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शुक्रवार, 16 मार्च 2018

बिरहिनी मंदिर दियना बार—प्रवचन-02



जागो सखि, बसंत आ गया—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 12 जनवरी,1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना
प्रश्‍नसार :
1—उस परम प्रभु परमात्मा का सत्य नाम क्या है?

2—भगवान, सिक्ख-निरंकारी संघर्ष के संबंध में आपका क्या मत है? क्या यह खतरा नहीं है कि जो लोग आपके दर्शन या विचार के साथ असहमत ही नहीं उसे सहने को भी तैयार नहीं हैं, वे आपके साथ भी ऐसी ही स्थिति पैदा करें?

3—भगवान, अगर मैं अपनी खुद की बात कहूं तो ध्यान के गहरे अनुभव जब मैंने कृष्णमूर्ति या आपका नाम तक न सुना था तब हुए। यह स्वानुभव किसी भी विधि का अभ्यास किए बिना ही हुआ। इसलिए कृष्णमूर्ति जब यह कह रहे हैं कि किसी विधि का अभ्यास मत करो; वह सहज ही घटित होता है तब यह बात मुझे स्वाभाविक मालूम होती है। आखिर कृष्णमूर्ति का जोर सतत जागरूकता और केंद्ररहित हो जीवन से सीखना--इस पर तो है ही, जिसके फलस्वरूप ध्यान घट सकता है। अगर मैं भूलता नहीं हूं, तो आप कृष्णमूर्ति के इस विधान से सहमत नहीं हैं। इसमें मुझे तो काफी अचरज भी होता है। आपका दृष्टिकोण समझने की उम्मीद रखता हूं।

4—भगवान! संन्यास लूं या नहीं, डर लगता है संसार का। झेल पाऊंगा लोगों का विरोध या नहीं?


पहला प्रश्न:

उस परम प्रभु परमात्मा का सत्य नाम क्या है?

नाम तो सभी असत्य हैं। परमात्मा अनाम है। इसलिए जो भी नाम दिए गए हैं, दिए जाएंगे, सब कल्पित हैं। उनका उपयोग है जरूर, लेकिन उनकी प्रामाणिकता कोई भी नहीं है। जैसे और नाम कल्पित हैं, ऐसे ही परमात्मा के नाम भी कल्पित हैं।
एक बच्चा पैदा होता है, अनाम, हम देते हैं; उसे नाम। बिना नाम जीवन कठिन होगा। कैसे तो कोई उसे पुकारेगा, कैसे कोई पत्र लिखेगा? जीवन अड़चन होगी। एक कृत्रिम नाम जीवन में सहयोगी हो जाता है; उसकी उपयोगिता है।
एक वृक्ष को हम कहते हैं पीपल, एक को कहते हैं नीम, एक को कहते हैं आम; नाम तो किसी के भी नहीं हैं। आम को तो पता भी नहीं होगा कि मेरा नाम आम है। पर उपयोगिता है; भेद करने में सुविधा हो जाती है। जहां-जहां भेद करना है वहां वहां नाम की उपयोगिता है। लेकिन परमात्मा तो सारी सत्ता का प्रतीक है, अभेद का प्रतीक है, एक का प्रतीक है। जहां अनेक हैं, वहां तो नाम की उपादेयता भी है। लेकिन जहां अनेकता नहीं है, वहां तो बहुत उपादेयता भी नहीं है।
लेकिन फिर भी, उसकी खबर देनी हो, जिनको मिल गया हो, जिन्होंने जाना हो, उन्हें दूसरों को जगाना हो तो थोड़ी-सी उपयोगिता है; फिर राम कहो, ओंकार कहो, अल्लाह कहो, पर ध्यान रखना, उसका कोई भी नाम नहीं है। उसका कोई नाम हो भी नहीं सकता, अनाम को भूल मत जाना। नाम के पीछे अनाम छिपा है, यह स्मरण बना रहे तो नाम का कोई खतरा नहीं है। लेकिन ऐसी भ्रांति न हो जाए कि नाम ही सच हो जाए और अनाम का विस्मरण हो जाए। तो बड़ी चूक हो गई। तो फिर जपते रहना तुम राम-राम फिर करते रहना अल्लाह-अल्लाह। यारी ने कहा न जबान थक गई चिल्लाते-चिल्लाते, कुछ मिला नहीं, कुछ हाथ न लगा। हाथ लगे भी कैसे!
पानी-पानी कहने से प्यास नहीं बुझती, जब तक कि पानी चखो न। चखने की फिक्र करो, नाम की फिक्र छोड़ो। स्वाद की चिंता लो और स्वाद मिल गया तो सब मिल गया।
एक अर्थ में उसका कोई भी नाम नहीं; दूसरे अर्थ में, वृक्षों से गुजरती हवाएं उसी के नाम का उदघोष करती हैं। सागर की उत्ताल तरंगें उसी के नाम का जप करती हैं। पहाड़ों से उतरते झरने उसको ही तो गुनगुनाते हैं। तुम्हारे हृदय की धड़कन, कि तुम्हारे श्वासों की आवाज, किसकी याद कर रही है? तुम्हें पता भी न हो, तो भी उसी की याद चल रही है। अनेक-अनेक रूपों में उसी का स्मरण हो रहा है। कोई उसे आनंद की तरह स्मरण कर रहा है, कोई उसे प्रेम की तरह स्मरण कर रहा है, कोई उसे सौंदर्य की तरह स्मरण कर रहा है। किसी ने उसकी भनक संगीत में सुनी है, वीणा के तारों में सुनी है।
तुम यहां मेरे पास बैठे, उसी की याद के गीत तो सुन रहे हो, उसी की तो खोज चल रही है! उसकी खोज यानी अपनी खोज--अपने स्वभाव की खोज।
...यही तो गा रहे हैं पेड़
यही सरिता की लहर में कांपता है
यही धारा के प्रपातित बिंदुओं का हास है।
...इसी से
मर्मरित होंगी लताएं
सिहर कर झर जाएंगी कलियां अदेखी
मेघ घन होंगे
बलाकाएं उड़ेंगी झाड़ियों में चिहुंक कर पंछी
उभारे लोम
सहसा बिखर कर उड़ जाएंगे
ओस चमकेगी विकीरित रंग का उल्लास ले
पहली किरण में!
...फैली धुंध में बांधे हुए हैं अखिल संसृति
नियम में शिव के
यही तो नाम...
यही तो नाम--
जिसे उच्चारते ये ओंठ आतुर
झिझक जाते हैं
...पास आओ:
जागरित दो मानसों के संस्फुरण में
नाम वह संगीत बन कर मुखर होता है।
कहां हैं दोनों तुम्हारे हाथ
सम्पुटिता कर के मुझे दे दो:
कोकनद का कोष वह
गुंजरित होगा
नाम से--
उस नाम से...
जहां प्रेम है वहां प्रार्थना है। और जहां प्रार्थना है वहां परमात्मा है। किसी की आंख में प्रीति से झांको, उसी का नाम उभर आएगा। किसी का हाथ प्रेम से हाथ में ले लो, उसी का नाम उभर आएगा। ऐसे तो उसका कोई भी नाम नहीं और ऐसे सभी नाम उसके हैं। क्योंकि वही है, अकेला वही है, उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। हम सब उसी की लहरें हैं, उसी के वृक्ष के पत्ते-फूल...हम सब उसी के अंग...न हम उसके बिना हैं न वह हमारे बिना है। हम भी नहीं हो सकते उसके बिना, अंग भी नहीं हो सकता उसके बिना। अंशी के बिना अंश कैसे हो सके!
और ध्यान रखना, दूसरी बात भी भूल मत जाना: अंश के बिना अंशी भी नहीं हो सकता। न तो भक्त के बिना भगवान है, न भगवान के बिना भक्त है। भक्त और भगवान के बीच जो घटता है, वही उसका नाम है। क्या घटता है? कहना कठिन। कभी कहा नहीं गया है, कभी कहा भी न जा सकेगा।...चुपचाप घटता है, मौन सन्नाटे में घटता है, अपूर्व शून्य में घटता है। और जब घट जाता है, तो जीवन में आ गया वसंत! खिल जाते हैं सारे फूल, जन्मों-जन्मों जो नहीं खिले थे। गीत झरने लगते हैं जीवन से, जो तुमने कभी कल्पना भी नहीं किए थे, जिनके तुम सपने भी नहीं देख सकते थे! तुम्हारा रोआं-रोआं किसी उल्लास से, किसी उत्सव से भर जाता है--अपरिचित, अनजाना उत्सव। लेकिन तलाश उसी की थी, खोज उसी की थी, टटोलते उसी को थे--अंधेरे, लंबी अंधेरी रातों में, जन्मों-जन्मों में, न मालूम किन ग्रह-उपग्रहों पर, कितने-कितने प्रकारों से! नहीं जिसे देखा था, उसी को देखने की लालसा भटकाती थी। नहीं जिसे सुना था, उसी का मधुर रव कान में भर जाए, इसके लिए प्राण आतुर थे। नहीं जिसे चखा था, उसी की प्यास लिए चलती थी।
जिस दिन भक्त और भगवान के बीच शून्य का सेतु बनता है, उस दिन मिलन हुआ। उस दिन ही तुम जानोगे कि क्या उसका नाम है, या कि वह अनाम है।
मलय का झोंका बुला गया
खेलते से स्पर्श से
वो रोम-रोम को कंपा गया--
जागो, जागो,
जागो सखि वसंत आ गया! जागो!
पीपल की सूखी खाल स्निग्ध हो चली
सिरिस ने रेशम से वेणी बांध ली
नीम के भी बौर में मिठास देश,
हंस उठी है कचनार की कली
टेसुओं की आरती सजा के
बन गयी वधू वनस्थली!
स्नेह भरे बादलों से
व्योम छा गया
जागो, जागो,
जागो सखि वसंत आ गया! जागो!
चेत उठी ढीली देह में लहू की धार
बेध गई मानस को दूर की पुकार
गूंज उठा दिग्दिगंत
चीन्ह के दुरंत यह स्वर बार-बार :
सुनो सखि! सुनो बंधु!
प्यार ही में यौवन है, यौवन में प्यार!
आज मधु-दूत निज
गीत गा गया
जागो, जागो,
जागो सखि वसंत आ गया! जागो!
मधुमास में ही पहचान पाओगे उसके असली नाम को। क्योंकि उसका नाम, नाम से हम जो समझते हैं, ऐसा नहीं है। स्वाद है उसका नाम। अनुभव है उसका नाम। प्राणों की अंतर्तम अनुभूति है उसका नाम।
तो मैं तुमसे कहूं राम उसका नाम है तो झूठ होगा; मैं कहूं अल्लाह उसका नाम है तो झूठ होगा। ऐसे ये सब नाम भी उसी के हैं। अल्लाह और राम ही नहीं, कृष्ण और रहीम ही नहीं, तुमने भी जो नाम रख लिए हैं अपने-अपने बच्चों के, अपने पड़ोसियों के, ये सब नाम भी उसी के हैं। अच्छे-बुरे सभी नाम उसके हैं, छोटे-बड़े सभी नाम उसके हैं, प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध सभी नाम उसके हैं। इसमें तुम विरोधाभास मत देख लेना। जिसका कोई नाम नहीं है, उसी के सभी नाम हो सकते हैं। और सभी जिसके नाम हैं, उसका कोई नाम कैसे होगा? एक में उसे तुम न बांध पाओगे। बांधने की आतुरता भी क्यों?
चाहते क्या हो? प्रश्न में तुम्हारी जिज्ञासा क्या है? यही न कि एक नाम तुम्हारी पकड़ में आ जाए तो बैठकर दुहराओ, कि माला पर जपो, कि मंत्र बना लो! मगर उससे तो सिर्फ रसना थकेगी, उससे तो सिर्फ जीभ थकेगी। और जीभ पर जो दोहराया गया है, जीभ पर ही रह जाएगा, प्राणों तक न पहुंच पाएगा।
इसे खयाल में ले लो: जो परिधि पर है, परिधि पर ही रह जाता है, केंद्र पर नहीं पहुंचता; यद्यपि जो केंद्र पर है वह परिधि पर भी आ जाता है। जो भीतर है, प्राणों के प्राण में है, वह तो बहेगा और परिधि को भी घेर लेगा, आवृत कर लेगा; लेकिन जो परिधि पर है वह प्राणों में नहीं जा सकता। जो अंतस में है वह तो आचरण बन जाता है; लेकिन जो सिर्फ आचरण में है वह अंतस नहीं बनता है। भीतर से बाहर की तरफ तो यात्रा है; बाहर से भीतर की तरफ कोई यात्रा नहीं है।
तुम नाम जानना चाहते हो, मैं तुम्हें अनाम देना चाहता हूं।
तुम नाम से तृप्त होना चाहते हो, मैं तुम्हें स्वाद देना चाहता हूं।
मत पूछो नाम, मत पूछो पता।
उसी ने तुम्हें घेरा है।
वही है तुम्हारे चारों तरफ।
पीयो, खूब-खूब पीयो, जी भर कर पीयो!
देखते हो, चारों तरफ से हवा ने तुम्हें घेरा है, दिखाई तो नहीं पड़ती है! मगर तुम पी रहे हो तो जी रहे हो। मुर्दा भी एक ला कर यहां रख दो, वह भी है, उसको भी चारों तरफ से हवा ने घेरा है; लेकिन हवा को पी नहीं रहा है, इसलिए मुर्दा है।
भक्त में और साधारण जन में उतना ही भेद है जितना जीवित और मुर्दे में। साधारण जन चारों तरफ परमात्मा से उतना ही घिरा है जितना भक्त, लेकिन भक्त पी रहा है, जी भर कर पी रहा है, श्वास-श्वास में उसी को पी रहा है, रोएं-रोएं को उसी में डूबने दे रहा है। और जो भक्त नहीं है वह भी उसी से घिरा है--उतना ही जितना भक्त; लेकिन वह श्वास में उसे भीतर नहीं लेता। भक्त जब श्वास लेता है तो सिर्फ हवा ही भीतर नहीं जाती, वह भी भीतर जाता है। भक्त जब भोजन करता है तो अन्न ही भीतर नहीं जाता, अन्नं ब्रह्म, अन्न के साथ-साथ- ब्रह्म भी भीतर जाता है। भक्त फूल को देखता, फूल ही नहीं देखता, उस फूल में खिले उस परमात्मा को भी देखता है। भक्त सूरज को उगते देखता है, झुक जाता है। क्योंकि तुम्हें सिर्फ सूरज दिखाई पड़ रहा है उसे उस सूरज की रोशनी में उसकी ही रोशनी दिखाई पड़ रही है। भक्त तो वृक्ष के पास भी झुक जाता है; क्योंकि तुम्हें सिर्फ वृक्ष दिखाई पड़ रहा है, उसे तो वृक्ष के भीतर दौड़ती हुई जो हरित धारा है जीवन की, वह जो प्राण वृक्ष को आंदोलित किए है, जो उसके पत्तों को हरा किए है और जिसने उसके फलों में रस भर दिया है--रसो वै सः! भक्त तो उस परम रस को भी देख रहा है।
तुम भी परमात्मा से घिरे हो, भक्त भी परमात्मा से घिरा है; इसमें जरा भी भेद नहीं है। परमात्मा की तरफ से जरा भी अन्याय नहीं है। लेकिन तुम हो कि अपने को बंद किए मुर्दे की भांति, श्वास नहीं लेते। फिर पूछते हो, उसका नाम क्या है? नाम तो हम उसका पूछते हैं जो हम से भिन्न हो। नाम तो हम उसका पूछते हैं जो दूर हो, जिसका पता-ठिकाना लगाना हो। उसका क्या नाम पूछना, जो श्वासों से भी ज्यादा तुम्हारे पास है। तुम भी अपने इतने पास नहीं, इतना वह तुम्हारे पास है। उसका नाम क्या पूछना है! खड़े हो सरोवर में, सरोवर का नाम पूछते हो और प्यास से तड़पे जा रहे हो! पीते क्यों नहीं?

