अंतर्दृष्टि की पतवार-पहला प्रवचन
अगर हम खाली आकाश को भी थोड़ी देर तक बैठ कर
देखते रहें,
तो खाली आकाश आपको खाली कर देगा। अगर आप फूलों के पास बैठ कर फूलों
को थोड़ी देर देखते रहें, तो थोड़ी देर में फूलों की गंध और फूलों की
बास आपके भीतर भर जाएगी। और अगर आप सूरज को थोड़ी देर तक बैठ कर देखते रहें, तो
आप पाएंगे,
सूरज का प्रकाश आपके भीतर भी प्रविष्ट हो गया है। और अगर आप सागर
की लहरों के पास बैठ कर उन्हें बहुत देर तक अनुभव करते रहें, तो
आप पाएंगे,
सागर आपके भीतर लहरें लेने लगा है।
ऐसे ही जब कोई परम पुरुषों की स्मृति में
डूबता है,
ऐसे ही जब कोई परम पावन प्रतीक पुरुषों के स्मरण से भरता है, तो
उसके भीतर कुछ परिवर्तित होने लगता है, कुछ बदलने लगता
है, कुछ
नई बात का उसके भीतर प्रारंभ हो जाता है। तो मैं इस आशा में महावीर पर थोड़ी सी
चर्चा करूंगा कि इस थोड़ी सी देर के सान्निध्य में, इस
थोड़ी सी देर के उनके स्मरण में, आपके भीतर कोई परिवर्तन प्रभावित हो, आपके
भीतर कोई आंदोलन उठे, आपके भीतर कोई आकांक्षा सजग हो जाए, आपके
भीतर कोई बीज अंकुरित होने लगे और आपके भीतर नए जीवन को, वास्तविक
जीवन को पाने की आकांक्षा उत्पन्न हो जाए।
यह हो सकता है। यह प्रत्येक मनुष्य के लिए
संभव है। प्रत्येक मनुष्य अपने भीतर उन्हीं संभावनाओं को लिए हुए है, जो
महावीर में हम परिपूर्णता पर पहुंचा हुआ अनुभव करते हैं। जो महावीर के लिए विकसित
हो गया है,
वह हमारे भीतर बीज की भांति मौजूद है।
इसलिए कोई अपने दुर्भाग्य को न कोसे और कोई
यह न समझे कि हम असमर्थ हैं उतनी ऊंचाइयों में उठने में। और कोई यह न सोचे कि
हमारा काम एक है कि हम महावीर की पूजा करें। महावीर की पूजा करना किसी का भी काम
नहीं है। काम तो यह है कि हर एक महावीर बनने की तरफ विकसित हो। और महावीर की पूजा
भी अगर सार्थक है तो इसी अर्थों में कि हम क्रमशः उस पूजा के माध्यम से भी महावीर
की तरफ,
महावीर की भांति ऊंचे उठने में समर्थ हो जाएं।
इसे स्मरण रखें, कोई
मनुष्य केवल पूजा करने को पैदा नहीं हुआ है। और अगर कोई मनुष्य केवल पूजा करने को
पैदा हो,
तो इससे बड़ा मनुष्य का अपमान क्या होगा? हर
मनुष्य महावीर बनने को पैदा हुआ है। कोई मनुष्य केवल पूजा करने को पैदा नहीं हुआ।
हर मनुष्य इसलिए पैदा हुआ है कि जो एक के जीवन में विकसित हो सका है, वह
प्रत्येक के जीवन में विकसित हो जाए।
तो मैं तो ऐसे ही देखता हूं, यहां
इतने लोग इकट्ठे हैं, ये सब कभी न कभी महावीर हो जाएंगे। मैं ऐसे
ही देखता हूं कि जितने लोग जमीन पर हैं, वे कभी न कभी सब
महावीर हो जाएंगे। अगर उनमें से एक भी महावीर बनने से चूक गया--यह कैसे संभव हो
सकता है?
अनंत काल लग सकते हैं, अनंत समय लग सकता
है, लेकिन
यह असंभव है कि हममें से कोई भी महावीर बनने से चूक जाए। यह असंभव है कि जो बीज
हमारे भीतर है परमात्मा का, वह एक दिन तक परमात्मा न हो जाए। वह एक दिन
परमात्मा होगा।
यह हो सकता है कि महावीर में और आपके महावीर
बनने में हजारों वर्ष का फासला हो जाए। यह हो सकता है कि महावीर के महावीर बनने
में और आपके महावीर बनने में अनंत जन्मों का फासला हो जाए। लेकिन इससे कोई बहुत
अंतर नहीं पड़ता है। इससे कोई बहुत भेद नहीं पड़ता है। अनंत यह काल है, इसमें
हजारों वर्षों से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। अनंत यह काल है, इसमें
अनंत जन्मों से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है।
तो महावीर का स्मरण मुझे इसलिए आनंद से भर
देता है कि वह हमारे भीतर जो महावीर की संभावना है, उसका
स्मरण है। महावीर का विचार करना इसीलिए सार्थक है, उपयोगी
है कि उसके माध्यम से हम उस संभावना के प्रति सजग होंगे, जो
हमारे भीतर सोई हुई है और कभी जाग सकती है। अगर आपके भीतर उनका विचार उनके जैसे
बनने का भाव पैदा न करता हो, तो उनका विचार व्यर्थ हो जाता है। तो आज की
सुबह मैं आपको यह कहना चाहूंगा, महावीर की पूजा ही न करें, महावीर
बनने की आकांक्षा के बीज अपने भीतर बोएं और यह संकल्प अपने भीतर पैदा करें कि मैं
उन जैसा बन सकूं। और इसमें, इस आकांक्षा में, इस
संकल्प में जो भी सहयोगी हो, जो भी उसकी भूमिका बनाने में समर्थ हो, उस
भूमिका को,
उस आचरण को, उस विचार को, उस
जीवन-चर्या को अंगीकार करें।
मैं ऐसा ही देखता हूं, दुनिया
में दो तरह के महापुरुष हुए हैं। एक महापुरुष वे हैं, जिन्होंने
बहुत बड?-बड़े
विचार दिए हैं। दूसरे महापुरुष वे हैं, जिन्होंने बहुत
बड़ा आचरण दिया है,
बहुत बड़ी चर्या दी है। महावीर पहले तरह के महापुरुष नहीं हैं।
महावीर दूसरे तरह के महापुरुष हैं, जिन्होंने एक
बहुत महान चर्या दी है। एक बहुत बड़ा आचरण दिया है, एक
जीवन दिया है। निश्चित ही, बड़े विचार देना उतना मूल्य का नहीं है, जितना
बड़ा जीवन देना है। निश्चय ही, बहुत बड़े चिंतन को जन्म दे देना उतना मूल्य
का नहीं है,
जितना महान चर्या को जन्म दे देना है। विचार तो स्वप्न की भांति
हैं। विचार का कोई मूल्य नहीं है, वे तो पानी पर खींची गई रेखाओं के समान हैं।
चर्या का मूल्य है। चर्या पत्थर पर खींची गई रेखा है। महावीर का, जो
हमारे स्मरण से विलीन नहीं होते हैं वे, उसका कारण है।
हमारे हृदयों पर उनकी चर्या ने एक लकीर खींच दी है--उनके आचरण ने, उनके
जीवन ने।
महावीर को विचारक न कहें। महावीर विचारक
नहीं हैं। महावीर एक साधक और सिद्ध हैं। साधक और विचारक में यही अंतर है। विचारक
सोचता है,
सत्य क्या है? साधक जीता है।
विचारक सत्य के संबंध में सोचता है, साधक
सत्य को जीता है।
हमने अपने इस देश में विचारकों की बहुत कीमत
नहीं मानी। बहुत बड़े-बड़े विचारक हुए हैं, जिन्होंने बड़ी
दूर की बातें कही हैं--सृष्टि की, सृष्टि के बनने की, परमात्मा
की, स्वर्ग
की, नरक
की, बड़ी-बड़ी
विचार की बातें कही हैं। महावीर इन विचारकों में से नहीं हैं। महावीर बहुत सुदृढ़
भूमि पर खड़े हुए हैं। वे अपनी सारी चर्या को बदल रहे हैं। और यहां इस बात को भी
मैं आपसे कह दूं,
जो व्यक्ति मात्र विचार करता है, वह
सत्य के संबंध में विचार करता है। और जो व्यक्ति जीवन में सत्य को उतारता है और
आचरण करता है,
वह सत्य के संबंध में विचार नहीं करता, वह
आनंद के संबंध में साधना करता है।
महावीर सत्य के खोजी नहीं हैं, महावीर
आनंद के खोजी हैं।
सत्य का खोजी एक दार्शनिक होता है, एक
तत्व-चिंतक होता है। आनंद का खोजी एक योगी होता है। महावीर आनंद की खोज कर रहे
हैं। और इसलिए यह हो सकता है कि कोई विचार कभी गलत हो जाए, यह
कभी नहीं हो सकता कि आनंद गलत हो जाए।
इस जमीन पर विचार की दृष्टि से हम
भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, आपका विचार दूसरा हो सकता है, मेरा
विचार दूसरा हो सकता है। लेकिन आनंद की तलाश में हम भिन्न-भिन्न नहीं हो सकते। सब
की तलाश आनंद की है।
इसलिए महावीर का धर्म सार्वजनीन, सार्वलौकिक
धर्म है। इस जगत में जो भी आनंद को खोजना चाहेगा, उसे
महावीर के सिवाय कोई रास्ता नहीं है।
महावीर अगर विचारक होते तो कुछ थोड़े से
लोगों के मतलब की उनकी बात होती, जो उनके विचार से सहमत होते। जो उनके विचार
के विरोध में होते, उनके लिए कोई मतलब न रह जाता। इसलिए
विचारकों के पंथ होते हैं, योगियों का कोई पंथ नहीं होता। विचारकों के
संप्रदाय होते हैं, आनंद के खोजियों के कोई संप्रदाय नहीं होते।
क्योंकि आनंद के लिए तो सारा जगत खोज कर रहा है। उस संबंध में कोई मतभेद नहीं है।
एक छोटे से कीटाणु से लेकर मनुष्य तक सभी आनंद की तलाश कर रहे हैं। आनंद के संबंध
में दो मत नहीं हैं, कोई विरोध नहीं है। इसलिए विचार ऊपरी बात है, आनंद
की खोज बहुत गहरी बात है।
अगर मैं आपसे यह कहूं कि आपके सामने दो
विकल्प हैं--क्या आप परिपूर्ण आनंद उपलब्ध करना चाहते हैं या कि परिपूर्ण विचार
उपलब्ध करना चाहते हैं? अगर आपके सामने दो विकल्प हों, अगर
आपके सामने दो विकल्प खड़े हो जाएं कि क्या आप जानना चाहते हैं कि जगत-सत्य क्या है? या
कि आप होना चाहते हैं कि परिपूर्ण आनंद क्या है? तो
मैं नहीं समझता कि आपके हृदय सत्य को जानने की गवाही देंगे। आपके हृदय कहेंगे, हम
पूर्ण आनंद को उपलब्ध होना चाहते हैं।
सत्य को भी इसीलिए खोजा जाता है कि पूर्ण
आनंद की तलाश में वह सहयोगी हो जाए। सत्य का अपने में क्या मूल्य है? सत्य
का अपने में कोई मूल्य नहीं है सिवाय इसके कि सत्य की उपलब्धि से हम सोचते हैं कि
पूर्ण आनंद के आधार रखे जा सकेंगे।
सत्य भी आनंद की तलाश का साधन मात्र है।
इसलिए महावीर के संबंध में पहली बात जो मुझे
आज कहने का मन है,
वह यह है कि उन्हें सत्य के खोजी की तरह न देखें, उन्हें
आनंद के खोजी की तरह देखें। वे आनंद की खोज करने वाले साधक हैं। और इसीलिए उनकी
सारी चर्या,
उनका सारा विचार, उनका सारा जीवन मोक्ष पर केंद्रित है। आनंद
और मोक्ष एक ही चीज के दो नाम हैं।
दुख क्या है?
दुख सीमा है, दुख
परतंत्रता है,
दुख बंधन है।
और आनंद?
आनंद स्वतंत्रता होगी, बंधन-मुक्ति
होगी, सीमाओं
का टूट जाना होगा। परिपूर्ण आनंद ही परिपूर्ण मुक्ति की अवस्था होगी। मोक्ष में और
पूर्ण आनंद में कोई भेद नहीं होगा। जो पूर्ण आनंद को उपलब्ध है, वह
मुक्त होगा। जो मुक्त है, वह पूर्ण आनंद को उपलब्ध होगा।
इसलिए पश्चिम के मुल्क के विचारक सोचते हैं, सत्य
क्या है?
भारत के साधक सोचते हैं, मुक्ति क्या है? मोक्ष
क्या है?
मोक्ष का उपाय क्या है? दर्शन और धर्म
में यहीं भेद है। दार्शनिक सोचता है, सत्य क्या है? धार्मिक
सोचता है,
मोक्ष क्या है?
अगर आप पश्चिम के विचारकों को पढ़ेंगे तो आप
पाएंगे,
मोक्ष का कोई विचार ही नहीं करते हैं, मोक्ष
का कोई खयाल नहीं करते। उनके ग्रंथों में मोक्ष के संबंध में कोई चर्चा नहीं मिलेगी।
और अगर आप भारत के ग्रंथों को खोजेंगे और देखेंगे तो पाएंगे कि सिवाय मोक्ष के हम
कुछ भी नहीं खोज रहे हैं।
बुद्ध एक गांव से निकलते थे, और
एक व्यक्ति वहां गिर पड़ा था। जंगल में वह जाता था और किसी का तीर उसे लग गया।
बुद्ध उसके करीब से निकले और उन्होंने उस आदमी को कहा, इस
तीर को निकाल लेने दें। उस व्यक्ति ने कहा, पहले मुझे यह
बताएं,
तीर किसने मारा है? पहले मुझे यह
बताएं कि यह तीर विष-बुझा था या गैर-विष का था? पहले मुझे यह
बताएं कि मारने वाला मित्र था, कि शत्रु था, कि
अनजान में उसने मार दिया?
बुद्ध ने कहा, ये
बातें बाद में पूछ लेना। पहले तीर को निकाल लेने दो। कहीं ऐसा न हो कि हम बातें
करते रहें और तुम्हारे प्राण समाप्त हो जाएं! बुद्ध ने कहा, तीर
को पहले निकाल लेने दो, फिर बाद में हम विचार कर लेंगे कि तीर किसने
मारा। कहीं ऐसा न हो कि हम विचार करते रहें और तुम्हारे प्राण समाप्त हो जाएं!
महावीर, बुद्ध, कृष्ण
या क्राइस्ट यही कह रहे हैं; हमारे हृदय में जो तीर लगा है दुख का, उसे
हम पहले निकाल लें, फिर बाद में हम सत्य के संबंध में विचार
करते रहेंगे। कहीं ऐसा न हो कि हम सत्य के संबंध में विचार करते रहें और प्राण
समाप्त हो जाएं! इसलिए भारत की पूरी खोज सत्य के लिए नहीं है, मोक्ष
के लिए है। भारत की खोज तीर किसने मारा है, इसको जानने के
लिए नहीं है;
भारत की खोज इसके लिए है कि तीर कैसे निकल जाए।
तो महावीर को आनंद की खोज, मोक्ष
की खोज केंद्रीय है। सत्य क्या है, इसकी खोज केंद्रीय
नहीं है,
गौण है। जो लोग उन्हें एक तत्व-चिंतक की भांति ले लेंगे, वे
भूल में पड़ जाएंगे। और हमने महावीर को तत्व-चिंतक की भांति ले लिया है। वह हमने
भूल कर ली है। यह बात प्राथमिक रूप से आपसे कहूं। और इसलिए यह बात कहना चाहता हूं, ताकि
आपको समझ में आ सके कि महावीर का कोई संप्रदाय नहीं हो सकता है। कोई समाज नहीं हो
सकता, कोई
पंथ नहीं हो सकता। जो भी आनंद को खोजता है, वह सब महावीर के
संप्रदाय में है;
सब महावीर के पंथ में है।
अभी मैं एक जगह था। किसी ने मुझसे कहा--एक
जैन साधु ने मुझसे कहा--कि जैन धर्म के अतिरिक्त, जैन
होने के सिवाय मोक्ष होने का कोई रास्ता नहीं है। मैंने उनसे कहा, ऐसा
मत कहें। मैंने उनसे कहा, ऐसा मत कहें कि जैन धर्म के अतिरिक्त मोक्ष
जाने का कोई रास्ता नहीं है। बल्कि ऐसा कहें कि जो भी कहीं से भी मोक्ष चला जाए, वह
जैन है। मैंने उनसे कहा, ऐसा कहें, जो
कहीं भी मोक्ष चला जाए, वह जैन है। यह मत कहें कि जो जैन है, वही
मोक्ष जा सकता है। यह कहें कि जो भी मोक्ष चला जाता है, वह
जैन है।
और अगर दूसरी बात मेरी आपको ठीक लगे तो इस
जमीन पर जितने लोग मोक्ष को उपलब्ध हुए हों, वे सब महावीर के
पंथ में हैं,
महावीर के साथ हैं। और तब महावीर एक विराट पुरुष की तरह दिखाई
पड़ेंगे,
एक सीमित दायरे के भीतर बंधे हुए नहीं।
एक ही मेरी आकांक्षा है कि महावीर जैनियों
से मुक्त हो सकें,
ताकि उनका संदेश, और उनका खयाल, और
उनकी जीवन-चर्या सबके काम में आ सके। जिन कुओं पर किन्हीं का कब्जा हो जाता है, उनका
जल सबके पीने के मतलब का नहीं रह जाता। और जिन कुओं पर किन्हीं का कब्जा हो जाता
है, उन
कुओं का पानी सबकी प्यास को बुझा नहीं पाता। कुओं को तोड़ दें और दीवालों को हटा
लें और महावीर को बांधें नहीं, तो आप हैरान हो जाएंगे कि उनकी जो
अंतर्दृष्टि है,
वह सारे मनुष्य के स्वास्थ्य का मूल चिकित्सा बन सकती है। महावीर
की जो अंतर्दृष्टि है, बहुत गहरी, बहुत
पैनी है। और मनुष्य के जो भी रोग हैं, उनको दूर करने
में समर्थ है। उस पैनी अंतर्दृष्टि के क्या बुनियादी आधार हैं, वह
मैं आपसे कहूं।
महावीर की जो अंतर्दृष्टि है मनुष्य की
समस्त रुग्णता के भीतर, मनुष्य की समस्त विक्षिप्तता के भीतर, मनुष्य
के सारे जितने भी जीवन के दुख, पीड़ाएं, संताप हैं, उनके
भीतर महावीर की जो अंतर्दृष्टि है, वह एक बात पर खड़ी
हुई है। और वह बात यह है कि हम जिन्हें दुख मानते हैं, जिन्हें
पीड़ाएं मानते हैं,
जिन्हें कष्ट मानते हैं, उन्हें दूर करने
का उपाय करते हैं। हर मनुष्य अपने कष्ट को, अपनी पीड़ा को, अपने
दुख को दूर करने का उपाय कर रहा है। हर मनुष्य कर रहा है--चाहे वह धन खोजता हो, यश
खोजता हो,
पद खोजता हो, प्रतिष्ठा खोजता हो--वह अपने दुख को दूर
करने का उपाय कर रहा है। महावीर की अंतर्दृष्टि यह है कि जो दुख को दूर करने का
उपाय कर रहा है बिना यह जाने कि दुख क्या है, नासमझ है, वह
दुख को कभी दूर नहीं कर पाएगा। जो दुख को दूर करने का उपाय कर रहा है बिना यह समझे
कि दुख क्या है और किसे है, वह नासमझ है और दुख को कभी दूर नहीं कर
पाएगा। एक दुख को दूर करेगा, दूसरा दुख घेर लेगा, क्योंकि
मूल कारण मौजूद रहेगा। मेरे पैर में दर्द हो, मैं उसको दूर
करूंगा,
पैर ठीक हो जाएगा। फिर कल मेरे सिर में दर्द होगा, उसे
दूर करूंगा और सिर ठीक हो जाएगा। दुख तो दूर होते जाएंगे, लेकिन
दुख दूर नहीं होगा, दुख पीछे लगा रहेगा। एक दुख दूर होगा, दूसरे
दुख मौजूद होंगे,
क्योंकि मूल कारण विलीन नहीं होगा।
महावीर यह कहते हैं कि अगर मनुष्य के मूल
दुख को हम समझें और दूर करना चाहें तो एक-एक दुख को दूर करने की जरूरत नहीं है, यह
बात जानने की जरूरत है कि दुख क्या है और किसे है। जब मेरे पैर में दर्द हो रहा हो
या मेरे सिर में दर्द हो रहा हो, तब मुझे यह जानने की जरूरत है कि दुख और
पीड़ा क्या है और दुख और पीड़ा किसे हो रही है। अगर मुझे यह दिखाई पड़ सके--जो दुख को, पीड़ा
को, संताप
को...।
मनुष्य के जीवन में दुख हैं, बहुत
दुख हैं। एक दुख को हम दूर करते हैं, दूसरा दुख घेर
लेता है;
दूसरे को दूर करते हैं, तीसरा घेर लेता
है। जो दुख को दूर करने में इस भांति लगा है, वह गृहस्थ है--जो
एक-एक दुख को दूर करने में लगा है। जो समस्त दुखों के मूल कारण को दूर करने में
लगा है,
वह संन्यासी है। जो फुटकर बीमारियों को दूर करने में लगा है, वह
गृहस्थ है। जो बीमारी मात्र को दूर करने में लगा है, वह
संन्यासी है।
महावीर की जो अंतर्दृष्टि है मनुष्य की
रुग्णता में और दुख में और पीड़ा में, वह यह है कि हमें
यह जानना जरूरी है कि जब हमें दुख होता है, तो हमें दुख होता
है या हमें दुख होने का भ्रम होता है? क्या मुझे दुख
होता है या मेरे आस-पास दुख होता है और मैं समझ लेता हूं कि मुझे दुख हो रहा है?
सिकंदर जब भारत से वापस लौटता था, तो
उसने चाहा एक साधु को वह अपने साथ यूनान ले जाए। जब वह यूनान से आता था, उसके
मित्रों ने कहा था, भारत से कुछ चीजें लाना, एक
साधु भी ले आना। साधुओं की चर्चा रही है भारत के बाहर--भारत के साधुओं की। और
सिकंदर भारत को जीत कर लौटेगा तो उसके मित्रों ने कहा था, और
सब चीजें लाओ,
एक साधु भी लाना। साधु देखना चाहेंगे।
सिकंदर जब लौटने लगा तो उसने--भारत की सीमा
के पास उसे खयाल आया--उसने कहा, हम किसी साधु को ले जाना चाहते हैं। उसने
किसी विचारशील व्यक्ति से सलाह ली। उस विचारशील व्यक्ति ने कहा, जो
चला जाए वह साधु नहीं होगा; और जो साधु है उसका जाना मुश्किल है। सिकंदर
ने कहा,
क्या बात करते हैं! जिसके सामने पहाड़ हट जाएं और जो पहाड़ों को भी
बांध कर यूनान ले जाना चाहे, तो ले जाए। जो चाहे तो पूरे मुल्क को यूनान
पहुंचा दे। एक साधु नहीं जा सकेगा! तो सिकंदर की तलवार किस काम आएगी? उस
विचारशील आदमी ने कहा, जिसके सामने तलवार बेकार हो, वही
तो साधु है। जो तलवार के भय से चला जाए, समझना कि उसे
बेकार ले आए हो,
वह सामान्य आदमी है, वह साधु नहीं है।
फिर भी कोशिश कर लें।
सिकंदर बहुत हैरान हुआ और बहुत उत्सुक हो
गया। उसने डेरा रोक दिया और उसने कहा, एक साधु को खोज
कर ही जाएंगे। यह सच में ही अजीब चीज है, अगर साधु ऐसा
आदमी है। एक साधु की खबर लगी, वह वहीं नदी के किनारे, पहाड़
की तलहटी में,
एक घाटी के पास रहता था। सिकंदर ने अपने सेनापति वहां भेजे। उन
सेनापतियों ने जाकर कहा कि महान सिकंदर की आज्ञा है कि आप हमारे साथ चलें! बहुत
सम्मान हम आपको देंगे, बहुत इज्जत देंगे, यूनान
आपको ले चलना चाहते हैं। उस साधु ने कहा, अपने सिकंदर को
कहना कि जिसने सिवाय अपने और सबकी आज्ञाएं माननी छोड़ दी हैं, जिसने
सिवाय अपने और सबकी आज्ञाएं माननी छोड़ दी हैं, वही साधु है।
सिकंदर को कहना,
हम सिवाय अपनी आज्ञा के और किसी की आज्ञा से नहीं चलते। उसके
सेनापतियों ने कहा, यह आप भूल कर रहे हैं। सिकंदर ने यह भी
संदेश कहलवाया है कि यह भी कह देना कि अगर इनकार हुआ तो हम तलवार के बल भी ले जा
सकते हैं। उस साधु ने कहा, अपने सिकंदर को कहना कि जिसे तुम तलवार के
बल ले जा सकते हो,
उसे बहुत समय हुआ हम छोड़ चुके हैं। जिसे तुम तलवार के बल ले जा
सकते हो,
बहुत समय हुआ हम उसे छोड़ चुके हैं।
सिकंदर खुद गया, और
वह नंगी तलवार लेकर गया। वह जब नंगी तलवार लेकर गया तो साधु ने कहा, तलवार
म्यान के भीतर कर लो। क्योंकि सामने जो है, उसके लिए तलवार
बेकार है,
और तुम बहुत बच्चे मालूम पड़ रहे हो नंगी तलवार हाथ में लिए हुए! और
तुम पर बहुत हंसी आएगी हमको, इसलिए तलवार म्यान के भीतर कर लो। सिकंदर ने
कहा, आपको
चलना है! अन्यथा हम आपको समाप्त कर देंगे। उस साधु ने कहा, जिसे
तुम समाप्त करोगे,
उसे हम भी समाप्त होते हुए देखेंगे। उस साधु ने कहा, जिसे
तुम समाप्त करोगे,
उसे हम भी समाप्त होते हुए देखेंगे। हम भी साक्षी होंगे। समाप्त
तुम करो। उसने कहा, जब तुम मुझे काटोगे तो जिस भांति तुम मुझे
देखोगे कटता हुआ,
उसी भांति मैं भी कटते हुए देखूंगा। क्योंकि जिसको तुम काटोगे, वह
मैं नहीं हूं। मैं अलग हूं, मैं पीछे हूं।
जिस पर चोट पड़ती है, हमारा
होना उसके पीछे है। जिसको पीड़ा और दुख आता है, हमारा होना उसके
पीछे है। जिस शरीर के पीछे हम सारे दुख और पीड़ाओं को दूर करने में लगे रहते हैं, वह
शरीर हम नहीं हैं। एक-एक दुख को जो दूर करेगा, वह शरीर से बंधा
रहेगा। जो सारे दुखों के मूल में झांकेगा, वह पाएगा, हम
शरीर से अलग हैं।
महावीर कहते हैं, समस्त
दुख का मूल क्या है? दुख का मूल है तादात्म्य, यह
आइडेंटिटी कि मैं शरीर हूं। सारे दुख का मूल यह है कि मैं शरीर हूं। और सारे आनंद
का मूल यह बनेगा कि मैं जान लूं कि मैं शरीर नहीं हूं।
जब तक मैं जानता हूं कि मैं शरीर हूं, तब
तक मैं संसार में हूं।
और जिस क्षण मैं जान लूंगा कि मैं शरीर नहीं
हूं, मेरा
मोक्ष में प्रवेश हो जाएगा।
मोक्ष का अर्थ है यह बोध कि मैं शरीर नहीं
हूं।
और संसार का अर्थ है यह बोध कि मैं शरीर
हूं।
तो अगर आपको यह लगता हो कि मैं शरीर हूं, तो
चाहे आप साधु हों और चाहे आप गृहस्थ हों, आप संसार में
हैं। और अगर आपको लगता हो कि मैं शरीर नहीं हूं, तो
चाहे आप साधु हों,
चाहे आप गृहस्थ हों, आप संसार में
नहीं हैं।
मैं एक साध्वी से मिलता था। हवा जोर से चलती
थी और मेरा कपड़ा उनको छूता था। वह बहुत घबड़ा गईं। कोई मित्र मेरे पास थे, उन्होंने
मुझे रोका और कहा कि पुरुष का कपड़ा उनको छू रहा है। मैंने कहा, हैरानी
हो गई। कपड़ा भी पुरुष हो सकता है! और अगर कपड़ा पुरुष हो सकता है, तो
पुरुष छू लेगा तो क्या हालत होगी?
जिनको कपड़ा पुरुष हो सकता है, वे
जानते होंगे कि वे शरीर हैं। उनकी तो हद शारीरिक दृष्टि है। ये सब भौतिकवादी लोग
हैं, ये
सब मैटीरियलिस्ट हैं। ये अध्यात्मवादी नहीं हैं। जिनको मेरा कपड़ा छू रहा है और जो
घबड़ाए हुए हैं कि पुरुष का कपड़ा छू रहा है, इनसे ज्यादा
भौतिकवादी,
इनसे ज्यादा देहवादी और कौन होगा?
एक साधु वह है, जो
कहता है तुम तलवारें मेरे भीतर डालो तो हम खड़े होकर देखेंगे! उसे शरीर भी स्वयं का
हिस्सा नहीं है। इन्हें कपड़ा भी स्वयं का हिस्सा है! तो दुनिया में ऐसे गृहस्थ हैं, जो
आध्यात्मिक हो सकते हैं; और ऐसे साधु हैं, जो
एकदम भौतिकवादी,
एकदम शरीरवादी होते हैं।
महावीर की अंतर्दृष्टि यह है कि आपकी चेतना
आपके शरीर से मुक्त हो जाए। लेकिन उनके पीछे चलने वाले लाखों साधु शरीर से इतने
ज्यादा बंधे हुए हैं कि वे शरीर से मुक्त कैसे होंगे? महावीर
की दृष्टि यह है कि आपकी अंतस-चेतना में यह पता चल जाए कि देह बाहर की खोल है, वस्त्र
की भांति है,
जिसे हमने पहना है; जिसे हमने पहना
है, और
हम चाहें तो उसी क्षण उतार सकते हैं। हमारी वासनाओं को जरूरत है कि हम उसे पहनें।
जिस दिन हमारी वासनाएं क्षीण हो जाएंगी, हमें कोई जरूरत न
होगी कि हम उसे पहनें।
शरीर वस्त्र की भांति है, जो
हम अपनी वासनाओं की तृप्ति के लिए पहनते हैं। बार-बार पहनते हैं, बार-बार
छोड़ देते हैं। लेकिन जो पहनता है इस शरीर को, वह शरीर से अलग
है। जो जन्म के समय इस शरीर में प्रविष्ट होता है, वह
शरीर से अलग है। और जो मृत्यु के समय इस शरीर को छोड़ता है, वह
शरीर से अलग है। और जो जीवन भर इस शरीर में रहता है, वह
शरीर से अलग है।
जिस दिन ऐसा बोध होने लगे कि मैं जिस घर में
रह रहा हूं,
वह घर मैं ही हूं, उस आदमी के दुख का क्या हिसाब होगा! जब
छप्पर उसका टूटेगा, वह चिल्लाने लगेगा कि मैं टूटा। जब उसके
मकान की दीवाल का पलस्तर गिरने लगेगा, तो वह कहेगा, मैं
मरा, मेरा
पलस्तर गिरा जा रहा है। अगर उसके मकान को आग लग जाए, तो
वह चिल्लाएगा कि मैं जल गया। लेकिन जो जानते हैं, वे
उससे कहेंगे कि पागल! न तुम जल रहे हो, न तुम टूट रहे हो; तुम
केवल इस मकान में रहने वाले हो। जो हो रहा है, मकान पर हो रहा
है, तुम
पर कुछ भी नहीं हो रहा है। जो भी इस जगत में घटना घट रही है, सब
मकान पर घट रही है, मकान के भीतर वाले पर कोई घटना नहीं घट रही
है। आज तक यह असंभव हुआ है कि वह भीतर जो बैठा है, उस
पर कुछ भी घटा हो। सब जो बाहर घिरा है, उस पर घटा है। और
दुख का कारण यह है कि हम समझ रहे हैं कि वह हम पर घट रहा है!
जीवन में कुछ भी नहीं है जो आत्मा पर घटित
हो सके। जो भी घट रहा है शरीर पर घट रहा है। इस जगत की कोई शक्ति आत्मा को नहीं
छूती है,
न छू सकती है। जो भी छूता है, शरीर को छूता है।
लेकिन एक भ्रांति कि मैं शरीर हूं, पीड़ा और दुख का
कारण बन जाती है।
महावीर के धर्म की मूल शिक्षा एक बात में है
कि व्यक्ति यह जाने कि वह शरीर नहीं है। इसे जानने का उनका जो मार्ग है, वही
तपश्चर्या है। महावीर कहते हैं, प्रति घड़ी--दुख में, सुख
में, पीड़ा
में, अपीड़ा
में--निरंतर यह जानो कि तुम शरीर नहीं हो। उठते-बैठते, सोते-जागते
तुम यह जानो कि शरीर नहीं हो। भोजन करते, उपवास करते, कपड़ा
पहनते या नग्न होते जानो कि तुम शरीर नहीं हो।
अगर चौबीस घंटे इसका सतत अनुस्मरण चले कि
मैं शरीर नहीं हूं। जब रास्ते पर चलें, तो पता हो कि
शरीर चलता है,
मैं नहीं चलता। जब भोजन करें तो बोध हो कि भोजन शरीर करता है, मैं
नहीं करता। जब कोई चोट आप पर करे तो जानें कि चोट शरीर पर की गई है, मुझ
पर नहीं की गई। अगर यह सतत अनुस्मरण चले--यही अनुस्मरण और इस अनुस्मरण के साथ वैसी
ही जीवन-चर्या का नाम तप है।
बहुत दुख झेलना होगा। अगर मुझे अभी आप यहां
मारें,
तो मुझे जानना होगा कि मुझे नहीं मारा गया। और जब मुझे नहीं मारा
गया तो मैं आपको उत्तर क्या दूंगा? उत्तर का कोई
प्रश्न नहीं है। दूसरे को आप मारें तो हम उत्तर आपको क्या देंगे? दुख
आए तो जानना कि दुख जिस पर आया है, वह मेरा घर है, मैं
नहीं। ऐसा दुख में जानना, ऐसा सुख में जानना कि जो आया है, वह
मेरे घर पर आया है, मुझ पर नहीं। सुख में अनुद्विग्न होना, दुख
में अनुद्विग्न होना और दोनों में समता रखनी महावीर की मूल शिक्षा है। इसे वे
सम्यकत्व कहते हैं। इसे वे समता का भाव कहते हैं। यह समता का भाव तभी फलित होगा, जब
मैं यह स्मरण रख सकूं--सारी स्थितियों में यह स्मरण रख सकूं।
ऐसा व्यक्ति जो सुबह से सांझ तक, सांझ
से सुबह तक सब करते हुए यह जानता रहता हो, इस बात का बोध
उससे छूटता न हो,
यह स्मृति उससे विलीन न होती हो कि यह सब जो भी घटित हो रहा है यह
मेरी अंतस-चेतना पर घटित नहीं हो रहा है, उसे एक अनुभव
होगा। क्रमशः इसमें गति करते-करते एक दिन उसे पता चलेगा, वह
बिलकुल अलग है और शरीर बिलकुल अलग है। यह बोध इतना स्पष्ट होगा, जितना
स्पष्ट कोई बोध नहीं होता। आकाश और जमीन के बीच इतनी दूरी नहीं है, जितनी
दूरी मेरी आत्मा और मेरे शरीर के बीच है। आकाश और जमीन मिलाए जा सकते हैं, मेरी
आत्मा और मेरा शरीर मिलाया नहीं जा सकता। फासला बना ही रहेगा। इतने निकट उपस्थित
है मेरा शरीर मेरी आत्मा के, लेकिन अनंत फासला है जो मिटाया नहीं जा
सकता।
अगर आत्मा और शरीर का फासला मिट जाए तो फिर
मोक्ष असंभव हो जाएगा। इसलिए पापी से पापी और बुरे से बुरे व्यक्ति की आत्मा और
शरीर में उतनी ही दूरी है, जितनी पुण्यात्मा और जितनी श्रेष्ठतम
व्यक्ति की आत्मा और शरीर में होती है। शरीर और आत्मा की दूरी उतनी ही है, जितनी
आपकी है और जितनी महावीर के केवल-ज्ञान के बाद थी। शरीर और आत्मा की दूरी महावीर
की कम नहीं होती,
आपकी ज्यादा नहीं हो सकती, फर्क केवल बोध का
पड़ता है। महावीर को दिखता है कि दूरी है, आपको दिखता नहीं
कि दूरी है। जहां महावीर खड़े हैं, वहीं आप खड़े हैं। महावीर को दिख रहा है कहां
खड़े हैं,
आपको दिख नहीं रहा कि कहां खड़े हैं। इससे ज्यादा अंतर नहीं है।
अज्ञान से ज्यादा और कोई अंतर नहीं है।
और वह अज्ञान एक ही है। बुनियादी अज्ञान एक
ही है,
यह भ्रम कि मैं शरीर हूं। हम इस भ्रम को पालते हैं और पोसते हैं।
हम इस भ्रम को पालते हैं और पोसते हैं, अनेक-अनेक रूपों
में इसका हम पोषण करते हैं, इसे सम्हालते हैं। इस भ्रम को सम्हालते हैं।
दुर्जन भी सम्हालता है, सज्जन भी सम्हालता है। गृहस्थ भी सम्हालता
है, साधु
भी सम्हालता है। दोनों ही इसको सम्हाले रहते हैं! दोनों इस भ्रम को पोषण देते रहते
हैं। और तब यह भ्रम घना होता चला जाता है और यही भ्रम जन्म-जन्मांतरों का कारण बन
जाता है।
दो दिशाएं हैं मनुष्य के सामने--एक है
भ्रम-विसर्जन की और एक है भ्रम-पोषण की। जो महावीर के मार्ग में उत्सुक हों, उन्हें
भ्रम-विसर्जन पर ध्यान देना होगा। उन्हें ध्यान रखना होगा कि वे जो भी करें, जो
भी बोलें,
जो भी सोचें, उसमें यह ध्यान रखना होगा: उनकी क्रिया, उनका
विचार,
उनकी वाणी इस भ्रम को बढ़ाने में सहयोगी तो नहीं हो रही है! वे जो
बोल रहे हैं,
जो सोच रहे हैं, जो कर रहे हैं, उससे
कहीं उनका यह अज्ञान घना तो नहीं हो रहा है कि मैं शरीर हूं! अगर यह घना हो रहा है, तो
उनके कर्म और उनके विचार पाप हैं। अगर यह क्षीण हो रहा है, तो
उनके कर्म और उनके विचार पुण्य हैं।
पुण्य और पाप की इसके सिवाय और कोई मैं
परिभाषा नहीं देखता हूं। जो आपके भीतर इस भ्रम को तोड़ दे कि मैं शरीर हूं, वैसी
क्रिया,
वैसा विचार पुण्य है, सदकर्म है। और
वैसी क्रिया,
वैसा विचार, जो इस भ्रम को घना कर दे कि मैं शरीर हूं, पाप
है।
कैसे स्मरण रखेंगे? कैसे
यह तप चलेगा?
कैसे हम भूलेंगे यह बात कि हम शरीर हैं और जानेंगे यह सत्य कि हम
आत्मा हैं?
मैंने कहा, सतत अनुस्मरण से। इसे महावीर ने विवेक कहा
है। महावीर ने कहा है, साधु को विवेक से चलना चाहिए। तो कोई होंगे
जो समझते होंगे कि विवेक का इतना ही अर्थ है कि उसको देख कर चलना चाहिए कि पैर के
नीचे कीड़े-मकोड़े तो नहीं आ गए! महावीर ने कहा है, साधु
को विवेक से लेटना चाहिए। तो कुछ होंगे जो सोचेंगे कि करवट बदलते वक्त ध्यान रखना
चाहिए कि नीचे कोई कीड़ा-मकोड़ा तो नहीं आ गया! महावीर ने कहा है, साधु
को विवेक से भोजन करना चाहिए। तो कुछ होंगे जो सोचेंगे कि पानी छना हुआ है या
गैर-छना हुआ है! ये विवेक के अत्यंत क्षुद्र अर्थ हैं। विवेक का गहरा और
महत्वपूर्ण अर्थ दूसरा है, वास्तविक सारभूत अर्थ दूसरा है।
विवेक का अर्थ है, चलते
वक्त साधु को जानना चाहिए, मैं नहीं चल रहा हूं। क्षण भर को भी स्खलन न
हो इस वृत्ति में,
क्षण भर को भी यह भ्रम न आ जाए कि मैं चल रहा हूं। स्मरण होना
चाहिए,
देह चलती है, मैं देखता हूं। वासना चलती है, मैं
देखता हूं। मैं साक्षी हूं। मन चलता है, मैं द्रष्टा हूं।
शरीर चलता है,
मन चलता है, मैं नहीं चलता, मैं
थिर हूं। सारे चलन के बीच, सारे परिवर्तन के बीच, सारी
गति के बीच,
वह जो थिर बिंदु है हमारे भीतर, वह जिसे गीता में
कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ कहा, वह जो प्रज्ञा है हमारे भीतर ठहरी हुई, उसका
बोध रहना चाहिए कि मैं रुका हूं। चलते समय जिसे पता होगा कि मैं रुका हूं, भोजन
करते वक्त जिसे पता होगा कि मैंने कभी भोजन नहीं लिया, वस्त्र
पहनते वक्त जिसे पता है कि मुझे कोई वस्त्र ढांक नहीं सकते, जब
दुख उस पर आएगा,
उसे पता होगा, ये दुख मुझ पर नहीं आए। जब सुख उस पर आएगा, उसे
पता होगा,
ये सुख मुझ पर नहीं आए। जब मृत्यु उसके द्वार-दरवाजा खटखटाएगी, तब
वह जानेगा,
यह मृत्यु मेरी नहीं है, यह बुलावा मेरा
नहीं है।
ऐसे विवेक को जीवन की प्रत्येक क्रिया में
पिरो देना,
जीवन की प्रत्येक क्रिया में, छोटी और बड़ी
क्रिया में विवेक को गूंथ देना, इसे महावीर ने साधक का आधारभूत कर्तव्य कहा
है। जो इसे करता हो, वह पहली सीढ़ी पर कदम रखता है।
और स्मरण रखें, एक
बार में एक ही सीढ़ी चढ़नी होती है, बहुत सीढ़ियां कोई नहीं चढ़ता। एक सीढ़ी आप चढ़
जाएं, दूसरी
सीढ़ी आपके सामने आ जाती है। अगर विवेक की सीढ़ी कोई चढ़ जाए, तो
अपने आप दूसरी सीढ़ियां उसके सामने उदघाटित होती चली जाती हैं। मनुष्य को सीखने
जैसा विवेक है,
और कुछ भी सीखने जैसा नहीं है।
लेकिन हम विवेक नहीं सीखते, हम
विचार सीख लेते हैं! विवेक और विचार में भेद है। हम विवेक तो नहीं सीखते महावीर से, महावीर
के विचार सीख लेते हैं! महावीर के विचार पर खड़े हुए शास्त्र हैं, उनको
सीख लेते हैं! महावीर के विचार पर चलते हुए प्रवचन और पांडित्य की बातें हैं, उनको
सीख लेते हैं!
मैं आपको कहूं, महावीर
के विचार को न सीखें, महावीर के विवेक को सीखें। अगर महावीर को
पाना है तो महावीर के विवेक को सीखें। और अगर महावीर की बातें सीख लीं, तो
महावीर को तो नहीं पा सकेंगे। उन बातों से महावीर को नहीं पा सकेंगे। महावीर के
विचार का संग्रह न करें, महावीर के विवेक का जागरण करें अपने भीतर।
और दुनिया के समस्त सदपुरुषों के दो ही जीवन
के हिस्से हैं--उनका विचार और उनका विवेक। जो लोग उनके विचार को पकड़ते हैं, वे
पंडित होकर समाप्त हो जाते हैं। जो उनके विवेक को पकड़ते हैं, वे
प्रज्ञा और मोक्ष को उपलब्ध होते हैं।
तो आज की सुबह, महावीर
के विवेक को,
महावीर के विचार को नहीं। महावीर जो भी कहते हैं, वह
महत्वपूर्ण नहीं है। महावीर जिस स्थान से कहते हैं, उस
स्थान पर कैसे पहुंचें, यह महत्वपूर्ण है।
एक साधु हुआ। उससे किसी व्यक्ति ने जाकर
पूछा। कोई उसकी उलझन थी। उसने कहा, यह उलझन मेरी हल
कर दें। साधु ने कहा, यह मैं तुम्हारी उलझन हल कर दूंगा, तो
क्या तुम सोचते हो कि कल तुम्हारी दूसरी उलझन खड़ी नहीं हो जाएगी? वह
बोला कि कैसे सोच सकता हूं कि नहीं खड़ी हो जाएगी! जीवन तो उलझन है। साधु ने कहा, कल
तुम फिर आओगे,
फिर मैंने तुम्हारी उलझन ठीक कर दी। फिर तीसरे दिन क्या हो? फिर
आज मैं हूं,
कल मैं समाप्त हो जाऊंगा, तो तुम्हारी उलझन
कौन समाप्त करेगा?
तो उस साधु ने कहा, अच्छा हो कि तुम
उलझन का समाधान मुझसे मत मांगो। तुम मुझसे वह अंतर्दृष्टि मांगो, जिससे
सारी उलझनें सुलझाने की स्वयं क्षमता मिल जाती है। उस साधु ने कहा, अच्छा
हो तुम मुझसे समाधान मत मांगो, तुम मुझसे वह रास्ता पूछो, जिससे
कि स्वयं समाधान मिल जाता है और वह अंतर्दृष्टि मिल जाती है, जिससे
सारी उलझनें सुलझ जाती हैं।
एक अंधा आदमी आकर मुझसे पूछे कि दरवाजा कहां
है इस हाल के बाहर निकलने का? मैं उसे बता दूंगा। फिर कल यहां आएगा, फिर
पूछेगा कि दरवाजा कहां है? दूसरे मकान में जाएगा, फिर
पूछेगा कि दरवाजा कहां है? जिस मकान में भी जाएगा, वहीं
पूछेगा कि दरवाजा कहां है?
अगर मेरी अनुकंपा उस पर पूरी हो तो मुझे उसे
दरवाजा नहीं बताना चाहिए, मुझे उसे आंख ठीक करने का उपाय बताना चाहिए।
दरवाजा बताने से क्या फायदा होगा? दरवाजा बताना विचार देना है और आंख ठीक करना
विवेक देना है। दरवाजा बताना एक विचार दे दिया, उससे एक हल हो
जाएगा। लेकिन उससे सब हल नहीं हो जाएगा। असली हल तो तब होता है, जब
भीतर अंतर्दृष्टि जागती है और भीतर एक बोध, एक विवेक जाग्रत
होता है।
तो महावीर ने विचार नहीं सिखाया, महावीर
ने विवेक सिखाया। और जो आपसे कहता हो कि महावीर ने विचार सिखाया, वह
शत-प्रतिशत असत्य बात कहता होगा। महावीर ने अहिंसा का विचार नहीं सिखाया, अपरिग्रह
का विचार नहीं सिखाया, वह अंतर्दृष्टि सिखाई, जिसके
आने पर अहिंसा आ जाती है, अपरिग्रह आ जाता है।
जिस व्यक्ति को यह दिखने लगे कि मैं शरीर
नहीं हूं,
वह परिग्रही कैसे होगा? जिस व्यक्ति को
यह दिखने लगे कि मैं शरीर नहीं हूं, वह परिग्रही कैसे
होगा?
लेकिन मैं आपको कहूं कि वह तथाकथित
अपरिग्रही भी नहीं होगा, जो आपको दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि जिसको यह
दिखाई पड़ने लगे कि मैं शरीर नहीं हूं, वह चीजें इकट्ठी
करने का मोह भी उसमें नहीं रह जाएगा, चीजें छोड़ कर भाग
जाने का प्रश्न भी उसे नहीं उठता। वह अस्पर्श को उपलब्ध हो जाएगा। चीजों के बीच हो
तो उसे चीजें छुएंगी नहीं। चीजें उसके पास न हों तो चीजों का स्मरण उसे नहीं होगा।
वह अस्पर्श को उपलब्ध हो जाएगा।
एक साधु हुआ। एक बादशाह ने उसे बहुत प्रेम
किया और अपने घर मेहमान बना लिया। वह साधु उसके घर मेहमान हो गया। मेहमान होने के
पहले एक दरख्त के नीचे पड़ा था, नंगा फकीर था। मेहमान होने के बाद महल की
सारी राज्य-सुविधा उसे उपलब्ध हुई। उस रात वह बहुमूल्य पलंग पर सोया।
राजा को अपने बिस्तर पर सोते वक्त संदेह मन
में हुआ कि यह तो अजीब बात है, यह आदमी साधु नहीं मालूम होता। भीख मांगता
था दरवाजे पर,
दरख्त के नीचे नंगा पड़ा रहता था; हम
इसे आदर दिए,
हमने कहा, महल चलो, इसने एक दफे
इनकार भी नहीं किया कि नहीं चलते! अगर साधु होता तो इनकार करता, ऐसा
उस राजा ने सोचा। साधु होता वह कहता, हमको क्या मतलब
राजमहलों से! लेकिन जो कहे कि हमको क्या मतलब राजमहलों से, उसका
अभी बहुत मतलब बाकी है। राजा ने कहा, यह बोला नहीं कुछ
भी! हमने कहा चलो,
यह चला आया! जरूर यह साधु-वाधु नहीं है, यह
धोखा है। इसका कोई अपरिग्रह नहीं है। बिस्तर पर सुलाया, सो
गया! अच्छा खाना खिलाया, खा लिया!
सुबह होते ही राजा ने कहा, मुझे
एक संदेह होता है। वह साधु हंसने लगा। उसने कहा कि तुम्हें अब होता है, हमें
तभी हो गया था,
जब तुमने कहा था, ऊपर चलो। राजा बोला, मतलब? वह
बोला कि हम उसी वक्त देख लिए थे, तुम्हारी श्रद्धा विलीन हो गई, सब
खतम हो गया। हम तुमसे कहते कि हम फकीर हैं, हम कहां राजमहल
में जाएंगे,
हमने लात मार दी, तो तुम खुश होते और हमारे पैर पकड़ते और
हमारे चरणों में सिर रखते। क्यों? क्योंकि तुम्हारी जो वासना है, उसे
जो छोड़ता हुआ मालूम पड़े, वह तुम्हें आदर योग्य मालूम होता है।
स्मरण रखना, जब
भी आप किसी का आदर करते हो, वह उसका आदर कम है, आपकी
वासना का सबूत ज्यादा है। अगर मैं सारा धन छोड़ कर चला जाऊं और आप मेरे पैर पड़ो, तो
मैं समझूंगा धन-लोलुप हो। क्योंकि मेरे पैर क्यों पड़ोगे? धन-लोलुपता
आपकी मेरे पैर पड़ने को कहेगी, इसने सारा धन छोड़ दिया और आप धन-लोलुप हो!
हद्द त्याग किया है, इसके पैर पड़ो। अगर मैं वस्त्र छोड़ कर नग्न
खड़ा हो जाऊं,
तो आप मुझे नमस्कार करोगे, क्योंकि आपकी
वस्त्र छोड़ने की हिम्मत नहीं है।
तो जब आप किसी को आदर देते हो, वह
आदर कम है,
वह आपका अपमान ज्यादा है और आपके भीतर की असलियत का सबूत ज्यादा
है। जो कामी है,
वह ब्रह्मचर्य वाले को बहुत आदर देगा। जो भोगी है, वह
त्यागी को आदर देगा। जो परिग्रही है, वह अपरिग्रही को
आदर देगा। और इसलिए जो धोखेबाज हैं, वे अपरिग्रह साध
लेंगे और आदर ले लेंगे। जो धोखेबाज हैं, वे ब्रह्मचर्य
साध लेंगे,
और आदर ले लेंगे, और अहंकार की तृप्ति कर लेंगे।
उस साधु ने कहा, मैं
उसी वक्त समझ गया था मामला खतम हो गया। लेकिन हमने सोचा तुम्हीं कहो, तब
बात करेंगे। उस राजा ने कहा, मुझे तो रात नींद नहीं आई। मैं तो बहुत
सोचता रहा,
यह कैसा साधु है! और रात मुझे यह खयाल आता रहा कि अब मुझमें और
आपमें क्या फर्क है! आप भी सोए हैं वहीं, मैं भी वहीं। वही
सुविधा मुझे है,
वही सुविधा आपको है। वह फकीर बोला, मेरे
साथ गांव के बाहर चलो, उत्तर रास्ते में देंगे।
वे गांव के बाहर गए। और जहां नदी पड़ती थी, गांव
समाप्त होता था,
राजा ने कहा, अब बताएं। वह फकीर बोला, थोड़ा
और आगे। वह जब भी पूछता, बताएं। वह कहता, थोड़ा
और आगे। दोपहर हो गई, राजा ने कहा, क्या
पागलपन है! उत्तर देना हो दें--और आगे से क्या मतलब है? वह
फकीर बोला,
और आगे ही मेरा उत्तर है। अब हम लौटेंगे नहीं। तुम भी मेरे साथ
चलते हो?
वह राजा बोला, मैं कैसे जा सकता हूं! मेरा पीछे महल, मेरी
रानी, मेरे
बच्चे,
मेरा राज्य! वह फकीर बोला, अगर फर्क दिखे तो
देख लेना। फर्क है--हम जाते हैं, तुम नहीं जा सकते। हम जाते हैं, हमारा
पीछे कुछ भी नहीं है। हम उस बिस्तर पर सोए थे, सो लिए! बिस्तर
हमारा पीछे नहीं रह गया है कि जिस पर हमें फिर सोना है। कल जब दरख्त के नीचे
सोएंगे तो फिर सो लेंगे। और दरख्त से कुछ मोह नहीं बंध जाएगा।
यह है अस्पर्श योग। चीजें छुएं न, बस
यही जीवन-साधना है।
चीजें छू लें, तो
परिग्रह हो जाता है। चीजें न छुएं तो अपरिग्रह हो जाता है। असली अपरिग्रह, चीजें
न छुएं,
यह बोध साध लेना है। चीजें छोड़ कर भाग जाना, न
भाग जाना गौण बात है। उसका कोई मूल्य नहीं है।
उनके विवेक को जो अपने भीतर स्थापित करेगा, वह
धीरे-धीरे इस जीवन-स्थिति को उपलब्ध हो जाता है। तब वह जल में--जल में कमल के
पत्तों की भांति जीता है।
ईश्वर करे, वैसी
स्थिति आपको उपलब्ध हो। और अगर आकांक्षा हो वैसी स्थिति की, तो
महावीर ने जिसे विवेक कहा, उसे साधें। आकांक्षा हो, तो
सतत इस बात का अनुस्मरण साधें कि मैं देह नहीं हूं। तो धीरे-धीरे, जैसे
एक-एक बूंद गिर कर सागर भर जाता है, जैसे एक-एक बूंद
गिर कर सागर भर जाता है और एक-एक किरण गिर कर सारे जगत को आलोक से भर देती है, वैसे
ही एक-एक क्षण अनुस्मृति का साधते-साधते एक दिन विवेक के सूर्य का जन्म होता है और
मनुष्य परम सत्य को, परम शांति को, आनंद
को उपलब्ध होता है।
प्रभु करे, वैसी
आकांक्षा आपमें उत्पन्न हो, वैसा संकल्प उत्पन्न हो, वैसा
श्रम करने का साहस उत्पन्न हो। और जो जीवन, जिसको पाने के
लिए है,
वह पाना आपको संभव हो जाए।
इस कामना के साथ अपनी बात को पूरा करता हूं।
मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना है, उसके लिए बहुत
अनुगृहीत हूं।
आप सबके भीतर जो संभावी महावीर है, उसके
लिए मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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