संसार अर्थात मूर्च्छा—दूसरा प्रवचन
दिनांक २ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—ज्ञानी परमात्मा को परम नियम कहते हैं, और कहते हैं कि यह नियम अत्यंत न्यायपूर्ण और कठोर है। दूसरी ओर भक्त परमात्मा को परम प्रेम कहते हैं और परम कृपालु। इस बुनियादी दृष्टि-भेद पर कुछ कहने की कृपा करें।
2—कहते हैं कि खेल के भी नियम होते हैं। फिर यह कैसा कि प्रेम में कोई नियम न हो?
3--भगवान, प्रेम स्वीकार न हो तो...?
4—संसार में असफलता अनिवार्य क्यों है?
5--मैं महापापी हूं मुझे उबारें!
पहला प्रश्न--
ज्ञानी परमात्मा को परम नियम कहते हैं, और कहते हैं कि यह ऋत, यह नियम अत्यंत न्यायपूर्ण और कठोर है। दूसरी ओर भक्त परमात्मा को परम प्रेम कहते हैं, और परम कृपालु। इस बुनियादी दृष्टि-भेद पर कुछ कहने की कृपा करें।
ज्ञानी की भाषा गणित की भाषा है। गणित की भाषा कठोर होगी। परमात्मा कठोर नहीं है। गणित की भाषा से देखोगे परमात्मा को तो कठोर दिखाई पड़ेगा। गणित की भाषा तुम्हारी आंख पर एक चश्मा है।
परमात्मा न तो कठोर है और न सदय है; न तो दयालु, न क्रोधी। द्वंद्व से भरे शब्दों में परमात्मा को बांटने का कोई उपाय नहीं है। परमात्मा है द्वंद्वातीत। लेकिन मनुष्य तो जब भी सोचेगा तो दो ही उपाय हैं उसके पास--या तो तर्क की भाषा,या प्रेम की भाषा; या तो गणित की भाषा या काव्य की भाषा। ज्ञानी ने गणित की भाषा चुनी है। गणित की भाषा की कुछ खूबियां हैं और कुछ हानियां भी। खूबी--कि साफ-सुथरी होती है, स्पष्ट होती है। खतरा--क्योंकि स्पष्ट है, साफ सुथरी है, स्वयं नियमबद्ध है, इसलिए उसमें से देखा गया परमात्मा भी कठोर और नियमबद्ध मालूम होगा।
प्रेम की भाषा का भी अपना लाभ है, अपनी हानि है। लाभ है कि परमात्मा कठोर नहीं मालूम होगा--दयालु मालूम होगा, सदय मालूम होगा। तुम उसकी खोज पर सुगमता से निकल सकोगे। यात्रा बहुत दुर्गम न मालूम होगी। लेकिन हानि भी है। क्योंकि तुम अत्यंत भाव से भरकर परमात्मा की तरफ देखोगे, तुम्हें जीवन में, शीघ्रता से कुछ कर लेना है, इसकी प्रतीति कम होगी; आलस्य घेर लेगा, तमस घेर लेगा।
ज्ञानी का खतरा है कि वह सूखा हो जाता है। और भक्त का खतरा है कि वह आलसी हो जाता है--परमात्मा सदय है, जल्दी क्या है? उसकी कृपा अनंत है, मिल ही जायेगी। पुकारने की ही बात है।
ज्ञानी जीवन को बदलने में लग जाता है, क्योंकि डरा होता है। कठोर नियम हैं, चूका तो खतरा है। महानर्क में पड़ना होगा। ज्ञानी जीवन का सुदृढ़ करने में लगता है, गढ़ता है, रंग देता है, आकार देता है, रूप देता है--और तीव्रता से देता है। जैसे छाती पर नंगी तलवार लिए कोई खड़ा है।
भक्त सो जाता है। भक्त कहता है, जल्दी क्या है? उस प्यारे के हाथों में सब है मेरे पापों की गिनती क्या है?
ये लाभ हैं, हानियां भी जुड़ी हैं साथ-साथ। ज्ञानी परमात्मा को नियम की तरह देखता है, स्वयं भी सूख जाता है। तुम्हारा जैसा परमात्मा होगा, वैसे ही तुम हो जाओगे। उसके जीवन में एक गणित का सुथरापन तो होता है, लेकिन कोई काव्य नहीं जन्मता। उसके जीवन में कोई गीत नहीं गूंजता। उसके हृदय में कोई नृत्य नहीं होता, उत्सव नहीं होता। वह गंभीर हो जाता है, उदास हो जाता है, चिंतित हो जाता है। परमात्मा की तरफ चलनेवाला आदमी चिंतित हो जाये, तो पहुंचेगा कैसे? भयभीत हो जाता है। और जहां भय है वहां मुक्ति कहां? जो भयभीत है, वह सिकुड़ जाता है, फैलना बंद हो जाता है। और फैलाव में ही उससे मिलन हो सकता है।
वह फैलाव है। सारा अस्तित्व उसी का फैलाव है। जब हम भी फैलेंगे तो उससे मिलेंगे। उस जैसे होंगे तो उससे मिलेंगे।
तो ज्ञानी सिकुड़ जाता है, कठोर हो जाता है। अपने पर ही कठोर नहीं हो जाता, दूसरे पर भी कठोर हो जाता है। ज्ञानी के हाथ में पड़ जाओ तो तुम्हें सताने लगेगा।
तुम्हें इस तरह ढालने लगेगा कि तुम यंत्रवत हो जाओगे। खुद भी यंत्र हो जाता है, तुम्हें भी यंत्रवत कर देता है। यह खतरा है ज्ञान का।
भक्त सरल होता है, सहज होता है, आश्वस्त होता है, चिंतामुक्त होता है। भयभीत नहीं होता। जब उसका प्यारा ही सारे जगत के केंद्र में बैठा है तो भय कैसा? उसकी कल्पना में कोई नर्क नहीं होते; नर्कों में जलने वाली ज्वालाएं नहीं होती। फैलता है ,आसानी से फैलता है। नाचता है, गाता है, उत्सव मनाता है। परमात्मा है तो उत्सव ही जीवन होना चाहिए। उसके भीतर से रसधार बहती है।
ये तो लाभ हैं। लेकिन, नासमझ भी दुनिया में हैं, जो हर चीज में से हानि उठा लेते हैं। नासमझ हैं जो चादर ओढ़ कर सो जाते हैं। वे कहते हैं, जब वही है और उसकी करुणा अपार है, तो हम क्यों चिंता लें? हम क्यों फिकर करें?
ध्यान रखना, ये भाषाओं के भेद महंगे भी पड़ सकते हैं! सब तुम पर निर्भर है--तुम कैसे उपयोग करोगे? बुद्धिमान आदमी गलत स्थिति का भी ऐसा उपयोग कर लेता है कि ठीक परिणाम हों और बुद्धू ठीक स्थिति का भी ऐसा उपयोग करता है कि दुष्परिणाम हो जाते हैं। मगर ये भेद सिर्फ भाषा के हैं। इनके द्वारा परमात्मा के संबंध में कुछ पता नहीं चलता; इनके द्वार परमात्मा की खोज पर निकले हुए आदमी के संबंध में पता चलता है।
अगर महावीर के वचन सुनो तो साफ एक बात होती है कि महावीर शुद्ध गणित हैं। इससे महावीर के परमात्मा के संबंध में कुछ पता नहीं चलता, क्योंकि परमात्मा तो एक है; महावीर का हो कि मीरा का हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। लेकिन महावीर गणितज्ञ जैसे साफ-सुथरे हैं। जो लोग खोजबीन करते हैं दर्शन के इतिहास की वे कहते हैं: जो बात अलबर्ट आइंस्टीन ने पच्चीस सौ साल बाद कही, वही बात महावीर ने पच्चीस सौ साल पहले कही थी--सापेक्षवाद का सिद्धांत--द थीरी आफ रिलेटिविटि।
महावीर और आइंस्टीन में कुछ तालमेल है। दोनों के देखने का ढंग एक जैसा है--सुसंबद्ध, सुतर्कयुक्त। और महावीर ने उससे कोई हानि नहीं उठायी। महावीर न तो सूखे, न उदास हुए। उन जैसी मस्ती कहां! उन जैसा आनंद अहोभाव कहां! कुछ हानि नहीं हुई महावीर की। महावीर सुसंबद्ध गणित का उपयोग करके भी सीढ़ी-दर-सीढ़ी परमात्मा तक पहुंच गये--परमात्मा हो गये।
लेकिन फिर महावीर के पीछे चलनेवाले, सेवड़े, वे कहीं पहुंचते मालूम नहीं होते। गणित उनके गले में फांसी की तरह लग गया है। बस वे हिसाब-किताब ही बिठा रहे हैं, खाते-बही ठीक कर रहे हैं, पाप-पुण्य का लेखा-जोखा कर रहे हैं। किस बात के करने से कितना पाप हो जायेगा और किस बात के करने से कितना पुण्य हो जायेगा, इसी में पड़े हुए हैं। सेवड़ों की जिंदगी में महावीर जैसा रस नहीं दिखाई पड़ता, न मस्ती दिखाई पड़ती है। वह महावीर की चाल, वह प्रसाद कही दिखाई नहीं पड़ता। यद्यपि महावीर नग्न हैं, लेकिन कृष्ण भी अपने सुंदरतम वस्त्रों में इतने सुंदर कहां थे? माना कि नहीं उन्होंने मोर-मुकुट बांधा है, लेकिन बांधें क्यों? सौंदर्य नग्न भी सुंदर है। महावीर के सौंदर्य में कमी नहीं है। कहते हैं, महावीर पैसा सुंदर आदमी पृथ्वी पर दुबारा नहीं चला। शायद सुंदर इतने थे कि वस्त्रों की भी जरूरत न थी। यही कारण होगा कि नग्न हुए। सुंदर इतने थे कि देह पर कुछ भी और रखना देह को कुरूप करना होता।
तुमने देखा, सुंदर स्त्रियां ज्यादा आभूषणों में रस लेती हैं४ सुंदर स्त्रियां आभूषणों से मुक्त हो जाती है। जब भी कोई जाति कि स्त्रियां सुंदर होने लगती हैं, आभूषण विदा हो जाते हैं। आभूषण से लदी औरत सिर्फ अपनी कुरूपता की खबर देती है, और कुछ भी नहीं। आभूषणों के द्वारा वह अपनी कुरूपता को छिपाती है, आभूषणों के उधार सौंदर्य को अपने ऊपर आरोपित करती है। जिसके चेहरे में सौंदर्य नहीं है, उसकी नाक पर लगा हुआ हीरा, जड़ा हुआ हीरा, तुम्हें मोहित कर लेगा। कम-से-कम हीरा तो मोहित करेगा, हीरे की चमक तो मोहित करेगी! जिसके हाथ सुंदर नहीं है उसके हाथ में बजती हुई चूड़ियों की खनकार शायद संगीत का अनुभव दे। जो स्वयं सुंदर नहीं है, वस्त्रों में आविष्ट, शायद सौंदर्य का भ्रम पैदा हो सके।
जितनी कुरूपता उतने आभूषण, उतना प्रसाधन, उतना इंतजाम। सुंदर स्त्री अपने में ही सुंदर है। आभूषण उसके सौंदर्य को खंडित करेंगे।
तो शायद यही कारण था कि महावीर नग्न खड़े हुए। अपूर्व सौंदर्य था उनका! अपूर्व प्रसाद था उनके व्यक्तित्व का! गणित की दृष्टि ने उन्हें मारा नहीं, उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाया। बुद्धिमान आदमी को कोई चीज नुकसान नहीं पहुंचाती। वह जहर से भी औषधि बना लेता है। लेकिन उनके पीछे चलने वाले लोग सिर्फ गणित के हिसाब-किताब में लगे हैं। उनकी जिंदगी हिसाब-किताब में जा रही है। वे भूल ही गये मस्ती। मस्ती की फुरसत कहां? नाचें कब? हिसाब ही पूरा नहीं बैठ पाता। गीत कब गायें? वीणा कब बजायें? बांसुरी कब उठायें?