दूसरा प्रश्न:

भगवान! सिक्ख-निरंकारी संघर्ष के संबंध में आपका क्या मत है? क्या यह खतरा नहीं है कि जो लोग आपके दर्शन या विचार के साथ असहमत ही नहीं, उसे सहने को भी तैयार नहीं हैं, वे आपके साथ भी ऐसी ही स्थिति पैदा करें?

किशोरदास! धर्म के साथ संघर्ष का कोई भी संबंध नहीं है। और जहां संघर्ष महत्वपूर्ण हो जाता है, वहां धर्म विलीन हो जाता है; वहां राजनीति अड्डा जमा लेती है। सब झगड़ों के पीछे राजनीति होती है।
ऊपर-ऊपर झगड़ों के नाम कुछ भी हों--हिंदू-मुसलमान का झगड़ा हो, कि सिक्ख-निरंकारी का झगड़ा हो, कि ईसाई-यहूदी का झगड़ा हो। ये तो झगड़ों को दिए गए प्यारे-प्यारे आवरण हैं, सुंदर-सुंदर आवरण हैं! जैसे खतरनाक तलवार पर किसी ने मखमल चढ़ा दी है, मखमल की म्यान बना दी है; अक्सर तलवारों की म्यानें मखमल की होती हैं। सोना-चांदी भी जड़ सकते हो, हीरे-जवाहरात भी। तलवारें छिप जाती हैं ऐसे; मगर सिर्फ अंधों को छिपती हैं, आंख वालों को नहीं छिपतीं।
धर्म के नाम पर खूब राजनीति चलती रही है, चलती है, और लगता है आदमी को देखते हुए कि चलती ही रहेगी। और जब धर्म के नाम पर राजनीति चलती है तो बड़ी सुविधा हो जाती है राजनीति को चलने में; क्योंकि हत्यारे सुंदर मुखौटे लगा लेते हैं। जितना बुरा काम करना हो उतना सुंदर नारा चाहिए, उतना ऊंचा झंडा चाहिए, रंगीन झंडा चाहिए! आड़ में छिपाना होगा न फिर!
आदमी जंगली है, अभी तक आदमी नहीं हुआ! इसलिए कोई भी बहाना मिल जाए, उसका जंगलीपन बाहर निकल आता है। ये सब बहाने हैं! एक बहाना हटा दो, दूसरा बहाना ले लेगा, मगर लड़ाई जारी रहेगी; क्योंकि आदमी बिना लड़े नहीं रह सकता!
आदमी अभी उस जगह नहीं आया जहां शांति में आनंद पा सके। अभी तो वैमनस्य, द्वेष,र् ईष्या, हिंसा--उस में ही उसे थोड़ी त्वरा, थोड़ा उन्मेष जीवन का मालूम होता है, थोड़ा मजा मालूम होता है। देखते नहीं, घर से गए हो दवा लेने पत्नी के लिए और राह पर दो आदमी लड़ रहे हैं, बस खड़े हो गए; भूल ही गए पत्नी, भूल गए दवा! दो आदमी लड़ते थे, तुम्हें देखने के लिए खड़े हो जाने की क्या जरूरत थी? अशोभन है यह। यह तुम्हारी संस्कारशीलता का लक्षण नहीं है।
लड़ना या लड़ते हुओं को देखना एक ही वृति का प्रतीक है; तुम्हें कुछ न कुछ रस आ रहा है। और अगर दो आदमी लड़ते हुए और भीड़ देखती हुई, अचानक सहमत हो जाएं कि चलो भाई नहीं लड़ते चलो। तो सारी भीड़ उदास हो जाती है कि नाहक इतनी देर खड़े रहे और कुछ भी न हुआ! इतनी देर व्यर्थ ही खड़े रहे! और मजा ऐसा था, भीड़ में से लोग कह रहे थे--भाई, लड़ो मत! क्यों लड़ते हो, लड़ने में क्या रखा है! भीड़ में से एक-दूसरे को लोग पकड़ भी रहे थे कि कहीं झगड़ा न हो जाए। यह सब ऊपर-ऊपर था, भीतर आकांक्षा थी कि हो ही जाए, कि देख ही लें!
अभी भी खून बहता हुआ देखकर, तुम्हारे भीतर कोई छिपा हुआ पशु है अचेतन में जो तृप्त होता है। फिर खून किस बहाने बहता है, इसकी फिक्र नहीं--खून बहना चाहिए! तीन हजार साल के इतिहास में आदमी ने पांच हजार युद्ध लड़े हैं। लगता है आदमी यहां जमीन पर युद्ध लड़ने को ही पैदा हुआ है! और कितने-कितने अच्छे नामों पर युद्ध लड़े गए--इस्लाम खतरे में है, कि ईसाइयत खतरे में है, कि मातृभूमि खतरे में है, कि कम्यूनिज्म खतरे में है, कि लोकतंत्र खतरे में है; खतरे ही खतरे हैं सबको! शांति के लिए युद्ध लड़े गए हैं, और मजा! हम कहते हैं, युद्ध लड़ेंगे तो शांति हो जाएगी। यह तो ऐसा हुआ जैसे किसी को जीवन देने के लिए जहर पिलाओ! किसी को बचाने के लिए उसकी गर्दन काटो! लेकिन यह गणित जारी रहा।
और ऐसा भी नहीं है कि एक मसला हल हुआ हो तो युद्ध समाप्त हुआ। एक मसला हल होता है, हम तत्क्षण दूसरा मसला खड़ा कर लेते हैं! हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटा था तो सोचा था कि चलो, अब हिंदू-मुस्लिम के दंगे न होंगे। उनका देश हो गया मुसलमानों का अलग, हिंदुस्तान हो गया अलग। हिंदू-मुस्लिम दंगे थोड़े क्षीण भी पड़े, लेकिन नए दंगे शुरू हो गए। हिंदुस्तान में इतनी भाषाएं हैं, भाषाओं के नाम पर दंगे शुरू हो गए; इतने प्रदेश हैं, प्रदेशों के नाम पर दंगे शुरू हो गए। गुजराती और मराठी लड़ेंगे कि बंबई किसका हो! ये तो दोनों ही हिंदू थे। इनमें तो झगड़ा नहीं होना था। ये तो एक ही धर्म को मानते थे, एक ही राम को, एक ही कृष्ण को मानते हैं। लेकिन गुजराती और मराठी में झगड़ा हो जाएगा--बंबई किसका हो? राम और कृष्ण से लेना-देना किसको है--बंबई किसका हो! छोटी-मोटी सीमाओं पर, कि नर्मदा का जल किस प्रांत को कितना मिले, इस पर झगड़े हो जाएंगे। और नर्मदा को दोनों पूजते हैं। दोनों नर्मदा को पवित्र मानते हैं। लेकिन जब बांटने का सवाल आ गया, तो झगड़े खड़े हो जाएंगे। कि एक तहसील इस प्रदेश में रहे कि उस प्रदेश में, कि एक जिला इस प्रदेश में रहे कि उस प्रदेश में--छुरेबाजी हो जाएगी! कि हिंदी भाषा हो राष्ट्र की भाषा, कि कोई और भाषा हो राष्ट्र की भाषा--बस छुरे चल जाएंगे! तुम देखते हो, एक बहाना छूटता नहीं कि दूसरा बहाना मिल जाता है।
फिर देखा, पाकिस्तान में क्या हुआ? बंगाली और पंजाबी मुसलमान लड़ गए, जो कभी न लड़े थे! क्योंकि पहले हिंदुओं से लड़ने में निकल जाती थी भीतर की जो पाशविकता है। अब हिंदू तो बचे नहीं; हिंदू तो उन्होंने साफ ही कर दिए। पाकिस्तान में हिंदू तो बचे नहीं; उसी दिन उन्होंने खतरा ले लिया। काटने की वृत्ति तो बची, हिंदू न बचे! अब काटने की वृत्ति क्या करेगी? पशु तो बचा, पुराना बहाना हाथ से चला गया! तो पाकिस्तान आपस में लड़ गया। तो पंजाबी मुसलमान ने बंगाली मुसलमान को इस तरह मारा, जिस तरह न तो कभी हिंदुओं ने मुसलमानों को मारा था न मुसलमानों ने हिंदुओं को मारा था। फिर तुम यह भी मत सोचना, कि इससे कुछ हल होता है। पाकिस्तान बंट गया--दो हिस्से हो गए। पहले हिंदुस्तान बंटा और दो देश हुए, फिर पाकिस्तान बंटा और दो देश हो गए।
और फिर जिस आदमी ने, मुजीबुर्रहमान ने बंगला को मुक्त कर लिया पाकिस्तान के कब्जे से उसकी क्या गति हुई? उसके साथ बंगालियों ने क्या व्यवहार किया? भून डाला! पूरा परिवार--छोटे-छोटे बच्चे, दूध मुंहें, बच्चों से लेकर मुजीबुर्रहमान तक, सबको एक साथ भून डाला! बंगाली बाबुओं से ऐसी तो आशा न थी, लेकिन बंगाली बाबुओं ने ऐसा कर दिखाया! पंजाबियों ने अगर थोड़ी ज्यादती की थी, समझ में आ सकती है बात। पंजाबी थोड़ा उस ढंग का आदमी है। लेकिन बंगाली बाबू...ढीली धोती, कि भाग भी न सकें...भागें तो अपनी ही धोती में फंस कर गिर जाएं! इनको क्या हुआ? बंगाली हो कि पंजाबी, भीतर पशु एक है। बहाने बदल जाते हैं, आदमी नहीं बदलता।
किशोरदास! आदमी बदलेगा तो स्थिति बदलेगी। अब बहाने बदलने की बात हम छोड़ दें। बहाने तो पांच हजार साल में बहुत बार बदले, बात वहीं की वहीं बनी रहती है। आदमी को बदलें!
और आदमी के बदलने में सबसे बड़ी कठिनाई क्या है? आदमी क्यों इतनी पशुता, इतनी हिंसा और घृणा से भरा हुआ है? मेरे देखे, हमने मनुष्य को प्रेम करने की कला नहीं सिखाई, इसलिए हमने मनुष्य को प्रेम की हवा नहीं दी, इसलिए हमने मनुष्य को प्रेम का स्वाद नहीं दिया, इसलिए। जिस व्यक्ति को भी प्रेम का स्वाद मिल जाए, उसके जीवन से घृणा अपने-आप विसर्जित हो जाती है। क्योंकि एक ही ऊर्जा है, जो प्रेम बनती है या घृणा बनती है। अगर प्रेम न बन पाए तो घृणा बनती है। एक ही ऊर्जा है, जो निर्माण बनती है और ध्वंस बनती है। निर्माण न बन पाए तो ध्वंस बनती है।
अब तक आदमी हमने जो निर्मित किया है जमीन पर, उसमें सृजनात्मकता के बीज हम नहीं डाल पाए हैं। इसलिए विध्वंस उसका स्वर है। फिर राष्ट्र के नाम पर, धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, वर्ण के नाम पर विध्वंस प्रकट होता है। जहर हो गई है वही शक्ति, जो खिल जाती तो गीत बनती और नाच बनती! जो प्रकट होती तो बांसुरी पर बजती, वही तलवार की धार हो गई है!
मैं यहां कोई नया धर्म नहीं सिखा रहा हूं। धर्म तो जमीन पर बहुत हैं--तीन सौ धर्म हैं। अब इस उपद्रव में और उपद्रव बढ़ाने से क्या होगा? मैं यहां कोई नया शास्त्र नहीं दे सकता हूं। शास्त्र काफी हैं, वेद हैं और कुरान हैं और बाइबिलें हैं और धम्मपद हैं और गुरुग्रंथ हैं और शास्त्र ही शास्त्र हैं!
