुछ पता नहीं है। अंकुर
का पता हो भी नहीं सकता। और इसी अज्ञान में बीज संघर्ष भी कर सकता है अपने को बचाने
का--डरेगा, टूट न जाऊं, खो न जाऊं,
मिट न जाऊं! भयभीत होगा। उसे पता नहीं कि उसी की मृत्यु से महाजीवन
का सूत्र उठेगा। उसे पता नहीं, उसी की राख से फूल उठनेवाले
हैं। पता ही नहीं है। इसलिए बीज क्षमायोग्य है, उस पर नाराज
मत होना। दयायोग्य है। बीज बचाने की कोशिश करता है। यह स्वाभाविक है अज्ञान में।
हिरण्यकश्यप पिता है। पिताा से ही पुत्र आता है। पुत्र पिता में ही
छिपा है। पिता बीज है। पुत्र उसी का अंकुर है। हिरण्यकश्यप को भी पता नहीं कि मेरे
घर भक्त पैदा होगा। मेरे घर और भक्त! सोच भी नहीं सकता। मेरे प्राणों से आस्तिकता
जन्मेगी--इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। लेकिन प्रहलाद जन्मा हिरण्यकश्प से।
हिरण्यकश्यप ने अपने को बचाने की चेष्टा शुरू कर दी। घबड़ा गया होगा। डरा होगा। यह
छोटा-सा अंकुर था प्रहलाद, इससे डर भी क्या था? फिर यह
अपना ही था, इससे भय भी क्या था! लेकिन जीवनभर की मान्यताएं,
जीवनभर की धारणाएं दांव पर लग गई होंगी।
हर बाप बेटे से लड़ता है। हर बेटा बाप के खिलाफ बगावत करता है। और ऐसा
बाप और बेटे का ही सवाल नहीं है--हर आज कल के खिलाफ बगावत है, बीते कल के खिलाफ बगावत है। वर्तमान अतीत से छुटकारे की चेष्टा है। अतीत पिता
है, वर्तमान पुत्र है। बीते कल से तुम्हारा आज पैदा हुआ है।
बीता कल जा चुका, फिर भी उसकी पकड़ गहरी है; विदा हो चुका, फिर भी तुम्हारी गर्दन पर उसकी फांस
है। तुम उससे छूटना चाहते हो: अतीत भूल-जाए, विस्मृत हो जाए।
पर अतीत तुम्हें ग्रसता है, पकड़ता है।
वर्तमान अतीत के प्रति विद्रोह है। अतीत से ही आता है वर्तमान; लेकिन अतीत से मुक्त न हो तो दब जाएगा, मर जाएगा।
हर बेटा बाप से पार जाने की कोशिश है।
तुम प्रतिपल अपने अतीत से लड़ रहे हो--वह पिता से संघर्ष है।
ऐसा समझो--
सम्प्रदाय अतीत है, धर्म वर्तमान है। इसलिए जब भी
कोई धार्मिक व्यक्ति पैदा होगा, सम्प्रदाय से संघर्ष निश्चित
है। होगा ही। सम्प्रदाय यानी हिरण्यकश्यप; धर्म यानी
प्रहलाद। निश्चित ही हिरण्यकश्यप शक्तिशाली ह, प्रतिष्ठित
है। सब ताकत उसके हाथ में है। प्रहलाद की सामर्थ्य क्या है?
नया-नया उगा अंकुर है। कोमल अंकुर है। सारी शक्ति तो अतीत की है, वर्तमान तो अभी-अभी आया है, ताजात्ताजा है। बल क्या
है वर्तमान का? पर मजायही है कि वर्तमान जीतेगा और अतीत
हारेगा; क्योंकि वर्तमान जीवन्तता है और अतीत मौत है।
हिरण्यकश्यप के पास सब था--फौज-फांटे थे, पहाड़-पर्वत थे। वह जो चहता, करता। जो चाहा उसने करने
की कोशिश भी की, फिर भी हारता गया। शक्ति नहीं जीतती,
जीवन जीतता है। प्रतिष्ठा नहीं जीतती, सत्य
जीतता है। सम्प्रदाय पुराने हैं।
जीसस पैदा हुए, यहूदियों का सम्प्रदाय बहुत पुराना था, सूली लगा दी जीसस को। लेकिन मार कर भी मार पाए? इसीलिए
पुराण की कथा है कि फेंका प्र्रहलाद को पहाड़ से, डुबाया नदी
में--नहीं डुबा पाए, नहब मार पाए। जलाया आग में--नहीं जला
पाए। इससे तुम यह मत समझ लेना कि किसी को तुम आग में जलाओगे तो वह न जलेगा। नहीं,
बड़ा प्रतीक है। जीसस को मारा, मरा गए। लेकिन
मर पाए? मारकर भी तुम मार पाए?
इसलिए मैं कहता हूं, पुराण तथ्य नहीं है, सत्य है। तुम अगर यह सिद्ध करने निकल जाओ कि आग जला न पाई प्रहलाद को,
तो तुम गलती में पड़ जाओगे, तो तुम भूल में पड़
जाओगे, तो तुम्हारी दृष्टि भ्रान्त हो जाएगी। तुम अगर यह
समझो कि पहाड़ से फेंका और चोट न खाई, तो तुम गलती में पड़
जाओगे। नहीं, बात गहरी है, इससे कहीं
बहुत गहरी है। यह कोई ऊपर की चोटों की बात नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं, जीसस को सूली लगी, जीसस मर गए। सुकरात को जहर दिया,
सुकरात मर गए। मंसूर को काटा, मंसूर मर गया।
लेकिन मरा सच में या प्रतीत हुआ कि मर गए? जीसस अब भी जिंदा
है--मारनेवाले मर गए। सुकरात अभी भी जिंदा है--जहर पिलानेवालों का कोई पता नहीं।
सुकरात ने कहा था--जिन्होंने उसे जहर दिया--कि ध्यान रखो कि तुम मुझे मारकर भी न
मार पाओगे; और तुम्हारे नाम की अगर कोई याद रहेगी तो सिर्फ
मेरे साथ, कि तुमने मुझे जहर दिया था, तुम
जियोगे भी तो मेरे नाम के साथ। निश्चित ही आज सुकरात के मारनेवालों का अगर कहीं
कोई नाम है तो बस इतना ही कि सुकरात को उन्होंने मारा था।
थोड़ा सोचो! हिरण्यकश्यप का नाम होता, प्रहलाद के बिना?
प्रहलाद के कारण ही। अन्यथा कितने हिरण्यकश्यप होते हैं, होते रहते हैं! आज हम जानते हैं, किसकी आज्ञा से
जीसस को सूली लगी थी। उस वाइसरय का नाम याद है। हजारों वाइसराय होते रहे हैं
दुनिया में, सब के नाम खो गए, लेकिन
पायलट का नाम याद है; बस इतना ही नाम है कि उसका नाम था;
जीसस को सूली दी थी, जीसस के साथ अमर हो गया।
जीसस को हम मारकर भी मार न पाए--इतना ही अर्थ है। जीवन को मिटाकर भी
तुम मिटा नहीं सकते। सत्य को तुम छिपाकर भी छिपा नहीं सकते, दबाकर भी दबा नहीं सकते। उभरेगा, हजार-हजार रूपों
में वह उभरेगा; हजार-हजार गुना बलशाली होकर उभरेगा। लेकिन
सदा यह भ्रांति होती है कि ताकत किनके हाथ में है। ताकत तो अतीत के हाथ में होती
है। समाज के हाथ में होती है, सम्प्रदाय के हाथ में होती है,
राज्य के हाथ में होती है। जब कोई धार्मिक व्यक्ति पैदा होता है तो
कोंपल-सा कोमल होता है; लगता है जरा-सा धक्का दे देंगे,
मिट जाएगा, लेकिन आखिर में वही जीतता है। उस
कोमल-सी कोंपल की चोट से महासाम्राज्य गिर जाते हैं।
क्या बल है निर्बल का? निर्बल के बल राम!
कुछ एक शक्ति है, जो व्यक्ति की नहीं है, परमात्मा की है। वही तो भक्त का अर्थ है। भक्त का अर्थ है: जिसने कहा,
"मैं नहीं हूं, तू है'! भक्त ने कहा, "अब जले तो तू जलेगा; मरे तो तू मरेगा; हारे तो तू हारेगा; जीते तो तू जीतेगा। हम बीच से हटे जाते हैं।
भक्त का इतना ही अर्थ है कि भक्त बांस की पोंगरी की भांति हो गया; भगवान से कहता है, "गाना हो गा लो, न गना हो न गाओ--गीत तुम्हारे हैं! मैं सिर्फ बांस की पोंगरी हूं। तुम
गाओगे तो बांसुरी जैसा मालूम होऊंगा; तुम न गाओगे तो बांस की
पोंगरी रह जाऊंगा। गीत तुम्हारे हैं, मेरा कुछ भी नहीं। हां,
अगर गीत में कोई बाधा पड़े, सुर भंग हो,
तो मेरी भूल समझ लेना--बांस की पोंगरी कहीं इरछी-तिरछी है; जो मिला था उसे ठीक-ठीक बाहर न ला पाई; जो पाया था
उसे अभिव्यक्त न कर पाई। भूल अगर हो जाए तो मेरी समझ लेना। लेकिन अगर कुछ और हो,
सब तुम्हारा है'।
भक्त का इतना ही अर्थ है।
नास्तिकता में ही आस्तिक पैदा होगा। तुम सभी नास्तिक हो। हिरण्यकश्यप
बाहर नहीं है, न ही प्रहलाद बाहर है। हिरण्यकश्यप और प्रहलाद दो
नहीं हैं--प्रत्येक व्यक्ति के भीतर घटनेवाली दो घटनाएं हैं। जब तक तुम्हारे मन
में संदेह है--हिरण्यकश्यप है--तब तक तुम्हारे भीतर उठते श्रद्धा के अंकुरों को
तुम पहाड़ों से गिराओगे, पत्थरों से दबाओगे, पानी में डुबाओगे, आग में जलाओगे--लेकिन तुम जला न
पाओगे। उनको जलाने की कोशिश में तुम्हारे ही हाथ जल जाएंगे।
कितनी बार नहीं तुम्हारे मन में श्रद्धा का भाव उठता है, संदेह झपटकर पकड़ लेता है। कितनी बार नहीं तुम किनारे-किनारे आ जाते हो
छलांग लगाने के, संदेह पैर में जंजीर बनकर रोक लेता है,
क्या कर रहे हो! कुछ घर-द्वार की सोचो! कुछ परिवारा की सोचो! कुछ धन,
प्रतिष्ठा, पद की सोचो! कुछ संसार की सोचो!
