वादक, मैं हूं मुरली तेरी—छठवां प्रवचन
छठवां
प्रवचन
दिनांक
१६ मार्च,
१९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना
जिज्ञासाएं
1—शिविर
में पहुंचकर भी भेद क्यों दीखता है? संन्यस्त होते ही क्या फासला मिट जाता है? क्या आशीर्वाद केवल
संन्यासियों के लिए ही है?
2—परमपद
की प्राप्ति के लिए गैरिक वस्त्र और माला और गुरु कहां तक सहयोगी हैं?
3—कितने
ढंग से आप वही-वही बात कहे जा रहे हैं! क्या सत्य को इतने शब्दों की आवश्यकता है?
4—चरित्र
और व्यक्तित्व में क्या भेद है?
5—मैं
शंकालु हूं और श्रद्धा सधती नहीं। कृपया मार्ग बताएं।
यह न
सोचा था तेरी महफिल में दिल रह जाएगा
हम यह
समझे थे चले आएंगे दम भर देख कर।
पहला
प्रश्न: शिविर में पहुंच कर भी भेद क्यों दीखता है? संन्यस्त होते ही क्या फासला
मिट जाता है?
क्या
आशीर्वाद केवल संन्यासियों के लिए ही है? क्या आशीर्वाद जीवनमात्र के लिए नहीं है?
आशीर्वाद
तो सबके लिए है। लेकिन आशीर्वाद मेरे देने से ही तुम्हें मिल जाएगा, ऐसा नहीं है; तुम लोगे तो ही मिलेगा। नदी
तो बह रही है,
सबके
लिए बह रही है। वृक्ष भी पी लेंगे पानी, पशु-पक्षी भी, मनुष्य भी। पर जो भी पीएगा
वही पी सकेगा। तुम अगर किनारे पर अकड़ कर खड़े रहे तो नदी तुम्हारी अंजुली में न आ
जाएगी। झुकना पड़ेगा, अंजुली
भरनी पड़ेगी,
तो ही
पी सकोगे। न पी नदी, न पीया
जल, तो नदी की शिकायत मत करना।
नदी तो बह रही थी।
लेकिन
आदमी बड़ा उलटा है। आशीर्वाद न मिले तो सोचता है आशीर्वाद दिया न गया होगा। लेकिन
आशीर्वाद लेने की क्षमता है? आशीर्वाद
स्वीकार करोगे?
आशीर्वाद
सस्ता मामला तो नहीं। शायद तुम सोचते होओ, मुफ्त मामला है। आशीर्वाद तो आग है--जलाएगा, बदलेगा, रूपांतरित करेगा। हिम्मत
चाहिए!
संन्यास
का और क्या अर्थ है? इतना
ही अर्थ है कि कोई झुका, उसने
अंजुली बनाई,
वह नदी
के साथ संबंध बनाने को राजी हुआ। संन्यास का इतना ही अर्थ है कि तुम आशीर्वाद लेने
को तत्पर हुए,
तुमने
अपना पात्र आगे बढ़ाया, कि
तुमने अपनी झोली आगे बढ़ाई। आशीर्वाद तो बरस ही रहा है, लेकिन तुम झोली ही न बनाओगे
तो आशीर्वाद तुम्हारे हाथ न पड़ेगा।
वर्षा
होती है,
पहाड़ों
पर भी होती है,
लेकिन
पहाड़ खाली के खाली रह जाते हैं। अपने से ही इतने भरे हैं। पहाड़ों पर वर्षा होती है, दौड़ता है पानी खाई खड्डों की
तरफ, दौड़ कर खाई-खड्डों में भर
जाता है,
झील बन
जाती है। क्या तुम कहोगे जल झीलों के लिए ही बरसा था, पहाड़ों के लिए नहीं? जल तो सब पर बरसा था; लेकिन पहाड़ बहुत अपने से भरे
थे, जल के लिए जगह न थी; उतना स्थान न था। झीलें खाली
थीं, जगह थी। आतुरता से उन्होंने
अपने द्वार खोल दिए। द्वार खुले ही थे, जल भर गया।
आशीर्वाद
तो निरंतर बरस रहा है--तुम पर भी, संन्यासी
पर भी,
इन
वृक्षों पर भी। लेकिन कौन कितना लेगा, यह उस पर ही निर्भर है।
संन्यास
का अर्थ इतना ही है, कुछ और
अर्थ नहीं है,
कि तुम
मेरे साथ चलने को राजी हो।
तुम
मुफ्त में ही आशीर्वाद लेना चाहते हो। तुम रत्ती भर अपनी जगह से हिलना नहीं चाहते।
और तुम रत्ती भर खाली नहीं होना चाहते हो, और झील बनना चाहते हो। मानसरोवर बनने की
आकांक्षा है और खाली होने की जरा भी हिम्मत नहीं।
संन्यास
साहस का नाम है। तुम डरे क्यों हो? तुम्हें रोक कौन रहा है संन्यास लेने से? भय क्या है? छोटे-मोटे भय हैं। लेकिन आदमी
चालाक है। अपने भय को भी लीप-पोत लेता है होशियारी में। भय को भी स्वीकार करना कि
भय है,
कठिन
मालूम होता है। क्योंकि भय को स्वीकार करना--अहंकार को चोट लगती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक रात मधुशाला से जल्दी ही उठ खड़ा हुआ। मित्रों ने कहा: "कहां चले? अभी तो सांझ ही हुई है।' मुल्ला ने कहा, आज ज्यादा न रुक सकूंगा; पत्नी ने कहा है दस बजे के
पहले ही घर वापस आ जाना। तो मित्र हंसने लगे। उन्होंने कहा: "मुल्ला, तुम आदमी हो कि चूहे।
पत्नियां हमारी भी हैं। इतना क्या भय?' मुल्ला छाती फैला कर खड़ा हो गया। छाती ठोंक
कर उसने कहा: "मर्द बच्चा हूं, मर्द बच्चा! भूल कर इस तरह की बात मत कहना।' तो किसी मित्र ने पूछा:
"तो प्रमाण दो न! अगर मर्द बच्चे हो तो प्रमाण दो।' तो मुल्ला ने कहा:
"प्रमाण! स्वतः प्रमाण है कि मेरी पत्नी चूहों से डरती है और मुझसे नहीं
डरती।'
आदमी
अपनी भयभीत अवस्था को भी स्वीकार नहीं करना चाहता।
तुम
पूछ रहे हो: "शिविर में पहुंच कर भी भेद क्यों दीखता है?'
क्योंकि
भेद है। और भेद तुम्हारी तरफ से है। तुम्हीं को दिख रहा है। वह जो भी गैर संन्यस्त
है, वह खुद ही सिकुड़ा-सिकुड़ा है, वह खुद ही डरा-डरा है। वह फैल
नहीं पाता,
मिल
नहीं पाता। वह डरता है। भय उसका यह है कि कहीं ज्यादा मिले-जुले, ज्यादा डूबे, कहीं सीमा के बाहर चले गए और
कहीं संन्यासी हो बैठे, फिर घर, फिर पत्नी, फिर बाजार, फिर दुकान, फिर समाज...! वह खुद ही
सम्हाल कर अपने को चलता है। चालाकी रखता है, गणित रखता है--इतने दूर तक जाना, इससे आगे नहीं जाना। और ये जो
गैरिक रंग में मस्त हुए लोग हैं, इनके
साथ भी वह दूरी रखता है, जरा
किनारे-किनारे खड़ा रहता है। इनके साथ भी पास आना खतरे से खाली नहीं है। क्योंकि यह
बीमारी संक्रामक है। यह छूत की बीमारी है। अगर तुम गैरिक लोगों के साथ ज्यादा देर
रहे तो तुम्हारे मन में भी गैरिक के सपने उठने लगेंगे।
तो भेद
तुम्हारे कारण है। तुम डरे हो, इसलिए
भेद है। भय के कारण भेद है। फिर तुम्हें लगता है कि तुम पर आशीर्वाद नहीं बरस रहा।
तुम्हें ऐसा क्यों लगता है? तुम्हें
इसलिए ऐसा लगता है कि तुम दूसरों को देखते हो बड़े आनंदित, मग्न; तुम आनंदित नहीं, तुम मग्न नहीं--तो उन्हें
आशीर्वाद मिल रहा होगा, तुम्हें
नहीं मिल रहा है। उन्हें कुछ विशेष मिल रहा है जो तुम्हें नहीं मिल रहा है।
जो
उन्हें मिल रहा है वही तुम्हें मिल रहा है। लेकिन वे पीए जा रहे हैं और तुम अपने
कंठ को अवरुद्ध किए बैठे हो। वे झुके हैं और अपनी झोली भरे जा रहे हैं और तुम डरे
हो। तुम्हारे डर के कारण ही भेद है, भय के कारण ही भेद है।
पूछते
हो: "संन्यस्त होते ही क्या सारा फासला मिट जाता है?'
संन्यस्त
होते ही सारा फासला नहीं मिट जाता, लेकिन फासले के मिटने की शुरुआत जरूर होती
है। सारा फासला तो मिटते-मिटते मिटेगा। जन्मों-जन्मों में बनाए हैं फासले, एक क्षण में न मिट जाएंगे।
समय लगेगा। धैर्य रखना पड़ेगा। लेकिन फासला मिटने की शुरुआत हो जाती है।
एक
आदमी बैठा है,
एक
आदमी खड़ा है,
एक
आदमी चल रहा है। तीनों एक ही जगह हैं अभी। एक आदमी बैठा, एक आदमी खड़ा, एक आदमी ने पहला कदम उठाया।
तीनों अभी एक ही जगह हैं, एक ही
लकीर पर हैं;
लेकिन
तीनों में बड़ा फर्क है। जो बैठा है, उसने फासला मिटाने की शुरुआत ही नहीं की। जो
खड़ा है,
कम से
कम बीच में है,
शायद
चल पड़े। जो बैठा है, उसे तो
खड़ा होना होगा,
तब
चलेगा न,
बैठे-बैठे
तो नहीं चल देगा! जो खड़ा है, वह
चलने वाले के थोड़े करीब है बैठने वाले की बजाय, क्योंकि अगर चलना चाहे तो सीधा चल सकता है।
और जिसने पैर उठा लिया वह कोई मंजिल पर नहीं पहुंच गया; वह भी अभी वहीं है जहां दोनों
हैं, लेकिन उसका फासला मिटना शुरू
हो गया। अगर एक कदम भी उठा लिया तो एक कदम का फासला तो कम हुआ न!
संन्यास
पहला कदम है;
फासले
के मिटने की शुरुआत है। और पहला कदम ही सबसे कठिन कदम है। फिर तो उठते जाते हैं
कदम पर कदम। पहला कदम ही सबसे कठिन कदम है। इसलिए पहले कदम को तुम आधी यात्रा
समझना।
महावीर
का बड़ा प्रसिद्ध वचन है कि जो चल पड़ा वह पहुंच गया। यह बात सच नहीं है; क्योंकि चल पड़ा, इससे पहुंच गया, जरूरी नहीं है; बीच से लौट आए, बीच में रुक जाए, दिल बदल जाए, धारणा बदल जाए। जो चल पड़ा वह
पहुंच गया,
यह बात
बिलकुल सच नहीं है। लेकिन इसमें बड़ा अर्थ तो है ही। इसमें सचाई कहीं छिपी तो है।
महावीर इसको इतना जोर दे कर इसलिए कह रहे हैं कि जो चल पड़ा उसकी आधी यात्रा तो
पूरी हो ही गई,
क्योंकि
आधी यात्रा पहले कदम पर ही पूरी हो जाती है। पहला कदम ही सबसे कठिन कदम है।
तुमने
अगर ओंठ से लगा लिया प्याला, जो मैं
तुम्हें दे रहा हूं कि पी लो, तो
करीब-करीब बात पूरी हो गई। ओंठ से कंठ की दूरी कितनी है? ओंठ से लग गया प्याला तो कंठ
तक पहुंच ही गया। लेकिन अगर ओंठ से ही न लगा, तुमने हाथों में ही न लिया, तो कंठ तक तो कैसे पहुंचेगा?
पूछते
हो: "क्या आशीर्वाद केवल संन्यासियों के लिए ही है?'
आशीर्वाद
सबके लिए है,
लेकिन
मिल केवल संन्यासियों को पाता है। इसे तुम ठीक से समझ ही लो। तुम्हारे सिर पर से
बह जाता है।
बुद्ध
के पास एक सम्राट मिलने आया। और उसने बुद्ध से कुछ प्रश्न पूछे। बुद्ध ने कहा:
"वर्ष दो वर्ष बाद आना। यह ध्यान की प्रक्रिया देता हूं, यह करो।' सम्राट थोड़ा दुखी हुआ। उसने
कहा: "मैं इतनी दूर से आया हूं। मैं कोई साधारण आदमी भी नहीं हूं। और मैंने
प्रश्न पूछे। और मैं प्रश्नों को बड़े दिन से सोच कर आया हूं। और मैंने अनेक से
पूछे हैं,
सबने
जवाब दिए हैं। आपने जवाब भी देने की चिंता नहीं की। और आप कहते हैं, ध्यान करके आओ, दो साल बाद आना। यह बात तो
अशिष्ट है। क्या आप मेरा अपमान करना चाहते हैं?'