मैं तो यहां मनुष्य को बदलने का एक नया विज्ञान दे रहा हूं। उस विज्ञान की आधारभूत शिला यही है कि हम मनुष्य को स्वयं से प्रेम करना सिखाएं। यह बात अभी तक नहीं की गई है। तुमसे यह तो कहा गया है कि देश को प्रेम करो। और तुमसे यह भी कहा गया है कि धर्म को प्रेम करो। और तुमसे यह भी कहा गया है कि जरूरत पड़े तो देश के लिए मर जाना, धर्म के लिए मर जाना। लेकिन तुमसे यह किसी ने भी नहीं कहा है कि अपने से इतना प्रेम करो, कि न तो देश के लिए मरने की तुम्हारी तैयारी हो न धर्म के लिए मरने की तुम्हारी हो। अपने से इतना प्रेम करो, कि तुम्हें कोई भी उपद्रवी, कोई भी पागल किसी तरह की आत्महत्या के लिए राजी न कर पाए। अपने से इतना प्रेम करो...! तुम परमात्मा की कृति हो!
मगर तुम ऐसे तैयार रहते हो मरने को, जिसका हिसाब नहीं! बहाना मिल जाए कि तुम मरने-मारने को तैयार हो! कारण साफ है, तुम्हारी जिंदगी बेमानी है। तुम्हारी जिंदगी में कोई अर्थवत्ता नहीं है। जिंदगी में कोई ऐसी रसधार नहीं बह रही है कि तुम थोड़े झिझको। जिंदगी इतनी उदास है और जिंदगी इतनी ऊब से भरी है और जिंदगी इतनी बोझिल है कि तुम्हें कोई मौका नहीं मिल जाए मरने-मारने का तो तुम कहते हो कि चलो छुटकारा हुआ। चलो इस बहाने त्याग कर दें, शहीद हो जाएं! दिल में कम से कम एक आशा तो रहती है कि जिंदा तो किसी ने पूछा नहीं--शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले! चलो मर कर...चिता पर मेले इकट्ठे होंगे।
मैं तुमसे कह रहा हूं: देश के लिए मत मरना, जाति के लिए मत मरना, धर्म के लिए मत मरना। तुम्हें परमात्मा ने मारने के लिए नहीं पैदा किया, नहीं तो पैदा हो क्यों करता? तुम्हें परमात्मा ने पैदा किया है...जीना! फूलों के लिए जीना, चांदत्तारों के लिए जीना, अपने लिए जीना, लोगों के लिए जीना। जीवन परम मूल्य है और जीवन किसी भी चीज पर निछावर नहीं किया जा सकता। जीवन पर सब कुछ निछावर है, और जीवन किसी चीज पर निछावर नहीं किया जा सकता। ऐसी आधार शिला बदलनी होगी आदमी की।
लेकिन लोगों को लगता है, मैं स्वार्थ सिखा रहा हूं। चलो यही सही; वह शब्द कुछ बहुत बुरा नहीं है, शब्द अर्थपूर्ण है। स्वार्थ का अर्थ होता है--स्व के निमित्त, आत्मा के निमित्त। शब्द कुछ बुरा नहीं है, प्यारा है! स्वार्थ सही, मैं स्वार्थ सिखाता हूं। परार्थ तो बहुत सिखाया गया है; उसका परिणाम क्या हुआ है? उसका परिणाम यह हुआ है कि तुम अपने को प्रेम नहीं कर पाए, तो तुम दूसरे को भी प्रेम नहीं कर पाए। प्रेम का दीया पहले तुम्हारे भीतर जले, तो ही उसकी रोशनी दूसरों तक पहुंचेगी। लेकिन तुम्हें सिखाया गया है--मां-बाप को प्रेम करो, पत्नी को प्रेम करो, पति को प्रेम करो, बेटों को प्रेम करो। तुमसे कोई यह कहता ही नहीं कि अपने को प्रेम करो। अपने से तो घृणा करो। अपनी तो निंदा करो--मैं तो पापी हूं। मैं तो धूल हूं आपके चरणों की! मैं तो कुछ भी नहीं! अपने को घृणा करो, अपना तिरस्कार करो और सबको प्रेम करो। अब थोड़ा सोचो, इसका परिणाम क्या होगा? हर व्यक्ति अपना तिरस्कार कर रहा है और हर व्यक्ति अपनी निंदा कर रहा है। सारा जगत आत्मनिंदा से भर गया है।
और जहां आत्मनिंदा है, वहां आत्मा के फूल नहीं खिलते। सोचो कि गुलाब की झाड़ी अगर आत्मनिंदा से भर जाए तो क्या खाक फूल खिलेंगे! फूल तो खिलते हैं अहोभाव में, आत्मनिंदा में नहीं। थोड़ा सोचो, चांद आत्मनिंदा से भर जाए तो क्या खाक चमकेगा! चमक तो होती है आत्म गरिमा में, गौरव में, आत्मसम्मान में। लेकिन तुम्हें सिखाया गया है--घृणा करो अपने को। तुम पापी हो! जन्मों-जन्मों के पाप तुम्हारे पीछे हैं। और तुम्हें डराया गया है--अपने को प्रेम मत करना; वह स्वार्थ है और स्वार्थ बड़े से बड़ा पाप है।
मैं तुमसे कहता हूं: स्वार्थ ही परार्थ की आधारशिला है। जिस व्यक्ति ने अपने को प्रेम किया, अपना सम्मान किया, वह किसी का भी अपमान न कर सकेगा। क्योंकि जिसने अपना सम्मान किया, उसे दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है कि जो जीवन मुझमें है वही सबमें है; जो ज्योति इस दीए में जली है, वही ज्योति सब दीयों में जली है! और जिसने अपनी गरिमा पहचानी, उसे सारे जगत की महिमा का अनुभव शुरू हो जाता है।
मैं यहां कोई नया धर्म नहीं दे रहा हूं। मैं तो यहां जीवन की एक नयी शैली दे रहा हूं। एक नए मनुष्य की आधार शिला रख रहा हूं। पुराना ढंग का मनुष्य असफल हो गया है; एक नए ढंग की मनुष्यता चाहिए।
इसलिए तुम मुझसे यह मत पूछो किशोर दास, कि सिक्ख-निरंकारी संघर्ष के संबंध में आपका क्या मत है? सभी संघर्षों के संबंध में मेरा यही मत है, कि वे सब गलत आदमी के आधार पर पैदा हुए हैं। यह प्रश्न सिक्ख, और निरंकारी का नहीं है, न हिंदू-मुसलमान का है, न ईसाई-यहूदी का है, न जैन-बौद्ध का है। अगर तुमने इसको ऐसे ऊपर-ऊपर पकड़ा तो लक्षण ही पकड़ोगे, बीमारी पकड़ में न आएगी। और लक्षण के इलाज से बीमारी का इलाज नहीं होता है। आदमी गलत है। वह सिक्ख हो, निरंकारी हो, हिंदू हो, मुसलमान हो, जैन हो, बौद्ध हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता--आदमी गलत है!
और हमें एक नई आदमी की व्यवस्था करनी है। और आदमी की बुनियादी गलती यही है--आत्मगौरव का बोध नहीं है। मेरे भीतर कौन छिपा है, इसका कुछ अनुभव नहीं है। मैं तुमसे कहना चाहता हूं: तुम पापी नहीं हो, तुम परमात्मा हो! इससे तुम जरा भी कम नहीं हो। तुम परमात्मा की अनूठी कृति हो। याद रखना मेरे शब्द--अनूठी कृति! क्योंकि तुम जैसा व्यक्ति न तो उसने पहले कभी बनाया और न फिर कभी बनाएगा। तुम बिलकुल अकेले हो; तुम बेजोड़ हो! तुम किसी की कार्बन कापी नहीं हो, तुम मौलिक हो। परमात्मा ने तुम्हारा गीत बस पहली बार लिखा है और आखिरी बार लिखा है। और अगर तुमने यह गीत न गुनगुनाया, तो यह गुह्य गीत बिना गाया रह जाएगा। और तुम ही इसे गुनगुना सकते हो, दूसरा नहीं।
आत्मसम्मान करो, आत्मगौरव करो। परमात्मा की इस अनोखी भेंट के लिए, जो तुम्हें मिली है, धन्यवाद दो! नाचो! इसी नाच से प्रार्थना पैदा होती है। और इसी गहरे आत्मानुभव से, और मनुष्यों के प्रति और पशुओं के प्रति और वृक्षों के प्रति, जहां-जहां जीवन है--ये सब जीवन के अलग-अलग ढंग, अभिव्यक्तियां हैं--वहां-वहां तुम्हें परमात्मा की छवि की धीरे-धीरे झलक, धीरे-धीरे अनुभव, उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ने लगती है।
मेरा संन्यासी न तो हिंदू है न मुसलमान है न ईसाई है न जैन है न सिख है न निरंकारी है। मेरा संन्यासी एक नए ढंग का आदमी है, जो अपने प्रेम में तल्लीन है, जो स्वयं को प्रेम करने की दिशा में गतिमान है। अभी तो स्वार्थी लगेगा, क्योंकि तुम्हारी पुरानी जो व्याख्या है, वह व्याख्या खूब जड़ जमा कर बैठी है।
लेकिन अगर यह संन्यासी, यह रंग जमीन पर फैल सका, तो तुम पाओगे, इसी स्वार्थ से ऐसे परार्थ के फूल खिलेंगे, जिनकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते थे! क्योंकि तुमने सदा स्वार्थ और परार्थ को विरोधी समझा है; वे विरोधी नहीं हैं। स्वार्थ की जड़ों पर ही परार्थ के फूल लगते हैं। वे परिपूरक हैं।
और हम मनुष्य को, यह जीवन गलत है, ऐसा सिखाते रहे हैं, सदियों-सदियों से! ऐसा सिखाते रहे हैं कि तुम्हें जीवन मिला है, तुम्हारे पापों के दंड के लिए! जरा सोचो तो, अगर जीवन पापों के दंड के लिए मिला है, तो दो कौड़ी का है! इसका मूल्य क्या? ले लो तो मूल्य नहीं है, दे दो तो मूल्य नहीं है!
मैं तुमसे कहना चाहता हूं: तुम्हारे पापों का दंड नहीं है जीवन, तुम्हारे पुण्यों का पुरस्कार है। और तब पूरी दृष्टि बदलेगी। इसलिए नहीं कि तुमने बुरे काम लिए थे, इसलिए तुम जन्मे हो। तुमने कुछ सुंदर किया होगा। और परमात्मा ने तुम्हें फिर भेजा है, कि तुम और सुंदर करो, और सुंदरतम!
रवींद्रनाथ ने मरते समय प्रार्थना जो अंतिम की थी, वह प्रीतिकर है। प्रार्थना की थी कि हे प्रभु, अगर मैंने कुछ भी ऐसा जीवन में किया हो जो तेरे मन भाया हो, तो मुझ बार-बार जीवन में भेज देना।
लेकिन तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी प्रार्थना एक ही करते हैं कि हे प्रभु, आवागमन से कैसे छुटकारा हो? और जब आवागमन से छुटकारे की प्रार्थना चल रही हो, तो तुम कैसे जीवन के प्रति धन्यवाद, जीवन के प्रति कैसे अहोभाव, कैसे कृतज्ञता अनुभव करोगे? जीवन तो कारागृह है--तुम्हारी भाषा--में। इससे तो जैसे जल्दी छुटकारा हो जाए, उतना अच्छा! अब कारागृह में कोई फूल तो नहीं उगाता? कारागृह को कोई सजाता तो नहीं. कारागृह में कोई वीणा तो नहीं बजाता? कारागृह में तो लोग प्रतीक्षा करते हैं कि कितने जल्दी छूट जाएं; किसी भी तरह बाहर निकल जाएं।
मैं तुमसे कहना चाहता: यह संसार कारागृह नहीं है। यह संसार परमात्मा की अभिव्यक्ति है। यह संसार परमात्मा से भिन्न नहीं है, विपरीत तो बिलकुल नहीं है। कहीं चित्रकार से विपरीत होता है उसका चित्र? और कहीं संगीतज्ञ से विपरीत होता है उसका संगीत? और कहीं नर्तक से विपरीत होता है उसका नृत्य? और अगर तुम चित्र की निंदा करोगे, तो क्या तुम सोचते हो कि चित्र की निंदा करके तुम चित्रकार की प्रशंसा कर रहे हो? चित्र की निंदा में चित्रकार की निंदा हो गई। चित्र की प्रशंसा में चित्रकार की प्रशंसा होती है।
तुम्हारे अब तक के तथाकथित पंडित-पुरोहित तुम्हें जीवन-निषेध सिखाते रहे हैं, जीवन-विरोध सिखाते रहे हैं। उन्होंने तुम्हें नहीं का भाव, नकार का भाव तुम्हारे हृदय में भर दिया है। और नकार मृत्यु है, जीवन नहीं। नकार में सड़ सकते हो, खिल नहीं सकते। नकार जहर है, अमृत नहीं।
मैं तुम्हें जीवन का विधेय देता हूं। मैं सिखाता हूं जीवन का स्वीकार। यह जीवन परमात्मा की अनुपम भेंट है। न तो इसे तोड़ना, न इसे नष्ट करना और न इसे किसी क्षुद्र मानवीय धारणा पर समर्पित करना। मंदिर आदमियों के बनाए हुए हैं, जल जाएं, जल जाएं; आदमियों को मरने की जरूरत नहीं है। फिर मंदिर बना लेंगे। मस्जिदें आदमी की बनाई हुई हैं। किताबें आदमी की बनाई हुई हैं; आदमी भर आदमी का बनाया हुआ नहीं है। इसलिए आदमी को किसी भी चीज पर न्योछावर नहीं किया जा सकता। आदमी का मूल्य परम है। आदमी के ऊपर कुछ भी नहीं है।
चंडीदास का प्रसिद्ध वचन है: साबार ऊपर मनुष सत्य, ताहार ऊपर नाहीं।  सबसे ऊपर है मनुष्य का सत्य, उसके ऊपर कुछ भी नहीं। साबार ऊपर मानुष सत्य...।
सबसे ऊपर है मनुष्य का सत्य, इसकी उदघोषणा करो! चढ़ जाओ मकानों की मुंडेरों पर, गांव-गांव, द्वार-द्वार, घर-घर इसकी घोषणा करो: साबार ऊपर मानुष सत्य! मनुष्य के सत्य से ऊपर कोई और सत्य नहीं है। तब बदलेगी कुछ बात। यह आवागमन से छूटने की बकवास, यह संसार को पाप और पाप का फल कहने की बकवास, लोगों के जीवन को विषाक्त करने की चेष्टा--ये आधार हैं तुम्हारी बीमारी के।
लक्षणों की मैं बात नहीं करता। सिक्ख और निरंकारी, हिंदू और मुसलमान, जैन और बौद्ध--ये तो लक्षण हैं। ये तो कोई भी बहाने खोज रहे हैं। ये तो खूंटियां हैं! मैं तो तुम्हारे कोट की बात कर रहा हूं जो तुम खूंटी पर टांगते हो, खूंटियों की बात नहीं कर रहा। खूंटी तो तुम्हें एक नहीं मिलेगी, तुम दूसरी जगह टांग दोगे। खूंटी बिलकुल न मिलेगी तो लोग दरवाजों पर टांग देते हैं, खिड़कियों पर टांग देते हैं। मगर कोट है तो कहीं न कहीं टांगेंगे। जब तक मनुष्य जैसा अब तक रहा है ऐसा ही रहेगा, तब तक ये उपद्रव जारी रहेंगे। मनुष्य को बदलना है।
इसलिए मैं गौण लक्षणों की चिंता नहीं करता। कोई असली चिकित्सक लक्षणों की चिंता नहीं करता, नकली चिकित्सक लक्षणों की चिंता करते हैं। जैसे किसी आदमी को बुखार चढ़ा है। नकली चिकित्सक होगा--वह कहेगा, इसका शरीर गरम हो गया है, ठंडे पानी में डाल दो, कि इसको फव्वारे के नीचे बिठा दो। शरीर गरम हो रहा है, ठंडा करना जरूरी है। शरीर तो ठंडा होगा कि नहीं, यह मरीज ही ठंडा कर देगा।
बुखार तो लक्षण है, बीमारी भीतर है। इस आदमी के भीतर तुमुल युद्ध छिड़ा है। इसके भीतर घर्षण हो रहा है! इसके भीतर स्वास्थ्य की और बीमारी की शक्तियों में गृह-युद्ध हो रहा है! उस गृह-युद्ध के कारण शरीर उत्तप्त हो गया है। उस गृह-युद्ध को शांत करना होगा। शमन भीतर करना होगा, बाहर आपने-आप ज्वर समाप्त हो जाएगा। ज्वर को ठंडा करने की जरूरत नहीं है। ज्वर की जड़ को काटने की जरूरत है। पत्ते मत काटो, शाखाएं मत काटो; इससे कुछ भी न होगा। जड़ काटो। मैं जड़ को काटने में लगा हूं।
और किशोर दास, यह तुम ठीक कहते हो--क्या यह खतरा नहीं है, कि जो लोग आपके दर्शन या विचार के साथ सहमत नहीं हैं, उसे सहने को भी तैयार नहीं हैं, वे आपके साथ भी ऐसी ही स्थिति पैदा करें? यह खतरा है। खतरा क्या, करीब-करीब यह बात सुनिश्चित है, होनी ही है। यह होनी इसलिए है कि यही सदा होती रही है।
जीसस को लोगों ने सूली दी, मंसूर को काट डाला। सुकरात को जहर पिला दिया। इनका कसूर क्या था? इनका एक ही कसूर था कि ये आदमी को स्वस्थ करने की चेष्टा में संलग्न थे! और आदमी अपनी बीमारियों से इतना घिर गया है और अपनी बीमारियों को ही मानने लगा है कि यही मैं हूं, कि जब कोई उसकी बीमारी छीनता है तो वह नाराज होता है। तुम अपनी जंजीरों को ही समझने लगे हो तुम्हारे आभूषण हैं! और जब कोई तुम्हारी जंजीरें छीनता है, तो तुम समझते हो लुटेरा है। तुम उससे बदला लेने लगते हो।
दुर्भाग्य है यह। अगर यह दुर्भाग्य न घटा होता, अगर जीसस को सूली न लगी होती, सुकरात को जहर न दिया गया होता, मंसूर के हाथ-पैर न काटे गए होते तो यह दुनिया दूसरी होती। ये सिक्ख और निरंकारीयों के झगड़े न होते। ये हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे की गर्दनें न काटते। यह आदमी दूसरा होता। यह जमीन स्वर्ग हो गई होती! लेकिन इस जमीन को जो लोग भी स्वर्ग बना सकते थे, उनके साथ ही हमने दर्ुव्यवहार किया है।
इसलिए इसमें कुछ आश्चर्य नहीं। यह हो सकता है। मगर यह इकतरफा होगा। इकतरफा होगा, इसका अर्थ यह है कि हमारी तरफ से कोई झगड़ा नहीं है किसी से। झगड़ा अगर होगा तो इकतरफा होगा। इकतरफा ही चल रहा है।
कल ही मैंने एक पत्रिका में पढ़ा, पत्रिका में सुझाव दिया गया है सरकार को, कि मुझे मृत्यु-दंड दे देना चाहिए, इससे कम नहीं। क्योंकि मेरे जैसा आदमी जिंदा रहे, यह खतरनाक है। और मृत्यु-दंड इसलिए दे देना चाहिए, ताकि आगे फिर कभी कोई आदमी इस तरह की दुबारा हिम्मत न कर सके।
मैं समझ पाता हूं कि अड़चन कहां है। इससे मैं नाराज नहीं हूं। इससे मुझ में सिर्फ करुणा पैदा होती है। यह स्वाभाविक है। लोग बीमारियों के आदी हो गए हैं। सदियों-सदियों से बीमारियों में रहे हैं, बीमारियों से तादात्म्य हो गया है। और मैं उनकी बीमारियों की जड़ पर चोट कर रहा हूं। अड़चन तो आएगी, कठिनाई तो होगी। मगर यह इकतरफा होगी।
हम तो अपने गीत गाते रहेंगे और नाचते रहेंगे और गुनगुनाते रहेंगे। लोगों की जो मर्जी हो वे करें। लोगों को जैसा ठीक लगे वैसा करें। हमारी तरफ से कोई संघर्ष नहीं है। हमारी तरफ से कोई प्रतिकार नहीं है। अगर यही होना है तो यही होगा। लेकिन एक बात एक पत्थर पर खींची गई लकीर की तरह रह जाएगी कि कुछ लोग बिना लड़े, नाचते हुए, गीत गाते हुए भी मर सकते हैं! जीवन से हमारा प्रेम इतना है कि हम मृत्यु को भी उत्सव बना लेंगे! प्रत्युत्तर नहीं होगा। प्रत्युत्तर क्या है? हमारा प्रत्युत्तर यही है कि हम मृत्यु को उत्सव बना लेंगे!
मगर हम किसी से लड़ने को उत्सुक नहीं हैं। लड़ने की जड़ काटना चाहते हैं, तो लड़ने को उत्सुक कैसे हो सकते हैं? यह तो फिर वही पुरानी कहानी होगी। हम किसी को मिटाने में उत्सुक नहीं हैं; हां, बीमारी मिटाने में उत्सुक हैं।
और इसलिए एक और आश्चर्य की बात किशोर दास--सिक्खों को तकलीफ होगी निरहंकारियों से, निरहंकारियों को तकलीफ होगी सिक्खों से, बाकी मुल्क में किसी को कोई अड़चन नहीं है। हिंदुओं को अड़चन होगी मुसलमानों से, मुसलमानों को अड़चन होगी हिंदुओं से, बाकी किसी को अड़चन नहीं है। मेरा मामला तो थोड़ा भिन्न है। हिंदू को भी मुझसे अड़चन है, मुसलमानों को भी मुझसे अड़चन है, ईसाई को भी मुझसे अड़चन है, जैन को भी मुझसे अड़चन है। मेरे साथ सभी को अड़चन है; क्योंकि मैं पत्ते नहीं काट रहा हूं, मैं जड़ काट रहा हूं। अगर तुम एक पत्ता काट रहे हो, तो बाकी पत्ते कहेंगे--अच्छा है, कटने दो, हमें क्या लेना-देना! शायद खुश ही होंगे कि जितना रस इस पत्ते को मिलता था, अब हमको मिल जाएगा! पास-पड़ोस के पत्ते कहेंगे, हम तो पहले से ही चाहते थे यह खत्म हो। लेकिन मैं जड़ काट रहा हूं। इसलिए सारे पत्ते मेरे खिलाफ होंगे। और सारे पत्ते मेरी खिलाफत में साथ हो जाएंगे।
जीसस को यहूदियों ने मारा था, मंसूर को मुसलमानों ने। अगर मैं कभी मारा गया तो यह एक नई कहानी होगी, एक नई शुरुआत होगी; मुझे मारने वाले में सारे लोग सम्मिलित होंगे! यह सौभाग्य की बात भी होगी; जिसके खिलाफ सारे लोग हों जरूर वह कोई जड़ की बात कर रहा होगा--ऐसी जड़ की, जिसके काटने से सब कटते हैं!
मैं मौलिक रूपांतरण की बात कर रहा हूं। और सिर्फ बात ही नहीं कर रहा हूं, उस नए आदमी को पैदा करने की चेष्टा में लगा हूं। यह कोई शास्त्रार्थ नहीं है जो मैं चला रहा हूं। शास्त्रार्थ में मेरा रस नहीं है। मैं तो नया आदमी पैदा करने में लगा हूं। वही सबूत होगा, वही गवाह होगा कि मैं जो कहता हूं वह हो सकता है या नहीं? क्या एक ऐसा व्यक्ति पैदा किया जा सकता है, जो हिंदू न हो, मुसलमान न हो, ईसाई न हो, भारतीय न हो, पाकिस्तानी न हो, जापानी न हो, चीनी न हो?...किया जा सकता है! उसी का प्रयोग चल रहा है।
मेरा संन्यासी विश्व का नागरिक है। उसकी कोई और राष्ट्रीय मान्यता नहीं है। उसका कोई चर्च नहीं है, कोई संप्रदाय नहीं है। वह समस्त चर्चों और संप्रदायों से मुक्त व्यक्ति है।
और मेरा संन्यासी जीवन को दंड नहीं मानता है, अनुग्रह मानता है। और मेरा संन्यासी आवागमन से मुक्त नहीं हो जाना चाहता है।
मेरा संन्यासी अपनी कोई चाह नहीं रखता है; परमात्मा जैसे जिलाए उसमें राजी है--जो उसकी मर्जी!
और मेरा संन्यासी जीवन के किन्हीं भी अंगों का तिरस्कार नहीं करता है। मेरा संन्यासी जीवन की समग्रता को स्वीकार करता है और समग्रता को जीने की चेष्टा करता है। मेरा संन्यासी चेष्टा में संलग्न है कि उसके भीतर कोई भी अंग निषिद्ध न हो। क्योंकि जो भी अंग हम निषिद्ध करते हैं, वह अंग बदला लेता है। अगर कामवासना का निषेध करोगे तो कामवासना बदला लेगी; तुम्हारे चित्त को कामवासना ही कामवासना से भर देगी। अगर तुम क्रोध को दबाओगे तो तुम्हारे भीतर क्रोध रोएं-रोएं में समा जाएगा। अगर तुम शरीर का दमन करोगे तो तुम यह मत सोचना कि तुम आत्मवादी हो जाओगे; तुमसे ज्यादा शरीरवादी खोजना मुश्किल हो जाएगा। अगर तुम बाहर के जगत को इनकार करके हिमालय की गुफा में भाग जाना चाहोगे, तो हिमालय की गुफा में बैठकर भी तुम बाहर के जगत का ही चिंतन-मनन करोगे।
मैं पूरे मनुष्य में भरोसा करता हूं। बाहर भी अपना है, भीतर भी अपना है। बाजार भी अपना है और मंदिर भी अपना है। धन भी अपना है और ध्यान भी अपना है। प्रेम में भी डूबो और समाधि को भी मत भूलो। दोनों पंखों को एक साथ सम्हाल लेना है।
और जीवन में जो भी परमात्मा ने दिया है--क्रोध हो कि लोभ हो, कि काम हो कि अहंकार हो--इन सभी का रूपांतरण हो सकता है। क्रोध का जब रूपांतरण होता है तो करुणा निर्मित होती है। और अहंकार का जब रूपांतरण होता है तो आत्मभाव पैदा होता है। और काम का जब रूपांतरण होता है तो ब्रह्मचर्य का जन्म होता है। इनमें से कोई भी ऊर्जा निषेध करने के लिए नहीं है। ये सारी ऊर्जाएं शुद्ध करने के लिए हैं इनका इनकार नहीं, इनका परिष्कार...।
तो निश्चित ही किशोर दास तुम्हारी चिंता ठीक है। ऐसा हो सकता है। लेकिन उससे हमें कोई चिंता नहीं है। न होगा तो समझना कि चमत्कार हुआ! न होगा तो ही हम चकित होंगे। होना तो सुनिश्चित ही है--देर अबेर!
लेकिन फिर भी हम मनुष्य जाति के लिए एक नए प्रयोग की संभावना को वास्तविक करके छोड़ जाएंगे। एक प्रयोग को प्राण दे जाएंगे। और यह प्रयोग अगर थोड़े-से लोगों में भी सफल हो गया तो मनुष्य का भविष्य का इतिहास एकदम भिन्न होगा।
अब तक का धर्म अधूरा-अधूरा था, अंतर्मुखी था। इसलिए जिन देशों ने धार्मिक होने की चेष्टा की, वहां विज्ञान पैदा नहीं हुआ। अंतर्मुखी व्यक्ति कैसे विज्ञान को जन्म दे? तुम अगर गरीब हो तो तुम्हारे धर्म के कारण गरीब हो। यह देश अगर भूखा मर रहा है, तो धन्यवाद दो तुम्हारे साधु-संतों-महात्माओं को! उनकी कृपा से! क्योंकि विज्ञान जन्में कैसे? विज्ञान के लिए बहिर्मुखी होना जरूरी है। विज्ञान का अर्थ ही होता है--बाहर जो है उसका निरीक्षण, गहरा निरीक्षण, गहरा अवलोकन--पदार्थ का अवलोकन। और तुम्हारे साधु-संत कहते रहे--भइया, पदार्थ तो माया है। माया का कहीं कोई निरीक्षण करता है? है ही नहीं। ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। जगत है ही नहीं। जो है ही नहीं, उसका विज्ञान कैसे बनेगा? और जो है ही नहीं, उसमें उत्सुकता क्या लेनी?
पश्चिम के लोगों ने कहा कि ब्रह्म मिथ्या, जगत सत्य। तो उन्होंने विज्ञान तो निर्मित कर लिया, लेकिन ध्यान खो गया। विज्ञान तो खूब फला; धन का अंबार लगा गया, लेकिन भीतर आदमी बिलकुल दरिद्र हो गया।
मैं तुमसे क्या कहता हूं? मैं कहता हूं: ब्रह्म सत्य, जगत सत्य। मैं कहता हूं: दोनों सत्य हैं। दोनों एक ही सत्य के दो पहलू हैं। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनमें कोई भी असत्य नहीं है। न तो मैं कार्ल माक्र्स से राजी हूं, जो कहता है कि जगत सत्य, ब्रह्म मिथ्या: न मैं शंकराचार्य से राजी हूं, जो कहते हैं कि ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। मेरी उदघोषणा तो है: दोनों सत्य हैं। जगत भी सत्य, ब्रह्म भी सत्य। जगत है ब्रह्म की देह, ब्रह्म है जगत का प्राण। दोनों साथ-साथ हैं। और दोनों हैं, इसलिए जीवन अति सुंदर है!
भविष्य का मनुष्य वैज्ञानिक और धार्मिक साथ-साथ होगा, धार्मिक और वैज्ञानिक साथ-साथ होगा। उस धर्म और विज्ञान के समन्वय को मैं पैदा करने की कोशिश कर रहा हूं।
इसलिए और भी आश्चर्य की बात: धार्मिक ही मेरा विरोध नहीं करेंगे, अधार्मिक भी मेरा विरोध करेंगे। अध्यात्मवादी ही विरोध नहीं करेंगे, पदार्थवादी भी विरोध करेंगे। क्यों? क्योंकि उनको लगता है कि मैं परमात्मा को बीच में ला रहा हूं--जो नहीं लाना चाहिए, पदार्थ पर्याप्त है। अध्यात्मवादी को लगता है कि मैं पदार्थ को क्यों बीच में ला रहा हूं, परमात्मा पर्याप्त है। और मैं कहता हूं: तुम निर्णय न करो कि क्या पर्याप्त है; सिर्फ निरीक्षण करो, दोनों मौजूद हैं। दोनों जरूरी हैं। दोनों अपरिहार्य अंग हैं। और दोनों की मौजूदगी से अस्तित्व में वैविध्य है, सौंदर्य है, गरिमा है, महिमा है।
थोड़े से फूल बो जाना है, जितनी देर मौका मिले थोड़े से फूल बो जाना है। फूल लोग बो ही नहीं पाते। जिनको तुम बहुत अच्छे-अच्छे लोग कहते हो, वे भी ज्यादा से ज्यादा इतना ही कर पाते हैं कि कांटे न बोएं, बस। तुम्हारा संत जो है, वह कांटे नहीं बोता। मेरे संत की जो धारणा है वह फूल बोने की धारणा है। कांटे नहीं बोना नकारात्मक है; पर्याप्त नहीं। तुमने बगीचे में कांटे नहीं बोए, इससे मत सोचना कि फूल खिलेंगे। कांटे तो नहीं बोने हैं निश्चित; फूल बोने हैं।
मेरा किसी से कुछ विरोध नहीं है। इसलिए सारे धर्मों के शास्त्रों पर बोल रहा हूं, ताकि उनमें जो भी सुंदर है, नया मनुष्य उसे आत्मसात कर ले। जो भी सुंदर है, जो भी श्रेष्ठ है, वह नए मनुष्य की श्वासों में समा जाए! मेरा संन्यासी हिंदू नहीं, मुसलमान नहीं, ईसाई नहीं। लेकिन मैं बाइबिल पर बोल रहा हूं, ताकि बाइबिल में जो भी श्रेष्ठ है, जो भी सुंदर है...और सभी सुंदर नहीं है, सभी श्रेष्ठ नहीं है। वेद में जो भी सुंदर है, श्रेष्ठ है--और ध्यान रखना, सभी सुंदर नहीं है, सभी श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि वेद किसी एक व्यक्ति के लिखे हुए नहीं हैं, न बाइबिल किसी एक व्यक्ति की लिखी हुई है; न मालूम कितने लोगों ने लिखे हैं, न मालूम कितने लोगों के हाथ लगे हैं! ऐसे लोगों की भी पंक्तियां उनमें हैं, जो परमज्ञान को उपलब्ध हुए थे और ऐसे लोगों की भी, जो कोरे पंडित थे। इसलिए छांट रहा हूं, उसमें जो भी सुंदर है। फिर किसी दिशा से आता हो--फिर जरथुस्त्र से आता हो कि लाओत्सु से, कि चीन से आता हो कि ईरान से--जहां से भी आता हो, सारी मनुष्य जाति की संपदा हमारी है। उसमें जो-जो फूल हैं, चुन लेने हैं और एक गुलदस्ता तुम्हें दे जा रहा हूं!
लेकिन लोग उसमें नाराज होने वाले हैं, क्योंकि जो मैं छोड़ दूंगा, जो मैं नहीं चुनूंगा, वही उनकी अड़चन होगी। कुछ बातें मैं नहीं चुन सकता हूं। क्योंकि वे बातें परमज्ञान से उदभूत नहीं हुई हैं। या अगर परमज्ञानियों ने भी नहीं कही हैं तो सामयिक थीं; उनका मूल्य समय के साथ समाप्त हो गया। उनका कोई शाश्वत मूल्य नहीं है। तो जो भी सनातन है, शाश्वत है--एस धम्मो सनंतनो--उस सबका सार-निचोड़, उस सबको इत्र की तरह तुम्हें भेंट कर रहा हूं!
इसमें बहुत नाराजगियां होंगी, बहुत विरोध होंगे। लेकिन हमारा किसी से विरोध नहीं है, हमारी किसी से नाराजगी नहीं है। हम किसी के खिलाफ नहीं लड़ रहे हैं। मगर फिर भी यह आघात जड़ पर है; इसलिए सभी पत्ते नाराज हो जानेवाले हैं।
किशोर दास! तुम्हारी चिंता तो उचित है, लेकिन इससे बचने का कोई उपाय नहीं। ऐसी दुनिया है। और जैसी दुनिया है, उसके साथ काम करना है।
समझौता नहीं होगा। समझौते कर-करके ही यह दुनिया अब तक ऐसी बनी रही है। मेरी दृष्टि में कोई समझौता नहीं है। वही कहूंगा, जैसा है। वही कहूंगा, जैसा मुझे दिखाई पड़ता है। फिर जो भी उसका परिणाम होता है, वह शुभ है। उस परिणाम के लिए भी परमात्मा को धन्यवाद देना है।

तीसरा प्रश्न:

भगवान! अगर मैं अपनी खुद की बात कहूं तो ध्यान के गहरे अनुभव, जब मैंने कृष्णमूर्ति या आपका नाम तक न सुना था, तब हुए। यह स्वानुभव किसी भी विधि का अभ्यास किए बिना ही हुआ। इसलिए कृष्णमूर्ति जब यह कह रहे हैं कि किसी विधि का अभ्यास मत करो, वह सहज ही घटित होता है, तब यह बात मुझे स्वाभाविक मालूम होती है। आखिर कृष्णमूर्ति का जोर सतत जागरूकता और केंद्ररहित हो जीवन से ही सीखना इस पर तो है ही, जिसके फलस्वरूप ध्यान घट सकता है। अगर मैं भूलता नहीं हूं, तो आप कृष्णमूर्ति के इस विधान से सहमत नहीं हैं। इससे मुझे तो काफी अचरज भी होता है। आपका दृष्टिकोण समझने की उम्मीद रखता हूं।

निपुण शास्त्री! पहली तो बात कि ध्यान के गहरे अनुभव अगर कृष्णमूर्ति और मुझे सुनने के पहले हुए थे तो मुझे और कृष्णमूर्ति को सुनने की जरूरत क्या है, प्रयोजन क्या है? उन ध्यान के गहरे अनुभवों को और गहराओ। उस स्वानुभव में और उतरो। बहुत गहरे न हुए होंगे अनुभव, कहीं कोई कोर-कमी रह गयी होगी। इसीलिए तलाश शुरू हुई। और अब तो समझ आ गई; अब भी मुझे सुनने आए हो, अब भी पूछ रहे हो!
पूछना संदेह का सूचक है। तुम्हें अपने अनुभवों पर भरोसा नहीं मालूम होती। कहीं दूर गहरे में संदेह छिपा है कि पता नहीं ध्यान के अनुभव थे वे या मन की ही कल्पनाएं थीं! और क्या अनुभव हुआ था? क्योंकि अगर सच समझो तो ध्यान का कोई अनुभव नहीं होता। जब सब अनुभव समाप्त हो जाते हैं, तब जो शेष रह जाता है उसका नाम ध्यान है।
ध्यान के न तो उथले अनुभव होते हैं न गहरे अनुभव होते हैं। ध्यान अनुभव का नाम ही नहीं है। जहां तक अनुभव है, वहां तक ध्यान नहीं है और जहां से ध्यान शुरू होता है वहां कहां अनुभव अनुभव तो हमेशा बाहर-बाहर रह जाता है। अनुभव का तो अर्थ है कि चेतना में कोई विषय-वस्तु है। और ध्यान का अर्थ है: विषय-वस्तु रहित चैतन्य। अगर लगे कि खूब सुख का अनुभव हो रहा है तो इसका अर्थ हुआ कि चेतना है और सुख का अनुभव है। सुख का अनुभव चेतना में खड़ा है या चेतना को घेरे है। चेतना तो भिन्न है। चेतना तो वह है जिसे सुख का अनुभव हो रहा है। सुख का अनुभव चेतना नहीं है।
फिर ध्यान का कैसे अनुभव होगा? ध्यान का अनुभव होता ही नहीं। दर्पण है, दर्पण पर कोई प्रतिबिंब बनता है, तो अनुभव। और जब दर्पण पर कोई प्रतिबिंब नहीं बनता, दर्पण निराकार है, शून्य है--तब ध्यान। ज्ञान के अनुभव होते हैं, ध्यान के अनुभव नहीं होते। जहां तक अनुभव है, वहां तक मन है। मन अनुभवों का जोड़ है। सुख के अनुभव, दुख के अनुभव, गहराइयों के अनुभव, ऊंचाइयों के अनुभव--सब अनुभव मन के भीतर हैं। और ध्यान अमन की दशा है, उन्मनी दशा है--जहां मन न रहा, जहां सब अनुभव गये; जहां एक शब्द भी उठता नहीं है; जहां एक विषय भी छाया नहीं डालता। उस निर्दोष, उस निर्मल चैतन्य का नाम ध्यान है।
तुम कहते हो: अगर मैं अपनी खुद की बात कहूं, तो ध्यान के गहरे अनुभव जब मैंने कृष्णमूर्ति या आपका नाम तक न सुना था तब हुए।
अनुभव हुए होंगे, पर उन्हें ध्यान के अनुभव न कहो। प्रीतिकर अनुभव हुए होंगे, सुखद अनुभव हुए होंगे, मधुर अनुभव हुए होंगे, मगर उन्हें ध्यान के अनुभव न कहो। ध्यान का अनुभव होता ही नहीं। ध्यान अनुभव नहीं है। ध्यान अनुभव से मुक्ति है। ध्यान अनुभवातीत है, भावतीत है, अतिक्रमण है।
दूसरी बात: यह स्वानुभव किसी भी विधि का अभ्यास किए बिना ही हुआ इसलिए कृष्णमूर्ति जब यह कह रहे हैं कि किसी विधि का अभ्यास मत करो, वह सहज ही घटित होता है--तब यह बात मुझे स्वाभाविक मालूम होती है।
अब समझना, किसी विधि का अभ्यास मत करो, यह एक विधि है। यह नकारात्मक विधि है। विधियां दो तरह की होती हैं--विधायक और नकारात्मक। विधायक विधि में कहा जाता है--इस विधि का अभ्यास करो, उस विधि का अभ्यास करो। नकारात्मक में कहा जाता है--किसी विधि का अभ्यास न करो। इसका अर्थ क्या हुआ? अविधि का अभ्यास करो। अगर इसका ठीक-ठीक अर्थ समझो तो इसका अर्थ हुआ--अविधि का अभ्यास करो। विधि से बचो। विधि आये तो पकड़ो मत। विधि मिल भी जाए तो उपयोग मत करो। मगर यह नकारात्मक विधि हुई। यह कोई नई बात तो नहीं।
उपनिषद कहते हैं: नेति-नेति--न यह, न वह...। छोड़ते चलो, किसी विधि का अभ्यास न करो। बुद्ध ने तो नकार पर बड़ा जोर दिया है; कोई विधि नहीं!
ईसाई फकीरों में एक वर्ग हुआ है, इकहार्ट और उन जैसे फकीरों का, जो कहते हैं--वॉया निगेटिव; नकार से मार्ग है; नहीं से द्वार है। यह भी एक विधि है। यह नकारात्मक विधि है।
मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि अगर विधि ही पकड़नी हो तो विधायक पकड़ना। क्योंकि विधायक विधि को छोड़ना आसान होगा, नकारात्मक विधि को छोड़ना बहुत मुश्किल होगा। क्योंकि पहले तो तुम यह समझोगे कि यह विधि ही नहीं है तो छोड़ने का सवाल ही न उठेगा।
मैंने सुना है, एक आदमी बहुत सी पट्टियां मुंह पर बांधे है, क्योंकि एक कार दुर्घटना में बड़ी उसे चोट लगी, और ऐसा दिग्भ्रमित कि आंखें उसकी बिलकुल अभी तक चकराई हुई हैं, अभी तक उसे भरोसा नहीं आ रहा है कि क्या हुआ है। दांत के चिकित्सक के वहां पहुंचा। क्योंकि दांतों में भयंकर चोट लगी है, पूरा जबड़ा हिल गया है, और दांत सब उखड़ गए हैं। उन दांतों को निकलवाए बिना कोई चारा नहीं है। डाक्टर ने उसका निरीक्षण किया और फिर अपने सहयोगी को बोला कि मैं बड़ी मुश्किल में हूं। क्या मुश्किल है, सहयोगी ने पूछा। उसने कहा: मुश्किल यह है कि इस आदमी की हालत बड़ी खराब है। यह करीब-करीब बेहोश जैसी अवस्था में है।
और इसके दांत निकालने में भयंकर पीड़ा होगी। और दांत निकालने के पहले क्लोरोफार्म दिए बिना कोई चारा नहीं है।
पर..., सहयोगी ने कहा कि इसमें मुझे कुछ अड़चन नहीं मालूम होती, तो क्लोरोफार्म दें। उन्होंने कहा: अड़चन यही तो है, क्लोरोफार्म देने के बाद यह कैसे पता चलेगा, कब पता चलेगा कि यह आदमी बेहोश हो गया? यह आदमी करीब-करीब बेहोश है तो क्लोरोफार्म देने पर कब मैं रुकूं, कहां रुकूं, कि पता चल जाए कि यह आदमी बेहोश हो गया है? नकारात्मक विधि का जो आदमी उपयोग करेगा, पहले तो वह मानकर चलता है कि यह विधि नहीं है; यहीं खतरा है। तो छोड़ने का तो सवाल ही न उठेगा।
एक झेन फकीर के पास उसका शिष्य आया। बीस वर्षों से श्रम कर रहा है। और फकीर ने कहा है: एक हाथ की ताली की आवाज कैसी होती है; इस पर ध्यान करो। अब एक हाथ की ताली की आवाज कुछ होती ही नहीं! ताली तो बजती दो हाथों से है। आवाज ही जब होगी तो दो हाथों से होगी। दो टकराएंगे तो आवाज होगी; आवाज का अर्थ है टकराहट। एक हाथ की ताली कैसे बजेगी? बहुत तरह के उत्तर युवक खोज कर लाता रहा। लेकिन कोई उत्तर सही नहीं हो सकता। गुरु उतर सुनता ही नहीं था, वह पहले ही कह देता था--गलत! अभी उसने उत्तर बताया भी नहीं है। उसने एक दिन पूछा भी कि आप भी हैरान करते हैं मुझे! मैं खोजकर लाता हूं, महीनों की मेहनत के बाद...ध्यान करते-करते खोजता हूं कि यह उत्तर ठीक होगा, और मैं बोल भी नहीं पाता और आप...दरवाजे के भीतर आता हूं, कह देते हैं--गलत, यह भी गलत!
गुरु ने कहा कि सभी उत्तर गलत हैं। इसलिए पूछने और सुनने की जरूरत क्या है? उत्तर तुम जब तक लाते रहोगे तब तक गलत! जिस दिन तुम शून्य आओगे, निरुत्तर आओगे, यह जानकर आओगे कि कोई उत्तर नहीं है, शून्य का अनुभव करके आओगे, उस दिन कुछ बात बनेगी।
बीस साल लंबे श्रम के बाद शून्य का अनुभव हुआ। तुम सोच सकते हो उस व्यक्ति की खुशी और आनंद और उल्लास! बीस वर्ष...लंबी साधना थी। आधी उमर निकल गई। लेकिन घटना आधी घटी। आधी रात थी जब यह घटना घटी; मगर सुबह तक वह प्रतीक्षा न कर सका। यह समाचार तो गुरु को अभी देना है। बीस वर्ष से वे भी प्रतीक्षा करते हैं। और आज वह शुभ घड़ी आ गई कि मैं जा कर निवेदन कर दूं। वह भागा...आधी रात में जाकर द्वार खटखटाए। गुरु के चरणों पर गिर पड़ा। गुरु ने एक नजर उसकी तरफ देखा और कहा: जा बाहर, इसको भी फेंक कर आ! उस युवक ने कहा। किसको फेंक कर आऊं? अब तो कुछ बचा नहीं है। शून्य का अनुभव हुआ है।
गुरु ने कहा: बस...बाहर जा। शून्य का कहीं अनुभव होता है! और जिसका अनुभव हो जाए वह शून्य न रहा। शून्य भी अगर अनुभव हो जाए, तो शून्य नहीं रहा। अब तुझे शून्य को छोड़ना पड़ेगा। अब तू शून्य को भी छोड़ दे, तब तू सच में शून्य हो जाएगा।
नकारात्मक विधि का यही खतरा है कि वह पहले से ही नकार है अब वह युवक सिर धुनने  लगा और कहने लगा कि यह तो बड़ी मुश्किल हो गयी! कुछ हो तो छोड़ना आसान है, अब शून्य को कैसे छोडूं? शून्य कुछ है तो नहीं जिसे छोडूं!
नकारात्मक विधि से जो चलेगा, वह अड़चन में पड़ेगा एक दिन। अड़चन यह आयेगी कि जब नकारात्मक विधि छोड़नी पड़ेगी तो क्या छोड़ोगे?
पहले तो यह समझ लेना कि नकारात्मक विधि भी विधि है। कृष्णमूर्ति कहते हैं, किसी विधि का अभ्यास मत करो। यह तो विधान हो गया। यह तो आज्ञा हो गई। यह तो आदेश हो गया। अनुशासन दे दिया गया--किसी विधि का अभ्यास मत करो! यह विधि है। अविधि का अभ्यास, या विधि का अनभ्यास--जो भी नाम देना चाहो दे लो।
कृष्णमूर्ति चालीस वर्षों से यही तो समझा रहे हैं। अगर कोई विधि न होती तो चालीस वर्षों तक समझाते क्या? समझाने को क्या बचता है? चुप बैठ गए होते। तुम पूछते और वे हंसते। तुम पूछते और वे चुप रहते और चुप ही रहते। जब कोई विधि ही नहीं है, तो शिक्षण कुछ हो नहीं सकता। लेकिन अविधि भी विधि है। और सच तो यह है कि विधि का शिक्षण तो जल्दी हो जाता है, अविधि के शिक्षण में काफी दिक्कत होती है। क्योंकि लोगों को समझाना नकार को कठिन पड़ता है। विधेय तो पकड़ में आता है, नकार पकड़ में नहीं आता। इसलिए चालीस साल का अथक श्रम...और कितने लोग पकड़ पाए हैं नकार की विधि को? कृष्णमूर्ति को सुनते रहे हैं, सुनते रहे हैं...। हां, एक बात हो गयी है उनके भीतर--इतनी बात समझ में आ गई है कि किसी विधि को नहीं करना है। मगर यह अविधि क्या है, यह अभी भी समझ में नहीं आया है। और तब चूक हो रही है।
और कृष्णमूर्ति जैसे-जैसे बूढ़े होते जाते हैं वैसे-वैसे देखते हैं कि जीवन-भर की चेष्टा परिणाम कुछ भी नहीं ला पाई है। तो कभी-कभी तो बोलते-बोलते बहुत उत्तेजित हो जाते हैं। स्वाभाविक, कि इन्हीं लोगों को इतने दिन से समझा रहे हैं, किसी की कुछ समझ में आता मालूम नहीं पड़ता है।
नकारात्मक विधि को समझाना कठिन होता है। मगर विधि फिर भी विधि है। तुम कहते हो: इसलिए कृष्णमूर्ति जब यह कहते हैं कि किसी विधि का अभ्यास मत करो, वह सहज घटित होता है। तब यह बात मुझे स्वाभाविक मालूम होती है।
तो फिर घट जाने दो। बात को स्वाभाविक बनाए रखने से क्या होगा? फिर घट क्यों नहीं जाने देते? फिर रुकावट क्या है? विधि तो कुछ करनी नहीं है। और बिना विधि के भी तुम कहते हो ध्यान के गहरे अनुभव हुए थे। तो फिर रोक कौन रहा है? अगर विधि साधनी होती तो रुकावट भी हो सकती थी कि जब विधि सधेंगे, तब परिणाम होगा। विधि तो साधनी नहीं है। फिर हो क्यों नहीं जाती बात?
और क्या तुम सोचते हो दुनिया में सारे लोग ध्यान की विधियां साध रहे हैं, इसलिए अड़चन पड़ रही है? कितने लोग ध्यान कर रहे हैं? अगर यह बात सहज होती है तो सिर्फ ध्यान करनेवालों को छोड़कर बाकी सब को होनी चाहिए। इतनी बड़ी पृथ्वी पर चार अरब लोग हैं, कितने लोग ध्यान कर रहे हैं? अरबों लोग ध्यान नहीं कर रहे हैं। अगर ध्यान न करने से ही विधि पूर्ण हो जाती है और ध्यान लग जाता है, तो सिर्फ ध्यानी भर चूकता, गैर-ध्यानी सब पा लेते। अगर बात स्वाभाविक है तो घटती क्यों नहीं?