क्या कर रहे हो? पैर रुक जाते हैं। सोचते हो, कल कर लेंगे, इतनी जल्दी क्या है!
क्रांति कितनी बार तुम्हारे भीतर नहीं उन्मेष लेती है! कितनी बार नहीं
तुम्हारे भीतर क्रांति का झंझावात आता है--और तुम बार-बार संदेह का साथ पकड़कर रुक
जाते हो! यह तुम अपने भीतर खोजो। यह कथा कुछ पुराण में खोजने की नहीं है। यह
तुम्हारे प्राण में खोजने की है। यह पुराण तुम्हारे प्राणों में लिखा हुआ है।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं कि भाव तो उठा है, लेकिन बड़े संदेह भी हैं। मैं उनसे कहता हूं, भाव भी
ह, संदेह भी है; अब तुम किसके साथ जाने
की सोचते हो? निर्णय तो तुम्हें करना पड़ेगा। क्या तुम सोचते
हो, उस दिन तुम जाओगे जिस दिन कोई संदेह न होगा? तब तो तुम कभी जा ही न सकोगे। संदेह भी है तुम्हारे भीतर, भाव भी है तुम्हारे भीतर, दोनों ही द्वार खुले हैं।
संदेह भी है तुम्हारे भीतर, श्रद्धा भी है तुम्हारे भीतर,
दोनों ही द्वार खुले हैं। संदेह भी है तुम्हारे भीतर, श्रद्धा भी है तुम्हारे भीतर, भाव भी है तुम्हारे
भीतर, दोनों ही द्वार खुले हैं। संदेह भी है तुम्हारे भीतर
श्रद्धा भी है तुम्हारे भीतर, भाव भी है तुम्हारे भीतर,
दोनों ही द्वार खुले हैं। हिरण्यकश्यप, प्रहलाद
दोनों ने पुकारा है--किसकी सुनोगे? कारण क्या है कि तुम
संदेह की ही सुन लेते हो बार-बार? क्योंकि संदेह बलशाली
मालूम होता है। सारा समाज, संसार साथ मालूम होता है। श्रद्धा
निर्बल करती मालूम होती है--अकेले जाना होगा।
संदेह के राजपथ हैं; वहां भीड़ साथ है। श्रद्धा की
पगडंडियां हैं; वहां तुम एकदम अकेले हो जाते हो, एकाकी। वही एकाकी हो जाना संन्यास है। अकेले होने का साहस ही श्रद्धा में
ले जा सकता है।
हिरण्यकश्यप बलशाली है--वही उसकी निर्बलता सिद्ध हुई। प्रहलाद बिलकुल
निर्बल है--वही उसका बल सिद्ध हुआ। लेकिन वह चलता रहा। उसका गीत न रुका, उसका भजन न रुका। बाप के विपरीत भी चलता रहा!
संदेह श्रद्धा का पिता है, शत्रु नहीं है। संदेह
से ही श्रद्धा जन्मती है। और संदेह हजार चेष्टा करेगा कि श्रद्धा जन्मे न, क्योंकि श्रद्धा अगर जन्मी तो संदेह को खोना पड़ेगा, मिटना
पड़ेगा। तो संदेह लड़ेगा आखिरी दम तक। उसी लड़ाई में वह विध्वंस करता है।
अब यह भी समझ लेना जरूरी है कि संदेह की क्षमता सिर्फ विध्वंस की है, सृजन की नहीं है। संदेह मिटा सकता है, बना नहीं
सकता। संदेह के पास सृजनात्मक ऊर्जा नहीं है। वह कह सकता है,नहीं;
लेकिन हां, हां उसके प्राणों में उठती ही
नहीं। और बिना हां के जगत में कुछ निर्मित नहीं होता। सारा सृजन हां से है,
सारा विध्वंस नहीं से है। तो नहीं हिंसात्मक है, हां अहिंसात्मक है। संदेह कहे चले जाता है, नहीं;
मिटाने के उपाय सुझा देता है। कहता है, "यह
छोटा-सा बालक श्रद्धा का--गिरा दो पहाड़ से! समाप्त करे यह झंझट बीच की! डुबा दो
पानी में! आग में जला दो'!
मगर ध्यान रखना, जब भी सृजन और विध्वंस का संघर्ष
होगा, विध्वंस हारेगा, सृजन जीतेगा।
क्योंकि सृजन परमात्मा की ऊर्जा है। जब भी हां और ना में संघर्ष होगा, हां जीतेगी, ना हारेगी। ना में बल ही क्या है?
कितनी ही बलशाली दिखाई पड़ती हो, लेकिन सारा बल
नपुंसकता का है। बल है नहीं, झूठा दावा है।
तुमने कभी खयाल किया? तुम जब भी किसी बात पर नहीं कहते
हो तो बड़ी शक्ति मालूम पड़ती है--नहीं के साथ शक्ति मालूम पड़ती है। और जब भी तुम
हां कहते हो, ऐसा लगता है कहनी पड़ी। छोटा बच्चा कहता है मां
से कि जरा बाहर खेल आऊं-- "नहीं'! बाहर खेल के लिए कह
रहा था, कुछ "नहीं' कहने की बात
भी न थी। पति कहता है, जरा, छुट्टी का
दिन है, नदी पर मछली मार आऊं-- "नहीं'। क्या अड़चन थी? घर बैठे-बैठे मक्खी मारेगा! मछली ही
मार लेता! कम-से-कम नदी के किनारे बैठने का थोड़ज्ञ सुख ले लेता। लेकिन "नहीं'
त्वरित आती है। "नहीं' के साथ बल है।
खड़े हो तुम स्टेशन की खिड़की पर, टिकट मांगते हो। वह
जो टिकटबाबू है, काम भी न हो तो रजिस्टर उलटने लगता है। वह
कह रहा है, "खड़े रहो! कोई बड़े साहब, लाटसाहब...खड़े रहो'! वह कह रहा है, नहीं! यह मौका उसको भी "नहीं' कहने का मिला है।
इधर-उधर उलटेगा। तुमने भी बहुत बार यह किया है, खयाल करो।
जब तुम्हें "नहीं' कहने का मौका मिलता
है तो तुम छोड़ते नहीं। क्योंकि "नहीं' कहने से लगता है,
"देखो! अटका दिया! मेरे पर निर्भर हो! अभी दूं टिकट तो ठीक,
न दूं तो ठीक'!
"नहीं' के साथ एक नपुंसक बल
की प्रतीति होती है जो कि झूठा है; वह असली बल नहीं है। अब
इसे तुम खयाल करो। अगर तुम असली बलशाली हो तो तुम "नहीं' कहने से बल इकट्ठा करोगे?
अगर पत्नी के प्रेम का बल है पति पर, तो वह "नहीं'
कहकर अपनी ताकत आजमाएगी? जरूरत ही न रहेगी।
जहां बल है, वहां "नहीं' की जरूरत
ही नहीं है। प्रयोजन क्या है? जहां वास्तविक शक्ति है वहां
तो "हां' से भी शक्त्ति ही प्रगट होती है। लेकिन
तुम्हारी तकलीफ यह है कि वास्तविक शक्ति नहीं है; "नहीं'
कहते हो, तो ही थोड़ी-सी झंझट खड़ी करके तुम
शक्ति का अनुभव कर पाते हो। "हां' कहते हो, तो लगता है हां कहनी पड़ी। "हां' तुम मजबूरी में
कहते हो। तुम्हें "हां' कहने का लुफ्त न आया। तुम्हें
"हां' कहने का सलीका न आया। तुम्हारे पास ताकत नहीं है।
हिरण्यकश्यप प्रहलाद के सामने कमजोर मालूम होने लगा होगा। आनंद के
सामने दुख सदा कमजोर हो जाता है--हो ही जाएगा, है ही कमजोर। दुख
नकार है। आनंद विधायक ऊर्जा का आविर्भाव है। दुख में कभी कोई फूल खिले हैं?
कांटे ही लगते हैं। प्रहलाद के फूल के सामने हिरण्यकश्यप का कांटा
शघमदा हो उठा होगा, लज्जा से भर गया होगा,र् ईष्या से जल गया होगा। यह ताजगी, यह कुंआरापन,
यह सुगंध, यह संगीत, ये
प्रहलाद के भगवान के नाम पर गाए गए गीत--उसे बहुत बेचैन करने लगे होंगे। वह घबड़ाने
लगा। उसकी सांसें घुटने लगीं। उसे एकबारगी वही सूझा जो सूझता है नकार को, नास्तिक को, निर्बल-दुर्बल को--वही सूझा उसे। मिटा
दो इसे। विध्वंस सूझा।
दुनिया में दो तरह के बल हैं। या तो तुम कुछ बनाओ तो बल मालूम होता
है। तुमने एक गीत लिखा...। कवियों से पूछो, जब उनका गीत पूरा हो
जाता है तो वे कैसे हिमालय के शिखर पर उठ जाते हैं। कैसा आनंद तरंगायित हो उठता
है! मूर्तिकार से पूछो, तब उसकी मूर्ति पूरी होती, तो वह स्रष्टा हो जाता है! किसी मां से पूछो, जब
उसका गर्भ बड़ा होता है और जब उसके पेट में बच्चा बड़ा होने लगता है, तब उसकी पुलक, उसका आनंद पूछो!
एक स्त्री जब तक मां न बने, साधारण स्त्री है।
गरिमा नहीं होती उसमें, गौरव नहीं होता। अभी कुछ पैदा ही
नहीं किया, गरिमा कैसी? अभी वृक्ष में
फल ही न लगे, गौरव कैसा? तब तक बांझपन
घेरे रहता है। फिर एक बेटा हुआ, तब स्त्री में एक नया
आविर्भाव होता है; तब वह साधारण स्त्री न रही, तब वह मां हो गई। मां होकर वह परमात्मा की संगी-साथी हो गई। सृजन दिया!
