निस्चै कियो निहार—(प्रवचन—दसवां)
प्रातः; 10 अक्टूबर, 1975; श्री ओशो आश्रम, पूना.
प्रश्न सार :
1—साधना की गति बेबूझ मालूम पड़ती है। कभी सब दौड़
व्यर्थ लगती है कभी लगता है अभी यात्रा भी शुरू नहीं हुई। क्या साधना ऐसे ही चलती
है?
2—क्या दर्शन के लिए विचार और समझ का कोई भी
उपयोग नहीं हो सकता?
3—मेरे जैसे लोग तो जीवन की धूप-छांव से गुजरे
बगैर संन्यस्त हो गए। कृपया बताएं हमारा क्या होगा?
4—सहजो धर्म-साधना गोपनीय ढंग से करने को कहती है, लेकिन हम तो माला और वस्त्र पहन कर उसकी खबर दिए रहते हैं। इस पहलू पर कुछ
प्रकाश डालें।
5—कृपापूर्वक प्रसाद और पात्रता के अंतर्संबंध पर
प्रकाश डालें।
6—ना काहू के संग है, सहजो ना कोई संग। पर सहजो जैसे संत ही संग, सत्संग
का महिमा गुणगान भी करते हैं, ऐसे विरोधाभास क्यों है?
पहला प्रश्न:
साधना की गति
बेबूझ मालूम होती है। किसी क्षण में सब दौड़ व्यर्थ लगती है, साथ ही एक अपूर्व हल्कापन भी अनुभव होता है। लेकिन किसी अन्य क्षण में,
उसी तीव्रता के साथ एहसास होता है कि मंजिल तो दूर अभी यात्रा भी
शुरू नहीं हुई। क्या साधना ऐसे ही चलती है?
सत्य
निकट भी है, निकट से भी निकटतम। और दूर भी है, दूर से भी दूरतम। पास है, क्योंकि तुम्हारा स्वभाव
है। दूर है, क्योंकि पूरे अस्तित्व का स्वभाव है। बूंद सागर
भी है, नहीं भी है। बूंद सागर है, क्योंकि
जो बूंद में वही विस्तीर्ण हो कर सागर में। बूंद सागर नहीं भी है, क्योंकि बूंद की सीमा है, सागर की क्या सीमा?
साधना एक न एक दिन ऐसी जगह ले आती है, जहां लगता है सब मिल गया, और जहां साथ ही लगता है
कुछ भी नहीं मिला। अपनी तरफ देखोगे, लगेगा सब पा लिया। सत्य
की तरफ देखोगे, लगेगा अभी तो यात्रा शुरू भी नहीं हुई। और यह
प्रतीति शुभ है। द्योतक है एक बहुत कीमती बिंदु पर पहुंच जाने की। जिन्हें लगे सब
पा लिया, और दूसरी बात एहसास न हो कि कुछ भी नहीं पाया,
उनका पाना अहंकार की ही पुष्टि है। जिन्हें लगे कुछ भी नहीं पाया,
और साथ ही ऐसा न लगे कि सब कुछ पा लिया, उनकी
यह प्रतीति अहंकार की विफलता ही है। अहंकार सफल होता है तो कहता है, सब पा लिया विफल होता है तो कहता है, सब खो दिया।
लेकिन अहंकार की भाषा या तो पाने की होती है, या खोने की
होती है। दो में से एक को चुनना है अहंकार। निरअहंकार के क्षण में, जहां तुम शून्यवत हो, पाना और खोना समान अर्थी हो
जाते हैं। वही जीवन की सबसे बड़ी पहेली का अनुभव होता है।
ऐसी प्रतीति जब आए तो भयभीत मत होना।
सौभाग्य का क्षण मानता। नाचना, अहोभाव से भरना। यात्रा शुरू भी
नहीं हुई, ऐसा भी लगेगा। सुंदर है ऐसा लगना। क्योंकि
परमात्मा की यात्रा शुरू कैसे हो सकती है? जिसकी भी शुरुआत
है उसका तो अंत आ जाता है। परमात्मा की यात्रा की शुरुआत का तो अर्थ होगा कि तुम
उसका अंत करने को उत्सुक हो। उसकी तो शुरुआत का अर्थ होगा कि तुमने उसकी सीमा बना
दी। एक छोर मिल गया, दूसरा कभी मिल जाएगा। देर-अबेर की बात
होगी। लेकिन परमात्मा को भी तुम माप डालोगे।
अगर ऐसा लगे कि पा ही लिया, तो तुमने कुछ पा लिया होगा जो परमात्मा नहीं हो सकता। जो तुम्हारी मुट्ठी
में समा जाए, वो आकाश नहीं। जो तुम्हारी मुट्ठी में बंद हो
जाए, तुम्हारे शब्द, तुम्हारे मन की
सीमा में आ जाए, जो तुम्हारा अनुभव बन जाए, वो परमात्मा नहीं। वो तुम्हारी मन की ही कोई कल्पना और धारणा होगी। होंगे
तुम्हारे मन की कल्पना के कृष्ण, क्राइस्ट, बुद्ध, महावीर। होंगे तुम्हारे सिद्धांतों की,
आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म
की तत्वचर्चा, लेकिन वास्तविक परमात्मा नहीं। वास्तविक
परमात्मा तो सदा मिला हुआ है। और कभी भी ऐसा नहीं होता कि प्रतीत हो कि पूरा मिल
गया। उसका स्वाद तो मिलता है, क्षुधा कभी मिटता नहीं। और
जैसे-जैसे क्षुधा भारती है वैसे-वैसे बढ़ती है। जैसे कोई आग में घी डालता चला जाए।
प्यास बुझती भी लगती है एक तरफ से, दूसरी तरफ से बढ़ती भी
लगती है। इसीलिए तो परमात्मा का प्रेमी बड़ा पागल मालूम होता है। एक तरफ कहता है वो
मिला ही हुआ है, और दूसरी तरफ कितना श्रम करता है उसे पाने
का। सांसारिक व्यक्ति को लगता है कि यह बात तो अतक्र्य है। अगर मिला हुआ है,
तो पाने की बातचीत बंद करो। और अगर मिली ही नहीं है, तो मिल न सकेगा। क्योंकि जो स्वभाव में नहीं है, उसे
तुम कैसे पा सकोगे?
धार्मिक व्यक्ति सदा ही संसारियों को
बावला मालूम पड़ा है। उसको पाने चलता है जिसको कहता है मिला है। उसको पाने चलता है
जिसको कभी पूरा पाने का उपाय नहीं है। उस यात्रा पर निकलता है जो शुरू तो होती
लगती है, लेकिन अंत कभी नहीं होती। ऐसा क्षण जब तुम्हें प्रतीत
होने लगे और तुम्हारे चारों तरफ ऐसी भनक आने लगे, तब तुम
दोनों बातों के साथ एक साथ राजी हो जाना। चुनना मत। तुम कहना कि तू मिला भी हुआ है,
और तुझे खोजना भी है।
अमरीका के बहुत बड़े विचारक अल्फ्रेड
व्हाइटहेड ने कुछ बड़े महत्वपूर्ण वचन लिखे हैं। उनमें से कुछ वचन में तुम्हें
कहूं। पहा वचन: कि धर्म ऐसी खोज है जो कभी पूरी नहीं होती। शुरू होती लगती है, पूरी होती नहीं लगती। धर्म एक ऐसी आशा है जो ध्रुवतारे की तरह आकाश में
दूर टंगी रहती है। बुलाती है, लेकिन कभी हम उसके पास नहीं
पहुंच पाते। धर्म समझ में आता मालूम पड़ता है, लेकिन जिनकी भी
समझ में आ जाता है उन्हें ही लगता है कि समझना असंभव है। रहस्यमय! यही धर्म के
रहस्य होने का अर्थ है। तुम उसे सुलझाने चलोगे, तुम सुलझ
जाओगे उसे न सुलझा पाओगे। तुम हल्के हो जाओगे। तुम बिलकुल निर्भार हो जाओगे। तुम
परम आनंद में मगन हो नाच उठोगे लेकिन, रहस्य रहस्य ही बना
रहेगा।
और अगर तुम परेशान न हो तो मुझे कहने
दो कि जब तुमने यात्रा शुरू की थी रहस्य जितना था, उससे ज्यादा रहस्य उस
दिन होगा जिस दिन तुम मिट जाओगे और खोजने वाला कोई न बचेगा; उस
दिन रहस्य परिपूर्ण होकर प्रकट होगा। उस दिन रहस्य सब तरफ से बरस उठेगा। विज्ञान
तो रहस्य को नष्ट करता है। जिस बात को हम जान लेते हैं--जान लिया, उसकी जिज्ञासा समाप्त हो गयी। धर्म, जिस बात को हम
जान लेते हैं उसमें नये द्वार खोल देता है। जानने को एक द्वार सुलझा पाते हैं,
दस नये द्वार खड़े हो जाते हैं। धर्म का वृक्ष उसकी शाखाएं-प्रशाखाएं
फैलती ही चली जाती हैं--अनंत तक। मनुष्य प्रवेश तो करता है धर्म की पहली में,
बाहर लौटकर कभी नहीं आ पाता।
यह शुभ हो रहा है। ऐसी प्रतीति हो, उसे भी परमात्मा का प्रसाद मानना। और साधना ऐसे ही चलती है।
दूसरा प्रशन:
आपने कहा कि
दर्शन में विचार बाधा है; और समझ भी बाधा हो सकती है। क्या
दर्शन के लिए विचार और समझ का कोई भी उपयोग नहीं हो सकता?
विचार
का इतना ही उपयोग है कि विचार की व्यर्थता समझ में आ जाए। समझ की इतनी ही समझदारी
है कि समझ आ जाए कि पर्याप्त नहीं। जैसे कांटे को हम कांटे से निकाल देते हैं ऐसे
विचार को हम विचार से निकाल पाए, बस इतना पर्याप्त है। विचार से
कोई सत्य तक नहीं पहुंचता। विचार से सत्य तक पहुंचने में बाधा पड़ती है। इसलिए अगर
हम बाधा को हटा दें, तो कह सकते हैं एक अर्थ में कि विचार ने
भी सहारा दिया। बाधा न रही, हट गया, उतना
सहारा दिया।
जो साधारण विचारक हैं, वो विचार में ही उलझे रह जाते हैं। जो महाविचारक हैं, वो विचार से मुक्त हो जाते हैं। विचार जब गहरा प्रवेश करता है, तब जल्दी ही इस बात की प्रतीति होनी शुरू हो जाती है कि विचार पहुंचना न
हो सकेगा। सोचो, परमात्मा का तुम्हें कोई पता नहीं है,
सत्य का तुम्हें कोई अनुभव नहीं है, जीवन क्या
है? उसकी कोई प्रतीति नहीं है। सोचकर तुम करोगे क्या?
सोचोगे कैसे? जिस सत्य का कोई पता नहीं है,
उसे तुम सोचोगे कैसे? उधार शास्त्र, किन्हीं के कहे हुए वचन, उन्हीं को दोहराओगे। यह
सोचना कहां होगा? यह तो पुनरुक्ति होगी। उसमें भी तुम नया
कैसे जोड़ सकोगे? विचार तो मौलिक कभी होती नहीं। विचार तो सदा
बासा और पुराना है। विचार नया होता ही नहीं। हो ही नहीं सकता। तुमसे अगर मैं कहूं
कि कोई एक ऐसी बात सोचकर बताओ जो तुम जानते ही नहीं हो। तुम कैसे सोचोगे? सोचने के लिए जानना जरूरी है। पहले से जाना हो तो ही सोचना चल सकता है। और
जब पहले से जाना हो, तो सोचने की जरूरत क्या है? जाने को सोचने का क्या प्रयोजन? अनजान सोचा नहीं जा
सकता। तो विचार तो ऐसे हैं जैसे भैंस जुगाली करती है, किए
हुए भोजन को बार-बार मुंह में लाकर बचाती है। विचार जुगाली है। पढ़ा किसी किताब से,
सुना किसी व्यक्ति से, अब उसकी जुगाली कर रहे
हैं। लेकिन नया कुछ उससे पैदा नहीं होता। विचार मृत हैं। उसमें जीवन के अंकुर नहीं
आते।
परमात्मा अज्ञात है। तो विचार से तुम
न जान सकोगे। निर्विचार उसका मार्ग है। छोड़ दो विचार को। जो सीखा है उसे हटा दो, जो सुना है उसे भुला दो। जो समझा है, उससे मन की
पट्टी को साफ कर लो। दर्पण की तरह कोरे, बिना किसी विचार की
तरंग के जगत का साक्षात्कार करो। उस निस्तरंग दर्पण में ही जो छबि बनती है,
जो प्रतिबिंब बनते हैं, वही परमात्मा का प्रतिबिंब
है। विचार इतना सहारा दे सकता है कि तुम्हें और विचार काटने में सहयोगी हो जाए।
मैं तुमसे बोलता हूं। जो बोल रहा हूं, वो तुम्हारे लिए तो विचार ही होगा। मुझे चाहे अनुभव हो। मुझे चाहे
साक्षात्कार हो। जब मैं तुमसे कहूंगा, तुम्हारे लिए तो विचार
ही होगा। तुम तो सुनोगे। अगर विचार से बाधा बनती है, तो
बोल-बोल कर मैं तुम्हारी बाधा को बढ़ा रहा हूं। लेकिन इसी आशा में कि तुम समझोगे तो
विचार का कांटा तुम्हारे भीतर लगे विचार के दूसरे कांटों को निकाल के बाहर ले
जाएगा।
कभी-कभी जहर से जहर जाता है। तुम्हारे
शरीर में एक बीमारी होती है। चिकित्सक के पास जाते हो। वो उसी बीमारी के कीटाणु का
एक इंजेक्शन तुम्हें दे देता है। और उसके शुभ परिणाम होते हैं। जब तुम्हारे भीतर
कोई बीमारी का इंजेक्शन दिया जाता है तो तुम्हारा पूरा शरीर झंझावात में आ जाता है; और तुम्हारा शरीर उस बीमारी से लड़ने के लिए तत्पर हो जाता है। संघर्षरत हो
जाता है--उस संघर्ष करने की चेष्टा में ही तुम बीमारी के पास आ जाते हो। कांटे का
तो तुम्हें अनुभव ही है, पैर मैं लग जाए तो दूसरे कांटे से
तुम उसे निकाल लेते हो। एलोपैथी की अधिकतम दवाएं जहर से बनी हैं। बीमारी जहर है। उसे
मिटाने को और बड़ा जहर हम दे देते हैं।
विचार बाधा है। उसे हटाने को मैं
तुम्हें कुछ विचार देता हूं। इन कांटों का उपयोग कर लो। इसका यह अर्थ नहीं है कि
तुम्हारे विचार फेंक देना और मेरे विचार सम्हाल कर रख लेना। तब तो तुमने पागलपन
किया। एक कांटा निकाल दिया। जिस कांटे से निकाला, उसको घाव में
सम्हालकर रख लिया। दोनों कांटे फेंक देने योग्य हैं। जो तुम्हारे विचार हैं वो भी,
और जो मैं तुम्हें देता हूं--दोनों एक साथ ही फेंक देना, ताकि निर्विचार हो जाओ।
विचार का इतना उपयोग है। इससे ज्यादा
कोई उपयोग नहीं। नकारात्मक उपयोग है। बुद्धिमान व्यक्ति अपने विचार का नकारात्मक
उपयोग करता है। बुद्धू, बुद्धिहीन अपने विचार का विधायक उपयोग करता है।
विधायक--पाजिटिव--उपयोग करने से उलझ जाता है। नकारात्मक उपयोग करने से पार हो जाता
है।
तीसरा प्रश्न:
आपने कहा कि
संसार के अनुभवों से गुजरना आवश्यक है। मेरे जैसे लोग तो जीवन की धूप-छांव से
गुजरे बगैर ही संन्यस्त हो गए। कृपया बताए कि हमारा क्या होगा?
पहली
तो बात, मेरे संन्यास की धारणा संसार के विरोध में नहीं है।
इसलिए मेरे संन्यास में सम्मिलित होकर तुम जीवन की धूप-छांव से बाहर नहीं जा रहे
हो। विपरीत, संसार सिर्फ धूप ही धूप होती है, अब तुम छांव में भी सम्मिलित हो गए हो। मेरे संन्यास में सम्मिलित होकर
तुमने संसार तो छोड़ा नहीं है, संन्यास पा लिया है।
इसको ठीक से समझ लो।
तो संसार की घूप ही धूप थी, अब मैंने तुम्हें संन्यास की छाया भी दे दी। जब सामर्थ्य हो तब धूप में चल
लेना, जब थक जाओ तब छाया में विश्राम कर लेना। मैंने तुम्हें
ध्यान दिया है, तुम्हारा संसार नहीं छुड़वाया। मैंने तुम्हें
कुछ दिया है, तुमसे कुछ छीना नहीं है। इसलिए तुम्हें और
ज्यादा अनुभव की संभावना बढ़ गयी। अगर तुम संसार में ही रहते तो संसार का ही अनुभव
होना, अब संन्यास का भी अनुभव होगा। और तुम दोनों से जब
मुक्त हो जाओगे तब ही वास्तविक संन्यासी हो पाओगे। अभी तो तुम्हारा संन्यास--मैं
लाख समझाऊं--तुम्हें--तुम्हारे संसार का विरोध ही है, तुम्हारे
मन में। अभी तो तुम्हें समझना कठिन है कि धूप और छांव एक ही सूरज का खेल है। छांव
प्रीतिकर लगती है, धूप अप्रीतिकर लगती है। या कभी-कभी छांव
अप्रीतिकर लगती है--सर्दी दिनों में--और धूप प्रीतिकर लगती है। यह तो तुम्हें समझ
में आता है कि धूप और छांव दो चीजें हैं। लेकिन यह तुम्हें समझ में न आएगा कि एक
ही सूरज का खेल है। धूप भी उसी से पैदा होती है, छांव भी उसी
से पैदा होती है। ध्यान रखना, जिस दिन दुनिया से धूप विदा हो
जाएगी, उसी दिन छांव भी विदा हो जाएगा। छांव धूप के बिना
नहीं हो सकती दिन के बिना रात नहीं हो सकती। सुबह के बिना सांझ नहीं हो सकती। जन्म
के बिना मृत्यु नहीं हो सकती। जवानी के बिना कैसे होगा बुढ़ापा? दोनों जुड़े हैं। कोई एक ही हर्जा दोनों में गतिमान है। तो पहली तो बात यह
समझ लेना कि संसार धूप ही धूप है, चिंता ही चिंता है,
तनाव ही तनाव है। इतनी चिंता, इतना तनाव कि
धीरे-धीरे लगने लगता है, वही तुम्हारा स्वभाव हो गया है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपना फोटो निकलवाने
एक स्टूडियो में गया। वह जब चित्र उतरवाने बैठा तो फोटोग्राफर ने कहा, महानुभाव एक क्षण को तनाव, चिंता, बेचैनी, यह मुर्दा सा भाव, उदासी,
ये मरा-मरापन एक क्षण को कृपा करके छोड़ दें, फिर
आप अपनी स्वाभाविक मुद्रा में आ सकते हैं। फोटो उतर जाने दें, फिर अपनी स्वाभाविक मुद्रा आप वापिस ग्रहण कर लेना।
जो अस्वाभाविक है वह स्वाभाविक हो गया
है। चिंता अस्वाभाविक घटना होनी चाहिए, शांति स्वाभाविक।
बेचैनी कभी किसी प्रसंग में घट जाए, समझ में आ सकती है।
लेकिन बेचैनी तुम्हारे जीवन की शैली बन जानी चाहिए। पर जो संसार में ही रहता
है--चिंता, तनाव, विचार, समस्याएं, उलझनें, भविष्य,
योजनाएं, असफलताएं, संघर्ष,
प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता, जलन,र् ईष्या, मोह, लोभ, क्रोध, इन सब में जो जीता
है, धीरे-धीरे भूल ही जाता है कि छांव के क्षण भी है।
तो मैंने तुमसे धूप छीनकर अगर छांव दी
होती, तो वह छांव अधकचरी होती। क्योंकि छांव का भी गहरा
अनुभव तभी होता है जब तुम धूप से थके-मांद वापिस लौटते हो। छांव में ही बैठे रहो
तो छांव भी छांव न मालूम पड़ेगी। जब थके-मांदे तम लौटते हो घर की छांव में, तब झोपड़ा भी महल मालूम होता है। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, संसार में भागना मत। हां, ध्यान की छांव को बनाने की
कोशिश करना। जब थक जाओ तो ध्यान में डूब सको। जब बेचैन और परेशान लौटो, तो ध्यान के छप्पर के नीचे विश्राम कर सको।
पहली बात, मैंने तुमसे संसार नहीं छीना। तुम्हें कुछ दिया है। इसलिए मैं निरंतर कहता
हूं कि ज्ञानियों ने तुम्हें त्याग नहीं सिखाया, महाभोग
सिखाया है। और किसी की फिकर भी छोड़ दो। मैं तो निश्चित ही तुम्हें महाभोग सिखाता
हूं। मैं तो कहता हूं परमात्मा को भी भोगना है। संसार को ही भोगते रहे तो तुम कुछ
भी न भोगे। तुम कूड़ा-करकट से उलझे रहे। तुम कंकड़-पत्थर बीनते रहे, जब कि हीरे-जवाहरात पास ही उपलब्ध थे। तुम गंदी नदी का पानी पीते रहे,
जब कि स्वच्छ पहाड़ों से बहते हुए झरने पास ही प्रवाहित थे। जरा आंख
खोलने की, हाथ बढ़ाने की, उठकर जरा सा
जाने की जरूरत थी कि स्फटिव-मणि जैसे स्वच्छ जल के स्रोत मिल जाते। तुम गंदी
नालियों के पास बैठे पानी पीते रहे।
संसार गंदी नाली है, जहां बड़ी भीड़-भड़क्का है। जहां बहुत लोग स्नान कर रहे हैं, बहुत लोगों की गंदगी बह रही है। और ध्यान, दूर
हिमालय के शिखरों में बहता हुआ झरना है। मैंने तुमसे गंदी नाली नहीं छीनी, क्योंकि उसे छीनने से कोई सार नहीं है। अगर तुम्हारी गंदा करने की आदत न
हट जाए तो तुम हिमालय के स्वच्छ झरने को भी गंदा कर लोगे। तुम जब तक गंदा न करोगे
तब तक तुमको पानी पीने योग्य ही न मालूम पड़ेगा।
एक आदमी राह से गुजरता था। गिर पड़ा।
बेहोश हो गया। धूप थी, घना दोपहर का सूरज था। भीड़ इकट्ठी हो गयी। जिस राह से
गुजरता था वह गंधियों की राह थी, जहां गंध बेचने वाले लोगों
की बड़ी बहुमूल्य दुकानें थी। एक गंधी दया
करके भागा हुआ आया, उसके पास जो सबसे कीमती इत्र था वो लाया।
क्योंकि आयुर्वेद कहता है कि अगर बहुत गहरी मूर्च्छा हो, हिलाने
से भी न टूटती हो, जगाने से भी न खुलती हो, तो गहरी कोई तीव्र गंध भीतर चली जाए नासापुटों से तो जगा देती है। उसने
बड़ी गहरी गंध--बड़ी बहुमूल्य--जिसका एक बूंद हजारों रुपये का होता उसे सुंघाई,
वह आदमी अपने नींद में तड़फड़ाने लगा। लेकिन जागा नहीं; उल्टा बेचैन मालूम पड़ा। भीड़ इकट्ठी हो गयी। एक आदमी ने कहा, रुको, तुम उसे मार मत डालना। मैं उसे जानता हूं।
ठहरो! यह कीमती गंध उसके काम न आएगी। वो जो आदमी गिर पड़ा था उसी के पास उसकी टोकरी
और एक गंदा सा फट्टा का टुकड़ा पड़ा था, जिसको वो अपने साथ ले
जा रहा था। इस दूसरे आदमी ने पानी बुलवाया उस गंदी टोकरी पर पानी छिड़का, और उस आदमी के मुंह पर रख दी। उसने एक गहरी श्वास ली और वो होश में आ गया।
वो मछुआमार था। और उस टोकरी में मछलियां बेचकर घर लौट रहा था। उसे टोकरी में
मछलियों की गंध थी। पर वही एकमात्र गंध थी जिसको उसने जीवन भर सुगंध की तरह जाना
था। वही उसकी आत्मीय और परिचित थी। वो आदमी उठकर बैठ गया और उसने कहा कि मेरे भाई,
अगर आज तुम न होते तो ये मुझे मार डालते। मैं भी कहां दुष्टों के
चक्कर में पड़ गया--ऐसी-ऐसी दुर्गंध में सुंघा रहे थे कि मेरे प्राण तड़फ रहे थे।
मैं चिल्लाना भी चाहता था लेकिन चिल्ला नहीं पाता था, चीख
नहीं पाता था। हाथ हिलाना चाहता था, हिला नहीं पाता था,
एक बड़ी गहरी तंद्रा ने पकड़ लिया था। और यह दुष्ट न मालूम क्या-क्या
मेरी नाक पर डाल रहे थे। तुम भले आ गए जो तुमने मछलियों की सुगंध मेरे पास ला दी,
तो मैं जाग आया। तुम अगर संसार से अधपके भाग जाओगे तो तुम हिमालय
में बहते झरने को भी जब तक गंदा न कर लोगे तब तक तुम उसे पीने योग्य न पाओगे। मैं
तुम्हें संसार से नहीं छीना हूं, तुम्हें अलग नहीं किया हूं।
उल्टी मेरी चेष्टा है। मैं चाहता हूं कि हिमालय का झरना तुम जहां संसार में हो
वहां बहता हुआ तुम्हारे पास आ जाए। और तुम दोनों को आमने-सामने अनुभव कर सको--यह
गंदी नाली, और यह झरना। और चुनाव किसी लोभ के कारण न हो,
समझ के कारण हो, बोध के कारण हो। और धीरे-धीरे
तुम्हें स्वच्छ जल का स्वाद लग जाए। सुगंध तुम्हें पकड़ने लगे। दुर्गंध तुम्हें
पहचान में आ जाए। इसलिए यह तो तुम कहो ही मत, मेरे जैसे लोग
जीवन की धूप-छांव से गुजरे बगैर संन्यास में सम्मिलित हो गए हैं, हमारा क्या होगा? ऐसा पूछो तो ठीक होगा कि हम अगर
संन्यास में सम्मिलित न होते तो हमारा क्या होता?
मैं तो अनुभव के पक्ष में हूं। इस
सीमा तक अनुभव के पक्ष में हूं कि अगर बुराई की भी मन में बहुत आकांक्षा उठती हो
तो उसे भी कर लेना। फल पाना पड़ेगा। उससे मैं तुम्हें नहीं बचा सकता। क्रोध करना हो, क्रोध कर लेना। काम करना हो, काम कर लेना। लोभ करना
हो, लोभ कर लेना। फल तुम्हें पाना पड़ेगा। मैं यह नहीं कहता
कि तुम फल से बचोगे। दुख तुम्हें भोगना पड़ेगा। लेकिन अगर भोगने की आकांक्षा हो तो
भोग ही लेना। बिना भागे वो बीज तुम्हारे भीतर पड़ा रहेगा और बार-बार आकर्षित करेगा।
अनभोगी वासनाएं भोगी वासनाओं से बदतर हैं। जो नहीं भोगा है उसकी पकड़ तुम पर ज्यादा
होती है, बजाय उसके जो भोग लिया गया है। जिसे तुम भोग लेते
हो, जान लेते हो, पहचान लेते हो,
तुम मुक्त ही हो गए।
तो संसार को ठीक से जान ही लो। जल्दी
कोई भी नहीं है। बाजार को ठीक से पहचान ही लो। जिस दिन तुम बाजार से मुड़ के चलो
पीठ कर के, उस दिन फिर उसकी तुम्हें याद भी न आए। पीछे लौटने का
मन भी न हो। एक बार देखने की भी इच्छा न हो कि पीछे लौटकर देख लें, इस तरह समाप्त हो जाए। इस तरह समाप्ति निर्णय से नहीं होती; संकल्प से नहीं होती। इस तरह की समाप्ति गहन अनुभव से होती है। बोध से
होती है। तुम जीयोगे तो ही ऐसी समझ पैदा होगी। क्योंकि एक दिन तुम पाओगे, इन ठीकरों में क्या रखा है? मैं कहता हूं इसलिए नहीं,
कबीर-सहजो कहते हैं इसलिए नहीं, वेद-उपनिषद
कहते हैं इसलिए नहीं। तुम पाओगे यह उपनिषद तुम्हारे भीतर जगेगा यह वेद तुम्हारा
वेद होगा। तुम पाओगे कि व्यर्थ है। देख लिया, सब तरह से
स्वाद चख लिया, सिवाय पीड़ा के कुछ भी न पाया। जहर है। हाथ से
छूट जाएगा उस दिन।
उस दिन तुम्हारा संन्यास संसार के
त्याग से नहीं संसार के अनुभव से उठेगा। संसार के ज्ञान से उठेगा। उस दिन तुम्हारा
संन्यास संसार के विपरीत नहीं होगा।न ही मैं कितना ही कहूं, तुम्हारा संन्यास संसार से थोड़ा विपरीत है। तुम्हें लगता है कि तुम कुछ
भिन्न कर रहे हो। उस दिन तुम जानोगे, संन्यास भी गया संसार
भी गया। जिस दिन द्वंद्व चला जाए, द्वैत चला जाए, उस दिन असली संन्यासी घटित होता है। उस दिन तुम दोनों के पार हो गए। उस
दिन तुमने जानी धूप और छांव एक ही सूरज की है। उस दिन तुमने जाना कि संसार और
संन्यास एक ही मन का खेल है, एक ही अहंकार का खेल है। उस दिन
दोनों से तुम मुक्त हो गए।
संसार से सो मुक्त हुआ वो संन्यास से
भी मुक्त हो जाता है। यह बात तुम्हें जरा कठिन लगेगी। क्योंकि यह गणित और तर्क में
नहीं बैठती। तुम तो सोचते हो जो संसार छोड़ता है वह संन्यासी, अगर तुम मुझसे पूछते हो तो मैं कहता हूं जिसका संसार छूट गया उसका तो
संन्यास भी छूट गया। यह तो ऐसे ही, जैसे जिस दिन बीमारी छूट
गयी उस दिन औषधि भी छूट गयी। बीमारी छूट गयी, औषधि की बोतल
लिए बाजार में घूम रहे हो। कोई भी तुम्हें पागल कहेगा। तुम कहोगे बीमारी तो मिट
गयी, अब टी. बी. के शिकार न रहे, मगर
अब यह बोतलें लिए फिरते हैं। यह प्रस्क्रिप्शन सब इकट्ठे कर लिए, इनका शास्त्र बना लिया, जिल्द बनवा ली मखमल की,
सोने का धागा बांध लिया, अब इसको बगल में दबाए
रहते हैं। बोतल रखे हैं। जितने एक्स-रे निकले हैं वो सब सम्हाले हुए हैं। बीमारी
तो चली गयी; संसार तो छूटा, अब संन्यास
को लिए घूम रहे हैं। सोचो, पागल हो? और
अगर ऐसा तुम्हें कोई पागल रास्ते पर मिल जाए तो क्या तुम कह सकोगे इसकी बीमारी छूट
गयी? यह तो और महाबीमारी का शिकार हो गया। इससे तो टी. बी.
बेहतर थी। उसका कम से कम इलाज हो सकता था। अब जो बीमारी है उसका इलाज कौन करेगा?
ये एक्स-रे, और यह प्रस्क्रिप्शन, ओर यह जो शास्त्र पकड़ा है, और यह जो बोतलें सम्हाले
है--खाली, अधूरी, भरी, पुरानी--इनको अब कौन छुड़ाएगा? इसका तो कोई किसी
चिकित्साशास्त्र में इलाज नहीं है।
नहीं, लेकिन सौभाग्य से ऐसा
होता नहीं। बीमारी जाती है, औषधि भी तुम फेंक देते हो। जिस
दिन बीमारी गयी उसी दिन तुमने औषधि भी खिड़की के बाहर फेंकी। संन्यास औषधि है संसार
की। संसार ही चला जाएगा, संन्यास को कौन पागल बचाता फिरता
है! वो भी गया उसी के साथ। वो एक ही सिक्के का दूसरा पहलू था। जिस दिन दोनों चले
जाएंगे उस दिन तुम अगर मुझसे पूछोगे तो मैं कहूंगा, संन्यास
हुआ। संन्यास के भी पार है संन्यास। उसका भी अतिक्रमण कर जाता है।
और तुम पूछते हो, कृपापूर्वक बतायें कि हमारा क्या होगा? अगर संन्यास
में डूबते ही रहे तो डूब जाओगे, मिट जाओगे, खो जाओगे। परमात्मा बचेगा, तुम न बचोगे। अगर समय के
पहले भाग गए, तो तुम बच जाओगे, परमात्मा
न मिलेगा। तो यह तो सारा हिसाब ही डुबाने का है। मेरे साथ दोस्ती बांधी तो उसका
मतलब कि डूबोगे, मिटोगे। बचने न देंगे। सब उपाय करेंगे कि
मझधार में नाव डूब जाए। क्योंकि तुम्हें तो मझधार में ही डूबना हो जाए, तो ही समझो ऐसा किनारा मिलेगा जहां तुम संसार न बसा सकोगे।
तो मेरे साथ तो डूबने वालों का जोड़ बन
सकता है।जो अपने को बचाने चले हैं उन्हें मुझे बहुत खतरा मालूम पड़ेगा। उनके लिए
दूसरी जगह हैं, दूसरे लोग हैं, जो उन्हें बचाने
की व्यवस्था देते हैं। मैं तुम्हें मिटने की व्यवस्था देता हूं। मैं तुम्हें
मृत्यु सिखाता हूं। क्योंकि मैंने जाना कि जब तुम मरोगे, मिटोगे,
तभी तुम्हारे जीवन में महाजीवन का अवतरण होगा। तभी तुम्हारी बूंद
में सागर उतरेगा। तो क्या होगा? मिटोगे? बच न पाओगे।
अगर मेरी चली तो मिटोगे। अगर तुम बीच
में भाग खड़े हुए, तो तुम्हारा दुर्भाग्य।
चौथा प्रश्न:
सहजो कहती है कि
धर्म की साधना गोपनीय ढंग से की जाए--जाने ना संसार। आप भी यही कहते हैं। लेकिन हम
तो संन्यास के वस्त्र और माला पहनकर उसकी खबर दिए रहते हैं। इस पहलू पर कुछ प्रकाश
डालें।
मनुष्य
एक ऐसी बीमारी है, एक तरफ से सम्हालो दूसरी तरह से बिगड़ जाती है;
दूसरी तरफ से सम्हालो पहली तरफ से बिगड़ जाती है। सहजो ने जब
कहा--जाने ना संसार, तब बीमारी एक तरफ से सम्हाली गयी थी और
दूसरी तरफ से बिगड़ गयी थी।
समझ लें दोनों पहलू।
मनुष्य साधना करना नहीं चाहता है
दिखना चाहता है। यह मनुष्य के अहंकार का हिस्सा है। बिना किए अगर दिखावे की सुविधा
हो तो बड़ी सस्ती है। ध्यान करना कठिन है, माला फेरना आसान है।
माला फेरने से ध्यान का क्या लेना-देना है? माला तो फेरी जा
सकती है बड़ी आसानी से। ध्यान में तो सारा जीवन रूपांतरित करना होगा। फिर ध्यान तो
भीतर होगा, किसी को पता भी न चलेगा। तो जो मजा अहंकार को
मिलना चाहिए कि लोग समझें कि बड़े ध्यानी हैं, वो मजा भी नहीं
मिलेगा। ध्यान तो मिलना कठिन है, ध्यानी हैं, ऐसा लोगों को पता चल जाए--इससे जो थोड़ा सा मजा मिलता, वो भी नहीं मिलेगा।
माला में दोनों सुविधाएं हैं। ध्यान
करने की कोई झंझट भी नहीं है--हाथ उठाया, माला फेरते चले
गए--और मुहल्ले-पड़ोस में, गांव-पर गांव में खबर हो जाती है
कि आदमी बड़ा ध्यानी है। लोग थैली बना लेते हैं। थैली के भीतर हाथ डाले रहते हैं,
उसमें माला चलाते रहते हैं। थैली और भी सुविधा की है। कभी न कभी चलायी
तो भी कोई खास पता नहीं चलता। और लोगों को लगता है, चला ही
रहे होंगे तब तो थैली में माला लिए बैठे हैं। जब चलायी तब चला ली। और पता नहीं
माला के मनकों पर रुपए गिन रहे हैं कि क्या गिन रहे हैं? कुछ
पक्का नहीं। राम-राम गिन रहे हों इसका कुछ पक्का नहीं है। थैली में माला भी छिपी
है हाथ भी छिपा है। चल रहा है। न भी गिन रहे हों, सिर्फ हिला
रहे हों हाथ, तो भी लोगों को वहम होता है कि बड़े ध्यानी है।
हजारों-लाखों लोग बिना साधना में
उत्सुक हुए साधना दिखाने में उत्सुक हो गए। तब सहजो जैसे संतों ने कहा--जाने ना
संसार; कुछ ऐसा करो कि किसी को पता न चले। क्योंकि तुम तो
सिर्फ पता ही करवा रहे हो, भीतर तो कुछ हो नहीं रहा। तुम
जानो, तुम्हारा करतार--उतना काफी है। तुम्हारे और तुम्हारे
परमात्मा के बीच मामला है। इसका बीच बाजार में खड़े होकर घोषणा करने की, डंडी पीटने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें रमा-राम जपना तो रामनाम जपो।
लेकिन माइक लगाकर और अखंड उपद्रव मचाने की कोई आवश्यकता नहीं है कि चौबीस घंटे
मोहल्ले भर की जान ले डालो। हालांकि कोई भी आदमी जब चौबीस घंटे का पाठ करता है तो
वो माइक लगवाकर करता है। ऐसे रामनाम के बहाने पड़ोसियों को सताने का भी मजा आ जाता
है। और कोई कुछ कह भी नहीं सकता--धर्म के खिलाफ तो बोलना ही मुश्किल है। कोई यह भी
नहीं कह सकता कि हमारे बच्चों की परीक्षा हो रही है, यह
उपद्रव न करो। परीक्षा वगैरह तो सांसारिक चीजें हैं, यह
रामनाम तो...। इससे तो लाभ ही होगा बच्चों को। उत्तीर्ण हो जाएंगे। शोरगुल कर के
अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है।
तो सहजो ने कहा, नहीं। यह तुम्हारे और तुम्हारे परमात्मा के बीच है, और
परमात्मा बहरा नहीं है, माइक लगाने की कोई जरूरत नहीं है।
ओंठ भी न हिलें। ओंठ की क्या हिलाने? हृदय से ही बात हो जाए।
मगर, तब दूसरी बीमारी आदमी
में पकड़ती है। जो कुछ भी नहीं करते, असली हैं, काहिल हैं, सुस्त हैं, अगर तुम
उनसे भी कहो तो वो कहते हैं, हम तो ओंठ भी नहीं हिलाते। हम
तो हृदय से हृदय में करते हैं। किसी को बताना थोड़ी है--ना जाने संसार। छिपाना है।
इतना भी भर बता देते हैं कि हम छिपाते हैं। इससे ज्यादा नहीं बताते। इसलिए हम
गेरुआ-वस्त्र नहीं पहनते, किसी को बताना थोड़े ही है। माला
हाथ में नहीं लेते, किसी को बताना थोड़े ही है। मंदिर नहीं
जाते, किसी को बताना थोड़े ही है। दुकान पर ही हरते हैं,
धन ही कमाते हैं, लेकिन भीतर ही भीतर हृदय की
हृदय से वार्ता चलती रहती है। यह दूसरी चालबाजी है।
या तो तुम बताओगे बिना कुछ किए। या
तुम बिना कुछ किए दावा करोगे कि भीतर ही भीतर कर रहे हो, इसलिए किसी को पता नहीं चल रहा है। वह जो पहले वर्ग का आदमी है, वो दूसरों की निंदा करेगा कि मंदिर नहीं जाते, पूजा
नहीं करते; अधार्मिक हो, नर्क में
सड़ोगे। यह जो दूसरी तरह का आदमी है, यह भी निंदा करेगा
उनकी--अच्छा! तो गेरुआ वस्त्र पहन कर चल रहे हो! माला! ! दिखावा कर रहे हो! नर्क
में सड़ोगे। ये दोनों ही बीमार स्थितियां हैं।
अब मेरे सामने सवाल है, क्या करूं? अगर तुमसे कहूं कि चुपचाप करो, तुम बिलकुल राजी हो। क्योंकि उसमें कोई झंझट ही हनीं है, करने का ही सवाल नहीं है। इतना चुपचाप तुम करते हो कि करते ही नहीं हो।
बात ही नहीं है कोई, पता किसको चलेगा? वहां
बेईमानी की सुविधा है। अगर तुमसे कहूं कि जरा जोर से, होंठ
से पता चले कि क्या जप रहे हो भीतर। रुपया-रुपया-रुपया कह रहे हो कि राम-राम-राम,
इतना तो कम से कम पता चलने दो! तो तुम कहते हो, इससे तो लोगों को पता चल जाएगा। फिर यह संतपुरुष जो कहते रहे। तो फिर
मैंने सोचा कुछ ऐसा करो, आधा बाहर आधा भीतर। गेरुआ-वस्त्र
बाहर पहन लो, माला गले में लटका लो; ध्यान,
संन्यास भीतर चलने दो। दोनों तरफ से तुम्हें बचाने की जरूरत है।
तुम इतने बेईमान हो, ऐसे चालबाज हो कि तुम हर जगह से अपनी बेईमानी का कोई उपाय खोज लेते हो। तो
मैंने कहा कि थोड़ा सा दिखावा, ठीक, कोई
हर्जा नहीं है। जब जरूरत होगी उसको छुड़ा देंगे। उसमें कितनी देर लगेगी? गेरुआ-वस्त्र छोड़ने में कितनी देर लग सकती है? एक
क्षण का सवाल नहीं है। जिस दिन तबीयत होगी, छुड़ा देंगे। माला
समंदर में डाल देने में, कुएं में डाल देने में कितनी देर
लगती है? उसमें कोई बड़ी अड़चन नहीं है। उसमें कोई तुम बंध
नहीं गए हो। लेकिन थोड़ा सा बाहर। ताकि सुस्त होने का मौका न आए, आलस्य न पकड़े।
एक मित्र हैं। संन्यास लिया। कहने लगे
कि मैं शराबी हूं, आप सोचकर मुझे संन्यास दें। मैंने कहा, अगर मैं सोचकर दूं तो फिर किसी को दे ही न पाऊंगा। फिर मेरी दशा मेरे एक
अध्यापक जैसी हो जाएगी--
मेरे एक शिक्षक थे दर्शनशास्त्र के।
वो परीक्षा-पत्र कोई जांचते नहीं थे। वो कहते थे, अगर जांचूं तो कोई
पास न हो पाएगा। और बात सच थी। अगर जांचो ही ठीक से, ओर
दर्शनशास्त्र का मामला हो, तो पास होना बहुत मुश्किल! तो वो
बिना जांचे अंक दे देते थे--आंख बंद कर के--दस, पंद्रह,
बीस...जोड़-जोड़ लगा के वो...! मैं उनका विद्यार्थी था, वो मुझे दे देते थे कि तम यह...मैं विद्यार्थी एम. ए. की पूर्वाध का,
और एम. ए. के उत्तरार्ध के मैंने परीक्षा-पत्र जांचे। वो मुझे दे
देते कि तुम्हीं रख दो, एक ही बात है। क्योंकि मैं अगर
जांचूंगा, तो कोई पास न हो पाएगा। पास करना हो तो बिना ही
जांचे उपाय है।
तो मैंने उनसे कहा कि अगर मैं बहुत
जांच-पड़ताल करूं तो मैं किसी को संन्यास न दे पाऊंगा। फिर मैंने सोचा छोड़ो यह
फिकिर। जो आए, दे दो। शराब पीते हो! कोई फिकिर नहीं, पियो। चिंता तुम्हारी होनी चाहिए। मुझे क्या चिंता? एक
शराबी ने संन्यास लिया, इसमें क्या हर्जा है। आखिर बीमार ही
तो अस्पताल आता है। बीमार ही तो औषधि खोजता है। बुरा ही तो भले होने की आकांक्षा
करता है। अगर मैं बुराई को ही शर्त बना लूं कि तुम पहले बुराई छोड़ो तब संन्यास
दूंगा, जब तो इसका अर्थ हुआ कि औषधि तभी दी जाएगी जब तुम
स्वस्थ हो जाओगे। यह तो शर्त जरा ज्यादा हो जाएगी। तुम शराब पीते हो, यह तुम्हारी फिकर है। मैं तुम्हें संन्यास देता हूं। अब चिंता तुम्हारी है
कि संन्यासी होकर शराब पीना कि नहीं। शराब पीते हुए को संन्यास देना कि नहीं,
यह मेरी चिंता नहीं। मैं तो देता हूं। क्योंकि मैंने देखा, सभी शराबी है। कोई साधारण शराब पी रहे हैं, कोई पद
की पी रहे हैं, कोई धन की पी रहे हैं, कोई
कुछ और ढंग से पी रहे हैं। नशे में सभी हैं। क्योंकि सभी के पैर लड़खड़ा रहे हैं। तो
मैं तो तुम्हें देता हूं। तुम चिंता कर लेना।
वो आठ दिन बाद आया उसने कहा कि झंझट
में डाल दिया। अब शराब की दुकान पर जाने में डर लगता है। क्योंकि लोग देखने लगते
हैं--गेरुआ-वस्त्र पहने! स्वामी जी!! आप यहां कैसे? तो कल तो, उन्होंने कहा कि मुझे झूठ बोलना पड़ा। मैंने कहा मैं जरा यहां देखने आया
हूं कि कौन-कौन लोग मोहल्ले में शराब पीते हैं। मैं कोई खरीदने नहीं आया। और बिना
ही...खाली हाथ वापस लौट आया गेरुआ-वस्त्र पहन के, माला डाले,
सिनेमा की क्यू में टिकट खरीदने खड़े होकर देखना। कोई जयरामजी कर
लेगा। कोई पैर छू लेगा। भागे! निकले कहां से कि यहां तो झंझट है।
बाहर का देश तुम्हें आलस्य के थोड़े
बाहर लाएगा। और तुम्हें थोड़ी स्मृति रखने की क्षमता बनाएगा। एक रिमेंबरेंस, एक स्मरण रहेगा कि मैं संन्यस्त हूं। तुम चूक-चूक जाते हो, भूल-भूल जाते हो। दूसरे याद दिला देंगे। कोई नमस्कार कर लेगा। कोई सिर
झुका देगा। और भारत तो बड़ा अनूठा देश है। यह फिकर ही नहीं करता। अगर तुम्हारा
गेरुआ-वस्त्र है तो पैर छूता है। कोई...यह बड़ी कारगर बात है। यह भारत ने समझ कि
संन्यासी को भी याद दिलाने की जरूरत है कि तुम आदर योग्य हो। यह बड़ी कीमिया है
गहरी। उसके भीतर राज है। राज यह है कि हम तुम्हें आदर दे रहे हैं; तुम आदर योग्य हो। अब आदर योग्य होने की चेष्टा करना। वो तुम्हें जगा रहा
है। जहां जाओगे वहीं कोई तुम्हें जगाने वाला मिल जाएगा। खुद भी आईने के सामने खड़े
होओगे तो अपना गेरुआ-वस्त्र, माला एक स्मृति देगी। अभी तुम
गहरी मूर्च्छा में हो। यहां छोटी-छोटी स्मृति के साधन भी कारगर होंगे। और छुड़ाने
में क्या दिक्कत है? किसी भी दिन देंगे कि बस अब छोड़ दो।
संसार पहले छोड़ दिया, अब संन्यास भी छोड़ दो। अब दोनों झंझट
के बाहर हो जाओ। बाहर थोड़ा सा और भीतर थोड़ा सा। ध्यान भीतर, वस्त्र
बाहर। वस्त्र बाहर, वस्त्र बाहर के लिए हैं ही, ध्यान भीतर के लिए हैं। प्रेम भीतर, माला बाहर। नाम
बाहर, अनाम भीतर। और जैसा मैं जानता हूं बाहर भीतर अगर दो
होते हो हम विभाजन भी कर लेते, वो दो नहीं हैं। वो दोनों
इकट्ठे हैं। कहां से भीतर शुरू होता है? कहां से बाहर अंत
होता है? सब जुड़ा है। संयुक्त है। बाहर भी तो तुम्हारा भीतर
ही आया हुआ है। भीतर भी तुम्हारा बाहर ही गया हुआ है। तो दोनों को एक ही रंग में
रंग डालो। भीतर भी ध्यान का रंग हो, बाहर भी ध्यान का रंग
हो। भीतर भी ध्यान की अग्नि जले, बाहर भी अग्निवेश हो। अच्छा
होगा।
इसलिए सहजो से मैं राजी हूं कि--जाने
ना संसार, अपने ध्यान की बात किसी को क्या कहनी। उसे तो सम्हाल
कर रखना। लेकिन वस्त्र ध्यान थोड़ी है। वस्त्र तो संसार के ही हैं। कोई तो वस्त्र
पहनोगे ही। सांसारिक के पहनोगे। मैंने तुम्हें कहां, संन्यासी
के पहनो। वस्त्र ही चुनते हैं, तो संन्यासी के बेहतर। वस्त्र
तो चुनोगे ही। अगर निर्वस्त्र होने की तैयारी हो, तो मैं
कहूंगा ठीक है, संन्यासी का वस्त्र भी छोड़ दो। कुछ तो पहनोगे?
कोई रंग तो चुनोगे? कोई ढंग तो चुनोगे?
मंदिर में रहोगे। मकान में रहोगे। कहीं तो रहोगे? जब रहना ही है, तो मैं कहता हूं मंदिर में ही रहो।
फिर मकान में क्या रहना। अगर मकान को भी मंदिर के ढंग से बना लो, शुभ है। इसलिए एक सेतु बनाया।
बाहर और भीतर को अलग-अलग करने कोई
जरूरत नहीं है। जो भीतर का है उसे छिपाना। जो बाहर का है उसे दिखाने की कोई जरूरत
नहीं है। तुम गैरिक-वस्त्र पहन कर हाथ में एक घंटा लेकर मत बजाना कि देखो भाई, आ गए हम! उतनी कोई जरूरत नहीं है। लेकिन कोई देख ले तो छिपने की कोई जरूरत
नहीं है कि दीवाल के पीछे छिप गए कि कोई देख न ले। सहज होना। उतना पर्याप्त है।
पांचवां प्रश्न:
कृपापूर्वक
प्रसाद और पात्रता के अंतर्संबंध पर प्रकाश डालें।
पात्रता
पर्याप्त नहीं है। बिना पात्रता के भी प्रसाद नहीं मिलेगा। पर पात्रता के कारण
नहीं मिलता है प्रसाद। यह जटिलता है। इस थोड़ा समझ लेना जरूरी है। पात्रता का अर्थ
है तुम योग्य हो। लेकिन जैसे ही योग्यता का खयाल आता है वैसे ही अहंकार निर्मित हो
जाता है कि मैं योग्य हूं, मैं पात्र हूं। जैसे ही तुम्हें वह लगता है, मैं पात्र हूं, वैसे ही एक मांग खड़ी हो जाती है कि
अब मुझे मिलना चाहिए। न मिले तो शिकायत होती है। और मिल जाए तो धन्यवाद पैदा नहीं
होता, क्योंकि मैं पात्र था ही।
कबीर ने कहा है मरने के वक्त कि मैं
अब काशी में न मरूंगा। मुझे मगहर ले चलो। कहावत थी कि काशी में तो अगर गधा भी मरे
तो मोक्ष--वैकुंठ--पहुंच जाता है, और मगहर में अगर ज्ञानी भी मेरे
तो आले जन्म में गधा हो जाता है--तो कबीर ने कहा, मैं मगहर
मरूंगा।
क्यों?
तो कबीर ने कहा, अगर काशी में मरने से मोक्ष मिला तो इसमें प्रभु की अनुकंपा क्या? यह तो काशी की पात्रता थी कि मोक्ष मिला। मिलना ही चाहिए था। मगहर में
मरेंगे। अगर गधा हो गया अगले जन्म में, तो अपने कारण। और
मोक्ष मिला, तो उसकी अनुकंपा से। यह बड़ी प्यारी बात है। मरे
मगहर जाकर। जीवनभर काशी में बिताया। तो सूचना है एक। एक खबर, इशारा किया इशारा किया कि अपनी पात्रता के अगर मोक्ष भी मिलता हो तो भी
अहंकार ही है। उसकी अनुकंपा से मिले।
तो जिसको भी पात्रता होगी उसको एक
सूक्ष्म अहंकार आना शुरू हो जाएगा कि मैं योग्य हूं। मुझे मिलना चाहिए। मिले तो
धन्यवाद पैदा न होगा। न मिले तो शिकायत पैदा होगी। और जहां धन्यवाद का भाव न हो
वहां परमात्मा नहीं बरसता। जहां अहोभाव न हो, जहां अहंकार हो,
वहां तो पर्दा है आंखों पर। वहां तो आंखें अभी अंधी हैं। वहां तो
हृदय अभी जागा नहीं, सोया है। इसलिए पात्रता जरूरी तो है,
काफी नहीं है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम अपात्र
होने की कोशिश करना। कोई परमात्मा की परीक्षा लेने की भी जरूरत नहीं है। पात्रता
को तुम सहजता से स्वीकार करना। उससे, मेरी तरफ से मैं
तैयार हूं। लेकिन इससे कोई शिकायत नहीं है। अगर नहीं मिल रहा है परमात्मा, तो जरूर कोई भूल-चूक मेरी होगी। पात्रता में कोई कमी होगी। अगर मिल जाए
परमात्मा, तो परमात्मा इतनी बड़ी घटना है और मेरा पात्र इतना
छोटा और मेरी पात्रता इतनी छोटी कि मेरी पात्रता के कारण मिला होगा यह तो मानने का
कोई उपाय नहीं है। मिला तो वो अपनी करुणा से ही है। प्रसाद-रूप बरसा है। तो
जिन्होंने भी उसे पाया है उन्होंने यही कहा कि पात्रता का यहां कुछ हिसाब नहीं है।
जीसस की कहानी मैं निरंतर कहा हूं--
एक धनपति ने अपने बगीचे में काम करने
को मजदूर बुलाये सुबह। कोई मजदूर आए कुछ। लेकिन काम ज्यादा था, और चुकेगा नहीं। दोपहर उसने फिर मजदूर बुलाए। कुछ मजदूर सूरज जब आकाश में
आधा आ गया तब आए। फिर भी लगा इतने से भी काम पूरा न होगा। काम ज्यादा था और आज ही
सांझ पूरा करना था। उसने फिर आदमी भेजे। कुछ मजदूर आए जब कि सूरज ढलने के ही करीब
था। फिर सांझ हो गयी। फिर सबको उसने उनकी मजदूरी के पैसे दिए। उसने सुबह जो आए थे
उनकी भी उतने ही पैसे दिए जितने उनको जो दोपहर आए थे। और उतने ही पैसे उसने उनको
भी दिए जो अभी-अभी आए थे, जिन्होंने काम छुआ भी नहीं था,
न के बराबर कुछ किया था। सुबह के मजदूर नाराज हो गए। उन्होंने कहा,
यह अन्याय है। हमने दिन भर काम किया हमें भी उतना पुरस्कार, और ये अभी-अभी आये हैं उनको भी उतना यह अन्याय है। स्वभावतः उन्होंने दिन
भर मेहनत की थी, पात्रता अर्जित हो गई थी। उस अमीर ने कहा,
तुम्हें जो हमने दिया वो तुम्हारे काम के योग्य पर्याप्त नहीं है?
जितना वायदा किया था उतना तुम्हें दिया है। उन्होंने कहा, वो तो ठीक है। हमने जितना काम किया उतना तो हमें मिल गया है। लेकिन
इन्होंने तो कुछ भी काम नहीं किया है। हमें कोई शिकायत नहीं है। हमारे...हमें जो
मिला है वह पर्याप्त है। लेकिन, इन्होंने कुछ भी नहीं किया।
तो उसने कहा, उनकी तुम फिकिर छोड़ो। पैसे मेरे हैं। मैं उन्हें
मुफ्त भी लुटाऊ तो तुम्हें चिंता का कोई कारण नहीं होना चाहिए। इन्हें मैं इनके
काम के कारण नहीं देता, मेरे पास बहुत ज्यादा है इसलिए देता
हूं। इतना तो मुझे हक है।
जीसस कहते हैं, जब परमात्मा के सामने भक्त और ज्ञानी खड़े होंगे तो ज्ञानियों को सदा ऐसा
लगेगा कि हम तो सुबह से मेहनत कर रहे थे। दिन भर भरसक मेहनत की। और हमें भी वही
मिला। और ये भक्त कुछ मेहनत भी नहीं किया, गीत गाते रहे,
गुनगुनाते रहे या मस्ती में झूमते रहे, या
नाचते रहे, इनको भी उतना मिला। तो जीसस कहते हैं परमात्मा
उनसे कहेगा: तुमने जो किया उतना तो तुम्हें मिल गया न? तुम
इनकी फिकिर छोड़ो। इन्हें मैं अपने आधिक्य से देता हूं। मेरे पास है। इसका करूं
क्या?
जिन्होंने परमात्मा को पाया उसमें दो
तरह के लोग हैं। ज्ञानी हैं और भक्त हैं। ज्ञानी कहते हैं, हमने अपनी पात्रता से पाया। भक्त कहते हैं, हमने
उसके प्रसाद से पाया। यह भक्त का हृदय है जो प्रसाद की धारणा करता है। ज्ञानी का
मस्तिष्क है जो प्रयास की बात करता है। ज्ञानी हिसाबी-किताबी है। भक्त कोई
हिसाब-किताब नहीं रखता। भक्त कहता है, मेरी योग्यता कुछ भी
नहीं है और तुम बरसे जा रहे हो--बिना घन परत फुहार...बिना दामिनी उजियार अति!
ज्ञानी को अगर तुम गौर से जांच करोगे
तो उसने पहले प्रसाद को इनकार किया, फिर परमात्मा को भी
इनकार कर दिया। महावीर परमात्मा को स्वीकार नहीं करते। क्योंकि, वो कहते हैं, जो मिला है वो अपने कृत्य का फल है।
इसमें परमात्मा को बीच में लेने की कोई जरूरत नहीं है। जिसने शुभ किया उसे पुण्य
मिला। जिसने अशुभ किया उसे पाप मिला। जिसने ठीक किया, ठीक
पाया। गलत किया, गलत पाया। जो बोया वही काटा। इसमें बीच में
परमात्मा को लाने का कहां प्रयोजन है? महावीर की बात में भी
एक यथार्थ है। वह यथार्थ यह है कि परमात्मा को अगर बीच में लाओगे तो कुछ गड़बड़
होगी। गड़बड़ यह हो जाएगी कि कभी वह उनको भी दे देगा जिनकी पात्रता न थी। समझो कि
जीसस की कहानी में धनपति की जगह एक कम्प्यूटर होता और कम्प्यूटर हिसाब लगाता।
कम्प्यूटर न होता एक मुनीम होता--मालिक न होता--वो हिसाब लगाता। तो वो देखता,
जिसने छह घंटे काम किया उसको छह रुपए। जिसने चार घंटे काम किया उसको
चार रुपए। जिसने घंटे भर काम किया उसको एक रुपया। ठीक है, मुनीम
मुनीम के ढंग से सोचता।
अगर परमात्मा लोगों के कर्मों का
हिसाब लगा-लगा कर देता है कि कितना किसने किया तो, महावीर कहते हैं,
इस आदमी को बीच में लेने की जरूरत क्या है? नियम
पर्याप्त है। जो आग में हाथ डालता है वो जल जाता है। कोई परमात्मा थोड़े ही बैठा है
जो देखता है कि तुम आग में हाथ डाल रहे हो, इसलिए जलाओ। जो
हाथ खींच लेता है, वह बच जाता है। कोई परमात्मा थोड़े ही बैठा
है जो कहता है तुमने हाथ खींचा इसलिए हम तुमको बचाते है। जलाओ; हाथ डालो, जलता है। खींच लो, बच
जाता है।
तो कर्म का सिद्धांत, महावीर कहते हैं, पर्याप्त है। किसी परमात्मा को बीच
में लेने की जरूरत नहीं। और बीच मग लेने से झंझट होगी। झंझट यह होगी कि एक
सोच-विचार, हृदय वाली शक्ति बीच में आ गयी। तो कभी किसी पर
दया भी आ जाएगी, अनुकंपा भी हो जाएगा परमात्मा कोई मशीन तो
नहीं है, मुनीम तो नहीं है। मालिक होगा। और मालिक अपने
आधिक्य से दे सकता है, फिर क्या करोगे? तब तो खतरे हो सकते हैं। पहला खतरा तो यह है कि जिन्होंने कुछ नहीं किया
उनको मिल जाए। और दूसरा बड़ा खतरा तो यह है कि जिन्होंने किया शायद उनको न मिल जाए।
जीसस की कहानी में जिन्होंने किया उनको तो मिला, जिन्होंने
नहीं किया उनको भी मिल गया। लेकिन कहानी थोड़ी आगे भी जा सकती है कि जिन्होंने नहीं
किया उनको ज्यादा मिल गया, और जिन्होंने किया उनको उनके करने
से कम मिला। क्योंकि हो सकता है यह मालिक आज नाराज हो। इसका मन प्रसन्न न हो। बीच
में किसी को लेने में खतरा है। महावीर ने कहा, परमात्मा को
हटा दो। परमात्मा के रहते जगत में व्यवस्था नहीं रह सकती। परमात्मा रहेगा। तो
अराजकता रहेगी।
तुम चकित होओगे कि हिंदू कहते हैं
परमात्मा के बिना अराजकता होगी। परमात्मा नहीं होगा तो कौन व्यवस्था सम्हालेगा? महावीर कहते हैं, परमात्मा होगा तो तो व्यवस्था
सम्हालनी ही मुश्किल हो जाएगी। बिना परमात्मा के व्यवस्था नियम से चल रही है। कोई
हृदय बीच में नहीं है जो हिसाब-किताब लगाए, किसी पर दया खाए,
किसी पर क्रोध करे, किसी ने नाराज हो जाए,
किसी के प्रेम में पड़ जाए, किसी भक्त उबार ले
और किसी दुष्ट को डुबा दे, ऐसा कोई बीच में नहीं है। सीधे
नियम से बात चल रही है। साफ-सुथरा गणित है।
इसलिए महावीर के शास्त्रों में काव्य
को कोई जगत नहीं है। शुद्ध गणित है। महावीर की किताबें पढ़ते वक्त ऐसा लगता है कि
जैसे कोई इंजीनियरिंग या मेडिकल, गणित, तर्क
इनके शास्त्र पढ़ रहा हो। शुद्ध गणित--वैज्ञानिक। हिसाब की बात है। कभी-कभी मुझे
लगता है। कि महावीर के गणित के कारण ही शायद जैन सभी हिसाबी-किताबी दुकानदार हो
गए। हिसाब इतना गहरा है कि मानने वाले सभी दुकानदार और वणिक हो गए। और सब चीजें खो
गयीं, सिर्फ हिसाब की ही क्षमता रह गयी।
ज्ञानी अपनी पात्रता से, कहता है, हम पहुंचते हैं। इसलिए ज्ञानी आखिर में
कहेगा, परमात्मा नहीं है। महावीर कहते हैं--आत्मा ही
परमात्मा है। मतलब मैं ही हूं, मैं ही हूं, कोई परमात्मा नहीं है। यह ज्ञान की शुद्धतम अभिव्यक्ति होगी। भक्त प्रसाद
से पहुंचता है। वह कहता है, मेरी योग्यता क्या? उसका बड़ा काव्य का मार्ग है। वो कहता है अपने से अगर हमको उबरना है तो हम
उबर न पाएंगे, डूब सकते हैं। अबरे अगर, तो तुमने उबारा है। डूबे अगर, तो हम डूबे। दोष अपना
मानता है, गुण उसके मानता है। इसलिए एक ऐसी घड़ी आती
है--प्रसाद से बढ़ते-बढ़ते-बढ़ते परमात्मा रह जाता है, खुद मिट
जाता है। भक्त कहता है, तू ही है मैं नहीं हूं। ज्ञानी कहता
है, मैं ही हूं, तू नहीं है दोनों एक पर
पहुंच जाते हैं। अद्वैत बचता है। लेकिन दोनों की अभिव्यक्ति अलग है।
इसी संबंध में एक प्रश्न और भी है।
उसे भी इसी के साथ समझ लेना उचित होगा।
आपने कहा कि परमात्मा प्रयास से नहीं
प्रसाद से मिलता है, और सहजो गुरु चरनदास की कृपा का तथा कबीर गुरु
रामानंद की कृपा का अहोभाव से गुणवान करते हैं। आप कर किस गुरु की कृपा हुई?
क्या आप बिना गुरु-कृपा के परम संबोधि को उपलब्ध हुए? इस संबंध में कुछ कहें।
दो बातें मैंने तुम्हें समझायीं, ज्ञानी और भक्त। ज्ञानी अपनी पात्रता से उपलब्ध होता है। भक्त अपनी
प्रार्थना से। ज्ञानी तपश्चर्या से अर्जित करता है परमात्मा को। वो उसका अर्जन है।
ज्ञानी दावेदार है। पाया है, तो अपने श्रम से पाया है। इसलिए
महावीर ने जिस धर्म को जन्म दिया और जिस संस्कृति...उसका नाम है: श्रवण-संस्कृति।
श्रमण-संस्कृति का अर्थ होता है: प्रसाद से नहीं, श्रम से।
इसलिए महावीर का नाम ही श्रमण भगवान महावीर--श्रम से जिन्होंने पाया परम-सत्ता को।
ज्ञानी कहता है, तपश्चर्या से, त्याग से, पुण्य
से परमात्मा को पाया है, मुक्त में नहीं। किसी कृपा के कारण
नहीं। अर्जित किया है। ज्ञानी का दावा है।
भक्त कहता है, प्रार्थना से, पूजा से, नाच से,
रिझा से, समझ-बूझा के। अपनी तो कोई पात्रता न
थी। नाचे, प्रसन्न किया तुम्हें। तुम्हारे गीत गाए, तुम्हारे गुण-गान किया, तुम्हें राजी किया। तुम
प्रफुल्लित हो गए। किसी प्रेम के गहन क्षण में तुमने सब दे डाला। हम पात्र न थे;
प्रसाद से मिला।
ये दो सीधे-सीधे मार्ग हैं। इन दोनों
के बीच बड़ा छिपा हुआ एक तीसरा मार्ग है, जिसमें दोनों का सार
है। साधारणतया उसकी बात नहीं की जाती, क्योंकि उसकी बात करनी
कठिन है। लेकिन चूंकि तुमने मुझसे पूछा मेरे संबंध में, इसलिए,
वो तुम्हें कह देना जरूरी है। इन दोनों के बीच में ध्यान का मार्ग
है। वो अति सूक्ष्म है, महासूक्ष्य है। ध्यान की धारणा को
समझना बड़ा कठिन है; फिर भी कोशिश करो--
ज्ञानी कहता है, हमने अपनी पात्रता से पाया। भक्त कहता है, प्रसाद से
पाया लेकिन दोनों में एक बात की सहमति है कि पाया। ध्यानी कहता है, हमने कभी खोया नहीं। ध्यानी कहता है, पाने का सवाल
कहां है? वो तो पाया ही हुआ है। वह तो स्वभाव है। खोने की तो
केवल भ्रांति है। धारणा है कि खोया है। जैसे मछली भूल गयी कि सागर में है। बस ऐसे।
हैं तो सागर में ही। तुम परमात्मा में जीते, श्वास लेते,
जागते सोते, उठते, बैठते,
जन्मते, मरते। तुम उससे क्षण भर को विदा नहीं
हो सकते। क्योंकि परमात्मा यानी पूर्ण अस्तित्व। परमात्मा यानी यह सारी विराट
ऊर्जा। यह सब कुछ। ध्यान कहता है, परमात्मा को कभी खोया ही
नहीं। तो दोनों ही बातें व्यर्थ हैं कि प्रयास से पाया कि से प्रसाद से पाया। खोया
ही नहीं। जागकर पाया। सोये में लगा कि खो गया। जागने पर लगा कि है, नहीं खोया। सोये में जब लगता था खो गया, तब भी खोया
न था। हम ही सो गए थे। जैसे दिया जल रहा था, और तुम्हें झपकी
लगी गयी। दीया तो जलता ही रहा। तुम्हारी नींद ने दिए को न बुझा दिया। तुम्हारी
आंखों में सपने घिर गए। सपने ने अंधेरा न कर दिया। तुम खो गए। तुम दूर हट गए। तुम
भूल गए कि दिया है। फिर आंख खुली, दीए को उपलब्ध कर लिया।
तुम कहोगे दीए को फिर पा लिया? खोया ही न था, तो फिर पाने की बात ठीक नहीं। दीया तो सदा था। जो सदा, है, वही परमात्मा है। ध्यानी कहता है, अपनी ही झपकी लग गयी। खोया नहीं। क्योंकि एक बार खो जाए, तो पाना असंभव है। क्योंकि जो खो जाए वो हमारा स्वभाव न रहा। वो ऐसे रहा
जैसे हाथ में कोई चीज थी, खो गयी। मिल जाए, फिर भी खो सकती है। लेकिन तुम्हारे हृदय की धड़कन तो न खो जाएगी? फिर हृदय की धड़कन भी बंद हो सकती है, तुम्हारा
चैतन्य का गुण तो न खो जाएगा? तुम्हारा होने का भाव तो न खो
जाएगा। तुम जब सो जाते हो तब भी तुम होते हो। हालांकि तुम्हें बिलकुल पता नहीं
चलता कि तुम हो। जागते हो तब पता चलता है। सोने में जो छिप जाता है जागने में उभर
आता है। सोने में जो भूल जाता है जागने में स्मरण आ जाता है। ध्यानी कहता है,
परमात्मा को खोया नहीं सिर्फ सिस्मृति हो गयी है। स्मरण पर्याप्त
है। ध्यान पर्याप्त है।
तो ध्यानी की दृष्टि से तो, न तो वो पात्रता से मिलता है--क्योंकि तो वो तुम्हें मिला ही हुआ है। तुम
कितने ही अपात्र हो, तो भी तुम्हारे भीतर वही धड़क रहा है। तो
इसलिए पात्रता से पाने का कोई सवाल नहीं है। और न वो प्रसाद रूप मिलता है, क्योंकि वहां कोई दूसरा थोड़ी है जो तुम्हें दे दे प्रसाद। तुम ही हो। लेने
वाले, देने वाले दोनों तुम ही हो। जाने वाले पहुंचने वाले
दोनों तुम ही हो। मार्ग और मंजिल दोनों तुम ही हो। ध्यानी गहनतम बात कह रहा है अगर
उसे कहने की बड़ी कठिनाई है। और भक्त भी जब पहुंच जाता है तब ध्यानी की बात को समझ
लेगा कि बात तो ठीक है, यह तो मिला ही हुआ था। और ज्ञानी भी
समझ लेगा, कि इसको उघाड़ा है, आविष्कृत
किया है, निर्मित नहीं किया। जैसे कि एक पत्थर पड़ा है और
कारीगर आए, छेनी को उठाकर एक मूर्ति को उघाड़ दे। मूर्ति तो
पड़ी ही थी।
माइकल एंजिलो से किसीने पूछा...। एक
अनगढ़ पत्थर बहुत दिन से पड़ा था, शिल्पियों ने फेंक दिया था बेकार
समझ कर, उस पर माइकल एंजिलो ने जीसस का एक प्रतिमा बनायी। जब
प्रतिमा बन गयी तो किसी ने पूछा कि तुम अनूठे कलाकार हो! पत्थर तिरस्कृत था,
फेंक दिया गया था, शिल्पियों ने काम का न समझा
था, आड़ा-तिरछा था, लेकिन तुमने
बहुमूल्य प्रतिमा बना दी। माइकल एंजिलो ने कहा, मैंने बनायी
नहीं। प्रतिमा तो सोयी पड़ी थी पत्थर में। सिर्फ बेकार पत्थर जो प्रतिमा के पास-पास
चिपका था, उसको मैंने अलग कर दिया। उघाड़ी बनायी नहीं। छिपी
थी, आवृत थी, अनावृत की। आच्छादित थी,
अनाच्छादित की। बस इतना ही किया। मैं कोई कर्ता नहीं हूं। उघाड़ा जरा
पर्दा खींचा ध्यानी कहता है तुम जो हो, उससे अन्यथा तुम कभी
नहीं हो सकते। तुम जो हो, वही तुम सदा रहे हो, वही तुम सदा रहोगे। वो तुम्हारा होना ही परमात्मा है। इसलिए न कोई प्रसाद
का सवाल है। न कोई प्रयास का। तब तुम बड़ी उलझन में पड़ोगे। तब तुम्हें और अड़चन होगी
कि अब क्या करें?
अगर तुम मेरी बात ठीक से समझ सको तो
मैं कहता हूं, ध्यानी ही शुद्धतम बात कर रहा है। भक्त उसी बात को
प्रेम की भाषा में कहता है। तब प्रसाद बन जाता है। ज्ञानी उसी बात को साधना की
भाषा में कहता है। तब पात्रता, योग्यता, कर्म, पुण्य, श्रम इस तरह के
शब्द बन जाते हैं। बात तो वही है जो ध्यानी कह रहा है। लेकिन ध्यान की बात तो
ध्यानी ही समझ पाएगा। क्योंकि तुम्हें यह समझना बिलकुल कठिन होगा कि उसको खोया ही
नहीं। मेरे पास पास लोग आ जाते हैं। वो कहते हैं, आप कहते
हैं कभी खोया ही नहीं, फिर खोजें क्यों? मैं उनसे पूछता हूं, यह सवाल भी कैसे उठता है कि
खोजें क्यों? ये मैं कहता हूं कि उसे कभी खोया नहीं। ऐसा
तुम्हारा अनुभव हो बात ठीक हो गयी, खत्म हो गयी। अब कुछ
खोजना नहीं। लेकिन तुम्हें तो लग रहा है कि कुछ अभी मिला तो है नहीं, तुम खोज भी छोड़ रहे हो। तब तो मिलने का उपाय भी बंद हो जाएगा।
ध्यान धर्म की शुद्धतम अभिव्यक्ति है।
फिर ज्ञान उसी की मस्तिष्क के द्वार अभिव्यक्ति है। और भक्ति उसी की हृदय द्वारा
अभिव्यक्ति है। और ध्यान तो हृदय का है, और न मस्तिष्क का।
ज्ञान मस्तिष्क का है, प्रेम हृदय को: ध्यान दोनों के पार
है। ध्यान अतिक्रमण है।
इसलिए तुम मुझसे मत पूछो कि मुझे कैसे
मिला। न प्रसाद से, न प्रयास से। जागकर मैंने पाया कि उसे कभी खोया ही
नहीं। इसलिए मेरा कोई गुरु नहीं है। क्योंकि गुरु तो तभी हो, जब खोजने में किसी का सहारा लेना पड़े। और मेरी कोई साधना नहीं है। क्योंकि
साधना तो तभी हो, जब खोजने के लिए श्रम करना पड़े। न मैंने श्रम
किया और न मैंने प्रार्थना की। न मैंने पूजा की किसी मंदिर में, और न किसी परमात्मा को आकाश में हाथ जोड़कर याद किया। न किसी गुरु को पकड़ा।
किया क्या? इतना ही किया कि चेष्टा की अपने को समझने की।
जाने की कोशिश की कि मैं कौन हूं? अपने ही हाथों से टटोलने
की कोशिश की अपने भीतर कि कहां हूं? टटोलते-टटोलते, खोजते-खोजते अंधेरा थोड़ा क्षीण हुआ; अपनी प्रतीति
होने लगी, एहसास होने लगा कि हूं। एहसास बढ़ने लगा। पहले तो
बड़ी धीमी सी ज्योति थी एक दीए की। फिर ज्योति बढ़ती गयी। सूर्य का महाप्रकाश हो
गया। लेकिन न तो प्रसाद से पाया न प्रयास से। अपने भीतर जाकर पाया कि पाया ही हुआ
है। उसे कभी खोया ही न था। मंजिल पर ही बैठे थे और झपकी लग गयी।
मैं निरंतर एक कहानी कहता रहा हूं। एक
शराबी घर लौटा। ज्यादा पी गया था। अपने घर के सामने आ गया, आदतवश। जैसे रोज चलकर आ जाता था, आ गया। उसके लिए
कोई कुछ होश की जरूरत नहीं रहती, तुम्हें भी हनीं रहती।तुम
हजार विचार करते घर की तरफ चले आते हो। पैर बाएं मुड़ जाते हैं, दाएं मुड़ जाते हैं। साइकिल घूम जाती है, तुम अपने
गैरेज में पहुंच जाते हो। कुछ इसके लिए सोचना नहीं पड़ता। यंत्रवत। तो शराबी नशे
में था, वो डालता-डालता पहुंच गया। अपने घर के सामने जाकर
उसने गौर से देखा, ये घर अपना है या नहीं? रात का अंधेरा, शराब में डूबी आंखें, सब कंपता हुआ, डांवाडोल, वो
घबड़ा गया। यह तो घर अपना नहीं मालूम होना। ऐसा तो देखा नहीं था कभी। देखनेवाली आंख
अलग हो तो दृश्य बदल जाता है। नशे में हो, तो दृश्य बदल जाता
है।
उसने दरवाजे पर दस्तक दी डरते हुए।
उसकी मां ने दरवाजा खोला। लेकिन वो अपनी मां को ही नहीं पहचान पाया। नशे में पहचान
कैसी? उसने उसके पैर पकड़ लिए और कहा कि माई इतना कर,
मुझे मेरे घर पहुंचा दे। उसकी मां ने कहा, बेटा
तू बिलकुल पागल हो गया है? हजार बार कहा कि शराब पीना बंद
कर। अब ये तो हद हो गयी। मुझको पहचानता--अपनी मां को! अपना घर नहीं पहचानता। भीड़
इकट्ठी हो गयी, पड़ोस के लोग आ गए, समझाने
लगे। मगर शराबी को समझाने का कोई उपाय होता है? समझ ही सकता
तो खुद ही समझ लेता। तुम्हें समझाना पड़ता है। तुम समझाओ कुछ, शराबी समझता कुछ! तुम कहो कुछ,! कुछ और अर्थ निकालता
है।
वो बहुत घबड़ा गया और उसने कहा, तुम सब मुझे मार डालोगे। मेरी मां मेरे घर मेरी राह देख रही होगी।तुम मुझे
क्या उल्टी-सीधी बातें समझा रहे हो! क्या मुझे अपनी मां की पहचान नहीं? क्या मुझे अपना घर मालूम नहीं? कितनी ही शराब मैंने
पी ली हो, मैं कोई नशे में थोड़ी हूं? सभी
शराबी यही कहते हैं। शराबी को पक्का करवाना कि तुम नशे में हो, बहुत मुश्किल है। वो मानता ही नहीं। और जो शराबी मान जाए कि मैं नशे में
हूं, समझो कि नशा टूट गया। नहीं तो मान ही नहीं सकता था।
शराब में कैसे कोई मानेगा? पागल अगर मान जाए कि मैं पागल हूं,
समझो वह ठीक हो गया। घर भेजो, पागल खाने में
रखने की जरूरत नहीं। पागल कभी मानता ही नहीं कि मैं पागल हूं। सारी दुनिया को पागल
कहेगा, खुद को नहीं मान सकता। उसने सब को कहा कि तुम सब शराब
पी गए मालूम होते हो। मेरा घर मुझे मालूम नहीं? मुझे अपने घर
पहुंचाओ, भाई। वो रोने लगा। छाती पीटने लगा। एक पड़ोसी जो
शराबघर से लौट रहा था, वो अपनी बैलगाड़ी जोत कर आ गयी। उसने
कहा, बैठ। मैं तुझे तेरे घर पहुंचा देता हूं। उसकी मां
चिल्लाने लगी कि इसकी बैलगाड़ी में मत बैठ, ये भी पीये हुए
हैं। नहीं तो कोई तुझे कहां ले जाएगा? तेरा घर कहीं और नहीं
है। लेकिन इसकी बात उसे जंची। ये गुरु मालूम पड़ा। ये पहुंचाने वाला एक आदमी,
तारण हार! बाकी सब दुष्ट, यहीं उलझा देंगे। वो
उसकी बैलगाड़ी में बैठने को तैयार है।
ऐसी तुम्हारी दशा है।
तुम घर के सामने ही खड़े हो। तुम्हारी
आंख के सामने जो है, वही परमात्मा है। तुम पूछ रहे हो, कहां जाए? कैसे खोजें? क्या
उपाय करें? किसकी प्रार्थना करें? कोई
न कोई तुम्हें मिल जाएगा बैलगाड़ी जोत के तैयार। वो कहेगा, आ
जाओ, हम वहीं जा रहे हैं। बल्कि हम पहले ही से वहीं जान काम
ही करते हैं। ये ट्रान्सपोर्ट का ही काम करते हैं। भटकों को पहुंचाते हैं! कोई न
कोई गुरु तुम्हें मिल जाएगा। कोई भी सवाल नहीं है। तुम्हारा गुरु तुम्हारे भीतर
है। और बाहर अगर किसी को कभी गुरु स्वीकार करो तो उसको ही स्वीकार करना जो
तुम्हारे भीतर के गुरु को जगाने की बात कह रहा हो, तुम्हें
कहीं ले जाने की नहीं।
अच्छा होता कि वो शराबी अपनी मां को
स्वीकार कर लेता, जो कह रही थी, यही तेरा घर है,
मैं तेरी मां हूं। सुबह होश में आकर वो भी पाता कि यही बात सच है।
लेकिन तुमसे जो कोई कहेगा कि तुम वही हो जहां तुम्हें होना है, उसकी बात तुम्हें न जंचेगी। तुम कहोगे, यह बात तो
कुछ जंचती नहीं। बहुत बदलाहट करनी है। क्रांति करनी है। रूपांतरण करना है। और ये
आदमी कहता है तुम वहीं हो। कहीं और चलो। कोई गुरु खोजो।
मेरे पास लोग आते हैं। अगर मैं उनसे
कहता हूं, तुम सिर्फ अपने का स्वीकार कर लो। तुम जैसे ही शुभ हो,
सुंदर हो, सत्य हो। तुम जैसे हो पर्याप्त हो।
तुम जैसे हो इसमें ही अहोभाव। समझा। कुछ करना नहीं है। अपने होने से राजी हो जाना
है। वो इधर-उधार देखने लगते हैं। वो कहते हैं, तो फिर कुछ भी
करने का नहीं है! ये बात उनको जंचती नहीं। वो किसी और गुरु के पास जाएंगे जो उनके
कुछ करने को बताए। कहे कि शीर्षासन कर के खड़े हो जाओ। वो जंचेगा। जैसे कि कोई सिर
पर खड़े होने से परमात्मा का कोई मिलने का संबंध हो। पैर पर ही भले लग रहे हो। सिर
पर खड़े होकर कुछ सौंदर्य बढ़ न जाएगा। सिर्फ मूढ़ मालूम पड़ोगे। मूढ़ता छिपानी हो तो
उसकी शीर्षासन कहोगे--उल्टी-सीधी कवायद करोगे। हाथ-पैर मोड़ोगे। सर्कस में भरती
होना हो, ठीक है। परमात्मा तक जाने का उससे क्या लेना देना?
तुम जैसे हो शुभ हो, सुंदर हो। अभी तुम वहीं हो, जहां तुम जाने का खयाल
कर रहे हो। जाने का खयाल छूट जाए और तुम तृप्त हो जाओ इसी क्षण में, तुम पहुंच गए। जाने का खयाल पकड़े रहे, तो तुम दौड़ते
रहोगे अनंत-काल तक। वही तुम्हारे अनंत जीवन की कथा है, व्यथा
है। दौड़ो, वहीं भविष्य में कोई लक्ष्य है, उसे पाना है। जब तक वो न मिलेगा, तब तक बेचैनी है।
वो कभी मिलेगा नहीं। क्योंकि तुम जहां भी पहुंचोगे, वही से
भविष्य का लक्ष्य दूर दिखायी पड़ेगा। वो क्षितिज की भांति है। मृगमरीचिका है।
न तो मैंने प्रसाद से पाया किसी के, न किसी प्रयास से पाया। मैंने तो जागकर देखा कि खोया ही नहीं था। सको ही
मैं सहजयोग कहता हूं। इसी को सहजो ने कहा है सहजगति। चरणदास ने उसे नाम ही सहजो दे
दिया। सहजो का अर्थ है, जो सहज है। कुछ न पाने को, न कुछ खोजने को। मगर सहजो की भाषा भक्त की है। इसलिए उसने प्रसाद की चर्चा
की। महावीर की भाषा ज्ञानी की है। इसलिए उन्होंने तपश्चर्या, श्रम, साधना की बात की। मेरी बात अगर तुम्हें समझनी
हो, तो मेरी सारी चर्चा ध्यान की है। और ध्यान, भक्ति और ज्ञान दोनों के पार है। या ध्यान ही भक्ति का प्राण है और ध्यान
ही ज्ञान का प्राण है। भक्ति एक काया है। ज्ञान दूसरी काया है। लेकिन आत्मा दोनों
के भीतर ध्यान की है। भक्त भी प्रार्थना करते-करते ध्यानलीन होता है। ज्ञान भी
तपश्चरण करते-करते ध्यान लीन होता है।
जो भी पहुंचे कभी उनसे अगर पूछोगे, सभी की बात एक है। और वो बात है, ध्यान। पर
अभिव्यक्तियां अलग हैं। सहजो प्रेम का गीत गाती है। महावीर ज्ञान का उच्चार करते
हैं।
मैं तुम्हें खालिस सोना देना चाहता
हूं। आभूषण नहीं। महावीर ने भी सोने का उपयोग किया है, लेकिन ज्ञान के आभूषण बनाए। सहजो ने भी उसी सोने का उपयोग किया है,
लेकिन प्रेम के, भक्ति के आभूषण बनाए हैं। मैं
तुम्हें आभूषण नहीं देना चाहता। मैं तुम्हें खालिस सोने की डिग्री ही देना चाहता
हूं। उसका नाम ध्यान है।
प्रश्न छठवां:
ना काहूं के संग
है, सहजो ना कोई संग। पर सहजो जैसे संत ही संग, सत्संग का महिमापूर्ण गुणगान भी करते हैं। ऐसा विरोधाभास क्यों है?
विरोधाभास
जरा भी नहीं है। लगता होगा। है नहीं। ना काहू के संग है, सहजो ना कोई संग। सहजो कहती है, न तो कोई साथ है
अपने, न मैं किसी के साथ हूं। निश्चित ही सहजो सत्संग का भी
वर्णन करती है, महिमा करती है--खोजो संत को, खोजो सत्संग। तो तुम्हें अड़चन होती है कि जब कोई संग-साथ ही नहीं है तो
किसको खोजना? पर तुम सत्संग का अर्थ नहीं समझे, इसलिए गड़बड़ हो गयी।
सत्संग का अर्थ है, ऐसे व्यक्ति का सत्संग जिसके साथ तुम्हें पता चलेगा--ना काहू के संग है,
सहजो ना कोई संग। सत्संग का कुल इतना ही अर्थ है, ऐसे किसी व्यक्ति के सान्निध्य को पा लेना जहां तुम्हें अपने अकेलेपन का
बोध होगा। भीड़ सत्संग नहीं है। क्लघर में बैठकर तुम ताश खेल रहे हो, वो सत्संग नहीं है। वहां तुम अपन को भूला रहे हो। वो नशा है, मादक है। सिनेमाघर में बैठे हो, वो सत्संग नहीं है।
भीड़ तो बहुत है। लेकिन अपने को डुबाने के लिए, भुलाने के लिए
है। अपने से तुम परेशान हो, अपना अकेलापन काटता है। अकेले जब
भी होते हो, मुश्किल होती हैं; अब
मालूम पड़ती है। भागे, डूबो किसी के साथ, भूल जाओ।
सत्संग तब है जब तुम किसी ऐसे के पास
बैठे कि जिसके पास तुम अपने को भूल न पाओ, तुम्हें अपना स्मरण आ
जाए। जो नशा न हो, जागरण हो। सत्संग का अर्थ है, जहां तुम्हें अपने एकांत का, शुद्ध कैवल्य का बोध
हो। हजार लोग बैठे हों सत्संग में तो भीड़ नहीं है वहां। एक-एक आदमी अलग-अलग बैठा
है। एक-एक आदमी अपने अकेलेपन में बैठा है।
ऐसा हुआ कि बुद्ध एक नगर के बाहर
रुके। अजातशत्रु मालिक था। उस राज्य का। जैसे कि सम्राट होते हैं--सदा भयभीत, शंकित। वजीरों ने कहा, आप चलें, भगवान का आना सदा है, वो गांव के बाहर रुके हैं। ये
क्षण बहुमूल्य हैं। शोभा योग्य है कि आप वहां चलें। अजातशत्रु ने कहा, कितने लोग हैं? कौन-कौन आया है? क्या प्रयोजन है? सब जैसा राजनीतिज्ञ पूछे, हजार सब हिसाब लगा ले। उन्होंने ने कहा, दस हजार
भिक्षु साथ हैं। खैर, सब बातें पता लगाकर अजातशत्रु चला।
जब वो पहुंचा उस आम्रवन के पास जहां
की छाया में बुद्ध अपने दस हजार भिक्षुओं के साथ ठहरे थे, तो बाहर ही वो ठिठक कर खड़ा हो गया। उसने झपके से अपनी तलवार म्यान के बाहर
निकाल ली। उसने अपने वजीरों से कहा कि मुझे कुछ षडयंत्र की गंध आती है। तुमने कहा
था दस हजार लोग ठहरे हैं वहां। यहां एक आदमी की भी आवाज नहीं है। ये आमों का
झुरमुट ऐसा लगता है बिलकुल सुना है। यहां कोई भी नहीं है। और दस हजार तो निश्चिंत
ही नहीं हैं। दस हजार आदमी जहां हों, वहां तो पूरी एक बस्ती
और बाजार हो जाएगा।
वे वजीर हंसने लगे। उन्होंने कहा, आप तलवार म्यान के भीतर रख लें। आपको बुद्ध और उनके भिक्षुओं का पता नहीं
है। दस हजार हैं, लेकिन सभी अकेले-अकेले। यहां भीड़ नहीं। आप
अंदर चले। घबड़ाए न। सहमा हुआ, डरा हुआ अजातशत्रु भीतर गया।
और जब उसने दस हजार लोग देखे वहां--वृक्षों के नीचे बैठे हैं, झुंड के झुंड हैं, पर सब अकेले हैं! वो बुद्ध के पास
गया। उसने कहा, ऐसा मैंने कभी देखा नहीं। यह लोग यहां क्या
कर रहे हैं? ये दस हजार आदमी चुप क्यों हैं? ये बोलते नहीं? बुद्ध ने कहा, ये
मेरे पास आए ही हैं मौन सीखने, बोलना सीखने नहीं ये मेरे पास
आए हैं अकेले होने।
सत्संग का अर्थ है, जहां तुम अकेले हो जाओ; उसके साथ को खोजो, जो तुम्हें जगा दे और अकेले कर दे।
ना काहू के संग है, सहजो न कोई संग--जहां ऐसा पता चले वहीं सत्संग है।
आज इतना ही।
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