और ध्यान रखना, बांसुरी बजाने के लिए बांसुरी ओठों पर रखना अनिवार्य नहीं है। बांसुरी चुप्पी में भी बज सकती है। ऐसी ही महावीर की बजी थी। मगर बांसुरी निश्चित बज रही थी। एक अपूर्व आकर्षण था उस व्यक्तित्व में। बिना किसी आडंबर के आकर्षण था।
फिर मीरा है जो नाची, जो गयी, जिसने भाव से परमात्मा को देखा। उसके लिये परमात्मा नियम नहीं है। नियम अदालतों में होते हैं। परमात्मा उसके लिए न्यायाधीश नहीं हैं। न्यायाधीश से कोई प्रेम हो सकता है? न्यायाधीश तो कठोर। न्यायाधीश तो बिलकुल ऐसा होता है जैसे कि उसमें व्यक्तित्व तो होना ही नहीं चाहिए, तभी उसका न्याय पक्षपात-रहित होगा। अगर उसका जरा भी प्रेम-भाव है तो न्याय डांवांडोल हो जायेगा। अगर कोई सामने खड़ा है व्यक्ति, जिससे उसका लगाव है, तो फिर शिथिलता हो जायेगी न्याय में। फिर न्याय पूरा नहीं हो पायेगा। या उसकी दुश्मनी है, विरोध है, तो भी न्याय गड़बड़ हो जायेगा। तब अतिशय कठोर हो जायेगा। न्यायाधिश को तो प्रेम से, लगाव से मुक्त होना चाहिए, निष्पक्ष होना चाहिए। कोई भावाविष्ट दशा नहीं होनी चाहिए।
तुमने देखा, सारी दुनिया में न्यायाधीश के लिए हमने विशेष वस्त्र बना रखे हैं। वस्त्र ही नहीं, उसको सिर पर पहनने के लिए झूठे बाल भी तैयार करवा देते हैं, ताकि उसका व्यक्तित्व विदा हो जाये। आखिर आदमी आदमी है। उसकी पत्नी है, बच्चे हैं, मित्र हैं, शत्रु हैं--आदमी जैसा आदमी है। हम उसके सारे व्यक्तित्व को उससे छीन लेते हैं। हम उसे एक नकली आदमी बनाकर बिठाल देते हैं हम उससे यह कह रहे हैं कि अब तुम भूल जाओ कि तुम समाज के हिस्से हो। तुम्हारा विग, तुम्हारे कपड़े, तुम्हारे बैठने का ढंग, वकील तुम्हें जिस तरह संबोधित करेंगे--माई लार्ड! हूं...जैसे परमात्मा बैठा हो! अब वकील भी अच्छी तरह जानते हैं कि माई लार्ड जैसा कुछ भी नहीं है, लेकिन अब उदघोषणा ऐसी करनी है जैसी कि कठोर परमात्मा बैठा हुआ है--निष्पक्ष, दूर, जिससे हमारा कोई लेना-देना नहीं, जो शुद्ध नियम से चलेगा।
मीरा का परमात्मा न्यायाधीश नहीं है। मीरा का परमात्मा प्रेमी है। मीरा के साथ नाच रहा है। मीरा के साथ रास रचा रहा है। मीरा के हाथ में हाथ डाला है। मीरा उसकी ही धुन पर नाच रही है। मीरा अपनी धुन पर उसको नाच रही है। यह बड़े लगाव का, बड़े प्रेम का, बड़ा रससिक्त संबंध है। लेकिन मीरा में कुछ कमी नहीं है--महावीर से जरा भी कमी नहीं है। इतनी रससिक्त होकर, इतनी प्रीतिपूर्ण होकर, इतने भाव और प्राणों से परमात्मा का पुकारकर भी मीरा वहां पहुंच गयी जहां महावीर अपने कठिन-कठोर नियम से पहुंचे। जहां महावीर तपश्चर्या से पहुंचे वहां मीरा गीत गाते हुए पहुंच गई। जहां महावीर उपवास से पहुंचे हैं वहां मीरा उत्सव से पहुंच गई है।
लेकिन फिर बहुत भक्त हैं, भक्त के नाम से चलते हैं दुनिया में बहुत लोग, जो सिर्फ चादर ओढ़कर सो रहे हैं; जो कहते हैं: "करना क्या है? वह प्यारा तो सबका देखनेवाला है; वह तो सब करनेवाला है। हमारा पाप भी क्या है, क्षमा कर देगा। जब मलन होगा, झुक जायेंगे चरणों में, माफी मांग लेंगे। हमारे पाप ही छोटे-मोटे हैं, उसकी करुणा तो अपार है। हमारे पापों की गिनती क्या है? वह तो माफ कर देगा। हम क्यों परेशान हो?' आलस्य पैदा हो रहा है। तमस पैदा हो रहा है।
भक्त की भूल अगर जाये तो तमस पैदा होता है। ज्ञानी की भूल अगर पैदा हो जाये तो उदासी, सूखापन, मरुस्थल। सब हरियाली विदा हो जाती है, सब फूल खिलने बंद हो जाते हैं। वसंत फिर नहीं आता।
भूलों से बचना। कौन-सी भाषा तुम चुनते हो, इसकी बहुत चिंता नहीं है। इतना ख्याल रखना कि उससे कोई गलत परिणाम मत ले लेना। तो तुम किसी भी मार्ग से पहुंच सकते हो।
ज्ञानी अपने संबंध में कह रहा है कि परमात्मा नियम है। सच तो यह है, हम जब भी परमात्मा के संबंध में कुछ कहते हैं तो अपने संबंध में कुछ कहते हैं। परमात्मा के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। अनिर्वचनीय है। अव्याख्य है। और, अगर परमात्मा के ही संबंध में कुछ कहना हो तो हमारे कोई शब्द काम नहीं आ सकते--न तो प्रेम, और न नियम। क्योंकि हमारे सारे शब्द हमारे हैं--छोटे-छोटे शब्द; जैसे हमारे छोटे-छोटे आंगन। इन छोटे-छोटे आंगन में कहां आकाश को समाओगे? और ऐसा भी नहीं है कि तुम्हारे आंगन में आकाश नहीं है--बस आकाश का एक अंशमात्र है, पूरा आकाश नहीं हो सकता है। ऐसे हमारे शब्द में परमात्मा का एक अंशमात्र हो सकता है, पूरा परमात्मा नहीं हो सकता।
लेकिन आदमी की भ्रांति, मतांधता ऐसी है कि जब वह दावा करता है तो अतिशयोक्ति पूर्ण कर देता है। फिर वह भूल ही जाता है कि यह छोटा आंगन, मैं इसका ही पूरा आकाश कहूं? तो भक्त भी वैसी भूल कर देता है कि अपने छोटे आंगन के पूरा आकाश कह देता है--कि बस, परमात्मा ऐसा है, कि परमात्मा प्रेम है, और अन्यथा नहीं है। और ज्ञानी भी भूल कर देता है। कहता है, बस परमात्मा नियम है, अन्यथा नहीं।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं, परमात्मा के संबंध में जितनी बातें कही गयी हैं, सब सच हैं। और जितनी बातें अभी नहीं कही गयी हैं, कही जायेंगी कभी, वे भी सच हैं। आर ऐसी भी बातें हैं जो न कहीं गयी है और न कही जा सकेंगी, वे भी सच हैं। परमात्मा विराट है, अनंत है। हम कह-कहकर उसे चुकता न कर पायेंगे। हमारी सब भाषाएं छोटी पड़ जायेंगी। हमारे सब पैमाने छोटे पड़ जायेंगे। हमारी छोटी-छोटी प्यालियों में हम कितना उसे भरेंगे? सागर बड़ा है।
अरिस्तोतल घूमता था सागर के तट पर, उसने एक आदमी को देखा। बड़ा पागल मालूम पड़ा वह आदमी। वह एक छोटी सी प्याली में, चाय पीने की प्याली में सागर से पानी भरकर लाता था और एक छोटा-सा गङ्ढा खोद रखा था उसने किनारे पर, उसमें डाल दिया था। फिर भाग जाता, फिर डालता। फिर भागा जाता, फिर डालता। अरिस्तोतल घूमता रहा; बीच में बोलना नहीं है--किसी दूसरे आदमी के काम में क्यों बाधा डालनी? लेकिन फिर उसकी जिज्ञासा प्रबल हो उठी। नहीं रोक सका अपने को। कहा कि भई मुझे तुम्हारे काम में बाधा नहीं डालनी चाहिए, लेकिन मेरी समझ में नहीं आ रहा, तुम क्या कर रहे हो? तुम यह प्याली भर पानी भर कर लाते हो, इस रेत में खोदे गङ्ढे में डालते हो, वह खो जाता है। फिर तुम भागे जाते हो, जब तक तुम लौटते हो, वह पहले वाला पानी तो रेत पी गई। तुम कर क्या रहे हो? इससे प्रयोजन क्या है?
उस आदमी ने कहा, मैंने तय किया है कि इस पूरे सागर को इस गङ्ढे में उंडेलूंगा। अरिस्तोतल हंसने लगा। उसने कहा, तुम पागल हो। ऐसा सुन कर वह आदमी और भी जोर से हंसा। और उसने कहा, अगर मैं पागल हूं अरिस्तोतल, तो जरा अपने संबंध में विचार कर लेना। तुम क्या कर रहे हो? यह खोपड़ी आदमी की कोई चाय पीने की प्याली से ज्यादा बड़ी है? इसमें भर-भर कर तुम परमात्मा को चुकता करने की कोशिश कर रहे हो।
यही अरिस्तोतल कर रहा था जीवन भर। तर्कनिष्ठ आदमी था। तर्क का जन्मदाता था पश्चिम में। तर्क का पिता। उसका काम ही यही था कि सारा अस्तित्व तर्क की पद्धति से सुस्पष्ट हो जाये। उस आदमी ने अरस्तू को एक धक्का दे दिया। वह आदमी परमज्ञानी रहा होगा। रहा होगा कोई मस्त फकीर, जो अरिस्तोतल को जगाने आया था। उस दिन से अरिस्तोतल के जीवन में बड़ा फर्क पड़ा। पुरानी अकड़ न रही। जब भी सोचने बैठता, तभी उस आदमी की याद आती--वह प्याली, सागर का पानी भरना, गङ्ढे में डालना।
आदमी की बुद्धि और ज्यादा कर भी क्या सकती है! आदमी जो भी कहता है परमात्मा के संबंध में, अपने संबंध में कहता है। अपनी जीवन-शैली के संबंध में कहता है।
तुम्हें रुच जाये, उसके अनुकूल चल पड़ना। पर इतना ही ख्याल रखना, हर मार्ग के लाभ हैं, हर मार्ग की हानियां हैं। हानियों से सावधान रहना। ऐसा कोई भी मार्ग नहीं है जिसकी हानि न हो और जिस पर हानि की संभावना न हो। जितना लाभ हो उतनी ही हानि की संभावना है। जितना ज्यादा लाभ हो उतनी ही ज्यादा हानि की संभावना है। लाभ और हानि सदा अनुपात में होते हैं।
दूसरा प्रश्न: भी पहले से कुछ संबंधित है। दूसरा प्रश्न हैं: कहते है कि खेल के भी नियम होते हैं। फिर यह कैसा कि प्रेम में कोई नियम न हो?
सुंदरदास ने कल कहा कि प्रेम में कोई नियम नहीं। इसलिए पूछा है: कहते हैं कि खेल के भी नियम होते हैं।
खेल के नियम होते हैं, जरूर होते हैं। और खेल के भी नियम होते हैं, ऐसा नहीं; अगर ठीक से समझोगे तो खेल के ही नियम होते हैं। और प्रेम खेल नहीं है। और जब प्रेम खेल नहीं होता, तब प्रार्थना का जन्म होता है।
तुम जिसे प्रेम समझ रहे हो, वह तो खेल है, उसके तो नियम हैं। पति-पत्नी के बीच नियम होते हैं। नहीं तो विवाह क्या है? सब नियम से खेल चला रहा है। बैंड-बाजा बजेगा। घोड़े पर सवार होगा दूल्हा, दुल्हन सजेगी, बारात निकलेगी। ये सब नियम हैं। इन नियमों के द्वार एक बात गहराई जा रही है मन में, कोई बहुत महत्वपूर्ण कार्य हो रहा है? वैसे घोड़े पर कभी बैठे नहीं थे। अब घोड़े पर बैठे हैं। दूल्हा को कहते हैं--"दूल्हा राजा!' मोर बांधा हुआ है। कटार लटकाई हुई है। कटार--जिससे सब्जी भी न कटे! मगर अकड़ देने के लिए। वस्त्र पहनाए हुए हैं--विशिष्ट, जैसे अगर ऐसे ही पहनकर निकलो तो लोग भीड़ लगाकर देखें और कहें कि दिमाग खराब हो गया है या क्या बात है? एक विशिष्टता देने के लिए, ताकि तुम्हारे मन में यह छाप पड़ी रह जाए कि कुछ महत्वपूर्ण हुआ है।
फिर मंत्र-जाप है, पूजा-पाठ है, हवन है, फिर हवन के चारों तरफ सात फेरे हैं। पंडितों का संस्कृत का उच्चार, जो तुम्हें कुछ समझ में नहीं आता कि क्या कहा जा रहा है, क्यों कहा जा रहा है। न पंडित को पता है, न तुमको पता है।...कुछ विशिष्ट हो रहा है! एक विशिष्टता की हवा पैदा की जा रही है। सात चक्कर लगा दिये गये, एक गांठ बांध दी गई, कसम खिला दी गई--समाज के सामने, सारे लोग मौजूद हैं। समाज ने सील-मोहर लगा दी। ये सब खेल के नियम हैं।
एक सज्जन मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं बड़ा परेशान हूं। सालों बीत गए; इस स्त्री के साथ जिस दिन से मेरा विवाह हुआ है, शांति नहीं जानी। तो मैंने उनसे कहा कि कोई रास्ता नहीं बनता हो तो छूट जाओ, अलग हो जाओ। वे कहने लगे, कैसे छूट जाओ? सात फेरे पड़ चुके हैं। तो मैंने कहा, उलटे फेरे पाड़ लो, और क्या करोगे? आखिर फेरे ही पड़े हैं न, तो रास्ता तो है ही। फिर बैंड-बाजा बजवा दो, फिर बैठ जाओ घोड़े पर। अब की दफा उलटे बैठ जाना। फिर इकट्ठा कर लो लोगों को और उल्टे चक्कर लगा लेना और गांठ खोल कर कहना कि नमस्कार।
मगर हम इसीलिये सदियों तक तलाक का अवसर नहीं दिये थे, क्योंकि अगर तलाक का अवसर हो तो विवाह के खेल की गंभीरता नष्ट हो जाती है। फिर ऐसा लगता है, यह खेल तो तोड़ा भी जा सकता है। तो फिर लगने लगता है कि यह खेल ही है। जब तलाक हो सकता है तो विवाह खेल मालूम होने लगता है। तलाक हो ही नहीं सकता, तो फिर विवाह खेल नहीं है।
खेल के तो बाहर तुम आ सकते हो। ताश खेलने बैठे, नहीं खेलना तो उठ गये। खेल को तो कभी भी बंद किया जा सकता है। विवाह खेल नहीं है, ऐसी तुम्हारी मन में धारणा बिठाने के लिए, तलाक को रोका गया था। और जिन-जिन देशों में तलाक को सुविधा मिल गई है, उन-उन देशों में विवाह विदा हो रहा है। हो ही जायेगा, क्योंकि जब खेल ही है तो जब तक खलना है खेलो, जब नहीं खेलना है तो समाप्त करो। कष्ट झेलने की कोई जरूरत नहीं है।
प्रेम--जिस प्रेम की बात सुंदरदास कर रहे हैं या मैं कर रहा हूं--खेल की बात नहीं है। खेल के पार उठने की बात है। इस जगत में एक चीज तो है जो खेल नहीं है, वह परमात्मा है। बाकी सब खेल है। परमात्मा से जुड़ने का नाम प्रेम है। वहां कैसे नियम? क्योंकि अगर वहां भी नियम हों तो नियम तोड़े जा सकते हैं। अगर नियम हों तो नियम बचाये जा सकते हैं। अगर नियम हों तो नियम से बचने की तरकीबें निकाली जा सकती हैं। हर नियम में से उपाय निकाला जा सकता है।
लेकिन परमात्मा और मनुष्य के बीच का संबंध नियम का संबंध है--निसर्ग का संबंध है। यह कोई नियम नहीं है कि आदमी परमात्मा से जुड़ा है। यह नियति है। ऐसी अस्तित्व की व्यवस्था है। यह कोई नियम नहीं है कि वृक्ष पृथ्वी से जुड़ा है। वृक्ष पृथ्वी का ही रूप है, पृथ्वी का ही रंग है। पृथ्वी ने ही अपने हरे रंग को वृक्ष में उंडेल है। और पृथ्वी ने अपने लाल रंक को वृक्ष में फूल बनाया है। और पृथ्वी में छिपी है आकाश की तरफ। यह पृथ्वी की आकांक्षा है चांदत्तारों को छूने की। यह पृथ्वी के नाचने का भाव है। यह पृथ्वी मस्त होना चाहती है। यह वृक्ष किसी नियम के कारण पृथ्वी से नहीं जुड़ा है--यह पृथ्वी का ही हिस्सा है।
जैसे वृक्ष पृथ्वी से एक है, ऐसे ही मनुष्य परमात्मा से एक है। मनुष्य परमात्मा का ही फैलाव है, उसी का विस्तार है। जिस दिन यह बात पहचान में आती है उस दिन प्रेम जगा। उस प्रेम का कोई नियम नहीं होता। वह स्वयं ही अपना नियम है।
तुम पूछते हो: "कहते हैं खेल के भी नियम होते हैं।' खेल के तो नियम होते ही हैं। सच तो यह है, खेल नियम पर ही निर्भर होता है। इसलिए खेल में लोग नियम को तोड़ते नहीं। नियम को तोड़ो तो खेल खतम। कोई भी नियम तोड़ दो तो खेल खतम।
तुम ताश खेलने बैठे हो तो तुम्हें मानना पड़ता है कि यह राजा है, यह रानी है। और तुम भी जानते हो कि कागज का पत्ता है--न कोई राजा है, न कोई रानी है। अब तुम यह नहीं कह सकते खड़े होकर कि हम राजा-रानी में नहीं मानते, क्योंकि हम तो लोकतंत्र में मानते हैं। तो खेल खतम। तो फिर बात बंद हो गयी। अब क्या खेलोगे? राजा-रानी के बिना खेल नहीं चल सकेगा। हालांकि जिंदगी से विदा हो गये, लेकिन ताश के पत्तों में अभी है। ताश के पत्तों में अभी है। ताश के पत्तों में रहेंगे।
कहते हैं, आनेवाली दुनिया में बस पांच ही राजा-रानी रहेंगे--चार ताश के पत्तों के बौर एक इंग्लैंड का। बाकी तो सब गये, क्योंकि इंगलैंड का रानी हो या राजा, वह भी ताश के पत्तों जैसा है। उसमें कुछ बल नहीं है। सिर्फ नाममात्र है। खेल का एक हिस्सा है। तोड़ने की कोई जरूरत नहीं।
खेल तो नियम पर ही निर्भर होते हैं। तुम अगर शतरंज खेल रहे हो तो तुम यह नहीं कह सकते हो कि हम अपनी ही चाल तय करेंगे--कि घोड़ा कैसे चले, वजीर कैसे चले। तुम यह नहीं कह सकते कि कोई अनिवार्यता थोड़े ही है कि वजीर ऐसा ही चले कि घोड़ा ऐसा ही चले; हम अपना नियम बनायेंगे। दूसरा आदमी अपना नियम बनायेगा, खेल खत्म हो गया।
खेल तो नियम पर निर्भर होता है। वह तो समझौता है। वह तो इस बात का राजीपन है कि हम दोनों राजी हैं नियम पर, तो ही खेल चलता है।
जिनकी जिंदगी नियम के अनुसार चलती है, उनकी जिंदगी ताश के पत्तों जैसा खेल है, शतरंज का खेल है। कुछ जिंदगी में खोलो जो नियम नहीं है। वही सत्य है। कुछ ऐसा खोजो, जिसके लिए तुमने कोई समझौता नहीं किया है। कुछ ऐसा खोजो कि तुम्हारे समझौता तोड़ने से टूट नहीं जायेगा। कुछ ऐसा खोजो जो तुम्हारा कांट्रेक्ट नहीं है। सब खेल कांट्रेक्ट है।
तो मैं तुमसे कहना चाहूंगा...पूछा तुमने: "कहते हैं खेल के भी नियम होते हैं।' मैं कहना चाहता हूं कि खेल के ही नियम होते हैं। आर अगर तुम्हारी जिंदगी में नियम ही नियम है तो तुम बस खेल ही खेल में पड़े हो। तुम्हें असलियत का कब पता चलेगा, कैसे चलेगा? कुछ खोजो, जो नियम के बाहर है, जो नियम में नहीं समाता। वहीं से द्वार मिलेगा। उसी को प्रेम कहा है सुंदरदास ने। और उसकी संभावना है।
अड़चन यह आ रही है कि तुमने जिसे प्रेम समझ रखा है, वह खेल है। और तुम बड़े डूब कर खेलते हो, इसमें कोई संदेह नहीं। लोग शतरंज खेलने में तलवारें खींच लिये हैं। ताश के पत्तों में झगड़े हैं जो जिंदगी-भर चले हैं। लोग बड़ी गंभीरता से खेलते हैं। खेल को गंभीरता से ही खेलना पड़ता है, नहीं तो तुम्हें दिख ही जायेगा कि खेल है, हम भी क्या कर रहे हैं? अगर तुम खेल को गंभीरता से नहीं लेते तो तुम्हें मूढ़ता मालूम पड़ेगी।
जरा सोचो कि अंतरिक्ष से कोई यात्री उतरता है--उतरेगा जल्दी, क्योंकि उड़नतश्तरियां उड़ रही है--कोई अंतरिक्ष का यात्री उतरता है और तुम्हारे खेल देखे। समझो कि फुटबाल खेल रहे हो, कि वालीबाल खेल रहे हो। वह बड़ा हैरान होगा कि इनका दिमाग तो खराब नहीं हो गया? गेंद का इधर से उधर फेंकते, उधर से इधर फेंकते, इनका दिमाग तो शराब नहीं हो गया? और इनका तो हो गया सो हो गया और ये हजारों लोग देखने आये हैं, ये क्या देख रहे हैं? और बड़ा शोरगुल मचाते हैं, दंगे-फसाद हो जाते हैं। उनकी समझ में नहीं आयेगा एकदम से कि यह हो क्या रहा है! यह कौन-सी चीज हो रही है? यह किसलिए हो रही है? एक दफा गेंद को उधर फेंकना हो तो उधर फेंक दो, इधर फेंकना हे इधर फेंक दो। अपने घर जाओ। या ज्यादा ही दिक्कत हो तो दो गेंद रखो, अपनी-अपनी फेंकते रहो, मजा करो। मगर यह इतनी झंझट और इतनी झंझट इतने लोग देखने भी आये हैं, सार कहां है? अर्थ क्या है?
अर्थ तो कुछ भी नहीं है। खेल का हमने गंभीरता दी है। भारी गंभीरता दी है। खेल हमारी एक तरकीब है, जिससे हम वास्तविक हिंसा को बचाना चाहते हैं। खेल के द्वारा हम झूठी हिंसा करके हिंसा करने की तृप्ति पा लेते हैं--हरा दिया दूसरे को! अब यह जरा भद्दा लगता है। वह भी चलता है, मगर भद्दा लगता है, तो हमने कुछ तरकीबें निकाल ली हैं कि तुमको तो घूंसा नहीं मारेंगे, लेकिन तुम्हारी पिद्दी का पीट देंगे। वह प्रतीक है कि पीट दी पद्दी, तुम पिट गये। ऐसी हमने तरकीब निकाल ली। सीधा घूंसा मारें किसी को, तो जरा असभ्य मालूम होता है। हमने बहाने निकाल लिए। होशियार है आदमी, कुशलता से बहाने निकाल लेता है।
मैंने सुना है, अदालत में एक मुकदमा था। दो आदमियों में सिर-फोड़ हो गई। मजिस्ट्रेट उनसे पूछे कि बात क्या थी? और वे दोनों ही एक-दूसरे की तरफ देखें और कहीं कि तू ही बता दे। आखिर मजिस्ट्रेट ने कहा, बोलते हो कि नहीं, नहीं तो दोनों को पिटाई करवाई जायेगी और कारागृह में डाल दिया जायेगा। बोलो, मामला क्या है? झगड़ा शुरू कैसे हुआ?
उन्होंने कहा कि अब हम क्या बतायें आपको। हम दोनों दोस्त हैं। नदी के किनारे बैठे थे रेत में, गपशप कर रहे थे। इसने कहा कि यह आदमी एक भैंस खरीदने जा रहा है। मैंने उससे कहा, भैंस मत खरीद भाई, क्योंकि कभी मेरे खेत में घुस जायेगी। अपनी पुरानी दोस्ती है। झांसा-झगड़ा होगा। मैं बरदाश्त नहीं कर सकूंगा। मेरे खेत में मैं भैंस किसी की बरदाश्त कर ही नहीं सकता। मैं भैंस की पिटाई कर दूंगा। तू भी आदमी जिद्दी है, तू भी अपनी भैंस की पिटाई न देख सकेगा। नाहक पुरानी दोस्ती खराब हो जायेगी। तू भैंस मत खरीद। उस आदमी ने कहा: "कौन मुझे रोक सकता है दुनिया में भैंस खरीदने से? कल खरीदता था तो आज खरीदूंगा। और तू क्या है, तेरा खेत क्या है? और भैंस घुसेगी ऐसी कल्पना मत कर--घुसेगी ही! और कर लेना जो करना हो। देख लिए बहुत ऐसी बातें करने वाले। भौंकने वाले कुत्ते काटते नहीं हैं।' और इसने बड़े तेजी पर बात चढ़ा दी। बात यहां तक बढ़ गई कि मैंने अपने हाथ से लकीर खींच कर कहा कि यह घुस गई मेरी भैंस, और कर ले कौन मेरा क्या करता है! बस उसी में माथा-फोड़ हो गया, एक-दूसरे का सिर खुल गया। अब हम आपसे क्या कहें? न इसने भैंस खरीदी है, न मेरा अभी खेत है। मैं खेत खरीदने की सोच रहा हूं।
आदमी बहाने खोल लेता है, हिंसा सहारे लेकर निकल आती है। तुम्हारे खेलों में तुम्हारा जो रस है, उसके पीछे और कारण हैं। कहीं प्रतिस्पर्धा है, कहीं हीनता का भाव है, कहीं जिंदगी में पिट गये हैं। तो अब कहीं और...।
तुम अगर जाओ विश्वविद्यालय में, तो तुम एक बात देखकर हैरान होओगे: वहां तुम्हें जितने अच्छे खिलाड़ी मिलेंगे, सब गधे हैं। वह कारण है। वे पिट गये हैं एक जगह--गणित में पिट गये, भाषा में पिट गये, विज्ञान में पिट गये--अब वे कहीं तो पीटें! आखिर उनको भी तो जिंदा रहना है। आखिर थोड़ा आत्मसम्मान बचाना है। वे फुटबाल पीट रहे हैं, हाकी चला रहे हैं। जितने छंटे हुए गधे विश्वविद्यालय में होते हैं...। मैं विश्वविद्यालय में बहुत दिन रहा हूं, इसलिए जानता हूं। जिनको प्रसिद्ध खिलाड़ी समझा जाता है, वे वही लोग होते हैं जो परीक्षा में कभी पास होते ही नहीं। मगर वे भी अपना रास्ता निकाल लेते हैं। और उनका भी बड़ा सम्मान होता है। यहां तक सम्मान होता है कि वे पास नहीं होते तो भी उनको पास किया जाता है, कि वे कहीं दूसरे विश्वविद्यालय या दूसरे कालेज में न चले जायें, क्योंकि उन्हीं के साथ ट्राफी जुड़ी है। उन्हीं के साथ प्रतियोगिता जुड़ी है। कालेज का नाम भी उनके साथ जुड़ा है। उनको रोका जाता है, समझाया जाता है कि रुके रहो। उनकी फीस माफ की जाती है, स्कालरशिप दी जाती है। और स्कालर जैसा उनमें कुछ भी नहीं है, इसलिए वे खिलाड़ी हैं।
मगर हर आदमी अपना कोई रास्ता निकाल लेता है, कोई तरकीब निकाल लेता है। इस दुनिया में सब तरह के खेल चल रहे हैं, लेकिन खेलों के पीछे और छिपे खेल हैं। कोई एकाध चीज तो खोजो जो खेल न हो; जिसमें तुम्हारा अहंकार न जुड़ा हो; जिसमें तुम्हारी हिंसा न जुड़ी हो; जिसमें तुम्हारा अहंकार न जुड़ा हो; जिसमें तुम्हारी हिंसा न जुड़ी हो; हीनता का भाव न जुड़ा हो;र् ईष्या, प्रतिस्पर्धा इत्यादि न जुड़ी हो। कोई एक चीज खोजो। उसको ही सुंदरदास प्रेम कहते हैं। उस प्रेम के कोई नियम नहीं। वह प्रेम पर्याप्त है। वह जिसके जीवन में उतर आता है, उसके जीवन में शेष सब अपने-आप आ जाता है। उसके जीवन में एक सौंदर्य होता है, एक सत्य होता है--साधा हुआ नहीं। साधे हुए सत्य की तो कोई कीमत नहीं है। उसके जीवन में एक आचरण होता है--अभ्यास किया हुआ नहीं। क्योंकि अभ्यास किये हुए आचरण का तो कोई भी मूल्य नहीं है। वह तो पाखंड है। उसके भीतर एक सहज-स्फूर्त आचरण होता है। जिसने परमात्मा को प्रेम किया, उसके जीवन में एक सहज-स्फूर्त आभा होती है। वह परमात्मा के प्रेम के कारण ही हो जाती है। उसमें एक शालीनता होती है--एक दिव्यता, जो अभ्यास से की गई दिव्यता नहीं है, और न अभ्यास से किया गया किसी तरह का चरित्र है। चरित्र तो उसमें होता नहीं। जिसको तुम चरित्र कहते हो वैसा चरित्र नहीं होता उसमें। उसमें एक अनूठे ढंग का चरित्र होता है, जिसको कहने के लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं है। एक "सहज' शब्द है जो उसे प्रगट करता है। वैसा व्यक्ति सहजिया होता है। क्षण-क्षण जीता है, सहज भाव से जीता है।
सुकरात को जहर दिया जाने का दिन आया। सजा अदालत ने दी थी, उस दिन से उसके पैरों में और हाथों में जंजीरें डाल दी गई थी। जब जहर देने का दिन आया, मारने का दिन आया, तो उस सुबह उसकी जंजीरें काटकर निकाल दी गई, हाथ से, पैर से बेड़ियां अलग कर दी गई। उसके एक शिष्य ने उसे एक खबर दी...शिष्य रोता हुआ आया कि मुझे खबर मिली है कि आज आपके पैर की बेड़ियां और हाथ की जंजीरें अलग कर दी जाएंगी, क्योंकि आज सांझ वे आपके मार डालने के लिए समय तय कर लिए हैं। वह रो रहा है कि सुकरात मारा जाएगा। और सुकरात ने कहा, भई तू रोता क्यों है? ये जंजीरें बड़ी भारी थी। और पैर में मेरे घाव पड़ गये हैं। और बड़ा अच्छा हुआ।
और जब उसकी जंजीरें तोड़ी गई तो वह बड़ा प्रसन्न था। उसके शिष्य रो रहे थे कि मौत करीब आ गई और वह प्रसन्न था। और उसने कहा, तुम रो क्यों रहे हो पागलो? जरा देखो तो मेरा आनंद! इन जंजीरों की वजह से चल भी नहीं सकता था। हाथ में गङ्ढे पड़ गये हैं, पैर में घाव हो गये हैं। दर्द हो रहा था इन जंजीरों के कारण। दर्द मिटा, और तुम रो रहे हो!
उनमें से किसी एक ने कहा, आप भी क्या बात कर रहे हैं? यह दर्द कुछ मामला नहीं है। सांझ जहर दिया जाएगा और मौत होगी।
सुकरात ने कहा, सांझ अभी बहुत दूर है। क्या मैंने तुम्हें जीवन-भर नहीं कहा कि क्षण-क्षण जियो। सांझ अभी बड़ी दूर है--आये न आये, कौन जाने! जब आयेगी तब देखेंगे।
यह सहज जीवन है। इस क्षण में, जो सहजता से हो रहा है। सुकरात प्रफुल्लित है, क्योंकि बेड़ियां कट गई। फिर सांझ को जहर देने का समय आया, सुकरात लेट गया है, प्रतीक्षा कर रहा है जहर की। बार-बार उठता है, जाकर खिड़की से झांकता है, बाहर जहर घोंटा जा रहा है। और वह पूछता है, भाई, कितनी देर और? आखिर उस जहर घोंटने वाले ने कहा कि मैंने बहुत लोगों को जहर घोंट कर दिया है, यही मेरा काम है जिंदगी-भर से। अदालत जिनको भी मृत्यु दंड देती है, मैं ही उनका जहर तैयार करता हूं। लेकिन तुम पहले आदमी हो जो बार-बार पूछ रहे हो, जैसे कि कोई बड़े सौभाग्य का क्षण हो रहा है। और मुझे तुमसे प्रेम है। मैंने तुम्हारी बातें सुनी हैं। और मैंने तुम्हारी बातों से बड़ा आनंद पाया है। तो मैं देर लगा रहा हूं कि इतनी देर तुम और जी लो। धीरे-धीरे घोंट रहा हूं जहर कि घड़ी-आधा-घड़ी सुकरात और जी ले। तुम्हें क्या जल्दी पड़ी है?
सुकरात ने कहा, जल्दी यही कि जिंदगी तो खूब देखी, अब मौत को देखना है। जिंदगी तो खूब जी, अब मौत का जीना है। यह मौत क्या है! इसे देखने को मैं आतुर हूं। यह मेरी जिज्ञासा है।
यह एक आचरण है, जो अपूर्व है।
फिर जहर दिया गया सुकरात को। उसके शिष्य रो रहे हैं। और वह उनसे कहता है, रोओ मत। मैं मर जाऊंगा, फिर तूम रो लेना, फिर काफी समय होगा। अभी तो मेरे साथ रह लो, अभी तो थोड़ी मेरी सांस है, अभी तो जहर के चढ़ने में समय लगेगा, जहर का परिणाम होने में समय लगेगा। इतनी देर तुम मेरे साथ और हो लो। किसी को कुछ पूछना हो तो पूछ लो। फिर रोने के लिये तो जिंदगी पड़ी है, तुम रो लेना, मैं तो चला जाऊंगा। कम से कम मेरे सामने तो मत रोओ। जिंदगी भर मैंने सिखाया है कि हंसो, नाचो-गाओ, और तुम रो रहे हो!
चुप होकर शिष्य बैठ गये--किसी तरह छाती में आंसुओं को सम्हाल कर। और सुकरात उनसे कहने लगा, अब मेरे घुटनों तक जहर आ गया, मेरे घुटने ठंडे पड़ गये है। तो इतना हिस्सा मर गया। लेकिन मैं एक बात तुमसे कहता हूं, मुझे भीतर अभी जरा भी नहीं लग रहा है कि मैं मर गया हूं। अब मेरी कमर तक शरीर मर गया।
च्योंटी ले-ले कर देखता है अपने को, पता नहीं चलता। वह कहता है, बड़े आश्चर्य की बात है, कमर तक मैं मर चुका हूं, लेकिन मैं अपने भीतर अनुभव कर रहा हूं--मैं उतना का उतना हूं, कुछ कम नहीं हुआ। और मेरे हाथ भी ठंडे पड़ गये। और अब मेरे हृदय की धड़कन ठंडी पड़ने लगी। अब मेरी जीभ लड़खड़ा रही है।
आखिरी बात, जो सुकरात ने कही, वह यह कि अब मेरी जीभ लड़खड़ा रही है, शायद मैं दूसरे शब्द आगे नहीं बोल सकूंगा; लेकिन यह वसीयत रहे कि मैं तुमसे कहता हूं, मैं भीतर अब भी अपने का पूरा का पूरा अनुभव कर रहा हूं, जरा भी कमी नहीं हुई है। तो अगर इतनी देह कि मर जाने के बाद भी मैं हूं तो शायद पूरी देह के मर जाने के बाद भी मैं रहूंगा। मेरी पूर्णता अखडिंत है।
सुकरात ने कभी घोषणा नहीं कि थी कि आत्मा अमर है, क्योंकि वह कहता था, मैंने मर कर नहीं देखा तो कैसे कहूं? सुकरात ने आत्मा की अमरता का सिद्धांत प्रतिपादित नहीं किया। लेकिन इससे सुंदर और कोई अभिव्यक्ति होगी आत्मा की अमरता की?
यह सहज उदघोषणा है, यह सिद्धांत नहीं है। यह कोई तर्क के द्वारा लिया गया निष्कर्ष नहीं है--जीवंत अनुभव है।
तो जिस व्यक्ति से अपन संबंध जोड़ लिया उसने जीवन में अनुभव होने शुरू होते हैं। वे अनुभव सब बदल जाते हैं। पुराना कूड़ा-करकट अपने से बह जाता है, जैसे बाढ़ जब आती है तो नदी के किनारों पर इकट्ठा हुआ सारा कूड़ा, सारी गंदगी बहा ले जाती है। ऐसे ही उसके प्रेम की बाढ़ जब आती है तो सब बहा ले जाती है। तुम्हें अपने चरित्र को ठीक-ठीक नहीं करना पड़ता। तुम तो ठीक-ठाक करोगे भी तो गलत ही रहेगा, करने वाले ही तुम रहोगे। तुम ही गलत हो। तुम जो भी करोगे उसमें गड़बड़ होगी। तुम धोखेबाज हो। तुमने औरों को धोखा दिया है, तुम अपने को भी धोखा दे लोगे। तुम बेईमान हो। तुम अपने साथ भी बेईमानी करने वे बचोगे नहीं। तुम पर भरोसा नहीं किया जा सकता। उस पर भरोसा है।
भक्तों का भरोसा उस पर है। हम उसकी तरफ अपने को खोल दें--आये उसकी किरण, आये उसकी लहर और हमें बदल जाये! बदल जाती है। कोई नियम की आवश्यकता नहीं होती। प्रेम महा नियम है।
लेकिन एक तुम्हारा प्रेम है; उस प्रेम से तुम सुंदरदास के प्रेम के भेद को समझ लेना।
तीसरा प्रश्न भी संबंधित है, उसे भी साथ ही ले लें। तीसरा प्रश्न है: भगवान! प्रेम स्वीकार न हो तो...?
ऐसा मैंने कभी सुना नहीं कि परमात्मा से प्रेम करो और स्वीकार न हो। तो यह दूसरे ही प्रेम की बात चल रही है। किसी स्त्री से किया होगा और स्वीकार न हुआ होगा। तुम धन्यभागी हो। असली कठिनाई तो तब आती है जब स्वीकार हो जाता है। फिर तुम कहते कि भगवान, अगर प्रेम स्वीकार हो जाये तो...? फिर तुम बड़ी मुश्किल में पड़ते।
अच्छा ही हुआ, इससे परेशानी न लो। उस स्त्री ने तुम पर बड़ी दया की। आमतौर से स्त्रियां इतनी दया करती नहीं। कोई दयावान देवी मिल गयी होगी, जिसने कहा; क्यों बेचारे के उलझाओ!
मैंने सुना है--
विवाह से पूर्व
पिताजी ने कहा था
बेटा!
विवाह कर तो रहे हो
लेकिन विवाह के बाद
घर में शांति का
साम्राज्य रहना चाहिए।
विवाह के उपरांत
पुत्र ने उनके आदेश का
अक्षरशः पालन किया
और
अपनी पत्नी का नाम
शांति रख दिया।
और क्या करोगे?...शांति का साम्राज्य हो गया! और फिर आगे और उलझने बढ़ती हैं, कुछ कम नहीं होती।
दूसरी बात भी मैंने सुनी है--
गणित की किताब खोलते हुए
दसवें पुत्र ने
अपने पिता से
नम्रतापूर्वक पूछा--
एक और एक मिलकर
होते हैं कितने?
पहले दो, फिर ग्यारह!
बाप ने फरमाया।
पहले दो हो जाते हैं, फिर ग्यारह। फिर और फंसते मुश्किल में, फिर पूरा संसार खड़ा हो जाता है।
...जान बची और लाखों पाये, लौट के बुद्धू घर को आये। तुम काहे के लिए परेशान हो रहे हो? अब तुम पूछने बैठे हो कि प्रेम स्वीकार न हो तो...? तब उस प्रेम की तलाश करो जो सदा स्वीकार होता है--जो स्वीकार ही है! अब जरा आकाश की तरफ आंखें उठाओ। जमीन पर बहुत रेंग लिये। कितनी बार प्रेम स्वीकार भी हो चुका है, पाया क्या? न स्वीकार करने वालों को कुछ मिला है, न जिनका स्वीकार हुआ उन्हें कुछ मिला है। न जिनका स्वीकार नहीं हुआ, उन्हें कुछ मिला है। यहां मिलने को कुछ है ही नहीं। यह संसार में मिलने जैसी कोई चीज ही नहीं है। यहां सिर्फ मिलने के भ्रम हैं। उस तरफ प्रेम को तलाशो, जो सदा स्वीकृत है। सिर्फ तुम्हारी तलाश की जरूरत है। उस तरफ हाथ उठाओ, उस तरफ दामन फैलाओ--जहां से संपदा बरसने को आतुर है।
लेकिन नहीं, मालिक की तरफ तो आंखें भी नहीं उठाते। यही एक-दूसरे भिखमंगे हो। उसके पास ही होता प्रेम, जिससे तुमने मांगा, तो भी ठीक था, उसके पास भी कहां है? वह किसी और से मांगती होगी। ऐसे भिखमंगे भिखमंगों से मां रहे हैं। किसी की झोली भरती दिखाई नहीं पड़ती।
जिनका प्रेम स्वीकृत हो गया है, जरा उनके पास जाकर उनकी दशा भी तो देखो!...दुर्दशा! और ऐसा नहीं है कि सिर्फ पुरुषों की दुर्दशा होती है, स्त्रियों की उतनी ही दुर्दशा हो रही है। यह स्त्री-पुरुष का सवाल नहीं है। तुम जिसे प्रेम कहते हो वह एक तरह की भ्रामकता है। तुम नकली को असली मानकर चल पड़ते हो। फिर आज नहीं कल, कल नहीं परसों, भ्रम भंग होगा।
एक पागलखाने में ऐसा हुआ, एक राजनेता देखने आया, निरीक्षण के लिए आया। एक कोठरी में सामने ही एक आदमी बंद था और एक पुरानी, फटी-सी तस्वीर हाथ में लिए था, छाती से लगा रहा था, और रो रहा था और छाती पीट रहा था। उसने पूछा, इसे क्या हो गया है? तो सुपरिंटेंडेंट ने कहा कि हाथ में तस्वीर देखते हैं, यह स्त्री के प्रेम में था--इसी स्त्री के प्रेम था। उसने इसका प्रेम स्वीकार नहीं किया। सो यह पागल हो गया।
आगे बढ़े, दूसरी कोठरी में एक आदमी सीखचों से सिर मार रहा था, दीवाल तो ड़ देने की कोशिशें कर रहा था। भयंकर दीवाना था, भयंकर पागल था। खतरनाक था। हाथ-पैर में जंजीरें भी पड़ी थी और उस पर पहरा भी लगा था। उस राजनेता ने पूछा, और इस बेचारे का क्या हुआ? उस सुपरिंटेंडेंट ने कहा, अब आप यह न ही पूछें तो अच्छा है। उस स्त्री ने इससे प्रेम कर लिया और इससे विवाह भी कर लिया।
पहला तड़फ रहा है, क्योंकि उसे स्त्री मिली नहीं और यह दूसरा तड़फ रहा है, क्योंकि इसको वह स्त्री मिली।
यहां मिलने वाले तड़फते हैं, यहां न मिलने वाले तड़फते हैं।
तुम उलझन से बच गये, हालांकि मैं सोचता हूं कि तुम किसी और उलझन में जरूर पड़ गये होओगे। क्योंकि कोई इतनी जल्दी थोड़े ही बचता है। एक जाल से बचे तो किसी दूसरे जाल को तलाश लिया होगा। और शायद इसीलिए भी पहले जाल की याद बार-बार आती है, कि यह दूसरा तो जाल सिद्ध हुआ, मुक्ति पहले में थी।
मुक्ति कहीं भी नहीं है। मुक्ति जाल में होती ही नहीं है। इस जगत के किसी संबंध में मुक्ति नहीं हो सकती। इस जगत का संबंध ही स्वभावतः बंधन में ले जाता है।
और मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि अगर तुम्हारी पत्नी है तो छोड़ कर भाग जाना, या तुम्हारा पति है तो छोड़ कर भाग जाना। इतना ही समझ लेना कि अब आंखें ऊपर उठाने का समय आ गया। तुम भी आंख ऊपर उठाओ, पत्नी को भी आंख ऊपर उठाने दो। अब दोनों बहुत कर चुके एक-दूसरे से प्रेम और सता चुके एक-दूसरे को काफी। अब जरा आंखें ऊपर उठाओ। अब दोनों उससे प्रेम करो। और तुम चकित होओगे, अगर तुम दोनों प्रार्थनापूर्ण हो जाओ, अगर तुम दोनों परमात्मा के प्रेम में पड़ जाओ, तो तुम दोनों के बीच भी प्रेम की एक धारा बहने लगेगी, जो कभी नहीं बही थी। वह परमात्मा के साथ जुड़ने का अनुषांगिक अंग है।
तूने जिस दौलत के बल पर इश्क की यलगार की
आज उस दौलत के जीवन पर बुढ़ापा आ गया
तूने जिस मलबूस से ढांपे इमारत के जुजाम
हादसों का हाथ उस मलबूस को उलटा गया
तूने जिन महलों में देखे हिज्र के रंगीन ख्वाब
वक्त का भूचाल उन महलों के गुंबद ढा गया
जम चुका है खून अब तेरे दिले बेसब्र में
दफ्न होना है तुझे अब, हसरतों की कब्र में
यहां इसके सिवाय कुछ भी नहीं होता। तुम्हारे सब सपनों के महल गिर जाते हैं और तुम्हारी सब आशाएं ही तुम्हारा कफन बनती हैं। और तुमने जो-जो आशाएं संजोई थी, वे ही तुम्हारे डूबने का कारण हो जाती हैं। जो जितने जल्दी जाग जाये उतना शुभ है।
इसलिए मैं कहता हूं, प्रेम स्वीकार नहीं हुआ, अच्छा हुआ। धन्यवाद दो उस स्त्री को। अनुगृहीत होओ उस स्त्री के। और अब परमात्मा की तरह आंखें उठाओ। जरा पृथ्वी से ऊपर तो देखो--चांदत्तारों से भरा आकाश है। जरा देह के पार तो उठो, वहां अमृत का वास है। यहां तो अहंकार और अहंकार का खेल हैं। इतना ही बहुत है कि यहां ज्यादा झंझट न हो। बस ज्यादा से ज्यादा तुम आकांक्षा यही कर सकते हो कि ज्यादा झंझट न हो। जिंदगी सुविधा से गुजर जाये। ऐसे ही लोगों को हम कहते हैं, अच्छे दंपति। कोई सुख तो मिलता नहीं, बस एक-दूसरे को ज्यादा दुख न दें, इतना ही लक्ष्य है। इतना ही काफी है। उनको ही हम अच्छे दंपति कहते हैं--एक-दूसरे के ज्यादा दुख नहीं दे रहे। बस, चल रहा है काम। गाड़ी चले जाती है। ज्यादा उपद्रव नहीं है। किसी तरह समायोजन बिठा लिया है।
मगर पहुंचोगे कहां? यह गाड़ी कब्र में गिरेगी। सुविधा से जी लिए कि असुविधा से, क्या फर्क पड़ता है? और मौत आती है। मौत के पहले अमृत को खोल लेना जरूरी है। अमृत से प्रेम करो।
चौथा प्रश्न--
संसार में असफलता अनिवार्य क्यों है?
संसार का स्वभाव। स्वप्न का स्वभाव। स्वप्न यथार्थ नहीं है। इसलिए स्वप्न में कोई सहलता नहीं हो सकती।
तुम ऐसा प्रश्न पूछ रहे हो, जैसे कोई आदमी कागज पर लिखे हुए भोजन को "भोजन' समझ ले; पाकशास्त्र की किताब से पन्ने फाड़ ले और चबा जाये, और कहे कि पाकशास्त्र में तो सभी तरह के भोजन लिखें हैं, फिर पाकशास्त्र के पन्ने चबाने से तृप्ति क्यों नहीं होती?
कागज पर लिखा हुआ "भोजन' भोजन नहीं है। सपने में मिला हुआ धन धन नहीं है। संसार में जो भी मिलता है, मिलता नहीं, बस मिलता मालूम पड़ता है। क्योंकि तुम सोये हुए हो--तुम्हारे सोये हुए होने का नाम संसार है।
संसार का क्या अर्थ है? ये वृक्ष, ये चांद, ये तारे, ये सूरज, ये लोग--यह संसार है? तो तुम गलत समझ गये। संसार का मतलब है तुम्हारी आकांक्षाओं का जोड़; तुम्हारे सपनों का जोड़। संसार तुम्हारे भीतर है, बाहर नहीं। तुम्हारी निद्रा, तुम्हारी घनीभूत मूर्च्छा का नाम संसार है। मूर्च्छा में तुम जो भी कर रहे हो उससे कोई तृप्ति नहीं होगी। मूर्च्छा में तुम्हें होश ही नहीं कि तुम क्या कर रहे हो। तुम बेहोशी में चले जा रहे हो। तुम्हारी हालत एक शराबी जैसी है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात ज्यादा पीकर घर आया। रास्ते में कई जगह गिरा, बिजली के खंभे से टकरा गया, चेहरे पर कई जगह चोप आ गयी, खरोंच लग गयी। आधी रात घर पहुंचा, सोचा पत्नी सुबह परेशान करेगी, कि तुम ज्यादा पीये। और प्रमाण साफ है, कि चोटें लगी हैं, खरोंचें लगी हैं चेहरे पर, चमड़ी छिल गई है। तो उसने सोचा कि कुछ इंतजाम कर लें। तो वह गया बाथरूम में, बेलाडोना की पट्टी उसने लगाई सब चेहरे पर कि सुबह तक कुछ तो राहत हो जायेगी। और इतना तो मैं सिद्ध कर ही सकूंगा कि अगर पीये होता तो बेलाडोना लगाने की याद रहती? गिर पड़ा था रास्ते पर, पैर फिसल गया छिलके पर। घर आकर मैंने मलहम पट्टी कर ली।
बड़ा प्रसन्न सोया। सुबह पत्नी ने कहा कि यह हालत चेहरे की कैसे हुई? उसने कहा: मैं गिर गया था, एक केले के छिलके पर पैर फिसल गया। और देख ख्याल रखना, मैं कोई ज्यादा वगैरह नहीं पिया था। प्रमाण है साफ कि मैंने सारे चेहरे की मलहम-पट्टी की।
उसने कहा, हां, प्रमाण है, आओ मेरे साथ। आईने पर की थी उसने मलहम पट्टी। चेहरा तो आईने में दिखाई पड़ रहा था। प्रमाण हैं--उसकी पत्नी ने कहा--कि मलहम-पट्टी तुमने जरूर की है, पूरा आईना खराब कर दिया है। अब दिन-भर मुझे सफाई में लगेगा।
बेहोश आदमी जो करेगा, उसका क्या भरोसा! कुछ न कुछ भूल होगी ही।
संसार तुम्हारी बेहोशी का नाम है। और इसलिए अनिवार्य है असफलता।
एक और रात मुल्ला नसरुद्दीन ज्यादा पी कर आ गया। जो-जो ज्यादा पीकर आते हैं, उनको बेचारों को घर आकर कुछ इंतजाम करना पड़ता है। सरकता हुआ किसी तरह कमरे में घुस गया। आवाज न हो, लेकिन फिर भी आवाज हो गई। पत्नी ने पूछा, क्या कर रहे हो? उसने कहा, कुरान पढ़ रहा हूं। अब ऐसी अच्छी बात कोई कर रहा हो, आधी रात में भी करे तो रोक तो नहीं सकते। धार्मिक कृत्य तो रोका ही नहीं जा सका। पत्नी उठी और उसने सोचो कि कुरान और आधी रात, और कभी कुरान इसे पढ़ता देखा नहीं! जाकर देखी, सिर हिला रहा है और सामने सूटकेस खोजे रखे हैं।
"कुरान कहां है?'
उसने कहा, सामने रखी है।
आदमी बेहोशी में जो भी करेगा, गलत होगा।
तुम पूछते हो, संसार में असफलता अनिवार्य क्यों है?
क्योंकि संसार तुम्हारी बेहोशी का नाम है। फिर बेहोशियां कई तरह की हैं। कोई शराब की ही बेहोशी नहीं होती। शराब की बेहोशी तो सबसे कम बेहोशी है। असली बेहोशियां तो बड़ी गहरी हैं। जैसे पद की बेहोशी होती है, पद की शराब होती है--पद-मद। जो आदमी पद बैठ जाता है, उसका देखो उसके पैर फिर जमीन पर नहीं लगते। कोई हो गया प्रधान मंत्री, कोई हो गया राष्ट्रपति, फिर वह जमीन पर नहीं चलता, उसको पंख लग जाते हैं। पद-मद! किसी को धन मिल गया तो धन का मद। ये असली शराबें हैं। शराब तो कुछ भी नहीं इनके मुकाबले। पियोगे, घड़ी-दो घड़ी में उतर जाएगा नशा। ये नशे ऐसे हैं कि टिकते हैं, जिंदगी-भर पीछा करते हैं। चढ़े ही रहते हैं।
बहुत नशे हैं। और जिसे जागना हो उसे प्रत्येक नशे से सावधान होना पड़ता है। जागने के दो ही उपास हैं--या तो ध्यान की तलवार लेकर अपने सारे नशों की जड़ें काट दो; या परमात्मा के प्रेम से अपनी आंखें भर लो। शेष नशे अपने-आप भाग जायेंगे। उसकी मौजूदगी में नहीं टिकते हैं। या तो परमात्मा के बार प्रेम से भर जाओ, आत्मा के ध्यान से भर जाओ। ये दो ही उपाय है। संसार के जाने के ये दो ही द्वार हैं। तुम्हें रुच जाये।
तुम पूछते हो: संसार में असफलता अनिवार्य क्यों है?
संसार का स्वभाव ऐसा।
उम्र गंवाकर हमको इतनी आज हुई पहचान।
चढ़ी नदी और उतर गई, पर घर हो गये वीरान।।
जिंदगी आती है, चली जाती है।
चढ़ी नदी और उतर गई, पर घर हो गये वीरान।
जिंदगी आती है और चली जाती है, तुम वीरान हो जाते हो, तुम खंडहर हो जाते हो। जिंदगी तुम्हें कुछ दे नहीं जाती, तुमसे कुछ ले जाती है। तुम्हारी क्षमता ले जाती है। तुम्हारे अवसर ले जाती है। जिन अवसरों पर परमात्मा से मिलन हो सकता था, वे तुमने दो कौड़ी में बेच डाले। तुमसे तुम्हारी आत्मा ले जाती है।
तह में भी है हाल वही जो तह के ऊपर हाल।
मछली बचकर जाये कहां जब सारा जल ही जाल।।
यहां सारा जल ही जाल है, मछली बचकर जाये कहां? यह खोज ही धर्म है। यहां बचो कैसे? इस तरफ जाओ तो जाल, उस तरफ जाओ तो जाल। पूरब जाओ तो जाल, पश्चिम जाओ तो जाल। धन में जाओ, पद में जाओ, प्रतिष्ठा में जाओ--जाल ही जाल है। नीचे-ऊपर सब तरफ जाल हैं। मगर एक जगह है जहां जाल नहीं है। अपने भीतर जाओ!
ग्यारह दिशाएं हैं; दस दिशाओं में जाल है, ग्यारहवीं दिशा में जाल नहीं है। और जो ग्यारहवीं दिशा में जाता है, उसका ही परमात्मा से मिलन होता है।
परमात्मा ग्यारहवीं दिशा में है।
अगर जीवन को समझोगे तो एक बात तुम्हें दिखाई पड़ने में ज्यादा देर न लगेगी--
आ गया राम शिकस्तों का शुमार आखिरकार।
छुप गये याद के फूलों में उमीदों के मजार।।
सूरज उभरा है कि डूबा है कि गहनाया है।
या फकत अपने लहू से हुई धरती गुलनार।।
इतनी अर्जां तो न थी दर्द की दौलत पहले।
जिस तरफ जाईये जख्मों के लगे हैं बाजार।।
आदमी लाख बढ़े, फासले घटते ही नहीं।
हटता जाता है मगर, छट नहीं जाता है गुबार।।
ऐसी अवस्था है। जहां देखो वहां जख्म ही जख्मों के बाजार लगे हैं। जरा चारों तरफ आंख तो उठकर देखो! संसार एक बड़ा अस्पताल है, जहां हर आदमी बीमार है। कभी मुश्किल से, कभी-कभार कोई स्वस्थ आदमी मिलता है--कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई कबीर। कभी-कभार कोई मिल जाये दादू, कोई रज्जब, कोई सुंदरदास। इस पूरी अस्पताल में सब बीमार हैं। कोई इस तरह बीमार, कोई उस तरह बीमार--बीमारियों के हजार नाम हैं। अलग-अलग तरह की बीमारियां हैं; लोगों ने आरोपित कर ली हैं।
और मजा ऐसा है कि बीमार सिर्फ बीमार नहीं हैं, बीमार पागल भी हैं। क्योंकि बीमारी के पागलपन का सबूत यह है कि वे अपनी बीमारी को बीमारी नहीं मानते। वे अपनी बीमारी को अपना सौभाग्य मान रहे हैं। वे अपनी बीमारी को अपना आभूषण मान रहे हैं। वे अपनी बीमारी का बचाव कर रहे हैं, रक्षा कर रहे हैं।
इधर इन बीस वर्षों में न मालूम हजारों लोगों की बीमारियां देखने का मुझे मौका आया। और हर बार मैं यह अनुभव करता हूं कि आदमी अपनी बीमारियों की रक्षा करता है। अगर उसे उपाय बताया जाये बीमारी से मुक्त होने का, तो नहीं करता। अपनी बीमारी का छिपाता है, बचाता है, बहाने खोजता है, तरकीबें खोजता है, दवा के खिलाफ हर तरह के आयोजन करता है।
इतनी अर्जां आंसुओं से भरी हैं। सब पैर कंप रहे हैं। क्योंकि मौत आ रही है, आ रही है, आ रही है--आ ही गई है! हम सब मौत के बीच खड़े हैं। हमारी नाव डूबने को ही है! एक बात सुनिश्चित है कि यह नाव डूबेगी जिसमें हम बैठे हैं; और कुछ सुनिश्चित नहीं है। जन्म के बाद मौत के अतिरिक्त और कोई चीज सुनिश्चित नहीं है। और सब अनिश्चित है, मगर मौत निश्चित है।
इस मौत से भरी दुनिया में जख्म न होंगे तो और क्या होगा?
आदमी लाश बढ़े, फासले घटते ही नहीं।
हटता जाता है मगर छट नहीं पाता है गुबार।
और यहां कभी कुछ परिवर्तन नहीं होता। जैसे तुम क्षितिज को छूने चलो, दिखता है यह रहा, यह रहा, पास ही तो है। थोड़े कदम और, जरा और दौड़ लें--और पहुंच जायेंगे। लेकिन क्षितिज पर तुम कभी पहुंच नहीं पाते, क्योंकि क्षितिज है नहीं, सिर्फ भ्रांति है। दिखाई पड़ता है, है नहीं। तुम जितने बढ़ते हो, क्षितिज तुमसे दूर हटता जाता है। तुम्हारे और क्षितिज के बीच फासला बराबर वही रहता है।
आदमी लाख बढ़े, फासले घटते ही नहीं! यह संसार है। तुम बढ़ते रहते हो, फासला उतना ही उतना बना रहता है। तुम्हारे पास दस हजार रुपये थे, बीस हजार की आकांक्षा थी! अब बीस हजार हैं, अब चालीस हजार की आकांक्षा है--फासला उतना का उतना है। कल चालीस हजार भी हो जायेंगे, और अस्सी हजार की आकांक्षा ले आयेंगे। बस फासला उतना का ही उतना। दुगना। तुम दुगना चाहते हो तो दुगना ही चाहते रहोगे। तुम दुगना चाहते पैदा हुए, तुम दुगना चाहते मर जाओगे।
और इस दुगने की दौड़ में तुमने क्या गंवाया, तुम्हें पता भी नहीं। तुमने परमात्मा गंवाया। इस दुगने की दौड़ में तुमने क्या खोया, उसका तुम्हें हिसाब भी नहीं, क्योंकि तुम्हें यही पता नहीं है क्या मिल सकता था, यह जीवन कैसा अपूर्व अवसर था! राम मिलेगा तब तुम जानोगे। जिनका मिल गया है उन्हें तुम पर करुणा आती है। वे तुम्हारे लिए रोते हैं, क्योंकि उनको लगता है कि तुम्हें भी मिल सकता है। तुम भी मालिक हो पाने के। मगर तुम सुनते ही नहीं। संत पुकारे जाते हैं, तुम सुनते कहां? वे तुम्हें झकझोरे जाते हैं; सुनने की तो बात दूर, तुम उलटे नाराज हो जाते हो। तुम उनके विरोध में हो जाते हो। तुम कहते हो, हमें शांति से सोने नहीं देते। तुम कहते हो कि हमारा पीछा छोड़ो, हमें जिंदगी जी लेने दो हमारे मन से।
तुम गङ्ढे में गिर रहे हो। जिसे गङ्ढा दिखाई पड़ता है वह अगर न पुकारे तो क्या करे? वह पुकारता है गङ्ढा है; तुम कहते हो, चुप रहो, क्योंकि मुझे सोने की खदान दिखाई पड़ रही है।
वह कहता है, मैं जा चुका हूं, देख चुका हूं, सोने की वहां कोई खदान नहीं है दूर से चमकता है सब। दूर के ढोल सुहावने! तुम व्यर्थ दौड़ो मत।
मगर तुम कहते हो कि आप चुप रहो। आप मेरी आशाओं पर पानी मत फेरो। अगर मैं तुमसे कहूं--जैसे अभी इसके पहले प्रश्न के उत्तर में मैंने कहा, अच्छा हुआ कि तुम्हारा प्रेम स्वीकार नहीं हुआ--तुम सोचते हो जिससे मैंने कहा वह प्रसन्न होगा? वह मुझ पर नाराज होगा। वह कहेगा कि हम आये थे औषधि लेने, हम आये थे कोई तरकीब मांगने, हम आये थे आशीर्वाद लेने कि आपका आशीर्वाद हो तो घट जाये बात।
एक और सज्जन ने भी ऐसा ही प्रश्न लिखा है कि मेरी पत्नी भी है, मगर मैं एक दूसरी लड़की के "सच्चे प्रेम में पड़ गया हूं! आप ऐसा आशीर्वाद दें कि मेरा "सच्चा प्रेम', मेरा हृदय से आया हुआ प्रेम, उसके हृदय में भी मेरे प्रति प्रेम पैदा कर दे!
अब इन सज्जन को मैं क्या कहूं? कौन-सा आशीर्वाद दूं?
सच्चा प्रेम!--और एक लड़की से हो गया है! तो फिर सुंदरदास को जो हुआ था, वह झूठा प्रेम था? फिर रज्जब को जो हुआ, वह झूठा प्रेम था? फिर मीरा को जो हुआ, वह झूठा प्रेम था?
और इतना ही नहीं कि उन्हें सच्चा प्रेम हो गया है; अब उनके सच्चे प्रेम के बल पर उस स्त्री को भी सच्चा प्रेम इनके प्रति होना चाहिए!
सत्याग्रह करो! जाकर उसके घर के सामने बिस्तर लगाकर लेट जाओ। और गांव में तो लफंगे तो बहुत हैं ही, वे आ जाएंगे। अखबारों में खबर भी छप जाएगी। ऐसी ही अखबारों में तो खबरें छपती ही हैं। सत्याग्रह कर दो सच्चे प्रेम के लिए, कि जब तक इस स्त्री का प्रेम मुझसे नहीं होगा, भोजन ग्रहण नहीं करेंगे; जब तक यह स्त्री मुसंबी का रस लेकर खुद ही नहीं आयेगी।...तो तुम्हारा नाम भी जग-जाहिर हो जायेगा, बड़े नेताओं में भी गिनती हो जायेगी, और मौका लगा तो कभी कोई प्रधानमंत्री भी हो सकते हो। ऐसे ही तो लोग प्रधानमंत्री हो जाते हैं। सत्याग्रह करो, चुको मत।
ऐसा हुआ एक गांव में। हो चुका है, इसलिए कह रहा हूं। एक सज्जन को ऐसा ही सच्चा प्रेम हो गया था जैसा तुम्हें हुआ है। ऐसे दुर्भाग्य कई का घटते हैं। ऐसी मुसीबतें सभी को आती हैं। पहुंच गया किसी राजनैतिक नेता से सलाह लेने कि अब क्या करूं, अब आप ही बताओ, कि आप तो हर चीज का उपाय निकाल लेते हो। और राजनेता क्या जाने, उसने कहा, सत्याग्रह के सिवाय और कोई उपाय नहीं! और अगर प्रेम सच्चा है तो सत्याग्रह करना ही चाहिये। तुम बिस्तर लगा दो उसके सामने, डटकर बैठ जाओ और दस-पांच लोगों को इकट्ठा कर लो जो शोरगुल पीटें और गांव में खबर करें कि सत्याग्रह हो रहा है। और जब तक वह स्त्री विवाह के लिए राजी नहीं होगी, सत्याग्रह जारी रखो। बदनामी से घबड़ायेगा बाप, मां, और यह भी डर लगेगा कि अब यह सारे गांव में खबर हो गई, अब दूसरे किसी और से विवाह करना भी मुश्किल हो जायेगा। मुसीबत खड़ी कर दो। और बिलकुल पड़ रहना आंखें बंद करके कि मर ही जाओगे।
उस आदमी ने यही किया। बाप घबड़ाया, भीड़-भाड़ इकट्ठी होनी लगी, और लोग नारे लगाने लगे सच्चे प्रेम की जीत होनी चाहिए!...जो सच्चा प्रेम हो तो जीत होनी ही चाहिये। बेचारे बाप की कौन सुने! उस स्त्री की कौन सुने! यह प्रेमी बिलकुल मर रहा है। जब भी कोई आदमी मरने लगे तो फिर लोग इसकी फिकर नहीं करते कि क्या है सही, क्या है गलत--मरनेवाले की सुनते हैं। यही तो सत्याग्रह की कुंजी है। मरनेवाले एकदम ठीक हो जाता है। जब दांव पर लगा रहा है अपनी पूरी जिंदगी, तो इसकी बात ठीक होगी ही। देखो तो बेचारा! मजनू और फरिहाद ने भी जो नहीं किया, यह आधुनिक मजनू कर रहा है। मजनू, फरिहाद को सत्याग्रह का पता नहीं था। गांधी बाबा तब तक हुए नहीं थे।
बाप बहुत घबड़ाया। उसने कहा, अब करना क्या है? अपने मित्रों से पूछा, अब मैं करूं क्या? अखबारों में खबर छपने लगी, दबाव पड़ने लगा, फोन आने लगे और घर के चारों तरफ लोग घेरा डालने लगे, कि यह तो अब सत्याग्रह तो पूरा करना ही पड़ेगा, आदमी की जान का सवाल है। उसने पूछा कि इसको सलाह किसने दी है? पता चला, फलां राजनेता ने, तो उसने...उसके विरोधी के पास जाकर सलाह ले लेनी चाहिए कि अब क्या करना? क्योंकि राजनेताओं को पता होता है एक-दूसरे की तरकीबें। उसके विरोधी ने कहा, कुछ फिकर मत कर। एक वेश्या को मैं जानता हूं। बस मरने के करीब ही है वह। मर भी गई तो कुछ हर्जा नहीं। और वेश्या है, सड़ चुकी है। उसको ले आ, दस-पांच रुपये का खर्चा है। उसका भी बिस्तर लगवा दे। और यह आदमी पूछे कि भई, माई, तू यहां बिस्तर क्यों लगा रही है, तो उससे कहना कि मुझे तुझसे सच्चा प्रेम हो गया है। तू भी सत्याग्रह करवा दे, अब इसे सिवा कोई उपाय नहीं है। यह आदमी भाग जायेगा रात में ही, क्योंकि अगर दो सत्याग्रह हो जायें तो बड़ा मुश्किल हो जाता है।
यही हुआ। जब माई ने आकर बिस्तर लगा दिया, उस आदमी ने पूछा कि माई तू यह क्या कर रही है? उसने कहा कि मुझे तुझसे प्रेम हो गया है। तेरे सत्याग्रह की खबर मैंने क्या सुनी, सच्चा प्रेम मेरे हृदय जग गया।
उसने कहा, तेरे में तो मैं प्रेम जगाना भी नहीं चाहता था। यह तो तीर कुछ गलत जगह लग गया।
पर उस स्त्री ने कहा कि जब तक तुम मुसंबी का रस न पिलाओगे, तब तक मैं अब हटनेवाली नहीं, चाहे मर ही न जाऊं। वह तो मरने के करीब थी। रात को बोरिया-बिस्तर बांध कर वह युवक भाग गया। उस गांव से ही भाग गया, क्योंकि अब वह सारा पासा पलट गया।
तुम पूछ रहे हो कि तुम्हारा सच्चा प्रेम किसी स्त्री से हो गया है।...सत्याग्रह करो भाई! तुम्हें मेरी बात अच्छी नहीं लगेगी। तुम अपनी बीमारियों से छूटना ही नहीं चाहते। तुम तो अपनी बीमारियों को अच्छे-अच्छे नाम देते हो।
तुम्हारा प्रेम कितना प्रेम है? तुम्हारे प्रेम की गहराई क्या, सच्चाई क्या? आज है, कल हवा हो जाता है। कपूर की तरह उड़ जाता है। क्षणभंगुर है। पानी का बबूला है। बड़े-बड़े प्रेम यहां मिट्टी में पड़े सड़ गये हैं। सच्चा ही प्रेम अगर हो तो प्रार्थना बनता है। और कोई दूसरा उपाय नहीं।
ऐसे प्रेम में तो असफलता होगी, ऐसे मोह में असफलता होगी। मगर मन मानता नहीं--मन कहता है, औरों को हुई होगी; मुझे भी हो, यह जरूरी क्या? मन सदा एक तरकीब का उपयोग करता है--मन तुमसे कहता है कि तुम अपवाद हो, तुम विशिष्ट हो।
एक आदमी सत्ता में पहुंच जाता है। सत्ता के पहले जो दूसरे लोग सत्ता में थे, वह चिल्लाता था कि सत्ता ने इन्हें भ्रष्ट कर दिया। लेकिन वह स्वयं के बाबत यह सोचता है कि सत्ता मुझे भ्रष्ट नहीं कर पायेगी। सत्ता सभी को भ्रष्ट करती है। सच तो यह है, जो भ्रष्ट होना चाहते हैं वही सत्ता में उत्सुक होते हैं। जो भ्रष्ट नहीं होना चाहता वह सत्ता में उत्सुक क्यों होगा? भ्रष्ट होने की आतुरता, भ्रष्ट होने की सुविधा ही सत्ता की तलाश है।
हर आदमी सोचता है कि दूसरों से चूक हो रही है; दूसरे गलती पर हैं, मैं गलती पर नहीं हूं। और सबसे बड़ी गलती यही है। सबसे बड़ी गलती है कि मैं अपवाद हूं। यहां कोई भी अपवाद नहीं है। यहां सब प्रेम झूठे हैं, सब मोह झूठे हैं। यहां सब नाते-रिश्ते झूठे हैं। निरपवाद मैं कह रहा हूं--सब। इसमें तुम यह मत सोच लेना कि मैं औरों से कह रहा हूं, तुमसे कह रहा हूं; तुम्हारी तो बात ही और है। किसी की बात और नहीं है। इस संसार में हम जो भी बनाते हैं, सब झूठा है। हमारा बनाया हुआ सब झूठा है। परमात्मा का बनाया हुआ सब सच है। उसका बनाया सच, हमारा बनाया झूठा। उससे ही जुड़ जाओ तो संसार विदा हो जाता है। उससे ही जुड़ जाओ तो असफलता समाप्त हो जाती है। फिर सफलता ही सफलता है। उसके साथ कभी कोई हार नहीं। अकेले-अकेले बस हार ही हार है।
निस दिन दीप जलाए पगली पाये घोर अंधेरा
कौन कहे अब इसे हठीली, अंत यही है तेरा
रैन की गोदी खाली करके चांद-सितारे भागे,
अंधियारे में पीछे-पीछे ज्योति आगे-आगे
होते होते नैनवा से ओझल हुआ सवेरा
छाया घोर अंधेरा
अंत यही है तेरा
दूर-दूर तक एक उदासी, सड़ी-बुसी इक छाया
धरती से आकाश तक उड़कर आशा ने क्या पाया
चारों खूंट चली अंधियारी, चिंताओं ने घेरा
छाया घोर अंधेरा
अंत यही है तेरा
कौन चुने अब टूटे तारे, जोत कहां से आये?
कौन गगन पर सेज बिछाये? फूल तो हैं मुर्झाए
कौन है इस नगरी में अब आकर करे बसेरा?
निस दिन दीप जलाए पगली पाये घोर अंधेरा
कौन कहे अब इसे हठीली, अंत यही है तेरा
यहां तो सब दीये बुझेंगे। यहां तो सब फूल कुम्हलायेंगे। तुम लाख करो उपाय, अन्यथा नहीं हो सकता। जहां तुम्हें ही मिट जाना है और मर जाना है, वहां तुम्हारे प्रेम का क्या ठिकाना है? जब तुम ही न बचोगे तो तुम्हारे कृत्य क्या बचेंगे? जब तुम ही यहां क्षणभर को हो, तो तुम्हारे संबंध कैसे शाश्वत हो सकते हैं?
थोड़ा सोचो तो, सीधा-सीधा गणित है। दो क्षणभंगुर लहरों का संबंध शाश्वत कैसे हो सकता है? दोनों ही गिर जाने को, मिट जाने को। जोड़ना ही तो नाता तो उससे जोड़ लो जो कभी नहीं मिटता है। सागर से जोड़ो नाता। और मजा ऐसा है कि जो सागर से नाता जोड़ता है, उसका सब लहरों से नाता अपने-आप जुड़ जाता है। और जो लहरों से नाता जोड़ना चाहता है, लहर से ही नहीं जुड़ पाता, सागर से तो कैसे जुड़ेगा?
इस रहस्य को समझो। इस रहस्य की समझ जीवन में बड़ी क्रांति ले आती है।
अंतिम प्रश्न--
मैं महापापी हूं, मुझे उबारें!
पाप में भी अहंकार महापापी! छोटे-मोटे से काम न चलेगा?
आदमी का अहंकार ऐसा है कि अगर पाप की भी बात करे तो भी अपने को महापापी मानना चाहता है। अगर कोई दूसरा तुम्हें मिल जाये और कहे मैं तुमसे भी बड़ा पापी हूं, तो झगड़ा हो जायेगा--कि तू है किस खेत की मूली? तूने अपने का समझा क्या है? मुझसे और बड़ा पापी कोई भी नहीं है।
आदमी को बड़ा होना ही चाहिए, जहां भी हो। धन हो तो सबसे बड़ा धनी होना चाहिए। पद हो तो सबसे बड़ा पद होना चाहिए। और अगर पाप हो तो भी चलेगा। लेकिन एक बात तो होनी ही चाहिए--महापापी!
क्या पाप किया है तुमने? किसी की जेब काट ली होगी? कहीं डाका डाल दिया होगा। किसी कि हत्या कर दी होगी।...महापाप! क्या महापाप किया होगा? सब छोटे-छोटे कृत्य है। सब क्षुद्र हैं।
एक बात स्मरण करो, अहंकार हर चीज के पीछे खड़ा होकर अपना पोषण कर लेता है। त्याग के पीछे खड़ा हो जाता है और कहता है--मैं महात्यागी! पुण्य के पीछे खड़ा हो जाता है, कहता है--मैं महापुण्यात्मा! और ज्ञान के पीछे खड़ा हो जाता है और कहता है कि मैं महाज्ञानी! जरा देखो, अब वह पाप के पीछे खड़ा हो गया है! वह कहता है--मैं महापापी!
एक बात अहंकार चाहता है कि मैं अद्वितीय, मैं विशिष्ट, मैं खास!
इस जड़ को काटो! यही सारे पापों की जड़ है।
तो पहली तो बात मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि यह "महा' शब्द छोड़ो। इसके गिरते ही बड़ा फर्क होगा। यह "महा' का भवन गिर जाये, खंडहर रह जाये, तो निन्यानबे प्रतिशत क्रांति तो हो ही गई। क्योंकि आदमी पाप भी करता है तो इसी अहंकार के कारण करता है।
बुद्ध के समय में अंगुलीमाल हुआ। वह दुनिया का सबसे बड़ा हत्यारा अपने को सिद्ध करना चाहता था। उसने तय कर रखा था कि एक हजार लोगों को काटकर उनको अंगुलियों की माला पहनूंगा। इसलिये उसका नाम "अंगुलीमाल' पड़ गया। उसकी असली नाम भूल ही गया है। सबसे बड़ा पापी होना चाहता था।
मैंने सुना है, नादिरशाह जब अपनी विजय-यात्राओं से वापिस लौट रहा था तो एक गांव में एक रात उत्सव मनाया गया। उसका जन्म दिन था। और पास के चार-छह गांव फासले दूर से कुछ सुंदर वेश्याएं नृत्य करने आईं। जब आधी रात वे वेश्याएं वापिस लौटने लगी, तो वे थोड़ी डरी थी। रास्ता अंधेरा था, रात अंधेरी थी अमावस की रात थी। तो नादिरशाह ने कहा, तुम भयभीत क्यों हो रही हो? घबड़ाओ मत! अपने सैनिकों को कहा कि इनके रास्ते में जितने गांव पड़ते हैं, सब में आग लगा दो, ताकि रोशनी हो जाये।
सैनिक भी थोड़े सहमे कि यह कोई बात हुई? न मालूम कितने बच्चे मर जायेंगे, औरतें मर जायेंगी, लोग मर जायेंगे, खेत जल जायेंगे! लेकिन नादिरशाह ने कहा, रुकने की जरूरत नहीं। यह याद रहे आनेवाले लोगों का कि नादिरशाह के दरबार में नाची हुई वेश्याएं भी जब लौटती थी, तो अंधेरी रात में भी उनके रास्ते रोशन कर दिये जाते थे! आखिर आग लगवा देनी पड़ी। कोई दह गांव में आग लगवा दी गई। सारे खेत जला दिये गये।
यह...आदमी के भीतर यह रस--यह गंदा रस--कैसे पैदा होता है? नादिरशाह यह कहना चाहता है कि मुझसे बड़ा हत्यारा कभी कोई नहीं हुआ। मैं महापापी हूं!
पापी सही, मगर "पापी' से मन नहीं भरता, "महान' से मन भरता है।
"महा' से बचो। सामान्य होना पर्याप्त है। और सामान्य जो होने को राजी है, उसको ही मैं धार्मिक कहता हूं।
दूसरी बात, तुम्हारे धर्मों ने तुम्हें सिखाया है कि हर चीज पाप है--स्वाद पाप, प्रेम पाप, हर चीज पाप है। हर चीज निंदित कर दी गई है। इसलिए तुम जी नहीं पा रहे हो, सिकुड़ गये हो। मैं तुमसे कहता हूं, यहां सब खेल है, पाप इत्यादि कुछ भी नहीं है। न कुछ पाप है न पुण्य। खेल खेल की बात है। पुण्य जरा अच्छा खेल है। उसमें दूसरों को कम तकलीफ होती है। पाप जरा बुरा खेल है; इसमें दूसरों को तकलीफ होती है। खेल ही खेलना हो तो पुण्य का खेल खेलना; मगर ध्यान रखना: है खेल ही। यहां के पाप भी झूठे, यहां के पुण्य भी झूठे।
ऐसे ही समझो कि एक रात तुमने सपना देखा कि तुम हत्यारे हो गये और तुमने न मालूम कितने लोग मार डाले। और सुबह जागकर पाया कि अरे, सब सपना था--न कोई मरा, न कोई मारा गया। या तुमने एक रात सपना देखा कि तुम बुद्ध हो गये--भिक्षापात्र लिए, राजमहल छोड़ दिया स्वर्ण-जैसा! सुंदर पत्नी छोड़ दी, बच्चा छोड़ दिया, ध्यान लगाए रहे, बोधिवृक्ष के तले बैठे ध्यान लगाए। सुबह हुई, नींद खुली पता चला--न तो महल था, कोई न पत्नी थी, न तुम बुद्ध हुए, न बोधिवृक्ष था, न कोई ध्यान लगाया। क्या इन दोनों सपनों में तुम कोई फर्क करते हो? सपने तो दोनों सपने हैं। जागे हुए आदमी के दृष्टिकोण से तो कोई भी फर्क नहीं है, लेकिन सोये हुए आदमी के दृष्टिकोण से फर्क है।
तो मैं तुमसे कहता हूं, सपना देखना हो तो पुण्य का सपना देख लेना। मगर फर्क सपने ही सपने का है, कोई बहुत बड़ा बुनियादी फर्क नहीं है। सपना ही देख रहे हो तो अच्छा सपना देखो। हत्या का सपना देखोगे तो परेशान खुद भी रहोगे। किसी की हत्या करोगे, तो कुछ आसानी से तो नहीं हो जाती हत्या किसी की। सपने में भी करोगे तो घबड़ाहट लगेगी, दुश्मन पीछा करेंगे, अपनी छाती बचाकर रखनी पड़ेगी। हमेशा भय पकड़ा रहेगा। दुख-स्वप्न है। सपना ही देख रहे हो तो अच्छा सपना देखो।
बस इतना ही फर्क है मेरी दृष्टि में पाप और पुण्य में--अच्छे और बुरे सपने का। और मैं कह रहा हूं, अच्छा ही सपना देखना है अगर देखना ही है, सपना ही देखना। लेकिन असली बात तो यह है कि सपने से जागना है, दोनों सपनों से जागना है--पापी पाप से जागे, पुण्यात्मा पुण्य से जागे। पापी पाप से बाहर आये, पुण्यात्मा पुण्य से बाहर आये। तभी धर्म की शुरुआत होती है।
तुम्हारे पाप का जो द्रष्टा है, तुम्हारे पुण्य का जो द्रष्टा है--तुम्हारे भीतर छिपा है, उसकी खोज लो। सपने में बहुत मत उलझो। सपने के ब्योरे में मत जाओ कि मैंने क्या किया, क्या नहीं किया, अच्छा था कि बुरा था, ऐसा करना था, वैसा करना था। इस ब्योरे में उलझ गये तो पार न पाओगे।
हर स्थिति में ऊंची से ऊंची स्थिति में--एक का ही वास है।
मत में चंदन-बास का झोंका, तोड़ में कुंदन रूप।
नीचे सुर में छांव भरी है, ऊंचे सुर में धूप।।
उसी का खेल है। उसी की धूप, उसी की छांव।
नीचे सुर में छांव भरी है, ऊंचे सुर में धूप।
सब उसका है, और तुम्हें छांव से भी मुक्त होना है, धूप से भी मुक्त होना है। तुम्हें जानना है कि मैं द्रष्टा हूं, मैं साक्षी हूं--मैंने धूप देखी, मैंने छांव देखी। मैं दोनों से अलग, पृथक हूं।
और फिर तुम्हारा कसूर क्या? तुम्हें परमात्मा ने जैसा बनाया वैसे तुम हो। जैसे सपने देखने को दिये, वैसे सपने तुमने देखे। यह सारा कृत्य उसका है, तुम इसमें कर्ता न बनो। यह सारा का सारा उस पर छोड़ दो। यह भक्ति का मार्ग है।
होशियारी मत करना कि बुरा-बुरा उस पर छोड़ दो और अच्छा-अच्छा अपना बचा ला। अक्सर लोग यही कर देते हैं। अगर सफल हो गये तो वे कहते हैं, मैं सफल हुआ। और हार गये तो वे कहते हैं, किस्मत। अगर हार गये तो--क्या करें, विधि का लेखा! अगर हार गये तो भगवान ने साथ नहीं दिया। अगर जीत गये तो भगवान की याद ही नहीं आती। तब तुम जीतते हो। भक्त दोनों ही उस पर छोड़ देता है। अच्छा-बुरा, सब तेरा। ऐसे निश्चिंत हो जाता है।
यही तो कृष्ण ने अर्जुन को गीता में कहा, सब उस पर छोड़ दे। सब मुझ पर छोड़--माम एकम शरणम ब्रज! अच्छे-बुरे की तू फिकर मत कर। जो परमात्मा कराये, कर। जो परमात्मा दिखाए, देख। तू निमित्त मात्र हो।
ये वचन सुनो--
ये कायनात अगर तेरे बस का रोग नहीं
तो कायनात बनायी थी किसलिए तूने
इसे बसा के अगर यूं उजाड़ देना था
तो अंजूमन ये सजाई थी किसलिए तूने
ये आदमी के गुनाह की सजा सही लेकिन
इसे गुनाह का एहसास क्यों दिया तूने
बनाके बरतरो--आला तमाम चीजों से
बशर को माइले पैकार क्यों किया तूने
खता मुआफ बशर का कोई कुसूर नहीं
तेरे इताब ने नाहक बशर को घेरा है
सबूते-जुर्म नहीं है तो फिर सजा कैसी
गुनाह तूने किया है,कुसूर तेरा है
यह पद सुंदर, यह वचन ठीक--गुनाह तूने किया है, कसूर तेरा है। मगर दूसरी बात भी याद रखना; जिंदगी में जब कुछ शुभ हो, सुंदर हो, आनंद की वर्षा हो, तब भी याद रखना कि करुणा उसने की है। पाप भी उसके, पुण्य भी उसके, अच्छा उसका, बुरा उसका--सब उसका। ऐसी भावदशा का नाम भक्ति। और उस भक्ति से बड़ी क्रांति घटित होती है। भक्ति का कीमिया तुम्हें नहला जायेगा, धुला जायेगा, नया कर जायेगा।
तो मत अपने को महापापी समझो, और न अपने को महापुण्यात्मा समझना। न महापापी, न महात्मा--सिर्फ द्रष्टा, सिर्फ साक्षी, केवल चैतन्य--शांत, सामान्य चैतन्य। कर्ता वही। सब बोझ उसके कंधों पर दे दो। निर्भार हो जाओ। और फिर देखो, जिंदगी कितनी प्यारी है! और फिर देखो, जिंदगी कैसा उत्सव है!
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें