तत्वमसि—(प्रवचन—पांचवां)
दिनांक 15 जनवरी, 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना।
दिनांक 15 जनवरी, 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना।
सारसूत्र:
आंधरे को हाथी हरि, हाथ जाको
जैसो आयो,
बूझो जिन जैसो तिन
तैसोई बतायो है।।
टकाटोरी दिन रैन
हिये हू के फूटे नैन,
आंधरे को आरसी में
कहां दरसायो है।।
भूल की खबरि नाहिं
जासो यह भयो मुलक,
वाकों बिसारि
भोंदू डारेन अरुझायो है।।
आपनो सरूप रूप आपू
माहिं देखै नाहिं
कहै यारी आंधरे ने
हाथी कैसो पायो है!
लब पे आ जाते संगीत
सहारे साकी
वलवले दिल के अगर गम से संवरना सीखें
वो जबां-जो है शफक, फूल
सितारे साकी
हम भी पा लेते हैं गर जिंदगी करना सीखें
बात बन जाती है तरकीब सुरों की साकी
हर तास्सुर से नए रूप में ढल जाती है
फिर कोई बात नहीं रहती है बाकी साकी
और हर बात पे तरकीब बदल जाती है
ऐसे जज्बों की उठाने यहीं हैं साकी
लफ्ज-ओ-मआनी के तिलिस्मात से जो हैं आगे
उन खयालों की उड़ाने भी यही हैं साकी
यूं, कही अनकही हर बात से जो हैं आगे
नाजुक एहसास की रंजूरियां सारी साकी
और तन्नाज तमन्ना के तकाजों की चुभन
नये अरमानों की वो लाग हठीली साकी
और वो सांझ सवेरे की दुआओं का चलन
रोज-ओ-शब रोते हुए दिल की पुकारें साकी
रुत के गहवारों में पलते हुए लाखों फितने
और ये सजती संवरती हुई नारें साकी
जिनकी सरमस्ति-ओ-रानाई के पहलू इतने
ये सुरें रखती हैं ऐसे कई आलम साकी
वो भी हैं जो किसी तखलीक की हद में भी नहीं
है वो पहनाई लचकती हुई सरगम साकी
वुसअतें जिसकी अजल क्या है अबद में भी नहीं
इस अस्तित्व में सब है। एक छोटे से कण में
भी सब है। पानी की बूंद में भी सागर समाया हुआ है। बस देखने वाली आंखें चाहिए। एक
छोटी से सरगम में सारा ओंकार समाया हुआ है।
तार को छेड़ते हो वीणा पर। उस थोड़े से स्वर
में, स्वरों के जो पार है, वह भी समाया हुआ है। शब्दों
में निःशब्द की झलक है। और आवाजों में भी शून्य की आत्मा है। बस देखने वाली आंखें
चाहिए।
मिट्टी के देह में अमृत का वास है। क्षण में
शाश्वत की झलक है। बस देखने वाली आंखें चाहिए। और ऐसा भी नहीं है कि आंखें न हों; आंखें भी
हैं, और बंद किए बैठे हो।
लब पे आ जाते संगीत सहारे साकी
वलवले दिल के अगर गम से संवरना सीखें
ओठों पर तुम्हारे ऐसा संगीत जन्म सकता
है--ऐसा संगीत,
जो किसी वीणा पर नहीं उठ सकता। लेकिन कुछ कला सीखनी होगी।
लब पे आ जाते संगीत सहारे साकी
वलवले दिल के अगर गम से संवरना सीखें
अगर तुमने दुख को अगर दुख न माना होता; अगर तुमने
दुख को भी जीवन को परिवर्तित करने वाला सौभाग्य जाना होता; अगर
तुमने दुख से अपने को निखारा होता, मांजा होता; दुख में डूब न गये होते; दुख के कारण जागे होते;
दुख में खो गए न होते; दुख के कारण आंखों को
आंसुओं से न भर लिया होता; दुख को बनाया होता निखार; दुख को बनाया होता ऐसी अग्नि, जिसमें पड़ कर सोना
कुंदन बनता है--तो तुम्हारे ओठों पर ऐसा संगीत उतरता, जैसा
बुद्धों के ओठों से उतरा है।
लब पे आ जाते संगीत सहारे साकी
वलवले दिल के अगर गम से संवरना सीखें
वजो जबां-जो है शफक फूल सितारे साकी
हम भी पा लेते हैं गर जिंदगी करना सीखें
जरा जिंदगी करना सीखना होता है। जरा जीना
सीखना होता है। तो वैसी वाणी तुम्हें भी मिल जाए, जिनमें फूल की लाली हो--और
वह भी, जो फूलों की लाली में भी प्रकट नहीं हो पाता।
वो जबां-जो है शफक, फूल
सितारे साकी
हम भी पा लेते हैं गर जिंदगी करना सीखें
जिंदगी जन्म से नहीं मिलती। जन्म से तो केवल
जिंदगी का कोरा अवसर मिलता है। फिर जिंदगी बनानी होती है, संवारनी
होती है। जिंदगी एक कला है। और सबसे बड़ी कला है, कलाओं की
काला है।
लोग संगीत सीखते हैं, तो घंटों
रियाज करते हैं, वर्षों रियाज करते हैं, तब कहीं तार को छूने की कला हाथ आती है; तब कहीं
तबले पर तान उठती है, ताल उठती है, और
तब कहीं कंठ में माधुर्य प्रकट होता है, वर्षों-वर्षों की
साधना से! और तुमने जिंदगी की सितार तो पा ली, लेकिन बजाना न
सीखा। और अगर तुम्हारी जिंदगी से सिर्फ धुआं उठ रहा है, अंधेरा
धुआं! कहीं कोई ज्योति नहीं, कहीं कोई प्रकाश नहीं--तो कसूर
किसका है?
वो जबां-जो है शफक, फूल
सितारे साकी! तुम्हारे ओठों पर ऐसी वाणी खिल सकती हैं--ऐसे वाणी के कमल, कि जिनमें फूलों का सौंदर्य हो, सितारों की रोशनी
हो!
हम भी पा लेते हैं गर जिंदगी करना सीखें!
मगर बहुत कम सौभाग्यशाली हैं जो जिंदगी करना सीखते हैं। लोग तो मान लेते हैं कि
जन्म मिल गया तो सब मिल गया, अब क्या करना! सांस लेना आ गया तो तब सब आ गया!
भोजन कर लिया, दुकान चला ली, रात सो
गए--सब हो गया! कुछ भी नहीं हुआ। अक्सर को गंवाया, कमाया कुछ
भी नहीं। और इतना भरा है यहां! और तुम कूड़ा-कर्कट बटोर रहे हो और यहां हीरों की
खदानें हैं! और यह सारा साम्राज्य तुम्हारा है, जिसका कहीं
कोई अंत नहीं है और कहीं कोई प्रारंभ नहीं है! और तुम छोटे-छोटे टुकड़ों पर लड़े-मरे
जा रहे हो!
बात बन जाती है तरकीब सुरों की साकी
हर तास्सुर से नए रूप में ढल जाती है
फिर कोई बात नहीं रहती है बाकी साकी
और हर बात पे तरकीब बदल जाती है।
ऐसे भी राज हैं जीने के, जहां बात
बन जाती है। ऐसे भी राज हैं जीने के, कि फिर कोई और बात बाकी
नहीं रह जाती। और उन सारे रहस्यों का रहस्य एक छोटी सी बात में छिपा है। आंख खोलो!
आंख है, सूरज निकला है। पक्षी गीत गा रहे हैं। फूल खिले हैं।
आकाश लाली से भरा है। बदलियां तैर रही हैं नीले गगन की छाती पर। बड़ा सौंदर्य प्रकट
हुआ है। मगर तुम आंख बंद किए बैठे हो और अंधेरे में हो। और रो रहे हो क्योंकि
अंधेरे में हो। और अंधेरा केवल तुम्हारी आंख बंद करने के कारण हैं, अन्यथा कहीं भी अंधेरा नहीं है। यह सारा जगत ज्यातिर्मय है। यारी कहते
हैं: जगमग प्रकाश...! यह सारा जगत ज्योतिस्वरूप है। इस जगत का कण-कण रोशनी से भरा
है। मगर तुम हो कि अंधेरे में भटक रहे हो, कि अंधेरे
गली-कूचों में टकरा रहे हो। इधर गिरे, उधर गिरे। घुटने
तुम्हारे लहूलुहान हैं।
तुम्हारी दशा बड़ी दीन हैं। और जिम्मेवार कोई
और नहीं। व्यंग्यों का व्यंग्य तो यह है कि जिम्मेवार तुम स्वयं हो। परमात्मा ने
आंख दी है, मगर पलक खोलो या न खोलो, इसकी स्वतंत्रता भी तुम्हें
दी है। तुम्हीं मालिक हो।
ऐसे जज्बों की उठाने यही हैं साकी
लफ्ज-ओ-मआनी के तिलिस्मात से जो हैं आगे
ऐसी भावनाओं की तरंगें यहां उठती हैं, लहरें
यहां उठती हैं, उत्तुंग लहरें यहां उठती हैं--जो शब्द और
अर्थ के जादू से बहुत आगे हैं!
ऐसे जज्बों की उठाने यहीं हैं साकी
लफ्ज-ओ-मआनी के तिलिस्मात से जो हैं आगे
उन खयालों की उड़ाने भी यहीं है साकी
यूं, कही अनकही हर बात से जो हैं आगे
जिन्हें कहा जा सकता है, उनसे तो
आगे हैं; जिन्हें नहीं कहा जा सकता, उनसे
भी आगे हैं--ऐसे अनुभवों के खजाने यहां हैं! उन खयालों की उड़ाने भी यही हैं साकी!
ऐसे उड़ सकते हो। ऐसा आकाश...ऐसा अनंत आकाश तुम्हारी चेतना का! ऐसा अपूर्व जीवन का
अवसर!
उन खयालों की उड़ानें भी यहीं है साकी
यूं, कहीं अनकही हर बात से जो हैं आगे
मगर तुम कौड़ियां बटोरते हो, तुम कचरा
बटोरते हो। तुम कचरे के ढेर पर अकड़ते हो! रोओगे, पछताओगे।
जिस दिन मौत द्वार पर दस्तक देगी, उस दिन बहुत जार-जार
रोओगे। लेकिन फिर किए कुछ हो भी न सकेगा। फिर बहुत देर हो गई। फिर याद आएगी--
ऐसे जज्बों की उठाने यहीं हैं साकी
लफ्ज-ओ-मआनी के तिलिस्मात से जो हैं आगे
उन खयालों की उड़ाने भी यहीं हैं साकी
यूं, कही अनकही हर बात से जो हैं आगे
नाजुक एहसास की रंजूरिया सारी साकी
और तन्नाज तमन्ना के तकाजों की चुभन
नए अरमानों की वो लाग हठीली साकी
और वो सांझ सवेरे की दुआओं का चलन
देखा है सुबह को प्रार्थना करते? देखो है
सांझ को दुआ में झुके? देखा है चांदत्तारों को आरती सजाए?
नहीं देखा। नहीं देखी सुबह की प्रार्थना नहीं देखी सांझ की दुआ।
नहीं देखी चांदत्तारों की उतरती आरतियां। फिर तुम कर क्या रहे हो? यहां तुम कर क्या रहे हो? यहां तुम्हारी उपलब्धि
क्या है?
फूलों से उठती हुई पूजा देखी है? फूलों की
सुगंध और क्या है--परमात्मा के चरणों में चढ़ी पूजा!
पक्षियों के कंठों से उठे हुए गीत सुने हैं? वे गीत
क्या हैं? वेदों का उच्चार!
वृक्षों से गुजरती हुई हवाओं की धुन सुनी है? वह धुन
क्या है? कुरान की आयत है! लेकिन तुम आदमियों की लिखी
किताबों में उलझे हो! तुम परमात्मा की किताब कब पढ़ोगे? और
उसे पढ़ने की सारी क्षमता लेकर तुम आए हो।
ये सुरे रखती हैं ऐसे कई आलम साकी! यहां
एक-एक स्वर में न मालूम कितनी दुनियाएं छिपी हैं।
ये सुरे रखती हैं ऐसे कई आलम साकी
वो भी हैं जो किसी तखलीक की हद में भी नहीं
ऐसे जगत भी इन स्वरों में छिपे हैं, जो अभी
सृजन भी नहीं हुए हैं। ऐसे जगत भी इन सुरों में छिपे हैं, जो
अभी पैदा होने को हैं, जो अभी बने भी नहीं हैं।
वो भी हैं जो किसी तखलीफ की हद में भी नहीं!
जो किसी सृष्टि की सीमा में नहीं है, उस असीम का अवतरण भी यहां हो रहा
है, प्रतिपल हो रहा है! सूरज की किरणों में, हवाओं की धुनों में, झरनों की आवाजों में।
है वो पहनाई लचकती हुई सरगम साकी
वुसअतें जिसकी अजल क्या है अबद में भी नहीं
एक-एक छोटा स्वर जीवन का, ओंकार का
नाद है। और उस में ऐसे राज और ऐसी गहराइयां हैं, कि न तो
अनादि काल में कभी थीं, न कभी होंगी। न तो पीछे कभी थीं और न
आगे कभी होंगी। न आदि में न अंत में! सारी सीमाओं का अतिक्रमण कर जाएं, ऐसे रहस्य द्वार पर प्रतिपल दस्तक दे रहे हैं। मगर तुम जागो तब। तुम आंख
खोलो तब।
और ध्यान रखना, अंधे तुम
नहीं हो। परमात्मा ने अंधा किसी को भी पैदा नहीं किया है। चाहे शरीर की आंखें न भी
हों, तो भी तुम अंधे नहीं हो। आध्यात्मिक अर्थों में अंधा
आदमी होता ही नहीं। सिर्फ आंख बंद किए आदमी होते हैं। वे जो आंख बंद किए होते हैं,
उन्हीं को अंधा कहा जाता है।
आंधरे को हाथी हरि हाथ जाको जैसो आयो।
बूझो जिन जैसो तिन तैसोई बतायो है।।
बड़े प्यारे वचन हैं आज के। यारी कहते हैं:
भगवान क्या है,
हरि क्या है? आंधरे को हाथी!
कहानी तो तुमने सुनी है पंचतंत्र की, कि पांच
अंधे हाथी को देखने गए। हाथी कभी देखा न था, सुना था। हाथी
के संबंध में खूब सुना था। और जब गांव में हाथी आया, तो अंधे
अपने को न रोक सके। ऐसे ही तुमने परमात्मा के संबंध में सुना है और परमात्मा गांव
में आया हुआ। लेकिन उन अंधों ने तो कम से कम इतनी भी कोशिश की थी कि गए थे और
परमात्मा को टटोला था। तुमने उतना भी नहीं किया है। और परमात्मा सदा गांव में आया
हुआ है। उसी का गांव है! यहीं वह बसा है। यह उसी की बस्ती है। कहीं और जाने का उसे
उपाय भी नहीं है। यहीं है, अभी है!
वे अंधे तुमसे बेहतर थे! वे पंचतंत्र के
अंधे तुमसे कम अंधे थे। उनकी बाहर की ही फूटी थीं, तुम्हारी भीतर की बंद हैं।
गांव में हाथी आया था। सुनी थी बहुत बातें हाथी के संबंध में! आज आया था तो पांचों
अंधे देखने गए। मित्र थे; अंधे ही अंधों के मित्र होते हैं।
अंधे आंखवालों से दोस्ती करते भी नहीं। अंधे तो आंखवालों से बचते हैं। अंधे तो यह
मानना ही नहीं चाहते कि कोई आंखवाला भी है। क्योंकि आंखवाले को मानने का दूसरा
अर्थ होता है कि मैं अंधा हूं। और यह चित्त को चोट पहुंचाता है। इससे अहंकार को
बड़ी पीड़ा होती है। कौन मानना चाहता है कि मैं अंधा हूं! इसलिए अंधे को भी हम अंधा
नहीं कहते, कहते हैं--सूरदास जी। क्योंकि अंधे को भी अंधा
कहो तो नाराज हो जाए।
शिष्टाचार की किताबें कहती हैं कि अंधे को
भी अंधा मत कहना। माना कि अंधा है, मगर अंधा मत कहना। क्योंकि अंधा
कहा तो नाराज हो जाएगा। तो देखते हो, अंधे के लिए हमने
प्यारा शब्द खोज लिया है--सूरदास!
अंधे राजी नहीं होते आंखवालों के साथ
उठने-बैठने को। और जो अंधा राजी हो जाता है, अंधा रह जाता। खुली आंख के साथ जुड़
जाना, आंख के खुल जाने के लिए पहला कदम है।
तो पांचों अंधे दोस्त थे। अंधे ही अंधों के
दोस्त होते हैं। अंधे ही अंधों को चला रहे हैं। अंधे ही अंधों के नेता है, अंधे ही
अंधों के गुरु हैं, पंडित हैं, पुरोहित
हैं। नानक ने कहा है--अंधा अंधा ठेलिया...। बस, अंधे अंधों
को ठेल रहे हैं! अंधे अंधों से बिलकुल राजी हैं, क्योंकि एक
जैसे हैं। अहंकार को चोट नहीं लगती। जीसस को फांसी पर लटका देते हैं। सुकरात को
जहर पिला देते हैं। मंसूर के हाथ-पैर काट देते हैं। अंधे आंखवालों को बर्दाश्त
नहीं करते! महावीर के कानों में सलाखें ठोक दीं। बुद्ध को मार डालने की बहुत
चेष्टाएं कीं।
अंधे आंखवालों को बर्दाश्त नहीं करते। अंधों
को बड़ी पीड़ा होती है कि कोई आंखवाला है। यह मानने में बड़ी पीड़ा होती है कि कोई
आंखवाला है। क्योंकि आंखवाला है तो मैं अंधा हूं। अगर आंखवाला कोई भी नहीं, तो फिर
अंधे होने का सवाल ही नहीं उठता।
वे पांचों अंधे दोस्त थे। अंधों की भीड़ें
हैं। अंधे अकेले नहीं होते। अंधे हमेशा भीड़ में होते हैं। अंधे अकेले खड़े ही नहीं
हो सकते, क्योंकि अकेले में उन्हें डर लगता है। अकेला तो आंखवाला खड़ा हो सकता है।
आंखवाले को सहारे की जरूरत भी नहीं है। आंखवाले को किसी भीड़ का हिस्सा बनने का कोई
कारण नहीं भी है। आंखवाला न तो हिंदू होता है, न मुसलमान
होता है, न ईसाई होता है। आंखवाला तो बस सिर्फ आंखवाला होता
है। आंख के कहीं कोई धर्म होते हैं, कोई विशेषण होते हैं।
दुनिया में दो ही जातियां हैं अंधों की, और
आंखवालों की; तीसरी को जाति नहीं है। और बाकी सब जातियां
झूठी हैं। अंधे का लक्षण है, वह हमेशा भीड़ में होता है। हाथी
भी आया था तो पांचों अंधे अलग-अलग नहीं
गए। पांचों अंधों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ लिया, एक-दूसरे की
लाठी पकड़ ली होगी--अंधा अंधा ठेलिया...चले...चले देखने हाथी को। गांववाले हंसे भी
होंगे। हाथी को कैसे देखोगे? देखने के लिए आंख चाहिए। हाथी
का होना थोड़े ही काफी है।
मुझसे लोग आकर पूछते हैं, ईश्वर
कहां है? कोई आकर नहीं पूछता कि मैं अंधा हूं, मुझे आंखें कैसे मिलें? पूछते हैं, ईश्वर कहां है? जैसे कि ईश्वर हो तो तुम देख ही
लोगे! बुनियादी प्रश्न नहीं पूछते। और बुनियादी प्रश्न जो पूछता है, उसे कहीं ईश्वर को देखने नहीं जाना पड़ता। वह जहां है, वहीं आंख खोलते ही ईश्वर का साक्षात्कार होता है। क्योंकि ईश्वर ने
तुम्हें चारों तरफ से घेरा है। जैसे मछली को सागर ने चारों तरफ से घेरा है। ऐसे
ईश्वर ने तुम्हें घेरा है। तुम मछली हो ईश्वर के सागर की।
सुनते हो न कबीर ने कहा है, कि मुझे
बहुत हंसी आती है यह सुनकर कि मछली सागर में प्यासी है! कबीर कहते हैं, तुम्हें दुखी देखकर मुझे बहुत हंसी आती है। दया नहीं आती, हंसी आती है--मछली सागर में प्यासी है! आनंद के सागर में हो और दुखी हो!
रोशनी के सागर में हो और अंधेरे में जी रहे हो! चारों तरफ परमात्मा बरस रहा है--और
तुम खाली के खाली हो! तुमने अपना घड़ा उलटा रख छोड़ा है।
अंधे हाथी को देखने गए, यह सवाल
उन्होंने न उठाया कि हमारे पास आंख भी है या नहीं--जो कि बुनियादी सवाल था। हाथी
का क्या करोगे? अगर आंख न होगी तो हाथी का क्या करोगे?
मगर यही सभी अंधों की हालत है।
वह पंचतंत्र की कथा सिर्फ बच्चों के लिए
नहीं है, खयाल रखना। बच्चे पढ़ते हैं, बूढ़ों को समझनी चाहिए।
स्कूलों में पढ़ाई जाती है, पहली दूसरी, तीसरी कक्षा में वह कहानी पढ़ाई जाती है। वह कहानी पढ़ाई जानी चाहिए जब कोई
विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण होने लगे, दीक्षांत के क्षण में।
क्योंकि उस कहानी में बड़ा राज है। उस कहानी में तो सारे धर्मों का सार छिपा है।
पांचों अंधे देखने चले हाथी को। बड़े प्रसन्न थे। बड़ी उमंग में थे। जिंदगी भर की
आशा, अपेक्षा पूरी होने के करीब थी। मगर एक बात सोचना ही भूल
गए कि हम अंधे हैं, देखेंगे कैसे? पहुंच
भी गए। हाथी को टटोला।
टटोलने और देखने में बड़ा फर्क है। क्योंकि
कुछ चीजें तो टटोली ही नहीं जा सकतीं, सिर्फ देखी ही जा सकती हैं। अब
जैसे तुम्हें रोशनी देखनी हो तो टटोल नहीं सकते। टटोलोगे तो क्या रोशनी हाथ लगेगी?
टटोलने से पत्थर शायद हाथ लग जाए, मगर प्रकाश
हाथ नहीं लगेगा। प्रकाश सूक्ष्म है, सूक्ष्मातिसूक्ष्म है।
तो हाथी तो बड़ा स्थूल था, हाथ लग
गया। मगर परमात्मा तो प्रकाश है, हाथ भी न लगेगा। परमात्मा
को टटोलोगे, कुछ का कुछ हाथ लग जाएगा। परमात्मा को छोड़कर और
कुछ भी हाथ आ जाएगा। परमात्मा तुम्हारी मुट्ठी में नहीं आ सकता। परमात्मा कोई
वस्तु नहीं है, जिसे तुम पकड़ लो। फिर परमात्मा तो दूर,
हाथी के साथ भी भूलें हो गईं! किसी ने सूंड़ पकड़ी। किसी ने पूंछ
पकड़ी। किसी ने कान पकड़े। किसी ने पैर पकड़ा।
अंधे पूरे को नहीं देख सकते। टटोलने में अंश
हाथ आता है। इस बात को समझ लो; यह बड़ा वैज्ञानिक सूत्र हैं। टटोलने में अंश
हाथ आता है, देखने में पूर्ण हाथ आता है। अगर तुम परमात्मा
को टटोलोगे तो अंश हाथ आएगा; जैसे वैज्ञानिक कहता है: सिर्फ
पदार्थ है और कुछ भी नहीं। यह अंश हाथ में आ गया। पदार्थ परमात्मा का अंश है।
लेकिन पदार्थ परमात्मा नहीं है। जैसे मेरा पैर तुम्हारे हाथ में आ जाए। तो मेरा
पैर मेरा पैर है, मगर मेरा पैर मैं नहीं हूं। मैं पैर से बड़ा
हूं, ज्यादा हूं। परमात्मा में तो पदार्थ है, लेकिन परमात्मा बहुत बड़ा है, पदार्थ ही नहीं है। तुम
परमात्मा और पदार्थ का तादात्म्य नहीं कर सकते।
लेकिन वैज्ञानिक अंधा है। उसके पास ध्यान की
आंख नहीं है। उसके पास अंतसचक्षु नहीं है। टटोल रहा है। उस टटोलने को वह प्रयोग
कहता है; प्रयोग से टटोलना ही होगा। योग से आंख खुलती है। प्रयोग बाहर की तरफ जाता
है, योग भीतर की तरफ जाता है। प्रयोग बहिर्यात्रा है,
योग अंतर्यात्रा है। प्रयोग पदार्थ से जोड़ देगा, स्वयं से तोड़ देगा। योग स्वयं से जोड़ देता है। और जिसने स्वयं को जान लिया,
उसने सब जान लिया। क्योंकि स्वयं को जानने में खुलती है आंख और आंख
खुलती है तो पूर्ण प्रकट हो जाता है।
काश, उन अंधों में से किसी की आंख खुल
जाती तो पूर्ण प्रकट हो जाता या नहीं! भला अंधा पूंछ पकड़े होता, अगर आंख खुल जाती तो तत्क्षण पूरा हाथी प्रकट हो जाता। जो अंधा कान पकड़े
था, और कह रहा था कि हाथी सूप की तरह होता है। जिसमें
स्त्रियां अनाज साफ करती हैं, ऐसे सूप की भांति। अब हाथी का
कान सूप जैसा लगा! और जो अंधा पैर पकड़े था, उसने कहा,
मंदिरों के जैसे स्तंभ होते हैं, ऐसा हाथी है।
लेकिन काश, पैर को पकड़े हुए आदमी की आंख खुल जाती, तो तत्क्षण पकड़े तो पैर होता, लेकिन पूरा हाथी दिखाई
पड़ जाता! वही आंख की कला है।
आंख के सामने पूर्ण प्रकट हो जाता। हाथ की
सीमा है, आंख की सीमा नहीं है। कान की सीमा है, आंख की सीमा
नहीं है। आंख असीम को भी आत्मसात कर लेती है, इसलिए हमने
जाननेवालों को आंखवाला कहा, द्रष्टा कहा। और जानने की कला को
दर्शन कहा। और जानने की विधि को अंतर्दृष्टि कहा। ये सब शब्द आंख से बने हैं। और
ऐसा नहीं है कि भारत में ही ऐसा है; दुनिया में जितने भी
शब्द बनाए गए हैं जाननेवाले के लिए वे सब आंख से बने हैं। जैसे अंग्रेजी में
जाननेवाले को कहते हैं--सीअर, द्रष्टा। श्रोता नहीं कहते
हैं। कान से नहीं बनाया शब्द। श्रोता नहीं कह सकते। कान की सीमा है। आंख में सारी
इंद्रियां समाहित हैं। कान की सीमा है।
इसलिए कहते हैं, आंख की
देखी बात मानना, कान की सुनी मत मानना। सुनी तो सुनी है,
देखी देखी है। कबीर ने कहा है: देखा-देखी बात! जो देख ली हो,
बस वही बात के योग्य बात है, तत्व की बात है।
लिखा-पढ़ी की है नहीं, देखा-देखी बात! जो लिखने-पढ़ने में ही
खो गए, वह खो गए। बस उनके हाथ में लगेगा अंश। और अंश के हाथ
में लगते ही बड़ा खतरा पैदा होता है। क्योंकि जब अंश हाथ लग जाता है तो अहंकार दावे
करता है पूर्ण के।
उन पांचों अंधों में विवाद छिड़ गया। और
पांचों सच कहते थे,
और फिर भी पांचों झूठ थे। यह कहानी बड़ी प्यारी है। यह कहानी तो सारे
दर्शनशास्त्र, सारे धर्मशास्त्र का निचोड़ है। पांचों ठीक
कहते थे, और फिर भी गलत थे। जो कह रहा था कि हाथी मंदिर के
स्तंभ की भांति है, गलत नहीं कह रहा था। उसका अनुभव आंशिक
था। लेकिन अहंकार आंशिक अनुभव को पूर्ण बना लेता है। जरा सी बात उसके हाथ में आ
जाए, तो फिर बाकी अनुमान कर लेता है। और अनुमान भ्रांत होते
हैं।
उनमें विवाद छिड़ गया। और अहंकार सदा विवादी
है। वे पांचों लड़ने लगे। लड़ाई अहंकार में इस बात की नहीं होती कि सत्य क्या है; लड़ाई इस
बात की होती है--किसकी बात सत्य है?
और उन अंधों को क्षमा करना होगा, क्योंकि
आखिर अंधे थे। जितना अनुभव किया था, उतना ही तो बेचारे कह
सकते थे। सबकी अपनी-अपनी दृष्टि थी। जितनी दृष्टि थी, उतना
ही सत्य था उनका। अगर कोई भूल थी तो इतनी ही थी, कि उस सत्य
को वे पूर्ण सत्य होने का दावा कर रहे थे।
महावीर से कोई पूछता था, ईश्वर है,
तो वे जो उत्तर देते थे वह बहुत चौंकानेवाला होता था; वह आंखवाले आदमी का उत्तर था, चौंकानेवाला उत्तर था।
तुम भी तो चौंक जाते, अगर महावीर से पूछते--ईश्वर है?
तो महावीर कहते: हां है, नहीं है; है भी, नहीं भी है; है भी,
नहीं भी है और अवक्तव्य है। ऐसे वे सात वक्तव्य देते एकदम। तुम तो
घबड़ा ही गए होते क्योंकि तुम सोचते हो या तो ईश्वर है या नहीं है। बस, बात खत्म हो गई, दो उत्तर हो जाना चाहिए। लेकिन
महावीर कहते हैं पहली बात स्यात है; दूसरी बात--स्यात नहीं
है; तीसरी बात--स्यात है भी और नहीं भी है; चौथी बात--स्यात है, स्यात नहीं है, और अवक्तव्य है, कहा नहीं जा सकता। इस तरह सात भागों
में उत्तर देते हैं। क्यों?
महावीर आंखवाले हैं। उन्होंने सत्य देखा है।
उसके सब पहलू देखे हैं। कान भी छुआ है, सूंड़ भी छुई है, पैर भी छुए हैं, पूंछ भी छुई है और सारे हाथी को
देखा है, पूरे हाथी को देखा है। अगर आंखवालों के सामने इन
पांचों अंधों ने निवेदन किया होता तो आंखवाला कहता, तुम भी
ठीक, तुम भी ठीक, तुम भी ठीक; और तुम भी ठीक नहीं, तुम भी ठीक नहीं, तुम भी ठीक नहीं। तुम सब ठीक हो, और कोई भी ठीक नहीं
है। तुम ठीक भी हो, और फिर भी हाथी के संबंध में तुम्हारा
वक्तव्य हो नहीं पाया, अवक्तव्य है। तुमने आंशिक को पूर्ण
समझ लिया, बस यहीं तुम्हारी भूल हो गई है।
जैसा उन पांचों अंधों में गहन विवाद छिड़ गया, वैसे ही
तुम्हारे तथाकथित दार्शनिकों में सदियों-सदियों से विवाद छिड़ा है। कोई निर्णय नहीं
होता। निर्णय हो भी नहीं सकता। पांचों अंधे अगर विवाद करेंगे, क्या तुम सोचते हो, कभी भी ऐसी घड़ी आएगी। निर्णायक,
जब निर्णय हो जाएगा। पांचों अंधे कभी ऐसी स्थिति में आ जाएंगे क्या
कि तय हो जाए कि हाथी क्या है? अनंत-अनंत काल में भी यह नहीं
हो सकता। हां, एक ही उपाय है तय करने का कि एक-आध अंधा दुष्ट
हो। तलवार पा जाए और चारों अंधों को डरा दे कि गर्दन काट दूंगा। या तो मेरी मानो
या गर्दन खो दो। तो शायद बाकी चार अंधे कहें कि, ठीक है भाई,
तू जो कहता वही ठीक है। हमें भी दीक्षित कर ले अपने सत्य में।
यही तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु कर रहे हैं।
जो बात तर्क से तय नहीं हो पाती, उसको तलवार से तय कर रहे हैं! हिंदू मुसलमानों
को काट देते हैं, मुसलमान हिंदुओं को काट देते हैं। यह कोई
बात हुई! सिर फोड़ कर कहीं कोई तर्क होते हैं, सिर काट कर
कहीं कोई तर्क होते हैं? ये कोई बुद्धिमानों के लक्षण हुए?
अगर ये बुद्धिमानों के लक्षण हैं, तो किनको
बुद्धू कहोगे?
जहां तर्क हार जाता है, वहां लोग
लट्ठ उठा लेते हैं। जहां तर्क हार जाता है, जहां तर्क से कोई
रास्ता नहीं निकलता, वहां एक-दूसरे की गर्दन काटने लगते हैं।
मनुष्य जाति के नाम पर जो बड़े से बड़े कलंक लगे हैं, उनमें यह
सबसे बड़ा कलंक है, कि हमने अपने सत्यों को न तो देखा है,
न जाना है, मगर हम दावेदार हो गए हैं। और हम
खतरनाक दावेदार हैं, क्योंकि हमारे हाथ में तलवारें हैं। फिर
जिसकी बड़ी तलवार...जिसकी लाठी उसकी भैंस! अगर चार मुसलमान हिंदू को पकड़ लें,
तो हो गया उसका खतना! अगर चार हिंदू मुसलमान को पकड़ ले तो पहना दिया
जनेऊ! मगर यह कोई बात हुई! यह तो अति अमानवीय बात हुई।
मगर अंधों की दुनिया में यही होगा। आंखवालों
की दुनिया में विवाद नहीं होगा। आंखवालों की दुनिया में विमर्ष तो हो सकता है
विवाद नहीं हो सकता। विचार तो हो सकता है, विवाद नहीं हो सकता। संवाद हो सकता
है, विवाद नहीं हो सकता। आंखवालों की दुनिया में तलवारें न
चलेंगी, लकड़ियां न उठेंगी, सिर न काटे
जाएंगे। निवेदन होगा। सत्य का आग्रह नहीं होता, सिर्फ निवेदन
होता है। ऐसा मैंने जाना, कह दिया, बात
खत्म हो गई। किसी को रुचे ठीक, न रुचे ठीक। न कोई झगड़ा है,
न कोई विवाद है।
बुद्धू सिर काट रहे हैं। और जिनको तुम
बुद्धिमान कहते हो,
वे भी सूक्ष्म अर्थों में बस माथापच्ची करते हैं। खूब ऊहापोह चलता
है शास्त्रों में, किताबों में, विवाद
चलता है। ऐसी किताबें पढ़नी हों तो हैं, जैसे दयानंद का
सत्यार्थ प्रकाश। तो तुम्हें मिल जाएगी खूब बकवास, खूब
व्यर्थ के तर्क-वितर्क--जिनका दो कौड़ी भी मूल्य नहीं है! लेकिन अंधों की दुनिया
में इस तरह की किताबें पूजी जाती हैं। क्योंकि एक-दूसरे का खंडन-मंडन चित्त को बड़ा
सुख देता है--कि देखो, यह मारा मुसलमान को, चारोंखाने चित कर दिया! यह मारा ईसाई को, चारोंखाने
चित कर दिया! यह मारा जैन को, चारोंखाने चित कर दिया।
तुम सत्य को जानने की चेष्टा में कम संलग्न
हो, लोगों को चित करने में ज्यादा संलग्न हो। अपने चित को तो जगाने की तो
चिंता नहीं है, किस-किस को चित किया, इसकी
चिंता में पड़े हो!
यह दुनिया अंधों से भरी है।
आंधरे को हाथी हरि...। तुमने भगवान को अंधों
का हाथी बना लिया। इससे ज्यादा और भगवान का क्या अपमान हो सकता था।
आंधरे को हाथी हरि हाथ जाको जैसो आयो।
बूझो जिन जैसो तिन तैसोई बतायो है।।
जो भी हाथ लग गया जिसके...नहीं भूत लगा तो
भागते भूत की लंगोटी ही भली! जो हाथ लग गया जिसको, उसी को पकड़ लिया जोर से उसी
की पूजा शुरू हो गयी!
और आग्रह है कि यही सत्य है। केवल मात्र यही
सत्य है, और सब शेष असत्य है। मार्ग मिलेगा तो इससे, द्वार
मिलेगा तो इससे। बाकी सब भटकेंगे, नर्क में सड़ेंगे। प्रत्येक
मस्त हो कर सोच रहा है कि अपना मंदिर द्वार है, बाकी सब
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे द्वार नहीं
हैं। और हरेक यही सोच रहा है, और चित में बड़ा प्रसन्न हो रहा
है।
अगर द्वार है, तो सारे मंदिर, और सारी मस्जिदें और सारे गुरुद्वारे उसके द्वार हैं। क्योंकि सभी के हाथ
में अंश लगा है कि लेकिन अंश भी पूर्ण की तरफ द्वार बन सकता है। अंश द्वार बन सकता
है। अंश के सहारे धीरे-धीरे सरकते-सरकते तुम पूर्ण को उपलब्ध हो सकते हो। सूरज की एक
किरण हाथ लग जाए तो उसी किरण के सहारे आदमी सूरज तक पहुंच सकता है। और पानी की एक
बूंद का स्वाद लग जाए तो सागर की खोज हो जाएगी, आज नहीं कल,
कल नहीं परसों, देर-अबेर, मगर हो जाएगी। पर लोग सागर की खोज
में तो जाते नहीं; मेरी बूंद सागर है, तुम्हारी
बूंद सागर नहीं, इस विवाद में ही समय व्यतीत हो जाता है।
बूझो जिन जैसो, तिन तैसोई
बतायो है।
बूझने की बात नहीं है परमात्मा। यह कोई लाल
बुझक्कड़ों का काम नहीं है। तुमने लाल बुझक्कड़ की कहानियां तो सुनी ही होंगी। मगर
वह सारी कहानियां तुम्हारे पंडितों-पुरोहितों, तुम्हारे तत्वज्ञों के संबंध में
हैं। क्योंकि तुम्हारे पंडित-पुरोहितों से ज्यादा लाल बुझक्कड़ और कोई भी नहीं।
देखा तो है ही नहीं, मगर बूझने चले!
ऐसा हुआ कि लाल बुझक्कड़ के गांव में चोरी हो
गई। पुलिस इन्सपेक्टर आया,
पुलिस के लोग आए। गांव में छान-बीन की, हरेक
से पूछा। कोई सुराग न मिला। चोर कोई चिह्न छोड़ ही न गया था। न तो हाथ के चिह्न थे,
न पैर के चिह्न थे। न कोई चीज छोड़ गया था। कोई उपाय ही न छोड़ गया
था। बड़ी मुश्किल थी, कैसे पता लगे! गांव के लोगों ने कहा,
अब तो एक ही उपाय है। हमारे गांव में, आपको
पता है, लाल बुझक्कड़ हैं।
उन्होंने पूछा, लाल
बुझक्कड़ यानी क्या?
उन्होंने कहा: जो हर चीज बूझ देते हैं। ऐसी
कोई चीज ही नहीं है,
जिसको वे बूझें न। चाहे उन्हें पता हो या न पता हो, मगर बूझ देते हैं।
एक बार ऐसा हुआ कि गांव से हाथी निकल गया था, लोगों ने
कहा। लाल बुझक्कड़ ने हाथी नहीं देखा था। लोगों ने पूछा, ये
किसके पैर हैं? सुबह पता चला लोगों को, जब सुबह लोग जगे, इतने बड़े पैरों के चिह्न किसी ने
देखे नहीं थे--तो लाल बुझक्कड़ ने सिर में हाथ लगाया, थोड़ी
देर ध्यानमग्न रहे और कहा कि ऐसा लगता है कि कोई हरिण पैर में चक्की बांध कर कूदा
है। बूझ दिया!
उन्हीं से मिलें आप, लोगों ने
कहा। कोई और उपाय नहीं था। जंचा तो नहीं इन्सपेक्टर को कि यह लाल बुझक्कड़ किसी काम
आएगा। मगर अब कोई और रास्ता मिलता नहीं; सोच लो, पूछ लो, मिल लो, शायद कोई और
उपाय बन जाए। लाल बुझक्कड़ को पूछा। लाल बुझक्कड़ ने कहा कि बताऊंगा, लेकिन बिलकुल एकांत में। और बताऊंगा इस शर्त के साथ कि जब चोर पकड़ा जाए,
तो मेरा नाम न बताया जाए।
इन्सपेक्टर को आशा बंधी कि यह आदमी तो
बिलकुल ठीक ही सवाल उठा रहा है। उसने आश्वासन दिया कि नहीं, तुम्हारा
कोई नाम बताया नहीं जाएगा, तुम्हें कोई हानि नहीं होगी।
पुलिस तुम्हारी रक्षा करेगी।
लाल बुझक्कड़ ले गए हैं इन्सपेक्टर को एकांत
में, दूर-दूर नदी के किनारे। काफी चलाया। उसने बार-बार कहा कि अब यहां कोई भी
नहीं है, पशु-पक्षी तक नहीं हैं, अब तो
तुम बता दो...कि जरा और एक गुफा में ले गया अंधेरे में। वहां जाकर कान में धीरे से
फुसफुसाया, कि तुम पक्की मानो, किसी
चोर ने चोरी की है।
सिर ठोंक लिया होगा इन्सपेक्टर ने, यह कौन
नहीं कह सकता था--किसी चोर ने चोरी की है! इसमें क्या बूझना है? यह तो साफ ही है।
मगर सब बूझना इसी तरह का है--किसी चोर ने
चोरी की है!
परमात्मा के संबंध में लोग बूझ रहे हैं।
क्या बूझोगे?
अंधा अगर प्रकाश के संबंध में बूझेगा तो क्या बूझेगा?
रामकृष्ण कहते थे: एक अंधे आदमी को निमंत्रण
दिया मित्रों ने,
खीर बनाई। ऐसी खीर उस अंधे ने कभी खाई न थी। था विचारशील। अंधे अब
करें भी क्या बैठे-बैठे! कुछ दिखाई तो पड़ता नहीं, तो बूझते
हैं। देखने की जो कमी रह गयी, वह बूझने से पूरी करते हैं।
अंधे ने पूछा कि भई, बड़ी स्वादिष्ट चीज है, क्या है यह? मुझे कोई बताओ, समझाओ।
मुझे कुछ दिखाई तो पड़ता नहीं।
पास में एक पंडित थे गांव के। उन्होंने अपने
पांडित्य को दिखाया,
उन्होंने कहा कि खीर है। अंधे ने कहा: खीर से क्या हल होगा? इस शब्द से मुझे कुछ समझ में नहीं आता। कुछ वर्णन करो जो मेरी पकड़ में आए।
तो पंडित ने कहा कि सफेद है, बिलकुल
सफेद है। अंधे ने कहा कि तुम और मुश्किलें खड़ी कर रहे हो। पहले तो खीर क्या?
अब सफेदी क्या?
पंडित भी हारनेवाले नहीं थे--पंडित हारते ही
नहीं। पंडित ने कहा कि बिलकुल बगुले जैसी सफेद है। बगुला देखा है?
वह तो कहानी पुरानी है, नहीं तो
वे कहते, कि बिलकुल नेता जी के वस्त्र देखे हैं? शुद्ध खादी! कहानी पुरानी है। अभी लिखी जाए तो इतना फर्क करना पड़ेगा।
बगुले की कौन जगह रही!...शुद्ध खादी के वस्त्र देखे? और
बगुलों में और नेताजीओं में तालमेल भी बहुत है। एक ही जैसे हैं! बगुला ऊपर-ऊपर
सफेद है, भीतर-भीतर बहुत काला है। और ऊपर-ऊपर तो कैसा ध्यान
मग्न खड़ा हो जाता है और भीतर-भीतर मछलियों की आकांक्षा है, और
मछलियों की राह देखता है! बगुले जैसा योगी खोजना मुश्किल है, बिलकुल एक टांग पर खड़ा हो जाता है! हिलता ही डुलता नहीं। हिले-डुले तो चूक
ही जाए मछली। क्योंकि हिले-डुले तो मछली को शक हो जाए, पानी
में तरंग उठ जाए। ऐसा खड़ा रहता है कि पानी में तरंग ही नहीं उठती। मछली को पता
चलता है कोई है ही नहीं।
तो उसने कहा: बगुला देखा है कभी? अंधे ने
कहा कि अब मैं तुमसे कितनी बार कहूं कि मैं अंधा हूं! तुम पहेली सुलझा नहीं रहे हो,
उलझा रहे हो। अब यह बगुला क्या है?
अब जरा पंडित को होश आया कि मैं यह क्या कर
रहा हूं! जब खीर नहीं दिखाई पड़ती, सामने रखी खीर। चख रहा है अंधा और दिखाई नहीं
पड़ती। मैं सफेदी की बात किया, फिर सफेदी नहीं बता सका तो
बगुले का उदाहरण लाया कुछ ऐसा करना पड़ेगा, जो अंधे को यही
प्रत्यक्ष प्रमाण हो सके।
तो उस पंडित ने अपने हाथ को अंधे आदमी के
सामने किया, और कहा कि मेरे हाथ पर हाथ फेरो। और हाथ ऐसे मोड़ा जैसे बगुले की गर्दन
मुड़ी हो। अंधे ने हाथ फेरा और कहा कि इससे क्या समझें? तो
कहा कि यह बगुले की गर्दन ऐसी होती है। अंधे आदमी ने कहा: अब बूझ गई बात अब मैं
समझ गया कि खीर मुड़े हुए हाथ की भांति होती है।
मगर बूझने का यही नतीजा होगा। बूझना तो
अंधेरे में टटोलना है। अंधा प्रकाश के संबंध में क्या बूझेगा? बहरा
स्वरों के संबंध में क्या बूझेगा? जिसने प्रेम नहीं जाना,
वह प्रेम के संबंध में क्या बूझेगा? और जिसने
परमात्मा नहीं जाना, वह परमात्मा के संबंध में क्या बूझेगा?
जानना होता है, बूझना नहीं होता। बूझने के सब
उपाय व्यर्थ हैं, सब तर्क- सरणियां व्यर्थ हैं। देखना होता
है।
बुद्ध इसलिए कहते हैं कि मैं कोई दार्शनिक
नहीं हूं, मैं वैद्य हूं, मैं चिकित्सक हूं। मैं तुम्हें
प्रकाश के संबंध में न बताऊंगा, मैं तुम्हारी आंख खोलने की
औषधि देता हूं।
नानक ने भी कहा है कि मैं वैद्य हूं। ठीक
कहा है। सार्थक बात कही है। सदगुरु वैद्य होता है। वह सिर्फ तुम्हारी आंख खोलने के
उपाय बता देता है;
या आंख पर जाली जम गयी हो तो जाली काटने की औषधि दे देता है। योग
ध्यान, पूजा, प्रार्थना सब औषधियां
हैं--आंख पर लगी जाली कट जाए। तुम्हें झकझोर देता है कि तुम आंख खोल दो।
आंख हैं; बोझिल है। आंख पर तुमने ज्ञान की
पर्तें जमा रखी हैं। सदगुरु ज्ञान छीन लेता है, ताकि आंखें
हल्की हो जाएं; ताकि पलकों पर कोई बोझ न रह जाए; ताकि पलकें निर्बोझ होकर खुल जाएं।
सदगुरु तुमसे सब छीन लेता, जो बोझ है,
ताकि निर्भार दशा में तुम अपने-आप आंख खोल दो। फिर परमात्मा ही
परमात्मा है। फिर उसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं।
हलाके-वहमे-फिराक क्यों है मुझे कुछ अपनी
खबर नहीं है
तलाश जिसकी है कब वो दिल में
बरंगे-मौजे-गुहर नहीं है।
यह वियोग की भ्रांति...सच, वियोग
सिर्फ एक भ्रांति है। हम परमात्मा से कभी टूटे नहीं हैं। टूट सकते नहीं हैं। टूट
जाए तो जी सकते नहीं हैं। वियोग भ्रांति है। हम अभी भी जुड़े हैं। हम अब भी
परमात्मा में हैं। मछली को सागर का पता हो या न हो, मछली
सागर में है और सागर में ही हो सकती है। मछली सागर का ही अंग है। सागर में ही
जन्मती है, सागर में ही जीती है, सागर
में ही विदा हो जाती है, लीन हो जाती है।
हलाके-वहमे-फिराक क्यों है तुझे कुछ अपनी
खबर नहीं है
किस खोजने चले हो? अपनी
तुम्हें खबर नहीं है, और परमात्मा को खोजने चले हो! अपनी आंख
खुली नहीं है, और प्रकाश को देखने चले हो!
हलाके-वहमे-फिराक क्यों है तुझे कुछ अपनी
खबर नहीं है
तलाश जिसकी है कब वो दिल में
बरंगे-मौजे-गुहर नहीं है
तू किस मोती की खोज में चला है? जिस मोती
की खोज हो रही है, वह तुम्हारे भीतर पड़ा है। वह है तुम्हारी
अंतदृष्टि का जागरण। वह है तुम्हारी अंतस चेतना का खुल जाना। वह है तुम्हारा अपने
प्रति बोध से भर जाना।
हलाके-वहमे-फिराक क्यों है तुझे कुछ अपनी
खबर नहीं है
तलाश जिसकी है कब वो दिल में
बरंगे-मौजे-गुहर नहीं है
सहर की रानाइयों में गुम हो, शफक की
रंगीनियों में खोजा
कलमरवे-होश से गुजर जा, वो जलवा
मिन्नत-नजर नहीं है
बिना-ए-आशावे-हश्र होकर जिगर से मस्तानावार
निकले
वो नाला है नंगे-दर्द मंदी जो सर-ब-जैबे-असर
नहीं है
उठी जो मीना से मौजे-सहबा दिलो में डूबी
सुरूर होकर
नजर में उभरी तो नूर होकर नजर को लेकिन खबर
नहीं है
वरक जमाने का ऐसा उल्टा कि पुरतकल्लुफ थे
जिनके बिस्तर
हुए हैं यू खाक से बराबर कि खिश्त भी
जेरे-सर नहीं है
जिया-ए-खुरशीदे-जर्रापरवर से गोशा-गोशा हुआ
मुनव्वर
बस एक हम हैं वो तीरा-अख्तर कि जिनकी शब की
सहर नहीं है
नाहक, अकारण तुमने अपनी ऐसी हालत बना ली
है कि जिनकी सुबह होती ही नहीं कभी, रात ही रात चल रही है
जन्मों-जन्मों से! जीया-ए-खुरशीदे-जर्रापरवर...। वह तो कणों-कणों में मौजूद है।
उसकी रोशनी तो कण-कण में छिपी हुई है। कण-कण उसका सूर्य है।
जीया-ए-खुरशीदे-जर्रापरवर से गोशा-गोशा हुआ
मुनव्वर
बस एक हम हैं वो तीरा-अख्तर कि जिनकी जब की
सहर नहीं है
एक हम हैं ऐसे अंधकारपूर्ण कि जिनकी रात की
सुबह नहीं होती। मगर कौन जिम्मेवार है? अगर कोई और जिम्मेवार है तब तो तुम
कुछ भी न कर सकोगे। अगर कोई और जिम्मेवार है, तब तो धर्म
व्यर्थ है, तब तो योग व्यर्थ है। क्योंकि तुम क्या कर सकोगे?
धर्म और योग की सार्थकता है, क्योंकि तुम ही
जिम्मेवार हो। सहर हो ही गयी है, सुबह हो ही गई है। सुबह ही
है। रात है ही नहीं। सिर्फ तुम्हारी बंद आंखों के कारण रात मालूम होती है।
उठी जो मीना से मौजे-सहबा दिलों में डूबी
सुरूर होकर
नजर में उभरी तो नूर होकर नजर को लेकिन खबर
नहीं है
तुम्हारी आंख में जो छिपा है, वह
तुम्हारी आंख को नहीं दिखाई पड़ सकता है। उसकी कला सीखनी होगी। उसके लिए दर्पण
बनाना होगा। अगर तुम्हें अपनी आंख देखनी हो तो दर्पण बनाना होगा, तो आंख देख सकोगे। हालांकि आंख और सब कुछ देख लेती है, यह मजा, यह विडंबना! आंख सब देख लेती है, सिर्फ अपने को छोड़कर।
तुम सब देख लेते हो, सिर्फ
अपने को छोड़कर। तुम्हें आईना बनाना होगा। तुम्हें ध्यान का दर्पण बनाना होगा। उस
में तुम्हें अपनी आंख दिखाई पड़ेगी। अपने भीतर छिपे हुए आकाश का पहली दफा प्रतिबिंब
मिलेगा। और बस उसी क्षण से तुम अंधे नहीं हो। अंधे तुम कभी भी न थे। मगर उस क्षण
तुम्हें पहचान होगी कि मैं न अंधा था, न अंधा हूं, न अंधा हो सकता हूं। बस आंख बंद किए बैठा था!
आंधरे को हाथी हरि हाथ जाको जैसो आयो।
बूझो जिन जैसो तिन तैसोई बतायो है।।
फिर लोगों को जैसा बूझा, उन्होंने
वैसा बता दिया। कितनी परमात्मा की प्रतिमाएं बनीं--और परमात्मा एक है! और कितने
शास्त्र, और कितने वर्णन उसके--और परमात्मा एक है! और कोई
उसे अल्लाह कहे, और कोई उसे राम कहे, और
कोई उसे कोई और नाम दे--और परमात्मा एक है! जिन्हें जैसा बूझा, उन्होंने वैसा कहा।
आंखवालों ने कहा नहीं है, चौंकोगे
तुम! आंखवालों ने परमात्मा के संबंध में कुछ नहीं कहा है। फिर आंखवालों ने क्या
कहा है? आंखवालों ने कहा, आंख कैसे
खोलो। इसकी विधि दी है। आंखवालों ने प्रकाश के संबंध में कुछ नहीं कहा। कहा नहीं
जा सकता। शब्दों के अतीत है। अनिर्वचनीय है। अवर्णनीय है। लेकिन आंख कैसे खोली जा
सकती है, इसकी विधि कही जा सकती है।
पतंजलि ने इतना अदभुत शास्त्र लिखा है
योगसूत्र, लेकिन परमात्मा का कोई वर्णन नहीं है। सारे सूत्र, आंख
खोलने की व्यवस्था हैं। जानोगे तो तुम...और जब जानोगे तभी जानोगे। कोई दूसरा
तुम्हें जना न सकेगा।
सत्य दिए नहीं जा सकते। उनका कोई हस्तांतरण
नहीं होता है। सत्य तो तुम्हें ही जानना होगा। निज अनुभव होगा। लेकिन जिन्होंने
जाना है, वे यह कह सकते हैं कि कैसे उन्होंने जाना है। क्या जाना, नहीं कह सकते। मगर कैसे जाना, जरूर कह सकते हैं। किन
रास्तों से चल कर जाना, जरूर कह सकते हैं, मगर मंजिल की कोई बात नहीं कही जा सकती। सब बातें रास्तों की हैं।
धर्म का अर्थ होता है: मार्ग। बुद्ध ने कहा
है: बुद्धपुरुष मार्ग बता देते हैं। चलना तुम्हारी मर्जी है। चलोगे तो एक दिन
पहुंच जाओगे। और जब पहुंच जाओगे तो जान लोगे।
मैं खिड़की पर खड़ा हूं, मुझे सूरज
दिखाई पड़ रहा है। सुबह हो गई है। तुम आंख बंद किए बिस्तर में पड़े हो। ज्यादा दूर
खिड़की से तुम भी नहीं। तुम पूछते हो कि वहीं से आप कुछ कहें। कुछ कह दें सूरज के
संबंध में। मुझे क्यों उठाते हैं, अब आप तो देख ही रहे हैं।
आपने देख लिया तो मैंने देखा लिया। वहीं से कुछ कह दें। मैं पड़ा-पड़ा बिस्तर में
सुन लूंगा और समझ लूंगा।
मगर क्या कहा जा सकता है सूरज के संबंध में? और शब्द
सूरज की रोशनी से रोशनी होंगे। और शब्दों में पक्षियों की चहचहाहट भी न होगी। और
शब्दों में सुबह-सुबह खिले फूलों का रंग और सुवास भी न होगी। और शब्दों में पत्तों
से सरकती, ढरकती ओस की ताजगी भी न होगी। और शब्दों में आकाश
का नीला विस्तार भी न होगा। और शब्दों में आकाश में डोलते शुभ्र बादलों की छाया भी
न पड़ेगी। क्या कहें? कह देंगे सूर्यास्त या सूर्योदय,
पर इससे क्या हल होगा?
नहीं, सूर्य के संबंध में कुछ भी नहीं
कहा जा सकता। लेकिन तुम्हें चेताया जा सकता है कि उठ आओ, सुबह
हो गई। जागो! निकल आओ बिस्तर के बाहर। बहुत दिन ओढ़ रहे यह कंबल अंधेरे का। आ जाओ
खिड़की के पास, तुम भी देखो। तुम भी देखोगे तो ही जानोगे।
खान-ए-दिल में दाग जल न सका
इस में यह भी चिराग जल न सका
वर्क था इज्तिराबे-दिल लेकिन
आरजूओं का बाग जल न सका
न हुए वो शरीके-सोज-निहां
दिल से दिल का चराग जल न सका
सोजे-उल्फत में होश की बातें
जल गया दिल, दिमाग जल न सका
दिले-मायूस में उमीद कहां
बुझ के फिर यह चराग जल न सका
सोज पाइंदा गम भी पाइंदा
जल के भी दिल का दाग जल न सका
सर्द मेहरी भी उनकी रहमत थी
सीन-ए-दाग-दाग जल न सका
"अर्श' क्या
तुझ से फैज महफिल को
तू मिसाले-चिराग जल न सका
जब तक तुम भी एक दीए की तरह न जल उठो, जब तक तुम
भी एक दीया न बन जाओ--तब तक तुम रोशनी से संबंध न जोड़ सकोगे। रोशनी ही रोशनी से
संबंध जोड़ सकती है।
अंधेरे और रोशनी को तुमने कहीं मिलते देखा
है? अंधेरे और रोशनी का कोई मिलन नहीं होता। अंधेरे और रोशनी का कोई
सह-अस्तित्व नहीं होता। अंधेरा है तो रोशनी नहीं, रोशनी है
तो अंधेरा नहीं। रोशनी से रोशनी का मिलन होता है।
तुम अगर जाग जाओ, तो जागे
हुए परमात्मा से संबंध हो जाए। वह सदा जागा है। वह कभी सोता नहीं। कृष्ण ने कहा है,
कि योगी, सब सारे भोगी सोते हैं, तब भी जागता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि योगी खड़ा रहता है रात-भर। इसका
इतना ही अर्थ है कि शरीर तो सोता है, मगर योगी भीतर नहीं
सोता। भीतर निद्रा होती ही नहीं। भीतर आंख खुली है सो खुली रहती है। बाहर की आंखें
बंद हो जाती हैं, खुल जाती हैं; भीतर
की आंख खुली है तो खुली रहती है। उस भीतर की खुली आंख से ही परमात्मा से संबंध हो
पाता है।
भीतर की आंख खुले तो समझाना कि अब तुम अंधे
न रहे। अब तुम्हारा संबंध परमात्मा से--आंधरे को हाथी हरि--ऐसा न रहा। अब तुम जो
जान रहे हो, वह उधार नहीं है। किन्हीं ने बूझा है, किन्हीं लाल
बुझक्कड़ों ने बूझा है, उनकी बुझान तुम नहीं ढो रहे हो।
तुम्हारा अपना अनुभव है।
मैं ऐसे लोगों को जानता हूं, जिन्होंने
परमात्मा के संबंध में बड़ी-बड़ी किताबें लिखी हैं। और जब मैंने उनसे पूछा कि तुमने
जाना है, तो वे कंप गए। इधर-उधर झांकने लगे, बगलें झांकने लगे। कहने लगे कि जाना तो नहीं है, मगर
शास्त्रों का अध्ययन किया है। सरल है, शास्त्रों का अध्ययन
करके और एक शास्त्र निर्मित कर देना कठिन नहीं है, कोई भी कर
सकता है। लेकिन शिक्षित हो जाना, ज्ञानी हो जाना नहीं है। और
विद्वान हो जाना, बुद्धिमान हो जाना नहीं है। शास्त्रज्ञ हो
जाना, द्रष्टा हो जाना नहीं है। फिर इन किताबों को लोग पढ़ते
हैं--उनकी किताबें जिन्होंने खुद भी नहीं जाना है। अंधा अंधा ठेलिया, दोऊ कूप पड़ंत! फिर इन किताबों को लोग पढ़ते हैं। फिर इन किताबों के अनुसार
लोग चलना भी शुरू कर देते हैं।
एक युवक को मेरे पास लाया गया श्री लंका से।
उसकी नींद खो गई थी। सब उपाय किए गए, नींद नहीं आती थी। सब दवाएं दी गईं,
नींद नहीं आती थी। तीन वर्ष से नींद का कोई पता नहीं था। उसकी हालत
तुम समझ सकते हो, कैसी विक्षिप्त, कैसी
टूटी-फूटी! इतना उदास, इतना मिलन मैंने कोई व्यक्ति नहीं
देखा! इतना हारा, इतना थका, इतना टूटा,
इतना मुर्दा! तीन साल से, जिसको सोने का
विश्राम नहीं मिला। क्षण-भर को जिसे सुषुप्ति की छाया नहीं मिली। जो क्षण-भर को भी
सुषुप्ति के स्रोत में नहीं डूबा, और परमात्मा से नहीं जुड़ा।
बेहोश ही सही, नींद की बेहोशी में भी जब तुम सुषुप्त हो जाते
हो, स्वप्न खो जाते हैं, तो तुम
परमात्मा से क्षण-भर को जुड़ जाते हो। और उसी जोड़ के कारण सुबह तुम अपने को ताजा
पाते हो, नया पाते हो। पुनरुज्जीवित हो उठते हो। नव जीवन
पाते हो। और जिस रात नींद न आए, एक रात नींद न आए, तो दूसरे दिन हारे-थके!
...तीन साल लंबा समय है! मैंने उससे
पूछा कि तू बौद्ध भिक्षु है, कहीं विपस्सना ध्यान तो नहीं कर
रहा है? उसने कहा: कर रहा हूं।
किसने तुझे सिखाया है?
उसने कहां कि जिसने सिखाया है, विपस्सना
ध्यान पर बड़ी किताबें लिखी हैं उन्होंने। मैंने कहा: यह सवाल नहीं है, उन्होंने विपस्सना ध्यान कभी किया है? उसने कहा: यह
तो मैंने पूछा नहीं। मैंने कहा: मैं तुझे कहता हूं कि उन्होंने विपस्सना ध्यान कभी
नहीं किया होगा। क्योंकि जिस ढंग से तुझे करने को बताया है, वह
तो खतरनाक है। उस में नींद तो समाप्त हो ही जाएगी। जिस व्यक्ति से विपस्सना ध्यान
सीखा इस बौद्ध भिक्षु ने, उन्होंने इस से यह कहा ही नहीं कि
रात में विपस्सना ध्यान मत करना, सूर्योदय और सूर्यास्त के
बीच ही ठीक है। अगर सूर्योदय और सूर्यास्त के अतिरिक्त विपस्सना ध्यान किया,
रात में अगर विपस्सना ध्यान किया, तो कुछ
लोगों की नींद सदा के लिए खो जाएगी, क्योंकि विपस्सना ध्यान
जागरण की प्रक्रिया है।
और जिससे उस व्यक्ति ने सीखा था विपस्सना
ध्यान, उसने कहा था कि जितना बन सके करो; जितना ज्यादा कर
सको, करो; लाभ ही लाभ है। तो लोभ में
पड़ गया। जिसने यह कहा, उसे भी पता नहीं कि वह क्या कह रहा
है! शास्त्रज्ञ होगा। स्वानुभव नहीं है। अब नींद आ नहीं सकती। कोई दवा की जरूरत न
पड़ी!
मैंने कहा कि तीन महीन तक विपस्सना ध्यान
बिलकुल बंद करो दो। फिर जब नींद पूरी तरह आने लगे तो विपस्सना ध्यान शुरू करना।
लेकिन सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच। और कभी भी तीन-चार घंटे से ज्यादा न हो पाए।
बस इतना पर्याप्त है। पर्याप्त से ज्यादा है।
सुस्वादु पौष्टिक भोजन भी अति में नहीं करना
चाहिए। बुद्ध ने कहा है: अति पाप है, और मध्य मार्ग है। ध्यान की भी अति
नहीं होनी चाहिए। लेकिन यह तो कोई ध्यानी ही कहेगा। नहीं तो पता ही नहीं कि अति के
क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं।
दीया तुम्हारा जल सकता है--किसी सदगुरु से!
और सदगुरु से अर्थ है--उसने जिसने जाना हो। ज्ञान का संग्रह नहीं, ज्ञान का
स्रोत हो जो। सूचना मात्र न हो जिसके पास। शास्त्रों का उद्धरण ही न हो जिसके पास।
जो स्वयं गवाह हो। जो साक्षी हो। जो कह सके अधिकार से कि जो मैं कह रहा हूं,
मेरा अपना जाना है। उसका संग-साथ पकड़ लेना। उसके रंग में रंग जाना तो
जल्दी ही तुम्हारा हरि आंधरे का हाथी न रह जाएगा। तुम्हें अपना अनुभव आना शुरू हो
जाएगा। और अनुभव मुक्तिदायी है।
टकाटोरी दिन रैन हिये हू के फूटे नैन।
आंधरे को आरसी में कहां दरसायो है।।
टकाटोरी दिन रैन...बस, लोग
दिन-रात टटोल रहे हैं। जितना श्रम टटोलने में लगा रहे हैं, उससे
बहुत कम श्रम से आंख खुल सकती है। मगर टटोलने की आदत हो गई है, टटोल रहे हैं! आंख खुल जाए तो टटोलना बंद हो जाता है।
एक अंधा आदमी जीसस के पास आया। कहानी
प्रीतिकर है। ऐतिहासिक नहीं हैं ये कहानियां। ये प्रबोध कथाएं हैं। इतिहास से
ज्यादा इनका मूल्य है। ये पुराण कथाएं हैं। इनमें सार है सदियों का। अनुभोक्ताओं
के अमृत की छाप है।
एक अंधा आदमी जीसस के पास आया लकड़ी टेकते
हुए। जीसस ने उसकी आंखों पर हाथ रखा, और उसकी आंखें ठीक हो गईं। उसने
धन्यवाद दिया जीसस को, और लकड़ी टेकता वापस जाने लगा। जीसस ने
कहा: लकड़ी तो छोड़ जा भाई! अब लकड़ी किसलिए? आंख नहीं थी तो
लकड़ी की जरूरत थी, टटोलता था। लकड़ी काम की थी। लकड़ी ही अंधे
की आंख है। उसी को खटखटा कर चलता है। तो दूसरों को भी पता रहता है कि अंधा आ रहा
है, सम्हाल कर चलो। उसी से टटोल कर देख लेता है कि आसपास
दीवाल तो नहीं। उसी से राह खोजता है कि द्वार आ गया कि नहीं। उसी से सीढ़ी खोजता
है। लकड़ी उसकी आंख है।
अब अंधा जीवन भर लकड़ी टटोल-टटोल कर चला। आंख
भी ठीक हो गई आज उसकी तो भी पुरानी आदत...चला लकड़ी से टटोलते। जीसस ने कहा: भाई
मेरे, लकड़ी तो छोड़ जाओ। अब लकड़ी किसलिए?
उस अंधे ने कहा, बिना लकड़ी
के मैं कैसे जीऊंगा? पुरानी आदत जीवन भर का पुराना अनुभव...।
आंख तो अभी-अभी मिली है। अभी आंख का तो कोई अनुभव हुआ नहीं है। लकड़ी से पुराना
संग-साथ है।
ऐसी ही दशा शिष्य की होती है। जब गुरु का
हाथ शिष्य के सिर पर या आंख पर पड़ता है और आंख खुलती है तो भी शिष्य अपनी किताबें, अपने
शास्त्र, अपना धर्म, अपना मंदिर,
अपनी पूजा-पत्री पकड़े रखता है, वह लकड़ी है! वह
कहता है अभी भी गणेश जी की पूजा करूंगा, अभी भी मंदिर
जाऊंगा। अभी भी रोज सुबह बाइबिल पढूंगा। अभी भी गायत्री का पाठ जारी रखूंगा। और
क्षमा-योग्य है, क्योंकि अब तक उसने यही किया है। आज उसे आंख
मिल गई है, इसका भी उसे पता नहीं है।
टकाटोरी दिन रैन...। जन्मों-जन्मों से
दिन-रात हम टटोल रहे हैं। टटोलते रहे हैं। टटोलना हमारी आदत हो गई है, हमारा
स्वभाव हो गया है।...हिये हू के फूटे नैन। और हमारे हृदय की आंखें फूट गई हैं। यह
टकाटोरी ही चल रही है, टटोलना ही चल रहा है। हृदय की आंख ही
नहीं खुली। हम तो हृदय से बचकर निकल गए हैं।
आदमी खोपड़ी में जी रहे हैं। हृदय का तो कुछ
पता ही नहीं है। हृदय को तो लोग समझते हैं कि बस ठीक है, फेफड़ा है,
फुफ्फस है, खून को शुद्ध करने का यंत्र है,
और क्या है? हृदय उससे बहुत ज्यादा है। इस
शारीरिक हृदय के पीछे ही तुम्हारा आत्मिक
हृदय छिपा है। और जैसे विचार बिना मस्तिष्क के नहीं हो सकता, वैसे ही प्रेम बिना हृदय के नहीं हो सकता। हृदय की आंख का दूसरा नाम प्रेम
है। जिसके भीतर प्रेम उमग आया, उसके हृदय की खुल गई, उसके हिये की खुल गई, उसके हिये की आंख खुल गई।
और प्रेम ने ही परमात्मा को जाना है, और किसी
ने भी नहीं। प्रेम की आंख से परमात्मा प्रकट होता है।
टकाटोरी दिन रैन...। टकाटोरी कहां चल रही है? खोपड़ी
में! मस्तिष्क में विचार चल रहा है। लाल बुझक्कड़ बने लोग बैठे हैं, और सोच रहे है ईश्वर है या नहीं है? कुछ लाल बुझक्कड़
कहते हैं है, और कुछ लाल बुझक्कड़ कहते हैं नहीं है। मगर
दोनों लाल बुझक्कड़ हैं। दोनों से सावधान! जो कह रहा है, वह
भी अनुमान लगा रहा है। अंधे को बड़ी दूर की सूझी! हैं अंधे, मगर
बड़ी दूर की सूझ रही है उनको। परमात्मा है, इसके प्रमाण दे
रहे हैं। कोई कह रहा है परमात्मा नहीं है, और प्रमाण दे रहा
है उसके न होने के। तुम समझते हो ये दोनों विपरीत हैं एक-दूसरे के। ये दोनों
बिलकुल विपरीत नहीं हैं। ये दोनों बिलकुल एक जैसे हैं। ये दोनों लाल बुझक्कड़ हैं।
दोनों बूझ रहे हैं। न तो आस्तिक को पता है उसके होने का, न
नास्तिक को पता है उसके न होने का।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: न तो आस्तिकता
में उलझना, न नास्तिकता में उलझना। दोनों अंधों की लकड़ियां हैं। दोनों के ढंग अलग-अलग
होंगे, रंग अलग-अलग होंगे, मगर दोनों
टटोल रहे हैं। तुम तो ज्ञाता बनना, न आस्तिक न नास्तिक। तुम
तो धार्मिक बनना, न आस्तिक न नास्तिक। तुम मानना मत, जानना। तुम विश्वास में मत पड़ना, तुम श्रद्धा को
उपलब्ध होना।
और ध्यान रखना, विश्वास
होता है अंधे का, श्रद्धा होती है आंखवाले की। जिन्होंने
जाना है, उनकी श्रद्धा होती है। और जिन्होंने सिर्फ माना है,
उनके मानने में क्या रखा है! दो कौड़ी का, नपुंसक
उनका मानना होता है! उनके मानने के पीछे ही संदेहों का जाल लगा रहता है, कतार बंधी रहती है। तुम अपने भीतर देख लेना। तुमने अगर ईश्वर को मान लिया
है, क्योंकि पिता मानते, माता मानती,
परिवार मानता, पड़ोस के लोग मानते, तुम जिस घर में पैदा हुए, उस घर के लोग मानते,
संस्कार है...तो तुमने भी मान लिया।
फिर जरा देखना पीछे अपने, प्रश्नों
की कतारें लगी हैं। संदेह खड़े हैं। दबाए रखो उनको, मगर
दबाओगे कहां? जहां दबाओगे, वे और भी
तुम्हारे गहरे अंतस में उतर जाएंगे दबाने से। तो ऊपर-ऊपर होगा विश्वास, भीतर-भीतर होगा संदेह। और भीतर असली चीज है। ऊपर-ऊपर संदेह हो तो चलेगा।
भीतर होना चाहिए श्रद्धा। मगर भीतर हो कैसे श्रद्धा! जबर्दस्ती कोई आरोपित तो नहीं
कर सकता। अनुभव आए, तो ही श्रद्धा का जन्म होता है।
तुम न आस्तिक बनना न नास्तिक। तुम तो अपने
हिये की आंख खोलो। तुम तो प्रेमी बनो। जो प्रेमी बन गया, वह आज
नहीं कल धर्मी बन जाएगा। प्रेम का रूपांतरण ही धर्म है। और जिसने प्रेम सीखा,
वह आज नहीं कल प्रार्थना में तल्लीन हो जाएगा। क्योंकि प्रेम के फूल
की ही सुवास प्रार्थना है।
टकाटोरी दिन रैन हिये हू के फूटे नैन। हृदय
की तो आंखें फूटी हैं और खोपड़ी में टकाटोरी चल रही है! सारी आस्तिकता-नास्तिकता
तुम्हारे मस्तिष्क में है,
विचारों में है। धर्म का जन्म हृदय में होता है, मस्तिष्क में नहीं। धर्म का जन्म तो तुम्हारी गहराई में होता है। मस्तिष्क
तो बिलकुल उथला है, सतही है।
करवटें वक्त की बेकार हुई जाती हैं
और भी दर प-ए-आजार हुई जाती हैं
किसके अन्फास में पिन्हां है बहारों के
हुजूम
कोंपलें फूट के गुलजार हुई जाती हैं
गुत्थियां वलवल-ए-शौक की सुलझें क्यों कर
जितनी खुलती हैं पुरअसरार हुई जाती हैं
नित नया दौर, नई आस, नया बहलावा
गर्दिशें मेरी खरीदार हुई जाती हैं
हर तकाजे पे नया जाब्ता रहता है सवार
रूहें लफ्जों में गिरिफ्तार हुई जाती हैं
शायद अब इश्क है नौमीदि-ए-जावेद का नाम
आंखें रोने की गुनहगार हुई जाती हैं
शायद अब अब्र के छटने का गुमां बातिल है
सुब्हें हमरंगे-शबेत्तार हुई जाती हैं
एक बात से सावधान रहना!...
हर तकाजे पे नया जाब्ता रहता है सवार
रूहे लफ्जों में गिरिफ्तार हुई जाती हैं
आत्माएं तुम्हारी किन्हीं लोहे के सींखचों
में बंद नहीं हैं--लफ्जों में बंद हैं, शब्दों में बंद हैं। तुम्हारे
पैरों में जंजीरें लोहे की नहीं हैं, शब्दों की हैं। तुम जिन
पिंजड़ों में बंद हो, वे शास्त्रों के पिंजड़े हैं, सिद्धांत के, तथाकथित विश्वासों के। और ऐसा भी नहीं
है कि पिंजड़े सुंदर नहीं हैं। पिंजड़े सोने के भी हैं, हीरे-जवाहरात
जड़े हैं, और बड़े सुंदर हैं!
लफ्ज बड़े प्यारे भी होते हैं। सिद्धांतों
बड़े रोचक भी होते हैं। बड़ी सांत्वना भी देते हैं। मगर सांत्वनाओं से कोई सत्य तक
नहीं पहुंचता। हां,
जो सत्य तक पहुंच जाता है, उसे परम सांत्वना
मिलती है। संतोष से कोई सत्य तक नहीं पहुंचता, लेकिन जो सत्य
तक पहुंच जाता है, उसके जीवन में संतोष ही संतोष की बरखा हो
जाती है।
हर तकाजे पे नया जाब्ता रहता है सवार
रूहें लफ्जों में गिरफ्तार हुई जाती हैं
शायद अब इश्क है नौमीदि-ए-जावेद का नाम
आंखें रोने की गुनहगार हुई जाती हैं
और जो शब्दों में बंद हो गया, उसके लिए
प्रेम एक निराशा हो जाती है।
शायद अब इश्क है नौमीदि-ए-जावेद का
नाम।...शायद प्रेम एक अनंत निराशा है और कुछ भी नहीं। जो शब्दों में बंद हो गया, उसको ऐसा
ही प्रतीत होगा कि प्रेम एक भुलावा है, एक वंचना है, एक भ्रम है।
शायद अब अब्र के छटने का गुमां बातिल
है।...और तब लगने लगता है कि अब यह रात कटेगी, यह आशा रखनी व्यर्थ है। ये बादल
छंटेंगे, यह आशा रखनी व्यर्थ है।
शायद अब अब्र के छटने का गुमां बातिल है
सुब्हें हमरंगे-शबेत्तार हुई जाती हैं।
अब तो सुबह भी रात के जैसी अंधेरी हुई जाती
है। जो शब्दों में बंद है,
उसकी सुबह भी रात है, और शब्दों से मुक्त है,
उसकी रात भी सुबह है। शब्दों के बोझ से तुम्हारी आंखें नहीं खुल पा
रही हैं।
हटाओ शब्दों के जाल। निःशब्द को सीखो।
क्योंकि निःशब्द को सीखा,
शून्य को सीखा, कि तुम उतरे हृदय में। निःशब्द
हृदय में ले जाने का सेतु है। शब्द मस्तिष्क में ले जाने का सेतु है। जितना शब्द
सीख लोगे, उतने मस्तिष्क में अटक जाओगे। और जितने निःशब्द हो
जाओगे, उतने हृदय में उतर जाओगे। और जो हृदय में पहुंचा,
हिये की आंख खुल जाती है। प्रेम का फूल खिल जाता है। और उसी प्रेम
के फूल में प्रार्थना है। और उसी प्रेम के फूल की अंतिम उड़ान परमात्मा है।
टकाटोरी दिन रैन हिये हू के फूटे नैन।
आंधरे को आरसी में कहां दरसायो है।।
और अगर अंधे के सामने आईना भी कर दो तो क्या
होगा, जब तक उसकी आंख न खुले! अंधे के सामने शास्त्र रखना, अंधे के सामने आईना रखना है। थोड़ा समझाना, बात बड़ी
बारीक है। बड़े सरल शब्दों में यारी ने कही है।
ये सीधे-सादे लोग हैं। इनके शब्द बड़े
सीधे-सादे हैं। पढ़ जाओ तो ऐसा लगे कि कुछ है कि नहीं, और कह दी
हैं बातें ऐसी कि जो कहने में न आए। ऐसी कठिन बातें ऐसी सरलता से कह दी हैं!
आंधरे को आरसी में कहां दरसायो है। अंधे के
सामने शास्त्र रख दो,
कुरान रख दो, बाइबिल रख दो, गीता रख दो--आईना है यह--मगर अंधे को क्या दिखाई पड़ेगा! और अंधे ही लिए
बैठे हैं गीता, कुरान, बाइबिल। रट रहे
हैं। घोंट-घोंट कर पीए जा रहे हैं! कंठस्थ हो गए हैं शास्त्र उन्हें।
शास्त्र गलत नहीं हैं, खयाल
रखना। जो मैं तुमसे कहता हूं बार-बार छोड़ दो शास्त्रों को, तो
यह मत समझ लेना कि मैं शास्त्रों के विपरीत हूं। शास्त्रों के पक्ष में हूं,
इसलिए कहता हूं छोड़ दो शास्त्रों को। मेरी बात को समझने की कोशिश
करना। आईने को मत पकड़ो, आंख खोलो। आंख खुलते ही आईने तो बहुत
मिल जाएंगे। आईनों से सारा जगत भरा है। आईना न भी मिला आंख वाले को, तो झील में झांक लेगा और अपनी शकल देख लेगा। आईना न मिला, किसी और की आंख में झांक लेगा और अपनी शकल देख लेगा। आईने ही आईने हैं;
आंख है तो आईने ही आईने हैं! और आंख नहीं तो आईनों का क्या होगा?
घर भर लो आईनों से और आंख नहीं तो क्या होगा?
शास्त्र बहुमूल्य है, आंख हो
तो। आंख वालों को शास्त्र में वह दिखाई पड़ता है जो है। और अंधे को तो केवल लफ्ज,
सिद्धांत पकड़ में आते हैं, शब्द पकड़ में आते
हैं। आंखवाला जब गीता में देखता है तो उसे वह दिखाई पड़ता है जो कृष्ण को दिखाई
पड़ता था। और आंखवाला जब कुरान में देखता है तो उसे वह दिखाई पड़ता है जो मोहम्मद ने
देखा था। अंधा जब देखता है, तो कृष्ण का कहां पता, मोहम्मद का कहां पता? अंधा जब शब्दों को पकड़ता है,
तो उसके शब्दों के अर्थ भी अपने ही होते हैं।
आंधरे को हाथी हरि हाथ जाको जैसो आयो।
बूझो जिन जैसो तिन तैसोई बतायो है।।
वह शब्दों के अर्थ भी तो अपने ही करेगा!
बुद्ध से एक भिक्षु ने पूछा एक दिन, आप तो
बोलते हैं, एक ही बात बोलते हैं; फिर
सुनने वाले अलग-अलग कैसे समझ लेते हैं? तो बुद्ध ने कहा: मैं
तुझे कल की याद दिलाऊं। कल रात ऐसा हुआ, तू भी था। कल रात
मुझे सुनने एक वेश्या भी आई थी, और एक चोर भी आया था।
बुद्ध रोज, रात्रि की अंतिम देशना के
बाद अपने भिक्षुओं को कहते थे, कि अब जाओ, असली कार्य में लगो अब। असली कार्य था--ध्यान। अब रोज-रोज क्या कहना कि
ध्यान में लगो। तो यह प्रतीक हो गया था बुद्ध का, कि बोलने
के बाद वे कहते कि बस इतना काफी, अब जाओ असली कार्य में लगो।
ऐसे भी रात बहुत हो गई।
तो बुद्ध ने कहा: कल भी मैंने यही कहा है कि
जाओ, बहुत रात हो गई ऐसे भी; अब अपने असली कार्य में लगो।
तब तुम्हें पता है, और सारे भिक्षु ध्यान करने चले गए;
चोर ने जब सुना मुझे कि जाओ, रात ऐसे भी बहुत
हो गई, अब असली कार्य में लगो--तो वह बहुत चौंका! उसने कहा
कि बुद्ध को कैसे पता चला कि मैं चोर हूं! यह तो खूब रही! मगर खूब चेताया, रात तो हो गई काफी! जाऊं अपने काम में लगूं, असली
काम में लगूं! सुन लिया शास्त्र, सुन लिया धर्म। आखिर
रोटी-रोजी भी तो कमानी है।
धन्यवाद देकर बुद्ध को वह गया। बाहर के
लोगों ने तो यही देखा होगा कि धन्यवाद दे रहा है, तो शायद ध्यान करने जा रहा
है। यह तो बुद्ध ने देखा कि वह चोरी करने जा रहा है। वेश्या ने सुना, तो उसने कहा कि अरे ठीक, मगर हद हो गई! इतने भिक्षु...,
दस हजार भिक्षुओं में बुद्ध मेरी स्मृति रखते हैं कि अब रात बहुत हो
गई, असली काम में लगो। उठी वह भी, उसने
धन्यवाद दिया बुद्ध को। उसने कहा: आप भी खूब हैं कि मेरा भी विस्मरण न किया! अब
जाऊं, रात तो बहुत हो गई, असली काम में
लगूं।
तो बुद्ध ने कहा: मैंने तो एक ही शब्द कहा
था, एक से ही शब्द कहे थे। कोई ध्यान को गया, कोई चोरी
को चला गया, कोई शरीर बेचने में लग गया। मेरा शब्द तो वही था,
लेकिन अर्थ भिन्न-भिन्न हो गए।
अर्थ शब्दों में नहीं होते, अर्थ तो
सुनने वाले शब्दों में डालते हैं। तुम गीता पढ़ोगे, तुम्हीं पढ़ोगे
न! तुम गीता पढ़ोगे तो तुम अपने को ही पढ़ोगे न गीता में, और
क्या पढ़ोगे? कृष्ण का अर्थ तो कैसे तुम्हें प्रकट होगा?
वह तो अर्जुन को भी प्रकट नहीं हो रहा था, तुम्हें
क्या खाक प्रकट होगा! वह तो अर्जुन को भी बड़ी देर लगी, बहुत
देर लगी। बहुत माथापच्ची कृष्ण को करनी पड़ी, तब कहीं अंत में
उसने कहा कि ठीक, कि मेरी शंकाओं का समाधान हुआ, कि मेरे भ्रम मिटे। अर्जुन को कुछ और सुनाई पड़ रहा होगा, कृष्ण कुछ और कह रहे थे।
तो तुम...और अर्जुन तो सखा था, बचपन का
सखा था। साथ-साथ खेले थे। एक-दूसरे से गहरी मैत्री थी। वह भी नहीं समझा पाया।...तो
तुम्हारा तो कृष्ण से क्या नाता है? पांच हजार साल का फासला
बीच में है। न तो वे शब्द रहे, न अब वे लोग रहे, न अब वह दुनिया रही। सब कुछ बदल गया। शब्दों के अर्थ बदल गए। शब्दों के
प्रयोजन बदल गए। आदमी बदल गया। आदमी का मन बदल गया। आदमी के देखने-सोचने के ढंग
बदल गए। अब तुम जब गीता पढ़ोगे, तो क्या तुम सोचते हो,
तुम पढ़ लोगे वह जो कृष्ण ने कहा है? कृष्ण हुए
बिना नहीं पढ़ सकोगे।
तुम्हारे हाथ में आईना है, मगर तुम
अंधे हो। हां, आंखवाले होओगे तो आईने में देख लोगे अपने
स्वरूप को। तो फिर गीता हो कि कुरान, कि बाइबिल हो कि धम्मपद
सब में तुम्हें अपना ही स्वरूप मिल जाएगा।
क्या तुम सोचते हो, आईने
अलग-अलग ढंग के होते हैं तो चेहरे बदल जाते हैं? कोई आईना
गोल है, कोई अंडाकार है, कोई चौखटा है;
कोई भारत में बना है, कोई बेल्जियम में बना है,
कोई कहीं बना है; किसी पर एक ढंग की फ्रेम जड़ी
है, किसी पर दूसरे ढंग की फ्रेम जड़ी है। कितने तो भेद हैं!
मगर चेहरा जब तुम देखोगे तो तुम्हारा ही है। जिसने जाना है, जो
जागा है, जिसकी आंख खुली है, उसने सदा
अपने को हर आईने में देख लिया है।
मैं तुमसे यह कहता हूं कि मैंने कुरान में
भी अपने को पाया,
और बाइबिल में भी अपने को पाया, और कृष्ण में
भी, और जरथुस्त्र में भी, और महावीर
में भी, और बुद्ध में भी, कबीर और नानक
में, और अभी यारी में। यारी का आईना सामने रखा हूं, मगर पा तो अपने को ही रहा हूं, कह तो अपने को ही रहा
हूं।
अंधे के हाथ में आईने का कोई मूल्य नहीं है, आंखवाले
के हाथ में मूल्य है।
झूठी ही तसल्ली हो कुछ दिल तो बहल जाए
धुंधली ही सही लेकिन इक शम्अ तो जल जाए
उस मौज की टक्कर से साहिल भी लरजता है
कुछ रोज जो तूफां की आगोश में पल जाए
मजबूरि-ए-साकी भी ऐ तश्ना--लबो समझो
वाइज का यह मन्शा है मैख्वारों में चल जाए
ऐ जलव-ए-जानाना फिर ऐसी झलक दिखला
हसरत भी रहे बाकी अरमां भी निकल जाए
इस वास्ते छेड़ा है पर्वानों का अफसाना
शायद तिरे कानों तक पैगामे-अमल जाए
मैखान-ए-हस्ती में मैकश वही मैकश है
संभले तो बहक जाए, बहके तो
संभल जाए
हमने तो "फना' इतना
मफ्हूमे-गजल समझा
खुद जिंदगी-ए-शाइर अश्आर में ढल जाए
कवि तब तक कवि नहीं होता, जब तक
उसकी जिंदगी कविता न हो जाए।
हमने तो "फना' इतना
मफ्हूमे-गजल समझा
खुद जिंदगी-ए-शाइर अश्आर में ढल जाए
जब जिंदगी स्वयं एक काव्य होती है, तभी कोई
कवि होता है। और जब जिंदगी स्वयं आंख होती है, तभी कोई
दार्शनिक होता है। और जब जिंदगी एक अनुभव होती है, तभी और
केवल तभी, तुम्हारे हाथ में शास्त्रों के अर्थ खुलने शुरू
होते हैं। फिर शास्त्र तुम्हारी गवाही हो जाते हैं, और तुम
शास्त्रों की गवाही हो जाते हो। फिर है मजा, फिर खूब मजा है।
फिर ऐसा मजा है कि जिस पर आज तुम्हें भरोसा भी न आ सके।
मैखान-ए-हस्ती में मैकश वही मैकश है
संभले तो बहक जाए, बहके तो
संभल जाए
फिर बड़ा मजा है। एक तरफ मस्ती छाने लगती है
और एक तरफ होश जगने लगता है। फिर शास्त्रों को पढ़ कर डोलने लगती है तबीयत, मौज से भर
जाती है। नाच उठ जाता है। और साथ-साथ एक आत्म-स्मरण, एक
स्वस्फूर्त स्मरण। एक ही साथ विरोधाभास घटता है। एक तरफ ऐसी मदमस्ती है कि दुनिया
भूल जाती है और एक तरफ ऐसी याद उठती है परमात्मा की, कि बस
उसकी याद ही याद बिखर जाती है।
मगर आंख तुम्हारी खुले, तब कहीं
यह घटना घटे। फिर मंदिर मंदिर नहीं रहते, मधुशालाएं हो जाते
हैं। फिर शास्त्र शास्त्र नहीं रहते, शराब हो जाते हैं--असली
शराब, जो कृष्णों ने ढाली, बुद्धों ने
ढाली। असली शराब--जो अंगूरों से नहीं ढलती, आत्माओं से ढलती
है। मगर पहली शर्त है: तुम्हारी आंख खुले। छोटी सी भी शमा हो तो भी काम हो जाए।
झूठी ही तसल्ली हो, कुछ दिल
तो बहल जाए
धुंधली ही सही लेकिन इक शम्अ तो जल जाए
अपनी हो, धुंधली ही सही। छोटी सी लपट हो तो
भी चल जाएगा। जरा सी आंख खुले तो भी दर्शन शुरू हो जाएंगे। जरा सी पलक खुले...।
नीमबाज आंख हो...आधी खुली आंख हो तो भी काम हो जाएगा। मगर आंख खुलनी चाहिए।
मूल की खबरि नाहिं जासो यह भयो मुलक।
वाकों बिसारि भोंदू डारेन अरुझायो हैं।।
कहते हैं यारी: मूल की खबरि नाहिं! अपने
स्रोत का पता नहीं है। अपने स्वभाव का पता नहीं है। मैं कौन हूं, इस छोटे
से प्रश्न का भी उत्तर नहीं खोज पाए हो-- और शास्त्रों में चले गए! और बड़े
सिद्धांतवादी हो गए!
मूल की खबरि नाहिं, जासो यह
भयो मुलक! इसलिए यह इतना फैलाव कर लिया है फिजूल का। संसार से अर्थ मत समझना--यह
संसार जो चारों तरफ फैला है--वृक्षों का, चांदत्तारों का,
यह जो आकाश है, इसका अर्थ नहीं है संसार से।
संसार से अर्थ है तुम्हारी कामनाओं का, वासनाओं का, तृष्णों का, जो सपनों का तुमने अपना जाल फैला रखा है,
वह। और कैसी नासमझी हो गई है, वही नासमझी जो
बुद्ध ने कही--वेश्या कुछ समझी, चोर कुछ समझे, साधु कुछ समझे।
संसार छोड़ने की बात ज्ञानियों ने कही है, उसका अर्थ
है--सपने छोड़ो, तृष्णाएं छोड़ो, वासनाएं
छोड़ो। मगर लोग संसार छोड़कर भाग गए। बैठ गए हिमालय पर जाकर। सोचने लगे कि हिमालय
संसार के बाहर है। पागल हो गए हो! हिमालय उतना ही संसार का हिस्सा है। जितनी यह
जमीन, उतनी कोई और जमीन। जितना यह घर, उतना
कोई और घर। जितनी तुम्हारी पत्नी संसार है, तुम्हारे पुत्र
संसार हैं, तुम्हारे मित्र संसार हैं--उतना ही कोई आश्रम भी
संसार का हिस्सा है। गुफा में भी बैठ जाओगे, तो गुफा भी
संसार का हिस्सा है। तुम भागकर जाओगे कहां?
इस संसार से भागने का उपाय नहीं। मगर इस
संसार से भागने को ज्ञानियों ने कहा भी नहीं। तुम्हारी समझ। तुमने समझ लिया कि
संसार छोड़कर भागने का अर्थ है--दुकान छोड़ो, बाजार छोड़ो, चले
जाओ जंगल में। संसार छोड़ने का अर्थ है--तृष्णा का फैलाव छोड़ो। कल ऐसा करूंगा,
परसों ऐसा पाऊंगा...। संसार छोड़ने का अर्थ है--सपने भविष्य के छोड़कर
वर्तमान में जीओ। बस, वर्तमान हिमालय की गुफा है। इस क्षण के
पार न जाओ। जो है, उसके पार न जाओ।
तुमने उस आदमी की बात तो सुनी न, जो बाजार
जा रहा था, दूध की मटकी सिर पर लिए बेचने, फिर मुलक का पसारा किया उसने। सोचने लगा राह में--दूध आज बिक जाए तो एक
दिन उपवास कर लेंगे। मगर आज पैसे जो हाथ लगेंगे, बचाना शुरू
करेंगे। फिर जल्दी ही एक मुर्गी खरीद लेंगे। फिर मुर्गी के अंडे होंगे। रोज-रोज
अंडे बेचेंगे। फिर जल्दी ही एक गाय खरीद लेंगे, फिर भैंस
खरीद लेंगे।
सोचता चला।...काफी धन इकट्ठा हो जाएगा तो
फिर शादी कर लेंगे। फिर बाल-बच्चे भी हो गए। कल्पना में ही! फिर बच्चों के भी
बच्चे हो गए। और जब बच्चों के बच्चे हुए, तब तक स्वभावतः कल्पना में वह बूढ़ा
भी हो चुका है। अब बच्चों के बच्चे उसकी गोदी में खेल रहे हैं। एक बच्चे ने उसकी
दाढ़ी पकड़ ली और झटका दिया। तो उसने कहा: अरे, यह क्या करता
है? और ऐसा कहने में उसका हाथ मटकी से छूट गया। मटकी गिरी
जमीन पर। मटकी के साथ सारा संसार गिर गया। सारा पसारा गिर गया। न थी कहीं गाय,
न थी कहीं भैंस। न थी कहीं कोई पत्नी। न थे कोई बाल-बच्चे, न बाल-बच्चों के बाल-बच्चे। सच तो यह है, हाथ फेरा
तो दाढ़ी भी नहीं थी। अभी बूढ़ा भी नहीं हुआ था।
इस संसार की बात ज्ञानियों ने कही है--यह जो
तुम कल्पना के जाल बुनते हो!
मूल की खबरि नाहिं जासो यह भयो मुलक।
तुम्हें अपने अनंत आनंद का पता नहीं है--अजस्र आनंद का पता नहीं है। इसलिए दुखी
चित्त, तुम भिखमंगे की भांति, तुम कल्पनाओं के जाल को बुनते
हो। आज तो तुम्हारा दुखपूर्ण है, इसलिए कल का स्वर्णिम सपना
देखते हो। यह जिंदगी तो तुम्हारी नर्क है, इसलिए स्वर्ग
मिलेगा मरने के बाद, इसकी तुम आशा रखते हो। उस आशा में गंगा
हो आते हो, हज कर आते हो। उस आशा में कुछ दान भी कर देते हो।
इस जिंदगी में तो कुछ पाया नहीं। और जो
तुमने यहां नहीं पाया है,
याद रखना, कहीं भी न पाओगे। क्योंकि जो यहां
नहीं है, कहीं भी नहीं है। और जो कहीं और है, वह यहां भी है। एक का ही विस्तार है। सिर्फ जरा अपनी कल्पनाओं के जाल से
जागो! ये सपने मत गूंथो।
मूल की खबरि नाहिं जासो यह भयो मुलक। अपने
स्वभाव का तुम्हें पता नहीं है, इसलिए तुमने यह पर भाव का संसार फैला रखा है।
वाको बिसारि भोंदू डारने अरुझायो है। जड़ की
तो चिंता छोड़ दी है और शाखाओं में उलझ गए! ठीक शब्द कहा--भोंदू! इससे ज्यादा और
कोई बुद्धिहीनता नहीं हो सकती। जो है उससे चूक रहे हो और जो नहीं है उससे पीछे दौड़
रहे हो! और क्या भोंदूपन होगा?
वाकों बिसारि भोंदू डारेन अरुझायो है।
उस मूल को थोड़ा तलाशो। और तुम्हारे भीतर है
वह मूल। इस सारे जीवन का सार-सूत्र तुम्हारे भीतर है। जरा खोजो, और तुम
चकित हो जाओगे कि तुम नाहक भिक्षापात्र फैला कर भीख मांग रहे थे! तुम सम्राट हो।
तुम सम्राटों के सम्राट हो, शहनशाहों के शहंशाह! अमृतस्य
पुत्रः!
जाद-ए-इश्क में इक वो भी मुकाम आता है
राहरौ के लिए मंजिल का सलाम आता है
आज जिस दिल से है बर्बादि-ए-पैहम का गिला
यही कमबख्त बुरे वक्त में काम आता है
देखकर मुझको मचल जाती है साकी की नजर
जिक्र सुनते ही मिरा वज्द में जाम आता है
वज्हे-आशोबे-जहां पूछ रही है दुनिया
लब पे क्या जानिए क्यों आपका नाम जाता है
रूह की आंखों में सिमटती नजर आती है मुझे
क्या किसी भूलने वाले का पयाम आता है
एक बार तुम जरा भीतर झांक कर देखो, और तुम
चकित हो जाओगे कि जिस मंजिल की तरफ तुम दौड़े जाते थे, वह
मंजिल खुद तुम्हें सलाम करने आ गई!
जाद-ए-इश्क में इक वो भी मुकाम आता है।
प्रेम-पथ पर एक ऐसा पड़ाव भी आता है।
जाद-ए-इश्क में इक वो भी मुकाम आता है
राहरौ के लिए मंजिल का सलाम आता है।
यात्री के लिए मंजिल का सलाम आता है। भक्त
को भगवान तक जाना नहीं पड़ता; भगवान ही भक्त तक आता है। सदा भगवान ही भक्त तक
आता है। सिर्फ भक्त अपने भीतर शांत हो जाए, मौन हो जाए,
लवलीन हो जाए, तल्लीन हो जाए। फिर तुम्हें
देखकर साकी की नजर खुद ही मचल जाएगी।
देखकर मुझको मचल जाती है साकी की नजर
जिक्र सुनते ही मिरा वज्द में जाम आता है
और जैसे ही मेरा जिक्र होता है, तत्क्षण
शराब से भरा जाम मेरी तरफ बढ़ा दिया जाता है। तत्क्षण! देर नहीं लगती! अमृत बरसता
है, बरस ही रहा है; सिर्फ हम हैं भोंदू
कि पात्र को उल्टा रखे बैठे हैं? अमृत बरस जाता है, बह जाता है; हम खाली के खाली रह जाते हैं।
एक ही काम करने जैसा है। एक ही काम है
समझदारों के लिए,
समझदारी का--और वह है; इस सत्य में उतर जाना
कि मैं कौन हूं। यह मेरा स्रोत कहां है? यह मेरी चेतना कहां
से आती है? यह कौन है जो मेरे भीतर गवाह है, साक्षी है--जो दुख देखता, सुख देखता, सफलता-विफलता देखता, स्वास्थ्य-बीमारी देखता,
मान-अपमान देखता! यह कौन है द्रष्टा मेरे भीतर? बस इसको जिसने खोज लिया, उसने मूल पा लिया।
मगर हम पत्तों-पत्तों पर खोज रहे हैं। हम
डाल-डाल, पात-पात खोज रहे हैं। और हमें कुछ मिलता नहीं। क्योंकि जड़ें नीचे छिपी हैं
अंधेरे में, अंतर्गर्भ में। तुम्हारे भीतर जड़ें हैं और
तुम्हारे भीतर शाखाएं नहीं हैं, बाहर शाखाएं हैं। जब तक तुम
बाहर देखते रहोगे, शाखाओं में उलझे रहोगे।
आपनो सरूप रूप आपू माहिं देखै नाहिं।
कहै यारी आंधरे ने हाथी कैसो पायो है।।
अपनी सरूप रूप आपू माहिं देखै नाहिं।
सबसे सरल जो बात होनी चाहिए थी, हमने नाहक
कठिन कर रखी है। अपने सरूप को अपने भीतर नहीं देखते हैं। पहले अपने को देख लो,
फिर कुछ और देखने निकलना। क्योंकि तुम अपने सबसे निकट हो, अगर वहीं देखना नहीं हो पा रहा है, और क्या देख
पाओगे? जो स्वयं को नहीं जान पा रहा है, और क्या जान पाएगा? जानने की घटना पहले तुम्हारे
अंतरतम में घटनी चाहिए। वहां लौ प्रकट होनी चाहिए।
आपनो सरूप रूप आपू माहिं देखै नाहिं। कैसा
आदमी उलटा है! कैसी उलटी खोपड़ी है कि अपने भीतर अपने सरूप को नहीं देखता, और भागा
फिरता है, दौड़ा फिरता है सारे संसार में! न मालूम कितने
द्वार-दरवाजे खटखटाता है, कहां-कहां भीख मांगता है!
कहां-कहां ठोकरें खाता है, दर-दर की! कहां-कहां बढ़ाया जाता
है कि आगे बढ़ो! हर जगह अपमान सहता है, असम्मान सहता है।
और महिमा का स्रोत भीतर है, गरिमा का
स्रोत भीतर है।
आपनो सरूप रूप आपू माहिं देखै नाहिं।
कहै यारी आंधरे ने हाथी कैसो पायो है।
कैसे तुम अंधे हो, हाथी
तुम्हारे भीतर है! मिला ही हुआ है। जिसे तुम तलाश रहे हो, वह
मिला ही हुआ है। जिसे तुम तलाश रहे हो, उसे क्षण को भी नहीं
खोया है। जिसे तुम तलाश रहे हो, तुम हो। वही तुम हो!
तत्त्वमसि! खोजने वाला और जिसकी खोज चल रही, दो नहीं हैं।
खोजने वाला ही खोज का अंतिम लक्ष्य है।
किसी से मेरी मंजिल का पता पाया नहीं जाता
जहां मैं हूं फरिश्तों का वहां साया नहीं
जाता
मुहब्बत की नहीं जाती, मुहब्बत
हो ही जाती है
यह शोला खुद भड़क उठता है भड़काया नहीं जाता
फकीरी में भी मुझको मांगने में शर्म आती है
सवाली होके मुझसे हाथ फैलाया नहीं जाता
चमन तुम से इबारत है बहारें तुम से जिंदा है
तुम्हारे सामने फूलों से मुर्झाया नहीं जाता
हरिक दागेत्तमन्ना को कलेजे से लगाता हूं
कि घर आई हुई दौलत को ठुकराया नहीं जाता
मुहब्बत के लिए कुछ खास दिल मखसूस होते हैं
यह वो नग्मा है जो हर साज पर गाया नहीं जाता
मुहब्बत अस्ल में मखमूर वो राजे-हकीकत है
समझ में आ गया है फिर भी समझाया नहीं जाता
जिस दिन तुम समझ लोगे अपने भीतर के सत्य को, यह मत
समझना कि उस दिन समझा पाओगे। कोई नहीं समझा पाया है।
मुहब्बत अस्ल में मखमूर वो राजे-हकीकत है!
वह रहस्य है यथार्थ का,
सत्य का वैसा रहस्य है--समझ में आ गया है, फिर
भी समझाया नहीं जाता!
फिर सदगुरु क्या करते हैं? समझाते
नहीं चेताते हैं। समझाते नहीं, जगाते हैं। समझाते नहीं,
प्यास को उभारते हैं, उकसाते हैं। याद दिलाते
हैं तुम्हें: जाओ भीतर! पुकारते हैं तुम्हें: जाओ भीतर! कोई जबर्दस्ती तुम्हें
तुम्हारे भीतर पहुंचा भी नहीं सकता। फुसलाते हैं तुम्हें। प्यार से फुसलाते हैं कि
जाओ भीतर! बड़ी मीठी कहानियां सुनाते हैं कि जाओ भीतर! बड़े गीत गाते हैं कि जाओ
भीतर। क्योंकि एक बार जो भीतर गया, एक बार जिसने अपनी झलक पा
ली, फिर दूसरा ही जन्म हो जाता है उसका। वह द्विज हो जाता
है। तत्त्वमसि!
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें