पूर्ण प्यास एक निमंत्रण है—प्रवचन तीसरा
दिनांक १३ मार्च, १९७७; रजनीश
आश्रम,
पूना
सारसूत्र:
प्रेम मगन जो साधजन, तिन
गति कही न जात।
रोय-रोय गावत-हंसत, दया
अटपटी बात।।
हरि-रस माते जे रहैं, तिनको
मतो अगाथ।
त्रिभुवन की संपति दया, तृनसम्
जानत साथ।।
कहूं धरत पग परत कहूं, उमगि
गात सब देह।
दया मगन हरिरूप में, दिन-दिन
अधिक सनेह।।
हंसि गावत रोवत उठत, गिरि-गिर
परत अधीर।
पै हरिरस चसको दया, सहै
कठिन तन पीर।।
विरह-ज्वाल उपजी हिए, राम-सनेही
आय।
मनमोहन मोहन सरल, तुम
देखन दा चाय।।
काग उड़ावत कर थके, नैन
निहारत बाट।
प्रेम-सिंधु में मन परयो, ना
निकसन को घाट।।
कोई ए शकील देखे यह जुनूं नहीं तो क्या है
कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा।
परमात्मा की खोज में प्रेम का मार्ग पागलों
का मार्ग है। तुम तो परमात्मा के हो सकते हो, परमात्मा
तुम्हारा कभी भी न होगा। क्योंकि तुम्हारा होने के लिए तो एक बात जरूरी होगी कि
तुम बचो। तुम बचो तो ही कोई तुम्हारा हो सकता है। परमात्मा को पाने की अनिवार्य
शर्त तो एक ही है कि तुम मिटो। तुम मिट जाओगे तो ही परमात्मा प्रगट होगा। तुम तो
बचोगे नहीं,
तभी परमात्मा होगा। इसलिए एक बात पक्की है: तुम परमात्मा के हो
सकते हो;
परमात्मा तुम्हारा कभी भी नहीं होगा। तुम तो बचोगे ही नहीं; दावा
कौन करेगा?
"मैं' हो तो "मेरा' हो
सकता है। "मैं' ही न बचे तो फिर "मेरा' कैसा?
तो परमात्मा के रास्ते पर खोना ही खोना है
प्रेमी को;
पाने की बात ही व्यर्थ है। और मजा यही है कि उस खोने में ही पाना
है। डूबना ही डूबना है। उबरने की बात व्यर्थ है। और मजा यही है कि उस डूबने में ही
उबरना है। ठीक मझधार में मिल जाता है किनारा। मिटने का साहस चाहिए। और मिटने के
साहस में जो पहला कदम है वह बुद्धि को गंवाने का है--होशियारी गंवाने का है; चालाकी
गंवाने का है;
गणित, हिसाब और तर्क गंवाने का है।
इसलिए प्रेम की राह दीवानों की राह है, मस्तों
की राह है,
हिम्मतवरों की राह है। ज्ञान के रास्ते पर तो दुकानदार भी जा सकता
है, क्योंकि
गणित साफ-सुथरा है। प्रेम के रास्ते पर सिर्फ जुआरी ही चल पाते हैं। क्योंकि खोना
है सब और पाने का कुछ पक्का नहीं है। पाना तो होगा ही नहीं, खोना
ही खोना होगा। इतना विराट हृदय हो कि हार को ही जीत मान लो, कि
मौत को ही जीवन मान लो, कि मिट जाने को ही पहुंचना मान लो--तो ही
प्रेम के रास्ते पर द्वार खुलता है। समझदार के लिए प्रेम का रास्ता बंद है। इसलिए
प्रेम के रास्ते को हम कहें मधुशाला का मार्ग, शराबी का मार्ग।
प्रेम शराब है। सच तो यह है कि तुम और-और
तरह की शराबें खोजते हो, क्योंकि प्रेम की शराब को ढालने का तुम्हें
अब तक विज्ञान नहीं आ पाया। तुम्हें मधुशाला जाना पड़ता है, क्योंकि
मंदिर अभी तुम्हारी मधुशाला नहीं बन सकता। तुम्हें अंगूरों की शराब पीनी पड़ती है, क्योंकि
आत्मा की शराब पीने की तुमने अब तक क्षमता नहीं जुटाई। तुम्हें छोटी-छोटी सस्ती
बेहोशी खोजनी पड़ती है, क्योंकि बेहोशी की भाषा तुम्हें भूल गई है।
परमात्मा परम बेहोशी है।
आज के सूत्र बड़े अदभुत हैं! भक्त के ठीक
हृदय से निकले हैं--जैसे भक्त का हृदय खिले। एक-एक सूत्र एक-एक कमल की पंखुड़ी है।
खयाल से समझना।
"प्रेम
मगन जो साधजन,
तिन गति कही न जात।
रोय-रोय गावत हंसत, दया
अटपटी बात।।'
अटपटी बात! अटपटी बात का अर्थ होता है जो
तर्क में न बैठे,
गणित में न समाए, हिसाब की पकड़ में न आए। अटपटी बात का अर्थ
होता है: उलटी बात। पाना हो तो गंवाना पड़े; पहुंचाना हो, खो
जाना पड़े। किनारा मिलने का एक ही उपाय हो कि नौका ठीक मझधार में डूब जाए। उलटी
बात।
इसलिए तो कबीर ने उलटबांसियां कही हैं।
उलटबांसी का अर्थ होता है: जैसा तर्क में नहीं घटता वैसा जीवन में घटता है। कबीर
ने कहा है: नदिया लागी आग! अब नदी में कहीं आग नहीं लगती। नदी में आग लग सकती। यह
गणित, विज्ञान, तर्क
के नियम के प्रतिकूल है। लेकिन कबीर कहते हैं, जीवन में ऐसा हो
रहा है। जो नहीं हो सकता वही हो रहा है। आदमी परमात्मा है और भिखारी बना है--नदिया
लागी आग। आदमी अमृत है और मौत के सामने थर-थर कांप रहा है--नदिया लागी आग! नदिया
लागी आग! आदमी अविनाशी है, शाश्वत है, सदा
से है और सदा रहेगा; स्वयं परमात्मा उसके भीतर विराजमान है; और
दो-दो कौड़ी की चीजों के लिए गिड़गिड़ा रहा है, चिल्ला रहा है
भिक्षापात्र लिए;
जैसे कोई सम्राट भिक्षापात्र लिए भीख मांगता हो। नदिया लागी आग! जो
नहीं होना चाहिए वही हो रहा है। और जहां सारा ऐसा उलटा-सीधा हो गया है वहां तुम
गणित से परमात्मा तक न पहुंच सकोगे। वहां तो तुम्हें कुछ रास्ता खोजना पड़ेगा--ऐसा
रास्ता जो इतना ही अटपटा हो जितना अटपटा जीवन हो गया है। वही तुम्हें बाहर ले जा
पाएगा।
अटपटी बात का अर्थ होता है: समझो--सूरज को
तुम सुबह उगते देखते हो तो किसी को संदेह नहीं है सूरज पर। तुम्हें कुछ ऐसे लोग
मिलते हैं कभी जो कहते हैं, हम मानते हैं कि सूरज है? नहीं।
न तो मानने वाले मिलते, न न मानने वाले मिलते। सूरज है ही; सभी
के अनुभव में है। तो न तो कोई आस्तिक है न कोई नास्तिक। सूरज है। संसार के संबंध
में हम सब तय हैं कि है, क्योंकि अनुभव में आता है, आंख
के सामने है। हाथ छू सकते हैं, कान सुन सकते हैं, जीभ
स्वाद ले सकती है। इंद्रियों के भीतर है। परमात्मा इस तरह तो इंद्रियों के भीतर
नहीं है;
न आंख को दिखाई पड़ता, न हाथ से छू सकते
हैं, न
कान सुन सकते हैं। तो जो आदमी परमात्मा में भरोसा करता है, बड़ा
अटपटा आदमी है। संसार में भरोसा तो अटपटी बात नहीं, गणितयुक्त
है; तर्क
के भीतर है;
लेकिन परमात्मा में भरोसा तो बिलकुल अटपटी बात है। जिसे देखा नहीं, जिसे
छुआ नहीं,
जिसे कभी अनुभव नहीं किया, उस पर भरोसा!
जुआरी कर सकते हैं। अज्ञात पर भरोसा! बड़ी हिम्मत चाहिए।
सूरज पर भरोसा करने के लिए कोई हिम्मत तो
नहीं चाहिए। लेकिन परमात्मा पर भरोसा करने के लिए तो एक अपूर्व साहस चाहिए--ऐसा
साहस जो सब तर्कजाल को एक तरफ उठा कर रख दे।
ऐसा जीवन में एक ही द्वार है हमारे हृदय
में--और वह द्वार है प्रेम का। प्रेम के क्षण में ही तुम कभी-कभी तर्कजाल उठा कर
एक तरफ रख देते हो। किसी से तुम्हारा प्रेम हो गया, फिर
तुम सब हिसाब-किताब छोड़ देते हो। किसी से तुम्हारा प्रेम हो गया, फिर
तुम सब हिसाब-किताब छोड़ देते हो। फिर तुम कहते हो, अब
प्रेम ही हो गया,
अब हिसाब-किताब कैसा! तुम सब दांव पर लगाने को तत्पर हो जाते हो।
मजनू ने सब दांव पर लगा दिया न। तुम मजनू हो जाते हो। फिर सोच-विचार काम नहीं
पड़ता। फिर तुम कहते हो, अब कुछ हृदय की बात है, यहां
सोच-विचार बीच में नहीं आएगा।
एक युवक ने अपनी प्रेयसी के पिता को जा कर
कहा कि महानुभाव,
आपकी बेटी से विवाह करने को उत्सुक हूं। बाप हिसाबी-किताबी आदमी, जैसा
कि बाप को होना चाहिए। उसने युवक को गौर से देखा और कहा कि तुम्हारे इस विवाह की
आकांक्षा का क्या कारण है? उस युवक ने कहा: क्षमा करें, कारण
कुछ भी नहीं,
प्रेम हो गया है। कारण कुछ भी नहीं। ,
प्रेम कोई कारण थोड़े ही है। प्रेम तो कुछ
ऐसी बात है जो सब कारण के जाल को तोड़ कर प्रगट होती है। प्रेम कोई कारण नहीं है।
प्रेम तो कुछ अज्ञात से आता है। तुम्हारे बस की बात नहीं है; तुम
तो अवश हो जाते हो। इसलिए प्रेमी परवश हो जाता है, बिलकुल
अवश हो जाता है,
असहाय हो जाता है। कुछ घट रहा है जो उसकी सीमा के बाहर है, जो
उसके नियंत्रण के बाहर है।
साधारण जीवन का प्रेम ही तुम्हारे नियंत्रण
के बाहर है...। एक स्त्री के प्रेम में पड़ जाओ कि एक पुरुष के प्रेम में, यह
भी तुम्हारी सीमा और नियंत्रण के बाहर है, तुम्हारे कब्जे
के बाहर है। तुमसे बड़ा है। तुम्हें घेर लेता है। तुम इसे नहीं घेर पाते। तुम्हारी
मुट्ठी छोटी पड़ जाती है। तुम्हारी मुट्ठी इसे नहीं बांध पाती। यह तुम्हारी मुट्ठी
को बांध लेता है। तो फिर परमात्मा के प्रेम की तो बात ही क्या कहनी! वह तो विराट
का प्रेम है। वह तो शाश्वत लगाव है। जब किसी के जीवन में परमात्मा के प्रेम की
किरण उतरती है तो अटपटी बात हो जाती है, जो साधारणतः नहीं
होनी चाहिए।
मीरा नाचने लगी गांव-गांव, सब
भूल गई व्यवस्था। राज घर की महिला थी। पागल की तरह सड़कों पर, भीड़-भरे
बाजारों में,
मंदिरों में नाचने लगी। घर के लोग परेशान हुए होंगे। जहर का प्याला
भेजा था तो समझदारी से भेजा था, दुश्मनी से नहीं; खयाल
रखना। दुश्मनी का क्या कारण था? जहर का प्याला भेजा था कि यह मीरा अब परिवार
के लिए एक अपमान हो गई, अपयश का कारण हो गई; यह
मर जाए तो बेहतर।
यहां परमात्मा प्रगट हो रहा है मीरा में और
घर के लोग बेचैन हैं। इसे प्रतीक समझना। जब तुम्हारे हृदय में परमात्मा की किरण उतरेगी, तुम्हारी
बुद्धि बेचैन होने लगेगी। बुद्धि यानी घर के लोग। बुद्धि यानी हिसाब-किताब। बुद्धि
यानी तर्कजाल। जब तुम्हारे हृदय में प्रेम की किरण उतरेगी तो थोड़ा साथ देना उसका, अन्यथा
बुद्धि बहुत मजबूत है, मार डाल सकती है, द्वार
बंद कर दे सकती है।
अक्सर ऐसा हुआ है। अक्सर तुम्हें भी अनुभव
हुआ होगा। कभी-कभी ऐसा होता है, कोई बात पकड़ने लगती है तो तुम घबरा जाते हो, तुम
जल्दी से बुद्धि को जोर से जकड़ लेते हो। तुम कहते हो, यह
कैसी बात! यह कैसे होने गई थी!
यहां मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ध्यान
करते-करते एक क्षण ऐसा आ जाता है कि नाच उठें, मगर कोई भीतर से
पकड़ लेता है,
जैसे पैर में जंजीरें अचानक पड़ गईं। जाते-जाते रुक जाते हैं। एक
भाव उठता है कि यह क्या कर रहे हैं, यह तो पागलपन है।
बुद्धि विपरीत है हृदय के। और बुद्धि के लिए
प्रेम पागलपन है। इसलिए जो बुद्धि की मान कर चलेंगे, उनके
जीवन प्रेम-शून्य हो जाते हैं। उनके जीवन में फिर अटपटी बात नहीं घटती। और जिसके
जीवन में अटपटी बात नहीं घटती उसके जीवन में कमल नहीं खिलते। कमल बड़ी अटपटी बात
है। देखा,
कीचड़ में खिलता है! अब और अटपटी बात क्या होगी! गंदगी में खिलता
है। इतना सुंदर! कुरूप कीचड़ में खिलता है। इसलिए तो उसको पंकज कहते हैं। पंक का
अर्थ होता है कीचड़। सच तो यह है कि कमल अगर सोने में भी खिले तो भी चमत्कार होगा।
लेकिन कीचड़ में खिलता है, तब तो चमत्कार का कहना ही क्या! कमल अगर
हीरे-जवाहरात में भी खिले तो भी चमत्कार होगा। क्योंकि हीरे-जवाहरात मुर्दा हैं, कमल
जीवंत। कीचड़ में खिलता है, जहां सिर्फ बदबू के, गंदगी
के कुछ भी न था। जहां से तुम नाक पर रूमाल रख कर निकलते, वहां
खिलता है। और अपूर्व सौंदर्य और अपूर्व सुगंध को फैला देता है। अटपटी बात है। शरीर
के ही कीचड़ में परमात्मा एक दिन खिलता है। अटपटी बात है। कामवासना के ही कीचड़ में
प्रेम का कमल एक दिन खिलता है। अटपटी बात है। जब मैंने पहली दफे लोगों से कहा कि
संभोग से ही समाधि तक पहुंचा जाता है, लोग अब तक नाराज
हैं। कहते हैं,
यह बात ठीक नहीं है, यह कहनी नहीं
चाहिए। मैं इतना ही कह रहा हूं कि कीचड़ में कमल खिलता है; कुछ
और नहीं कह रहा हूं। उसको मानवीय तल पर खींच कर ला रहा हूं कीचड़-कमल के प्रतीक को।
और अगर कीचड़ में कमल न खिलता हो तो छोड़ दो सब आशा। फिर कमल कभी नहीं खिलेगा।
क्योंकि तुम सिवाय कीचड़ के और कुछ भी नहीं हो। कोई भी कीचड़ के सिवाय कुछ भी नहीं
है। लेकिन कीचड़ में कमल खिलता है।
जब बुद्ध बुद्ध हो जाते हैं तो क्या
हुआ--कीचड़ में कमल खिल गया।
तुम अभी कीचड़ हो; बुद्ध
कमल हो गए। भेद आज दिखाई पड़ रहा है। लेकिन कल अगर तुम्हारा कमल भी खिलेगा तो तुम
भी बुद्ध जैसे हो जाओगे। और एक दिन बुद्ध भी तुम्हारे जैसे कीचड़ थे। जब मैं कहता
हूं, संभोग
समाधि बन जाती है,
कीचड़ कमल बन जाता है और काम ही राम बन जाता है, तो
मैं इतना ही कह रहा हूं कि अटपटी बात घटती है। तर्कयुक्त तो नहीं है। अगर
तर्क-शास्त्रियों से पूछा जाता कि क्या कीचड़ में कमल खिल सकता है तो तर्कशास्त्री
तो कहते कि यह हो नहीं सकता, यह कैसे हो सकता है! कहां कमल, कहां
कीचड़! अगर तुम्हें भी पता न हो कि कीचड़ में कमल खिलता है, तुम
किसी ऐसी देश में पैदा हुए हो जहां कमल नहीं होते और एक दिन तुम्हारे सामने कीचड़
का एक ढेर और एक तरफ कमल की एक राशि लगा दी जाए तो क्या तुम कल्पना भी कर सकोगे कि
यही कीचड़ कमल हो गया है? असंभव! अटपटी बात है।
प्रेम मगन जो साधजन, तिन
गति कही न जात।
रोय-रोय गावत हंसत, दया
अटपटी बात।।
प्रेम-मग्न जो साधजन...! जो प्रेम में मग्न
हो गए हैं,
ऐसे साधु पुरुष...। यह "साध' शब्द
बड़ा प्यारा है। विकृत हो गया। भाषाकोश में पढ़ने जाओगे तो साधु का अर्थ होता है
महात्मा,
तपस्वी। लेकिन साधु शब्द का ठीक-ठीक अर्थ केवल होता है, सरल, सीधा-सादा।
जो सीधा-सादा,
इतना सरल कि जिसके जीवन में कोई बुद्धि के जाल, तर्कजाल
नहीं हैं। बुद्धि बड़ी तिरछी-तिरछी है। बुद्धि बड़ी चालाक है, बड़ी
कपटी है। बुद्धि करती कुछ, दिखाती कुछ; होता
कुछ, भीतर
कुछ, बाहर
कुछ। बुद्धि बड़ा पाखंड है। जो बुद्धि के पाखंड से मुक्त हो गया वह साधुजन। जो जैसा
भीतर वैसा बाहर। जिसके बाहर और भीतर में अब जरा भी अंतर नहीं है। वही कहेगा जो है।
वही होगा जो कहा है। तुम उसका स्वाद लो कहीं से, तो
एक ही जैसा पाओगे।
बुद्ध ने कहा है: साधु ऐसा जैसे सागर का
स्वाद;
कहीं से चखो, खारा; कभी चखो, खारा; दिन
में कि रात,
सुबह कि सांझ, अंधेरे कि उजेले, इस
किनारे कि उस किनारे, इस तट कि उस तट--कुछ भेद नहीं पड़ता। साधु
सागर जैसा है;
एक ही उसका स्वाद है।
कपटी का अर्थ होता है, उसके
स्वाद अनेक हैं। कपटी का अर्थ होता है, उसके ऊपर बहुत
मुखौटे लगे हैं;
अपना चेहरा उसने छिपा रखा है; जब जैसी जरूरत
होती है,
वैसा नकाब लगा लेता है।
साधु का अर्थ होता है, जिसने
अपने चेहरे को खोल रखा है; जैसा है वैसा है।
साधु का तुमने जो अर्थ सुन रखा है, वह
तो उलटा ही है। तुम तो साधु का अर्थ समझते हो, जिसने बड़ी साधना
की है। साधु का अर्थ, जिसने साधना की है, तुम्हें
लगता है। लेकिन साधना का तो मतलब ही यह हुआ कि अब वह सरल न रह जाएगा। साधना तो उसी
को पड़ता है जो सरल नहीं है! सरल को कहीं साधना पड़ता है! बच्चे साधु हैं। साधा क्या
हैं उन्होंने?
स्वाभाविक हैं। जो स्वाभाविक--वही साधु! जिसने साधा वह कुछ का कुछ
हो जाएगा। साधने का अर्थ ही होता है, भीतर कुछ था, ऊपर
से कुछ आरोपित कर लिया। भीतर क्रोध था, ऊपर करुणा
दिखलाने लगे। भीतर वासना थी, ऊपर ब्रह्मचर्य प्रगट किया। भीतर लोभ था, भारी
लोभ था,
बाहर त्याग किया। भीतर कुछ और आकांक्षा जलती थी और बाहर आचरण कुछ
और बना लिया। इसी को तुम साधु कहते हो!
दया इस तरह के व्यक्ति को साधु नहीं कहती।
दया के साधु की परिभाषा है: प्रेम मग्न जो साधजन...! वे जो प्रेम में मग्न हैं, जो
प्रेम में सरल हैं, जो प्रेम में डुबकी लगा रहे हैं, जो
प्रेम के पागलपन में उतरने को राजी हैं--तिन गति कही न जात--उनकी गति कहनी बड़ी
मुश्किल है। उनके पैर डगमगाते हैं जैसे शराबी के डगमगाते हैं। उनके रोएं-रोएं में
मस्ती है। उनके उठने-बैठने में एक गीत है। उनके श्वास-श्वास में संगीत है।
और उनके जीवन में तुम संगति न पाओगे--संगीत
जरूर पाओगे। संगति, कंसिस्टेंसी, तो
उनके जीवन में होती है जिन्होंने आचरण को साध लिया है। साधु के जीवन में संगति न
पाओगे,
संगीत जरूर पाओगे। प्रतिपल पाओगे, एक
अपूर्व संगीत बज रहा है। लेकिन तुम ऐसा न पाओगे कि जो उसने कल किया था वही वह आज
कर रहा है। कल कल था, आज आज है। आज जो परमात्मा कराएगा, वह
करेगा;
कल से उसका कोई बंधन नहीं है। इसलिए साधु की भविष्यवाणी नहीं हो
सकती। तुम यह नहीं कह सकते कि कल वह क्या कहेगा, क्या
करेगा। कल आएगा तभी पता चलेगा। साधु को भी पता नहीं है कि कल क्या होगा। कल जो
परमात्मा कराएगा वही करेंगे; दिखाएगा वही देखेंगे; जैसा
नचाएगा वैसा नाचेंगे। साधु का अर्थ है, जिसने अपने को
समर्पित किया परमात्मा के हाथों में; जिसने अब अपने
जीवन को स्वयं नियंत्रित करना बंद कर दिया है; जो निमित्त मात्र
हो गया है;
जो कहता है; "तुम जैसा करोगे! पत्ता हिलेगा, तुमने
हिलाया तो हिलेगा;
नहीं हिलेगा, तुमने नहीं हिलाया तो नहीं हिलेगा।'
साधु का अर्थ है जिसने अपनी मर्जी से जीवन
छोड़ दिया और प्रभु-मर्जी से जीने लगा। इसलिए "तिन गति कही न जात'।
साधु की गति फिर ऐसी ही अटपटी हो जाती है जैसी परमात्मा की गति है। साधु परमात्मा
का ही छोटा सा रूप हो जाता है। रोज-रोज नए-नए फूल खिलते हैं। रोज-रोज नए गीत लगते
हैं। अगर तुम ऊपर-ऊपर संगति खोजने जाओ तो संगति न मिलेगी। ऐसी संगति तुम्हें
महात्मा में मिल जाएगी। क्योंकि उसने तो जीवन पर एक ढांचा बिठा रखा है। उसका ढांचा
बंधा हुआ है।
सुना है मैंने एक नाथ के संबंध में। एक गांव
में एक नास्तिक था और उस नास्तिक से गांव परेशान हो गया। सब तरह से समझाने की
कोशिश की,
लेकिन उसकी समझ में न आए। न केवल इतना कि समझ में न आए, वह
उलटा गांव को समझाए कि ईश्वर नहीं है। गांव उससे बेचैन होने लगा। तो उन्होंने कहा, ऐसा
करो कि एक परम साधु का अवतरण हुआ है--एकनाथ का--तुम उसके पास चले जाओ। अब तो
तुम्हें शायद वही समझा सकें तो समझा सकें।
नास्तिक गया। जब पहुंचा, एकनाथ
जहां रुके थे,
जिस गांव में--एक शिव-मंदिर में ठहरे थे--जब वहां पहुंचा तो बड़ा
हैरान हुआ,
खुद भी सकपका गया। नास्तिक था, फिर भी उसने देखा
कि एकनाथ जो कर रहे हैं, यह तो मैं भी नहीं कर सकता। वे शंकर जी पर
पैर टेके हुए विश्राम कर रहे हैं। नास्तिक था, शंकर जी को मानता
भी नहीं था,
मगर तो भी छाती उसकी धड़क गई कि यह आदमी तो कुछ अजीब सा मालूम होता
है! शंकर पर पैर टेके हुए है! यह तो महा नास्तिक है। हालांकि मैं कहता हूं कि कोई
ईश्वर नहीं,
लेकिन अगर मुझसे भी कोई कहे कि शंकर जी को पैर मारो तो मेरी भी
छाती धड़केगी कि पता नहीं हो न हो! कहीं हो ही! पीछे कोई झंझट हो! ये तो बिलकुल
निश्चिंत लेटे हुए हैं!
पूछा कि महाराज, यह
आप क्या कर रहे हैं? मैं नास्तिक हूं, आस्तिकता
की तलाश में आया था। गांव के लोग भी हद मूढ़ हैं, कहां
भेज दिया! आप यह क्या कर रहे हैं?
एकनाथ ने कहा: कभी, कहीं
भी पैर रखो,
वही है। कहीं भी पैर टिकाओ, उसी पर पैर टिकता
है। उसके अलावा सहारा कौन! इसलिए कोई अड़चन नहीं है।
बात तो जरा अटपटी थी, पर
बात थी तो अर्थपूर्ण। जैसे इस आदमी को कुछ दिखाई पड़ा है! परमात्मा ही है तो अब
कहां पैर रखो! कहीं भी रखो, वही है। हर हालत में पैर उसी पर टिकेगा। तब
क्या फर्क पड़ता है, शंकर जी पर टेक लो।
खैर, उस आदमी ने सोचा
कि आदमी है तो कुछ गहरा। रुक जाऊं, देखूं इसका
आचरण--क्या करता है, और क्या करता है!
पड़े रहे, सुबह हो गई, सूरज
सिर चढ़ गया। उस आदमी ने कहा: महाराज मैंने तो सुना है कि साधु ब्रह्ममुहूर्त में
उठते हैं,
पर आप अभी तक विश्राम ही कर रहे हैं!
एकनाथ ने कहा: जब उठे साधु, तभी
ब्रह्ममुहूर्त! और क्या ब्रह्ममुहूर्त होता है? ब्रह्ममुहूर्त
में साधु उठते हैं, ऐसा नहीं; साधु
जब उठते हैं,
तभी ब्रह्ममुहूर्त। मैं कौन हूं बीच में आने वाला? जब
उसकी मर्जी,
उठे; जब उसकी मर्जी, सो
जाए।
इस बात को समझना--जब उसकी मर्जी, उठे!
तुम्हारे भीतर बैठा तो वही है। अगर उसकी मर्जी अभी उठने की नहीं तो तुम कौन हो
उठाने वाले?
यह निमित्त-भाव, यह परिपूर्ण समर्पण! मगर ऐसे आदमी के आचरण
की संगति नहीं हो सकती।
फिर एकनाथ उठे। भीख मांग लाए, बाटियां
बनाने लगे। बाटियां बन कर तैयार हो गई हैं, ठोक-ठोक कर उनकी
राख झाड़ रहे थे कि एक कुत्ता आया और एक बाटी ले भागा। वह आदमी बैठा देख रहा है। वे
तो भागे उस कुत्ते के पीछे। उस आदमी ने सोचा कि हद हो गई, अभी
तो कह रहा था कि सभी जगह परमात्मा है और इतनी तेजी से भाग रहा है कुत्ते के पीछे!
तो वह भी भागा कि क्या होगा, देखें! उसने भाग कर कोई दो मील जा कर कुत्ते
को पकड़ा हाथ में हंडी भी ले आया है। और कुत्ते का पकड़ कर मुंह और कहा कि नासमझ, हजार
दफे तुझसे कहा कि जब तक घी न लगा लूं, कभी भूल कर बाटी
ले कर मत भागा कर। राम और बिना घी की बाटी खाएं, मुझे
जंचता नहीं।
कुत्ते के मुंह से बाटी छीन कर हंडी में
डुबाई घी में,
वापस उसको दी और कहा: राम, अब खाओ मजे से।
साधु का आचरण सरल होगा, बालवत
होगा। साधु का आचरण साधना का नहीं होगा, सरलता का होगा; साधा
हुआ नहीं होगा,
कल्टीवेटिड नहीं होगा, सहज होगा। और
प्रतिपल नई उमंग होगी। तुम कुछ तय नहीं कर सकते कि साधु कैसा व्यवहार करेगा। जिसका
व्यवहार तुम तय कर सको वह तो यंत्रवत है। कल भी ऐसा था, परसों
भी ऐसा था,
आज भी ऐसा है, कल भी ऐसा होगा। मुर्दा है। साधु तो जीवंत
है। इसलिए साधु का जीवन बड़ा अटपटा होगा।
"प्रेम
मगन जो साधजन,
तिन गति कही न जात'। उनकी गति कही
नहीं जा सकती,
क्योंकि उनकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। वे क्या करेंगे, कोई
भी नहीं जानता है। वे स्वयं भी नहीं जानते हैं। जो होगा, होगा।
तुम्हें पता हैं कल तुम क्या करोगे, तो फिर तुम्हारा
कल अभी से मुर्दा है। पैदा नहीं हुआ और मर गया। तुम्हें पता है कोई तुम्हें गाली
देगा तो तुम क्या करोगे तो तुम परमात्मा को मौका ही नहीं दे रहे। तुमने पहले ही सब
तय कर रखा है। तुमने निर्णय पहले ही ले रखा है। नहीं, गाली
तो आने दो,
तुम पीछे परमात्मा को कहो कि यह आदमी गाली दे रहा है, अब
तू कर,
क्या करना है। तब हर बार तुम पाओगे, कुछ
नया उठता है। और तब तुम्हारे जीवन में प्रतिक्रियाएं न होंगी; तुम्हारे
जीवन में संवेदनशीलता होगी। तुम यंत्रवत व्यवहार न करोगे। अभी तो ऐसा है, बटन
किसी ने दबाई कि क्रोधित हो गए; दूसरी बटन दबाई तो प्रसन्न हो गए। अभी तो
बटन जैसा मामला है। एक बटन दबाई, बिजली जल गई; एक
बटन दबाई,
पंखा चल पड़ा। अभी तो तुम यंत्रवत हो। अभी तो तुम गुलाम हो। और हर
कोई जो तुम्हारा जीवन थोड़ा सा समझता है, तुम्हारा मालिक
हो जाता है। क्योंकि जिसको भी तुम्हारी बटनें पहचान में आ गईं, तुम
उसके गुलाम हो जाते हो। वह तुम्हारी बटनें दबाने लगता है।
तुमने देखा, आमतौर
से लोग यही करते हैं! पत्नी जानती है, कौन सी बटन पति
की दबाए। पति जानता है कि कौन सी बटन पत्नी की दबाए। बेटे बच्चे तक जानते हैं कि
बाप की कौन सी बटन दबानी है, कब दबानी है। भिखमंगे जानते हैं कि कब बटन
दबानी है। तुम अगर अकेले हो तो भिखमंगा भीख नहीं मांगता; वह
देखता है कि अभी बटन दबेगी नहीं। तुम बाजार में खड़े हो, चार
आदमियों से बात कर रहे हो, वह एकदम आ कर पकड़ लेता है। अब वह जानता है
कि इस वक्त चार आदमियों के सामने इज्जत का सवाल खड़ा कर दिया; अब
अगर दो पैसे तुम न दो, देना तुम चाहते नहीं, तुम्हारा
मन तो हो रहा है इसका सिर खोल दें, दया भाव से तुम
दे भी नहीं रहे,
तुम सिर्फ दे रहे हो कि सिर्फ झंझट छूटे। ये चार आदमी क्या कहेंगे!
इनके सामने एक प्रतिष्ठा है। तो तुम मुस्कराते हो, दो
पैसे देते हो। भिखमंगा भी जानता है कि तुम दो पैसे उसे नहीं दे रहे, तुम
अपनी प्रतिष्ठा में डाले रहे हो दो पैसे। वह तुम्हारी बटन दबा रहा है।
तुम अगर अपने को जांचोगे तो तुम पाओगे कि
तुम भी दूसरों की बटनें दबाते रहते हो। और यह भी तुम पाओगे कि दूसरे तुम्हारी
बटनें दबाते रहते हैं। क्योंकि लोग यंत्रवत हैं।
साधु की गति नहीं कही जा सकती, क्योंकि
साधु की कोई बटन ही नहीं है। और तुम बटन दबाते भी रहो तो भी कोई फर्क न पड़ेगा।
साधु जाग्रत है। और साधु ने अब आचरण से जीना बंद कर दिया है। अब वह सरलता से जीता
है, स्वाभाविकता
से जीता है।
"रोय-रोय
गावत हंसत'...।
बहुत मुश्किल है साधु की बात। कभी रोता, कभी हंसता, कभी
दोनों साथ-साथ भी करता। तुम सिर्फ पागलों को ही कभी रोते और गाते एक साथ पाओगे।
क्योंकि बड़ी अतक्र्य बात है। एक आदमी रो रहा है, समझ
में आता है कि रो रहा है, दुखी है एक आदमी हंस रहा है, समझ
में आता है कि सुखी है। लेकिन एक आदमी रो भी रहा है और हंस भी रहा है, तब
जरा अड़चन है। यह जरा मुश्किल की बात है। इसको सुलझाना कठिन है। यह पहेली है।
क्योंकि अगर यह दुखी है तो सिर्फ रोए और अगर यह प्रसन्न है तो सिर्फ हंसे; यह
दोनों साथ क्यों कर रहा है?
लेकिन साधु की ऐसी दशा है: एक तरफ देखता है
संसार और रोता है;
और एक तरफ देखता है परमात्मा और हंसता है। मध्य में खड़ा है; द्वार
पर खड़ा है। एक तरफ देखता है अथाह दुख और पीड़ा और लोगों को तड़पते और बिलबिलाते
कीड़े-मकोड़ों की तरह, और रोता है। और एक तरफ देखता प्रभु का परम
प्रसाद,
आनंद की वर्षा; हंसता है। हंसता भी है, रोता
भी है।
"रोय-रोय
गावत हंसत,
दया अटपटी बात'।
इसलिए तुम साधु को अगर सच में पहचानने चले
हो तो तुम कुछ बातें खयाल में ले लेना: साधु मतवाला है, मस्त
है। बिना पीए पीए बैठा है।
बेपिये कहते हैं सब रिंद-ए-मयाशम मुझे
बेखुदी तूने किया मुफ्त में बदनाम मुझे।
वह जो साधु है, वह
बिना पीए बैठा है। वह तुम्हें ऐसा ही लगेगा कि पीए बैठा है।
अब यह आलम है तेरे हुस्न की खैर
होश औ' मस्ती में
इम्तियाज नहीं।
अब उसे कुछ फर्क नहीं रहा कि क्या होश है और
क्या बेहोशी है। दोनों मिलजुल गए हैं। द्वंद्व एक-दूसरे में लीन हो गए हैं, डूब
गए हैं। इसलिए हंसना और रोना साथ-साथ चल सकता है। रो भी सकता है, गा
भी सकता है।
हम तो जीवन को बांट कर जीते हैं। हम जीवन की
हर चीज को बांट लेते हैं। इधर जीवन को रखते हैं, इधर
मौत को। इधर सुख इधर दुख। इधर स्वर्ग इधर नर्क। इधर प्रेम इधर घृणा। इधर अपने इधर
पराए। इधर मित्र इधर शत्रु। हम तो हर चीज को बांट लेते हैं। और जीवन अनबंटा है।
साधु बांटता नहीं;
जीवन के अनबंटेपन को जीता है। जीवन अद्वैत है; साधु
जीवन को उसकी समग्रता में जीता है।
जीवन और मौत अलग-अलग हैं नहीं, तुमने
मान रखे हैं। तुम जिस दिन पैदा हुए उसी दिन आखिरी सांस की शुरुआत हो गई। ऐसा थोड़े
ही है कि सत्तर वर्ष बाद एक दिन तुम अचानक मर जाओगे। अचानक कहीं कुछ होता है? सत्तर
साल लगते हैं मरने में--धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
मरते-मरते-मरते सत्तर साल में मर पाते हो।
तो जन्म और मृत्यु कोई दो अलग-अलग चीजें
नहीं हैं। जन्म और मृत्यु ऐसी ही हैं जैसे तुम्हारा दायां और बायां पैर साथ-साथ चल
रहे हैं। जैसे भीतर जाती श्वास, बाहर जाती श्वास...। अगर जन्म है भीतर जाती
श्वास तो मौत है बाहर जाती श्वास। साथ-साथ चल रहे हैं। ये दोनों पैर साथ-साथ, ये
दोनों पंख साथ-साथ।
तुम्हें तो कभी-कभी हैरानी होती है। अगर तुम
रो रहे हो और हंसी आ जाए तो तुम रोक लोगे; तुम कहोगे, लोग
कहेंगे पागल हो!
मेरे एक शिक्षक चल बसे। वे बड़े प्यारे आदमी
थे, बड़े
मोटेत्तगड़े आदमी थे। "तरुलता' कुछ भी नहीं है!
और बड़े भोले-भाले भी थे। और उनका चेहरा देख कर ही हंसी आती थी। उनके चेहरे पर ही
ऐसा भोलापन था। और भोलानाथ कहने से वे चिढ़ते थे। तो स्कूल में तखते पर भोलानाथ लिख
देना काफी था घंटे भर उनको परेशान करने के लिए। बस वे फिर घंटे भर नाराज ही रहते।
उनकी उछल-कूद और उनकी नाराजगी और उनका डंडे को पीटना और उनका मोटा शरीर और
पसीना-पसीना हो जाना...।
वे मर गए तो सब बच्चे भी उनके घर गए। मैं
उनके बिलकुल पास खड़ा था। उनके चेहरे को देख कर मुझे हंसी आने लगी। आंसू भी गिर रहे
हैं। मैंने बहुत कोशिश की कि हंसी रोक लूं, क्योंकि यह बात
जंचेगी नहीं। कोई मर गया और कोई हंसे...! और मैं रो भी रहा था और मैं दुखी भी था।
क्योंकि सबसे ज्यादा उनको मैंने ही सताया था और सबसे ज्यादा मैं ही दुखी था। सबसे
ज्यादा नुकसान मेरा ही हुआ था। अब दुबारा वैसा सुख न मिल पाएगा। तो इसलिए मेरा
उनसे लगाव भी था,
उनका मुझसे लगाव भी था। तभी उनकी पत्नी आई भीतर से और एकदम पछाड़ खा
कर उनके ऊपर गिर पड़ी और उसने कहा: "हाए मेरे भोलानाथ'! तब, फिर...तब
फिर मैं नहीं रोक पाया। क्योंकि जिंदगी भर हम भोलानाथ कह कर उनको परेशान करते रहे
और यह उनकी खुद पत्नी मरे हुए पति को फिर वही बात कह रही है! अगर उनकी आत्मा कहीं
आसपास होगी तो वह एकदम उछल-कूद करने लगेगी। तो मैं रोता रहा और हंसी फूट पड़ी। मैं
बहुत डांटा-डपटा गया। और कहा: दुबारा किसी के मरने में जाना मत। मैंने उससे पूछा:
लेकिन इसमें बात क्या है? दोनों बात एक साथ नहीं घट सकतीं? उन्होंने
कहा: बकवास नहीं। सारे लोगों ने समझाया: घट सकती है कि नहीं, इसमें
विचार नहीं करना है। लेकिन जब कोई मर गया हो तो रोना संगत है, हंसना
असंगत है। और फिर दोनों साथ-साथ तो बिलकुल ही पागलपन है।
लेकिन तुमने कभी खयाल किया, छोटे
बच्चों को रोते देखा? छोटा बच्चा अगर ज्यादा हंसे तो धीरे-धीरे
हंसी रोने में बदल जाती है। इसलिए गांव में माताएं कहती हैं कि ज्यादा मत हंसो
बेटे, नहीं
तो रोने लगोगे। क्योंकि छोटे बच्चे को अभी विभाजन साफ-साफ नहीं हुआ है। अभी अद्वैत
में है। अभी हंसता है तो हंसी धीरे-धीरे रोना बन जाती है; रोता
है तो हंसी बन जाती है। अभी विपरीत विपरीत नहीं है। अभी कहीं सब चीजें जुड़ी हैं।
साधु फिर जुड़ जाता है। साधु फिर छोटे बच्चे जैसा हो जाता है।
इसलिए जीसस ने कहा है, जो
छोटे बच्चों की भांति होंगे वे ही केवल मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।
बालवत।
तो साधु का अर्थ साधक मत लेना। साधु का अर्थ:
जो पुनः छोटे बच्चे जैसे हो गया; पुनः हो गया निर्दोष।
अपनी हालत का खुद अहसास नहीं है मुझको
मैंने औरों से सुना है कि परीशान हूं मैं।
साधु को अपनी हालत का भी पता नहीं रहता; लापता
हो जाता है। जैसा परमात्मा बेपता है ऐसा ही साधु भी बेपता हो जाता है। बेपते से
जुड़ोगे तो बेपता हो ही जाओगे। अज्ञात से जुड़ोगे तो खुद भी अज्ञात हो जाओगे।
अपनी हालत का खुद अहसास नहीं है मुझको।
मैंने औरों से सुना है कि परीशान हूं मैं।
साधु को औरों से पता चलता है कि तुमने क्या
किया, कि
तुम हंस दिए,
कि तुम रो रहे थे, कि तुम पागल हो गए थे, कि
रास्ते पर नाच रहे थे। लोग जब कहते हैं, तब उसे पता चलता
है। क्योंकि जब वह किसी कृत्य में होता है तो पूरा-पूरा होता है; ऐसा
दूर खड़े हो कर देखता नहीं। यही तो साक्षी और भक्ति के मार्ग का भेद है। साक्षी के
मार्ग पर तुम सदा दूर खड़े हो कर, पार खड़े हो कर देखते हो; तुम
सदा द्रष्टा हो। कुछ भी हो रहा है, तुम दूर रहते हो; अछूते
खड़े रहते हो;
प्रवेश नहीं करते घटना में।
भक्ति का अर्थ है: दूर नहीं खड़े रहना है।
द्रष्टा नहीं बनना है, भोक्ता हो जाना है। भक्ति यानी बिलकुल
भोक्ता हो जाना,
डूब जाना है; जो हो रहा है उसमें ऐसे डूब जाना है कि
तुम्हारा कोई कोना-कातर भी अछूता न रह जाए। तुम्हारा रोआं-रोआं डूब जाए, तल्लीन
हो जाए। कृत्य तब पूर्ण होता है जब तुम्हारी चेतना उसमें पूर्ण डूब गई होती है। जब
तुम द्रष्टा नहीं रहते, भोक्ता होते हो; जब
तुम इस तरह भोक्ता होते हो कि तुम बचते ही नहीं अलग, भोग
ही बचता है--उस परम भोग का नाम भक्ति है। और जब तुम बिलकुल मिट जाते हो कृत्य
में--गीत गाते वक्त गीत गाना ही बचता है, गीत गाने वाला
नहीं; नाचते
वक्त नाच ही बचता है, नर्तक नहीं; भजन
में भजन ही बचता है, भजनीक नहीं। जब झुकता है भक्त परमात्मा के
चरणों में तो सिर्फ झुकना ही होता है वहां, वहां कोई झुकने
को देखने वाला नहीं होता पीछे खड़ा कि देख भी रहे हैं कि मैं झुक रहा हूं। अगर तुम
देख रहे हो कि तुम झुक रहे हो तो तुम झुके ही नहीं; तुम्हारा
अहंकार तो खड़ा ही रहा। शरीर झुक गया, तुम नहीं झुके।
ऐसा सुना मैंने, एक
फकीर बायजीद को मिलने आया। नियमानुसार झुका। झुक कर खड़ा हुआ और बायजीद से उसने कुछ
सवाल पूछा। बायजीद ने कहा: लेकिन पहले झुको तो! उसने कहा: अभी झुका और आप कहते हैं, झुको
तो! आपने देखा नहीं! बायजीद ने कहा: शरीर झुका, तुम नहीं झुके।
तुम झुको!
ऐसा बुद्ध के जीवन में उल्लेख है। एक सम्राट
एक हाथ में कमल के फूल--असमय के फूल, अभी मौसम न
था--और एक हाथ में हीरे-जवाहरात ले कर आया। सोचा उसने, हीरे-जवाहरात
चढ़ाऊंगा,
शायद बुद्ध नापसंद करें, क्योंकि
हीरे-जवाहरात से बुद्ध को क्या लेना-देना! तो फिर फूल चढ़ा दूंगा। फूल तो पसंद
करेंगे न! तो वह एक हाथ में हीरे-जवाहरात भर कर चढ़ाने को ही था कि बुद्ध ने कहा:
चढ़ा मत,
गिरा दे! वह थोड़ा झिझका। क्योंकि चढ़ाने में एक मजा था। अहंकार का
एक मजा है कि मैंने ऐसे बहुमूल्य हीरे-जवाहरात चढ़ाए! और बुद्ध कहते हैं, गिरा
दिए कि अब ठीक है,
अब सामने बेइज्जती हो जाएगी, इतनी भीड़, लोग
मौजूद! और बुद्ध कहते हैं, गिरा दे। अगर वह न गिराए...। गिरा दिए।
फिर वह फूल चढ़ाने को हुआ। बुद्ध ने फिर कहा
कि गिरा दे,
तो उसने फूल भी गिरा दिए। तब वह दोनों खाली हाथ झुकाने को ही था कि
बुद्ध ने फिर कहा गिरा दे! तो वह खड़ा हो गया। उसने कहा कि आप होश में हैं? अब
हाथ में कुछ गिराने को ही नहीं। बुद्ध ने कहा: हाथ में जो था उसको गिराने की यहां
बात ही नहीं थी। फूल और हीरे-जवाहरात ले कर आया है दिखाने कि देखो कि मैं कितना
बड़ा सम्राट हूं,
इतनी बहुमूल्य चीजें चढ़ा रहा हूं! तू ऊपर से दिखा रहा है, चढ़ा
रहा है,
लेकिन भीतर तू अकड़ा खड़ा है।
भक्त जब झुकता है तो वहां सिर्फ झुकना ही
होता है;
वहां कोई झुकने वाला नहीं होता। और भक्त जब नाचता है तो सिर्फ नाच
ही होता है;
कोई नाचने वाला नहीं होता। कृत्य ही रह जाता है; कोई
कर्ता नहीं बचता। सब तरह से डूब जाता है कर्ता। भोग ही बचता है; भोक्ता
सब तरह से उसी में लीन हो जाता है। इस लवलीनता का नाम है सरलता। इस लवलीनता का नाम
है समर्पण।
"रोय-रोय
गावत हंसत,
दया अटपटी बात'।
फिर प्रभु हंसाता है तो हंसता है, रुलाता
है तो रोता है;
न अपनी तरफ से हंसता है न अपनी तरफ से रोता है; फिर
जहां प्रभु ले चले, चलता है; जो कराए करता है; न
कराए, नहीं
करता है। अपनी मर्जी खो दी। अपनी योजनाएं छोड़ दीं। अब प्रभु के हाथ का एक उपकरण हो
जाता है। इसलिए बड़ी अटपटी बात है।
"हरिरस
माते जे रहैं,
तिनको मतो अगाध।
त्रिभुवन की संपति दया, तृनसम
जानत साध।।'
"हरिरस
माते जे रहैं।'...बड़ा
प्यारा वचन है: हरिरस माते जे रहैं...! जो हरिरस को पी कर उन्मत्त हो गए हैं, मनमत्त
हो गए हैं। हरिरस माते जे रहैं...! जिन्होंने हरिरस की शराब पी ली है, अब
जिनका कुछ अपना होश नहीं रहा, जिन्हें अपना अब कोई भान, अपनी
कोई सुधि नहीं रही।
खयाल रखना, जब
तक तुम्हें अपनी सुधि है तब तक प्रभु की सुधि न आएगी। ये दो तलवारें एक ही म्यान
में बनती नहीं। जब तक "मैं' है तब तक प्रभु नहीं। और जब प्रभु आता है तो
तभी आता है जब "मैं' चला गया होता है।
"हरिरस
माते जे रहैं'!
जो मदमस्त हो गए हैं हरिरस को पी कर..."तिनको मतो अगाध', इनकी
चेतना बड़ी अगाध है, असीम! क्योंकि जैसे ही तुमने अपने को
समर्पित किया,
तुम्हारी सब सीमाएं गईं। तुम्हारे होने के कारण ही तुम सीमित हो।
प्रभु तो असीम है।
समझो, गंगा बहती है।
बड़ी है नदी,
पर सीमा तो है ही। जब सागर में गिर जाएगी तो सीमा खो जाएगी। आदमी
छोटे-छोटे झरने हैं; जब सागर में उतर जाते हैं तो सीमाएं खो जाती
हैं। जैसे एक बूंद सागर में उतर जाए तो फिर बूंद बूंद तो नहीं रह जाती है; सागर
ही हो जाती है। बूंद की तरह मिट जाती है और सागर की तरह हो जाती है।
"हरिरस
माते जे रहैं,
तिनको मतो अगाध'।
--उनका
जो चैतन्य है,
उनकी जो धारणा-अवस्था है, उनकी जो बोध की
स्थिति है,
वह अगाध हो जाती है--जो प्रभु के रस में मस्त हो गए!
उमर खय्याम ने रुबाईयात में इसी हरिरस की
बात की है। लेकिन फिट्ज़राल्ड, जिसने अंग्रेजी में अनुवाद किया उमर खय्याम
का, समझा
नहीं। वह समझा कि यह शराब की ही बात हो रही है। इसलिए सूफी उमर खय्याम के साथ बड़ी
ज्यादती हो गई। लोग यही समझे कि उमर खय्याम शराब की, शराबखाने
की, साकी
की, इन्हीं
की बात कर रहा है। इसलिए तुम पाओगे अब शराबघरों के नाम रख दिए गए: उमर-खय्याम या
रुबाईयात। उमर खय्याम हरिरस की बात कर रहा था। सूफी फकीर है। शराब तो उसने कभी चखी
नहीं, शराबघर
कभी गया नहीं। लेकिन तुमने जितने भी चित्र देखे होंगे उमर खय्याम के, उनमें
सुराही लिए बैठा है। वह सुराही बड़ी और है। वह सुराही कहीं और की है। वह सुराही इस
जगत की नहीं,
इस मिट्टी से बनी नहीं। और जो शराब ढाल रहा है, वह
शराब हरिरस की है। दुनिया में संतों के साथ सदा ज्यादती होती रही, लेकिन
जैसी ज्यादती उमर खय्याम के साथ हुई वैसी किसी के साथ नहीं हुई। क्योंकि उसका तो
जितना भी अनुवाद हुआ, जिस भाषा में अनुवाद हुआ, वहीं
भूल हो गई। फिट्ज़राल्ड बड़ा कवि था और महत्वपूर्ण कवि था। उसने उमर खय्याम में चार
चांद लगा दिए,
मगर सारी बात गलत कर दी। कहां प्रेमरस की बात, कहां
हरिरस की बात! वह सब खराब हो गई। वह शराबखाने बात की हो गई।
लेकिन शराब का प्रतीक बड़ा महत्वपूर्ण है।
महत्वपूर्ण इसलिए है कि जो शराब में घटता है छोटे-मोटे पैमाने पर, वही
परमात्मा में घटता है बहुत बड़े पैमाने पर, विराट पैमाने पर।
"हरिरस
माते जे रहैं,
तिनको मतो अगाध।
त्रिभुवन की संपति दया, तृनसम
जानत साध।।'
और जो साधु है, जो
सरल हुआ,
उसे इस सारे जगत की संपत्ति तृणवत् मालूम पड़ती है। क्यों? गलत
मत समझ लेना,
जैसा अभी तक लोग समझाते रहे हैं तुम्हें। वे यह समझाते रहे हैं कि
संसार की संपत्ति को तृणवत् समझो। इस सूत्र को ऐसा मत समझ लेना। यह सूत्र यह नहीं
कह रहा है कि तृणवत् समझो; यह सूत्र कह रहा है कि जो साधु हैं, वे
तृणवत् जानते हैं। समझने की बात नहीं है कि तुम रखो सोना और समझो कि मिट्टी है।
कैसे समझोगे?
लाख दोहराओ कि मिट्टी है, तुम जानते हो
सोना है। मिट्टी को सामने रख कर तो तुम नहीं दोहराते कि मिट्टी है; सोने
को सामने रख कर दोहराते हो कि मिट्टी है। तुम जानते हो फर्क, भलीभांति
जानते हो। फर्क को झुठलाने की कोशिश कर रहे हो; अपने को समझाने
की कोशिश कर रहे हो कि मिट्टी है, कुछ भी नहीं रखा इसमें। किसको समझा रहे हो
कि कुछ भी नहीं रखा? भीतर तुम्हारा मन कह रहा है कि बहुत कुछ रखा
है। उस मन को तुम दबा रहे हो कि कुछ भी नहीं रखा, यह
तो सब मिट्टी है,
इसमें क्या रखा है; और आज है कल चला
जाएगा! सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब बांध चलेगा बंजारा! लेकिन अभी तुम जानते हो कि है
ठाठ। पड़ा रह जाएगा; तुम्हारा बस चले तो पड़ा भी न रहने दो, साथ
ले जाओ। चलते वक्त दुखी होओगे।
यह तुम अपने को समझा रहे हो। खयाल करना, साधु
वह नहीं है जो सोचता है कि सोना मिट्टी है; साधु वह है जो
जानता है कि सोना मिट्टी है। और जानने और सोचने में क्या फर्क है? सोचना
उधार है। दूसरों के जानने को तुम समझ रहे हो तुम्हारा जानना है। बासा है, दो
कौड़ी का है। इस तरह तुम एक झूठा आचरण बना सकते हो; पाखंडी
हो जाओगे,
साधु नहीं।
साधु कैसे जानता है कि तृणवत् है सारी
संपत्ति?
उसके जानने की कला बड़ी और है। जब तक तुम्हें परमात्मा की संपत्ति
का पता न चले,
इस जगत की संपत्ति तृणवत् हो ही नहीं सकती। कैसे होगी? बड़े
को जान लो तो छोटा छोटा हो जाता है।
तुमने अकबर की कहानी सुनी न! लकीर खींच दी
उसने दरबार में आ कर एक दिन और कहा कि कोई इसे बिना छुए छोटी कर दे। उसके
दरबारियों ने सोचा, बहुत सिर मारा, मगर
बिना छुए कैसे कोई छोटी कर सकता है! फिर उठा बीरबल, उसने
एक बड़ी लकीर उसके पास खींच दी। उस लकीर को छुआ भी नहीं और वह छोटी हो गई।
तुम्हें समझाया गया है कि इस संसार की संपदा
को तुम मिट्टी समझो। मैं नहीं समझाता; न दया तुमसे यह
कह रही है। न जानने वालों ने कभी कहा है, न जानने वाले कभी
कह सकते हैं। क्योंकि ऐसी नासमझी की बात जानने वाले कैसे कहेंगे! लेकिन तुम्हारे
सौ महात्माओं में निन्यानबे तुम जैसे ही नासमझ होते हैं, कभी-कभी
तो तुमसे भी ज्यादा नासमझ होते हैं।
बड़ी लकीर पहले खींचो; छोटी
लकीर को छूने की जरूरत भी न पड़ेगी। तुम परमात्मा की संपत्ति को थोड़ा अनुभव करो; इस
जगत की सब संपत्ति तृणवत् हो जाएगी। जैसे एक आदमी एक पत्थर को हाथ में लिए चला जा
रहा है--रंगीन पत्थर सूरज की रोशनी में चमकता है। वह सोचता है बहुमूल्य है। इसको
हीरा मिल जाए,
इसको कोहिनूर मिल जाए--फिर थोड़े ही सोचेगा कि यह चमकदार पत्थर
बहुमूल्य है। फिर इसको छोड़ना थोड़े ही पड़ेगा, त्याग थोड़े ही
करना पड़ेगा! भूल ही जाएगा इसको। यह तो कब हाथ से सरक कर नीचे गिर जाएगा, याद
भी न आएगा,
लौट कर भी न देखेगा। हीरे को सम्हालेगा कि पत्थर को सम्हालेगा? मुट्ठी
खाली करनी पड़ेगी न! जगह बनानी पड़ेगी।
मैं तुमसे कहता हूं, परमात्मा
को खोजो और संसार को मत छोड़ना। जिस दिन परमात्मा की किरण उतरेगी, संसार
छूटने लगेगा। इसलिए मैंने अपने संन्यासी को संसार छोड़ने की प्रक्रिया नहीं दी है।
संन्यास छोड़ना नहीं है। संन्यास त्याग नहीं है। संन्यास भागना नहीं है। संन्यास है
प्रभु को निमंत्रण देना। संन्यास है प्रभु को बुलावा देना कि अतिथि, आओ, पधारो; कि
मैं प्रतीक्षा करूं; कि मैं पूजूंगा, प्रार्थना
करूंगा,
बुलाऊंगा स्मरण करूंगा; तुम आओ! जिस दिन
प्रभु आ जाता है,
बड़ी लकीर खिंच जाती है, अनंत लकीर खिंच
जाती है--और-छोर नहीं जिसके! यह संसार की छोटी सी लकीर कब धूमिल हो कर कहां खो
जाती है,
पता भी नहीं चलता। तब तुम कभी बाद में यह दावा भी न कर सकोगे कि मैंने
त्याग किया। क्योंकि क्या दावा? तुमने कभी किया ही नहीं तो दावा कैसा! इसलिए
जो त्याग का दावा करे, समझ लेना चूक हो गई! जो कहे मैंने लाखों
रुपए छोड़ दिया,
समझना कि लाखों की गिनती अभी जारी है। जो कहे कि देखो मैंने कितना
छोड़ा, समझ
लेना इसके जीवन में बड़ी लकीर नहीं आई अभी। यह उसी लकीर के साथ संघर्ष कर रहा है; उसी
को छू-छू कर छोटा करने की कोशिश कर रहा है। और वह लकीर इतनी आसानी से छोटी नहीं हो
सकती। तुम पोंछ भी डालो तो भी मिटेगी नहीं; क्योंकि जब तक
बड़े का अवतरण न हो जाए, क्षुद्र मिटता नहीं है।
अंधेरे को मिटा सकते हो कमरे के, जब
तक रोशनी न आ जाए?
कैसे मिटाओगे? लड़ सकते हो, या
आंख बंद करके मान ले सकते हो कि मिट गया अंधेरा। जब भी आंख खोलोगे, सदा
उसे पाओगे। रोशनी आ जाए, फिर अंधेरा नहीं बचता।
संसार अंधेरा है; परमात्मा
प्रकाश है। तुम प्रकाश को खोजो, अंधेरे से मत लड़ो।
"हरिदास
माते जे रहैं,
तिनको मतो अगाध'।
डूब जाओ हरि की शराब में! जी भर कर पीओ।
रोएं-रोएं को मदमस्त हो जाने दो।
"त्रिभुवन
की संपति दया,
तृनसम जानत साध'।
जानता है ऐसा, मानता
नहीं। मानने से कुछ भी नहीं होगा। मानना तो बहुत लचर, नपुंसक
है। ऐसा अनुभव होता है कि यह सब व्यर्थ है। जब यह अनुभव होता है कि यह व्यर्थ है, पकड़
छूट जाती है। छोड़नी नहीं पड़ती, छूट जाती है। जैसे सूखा पत्ता गिर जाता है
वृक्ष से चुपचाप,
ऐसे संसार तिरोहित हो जाता है। तुम फिर यह न कहते फिरोगे कि मैंने
त्याग किया। दूसरे भला कहें कि कितना त्याग कर दिया; तुम्हें
बड़ी हैरानी होगी कि क्या त्याग कर दिया, कैसा त्याग कर
दिया।
रामकृष्ण के पास एक दिन एक आदमी ने आ कर कहा
कि आप महा त्यागी हैं! रामकृष्ण हंसने लगे और कहने लगे: यह भी खूब रही! हम तो
सोचते थे,
तुम बड़े त्यागी हो। वह आदमी कहने लगे: आप मजाक कर रहे हैं। आप कभी
मजाक नहीं करते;
आप क्या कह रहे हैं? मैं और त्यागी!
मैं संसारी,
चौबीस घंटे संसार में रगा-पगा! चौबीस घंटे यही संसार के ठीकरे जोड़
रहा! मुझको आप त्यागी कहते हैं?
रामकृष्ण ने कहा: निश्चित, तुमको
मैं त्यागी कहता हूं। भूल कर मुझे त्यागी मत कहना, क्योंकि
मैं तो उस परम प्रभु को भाग रहा हूं; त्यागी कैसे! और
तुम संसार के ठीकरे जोड़ रहे हो, परमात्मा को छोड़े बैठे हो; त्याग
तुम्हारा बड़ा है। तुम हो असली परमहंस देव! हम तो साधारण भोगी हैं--परमात्मा को भोग
रहे हैं?
हमने छोड़ा क्या? कौड़ी छोड़ी, हीरा
पाया; इसको
त्याग कहोगे?
तुमने हीरा छोड़ा, कौड़ी पाई; यह
तुम्हारा त्याग बड़ा है। निश्चित बड़ा है।
संसारी बड़ा त्यागी है। कूड़ा-कर्कट बीन रहा
है, छांट-छांट
कर कूड़ा-कर्कट इकट्ठा कर रहा है। हीरे-जवाहरात बीच में आ जाएं तो सरका देता है।
अगर कभी ध्यान बीच में आने लगा, हटा देता है, कि
अभी कहां,
अभी तो धन इकट्ठा करो! ध्यान--अभी नहीं! कभी संन्यास बीच में सिर
उठाने लगे,
हटा देते हैं कि अभी नहीं, अभी जिंदगी पड़ी
है, अभी
बहुत कुछ करना है,
अभी दुनिया में बहुत कुछ सिद्ध करना है। अगर राम कभी बीच-बीच में
याद आने लगे,
कभी उसकी तरंग आने लगे, तुम जल्दी से
अपने को झकझोर कर साफ कर लेते हो कि यह खतरनाक मामला है, इसमें
उलझो मत!
नहीं, जिसके जीवन में
त्याग घटता है,
उसे तो पता भी नहीं होता।
मुझको तो होश नहीं, तुमको
खबर हो शायद
लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बरबाद किया।
भक्त तो एक दिन परमात्मा से कहेगा कि लोग भी
खूब हैं;
लोग कहते हैं कि बरबाद हो गए, त्याग कर दिया, सब
छोड़ बैठे,
नासमझ हो गए, दिमाग खराब हो गया।
मुझको तो होश नहीं, तुमको
खबर हो शायद...भक्त भगवान से कहेगा: शायद तुमको पता हो, मुझको
तो कुछ पता नहीं कि कब क्या हो गया, क्या गुजरी, कैसी
गुजरी! मैं तो मस्त हूं। लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बरबाद किया।
"कहूं
धरत पग परत कहूं उमगि गात सब देह।
दया मगन हरिरूप में, दिन-दिन
अधिक सनेह।।'
"कहूं
धरत पग परत कहूं'--यह
भक्त की दशा है। कहीं पैर रखते हैं कहीं पड़ता है। कहीं जाते हैं, कहीं
पहुंच जाते हैं। अपने बस में नहीं, परमात्मा के बस
में। अपना नियंत्रण नहीं।
खयाल रखना, जब
तक तुम अपने नियंत्रण में हो तब तक अहंकार है। अहंकार तुम्हारे नियंत्रण का ही नाम
है। जिस दिन तुम अपनी मालकियत छोड़ देते हो उसके चरणों में, रख
देते हो कि अब तू सम्हाल, तेरी मर्जी पूरी हो--फिर जहां पैर पड़ें, जैसे
पैर पड़ें! तुम पैर भी नहीं सम्हालते।
"कहूं
धरत पग परत कहूं'...और
फिर मस्ती ऐसी,
इतना विराट उतर आए तुम्हारे छोटे से आंगन में, मस्त
न हो जाओगे?
तुम्हारे दुख भरे जीवन में आनंद की ऐसी धार बह उठे, तुम्हारे
निराश और उदास और विषाद से भरे मरुस्थल में हरिरस की धार बह उठे, मरूद्यान
आ जाए--नाचने न लगोगे? फिर पैर होश में पड़ेंगे? फिर
पैरों को कुछ पता रहेगा, कहां पड़ रहे हैं?
"कहूं
धरत पग परत कहूं,
उमगि गात सब देह।' बड़ी अनूठी बात है...उमगि गात सब देह...।
रोआं-रोआं सब उमंग से भर गया, उत्सव से भर गया है। विराट का आगमन हुआ!
प्रीतम घर आए! अंधेरे में रोशनी उतरी। जहां मौत ही मौत थी वहां जीवन नाचा। उमगि
गात सब देह...रोआं-रोआं पुलकित है, नाच रहा है।
रोआं-रोआं संगीत से भरा है। हृदय-वीणा बजी है। उमंग है, उत्साह
है, उत्सव
है।
भक्त का जीवन उत्सव का जीवन है।
धर्म के नाम पर बड़ी उदासी छा गई है।
मंदिर-मस्जिद-चर्च बड़े उदास हो गए हैं। नाच, राग-रंग खो गया
है। महात्मा भारी चट्टानों की तरह छाती पर बैठ गए हैं।
धर्म का वास्तविक रूप बड़ा पुलकित रूप है।
धर्म का वास्तविक रूप पथरीला नहीं है। फूलों जैसा है। उदास नहीं है; उमंग
का है,
उत्सव का है।
एक बूढ़े संन्यासी मुझे मिलने आए कुछ दिन
पहले। वे कहने लगे: यह क्या मामला है? यह कैसा आश्रम? लोग
नाचते,
लोग पुलकित, लोग आनंदित...। लोग मस्ती में है जैसे नशे
में हों। गंभीर होना चाहिए। सत्य के खोजी को तो गंभीर होना चाहिए। सत्य की खोज तो
बड़ी गंभीर बात है।
मैंने उनसे कहा: सत्य की हम यहां खोज ही
नहीं कर रहे;
हम तो प्रभु की खोज कर रहे हैं। सत्य शब्द ही गंभीर हो जाता है।
सत्य शब्द ही रूखा-सूखा हो गया है। मरुस्थल तो आ गया उसमें।
फर्क देखते हो! "सत्य की खोज'--जैसे
तर्क का एक जाल फैलाना होगा, बुद्धि लगानी होगी, सिर
टकराना होगा। प्रभु की खोज, प्यारे की खोज, परम
मीत की खोज--बड़ी और बात है! दार्शनिक सत्य की खोज करते हैं; धार्मिक
प्रभु की खोज करते हैं। दार्शनिक परमात्मा को सत्य कहते हैं, और
तब परमात्मा को भी उदास कर देते हैं। धार्मिक सत्य को भी परमात्मा कहते हैं, प्रीतम
कहते हैं,
प्यारे का संबंध जोड़ते हैं। यह कोई तर्क का नाता नहीं है; प्रेम, प्रीति, लगाव
का नाता है।
"उमगि
गात सब देह...'!...जब
तुम्हारा मनत्तन सब नाचने लगे, मनत्तन दोनों एक ही उमंग में बंध जाएं...और
खयाल रखना,
दया। कह रही है: उमगि गात सब देह! ऐसा नहीं कि सिर्फ तुम्हारी
आत्मा नाचेगी। यह भी अधूरी दृष्टि है कि आत्मा प्रसन्न है। यह भी शरीर के विपरीत
दृष्टि है। जब आत्मा नाचेगी तो मन भी नाचेगा। जब मन नाचेगा, देह
भी नाचेगी। तुम्हारी समग्रता नाचेगी। तुम पूरे के पूरे नाचोगे। प्रभु जब आएगा तो
सिर्फ आत्मा को ही संपदा थोड़े मिलेगी, मत भी अगाध हो
जाएगा। तिनको मतो अगाध। और जब प्रभु आएगा तब तुम्हारी देह भी पुनीत हो जाएगी; दिव्य
हो जाएगी,
तुम दिव्यदेही हो जाओगे। उसके आगमन पर सब कुछ कंचन हो जाएगा। उसके
आगमन पर सब अमृत हो जाएगा। फूल तो खिलेंगे ही खिलेंगे, कांटे
भी खिलेंगे।
"कहूं
धरत पग परत कहूं,
उमगि गात सब देह।
दया मन हरिरूप में, दिन-दिन
अधिक सनेह।।'
और जैसे-जैसे इस हरिरूप में डुबकी लगती
है--दिन-दिन अधिक स्नेह--उतना-उतना प्रेम उपजता है।
तो धार्मिक व्यक्ति का लक्षण है उसमें से
बहता हुआ प्रेम का झरना। वही कसौटी है कि कोई धार्मिक है या नहीं। जितना तुम्हारा
स्नेह,
जितना तुम्हारा प्रेम बढ़ने लगे कि तुम अकारण बेशर्त प्रेम बांटने
लगो--उनको जिनको जरूरत है, उनको जिनको जरूरत नहीं है; उन्होंने
जिन्होंने मांगा,
उन्होंने जिन्होंने नहीं मांगा; तुम जा-जा कर
झोलियां भरने लगो लोगों की प्रेम से, तुम अपने प्रेम
को उछाल कर चलने लगो; परिचित-अपरिचित को देने लगो; अकारण
देने लगो,
बिना हिसाब देने लगो...दोइ हाथ उलीचिए...जब तुम उलीचने लगो...!
कबीर ने कहा है: जैसे कभी नाव में पानी भर
जाता है तो दोनों हाथ उलीचना पड़ता है; ऐसे ही जब
तुम्हारे हृदय में प्रेम भरे--दोनों हाथ उलीचिए, यही
संतन को काम।
जब तुम प्रेम उलीचने लगो और प्रेम बंटने लगे
और प्रेम तुमसे बहने लगे और तुम एक मंदिर बन जाओ जहां से प्रेम की अनंत धाराएं
बहें, तभी
जानना कि प्रभु घटा। प्रभु के घटने का दावा वक्तव्यों से नहीं होता; तुम
यह कहो कि मुझे ईश्वर मिल गया, इससे कुछ हल नहीं है--तुम्हारे जीवन में
कितना प्रेम बंट रहा है, कितना तुम्हारा जीवन प्रेम के मार्ग पर बह
रहा है!
यहां तो हालत उलटी है। हजारों साल के उपद्रव
ने--धर्म के नाम पर जो पंडित-पुरोहितों ने चलाया है...। हम महात्मा उसी को कहते
हैं जिसकी प्रेम-धार बिलकुल सूख जाती है, जो बिलकुल काठवत्
हो जाता है,
सूखा लक्कड़; जिसको तुम जलाओ भी तो धुआं न निकले, क्योंकि
जलधार बिलकुल नहीं बची उसमें--उसको हम महात्मा कहते हैं, कहते
हैं, पहुंच
गया। लेकिन यह कहीं और पहुंच गया मालूम होता है; परमात्मा
को तो नहीं पहुंचे, कहीं और पहुंच गए। क्योंकि परमात्मा तो बहुत
रससिक्त है। ये महात्मा बहुत रस-शून्य हैं; परमात्मा बहुत
रससिक्त!
तुम जरा सोचो, अगर
महात्माओं के हाथ में दुनिया चलाने का काम हो तो क्या गति हो! फूल खिलेंगे? नहीं।
वृक्ष हरे होंगे?
नहीं। कोई पुरुष किसी स्त्री को प्रेम करेगा? नहीं।
कोई मां किसी बेटे को प्रेम करेगी? नहीं। कोई मित्र
किसी मित्र के लिए मरेगा-जीएगा? नहीं। अगर महात्माओं के हाथ में दुनिया हो
तो सारा जीवन यंत्रवत् हो जाएगा। उसमें से एक बात कम हो जाएगी--प्रेम। प्रेम
बिलकुल कम जाएगा।
इसलिए गुर्जिएफ कहता था कि दुनिया के
तथाकथित महात्मा परमात्मा के विपरीत मालूम होते हैं, क्योंकि
परमात्मा तो बड़ा रस से बह रहा है। परमात्मा तो खूब बह रहा है--चांदत्तारों में, पत्थर-पहाड़ों
में, सब
दिशाओं में,
अनंत-अनंत रूपों में। परमात्मा नर्तक है, गायक
है, प्रेमी
है! जब तुम्हारे जीवन में धर्म बढ़ेगा तो यही होगा।
"दया
मगन हरिरूप में,
दिन-दिन अधिक सनेह।'
यही लक्षण है। इसी को कसौटी मानना कि
रोज-रोज,
कदम-कदम पर तुम्हारा प्रेम बढ़ता जाए तो समझना कि पहुंचे प्रभु के
पास, बढ़
रहे, ठीक
मार्ग पर हो। अगर प्रेम घटने लगे तो समझना कि कुछ चूक रहे हो, कहीं
भटक रहे हो। जैसे बगीचे के करीब आते हो न, तो ठंडी हवा आने
लगती है! हवा में थोड़ी-थोड़ी उड़ती फूलों की सुगंध भी आने लगती है। चाहे बगीचा दिखाई
भी न पड़ता हो तो भी तुम जानते हो कि हवा सुगंधमय होने लगी, हवा
शीतल होने लगी,
दिशा ठीक है, हम बगीचे की तरफ जा रहे हैं। ऐसे ही
तुम्हारे भीतर जब प्रेम उमगने लगे--उमगि गात सब देह--और प्रतिपल तुम्हारा स्नेह
बढ़ने लगे और बिना किसी शर्त के तुम उसे बांटने लगो, सौदा
न हो, प्रेम
का दान शुरू हो जाए--तो तुम जानना कि प्रभु के पास आने लगे; मंदिर
ज्यादा दूर नहीं,
करीब ही है। शायद तुम सीढ़ियों पर आ खड़े हुए हो।
"हंसि
गावत रोवत उठत,
गिरि-गिरि परत अधीर।
पै हरिरस चसको दया, सहै
कठिन तन पीर।।'
इस वचन को खयाल में लेना: "हंसि गावत
रोवत उठत,
गिरि-गिरि परत अधीर'! वह जो प्रभु का
प्यासा है,
हंसता है, गाता है, रोता है, उठता
है, गिरता
है, आनंदित
है कि कुछ-कुछ बरसा होने लगी, और अधीर भी है कि और वर्षा कब होगी! तृप्त
है कि प्रभु,
थोड़े तुम उतरे; अतृप्त है कि पूरे कब उतरोगे! संतुष्ट है कि
तुम्हारी एक किरण आई, और असंतुष्ट है, महा
असंतुष्ट है,
इतना असंतुष्ट कभी भी न था; क्योंकि जब किरण
जानी न थी तो पता भी न था; अब एक किरण का स्वाद लग गया, अब
पूरा सूरज कब मिलेगा? अब वह महासूर्य से मिलन कब होगा?
"हंसि
गावत रोवत उठत,
गिरि-गिर परत अधीर।
पै हरिरस चसको दया, सहै
कठिन तन पीर।।'
लेकिन जिसको एक बार चसका लग गया हरिरस का, एक
बार स्वाद आ गया,
एक घूंट पी ली शराब--"पै हरिरस चसको दया सहै कठिन तन पीर'--अब
चाहे कितनी ही पीड़ा हो, विरह कितना ही जले और जलाए, अब
चाहे रोआं-रोआं तड़पे और रोए, लेकिन जिसको एक बार चसका लग गया, अब
लौट नहीं सकता,
अब पीछे जाने का कोई उपाय नहीं है। बहुत बार भक्त सोचता है कि लौट
जाऊं। इसे तुम न समझ सकोगे। बहुत बार भक्त सोचता है लौट जाऊं, क्योंकि
आनंद भी मिल रहा है, लेकिन आनंद के मिलने के साथ-साथ एक महान पीड़
भी मिल रही है।
ऐसा समझो, तुमने
निन्यानबे के चक्कर की कहानी सुनी है! वैसा संसार में ही नहीं घटता, वैसा
अध्यात्म में भी घटता है।
एक सम्राट का एक नाई था--मालिश करने वाला।
वह रोज मालिश करता सम्राट की; एक रुपया उसे मिलता। पुराने दिन की बात है; एक
रुपया बड़ी बात थी। एक रुपया एक महीने के लिए काफी था। तो नाई की मस्ती का क्या
कहना! दिल खोल कर आनंद लेता, मित्रों को दावत देता। सारा गांव उसको दानी
मानता था। एक रुपया बड़ी बात थी। और उसकी मस्ती ही मस्ती थी। एक दफे सुबह मालिश कर
आया सम्राट की,
फिर दिन भर मस्त ही मस्त था। बैठक जमती, ताश
खेला जाता,
चौपड़ फैलती, शतरंज होती, गीत-गान
होता; रात
नाच होता। मस्त था।
सम्राट उससेर् ईष्या करने लगा। उसकी मस्ती
सेर् ईष्या होने लगी कि मेरे पास सब है और इतना मस्त नहीं, और
इसके पास कुछ भी नहीं है और इसकी मस्ती का क्या कहना! बस सुबह काम किया, निपट
गए घंटे भर में;
फिर दिन भर मजा ही मजा है।
उसने अपने वजीर से कहा कि इसकी मस्ती का राज
क्या है?
वजीर ने कहा: कुछ खास राज नहीं, ठीक कर देंगे। और
दूसरे दिन से नाई ठीक होने लगा। ठीक होने का मतलब खराब होने लगा। पांच-सात दिन में
तो नाई की हालत खराब हो गई। सम्राट ने पूछा: मामला क्या है? तू
सूखा क्यों जा रहा है एकदम? अब चौपड़ नहीं बैठती, शतरंज
भी नहीं सुनाई पड़ती, अब रात को ढोलक भी नहीं बजती; बात
क्या है?
उसने कहा: अब आप मालिक पूछते हैं तो बताना
पड़ेगा। निन्यानबे का चक्कर पैदा हो गया है।
क्या मामला है, क्या
मतलब है तेरा?
उसने कहा: न मालूम क्या मामला है? किसी
ने मेरे घर में निन्यानबे रुपए से भरी एक थैली फेंक दी।
तो सम्राट ने पूछा: "इसमें परेशान होने
की क्या बात है?
मजा कर।'
उसने कहा: उसी ने तो सब मजा किरकिरा कर
दिया। तो दूसरे दिन जब मुझे एक रुपया मिला, मैंने सोचा कि
अगर एक रुपया बचा लूं तो सौ हो जाएंगे तो एक दिन की बात है। आज न सही रबड़ी, आज
न सही दूध,
आज न सही खेलकूद। एक ही दिन की तो बात है। तो मैं एक दिन उपवास कर
गया। उसी दिन से हालत खराब है। वह एक रुपया भी जमा कर दिया। फिर दूसरे दिन यह खयाल
आया, अरे
इस तरह अगर बचाते चले जाओ तो कुछ दिन में अमीर हो जाओगे। सौ हो गया, अब
एक सौ एक कर लेना चाहिए। बस इसी उधेड़बुन में सब बरबाद हुआ जा रहा है।
जो सांसारिक जीवन में घटती है वही
आध्यात्मिक जीवन में भी घटती है। जब तुम्हारे जीवन में पहली किरण उतरती है
परमात्मा की,
तब तुम्हें पहली बार पता चलता है कि अब तक क्या गंवाते रहे! अब तक
क्या खोया! अब तक जिसको जीवन कहा, जीवन था ही नहीं; आज
पहली दफे जीवन मालूम हुआ। अब बड़ी महत आकांक्षा जगती है, अभीप्सा
जगती है कि अब पूरा-पूरा कैसे मिल जाए! स्वाद लग गया। चसका! दया ने ठीक शब्द उपयोग
किया है: "पै हरिरस चसको दया, सहै कठिन तन पीर'।
अब एक तरफ रस भी आने लगता है और एक तरफ बड़ी पीड़ा भी होने लगती है कि और, और, और
कब होगा,
पूरा कब होगा! जब इतनी छोटी सी किरण इतना मस्त किए जा रही है, जब
एक घूंट ऐसा आनंद से भर गया, तो डुबकी कब लगेगी?
इन घड़ियों में बड़ी अड़चनें होती हैं। कई बार
भक्त सोचने लगता है: प्रभु, वापिस ही लौट आएं! यह पीड़ा तो बहुत है, सही
नहीं जाती। अब एक क्षण भी प्रतीक्षा नहीं सही जाती।
मजाल-एत्तर्क-ए-मुहब्बत न एक बार हुई
खयाल-एत्तर्क-ए-मुहब्बत तो बार-बार आया।
बहुत बार खयाल आता है: छोड़ें यह झंझट, छोड़ें
यह प्रेम का नशा।
मजाल-एत्तर्क-ए मुहब्बत न एक बार हुई।
हिम्मत तो न जुटा पाए छोड़ने की। खयाल-एत्तर्क-ए-मुहब्बत तो बार-बार आया। लेकिन यह
खयाल तो बार-बार आया कि छोड़ें झंझट, लौट जाएं, वापिस; वे
पुराने दिन ही बेहतर थे; अंधेरे में खोए थे, कुछ
पता तो न था। स्वाद ही न लगा था तो सुख तो था। एक तरह का सुख था, एक
तरह की शांति थी। यह उधेड़बुन तो न थी। यह बेचैनी तो न थी। यह दिन-रात का रोना-रोना
तो न था। यह हर घड़ी पलकें बिछाए राह देखना तो न था। यह न अब सोना ठीक रहा, न
जगना ठीक रहा;
अब सब तरफ एक ही एक बेचैनी है।
मजाल-एत्तर्क-ए-मुहब्बत न एक बार हुई।
हिम्मत तो न कर सके छोड़ने की प्रेम, त्याग तो न कर
सके प्रेम का। खयाल-एत्तर्क-ए-मुहब्बत तो बार-बार आया। लेकिन विचार तो बार-बार आया
कि छोड़ दें,
लौट जाएं।
उठाना है जो पत्थर रख के सीने पे वो गाम आया
मुहब्बत में तेरी तर्क-ए-मुहब्बत का मुकाम
आया।
ऐसे भी मौके आए जब ऐसा लगा कि यह तेरी
मुहब्बत की यात्रा में मुहब्बत छोड़ने के भी पड़ाव आते हैं क्या? ऐसा
बहुत बार लगा,
छोड़ दें और भाग जाएं। ऐसा बहुत बार लगा, अभी
भी लौट जाएं। अगर इतने से होने से इतनी पीड़ा हो रही है...। सुख भी हो रहा है, उसी
के कारण पीड़ा हो रही है। थोड़ा-थोड़ा दिखाई भी पड़ने लगा है, इसलिए
अब अंधेरा भी दिखाई पड़ रहा है।
तो अब ऐसा समझो कि एक अंधा आदमी अंधेरे में
जीता रहा है,
कोई अड़चन न थी। थोड़ी-थोड़ी आंख ठीक होने लगी, धुंधला-धुंधला
दिखाई पड़ता है। धुंधला-धुंधला दिखाई पड़ता है, इसलिए अब अंधेरा
भी दिखाई पड़ता है। पहले अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ता था।
खयाल रखना, अंधे
आदमी को अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ता है, क्योंकि दिखाई
पड़ने के लिए आंख चाहिए। चाहे अंधेरा देखो चाहे रोशनी, बिना
आंख कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। तुम शायद सोचते हो कि अंधे आदमी को अंधेरा-अंधेरा
दिखाई पड़ता होगा तो तुम गलती में हो। तुम अपने हिसाब से सोच रहे हो। तुम आंख बंद
करते हो तो तुमको अंधेरा दिखाई पड़ता है, क्योंकि तुम्हारी
आंख ठीक है। अंधे को अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ता। तो जब अंधे की आंख थोड़ी-थोड़ी ठीक
होने लगती है,
तब बड़े कष्ट का मुकाम आ जाता है। धुंधला-धुंधला दिखाई पड़ता है, और
धुंधले-धुंधले दिखाई पड़ने में अंधेरा भी दिखाई पड़ता है। और धुंधले-धुंधले दिखाई
पड़ने में अभीप्सा जगती है कि ठीक-ठीक कब दिखाई पड़ेगा, पूरा-पूरा
कब दिखाई पड़ेगा!
लेकिन बार-बार, चाहे
लाख बार यह विचार आए, लौटना हो नहीं सकता। कई बार भक्त छोड़ कर बैठ
जाता है,
दरवाजे बंद कर देता है, फिर-फिर खोल लेता
है।
वफासवार कई हैं, कोई
हंसीं भी तो हो
चलो फिर आज उसी बेवफा की बात करें।
बहुत बार सोच लेता है कि छोड़ो, भूल
जाओ; यह
यात्रा कठिन है। कहां की झंझट में पड़े हो! यह किस अभागे क्षण में यात्रा शुरू कर
दी। इससे तो सांसारिक आदमी भी ठीक हैं। अपने मजे से जी तो रहे हैं--जाते हैं दुकान, आते
हैं घर,
चलाते हैं काम, अदालत-मुकदमा, सब
तरह की दुनिया और चल रहे हैं। उन्हें कुछ पता ही नहीं है। यह किस दुर्भाग्य में
हमें पता चल गया! यह चसका हमें कैसा लग गया!
सत्संग चसका है। और बहुत बार तुम भागना
चाहोगे। बहुत बार तुम्हारा मन होगा कि छोड़ दो। बहुत बार तुम छोड़ कर बैठ जाओगे।
लेकिन छोड़ न सकोगे।
वफासवार कई हैं, कोई
हंसीं भी तो हो। एक बार परमात्मा का सौंदर्य दिखाई पड़ गया, फिर
इस जगत में कहीं कोई सौंदर्य नहीं है। फिर तुम लाख उलझाने की कोशिश करो, न
उलझ सकोगे।
चलो फिर आज उसी बेवफा की बात करें!
फिर, फिर, फिर
करोगे भजन,
फिर करोगे पूजा, फिर करोगे याद।
वक्त तो दो ही कठिन गुजरे हैं सारी उम्र में
एक तेरे आने से पहले, एक
तेरे जाने के बाद।
लेकिन यह भी तभी पता चलता है जब प्रभु की
किरण आ गई,
उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ गई। तब पता चलता है कि इसके पहले भी जो था
वह भी कष्ट था,
कुछ भी सार न था, व्यर्थ जीए; और
अब, अब
और महाकष्ट की घड़ी आ गई।
वक्त तो दो ही कठिन गुजरे हज सारी उम्र में
एक तेरे आने से पहले, एक
तेरे जाने के बाद।
लेकिन धीरे-धीरे द्वार खुलता है। धीरे-धीरे
रोशनी साफ होती है।
तेरे फिराक के गम ने बचा लिया सबसे
मेरे करीब कोई अब बला नहीं आती।
फिर धीरे-धीरे एक ही याद रह जाती
है--परमात्मा की। उसकी ही विरह की एक ही अग्नि रह जाती है। फिर हजार बलाएं हट जाती
हैं; एक
बला रह जाती है। हजार बलाएं--धन की, पद की, प्रतिष्ठा
की, इसकी-उसकी, सब
हट जाती हैं;
एक झंझट शेष रह जाती है। लेकिन उस झंझट से लौटने की कोई सुविधा
नहीं है।
"पै
हरिरस चसको दया,
सहै कठिन तन पीर'।
"विरह-ज्वाल
उपजी हिए,
राम-सनेही आय'।
और अब एक ज्वाला की तरह जलता है कुछ भीतर
हृदय में।
"विरह-ज्वाल
उपजी हिए,
राम-सेनही आय'!
अब तो राम-प्यारा आए, प्यारा
आए, प्रीतम
आए! ऐसी ज्वाला जलती है कि अब तो वर्षा हो, अब तो उसका मेघ आ
जाए और सब शीतल कर आए।
"विरह-ज्वाल
उपजी हिए,
राम-सनेही आय।
मनमोहन मोहन सरल, तुम
देखन दा चाय।।'
बस एक ही चाह, एक
ही अभीप्सा रह गई है--"तुम देखन दा चाय'--तुम्हें देखने की
आकांक्षा। सब कुछ आंखों में समा जाता है; सब कुछ प्रतीक्षा
बन जाता है। भक्त की सारी ऊर्जा प्रार्थना और प्रतीक्षा बन जाती है।
दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफा याद
अब मुझको नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद।
बस एक पागलपन, एक
गहन पागलपन,
एक ऐसी मस्ती जिसे तुम किसी को न समझा सकोगे। हां, दो
पागल मिलेंगे तो समझ लेंगे। इसलिए तो दया ने कहा है: जो राम-विमुख हों उनसे अपने
हृदय की बात मत कहना; जो राम-सनेही हों, उनके
सामने अपना हृदय खाल देना। क्योंकि इस पीड़ा को केवल वे ही समझ सकेंगे।
विरह-ज्वाल उपजी हिए, राम-सनेही
आय।
मनमोहन मोहन सरल, तुम
देखन दा चाय।।
बस आंखें अटकी रह जाती हैं भक्त की। सारी
ऊर्जा धीरे-धीरे आंख बन जाती है। और जिस दिन तुम्हारी पूरी ऊर्जा आंख बन जाती है
उसी क्षण घटना घट जाती है।
नयन का संबंध था मेरात्तुम्हारा
अब हृदय तक बात पहुंची जा रही है
बात जो कल तक हृदय से थी छिपाई
अब स्वरों में बंध अधर तक आ रही है
देख कर एक बार फिर तुम को न देखूं
पर नयन में रूप बंधता ही नहीं है
छवि तुम्हारी पूर्ण गाना चाहता हूं
किंतु कोई राग सधता ही नहीं है
लग रहा ज्यूं पड़ गई भांवर हृदय की
प्रीति दुल्हन ज्यों कि डोली चढ़ गई है
और सपनों के कहारों ने उठाई
स्वर्ण-डोली प्रिय-सदन को मुड़ गई है
पग महावर और मेहंदी हाथ रच कर
प्रीत मानस-द्वार को खटका रही है
नयन का संबंध था मेरा तुम्हारा
अब हृदय तक बात पहुंची जा रही है
धीरे-धीरे-धीरे सारी ऊर्जा एक ही, एक
ही केंद्र पर आंदोलित होने लगती है: पाना है, देखना है, मिलना
है! और जब तुम्हारे भीतर दूसरा स्वर नहीं रह जाता तो मिलन में कोई बाधा नहीं रह
जाती। जब तक मिलन न हो तब तक जानना आकांक्षा अभी पूरी नहीं, प्यास
अधूरी है;
और, और प्यासे भी अभी मौजूद हैं। जब तक तुम्हारे
जीवन के फेहरिश्त में और भी चीजें मौजूद हैं और परमात्मा को भी पाना और पाने में
एक पाना है तब तक परमात्मा से मिलना न होगा। जब तुम्हारी सारी ऊर्जा एकीभूत होकर
एक ही आकांक्षा बन जाएगी, उस आकांक्षा का नाम ही अभीप्सा है।
अभी हमारी आकांक्षाएं बहुत हैं--धन पाना, पद
पाना, प्रेम
पाना, प्रतिष्ठा
पानी, यह
करना, वह
करना, बड़ा
मकान बनाना--हजार आकांक्षाएं हैं! इन में हम बंटे हैं। हमारी आकांक्षाओं के घोड़े
अलग-अलग दिशाओं में भाग रहे हैं। जब ये सारे घोड़े एक दिशा में जुत जाते हैं और एक
ही आकांक्षा रह जाती है प्रभु को पाने की...।
जीसस ने कहा है: पा लो पहले प्रभु को, शेष
सब पीछे अपने-आप से आ जाएगा। और शेष के पीछे भागे तो शेष तो मिलेगा ही नहीं, प्रभु
भी न मिलेगा। बहुत के पीछे जो भागता है वह एक को भी चूक जाता है। एक साधे सब सधै।
और जो एक को साध लेता है उसका सब सध जाता है। परमात्मा को पा कर और क्या प्रतिष्ठा
पाने को रह जाएगी?
परमात्मा को पा कर और क्या पद पाने को रह जाएगा? परमात्मा
को पा कर और क्या धन पाने को रह जाएगा? परमात्मा के पाने
में सब पाना अपने-आप हो जाएगा।
"काग
उड़ावत कर थके,
नैन निहारत बाट।
प्रेमसिंधु में मन परयो, ना
निकसन को घाट।।'
लौटने का उपाय नहीं है। नदी गिर गई सागर में, अब
लौटे कैसे?
"काग
उड़ावत कर थके'...।
"काग'
प्रतीकात्मक है। काग यानी तुम्हारे मन के आकाश में चलने वाले
व्यर्थ के विचार;
जिनको तुमने कभी बुलाया नहीं और आ गए, कौवे, और
कांव-कांव कर रहे हैं।...बंबई में कृष्णमूर्ति ने जो जगह चुन रखी है अपने
व्याख्यान के लिए,
वहां सारे हिंदुस्तान के कौवे इकट्ठे हैं। उनको जंचती है वह जगह।
कृष्णमूर्ति को सुनना ही मुश्किल, क्योंकि वे कौवे बहुत कांव-कांव मचाते हैं।
मगर उनका आग्रह है कि उनको मचाने दो कांव-कांव और तुम सुनो।...ऐसी चित्त की दशा
है। कौवे कांव-कांव कर रहे हैं। तुम प्रभु को पुकारो, कौवे
अपना कांव-कांव मचा रहे हैं। हर विचार एक कौवा है। और कौवा कहने में अर्थ है, क्योंकि
एक तो बिन बुलाया आ गया और कांव-कांव है, बड़ी बेसुरी है।
स्वर जरा भी नहीं है, भीड़-भाड़ है, उपद्रव
है, शोरगुल
है, उत्पात
है, संगीत
जरा भी नहीं।
"काग
उड़ावत कर थके...'।
दया कहती है,
तुम्हें देख रही हूं, कहीं ऐसा न हो कि
किसी कौवे में चूक जाऊं, कोई कौवा बीच में पड़ जाए, तुम
आओ और आंख से ओझल हो जाओ, कोई विचार परदा बन जाए--तो विचारों को
उड़ाते-उड़ाते हाथ थक रहे हैं।
"काग
उड़ावत कर थके,
नैन निहारत बाट'।
और आंखें लगी हैं द्वार पर, और
आंखें लगी हैं मार्ग पर--पलक-पांवड़े बिछाए प्रतीक्षा में। आंखें थकी जा रही हैं; हाथ
थक गए हैं।
"प्रेम
सिंधु में मन परयो'...। और मन है कि जैसे नदी सागर में उतर
गई। ऐसा मन सिंधु में डूब गया है। "ना निकसन को घाट'...।
खूब उलझाया! दया शिकायत कर रही है। कह रही है, खूब जाल फैलाया; लौटने
की जगह न छोड़ी। ना निकसन को घाट! अब बाहर लौटने का कोई उपाय नहीं। नदी गिर गई सो
गिर गई,
अब वापस लौट सकती नहीं। न लौटने का कोई उपाय है और तुम कितनी देर
लगाए दे रहे हो! तुम्हारे आने की कोई खबर भी नहीं मिलती। इधर हाथ भी थक गए, इधर
आंखें भी सूजी जा रही हैं। इधर लौटने की जगह भी न छोड़ी। खूब उलझाया, खूब
षडयंत्र किया है!
यह प्रेमी की शिकायत है। कई बार भक्त शिकायत
करता है--भक्त ही कर सकता है। दूसरे तो हिम्मत भी नहीं जुटा सकते। भक्त कई बार लड़
भी लेता है,
नाराज भी हो जाता है। कई बार साफ कह देता है कि बंद पूजा-पत्री सब!
आखिर एक सीमा है।
प्रेमी ही इतना साहस कर सकता है, क्योंकि
प्रेम साहस है। और प्रेमी जानता है कि दुस्साहस भी क्षमा हो जाएगा। पंडित साहस
नहीं कर सकता;
पुरोहित साहस नहीं कर सकता।
रामकृष्ण पूजा करते थे मंदिर में तो कभी
करते, कभी
न करते। और कभी करते तो पूजा भी अनूठी थी, कभी घंटों चलती, कभी
मिनटों में खतम हो जाती। कभी दिन बीत जाता। और भी खूबी थी। भोग पहले खुद लगा लेते
अपने को,
फिर भगवान को लगा देते। शिकायत पहुंची। तो जो ट्रस्टी-मंडल था, उसने
बुलाया रामकृष्ण को और कहा: यह किस तरह की पूजा हो रही है। नियम होना चाहिए।
रामकृष्ण ने कहा: प्रेम और नियम का कभी कोई
संबंध सुना?
जहां नियम वहां प्रेम कहां? और जहां प्रेम है
वहां कैसे नियम टिकेगा? ये दोनों बात साथ चलती नहीं। अगर नियम चाहते
हो, कोई
पुजारी खोज लो। मैं प्रेमी हूं। पूजा करूंगा, मगर नियम से नहीं
हो सकती। जब मेरा दिल ही करने का नहीं हो रहा तो झूठ थोड़े ही करूंगा। वहां खड़े हो
कर झूठ पूजा करूंगा? और जब मैं नाराज हूं, तब
कैसे पूजा करूं?
नहीं करेंगे। पूजा नहीं हो सकती। खड़े रहने दो भगवान को। सताते
मुझको,
मैं भी सताऊंगा। रहेंगे द्वार बंद, तड़पो!
करो याद,
जैसा हम याद करते हैं! और रही भोग लगाने की बात, सो
मेरी मां भी पहले खुद चखती थी तब मुझे देती थी; मैं भी बिना चखे
नहीं चढ़ा सकता। क्योंकि पता नहीं चढ़ाने योग्य हो भी कि न हो। स्वाद तो देख लूं। तो
अगर नियम चाहिए,
पुजारी खोज लो।
रामकृष्ण सच्चे पुजारी थे। यह बात और है। यह
भाव की एक दशा है। कई बार भक्त शिकायत करता है, नाराज भी हो जाता
है। आखिर हर चीज की सीमा होती है।
ऐसा न हो यह दर्द बने दर्द-ए-लादवा
ऐसा न हो कि तुम भी मुदावा न कर सको।
भक्त बहुत बार कहता है कि मामला बिगड़ा जा
रहा है,
यह दर्द बढ़ा जा रहा है।
ऐसा न हो यह दर्द बने दर्द-ए-लादवा
--कहीं
ऐसा न हो कि तुम्हारे पास औषधि भी न हो और मुझको उलझाए जा रहे हो और पीछे कह दो कि
नहीं है दवा। लौटना मुश्किल हुआ जा रहा है:
ऐसा न हो यह दर्द बने दर्द-ए-लादवा
ऐसा न हो कि तुम भी मुदावा न कर सको।
कहीं ऐसा न हो कि तुमसे भी इलाज न हो सके
आखिर में! तो फिर हम फंस गए। लौटना समाप्त! क्योंकि वह जो रस लग गया--"पै
हरिरस चसको दया'....!
ना निकसन को घाट! खूब उलझाया!
तो भक्त बहुत बार लड़ भी लेगा, झगड़
भी लेगा। जब प्रेमपूर्ण झगड़ा होता है तो प्रार्थना का ही एक रूप है। अगर तुम्हारी
परमात्मा से झगड़ने की हिम्मत नहीं तो तुम्हें भक्ति का पता ही नहीं। अगर तुम
प्रेमी से लड़ नहीं सकते तो तुम्हारा प्रेम कमजोर है। प्रेम इतना सबल है कि लाख
लड़ाइयों को पार कर जाता है और बचता है। कौन लड़ाई उसे तोड़ पाएगी! सच तो यह है कि हर
लड़ाई के बाद और गहरा हो कर, और निखर कर प्रगट होता है। भक्त नाराज भी हो
लेता है,
फिर मना भी लेता है। और भक्त अगर सच में ही नाराज हो जाए तो भगवान
भी मनाता है।
वैसी घड़ियां भी आती हैं जब तुम्हारी नाराजगी
सच में ही प्रामाणिक होती है और तुम्हारी प्रार्थना सच में ही यथार्थ होती है; तुम्हारा
अधैर्य वास्तविक होता है और तुम्हारा हृदय एक जलती हुई लपट होता है। तो घटना घटती
है, वर्षा
भी होती है।
यह जगत तुम्हारे प्रति तटस्थ नहीं है। यह
अस्तित्व तुम्हारे प्रति उदास नहीं है। यह अस्तित्व तुम्हारे में इतना ही उत्सुक
है जितना तुम इसमें उत्सुक हो जाते हो। इस सूत्र को खयाल में ले लेना। अगर तुम्हें
लगता है कि अस्तित्व तुम्हारे प्रति उदास है, निरपेक्ष है, अस्तित्व
को तुममें कुछ रस नहीं है--तो उसका केवल एक ही अर्थ है कि तुमने अभी अस्तित्व में
रस नहीं लिया। तुम दूर खड़े, अस्तित्व दूर खड़ा। तुम पास आओ, अस्तित्व
पास आता है। तुम गुनगुनाओ, अस्तित्व गुनगुनाता है। तुम गले में हाथ
डालो, अस्तित्व
भी आलिंगन में तुम्हें लेता है। तुम जितनी हिम्मत करोगे उतना ही अस्तित्व को भी
तुम पाओगे कि उस तरफ से भी उत्तर आता है। अस्तित्व निरुत्तर नहीं है। यही तो भक्ति
का पूरा का पूरा शास्त्र है। अस्तित्व में उत्तर छिपा है। अगर तुम पुकारोगे तो
उत्तर आएगा;
अगर न आए तो जानना कि पुकार में कहीं कोई कमी रह गई है।
ओ प्यासे अधरों वाली इतनी प्यास जगा
बिन जल बरसाए यह घनश्याम न जा पाए
गरजी बरसी सौ बार घटाएं धरती पर
गूंजी मल्हार की तान गली-चौराहों में
लेकिन जब भी तू मिली मुझे आते-जाते
देखी रीती गगरी ही तेरी बाहों में
सब भरे-पूरे तब प्यासी तू
हंसमुख जब विश्व, उदासी
तू
पपीहे के कंठ पिया का गीत थिरकता है
रिमझिम की बांसी बजा रहा घनश्याम झुका
है मिलन-प्रहर नव आलिंगन कर रही भूमि
तेरा ही दीप अटारी में क्यों चुका-चुका?
तू उन्मन, जब
गुंजित मधुवन
तू निर्धन, जब
बरसे कंचन
ओ चांद लजाने वाली ऐसे दीप जला
जो आंसू गिरे, सितारा
बन कर मुसकाए
ओ प्यासे अधरों वाली इतनी प्यास जगा
बिन जल बरसाए यह घनश्याम न जा पाए।
बरसा तो होती है। बरसा तो हुई। दया पर हुई, सहजो
पर हुई,
मीरा पर हुई। तुम पर क्यों न होगी? वर्षा
तो हुई है,
वर्षा फिर-फिर होगी। प्यास चाहिए--गहन प्यास चाहिए। तुम्हारी प्यास
जिस दिन पूर्ण है,
उसी पूर्ण प्यास से वर्षा हो जाती है। पूर्ण प्यास ही वर्षा का मेघ
बन जाती है। और मेघ अलग-अलग नहीं हैं। तुम्हारी पुकार ही जिस दिन पूर्ण होती है, प्राणपण
से होती है,
जिस दिन तुम सब दांव पर लगा देते हो अपनी पुकार में, कुछ
बचा नहीं रखते--उसी दिन परमात्मा प्रकट हो जाता है।
आज इतना ही।
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