फिर कृष्णमूर्ति किसको समझा रहे हैं? क्या प्रयोजन है समझाने का? जो बात स्वाभाविक है, स्वाभाविक है; समझाने से अस्वाभाविक हो जाएगी। समझाने से अड़चन हो जाएगी। फिर तो आदमी जैसा है, बिलकुल ठीक है।
नहीं; कृष्णमूर्ति व्यर्थ नहीं समझा रहे हैं। आदमी जैसा है, वैसे ही ध्यान को उपलब्ध नहीं हो जाएगा। और जो लोग ध्यान नहीं कर रहे हैं, प्रमाण है इस बात का कि वे ध्यान को उपलब्ध नहीं हो गए हैं।
फिर, कृष्णमूर्ति का प्रयोजन क्या है, जब वे कहते हैं कि कोई विधि का अभ्यास मत करो? तुम मुझे समझोगे, तो ही उस बात का प्रयोजन समझ में आयेगा। क्योंकि कृष्णमूर्ति का दृष्टिकोण थोड़ा एकांगी है, समग्र नहीं है। मैं विधि भी सिखाता हूं, अविधि भी सिखाता हूं। मेरा दृष्टिकोण सर्वांगीण है। मैं कहता हूं: पहले खूब विधि साधो। इतनी साधो कि साधते-साधते थक जाओ, चरम अवस्था में पहुंच जाओ साधने की। जितनी साध सको उतनी साधो। शिखर पर पहुंच जाओ। और फिर भी तुम पाओगे--अभी ध्यान नहीं मिला है, अभी ध्यान नहीं मिला है। दौड़ो, दौड़ो जितना दौड़ सको, दौड़ो और पाओगे कि ध्यान है कि क्षितिज जैसा दूर हटा जाता है...! और ध्यान है कि लगता है मिला, मिला, मिला...और मिलता नहीं। और इतने पास है कि चार कदम और दौड़ लूं तो मिल जाए, हाथ आ जाए।
और मैं कहता हूं: और जोर से दौड़ो, और जोर से दौड़ो...। एक दिन दौड़ते दौड़ते ही जब तुम्हारी दौड़ने की सारी क्षमता टूट जाएगी, चुक जाएगी, जब तुम अपने-आप गिर पड़ोगे--उस गिरने में ही घटना घटेगी।
ध्यान की विधि से ध्यान नहीं मिलेगा; लेकिन ध्यान की विधि का उपयोग करते-करते एक दिन इतने थक कर गिरोगे कि करने को कुछ भी बचेगा नहीं। उस अविधि में, उस अप्रयास के क्षण में ध्यान बरस जाता है।
इसलिए जो ध्यान नहीं कर रहे हैं उनको ध्यान नहीं मिल रहा है और जो ध्यान कर रहे हैं उनको ध्यान नहीं मिल रहा है। ध्यान उनको मिलता है जो ध्यान करते हैं और करते-करते उस जगह पहुंच जाते हैं जहां आगे करने को कुछ भी शेष नहीं रह जाता। करने की थकान से टूट कर गिर जाते हैं, उनको ध्यान मिलता है।
तो अगर तुम मुझसे पूछो कि संक्षिप्त में मेरा क्या संदेश है? विधि को साधो, ताकि अविधि को उपलब्ध हो सको। और जिस दिन अविधि को उपलब्ध होते हो, उस दिन ध्यान अपने-आप बरस जाता है। ध्यान सहज-स्वाभाविक है। मगर सहज-स्वाभाविक ध्यान, सिर्फ न करने से नहीं मिलता है। कर के, कर-कर के न करने की दशा उपलब्ध हो जाती है, तब मिलता है।
ऐसे बुद्ध को मिला। छः वर्ष अथक विधि है। सब दांव पर लगा दिया, कुछ भी बचाया नहीं। और छह वर्ष सब दांव पर लगाने के बाद एक सांझ पाया, पाया क्या? कुछ भी तो मिला नहीं! सब किया जो किया जा सकता था; मानवीय रूप से जो भी संभव था, सब किया। कुछ मिला तो नहीं! उस रात थक गए थे, बुरी तरह थक गए थे। उस रात ध्यान भी छोड़ दिया, विधि भी छोड़ दी, योग भी छोड़ दिया, तप भी छोड़ दिया। उनके पांच शिष्य थे, वे यह देख कर कि उन्होंने तप-जप, ध्यान सब छोड़ दिया, बुद्ध को छोड़ कर चले गए। उन्होंने कहा: यह तो भ्रष्ट हो गए, गौतम भ्रष्ट हो गया! स्वभावतः वे बुद्ध के पीछे इसलिए लगे थे कि वे बुद्ध की तपश्चर्या से बड़े प्रभावित हुए थे। तीनत्तीन महीने के बुद्ध ने उपवास किए। उनमें पांचों में से कोई भी तीन महीने का उपवास नहीं कर सकता था, इसलिए वे प्रभावित थे। कोई तीन सप्ताह कर सकता था, कोई चार सप्ताह; तीन महीने का उपवास कोई भी नहीं कर सकता था, तो वे प्रभावित थे कि यह है गुरु! शरीर को सुखा डाला था! उन्होंने बहुत गुरु देखे थे, लेकिन ऐसा गुरु नहीं देखा था--तपस्वी! कहानी कहती है कि पेट पीठ से लग गया था। शरीर को ऐसा सुखा डाला था कि छाती की एक-एक हड्डी गिनी जा सकती थी। चमड़ी और छाती के बीच में मांस-मज्जा बिलकुल नहीं रह गए थे, चमड़ी सीधी हड्डियों से जुड़ गई थी।...इसीलिए तो वे प्रभावित थे!
इस दुनिया में लोगों के प्रभावित होने के भी अजीब-अजीब ढंग हैं! लोग इतने रुग्ण हैं कि गलत चीजों से प्रभावित होते हैं! कोई आदमी सिर के बल खड़ा है, उससे प्रभावित हो जाते हैं। अगर परमात्मा की यही मर्जी थी तो सभी को सिर के बल खड़ा किया होता; यह भूल क्यों करता परमात्मा कि पैर के बल खड़ा करता! अब यह जो मूढ़ सिर के बल खड़ा हो गया है...ये योगिराज हो जाते हैं! अगर परमात्मा की यही मर्जी थी कि पेट पीठ से लग जाए, तो पेट पीठ से ही लगा हुआ पैदा किया होता।
जिस दिन बुद्ध ने घोषणा कर दी कि बस, जो मैं कर सकता था कर चुका, और मैंने पाया कि यह सब व्यर्थ है, यह सब आयोजन व्यर्थ है! मैं आज सब त्याग रहा हूं। संसार मैं पहले छोड़ चुका था, साधना आज छोड़ रहा हूं। जिस दिन उन्होंने यह घोषणा की (संसार तो छोड़ ही चुके थे)...साधना भी छोड़ रहा हूं; इस लोक से तो थक ही गया था, अब उस लोक से भी थक गया...इहलोक छोड़ा, परलोक भी छोड़ता हूं--उसी दिन पांचों शिष्यों ने आपस में विचार किया कि गौतम भ्रष्ट हो गया! अब हम इसके पास रह कर क्या करें? वे छोड़ कर चले गए।
और बुद्ध उसी रात समाधि को उपलब्ध हुए, उसी रात! क्योंकि उस रात चिंता न रही, पाने की कोई आकांक्षा न रही--न इस लोक में न परलोक में। ध्यान और समाधि पाने की वासना भी न रही।
वासना मात्र बाधा है। तुम विधि का उपयोग क्यों करते हो, क्योंकि वासना है--ध्यान पाना चाहते हो कोई धन पाना चाहता है, तुम ध्यान पाना चाहते हो। पाना चाहने में तो कुछ भेद नहीं है, चाह तो है! और चाह दोनों को खींचेगी भविष्य की तरफ। और चाह विश्राम में न उतरने देगी। और चाह दौड़ाएगी...चाह ठहरने न देगी। और चाह चित्त को चलाएगी और चंचल रखेगी। और चाह रहेगी तो चित्त चलता रहेगा, चित्त में चलने की गरमी बनी रहेगी। फिर धन पाना है कि ध्यान, भेद नहीं पड़ता; कुछ भी पाना है तो महत्वाकांक्षा है। और जहां महत्वाकांक्षा है वहां मन है, और जहां मन है वहां ध्यान कहां!
उस रात सारी महत्वाकांक्षा छूट गई। उस रात कोई भाव न था, कोई विचार न था, कोई भविष्य न था। उस रात सो रहे।...लेटे थे, पूर्णिमा की रात थी। पूर्णिमा के प्रकाश में सूखी देह...अत्यंत कृशकाय हुए...अमानवीय मालूम होते होंगे भूत-प्रेत जैसे मालूम होते होंगे! एक स्त्री ने मनौती मनाई थी कि उस वटवृक्ष को, पूर्णिमा की रात, अगर वह गर्भिणी हो जाएगी, तो खीर भेंट करेगी। वह गर्भिणी हो गयी थी...पूर्णिमा की रात आ गई थी तो वह सुजाता नाम की स्त्री, थाल में खीर भर कर, मिष्ठान्न लेकर, सुस्वादु भोजन लेकर, वटवृक्ष को चढ़ाने आई थी, निरंजना नदी के तीर पर। देखा वहां उसने...उस पूर्णिमा के प्रकाश में जैसे वटवृक्ष का देवता स्वयं प्रकट हुआ हो! वह तो भाव-विभोर हो उठी; चरण छुए और कहा: हे वटवृक्ष के देवता, मैंने तो कभी कल्पना भी न की थी कि आप प्रकट होकर लेंगे! मगर मैं धन्यभागी हूं, मेरी भेंट स्वीकार करें!
कोई और दिन होता तो बुद्ध पहले तो रात को रात्रि भोजन ही नहीं करते, रात्रि भोजन तो पाप था! फिर अपरिचित, अनजान महिला, जिसका नाम सुजाता हो! ध्यान रखना, सुजाता नाम की महिला जरूर ही शूद्र रही होगी; क्योंकि सुजात नाम रखते ही कुजात हैं, नहीं तो कौन सुजाता नाम रखेगा! तुम देखते हो न, जिसका नाम सुंदरबाई...समझ जाना! नयनसुख दास...समझ जाना! जब तक आंखें खराब न हों, तब तक कोई नयनसुख दास नाम होता है! सुंदरबाई! उसका मतलब है साफ है मामला--जो नहीं है, उसको नाम से आरोपित किया गया है।
सुजाता! सुजात न रही होगी, ब्रह्मण न रही होगी क्षत्रिय न रही होगी। क्योंकि ब्राह्मण ऐसे नाम रखते हैं--सुजाता! क्या प्रयोजन है? कुजात रही होगी, शूद्र रही होगी। यह भी न पूछा कि तेरी जात क्या है? और दिन होता तो पूछते थे, जात क्या है? और दिन होता तो ऐसे ही अनजान अपरिचित व्यक्ति से आधी रात में मिष्ठान्न और खीर स्वीकार न कर लेते। और खीर और मिष्ठान्न तो वर्षों से नहीं लिए थे; जब से महल छोड़ा था, तब से नहीं लिए थे। मगर अब कोई अड़चन न रही। जब कुछ पाना ही न था तो खोने को क्या था!...चुपचाप अंगीकार कर लिया। वर्षों बाद पहली बार ठीक से भोजन किया, और पहली बार ठीक से सोए निश्चिंत। जब कोई चिंता न थी तो कोई स्वप्न भी न बने उस रात। चिंताओं की ही छाया तो स्वप्न है। रात सन्नाटे में बीत गई--एक गहन सन्नाटा!
पतंजलि ने कहा है: समाधि और सुषुप्ति में भेद नहीं है। बस इतना सा भेद है कि सुषुप्ति है बेहोश और समाधि है होशपूर्ण; अन्यथा सुषुप्ति और समाधि का एक ही रंग, एक ही ढंग, एक ही स्वाद है। उस रात स्वप्न तो नहीं थे, इसलिए प्रगाढ़ सुषुप्ति रही। और सुबह जब आंख खोली...भोर का आखिरी तारा डूबता था। उस आखिरी तारे को डूबते देखकर डूबते देखकर, भीतर भी कुछ आखिरी हिस्सा डूब गया अहंकार का...। अहंकार ही तो है जो कहता है--धन पाओ। और अहंकार ही तो है, निपुण शास्त्री, जो कहता है--ध्यान पाओ। अहंकार ही कहता है कि संसार में बन जाओ सिकंदर, और अहंकार कहता है कि परलोक में हो जाओ महावीर, बुद्ध, कृष्ण! ये अहंकार की ही आकांक्षाएं हैं।
...डूबता आखिरी तारा अहंकार बिलकुल डूब गया! न कुछ पाने को है न कहीं जाने को है। जैसा है वैसा ठीक है। तथाता का भाव पैदा हुआ। इसलिए बुद्ध का एक नाम पड़ा: तथागत! जो है, जैसा है, ठीक है। जैसा है बिलकुल वैसा ही ठीक है। यथाभूतम! जैसा है, बस बिलकुल वैसा ही ठीक है। इसमें कुछ भी नहीं करना है। अन्यथा कुछ होना नहीं है, करना नहीं है। समाधि खिल गयी! समाधि का नीलकमल खिल गया!
यही मेरा कृष्णमूर्ति से भेद है; मैं उनसे सहमत भी और असहमत भी। सहमत, क्योंकि वे आधी बात कह रहे हैं; आधी बात तो सच है। असहमत, क्योंकि आधी बात मौजूद नहीं है। सीढ़ी का आखिरी हिस्सा तो है, सीढ़ी का पहला हिस्सा नहीं है। और बिना पहले हिस्से के तुम आखिरी हिस्से पर न पहुंच सकोगे। यद्यपि आखिरी हिस्से पर पहुंचना है, मगर पहला हिस्सा कहां है? सीढ़ी तब पूरी होती है जब जमीन और आसमान दोनों को छुए। क्योंकि जमीन पर हम खड़े हैं, अगर सीढ़ी जमीन न छुए तो हम चढ़ेंगे कैसे? और अगर सीढ़ी आसमान न छुए तो चढ़ने का फायदा क्या, कहीं बीच में लटके त्रिशुंक हो जाएंगे।
एक तरफ लोग हैं महर्षि महेश योगी जैसे; उनके पास भी आधी सीढ़ी है--सीढ़ी का पहला हिस्सा, विधि मात्र। दूसरी तरफ कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्ति हैं; उनके पास सीढ़ी का दूसरा आधा हिस्सा है--विधि नहीं, प्रयास नहीं, सहजता। दोनों अधूरे हैं। महर्षि महेश योगी के साथ जो चलेगा, विधि पर अटक जाएगा--बुद्ध के पहले छह वर्ष! कृष्णमूर्ति के साथ जो चलेगा, चल ही नहीं पाएगा। भ्रांति में रहेगा कि चल रहा हूं। सब चलना बौद्धिक रहेगा, सोच-विचार का रहेगा, जीवंत नहीं होगा। क्योंकि सीढ़ी का पहला हिस्सा मौजूद नहीं है, तुम दूसरे हिस्से पर पहुंचोगे कैसे? तुम जमीन पर हो, सीढ़ी आकाश में लगी है! तुम्हारे और सीढ़ी के बीच में इतना फासला है, इसको कैसे पार करोगे?
मैं समग्रता की बात कर रहा हूं--अनंत आयामी समग्रता की बात कह रहा हूं। सब दिशाओं में समग्रता की बात कह रहा हूं! विधि को करो और समग्रता से करो; उसी में खिलेगा फूल अविधि का! और अविधि से सुवास उठती है समाधि की!

आखिरी प्रश्न:

भगवान! संन्यास लूं या नहीं, डर लगता है संसार का। झेल पाऊंगा लोगों का विरोध या नहीं?

विरोध तो सुनिश्चित है।...और झेल पाओगे। आत्मवान होओ। अगर विरोध न झेल पाओगे, तो इसका सबूत होगा कि मुर्दे हो, जिंदा नहीं हो। आत्मा भीतर है, सब झेलने में समर्थ है। और फिर कुछ आंधीत्तूफान चाहिए आत्मा को प्रगाढ़ करने के लिए, आत्मा को एकाग्र करने के लिए। आत्मा के निखार के लिए कुछ आंधीत्तूफान चाहिए।
फूल कांटों में खिला था, सेज पर मुरझा गया।
जगमगाता था ऊषा-सा कणकों को में वह सुमन,
स्पर्श से उसके तरंगित था सुरभिवाही पवन
ले कपूरी पंखुरियों में फुल्ल मधुऋतु का सपन,
फूल कांटों में खिला था, सेज पर मुरझा गया।
प्रखर रवि का ताप, झंझा के असह झोंके कठिन,
कर न पाए उस तरुण संघर्ष-कामी को मलिन,
किंतु झाड़ी से अलग हो रह न पाया एक दिन,
फूल कांटों में खिला था, सेज पर मुरझा गया।
जो अडिग रहता अड़ा तूफान में, बरसात में,
टूट जाता है वही तारा शरद की रात में,
मुक्त जीवन की प्रगति भी द्वंद्व में, संघात में
फूल कांटों में खिला था, सेज पर मुरझा गया।
कांटों से डरो न। आंधियों से भगो न। तूफानों में ही आत्मा का जन्म होता है।
संन्यास लोगे, अड़चनें तो होंगी; बहुत अड़चनें होंगी, सब तरफ की अड़चनें होंगी। मैं तुम्हें आश्वासन नहीं दे सकता कि अड़चन नहीं होंगी। इतना ही आश्वासन दे सकता हूं कि तुम उन सारी अड़चनों को झेल सकने में समर्थ हो। प्रत्येक व्यक्ति समर्थ है। जो भी जीवंत है, समर्थ है। और झेल सकोगे तो निखरोगे! और झेल सकोगे तो कितने ही कांटे हों, फूल को खिलने से न रोक पाएंगे।
लेकिन तुम्हारी चिंता भी मैं समझता हूं; तुम्हारी ही नहीं, सबकी चिंता है। ऐसा ही हमारा मन है। मन हमेशा दुविधा में है। मन दुविधा है--करूं, न करूं? और ऐसा नहीं है कि कोई बड़े-बड़े सवालों में दुविधा है, छोटे-छोटे सवालों में--इस फिल्म को देखने जाऊं कि उस फिल्म को देखने जाऊं? यह साड़ी पहनूं कि वह साड़ी पहनूं? स्त्रियां खोलकर खड़ी हो जाती हैं अपने भंडार को! और घंटों लग जाते हैं यही तय करने में कि कौन सी साड़ी पहनूं!
मन दुविधा है। ताला लगा कर लोग जाते हैं घर में, फिर दस-पांच कदम के बाद लौट आते हैं और खटखटा कर देखते हैं--लगा गए कि नहीं! जो होशियारे हैं, वे तो और भी गजब कर देते हैं!
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे कह गई थी कि दरवाजे पर नजर रखना। गई थी बाहर शादी-विवाह में किसी के घर और देर से लौटेगी रात। मुल्ला किसी तरह थोड़ी-बहुत तो देर देखता रहा, दरवाजे को अब कब तक बैठे देखते रहें! उसे जाना मधुशाला है। सो उसने उखाड़ा दरवाजा, रखा कंधे पर और चल पड़ा। रास्ते में पत्नी आती थी, वह मिली कि कहां जा रहे हो, और यह दरवाजा कहां ले जा रहे हो? उसने कहा: तू कह गई कि दरवाजे पर नजर रखना। अब कब तक वहीं बैठा रहूं! तो रखूंगा दरवाजे पर नजर। जब जहां भी बैठूंगा, वहीं सामने रख लूंगा और नजर रखे रहूंगा।
मन का अर्थ ही यही होता है कि जो सदा बंटा हुआ है,जो सदा द्वंद्व में है--कहता है बाएं चलो, कहता है दाएं चलो; जो कभी एकजूट नहीं होता। और उसको एकजूट करने का एक ही उपाय है कि जीवन में कुछ ऐसे निष्कर्ष लो जो तुम्हारी सारी शैली को बदल जाएं,जो तुम्हें आमूल रूपांतरित कर जाएं। जीवन में कुछ ऐसे निष्कर्ष लो कि वे निष्कर्ष तुम्हारे टूटे हुए खंडों को जोड़ जाएं।
फिक्रे-दिलदारी-ए-गुलजार करूं या न करूं
जिक्रे-मुर्गाने-गिरफ्तार करूं या न करूं
किस्सा-ए-साजिशे-अगयार कहूं या न कहूं
शिकवा-एक-यारेत्तरहदार करूं या न करूं
जाने क्या वज्अ है अब रस्मे-वफा की, ऐ दिल
बज्ए-दैरीना पे इसरार करूं या न करूं
जाने किस रंग में तफसीर करें अहले-हवस
मदहे-जुल्फ-ओ-लब-रुखसार करूं या न करूं
यूं बहार आई है इमसाल की गुलशन में सबा
पूछती है गुजर इस बार करुं या न करुं
गोया इस सोच में है दिल में लहू भरके गुलाब
दामन-ओ-जेब को गुलनार करूं या न करूं
है फकत मुर्गे-गजलख्वां कि जिसे फिक्र नहीं
' तदिल गर्मी-ए-गुफ्तार करूं या न करूं
सुनते हो!...
गोया इस सोच में है दिल में लहू भरके गुलाब
दामन-ओ-जेब को गुलनार करूं या न करूं
जैसे गुलाब तैयार है--सुर्खी से लबालब भीतर, और सोच रहा है कि इस बार खिलूं या न खिलूं! इस बार सुगंध उड़ाऊं कि न उड़ाऊं!
गोया इस सोच में है दिल में लहू भरके गुलाब
दामन-ओ-जेब को गुलनार करूं या न करूं
संन्यास का भाव जगा तो गैरिक रंग तुम्हारे हृदय में भर गया है, इसलिए जगा।
गोया इस सोच में है दिल में लहू भरके गुलाब
दामन-ओ-जेब को गुलनार करूं या न करूं
अब क्या झिझकते हो, अब कैसी झिझक? अगर हृदय में गैरिक रंग छाया है तो खिल जाने दो गुलाब को अब, अब छा जाने दो बाहर भी। अड़चनें तो आएंगी। अड़चनें स्वाभाविक हैं। और अड़चनें सौभाग्य हैं। क्योंकि अड़चने न आएं तो तुम कभी विकसित न होओगे, और आंधियां न आए तो कभी आत्मा न जगेगी।
है फकत मुर्गे-गजलख्वां कि जिसे फिक्र नहीं।...सिर्फ एक गाता हुआ पंछी ही है कि जिसे चिंता ही नहीं है, वह गाए ही चला जा रहा है। गुलाब सोच में पड़ा है कि खिलूं या न खिलूं! है फकत मुर्गे-गजलख्वां कि जिसे फिक्र नहीं। लेकिन एक पक्षी भी है जो गाए चला जा रहा है। मो तदिल गर्मी-ए-गुफ्तार करूं या न करूं!
उसे गर्मी और सर्दी की भी चिंता नहीं है--गाए ही चला जा रहा है। सुबह हो कि सांझ हो, गाए ही चला जा रहा है। कि दुपहरी हो कि आधी रात हो कि गाए ही चला जा रहा है।
मेरा गीत सुनो, मैं गाए चला जा रहा हूं।
है फकत मुर्गे-गजलख्वां कि जिसे फिक्र नहीं
मो तदिल गर्मी-ए-गुफ्तार करूं या न करूं
और एक तुम हो कि भीतर संन्यास का भाव उठा है, अब तुम सोच रहे हो: संन्यास लूं या नहीं? भाव न उठे, तो कभी मत लेना। भाव न उठे तो प्रश्न ही नहीं उठता। भाव न उठे तो भूल कर मत लेना। किसी की नकल मत करना। किसी और ने लिया हो, इसलिए मत ले लेना। क्योंकि वह झूठ होगा और उसका कोई अर्थ नहीं होगा।
लेकिन भाव उठा हो, तो फिर सारी दुनिया भी कहे तो रुकना मत। फिर तो जितना ही दुनिया रोके, उतना ही रुकना मत। क्योंकि यह जीवन तुम्हारा है, और इस जीवन को जीने का निर्णय तुम्हारा होना चाहिए। तुम्हारे उस संकल्प में ही तुम्हारी साधना की शुरुआत है।
आज इतना ही।



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