कुछ पैदा किया! जीवन को जन्म दिया!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पुरुष का मन स्त्री से सदा हीर् ईष्या से
भरा है, क्योंकि वह जन्म नहीं दे सकता। गर्भ रखने की उसके पास
सुविधा नहीं है। इसीलिए पुरुष और हजार चीजों को जन्म देता है--परिपूरक की तरह:
कविता लिखता है, मूर्ति बनाता है, चित्र
बनाता है, भवन बनाता है, ताजमहल खड़े
करता है। लेकिन कितने ही ताजमहल खड़े करो, एक छोटे-से बच्चे
का मुकाबला थोड़े ही कर सकेंगे। कितने ही सुंदर हों, तुम्हारी
मूर्तियां कितनी ही कलापूर्ण हों, और तुम्हारे गीतों में
कितना ही तरन्नुम हो और कितना ही छंद हो, छोटे-से बच्चे की
आंखों का छंद तो न हो सकेगा। माना कि संगमरमर बहुत सुंदर है, मगर एक जीवंत बच्चे के सौंदर्य के सामने क्या होगा? एक
साधारण-सी स्त्री तुम्हारे शाहजहांओं को मात कर देती है। बना लो तुम ताजमहल...!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पुरुष निरंतर चेष्टा करता है कुछ बनाने की, ताकि वह भी अनुभव कर सके, मैं भी स्रष्टा हूं। लेकिन
फिर भी तृप्ति वैसी नहीं होती जैसी स्त्री को होती है। इसलिए तो स्त्रियां कुछ
नहीं बनातीं--न ताजमहल, न चित्र, न
अजन्ता, न एलोरा। न उन्होंने गीत लिखे कालिदास जैसे, न चित्र बनाए पिकासो जैसे। स्त्रियां कुछ भी नहीं करतीं। बड़े हैरान होओगे
तु। पाकशास्त्र भी पुरुष लिखते हैं। नयी शाक-सब्जी भी खोजनी हो तो पुरुष खोजते हैं,
स्त्री उस झंझट में नहीं पड़ती। दुनिया के अच्छे और बड़े रसोइये
स्त्रियां नहीं हैं, पुरुष हैं। रसोइये भी! हद हो गई! घर की
साज-सज्जा करनी हो, इंटीरियर डैकोरेशन करना हो, फर्नीचर जमाना हो, तो भी पुरुष विशेषज्ञ...!
स्त्री कुछ बनाती नहीं--बनाने की जरूरत अनुभव नहीं करती। मां होने में
इतनी तृप्ति है: भर जाती है। सफल हो जाती है। फलवती हो जाती है, यानी सफल हो जाती है।
ध्यान रखना, दो उपाय हैं शक्ति अनुभव करने के--या तो सृजन या
विध्वंस। अगर तुम सृजन के द्वारा शक्ति अनुभव न कर सके, तो
फिर विध्वंस के द्वारा शक्ति अनुभव करोगे। हिटलर, मुसोलिनी,
नेपोलियन और सिकंदर, ये विध्वंस के द्वारा
शक्ति अनुभव कहते हैं; बुद्ध, सुकरात,
जीसस, सृजन के द्वारा शक्ति अनुभव करते हैं।
शायद तुम्हें पता न हो: हिटलर मूलतः चित्रकार होना चाहता था। उसने
आर्ट-अकेडमी में अर्जी भी दी थी, लेकिन स्वीकार न हुई। वह चोट उसे
भारी पड़ी। वह कुछ बनाना चाहता था--चित्र, मूर्तियां। वह चोट
उसे भारी पड़ी। सारी जीवन-ऊर्जा उसकी विध्वंस से उलझ गई। यह भी शायद तुम्हें पता न
हो कि इतने लाखों लोगों की हत्या के बाद भी रात जब उसे फुर्सत मिलती थी तो वह
चित्र बनाता था। डांवाडोल था। हिटलर ने लिखा है कि आदमी को मारकर मिटाकर भी अपने
बल का अनुभव होता है।
तुम जिनता बड़ा विध्वंस कर सको, उतना लगता है बलशाली
हो; कोई फिक्र नहीं, बना नहीं सकता,
मिटा तो सकता हूं। "सकने' का पता चलता
है। बना नहीं सकता, कोई बात नहीं, मिटा
सकता हूं! चलो, उतनी ऊंचाई न सही बनाने की, लेकिन मिटाने की ऊंचाई तो हो ही सकती है!
नास्तिकता विध्वंसात्मक है; आस्तिकता सृजनात्मक
है। और आस्तिक और नास्तिक में जब भी संघर्ष होगा, नास्तिक की
हार सुनिश्चित है। हां, आस्तिक असली होना चाहिए। कभी अगर तुम
नास्तिक को जीतता हुआ देखो तो उसका केवल इतना ही अर्थ होता है कि आस्तिक नकली है।
कभी अगर तुम नास्तिक को जीतता हुआ देखो तो उसका केवल इतना ही अर्थ होता है कि
आस्तिक नकली है। नकली आस्तिकता से तो असली नास्तिकता भी जीत जाएगी, कम-से-कम असली तो है! इतना सत्य तो है वहां कि असली है। सत्य ही जीतता है।
तो अगर कभी तुम पाओ कि नास्तिकता जीत रही है तो उसका एक ही अर्थ होता
है कि नास्तिकता प्रामाणिक होगी। आस्तिकता हार रही है तो उसका अर्थ हैस कि
आस्तिकता झूठी होगी, आरोपित होगी, थोथी होगी,
ऊपर से ढांपी होगी, पहल ली होगी, प्राणों से निकली न होगी; आचरण में होगी, अंतस में न होगी, ऊपर-ऊपर रंग-रोगन होगा, हृदय का जोड़ न होगा उसमें; प्राणों में जड़ें न
होंगी। ऐसे बाजार से कागज के या प्लास्टिक के फूल खरीद लाए होओगे, वृक्षों पर लटका दिए होओगे--सारी दुनिया को धोखा हो जाए, लेकिन वृक्ष को थोड़े ही धोखा होगा। असली फूल जुड़ा है; वृक्ष की रसधार से एक है; एक ही गीत में, एक ही छंद में बद्ध है; दूर गहरी जड़ों तक जमीन से
जुड़ा है; सुदूर आकाश से एक है; एक ही
गीत में, एक ही छंद में बद्ध है; दूर
गहरी जड़ों तक जमीन से जुड़ा है; सुदूर आकाश में चांदत्तारों
से, सूरज से जुड़ा है। प्लास्टिक का फूल किसी से भी नहीं जुड़ा
है; टूटा है; न जड़ों से, न जमीन से, आकाश से, न
चांदत्तारों से, न सूरज से--किसी से नहीं जुड़ा है।
तुम्हारी आस्तिकता अगर झूठी है तो नास्तिकता से हारेगी, तो तुम नास्तिक से डरोगे। तुम्हारी आस्तिकता अगर सच्ची है तो नास्तिक को
करने दो विध्वंस, कर-करके खुद ही टूट जाएगा, कर-करके खुद ही हार जाएगा।
प्रहलाद अपने गीत गाए चला गया; अपनी गुनगुन उसने
जारी रखी; अपने भजन में उसने अवरोध न आने दिया। पहाड़ से
फेंका, पानी में डुबाया, आग में
जलाया--लेकिन उसकी आस्तिकता पर आंच न आई। उसके आस्तिक प्राणों में पिता के प्रति
दुर्भाव पैदा न हुआ। वही मृत्यु है आस्तिक की। जिस क्षण तुम्हारे मन में दुर्भाव आ
जाए, उसी क्षण आस्तिक मर गया।
जीसस को सूली लगी। अंतिम क्षण में उन्होंने कहा, "हे परमात्मा! इस सभी को माफ कर देना, क्योंकि ये
जानते नहीं क्या कर रहे हैं। ये नासमझ हैं। कहीं ऐसा न हो कि तू इनको दण्ड दे दे।
ये दया के योग्य् हैं, दण्ड के योग्य नहीं।
शरीर मर गया, जीसस को मारना मुश्किल है। इस आस्त्किता को कैसे
मारोगे; किस सूली पर लटकाओगे, किस आग
में जलाओगे?
न, प्रहलाद अपना गीत गाए चला गया।
नास्तिकता विध्वंसात्मक है। यही अर्थ है कि हिरण्यकश्यप की बहन है
अग्नि। हिरण्यकश्यप की बहन है अग्नि--वह बहन है, वह छाया की तरह साथ
लगी है।
और आश्चर्य मत करो! पूछा है, आश्चर्य तो यही है कि
वह सभी जगह बच जाता है और प्रभु के गुण गाता है। आश्चर्य मत करो। जिसे प्रभु का
गुणगान आ गया, जिसने एक बार उस स्वाद को चख लिया, उस फिर कोई आग दुखी नहीं कर सकती। जिसने एक बार उसका सहारा पकड़ लिया,
फिर उसे कोई बेसहारा नहीं कर सकता।
आश्चर्य मत करे। आश्चर्य होता है, यह स्वाभाविक है। पर
आश्चर्य मत करो।
स्वभावतः तब से इस देश में उस परम विजय के दिन को हम उत्सव की तरह
मनाते रहे हैं। होली जैसा उत्सव पृथ्वी पर खोजने से न मिलेगा। रंग गुलाल है। आनंद
उत्सव है। तल्लीनता का, मदहोशी का, मस्ती का, नृत्य का, नाच का--बड़ा सतरंगी उत्सव है। हंसी के
फव्वारों का, उल्लास का, एक महोत्सव
है। दीवाली भी उदास है, होली के सामने। होली की बात ही और
है। ऐसा नृत्य करता उत्सव पृथ्वी पर कहीं नहीं है। ठीक भी है। एक गहन स्मरण
तुम्हारे भीतर जगता रहे कि इस जगत में सबसे बड़ी विजय नास्तिकता के ऊपर आस्तिकता की
विजय है; कि सदा-सदा बार-बार तुम याद करते रहो कि आस्तिकता
यानी आनंद।
आस्तिकता उदासी का नाम नहीं है। अगर आस्तिक उदास मिले तो समझना कि चूक
हो गई है; बीमार है, आस्तिक नहीं है। अगर
आस्तिक नृत्य से भरा हुआ न मिले तो समझना कि कहीं राह में भटक गया। कसौटी यही है।
धर्म उदासी नहीं है--नृत्य, उत्सव है। और होली
इसका प्रतीक है। इस दिन "ना' मर "हां' की विजय हुई। इस दिन विध्वंस पर सृजन जीता। इस दिन अतीत पर वर्तमान विजयी
हुआ। इस दिन शक्तिशाली दिखाई पड़नेवाले पर निर्बल-सा दिखाई पड़नेवाला बालक जीत गया।
नये की, नवीन की, ताजे की विजय--अतीत
पर, बासे पर, उधार पर। और उत्सव रंग का
है। उत्सव मस्ती का है। उत्सव गीतों का है।
धर्म उत्सव है--उदासी नहीं। यह याद रहे। और तुम्हें नाचते हुए, परमात्मा के द्वार तक पहुंचना है। अगर रोओ भी तो खुशी से रोना। अगर आंसू
भी बहाओ तो अहोभाव के बहाना। तुम्हारा रुदन भी उत्सव का ही अंग हो, विपरीत न हो जाए। थके-मांदे लंबे चेहरे लिए, उदास,
मुर्दों की तरह, तुम परमात्मा को न पा सकोगे,
क्योंकि यह परमात्मा का ढंग ही नहीं है। जरा गौर से तो देखो,
कितना रंग उसने लिया है! तुम बेरंग होकर भद्दे हो जाओगे। जरा गौर से
देखो, कितने फूलों में कितना रंग! कितने इंद्रधनुषों में
उसका फैलाव है! कितनी हरियाली में, कैसा चारों तरफ उसका गीत
चल रहा है! पहाड़ों में, पत्थरों में, पक्षियों
में, पृथ्वी पर, आकाश में--सब तरफ उसका
महोत्सव है! इसे अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम पाओगे, ऐसे ही
हो जाना उससे मिलने का रास्ता है।
गीत गाते कोई पहुंचता है, नाचते कोई पहुंचता
है--यही भक्त्ति का सार है।
दूसरा प्रश्न: याद रफीक हो तो रिफाकत ज़रूर है
कसम तुझे अल्लाह की बनाखत जरूर है
यारी करके देखा यार मिलता नहीं
बेवफा मिलता है लेकिन बावफा मिलता नहीं।
तो फिर यारी करके नहीं देखा। हम भी देखे--मिलता है। तुम्हारी मानें कि
अपनी? फिर यारी में कहीं कुछ भूल है। तुमने सोचा होगा,
यारी की--कर नहीं पाए। बड़ी सरलता से आदमी अपने को समझा लेता है कि
मैं तो सब कर रहा हूं, मिलता नहीं।
क्या किया है तुमने? यारी क्या की है? रोए? चीखे? तड़फे? छाती में तूफान उठा? झंझावात आई? अपने को चढ़ाने की तैयारी दिखाई? अपने को खोने का
साहस किया? यारी क्या की अभी? अभी उसके
आशिक हुए? लोग कुछ थोड़ा-बहुत कर लेते हैं और थोड़ा-बहुत भी
करते हैं बहुत कुछ पाने की आशा में।
कहते हो--बेवफा मिलता है लेकिन बावफा मिलता नहीं। तुम बावफ हो? तुमने वफा पूरी की है? क्योंकि मेरे देखे तो ऐसा है,
जो तुम हो वही मिलता है। जैसे तुम हो वैसा ही मिलता है। परमात्मा
दर्पण की भांति है, तुम्हारे ही चेहरे को झलका देता है। अगर
तुम बेईमान हो, बेईमान मिलेगा। अगर तुम धोखेबाज हो, धोखेबाज मिलेगा। अगर तुम चालबाजी कर रहे थे तो तुम जीत न पाओगे; वह तुमसे ज्यादा चालबाजी कर जाएगा।
सरल होकर जाओ! कुछ मांगते हुए मत जाओ, क्योंकि मांग में ही
गड़बड़ है; क्योंकि मांगने का मतलब ही हुआ कि तुमने यार को न
मांगा, कुछ और मांगा। लेकिन सभी की ऐसी आदत है। अहंकार का यह
ढंग और शैली है कि अहंकार मान लेता है कि मैंने तो सब कुछ किया; लेकिन दूसरी तरफ से प्रत्युत्तर नहीं आ रहा है।
बच्चन का एक गीत है--सुनो इसे ठीक से।
इतने मत उन्मत्त बनो
जीवन मधुशाला से मधु पी
बन कर तन-मन मतवाला
गीत सुनाने लगा झूम कर
चूम-चूम कर मैं प्याला
शीश हिला कर दुनिया बोली
पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह
इतने मत उन्मत्त बनो!
बहुत लोग पी चेके हैं। ऐसी उधार शराब से, ऐसी बाजार में बिकनेवाली शराब से बहुत लोग सोच लिए हैं कि हो गए मतवाले!
इतना सस्ता नहीं है मतवालापन। उसकी शराब खोजनी जरा कठिन बात है। अंगूर की नहीं,
आत्मा की शराब जरा कठिन बात है।
इतने मत संतप्त बनो
जीवन मरघट पर अपने सब
अरमानाग की कर होली
चला राह में रोदन करता
चिताराख से भर झोली
शीश हिला कर दुनिया बोली
पृथ्वी पी हो चुका बहुत यह
इतने मत संतप्त बनो!
ये ढोंग न चलेंगे। दुनिया बहुत देख चुकी है। यारों की यारी, मतवालों का मतवालापन--सब ऊपर-ऊपर है। राख लगा लेने से कहीं भीतर का पता
चलता है? ऊपर से शोरगुल मचाने से कहीं भीतर में कोई क्रांति
घटित होती है?
और ध्यान रखना, जब भी तुम्हें लगे कि हाथ में कुछ न आया, तब समझ लेना कि अपेक्षा की थी कुछ। अपेक्षा के बिना विषाद होता ही नहीं
है। तुमने वफा मांगी होगी तो बेवफा मिली। जब तुम मांगोगे कुछ, उससे विपरीत पाओगे। मांगना ही मत। बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न चून। यह परमात्मा की
तरफ जाने का रास्ता भिखमंगेपन का नहीं है, यह सम्राटों जैसा
है। तुम मांगना मत, तो मिलता है। तुम मांगो कि तुमने ही बाधा
खड़ी कर दी। तुम्हारी मांग ही अड़चन बन जाती है।
"यारी करके देखा यार मिलता नहीं'।
नहीं, देखा ही नहीं। जिन ने यारी करके देखा उन्हें सदा
मिला। पूछो मंसूर से! पूछो बुद्ध से! पूछो नारद से! पूछा मीरा से, चैतन्य से! पूछो फरीद से, कबीर से, नानक से! करोड़ों गवाह हैं इसके, कि जिन्होंने यारी
की उनको यार मिलता है। और परमात्मा और बेवफा! ऐसा होता ही नहीं। ऐसा उसका स्वभाव
नहीं है। तुम्हारी ही कहीं भूल होगी। तुम कहीं अधैर्य में, जल्दी
में लगे हो। भीतर से तुमने पुकारा ही नहीं। ऊपर-ऊपर से आवाज दी थी, और भीतर संदेह रहा होगा।
मैंने सुना है, विवेकानंद अमरीका के एक गांव में बोले, तो उन्होंने बाइबिल का एक उद्धरण दिया कि "यदि तू पहाड़ से भी कह दे
आस्था से भरकर कि हट जा, तो पहाड़ हट जाता है'। एक बूढ़ी औरत सुन रही थी। उसने कहा, यह हमको खयाल
ही न था। उसके घर के पीछे एक पहाड़ है और उसकी वजह से हवा भी नहीं आती और गरमी में
तप भी जाती है पहाड़ी। और उसने कहा, यह तो बड़ा ही सरल है। वह
भागी घर। उसने कहा कि हटा दो, इसमें दिक्कत ही क्या है। उसने
जाकर खिड़की खोलकर एक दहा सोचा, आखिरी बार तो और देख लें,
फिर तो हट ही जाएगा। खिड़की खोलकर देखा, खिड़की
बंद की, बैठकर नीचे उसने कहा, "हे
परमात्मा! श्रद्धा से भरकर कह रही हूं, हटा इस पहाड़ को।
बिलकुल हटा दे'। फिर दोत्तीन मिनट उसे वक्त भी दिया भगवान
को। उसने खिड़की खोली-- वे पहाड़ वहीं के वहीं है। और उसने कहा, "जा भी, मुझे पहले ही से पता था कि कहीं कोई पहाड़ ऐसे
हटते हैं'!
पहले से ही पता था कि कहीं पहाड़ ऐसे हटते हैं! जब पहले से हेी पता था
तो वह जो प्रार्थना थी, ऊपर-ऊपर रही होगी, भीतर तो
संदेह ही रहा होगा।
एक गांव में वर्षा न हुई, गांव के पुजारी ने
सारे गांव के लोगों को इकट्ठा किया कि प्रार्थना करेंगे, वर्षा
हो जाएगी। सारा गांव आ गया। पुजारी भी चला गांव के बाहर जहां सब इकट्ठे हो रहे थे,
एक मंदिर के पास। पुजारी के पस ही एक छोटा-सा बच्चा भी चल रहा था एक
बड़ा छाता लिए। उस पुजारी ने कहा, "नालायक! छाता कहां ले
जा रहा है?' उस बच्चे ने कहा, "लेकिन
मैंने सोचा कि जब प्रार्थना होगी तो वर्षा भी होगी, लौटने
में दिक्कत होगी'। मगर एक छोटा बच्चा ही लाया था। खुद पुजारी
भी छाता लेकर न आया था। गांव की भीड़ इकट्ठी हुई, कोई छाता न
लाया था। एक छोटा बच्चा ही प्रार्थना का पात्र था। एक वही भरोसे से आया था,
कि जा ही रहे हैं प्रार्थना करने तो वर्षा होगी। लेकिन पुजारी ने
उसकी श्रद्धा भी भ्रष्ट कर दी। उसने कहा, "अबे नालायक!
यह छाता कहां ले जा रहा है? वर्षा ही तो नहीं हो रही वर्षों
से, प्राण तड़पे जा रहे हैं और तू छाता लिए घूम रहा है'!
उसको भी संदेह जगा दिया। उसकी प्रार्थना भी खराब हो गई। मुझे लगता
है, उस दिन वर्षा हो सकती थी। उस अकेले एक बच्चे की
प्रार्थना से भी हो सकती थी। मगर उसकी प्रार्थना भी खराब हो गई।
नहीं, तुमने अभी खोजा ही नहीं यार को। उस प्यारे को खोजने
के लिए बड़ी हार्दिक उत्कंठा चाहिए और धैर्य चाहिए। तीन मिनट का समझ देकर खिड़की
खोलकर मत देख लेना।
सुकूं है मौत यहां जौके-जुस्तजू के लिए
ये तश्नगी वो नहीं जो बुझाई जाती है।
जो उसकी चोज पर निकलते हैं, वे कोई प्यास बुझाने
थोड़े निकलते हैं। वे कहते हैं--ये तश्नगी वो नहीं जो बुझाई जाती है। यह कोई प्यास
ऐसी थोड़े ही है जो बुझाने की जरूरत है। यह तो प्यास बड़ी प्यारी है। वे तो कहते हैं,
"जितनी याद करवाए और जितनी देर प्रतीक्षा करवाए, तेरी कृपा! तेरा मिलन ही थोड़ा सुखद है, तेरा इन्तजार
भी'!
भक्त कहता है, छिपा रहे, जितना छिपना हो!
अच्छा ही हुआ, और प्रार्थना की लेंगे थोड़ी। मिल जाएगा तो फिर
क्या होगा? छिपा रहे। थोड़ा और इन्तजार सही। उसका इन्तजार भी
प्यारा है।
सुकूं है मौत यहां...!
उसकी राह पर जो सुकून की तलाश कर रहे हैं, चैन की तलाश कर रहे हैं, वे तो गलती में हैं।
सुकूं है मौत यहां जौके-जुस्तजू के लिए।
जो जीवन की तलाश कर रहे हैं, चैन की तलाश पर निकले
हैं, उनके लिए चैन की बात ही नहीं उठानी चाहिए।
ये तश्नगी वो नहीं जो बुझाई जाती है।
यह तो प्यास बढ़ाई जाती है। प्रार्थना तो प्यास में घी का काम करती है; जैसे घी आग में पड़ता है, ऐसे प्रार्थना प्यास में
पड़ती है। भभकती है आग। एक ऐसी घड़ी आती है कि तुम प्यास ही प्यास रह जाते हो;
तुम्हारे भीतर कोई ऐसा भी नहीं रह जाता जो कहे, मैं प्यासा हूं, वरन ऐसी ही भावना रह जाती है कि मैं
प्यास हूं। उसी घड़ी यार मिल जाता है। यार तो मिला ही हुआ है।
यह न पानी से बुझेगी
यह न पत्थर से दबेगी
यह न शोलों से डरेगी
यह वियोगी की लगन है
यह पपीहे की रटन है।
तीसरा प्रश्न: भगवान इस समय और इस जगह पर आपके और
हमारे दर्म्यान क्या करवाता है? आप में और हम में
फर्क क्या है और वास्ता क्या है?
बड़ा खेल करवाता है। मुझे बुलवाता है, तुम्हें सुनवाता है।
मगर वही मुझसे बोलता है, वही तुमसे सुनता है। समझ लोगे तो
बड़ी रसधार बहेगी; क्योंकि वही मुझसे बोला है, वही तुमसे सुनने चला आया है। उसके सिवा कोई और नहीं है। परमात्मा अपने ही
साथ लुका-छिपी खेलता है। यही उसकी लीला है। यही उसने होने का ढंग है।
तुमने कभी अपने साथ लुका-छिपी खेली? कभी तुमने ताशों का
खेल खेला अकेले ही? कभी-कभी ट्रेन में मैं यात्रा करता था,
तो कुछ लोग मिल जाते अकेले, मेरे डिब्बे में
होते। वे कहते, "आप साथ देंगे'? "मैं जरा और दूसरे खेल में लगा हूं, आप बाधा न दें'। तो फिर वे अकेले ही ताश बिछा लेते। अकेले ही दोनों तरफ से चालें चल रहे
हैं।
परमात्मा दोनों तरफ से चालें चल रहा है। राम में भी वही है और रावण
में भी वही। और अगर रामायण पढ़कर तुम को यह न दिखाई पड़ा कि रावण में भी वही है तो
तुम चूक गए, रामायण समझ न पाए। अगर यही दिखाई पड़ा कि राम में ही
केवल है तो बस भूल गए, भटके। रावण में भी वही है।
अंधेरा भी उसी का है, रोशनी भी उसी की है। बोलता भी
वही मुझसे है, सुनता भी वही तुममें है। तुम जिसे खोज रहे हो
वह तुम में ही छिपा है। खोजता भी वही है, खोजा जा रहा भी वही
है। जिस दिन जानोगे, जागोगे, उस दिन
हंसोगे।
झेन फकीर बोकोजू परम ज्ञान को उपलब्ध हुआ तो लोगों ने उससे पूछा कि
"परम ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद तुमने पहली बात क्या की'? उसने कहा, "और क्या करते?' एक प्याली चाय की मांगी'। लोगों ने कहा,
"प्याली चाय की! परम ज्ञान और प्याली चाय की'! उसने कहा, "और क्या करते? जब सारा खेल समझ में आया कि अरे, वही खोज रहा है,
वही खोजा जा रहा है। तो और क्या करते? सोचा कि
चलो बहुत हो गया, बड़ी लंबी खोज को गई, एक
प्याली चाय की पी लें। हंसे खूब'!
तुम पूछते हो, "भगवान इस समय और इस जगह पर हमारे और आपके
दर्म्यान क्या करवाता है'?
बड़ा खेल करवाता है। जिस दिन समझ लोगे, उस दिन बड़ी रसधार
बहेगी।
"आप में और हम में फर्क क्या है?'
मेरी तरह से कुछ भी नहीं, तुम्हारी तरफ से बहुत
है। और चेष्टा यही है कि तुम्हारी तरफ से भी न रह जाए। मेरी तरफ से तो तुम वहीं हो
जहां मैं हूं; तुम्हारी तरफ से तुम सोचते हो वहां नहीं हो।
सोचते रहो। वह तुम्हारा सपना है कि वहां नहीं हो--हो तो तुम भी वहीं। हो तो तुम भी
भगवान। भगवत्ता तुम्हारा स्वभाव है। बुद्धत्व तुम्हारी नियति है। तुम उससे भाग
नहीं सकते, बच नहीं सकते। जैसे कमल कमल है, गुलाब गुलाब है--ऐसे तुम बुद्ध हो, बुद्धत्व को
उपलब्ध हो। लेकिन तुम्हें यह खयाल नहीं है--तुम्हें और हजार खयाल चढ़ गए हैं सिर
पर। कोई समझ रहा है, दुकानदार हूं; कोई
समझ रहा है, डाक्टर हूं, कोई समझ रहा
इंजीनियर हूं; कोई समझ रहा है स्त्री हूं, कोई समझ रहा है, पुरुष हूं; कोई
कहता है हिंदू हूं, कोई कहता है, मुसलमान
हूं। तुम न मालूम कितनी और हजार बीमारियों से रुग्ण हो--सिर्फ एक को नहीं देखते जो
तुम हो। तुम भगवान हो! दुकान वगैरह करो--भगवान होते हुए करो। चलने दो, खेल को रोकने की भी कोई जरूरत नहीं है। समझ लो कि खेल है। कुछ छोड़कर भाग
जाने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि भागता तो वही है तो समझता
है कि खेल नहीं है। जो गंभीरता से ले लेता है वही भागता है। इसलिए तो मैं अपने
संन्यासी को कहता हूं, कहीं भागना मत! भागे कि शक। भागे कि
मतलब साफ हो गया कि तुमने गंभीरता से ले ली बात। चलो पत्नी है तो ठीक है, बच्चे हैं तो ठीक हैं--उनमें भी भगवान है। अगर तुम उसी को देखने लगो,
हर तरफ से वही तुम्हें पुकारा है।
पगध्वनि तो सुनता था कब से
पर तुमसे साक्षात न होता
असमंजस में पड़ी सुनहली
सुबह सांवली सांझ हो गई
मेरे हर पल की व्याकुलता
अपने आप प्रणाम हो गई
प्रतिध्वनि तो सुनता था कब से
ध्वनि का उदगम ज्ञात न होता
पगध्वनि तो सुनता था कब से
पर तुमसे साक्षात न होता।
पगध्वनि तो तुमने भी सुनी है, अन्यथा तुम यहां न
आते। प्रतिध्वनि तो तुमने भी सुनी है, अन्यथा तुम्हें कौन
यहां ले आता? वही प्रतिध्वनि ले आई है। लेकिन सीधा-सीधा
साक्षात्कार नहीं हो रहा है। मैं उसकी तरफ मुंह किए खड़ज्ञ हूं; तुम उसकी पीठ किए खड़े हो--इतना ही फासला है।
बड़ा फासला नहीं है। अबाउट टर्न--इतना-सा फासला है। मिलिट्री में लोग
कर लेते हैं। घूम जाओ!
"आप में और हम में फर्क क्या है?'
घूम जाओ!
"और वास्ता क्या है?'
मेरी तरफ से तो कोई भी नहीं, तुम्हारी तरफ से है।
तुम कुछ पाने योग्य हो। वही बाधा बन रही है। तुम कुछ तलाश रहे हो। वही बाधा बन रही
है। मैं तुमसे कह रहा हूं कि तुम जिसे खोज रहे हो, वह मिला
ही हुआ है। खोज के कारण ही तुम उलझन में पड़े हो।
मुल्ला नसरुद्दीन बाजार से जा रहा था--गधे पर बैठा, भागा। बाजार के लोगों ने पूछा, "नसरुद्दीन!
कहां?' मगर उसने कहा, "अभी मत
रोको, अभी मैं जल्दी में हूं'। दोत्तीन
घंटे बाद थका-मांदा वापस लौट रहा था। लोगों न पूछा, "कहां
इतनी तेजी में जा रहे थे?' उसने कहा, "मेरा गधा खो गया था'। लोगों ने कहा, "तूम गधे पर सवार हो'। उसने कहा, "यह तीन घंटे बाद समझ में आया। पहले तो एकदम घबड़ाहट में छलांग लगाकर गधे पर
सवार हो गया, खोज में निकल गया। नासमझो, तुमने क्यों न कहा?' उन्होंने कहा, "हम तो चिल्ला रहे थे, तुम बोले, बहुत जल्दी में हूं।
मैं चिल्ला रहा हूं ; लेकिन तुम कहते हो, बहुत जल्दी में हैं। तुम्हें हंसी आती है नसरुद्दीन पर, लेकिन तुमने कभी खयाल किया: चश्मा लगाकर तुमने कभी चश्मा नहीं खोजा?
तो फिर तुम्हें चश्मा लगाना ही नहीं आया। कान पर कलम खोंसकर तुमने
कभी कलम नहीं खोजी? तो फिर तुम्हें कलम लगाना ही नहीं आया।
तुम अपनी जिंदगी में खुद ही खोज लोगे, अगर तुम गौर करोगे। कई
बार विस्मरण की दशा होती है। चश्मा लगाए होते हो और उसी से खोजते होते हो कि चश्मा
कहां है! जल्दी में यह हो जाता है। ट्रेन पकड़नी है और घड़ी समय बताए दे रही है और
बाहर ड्रायवर हार्न बजा रहा है--घबड़ा गए, अब खोजने लगे,
चश्मा कहां है। स्वभावतः चश्मा आंख के इतने करीब है कि एकदम दिखाई
भी नहीं पड़ता। परमात्मा उससे भी ज्यादा करीब है। करीब कहना ठीक नहीं--आंख के भीतर
है, इसलिए कैसे दिखाई पड़े?
तुम्हारी अड़चन यही है कि तुम कुछ खोज रहे हो। और तुम जब खोजोगे तो
तुम्हें कोई न कोई मिल जाएगा बतानेवाला कि ऐसे खोजो। मैं तुमसे यही कहना चाहता हूं
कि खोज की जरूरत नहीं है--तुम जरा शांत होकर बैठ जाओ, छूट जाने दो ट्रेन, बजाने दो ड्रायवर को हार्न,
तुम जरा शांत होकर बैठ जाओ, आंख बंद कर
लो--तुम अचानक पाओगे: भीतर मौजूद है; उसे कभी खोया ही नहीं।
जो खो जाए वह परमात्मा नहीं।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, परमात्मा खोजना है।
मैं कहता हूं, "बड़ी झंझट की बात है। तुमने खोया कहां?'
वे सिर हिलाते हैं। वे कहते हैं, "खोया!
खोया तो कहीं भी नहीं!' तो फिर किसलिए खोज रहे हो?
मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर के बाहर सड़क पर कुछ खोज रहा था। एक मित्र आ
गया। उसने कहा, "क्या खोजते हो सांझ?' उसने
कहा, "मेरी चाबी गिर गई है'। वह
मित्र भी खोजने लगा। थोड़ी देर बाद उसने कहा कि "कहां गिरी है? रास्ता बड़ा है रात हुई जाती हौ'। उसने कहा,
"यह मत पूछो। गिरी तो घर के भीतर है'।
उसने कहा, "नासमझ! फिर बाहर क्यों खोज रहे हो?' उसने कहा, "यहां रोशनी है। घर में अंधेरा है।
अंधेरे में क्या खाक खोजें? खोजने से भी क्या मिलेगी,
अंधेरे में?'
तुम खोज रहे हो परमात्मा को, क्योंकि भीतर अंधेरा
है और सब रोशनी बाहर है। आंख बाहर खुलती है, हाथ बाहर फैलते
हैं--बस टटोलने लगे। लेकिन जिसको तुम टटोल रहे हो, वह
तुम्हें वहां मिलेगा नहीं, क्योंकि वह तुम्हारे टटोलने में
छिपा है, तुम्हारे भीतर छिपा है।
तो मेरी तरफ से कोई फर्क नहीं है। मेरी तरफ से कोई वास्ता नहीं है।
फर्क और वास्ता तुम्हारी तरफ से है। जिस दिन से भी गिर जाएगा उस दिन न तो मैं मैं
हूं, न तुम तुम हो--मिलन हो गया!
अंबर की आंखों में कोई
सूरज है न सितारा
केवल रजकण भर हैं सारे
यहां-वहां जो छितरे
अंध तिमिर के लिए वही सब
प्रखर विभा बन निखरे
धरती की छाती पर कोई
धारा है न किनारा
अंबर की आंखों में कोई
सूरज है न सितारा
चिर असंग के लिए न कुछ है
मेरा और तुम्हारा
जो अपपने में पूर्ण, उसे कब
कोई भेद सुहाता
यह अपूर्ण के मन की छलना
जोड़ा करती नाता
परमहंस के लिए न कोई
है चंदन अंगारा
अंबर की आंखों में कोई
सूरज है न सितारा।
मेरे लिए तो कोई फर्क नहीं है। मेरे लिए तो कोई भेद नहीं है। तो नाता
तो कैसे होगा? अपने से ही कहीं कोई नाता होता? लेकिन तुम्हारे लिए नाता है, क्योंकि तुम कुछ खोजने
आए हो। तुम्हारी खोज बीच में अड़ंगा बन रही है। मत खोजो! छोड़ दो आकांक्षा! सिर्फ
बैठे रहो मेरे पास। उसी को हमने पुराने दिनों में सत्संग कहा था। सत्संग का अर्थ
है: खोज भी नहीं रहे, बस बैठे हैं पास-पास! जिसको मिल गया है
या जिसने जान लिया कि कभी खोया न था, उसके पास बैठे हैं। बस
बठे हैं। न कोई विचार, न कोई कामना है--अचानक तुम तुम नहीं
रह जाते। एक परदा हट जाता है। एक घूंघट उघड़ जाता है।
गुरु और शिष्य उसी क्षण न तो अलग रह जाते--न गुरु गुरु रह जाता, न शिष्य शिष्य रह जाता। सब फासले मिट जाते हैं। बीच की सब सीमाएं खो जाती
हैं। उस मिलन के क्षण में ही सत्य को हस्तांतरण है।
मुझे सुनकर तुम्हें सत्य न मिलेगा, मुझे पीकर मिलेगा।
पीना बड़ी और बात है। पीना तभी हो सकता है जब तुम बिलकुल खाली बैठे हो। तब तुम एक
रिक्त शून्य हो जाते हो। उस रिक्त शून्य में वर्षा हो सकती है। तुम खाली होओ जो भर
दिए जाओ। तुम पहले से ही भरे हो तो भरना मुश्किल है।
चौथा प्रश्न: आपके पास बैठकर लगातार डेढ़ घंटे तक
आपका प्रवचन सुनते समय मैं भक्त्ति के भाव व रस में इतना डूब जाती हूं कि पता नहीं
मेरे दुख, चिंताएं और परेशानियां कहां खो जाती हैं। एक अपूर्व
शांति का अनुभव छा जाता है। परंतु, प्रवचन के बाद आपका
सान्निध्य छूटते ही थोड़ी देर में पुनः चिंताओं और परेशानियों से घिरने लगती हूं।
जो अनुभव आपके प्रवचन व सान्निध्य में होता है, वह कैसे अधिक
समय तक रहे, यह बताने का अनुग्रह करें!
क्षणभर को भी अगर चिंताएं खो जाती हैं, इच्छाएं विसर्जित हो
जाती हैं, तनाव तिरोहित हो जाता है, तो
कुंजी तुम्हारे हाथ में आ गई। कुछ और अब चाहने को है नहीं।
जो तुमने यहां किया है, वही तुम फिर-फिर करो।
यहां क्या किया है? मुझे शांति से सुना। तुम्हारा ध्यान हट
गया चिंताओं पर, बेचैनियों पर, उलझनों
पर से--ध्यान मेरी तरफ लग गया। ध्यान जिस तरफ जाता है, उसी
तरफ जीवन हो जाता है। फिर घर वापस लौटे, फिर तुम अपना ध्यान,
फिर तुमने अपना प्रकाश चिंताओं पर कुरेदने में लगा दिया, फिर चिंताएं खड़ी हो गईं।
तुम जिस तरफ ध्यान देते हो उसी तरफ तुम्हारा जीवन बहता है। और तुम जिस
पर ध्यान देते हो उसी को तुम भोजन देते हो, शक्ति देते हो,
अगर र्चिताओं पर ध्यान दोगे, चिंताएं बलशाली
हो जाएंगी। ध्यान भोजन है। इसलिए तो हम सब इतने ध्यान के लिए आतुर होते हैं। हम सब
चाहते हैं, लोग हम पर ध्यान दें। कोई तुम पर ध्यान दे तो तुम
लगते हो, जैसे मर गए। घर में आते हो, पत्नी
ध्यान ही नहीं देती। वह अपना बर्तन ही मलती रहती है। तुम गुजर जाते हो। तो ऐसा
लगात है जैसे खत्म हुए। बच्चे खेल रहे हैं, वे खेलते रहते
हैं, तुम गुजर जाते हो कोई ध्यान ही नहीं देता। रास्ते से
निकलते हो, कोई नमस्कार नहीं करता। दस-पांच दिन में तुमको
लगेगा, क्या हुआ, मर गए क्या! कोई
ध्यान ही नहीं दे रहा'!
इसलिए तो ध्यान की इतनी आकांक्षा होती है कि जो भी मिले, सिर झुकाए, "कहो कैसे हो?' चित्त प्रफुल्लित होता है। पत्नी दौड़ी आए, जूते
निकाले, पैर दबाए, चित्त प्रफुल्लित
होता है।
एक आदमी मनोवैज्ञानिक के पास गया था। वह कह रहा था, "मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। पांच साल पहले जब मैंने शादी की थी,
घर आता था तो पत्नी स्लीपर लेकन दौड़ी आती थी और मेरा छोटा-सा कुत्ता
स्वागत में भौंकता था। अब सब उलटा हो गया है। कुत्ता तो स्लीपर लेकर आता है मुंह
में दबाए और पत्नी भौंकती है'। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा,
मेरी समझ में नहीं आता कि उलझन क्या है! सेवाएं तो तुम्हें वहीकी
वही मिल रही हैं।
लेकिन सेवाओं का सवाल नहीं, ध्यान का सवाल है।
छोटा बच्चा भी ध्यान से जीता है। ध्यान ऊर्जा है। अभी मनोवैज्ञानिक इस पर बड़ा
अध्ययन करते हैं कि ध्यान से ज़रूर कुछ गहरी ऊर्जा मिलती है। अगर मां बच्चे पर
ध्यान न दे, वह सिकुड़ने लगता है। इसलिए तो बिना मां का बच्चा,
कितनी ही उसकी हिफाजत करो, कुछ उसमें कमी रह
जाती है, कुछ खोया-खोया हो जाता है। क्योंकि बिना मां के कौन
उसे ध्यान दे? नर्स दूध दे देती है, कंबल
ओढ़ा देती है, कपड़े बदल देती है लेकिन ध्यान नहीं देती। ध्यान
क्यों दे? उसका अपना बेटा घर प्रतीक्षा कर रहा है ध्यान के
लिए तो। सब इंतजाम कर दो बच्चे के लिए, सिर्फ मां का ध्यान न
मिले, वह प्रेमपूर्ण ऊष्मा न मिले, वे
प्रेमपूर्ण आंखें न दिखाई पड़ें कि कोई फिक्र करता है, कोई
मेरे लिए आतुर है, कोई मेरी प्रतीक्षा करता है, मेरे हंसने से किसी के जीवन में फूल खिलते हैं, मेरे
उदास होने से कोई उदास हो जाता है, कहीं मेरा होना किसी
दूसरे के होने पर भी बल रखता है--तो बस बच्चे का प्राण मिलने लगते हैं।
तुमने देखा, छोटा बच्चा गिर जाए तो पहले खड़े होकर देखता है कि मां
आसपास है! हो तो रोता है, न हो तो नहीं रोता। बड़े आश्चर्य की
बात है, गिरने से नहीं रोता; गिरने का
कोई संबंध ही नहीं रोने से। मां हो तो यह मौका नहीं चूकेगा ध्यान का; चिल्लाएगा, रोएगा, मां ध्यान
देगी। मां नहीं है--क्या फायदा! फिजूल लोग खड़े हैं, और हंसी
होगी। वह अपना चुपचाप झाड़कर चल पड़ता है।
मैं एक छोटे बच्चे के साथ एक घर में मेहमान था। मां उसकी बाहर गई थी।
मैं बैठा था, वह खेल रहा था। वह गिर पड़ा। उसने चारों तरफ देखा,
मुझे बैठा देखा, उसने सोचा कि...अजनबी
आदमी...! वह बैठा रहा। आधे घंटे बाद, मज तो भूल ही गया कि कब
गिरा। जब उसकी मां लौटी, वह एकदम से रोने लगा। मैंने पूछा कि
हुआ क्या तेरा, तू बिलकुल ठीक है। वह कहता है, "आधा घंटा पहले गिरा था'।
"तू तब क्यों नहीं रोया, नासमझ?'
उसने कहा, "फायदा क्या है?'
वह याद रखा उसने। अब कोई दर्द भी नहीं हो रहा है, मगर मां ध्यान देगी, पुचकारेगी, पुचकाएगी, हाथ फेरेगी--वह अवसर वह नहीं चुकना चाहता।
ध्यान भोजना है। ध्यान रखना, तुम जिसे ध्यान देते
हो उसे जीवन देते हो। तो गलत को ध्यान मत
दो। यहां सुनते हो मुझे, चित्त प्रफुल्लित हो जाता है,
आनंदित हो जाता है, एक शीतलता छा जाती है।
तुमने ध्यान मेरी तरफ दिया! गए घर, फिर खोदने लगे अपने घाव,
फिर उघाड़ने लगे अपनी मलहमें-पट्टियां, फिर
अंगुलियां डालने लगे अपनी पीड़ाओं में।
क्या जरूरत है?
करो यह--यहां से जाते समय ध्यान रखो कि अब उन्हीं घावों में हाथ नहीं
लगाना है। पुरानी आदत है, हाथ चले जाएंगे, वापस लौटा लो! फिर
तुम्हें अड़चन होगी कि अगर कुछ न करें तो क्या करें! तो ध्यान देने को कुछ और बहुत
घट रहा है चारों तरफ। पक्षियों के गीत हैं। उतना मधुर तो मैं तुमसे बोल भी नहीं
सकता। जो वे तुमसे कह रहे हैं, वह तो मैं कहना चाहता हूं,
कह नहीं पाता। तुम पक्षियों के गीत ही सुनो। चुप बैठकर सारा ध्यान
उन पर लगा दो। इससे भी ज्यादा गहरा सत्संग हो जाएगा। हवाएं वृक्षों को कंपाती हैं।
हवाओं की धुन वृक्षों के पत्तों में बजती है, उसे सुनो।
परमात्मा वहां और भी अकलुषित भाव से प्रगट हुआ है। परमात्मा वहां और भी नैसर्गिक
भाव से प्रगट हुआ है। झरने के पास बैठ जाओ, झरने की आहट सुनो,
नाद सुनो।
तुम कहोगे, "कहां झरने खोजें? कहां से
पक्षी लाएं? कहां वृक्ष...? बीच बाजारा
में रहते हैं'। कोई हर्जा नहीं है। सुनने की कला चाहिए। तो
राह के शोरगुल को सुनो। सिर्फ राह के शोरगुल को सुनो। मत कहो, अच्छा है बुरा है, बस सिर्फ सुनो। कारें दौड़ती हैं,
बसें निकलती हैं, शोरगुल हैं, बच्चे चिल्लाते हैं, कुत्ते भौंकते हैं, बाजार लगा है--चुपचाप सुनो। तुम एक दिन चकित होकर पाओगे कि अगर ध्यान से
सुना तो वहीं ध्यान लग जाएगा। और उस बाजार के कलरव में एक संगीत का जन्म होने
लगेगा। वह बाजार का कलरव भी है तो उसी का, परमात्मा का,
जितना पक्षियों के कंठों की आवाज है। है। कोयल से ही नहीं बोलता,
कौवों से भी वही बोलता है। बाजार भी उसी का बाजारा है। असली बात,
अपने घावों पर ध्यान मत लगाओ, कहीं भी ध्यान
लगाओ। ध्यान को अपने से मुक्त करो, ताकि धीरे-धीरे तुम्हारी
यह सामर्थ्य बन जाए कि यह पुरानी आदत चिंताओं को उघाड़ने की, उखे॰?ने की मिट जाए। जब यह आदत मिट जाएगी तब मैं तुमसे कहूंगा, अब बाहर का भी ध्यान छोड़ो। अब आंख बंद करो, कहीं भी
ध्यान न लगाओ। अब सिर्फ आंख बंद करके खाली बैठे रहो। उस शून्य से तुम्हें परम
संगीत सुनाई पड़ेगा। वही परम सत्संग है। उसी तरफ तुम्हें ले चल रहा हूं। चाबी तो
तुम्हें मिल गई है। अब जरा उस चाबी का उपयोग करो। जरा परमात्मा की याद को सब तरफ
से पकड़ो। अपनी छोड़ो। उसकी गुनो!
दिन वही दिन हैं, शब वही शब है
जो तेरी याद में गुज़र जाएं।
सब तरफ से उसकी याद को उठाओ। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि बैठकर राम-राम, राम-राम जपो। बहुत जप रहे हैं लोग, उससे कुछ नहीं
होता। उससे सिर्फ राम को नींद आने में बाधा पड़ती है। और कई तो माइक लगाकर, लाउड स्पीकर लगाकर राम-राम जप रहे हैं, वे राम को
सोने ही नहीं देते। उस चिल्ल-पों से कुछ भी न होगा। उस शोरगुल से कुछ सार नहीं है।
तुम्हारी बकवास से कुछ न होगा। तुम्हारी शांति से होगा।
और अंतिम बात खयाल रखो कि सब सत्संग अंततः तुम्हें अपने अंतरंग में ले
जाने के लिए है। और सब ध्यान वस्तुतः उपाय है। मंजिल तो यह है कि तुम ऐसी दशा में आ
जाओ जहां ध्यान की भी जरूरत न रहे--बस तुम हो, काफी हो!
न देखा कहीं वह जल्वा जो देखा खान-ए-दिल में
बहुत मस्जिद में सर मारा बहुत-सा ढूंढा बुतखाना।
बहुत मंदिर, बहुत मस्जिद खोजे, मगर जो
महोत्सव, जो सौंदर्य, जो जल्वा खुद के
भीतर हृदय में देखा वह कहीं भी न देखा।
न देखा कहीं वह जल्वा जो देखा खान-ए-दिल में
बहुत मस्जिद में सर मारा बहुत-सा ढूंढ़ा बुतखाना।
आखिरी सवाल: भगवान! आपको जानने से पहले मैं
राधास्वामी संत से प्रभावित था, लेकिन उनसे दिक्षा
नहीं ली, क्योंकि वहां मांस और शराब छोड़ने की शर्त थी। फिर
आपकी किताब पढ़कर कुछ प्रयोग किए और अपने में परिर्वतन पाया। आधा पागल तो लोग मुझे
पहले से ही कहते थे, क्योंकि मैं ज्यादा बोलता था। लेकिन अब
नजदीकी दोस्त भी कहने लगे हैं कि मैं पागलपन की तरफ तेजी से बढ़ रहा हूं। वैसे मेरा
बोलना जरूर बढ़ गया है, लेकिन भीतर मैं बढ़िया अनुभव करता हूं।
अब संन्यास लेने का जी हो रहा है, लेकिन उसमें गैरिक वस्त्र
और माला की शर्त है। क्या केवल माला से ही काम नहीं चल सकता है?
अगर आधा ही पागल रहना हो तो माला से काम चल सकता है। मगर मेरी मानो तो
पूरा पागल बनने का मजा और है। ऐसी भी कंजूसी क्या? और जब पागल ही होने
निकल पड़े...तो आधा! यह एक पांव बाहर, एक पांव भीतर तुम्हें
दुविधा में डाल देगा। यह दो नावों पर सवारी खतरनाक होगी। लोग आधा कहते हैं,
तुम पूरे ही हो जाओ।
और अगर तुम्हें भीतर बढ़िया लग रहा है तो क्या फिक्र करना किसी की? असली सवाल तो भीतर है। तुम्हें भीतर आनंद आ रहा है, छोड़ो
फिक्र। चार दिन की दुनिया है, लोग पागल ही कह लेंगे, क्या हर्जा है? मगर इतना मैं तुमसे कहूंगा, आधे होना ठीक नहीं। क्योंकि मजा हमेशा पूरे का है। आधा तो ऐसा है जैसा
कुनकुना पानी; न पानी रहे ठीक से न भाप बने; त्रिशंकु हो गए, बीच में लटक गए। न घर के न घाट के,
धोबी के गधे हो गए।
नहीं, यह न करो। यह मैं न करने दूंगा। मैं साथ न दूंगा
इसमें। पूरा पागल होना हो तो आ जाओ।
मीरी में फकीरी में शाही में गुलामी में
कुछ काम नहीं बनता बेजुरअते रिंदाना।
पागलपन के बिना कहीं कुछ काम बनता ही नहीं।
मीरी में फकीरी में शाही में गुलामी में
कुछ काम नहीं बनता बेजुरअते रिंदाना।
रिंद की, शराबी की, पागल की मस्ती और
पूरा जोश चाहिए, तो ही कुछ काम बनता है। जो पहुंचे हैं,
वे पूरे-पूरे दौड़े हैं तो ही पहुंचे हैं। ऐसे आधे-आधे, बंधे-बंधे तुम दूर न निकल पओगे घर से। तुम कोल्हू के बैल हो जाओगे।
वहीं-वहीं चक्कर लगाते रहोगे।
पहली बात--
जब हुए बर्बाद ऐ "आबाद' तब पाया पता
बेनिशां हो कर मिला हमको निशाने कूए दोस्त।
उस परम मित्र का पता तो जब सब अपना पता खो जाता है, तभी मिलता है।
दूसरी बात-- कहा है, "राधास्वामी सत्संग से
प्रभावित थे। वहां शर्त थी शराब-मांस छोड़ने की, इसलिए
दीक्षित न हुए'। यहां छोड़ने की कोई शर्त नहीं हा, कुछ लेने की शर्त है। छोड़ने में भी राजी न हुए, लेने
में भी राजी न हुए, तो न राजी होने की कसम खा ली है क्या?
कुछ तो करो।
पिछले प्रश्नोत्तर में नरेंद्र ने अपने पिता के संबंध में प्रश्न पूछा
था। वे एक जैन मुनि के दर्शन को गए थे। वे बड़े प्यारे आदमी हैं। तो जैन मुनि के
पास जब तुम जाओ दर्शन को, तीर्थयात्रा को--वे गिरनार गए थे, वहां जैन मुनि के दर्शन हो गए--तो मुनि ने कहा अब यहां आ ही गए हो तो कुछ
त्याग करो, कुछ छोड़ दो। उन्होंने काह, "महाराज! अब आप कहते हैं तो कुछ करेंगे। लेकिन छोड़ना सधा, न-सधा, पीछे झंझट हो, कुछ ले
लेते हैं'। मुनि ने कहा, चलो ठीक।
उन्हें, क्या पता कि वे क्या हैं, क्योंकि
अब तीर्थ में व्रत ले लिया तो उसको तो पूरा करना ही पड़ेगा। लोग उन्हें पागल समझते
हैं, लेकिन वे आदमी बड़े गजब के हैं।
छोड़ना क्या? परमात्मा कहीं छोड़ने से थोड़े ही मिलता है! बढ़ाओ अपने
को, फैलाओ अपने को! वहां तुमसे कहा, शराब-मांस
छोड़ दो; मैं तुमसे कुछ छोड़ने को कहता नहीं। मैं कहता हूं,
माला, गेरुआ ले लो! यह मैं जानता हूं कि अगर
माला और गेरुआ लिया तो शराब और मांस छूट जाएगा। उसकी छोड़ने की बात मैं नहीं करता।
वह कमजोरों की बात है। क्या छोड़ने की बात करनी! हीरा ले लो, कंकड़-पत्थर
छूट जाएंगे; और रखना हो तो रखे रहना, कंकड़
ही पत्थर हैं, रखे भी रहे तो क्या हर्जा है! मगर ऐसा कभी
देखा नहीं कि हीरा मिल जाए तो कंकड़-पत्थर न छूट जाएं।
और ज्यादा बोलने का पूछा है कि ज्यादा बोलता हूं, इसलिए लोग आधा पागल समझते हैं। और लिखा है कि बोलना और थोड़ा बढ़ता जा रहा
है।
बोलने का अगर ज्यादा ही शौक है तो अण्ट-सण्ट बोलें, अनर्गल बोलें, सधुक्कड़ी बातें बोलें कि खुद की भी
समझ में न आए, क्या कह रहे हैं। लोगों को भी आनंद आएगा,
तुम्हें भी आनंद आएगा। समझदारी की न बोलें। समझदारी रोग है। चलें,
यह कोशिश करके देखें। यहीं से शुरू कर दें। तुम्हें भी मजा आएगा,
लोगों को भी मजा आएगा। और धीरे-धीरे तुम पाओगे कि बोलने को कुछ भी
तो नहीं है, क्या बोले चले जा रहे हो? कहने
को कुछ हो, कहो भी; कहने को है क्या?
ईसाइयों का एक संप्रदाय है, कीमती संप्रदाय है।
उसमें वे देव-वाणी--इसको वे देव-वाणी कहते हैं, अनर्गल! उनके
चर्च में लोग इकट्ठे हो जाते हैं। फिर प्रत्येक व्यक्ति शांत होकर बैठ आता है और
फिर जो भी अनर्गल बोलने लगते हैं। अण्ट-सण्ट आवाजें, शोरगुल,
न कोई भाषा, न कोई तुक, न
कोई व्याकरण, न ऐसी भाषा जिसको कोई समझ सके, कुछ भी बोल रहे हैं। लेकिन पंद्रह-बीस मिनट भी ऐसा बोलने के बाद चित्त को
बड़ी गहरी शांति मिलती है। क्योंकि कूड़ा-कर्कट जो सिर में इकट्ठा हो जाता है,
वह निकल जाता है।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि अगर बोलने में ही मजा आता है तो उसका
मतलब केवल इतना है कि तुम कूड़ा-कर्कट इकट्ठा कर लेते होओगे, उसको तुम दूसरों में उलीच देते हो। निश्चित ही वे तुमसे परेशान होंगे,
इसलिए पागल कहते हैं । उनको परेशान मत करो। एकांत में बैठकर बोलो,
हर्जा क्या है? झाड़, पत्थर,
चट्टान--कहीं भी मिल बैठे दीवाने दो, हो जाने
दी चर्चा, चट्टान से बोल लो, हर्जा
नहीं है। फिर चट्टान से बोलो कि हिंदी बोलो कि अंग्रेजी, कि
मराठी कि पंजाबी, क्य फर्क पड़ता है। चट्टान सभी भाषाएं समझती
है। तुम सभी मिलाकर बोलो तो भी चलेगा। झाड़ से बोल लिए, नदी
से बोल आए, आकाश पड़ा है। और इनमें से कोई तुम्हें पागल न
कहेगा। वे सब प्रसन्न होंगे और तुम्हें आशीर्वाद देंगे। आदमियों को न सताओ! आदमी
वैसे ही परेशान हैं। सुन लेते होंगे, क्योंकि मजबूरीी है।
और तुम कहते हो कि अब तो पास के, निकट के दोस्त भी
घबड़ाने लगे हैं! अखिर सीमा होती है। निकट के हैं, सुनना पड़ता
है। लोग ऊबते रहते हैं और सुनते रहते हैं। मत सताओ उनको यह हिंसा है। तुम्हें
अच्छा लगता है--एकांत में चले गए, अनर्गल बोले! उससे ध्यान
उपलब्ध होगा। अगर एक तीस-चालिस मिनट तुमने अनर्गल बोल लिया, दिल
खोलकर चिल्ला लिया, तुम एकदम हलके हो जाओगे, फूल-से हलके हो जाओगे। और तब तुम में एक क्षमता आ जाएगी कि तुम दूसरों से
व्यर्थ न बोलोगे; सार्थक कुछ होगा तो ठीक है। तब तुम्हें
दिखाई पड़ेगा कि दूसरे पागल की तरह बके जा रहे हैं; कोई जरूरत
नहीं है बकने की, लेकिन बके जो रहे हैं। तब तुम उनको भी
धीरे-धीरे यही रास्ता सुझा देना; जो मैंने तुम्हें सुझाया,
उनको तुम सुझा देना कि जंगल में एकांत में चले गए, वहां दिल खोलकर बोल लिए।
आधे पागल मत रहो। खूब समय गुजार दिया आधे में, अब जरा पूरे हो जाओ। और जिस दिन तुम पूरे हो जाओगे, उस
दिन तुम पाओगे--
जब जखुद रफ्तगी से आंख खुली
सामने ही खड़े थे मंजिल के।
जब पूरे तल्लीन हो जाओगे पागलपन में, और उससे डूबकर बाहर
आओगे और आंख खुलेगी--शांति में, मौन में, शून्य में--तुम पाओगे: मंजिल के सामने ही खड़े हैं।
मंदिर के सामने ही हर एक व्यक्ति खड़ा है। कहीं और कोई जगह ही नहीं है
जहां तुम खड़े हो जाओ। मंदिर की सीढ़ियों पर ही हर एक खड़ा है।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें