कानो सुनी सो झूठ सब-(संत दरिया)
अनहद में बिसराम
प्रवचन: पांचवां
दिनांक: १५.७.१९७७
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सारसूत्र:
रतन अमोलक परख कर रहा जौहरी थाक।
दरिया तहां कीमत नहीं उनमन भया अवाक।।
धरती गगन पवन नहीं पानी पावक चंद न सूर।
रात दिवस की गम नहीं जहां ब्रह्म रहा भरपूर।।
पाप पुण्य सुख दुख नहीं जहां कोई कर्म न काल।
जन दरिया जहां पड़त है हीरों की टकसाल।।
जीव जात से बीछड़ा धर पंचतत्त को भेख।
दरिया निज घर आइया पाया ब्रह्म अलेख।।
आंखों से दीखे नहीं सब्द न पावै जान।
मन बुद्धि तहं पहुंचे नहीं कौन कहै सेलान।।
माया तहां न संचरौ जहां ब्रह्म को खेल।
जन दरिया कैसे बने रवि-रजनी का मेल।।
जात हमारी ब्रह्म है माता-पिता हैं राम।
गिरह हमारा सुन्न में अनहद में बिसराम।
इन
मस्त अखड़ियों को कमल कह गया हूं मैं
महसूस
कर रहा हूं गजल कह गया हूं
प्रेम
में सिक्त शब्द अनायास की काव्य बन जाते हैं। जहां प्रेम है वहां गीत का जन्म
अनिवार्य है। एक तो ऐसा काव्य है जो शब्द, भाषा, मात्रा और छंद पर निर्भर होता है और एक ऐसा
काव्य है,
जो
केवल हृदय के प्रेम पर निर्भर होता है।
संतों
का काव्य हृदय का काव्य है। हो सकता है मात्रा में ठीक न हों। मात्राओं की चिंता
की भी नहीं गई है। हो सकता है छंद के नियमों का पालन न हुआ हो। संत किसी भी नियम
का पालन करना जानते ही नहीं। एक ही नियम है उनका, एक ही पहचान है उनकी, वह प्रेम है। दरिया के ये
शब्द बड़े गहन अनुभव से निकले हैं। इनके काव्य-गुण पर मत जाना। इनकी अनुभूति में डुबकी
लगाना। जानकर,
डूबकर
कहे गए शब्द हैं।
सौ मैं
निन्यानबे काव्य तो कल्पना ही होते हैं। सुंदर हो तब भी कल्पना ही होते हैं। और
कल्पना में कैसा सौंदर्य? सौंदर्य
तो केवल सत्य का ही अंग है। जहां सत्य है वहां सौंदर्य है। कल्पना में तो केवल
खिलौने हैं,
धोखे
हैं। बच्चों को उलझाए रखने के लिए ठीक, लेकिन प्रौढ़ों के लिए वहां कोई संदेश नहीं
है। एक ही सौंदर्य है और वह सौंदर्य है--जब सत्य आंखों में झलकता है। तो फिर जो
बोलो वही सुंदर हो जाता है, जो करो
वही सुंदर हो जाता है।
तो
दरिया के शब्द तो टूटे-फूटे हैं। इनके शब्दों पर मत जाना। शब्दों में गए तो चूक
जाओगे। दरिया तो तुतलाते से बोल रहे हैं। क्योंकि वह बात इतनी बड़ी है, उसे बड़ी बात को जो भी कहेगा
वही तुतलाएगा। उस बड़ी बात को बिना झिझक तो केवल वे ही कह सकते हैं, जिन्होंने जाना नहीं। जाना
नहीं उनको झिझक का पता नहीं। चीन में एक कहावत है कि केवल नासमझ ही बिना झिझके बोल
सकता है,
समझदार
तो बहुत झिझकेगा क्योंकि हर शब्द उसके सत्य को छोटा करता है। जो उसने देखा है, जो उसने जाना है, शब्द उसे प्रकट कर नहीं पाते।
इसलिए
बड़ी झिझक है जाननेवाले में।
ये
दरिया के शब्द परम अनुभव के शब्द हैं।
रतन अमोलक
परख कर रहा जौहरी थाक
दरिया
तहं कीमत नहीं उनमन भया अवाक
मन
हमारा जौहरी है। जौहरी इसलिए कि हर चीज का मूल्य आंकता रहता है। जो देखता है, तत्क्षण निर्णय करता है, सुंदर है कि असुंदर, शुभ है कि अशुभ, करणीय कि अकरणीय, सत्य कि झूठ! मन का सारा काम
ही निर्णायक का काम है। अगर निर्णय न छूटा तो मन के पार गए नहीं। इसलिए जीसस ने
कहा है जज ई नाट। निर्णय ही मत करना। निर्णय किया कि मन के कब्जे में आ गए। वह
जौहरी! वह बैठा भीतर। वह कसता रहता है अपने कसने के पत्थर पर हर चीज को, कि सोना है कि नहीं है। हीरा
है कि नहीं है। मन तो एक तराजू है जो तोलता रहता, तोलता रहता है। इसे तुम
जांचो।
गुलाब
का फूल देखा,
देख भी
नहीं पाए ठीक से कि फौरन मन कह देता है--सुंदर! अभी देखना भी पूरा नहीं हुआ कि
शब्द बन जाता है। कहीं गंदगी का ढेर लगा देखा, अभी गंध, दुर्गंध नासापुटों तक पहुंची ही थी कि मन
तत्क्षण कह देता है कि कुरूप, गंदगी, बचो!
मन के
निर्णय करने की यह जो आदत है, यह
तुम्हें जीवन के सत्य को देखने ही नहीं देती। मन अपनी पुरानी बातें ही दोहराए चला
जाता है,
थोपे।
चला जाता है। किसी नए तथ्य का आविष्कार नहीं हो पाता क्योंकि मन तो है अतीत। मन तो
है तुम्हारा पिछला अनुभव का जोड़त्तोड़। मन तो है तुमने जो अब तक जाना, सुना, समझा। उस सोचे, सुने, समझे को ही मन नए तथ्यों पर
आरोपित करता जाता है।
जब तुम
किसी गुलाब के फूल को देखकर कहते हो सुंदर! तो तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो मैंने जो
गुलाब के फूल पहले देखे थे, वे
सुंदर थे। उस पुराने अनुभव के आधार पर यह फूल भी सुंदर है। मगर तुम चूक गए। एक बड़ी
बात से चूक गए। यह गुलाब का फूल तुमने कभी भी देखा नहीं था, यह बिलकुल नया है। ऐसा फूल
पहले कभी हुआ नहीं, फिर
कभी होगा नहीं। हर फूल अद्वितीय है, बेजोड़ है। अतुलनीय है। इसलिए तुम अपनी
पुरानी जानकारी को बीच में न लाओ अन्यथा इस फूल से चूक जाओगे। और अगर इस फूल से
चूकते हो तो इस बात का सबूत देते हो कि पहले तुमने जो फूल देखे होंगे उनसे भी चूके
होगे और आगे तुम जो फूल देखोगे उनसे भी चूकोगे। तुम चूकते ही चले जाओगे। तुम अतीत
को बीच में ले आओगे और वर्तमान से छिन्न-भिन्न, तुम्हारा ताल टूट जाएगा। मन निर्णय करता है।
मन जौहरी है।
कहते
हैं दरिया,
रतन
अमोलक परखकर रहा जौहरी थाक।
लेकिन
उस परमात्मा का अनुभव ऐसा अनुभव है कि जौहरी एकदम ठगकर खड़ा रह जाता है। कुछ कह
नहीं पाता,
सूझता
नहीं, बूझता नहीं।
रतन
अमोलक...इसलिए उस रतन को, उस परम
संपदा को मूल्यातीत कहा है--अमोलक। मन उसका मूल्य नहीं आंक पाता। मन कह ही नहीं
पाता। कुछ। मन एकदम लड़खड़ा जाता है। न कह पाता है सुंदर, न कह पाता शुभ।
इतना
भी नहीं कह पाता कि परमात्मा, कि
सत्य। मन की सारी कहानी एकदम बंद हो जाती है। मन गूंगा हो जाता है। गूंगे कैरी
सरकरा! उस स्वाद के सामने मन बोल ही नहीं पाता।
उसी
स्वाद को खोजो जहां मन गूंगा हो जाता है तभी तृप्ति होगी। जहां तक मन बोलता चला
जाता है,
जिन-जिन
चीजों पर मन लेबल लगा देता है, मूल्य
की तख्ती टांग देता है इतने कीमत का है, वहां तक जानना संसार है। जिस क्षण ऐसा कोई
अनुभव तुम्हारे भीतर उमगे, ऐसा
कोई कमल खिले,
ऐसी
कोई सुगंध उठे,
ऐसे
लोग में तुम्हारे पंख तुम्हें ले चलें कि मन एकदम थाक के रह जाए, थका रह जाए, हार के रह जाए...।
मन
हारता ही नहीं। शरीर हार जाता है, मन
नहीं हारता। तुम जानते रोज--दिन भर के थके-मांदे बिस्तर पर पड़े हो शरीर तो थक गया, टूटा जा रहा है, अंग-अंग टूट रहा है, मगर मन है कि चलता जाता है।
मन है कि सोचता जाता है। मन नए-नए विचार के पत्ते उगाए चला जाता है। मन थकता ही
नहीं। जन्म से लेकर मरने तक मन अनवरत चलता है। मन थकना जानता ही नहीं। शरीर थकता
है, नींद की भी जरूरत पड़ती है, मन थकता ही नहीं। मन सदा राजी
है काम करने में। मन लगा ही रहता है--सक्रिय। मन कभी निष्क्रिय नहीं होता। जहां मन
निष्क्रिय हा जाए,
समझना
कि आ गया प्रभु का द्वार। वह कसौटी है। वह पहचान है।
कैसे
जानोगे कि प्रभु आ गया है? प्रभु
को पहले तो कभी देखा नहीं, प्रभु
का द्वार भी पहले कभी देखा नहीं। प्रत्यभिज्ञा कैसे होगी? दार्शनिक पूछते रहे, हैं सदियों से कि समझ लो कि
प्रभु को देखा भी तो पहचानेंगे कि यही प्रभु हैं? कैसे? क्योंकि पहले देखा हो तो ही
पहचान सकते हो। पहचान कैसे होगी? प्रत्यभिज्ञा
कैसी होगी?
दरिया
सूत्र दे रहे हैं कि कैसे पहचान होगी! मन थक जाए! परमात्मा को तो नहीं जानते हो
लेकिन एक बात जानते हो कि मन कभी नहीं थका। हर चीज पर निर्णय लगा दिया था उसने। हर
चीज को नाप लिया था। हर चीज तराजू के पलड़े में आ गई थी। वजन तोल लिया था। मूल्य
तोल लिया था। हिसाब-किताब लगा लिया था। जहां मन एकदम हिसाब-किताब न लगा पाए, जहां मन का तराजू बड़ा छोटा पड़
जाए, पूरा आकाश तोलने की बात आ जाए; जहां अचानक मन ठिवक जाए, अवरुद्ध हो जाए मन की सतत
प्रक्रिया। जहां विचार एकदम शून्य हो जाए। तुम सोचना भी चाहो और न सोच सको।
सोचना
तुम चाहोगे। डरोगे तुम तो। प्रभु द्वार पर खड़ा होगा, सत्य तुम्हें घेरेगा तो तुम
बहुत घबड़ा जाओगे। तुम्हारा रोआं-रोआं कांप जाएगा कि यह क्या हो रहा है? इस घड़ी मन धोखा दे रहा है। इस
घड़ी तो मन साथ दे। यह घड़ी न चूक जाए। यह अपूर्व घट रहा है और मन कुछ बोलता नहीं।
और मन एकदम कहां विलीन हो गया पता नहीं चलता। तुम तो मन को लाना चाहोगे। लेकिन
जैसे अंधेरे को प्रकाश के सामने नहीं लाया जा सकता, ऐसे मन को परमात्मा के सामने
नहीं लाया जा सकता। मन और परमात्मा साथ-साथ नहीं होते।
यही
पहचान है,
यही
परख है कि पारखी थक जाए। जहां तक पारखी की चलती है वहां तक संसार है। यह तो बड़ी
अनूठी परिभाषा हुई। जहां तक मन चलता वहां तक संसार है। मन की गति संसार है। जहां
मन अगति में पहुंच जाता वहीं परमात्मा है।
इससे
दूसरी बात भी निकलती है कि अगर तुम किसी तरह मन को अगति में पहुंचा दो तो परमात्मा
के सामने खड़े हो जाओगे। यह केवल परिभाषा ही नहीं हुई, इससे विधि भी निकल आती है।
इसलिए समस्त ध्यान, समस्त
भक्ति है क्या?
एक ही
प्रक्रिया है। कि सिकी तरह मन रुक जाए, अवरुद्ध हो जाए। यह मन का सतत पागलपन, यह मन की गंगा जो बहती ही चली
जाती है...बहती ही चली जाती है, रुकना
जानती ही नहीं,
यह एक
क्षण को भी ठिठक जाए, ठहर
जाए। तो या तो परमात्मा सामने हो तो मन ठिठकता है, या मन ठिठक जाए तो परमात्मा
सामने आ जाता है। तो इसमें परिभाषा भी हो गई कि कैसे पहचानोगे और इसमें विधि भी आ
गई कि कैसे उस तक पहुंचोगे!
रतन
अमोलक परखकर रहा जौहरी थाक
दरिया
तहं कीमत नहीं,
उनमन
भया अवाक
वहां
कीमत ही नहीं। कीमत क्या परमात्मा की? कैसे उसकी कीमत आंको? एक ही है, तो एक ही की कीमत तो नहीं
आंकी जा सकती। दो हों तो कीमत आंकी जा सकती है। दो हीरे हों तो तुम कह सकते हो। यह
बडा, यह छोटा; यह साधारण हीरा, रह कोहिनूर। दो हों तो अंकन
हो सकता। तुलना हो सकती है। तो अंकन हो सकता है छोटे-बड़े का। कौन सा हीरा बिलकुल
शुद्ध हीरा,
और कौन
से हीरे में थोड़ी खोट। तो परख हो सकती है। मगर एक ही है तो कोई परख का उपाय नहीं।
दरिया
तहं कीमत नहीं...
फिर
कैसे कीमत जानो?
फिर
कैसे कीमत लगाओ?
परमात्मा
की कोई कीमत नहीं है इसलिए मन को रुक ही जाना पड़ता है। मन बाजार में खूब चलता है।
बाजार में हर चीज की कीमत है। जीवन में जहां भी मन उसके पास आता है जो अमूल्य है, अमोलक है, वहीं मन लड़खड़ाता है। जहां तक
कीमत है वहां तक मन ठीक से चलता है। कीमत पर मन का पूरा कबजा है। इसलिए बाजार में
मन जैसा प्रसन्न होता है, वैसा
मंदिर में नहीं होता। बैठते हो मंदिर में, मन सोचता बाजार की है। क्यों? आखिर मन का ऐसा बाजार से क्या
लेना-देना?
मन की
गति बाजार में है। वहां उसे पूरी सुविधा है। हर चीज की कीमत है। हर चीज पर लेबल
लगा है।
मैं एक
बार एक बड़े चित्रकार की चित्र-प्रदर्शनी देखने गया। मेरे साथ एक मित्र थे; दुकान दार हैं, हर चीज को कीमत से तोलते हैं।
मैं तो चित्र देखता था, वे
चित्रों पर लगी हुई कीमत देखते थे। थोड़ी
देर में मुझे लगा कि वे चित्र देख ही नहीं रहे हैं। पांच सौ रुपया, हजार रुपया, पंदरह सौ रुपया! जहां पांच
हजार, चहां जरा ठिठक कर देख लें।
जहां पांच सौ लिखा हो वहां से आगे बढ़ जाएं। मैंने उनसे पूछा कि तुम कर क्या रहे हो? तुम चित्र देखने आए कि कीमत
देखने आए। तुम अपनी दुकानदारी कहीं बंद करोगे कि नहीं बंद करोगे! तुम सब जगह
दुकानदारी ही चलाओगे? उनके
लिए एक ही बात का मूल्य है। मूल्य का ही बस मूल्य है।
आदमी
को भी ऐसा आदमी देखेगा तो यह देखता है किसका कितना मूल्य है। यह आदमी प्रधानमंत्री
है, यह आदमी चपरासी है, तो दो कौड़ी का। चपरासी को तो
देखता ही नहीं। राष्ट्रपति को भर देखता है। राष्ट्रपति भी कल राष्ट्रपति नहीं रह
जाएंगे तो यह आदमी नहीं देखेगा। चपरासी कल राष्ट्रपति हो जाएगा तो यह आदमी देखेगा।
यह आदमी आदमी को देखता ही नहीं। इसकी आंखों में आदमी की कोई परख ही नहीं इस आदमी
को तो सिर्फ कीमत। हर बात में कीमत।
तो
दुखते हो ना! किसी आदमी से मिले, ट्रेन
में मिलना हो जगया किसी से, तुम जो
बातें पूछते हो...एक-आध दो बात तुम पहले पूछते हो, फिर जल्दी से असली बात पूछते
हो--कितनी तनख्वाह मिलती है? कैसा
धंधा चलता है?
असली
बात! एक-आध दो इधर-उधर की पूछीं कि कहां रहते हो, कहां से आते हैं? मगर यह तो गौण है। एकदम से
कीमत पूछो तो जरा बेहूदगी लगती है।
पश्चिम
में लोग किसी से भी नहीं पूछते कि कितनी तनख्वाह मिलती है। वह ज्यादा शिष्टाचार
है। कीमत की बात ही पूछना अशिष्ट है। हो सकता है विचारा आदमी प्रायमरी स्कूल में
मास्टर हो और कहना पड़े कि सौ रुपए मिलते हैं। और इसको भी दीनता का अनुभव हो। और
इसाके ही हो ऐसा नहीं; जैसे
यह कहेगा कि सौ रुपए मिलते हैं, स्कूल
में मास्टर हूं,
तुम्हारे
लिए यह आदमी बेमूल्य हो गया। आगे अब इससे बात नहीं चलेगी। बात ही खतम हो गई। यह भी
कोई आदमी है! स्कूल में मास्टर है। इससे तो कुछ भी होता! पुलिस इंस्पेक्टर होता तो
भी बेहतर था। कुछ तो जान होती! जैसे ही तुम पूछते हो किसी आदमी से कि कितन तनख्वाह
मिलती है,
वैसे
ही तुम पूछ रहे हो कि कितनी कीमत! कितना मूल्य?
इस
जिंदगी में भी तुम कई बार ऐसी चीज के करीब आ जाते हो, जिसका मूल्य नहीं होता। लेकिन
तब तुम उससे चूक जाते हो। क्योंकि तुम वह तो परख ही नहीं तुम्हारे मन में। अगर तुम
किसी संतपुरुष के पास आ जाओ तो तुम नहीं परख पाओगे। क्योंकि वहां तुम्हारा
मूल्य-निर्धारक मन गति नहीं करता।
अगर
सुबह सूरज उगता हो और एक सुंदर सुबह चारों तरफ फैलती जाती हो और प्राची पर लाली हो
और आकाश बड़े गीत गाता हो, बड़े
रंगों में नाचता हो, तुम
नहीं देखोगे। उसका कोई मूल्य नहीं है, देखना क्या है? मैंने उन मित्र को कहा जो
मेरे साथ चित्र की प्रदर्शनी देखने गए थे, मैंने कहा कि तुम सुबह कभी सूरज को उगते देखते? वहां तो कोई लेबल नहीं लगा
होता, वहां तुम्हें बड़ी मुश्किल
होगी। जब कीमत ही नहीं तो क्या देखना? कभी रात तारों टंकी आकाश के रहस्याग को
देखते हो?
वहां
कोई कीमत नहीं लगी है, तुम
क्या देखोगे?
उन्होंने
मुझसे कहा-- ईमानदार आदमी हैं--रास्ते में लौटते वक्त कहा आप ठीक ही याद दिलाया।
मैं कभी सुबह नहीं देखा और मैंने कभी रात भी नहीं देखी। शायद यही कारण होगा, कि मैं देखता ही उतनी चीज
हूं। जिसकी कीमत हो।
दरिया
तहं कीमत नहीं...
तो
अस्यास करो थोड़ा अमोलक को देखने का। यहां भी कोई कीमत नहीं है। जब तुम गुलाब का
फूल देखते हो,
कहते
हो कि चार आने में मिल जाता है बाजार में, तो तुम चूक गए। आदमी एक भी गुलाब का फूल
पैदा कर पाया है,
जो तुम
कीमत आंक रहे हो?
चार
आने देने से तुम एक गुलाब का फूल पैदा कर पाओगे? चार करोड़ रुपए से भी तुम एक
गुलाब का फूल पैदा नहीं कर पाओगे। सारी मनुष्य जाति की क्षमता लगाकर भी तुम एक
गुलाब का फूल पैदा नहीं कर पाओगे। आदमी चांद पर पहुंच गया है, यह एक बात है। अभी घास का एक
तिनका भी पैदा नहीं कर पाया है, इसे मत
भूल जाना। आदमी ने जो भी सफलता पाई है, सब मुर्दा चीजों पर है। अभी जीवन पर उसकी एक
भी सफलता नहीं;
होगी
भी कभी नहीं। क्योंकि घास का एक तिनका भी पैदा नहीं होगा।
जीवन
अमोलक है। गुलाब के फूल की क्या कीमत? कैसी कीमत? कैसे आंकते हो? अगर गौर से देखोगे तो पाओगे, गुलाब के फूल में अमोलक बैठा
है। चांद निकला,
इसकी
क्या कोई कीमत हो सकती है? एक
बच्चा खिलखिला कर हंसा, इस
खिलखिलाहट की कोई कीमत हो सकती है? करोड़ रुपए देकर भी किसी बच्चे को तुम
खिलखिलाने के लिए राजी नहीं कर सकते। वह अगर खिलखिला भी दे, तो यह खिलखिलाहट न होगी। वह
सिर्फ बाजार की होगी, अभिनेता
की होगी। रुपए के लोभ में खिलखिला देगा लेकिन होंठ से गहरी न होगी। होंठ पर रंगी
होगी, हृदय से न आएगी। प्राणों की
उत्फुल्लता न होगी। उसमें परमात्मा का वास न होगा।
किसी
की आंख से एक आंसू टपकते देखा? उस
आंसू की क्या कीमत? उस एक
छोटे से आंसू को आदमी पैदा नहीं कर सकता। बस एक छोटे से आंसू में सारे महाकाव्य
छिपे हैं। उस एक छोटे से आंसू में मनुष्य की सारी जीवन-व्यथा छिपी हो सकती है।
मनुष्य के सारे जीवन का आनंद, अहोभाव
छिपा हो सकता है। उस एक छोटे से आंसू में आदमी की सारी बेबसी छिपी हो सकती है। उस
एक छोटे से आंसू में आदमी की सारी प्रार्थना छिपी हो सकती है। एक आदमी की ही नहीं, सारी मनुष्यता की प्रसन्नता
और प्रार्थना और दुख एक छोटे से आंसू में छुपा हो सकता है।
नहीं, हमारी आदत खराब हो गई। हम हर
चीज में मूल्य खोजते हैं। और जहां हमें मूल्य नहीं दिखता, हम देखते ही नहीं। हम सोचते
हैं, यहां क्या रखा है? कुछ मूल्य तो होना चाहिए।
मेरे
पास लोग आ जाते हैं, वे
पूछते हैं ध्यान तो करेंगे, लाभ
क्या होगा?
लाभ।
ध्यान से भी लाभ चाहते हैं। तनख्वाह में बढ़ोतरी हो जाएगी, कि दुकान ज्यादा ठीक से
चलेगी...लाभ क्या होगा? तुम
मंदिर में भी बैंक भी भाषा चलाना चाहते हो? तुम पूछते हो कि ध्यान तो करेंगे लेकिन इससे
बैंक बैलेंस बढ़ेगा कि नहीं बढ़ेगा? तुम
रुपए में ध्यान को भी कूतना चाहते हो?
एक
सम्राट महावीर के पास पहुंच गया था। बड़ा सम्राट था। उसने सब पा लिया जो पाने योग्य
था। लेकिन एक बात उसे खटकती थी--ध्यान। कभी-कभी उसका वजीर उसको बड़ी चोट पहुंचा
देता था। वह कहता कि महाराज और सब तो ठीक है, ध्यान! धन तो पा लिया, सो ठीक है। धन तो कोई भी पा
लेता है। ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे पा लेते हैं; इसमें क्या रखा है? ध्यान? उसे बड़ी चोट लगती थी कि ध्यान
क्या बला है?
फिर
उसने खबर सुनी कि महावीर का आना हुआ। परम ध्यानी का आगमन हुआ है, तो वह गया। उसने महावीर से
कहा; महाराज, इतनी कृपा करो ध्यान दे दो।
जो भी कीमत हो ले लो, सब
चुकाने को राजी हूं। यह वजीर मेरी छाती में तीर छेदता रहता है। मैं उससे यह भी
नहीं पूछ सकता कि ध्यान क्या है? क्योंकि
मैं यह भी स्वीकार नहीं कर सकता कि मुझे पता नहीं कि ध्यान क्या है! मेरा अहंकार
बड़ा है। अब आपसे निवेदन करता हूं, ध्यान
दे दो। किसी भी तरह ध्यान दे दो। और जो तुम कहो, मैं देने को राजी हूं। पूरा
राज्य भी देने को राजी हूं। मैंने अपनी जिंदगी में हार मानी नहीं। जो चीज पानी
चाही, पाकर रहा। अब यह ध्यान पाकर
रहूंगा। सब लगाने को राजी हूं।
महावीर
हंसे। इस पागल को कोई कैसे समझाए कि कोई ऐसी चीजें भी हैं जीवन में जो खरीदी नहीं
जा सकतीं। जिनका कोई मूल्य नहीं होता। तुम सारा राज्य भी दे दो तो भी ध्यान का एक
तिनका भी नहीं खरीद सकते। ध्यान की एक बूंद भी नहीं खरीद सकते। मगर इस पर दया भी
आई। उन्होंने कहा ऐसा करो, मेरे
पास तो राज्य था,
वह मैं
छोड़ चुका। अब राज्य की मुझे कोई चाहत नहीं है। तुम्हारे ही नगर में मेरा एक श्रावक, मेरा एक भक्त है। वह ध्यान को
उपलब्ध हो गया। तुम उससे मांग लो। वह गरीब आदमी है, शायद बेचने को राजी हो जाए।
मेरे तो बेचने का कोई कारण नहीं। तुम जो राज्य दोगे वह तो मैं छोड़ ही चुका हूं, पहले ही छोड़ चुका हूं। इसलिए
मैं तो बेचने वाला नहीं।
महावीर
ने खूब मजाक किया। मैं तो बेचूंगा नहीं। इस आदमी से यह भी उन्होंने नहीं कहा कि यह
बेचने की बात ही नहीं। इस आदमी को ठीक से शिक्षा देना चाहते थे। ठीक जगह से शिक्षा
देना चाहते थे। तो उन्होंने कहा, कि
जल्दी से नाम बता दें। अगर मेरे ही राज्य में रहता है, मेरी राजधानी में रहता है तब
तो कोई बात नहीं। अभी जाकर ले लूंगा। तत्क्षण उसने उस आदमी को बुलवाया और कहा, तुझे जो लेना हो ले ले, लेकिन यह ध्यान दे दे। वह आदमी
हंसने लगा और उसने कहा, उन्होंने
मजाक किया,
आप
समझे नहीं। मैं गरीब हूं तो आप अगर चाहें तो मेरी जान ले लें, प्राण ले लें, जीवन ले लें, मैं तैयार हूं। लेकिन ध्यान? आप बात क्या कर रहे हैं? मैं दूं भी कैसे? देना भी चाहूं तो दूं कैसे? ध्यान कोई चीज तो नहीं, जो खरीदी जा सके। सम्राट ने
कहा, देख! कीमत कुछ भी हो, छिपा मत। चालबाजियां मत कर, कीमत बोल। जितनी मांगेगा उससे
दोगुनी दूंगा। मगर कीमत की बात कर।
कैसे
कोई इन पागलों को समझाए कि कुछ चीजें हैं जिनकी कोई कीमत नहीं होती! प्रेम की, ध्यान की, कोई कीमत होती है? इन्हें कोई खरीद सकता है?
तुम
अपने जीवन में अगर अमोलक को देखना शुरू कर दो तो तुम तैयारी करोगे परमात्मा के पास
जाने की। अमोलक की सीढ़ियां चढ़कर ही कोई परमात्मा के पास पहुंचता है।
दरिया
तहं कीमत नहीं,
उनमन
भया अवाक। चूंकि कीमत कोई भी नहीं थी वहां, मन कुछ भी न सोच पाया। उनमन भया अवाक! मन
एकदम से एक क्षण में अपन हो गया। मन था अभी तक; मन यानी मनन, मन यानी सोचविचार। मनन की
प्रक्रिया का नाम मन। जो सोचता जाता है, मनन करता जाता है, उस प्रक्रिया का नाम मन। उनमन
भया अवाक--वह जो मन अब तक सोचता ही रहता था और जिसको चेष्टा करके भी रोका न जा
सकता था कि रुक जाए। जो रुकने को राजी न होता था, जो सदा मनन ही में लगा रहता
था। जिसकी मनन की धारा जागते-सोते चलती ही रहती थी। अनवरत जो धारा बहती थी। वह
अचानक ठहर गई। उनमय भया अवाक। और मन अमन हो गया।
यह
उनमन शब्द ठीक है,
जो झेन
फकीर जिसको नो-माइंड कहते हैं। जिसको कबीर ने अमनी-दशा कहा है। अनमन भया अवाक।
एकदम, एक क्षण में, एक आधात में, धारा अवरुद्ध हो गई, मनन ठहर गया। मनन ठहर गया तो
मन ठहर गया। जहां मनन र रहा वहां मन न रहा। उनमन भया अवाक। और हो गया अवाक!
आश्चर्य-मुग्ध पहली बार।
अवाक
शब्द बहुत बहुमूल्य है। उसे ठीक से उस पर चिंतन करना, मनन करना, ध्यान करना। अवाक शब्द का
अर्थ है--ऐसा आश्चर्य कि हठात तुम ठगे रह गए। अवाक! बोलती बंद हो गई। वाक खो गया, वाणी खो गई। बोलना चाहो तो
बोल न सको। हिलना चाहो तो हिल न सको। ऐसा विराट आश्चर्य सामने खड़ा हो गया। उस आश्चर्य
के सामने खड़े होने से जैसे सांस तक बंद हो गई। अवाक! एक क्षण को सब स्तब्ध हो गया, मौन हो गया।
रतन
अमोलक परखकर,
रहा
जौहरी थाक
दरिया
तहं कीमत नहीं,
उनमन
भया अवाक
इस
सूत्र में दोनों ही बातें हैं। परमात्मा सामने आ जाए तो ऐसा होता है। ऐसा हो जाए
तो परमात्मा सामने आ जाता है। तो तुम थोड़ा आश्चर्य खोजना शुरू करो।
मेरे
पास लोग आते हैं,
वह
कहते हैं परमात्मा कैसे खोजें? मज
कहता हूं तुम परमात्मा को तो छोड़ो। परमात्मा पर बड़ी कृपा होगी तुम्हारी। तुम
परमात्मा को तो मत खोजो। क्योंकि तुम जिस परमात्मा को खोज रहे हो, वह है ही नहीं। तुम्हारा
परमात्मा भी तुम्हारे मन की ही धारणा है। तुम्हारा परमात्मा भी तुम्हारे मन की
तस्वीर है। तुम्हारा परमात्मा भी तुम्हारे मन का ही खेल और जाल और जंजाल है।
तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे मन की ही धारा को अनवरत रखेगा। तुम्हारा परमात्मा बहुत
परमात्मा नहीं है। तुम्हारा परमात्मा यानी हिंदू का, तुम्हारा परमात्मा यानी
मुसलमान का। तुम्हारा परमात्मा परमात्मा नहीं है। तुम्हारा परमात्मा परमात्मा हो
भी कैसे सकता है?
अभी
तुमने जाना ही नहीं है। अभी अज्ञान में जो तुमने प्रतिमा अपने मन में संजो ली है, वह अज्ञान की ही प्रक्रिया
है। जानोगे तो सारी प्रतिमाएं गिर जाएंगी।
तो तुम
परमात्मा को तो छोड़ दो। तुम मुझसे कोई दूसरी बात पूछो। तुम यह पूछो कि हम
आश्चर्य-अवाक कैसे हों? यह बड़ी
और बात है। परमात्मा को खोजने में क्या करोगे? अगर राम तुम्हारी धारणा में बैठे हैं, धनुर्धारी राम! तो तुम
धनुर्धारी राम को खोजते फिरोगे। वो कहीं तुम्हें मिलेंगे नहीं। और अगर कभी मिल
जाएं तो सावधान रहना। क्योंकि वह तुम्हारी कल्पना का ही फैलाव होगा। अगर बैठे ही
रहे, बैठे ही रहे, सिर फोड़ते रहे दीवालों से और
चिल्लाते रहे राम-राम-राम--और धनुर्धारी राम की कल्पना करते रहे कि अब प्रगटो; अगर बहुत ही शोरगुल मचाया तो
तुम्हारा मन तुम्हीं को सांत्वना देने के लिए धनुर्धारी राम की प्रतिमा को निर्मित
कर लेगा। वह तुम्हारी ही प्रक्षेपण है। यह राम किसी काम के नहीं। इनको धक्का दो तो
गिर जाएंगे। इनका धनुषवाण इत्यादि किसी काम का नह। रामलीला वाला धनुषबाण है। बस, सब ढोंग है। तुम्हारे मन का
ही जाल है।
ऐसा
हुआ एक रामलीला में कि जो आदमी रावण का पार्ट कर रहा था, मैंनेजर नाराज हो गया। तो
उसने कहा,
देखेंगे, वक्त पर मजा चखा देंगे। वक्त
पर उसने मजा चखा दिया। जब सीता के वरण की कहानी आई और धनुष रखा गया और लंका से
दूतों ने आकर चिल्लाया कि रावण! हे रावण! तू यहां क्या कर रहा है! लंका में आग लगी
हुई है। उसने कहा लगी रहने दो। इस बार लंका जले तो जले जाए, मगर सीता को लेकर जाएंगे। बड़ी
घबड़ाहट फैल गई। क्योंकि उसे जाना चाहिए नियम से। और वह सीता ही ले जाए तो रामलीला
खमत। और वह तो किसी की सुने ही नहीं और लोग तो ठगे ही रह गए कि अब करना क्या है? जनक जी भी बहुत घबड़ाए।
रामचंद्र जी भी इधर-उधर बगलें झांकने लगे। लक्ष्मण को भी पसीना आ गया कि यह तो
मुश्किल मामला हो गया। किसी को समझ में न आए कि क्या करें! इस बीच वह उठा और उसने
धनुषवाण तोड़ दिया। अब धनुषबाण क्या था, वो जो रामलीला का धनुषबाण था, कोई असली का तो था नहीं! उसने
तोड़ दिया और कहा जनक से कि निकाल सीता कहां है? उसने सारी रामलीला खराब कर दी। वह तो जनक
बूढ़ा आदमी था पुराना खिलाड़ी था। बहुत दिनों से यही काम करता था। उसने कहा कि ठहर।
भृत्यो! मालूम होता है तुम मेरे बच्चों के खेलने का धनुष उठा लाए। असली धनुष लाओ, पागलो! तब परदा गिराया, किसी तरह रावण को धक्का देकर
बाहर निकाला। फिर असली धनुष लाया गया, फिर नकली रावण लाया गया। दूसरा रावण पकड़ना
पड़ा क्योंकि यह रावण तो काम न आए।
तुम्हारी
कल्पना में जो राम खड़े होंगे, वह
तुम्हारा ही खेल है। वे तुम्हारी ही धारणाएं हैं। या तुम चाहो तो कृष्ण के भक्त हो
तो कृष्ण खड़े हो जाएंगे, बांसुरी
बजाएंगे। और अगर तुम क्राइस्ट के भक्त हो तो क्राइस्ट सूली पर लटके खड़े हो जाएंगे।
और उनके हाथों से तुम्हें खून बहता हुआ मालूम पड़ेगा। कगर उस खून के धब्बे तुम्हारे
कपड़ों पर भी नहीं पड़ेंगे, हृदय
की तो बात और। वह तो सिर्फ कल्पना में ही रहेगा।
परमात्मा
का सच्चा खोजी यह नहीं पूछता कि मैं परमात्मा को कैसे खोजूं? क्योंकि वह यह कहेगा परमात्मा
तो मुझे मालूम ही नहीं है, खोजने
की बात कैसे उठाऊं? यह तो
बात ही बेईमानी की हो गई। परमात्मा ही मालूम होता तो खोजता क्यों? परमात्मा मालूम नहीं है इसलिए
तो खोजना चाहता हूं। इसलिए मैं यह कैसे यह बात शुरू करूं कि परमात्मा को खोजना है?
वइ
इतना ही कहेगा,
जीवन
अज्ञात है। इस अज्ञात जीवन में मैं कैसे प्रवेश करूं? कैसे जानूं, जो है, कैसे जानूं? जो है, उसका कैसे साक्षात्कार हो? वह जो है को नाम भी नहीं
देगा--कृष्ण,राम, क्राइस्ट। नहीं, वह कहोग, जो है। यह जो चारों तरफ विराट
फैला है,
यह
क्या है?
इसे
मैं कैसे जानूं?
इसका
द्वार कहां है?
आश्चर्य
द्वार है। इसलिए छोटे बच्चे परमात्मा के ज्यादा निकट होते हैं। क्योंकि उनकी आंखें
अब भी आश्चर्य-विमुग्ध होती हैं। स्त्रियां पुरुषों के बजाय परमात्मा के ज्यादा
निकट होती हैं। उनकी आंखें आश्चर्य से इतनी रिक्त नहीं होतीं, जितनी पुरुषों की होती हैं।
पंडित के बजाय अज्ञानी परमात्मा के ज्यादा निकट होते हैं। क्योंकि उनकी आंखें अभी
भी रहस्यपूरित होती हैं। अभी भी सब रहस्य समाप्त नहीं हो गया। पंडित ने तो सब जान
लिया। वह तो कहता है, मुझे
सब मालूम है। जिसे सब मालूम है उसे कुछ भी मालूम नहीं होगा। इसलिए पांडित्य से बड़ा
पाप नहीं है। क्योंकि पांडित्य आश्चर्य को नष्ट कर देता है। और आश्चर्य द्वार है।
अगर यह भ्रांति पैदा हो गई कि मुझे सब मालूम है, क्योंकि मैं वेद जानता, कुरान जानता, बाइबिल जानता, तो तुम परमात्मा से चूकते
जाओगे। वेद-कुरान रखे बैठे रहना। जैसे वेद-कुरान मुर्दा हैं वैसे तुम भी उनके पास
बैठे-बैठे मुर्दा हो जाओगे।
परमात्मा
को खोजना हो तो यह जो जीवन तुम्हारे चारों तरफ फैला है, यह जो पक्षियों के कंठ में, यह जो वृक्षों की शाखाओं में, यह जो फूलों के रंग में, यह जो सागर की तरंगों में, यह जो पहाड़ों की ऊंचाइयों में, यह जो घाटियों की गहराईयों
में, यह जो चारों तरफ विस्तीर्ण है, यह जो विराट...चारों तरफ से
तुम्हें घेरा है। बाहर और तुम्हारे भीतर भी जो बैठा है, इसको...कैसे हम संबंध जोड़ें
इससे?
आश्चर्य
से संबंध जुड़ता है। इसलिए आश्चर्य-विमुग्धता धार्मिक आदमी का द्वार है। आश्चर्य-विमुग्धता!
आश्चर्य की आंखों से देखो, ज्ञान
की आंखों से नहीं। निर्दोष आश्चर्य से देखा तो तुम्हें हर जगह चरण-चिह्नमालूम
पड़ेंगे। छोटी-छोटी चीजें रहस्यपूर्ण हो जाएंगी। रहस्यपूर्ण हैं। सिर्फ तुमने ही
मान रखा है कि रहस्यपूर्ण नहीं।
आदमी
जानता क्या है?
एक भी
बात तो जानते नहीं हम। सारी मनुष्य जात के इतिहास में जो हमने जाना है, वह है क्या? कुछ भी तो जाना नहीं। एक छोटे
से वृक्ष के पत्ते का राज भी पता नहीं। बीज कैसे अंकुर बनता है, यह भी पता नहीं। रोटी कैसे
जाकर खून बन जाती है, मुर्दा
चीज कैसे जीवंत हो जाती है, यह भी
पता नहीं। एक छोटा बच्चा मां के टेट में कैसे बढ़ता है यह भी पता नहीं। एक छोटा सा
विचार तुम्हारे भीतर कैसे तरंगित होता है यह भी पता नहीं। कुछ भी पता नहीं है।
ज्ञानियों
ने कहाहै,
अज्ञान
द्वार है। क्यों?
उपनिषद
कहते हैं,
जो
जानता है,
जानना
कि नहीं जानता। जो नहीं जानता, जानता
कि जानता होगा। क्यों? नहीं
जानने में ऐसी क्या गुणवत्ता है? नहीं
जानने की गुणवत्ता है--आश्चर्य। क्योंकि जब तुम नहीं जानते, तुम्हें हर चीज पुलक से भर
देती है। हर चीज आश्चर्य से भर देती है।
किसी
छोटे बच्चे के साथ घूमने गए हो समुद्र के तट पर, या पहाड़ों में? कितने प्रश्न उठाता है छोटा
बच्चा! हर चीज--देखा मोर, इनके
पंखों पर इतने रंग क्यों हैं? यह
देखा एक पक्षी को उड़ता और पूछता है मैं क्यों नहीं उड़ सकता? आदमी क्यों नहीं उड़ सकता? बेबूझ सवाल उठाता है। तुम
घबड़ाते भी हो। तुम उसे चुप भी करना चाहते हो। तुम कहते हो, चुप हो जा। बड़ा होगा तो सब
जान लेगा। तुम्हें भी पता नहीं बड़े होकर। तुम सिर्फ उसे चुप कर रहे हो, ऐसे तुम्हारे पिता ने तुम्हें
चुप किया था। और तुम्हें बेचैनी क्यों होती है छोटे बच्चे के प्रश्नों से? बेचैनी इसलिए होती है कि
तुम्हें भी उत्तर तो मालूम नहीं। यह बच्चा तुम्हारे ज्ञान को खंडित करता है। यह
बच्चा तुम्हारे ज्ञान पर शंका और संदेह उठाता है। यह बच्चा तुम्हारे ज्ञान पर
प्रश्नचिह्न लगाता है, कि अरे
पिताजी! आपको भी पता नहीं कि मोर के पंख पर इतने रंग क्यों हैं? आपको और पता नहीं? यह आपके अहंकार को नीचे घसीट
रहा है। यह कह रहा है अरे! तुम भी फिर मेरे ही जैसे हो! जैसा है अज्ञानी, वैसे तुम अज्ञानी! नाहक का
ढोंग बांधते हो,
नाहक
जोर-जबरदस्ती दिखलाते हो कि तुम्हें पता है। इसलिए तुम बच्चे से कहते हो, बड़ा हो जाएगा तुझे भी पता
होगा।
बड़े
होने से किसी को पता नहीं होता। बड़े होने से एक ही बात हो जाती है कि बड़े होने पर
आदमी अहंकारी हो जाता है और नहीं पता है यह कहने में असमर्थ हो जाता है बस! वह भी
कहेगा हां,
कि
मुझे पता है। अपने बेटों के सामने उसको भी अपनी हिम्मत तो कायम रखनी पड़ेगी। नहीं
तो छोटे बच्चे खतरनाक हैं। छोटे बच्चों को परमात्मा खूब सिखा-पढ़ा कर भेजता है कि
जिन-जिन का ज्ञान हो उनको डगमगाना। जो-जो अकड़ गए हों ज्ञान में, उनको जरा हिलाना। कहते हैं, बच्चा जब तक नहीं बोलता तब तक
परमात्मा के बहुत करीब होता है।
कल मैं
एक अनुभव किताब देख रहा था। आइंस्टीन के जीवन पर है। लेखक ने एक बड़ी महत्वपूर्ण
बात कही है। आइंस्टीन तीन साल का हो गया तब तक बोला नहीं। कई बच्चे देर से बोलते
हैं, यह कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन
लेखक ने यह बात उसमें उठाई है कि शायद इसीलिए जीवन में वह इतना बड़ा वैज्ञानिक हो
सका क्योंकि तीन साल तक चुप रहा, बोला
नहीं। वह तीन साल तक आश्चर्यविमुग्ध रहा। वह आश्चर्यविमुग्धता ही उसके भीतर
व्यक्तित्व बन गई,
उसकी
प्रतिमा बन गई।
यह बात
मुझे जंची। यह बात ठीक है। यह बात सच है। इसलिए तो महावीर बारह वर्ष तक मौन हो गए
जंगल में जाकर। तुम क्या सोचते हो, किसलिए मौन हो गए? मौन होने का मतलब क्या है? मौन होने का अर्थ है? पांडित्य का त्याग। मौन होने
का अर्थ है,
भाषा
का त्याग। भाषा में सारा ज्ञान है। जब भाषा गई तो ज्ञान गया। इस तरह किसी जैन ने
सोचा नहीं कि महावीर मौन क्यों हो गए! मौन होने का मतलब है कि भाषा त्याग दो। भाषा
त्याग दी मतलब जो भी जानते थे, वह
त्याग दिया। जब जानना त्याग दिया जाता है तो आश्चर्य का आविर्भाव होता है। तो फिर
से बालक हो गए। नव जन्म हुआ। द्विज बने। मौन दिज बनाता है। बारह वर्ष अपूर्व आनंद
लिया होगा महावीर ने। बारह वर्ष लंबा समय है। बारह वर्ष में बिलकुल उन्होंने सारी
धूल झाड़ दी। रंजी सास्तर ग्यान की। एकदम निष्कपट, निष्कलूष, निर्दोष बालक की तरह पैदा
हुए। उसी निर्दोषता में जाना जाता है। तो जब जाना जाता है तब मन अवाक हो गया है।
तुम अवाक होना सीख जाओ तो तुमने जानने की कला सीख ली।
धरती
गगन पवन नहीं पानी, पावक
चंद न सूर
रात
दिवस की गम नहीं जहां ब्रह्म रहा भरपूर
और
कहते हैं दरिया,
वहां न
तो धरती है,
न गगन
है, न पानी है, न पवन है, न अग्नि है, न चांद है, न सूरज है। वहां सब
भिन्न-भिन्न बातें एक अभिन्न में खो जाती हैं। वहां सरी सीमाएं जो हमने अलग-अलग कर
रखी हैं कि यह रही धरती यह रहा आकाश...।
तुमने
कहीं देखी जगह,
जहां
धरती और आकाश अलग होते हैं? कहां
अलग होते हैं?
आकाश
में समाया है,
धरती
आकाश में है। अलग कहां है? यहां
अलग कुछ है ही नहीं। सभी चीजें जुड़ी हैं। अभी वृक्ष पर एक फल लगा, कल तुम उसका भोजन कर लोगे।
अभी जो वृक्ष में था वह कल तुम में हो जाएगा। फिर एक दिन तुम मरोगे। और तुम्हारी
लाश जमीन में दबा दी जाएगी। और वृक्ष खड़ा है, राह देख रहा है कि तुमने उसके फल खाए, वह अब तुम्हारे फल खा ले। वह
जल्दी से तुम्हारी लाश में से जो-जो पाने योग्य है, चूस लेगा। क्या अलग है? यहां हम जुड़े हैं। मैंने सांस
ली, कहता था मेरी सांस, कह भी नहीं पाया कि तुम्हारी
हो गई। तुमने सांस ली, अभी
तुम ले भीन पाए थे कि बाहर निकल गई; दूसरे की हो गई, पड़ोसी की हो गई। हम जुड़े हैं।
यह सारा अस्तित्व एक साथ तरंगित है। यह एक ही सागर है।
धरती
गगन पवन नहीं पानी, पावक
चंद न सूर
सारे
भेद गिर गए। अब तय करना मुश्किल है कि क्या अग्नि है, और क्या वायु है और क्या धरती
है और क्या आकाश!
कबीर
ने कहा है,
एक
अचंभा मैंने देखा नदिया लागी आगी। यही बात कही है। कबीर अपने ढंग से कहते हैं।
कबीर के ढंग बड़े अनूठे हैं, उलटबांसी
हैं। एक अचंभा मैंने देखा नदिया लागी आगी! नदिया में आग लगी! अब नदिया में हमने आग
लगी कभी नहीं देखी। किसी ने भी नहीं देखी। नदिया में कहीं आग लगती है? तो कबीर यह कह रहे हैं, जिनका अभी मिलन नहीं होता है, उनको मिलते देखा है। जिनको
कभी मिलते नहीं देखा, उनको
मिलते देखा है। जीवन मृत्यु को साथ नाचते देखा है। एक अंचभा मैंने देखा नदिया लागी
आगी।
धरती
गगन पवन नहीं पानी, पावक
चंद न सूर
रात
दिवस की गम नहीं,
जहां
ब्रह्म रहा भरपूर
और
जहां ब्रह्म भरपूर है, वहां
इतनी भी जगह नहीं है कि रात और दिन का द्वैत भीतर प्रविष्ट हो जाए। दो की वहां जगह
नहीं है। रात और दिन प्रतीक हैं दो के, द्वैत के, द्वंद्व के। चाहे जीवन और
मृत्यु कहो,
चाहे
सुख-दुख कहो,
चाहे
रात-दिन कहो,
चाहे
सर्दी-गर्मी कहो। दो की वहां कोई गुंजाइश नहीं है। इतनी भी जगह नहीं है दो को, कि जरा सी जगह पा जाएं और सरक
जाएं भीतर। जहां ब्रह्म रहा भरपूर। जहां ब्रह्म की पूरी वर्षा होती है वहां दो की
कोई जगह नहीं। वहां बस एक है।
शबे
फुरकत में सदा,
मायले
बेदाद रहे
मूरित-ए-जुल्मो
सितम खस्ता औ बरबाद रहे
इश्क
के गम में सदा,
बादिल-ए-नाशाद
रहे
हालत-ए-रंजो
अलम, क्यों न हमें याद रहे
आंख से
लख्ते जिगर हमने टपकते देखे
तेरे
हर रंग में एक नाच है, रानाई
है
नक्श
हर दिल में तेरे सूरते-ए-रक्ताई है
देखता
हूं जिसे मैं वह तेरा सौदाई है
एक आलम
तेरे इस हुस्न का सेदाई है
जिसपे
मोती से पसीने के चमकते देखे
मेरे
दिल में निहां आतिश-ए-उल्फत तेरी
मेरे
रग-रग में है पैबस्ता मुहब्बत तेरी
मैं
समझता हूं अदाएं है कमायत तेरी
मुझ पे
रोशन है हकीकत तेरी, ताकत
तेरी
दिल
हजारों तेरी उल्फत में कसकते देखे
साकिया, जाम-ए-मयवस्ल पिला दे मुझको
होश
लेकर अभी दीवाना बना दे मुझको
मय-ए-गुलरंग
के सागर वो पिला दे मुझको
अश्क
ने जो तेरी महहिल में छलकते देखे
साकिया, जाम-ए-मय-ए-वस्ल पिला दे
मुझको
ओ साकी, मिलन की मदिरा मुझे पिला दे।
मिलाप की मदिरा मुझे पिला दे। जहां आलिंगन घटित हो जाए, जहां हम मिलें और एक हो जाएं, ऐसी शराब मुझे पिला दे।
साकिया
जाम-ए-मय-ए-वस्ल पिला दे मुझको
जैसे
दो प्रेमी किसी प्रेमक के गहन क्षण में एक हो जाते हैं--वस्ल! ऐसा घट जाए। ऐसी
बेहोशी मुझे पिला दे। क्योंकि मेरे होश में तो न घटेगा। मेरे होश में तो न घटेगा।
मेरे होश में तो मैं दूरी बचाए रखूंगा।
साकिया
जाम-ए-मय-ए-वस्ल पिला दे मुझको
होश
लेकर अभी दीवाना बना दे मुझको
यह होश
तो महंगा है,
यह तू
ले ले। यह होश तो मेरी मुश्किल है, यह तू ले ले। इस होश के कारण ही तो मैं
अलग-अलग बना हूं,
यह तू
ले ले। यह होश की समझदारी मुझसे छीन ले। मुझे बेहोशी की नास समझी दे दे। भक्त ने
यही मांगा है सदा,
मुझे
बेहोशी की नास समझी दे दे। यह समझदारी तू रख। यह तू ही संभाल। यह ज्ञान तू संभाल।
मुझे अज्ञान दे दे। मुझे निर्दोष अज्ञान दे दे।
साकिया
जाम-ए-मय-ए-वस्त पिता दे मुझको
होश
लेकर अभी दीवाना बना दे मुझको
साज को
छेड़कर एक गीत सुना दे मुझको
मय-ए-
गुलरंग के सागर को पिता दे मुझको
रंगीन
मदिरा में मुझे डुबा दे
अश्क
ने जो तेरी महफिल में छलकते देखे
अगर
तुम परमात्मा की महफिल को गौर से देखो तो सब तरफ तुम्हें मदिरा छलकती हुई दिखाई
पड़ेगी। सिर्फ आदमी चूका जाता है।
अश्क
ने जो तेरी महफिल में छलकते देखे
फूल
में उसकी मदिरा है। पक्षियों में कंठ में उसकी मदिरा है। आदमी को छोड़कर सारा जगत
उसकी मदिरा में तल्लीन है। सारा जगत उसके गीत को सुन रहा है, आदकी को छोड़कर।
आदमी
की क्या अड़चन है?
आदमी
का क्यों ऐसा दुर्भाग्य है? जो
सौभाग्य हो सकता था वही दुर्भाग्य बन गया है। सौभाग्य हो सकी थी यह बुद्धि, अगर यह तुम्हें और आश्चर्य की
तरफ ले जाती। यह बुद्धि दुर्भाग्य बन गई क्योंकि इसने सारे आश्चर्य को खंडित कर
दिया। यह बुद्धि तुम्हें आश्चर्य के द्वार से परमात्मा तक ले जाने का परम राज बन
सकतीथी। मगर अधिक लोगों के लिए यह बुद्धि ही परमात्मा के और मनुष्य के बीच दीवार
बन गई। यह बुद्धि दुधारी तलवार है। यह तुम्हें बचा भी सकती थी, यह तुम्हें काट भी सकती है।
जैसे छोटे बच्चे के हाथ में कोई तलवार दे दे, खतरा ही होगा, लाभ नहीं होनेवाला। ऐसी ही
कुछ हालत आदमी के साथ है। अभी तक अदमी बुद्धि का ठीक उपयोग नहीं सीख पाया। बुद्धि
से सिर्फ अहंकार को निर्मित करता है। बुद्धि से सिर्फ अकड़ को निर्मित करता है।
बुद्धि से और दूर होता जाता है विराट से। बुद्धि से धीरे-धीरे एक छोटा सा संकीर्ण
द्वीप बन जाता है। महाद्वीप हो सकता था, मगर वह महाद्वीप होना तो सिर्फ विराट के साथ
ही घटता है।
साकिया
जाम-ए-मय-ए-वस्ल पिला दे मुझको
होश
लेकर अभी दीवाना बना दे मुझको
साज को
छेड़कर एक गीत सुना दे मुझको
मय-ए-गुलरंग
के सागर को पिला दे मुझको
अश्क
ने जो तेरी महफिल में छलकते देखे
ब्रह्मरहा
भरपूर। दरिया कहते हैं, अब एक
ही बचा,
बस
ब्रह्म ही बचा है। रात गई, दिन
गया, सुख गए, दुख गए, शांति-अशांति गई, अपने-पराए गए, जीवन मृत्यु गई। अब वहां दो
का कोई प्रवेश नहीं, जहां
ब्रह्म रहा भरपूर।
पाप-पुण्य
सुख-दुख नहीं जहां कोई कर्म न काल
जन
दरिया जहं पड़त है हीरों की टकसाल
पाप-पुण्य
सुख-दुख नहीं। अब कोई द्वंद्व नहीं बचा। न कुछ पाप है, न कुछ पुण्य है।
यह वचन
क्रांतिकारी है। क्योंकि साधारणतः हम सोचते हैं कि धार्मिक आदमी पुण्यात्मा!
धार्मिक आदमी पुण्यात्मा नहीं, धार्मिक
आदमी पुण्य के भी पार है। पुण्यात्मा तो इसी जगत का हिस्सा है। पानी की दुनिया का
ही हिस्सा है क्योंकि द्वंद्व का हिस्सा है। पुण्यात्मा, अभी पूरा-पूरा धार्मिक नहीं
है। पापी किसे कहते हो? जिसने
बुरा किया। पुण्यात्मा किसे कहते हो? जिसने भला किया। बुरे करने की भी अकड़ होती
है और भले करने की भी अकड़ होती है। दोनों से अहंकार निर्मित होता है।
सच तो
यह है,
दुर्भाग्य
की बात,
मगर सच
है, कि अकसर भला करने से ज्यादा अहंकार
निर्मित होता है। पापी तो थोड़ा संकोच भी करता है, डरता भी है, भयभीत भी होता है, कहीं कोई कांटा चुभता भी है।
पुण्यात्मा को तो कोई कांटा नहीं चुभता। उसका अहंकार तो बिलकुल शिखर पर बैठा होता
है। इतने उपवास किए, इतने
व्रत किए,
इतना
दान किया,
इतना
मंदिर मस्जिद बनाए, अब
क्या अड़चन है उसको अहंकार की घोषणा करने में? उसका अहंकार तो सिंहासन पर विराजमान होता
है। उसके हाथ में जंजीरें हैं, मगर
सोने की। पापी के हाथ में जंजीरें हैं लोहे की। लोहे की जंजीरे तो अखरती हैं
क्योंकि जंजीरें मालूम होती हैं। सोने की जंजीरें तो आभूषण मालूम होने लगती हैं।
इसलिए लोग सोने की जंजीरों में जिस बुरी तरह जकड़ते हैं, उतनी बुरी तरह लोहे की
जंजीरों में नहीं जकड़ते।
तुमने
सुना होगा,
तुमने
पढ़ा होगा। सारे मनुष्य जाति के इतिहास में ऐसी घटनाएं और कहानियों के उल्लेख हैं।
जब कभी-कभी पापी क्षणभर में मुक्त हो गया। लेकिन मैंने बहुत खोजा, मुझे एक ऐसी घटना नहीं मिली
जिसमें पुण्यात्मा क्षणभर में मुक्त हो गया हो, मैं बड़ा चकित हुआ। मैं खोजता रहा हूं। सारे
पुरान छान डाले कि कभी तो ऐसा हुआ हो जैसे कि वाल्मिकी हुआ। हत्यारा, पानी, खूनी, लुटेरा और वाल्या से एकदम ऋषि
वाल्मिकी हो गया। एक क्षण में हो गया?
और
अंगुलिमाल हुआ बुद्ध की कथाओं में। महा हत्यारा! नौ सौ निन्यानबे आदमी मार डाले
थे। और मार ही नहीं डाले थे, उनकी
उंगलियां अपने गले में पहनता था इसलिए नाम अंगुलिमाल पड़ गया था। और एक हजार का
व्रत लिए बैठा था कि एक को और मारना है। कोई उसके पास नहीं जाता था। उसकी मां तक
डरती थी उसके पास,
जाने
में क्योंकि वह ऐसा आदमी था कि अगर उसको एक की कमी पड़ रही हो और दूसरा कोई नहीं
मिले तो वह मां को मार डाले। यह अंगुलिमाल बुद्ध के मिलन से एक क्षण में रूपांतरित
हो गया। एक क्षण में!
लेकिन
ऐसी कोई कथा मुझे पुण्यात्मा की न मिली। मैं बड़ा हैरान होता रहा की बात क्या है? कथा लिखनेवाालों ने
पुण्यात्माओं के साथ बड़ी ज्यादती की। मगर कारण है; पुण्यात्मा एक क्षण में मुक्त
हो नहीं सकता। उसकी जंजीरें सोने की हैं। वह छोड़ना भी चाहेगा तो एक मन पकड़ना चाहेगा।
वह छोड़ते-छोड़ते भी पकड़ता रहेगा। वह आखिरी दम तक उनको बचाने की कोशिश करेगा। कोई
उपाय हो बचाने का तो बचाले उसका कारागृह महल का कारागृह है, बहुमूल्य है। पापी तो छोड़ने
को तैयार ही हो जाता है क्योंकि उसमें कुछ पा ही नहीं रहा, सिवाय दुख के।
लेकिन
गौर से देखना,
पापी
भी अकड़ रखता है अपनी। अगर तुम कभी जेलखाने
जाओ, तो तुम्हें पता चले कि वहां
लोग अपने-अपने जुर्मों को बड़ी बढ़ चढ़कर बात करते हैं। जितना नहीं किया उतनी बढ़-चढ़कर
बात करते हैं। जिसने एकाध चोरी की वह कहता है अरे, हजारों कर चुके! जिसने किसी
एक-आध को मार डाला, वह
कहता यह तो अपने बाएं हाथ का काम है।
जिसको कहो उसको क्षणभर में उड़ा दें। अगर कभी तुम अपराधियों के पास बैठो तो चकित
होओगे। वे भी अपने अपराध की बढ़-चढ़कर बात
करते हैं वैसे,
जैसे
तुम्हारे महात्मा करते हैं अपने पुण्य की बढ़-चढ़कर बात। हिसाब-किताब वे भी रखते हैं
और वह भी खूब बढ़ा-चढ़ाकर रखते हैं।
क्या
कारण होगा?
अपराधियों
के बीच बड़ा अपराधी होने का मजा है। जैसे महात्माओं के बीच बड़ा महात्मा होने का मजा
है। बात तो वही है, तर्क
तो वही है, गणित तो वही है, तराजू भी वही है, मन वही है। अगर यही होड़ लगी
हो कि कौन सबसे बुरा आदमी है तो तुम सबसे ज्यादा बुरा आदमी होना चाहोगे। अगर यह
होड़ लग जाए कि कौन सबसे भला आदमी है तो तुम सबसे भले आदमी होना चाहोगे। जो होड़ लग
जाए उसी में आदमी पड़ जाता है मगर एक बात हम जीवन भर चेष्टा करते हैं कि मैं कुछ
विशिष्ट हूं। मैं कुछ खास हूं, मेरे
जैसा कोई और दूसरा नहीं। मैं अद्वितीय हूं। यह जो अहंकार की धारणा है कि मैं
अद्वितीय हूं,
यही
परमात्मा से नहीं मिलने देती। उससे तो वही मिलते हैं, जो झुकते हैं। जो अपने इस मैं
को उतार कर रख देते हैं।
पाप
पुण्य सुख-दुख नहीं जहां कोई कर्म न काल
जन
दरिया जहं पड़त है हीरों की टकसाल
दरिया
कहते हैं न तो वहां कोई पाप है न कोई पुण्य है। परमात्मा को देखा, न वहां कोई पाप देखा, न कोई पुण्य देखा। न कोई सुख देखा न दुख देखा। उसी अवस्था में आनंद झरता
है, वहां सुख-दुख नहीं होते।
तुम्हारे शब्दकोशों में आनंद का अर्थ लिखा है: सुख, महासुख, खूब सुख, बहुत सुख! मगर सुख और आनंद
में कोई ऐसा भेद नहीं है कि सुख छोटा सुख और आनंद बड़ा सुख। भेद परिमाण का नहीं है, भेद गुण का है। आनंद बात ही
और है। वहां सुख नहीं है, जैसे
दुख नहीं है। सुख-दुख दोनों गए तब जो परम शांति विराजमान हो जाती है। जहां न दुख
की तरंगें उठती हज, न सुख
की तरंगें। उठती हैं। क्यों? क्योंकि
दुख की तरंगें भी दुख देती हैं और सुख की तरंगें भी दुख देती हैं। तुम ज्यादा देर
सुखी भी नहीं रह सकते क्योंकि सुख भी उत्तेजना है। तुम गौर से देखो! आज तुम्हें
लाटरी मिल जाए ठीक है, लेकिन
हर महीने दो महीने में लाटरी मिलने लगे, तुम्हारा हार्ट फेल होगा। पहले तो डर यही कि
पहली दफा में हो जाएगा। अगर बच गए किसी तरह, तो दूसरी दफे में हो जाएगा।
मैंने
सुना है,
एक
रूसी कहानी है। एक दर्जी है, गरीब
आदमी। बस उसका एक ही शौक है कि हर महीने एक रुपया वह लाटरी में लगा देता। ऐसा
वर्षों से लगा रहा, कोई
बीस साल बीत गए। न कभी उसे मिली, न उसे
अब कोइ खयाल है कि मिलेगी, मगर
आदतन हर महीने जब उसको उसकी तनख्वाह मिलती, एक रुपया वह लाटरी में लगा देता। यह एक
धार्मिक कृत्य हो गया उसके लिए कि लगा देना एक। होगा तो होगा, नहीं होगा तो नहीं होगा। जाता
भी कुछ नहीं।
एक दिन
हैरान हुआ,
सांझ
को द्वार पर लोग आए, रथ
रुका। हंडे भरे हुए रुपए आए। वह तो घबड़ा गया। उसने कहा कि महाराज, यह क्या मामला है? उन्होंने कहा, तुम्हें लाटरी मिल गई। उसे दस
लाख रुपए मिल गए। उस रात तो सो नहीं सका।
हर रात आराम से सोता था। उस रात तो करवट ले, बहुत सोने की कोशिश की, न सो सका। दस लाख! पगलाने
लगा। सुबह तो आकर उसने अपना दुकान-दरवाजा बंद कर दिया, ताला लगाकर उसने चाबी कुएं
में फेंक दी कि अब करना ही क्या है? बात खतम हो गए अब मजा करेंगे। उसने खूब मजा
किया। मजा करने की जो धारणा है आदमी की वह ही किया। वेश्याओं के घर गया, स्वास्थ्य तक खराब हुआ, शराब पी। कभी बीमारियों से
ग्रसित न हुआ था,
सब तरह
की बीमारियां आने लगीं। जुआ खेला। जो-जो उसको ख्याल में था सुख...।
तुम भी
सोचो, अगर तुमको दस लाख मिल जाएं तो तुम क्या करोगे? तत्क्षण तुम्हारे सामने
पंक्तिबद्ध विचार खड़े हो जाएंगे। कि फिर ऐसा है, तो फिर ये कर गुजरें। और तुम
भी वही करोगे जो दर्जी ने किया। वही...थोड़े हेर-फेर से। जुआ खेलोगे, शराब पिओगे, वेश्यओं के पास जाओगे। और
करोगे क्या?
और सुख
है भी क्या?
यही
कुछ दो-चार बातें सुख मालूम होती हैं।
बढ़िया से बढ़िया कार खरीद ली, बढ़िया
से बढ़िया मकान खरीद लिया, बढ़िया से बढ़िया वस्त्र बना
लिए।
साल भर
मैं दस लाख फूंक डाले। और साल भर में अपना स्वास्थ्य भी फूंक डाला और अपनी शांति
भी फूंक डाला। साल भर के बाद कुंए में उतरा अपनी चाबी खोजने क्योंकि अब फिर दुकान चलानी
पड़ेगी। कभी इतना दुखी नहीं था, जैसा
दुखी हो गया। किसी तरह चाबी खोज कर लाया। अपनी दुकान खोली, फिर दरजीगिरी शुरू हुई। अब मन
भी न लगे। पहले तो कभी अड़चन न आई थी।
सीधा-साधा आदमी था, ज्यादा
कोई कमाई भी न थी,
उपद्रव
भी कोई ज्यादा नहीं हो सकता। सामान्य जिंदगी थी, तब ठीक से चलता था, यह साल भर में जो नहीं हो
सकता। सामान्य जिंदगी थी, तब ठीक से चलता था, यह साल भर में जो देखा--यह दुख-स्वप्न!
कहीगे तो तुम इसको सुख-स्वप्न लेकिन है यह दुख-स्वप्न। जो साल भी में देखा यह उसकी
जिंदगी क्षार-क्षार कर गया। अब मन भी न लगे।
अब तो
उसने कसम खा ली कि अब दुबारा लाटरी मिलेगी तो लूंगा ही नहीं। मगर पुरानी आदत और
पुराना रस! यही तो आदमी की झंझट है। तुम
कसम भी खा लो तो वही किए जाते हो जो तुम करते रहे हो। वह एक रुपया लगाता रहा हर
महीने। और साल बीतते-बीतते जब किसी तरह फिर से व्यवस्थित हुआ जा रहा था। काम-धंदा
फिर ठीक चलने लगा था। स्वास्थ्य भी जरा ठीक हुआ था सब। शांति बननी शुरू हो रही थी।
फिर एक दिन वह आकर रथ रुक गया द्वार पर। उसने अपनी छाती पीट ली कि मारे गए! आदमी
की अड़चन समझो--मारे गए, कहता
है। कि फिर हे भगवान! फिर! अब जानता भी है कि जो हुआ था उस साल में वह फिर से
होगा। मगर इंकार भी नहीं कर सकता है। लाटरी फिर ले ली। फिर द्वार पर ताली लगा दी, फिर कुएं में फेंक दी और अब
जानता है कि ज्यादा साल भर से चलने का नहीं है। और फिर उतरना पड़ेगा कुएं में।
यही तो
हम सब कर रहे हैं! जो रोज-रोज किया है, रोज-रोज दुख पाया है। फिर भी करते हैं। कल
भी क्रोध किया था,
आज भी
करोगे। कल भी लोभ किया था, आज भी
करोगे। कल भी कष्ट पाया था, आज भी
पाओगे। और छाती पीट रहा है और घबड़ा भी रहा है और लाटरी देनेवाले उससे पूछ रहे हैं
अगर तू इतना परेशान हो तो न ले। दान कर दे। उसने कहा, अब यह भी नहीं होता। मगर मारे
गए! हे प्रभु,
ये
तूने दिन क्यों दिखाया? ऐसी
आदमी की दशा है। और साल भर में वह मारा गया, साल भर में वह मारा गया। साल भर में बहुत
बुरी हालत हो गई उसकी। और जब दुबारा कुएं में उतरा तो फिर निकला नहीं। शरीर ज्यादा
खराब हालत में हो गया था। कुएं में गए सो गए!
सोचना
इस पर,
विचारना
इस पर। दुख की तो हम जानते हैं बात दुखद है, लेकिन सुख की कोई बहुत सुखद है? सुख भी बड़ा दुखदायी है। सुख
ही अपनी पीड़ा है,
कितनी
ही मीठी लगे पीड़ा लेकिन सुख भी जहर रखना है अपने में। जहर कितना ही मीठा हो, मिठास तो ऊपर-ऊपर होती है, भीतर तो प्राणों को काट जाता
है। परमात्मा का अनुभव न तो सुख का अनुभव है, न दुख का अनुभव। परमात्मा का अनुभव शांति का
अनुभव है। उस परम शांति का नाम है आनंद। वह गुणात्मक रूप से सुख-दुख दोनों से
भिन्न है। वहां द्वंद्व नहीं है। वहां एक का वास है।
जहां
कोई कर्म न काल।
और
वहां कोई कर्म भी नहीं है, कोई
कर्ता भी नहीं है। वहां कोई कर्म नहीं है कोई समय भी नहीं है। कोई मृत्यु भी नहीं
है। वहां कोई जीवन और जन्म भी नहीं है। जो-जो हमने यहां जाना है, वहां कुछ भी नहीं है। जो-जो
हमने जाना है ,
वहां
कुछ भी नहीं है। जो-जो हमने जाना है, सब शांत हो जाता है। और बिलकुल अनजान का
अनुभव होता है इसलिए तो मन अवाक हो जाता है।
दरिया
तहं कीमत नहीं उनमन भया अवाक
रतन
अमोलक परखकर रहा जौहरी थाक
जन
दरिया जहां पड़त है हीरों की टकसाल
तो फिर
यह परमात्मा क्या है? यह
टकसाल है,
जहां से
सब आता है। जैसे टकसाल से हीरे आते हैं या टकसाल से सिक्के आते हैं। जहां से सब
सिक्के आते हैं। जहां से सब सिक्के ढाले जाते हैं। और फिर जहां सारे सिक्के वापिस
पिघल जाते हैं।
तुमने
देखा टकसाल में?
रुपए
ढाले जाते हैं,
फिर जब
रुपए खराब हो जाते हैं, घिस-पिस
जाते हैं,
फिर
वापिस लौट जाते हैं फिर टकसाल में जाकर उनको पिघला लिया जाता है। फिर नए सिक्के
ढाल दिए जाते हैं। टकसाल का अर्थ है, जहां सारे सिक्के ढलते हैं और जहां सारे
सिक्के फिर बिखर जाते हैं। फिर-फिर ढाले जाते हैं। परमात्मा परम स्रोत है। वहां से
सब आता है और वहीं सब वापिस लौट जाता है।
जीव
जीत से बीछड़ा घर पंचतत का भेख दरिया जन घर आइया पाया ब्रह्म अलेख
मनुष्य
बिछड़ा है परमात्मा से क्योंकि उसने इस पंचतत्व के रूप का बहुत ज्यादा अपने साथ
तादात्म्य कर लिया है। वह सोचता है, मैं देह हूं। यह जो पांच तत्वों से बनी हुई
देह है,
यही
मैं हूं। इस अति आग्रह के कारण कि मैं देह हूं, वह उस परमतत्व से अलग हो गया। अलग हुआ नहीं
है एक क्षण को भी। हो नहीं सकता है। अलग होकर जाएगा कहां? अलग होने का कोई उपाय नहीं है
सिर्फ भ्रांति पैदा होती है कि मैं अलग हूं। सिर्फ एक खयाल है कि मैं अलग हूं।
जीव-जात
से बीछड़ा...
दरिया
कहते हैं,
हम सब
की जात ब्रह्म है। हम सब ब्रह्म हैं। हम सब परमात्मा हैं। वह हमारी मूल जात है। न
ब्राह्मण,
न
हिंदू,
न
शूद्र,
न
क्षत्रिय,
न
वैश्य,
न
मुसलमान,
न
ईसाई। हमारी जात है, ब्रह्म।
जीव-जात
से बीछड़ा घर पंचतत्त का भेख
यह जो
पांच तत्वों का भेष रख लिया है और इस भेष को ही अपना सब कुछ समझ लिया है इसी के
कारण हम अलग हो गए।
ऐसा
हुआ, ऐसा अक्सर हो जाता है। तुम जब
नाटक में किसी पात्र का अभिनय करते हो तुम थोड़ी देर को उसी पात्र के साथ एक हो
जाते हो। तुम यही सोचने लगते हो कि मैं यही हूं। अच्छा अभिनेता वही होता है जो
बिलकुल डूब जो और सोचने लगे कि यही मैं हूं। तो ऐसी स्त्री के प्रति प्रेम दिखलाता
है जिसके प्रति कोई प्रेम नहीं है। घृणा भी हो सकती है, मगर प्रेम दिखलाता है। आंख से
हर्ष के आंसू बहे जाते हैं--हर्ष के! आनंदमगन होकर उस स्त्री की तरफ आंखें उठाता
है। प्रेम के वचन बोलता है। रोआं-रोआं उसका प्रेम से पुलकित मालूम होता है। यह बस
अभिनय है। यह सब ऊपर-ऊपर है। लेकिन इसमें भरोसा न करे तो अच्छा अभिनेता सिद्ध नहीं
होता। इसको पूरी तरह भरोसा कर लेता है।
ऐसे ही
हमने भरोसा कर लिया है। और कितनी दफा हमारा अभिनय बदला है। फिर भी हम चूकते नहीं।
तुम छोटे थे,
बच्चे
थे। आज अगर तुम्हारा बचपन तुम्हारे सामने खड़ा हो जाए, तुम पहचान भी न सकोगे कि यह
मैं हूं। मगर उस वक्त तुम वही थे। मां के पेट में थे। मांस का बस एक पिंड मात्र
थे। आज तुम्हारे सामने वैसा मांस का पिंड रख दिया जाए, तुमसे कहा जाए यह तुम हो, तुम कहोगे, पागल हो गए? मगर ऐ दिन मां के पेट में
तुमने यही अपने को माना था कि यही मैं हूं। फिर एक दिन जबान थे तब तुमने समझा कि
मैं जवान हूं। फिर एक दिन बूढ़े हो गए और तुमने समझा कि मैं बूढ़ा हूं। और कभी तुम
सफल हुए और तुमने समझा कि मैं सफल हूं। कभी विफल हुए और तुमने समझा कि मैं विफल
हूं। और कभी लोगों ने सम्मान दिया, सिरपर उठाया तो तुम सम्मानित हो गए थे। और
कभी अपमान दिया और तुम्हारे ऊपर सड़े टमाटर और छिलके फेंके और तब तुम समझे कि मैं
अपमानित हूं।
और ऐसे
तुम कितने अभिनय कर चुके! फिर भी एक बात तुम्हें समझ में नहीं आती कि ये अभिनय तो
बदलते जाते हैं। तुम जरूर इनसे भिन्न होओगे, तुम इनके साथ एक नहीं हो सकते। अगर तुम
बच्चे ही होते तो जवान नहीं हो सकते थे फिर। अगर जवान ही होते तो बूढ़े कैसे हुए? और अगर जिंदगी ही तुम होते तो
मरोगे कैसे?
और यह
सब बहा जाता है। यह पंचतत्त का भेख; यह तो कपड़ों जैसा है। कभी सुंदर कपड़े पहन
लिए, समझे कि सुंदर हो गए। और कभी
बेढंग कपड़े पहन लिए तो समझे कि बेढंग हो गए।
कपड़ों
के साथ इतना लगाव बन जाता है कि तुम भूल ही जाते हो मैं कौन हूं? मगर तुम जो हो वही हो! तुम्हारी जात तो ब्रें है।
दरिया
निजघर आइया पाया ब्रें अलेख
जिस
दिन कपड़ों से नजर हटेगी और अपने को देखोगे, जिस दिन तत्वों को देखोगे, भेष को छोड़ोगे उस दिन तुम
पाओगे--
दरिया
निजघर आइया पाया ब्रें अलेख
जिसकी
कोई सीमा नहीं है उस असीम को पाया। अपने घर में बैठे पाया, अपने भीतर बैठे पाया। अपना
स्वरूप पाया।
आंखों
से दीखै नहीं शब्द न पावे जान
मन
बुघि तहं पहुंचे नहीं कौन कहे सैलान
अलेख
इसलिए कहते हैं कि उसका निशान कौन बताए?
आंखों
से दीखै नहीं
आंखें
जो बाहर है उसे देखती हैं, भीतर
को तो कैसे देखेंगी? आंखों
का तो सारा उपाय बाहर है। तुम जो भी आंखों से देखोगे वह तुम्हारा स्वरूप नहीं हो
सकता। तुम तो आंख के भीतर छिपे हो। वैसे ही समझो जैसे अपने घर की खिड़की पर खड़े हो
और खिड़की के बाहर झांककर देख रहे हो तो खिड़की से तुम बाहर देख रहे हो। तुम तो
खिड़की के पीछे खड़े हो। ऐसे ही आंख के पीछे तुम खड़े हो। आंख तुमको न देख सकेगी।
तुम
अपनी आंख पर चश्मा लगाते, तो
चश्मे से तुम सारी दुनिया को देख लेते। अब तुम चश्मे को निकाल कर और चश्मे से अपने
को देखने की कोशिश करो तो तुम नहीं देख पाओगे। चश्मा मुर्दा है ऐसे ही आंख भी
मुर्दा है। आंख पीछे लौटकर नहीं देख सकती। आंख बाहर ही देख सकती है। कान बाहर की
आवाज सुन सकते हैं, भीतर
की आवाज नहीं सुन सकते। हाथ से तुम जो बाहर है उसे छू सकते हो, जो भीतर है उसे कैसे छुओगे? गंध तुम्हें दूसरे की आ सकती
है; स्वयं की, अंतरतम की, कैसे तुम्हें गंध आएगी? नाक वहां व्यर्थ है।
इंद्रियां
सब बाहर के लिए हैं। बाहर के द्वार हैं। भीतर की तरफ कोई इंद्रिय नहीं जाती। वहां
तो वही जाता है जो सारी इंद्रियों को छोड़कर शांत हो जाता है। आंख बंद कर लेता, कान बंद कर लेता, नाक बंद कर लेता--इसको ही तो
ज्ञानियों ने गुप्ति कहा है। इस अवस्था को ही संयम कहा है। आंख देखती नहीं, कान सुनता नहीं, नाक सूंघती नहीं, हाथ छूते नहीं। सब तरह अपने
भीतर सिकुड़ जाता है--जैसे कछुआ अपने अंगों को भीतर सिकोड़ लेता है। यह जो कछुए की
स्थिति है ऐसी ही स्थिति समाधिस्थ की हो जाती है।
आंखों
से दीखै नहीं शब्द न पावे जान
मन
बुघि तहं पहुंचे नहीं कौन कहे सैलान
इंद्रियां
नहीं पहुंचती वहां। मन भी नहीं पहुंचता वहां। क्योंकि मन एकदम अवाक होकर रुक जाता
है। और बुद्धिमत्ता भी वहां नहीं चलती। होशियारी भी वहां काम नहीं आती। समझदारी भी
कान नहीं आती। वहां समझदारी भी नासमझी हो जाती है। वहां तो आदमी को बिलकुल निर्दोष होकर पहुंचना
पड़ता है,
सब तरह
के जंजाल को छोड़कर--बुद्धि के, मन के, सोचविचार के, तर्क के। तुम्हारी जो-जो
बातें समझदारी की हैं, बाहर
काम आती है। वहां कोई काम नहीं आतीं। वहां तो जाते समय यह सारा उपद्रव छोड़ देना
पड़ता है। यह सारा बोझ उतारकर रख देना पड़ता है। वहां तो निर्भार होता है जो, वही पहुंचता है।
मन
बुधि तहं पहुंचे नहीं कौन कहे सैलान
मन और
बुद्धि का भेद समझ लेना। मन का अर्थ होता है--मनन की प्रक्रिया, सोच-विचार। बुद्धि का अर्थ
होता--इस सोचविचार की प्रक्रिया को जो जागकर देखता है। अवेयरनेस। बुद्धि का अर्थ
होता है साक्षी। अब यह बड़ा अनूठा सूत्र है। साधारणतः यही कहा जाता है, साक्षी बनो! बनने से यह घटना
घटती है कि तुम मन के पार हो जाते हो। फिर साक्षी के भी पार होना पड़ता है क्योंकि
तुम स्वयं के साक्षी नहीं हो सकते। वहां कैसे दो होंगे? साक्षी का तो मतलब होता है
तुम और किसी के साक्षी बन रहे हो। तो यह सूत्र जिसको कृष्णमूर्ति अवेयरनेस कहते
हैं, जिसकी ज्ञानियों ने साक्षीभाव
कहा है,
विटनेस
उसके भी पार जाता है।
दरिया
कहते हैं,
मन तो
वहां चलता ही नहीं, यह बात
सच है। मन तो जा नहीं सकता। सोच-विचार का धुवां वहां रहेगा, तो तुम देख ही न पाओगे। बादल
घिरे रहेंगे,
सूरज
का दर्शन न होगा। यह तो बात ठीक है। यह तो सभी ने कही है लेकिन एक कदम और ऊपर
उठाते हैं। वे कहते हैं, वहां
साक्षी भी नहीं जाता। साक्षी ही रह जाता है तो फिर साक्षी कैसे बनोगे? मात्र साक्षी बचता है तो किसके
साक्षी?
अब तो
दो नहीं बचे। ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रहा। द्रष्टा और दृश्य का भेद नहीं रहा।
अब तो एक ही बचा तो किसके साक्षी? कौन
साक्षी?
और
किसका?
तो
साक्षी भी गया।
मन
बुधि तहं पहुंचे नहीं कौन कहे सैलान
तो अब
खबर कैसे लें उसकी कि उसका रूप क्या? उसका रंग क्या? उसका स्वाद क्या? उसका लक्षण कैसे बताएं? उसकी खबर कैसे लाएं? इसीलिए तो आदमी गूंगा हो जाता
है। गूंगे का गुड़ हो जाता है। जान लेता है, पहचान लेता है, अनुभव कर लेता है और एकदम
गूंगा हो जाता है। और तुम उससे पूछो तो एकदम गुमसुम बैठ जाता है, बोलता ही नहीं और अगर बोलता
है तो बोलता है केवल विधि के संबंध में, परमात्मा के लक्षण के संबंध में नहीं। कैसे
पहुंचा यह बता देता है। किस-किस मील के पत्थर को राह पर मिलना हुआ था, यह बता देता है। कैसा-कैसा
मार्ग बीता,
यह बता
देता है। कहां-कहां से गुजरना पड़ा यह बता देता है। लेकिन लक्ष्य! लक्ष्य की बात
छूट जाती है। नहीं कही जा सकती। कौन कहे सैलान! उसकी लक्षणा कौन करे? उसका निशान और रूप कौन बताए?
माया
तहां न संचरै जहां ब्रें का खेल
यह सब
तो माया का ही हिस्सा है--इंद्रियां, आंखें, कान, मन, बुद्धि, यह सब माया का ही खेल है।
माया
तहां न संचरै जहां ब्रें का खेल
और
जहां ब्रें का खेल शुरू हुआ, वहां
माया नहीं प्रवेश कर पाती।
जन
दरिया कैसे बनें रवि-रजनी का मेल
बड़ी
प्यारी बात कही है।
जन
दरिया कैसे बने रवि-रजनी का मेल
सूरज
निकले और रात से मेल कैसे बने?
मैंने
सुना है,
एक बार
अंधेरे में जाकर परमात्मा को कहा कि तुम अपने सूरज को कहो, मेरे पीछे क्यों पड़ता है? मुझे क्यों परेशान करता है? मैंने इसका कुछ कभी बिगाड़ा
नहीं। जहां तक मुझे याद पड़ता है, मैंने
कभी इसका कोई नुकसान नहीं किया और मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ा है। दिनभर मुझे भगाता
है। रात में किसी तरह लेट भी नहीं पाता कि फिर सुबह हाजिर हो जाता है। फिर भगाता
है। यह मामला क्या है? यह
अन्याय हो रहा है। और मैंने बहुत प्रतीक्षा कर ली। और मैंने सुनी थी कहावत कि चाहे
देर हो वहां,
अंधेर
नहीं। लेकिन देर भी हो गई और अंधेर भी हो रहा है। कितनी सदियां बीत गई और यह सूरज
मेरे पीछे पड़ा ही है, हाथ-धोकर
पड़ा है। आप इसे रोको।
बात तो
परमात्मा को भी जंची कि इस बेचारे अंधेरे से सूरज का बिगाड़ा क्य है? यह अन्याय हो रहा है। सूरज को
बुलाया। सूरज से पूछा कि तू अंधेरे के पीछे क्यों पड़ा है? उसने कहा कैसा अंधेरा! मेरी
कोई पहचान ही नहीं। पीछे कैसे पडूंगा? दोस्ती ही नहीं तो दुश्मनी कैसी बनेगी? अभी तक मेरी मुलाकात भी नहीं
हुई। तो नाराजगी कैसे होगी? आप एक
कृपा करें,
अंधेरे
को मेरे सामने बुला दें। तो मैं देख तो लूं कौन अंधेरा है? पहचान तो लूं कि कौन अंधेरा
है? किसका मैं पीछा कर राह हूं यह
तो मैं पहचान लूं। अभी तो पीछा कैसे करूंगा? मेरी मुलाकात ही नहीं हुई। और कहते हैं कि
तब से ईश्वर भी परेशान है। फाइल वहीं की वहीं पड़ी है। वह अंधेरे को ला नहीं सकता
सामने। और जब तक अंधेरे को सामने नहीं लाएं, जब तक दोनों वादी-प्रतिवादी अदालत में खड़े न
हों तब तक निर्णय भी कैसे हो? कहते
हैं ईश्वर परम शक्तिवान है, सर्व
शक्तिवान है,
लेकिन
वह भी यह नहीं कर पा रहा कि अंधेरे को सूरज के सामने ले जाए।
जन
दरिया कैसे बने रवि-रजनी का मेल
कैसे
हो मुलाकात?
यह
नहीं होनेवाली। तो जब तुम्हारे भीतर का सूरज प्रकट होगा, तब तुम्हारे बाहर जिसको तुमने
अब तक जीवन जाना था, वह
मात्र अंधेरा था। वह उसके सामने टिकेगा नहीं। तुम्हारी सब धारणाएं पिघलकर बह
जाएंगी। तुम्हारे सारे विचार बह जाएंगे। तुम बह जाओगे। तुमने जो कल तक जाना था, वह कोई भी काम न आएगा।
आमूल-चूल तुम बह जाओगे। और जो शेष रह जाता है, वह अवाक कर देता है।
रतन
अमोलक परखकर रहा जौहरी थाक
दरिया
तहं कीमत नहीं उनमन भया अवाक
जात
हमारी ब्रें है माता-पिता है राम
गिरह
हमारा सुन्न में अनहद में बिसराम
अपूर्व वचन है। गांठ बांधकर रख लेना। इससे
बहुमूल्य हीरा न पाओगे।
जात
हमारी ब्रें है माता-पिता है राम
हमारा
होना ब्रें से आया। हम उससे उपजे हैं इसलिए वही हमारी जात है। हम उससे उपजे इसलिए
वही हमारी मां है,
वही
हमारा पिता है। बाकी सब माता-पिता औपचारिक हैं। बाकी सब जातियां व्यावहारिक हैं।
असलो जात ब्रें असली माता-पिता परमात्मा।
गिरह
हमारा सुन्न में--और हमारा घर शून्य में है। बाकी तुम जिसने घर बना रहे हो, सब व्यर्थ जाएंगे। जब तक
शून्य कोन खोज लो तब तक असली घर न मिलेगा। गिरह हमारा सुन्न में। हमारा शून्य में
असली घर। शून्य यानी--जहां विचार थक कर गिर गए, जहां मन उनमन हो गया, जहां बुद्धि भी गई, जहां कुछ भी न बचा, शून्य सन्नाटा रह गया सिर्फ।
सब, जो तुम जानते थे, अनुपस्थिति हो गया। सब हट
गया। एक कोरा आकाश रह गया। असीम आकाश।
गिरह
हमारा सुन्न में अनहद में बिसराम
और
वहां कोई सीमा नहीं असीम है। अनहद। उसकी कोई हद नहीं है। वहीं विश्राम है। उसके
पहले तकलीफ है। उसके पहले बेचैनी है। उसके पहले तनाव है।
शून्य
में पहुंचकर ही परम विश्राम उपलब्ध होता है। उसके पहले तुम लाख उपाय करो--घन कमाओ, पद-प्रतिष्ठा, लाख संबंध बनाओ, प्रेमी-प्रियजन; परिवार बसाओ, सब उजड़ जाएगा। आज बनाओगे, कल मिट जाएगा। बनाने में
तकलीफ झेलोगे और बन भी न पाएगा, फिर
मिटने की तकलीफ झेलनी पड़ेगी। दोहरी तरह की तकलीफ है। पहले बनाने का कष्ट, बनाने की झंझटें और फिर जब
उखड़ने लगती हैं,
जब
चीजें बिखरने लगती हैं फिर उसका कष्ट। ऐसे तुम रोते ही रोते गुजारते हो। एक रोने
से दूसरे रोने में चले जाते हो बस, और कुछ फर्क नहीं पड़ता।
थोड़ी
देर राहत मिलती है, जरूर
मिलती है। एक रोने से तुम दूसरे रोने में जाते हो, थोड़ी देर के लिए आंसू थम जाते
हैं, बीच में राहत मिलती है। कहते
हैं कि जब लोग आदमी को मरघट ले जाते हैं, अर्थी उठाते हैं तो रास्ते में कंधा बदल
लेते हैं। इस कंधे पर रखे थे, इस कंधे
पर अभी थकान नहीं;
मगर
थोड़ी देर में दूसरा कंधा थक जाता है फिर इस कंधे पर रख लिया। ऐसे ही जिंदगी है
तुम्हारी जैसे मरघट ले जाते वक्त अर्थी को कंधा बदलते हैं। बस, तुम कंधा बदल रहे हो। एक दुख
से घबड़ा गए,
दूसरा
दुख मोल ले लिया। जब मोल लेते हो। तब वह सुख का आश्वासन देता है। थोड़ी देर में ही
पहचान होती है। फिर दुख प्रगट हो जाता है।
कितने
जन्मों से ऐसे हो,
ऐसे
दुख तुम बदलते रहे। कब तुम जागोगे? कब तुम शून्य के घर को खोजोगे? शून्य के धर को खोजना ही
ध्यान है,
समाधि
है। कब तुम अनहद में विश्राम करोगे? या कि तुम्हें श्रम ही करते रहना है? या कि तुम्हें घर बनाने और
मिटाने हैं?
या कि
तुम्हें रेत के घर ही बनाने में रस है? या कि तुम्हें ताश के घर बनाने में रस है? तुम कम तक ये कागज की नावें
तैराते रहोगे और डुबाते रहोगे? जागो।
शून्य में ही पहुंचकर आदमी अपने घर आता है। और उस घर को बनाने की जरूरत नहीं है, वह घर बना ही हुआ है। वह
तुम्हारे भीतर मौजूद है। एक क्षण को तुमने उसको खोया नहीं। जरा दृष्टि बदले तो तुम
अपने शून्य घर को पा लो, उस परम
घर को पा लो जिसको कोई निर्वाण कहता है, कोई मोक्ष कहता है, कोई ब्रें कहता है; वह सब नाम के भेद हैं, मगर वह घर शून्य का है। समझकर
जाओगे तो अच्छा होगा।
कल रात
एक युवक आया जर्मनी से। वह बहुत डरा हुआ है। सत्रह साल की उमर में अनायास उसे
शून्य का अनुभव हो गया है। अनायास तो कुछ होता नहीं। पिछले जन्मों की कमाई होगी।
जन्मों-जन्मों में इस शून्य को खोजा होगा। बात पूरी नहीं हो पाई होगी, अटकी रह गई होगी। बीज पड़ गया
होगा। इस जीवन में फसल आई। तो इस जीवन में तो बिलकुल अनायास हुई। सत्रह साल के
युवक को घट जाए शून्य आकस्मिक तो घबड़ाहट तो हो ही जाएगी। न खोजते थे, न आकांक्षा थी, अचानक घप गया। तो इतना घबड़ा
गया है,
उसकी बात
करते हुए भी हाथ-पैर उसके कंप रहे थे। उसकी बात करते हुए सिर घूमने लगा। होश जाने
लगा। उसकी बात करते-करते उसकी आंख बंद होने लगी। घबड़ा गया है। वह चाहता नहीं कि
फिर कभी वैसा हो जाए। अब एक अपूर्व घटना थी लेकिन एक घबड़ाहट आ गई। अब घबड़ाहट आ गई
तो वह ध्यान करने में डरता है। अब वह संन्यास लेने में डर रहा था। क्योंकि उसे लग
रहा है,
एक दफा
शून्य की छोटी सी झलक उसको मिली है, वह इतनी घबड़ा गई और यहां तो सारी शून्य की
ही बात हो रही है तो वह डर रहा है। जा भी नहीं सकता क्योंकि यद्यपि वह शून्य से
घबड़ा गया लेकिन उस शून्य में उसे सत्य का भी दर्शन हुआ। यह भी वह कहता है--जो
मैंने जाना है वही परम सत्य है। मगर वह परम सत्य मैं फिर नहीं जानना चाहता। कोई
अर्थ नहीं है जीवन में फिर। फिर महत्वाकांक्षा में कोई सार नहीं है। फिर यह करने
और वह करने में कोई प्रयोजन नहीं है। शून्य ही सब कुछ है। तो वह घबड़ा भी गया है।
रस भी आया,
घबड़ा
भी गया। व्याख्या भी उसने बड़े डर के कर ली।
कल
उसकी तरफ देखते हुए मुझे दिखाई पड़ना शुरू हुआ कि जरूर वह किसी अतीत में किसी बौद्ध
परंपरा का हिस्सा रहा होगा। बौद्धों ने शून्य को बड़ा बल दिया है। अब व्याख्या की
बात है। पश्चिम में शून्य की कोई चर्चा ही नहीं करता। ईसाइयत शून्य से बहुत डरती
है। इस्लाम भी डरता है। पश्चिम में पैदा हुआ, ईसाइयत के खयाल उसके मन में रहे होंगे और जब
उसने यह शून्य देखा तो वह बहुत घबड़ा गया। अगर पूर्व में पैदा हुआ होता, अगर बुद्ध की हवा उसके आसपास
रही होती तो उसके पास दूसरी व्याख्या होती। शून्य देखता तो नाच उठता, मगर हो जाता। शून्य देखता तो
कहता,
रतन
अमोलक परख कर रहा जौहरी थाक
दरिया
तहं कीमत नहीं उनमन भया अवाक
फिर तो
नाच बंद ही न होता। फिर तो जो गीत का झरना बहता, बहता ही चला जाता। लेकिन चूक
गया। व्याख्या ने अड़चन डाल दी। व्याख्या ने डरवा दिया। पश्चिम में तो लोग समझते
हैं शून्य होने का मतलब शैतान। शून्य यानी शैतान से पर्यायवाची है। शून्य का अर्थ
ही नहीं समझे है। शून्य का अर्थ ही समझतें हैं नकारात्मक; कुछ भी नहीं। शून्य है सब
कुछ। शून्य है ब्रेंभाव। शून्य ना-कुछ नहीं है।
लेकिन
उस युवक का डर मैं समझता हूं। उसकाके किसी तरह फुसलाकर संन्यासी बना लिया है। उसे
फुसला कर ध्यान में ले जाएंगे। अबकी बार आशा की जाती है कि जब फिर दुबारा शून्य
घटेगा तो उसके पहले वह तैयार हो जाएगा। अब की बार शून्य उसे पगलाएगा नहीं। अबकी
बार शून्य उसे परम स्वास्थ्य दे जाएगा। अब की बार शून्य से उसकी ऐसी ही पहचान हो
जाएगी--
जात
हमारी ब्रें है माता-पिता है राम
गिरह
हमारा सुन्न में अनहद में बिसराम
और
एकबार अनहद में विश्राम आ गया फिर तुम कहीं भी रहो, फिर हजार संसार तुम्हारे
चारों तरफ शोर-गुल मचाता रहे, तुम्हारे
भीतर कोई तरंग नहीं पहुंचती। तुम निस्तरंग बने रहते हो। तुम अपने घर आ गए। तुमने
शाश्वत से सगाई कर ली।
इन
सूत्रों पर ध्यान करना । ये सूत्र विचार करने के नहीं हैं, ध्यान करने के हैं। एक-एक
शब्द पर ठिठकना। एक-एक शब्द का स्वाद लेना। आंख बंद करके डुबकी लगाना। एक-एक शब्द
के साथ मगन होना। एक-एक शब्द के साथ थोड़ा-थोड़ा मन छोड़ना। थोड़े-थोड़े उनमन होना।
एकेक शब्द के साथ आश्चर्य की पुलक भरना, रोमांचित होना। एकेक शब्द के साथ ज्ञान
छोड़ना,
निर्दोष
अज्ञान में उतरना। एकेक शब्द के साथ तादाम्य शरीर से, इंद्रियों से छोड़ना ताकि
धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर के ब्रें से पहचान फिर से बन जाए; पुनः पहचान हो जाए। पुनर्खोज
है ब्रें। क्योंकि खोया तो कभी नहीं। मौजूद तो है ही। तुम्हारी प्रतीक्षा करता है।
तुम जब चाहो,
घर लौट
आओ। तुम उसे वहां घर में बैठा हुआ पाओगे।
गिरह
हमारा सुन्न में अनहद में बिसराम
आज इतना ही।
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