करने से न करने की दशा—आठवां प्रवचन
दिनांक १८ मार्च, १९७७; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
जिज्ञासाएं
1—कल आपने कहा कि जिन्होंने खोजा वे
खो देंगे। और आपकी एक प्रसिद्ध पुस्तक है: "जिन खोजा तिन पाइयां'।
क्या सच है?
2—मन को सहारा न देना और जीवन के
प्रति सहज होना--क्या दोनों एक साथ संभव हैं।
भोग, प्रेम, ध्यान, समझ, समर्पण, कुछ
भी तो मेरे लिए सहयोगी नहीं हो रहा। अब आप ही जानें!
3—अकेला हूं, मैं
हमसफर ढूंढता हूं...।
4—ध्यान में मुझे नाचना है या मेरे
शरीर को?
5—क्या आप अपने शिष्यों के लिए ही
हैं कि मुझे आपसे मिलने नहीं दिया जाता?
6—भगवान, क्या
से क्या हो गई, कुछ न सकी जान।
पहला प्रश्न: कल आपने कहा, जिन्होंने
खोजा वे खो देंगे। और आपकी एक प्रसिद्ध पुस्तक कहती है, जिन
खोजा तिन पाइयां। क्या सच है? कृपया
समझाएं।
एक रास्ते पर मुल्ला नसरुद्दीन और उसका
मित्र घर की तरफ वापस लौटते थे, अचानक मित्र ने नसरुद्दीन की बांह पकड़ी और
कहा, जल्दी
भाग निकलो,
बचो! और उसे ले कर जल्दी ही पास की होटल में प्रवेश कर गया। मुल्ला
भी घबराया हुआ अंदर गया, हांफने लगा। अंदर जा कर पूछा, "मामला
क्या है?
नसबंदी करने वाले लोग आ रहे हैं? इतनी
घबराहट क्या है?'
उस मित्र ने कहा, "नसबंदी से भी बड़ा खतरा है। देखते
नहीं, उस
तरफ रास्ते के मेरी पत्नी मेरी प्रेयसी से खड़ी बातें कर रही है।' मुल्ला
ने गौर से देखा और कहा कि शुक्र अल्लाह का, खूब बचाया! पर
मित्र ने कहा कि तुम यह क्यों कहते हो कि खूब बचाया? मुल्ला
ने कहा,
एक जगह तुम भूल कर रहे हो। तुम्हारी पत्नी तुम्हारी प्रेयसी से
बातें नहीं कर रही, मेरी पत्नी मेरी प्रेयसी से बातें कर रही
है।
पर दोनों बातें साथ-साथ सच हो सकती हैं, इसमें
कुछ विरोधाभास नहीं है। "जिन खोजा तिन पाइयां' और
"जिन खोजा तिन गंवाइयां' दोनों एक साथ सच हो सकते हैं। विरोध नहीं
है। समझने की कोशिश करें। जो खोजेगा ही नहीं वह तो कभी पाएगा नहीं। जो खोजता ही
रहेगा वह भी कभी न पाएगा। एक दिन खोज पर जाना पड़ता है और फिर एक दिन खोज छोड़ कर
बैठ भी जाना पड़ता है। "जिन खोजा तिन पाइयां' पहला
कदम है। आधी यात्रा खोज से होती है। फिर आधी यात्रा खोज छोड़ कर होती है।
बुद्ध ने छह वर्ष तक खोजा, अथक
श्रम किया;
जो भी कर सकते थे किया। गुरुओं ने जो कहा वही किया। योग किया और जप
किया, तप
किया, उपवास
किए, भक्ति, ध्यान, सब
किया। अपने को पूरी तरह डुबा दिया करने में। लेकिन परिणाम न हुआ। एक दिन सब करके
थक गए और लगा,
करने में कुछ भी सार नहीं। क्योंकि करने में कर्ता तो बना ही रहता
है। खोज में खोजी तो बना ही रहता है। तुम कुछ करो, योग
करो कि तप करो कि ध्यान करो, अहंकार तो उससे भी निर्मित होता ही है कि
मैं ध्यान कर रहा हूं, ध्यानी हूं; कि
मैं भक्ति कर रहा हूं, भक्त हूं, एक
सूक्ष्म अस्मिता निर्मित होती चली जाती है। और समस्त धर्मों का सार इस एक बात में
है कि जब तक अहंकार है, तब तक तुम प्रभु को न पा सकोगे, क्योंकि
वही अहंकार बाधा है। जब तक तुम हो तब तक उसे पा न सकोगे। तुम मिटोगे तो ही उसका
आगमन संभव है। तुम हटोगे तुम्हारे और उसके बीच से, तो
ही मिलन होगा। तुम ही अड़े हो चट्टान की तरह। तो कभी तुम धन कमाते थे, धनी
थे; अब
भक्ति कमाने लगे,
भक्त हो गए। लेकिन तुम तो रहे। माना कि पहले से थोड़े बेहतर। यह
अहंकार थोड़ा सोने जैसा, पहले का अहंकार लक्कड़-पत्थर का था, कूड़ा-कर्कट
का था। यह दूसरा अहंकार बहुमूल्य है। पहला अहंकार साधारण, यह
असाधारण। पहला अहंकार सांसारिक का, यह दूसरा धार्मिक
का। लेकिन अहंकार तो अहंकार ही है।
तो छह वर्ष की निरंतर खोज पर सब तो थक गया, लेकिन
अहंकार न थका। करने से अहंकार कभी थकता ही नहीं। दौड़ने से अहंकार कभी थकता नहीं।
एक दिन छह वर्ष की अथक तपश्चर्या के बाद बुद्ध को दिखा, सब
व्यर्थ है। न तो संसार में कुछ मिला, न संन्यास में
कुछ मिला। उस रात उन्होंने संन्यास भी मन से गिरा दिया। बैठ गए वृक्ष के नीचे। न
ध्यान किया न भक्ति की, न तप किया न जप किया। उस रात सोए। वह नींद
बड़ी अनूठी थी। इसके पहले कभी सोए ही न थे, क्योंकि मन में
कोई न कोई वासना थी--कभी धन को पाने की, कभी भगवान को
पाने की,
कभी सत्य पाने की। और वासना थी तो सपने थे। और सपने थे तो तनाव था।
और तनाव था तो नींद कहां, विश्राम कहां! उस रात पहली दफे विश्राम हुआ।
उसी विश्राम में सत्य का अवतरण हो गया। सुबह जब आंख खुली...बौद्ध शास्त्र बड़ी
अदभुत कहते हैं! वे कहते हैं, सुबह आंख खुली। आंख खोली, ऐसा
भी नहीं कहते,
क्योंकि अब कहां खोलने वाला! जब नींद पूरी हो गई तो आंख खुल गई।
जैसे सुबह फूल खिलता है, ऐसे आंख खुली। और बुद्ध की खुलती आंख ने
आखिरी तारे को डूबते हुए देखा। जगत तरैया भोर की! आखिरी तारा डूबता था। उधर तारा
झिलमिलाता-झिलमिलाता खोने लगा और यहां आखिरी अस्मिता, आखिरी
अहंकार भी झलक-झलक कर विलीन हो गया। उसी क्षण घटना घट गई।
जब बुद्ध से लोग पूछते बाद में कि कैसे पाया, तो
वे कहते,
बड़ी झंझट का प्रश्न है। क्योंकि जो मैंने किया उससे तो पाया नहीं।
जिस दिन मैंने कुछ भी नहीं किया था उन दिन पाया। लेकिन यह भी सच है कि जो मैंने
किया था,
अगर न करता तो यह अनकरने की दशा भी नहीं आ सकती थी।
इस बात को समझो। वह जो छह वर्ष तपश्चर्या की
उससे सीधा सत्य नहीं मिला। लेकिन वह छह वर्ष तपश्चर्या किए बिना अगर बुद्ध वृक्ष
के नीचे बैठ गए होते तो यह विश्राम की घड़ी भी नहीं आ सकती थी। तुम जाओ, बैठ
जाओ, अभी
भी वृक्ष मौजूद है, बोधगया में। तुम सोचो कि छह वर्ष की मेहनत
तो छोड़ें,
सार क्या, उससे तो कुछ मिला नहीं; बैठने
से मिला। बैठ गए। तो ऊपर से तुम भी बुद्ध जैसे बैठ जाओगे, टिक
जाओगे;
लेकिन भीतर? वह जो अनुभव छह वर्ष की तपश्चर्या से हुआ था
कि कुछ भी नहीं मिलता, करने से कुछ भी नहीं मिलता, करना
व्यर्थ है--वह जो छह वर्ष निरंतर सिर पर हथौड़ी की तरह चोट पड़ती रही थी कि करना
व्यर्थ है,
वह तो तुम्हारे भीतर नहीं पड़ेगी। उससे तो तुम वंचित रहोगे। तो तुम
लेट जाओ बोधिवृक्ष के नीचे, वह वृक्ष तुम्हारे लिए बोधिवृक्ष नहीं होगा, वह
बुद्ध के लिए हुआ।
तो अब क्या कहें? बुद्ध
को करने से मिला कि न करने से मिला? दोनों बातें साथ
ही कहनी पड़ेंगी। करने और न करने से मिला। करने से न करने की दशा मिली और न करने से
सत्य मिला। इसलिए "जिन खोजा तिन पाइयां' पहला कदम है। वह
बुद्ध के छह वर्ष। फिर जब मैं कभी-कभी कहता हूं, "खोजना
मत, नहीं
तो खो दोगे',
वह आखिरी बात कह रहा हूं। कहीं ऐसा न हो कि तुम खोजते ही रहो। छह
वर्ष को साठ वर्ष बना लो कि छह जन्म बना लो--और खोजते ही रहो तो तुम खोजते ही
रहोगे और कभी न पहुंच पाओगे।
दौड़ना भी जरूरी है मंजिल पाने के लिए, फिर
रुकना भी जरूरी है। कहीं ऐसा हो कि दौड़ने की आदत ही बन गई तो मंजिल भी पास आ जाएगी, तुम
दौड़ते ही निकल जाओगे। मंजिल पर जा कर रुकोगे न! रुकोगे, तभी
तो मंजिल मिलेगी न! तुम अगर दौड़ने के कुशल अभ्यासी हो गए और रुकना ही भूल गए, दौड़ते
रहे, दौड़ते
रहे जन्मों-जन्मों तक, फिर मंजिल भी आ गई, अब
रुकें कैसे! तुम दौड़ते ही चले गए। मंजिल तो रुकने से मिलेगी। लेकिन रुकने की कला
उसके हाथ में आती है जो पूरी तरह दौड़ लिया है, पूरे मन से दौड़
लिया है,
समग्ररूपेण!
ये दोनों बातें एक साथ सच हैं। मेरी बातों
में तुम्हें कई बार विरोधाभास लगेंगे; जब भी विरोधाभास
लगें तो समझना कि कहीं तुमसे भूल हो रही है। मेरे वक्तव्य कितने ही विरोधाभासी
दिखाई पड़ें,
विरोधाभासी हो नहीं सकते। उनमें कहीं न कहीं कोई तार जुड़ा होगा।
कहीं न कहीं कोई सेतु होगा जो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है। दोनों को जोड़ने वाली
कोई शृंखला होगी जो तुम्हारे लिए अदृश्य है। जब भी तुम्हें मेरे दो विरोधाभासी वचन
मिलें--और मेरे वचनों में तुम्हें हजारों विरोधाभासी वचन मिलेंगे--लेकिन जब भी तुम
गौर से खोजोगे,
तुम सदा ही पा लोगे कि उनमें विरोध दिखाई पड़ता है, विरोध
है नहीं। दोनों बातें साथ हो सकती हैं। और मैं तुमसे यह भी कहना चाहता हूं कि
दोनों साथ होंगी,
तभी कुछ होगा।
मन है असहजता
दूसरा प्रश्न: आपने कहा कि मन को
सहारा न देना और जीवन के प्रति सहज होना चाहिए। क्या दोनों एक साथ संभव हैं या वे
अलग-अलग आचार हैं? समझाने की अनुकंपा करें!
पूछते हैं: "क्या दोनों एक साथ संभव है?' बस
दोनों एक साथ ही संभव हैं! अलग-अलग तो कभी संभव न हो सकेंगे। क्योंकि दो तो बातें
ही नहीं हैं इसमें, एक ही बात है। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
एक बार इस पहलू की तरफ से कहा है, दूसरी बार उस पहलू की तरफ से कहा है।
समझो। "आपने कहा कि मन को सहारा न देना
और जीवन के प्रति सहज होना।' ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मन
है असहजता। मन का अर्थ क्या है? जब भी तुम स्वभाव के विपरीत जाते हो, तब
मन पैदा होता है। मन तो चेष्टा से बनता है। जानवर के पास इसीलिए तो मन नहीं है, क्योंकि
वह स्वभाव के प्रतिकूल जाता ही नहीं है, भटकता ही नहीं
कभी। प्रकृति ने जैसा बनाया है बस वैसा है। इसलिए मन की कोई जरूरत नहीं है। आदमी
के पास मन है। यह आदमी का गौरव भी है और आदमी का उपद्रव भी। एक गरिमा भी है कि
आदमी के पास मन है। और यही उसकी उलझन भी है, समस्या भी है।
मन का अर्थ ही होता है कि आदमी चाहे तो
स्वभाव के प्रतिकूल जा सकता है। यह मनुष्य की स्वतंत्रता है।
तुमने किसी जानवर को शीर्षासन करते देखा? सर्कस
की बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि सर्कस के जानवर आदमियों के द्वारा
विकृत किए गए जानवर हैं, उनकी बात छोड़ दो। जंगल में कभी तुमने किसी
जानवर को शीर्षासन करते देखा? जानवर को सोच ही नहीं आएगा कि शीर्षासन भी
किया जा सकता है। और जानवर अगर तुम्हें शीर्षासन करते देखते होंगे तो जरूर हंसते
होंगे कि इनको हो क्या गया है, भले-चंगे पैर खड़े थे, अब
सिर पर खड़े हैं!
आदमी उपाय खोजता है--प्रकृति के पार जाने के; प्रकृति
से ऊपर उठने के,
भिन्न होने के। कामवासना उठती है तो आदमी ब्रह्मचर्य का आरोपण करना
चाहता है। क्रोध उठता है तो आदमी क्रोध को दबा कर भी मुस्कराना चाहता है। यह
मनुष्य की गरिमा भी है। यही उसकी खूबी है। क्योंकि जहां-जहां वह प्रकृति के
प्रतिकूल जाता है,
वहीं-वहीं जीवन में दुख, खिंचाव, बेचैनी
पैदा हो जाती है। जहां तुम प्रकृति के अनुकूल होते हो, वहीं
जीवन में विराम होता है, विश्राम होता है।
तो मन का तो अर्थ ही है, जो
तुम्हारा पैदा किया हुआ है। इसलिए छोटे बच्चों के पास भी मन नहीं होता। मन पैदा
होने में समय लगता है। मन को समाज पैदा करता है, परिवार
पैदा करता है। शिक्षण से, सामूहिक संस्कार से, संस्कृति-सभ्यता
से मन पैदा होता है।
तुमने कभी सोचा? अगर
तुम पीछे की याद करो तो तुम्हें एक समय तक याद आती है जब तुम चार साल के थे या तीन
साल के थे,
उसके बाद याद नहीं आती। क्यों? क्योंकि याद करने
के लिए मन ही नहीं था। इसलिए वहां जा कर अटक जाती है। याद करने वाला मन तो चाहिए
न! तो जिस दिन तुम्हारा मन पैदा होना शुरू हुआ उसी दिन तक की तुम्हें याद आती है।
पीछे लौट कर देखो तो बचपन की याद आती है, जब चार साल के थे
या पांच साल के थे। बस उसके बाद सब अंधेरा हो जाता है। कागज कोरा हो जाता है। तब
तक मन ठीक से निर्मित न हुआ था, यंत्र निर्मित न हुआ था।
तो चार या पांच साल की उम्र में मन ठीक-ठीक
सक्रिय होता है। फिर उसके बाद मन कुशल होता जाता है। बूढ़े आदमी के पास ज्यादा मन
होता है। इसलिए बच्चों को हम माफ कर देते हैं। अगर बच्चे गलती भी करते हैं तो हम
कहते हैं,
बच्चे हैं। क्यों? हम यह कहते हैं कि अभी बेचारों के पास मन
नहीं है,
अभी बच्चे हैं। अभी संस्करण हुआ नहीं ठीक से, समय
लगेगा;
अभी साफ किए जा सकते हैं। पागल को भी हम माफ कर देते हैं, कहते
हैं पागल है। अगर शराबी कुछ उपद्रव करे तो उसको भी माफ कर देते हैं, कहते
हैं कि यह शराबी है, शराब पीए है। क्या कारण होगा? जब
शराब पीए है तो उसका मतलब, इसका मन बेहोश है। तो जो यंत्र नियंत्रण
रखता है,
वह अभी बेहोशी में पड़ा है। तो यह अभी बच्चे जैसा है।
अकबर को एक शराबी ने गालियां दे दीं। अकबर
निकलता था अपने हाथी पर बैठ कर। शराबी अपने छप्पर पर चढ़ा था, वहीं
से गालियां देने लगा। दिल खोलकर गालियां दीं। अकबर भी हैरान हुआ, दुबला-पतला
कमजोर सा आदमी,
इतनी हिम्मत की बातें कर रहा है! पकड़वा बुलाया। रात भर तो बंद रहा, सुबह
उसे बुलाया,
पूछा कि तुमने गालियां क्यों दीं। वह आदमी चरणों में गिर पड़ा! उसने
कहा,
"मैंने दीं ही नहीं। और जिसने दीं वह मैं
नहीं हूं।'
तो अकबर ने कहा, तू मुझे झूठा सिद्ध कर रहा है। मेरी आंख से
मैं खुद गवाह हूं,
किसी और गवाह की जरूरत नहीं है। तू ही है। तूने ही गालियां दी थीं।
उसने कहा,
"यह मैं कह भी नहीं रहा कि यह मैं नहीं हूं।
मैं शराब पीए हुए था, इसलिए गालियां शराब ने दी हैं। मुझे आप
क्षमा करें। मेरा इसमें कोई दोष ही नहीं है। अगर दोष है तो शराब पीने का कोई दंड
हो तो दे दें,
मगर गालियां देने का दंड मुझे न दें।'
अकबर को भी बात जंची। शराब पीए हुए आदमी को
क्या दंड देना! शराबी क्षमा किया जा सकता है। पागल क्षमा किया जा सकता है। अगर
पागल हत्या भी कर दे तो भी अदालत में अगर सिद्ध हो जाए कि पागल है, तो
बात खतम हो गई। क्योंकि जिसके पास मन नहीं है, उसके ऊपर क्या
उत्तरदायित्व थोपना! तो बच्चा, पागल, शराबी
क्षमा-योग्य हैं,
क्योंकि उनके पास मन नहीं है या स्थगित हो गया है या बेहोश हो गया
है या मन विकृत हो गया है।
मनुष्य की पूरी सभ्यता, पूरी
संस्कृति मन पर खड़ी है। मन ही आधार है मनुष्य होने का। अब इसको समझना। पशुओं के
पास मन नहीं है और संतों के पास भी मन नहीं होता। दोनों में थोड़ा सा तालमेल
है--थोड़ा सा तालमेल! भेद बड़ा है, तालमेल थोड़ा सा है। संत मन के पार निकल गए
और पशुओं में अभी मन पैदा नहीं हुआ है। इसलिए संत छोटे बच्चों जैसे होते हैं। छोटे
बच्चे के पास मन अभी पैदा नहीं हुआ है और संत ने मन को उठा कर रख दिया है। यह और
बड़ी क्रांति है: मन को उठा कर रख देना। क्योंकि मन के द्वारा अगर तुम सज्जन हो तो
यह भी कोई सज्जनता है! यह तो जरा सी शराब पी लोगे, उतर
जाएगी। मन के द्वार अगर तुम सज्जन हो तो सज्जनता बहुत गहरी नहीं है। सज्जनता
स्वाभाविक होनी चाहिए। सज्जन और संत में यही फर्क है। सज्जन वह है जो चेष्टा
कर-करके सज्जन है। संत वह है जो निश्चेष्टता से, स्वभाव
से सज्जन है। सज्जन को दुर्जन बनाया जा सकता है, संत
को दुर्जन नहीं बनाया जा सकता। कोई उपाय नहीं है। सज्जन एक सीमा पर दुर्जन हो सकता
है।
समझो कि एक आदमी सज्जन है और कहता है कि
मैंने कभी चोरी नहीं की। तुम उससे पूछो कि रास्ते पर अगर एक लाख रुपए पड़े मिल जाएं
तो उठाओगे कि नहीं? कोई भय न हो, न
कोई देखने वाला है, न कोई पुलिस है, तो
उठाओगे कि नहीं?
वह आदमी कहेगा, कभी नहीं, मैं
चोर नहीं हूं। तुम कहो, और एक करोड़ रुपए पड़े हों तो? तो
वह आदमी भी सोचने लगेगा। एक सीमा है। एक लाख तक शायद उसका बस था। उसका मन एक लाख
तक अपने को समझा लेता था कि नहीं, एक लाख से तो अचोर रहना ज्यादा मूल्यवान है; लेकिन
एक करोड़,
तो फिर बात डगमगाने लगती है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन एक मकान में लिफ्ट
से ऊपर जा रहा है और एक महिला अकेली मिल गई। तो उसने मौका न छोड़ा। उसने कहा, अगर
एक हजार रुपया दूं तो आज रात मेरे साथ सो सकोगी? वह
महिला नाराज हो गई। उसने कहा, तुमने मुझे समझा क्या है? नसरुद्दीन
ने कहा,
और अगर दस हजार दूं? तो महिला ने उसका
हाथ पकड़ लिया। और कहा कि ठीक। तो नसरुद्दीन ने कहा, और
अगर दस रुपए दूं?
तो उसने कहा, तुमने मुझे समझा क्या है? वह
बोला कि मैंने वह तो समझ लिया, अब तो मोल-भाव कर रहे हैं। दस हजार में तू
अगर राजी है तो अब तो मोल-भाव की बात है। क्योंकि बात तो समझ में आ गई कि तेरी
हैसियत क्या है। तू कौन है, यह तो हम समझ गए। तेरा सतीत्व कितना दूर तक
जा सकता है,
वह हम समझ गए, अब हम मोल-भाव की बात कर रहे हैं। क्योंकि
हमारी भी हैसियत की बात है न; दस हजार हमारे पास है कहां!
सज्जन की सीमा है, संत
की कोई सीमा नहीं है। क्योंकि मन की सीमा है, ध्यान की कोई
सीमा नहीं है। सज्जन मन से सज्जन है; संत ध्यान से, स्वभाव
से, सहजता
से। यही आचरण और आत्मा का भेद है। आचरण होता है मन पर निर्भर और आत्मा होती है
मुक्ति,
परम मुक्ति। अंतस से जो जीएगा वह आदमी धार्मिक और आचरण से जो जीएगा
वह आदमी नैतिक।
अब तुम्हारे प्रश्न को समझो।
"आपने
कहा कि मन को सहारा न देना और जीवन के प्रति सहज होना चाहिए।'
सहज होने का अर्थ है: जो-जो तुम मन के
द्वारा करते रहे हो...समझो, जैसे तुम क्रोधी हो और मन के द्वारा तुमने
किसी तरह क्रोध को दबा रखा है; करुणा असली नहीं है, ऊपर
से थोपी,
ऊपर-ऊपर है, रंगी-पुती; ऊपर
से करुणा दिखाते हो, भीतर से क्रोधी हो--इससे तुम्हारे जीवन जीवन
में क्रांति न घटित होगी। इससे तुम थोथे के थोथे, पाखंडी
के पाखंडी बने रहोगे। मैं तुमसे कहता हूं, क्रोध को दबाओ मत, क्रोध
को समझो। क्योंकि समझ के द्वारा एक ऐसा मौका आता है, एक
ऐसा क्षण आता है कि क्रोध से तुम मुक्त हो जाते हो तो तुम्हारे भीतर करुणा का
आविर्भाव होता है। उसको मैं सहजता कह रहा हूं। अक्सर तुम मेरी सहजता से अपने अर्थ
लगा लेते हो। वह भी मैं जानता हूं। इसलिए ये बातें बड़ी खतरनाक हैं कि जब मैं कहता
हूं सहज हो जाओ तो तुम्हारे मन में यही उठता है, तो
फिर हो जाओ जानवर! तुम्हारी तकलीफ भी मैं समझता हूं। क्योंकि तुमने सहज होने का और
तो कोई ढंग जाना नहीं। सहज होने का तुम्हारे लिए एक ही मतलब होता है कि मन को
हटाया कि गए नर्क,
कि हुआ कुछ उपद्रव। किसी तरह अपने को सम्हाले हैं, नहीं
तो कभी का पड़ोसी की पत्नी को ले भागे होते। अब ये कह रहे हैं, सहज
हो जाओ।
तुमने सुनी है कहानी? एक
आदमी ने,
बड़े धनपति ने, एक मनोवैज्ञानिक से सलाह ली कि बड़ी मुश्किल
में हूं,
दफ्तर में कोई काम ही नहीं करता, लोग
अपनी-अपनी टेबलों पर पैर फैलाए बैठे रहते हैं, कोई अखबार पढ़ता
है, गपशप
हांकते हैं। मैं अगर पहुंच भी जाता हूं तो वे जल्दी से दिखाने लगते हैं कि काम कर
रहे हैं,
लेकिन काम-वाम होता नहीं। मैंने एक दिन उनसे पूछा भी कि "भाई, मैं
जब आता हूं तब तुम एकदम चौंक कर काम करने लगते हो; जब
मैं चला जाता हूं,
सब काम बंद हो जाता है। ऐसे काम कैसे चलेगा? क्या
मैं चौबीस घंटा यहां तुम्हारे सिर पर बैठा रहूं? किस-किसके
सिर पर बैठा रहूं?
बड़ा दफ्तर है।' तो क्या करूं?
मनोवैज्ञानिक ने कहा, आप
एक काम करें,
एक तख्ती टांग दें सारे दफ्तर में जगह-जगह, उसका
बड़ा परिणाम होगा। तख्ती में लिख दें कि "जो कल करना हो वह आज करो, अभी
करो; क्योंकि
कल कभी आता नहीं।'
तख्ती टांग दी। दूसरे दिन मनोवैज्ञानिक
पहुंचा मिलने कि कहो कि तख्ती का कुछ परिणाम हुआ? वह
धनपति अपना सिर ठोक रहा था। उसने कहा, परिणाम! परिणाम
बहुत हुआ। कैशियर सब पैसे लेकर नदारद हो गया। सैक्रेटरी टाइपिस्ट को ले भागा। और
ऑफिस बॉय ने धमकी दी है कि बाहर निकलो तो जूतों से पूजा करूंगा; सदा
से करना चाहता था,
लेकिन यह सोच कर कि कल करेंगे, कल करेंगे। तो अब
बाहर निकलने तक मैं घबरा रहा हूं। खूब तख्ती दी, खूब
परिणाम हो रहा है!
मैं भी जानता हूं, जब
तुम सुनते हो कि सहज हो जाओ, तब तुम्हारे सामने सवाल उठता है: "तो
फिर क्या करना?
कैशियर हैं कहीं, ले भागे?' किसी को मारने की
कई दिन से योजना बनाते थे, मारते थे नहीं कि यह बात अच्छी नहीं, अब
सहज हो गए--"हत्या कर दें? चोरी कर लें, बेईमानी
कर लें?
क्या कर लें?'
जैसे ही मैं कहता हूं सहज हो जाओ, तुम्हारे
मन में जो बातें उठती हैं, उन बातों को ठीक से समझना। उन बातों को ही
तुमने दबा रखा है मन के द्वारा।
जब मैं तुमसे कहता हूं सहज हो जाओ, तब
घंटे भर बैठ जाना और इस बात पर ध्यान करना कि अगर मैं सहज हो जाऊं तो मैं
क्या-क्या करूंगा। लिख लेना फेहरिश्त बना कर। उससे तुम्हारे मन के संबंध में बड़ी
अदभुत बातें तुम्हें समझ आएंगी कि ये सब बातें जो तुम करना चाहते हो सहज हो कर, ये
तुम्हारे भीतर दबी पड़ी हैं, यह तुम्हारा मवाद है, ये
तुम्हारे घाव हैं।
मैं तुम्हें पशु होने को नहीं कह रहा हूं।
जब मैं तुमसे कह रहा हूं, सहज हो जाओ, तो
मैं यह कह रहा हूं: दबाओ मत, समझो। अगर क्रोध दबा पड़ा है भीतर तो समझो कि
क्रोध क्या है! क्रोध पर ध्यान करो। क्रोध को ऐसा भीतर-भीतर हटा कर अंधेरे में मत
सरकाओ। उसे तलघरे में मत डालो, रोशनी में लाओ। क्योंकि रोशनी पड़ेगी क्रोध
पर तो क्रोध विसर्जित हो जाएगा। और क्रोध जब विसर्जित होता है तो जो ऊर्जा क्रोध
में संलग्न थी वही ऊर्जा करुणा बनती है और तब करुणा सहज होती है।
जैसे पशु के लिए पशुता सहज है, वैसा
ही संत के लिए संतत्व सहज है। लेकिन संतत्व आता है ध्यान से और संतत्व दमन से कभी
नहीं आता। दमन से तुम सज्जन हो सकते हो, लेकिन तुम सब रोग
अपने भीतर लिए बैठे रहोगे। तुम्हारे भीतर पूरा नर्क बना रहेगा। ऊपर-ऊपर
मुस्काओ-हंसो,
मगर भीतर आंसू भरे रहेंगे। इससे कुछ फर्क नहीं हो रहा है। हो सकता
है तुम ज्यादा अच्छे नागरिक हो, समाज तुम्हें प्रतिष्ठा देगा; मगर
ये सब बाहर की बातें हैं, भीतर तुम्हारी अपने ही मन में अपनी कोई
प्रतिष्ठा नहीं होगी, अपना ही सम्मान नहीं होगा। तुम अपने को ही
तिरस्कार करोगे,
अपने को ही घृणा करोगे, निंदा करोगे, क्योंकि
तुम दुनिया को तो धोखा दे दो, अपने को तो कैसे धोखा दोगे?
मैं समझता हूं कि तुम वही समझ लेते हो जो
तुम समझ सकते हो।
एक धोबी का गधा ट्रक के नीचे आ गया और ट्रक
के नीचे आने से मर गया। ड्राइवर उसे समझाने और सांत्वना देने लगा। सांत्वना देने
के खयाल से बोला,
चिंता न करो भाई; विश्वास करो, मैं
उसकी पूर्ति कर दूंगा। नहीं-नहीं, धोबी ने कहा, तुम
उसकी पूर्ति न कर सकोगे। धोबी की आंख में आंसू आ गए। उस आदमी ने कहा, क्यों
न कर सकूंगा पूर्ति? तो धोबी ने कहा, देखो
तुम उसके बराबर के मोटेत्तगड़े भी नहीं हो कि इतना भारी कपड़ों का गट्ठर लाद कर घाट
से घर तक,
घर से घाट तक आ-जा सको।
अब धोबी का गधा मर गया तो उसके सामने तो एक
बात है: गधा। उस गधे के बिना तो कुछ हो नहीं सकता। अब यह आदमी कहता है, मैं
पूर्ति कर दूंगा। धोबी ने देखा होगा गौर से कि यह आदमी, यह
क्या खाक पूर्ति करेगा, यह उतना मोटात्तगड़ा ही नहीं है। धोबी के
समझने का अपना तल है। और धोबी की अपनी वासना है। अब गधा जिसका मर गया हो, वह
उसका सब सहारा था।
एक ग्रामीण ने, मैंने
सुना है कि घड़ी खरीदी। एक दिन उसकी घड़ी बंद हो गई। तो ग्रामीण ने घड़ी खाली, घड़ी
में एक मच्छर मरा हुआ पड़ा था। तो वह जोर-जोर से रोने लगा। एक आदमी ने पूछा, "भाई
क्यों रो रहे हो,
ऐसा क्या, क्या कोई मर गया है? ऐसी
दहाड़ मार कर रो रहे हो!' तो उसने कहा कि हां भाई, कोई
मर गया है। मेरी घड़ी का ड्राइवर मर गया है।
अब ग्रामीण को यह तो अंदाज ही नहीं हो सकता
कि घड़ी कैसे चलती है। बेचारे ने घड़ी खोली, देखा कि एक मच्छर
मरा पड़ा है। उसने कहा, हद हो गई, इसीलिए
घड़ी बंद हो गई है।
एक तल है प्रत्येक व्यक्ति की समझ का। उस तल
के बाहर कुछ कहा जाए तो भी तुम उसका अनुवाद कर लेते हो। मैं यहां कुछ कहता हूं, तुम
कुछ अनुवाद कर लेते हो। मैं कहता हूं, सहज हो जाओ। तुम
सोचते हो,
यह तो बड़ी झंझट की बात है। सहज होने का मतलब होता है:
"दुराचारी हो जाएं, पापी हो जाएं, अपराधी
हो जाएं?'
क्योंकि तुमने पाप, अपराध और दुराचार
की वासनाओं को दबा रखा है, इसलिए। उन पर तुम पालथी मार कर बैठे हो।
जैसे ही तुम जरा हिले की वे फन उठाने लगती हैं। उनसे तुम हिल नहीं सकते। मगर यह
कोई जिंदगी हुई?
यह जिंदगी दुख की जिंदगी रहेगी। और जिसको तुमने दबाया है उसे रोज-रोज
दबाना होगा। और जिसको तुमने दबाया है वह बदला लेने की प्रतीक्षा करेगा। और जिसको
तुमने दबाया है,
किसी कमजोर क्षण में विस्फोट होगा।
इसलिए तो तुम देखते हो, एक
भला आदमी,
कभी तुमने सोचा नहीं था और अचानक किसी की हत्या कर दी उसने! तुम
कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि यह आदमी और हत्या कर देगा! भला, सीधा-साधा
अच्छा आदमी। मगर चेहरे तो असली आदमी नहीं हैं। भीतर कुछ और है।
तुमने कई बार देखा नहीं कि जिससे इतनी
मित्रता थी वह धोखा दे गया। कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि धोखा देगा, कि
बेईमान सिद्ध होगा।
आदमी भीतर कुछ है, बाहर
कुछ है। मन के कारण तुम बाहर कुछ दिखाई पड़ते हो और भीतर तुम कुछ हो। जब मैं कहता
हूं सहज हो जाओ तो मैं यह कह रहा हूं: जो दबाया है उसका पुनरावलोकन करो। दबाने से
कोई छुटकारा नहीं है, न कोई रूपांतरण है, न
कोई क्रांति है। अगर जीवन में क्रांति चाहते हो तो जो-जो दबाया है, एक-एक
का निरीक्षण करो और निरीक्षण करते-करते देखते-देखते, क्रोध
को पहचान लेना ही क्रोध से मुक्त हो जाना है। लोभ को पहचान लेना ही लोभ से मुक्त
हो जाना है। काम को पहचान लेना ही काम से मुक्त हो जाना है।
मैं तुमसे ब्रह्मचर्य लेने की जरा भी बात नहीं
करता, क्योंकि
वह झूठ होगा। तुम जाओ, साधु-महात्मा तुमसे कहते हैं, कुछ
व्रत ले लो,
ब्रह्मचर्य का व्रत ले लो। मैं तुमसे ब्रह्मचर्य के व्रत की बात
नहीं करता। मैं तुमसे कहता हूं, कामवासना में आंखें गड़ा कर देखो, कामवासना
में पूरा ध्यान दो। ठीक से पहचान लो। उसी पहचान में तुम छूट जाओगे। ज्ञान मुक्ति
है और अज्ञान बंधन है। तुमने अगर कामवासना में ठीक-ठीक आंखें गड़ा कर देख लिया तो
तुम मुक्त हो जाओगे। और उस मुक्ति में जो फंसेगा वही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का
व्रत नहीं लेना होता। व्रत वाला ब्रह्मचर्य तो झूठा है, थोथा
है, आरोपित
है। और व्रतवाला ब्रह्मचारी सदा डरेगा, घबराया रहेगा:
"कहीं स्त्री न दिखाई पड़ जाए!' अब कहां भागोगे? स्त्रियां
सब जगह हैं। और कैसे भागोगे? क्योंकि स्त्री तुम्हारे भीतर भी है। आधे तो
तुम स्त्री से बने हो, भागोगे कहां? आधा
तुम्हारे पिता,
आधा तुम्हारी मां ने तुम्हें निर्मित किया है--आधे तुम पुरुष, आधे
तुम स्त्री हो। तुम्हारे भीतर स्त्री पड़ी है। उससे भागोगे कहां? जंगल
में चले जाओगे,
गुफा में बैठ जाओगे, भीतर जो आधी
स्त्री पड़ी है,
सपना बन कर उठेगी।
ऋषि-मुनियों की तुम कहानियां पढ़ते हो, उन्हें
अप्सराओं ने घेर लिया! कहां अप्सराएं हैं? किसको पड़ी है? और
अप्सराओं का इन ऋषि-मुनियों में रस क्या होगा? तुम थोड़ा सोचो
भी। अप्सराओं को और कोई भले-चंगे आदमी नहीं मिलते? सूखे-साखे
ऋषि-मुनि,
मरे-मराए, मरने की प्रतीक्षा कर रहे, किसी
तरह माला फेरने लायक हैं, बस और तो कोई ताकत नहीं है। ये बैठे हैं
अपनी गुफा में,
इन बेचारों पर कौन अप्सरा ध्यान देगी? तुम
जरा जा कर बैठ कर देख लो। तुम सोचते हो कि हिमालय की गुफा में जा कर बैठ जाओगे तो
"हेमामालिनी'
आने वाली है? कोई नहीं आने वाली। बैठे रहो, करो
प्रतीक्षा कि आती होगी कोई अप्सरा। कोई नहीं आने वाली। मैं तुमसे कहता हूं कि
ऋषि-मुनि अप्सराओं के घर पर जा कर दस्तक भी मारें तो दरवाजा भी नहीं खुलने वाला।
पुलिस पकड़ ले जाएगी।
मगन कहानियां सच कहती हैं, कहानियां
झूठ नहीं कह सकतीं, क्योंकि कहानियां सदियों के अनुभव से बनी
हैं। ये अप्सराएं बाहर से नहीं आतीं, यह भीतर की ही
स्त्री है जो कल्पना में प्रगाढ़ हो जाती है। यह कोई बाहर से नहीं आ रहा है, यह
तुम्हारी कल्पना है। और जब आदमी बहुत दिन क्षुधित होता है तो कल्पना बहुत प्रगाढ़
हो जाती है। जैसे भूखा आदमी अगर कई दिन भूखा आदमी अगर कई दिन भूखा बैठा रहे तो फिर
जहां भी देखता है,
उसको भोजन ही दिखाई पड़ता है।
मैंने सुना है, हेनरिख
हेन ने लिखा है कि वह जंगल में भटक गया। जर्मनी का प्रसिद्ध कवि था और तीन दिन तक
उसे रोटी नहीं मिली खाने को और भटकता रहा, भटकता रहा। फिर
पूर्णिमा का चांद निकला, तो उसने अपनी डायरी में लिखा है कि मैं चकित
हो गया,
मुझे ऐसा लगा कि एक रोटी तैर रही है आकाश में। पहले मुझे ऐसा कभी
नहीं लगा था। जीवन भर कविता लिखते हो गया, सदा सुंदर मुख
दिखाई पड़ते थे,
सुंदरियां दिखाई पड़ती थीं; चांद में उस दिन
रोटी दिखाई पड़ी। मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने अपनी आंखें मीड़ीं कि हो क्या गया मुझे!
लेकिन जब पेट भूखा हो तो चांद भी रोटी बन
जाता है। पेट भूखा हो तो हर चीज में भोजन दिखाई पड़ता है। कामवासना दबा कर बैठ गए
हो, कितनी
देर गुफा में बैठे रहोगे? कामवासना फन उठाएगी। और कामवासना इतनी
प्रगाढ़ता से उठ सकती है कि तुम्हें बिलकुल मालूम पड़े कि स्त्री सामने खड़ी है। छू
सको, स्पर्श
कर सको,
ऐसी स्त्री सामने खड़ी है। ऋषि-मुनियों को धोखा नहीं हुआ; स्त्री
बहुत स्पष्ट सामने खड़ी थी। लेकिन यह उनकी ही कल्पना का प्रगाढ़ रूप था। यह
प्रक्षेपण था।
तो तुम ब्रह्मचर्य का व्रत ले कर ब्रह्मचारी
न हो जाओगे। और दान का व्रत ले कर दानी न हो जाओगे। क्रोध न करने की कसम खाने से
अक्रोधी न हो जाओगे। इससे मन निर्मित होगा।
तो जब मैं तुमसे कहता हूं, मन
से मुक्त होना है तो मेरा मतलब यह है कि एक एक प्रक्रिया को, जो
तुम्हारे जीवन को डावांडोल करती है--काम है, लोभ है, मोह
है, मत्सर
है--इनको एक-एक को ध्यान करो। समझो। पहचानो। गहरे उतरो। गहराई से इनका अनुभव हो
जाए, इनकी
पकड़ तुम पर से छूट जाएगी, तुम्हारी पकड़ इन पर से छूट जाएगी। क्योंकि
गौर से देखने पर पता चलेगा कि कुछ भी नहीं है, असार है।
"असार का बोध' छुटकारे का सूत्र है।
क्रोध तो बहुत बार किया है, लेकिन
क्रोध से सार क्या है, पाया क्या है? यह
मैं तुमसे कह रहा हूं, लेकिन इससे कुछ हल नहीं होगा। तुमको अपने
क्रोध की प्रक्रिया में पूरी तरह उतर कर देखना होगा कि सार है या नहीं? मेरे
कहने से मान लोगे,
फिर दमन हो जाएगा। तुम तो अपनी प्रक्रिया को ही जानो।
तुम तो ऐसा समझो कि तुमसे पहले कोई आदमी
पैदा ही नहीं हुआ,
तुम पहले आदमी हो, तुम आदम हो। आदम के पास कोई शास्त्र नहीं थे, कोई
महात्मा नहीं थे। आदम का बड़ा सौभाग्य था। कोई परंपरा नहीं थी। पीछे कोई कह नहीं
गया था। आदम ने जो भी जाना होगा, खुद ही जाना होगा। क्रोध उठा होगा तो क्रोध
को जाना होगा,
पहचाना होगा। कोई बताने वाला नहीं था कि क्रोध बुरा है, बंद
करो, रोको।
कोई कहने वाला नहीं था। तुम फिर से अपने को ऐसा ही समझो कि तुम पहली दफे पृथ्वी पर
अकेले आए हो;
न कोई महात्मा पहले हुआ, न कोई साधु-संत तुम्हें
कुछ समझा गए हैं। अपने को प्रथम मान कर चलो, ताकि तुम अपनी
जीवन-प्रक्रियाओं को पूरा-पूरा पहचान लो। पहले से ही पक्षपात निर्मित कर लेने से
पहचान नहीं हो पाती। तुम पहले से ही मान कर चलते हो कि कामवासना बुरी है। यह तो
तुमने मान ही लिया।
मेरे पास लोग आते हैं। मैं उनसे कहता हूं कि
अभी तुमने जाना नहीं तो मानते क्यों हो कि कामवासना बुरी है? वे
कहते हैं,
कि साधु-संत कहते हैं। साधु-संत कहते रहें, इससे
क्या होता है?
साधु-संत गलत भी हो सकते हैं। साधु-संत आखिर हैं ही कितने? असाधु
और असंत ज्यादा हैं। लोकतंत्र में भरोसा करते हो कि नहीं? तो
तुम वोट डलवा कर देख लो। ज्यादा वोट तो काम के पक्ष में पड़ेंगे। सौ में निन्यानवे
वोट तो कामवासना के पक्ष में पड़ेंगे। तो यह एक आदमी बहका भी हुआ हो सकता है, इसकी
बात मानने की इतनी जरूरत क्या है? जब निन्यानवे लोग कहते हैं कामवासना ही जीवन
है, तो
जरूर कामवासना की कुछ गहराई है, कुछ बड़ी पकड़ है, कुछ
अदम्य पकड़ है। इस अदम्य पकड़ से तुम व्रत-नियम ले कर छुटकारा न पा सकोगे। इसमें तो
अतल तक गहरे उतरना होगा। इसमें तो ध्यान की ऊर्जा को लगाना होगा। इसमें तो
निष्पक्ष भाव से जाना होगा। न अच्छा न बुरा, कोई पक्षपात मत
बनाना। जानना-पहचानना। और जानने-पहचानने की प्रक्रिया से निर्णय आने देना, वही
निर्णय छुटकारा बन जाता है।
जब मैं तुमसे कहता हूं सहज हो जाओ तो मेरा
इतना ही अर्थ है कि तुम अपनी जीवन-प्रक्रियाओं को दबाओ मत, दुश्मनी
मत साधो। वे सब सीढ़ियां हैं। उन सीढ़ियों पर चढ़-चढ़ कर ही आदमी परमात्मा तक पहुंचता
है। उन सीढ़ियों को तुम पत्थर भी बना ले सकते हो। और सीढ़ियां भी बना सकते हो। तुम
पर सब निर्भर है।
अक्सर ऐसा हो जाता है। इसको खयाल में लेना।
सभी लोगों की बीमारियां एक जैसी नहीं हैं। समझो, एक
आदमी के जीवन में बहुत कामवासना है। जिस व्यक्ति के जीवन में बहुत कामवासना होगी
उसके जीवन में लोभ उतना ज्यादा नहीं होगा। हो नहीं सकता, क्योंकि
ऊर्जा सारी की सारी कामवासना ले लेती है। तो यह आदमी लोभ पर जल्दी विजय पा लेना, इसको
दिक्कत नहीं आएगी। और यह दूसरों को भी समझाने लगेगा कि लोभ में रखा ही क्या है, मैंने
यूं छोड़ दिया! व्रत ले लिया और बात खतम हो गई। तुम इस झूठ में मत पड़ना, क्योंकि
इसकी जीवन-स्थिति तुमसे भिन्न है। हर आदमी की जीवन-स्थिति इतनी भिन्न है जैसे
तुम्हारे अंगूठों के चिह्न भिन्न होते हैं।
गुरजिएफ के पास जब कोई जाता था तो वह कहता
था, तुम
सबसे पहले यह खोजो कि तुम्हारे जीवन में सबसे बड़ा विकार क्या है, सबसे
बड़ी बीमारी क्या है? उस पर ही सब निर्भर करेगा। क्योंकि अक्सर
ऐसा हो जाता है कि आदमी छोटी-छोटी बीमारियों से लड़ता रहता है और जीतने का मजा लेता
रहता है। और वे असली बातें नहीं हैं। असली बात देखनी जरूरी है। तो किसी के जीवन
में काम हो सकता है सबसे दुर्दम्य, सबसे शक्तिशाली
वासना हो। ऐसा आदमी धन को छोड़ सकता है आसानी से, पद
को छोड़ सकता है आसानी से। ऐसा आदमी क्रोध को छोड़ सकता है आसानी से। लेकिन इससे तुम
यह मत समझ लेना कि क्रोध को छोड़ना सभी को आसान होगा। अगर तुम्हारे जीवन में क्रोध
ही मूल है तो तुम कामवासना आसानी से छोड़ सकते हो। तुम्हें अपनी ही जीवनस्थिति
खोजनी पड़ेगी।
मैंने सुना है, एक
खिलौनों की दुकान पर एक महिला खिलौने खरीद रही है। दुकानदार भी एक महिला है।
दुकानदार महिला ने कहा, बच्चों के खिलौने, यह
गुड़िया देखिए। गुड़िया ग्राहक-महिला के हाथ में थमाते ही उसने कहा, इसे
आप ज्यों बिस्तर पर लिटाएंगी, यह सचमुच की गुड़िया की तरह आंखें मूंद कर सो
जाएगी। प्रौढ़ा हंसी। उसने कहा, बिट्टो, लगता है तुमने
कभी सचमुच की गुड़िया को सुलाया नहीं।
सचमुच की गुड़िया इतनी आसानी से सोती भी
नहीं। सुलाओ तो और आंखें खोलती है। सुलाओ तो और चीखती-चिल्लाती है। उस महिला ने
बात ठीक कही कि बिट्टो, मालूम होता है तुमने सचमुच की गुड़िया कभी
सुलाई नहीं।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि जिन्होंने झूठ-मूठ
की गुड़ियाएं सुला ली हैं, वे दूसरों को भी सलाह देने लगते हैं कि
"तुम भी सुला लो, इसमें रखा क्या है? इसमें
कुछ है नहीं। बड़ा सरल है।' लेकिन जो दूसरे के लिए सरल था वह तुम्हें भी
सरल होगा,
इस भ्रांति में मत पड़ना। जो तुम्हें कठिन है, वह
दूसरे को कठिन होगा, इस भ्रांति में भी मत पड़ना। इसलिए एक-दूसरे
की सलाहें बहुत काम नहीं आतीं। अक्सर एक-दूसरे की सलाह जीवन में नुकसान करती है, लाभ
नहीं पहुंचाती।
इसलिए मेरी बातों में तुम्हें बहुत
विरोधाभास मिलेंगे, क्योंकि मैं अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह
की सलाह देता हूं। मैं लोगों पर ध्यान रखता हूं, सलाह
पर नहीं। किसी आदमी को मैं कुछ कहता हूं, किसी और को कुछ
कहता हूं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि विरोध साफ दिखाई पड़े, ऐसी
बात कहता हूं। लेकिन मेरी नजर तुम पर है, मेरी नजर सलाह पर
नहीं है। मैं किसी सिद्धांत के पीछे दीवाना नहीं हूं। सिद्धांत मूल्यवान नहीं हैं, सिद्धांतों
के लिए आदमी नहीं बने हैं। आदमी के लिए सब सिद्धांत बने हैं। शास्त्रों के लिए
आदमी नहीं बने हैं, आदमी के लिए सब शास्त्र बने हैं।
तुम पर मेरा ध्यान है। तुम्हें जब मैं देखता
हूं और लगता है कि तुम्हारे लिए क्या जरूरी होगा, वही
कहता हूं। वह जरूरी नहीं है कि दूसरे के लिए भी ठीक हो। तुम उसे पकड़ कर दूसरे को
समझाना शुरू मत कर देना। तुम यह मत सोचना कि मैंने तुमसे कहा तो बात हो गई; अब
तुम्हें मालूम हो गया कि सत्य क्या है। सत्य भी एक-एक व्यक्ति के लिए अलग ढंग से
अवतरित होता है।
मुल्ला नसरुद्दीन जोर से बोला। पत्नी चौके
में काम कर रही है। उसने जोर से चिल्ला कर कहा कि अरे, रसोई
में कुछ जल रहा है, क्या जल रहा है? बैठक
से मुल्ला चिल्लाया।
"मेरा
सिर', पत्नी
ने झल्ला कर उत्तर दिया
मुल्ला ने कहा, तब
तो ठीक है। मैं सब्जी वगैरह कुछ समझा था।
अपने-अपने मूल्य हैं। सब्जी वगैरह ज्यादा
मूल्यवान मालूम होती है। पत्नी का सिर जल जाए, यह कोई बात चिंता
की नहीं है।
खयाल रखना, तुम्हारे
लिए जो मूल्यवान है उस पर ही ध्यान करो। तो सबसे पहले तो यह जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, षट्
रिपु कहे हैं शास्त्रों ने, इन छह शत्रुओं में तुम खोज करो कि तुम्हारा
शत्रु कौन है?
उससे शुरू करो। उससे निपटारा हो गया तो बाकी पांच शत्रुओं से यूं
छुटकारा हो जाता है जिसका कोई हिसाब नहीं है। मूल से छुटकारा हो जाए, प्रमुख
से तुम जीत गए,
तो बाकी सब उसके पीछे चल पड़ते हैं। तुम्हारा जो मूल शत्रु हो उस पर
ध्यान करो। और जल्दी मत करना। रोज-रोज ध्यान करना। छूटने की चेष्टा भी नहीं करना, सहज
होने की चेष्टा करना। अगर ऐसा लगे कि बाहर सहज होने में खतरा है, महंगा
हो जाएगा...।
समझ लो कि क्रोध तुम्हारा शत्रु है तो तुम
बाहर ऐसा अगर हर किसी पर क्रोध करने लगे तो नौकरी जाए हाथ से, पत्नी
चालाक दे दे,
मां-बाप घर से निकाल दें, झंझटें खड़ी हो
जाएं, तो
एकांत में,
कमरे में बैठ कर क्रोध करना। द्वार-दरवाजे बंद कर लेना। दिल खोल कर
क्रोध करना। प्रतीक रख लेना। जैसे भगवान का प्रतीक रखते न, मूर्ति
बना दी,
ऐसे अगर तुमने दफ्तर के मालिक पर नाराजगी है, एक
कागज पर चित्र बना लिया, ले कर जूता बैठ गए। दिल खोल कर मारो। पहले
तो तुम थोड़ा हैरान होओगे कि यह क्या पागलपन कर रहा हूं, लेकिन
तुम थोड़े ही दो-चार मिनट के बाद पाओगे कि जोश आने लगा, मजा
आने लगा।
जापान में तो उन्होंने इस तरह का प्रयोग बड़े
पैमाने पर किया है। जापान की कुछ बड़ी कंपनियों ने तो अपनी कंपनी के मालिक की
मूर्तियां बनवा दी हैं। मनोवैज्ञानिकों की सलाह पर हुआ है कि मजदूरों को नाराजगी
है। और स्वाभाविक है कि नाराजगी हो जाती है। क्लर्क नाराज हो गया तो वह चला जाता
है। वह एक अलग कमरा बना दिया है, वहां मालिक की मूर्ति रखी है, मैनेजर
की मूर्ति रखी है,
फोरमैन की मूर्ति रखी है--लगाओ! और यह अनुभव में आया है कि जब आदमी
जा कर सबको लगा कर लौटता है तो बड़ा प्रसन्न और हलका हो कर लौटता है। काम में गति
बढ़ जाती है,
रस बढ़ जाता है और धीरे-धीरे दया भी आने लगती है कि अरे, बेचारे
को नाहक मारा! सदभाव भी पैदा होता है।
तुम जरा कोशिश करके देखो। पश्चिम में इस
संबंध में बहुत प्रयोग चल रहे हैं और प्रयोग बड़े कारगर हो गए हैं। बजाय अपनी पत्नी
को पीटने के तुम तकिया रख सकते हो। तकिया पर पत्नी का नाम लिख लो, चाहो
तस्वीर लगा लो,
पीटो। इससे किसी की हिंसा भी नहीं होती और तुम्हारा पूरा क्रोध उभर
कर आएगा। तुम थोड़ी देर में पाओगे कि तुम कंप रहे हो क्रोध से; हाथ-पैर
कंप रहे हैं,
आंखें लाल हो गई हैं, दांत भिंच रहे
हैं। और जब ऊष्ण अवस्था आ जाए क्रोध की और तुम जलने लगो लपटों से, तब
आंख बंद करके बैठ जाना, इस जलन को देखना। क्योंकि इस घड़ी में ही
देखना संभव हो सकता है। बीज में तो तुम क्या खाक देखोगे, जब
फूल बन जाए कोई चीज तभी देख सकते हो। इस अवस्था में क्रोध पर ध्यान करना।
महावीर पहले भारतीय मनीषी हैं जिन्होंने
ध्यान के चार रूपों में दो रूप रौद्र औरर् आत्त ध्यान कहे हैं। जो अभी पश्चिम में
हो रहा है,
महावीर ने उसके लिए नाम भी दिए हैं। क्रोध के ध्यान को वे कहते हैं
रौद्र ध्यान और दुख के ध्यान को कहते हैंर् आत्त ध्यान। अगर तुम दुखी हो तो दबाए
मत रखो इसे;
कमरा बंद करके रो लो, छाती पीट लो, लोट
लो, दुख
को पूरा का पूरा जी लो। और जब दुख के बादल तुम्हें सब तरफ से घेरे हों तब शांति से
उनके बीच बैठ कर साक्षी हो जाओ। तुम चकित हो जाओगे, तुम्हारे
हाथ में कुंजी आ गई। और इस तरह धीरे-धीरे-धीरे एक दिन तुम पाओगे तुम सहज हो
गए--पशु वाली सहजता नहीं, संत वाली सहजता। तब तुम मन के पार हो गए।
मोहन, डूब जाओ।
तीसरा प्रश्न: भोग, प्रेम
ध्यान,
समझ समर्पण कुछ भी तो मेरे लिए सहयोगी नहीं
हो रहा है। फिर भी आपने मुझे स्वीकार किया, यही
अनुग्रह बहुत बड़ा है। अब आप ही जानें!
इतना भी तुम कर पाओ तो सब हो जाओ। छोड़ ही दो
तो भी सब हो जाए। इतना भरोसा भी कर लो, इतनी श्रद्धा भी
कर लो तो सब हो जाए। क्योंकि श्रद्धा बड़ी कीमिया है, बड़ी
क्रांति है।
मत कहानी खतम कर दे प्यार पा कर
कुछ कथानक को बढ़ा दे ज्वार ला कर
प्यार की कश्ती तिरा कर डूब जा
उम्र यादों की बढ़ा कर डूब जा
यदि प्रथम ही अभियान में मंजिल मिली तो क्या
मिला
यदि ठोकरें खाईं न भटका तो बता तू क्या चला?
इस तरह से चल कि तुझ पर लक्ष्य को अभिमान हो
पदचिह्न का फिर बाद तेरे दीप सा सम्मान हो
तूफान का तो बहुत कायल हो चुका
खा कर थपेड़े बहुत घायल हो चुका
धार को पायल पहना कर डूब जा
आखिरी आंधी उठा कर डूब जा
क्या बताऊं मैं कि तेरा डूबना है पार जाना
जीत है तेरी किसी के वास्ते यूं हार जाना
हृदय रखने को किसी का हृदय अपना दफन कर दे
यज्ञ पूरा हो किसी का, जिंदगानी
हवन कर दे।
सुनो--फिर से सुनो!
क्या बताऊं मैं कि तेरा डूबना है पार जाना!
अगर तुम मुझ में डूबने की क्षमता जुटा लो, इतना
भी कर सको कि चलो छोड़ दें, चलो पूरा छोड़ दें! राई-राई रत्ती-रत्ती छोड़
देना, तो
उसी समर्पण में तुम पाओगे एक क्रांति घट गई। उसी समर्पण में तुम समग्र हो गए, क्योंकि
राई-रत्ती छोड़ दिया, पूरा छोड़ दिया। पूरा छोड़ने का अर्थ है कि
तुम समग्र हो गए,
इकट्ठे हो गए। कम से कम एक काम करने में तो तुम इकट्ठे हो गए, तुम्हारे
खंड-खंड अखंड हो गए। उस अखंड में ही पहला रस तुम्हें अपनी आत्मा का मिलेगा। इसलिए
समर्पण एक सूत्र है। और श्रद्धा एक अपूर्व सूत्र है।
बलिदान चाहेगा लहर का देवता
तू संजो कर अपने सपन की संपदा
अर्ध्य आंसू का चढ़ा कर डूब जा
वासनाएं तू डुबा कर डूब जा
तट की न चिंता कर कि पहले हर भंवर में घूम
ले
तू धार कर बाहुओं में हर लहर को चूम ले
तू जहां डूबे वहां आलोक का तीरथ बनेगा।
तू जहां भी दफन हो वह स्थान मंदिरवत बनेगा
दर्द हो पर आंख से टपके न पानी
इस तरह से मित्र जी ले जिंदगानी
आदमी मन का जगा कर डूब जा
तू नया सूरज उगा कर डूब जा।
व्यर्थ ही यह हठ न कर, डेरा
उठाना ही पड़ेगा
तू भले चाहे न चाहे, डूब
जाना ही पड़ेगा
प्राण का पाहुन न ठहरेगा, विदा
गानी पड़ेगी
सांस की शतरंज है यह, मात
तो खानी पड़ेगी
अमर होगा पी कर गरल को, देख
तो
इन्सानियत का आज काजल देख तो
काल का मस्तक झुका कर डूब जा
गीत गा सेहरा सजा कर डूब जा।
आदमी मन का जगा कर डूब जा
तू नया सूरज उगा कर डूब जा।
समर्पण का अर्थ होता है: अपनी तरफ से चेष्टा
कर ली,
सब तरफ हाथ-पैर मार लिए...। वही तो अभी मैं बुद्ध की तुमसे कहानी
कह रहा था। छह साल सब तरह की चेष्टा करके देख ली, फिर
न हुआ तो छोड़ कर बैठ गए। श्रद्धा का भी यही अर्थ है। समर्पण का भी यही अर्थ है।
अपने से नहीं हुआ,
ठीक है, अब क्या कर सकते हैं? सब
कर लिया,
छोड़ दो। मगर फिर लौट-लौट कर करना मत। फिर छोड़ दिया तो छोड़ दिया।
फिर जैसी प्रभु की मर्जी। फिर जैसा प्रभु रखे, रहना। जैसा चलाए, चलना।
भला तो भला,
बुरा तो बुरा। सज्जन बनाए तो सज्जन। संत बनाए तो संत। दुर्जन बनाए
तो दुर्जन। फिर बेशर्त छोड़ देना। फिर यह मत रखना भीतर से जांच कि अच्छा बनाए तो
ठीक, बुरा
बनाए तो रुकावट डालेंगे। फिर तो बात नहीं हुई।
समर्पण का तो अर्थ होता है: जो होगा, शुभ
होगा शुभ,
अशुभ होगा अशुभ।
आदमी मन का जगा कर डूब जा
तू नया सूरज उगा कर डूब जा।
और यहां डूबने में कुछ खोता नहीं।
व्यर्थ ही यह हठ न कर, डेरा
उठाना ही पड़ेगा
तू भले चाहे न चाहे, डूब
जाना ही पड़ेगा।
एक न एक दिन मौत आएगी और डूब ही जाएंगे हम।
शिष्यत्व का अर्थ है कि मौत के पहले गुरु
में डूब गए। पुराने शास्त्र तो कहते हैं: गुरु यानी मृत्यु। पुराने शास्त्रों में
कभी-कभी अदभुत वचन हैं! गुरु यानी मृत्यु। गुरु का अर्थ ही यह है कि तुम मर गए
गुरु में,
डूब गए गुरु में। अब जो होगा होगा। अब तुम तो रहे नहीं। अब
तुम्हारे हाथ में तो कुछ हिसाब न रहा।
पूछा है स्वामी मोहन भारती ने। तो यही मैं
कहता हूं: मोहन,
डूब जाओ!
मैं अकेला तो नहीं हूं
चौथा प्रश्न: अकेला हूं मैं हमसफर
ढूंढता हूं
तुझी को मैं शाम और सहर ढूंढता हूं
मेरे दिल में आ जा, निगाहों
में छा जा
मुहब्बत की रंगीन रातों में आ जा
यह महकी हुई रात कितनी हंसीं है
मगर मेरे पहलू में तू ही नहीं है।
अकेला हूं, मैं
हमसफर ढूंढता हूं
तुझी को मैं शाम और सहर ढूंढता हूं।
महत्वपूर्ण है बात, समझने
जैसी है। जब तक तुम समझते हो कि तुम अकेले हो, तो ढूंढते रहोगे, पा
न सकोगे। क्योंकि अकेलेपन के कारण ढूंढ रहे हो, इसलिए तुम गलत को
ढूंढोगे। तुम्हें रस परमात्मा में नहीं है, अपना अकेलापन
भरना है। तुम्हें रस परमात्मा की खोज में नहीं है; तुम
अकेले हो,
तुम्हें साथी चाहिए, हमसफर चाहिए। तुम
महत्वपूर्ण हो। तुम परमात्मा के हमसफर नहीं बनना चाहते, तुम
परमात्मा को हमसफर बनाना चाहते हो।
मैं निरंतर कहता हूं, दुनिया
में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे, जो सत्य के साथ जाने को तैयार हैं और दूसरे
वे, जो
सत्य को अपने साथ लाने को तैयार हैं। दोनों में बड़ा फर्क है। तुम परमात्मा के साथी
होना चाहते हो कि परमात्मा को अपना बनाना चाहते हो?
बड़ा फर्क है। ऐसा मत सोचना कि जरा शब्द यहां
के वहां हैं,
फर्क क्या है! अगर तुम परमात्मा को साथी बनाना चाहते हो तो तुम
परमात्मा का उपयोग करना चाहते हो। तुम अकेले हो। कभी तुमने चाहा कि पत्नी से मन को
भर लेंगे,
न भरा। कभी तुमने चाहा मित्रों से भर लेंगे, न
भरा। कभी तुमने चाहा पद से, प्रतिष्ठा से भर लेंगे, न
भरा। क्लब-घरों में, भीड़ में, बाजार में, दुकान
में, हजार
तरह से भरने की कोशिश की, सब तरफ हार गए, तुम्हारा
मन न भरा;
अब तुम कहते हो, परमात्मा से भरेंगे। "...मैं अकेला हूं, हमसफर
खोजता हूं!'
लेकिन यह भक्त का भाव नहीं है। भक्त का भाव
बड़ा और है। और अकेले पन और अकेलेपन में बड़ा फर्क है। एक तो अकेलापन है जब तुम आनंद
से भरा हो। अकेलापन अर्थात तुम अपनी मौजूदगी से भरे हो। तुम अपने ध्यान में मस्त
हो, अकेले।
उसको हम एकांत कहते हैं। और एक अकेलापन है जब तुम दूसरे की गैर-मौजूदगी से पीड़ित
हो, अपनी
मौजूदगी का कोई पता नहीं है; दूसरा मौजूद नहीं है, कांटे
की तरह खल रही है उसकी गैर-मौजूदगी। एकाकी और एकांत में बड़ा भेद है। एकाकी रो रहा
है। एकांत में जो बैठा है, आनंदित है, प्रमुदित
है, प्रफुल्लित
है। एकाकी नकारात्मक स्थिति है; एकांत विधायक।
तुम्हारा जो गीत तुमने लिखा है, वह
एकाकीपन का गीत है: "अकेला हूं, मैं हमसफर ढूंढता
हूं।' उसमें
रुदन है। उसमें आंसू हैं। उसमें अभाव है।
तुझी को मैं शाम और सहर ढूंढता हूं।
"मेरे
दिल में आ जा,
निगाहों में छा जा
मुहब्बत की रंगीन रातों में आ जा।'
तुम परमात्मा की तरफ भी अभी उसी ढंग से सोच
रहे हो जैसा तुम पत्नी की तरफ, प्रेयसी की तरफ सोचते थे। बहुत फर्क नहीं
हुआ। वही पुरानी वासना, वही पुराना राग, वही
पुरानी कामना तुमने परमात्मा पर आरोपित कर दी।
"यह
महकी हुई रात कितनी हंसीं है
मगर मेरे पहलू में तू ही नहीं है।'
तुम उदास हो, क्योंकि
रात महकी हुई है। जीवन प्रसन्न है, तुम उदास हो
क्योंकि तुम्हारे पहलू में तुम्हारा प्यारा नहीं है।
"अकेला
हूं, मैं
हमसफर ढूंढता हूं
तुझी को मैं शाम और सहर ढूंढता हूं।'
तुम ढूंढते रहो, मिलेगा
नहीं। एक बात पक्की है कि मिलेगा नहीं, तुम ढूंढते रहो।
शाम और सहर ढूंढो,
दिन और रात ढूंढो। ढूंढते रहो। जन्मों-जन्मों से तुम यही कर रहे
हो। तुम छोड़ते ही नहीं लत, पुरानी लत। बस ढूंढे ही चले जा रहे हो।
तुम्हारे ढूंढने में बुनियादी भूल है।
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि तुम अपने
अकेले में आनंदित हो जाओ। तुम अपने एकांत में प्रफुल्लित हो जाओ। तुम अपने एकांत
को समाधि बनाओ। रोओ मत। भिखारी मत बनो। परमात्मा से कुछ मांगो मत। जो मांगता है वह
चूक जाता है। मांगा कि प्रार्थना खराब हो गई, गंदी हो गई।
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि जिस दिन तुम
अपने परम आनंद में बैठे होओगे, कमल की तरह खिले, सुवासित, उस
दिन परमात्मा तुम्हें ढूंढता है। उस दिन परमात्मा तुम्हारे पास आता है। तुम्हारे
आनंद के द्वार से आता है; तुम्हारी आंसू भरी आंखों से नहीं; तुम्हारे
गीत, प्रफुल्लित
सुगंध से आता है।
तुम परमात्मा को ढूंढ रहे हो, इससे
नहीं मिलेगा परमात्मा। ऐसा कुछ करो कि परमात्मा तुम्हें ढूंढे। तो ही मिलेगा। तुम
ढूंढोगे भी कहां,
जरा सोचो तो! तुम्हें कुछ पता-ठिकाना मालूम है? सुबह
सांझ ढूंढो,
मगर ढूंढोगे कहां। तुम जरूर गलत जगह ढूंढोगे, क्योंकि
तुम्हें उसका ठीक पता तो मालूम ही नहीं है। तुम्हें उसकी शक्ल-सूरत भी मालूम नहीं
है। मिल भी जाएगा तो तुम पहचानोगे कैसे? जरा सोचो। अगर
परमात्मा आज द्वार पर आ कर खड़ा भी हो जाए, तुम पहचानोगे? तुम
नहीं पहचानोगे। तुम पहचान ही न सकोगे। क्योंकि तुमने पहले उसे कभी देखा नहीं, उसकी
प्रत्यभिज्ञा कैसे होगी, पहचान कैसे होगी? तुम्हारी
उससे किसी ने पहले मुलाकात ही नहीं करवाई न तुम्हारी मुलाकात हुई है, अगर
आज अचानक द्वार पर खड़ा हो जाएगा, तुम द्वार बंद कर लोगे। तुम कहोगे, आगे
जाओ, यहां
कहां खड़े हो?
क्या मामला है? किसलिए खड़े हो; तुम
परमात्मा को न तो पहचान सकते हो न खोज सकते हो। खोजने के लिए कहां जाओगे? पहचानोगे
कैसे? नहीं, तुम
तो कुछ ऐसा करो कि परमात्मा तुम्हें खोजे।
यही फर्क है। ज्ञानी परमात्मा को खोजता है, भक्त
को भगवान खोजता है। भक्त तो अपने आनंद में मग्न हो जाता है, नाचता
है, अपनी
मस्ती में प्रसन्न होता है। और ध्यान रखना, भक्त अगर कभी
रोता भी है तो उसकी आंखों के आंसू आनंद के आंसू होते हैं, दुख
के नहीं होते,
पीड़ा के नहीं होते, उदासी के नहीं
होते, शिकायत
के नहीं होते--उसकी कृतज्ञता के होते हैं; उसके भरेपन से
निकलते हैं। वह इतना भी जाता है कि वह अब आंसू से न बहे तो और क्या करे! और कोई
रास्ता नहीं मिलता बहने का। वाणी से बहता है। नाच कर बहता है। आंसू से बहता है।
कभी हंसता,
कभी रोता--देखा नहीं, दया कहती है: कभी
हंसता,
कभी रोता, कभी उठता कभी गिरता--बड़ी अटपटी बात! कहीं
पैर रखता,
कहीं पड़ जाते--बड़ी अटपटी बात!
भक्त तो मतवाला होता है, मदमस्त
होता है। वह तो अपने आनंद की शराब को पीए बैठा है। परमात्मा उसे खोजने आता है।
भक्त का भाव यह नहीं है कि मैं अकेला हूं। भक्त का भाव कुछ और है।
भोर की आती किरण से रात की जाती छुअन तक
एक भीनी चुहचुहाती गंध मेरे साथ चलती है।
मैं अकेला तो नहीं हूं।
फर्क करो, तौलो।
तुम्हारा प्रश्न है:
"अकेला
हूं, मैं
हमसफर ढूंढता हूं
तुझी को मैं शाम और सहर ढूंढता हूं।'
यह प्रेमी की बात तो है, भक्त
की नहीं। भक्त की बात ऐसी है कुछ:
भोर की आती किरण से रात की आती छुअन तक
एक भीनी चुहचुहाती गंध मेरे साथ चलती है
मैं अकेला तो नहीं हूं
दृष्टि मेरी माप तीनों काल की
तारिकाएं मणि समुन्नत भाल की
खुद समय-सम्राट कांधों पर चढ़ा
ला रहा मेरी प्रगति की पालकी
मैं तिमिर-सीमांत हूं, उजियार
लो
हाथ शिशु का भर मुझे अकवार लो
जो विवादों से परे निश्चल खड़ा, सत्य
हूं
मुझको सहज स्वीकार लो
प्रश्न के मंथन-मनन से प्रीति के अर्पण नमन
तक
वह तुम्हारी आखिरी सौगंध मेरे साथ चलती है
मैं अकेला तो नहीं हूं।
दिग-दिगंतों पर पड़े मेरे चरण
सांस में सधते-सतत जीवन-मरण
स्वप्न खिलते हैं धरा पर फूल बन
कल्पना मेरी क्षितिज का आवरण
यों मलय-वीथि फिरा खोया हुआ
आंधियों में चैन से सोया हुआ
किंतु परिमल ने पुनः मैला किया
गात मेरा ज्वार का धोया हुआ।
पीर की रह-रह छिलन से अश्रु की ढह-ढह ढलन तक
याद कोई तोड़ सब अनुबंध मेरे साथ चलती है
मैं अकेला तो नहीं हूं।
भक्त अनुभव करता है: मैं अकेला तो नहीं हूं।
भक्त अनुभव करता है: भगवान मुझ सब तरफ घेरे है।
भोर की आती किरण से रात की जाती छुअन तक
मैं अकेला तो नहीं हूं।
भक्त की यह प्रतीति कि मैं अकेला नहीं हूं, कहां
से आती है?--अपने
में डूबने से आती है, अपने में उतरने से आती है।
कहते हैं, हजरत
मोहम्मद के जीवन में उल्लेख है। हजरत मोहम्मद और अबुबकर, उनका
एक साथी,
दोनों के पीछे दुश्मन पड़े थे। हजारों दुश्मन और अबुबकर और मोहम्मद
अकेले पड़ गए। एक पहाड़ की कंदरा में छिप कर बैठ रहे और दुश्मन उन्हें खोज रहे हैं।
चारों तरफ घोड़े दौड़ रहे हैं। और मोहम्मद निश्चिंत बैठे हैं, अबुबकर
कंप रहा है। आखिर उसने कहा कि हजरत, आप बड़े शांत बैठे
हैं! हालत खसता है, दुश्मन ज्यादा हैं। और ज्यादा देर का जीवन
नहीं है। जो करना हो कर लो। क्योंकि कितनी देर हम बचेंगे! घोड़ों की टाप प्रतिक्षण
करीब आती जाती है। हम दो और वे हजार हैं।
मोहम्मद हंसे और उन्होंने कहा: "पागल, दो!
हम तीन हैं। वे हजार हों, मगर हम तीन हैं।' अबुबकर
ने चारों तरफ देखा। उसने कहा: "किसकी बातें कर रहे हैं? होश
में हैं?
हम दो हैं।' मोहम्मद ने कहा: "फिर से देख, गौर
से देख,
हम तीन हैं। परमात्मा को भी तो गिन।'
भोर की आती किरण से रात की आती छुअन तक
मैं अकेला तो नहीं हूं।
ऐसा ही उल्लेख सेंट थैरेसा के जीवन में है।
वह एक चर्च बनाना चाहती थी--बड़ा चर्च! तो उसने एक दिन गांव के लोगों को इकट्ठा
किया। गरीब फकीर औरत! उसने कहा, एक बड़ा चर्च बनाना है, ऐसा
कि पृथ्वी पर दूसरा न हो। पर लोगों ने कहा, पागल, बनेगा
कैसे? तेरे
पास कितना पैसा है? तो उसने एक पैसा था उसके पास, उसके
देश की मुद्रा में--उसने निकाल कर कहा कि यह है मेरे पास। बनेगा, चर्च
बन कर रहेगा। जो मेरे पास है सब लगा दूंगी। वे लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा, तेरा
दिमाग खराब हो गया है। एक पैसा तेरे पास है, उससे बड़ा चर्च
बनने वाला है?
उसने कहा, तुम मेरा हाथ और मेरा पैसा ही देखते हो, मेरे
साथ खड़े परमात्मा को नहीं देखते! एक पैसा थैरेसा का और परमात्मा की दौलत, कितना
बड़ा चर्च नहीं बन सकता!
भोर की आती किरण से रात की जाती छुअन तक
मैं अकेला तो नहीं हूं।
और चर्च बना। चर्च अब भी खड़ा है। और कहते
हैं, पृथ्वी
पर वैसा चर्च नहीं है। वह भक्त की श्रद्धा से बना है। उस भाव से बना है कि मैं
अकेला तो नहीं हूं।
तुम अकेलेपन की बात छोड़ो, नहीं
तो तुम भटकते रहोगे। तुम्हें रोने में मजा हो, बात और। तुम इस
तरह की दौड़-धूप में रस लेने लगे हो, बात और; लेकिन
परमात्मा न मिलेगा।
परमात्मा को पाने का जो पहला कदम है वह यह
है कि तुम जहां हो, जैसे हो, वहां थिर हो जाओ, आनंदित
हो जाओ,
मगन हो जाओ, मस्त हो जाओ। तुम्हारी सुगंध ही उसे बुला
लाएगी। सुगंध के ही कच्चे धागों से बंधा हुआ चला आएगा। तुम्हारा शोरगुल वहां नहीं
पहुंचता,
लेकिन तुम्हारे प्राणों की गंध वहां पहुंच जाती है। भौंरे की तरह आ
जाता है भगवान। तुम पात्रता जुटाओ।
फूल बनो तुम
पांचवां प्रश्न: ध्यान में मुझे
नाचना है या मेरे शरीर को?
अभी तुम तो हो ही नहीं, अभी
शरीर ही नाच सकता है। जब तुम भी आ जाओ तो तुम भी नाचना। अभी तुम हो ही नहीं, अभी
तो शरीर ही है। अभी तुम कहां की बातें उठा रहे हो? आत्मा
तो तुमने सुनी है,
अभी जानी कहां? आत्मा के संबंध में पढ़ा है, अनुभव
कहां किया?
अभी तो तुम शरीर हो। अभी आत्मा तो सिर्फ सपना है। सपने को थोड़े ही
नचा सकोगे?
जो है ही नहीं, उसको कैसे नचाओगे? अभी
तो शरीर को ही नचाओ। जो तुम्हारे पास है, उसको नचाओ। अभी
तो शरीर से शुरू करो।
मेरे पास लोग आते हैं, वे
कहते हैं संन्यास लेना है; लेकिन भीतर का दे दें, बाहर
का संन्यास,
क्या सार! मैं उनसे कहता हूं, भीतर अभी है कहां? मैं
तो तैयार हूं,
भीतर का भी दे दूं, मगर भीतर है कहां? अभी
तो बाहर ही बाहर है। अभी तुम्हारा भीतर है कहां? मैं
तो तुम्हारे भीतर को रंग दूं; मगर भीतर हो न, तभी
तो! अभी भीतर नहीं है, इसलिए वस्त्र रंग देता हूं। चलो, प्रतीक
तो हुआ,
शुरुआत तो हुई। बाहर रंगा, रंगते-रंगते भीतर
भी रंग लेंगे। कहीं से तो शुरू करना होगा। और वहीं से शुरू करना होगा जहां तुम हो।
वहां से तो शुरू नहीं हो सकता जहां तुम हो ही नहीं। तुम सोचते हो कि भीतर, मगर
भीतर अभी है क्या?
कभी आंख बंद करके देखा भीतर है कहां? आंख
बंद कर लेते हो तो भी आंख बाहर ही देखती है। आंख बंद कर ली, दुकान
दिखाई पड़ रही है,
बाजार दिखाई पड़ रहा है, मित्र-परिजन ये
सब बाहर हैं;
अभी भीतर कहां दिखाई पड़ रहा है! आंख बंद कर ली, विचार
चलने लगे;
ये तो सब बाहर हैं।
विचार तुमसे उतना ही बाहर है जितना वस्तुएं
तुमसे बाहर हैं। भीतर का तो तब पता चलेगा, जब न वस्तुओं का
स्मरण रह जाए न विचारों की धारा रह जाए; तुम्हीं रह जाओ, अकेला
चैतन्य--तब भीतर का पता चलेगा। भीतर का पता हो जाए तो संन्यासी तुम हो ही गए। अभी
भीतर का पता नहीं है, लेकिन आदमी बड़ा बेईमान है। चलना उसे है नहीं, तो
वह वहां की बातें करता है जहां है ही नहीं। वह कहता है: भीतर का संन्यास....!
अब तुम पूछते हो कि ध्यान में मुझे नाचना है
या मेरे शरीर को?
तुम यह बात मान ही लिए कि तुम शरीर से अलग हो। अगर यही तुमको पता
चल गया तो नाचो न नाचो, बराबर। मगर खयाल कर लेना, तुम्हें
पता है?
यह नाच ही इसलिए रहे हो कि किसी तरह भीतर का पता चल जाए। यह नाच
उसी की शुरुआत है कि भीतर का पता चल जाए। फिर भीतर का पता चल जाए, फिर
तुम्हारी मौज। दोनों तरह से हुआ है: कोई-कोई नाचा भी, कोई-कोई
नहीं भी नाचा। मीरा नाची, दया नाची, सहजो
नाची, चैतन्य
नाचे; मगर
बुद्ध नहीं नाचे,
महावीर नहीं नाचे। भीतर जब हो जाएगा तब तुम पूछने की भी जरूरत
अनुभव न करोगे। भीतर से जो सहज होता, नाचना होगा तो
नाचना,
नहीं नाचना तो मन नाचना। पर भीतर पहुंच जाने के बाद की बातें हैं
ये।
तुम प्रश्न ऐसे उठा लेते हो जो शाब्दिक हैं, शास्त्रीय
हैं।
एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन भागा हुआ अस्पताल
पहुंचा। तेजी से उतरा स्कूटर से। अंदर गया, डाक्टर से बोला
कि कोई बिस्तर खाली है? मेरी पत्नी को बच्चा होने वाला है। तो
डाक्टर ने कहा,
भलेमानस, पहले खबर क्यों नहीं की, एकदम
चले आए! ठीक है भाग्य की बात कि एक बिस्तर खाली है, ले
आओ, पत्नी
कहां हैं?
उसने कहा, फिर कोई फिक्र नहीं है। सिर्फ इंतजाम करने
आया था। मैं देख रहा था कि जगह मिल सकती है या नहीं। तो डाक्टर ने पूछा पत्नी को
बच्चा होने वाला कब है? उसने कहा, कहां
की बातें कर रहे हैं, अभी पत्नी ही कहां है! विवाह करने की सोच
रहा हूं।
मगर होशियार आदमी सब तैयारी पहले कर लेता
है। अभी विवाह नहीं हुआ, अभी तैयारी कर रहा है बच्चे के होने की।
जल्दबाजी न करो। विवाह तो हो जाने दो। आत्मा
का क्षण भी आएगा,
अभी तो तुम देह से तो नाचो। मैं तुम्हारा मतलब जानता हूं। तुम शरीर
से नाचना नहीं चाहते। तो तुम एक बहाना खोजना चाहते हो। तुम सोचते हो कि चलो शरीर
को तो बिठा कर रखें, आत्मा को नचाएं। आत्मा को नचाओगे कहां? आत्मा
ही होती तो प्रश्न ही क्या था! नहीं कि आत्मा नहीं है, लेकिन
तुम्हें अभी उसका पता नहीं है।
सदा याद रखो, तुम
जहां हो वहीं से यात्रा करो। इस तरह की बातें खोज कर यात्रा को रोक मत लेना।
फूल बनो तुम, गंध
मिलेगी
उसे उड़ाओ
रंगों में रंग जाओ
गाओ, रंग दो दुनिया
मांग भरो उस सुहागिनी का
बन-ठन आई।
फूल बनो तुम!
अरे, फूल बनो तुम!
फूल बनो, सौंदर्य मिलेगा
स्मित मिलेगी
उसे बिखेरो
हेरो
छवि आएगी भू-अंबर में
उमड़ पड़ेगा
रस कितनों के सूखे उर में
कितनी ही कविताओं का तुम घर होओगे।
धरती पर तुम दिव्य द्युति भास्वर होओगे।
फूल बनो, आशीष मिलेगा
भक्तों से पहले तुमको ही ईश मिलेगा।
लेकिन आदमी फूल कैसे बने? आदमी
साधारण अर्थों में फूल तो नहीं बन सकता है। आदमी कोई पौधा तो नहीं है। लेकिन आदमी
जब प्रफुल्ल होता है तो फूल बन जाता है। प्रफुल्ल शब्द फूल से ही आया है।
प्रफुल्लता का अर्थ होता है फुल्लता, खिल गए। जब तुम
आनंदित होते हो तब तुम फूल बन जाते हो, तब तुम फूल बन
जाते हो;
जब तुम उदास होते हो तब पंखुड़ियां बंद हो जाती हैं। इसलिए नाच पर
मेरा जोर है। क्योंकि जब तुम हृदय खोल कर नाच उठोगे, तुम्हारी
सब पंखुड़ियां खिल जाएंगी।
फूल बनो तुम, गंध
मिलेगी
उसे उड़ाओ
रंगों में रंग जाओ
गाओ, रंग दो दुनिया।
फूल बनो, सौंदर्य मिलेगा
स्मित मिलेगी
उसे बिखेरो
हेरो
छवि आएगी भू-अंबर में
कितनी ही कविताओं का तुम घर हीओगे
धरती पर तुम दिव्य द्युति भास्वर होओगे।
फूल बनो, आशीष मिलेगा
भक्तों से पहले तुमको हो ईश मिलेगा।
नाचो, संकोच न लाओ।
छोटे-छोटे संकोचों में मत पड़ो। अगर शरीर को आनंदित किया तो शरीर के पीछे जो मन है
उस पर भी आनंद की छाया पड़ेगी। धीरे-धीरे वह भी मगन होगा, वह
भी डोलेगा। फिर जब मन डोलेगा तो उसके भी पीछे छिपी जो आत्मा है, उस
पर भी छाया पड़ेगी,
वह भी डोलेगी, वह भी नाचेगी।
ओ पिया, ओ पिया
छठवां प्रश्न: क्या आप अपने शिष्यों
के लिए ही हैं कि मुझे आपसे मिलने नहीं दिया जाता?
शिष्य का अर्थ होता है जो सीखने आया है। जो
सीखने आया है उसे ही सिखाया जा सकता है। जो सीखने नहीं आया है वह मेरा भी समय खराब
करेगा,
अपना भी समय खराब करेगा। मिलने की कोई जरूरत नहीं है। सीखने आए हो
तो द्वार खुले हैं।
मगर बहुत बार ऐसा हो जाता है कि लोग सिखाने
आ जाते हैं। और जिन सज्जन ने पूछा है उनका नाम है: ब्रह्मचारी सगुण चैतन्य। उनका
चित्र भी मैंने देखा, उनका पत्र भी देखा। पंडित और ज्ञानी मालूम
होते हैं। ब्रह्मचारी हैं। शास्त्र के ज्ञाता मालूम होते हैं। इसलिए तुम नाराज मत
होना कि "लक्ष्मी' ने तुम्हें रोक दिया है मिलने से। मैंने ही
रोक दिया है।
पांडित्य में मुझे रस नहीं है। व्यर्थ के
सिद्धांत,
बकवास में मुझे रस नहीं है। अगर तुम जानते हो तो जानते ही हो।
क्यों मेरा समय और अपना समय खराब करना? अगर नहीं जानते
हो तो आओ। लेकिन तब नहीं जानते हो, इसी भाव से आओ।
जानने वाले को जनाना बहुत मुश्किल है। जागे
को जगाना बहुत मुश्किल है। और इस जगत में सबसे जो सूक्ष्म अहंकार है, वह
जानने का,
पांडित्य का, शास्त्र का। तो इन सूक्ष्म अहंकारियों में
मुझे कोई रुचि नहीं है। अगर तुम्हें पता ही चल गया है, तुम
धन्यभागी हो। अब तुम यहां क्यों परेशान हो रहे हो? यहां
क्या मिलेगा?
तुम्हें पता चल गया, बात खतम हो गई।
अगर तुम्हें पता नहीं चला है तो सब कूड़ा-कर्कट दरवाजे के बाहर छोड़ कर आओ। सीखने की
तैयारी का अर्थ ही यह होता है कि यह मान कर ही आओ कि मुझे मालूम नहीं, मैं
अज्ञानी हूं। तो तुम्हारे लिए द्वार खुले हैं।
पी.डी. आस्पेंस्की नाम का बहुत बड़ा रशियन
गणितज्ञ जार्ज गुरजिएफ से मिलने गया। आस्पेंस्की जगत-ख्यात गणितज्ञ था। और उसकी एक
किताब सारी दुनिया में प्रसिद्ध हो चुकी थी: "टर्सियम आर्गानम'।
और गुरजिएफ को तो कोई भी नहीं जानता था; वह तो फकीर था।
और जब आस्पेंस्की उसे मिलने गया तो निश्चित, जब कोई
ख्यातिलब्ध व्यक्ति किसी को मिलने जाता है, तो अकड़ से भरा
हुआ गया। गुरजिएफ ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और एक कागज उठा कर उसे दे दिया, एक
कोरा कागज,
और कहा कि बगल के कमरे में चले जाओ, एक
तरफ लिख देना जो तुम जानते हो और दूसरी तरफ लिख देना जो तुम नहीं जानते हो। पर
आस्पेंस्की ने कहा, इसका मतलब क्या? तो
गुरजिएफ ने कहा,
जो तुम जानते हो, फिर उसकी चर्चा हम न करेंगे। फिर समय क्यों
खराब करना! जो तुम नहीं जानते हो, उसकी चर्चा करेंगे। तो तुम चले जाओ बगल के
कमरे में,
साफ-साफ कर आओ, क्योंकि तुम्हारे चेहरे से जानकारी झलकती
है।
ठंडी रात थी, बर्फ
पड़ रही थी। रूस की रात! जब आस्पेंस्की बगल के कमरे में गया तो पसीना निकलने लगा और
कागज हाथ में कंपने लगा। बहुत कोशिश की कि क्या जानता हूं? मगर
आदमी ईमानदार रहा होगा। एक शब्द न सूझा जो लिख दे जानता हूं। आत्मा, परमात्मा, मोक्ष--क्या
जानता हूं?
किताबें लिखी थीं, लेकिन किताबें तो जानकारी से लिखी जाती हैं, कोई
जानना जरूरी तो नहीं। सभी किताबें जानने से तो नहीं आतीं, अधिक
किताबें तो जानकारी से आती हैं। कंप गया। घंटे भर बाद वापस आया। पूरा कागज कोरा का
कोरा दे दिया और गुरजिएफ को कहा, कुछ भी नहीं जानता हूं, अब
बात शुरू करें। गुरजिएफ ने कहा, तब चलेगा।
यहां रोज लोग आ जाते हैं। संन्यासी हैं, पंडित
हैं, शास्त्री
हैं। मेरी उनमें उत्सुकता नहीं है। मेरे पास एक क्षण भी उनके लिए समय नहीं है। वे
इस बात को भलीभांति जान लें। अगर वे जानते हैं तो बात खतम हो गई, मेरा
आशीर्वाद! जान ही लिया, बात खतम हो गई। प्रभु तुम्हारा भला करे। अगर
नहीं जानते हो तो कोरे कागज की तरह आओ। तो ही कुछ काम हो सकेगा।
अब एक बात तो पक्की है कि जो जानता है वह
जाएगा किसलिए?
आने की जरूरत क्या है? मैं तो नहीं जाता
कहीं। तुम आए हो,
साफ है कि जानते इत्यादि नहीं हो, जानने
के भ्रम में पड़े हो। तो पता भी है कि भ्रम ही है, कुछ
हुआ तो है नहीं,
आनंद का कोई झरना नहीं फूटा, न कोई गीत उमगा
है, न
कोई चांद निकला है। वह उजियाला जिसकी तलाश हो रही है, अभी
हुआ नहीं,
अंधेरे से भरे हो। इसलिए तलाश रहे हो, लेकिन
अहंकारी भी बहुत हो। यह मान भी नहीं सकते कि नहीं हुआ है।
मेरे पास भी कई दफा लोग आ जाते हैं: एक
सज्जन आए। तीस साल से संन्यासी हैं। बहुत दिन उन्हें टालता रहा, क्योंकि
कोई मतलब न था आने का, उनका मिलने का; लेकिन
जिद पकड़े रहे तो मैंने कहा, ठीक है मिला दो। मैंने उनसे यही पूछा कि मिल
गया या नहीं?
तो उन्होंने कहा, यह भी आप खूब पूछते हैं! एकदम शुरुआत में यह
पूछते हैं कि मिल गया या नहीं! मैंने कहा, बात पहले ही साफ
हो जाए। मिल गया तो खतम हो गई बात; नहीं मिला तो फिर
कुछ काम हो सके। वे कहने लगे कि नहीं, मिला तो नहीं है; कुछ-कुछ
मिला है। मैंने कहा, यह कभी हुआ ही नहीं दुनिया में आज तक कि
परमात्मा कुछ-कुछ मिला हो। परमात्मा के साथ भी शल्यक्रिया करोगे कि हाथ काट कर ले
भागे, कि
पैर निकाल लिया;
कि कुछ नहीं मिली, अपेंडिक्स मिल गई! परमात्मा अखंड है। सत्य
अखंड है। तुम टुकड़े न कर सकोगे। कुछ-कुछ मिला--क्या कह रहे हो? कोई
परमात्मा की लंगोटी ले भागे हो, क्या मामला क्या है?
नहीं, वे कहने लगे कि
मिला तो नहीं है,
ऐसे झलकें ही मिलीं। मैंने कहा, ईमानदारी की बात
करो। झलक मिल गई हो तो उसी दिशा में चलते रहो, यहां समय क्यों
खराब कर रहे हो?
झलक मिल गई तो बात हो गई। फिर उसी दिशा में बढ़ते रहो, फिर
समय मत गंवाओ। मेरे साथ समय मत खराब करो। तुम्हें झलक मिल गई, बढ़ते
रहो।
तब जा कर कहीं वे बोले कि नहीं, आप
क्यों ऐसी जिद किए जाते हैं? झलक भी नहीं मिली, अब
बोलिए। तो मैंने कहा, अब बात हो सकती है। अब बात साफ हो गई। नहीं
तो व्यर्थ का विवाद होता है।
मेरे पास लोग आ जाते हैं ले कर कि आपने ऐसा
कह दिया,
फलाने शास्त्र में ऐसा लिखा है। अब मैं उनसे क्या कहूं? अब
किस शास्त्र में क्या लिखा है, उसका कोई मेरा ठेका है? अगर
मेरी बात ठीक लगती है तो शास्त्र को सुधार लो। अगर मेरी बात गलत लगती है, तुम
जानो, तुम्हारा
शास्त्र जाने। इसमें मुझे कोई झंझट नहीं है। इसमें जरा भी अड़चन नहीं है मुझे। तुम
और तुम्हारा शास्त्र...। तुम अपने शास्त्र के साथ रुको। शास्त्र से मिल रहा होता
तो तुम यहां आए क्यों हो? शास्त्र से नहीं मिल रहा है, फिर
भी तुम स्वीकार नहीं कर पाते। और अगर मेरे और शास्त्र में कुछ भेद है, तुम्हें
मेरी बात जंचती है तो शास्त्र में तरमीन कर लो, सुधार कर लो। अब
इतने शास्त्र हैं दुनिया में, अब सबका हिसाब मैं थोड़े ही रखूंगा कि कहां
क्या लिखा है।
जिन मित्र ने पूछा है उनके चेहरे से ऐसी झलक
लगी कि पांडित्य,
विवादी मन है; शास्त्र में ऐसा है वैसा है। स्वामी
चिन्मयानंद के शिष्य हैं, तो स्वभावतः पंडित का शिष्य कहां जाएगा, कहां
पहुंचेगा! इसलिए दरवाजा बंद करवा दिया है। हलके हो कर आओ, पांडित्य
उतार कर आओ--दरवाजा खुला पाओगे।
स्वभावतः तुम्हारा प्रश्न ही बता रहा है।
तुम पूछते हो: "क्या आप अपने शिष्यों के लिए नहीं हैं?' पानी
तो प्यासों के लिए है। गुरु शिष्य के लिए है। तुम अगर शिष्य हो तो मैं तुम्हारे
लिए हूं। अगर तुम शिष्य नहीं हो तो न तुम मेरे लिए हो और न मैं तुम्हारे लिए हूं, बात
खतम हो गई। कोई संबंध नहीं जुड़ता। संबंध जुड़े बिना कोई बात न बनेगी।
इतना जरूर तुमसे कहना चाहूंगा:
जिन ऊंचाइयों पर तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं
चील सी मंडरा रही हैं
उनसे भी परे कुछ ऊंचाइयां हैं
तुम्हें जो सब कुछ जानने का अहं है
उस सबसे परे भी कुछ सच्चाइयां हैं
तुम जिन गहराइयों को पार कर आए हो
उसके बाद ही शेष नहीं
कुछ और भी गहराइयां हैं
जिन्हें मंजिल समझा, वे
सब पड़ाव हैं
प्याज के छिलकों की भांति
एक पर्त के बाद दूसरी पर्त है
दूसरे के लिए पहली शर्त है।
दूसरे के लिए पहली शर्त है!
पहले पर कदम रख कर आगे बढ़ जाना होता है।
निश्चित ही पहले आदमी पंडित के संपर्क में आता है। क्योंकि ज्ञानी के संपर्क में
आना सीधा संभव नहीं है। दूसरे के लिए पहली शर्त है! पहले आदमी शास्त्र के संबंध
में आता है,
तभी सदगुरु के संबंध में आता है। दूसरे के लिए पहली शर्त है! लेकिन
खयाल रखना:
जिन ऊंचाइयों पर तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं
चील सी मंडरा रही हैं
उनसे भी परे कुछ ऊंचाइयां हैं।
उन ऊंचाइयों की खोज हो, आकांक्षा
हो--मेरे द्वार खुले हैं। और द्वार उनके लिए ही खुले हैं जो वस्तुतः खोज पर निकले
हैं। तुम्हारे भीतर प्यास हो, पुकार हो, तो
ही मैं राजी हूं कि तुम पर बरसूं। अकारण व्यर्थ तुम्हारे कपड़े भिगो दूं और तुम
नाराज होओ और तुम कहो कि नाहक वर्षा हो गई, अब जा कर घर कपड़े
सुखाने पड़ेंगे--ऐसा कष्ट मैं तुम्हें नहीं देना चाहता।
मेघ ने खुल-खुल धरा का हिया
भर दिया, भर दिया
विहग एक वन-वन पुकारा किया--
"ओ
पिया, ओ
पिया!'
प्रीत यों ही बरसती रही उर खोले
प्यास यों ही तरसती रही क्या बोले
भूमि चुपचाप रसती रही हौले-हौले
गंध पथ भरती गई मेंहदिया मेंहदिया
"ओ
पिया, ओ
पिया'--
विहग एक वन-वन पुकारा किया।
बह चले वे सिरों पर शिखर-जल बांधे
भीगता है समय गंध झर पल बांधे
धान लहरा क्षितिज हांसिया
भर लिया, भर लिया
"ओ
पिया, ओ
पिया'--
विहग एक वन-वन पुकारा किया।
जब तुम वन-वन में भटकते हुए एक विहग हो
जाओगे और पुकारोगे "ओ पिया, ओ पिया', तभी तुम शिष्य
हुए।
शिष्य का अर्थ क्या होता है?--सीखने
के लिए आतुर;
ऐसा आतुर कि सब गंवा देने को तत्पर; पांडित्य, अहंकार, जो
किया सब गंवा देने को तत्पर। शिष्य का अर्थ होता है, सब
बोझ सिर का उतार कर रख देने को तत्पर। तुम बोझ उतारो तो मैं तुम्हारा हाथ अपने हाथ
में लूं। नहीं तो,
मेरे पास थोड़ा सा समय है, उस थोड़े से समय
में जिनके कंठ में प्यास है, उन पर ही मेरे जल को गिरने दो, व्यर्थ
आ कर मेरा समय खराब मत करो। मेरी उत्सुकता पात्रों में है।
आखिरी प्रश्न: भगवान, क्या
से क्या हो गई मैं, कुछ न सकी जान
नयनों में नयन डार तूने लूट लिए प्राण
होलि फिर गाने लगे हृदय के तार
रंग दिए डार।
पूछा है "आनंद सीता' ने।
...ऐसे
हो कर आओ,
तो कुछ हो, तो कुछ घटे। ऐसे हो कर आओ--मिटने को तैयार, डूबने
को तैयार। मरने को तैयार हो कर आओ तो नया जीवन घटे।
यहां मैं ज्ञान देने में उत्सुक नहीं
हूं--पुनर्जीवन! इससे कम में क्या मतलब है? मगर पुनर्जीवन के
लिए सूली से गुजरना जरूरी है।
झीलों ने खोल दिए नावों के पाल
आसव पी आया है चैता अलमस्त चाल
हुई हवा नीली, फूल
लाल-पीले
पंख खोल उड़े कहीं स्वप्न उन्मीले
टेसू के हाथों ने थाम ली मशाल
झीलों ने खोल दिए नावों के पाल।
बरस रहा कन-कन पर कंचनी पराग
तितली के अंग-अंग रंग गया सुहाग
खिसक रहा शिखरों से रजत हिम-दुशाल
झीलों ने खोल दिए नावों के पाल।
इधर तो मैं नावों के पाल खोल रहा हूं।
तुम्हें यात्रा करनी हो तो नाव पर सवार हो जाओ। वाद-विवाद में मुझे उत्सुकता नहीं
है। यहां जाने की तैयारी है दूसरे तट पर। इतनी हिम्मत हो...क्योंकि दूसरा तट दिखाई
भी नहीं पड़ता यहां से, मुझ पर भरोसा करना पड़े। और मैं पागल भी हो
सकता हूं,
कौन जाने! यह किनारा भी छुड़ा दूं और वह किनारा हो ही न! और मझधार
में कहीं मेरे साथ डूबना पड़े! ये सब खतरे हैं।
इसलिए होशियार मेरे साथ नहीं चल पाते।
होशियार हो कर मत आओ। गैर होशियार हो कर आओ। जुआरी हो तो ही मेरे साथ चल सकोगे। यह
किनारा खोना पड़ेगा, जो जाना-माना परिचित है। हिंदू का किनारा, मुसलमान
का किनारा,
जैन का, ईसाई का किनारा--यह जाना-माना परिचित है।
शास्त्र का,
वेद का, कुरान का, बाइबिल
का किनारा--यह जाना-माना परिचित है। सिद्धांत का, समाज
का--यह किनारा खूब पहचाना है। इस पर तुमने खूब जड़ें जमा ली हैं, खूटियां
गाड़ ली हैं। मैं तुमसे कहता हूं, यह सब छोड़ कर मैंने यह नाव खोली है, यह
पाल खुल चला,
यह यात्रा शुरू हो रही है, इसमें बैठ जाओ।
और मैं तुमसे यह भी बात करने में बहुत
उत्सुक नहीं हूं कि दूसरा किनारा है या नहीं, यह सिद्ध करूं, क्योंकि
उसे सिद्ध किया ही नहीं जा सकता। तुम मेरे साथ चलो, दिखा
दूंगा। मैंने देखा है। तुम्हें ले चलने को तैयार हूं। तुम विवाद करने को उत्सुक हो
कि है भी दूसरा किनारा, है तो कैसा--पीला कि हरा कि लाल कि काला? मेरा
रस नहीं है। क्योंकि तुम जितने रंग जानते हो, उनमें से कोई भी
रंग उस किनारे का रंग नहीं है; वे सब इसी किनारे के रंग हैं। तुम जितने रूप
जानते हो वे सब इसी किनारे के रूप हैं; वे उस किनारे के
रूप नहीं। जो भाषा हम बोल सकते हैं, वह इसी किनारे की
है; उस
किनारे की कोई भाषा नहीं। मौन और सन्नाटा उस किनारे की भाषा है। तुम चलने को तैयार
हो तो चल पड़ो।
खतरा तो है ही। खतरे में जो गुजरने को तैयार
है, उसको
ही मैं संन्यासी कहता हूं। खतरा यह है कि यह किनारा छूटता है और दूसरा मिलेगा या
नहीं, पता
नहीं; इस
पागल आदमी की बात का भरोसा करके चल रहे हैं।
तो यह तो बड़े प्रेम में ही घट सकता है। यह
तो अपूर्व प्रेम में ही घट सकता है इतना भरोसा।
शिष्य का अर्थ होता है जो मेरे प्रेम में पड़
गया है;
जो मेरे साथ डूबने को तैयार है, अकेला उतरने को भी
नहीं, मेरे
साथ डूबने को तैयार है। शिष्य का अर्थ होता है कि अगर मैं नर्क जाऊं तो वह कहता है, हम
आते हैं। जो यह कहता है कि अगर तुम्हारे बिना स्वर्ग जाना संभव होगा तो हम नहीं
जाते; तुम्हारे
साथ नर्क चलने को तैयार हैं--शिष्य का यह अर्थ होता है। शिष्य बड़ी हिम्मत की बात
है--अपूर्व साहस!
सीता ने पूछा है:
"क्या
से क्या हो गई मैं, कुछ न सकी जान!'
पता भी न चलेगा, पता
चलता भी नहीं। यह क्रांति ऐसे चुपचाप घट जाती है कि पदचाप भी सुनाई नहीं पड़ती, कब
हो जाती है! तुम अगर खुलने को राजी हो तो चुपचाप हो जाती है। जरा शोरगुल नहीं
मचता।
"क्या
से क्या हो गई मैं, कुछ न सकी जान
नयनों में नयन डार तूने लूट लिए प्राण
होली फिर गाने लगे हृदय के तार
रंग दिए डार।'
शिष्य का अर्थ है जो आंखों में आंखें डालने
को तत्पर है;
जो कहता है, "उंडेलो, मेरा
पात्र खाली है,
सब तरह से खाली है, तुम इसे भरो!' ऐसी
तैयारी शिष्यत्व है।
अब यह बिलकुल सीधी-सीधी बात है कि मैं
पात्रों में उत्सुक हूं, शिष्यों में उत्सुक हूं। "सीता' जैसे
बनो तो आओ। अन्यथा तुम जहां हो, प्रभु तुम्हारा भला करे! जैसे हो, वैसे
ही भला करे!
आज इतना ही।
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