बुद्ध
ने कहा,
नहीं।
बुद्ध ने कहा कि ऐसा समझो कि वर्षा होती है, एक घड़ा उलटा रखा है--तो वर्षा होती रहेगी, घड़े में एक बूंद जल भी न
पड़ेगा। फिर ऐसा समझो कि दूसरा घड़ा सीधा रखा है, लेकिन छेद-भरा है; वर्षा होती रहेगी, घड़ा भरता भी रहेगा और खाली भी
होता रहेगा। इधर वर्षा बंद हुई कि उधर घड़ा खाली हुआ। भरा हुआ दिखाई पड़ेगा, लेकिन भरेगा कभी नहीं, क्योंकि छिद्रवाला है, सब बह जाएगा। और फिर एक तीसरा
घड़ा है,
न तो
छिद्रवाला है न उलटा रखा है, लेकिन
गंदगी से भरा है;
वर्षा
तो हो जाएगी,
लेकिन
शुद्ध जो जल बरसेगा वह अपवित्र हो जाएगा, वह जहरीला हो जाएगा। उसको भूल कर पी मत
लेना। नहीं तो जीवन तो मिलेगा नहीं, मौत हाथ लगेगी। और तुम तीनों घड़े एक साथ हो, बुद्ध ने कहा। तुम विषाक्त, अपवित्र, जन्मों-जन्मों का न मालूम
कितना कूड़ा-कर्कट भरे बैठे हो! उलटे रखे और छेद वाले भी। दो साल के लिए ध्यान दिया
है ताकि घड़े को थोड़ा साफ कर लाओ। छिद्रों को थोड़ा भरो, घड़े को सीधा रखो। मैं तो
बरसने को तैयार हूं। लेकिन अभी वर्षा से कुछ प्रयोजन न होगा। तुम्हारे प्रश्न के
पूछ लिए जाने से ही उत्तर मिलना चाहिए, यह आवश्यक नहीं है। क्योंकि तुम उत्तर लेने
की पात्रता में भी हो या नहीं...।
तुम्हें
भी कठोर लगेगा,
बुद्ध
की बात कठोर मालूम होगी। लेकिन अत्यंत करुणा से कही है कि थोड़े तैयार हो कर आ जाओ।
संन्यास तैयारी है।
यहां
भी इतने लोग सुनते हैं, इसमें
भी तीन ही तरह के घड़े होते हैं। कुछ उलटे रखे हैं; वे यहां से खाली हाथ ही
जाएंगे। और अगर तुम उन्हें अपना खजाना बताओगे, तुम पर हंसेंगे। क्योंकि वे तो खाली आए हैं, "तुम कैसे भर सकते हो! कुछ
धोखे में पड़े गए हो। अंध श्रद्धालु हो, भावुक हो, समझ नहीं है।' वे तो समझदार हैं। उनके हाथ
कुछ लगा नहीं है। तुम्हें कैसे समझदार मान लेंगे? समझेंगे कि भोला-भाला है, श्रद्धालु है; विचार की कला नहीं आती, सोच-विचार नहीं है।
दूसरे
हैं जो सीधे रखे हैं, भरते
हैं बहुत बार। ऐसा लगने लगता है सुनते-सुनते उनको कि भर गए। मगर द्वार के बाहर भी
नहीं निकल पाते कि खाली हो जाते हैं; सब भूल-भाल जाता है। फिर वही के वही हो जाते
हैं छिद्रवाले। फिर तीसरे हैं कुछ, जो भर भी लेते हैं, छिद्र वाले भी नहीं हैं, सीधे भी रखे हैं; लेकिन जो भी उनमें पड़ता है, मेरा नहीं रह जाता। उनका मन
उसे विकृत कर डालता है। वे अपनी व्याख्या जोड़ देते हैं। वे अपने अर्थ डाल देते
हैं। यहां से कुछ ले जाते हैं, लेकिन
जो मैंने दिया था वे नहीं ले जाते। जो वे ले कर आए थे, उसी को थोड़ा और साज-संवार कर
ले जाते हैं। मैं,
उनका
जो कचरा था,
उसी
में पड़ जाता हूं।
तुम पर
निर्भर है।
संन्यास
का तो इतना ही अर्थ है कि तुम तैयार हो मांजने को अपने घड़े को; तुम तैयार हो मेरे रंग में
अपने घड़े को रंगने को; तुम
तैयार हो घड़े के छिद्र बंद करने को; तुम तैयार हो घड़े को सीधा रखने को। तुम भय
छोड़ते हो।
संन्यास
एक पुनर्जन्म है;
एक नया
जीवन। एक ढंग से तुम अब तक जीए हो। उस ढंग से तुमने कुछ पाया नहीं। पा लिया होता
तो फिर मेरे पास आने की भी कोई जरूरत नहीं, कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं। तुम्हारे
प्रश्न से ही लगता है कि जीवन में कुछ मिला तो नहीं है। यहां तुम कुछ पाने की तलाश
में आए हो। लेकिन तुम इस भांति पाना चाहते हो कि कुछ चुकाना न पड़े। तुम इस भांति
पाना चाहते हो कि तुम्हें कुछ खर्च न करना पड़े और मिल जाए। तुम इस भांति पाना
चाहते हो,
किसी
को पता भी न चले कानोंकान कि तुम्हें कुछ मिल गया है और मिल जाए। तुम हीरों के
मालिक होना चाहते हो, लेकिन
उस मालकियत के लिए जो साहस चाहिए, जो
दुस्साहस चाहिए,
वह
तुममें नहीं है।
जन्म
ले कर दुबारा न जन्मो
तो
भीतर की कोठरी काली रहती है
कागज
चाहे कितना भी चिकना लगाओ
जिंदगी
कि किताब खाली की खाली रहती है।
चिकने
कागज लगाने से कुछ भी नहीं होता, जब तक
कि सत्य न उतरे। और दुबारा जन्म लिए बिना...दुबारा जन्म का मेरा अर्थ है, एक जन्म तो तुम्हारे मां-बाप
ने दिया है,
एक
जन्म है जो गुरु से मिलता है। इसलिए तो हम गुरु को मां-बाप से भी ऊपर श्रद्धा देते
हैं। क्योंकि मां-बाप से जो देह मिली है, जन्म मिला है, जीवन मिला है, वह तो पार्थिव है, पौद्गलिक है, स्थूल है। गुरु से जो जीवन की
दिशा मिलती है वह सूक्ष्म है, चैतन्य
की है। गुरु से आत्मा मिलती है; मां-बाप
से देह मिली है। तो एक जन्म मां-बाप ने दिया है; दूसरा जन्म गुरु से मिलता है।
संन्यास
किसी के चरणों में झुक जाने के साहस का नाम है। और इस जगत में झुकने से बड़ा कोई
साहस नहीं है। अकड़ने को बड़ी बात मत समझ लेना। सभी बुद्धू अकड़े खड़े हैं। अकड़ने में
कोई बड़ा गौरव नहीं है। कला झुकने में है।
लाओत्सु
ने कहा है कि अकड़े खड़े रहते हैं बड़े वृक्ष, तूफान आता है और उखड़ जाते हैं। छोटे-छोटे
घास के तिनके,
छोटे-छोटे
पौधे, झाड़ियां, तूफान आता है, झुक जाते हैं; तूफान चला जाता है, फिर खड़े हो जाते हैं। घास को
तूफान उखाड़ नहीं पाता, क्योंकि
घास में लोचपूर्णता है। बड़े वृक्षों को उखाड़ देता है, क्योंकि बड़े वृक्ष अहंकारी
हैं।
यहां
एक तूफान बह रहा है। ये बातें नहीं हैं जो मैं तुमसे कह रहा हूं। यह तुम्हारी जड़ों
को हिला डालने वाला तूफान है, यह एक
आंधी है। अगर तुम अकड़ कर खड़े रहे तो लाभ तो होना मुश्किल है, हानि ही हो सकती है। टूट भी
सकते हो। अगर तुम झुके तो हानि होनी असंभव है, लाभ ही लाभ है। यह आंधी तुम्हें तरोताजा कर
जाएगी,
नया कर
जाएगी,
तुम्हारी
धूल-धवांस झाड़ जाएगी। तुम फिर खड़े हो जाओगे लहलहाते। यह आंधी संजीवनी हो जाएगी, आशीर्वाद हो जाएगी।
संन्यास
का अर्थ है,
कहते
हो तुम प्रभु से--और अभी प्रभु तो दूर, कहते हो गुरु से...। गुरु तो केवल गुरुद्वार
है। उसके माध्यम से तुम प्रभु के प्रति निवेदन करते हो। तुम कहते हो, तुम्हें तो देखा नहीं, तुमसे तो कुछ जान-पहचान नहीं, तुम्हारा कुछ पता-ठिकाना
नहीं। लेकिन कोई है जिसे तुम्हारा पता-ठिकाना है। तो हम अपना संदेश उसी के द्वारा
तुम्हारे पास तक पहुंचा देते हैं। हम अपनी प्रार्थनाएं उसी के द्वारा तुम तक
पहुंचा देते हैं।
गुरु
का अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो तुम जैसा है और तुम जैसा नहीं भी; जो कुछ-कुछ तुम जैसा है और
कुछ-कुछ तुमसे पार। गुरु का अर्थ है ऐसा व्यक्ति जिसका एक हाथ तुम्हारे हाथ में है
और एक हाथ अदृश्य के हाथ में है। अब अगर तुमने प्रेम से देखा तो गुरु का अदृश्य
हाथ भी तुम्हारी समझ में आना शुरू हो जाएगा, कि गुरु में कहीं-कहीं परमात्मा झांक रहा
है। अगर तुमने प्रेम से न देखा, समर्पण
से न देखा तो तुम्हें गुरु का भी वही स्थूल रूप दिखाई पड़ेगा जो आंखों को दिखाई
पड़ता है। तो गुरु को देखने के लिए शिष्य हुए बिना कोई उपाय नहीं है, क्योंकि शिष्य हो कर ही तुम
इस योग्य बनते हो,
झुकते
हो, सहानुभूति से देखते हो, प्रेम से, लगाव से, कि तुम्हें दूसरी तरफ जो
अदृश्य जगत है वह भी गुरु में से दिखाई पड़ने लगता है। गुरु तो एक झरोखा है।
वादक, मैं हूं मुरली तेरी
सांसें
दे कर मुझे बजाओ
मेरे
तन में स्वर सोए हैं
स्वयं
न जगते,
यह
कमजोरी
अधर-परस
की संजीवनी दे
मन में
मधु घोलो बरजोरी
जड़ता
हरो अहिल्या को छू
आत्म
चेतना आज लगाओ
वादक, मैं हूं मुरली तेरी
सांसें
दे कर मुझे बजाओ।
तुम्हें
तो पता नहीं कि कौन सी वीणा तुम्हारे भीतर सोई पड़ी है। तुम किसी संगीतज्ञ के पास
जाते हो,
कहते
हो जरा छेड़ो मेरी वीणा को, ताकि मैं
भी सुन लूं मेरे भीतर कौन सोया है, ताकि मैं भी थोड़ा जाग कर जान लूं मेरी
संभावना क्या है।
गुरु
के सान्निध्य में तुम्हें तुम्हारी संभावना की पहली झलक मिलती है।
मुखर
हो उठे पीड़ा मेरी
गूंज
उठे फिर सूना मधुवन
दर्द-पगी
ऐसी धुन छेड़ो
सुध-बुध
खो दे सुन कर त्रिभुवन
घावों
पर उंगलियां बदल कर
सरगम
नया उठाते जाओ
वादक, मैं हूं मुरली तेरी
सांसें
दे कर मुझे बजाओ।
मौन
रहूं तो सांसें घुटतीं
बिना
स्वरों के रहा न जाए
तुमसे
ही संबंध स्वरों का
तुम न
बजाओ, कौन बजाए?
इतने
तो निष्ठुर न बनो अब
सहा न
जाए, मत तरसाओ
वादक, मैं हूं मुरली तेरी
सांसें
दे कर मुझे बजाओ
मूक
पड़ी मंदिर में कब से
छोड़ो
अब तो मान बचा लो
एक आस
पर सांस टिकी है
जाने
किस दिन मुझे उठा लो
देह
बने शव उसके पहले
एक बार
बस अधर लगाओ
वादक, मैं हूं मुरली तेरी
सांसें
दे कर मुझे बजाओ।
संन्यास
का अर्थ है,
तुम
गुरु से निवेदन कर रहे हो कि मुझे तो पता नहीं कि मैं कौन हूं, तुम थोड़ा मुझे सुध-बुध में
लाओ; मुझे तो पता नहीं कौन मेरे
भीतर पड़ा है,
तुम
जरा हिलाओ-डुलाओ! तुम्हें तो पता है! मुझे तो पता नहीं है कि मेरी संपदा कहां है।
तुम्हें तो पता है, तुम
थोड़ा मेरी संपदा का मार्ग मुझे सुझाओ।
गुरु
के हाथ में हाथ दे देने का नाम है संन्यास। यह अपूर्व क्रांति है और केवल
दुस्साहसी कर पाते हैं। क्योंकि यह बड़ी कठिन बात है कि किसी के हाथ में हम अपने को
पूरा छोड़ दें। और पूरा छोड़ो तो ही छोड़ते हो। ऐसा थोड़ा-बहुत छोड़ा, हिसाब से छोड़ा कि हिसाब से
छोड़ेंगे और देखेंगे कुछ हो रहा है कि नहीं हो रहा, नहीं होगा तो वापस लौट
जाएंगे--तो तुमने छोड़ा ही नहीं। तो तुम संन्यासी भी हो जाओगे तो भी भेद जारी
रहेगा। भेद तुम्हारी तरफ से आएगा। ऐसे भी कुछ संन्यासी हैं जिन्होंने इस आशा में
छोड़ दिया है कि देख लें, अगर
कुछ हो तो ठीक है रुक जाएंगे, नहीं
हुआ तो कौन रोक सता है। ट्रेन में कपड़े बदल लेंगे, माल-वाला छिपा कर रख देंगे, अपने घर पहुंच जाएंगे, जैसे थे वैसे ही घर पहुंच
जाएंगे। ऐसे लोग भी हैं। अब मैं कोई पुलिस ले कर तुम्हारा पीछा करूंगा नहीं। यहां
तो ठीक है;
अमृतसर
में क्या करते हो,
मैं
क्या जानूं!
इस तरह
अगर संन्यास लिया तो भी भेद बना रहेगा। क्योंकि तुम चालाकी कर रहे हो। किससे
चालाकी कर रहे हो?
कम से
कम कोई तो जगह हो जहां तुम चालाकी न करो। कोई तो स्थान हो जहां तुम परिपूर्ण भाव
से सिर झुका दो;
जहां
तुम्हारी बेईमानी न हो, धोखा-धड़ी
न हो।
तो मैं
यह नहीं कह रहा हूं कि तुम संन्यास ले ही लो। मैं तुमसे कह रहा हूं, लो तो सोच कर लेना, समझ कर लेना, पूरा साहस हो तो लेना। और लो
तो फिर यह मत हिसाब रखना कि अब लौट जाएंगे। क्योंकि लौटने का मन बना रहा तो तुम
मेरे साथ चल ही न सकोगे। जिसे लौटना है वह चलेगा कैसे? वह कहेगा, इतने कदम चले, फिर लौटना पड़ेगा, यहीं अटके रहो। बातें करते
रहो कि चलूंगा,
जरूर
चलूंगा;
मगर
रुके रहो यहीं क्योंकि लौटना तो है।
लौटने
का मन रहा तो तुम इस यात्रा पर जा ही न सकोगे। एक ऐसी यात्रा है संन्यास जहां
तुम्हें लौटना नहीं है; गए तो
गए। तो जरूर घटेगा। तो परम से मिलन होगा। तो तुम मेरे आशीर्वाद की किरणों को
तत्क्षण पकड़ लोगे।
समर्पण
के प्रतीक
दूसरा
प्रश्न: भी पहले प्रश्न जैसा ही है। कुछ संबंधित है, इसलिए उसे भी समझ लेना जरूरी
है।
परमपद
की प्राप्ति के लिए गैरिक वस्त्र और माला और गुरु कहां तक सहयोगी हैं? और परमपद की प्राप्ति के बाद
भी इनकी क्या आवश्यकता रहती है?
अभी
परम प्राप्ति हुई नहीं, लेकिन
गैरिक और माला और गुरु से इतना डर है कि यह भी बात दिल को बड़ी सांत्वना देती है कि
कोई फिक्र नहीं,
थोड़े-बहुत
दिन के लिए पहन लो, ओढ़ लो; फिर तो परम प्राप्ति नहीं
होती। यह तो चित्त यात्रा पर गया ही नहीं। यह तो चलने के पहले ही रुकने की बातें
सोच रहा है। यह तो मंजिल पर पहुंचने के पहले ही मंजिल का हिसाब लगा रहा है। यह
बहुत हिसाब-किताबी चित्त है; ज्यादा
दूर तक नहीं ले जा सकता।
पहली
बात,
"परमपद
की प्राप्ति के लिए...'।
पहली
तो बात यह है कि परमपद इत्यादि की प्राप्ति जो है, सब लोभी मन की बातें हैं। ये
कोई संन्यस्त होने की बातें ही नहीं हैं। परमपद की प्राप्ति! यहां के पद नहीं मिल
रहे हैं तो परमपद की प्राप्ति! इधर चुनाव में कुछ आशा नहीं दिखती तो परमपद की प्राप्ति!
दिल्ली दूर मालूम होती है तो चलो परमपद! मगर परमपद चाहिए!
तुम
कभी अहंकार की ये आकांक्षाएं देखते हो? यह अहंकार नए-नए रूपों में फिर-फिर खड़ा हो
जाता है। इधर कहता था धन चाहिए, यश
चाहिए,
पद
चाहिए;
जब
यहां से किसी तरह से हटता है तो भी मौलिक स्वर नहीं बदलता। मौलिक स्वर वही का वही
है।
तुम
क्या खोज रहे हो धर्म में? अहंकार
ही खोज रहे हो?
तो
पहले से ही यात्रा गलत हो गई। धर्म का तो अर्थ ही यह है कि पदों में कुछ भी नहीं
रखा है,
परमपद
में भी कुछ नहीं रखा है। यह पद की दौड़ ही व्यर्थ है। यह पद की दौड़ अहंकार की ही
यात्रा है। और अहंकार में कुछ भी नहीं रखा है। अभी यहां अकड़ कर चल रहे थे, अगर तुम्हें मौका मिल जाए तुम
मोक्ष में भी अकड़ कर चलोगे।
तुम
जरा सोचो कभी बैठ कर शांति से कि मोक्ष पहुंच गए, तो तुम वहां भी अकड़ कर चलोगे।
वहां भी तुम आसन जरा ऊपर लगाओगे। वहां भी तुम यही खेल जारी रखोगे।
धर्म
की खोज का अर्थ ही इतना होता है कि हम अहंकार से थक गए हैं; अब अहंकार का कोई रस नहीं
रहा। अहंकार गिर जाए तो संन्यास। अहंकार नया-नया रूप रख ले तो संन्यास का अर्थ ही
इतना होता है कि हमने पूरी तरह से देख लिया, न पद में कुछ है...। जब पद में ही कुछ नहीं
तो परमपद में क्या होगा? क्योंकि
परमपद तो पद का ही बड़ा रूप होगा। धन में ही कुछ नहीं तो परमधन में क्या होगा? यहां कुछ नहीं तो वहां भी कुछ
नहीं।
तुम्हारा
स्वर्ग यहीं का विस्तार है। तुम जो यहां मांगते हो वही स्वर्ग में मांगते चले जाते
हो। और थोड़ा साज-संवार कर मांगते हो, मगर मांगते वही हो। जब तक मांग है, लोभ है, काम है, अहंकार है, तब तक जैसा परमपद? परमपद का अर्थ ही तुम्हारी
समझ में नहीं आया।
अक्सर
ऐसा हो जाता है कि संत कुछ कहते हैं, तुम कुछ समझ लेते हो। संत कहते हैं, उस दशा का नाम परमपद है जहां
अहंकार नहीं,
लोभ
नहीं, माया नहीं, मोह नहीं। उस स्थिति का नाम
परमपद है। और तुम्हारा लोभ इसको सुनता है: तुम कहते हो अब बढ़िया है, चलो तो परमपद ही पा लें; तो छोटे-मोटे पद में क्यों
समय गंवाएं। और यह तुम खयाल रखना, तुम्हारा
लोभ ही कह रहा है। तुम बिलकुल उलटी बात समझे। तुम चूक ही गए।
तो
पहली तो बात,
परमपद
की प्राप्ति की बात ही छोड़ो। प्राप्ति की बात ही छोड़ो। जब तक प्राप्ति का नशा है
तब तक परमात्मा न मिलेगा। क्योंकि परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है, उसे प्राप्त नहीं करना है।
तुम प्राप्ति में दौड़ते रहे, इसलिए
तो उसे चूकते चले गए। खोजा, इसलिए
खोया। जो है,
उसे
पाना थोड़े ही है। जब सब खोज छूट जाती है, सब दौड़ छूट जाती है, तुम बैठ रहे शांत हो कर
निर्वासना से भरे,
बंद हो
गई हवाएं और मेघ अब नहीं बनते-बिगड़ते, उस घड़ी तत्क्षण तुम पाते हो कि अरे, जिसे मैं खोजता था, यह रहा!
बुद्ध
को ज्ञान हुआ। किसी ने पूछा, क्या
मिला आपको?
तो
उन्होंने कहा: मिला कुछ भी नहीं; जो
मिला ही हुआ था,
उसकी
समझ आई। बस समझ आई, बस समझ
आई, मिला कुछ भी नहीं।
परमपद
पर तुम बैठे ही हो। तुम जहां हो वही परमपद है। तुम्हारी आत्मा जहां विराजमान है
वहीं परमपद है। जरा तुम भीतर झांक कर तो देखो, किस विराट सिंहासन पर तुम बैठे हो! मगर तुम
भिखारी बने घूम रहे हो! तुम घर कभी आते ही नहीं। तुम अपने में कभी लौटते ही नहीं।
कभी धन के पीछे,
कभी पद
के पीछे दौड़ रहे। और फिर अभी अगर इनसे थक भी गए, उदास भी हो गए तो फिर तुम नई
दौड़ शुरू कर लेते हो कि अब स्वर्ग पाना है, अब समाधि पानी है, अब मोक्ष पाना है।
तो न
तो परमपद की आकांक्षा करो, न
प्राप्ति की दृष्टि से संन्यास लो। नहीं तो संन्यास होगा ही नहीं। संन्यास का अर्थ
ही इतना है कि लोभ व्यर्थ हो कर गिर गया; अब तो जो है उसमें मजा लेंगे। पाने का तो मतलब
है कल होगा,
भविष्य
में होगा। परमात्मा अभी है। परमात्मा कल नहीं होगा। परमात्मा अभी है, यहीं है। मोक्ष तुम्हारी
आत्यंतिक दशा है;
अभी है, यहीं है। तुम शांत हो जाओ, यह तुम्हारे आसपास जो वासनाओं
का धुआं है,
यह हट
जाए, तो ज्योति अभी प्रगट हो जाए।
ज्योति सदा से है। सूरज बादलों में ढंग गया है।
तो
पहली बात तो यह..."परमपद की प्राप्ति के लिए गैरिक वस्त्र, माला और गुरु कहां तक सहयोगी
हैं?' तुम तो गुरु का, गैरिक वस्त्र का, माला का, सबका साधन की तरह उपयोग करना
चाहते हो। वहीं भूल हो गई। गुरु का और साधन की तरह उपयोग करना, तो एक तरह का शोषण हो गया।
मालिक तो तुम रहे,
गुरु
नौकर हो गया। तुम उपयोग करने वाले रहे, तुमको मोक्ष जाना है, तो गुरु की सीढ़ी पर पैर रख कर
चढ़ गए। और पीछे तुम धन्यवाद देने तक का भी विचार नहीं रखते हो। क्योंकि पीछे तुम
कहते हो: "और परमपद की प्राप्ति के बाद भी क्या इनकी आवश्यकता रहती है?' बड़ी आपकी कृपा कि चढ़े सीढ़ी पर, सीढ़ी धन्यभागी कि आपने कृपा
की; न चढ़ते तो सीढ़ी का क्या होता!
अपने चरण-कमल ले आए, चढ़ गए
सीढ़ी पर। न,
सीढ़ी
युगों-युगों तक आपका गुणगान करेगी।
गुरु
से संबंध प्रेम का है, शोषण
का नहीं। गुरु के साथ साधना का संबंध बनाओगे तो तुम मालिक रहे; तुम ऊपर रहे, गुरु का उपयोग कर लेना है। तो
यह अनैतिक बात हो गई। यह तो बात ही भद्दी हो गई। गुरु के साथ तो एक प्रेम का संबंध
है। यह संबंध कुछ ऐसा है कि जब गुरु को छोड़ने का वक्त आता है...जरूर आता है वक्त।
क्योंकि गुरु चाहता है कि जैसे एक दिन गुरु ने चाहा था कि मुझे पकड़ो, एक दिन चाहता है अब मुझे
छोड़ो। क्योंकि अब तुम स्वयं ही योग्य हो गए।
मां
अपने बेटे को हाथ पकड़ कर चलना सिखाती है। सदा हाथ थोड़े ही पकड़े रहेगी। क्योंकि सदा
हाथ पकड़े रहेगी तो यह तो बेटे का अहित हो जाएगा। एक दिन खुद हाथ छुड़ाती है, बेटा नहीं छोड़ना चाहता। बेटा
उसका पल्लू पकड़ कर उसके पीछे-पीछे घूमता है चौके से घर भर में। वह कहती है, छोड़ भी, अब तू चलने योग्य हो गया है, खुद अब तू पल्लू क्यों पकड़ कर
घूमता है?
एक दिन
गुरु स्वयं छुड़ाना चाहता है। और तब शिष्य छोड़ना नहीं चाहता। तब शिष्य कहता है, कैसे छोडूं? जिससे इतना मिला, उसे कैसे छोडूं? जिसके सामने गुरु और परमात्मा
दोनों खड़े हों तो शिष्य इतना पाया, उसे छोड़ कर अब कहां जाना है? ऐसी घड़ी आ जाती है कि शिष्य
कहता है: परमात्मा को छोड़ सकते हैं, गुरु को नहीं छोड़ सकते। क्योंकि यह परमात्मा
से तो कोई पहचान ही न थी। इनसे तो कोई नाता-रिश्ता ही न था। नाता-रिश्ता तो गुरु
ने बनाया। तो अगर छोड़ना ही होगा तो परमात्मा को छोड़ देंगे, गुरु रहा तो फिर संबंध बना
देगा। गुरु रहा तो ठीक है, द्वार
है, तो मंदिर में कभी भी प्रवेश
कर जाएंगे।
तो
आखिरी समय में जो झंझट होती है, वह
झंझट शिष्य की तरफ से नहीं होती कि वह छोड़ना चाहता है और गुरु पकड़ना चाहता है।
आखिरी समय जो झंझट होती है वह यह होती है, गुरु कहता है छोड़ भी; और शिष्य नहीं छोड़ना चाहता।
शिष्य का अर्थ ही यह होता है कि जिसने इतने समग्र भाव से प्रेम किया, वह कैसे छोड़ देगा! बड़ी पीड़ा
होती है। वह इसके लिए भी राजी है कि मोक्ष पड़ा रहे तो पड़ा रहे चाहे; बस गुरु के चरणों में पड़ा
रहूं, इतना काफी है। उसने गुरु के
चरणों में इतना पाया कि मोक्ष और ज्यादा कुछ दे सकेगा, इसकी बात ही नहीं उठती; और दे भी सके तो भी शिष्य इतना
अकृतज्ञ नहीं हो सकता कि एकदम छोड़ने को राजी हो जाए। जैसे पहले-पहले गुरु को शिष्य
का हाथ पकड़ने में कठिनाई होती, क्योंकि
शिष्य हाथ छुड़ाता है...अब ये ही सज्जन हैं, अब ये हाथ छुड़ा रहे हैं। अब मैं चाहूंगा कि
इनका हाथ पकड़ लूं। नाम तो इनका बड़ा प्यारा है: श्याम कन्हैया! मगर नाम ही मालूम
होता है। अभी न तो श्याम की तरफ जाने की कोई आकांक्षा जगी मालूम होती है, न हिम्मत होती है। मैं तो
चाहूंगा कि इनका हाथ पकड़ लूं, मगर वे
अभी से तैयारी कर रहे हैं; वे कह
रहे हैं,
कि छोड़
देंगे न पीछे?
जल्दी
छूट जाएगा न,
जब
परमपद की प्राप्ति हो जाएगी!
इस मन
से पकड़ा तो तुम मेरा हाथ पकड़ ही न पाओगे, तुम छुड़ाने में रहोगे। तुम कहोगे कि अब
जल्दी से जल्दी छूट जाए। तो परमपद तो मिल ही न पाएगा, क्योंकि इतनी जल्दबाजी में ये
घटनाएं नहीं घटतीं। ये तो बड़े धीरज के काम हैं। यह तो बड़ी शांति में घटती है। अनंत
धैर्य चाहिए।
तो
पहले तो "श्याम कन्हैया' का हाथ
पकड़ने में मुश्किल होगी। यह पहली झंझट। बामुश्किल अगर किसी तरह पकड़ में आ गए तो
दूसरी झंझट इससे भी बड़ी है। वह तब होगी जब मैं देखूंगा कि अब समय आ गया कि वे मुझे
छोड़ दें और छलांग लगा जाएं। तब और बड़ी झंझट होगी। क्योंकि अभी तो अहंकार के कारण
रुकावट पड़ रही है,
अहंकार
कोई बड़ी झंझट नहीं है। क्योंकि अहंकार की कोई सामर्थ्य क्या! अहंकार तो शून्य जैसा
है; नकार है; छाया है। उसकी कोई वास्तविकता
तो नहीं;
अंधेरे
जैसा है। तो अभी तो अंधेरे को छोड़ने के कारण इतनी झंझट हो रही है। अंधेरे को छोड़ने
को कह रहा हूं कि छोड़ दो, रोशनी
लिए सामने खड़ा हूं कि यह रहा दीया, पकड़ो यह हाथ। अभी तुम अंधेरे को पकड़ रहे हो, रोशनी पकड़ने में मुश्किल हो
रही है। जरा सोचो उस दिन की जिस दिन रोशनी को तुम पकड़ लोगे और मैं तुमसे कहूंगा
छोड़ दो यह रोशनी और उतर जाओ परमात्मा के विराट में। उस वक्त तुम कहोगे, नहीं। अंधेरा छोड़ने में इतनी
झंझट कर रहे हो तो रोशनी छोड़ने में तो बहुत झंझट करोगे। और रोशनी का रस और रोशनी
का उत्सव,
संगीत, रोशनी की उमंग, रोशनी का आनंद, कैसे छोड़ोगे? गुरु छुड़ाता है।
अब यह
बड़े मजे की बात है। गुरु पकड़ता है एक दिन और एक दिन गुरु छुड़ाता भी है। और दूसरा
संघर्ष ज्यादा बड़ा संघर्ष है। और गुरु जब छुड़ा भी लेता है, तब भी शिष्य की कृतज्ञता का
अंत नहीं। सच तो यह है, गुरु
के हाथ में हाथ रख कर शिष्य जितना कृतज्ञ होता है, जिस दिन गुरु हाथ छुड़ाता है, उस दिन कितना ही तड़पे, लेकिन जब हाथ छूट जाता है तो
भी महा कृतज्ञ होता है। क्योंकि गुरु के हाथ में तो दीया था, जब दीए को भी शिष्य छोड़ देता
है तो महासूर्य का प्रकाश उपलब्ध होता है। गुरु के हाथ में तो बूंद थी अमृत की, बूंद को छोड़ कर सागर उपलब्ध
होता है।
तो
शिष्य तब तो और भी कृतज्ञ हो जाता है कि गुरु ने हाथ पकड़ा, वह तो उसकी महाकृपा थी; हाथ छुड़ाया, वह तो उसकी और भी महाकृपा।
तुम
पूछते हो: "और परमपद की प्राप्ति के बाद भी इनकी क्या आवश्यकता रहती है?' आवश्यकता जरा भी नहीं रह
जाती। लेकिन सिर्फ गुरु की कृतज्ञता, गुरु के प्रति कृतज्ञ भाव के कारण शिष्य
उन्हें सम्हाल कर रखता है।
बुद्ध
का एक शिष्य सारिपुत्त ज्ञान को उपलब्ध हो गया। और बुद्ध ने उसे भेजा कि "अब
तू जा,
अब
यहां मेरे पास रहने की कोई जरूरत न रही। दूसरों के लिए जगह खाली कर। तू जा और
गांव-गांव संदेश दे; जो
मैंने तुझे दिया,
दूसरों
को बांट।'
वह
बहुत रोने लगा। उसने कहा, ऐसा तो
न करें। बुद्ध ने कहा: "शर्म नहीं आती बुद्ध हो कर और रोता है? तू खुद ही अब बुद्ध हो गया, अब यह रोना वगैरह क्या?' पर सारिपुत्त रो रहा है छोटे
बच्चे की तरह। वह कहता है कि मत भेजें। मैं इस बात के लिए भी राजी हूं मानने को कि
बुद्ध नहीं हुआ,
मगर
भेजें मत। चलो यही सही।
बुद्ध
ने कहा,
तू
मुझे थोड़े ही धोखा दे सकता है कि तू बुद्ध नहीं हुआ। ये बातें न चलेंगी। तू हो गया
है। अब तू रो कि सिर पीट, कुछ भी
सार नहीं। तू जा। अब यह जाना जरूरी है। तू जा और दूसरों को जगा। अब तू मुझे पकड़ कर
कब तक घूमता रहेगा।
सारिपुत्त
को जाना पड़ा। रोता हुआ गया। अदभुत व्यक्ति रहा होगा। क्योंकि बुद्धत्व पाने के बाद
रोना, बड़ी अपूर्व बात है। कितनी
कृतज्ञता का भाव रहा होगा! चला तो गया, लेकिन रोज सुबह-सांझ जहां भी होता, जिस तरफ बुद्ध होते, उस तरफ साष्टांग दंडवत करता।
उसके शिष्यों ने कहा कि आप स्वयं बुद्ध हो गए, स्वयं बुद्ध ने कह दिया कि आप बुद्ध हो गए, अब आप किसके चरणों में सिर
झुकाते हैं?
अब यह
क्या करते हैं आप?
रोज
सुबह-शाम जिस तरफ बुद्ध हैं...अगर बुद्ध गया में हैं तो उस तरफ, अगर बुद्ध कहीं और हैं तो उस
तरफ! लेकिन सारिपुत्त कहता, उनकी
ही कृपा से हुआ हूं। जो कुछ भी हुआ, उनकी कृपा से हुआ। इसलिए उनकी अनुकंपा को तो
कभी भी विस्मरण नहीं कर सकता हूं।
तुम
कहोगे,
अब
क्या आवश्यकता?
तुम्हें
पता ही नहीं है। तुम बड़े दुकानदार हो। तुम कहते हो, जब जरूरत थी तब पैर पड़ लिए; अब जरूरत नहीं, अब क्यों पैर पड़ें? तुम जरा सोचते हो, तुम क्या कह रहे हो? ये सब संबंध जरूरत के हैं? तो तुम्हें पता ही नहीं कि
प्रेम क्या है। प्रेम गैर-जरूरत का संबंध है। और प्रेम में ही फूल खिलते हैं परमपद
के। प्रेम में ही खिलते हैं फूल। यह दुकानदारी नहीं है कि जब मतलब था तो जयरामजी
कर ली और जब मतलब न रहा तो भूल गए कि अब क्या मतलब?
तुम तो
ऐसे ही करते हो न,
रास्ते
पर जयराम जी भी करते हो किसी से तो मतलब से ही करते हो! तुम्हारी तो जयरामजी भी
झूठी है। तुम तो राम की जय भी बिना मतलब के नहीं बोल सकते। तुम तो कहते हो, इस आदमी से जरा काम है, यह आदमी बैंक का मैनेजर है कि
यह आदमी डिप्टी कलेक्टर है कि कमिश्नर है कि इससे जरा काम है जरा काम निकल जाए, फिर इसको बताएंगे! अभी तो
नमस्कार करनी पड़ेगी।
क्या
गुरु को भी तुम ऐसे ही नमस्कार करते हो? तो फिर तुम न शिष्य हो, और न जिसको तुमने गुरु जाना
उसको तुमने गुरु जाना है।
गैरिक
वस्त्र और माला और गुरु..."सहयोगी' शब्द ठीक नहीं है, कि सहयोगी हैं। ये तो केवल
प्रतीक हैं तुम्हारे समर्पण के। बिना गैरिक वस्त्रों के भी लोग ज्ञान को उपलब्ध
हुए हैं,
इसलिए
इनको सहयोगी कहना ठीक नहीं है। क्राइस्ट ज्ञान को उपलब्ध हुए, महावीर बिना ही वस्त्रों के
ज्ञान को उपलब्ध हुए। बुद्ध पीले वस्त्र पहने रहे। तो कोई वस्त्र से किसी चीज का
सहयोगी होने न होने का संबंध नहीं है। ये तो केवल तुम्हारे समर्पण के प्रतीक हैं।
तुम कहते हो,
अब
गुरु जैसा रखेगा वैसे रहेंगे। अब गुरु का जो रंग होगा वही हमारा रंग होगा। अब अगर
गुरु कहता है गैरिक, तो
गैरिक। यह तो केवल एक इंगित है, इशारा
है तुम्हारी तरफ से कि हम भीतर भी अपने को रंगने को तैयार हैं। बाहर से हम खबर दे
रहे हैं कि हम रंगने को तैयार हैं। भीतर की तो खबर कैसे दें, बाहर से हम खबर दे रहे हैं।
जब तुम
किसी आदमी को गले लगाते हो तो तुम क्या कहते हो? क्या तुम यह कह रहे हो कि
हड्डियों से हड्डियों को लगा रहे हैं? लगती तो हड्डियां ही हड्डियां हैं। दोनों की
छातियां लग गईं तो अस्थि-पंजर मिल गए, चमड़ी से चमड़ी लग गई--क्या यही तुम कहना चाहते
हो? नहीं, तुम कह रहे हो कि हड्डियां तो
ठीक, यह तो बाहर है, लेकिन भीतर हृदय से हृदय को
मिलाना चाह रहे हैं, आत्मा
से आत्मा को मिलाना चाह रहे हैं। बाहर तो केवल संकेत है।
किसी
का हाथ तुम हाथ में ले लेते हो, तो हाथ
को हाथ में लेने से कुछ भी प्रेम प्रगट नहीं होता, पसीना ही प्रगट होगा
थोड़ा-बहुत। लेकिन तुम खबर दे रहे हो कि यह बाह्य तो प्रतीक है; भीतर हम एक-दूसरे से मिलना
चाहते हैं जैसे बाहर हाथ मिल गए। बाहर तो प्रतीक है।
ये
गैरिक,
माला, ये तो खबर हैं इस बात की कि
तुम झुक गए;
तुमने
घोषणा कर दी मेरे प्रति और जगत के प्रति कि अब तुम झोली फैलाए खड़े हो अगर आशीर्वाद
बरसेगा तो तुम झोली भरोगे। तुम उसका स्वागत करने को तैयार हो। तुमने द्वार खोल दिए; अगर मेहमान आएगा तो द्वार से
वापस नहीं लौटेगा। तुम आतिथेय बन गए, अतिथि के आने की प्रतीक्षा है। इतनी भर खबर
है।
इस खबर
के परिणाम होते हैं, गहरे
परिणाम होते हैं। किसी न किसी रूप में हमें जो भीतर है उसे बाहर प्रगट करना होता
है, क्योंकि भीतर को प्रगट करने
की तो कोई भाषा नहीं है।
तुमने
देखा, तुम किसी के प्रति समर्पण से
भरे तो झुक कर उसके चरणों में सिर रख देते हो! अब सिर तो बाहर है और चरण भी बाहर
है। क्या कर रहे हो? लेकिन
यह बाह्य प्रतीक भीतर की खबर लाता है कि मैं भीतर झुक रहा हूं। जब तुम किसी पर
नाराज होते हो तब तुम इससे उलटा करना चाहते हो; तुम चाहते हो कि इसका सिर अपने पैरों में रख
दें। अब यह जरा उलटा मामला है, क्योंकि
छलको, उचको, इसके सिर पर चढ़ो, गिर-गिरा जाओ--तो तुम अपना
जूता निकाल कर उसके सिर पर मार देते हो। यह भी प्रतीक है; यह उलटा प्रतीक है। तुम कहते
हो कि अब तुम्हारी दो कौड़ी की इज्जत कर दी। अब जूता किसी के सिर पर रख देना या मार
देना, क्या फर्क पड़ता है! जूता क्या
किसी का अपमान करेगा! लेकिन प्रतीक हैं और भीतर की खबर लाते हैं।
गैरिक
वस्त्र भी प्रतीक हैं; सिर्फ
भीतर की खबर लाते हैं। यह कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है। ऐसा नहीं है कि इनको पहनने
से ही ज्ञान उपलब्ध होगा और इनको न पहनने से नहीं उपलब्ध होगा। ये कारण नहीं; ये सिर्फ काव्य-प्रतीक हैं।
और यहां मैं तुम्हें विज्ञान नहीं सिखा रहा हूं; जीवन का काव्य सिखा रहा हूं।
अमर
अविनाशी नयन मन के समर्पण
कब
मिलोगे?
सांस
की पहचान की मीठी कुरेदन
तुम
अनहोने
मैं
बौने हाथों का उठाव
तुम
परम शक्ति
मैं
शक्ति-भावना भरा चाव
तुम
अमर
कि मैं
बस सहस्र बार चढ़ता क्षण हूं
तुम
श्रम-विज्ञान
मैं
नितनव आत्म-समर्पण हूं।
यह तो
सिर्फ खबर है इस बात की कि मेरा आत्म-समर्पण हुआ।
बोध
अंगार है
तीसरा
प्रश्न: कितने प्रकार से, कितने
ढंग से आप वही-वही बातें कह चले जा रहे हैं! क्या सत्य को भी इतने शब्दों की
आवश्यकता है?
सत्य
को तो एक शब्द की भी आवश्यकता नहीं है। सत्य तो शब्द से कभी प्रगट होता ही नहीं।
सत्य तो शब्दातीत है। इसीलिए इतने शब्दों से कहने की कोशिश चल रही है। इस तरह न
समझो, शायद उस तरह समझ जाओ इस दिशा
से न समझो तो शायद उस दिशा से समझ जाओ। इस बहाने नहीं तो कोई और बहाना सही। कभी
सहजो के बहाने,
कभी
दया के बहाने,
कभी
महावीर कभी बुद्ध,
कभी
क्राइस्ट के बहाने--कोई भी बहाने तुम्हें समझाने की कोशिश कर रहा हूं। इस बार चूके
तो फिर कोई और बहाना खोज लूंगा। कहना मुझे वही है जो नहीं कहा जा सकता है। बताना
वही है जिसे बताने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन, अगर मैं चुप रह जाऊं तो तुम कभी न समझ
पाओगे।
शब्दों
में सत्य तो नहीं समाता, लेकिन
शब्दों की चोट निरंतर पड़ती रहे तो तुम्हारे भीतर कोई जाग्रत होने लगता है, जो जाग कर सत्य को समझ पाएगा।
शब्द तो चोट है।
ऐसा
समझो, घड़ी में अलार्म भर कर तुम सो जाते
हो। सुबह अलार्म बजा। अलार्म ही उठाने में समर्थ नहीं है। क्योंकि जो बहुत कुशल
हैं वे अलार्म भी सुनते रहते हैं और उठते भी नहीं। कुशल जो लोग हैं वे तरकीब निकाल
लेंगे। वे एक सपना देखने लगेंगे कि मंदिर में गए हैं और घंटी बज रही है मंदिर की।
बस अब मंदिर की घंटी बज रही है तो अलार्म को उन्होंने झुठला दिया। वह अलार्म सुनाई
पड़ रहा है,
वे समझ
रहे हैं कि मंदिर की घंटी बज रही है। सुबह जब उठेंगे, नौ बजे फिर उनकी नींद खुलेगी; तब वे चौंक कर कहेंगे क्या
हुआ, अलार्म का क्या हुआ! अलार्म
जब चल रहा था तब उन्होंने एक व्याख्या कर ली, एक सपना खड़ा कर लिया, अलार्म को ढांक दिया। अलार्म
अपने-आप में नहीं जगा सकता है; लेकिन, अगर तुम जागना चाहो तो अलार्म
काफी सहयोगी हो सकता है। चोट पड़ती है।
नई
घड़ियां जो अलार्म की हैं, देखा? पुरानी घड़ियों और नई घड़ियों
में थोड़ा फर्क है। पुरानी घड़ियों में अलार्म बजता ही रहता था, पांच मिनट, दस मिनट बजता ही रहता था; वह बदलना पड़ा। क्योंकि
मनोवैज्ञानिकों ने कहा कि जब अलार्म बजता ही रहता है दस मिनट तक, तो अगर पहली चोट पड़ी और आदमी
जग गया तो जग गया,
अगर
पहली चोट नहीं पड़ी तो फिर दस मिनट बजाने में भी कुछ सार नहीं है। अगर एक मिनट सुन
लिया उसने और कोई सपना बना लिया तो उस दस मिनट तक सपने में रहा आएगा। अब नई जो
घड़ियां हैं उनमें अलार्म बजता, फिर
रुकता,
फिर
बजता, फिर रुकता, फिर बजता; ताकि अगर एक बार चूक गए तो
दुबारा,
फिर
बजता, फिर रुकता, फिर बजता; ताकि अगर एक बार चूक गए तो
दुबारा,
अगर
दुबारा चूक गए तो तिबारा। दस मिनट ही बजता है लेकिन दो-दो मिनट करके बजता है। इसका
ज्यादा परिणाम है। इस पर मनोवैज्ञानिक प्रयोग हुए तो पाया गया कि यह ज्यादा लोगों
को उठाता है,
क्योंकि
एक सपना दे कर धोखा दे दिया, फिर
जरा विश्राम कर रहे थे कि वह फिर बजा; अब फिर सपना खोजो। किसी तरह फिर समझा-बुझा
लिया। मगर ऐसा कितनी बार करोगे? थोड़ी
देर में तुम्हारी सपना बनाने की क्षमता भी चुक जाती है। अब बार-बार मंदिर थोड़े ही
जाओगे;
वह भी
नहीं जंचेगा बार-बार कि फिर मंदिर पहुंच गए, फिर घंटी बजने लगी। तुम्हें भी शक होने
लगेगा कितनी बार मंदिर जा रहे, कितनी
बार घंटी बज रही,
मामला
क्या है! थोड़ा संदेह पैदा होने लगेगा।
इसलिए
मैं भक्ति पर इकट्ठा नहीं बोलता रहता, नहीं तो तुम सो जाओगे; ध्यान पर इकट्ठा नहीं बोलता, साक्षी पर इकट्ठा नहीं बोलता।
इधर लीहत्जू पर बोला, जिन पर
कर गया काम कर गया, जो जग
गए जग गए;
जो
नहीं जगे,
बात
खतम हो गई,
उनके
लिए अब ज्यादा देर बोलने से कोई मतलब नहीं है। तो दया पर बोलो, अष्टावक्र पर बोलो, कृष्ण पर बोलो।
इतना
जो बोल रहा हूं,
अलग-अलग
ढंग से...पूछा ठीक ही है कि जो मैं कह रहा हूं वह तो एक ही बात है। निश्चित एक ही
बात है;
मेरे
पास दूसरी बात कहने को है नहीं। लेकिन तुम इतने गहरे सोए हो कि मुझे बार-बार
पुकारना पड़ेगा। मैं चुप भी रह जा सकता हूं, लेकिन बोल कर जब तुम न समझे तो शून्य को तो
तुम क्या समझोगे?
सत्य
शब्द में तो नहीं समाता; लेकिन
अगर कोई समझने को राजी हो तो शब्द में से भी प्रवेश कर जाता है। सत्य तो मौन में
ही प्रगट होता है,
लेकिन
अगर कोई समझने को राजी न हो तो मौन तो बिलकुल ही शून्य मालूम पड़ेगा; वहां से तो कोई संदेश न
मिलेगा। बहुत ज्ञानी मौन भी रह गए, लेकिन उनके मौन को किसने समझा? कुछ ज्ञानी बोले। सौ से बोले
तो निन्यानबे ने नहीं समझा। लेकिन एक ने समझा तो भी काफी। एक जग जाए तो भी काफी।
तब एक शृंखला पैदा होती है, एक जग
गया तो वह किसी और को जगाएगा।
जब तुम
जगो तो यह सोच कर बैठ मत जाना कि ये शब्द तो कुछ काम के नहीं हैं। नहीं, इतनी करुणा रखना कि अगर सौ के
साथ मेहनत की और एक भी जग गया तो भी बहुत है। इस पृथ्वी पर एक आदमी का जागरण भी
बड़ी अनूठी घटना है। क्योंकि उस एक आदमी के जागरण का मतलब होता है, एक आदमी परमात्मा का मंदिर बन
गया; अब उसके आसपास हवा फैलेगी, तरंगें उठेंगी, रोशनी झरेगी, सुगंध उठेगी, दूर-दूर तक उसका संगीत
गूंजेगा। उस संगीत में शायद फिर कोई जग जाए। एक शृंखला पैदा होती है।
फिर
शब्द भी तो परमात्मा के हैं, जैसा
सब कुछ उसका है। सत्य भी उसका, शब्द
भी उसके,
शून्य
भी उसका।
जैसी
मेंहदी रची,
जैसे
बैंदी रची
शब्द
तुमने रचे
प्रेम--अक्षर
थे ये दो अनर्थ के
अर्थ तुमने
दिया
मैं--यह
जो ध्वनि थी
अंध
बर्बर गुफाओं की
अपने
को भर कर
उसे
नूतन अस्तित्व दिया
बाहों
के घेरे ज्यों मंडप के फेरे
ममता
के स्वर जैसे वेदी के
मंत्र-गुंजरित
मुंह अंधेरे
शब्द
तुमने रचे
जैसे
प्रलयंकर लहरों पर
अक्षय-वट
का एक पत्ता बचे
शब्द
तुमने रचे।
शब्द
भी परमात्मा का है, जैसे
निःशब्द परमात्मा का है। तो जागना हो तो शब्द भी जगाएगा। न जागना हो, कसम खा ली हो, जिद कर रखी हो कि जागना नहीं
है, तो फिर कुछ भी नहीं जगा
सकेगा। निश्चित ही तुम जागने के लिए आतुर हो, अन्यथा क्यों आओ इतनी दूर, क्यों इतनी यात्रा करो? कहीं कोई प्यास है। अंतरतम
में कुछ खाली है,
कोई
पुकार रहा है। जिस दिन तुम शून्य को समझने लगोगे उस दिन मैं चुप बैठ जाऊंगा। तब भी
चुप्पी से यही कहूंगा जो अभी बोल कर कह रहा हूं। कहूंगा तो यही। कहने को तो कुछ और
नहीं है। लेकिन अभी तो तुम शब्द भी नहीं समझ पा रहे। शब्द है स्थूल, शून्य है सूक्ष्म। शब्द है
आकार, मौन है निराकार। अभी तो तुम
आकार को भी नहीं बांध पा रहे, अभी तो
आकार पर भी तुम्हारी आंख नहीं टिकती। तुम निराकार में तो बिलकुल भटक जाओगे।
जिसने
पूछा है उसकी तकलीफ भी मैं समझता हूं। तकलीफ यह है कि तुम जगते तो हो नहीं, मैं जो बोलता हूं उसे इकट्ठा
करने लगते हो। तब तुम्हारी बुद्धि पर बोझ बढ़ता है। तब तुम्हारा पांडित्य बढ़ता है।
जानकारी बढ़ती है। ज्ञान तो होता दिखता नहीं और जानकारी बढ़ती है। धीरे-धीरे तुम
विवादी हो जाते हो; दूसरों
को समझाने लगते हो, खुद
अभी समझे नहीं। धीरे-धीरे तुम बड़े सिद्धांतवादी हो जाते हो, बड़े शास्त्रवादी हो जाते हो।
और सत्य से कुछ पहचान नहीं बनी। यही तकलीफ है।
खयाल
रखना, मेरे शब्दों से शास्त्र मत
बनाना और मेरे शब्दों को पांडित्य में रूपांतरित मत करना। अन्यथा तुम जागे तो नहीं, उलटे तुमने सोने का और आयोजन
कर लिया। जैसे अलार्म ने तुम्हें उठाया तो नहीं, उलटे और सुला दिया। ऐसे
अलार्म भी बनाए जा सकते हैं, ऐसे
अलार्म हैं भी।
एक
मेरे मित्र मेरे लिए एक रेडियो ले आए। वह अलार्म-घड़ी का भी काम करता है। उसमें छह
बजे का अलार्म भर दो तो छह बजे का संगीत, वीणा बजेगी। तुम तो कर्कश अलार्म से भी नहीं
जगते; अगर वीणा बजने लगेगी, तुम समझोगे, माता लौरी गा रही है। तुम और
करवट ले कर और कंबल में दब कर और दुबक जाओगे। तुम कहोगे, यह अच्छा हुआ। नींद शायद
टूटी-टूटी भी हुई जा रही थी, वह फिर
जुड़ जाएगी।
मैं
यहां लौरी नहीं गा रहा हूं। यहां तुम्हें जगाने की चेष्टा है। इसलिए कभी तुम्हें
चोट भी करता हूं;
कभी
तुम्हें धक्के भी देता हूं। कभी तुम्हें बुरा भी लग जाता है; तुम तिलमिला भी जाते हो; कभी तुम नाराज भी हो जाते हो।
स्वाभाविक है। जब जगाना हो किसी को तो उसकी नाराजगी भी लेनी पड़ती है।
तुमने
किसी को जगाने की कभी कोशिश की है? चाहे वह खुद ही तुमसे कह कर सोया हो कि पांच
बजे सुबह जगा देना; फिर भी
वह ऐसा उठेगा जैसे तुम दुश्मन हो। कहा उसी ने था। लेकिन नींद को तोड़ा जाना कोई भी
अच्छा नहीं समझता।
और यह
एक नींद है--एक आध्यात्मिक नींद जिसमें तुम हो। मेरे शब्दों को सुनो। उनकी चोट को
पकड़ो। उसकी चोट से जगने की चेष्टा करो। अगर जागरण न हो तो मेरे शब्दों को संगृहीत
मत करना;
उससे
पंडित मत बनना;
उसे
भूल जाना। वह बेकार गया। फिर बोलूंगा। फिर दुबारा शब्द की चोट को सुनना। मेरे पास
आ कर पंडित मत बनना। क्योंकि पापी तो शायद पहुंच भी जाएं, पंडित कभी नहीं पहुंचते।
एक
चम्मच धूप अथवा एक चुटकी गंध
कर सको
कर लो इन्हें तुम मुट्ठियों में बंद
स्वर
नहीं हों,
किंतु
अक्षर बोलते तो हैं
बंद
अर्थों को समय पर खोलते तो हैं
एक
कलछुल चांदनी या आचमन भर छंद
कर सको
कर लो इन्हें तुम मुट्ठियों में बंद।
दूब
उगती है अगर,
ऊपर
उठेगी ही
क्या
लपट हो कर अधोमुख ही घुटेगी ही?
एक
पंचम टेर फागुन बौर के संबंध
कर सको
कर लो इन्हें तुम मुट्ठियों में बंद।
मैं
तुम्हें जो दे रहा हूं, ये
अंगारे हैं। इन्हें अगर तुमने मुट्ठियों में बंद किया तो ये तुम्हें जगा देंगे; ये तुम्हें सुलाएंगे नहीं।
एक
चम्मच धूप अथवा एक चुटकी गंध
कर सको
कर लो इन्हें तुम मुट्ठियों में बंद।
मगर
इनसे ज्ञान मत बनाना, अन्यथा
अंगारा राख हो गया। ज्ञान तो राख है; बोध अंगार है। मैं जब कुछ तुमसे कहता हूं, तब मेरी तरफ तो वह अंगारा
होता है;
अब यह
तुम पर निर्भर है कि तुम उस अंगारे को अंगारे की तरह झेलोगे अपने हृदय पर, पड़ने दोगे चोट, लगने दोगे घाव, जगोगे चौंक कर या बना लोगे
राख उसकी,
भर
लोगे अपनी तिजोरी में, हो
जाओगे थोड़े और ज्यादा ज्ञानी और खींचोगे बोझ, ढोओगे बोझ। तुम पर निर्भर करता है। मैंने तो
जो कह दिया,
कहते
ही मेरे हाथ के बाहर हो गया; फिर
तुम मालिक हो। तुम क्या करोगे? तुम
कैसे उपयोग करोगे?
जिन्होंने
पूछा है,
जरूर
उनके भीतर पांडित्य इकट्ठा हो रहा होगा, इसलिए घबराहट आई है। उसे इकट्ठा मत करो। या
तो मुझे सुनो तो जागो। अगर जागना न हो पाए तो मैंने जो कहा है उसे भूल जाओ। उसकी
स्मृति मत बांधो। उसकी गठरी मत ढोओ। क्योंकि अगर तुमने गठरी ढोनी शुरू की तो बड़ी
मुश्किल है। तब मैं तुमसे कल फिर बोलूंगा। और तुम्हारी पुरानी गठरी इतनी भारी होगी; गठरी की दीवाल इतनी बड़ी होगी
कि मैं जो बोलूंगा तुम तक पहुंच न पाएगा। वह तो चीन की दीवाल जैसी बीच में खड़ी
रहेगी।
इसलिए
ज्ञान जिसके पास बहुत ज्यादा इकट्ठा हो गया हो वह सुन ही नहीं पाता, उसकी श्रवण की क्षमता खो जाती
है। क्योंकि सुनते वक्त वह कहता है, अरे यह तो मैंने जाना; अरे यह तो मैंने सुना; यह तो मुझे पहले से पता है; यह तो उपनिषद में लिखा है, कुरान में लिखा है, बाइबिल में भी तो यही कहा है।
जब मैं बोल रहा हूं, तब वह
भीतर यह हिसाब बिठाता रहता है कि कहां लिखा, कहां पढ़ा, कहां सुना!
जब मैं
बोलता हूं,
तब तुम
कोई हिसाब न बनाओ। क्योंकि उसी हिसाब में तुम चूक जाओगे।
चरित्र
और व्यक्तिगत में भेद
चौथा
प्रश्न: चरित्र और व्यक्तित्व में क्या भेद है?
चरित्र
तो है ऊपर से आयोजित; तुमने
आयोजन कर लिया,
ऊपर से
सम्हाल लिया। व्यक्तित्व है भीतर से स्फुरित; तुमने आयोजन नहीं किया, सम्हाला नहीं, प्रगट होने दिया।
चरित्र
तो ऐसा है जैसे प्लास्टिक के फूल और व्यक्तित्व ऐसा है जैसे गुलाब की झाड़ी पर लगा
गुलाब। व्यक्तित्व जीवंत होता है; चरित्र
मुर्दा। चाहे कितना ही पवित्र और पावन मालूम पड़े--और मालूम पड़ सकता है--लेकिन
चरित्र मुर्दा होता है, ऊपर-ऊपर
होता है,
आरोपित
होता है,
झूठा
होता है। व्यक्तित्व में एक सचाई होती है, निजता होती है। वह तुम्हारे प्राणों से आता
है। उसकी जड़ें तुममें होती हैं।
मेरी
सारी शिक्षा व्यक्तित्व के लिए है--चरित्र के लिए जरा भी नहीं। इसलिए मेरा सारा
जोर ध्यान पर है,
नीति
पर नहीं। क्योंकि ध्यान से तुम्हारे भीतर जो सोया है, जगेगा। उसके जागरण से
तुम्हारा चरित्र भी बदलेगा, लेकिन
वह बदलाहट ऊपर-ऊपर नहीं होगी, वह
बदलाहट भीतर से आएगी। अगर कुछ छूटेगा तो इसलिए छूटेगा कि तुम्हारे भीतर समझ की
किरण उतरी है।
आमतौर
से हम उलटा करते हैं; कुछ
छोड़ना होता है तो हम छोड़ने का अभ्यास करते हैं।
एक
मित्र आए। सिगरेट पीने की आदत है। वे कई वर्षों से छोड़ना चाहते हैं। फिर किसी ने
उनको बता दिया कि ऐसा करो, तुमसे
छूटती नहीं तो तुम कुछ और दूसरी आदत बना लो तो यह छूट जाएगी। तो वे नास सूंघने
लगे। सिगरेट तो छूट गई, अब वे
डिबिया लिए नास की बैठे रहते हैं। मैंने उनसे पूछा: इसमें सार क्या हुआ? पहले मुंह के साथ बदतमीजी
करते थे,
अब नाक
के साथ करने लगे! बदतमीजी जारी रही। इसमें फर्क क्या हुआ?' तो वे कहने लगे, अब इसको कैसे छोड़ें? मैंने कहा, फिर कोई दूसरी पकड़ लो। तंबाकू
खाने लगो,
तो यह
छूट जाएगी।
मगर यह
कोई छूटना हुआ?
समझ
नहीं है। लोग कहते हैं कि सिगरेट पीने से हानि होती है तो छोड़ दो। मगर समझ नहीं है
कि सिगरेट का जो इतना प्रभाव है तुम्हारे ऊपर, क्यों है?
तुमने
कभी खयाल किया,
कब तुम
सिगरेट पीते हो?
जब भी
तुम उदास होते हो,
जब भी
तुम बेचैन होते हो, जब भी
तुम्हारे भीतर चैन नहीं होता, जब तुम्हें
कुछ सूझता नहीं अब क्या करें क्या न करें--तो सिगरेट पीने लगे, धुआं बाहर-भीतर करने लगे। कुछ
तो करने को मिला! जब तुम चिंतित होते हो तब तुम ज्यादा सिगरेट पीते हो। जब तुम
निश्चिंत होते हो तब तुम कम सिगरेट पीते हो। तो असली सवाल सिगरेट नहीं है; असली सवाल यह सीखने का है कि
कैसे निश्चिंतता आए, कैसे
चिंता जाए। सिगरेट तो ऊपर-ऊपर है। अगर चिंता चली जाए तो आदमी को तुम लाख समझाओ कि
पी लो सिगरेट,
सौ
रुपए देते हैं एक सिगरेट के साथ, तो भी
वह कहेगा,
तुमने
मुझे पागल समझा है? क्यों
पी लूं?
यह
धुआं बाहर-भीतर ले जाना--किसलिए?
लेकिन
जो आदमी पी रहा है, उसको
तुम समझने की कोशिश करो। या तुम अगर पीते हो खुद तो तुम खुद ही देखना, जिस दिन चिंता थी उस दिन
तुमने ज्यादा सिगरेट पी है, जिस
दिन चिंता नहीं थी, उस दिन
कम पी है। जिस दिन मन मस्त था, उस दिन
भूल भी गए। जिस दिन मन मस्त नहीं था, पत्नी से झगड़कर चले, दफ्तर में मालिक से नाराजगी
हो गई,
रास्ते
पर किसी ने धक्का दे दिया, कुछ
उलटा-सीधा हो गया--तो उस दिन तुम खूब पीते हो, ज्यादा पीते हो; उस दिन तुम्हें चैन ही नहीं
मिलता जब तक तुम न पीयो। तो इसका अर्थ केवल इतना हुआ कि यह आदत चिंता को छिपाने का
उपाय है। अब अगर तुमने सिगरेट छोड़ दी और चिंता की आदत कायम रही तो नास नाक में
डालने लगोगे,
या कुछ
और करोगे। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो।
तुमने
देखा, छोटे बच्चे भी यही कर रहे हैं; थोड़े भेद से करते हैं। अगर
मां नाराज हो गई तो बच्चा जल्दी से अंगूठा अपने मुंह में डाल लेता है--सिगरेट पी
रहे हैं,
वह
शुरू कर दी उन्होंने सिगरेट पीना। अभी सिगरेट तो उनको कोई देगा नहीं और अभी सिगरेट
लेने जा भी नहीं सकते, अभी
अपने झूलने में पड़े हैं। मगर सिगरेट पीना शुरू कर दी उन्होंने। यही सज्जन सिगरेट
पीएंगे कल। ये अंगूठा पी रहे हैं। असल में क्या मामला है? मां नाराज हो गई है, बच्चा घबरा गया है, चिंता पकड़ गई है कि पता नहीं
अब दुबारा मां का स्तन मिलेगा कि नहीं मिलेगा। तो अब वह झूठा स्तन पैदा कर रहा है।
वह अपना ही अंगूठा पी रहा है। वह कह रहा है: "कोई फिक्र की बात नहीं, अंगूठा तो अपने पास है! इसको
ही पीएंगे।'
वह
उसको ही चूसने लगा। अंगूठा चूसते-चूसते सो जाता है। तुमने अक्सर देखा होगा, बच्चे जब भी अंगूठा चूसेंगे, थोड़ी देर में सो जाएंगे। तो
जब भी बच्चे को नींद नहीं आती, अंगूठा
चूसने लगता है।
तुमने
देखा, छोटे बच्चे अपने कंबल का कोना
मुंह में दबा लेंगे या अपने खिलौने को छाती से लगा लेंगे! तब उनको नींद आ जाएगी।
ये सब आदतें पड़ रही हैं--खतरनाक आदतें हैं! फिर ये आदतें नए-नए रूप लेंगी।
जैसे-जैसे उम्र बदलेगी, ये
नए-नए ढंग पकड़ेंगी। लेकिन इन आदतों के पीछे जो मूल आधार है वह है चिंता! अगर मां
बच्चे को सच में प्रेम करती हो तो बच्चे को ये आदतें न पड़ेंगी। और जब बच्चा अंगूठा
मुंह में डालता है तो मां उसका अंगूठा खींच कर बाहर करती है--और उसको चिंतित कर
देती है;
और
उसको घबरा देती है। वह और जल्दी अंगूठा डालता है। क्योंकि अब यह भी हद हो गई। मां
तो राजी है नहीं उससे, अपना
अंगूठा पीने की भी स्वतंत्रता नहीं है। और बच्चे में अपराधभाव भी पैदा हो जाता है।
तो वह देखता रहता है, जब मां
आ रही हो तो जल्दी से अंगूठा बाहर कर लेता है, अपना हाथ छिपा लेता है। इधर मां गई कि उसने
अंगूठा पीना शुरू किया। उसके जीवन में पाप की भी शुरुआत हो गई। वह सोचने लगा कि
मैं कुछ गलती कर रहा हूं।
लोग
सिगरेट भी पीते हैं तो अपराधभाव से पीते हैं। पी भी रहे हैं और डरे भी हुए हैं कि
कहीं कोई माता कोई पिता आसपास तो मौजूद नहीं है।
चिंता
को समझना जरूरी है। और चिंता का विसर्जन जरूरी है। चिंता विसर्जित हो जाए तो
व्यक्तित्व में एक निखार आता है। तो कुछ चीजें अपने से गिर जाती हैं!
चरित्र
का अर्थ होता है एक आदत को दूसरी आदत से बदल दो। चरित्र का अर्थ होता है एक झूठ को
दूसरे झूठ से स्थापित कर लो। चरित्र का अर्थ होता है चमड़ी को रंगते जाओ; भीतर उतरो मत; अंतःकरण में झांको मत।
व्यक्तित्व
का अर्थ होता है जो तुम्हारे भीतर है उसकी खोज करो। अगर चिंता है तो उसमें उतरो और
गहरे जाओ। अगर क्रोध है तो उतरो और गहरे जाओ। अगर वासना है तो उसको पहचानो; ब्रह्मचर्य की कसमें मत खाओ।
क्योंकि ब्रह्मचर्य की कसमों से कुछ भी न होगा; वासना न बदलेगी, और उपद्रव बढ़ जाएगा। वासना
भीतर रहेगी,
अब यह
ब्रह्मचर्य भी ऊपर खड़ा हो जाएगा। अब तुम और बटे, और कटे, और द्वंद्व हुआ, और तुम्हारे भीतर दुविधा और
चिंता के ज्वार आए। नहीं, वासना
को समझो।
फर्क
समझना। अगर तुम मंदिर में जा कर ब्रह्मचर्य का व्रत ले लो तो यह चरित्र होगा।
क्योंकि अगर तुम समझ गए थे कि वासना व्यर्थ है तो मंदिर में जा कर व्रत लेने की
कोई जरूरत न थी। बात खतम हो गई। अगर तुम समझ गए कि वासना व्यर्थ है; यह तुम्हारे अनुभव में आ गया
कि वासना व्यर्थ है; एक दिन
तुमने अचानक पाया कि इसमें कुछ भी सार नहीं है--महावीर कहते हैं इसलिए नहीं, बुद्ध कहते हैं इसलिए नहीं; तुमने जाना कि कुछ भी सार
नहीं है--उसी दिन तुम्हारे जीवन में एक ब्रह्मचर्य का आविर्भाव होगा। यह
ब्रह्मचर्य तो असली फूल है। यह व्यक्तित्व है। यह गुलाब है खिला हुआ झाड़ी पर।
मंदिर
में जा कर कसम ले आए--किसी महात्मा के सामने, समाज के सामने, कसम खा ली कि अब ब्रह्मचर्य
का व्रत धारण करते हैं। यह प्लास्टिक का फूल है। भीतर वासना के कांटे चुभे रहेंगे।
जीवन
समुद्र नहीं,
सरिता
या सोता है
लेकिन
वह दो प्रकार का होता है
एक
धारा वह है जो बर्फ को पा कर जम गई है
बहुत
दूर चल लेने के बाद
अब एक
जगह आ कर थम गई है।
यह
धारा चाहे पावन हो चाहे पवित्र हो।
लेकिन
वह जीवन का व्यक्तित्व नहीं, चरित्र
है।
और
दूसरी धारा वह है जिसमें आग बहती है
उल्लास
यहां हिलोरे लेता है
वीरता
कड़क कर बोलती है
इस
धारा से प्रेम का तूफान उठता है
किनारे
पर जो भी वृक्ष खड़े हैं
उसकी
डाल-डाल डोलती है
जिनको
धुओं के धब्बे लग गए
आग
अपनी तरलता से उन्हें भी धोती और नहलाती है
यह
धारा व्यक्तित्व कहलाती है।
एक तो
चरित्र है--थोथा-थोथा, आरोपित, चमड़ी से ज्यादा गहरा नहीं।
कुरेदो चरित्र को और जल्दी ही तुम पाओगे सब कुछ गड़बड़ हो गया। जरा सा कुरेदो और सब
गड़बड़ हो जाता है। व्यक्तित्व कितना ही खोदते चले जाओ, तुम वही स्वाद पाओगे। चमड़ी से
ले कर आत्मा तक व्यक्तित्व का एक ही स्वाद होता है--निर्द्वंद्व, अद्वैत। एक ही स्वाद होता है।
अगर प्रेम है तो तुम कितना ही खोदते जाओ व्यक्तित्व वाले व्यक्ति में, प्रेम ही पाओगे, अंत तक प्रेम पाओगे। चरित्र
वाले व्यक्ति के साथ ऐसी झंझट में मत पड़ना। अंत तक प्रेम पाओगे। चरित्र वाले
व्यक्ति के साथ ऐसी झंझट में मत पड़ना। प्रेम ऊपर-ऊपर होगा और जरा तुमने खरोंच दी
उसकी चमड़ी तो क्रोध निकल आएगा, घृणा
निकल आएगी,
वैमनस्य
निकल आएगा।
चरित्र
वाले आदमी से जरा दूर-दूर रहना। चरित्र वाला आदमी भरोसे का नहीं है। चरित्र वाला
आदमी झूठा आदमी है। ऐसे ही जैसे कच्चे रंग के कपड़े, बाहर निकलो तो डर लगता है कि
कहीं पानी न गिर जाए, नहीं
तो सब गड़बड़ हो जाए; कहीं
धूप न पड़ जाए,
नहीं
तो रंग उड़ जाए! कच्चे रंग का नाम है चरित्र। और पक्के रंग का नाम है व्यक्तित्व।
लेकिन पक्का रंग तभी होता है जब भीतर से आता है, प्राणों से आता है।
मेरी
सारी चेष्टा तुम्हें व्यक्तित्व देने की है--चरित्र देने की नहीं। व्यक्तित्व
आत्मा है।
शंका
वातायन है
पांचवां
प्रश्न: मैं शंकालु हूं; श्रद्धा
चाहता हूं,
पर
सधती नहीं। संदेह ही संदेह उठे जाते हैं। मुझे मार्ग बताएं!
चिंता
न करो। शंकालु होना स्वाभाविक है। शंका मनुष्य का स्वभाव है। उसकी निंदा भी न करो।
परमात्मा ने जो भी दिया है उसका कुछ न कुछ उपयोग है। उपयोग सीखो। निंदा तो छोड़ ही
दो। मेरे साथ जो चलने को तैयार हुए हैं वे निंदा को तो छोड़ ही दें। मेरे पास निंदा
तो किसी बात की नहीं है। अगर शंका है तो शंका का ही उपयोग करेंगे। अगर जहर है तो
जहर की दवा बनाएंगे। जहर भी औषधि बन जाता है--समझदार चाहिए आदमी।
शंका
का क्या अर्थ है?
शंका
का इतना ही अर्थ है कि तुम विचारपूर्ण हो, कि तुम अंधे नहीं हो, कि तुम हर कुछ नहीं मान लेते
हो। बिलकुल ठीक है। इसमें बुरा क्या है? इसमें परेशान होने की बात क्या है? हर कुछ मान लेने की जरूरत भी
नहीं है।
मैं
तुमसे कहता भी नहीं कि तुम परमात्मा को मान लो। मैं तो तुमसे कहता हूं, तुम जीवन को गौर से देखो। तुम
पाओगे यहां कुछ भी नहीं है। तुम जीवन के भीतर जरा झांको और तुम पाओगे राख ही राख
है। तब क्या तुम्हारे मन में यह प्रश्न न उठेगा कि कोई और भी जीवन हो सकता है या
नहीं? अगर तुम वस्तुतः शंकालु हो तो
जीवन पर शंका को लगा दो। अब तक तुमने जो प्रेम किया है उस में अपनी शंका को लगा दो
कि यह प्रेम है या नहीं? अब तक
तुमने धन कमाया है, अपनी
शंका को धन पर लगा दो। खोजो कि धन धन है या सिर्फ ठीकरे इकट्ठे कर रहे हो, कल मौत आएगी और सब समाप्त हो
जाएगा। अब तक तुमने जिस दिशा में अपने जीवन को लगाया है, उसी दिशा में अपने संदेह, अपनी शंका को भी नियोजित कर
दो। और तुम चकित हो जाओगे, संसार
में अगर संदेह लगा दिया जाए तो तुम संसार में ज्यादा दिन तक गृहस्थ नहीं रह सकते।
अब
तुमने क्या किया है? तुमने
उलटा काम कर लिया है: आस्था को तो लगा दिया है संसार में और संदेह लगा दिया है
परमात्मा में। जरा बदलो। संदेह को लगा दो संसार में। और तब तुम अचानक पाओगे: जो
आस्था संसार में लगी थी उसने नया स्रोत खोजना शुरू कर दिया। क्योंकि आस्था कहीं तो
लगेगी।
मैंने
अब तक ऐसा आदमी नहीं देखा जिसमें आस्था न हो और ऐसा आदमी भी नहीं देखा जिसमें
संदेह न हो। दोनों साथ-साथ मिलते हैं--मिलने ही चाहिए। दोनों एक ही सिक्के के दो
पहलू हैं। जैसे दिन और रात हैं, ऐसे ही
शंका और श्रद्धा हैं। मगर फर्क क्या है? धार्मिक आदमी संसार के प्रति तो संदेह को
लगा देता है और परमात्मा के प्रति श्रद्धा को। और अधार्मिक आदमी परमात्मा के प्रति
संदेह को लगा देता है और संसार के प्रति श्रद्धा को। बस इतना फर्क है। इससे ज्यादा
कोई फर्क नहीं है। दोनों के पास दोनों संपदाएं हैं। अब यह तुम्हारे हाथ में है।
मैं
तुमसे अभी श्रद्धा की बात न करूंगा क्योंकि तुम कहते हो श्रद्धा बैठती नहीं। छोड़ो।
संदेह तो बैठता है! संदेह में तो मजा आता है! तो संसार के प्रति संदेह करो। अपने
पूरे जीवन को फिर से संदेह से भरो। तुम चकित हो जाओगे, यहां संसार के साथ संदेह बैठा, चीजें झूठ होने लगीं, व्यर्थ होने लगीं, पद, मान-मर्यादा सब व्यर्थ होने
लगा। अचानक तुम पाओगे एक नई दिशा खुलने लगी श्रद्धा की।
शंकाएं
वातायन हैं
जिनसे
बुद्धि सीमा के पार झांकती है
और जो
सत्य वह ठीक से नहीं बोल सकती
उसे
तुतलाहट में आंकती है।
शंकाएं
सोपान हैं
विश्वास
सबसे ऊपरी मंजिल है
एक समय
शंकाएं पाप समझी जाती थीं
पर अब
हम शंका से घृणा नहीं, प्यार
करते हैं।
धर्म
बार-बार अंधियारे में लुप्त हो जाता है
और
शंकाओं के जरिए हम बार-बार
उसका
नया आविष्कार करते हैं।
शंकाएं
सोपान हैं;
विश्वास
सबसे ऊपरी मंजिल है। शंकाओं को सीढ़ियां बनाओ। धन पर शंका करो और ध्यान पर श्रद्धा
आनी शुरू हो जाएगी।
कल एक
युवक ने संन्यास लिया। उसका नाम था धनेश। मैंने उसे नाम दिया: ध्यानेश। हूं...अब
हो गया खतम। धन से हटे, अब
ध्यान पर लगे।
शरीर
में बड़ी श्रद्धा है; संदेह
करो। शरीर पर संदेह आया कि आत्मा पर संदेह करने से कैसे बचोगे?
तो मैं
तुमसे नहीं कहता जैसे तुम्हारे साधारण महात्मा तुमसे कहते हैं कि संदेह करो ही मत, शंका करो ही मत। उनको कुछ पता
नहीं है। मैं तो तुमसे कहता हूं, संदेह
का ठीक-ठीक उपयोग करो। जिंदगी में बहुत
जगहें हैं जहां संदेह करना जरूरी है। पूरी जिंदगी संदेह के योग्य है। एक-एक पर्त
को उघाड़ो और देखो--और तब तुम पाओगे कि इन्हीं संदेहों के सहारे सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते
तुम उस परमात्मा के विश्वास पर, श्रद्धा
पर पहुंच गए हो।
"नहीं' कहना सीखा, "हां' भी आएगा। जब तुम्हारी
"नहीं'
में बल
होगा तो तुम पाओगे "हां' भी आ
रहा है।
इसलिए
भयभीत मत होओ,
चिंतातुर
भी मत होओ। मैं तो नास्तिक को भी संन्यास देने को तैयार हूं। क्योंकि मैं मानता
हूं कि अक्सर नास्तिक आस्तिक से ज्यादा ईमानदार होते हैं। आस्तिक तो अक्सर पाखंडी
होते हैं। नास्तिक भी पाखंडी हो सकते हैं, लेकिन कम से कम हिंदुस्तान में तो नहीं; रूस में होते हैं। हिंदुस्तान
में तो नास्तिक होना जरा कठिन बात है। यहां तो जो नास्तिक हो भी वह भी आस्तिक
दिखलाता है,
क्योंकि
उसी में सुविधा है। सब आस्तिकों की भीड़ है चारों तरफ, कौन नास्तिक होने की झंझट ले! यहां तो नास्तिक केवल वही हो
सकता है जिसमें सच में हिम्मत हो।
अगर
तुम शंकालु हो,
नास्तिक
हो, संदेह से भरे हो--मेरे
संन्यास का द्वार तुम्हारे लिए खुला है। तुम्हें और कोई संन्यास देने वाला दुनिया
में नहीं मिलेगा,
यह मैं
तुम्हें बताए देता हूं। क्योंकि इतने हिम्मतवर आस्तिक ही दुनिया से खो गए जो
नास्तिक को भी भीतर ले लें। पर यह मंदिर सबके लिए खुला है। तुम आओ। तुम्हारी
शंकाओं की सीढ़ियां बना लेंगे। उन्हीं सीढ़ियों से तुम मंदिर में पहुंच जाओगे। एक
बात सदा स्मरण रखो कि परमात्मा ने जो भी दिया है, वह व्यर्थ तो नहीं हो सकता, चाहे हमें उसका उपयोग पता न
हो। तो उपयोग खोजो। मगर जो भी है, उसका
कुछ न कुछ उपयोग होगा।
मैंने
सुना है,
एक घर
में सदियों से एक अपूर्व ढंग का वाद्य रखा था। सितार जैसा लगता था, लेकिन बहुत तार थे उसमें और
बहुत बड़ा था। और घर के लोगों को किसी को भी याद न थी कि इसको कैसे बजाया जाए। और
वह घर में जगह भी घेर रहा था। बैठकखाना आधा उसने घेर रखा था। और उस पर कचरा-कूड़ा
भी इकट्ठा होता था। और बच्चे कभी उसको छेड़ देते तो घर के लोगों को विघ्न-बाधा भी
पड़ती थी। कभी रात में कोई चूहा कूद जाता तो नींद भी टूट जाती थी। आखिर उन्होंने एक
दिन तय किया कि इससे हम छुटकारा पाएं, इसको रखे-रखे क्या सार है! तो उन्होंने उसे
उठा कर सड़क के बाहर कचरे-घर पर डाल दिया। वे लौट कर भी नहीं आ पाए थे घर कि अपूर्व
संगीत उठना शुरू हुआ। ठगे से खड़े रह गए। लौट कर भागे। भीड़ लग गई। एक भिखारी जो राह
के किनारे से गुजर रहा था, वह उस
वाद्य को उठा कर बजाने लगा। घंटे भर तक लोग मंत्रमुग्ध रहे। जब भिखारी बजा चुका तो
उस वाद्य के मालिकों ने, जो उसे
फेंक गए थे कचरे-घर में, वाद्य
को छीनना चाहा और भिखारी से कहा, यह
वाद्य हमारा है। क्योंकि उनको पहली दफे पता चला कि यह तो अपूर्व है। ऐसा संगीत तो
कभी सुना न था।
लेकिन
भिखारी ने कहा,
वाद्य
उसी का हो सकता है जो बजाना जानता है। तुम तो इसे फेंक चुके, अब तुम्हारी इस पर कोई
मालकियत नहीं है। और तुम्हारी मालकियत का मतलब भी क्या, तुम करोगे क्या? फिर जा कर यह तुम्हारे घर में
जगह घेरेगा। वाद्य तो उसका है जो बजाना जानता है।
मैं
तुमसे कहता हूं,
जीवन
भी उसका है जो बजाना जानता है। और यहां कोई भी चीज व्यर्थ नहीं है। संदेह भी
व्यर्थ नहीं है,
इसे भी
फेंकना मत,
इसकी
सीढ़ियां बना लेंगे। और यही सीढ़ियां एक दिन तुम्हें सत्य तक पहुंचा देती हैं।
हृदय
से चलो
आखिरी
प्रश्न: यह न सोचा था तेरी महफिल में दिल रह जाएगा
हम यह
समझे थे चले आएंगे दम भर देख कर।
अच्छा
हुआ दिल रह गया। क्योंकि दम भर देख कर चले जाते तो उसका इतना ही अर्थ होता कि देखा
ही नहीं। दम भर भी देख लिया तो दिल रह ही जाएगा। एक श्वास भी मेरे साथ ले जी तो
दिल रह ही जाएगा। एक बार भी मेरी आंख में आंख डाल कर देखा, तो दिल रह ही जाएगा--रह ही
जाना चाहिए। इसीलिए सारा प्रयोजन है यहां कि किसी तरह दिल रह जाए।
कौन
नया परदेसी आया फिर सपनों के गांव में
किसने
किया बसेरा फिर से इन पलकों की छांव में
मंदिर
कौन उठाता है मेरे मन के वीरान में
कौन
मनाता है जन्मोत्सव साधों के शमशान में
भावों
का धन कौन लुटाता मुझ पर यहां अभाव में
मेरे
नभ पर छाए फिर से कौन बदरवा सावनी
मेरे
आंगन में गाता है कौन प्रणय की लावनी
किसका
आकुल आमंत्रण है घन की घुमड़ घिराव में
कौन
मुझे जो शह देता है अपनी गोटें मार कर
कौन
छली जो जीत रहा है मुझको मुझसे हार कर
मन का
हीरा हार गई हूं मैं पहले ही दांव में
चौंक
उठा मेरा सूनापन यह किसकी पदचाप से
मेरे
मन की जड़ता जैसे छूट रही अभिशाप से
यह
वरदानी परस छिपा था कौन राम के पांव में
कौन
नया परदेसी आया फिर सपनों के गांव में
किसने
किया बसेरा फिर से इन पलकों की छांव में।
तुम्हारे
हृदय बहुत दिन से वीरान था। तुम्हारा दिल बहुत दिन से सोया था। तुम्हारे दिल की
वीणा बहुत दिन से बजी नहीं। अच्छा हुआ तुम आ गए। यही सोचकर आए थे कि दम भर में लौट
आएंगे देख कर,
चलो इस
बहाने ही आ गए।
इस
जीवन में चमत्कार घटते हैं। आस्तिक भी कभी-कभी पदार्पण हो जाता है किसी किरण का।
बिना बुलाए भी कभी-कभी परमात्मा द्वार पर दस्तक देता है। अनजाने, तुम प्रतीक्षा भी न करते थे
कि कभी-कभी उसके हाथ में हाथ पड़ जाता है। उस समय हिम्मत करना। उस समय भयभीत मत
होना। उस दिन अनजान अपरिचित के साथ चल पड़ना।
अब
हृदय को ले कर भाग मत जाना। बुद्धि तो कहेगी भाग चलो। बुद्धि तो बड़ी कायर है।
बुद्धि तो कहेगी,
"कहां
उलझे जाते हो,
भाग
चलो!' भाग मत जाना। क्योंकि भाग्य
के खुलने का क्षण चूक जाओगे, अगर
भाग गए। भाग्यवान हो कि हृदय यहां अटका।
जब से
तुम प्राण मिले मुझको
यह
जीवन जीवन लगता है।
थोड़ी हिम्मत
रखी तो जीवन में एक नया प्रकाश, एक नया
आलोक, एक नया छंद पैदा होगा।
जब से
तुम प्राण मिले मुझको
यह
जीवन जीवन लगता है
जब से
तुम करुणा बन बरसे
हर
मौसम सावन लगता है।
इसका
पहले जीवन क्या था
जीने
भर का एक बहाना
उम्र
बोझ थी,
सांस
कर्ज थी
जैसेत्तैसे
सभी चुकाना
लेकिन
जब से तुम मिले मुझे
सब
उत्सव पावन लगता है।
रुक
जाना, भाग मत जाना। जीवन उत्सव बन
सकता है। जीवन पावन बन सकता है।
तुम
बिन यह मेला जगती का
मुझको
था मरघट-सा सूना
जब तक
न मिले थे तुम मुझको
हर दुख
बनता था दूना-दूना
लेकिन
तुम जब से मुझे मिले
मेला
मनभावन लगता है।
यही
मैं चाहता हूं कि संसार से तुम भागो भी न। बाजार की भीड़ तुम छोड़ो भी न। भीड़ मनभावन
हो जाए। भीड़ में भी भगवान दिखाई पड़ने लगे। जीवन के छोटे-छोटे कृत्य भी पूजा और
अर्चना बन जाएं।
पहले
था सांप बना जीवन
मन
पत्थर दुखी अहिल्या-सा
मुझको
लगता था यह जीवन
खंडित
हो गई तपस्या-सा
पाया
क्या स्पर्श तुम्हारा, यह
मन-पाहन
चेतन लगता है।
जीवन
पहले मातम ही था
जब तुम
आए, त्योहार हुआ
मेरा
जीवन था तम ही तम
जब तुम
आए उजियार हुआ
राधा
के हित फिर गोकुल से
ज्यों
लौटा मोहन लगता है।
हृदय
रह जाए तो रह जाने देना। उसे यहीं छोड़ जाना। बुद्धि अपने साथ ले जाना। क्योंकि
मुझे तुम्हारी बुद्धि से कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हारा प्रेम यहां रह जाए तो
तुम्हारे प्राणों का धागा मेरे हाथ में रह गया; तो मैं तुम्हें रूपांतरित कर लूंगा; तो तुम्हें बदलने में कोई
कठिनाई न आएगी। बदलाहट सुनिश्चित है। आश्वस्त हो सकते हो कि बदलाहट होगी। क्योंकि
सारी बदलाहट हृदय से आती है, दिल से
आती है;
और
सारी रुकावट बुद्धि से आती है। तो बुद्धि तो तुम अपनी ले जाओ और दुबारा जब आओ तो
बुद्धि ले कर आना भी मत, बुद्धि
घर ही छोड़ आना। और हृदय तुम यहां छोड़ जाओ।
तो अभी
तुम्हारे कपड़े रंग डाले हैं, अब
तुम्हारा हृदय भी रंग डालेंगे। मैं तो रंगरेज हूं; तुम अगर तैयार हो तो हृदय को
भी प्रभु के रंग में रंग लेंगे। और रंग जाए हृदय, तभी तुम पाओगे कि जो पत्थर
जैसा जीवन था वह पहली बार जीवंत हुआ, चैतन्य जगा; जो अब तक मिट्टी का दीया था
खाली-खाली,
उसमें
ज्योति उतरी।
यह
जीवन एक परम मंदिर बनने की संभावना है। इससे कम पर राजी मत होना। छोटी-छोटी बात से
राजी मत होना। असंतोष को जगाए रखना। जब तक कि परमात्मा ही भीतर प्रवेश न कर जाए, तब तक असंतुष्ट रहना। संसार
से हो जाना संतुष्ट और परमात्मा के प्रति बने रहना असंतुष्ट। यह प्यास जलाएगी भी, जगाएगी भी, रूपांतरित भी करेगी।
आज
इतना ही।
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