असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)
साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 21-10-67
रात्रि
(अति-प्राचिन प्रवचन)
प्रवचन-दसवां-(बस एक कदम)
शिविर की इस अंतिम रात्रि में थोड़े से प्रश्नों पर और हम विचार कर
सकेंगे। कुछ प्रश्न तो ऐसे हैं, जो मेरे शब्दों को, विचारों को ठीक से न सुन पाने, न समझ पाने की वजह से पैदा हो
गए हैं। एक शब्द भी यहां से वहां कर लें तो बहुत अंतर पैदा हो जाता है।
उन
प्रश्नों के तो उत्तर मैं नहीं दे पाऊंगा। निवेदन करूंगा कि जो मैंने कहा है, उसे फिर एक बार सोचें। उसे
समझने की कोशिश करें। जरा सा भेद आप कर लेते हैं, कुछ अपनी तरफ से जोड़ लेते हैं
या कुछ मैंने जो कहा उसे छोड़ देते हैं, तो बहुत सी भ्रांतियां, दूसरे अर्थ पैदा हो जाते हैं।
और जरा से फर्क से बहुत बड़ा फर्क पैदा हो जाता है।
एक
राजधानी में उस देश के धर्मगुरुओं की एक सभा हो रही थी। सैकड़ों धर्मगुरु देश के
कोने-कोने से इकट्ठे हुए थे। उस नगर ने उनके स्वागत का सब इंतजाम किया। सभा का जब
उदघाटन होने को था तो मंच पर से परदा उठाया गया।
पांच छोटे-छोटे बच्चों के गले में
हैलो, इसके पांच अक्षर--एच, ई, एल, एल, ओ--ये पांच बच्चों के गलों
में एक-एक अक्षर लटकाकर एक के बाद एक बच्चा बाहर आया स्वागत के लिए।
चार
बच्चे आकर खड़े हो गए। पांचवां छोटा बच्चा हैरान हुआ, वह भूल गया, कहां खड़ा होना है। वह पीछे न
खड़ा होकर आगे पंक्ति में खड़ा हो गया। हैलो की जगह ओ हेल बन गया। वह, स्वागत की जगह वहां नरक! उतने
से एक अक्षर के यहां से वहां होने पर...कहां स्वागत का स्वर्ग था, कहां नरक उपस्थित हो गया!
एक
नास्तिक ने अपने घर पर लिख छोड़ा था, गाड इज़ नो ह्वेअर। एक छोटा सा बच्चा पड़ोस का
उसे पढ़ रहा था,
नया-नया
पढ़ने वाला था। उसने पढ़ा गाड इज़ नाउ हिअर! वह नास्तिक सुनकर हैरान हो गया। उसने
लिखा था गाड इज़ नो ह्वेअर, ईश्वर
कहीं भी नहीं है। और बच्चे ने पढ़ा, गाड इज़ नाउ हिअर, ईश्वर यहीं है--यहीं और अभी!
दो
पुरोहित अपनी शिक्षा के लिए एक आश्रम में भर्ती हुए थे। उन दोनों को ही सिगरेट
पीने की आदत थी। एक घंटे के लिए उन्हें आश्रम के बगीचे में घूमने का समय मिलता था।
उसी समय वे पी सकते थे। लेकिन वह समय भी ईश्वर-चिंतन करने के लिए मिलता था। तो
उन्होंने सोचा गुरु से पूछ लेना उचित है। वे दोनों अपने गुरु के पास पूछने गए।
पहला
व्यक्ति जब लौटा पूछकर तो उसने देखा कि दूसरा तो उससे पहले ही बगीचे में वापस लौट
आया है और एक दरख्त के नीचे बैठकर आराम से सिगरेट पी रहा है! उसे बड़ी हैरानी हुई।
उसे तो गुरु ने इनकार कर दिया था। क्या उसके साथी को उन्होंने स्वीकार कर दिया? यह कैसे संभव है कि मुझे मना
किया और मेरे साथी को हां भरी।
उसने
क्रोध में आकर अपने मित्र को पूछा, तुम सिगरेट पी रहे हो। मुझे तो मना कर दिया
है गुरु ने। उस साथी ने कहा, तुमने
पूछा क्या था?
उस
व्यक्ति ने कहा,
सीधी
सी बात थी। मैंने पूछा था, क्या
मैं ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकता हूं। उन्होंने एकदम कहा, नहीं, बिलकुल नहीं। तुमने क्या पूछा
था? वह दूसरा मित्र हंसा। उसने
कहा, मैंने पूछा था, क्या मैं सिगरेट पीते वक्त
ईश्वर-चिंतन कर सकता हूं? उन्होंने
कहा, हां, बिलकुल।
ये
दोनों बातें एक ही अर्थ रखती हैं, लेकिन
एक ही परिणाम नहीं निकला। दोनों से बिलकुल दूसरा परिणाम निकला। ईश्वर-चिंतन करते
समय कौन आज्ञा देगा कि सिगरेट पीओ। लेकिन सिगरेट पीते वक्त अगर ईश्वर-चिंतन करते
हो तो अच्छा ही है, इसमें
बुरा क्या है। वैसे बात दोनों एक ही हैं। लेकिन इतने ही फर्क से जमीन-आसमान का
फर्क पैदा हो जाता है।
तो उन
सारे प्रश्नों को तो मैं छोड़ दूंगा, जिनमें अपने शब्दों को, भावों को विचारों को समझने की
कोशिश नहीं की है--हेर-फेर कर ली है, बदली कर दी है, अपने मन से कुछ जोड़ लिया या
कुछ घटा दिया है। उन सब पर विचार करने का तो समय नहीं है। इतना ही निवेदन करूंगा
उन सबके संबंध में कि जो मैंने कहा है, उसे फिर गौर से सोचें, उसका फिर से निरीक्षण करें, समझें। तो जो मुझसे पूछा है, उसके उत्तर आपको अपने से ही
मिल जाएंगे।
कुछ और प्रश्न है।
एक मित्र ने पूछा है कितने समय में हम ध्यान को उपलब्ध हो सकेंगे।
कोई
सामान्य उत्तर नहीं हो सकता है। क्योंकि ध्यान को कितने समय में उपलब्ध हो सकेंगे, यह मुझ पर नहीं, आप पर निर्भर है। और इसके लिए
कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि सभी लोग एक ही समय में उपलब्ध हो सकें। आपकी तीव्रता, आपकी प्यास, आपकी लगन, आपकी अभीप्सा, इस सब पर निर्भर करेगा। एक
क्षण में भी उपलब्ध हो सकते हैं, और
पूरे जीवन में भी न हों। एक क्षण में भी, तीव्र प्यास का एक क्षण भी, इंटेंसिटी का एक क्षण भी जीवन
को बदल सकता है। और नहीं तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे--कोई तीव्रता नहीं है, कोई सीरियसनेस, कोई गंभीरता नहीं है कि उसे
हम प्यास की तरह पकड़ें।
एक
आदमी प्यासा है तो उसकी पानी की खोज और बात है। और एक आदमी प्यासा नहीं है, उसकी पानी की खोज बिलकुल
दूसरी बात है। प्यास तो खोज लेगी पानी को। और जितनी तीव्र होगी, उतनी तीव्रता से खोज लेगी।
एक
पहाड़ी रास्ते पर एक यात्री जाता था। एक बूढ़े आदमी को बैठा हुआ देखा उसने और कहा, गांव कितनी दूर है और मैं
कितने समय में पहुंच जाऊंगा? वह
बूढ़ा ऐसे बैठा रहा, जैसे
उसने न सुना हो या बहरा हो। वह यात्री हैरान हुआ। उस बूढ़े ने कुछ भी न कहा। यात्री
आगे बढ़ गया,
कोई
बीस कदम गया होगा,
वह
बूढ़ा चिल्लाया--सुनो, एक
घंटा लगेगा। उस आदमी ने कहा, यात्री
ने कि अजीब हो,
मैंने
जब पूछा था,
तुम
चुप रहे। उसने कहा, मैं
पहले पता तो लगा लूं कि तुम चलते कितनी रफ्तार से हो। तो जब बीस कदम मैंने देख लिए
कि कैसे चलते हो,
तो फिर
मैं समझ गया कि एक घंटा तुम्हें पहुंचने में लग जाएगा। तो मैं क्या उत्तर देता
पहले, उस बूढ़े ने कहा, जब मुझे पता ही नहीं कि तुम
किस रफ्तार से चलते हो। तुम्हारी रफ्तार पर निर्भर है गांव पर पहुंचना--कितनी देर
में पहुंचोगे,
इसलिए
मैं चुप रह गया।
आपकी
रफ्तार पर निर्भर है। आप कैसी तीव्रता से, कितनी गंभीरता से, कितनी सिनसेरिटि से, कितनी ईमानदारी से जीवन को
बदलने की आकांक्षा से अभिप्रेरित हुए हैं, इस पर निर्भर है। एक क्षण में भी यह हो सकता
है। एक जन्म में भी न हो। समय का कोई भी सवाल नहीं है। समय का रत्तीभर भी सवाल
नहीं है। क्योंकि ध्यान में समय के द्वारा हम नहीं जाते हैं। ध्यान में हम जाते
हैं अपनी प्यास और तीव्रता के द्वारा।
भीतर
कोई टाइम नहीं है,
भीतर
कोई समय नहीं है। सब समय बाहर है। तो अगर बाहर यात्रा करनी हो, तब तो समय निश्चित लगता है।
लेकिन भीतर यात्रा करनी हो, प्यास
अगर परिपूर्ण हो,
तो समय
लगता ही नहीं। बिना समय के एक पल में, एक पल में भी नहीं--भीतर पहुंचा जा सकता है।
लेकिन वह निर्भर करेगा--मुझ पर नहीं, आप पर।
और यह
जरूर कहूंगा,
हमारी
गंभीरता,
हमारी
प्यास अत्यल्प है। अगर अत्यल्प न होती, अगर बहुत कम न होती, तो हम शब्दों और शास्त्रों से
तृप्त न हो जाते।
एक
आदमी को प्यास लगी है, क्या
हम पानी के संबंध में लिखी हुई उसे कोई किताब दें, वह तृप्त हो जाएगा? उस किताब को रोज पढ़ता रहेगा? किताब फेंक देगा। वह कहेगा, किताब का मैं क्या करूंगा।
मुझे प्यास लगी है, मुझे
पानी चाहिए। पानी के ऊपर लिखा हुआ शास्त्र नहीं।
लेकिन मैं
तो देखता हूं परमात्मा के ऊपर लिखे शास्त्रों को लिए लोग बैठे हैं! वे कोई भी नहीं
कहते कि हमें किताब नहीं चाहिए, हमें
परमात्मा चाहिए! हमें प्यास लगी है, यह वे कोई भी नहीं कहते। रखे बैठे रहें वे
शास्त्र को। उनके भीतर प्यास नहीं है, इसलिए वे शास्त्र को पकड़े बैठे हुए हैं।
जिसके भीतर प्यास हो, वह
शास्त्र से कभी तृप्त हुआ है? वह
किताब से,
शब्द
से कभी तृप्त हुआ है? वह
नहीं हो सकता तृप्त।
मैं तो
अधिक लोगों को किताबों से तृप्त हुआ देखता हूं। इसलिए लगता है कि कोई प्यास नहीं
है। नहीं तो वे परमात्मा को खोजते-खोजते सत्य को, शब्दों को तो नहीं पकड़कर बैठ
जाते। हम सब शब्दों को पकड़कर बैठे हुए हैं। यह प्यास की न्यूनता का सबूत, प्रमाण है। शब्दों को पकड़कर
बैठे रहिए तो कभी नहीं पहुंच सकेंगे। खोजिए अपनी प्यास को--भीतर कोई प्यास है? सच में कोई भीतर आकांक्षा
सरकती है--जीवन को जानने की कोई जिज्ञासा?
और अगर
है तो फिर दूसरी बात ध्यान में रखना पड़ेगी। इस जिज्ञासा को बोथला मत कर लीजिए।
जिज्ञासा को हम बोथला कर लेते हैं। भीतर जिज्ञासा है जानने की और हम मान लेते हैं
दूसरों की बातों को तो जिज्ञासा बोथली हो जाती है, कुंठित हो जाती है। भीतर है
जानने की जिज्ञासा? क्या
है? और हम मान लेते हैं--आत्मा है, परमात्मा है! मान लेते हैं
चुपचाप! इस मान लेने के कारण, इस
विश्वास के कारण,
ऐसी
बिलीह्वस के कारण फिर जिज्ञासा कुंठित हो जाती है, रुक जाती है। फिर जिज्ञासा
आगे गहरी नहीं हो पाती है।
विश्वास
जिज्ञासा को रोक लेते हैं, ठहरा
लेते हैं,
फिर
जिज्ञासा गहरी नहीं हो पाती। अगर जिज्ञासा को गहरा करना है तो विश्वासों को मत
पकड़ना,
थोथे
ज्ञान को मत पकड़ना; सुने-सुनाए
ज्ञान को,
पढ़े-पढ़ाए
ज्ञान को मत पकड़ लेना--वह सब जिज्ञासा को मार डालेगा। क्यों? क्योंकि बिना जाने हमें यह
भ्रम पैदा हो जाएगा कि हम जानते हैं। हम सबको यह भ्रम है कि हम जानते हैं--ईश्वर
है! हम सबको यह भ्रम है हम जानते हैं--मोक्ष है! हम सबको यह भ्रम है हम जानते
हैं--पुनर्जन्म है! हम सबको यह भ्रम है हम जानते हैं कर्म है, आत्मा है, फलां है, ढिकां है! हम सब कुछ जानते
हुए मालूम पड़ते हैं!
यह
जानते हुए मालूम पड़ना घातक है। यह आपकी प्यास की हत्या कर देगा। और फिर आपके भीतर
वह ज्वलंत प्यास नहीं रह जाएगी, जो
पहुंचा सकती है। इस सबको छोड़ देने के लिए इसीलिए मैंने इधर तीन दिनों में आपसे
कहा। जानें ठीक से कि मैं अज्ञानी हूं नहीं जानता हूं।
जो
व्यक्ति इस बात को ठीक से जानता है कि मैं नहीं जानता हूं, उसकी प्यास अदम्य हो उठती है।
क्योंकि अज्ञान से कोई भी तृप्त नहीं हो सकता है। ज्ञान से तृप्त हो सकता है।
तथाकथित ज्ञान से तृप्त हो सकता है। लेकिन अज्ञान से कोई कैसे तृप्त हो सकता है? अज्ञान तो धक्के देता है।
अज्ञान तो एक अतृप्ति पैदा करता है, एक डिसकंटेंट कि बदलो, इस अज्ञान को बदलो।
लेकिन
हम अज्ञान को छिपा लेते हैं शब्दों के ज्ञान में। फिर अज्ञान की ताकत टूट जाती है, वह हमें धक्के नहीं दे पाता।
और तब हम एक मीडियाकर, एक
बिलकुल ही कुनकुने आदमी जिसके जीवन में कोई उत्तप्त, कोई पेशन, जिसके जीवन में कोई जीवंत-बल, कोई जीवंत-ऊर्जा नहीं है--ऐसे
आदमी हो जाते हैं--बुझे-बुझे। जिसकी ज्योति जलती नहीं।
हम सब
बुझे-बुझे आदमी हैं। इसलिए देर लगती है पहुंचने में। जलता हुआ आदमी होना चाहिए।
पूरा जीवन एक ज्वलंत, एक
जीवंत,
एक
लिविंग शक्ति,
एक
ताकत होनी चाहिए। और हम सब हो सकते हैं। लेकिन अपने ही हाथों हम नहीं हैं।
मुझ पर
नहीं निर्भर है,
आप पर
निर्भर है। चाहें तो इसी क्षण--अभी और यहीं, बात पूरी हो सकती है। एक क्षण में भी बातें
हुई हैं।
एक
साधु था। उसके आश्रम में बहुत लोग थे। एक युवक आया था आश्रम में। वह अत्यंत विवादी
था, आरग्यूमेंटेटिव था, हर किसी से विवाद करता। बहुत
तर्कनिष्ठ भी था। जो बात कहता, उसमें
तर्क का बल भी होता। लेकिन चौबीस घंटे विवाद, विवाद।
एक
संन्यासी यात्रा करते हुए उस आश्रम में ठहरा। उस संन्यासी के साथ भी उस युवक का
विवाद हो गया। और घंटे, दो
घंटे में उसने संन्यासी की चिंदियां-चिंदियां अलग कर दीं। संन्यासी पराजित, दुखी वापस लौटा।
उस
युवक के गुरु,
उस
बूढ़े साधु ने,
जो उस
आश्रम में था,
उसने
उस युवक को कहा,
मेरे
बेटे, तुम कब तक व्यर्थ ही बोलते
रहोगे?
तुम कब
तक अपने जीवन को व्यर्थ की बातों में गंवाते रहोगे? कब तक?
पता है
आपको--उस युवक ने उत्तर दिया? नहीं, उसने फिर उत्तर देना भी
व्यर्थ समझा। उस दिन के बाद सारा जीवन मौन में बीत गया। इसका उत्तर भी नहीं दिया।
क्योंकि उसकी भी क्या जरूरत थी। बात खतम हो गई। उसे यह बात दिखाई पड़ गई, यह व्यर्थता। इस सारे विवाद
की, तर्क की--इस जाल की व्यर्थता
दिखाई पड़ गई। बात खतम हो गई। उसने फिर यह नहीं कहा, कब तक? कल, परसों, अगले वर्ष; एक वर्ष बाद, दो वर्ष बाद। नहीं, बात दिख गई और समाप्त हो गई।
जब कोई
बात दिखाई पड़ती है, उसी
वक्त समाप्त हो जाती है। दिखाई ही नहीं पड़ती, इसलिए सवाल उठता है कि कब, कितने दिनों में, कैसे? देखने की कोशिश करें। जो चीज
दिखाई पड़ जाएगी--दिखाई पड़ने से ही एक परिवर्तन तत्क्षण हो जाता है।
फिर
उसके गुरु को कई लोगों ने कहा, यह
आदमी तो बड़ा पागल मालूम होता है? कल तक
इतना विवाद करता था। इसे क्या हो गया? उसके गुरु ने कहा, मैं खुद हैरान हो गया इसे
देखकर,
चकित
हो गया। मुझे यह कल्पना नहीं थी। मैंने पूछा था, कब तक? उसने इसका भी फिर उत्तर नहीं
दिया। बात फिजूल हो गई। दिख गई तो फिजूल हो गई।
एक
बहुत बड़ा वैयाकरण था। बहुत बड़ा व्याकरण का विद्वान था। उसका पिता दिन-रात, राम-राम, राम-राम जपा करता था हर समय।
विद्वान की उम्र साठ वर्ष हो गई, पिता
की कोई अस्सी के करीब होगी। उसके पिता ने एक दिन उसको बुलाकर कहा कि बेटे अब तुम
भी बूढ़े हो गए। अब राम के स्मरण का समय आ गया। मैंने तुम्हें कभी मंदिर जाते नहीं
देखा! मैंने कभी तुम्हें धर्म की बात करते नहीं देखा! मैंने कभी तुम्हारी इस तरफ, परमात्मा की तरफ उत्सुकता
नहीं देखी! अब कब तक? बूढ़े
हो गए हो तुम भी,
साठ
वर्ष पार हो गए तुम्हारे भी। कब तक?
उस
बेटे ने कहा,
मैं भी
आपको देखता हूं वर्षों से राम-राम जपते, मंदिर जाते--रोज वही करते। जो कल भी किया था, आज भी आप करते हैं। लेकिन कल
जब उस करने से कुछ उपलब्ध नहीं हुआ, तो आज कैसे उपलब्ध हो जाएगा? तीस वर्षों से मैं भी देखता
हूं। तीस वर्षों में रोज मंदिर जाते देखा, ग्रंथ पढ़ते देखा, राम-राम जपते देखा। अगर तीस
वर्षों में कुछ नहीं हुआ वही करते हुए, तो आज उसके करने से और क्या हो जाएगा?
उस
युवक ने कहा,
किसी
दिन मैं मंदिर जाऊंगा। लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, वह मेरा मंदिर जाना अंतिम
होगा। दो कारणों से। या तो मंदिर से मैं लौटूंगा ही नहीं। और या लौट आया तो फिर
मंदिर नहीं जाऊंगा। वह अंतिम और प्रथम मंदिर मेरा जाना होगा।
बाप
नब्बे बर्ष का हो गया। लड़का सत्तर वर्ष पार कर गया। सत्तरवीं वर्षगांठ थी उसकी। उस
दिन सुबह ही उसने अपने पिता के पैर छुए और कहा, मैं मंदिर जाता हूं। सारे गांव के लोग
इकट्ठे हो गए,
यह खबर
सुनकर कि वह आदमी जो कभी मंदिर के पास नहीं फटका, आज मंदिर जा रहा है। सारा
गांव इकट्ठा हो गया।
वह
व्यक्ति मंदिर गया। लेकिन वह जाना अंतिम था। मंदिर में वह आंख बंद करके खड़ा हुआ, और श्वास समाप्त हो गई। उसका
पिता रोने लगा। उसके पिता ने कहा, बहुत
बार मैं मंदिर गया लेकिन आज तक मैं मंदिर नहीं पहुंच पाया। और यह मेरा लड़का आज
मंदिर गया और पहुंच भी गया।
प्राण
अगर पूरी प्यास से--प्राण अगर पूरी प्यास से, प्राण का कण-कण अगर पूरी प्यास से भरकर एक
क्षण भी ठहर जाए,
तो
परमात्मा से मिलन सुनिश्चित है, सत्य
से मिलन सुनिश्चित है। लेकिन बिना प्यास के हम भटकते रहते हैं, भटकते रहते हैं। और पूछते
रहते हैं,
कैसे
होगा, कब होगा, क्या होगा! कभी नहीं होगा, ऐसे कभी नहीं होगा। होने के
लिए चाहिए एक त्वरा, एक
पेशन--इसी क्षण हो सकता है।
उचित
है कि इस अंतिम दिन इसको हम ठीक से समझ लें। तो खोज लें अपने भीतर कि कोई प्यास है।
न हो प्यास तो फिजूल क्यों इन सब बातों में समय को गंवाना। न हो प्यास तो ठीक है।
जिस बात की प्यास हो, उसी
तरफ जाएं। ईमानदार तो होएं अपनी प्यास में कम से कम। कम से कम एक ईमानदारी तो होनी
चाहिए। जो मेरी प्यास नहीं है, उस तरफ
नहीं जाऊंगा। जिस तरफ मेरी प्यास है, उसी तरफ जाऊंगा। चाहे दुनिया कुछ भी कहे।
अगर
इतनी ईमानदारी हो तो एक दिन सारी प्यास व्यर्थ हो जाती है, सिर्फ परमात्मा की प्यास ही
फिर शेष रह जाती है। और तब एक बल के साथ, एक त्वरा के साथ, एक गति के साथ सारा जीवन
परमात्मा के सागर की तरफ दौड़ने लगता है। जैसे नदियां सागर की तरफ दौड़तीं, पहाड़ों को छलांगती, मैदानों को पार करतीं, पत्थरों को तोड़तीं--किसी दूर
अनंत सागर की यात्रा करती रहती हैं, वैसे ही...।
लेकिन
अगर हम जीवनभर ऐसी प्यासों के पीछे भी दौड़ते रहें, जिनकी हमें कोई प्यास ही नहीं
है तो हमारा मन अगर बोथला हो जाए, कुंठित
हो जाए,
अगर
सारी गति अवरुद्ध हो जाए तो आश्चर्य नहीं है। तो मनुष्य को खोजना चाहिए--मेरी खोज
क्या है,
मेरी
सर्च क्या है,
क्या
खोजना चाहता हूं?
लेकिन
हम दूसरों की बातों से खोज में लग जाते हैं, इसलिए कठिनाई है। हम दूसरों की बातों से खोज
में लग जाते हैं! इसलिए कठिनाई है। कुछ लोग ईश्वर की बातें करते हैं, आत्मा की बातें करते हैं, हमारे लोभ को पकड़ जाती हैं वे
बातें। हम सोचते हैं, यह भी
मिल जाए तो अच्छा है। यह भी हमारे मिलने के जो बहुत से आइटम हैं हमारी लिस्ट में, जो-जो चीजें हमें पानी
हैं--फर्नीचर अच्छा, कार, मकान--इनमें इस ईश्वर को भी
सम्मिलित कर लेते हैं। यह भी, इसी, इन्हीं कमोडिटीज में, इन्हीं चीजों में एक चीज है; यह भी मिल जाए तो अच्छा ही
है।
ईश्वर
हमारे सामानों की फेहरिस्त में एक सामान नहीं है। हमारी सामग्री की चाह में एक
सामग्री नहीं है। और इस भांति जो सत्य को चाहता होगा, उसे सत्य कभी मिलने वाला नहीं
है।
ईश्वर
या सत्य बात ही और है। वह हमारे समग्र प्राणों की समग्र प्यास है--पूरी, इकट्ठी, टोटल, उससे कम नहीं। और वह तभी पैदा
होती है,
जब
जीवन की सब चीजों को हम गौर से देख-देखकर, सब तरफ पाते हैं कि कहीं कोई तृप्ति नहीं है, सब जगह असंतोष है। सब जगह जब
डिसकंटेंट मिलता है, जब सब
जगह हमारा यह भ्रम टूट जाता है कि कहीं भी नहीं कुछ संतोष मिलता, कहीं कोई शांति नहीं मिलती, कहीं कोई आनंद नहीं
मिलता...जब सब तरफ हम जांच लेते हैं, दौड़ लेते हैं, खोज लेते हैं...!
मैं कहता
हूं, खोज लेना चाहिए। क्योंकि बिना
खोजे सबको--हमारी कच्ची खोज, कच्ची
प्यास होगी। खोज लेना चाहिए ठीक से जीवन में कहां मिल सकता है आनंद, कहां मिल सकती है शांति, कहां मिल सकता है संतोष। और
जब कहीं न मिले,
जब सब
मोर्चे पराजित हो जाएं, कोई
मोर्चा न रह जाए और जब हम खड़े हो जाएं कि नहीं कहीं मिलता है, कहीं भी नहीं, नो ह्वेअर, जब दिखाई पड़े कहीं भी नहीं, उसी क्षण सारी यात्रा एक नए
बिंदु पर दौड़ने लगेगी, जो
स्वयं का है,
जो
स्वयं के भीतर है। उस तरफ एक दौड़ शुरू होगी।
लेकिन
हमारी दौड़ और तरह की है। हम एक ऐसे मकान में बैठे हुए हैं कि कोई उपदेशक आकर हमको
समझाता है कि मकान में आग लगी हुई है। हम उससे पूछते हैं, वह तो ठीक है, लगी होगी, लेकिन हम कब तक निकल पाएंगे
इस मकान से। साफ है मतलब। उपदेशक कहता है आग लगी है, इसलिए हमने मान लिया आग लगी
है, अब हम पूछ रहे हैं कि कब तक
निकल पाएंगे।
हमको
आग दिखाई पड़ जाए तो हम यह पूछेंगे कि कब तक निकल पाएंगे? उपदेशक पीछे रह जाएगा, हम पहले निकल जाएंगे। उसको एक
धक्का देंगे कि रास्ता छोड़ो, मुझे
बाहर जाने दो,
तुम
भला फिर समझाना किसी को। अब यहां समझने की फुर्सत नहीं है मुझे। हम उसे धक्का
देंगे और बाहर निकल जाएंगे।
लेकिन
हमें तो आग दिखाई नहीं पड़ती। लोग समझाते हैं कि आग लगी हुई है। जीवन में दुख है, पीड़ा है--लोग समझाते हैं।
हमारी समझ में तो कुछ आता नहीं। इसलिए हमारी समझ में कुछ और ही आता है और ये
समझाने वाले कुछ और समझाते हैं। एक झूठी प्यास पैदा हो जाती है। उस झूठी प्यास के
कारण सवाल उठता है कब तक?
अपनी
प्यास को खोजना चाहिए--क्या वह सच्ची है? और न हो सच्ची तो उस प्यास को दो कौड़ी का
समझकर फेंक देना चाहिए। चाहे वह ईश्वर की ही प्यास क्यों न हो। झूठी प्यास का कोई
मूल्य है?
झूठी
प्यास का कोई मूल्य नहीं है। फिर जो हमारी प्यास हो, उसी को ठीक से खोजना चाहिए।
और जब उस सारी खोज में नहीं मिलेगा कुछ, तब वह खोज पैदा होगी, जो उसकी है--परमात्मा की, सत्य की।
जब सब
तरफ से मन हारा,
थका--कहीं
भी नहीं पाता,
तब
उठना चाहता है,
तब
भीतर जाना चाहता है। लेकिन हमें बचपन से ही झूठी प्यासें सिखा दी जाती हैं, उससे सारी मुश्किल हो जाती
है। अपनी झूठी प्यास को छोड़ दें। सच्ची प्यास की तलाश करें। और वह तभी होगी सच्ची
प्यास की खोज,
जब आप, जो भी आपकी प्यास है...। चाहे
सारी दुनिया कहती हो कि वह गलत है, कहने दें दुनिया को। यह जिंदगी आपको मिली है
और एक बार। इसको आप किसी के कहने पर मत जीएं। हो सकता है, वे सारे लोग गलत कहते हों।
कोई महात्मा कहता हो, कोई
ज्ञानी कहता हो। मत जीएं उसकी बात को मानकर। हो सकता है वह गलत कहता हो। हो सकता
है, वह कुछ भी न जानता हो।
अपनी
प्यास का सहारा पकड़ें और खोजें। और पूरे जागरूक होकर खोजते रहें। जागरूकता भीतर
रहे और हर प्यास को खोज लें, चाहे
वह कोई प्यास हो। तो आप पाएंगे कि जागरूकता बता देगी कि प्यास व्यर्थ है, यह रास्ता कहीं भी नहीं जाता
है। और जब कोई रास्ता कहीं जाता हुआ न दिखाई पड़े, तब वह रास्ता उपलब्ध हो जाता
है, जो प्रभु तक जाता है। उसके
पहले नहीं।
प्यास
को एक सजगता,
ईमानदारी, एक त्वरा, एक गति, एक स्पष्टता देना जरूरी है।
इस संबंध में थोड़ा खोजें-बीनें। अपनी प्यास को देखें, कहीं ये झूठी बातें तो नहीं
हैं कि मैं ईश्वर को चाहता हूं। सच में चाहते हैं? तो इसी क्षण हो सकती है बात।
लेकिन पूछें अपने से, चाहता
हूं? आप खुद को ही डांवाडोल पाएंगे
भीतर, चाहता भी हूं या नहीं।
रवींद्रनाथ
ने एक अदभुत गीत लिखा है। लिखा है कि मैं ईश्वर को खोजता था बहुत-बहुत जन्मों से।
अनेक बार दूर किसी पथ पर उसकी झलक दिखाई पड़ी, मैं भागा, भागा, लेकिन तब तक वह निकल गया और
दूर। मेरी सीमा थी, उस
असीम की,
सत्य
की कोई सीमा नहीं। जन्म-जन्म भटकता रहा, कभी कोई झलक मिलती थी किसी तारे के पास।
भागता जब मैं उस तारे के पास पहुंचता, तब वह फिर कहीं और निकल गया था।
आखिर
बहुत थका,
बहुत
परेशान,
बहुत
प्यासा,
एक दिन
मैं उसके द्वार पर पहुंच गया। मैं उसकी सीढ़ियां चढ़ गया। परमात्मा के भवन की
सीढ़ियां मैंने पार कर लीं। मैं उसके द्वार पर खड़ा हो गया। मैंने सांकल हाथ में ले
ली। बजाने को ही था, तभी
मुझे खयाल आया,
अगर वह
कहीं मिल ही गया तो फिर क्या होगा? फिर मैं क्या करूंगा? अब तक तो एक बहाना था चलाने
का कि ईश्वर को खोजता हूं। फिर तो यह बहाना भी नहीं रह जाएगा। द्वार पर खड़े होकर
घबड़ाया मन कि द्वार खटकाऊं या न खटकाऊं। क्योंकि खटकाने के बाद उससे मिलना निश्चित
है। यह उसका भवन आ गया। और वह मिल जाएगा फिर? मैं उससे मिलना भी चाहता हूं? या कि केवल एक बहाना था अपने
को चलाए रखने का। अपने समय को काटने का एक बहाना था। अपने को व्यर्थ न मानने की, सार्थक बनाने की एक कल्पना
थी। चाहता हूं मैं उसे?
और तब
मन बहुत घबड़ाया और उसने कहा कि नहीं, दरवाजा मत खटखटाओ। अगर कहीं वह मिल गया तो
फिर बड़ी मुश्किल है। फिर क्या करोगे? फिर सब करना गया। फिर सब खोज गई, फिर सब दौड़ गई। फिर सारा जीवन
गया।
तब मैं
डर गया और मैंने सांकल आहिस्ता से छोड़ी कि कहीं वह सुन ही न ले। और मैंने जूते पैर
से बाहर निकाल लिए कि सीढ़ियां उतरते वक्त आवाज न हो जाए--कहीं वह आ ही न जाए। और
मैं भागा उसके द्वार से। जब मैं बहुत दूर निकल आया, तब मैं ठहरा, तब मैंने संतोष की सांस ली और
तब से मैं फिर उसका मकान खोज रहा हूं। क्योंकि खोजने में जिंदगी चलाने का एक बहाना
है। मुझे भलीभांति पता है कि उसका मकान कहां है? उसको बचकर निकल जाता हूं। खोज
जारी रखता हूं। जो भी मिलता है, उससे
पूछता हूं,
ईश्वर
कहां है?
ऐसे
जिंदगी मजे में कट रही है। एक ही डर लगता है, कहीं किसी दिन उससे मिलना न हो जाए। मकान
उसका मुझे पता है।
बड़ी
अजीब सी बात है। लेकिन हम सबके साथ ऐसा ही है। हम सबको पता है कि उसका मकान कहां
है। हम सबको मालूम है कि थोड़ा खटकाएं और द्वार खुल जाएंगे। लेकिन कोई तैयार है? किसी का मन राजी है?
समझ
लें आप उसके द्वार पर खड़े हो गए हैं जाकर और खटकाने की बात है। जैसा क्राइस्ट ने
कहा, नॉक, एंड द डोर शेल बी थ्रोन ओपन
अन टू यू,
खटखटाओ
और द्वार खुल जाएंगे। द्वार पर ही आप खड़े हैं, खटखटाने की बात है। होता है मन कि खोल लें
द्वार?
या कि
मन डरता है?
या कि
मन कहता है चलो,
वापस
लौट चलें?
खोज
बड़ी अच्छी थी,
मिल
जाने पर बड़ी मुश्किल होगी, फिर
क्या करेंगे?
मैं
निश्चित आपसे कहता हूं आप भी द्वार से वापस लौट आएंगे। या कौन जाने लौट आए हों।
रोज लौट आते हों। परमात्मा का मकान बहुत दूर तो नहीं हो सकता। है तो कहीं बिलकुल
निकट, पास--सब तरफ। उसका द्वार कहीं
किसी आकाश में,
किसी
सितारे के पास तो नहीं हो सकता। है तो हर जगह। उसके रास्ते कहीं बहुत दुर्गम तो
नहीं हो सकते। सब रास्ते उसी के हैं। जहां से भी हम चलें, उसी तक पहुंचेंगे, उसके अतिरिक्त कुछ है नहीं।
लेकिन
फिर भी हम खोज रहे हैं। तो जरूर कुछ मामला है, जरूर कुछ बात है। यह भी एक बहाना है, यह भी एक मनोरंजन है। कभी
फिल्म देख लेते हैं, कभी
सत्संग कर लेते हैं। कभी नाच-गान देख लेते हैं, कभी भजन-कीर्तन सुन लेते हैं। कभी ताश खेल
लेते हैं,
कभी
गीता पढ़ लेते हैं। इनमें फर्क थोड़े ही है। ये सब एक जैसे हैं। ये सब जिंदगी को
भरने के उपाय हैं। एक मनोरंजन है। जिंदगी फिजूल है, मीनिंगलेस है, उसमें कोई अर्थ नहीं है। सब
तरफ से हम अर्थ पैदा करने की कोशिश करते हैं। इसमें ईश्वर को भी ठकठका लेते हैं कि
शायद इससे भी कुछ अर्थ पैदा हो। शायद कुछ रस आ जाए, कुछ मजा आ जाए, कोई थ्रिल पैदा हो जाए, कोई एक्साइटमेंट मिल जाए इससे
भी। शायद इससे भी एक नया अनुभव मिल जाए। ऐसी खोज चल रही है। यह खोज कोई बहुत गहरी, कोई प्यास की खोज नहीं है। इस
सबको सोचना,
देखना, जानना चाहिए तो शायद गहरी खोज
पैदा हो जाए।
अभी
मैं जाऊं आपके पास और एकदम से कहूं, चलो चलते हो मिला दें ईश्वर से। तो आप कहोगे, कल सुबह तो मुझे घर वापस जाना
है। और टिकट तो रिजर्व करा ली है। टिकट भी रिजर्व न कराई होती तो शायद आपकी बात पर
हम विचार भी करते। फिर कभी, आगे
कभी, फिर कभी मिलिए, फिर देखेंगे, फिर सोचेंगे। ऐसा ही मन है।
और ऐसा मन कहां जाएगा, कहां
पाएगा,
क्या
करेगा?
नहीं, ऐसे मन से कुछ भी नहीं हो
सकता है। इस पूरे मन को ही फेंक देना है। एक बिलकुल नया मन चाहिए। उसकी ही हम इधर
तीन दिनों में बात करते थे।
लेकिन
बार-बार वही बात फिर पूछने हम चले आते हैं। तो लगता है ऐसा...एक मित्र अभी आए कि
क्रोध के लिए क्या करें? मैंने
उनसे कहा,
सुबह
मौजूद थे,
कल
मौजूद थे?
वे
मौजूद हैं। सुना होगा, समझा
होगा, लेकिन फिर पूछते हैं, क्रोध के लिए क्या करें! करना
चाहते हैं या नहीं करना चाहते हैं? या कि महज बहाना है कि क्या करें, क्या न करें। तो वही तो कह
रहा हूं कि क्या करें। फिर बार-बार पूछते हैं, क्या करें।
शायद
ऐसा लगता है कि इस भ्रम में कि हमें पता नहीं है क्या करें, इसलिए हम कुछ नहीं करते
हैं--चलता चला जाता है। ठीक-ठीक पता है सब बात का। करना चाहते हैं तो अभी कर सकते
हैं। क्या कठिनाई है? कब तक
पूछते रहेंगे?
कब तक
पूछते रहेंगे कि क्या करें, क्या
करें, क्या करें? नहीं, यह न पूछें। समझें और करना
शुरू कर दें। कुछ एक-आध कदम तो चलें।
एक रात
एक गांव के पास एक युवक अपनी लालटेन लिए हुए बैठा था। कोई चार बजे होंगे रात के।
पास ही दस मील दूर एक पहाड़ी थी, उसे
देखने जा रहा था। लेकिन सुबह चलेगा तो धूप हो जाएगी, कठिनाई होगी। इसलिए तीन बजे
रात उठकर चला था। फिर लालटेन लेकर गांव के बाहर पहुंचा तो अमावस की रात, घना अंधकार...तो वह लालटेन
रखकर बैठ गया। उसने सोचा कि लालटेन है छोटी सी, फीट-दो फीट तक रोशनी जाती है, दस मील का रास्ता कैसे पार
होगा? दस मील तक प्रकाश होता तो चले
भी जाते। कुछ दो फीट तक प्रकाश पड़ता है। और दस मील का लंबा रास्ता। हे भगवान, यह नहीं हो सकता। उसने दस मील
में दो फीट का भाग दिया होगा, तो समझ
में आ गया कि यह तो बहुत कठिन बात है। गणित उसे मालूम था। दो फीट की रोशनी है, दस मील का रास्ता है--अंधेरे
से भरा हुआ--काम होगा कैसे?
वह
वहां बैठ गया,
सूरज
निकल आए तो जाऊं। ऐसे तो काम नहीं चल सकता। पीछे से एक बूढ़ा आदमी भी उसी पहाड़ की
तरफ जाता था। उसने पूछा कि बेटे, तुम
बैठे क्यों हो?
उसने
कहा कि मैं इसलिए बैठा हूं कि सूरज निकल आए तो जाऊं। क्योंकि रास्ता है दस मील
लंबा और मेरे पास छोटी सी लालटेन है और दो फीट रोशनी पड़ती है। कैसे होगा यह? यह पार कैसे पड़ेगी बात?
उस
बूढ़े ने कहा,
बड़ा
पागल है तू। दो फीट रोशनी बहुत है। एक दफे में एक आदमी एक कदम से ज्यादा चलता ही
नहीं। एक कदम चल,
तब तक
रोशनी दो फीट आगे हो जाएगी। फिर एक कदम चल, तब तक रोशनी फिर दो फीट आगे हो जाएगी। तुझे
हमेशा दो फीट आगे रोशनी उपलब्ध रहेगी, तू चल तो। दस मील क्या, दस हजार मील छोटी लालटेन से पार
हो सकते हैं। लेकिन तू भी अजीब गणित लगाने बैठा है कि दो फीट रोशनी जाती है तो दस
मील के लिए कितनी रोशनी चाहिए! इतनी बड़ी लालटेन नहीं बन सकती, बहुत मुश्किल है, फिर तू कभी नहीं जा सकेगा।
तो मैं
निवेदन करूंगा,
छोटी
सी रोशनी जो भी दिखाई पड़ती हो, उसमें
चलना शुरू कर दें। रोशनी काफी है, थोड़ी
से थोड़ी भी काफी है, क्योंकि
एक कदम से ज्यादा कभी कोई चल सकता है? एक कदम चलिएगा, रोशनी और एक कदम आगे हो
जाएगी। लेकिन चलना हमें नहीं है। हम हिसाब लगाने में बहुत कुशल हैं, हम बैठकर हिसाब लगाते हैं।
मैंने
आपको कहा,
निरीक्षण
करिए क्रोध का। आप फिर पूछते हैं, क्रोध
के लिए क्या करें?
निरीक्षण
करिए। नहीं आज एकदम से हो सकेगा निरीक्षण। दो फीट ही सही, दस मील न सही, थोड़ा सा ही सही, लेकिन करें तो। कुछ चीजें हैं, जो केवल करके ही जानी जा सकती
हैं, जिन्हें जानने का और कोई उपाय
नहीं है।
एक
आदमी तैरना सीखना चाहता हो, वह कहे
कि पहले हमें तैरना सिखा दें, फिर हम
पानी में उतरेंगे। तो बड़ी मुश्किल है। क्योंकि वह कहेगा कि जब तक मैं तैरना न
सीखूं,
तब तक
पानी में उतरूं कैसे? और जब
तक कोई पानी में न उतरे तब तक तैरना सीखे कैसे? फिर बात खतम हो गई, वह किनारे पर रह जाएगा वह
आदमी, क्योंकि उसने एक शर्त लगाई है
कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं, तब तक
मैं पानी में नहीं उतर सकता! और पानी में उतरना जरूरी है तैरना सीखने के लिए भी।
तो आप
पूछते हैं कि क्या करें? पूरी, हमें सारी साधना स्पष्ट हो
जानी चाहिए। वह स्पष्ट होगी आपके चलने से। एक कदम भर स्पष्ट हो जाए तो काफी है।
फिर आप चलिए। फिर आप उतरिए पानी में। तो फिर आप सीखेंगे चलने से, गति करने से। नहीं तो जीवनभर
कभी नहीं सीखेंगे।
इधर
तीन दिनों में जो थोड़ी सी बातें हुई हैं, इसमें से कुछ भी--एक कणभर आपको दिखाई पड़ता
हो कि करने जैसा है तो करिए। और उस कणभर को करने में आप पाएंगे कि और आगे का
रास्ता आलोकित हो गया। उतना और चलिए और आप पाएंगे और बड़ा रास्ता आलोकित हो गया।
जितना चलिए,
उतना
ही रास्ता प्रकाशित होता चला जाएगा।
लेकिन
आप शुरू से लेकर आखिरी तक पूरी पंचवर्षीय योजना अभी जान लेना चाहते हों तो उसके
लिए गवर्मेंट आफ इंडिया से संबंध स्थापित करना चाहिए। वहां इस तरह की बड़ी
कारीगरियां निरंतर चलती रहती हैं! वे बड़ी लंबी योजनाएं बनाते हैं। एक कदम चलने का
जिन्हें तमीज नहीं, वे
सारे लोग हजारों कदमों की योजनाएं बनाते हैं। तो वे हजारों कदम तो कभी उठते नहीं, वह एक कदम भी जो उठ सकता था, वह भी नहीं उठ पाता है। एक
कदम काफी है।
गांधी
जी एक भजन गाया करते थे--वन स्टेप इज़ इनफ फार मी--उसमें एक पंक्ति है, एक कदम काफी है। सच है यह
बात। एक कदम काफी है। लेकिन एक कदम जो नहीं चलता और हजारों कदमों का विचार करता
रहता है,
वह खो
देता है,
जीवन
से वंचित रह जाता है।
एक और मित्र ने पूछा है कि मैं ईश्वर के दर्शन कैसे कर सकता हूं?
तो मैं
आपसे निवेदन करूंगा, "आप', अर्थात "मैं', यह कभी भी ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकता है। "मैं' की कोई भाषा ईश्वर तक ले जाने
वाली नहीं है। जिस दिन "मैं' न रह
जाएगा,
उस दिन
तो कुछ हो सकता है। लेकिन जब तक "मैं' हूं, कि मुझे करना है ईश्वर के दर्शन--तो यह
"मैं'
ही तो
बाधा है।
विक्टोरिया, महारानी विक्टोरिया अपने पति
से एक दिन लड़ पड़ी थी। उसका पति अल्बर्ट कुछ भी नहीं बोला, चुपचाप जाकर अपने कमरे में
बंद होकर द्वार उसने लगा लिया। विक्टोरिया क्रोध में थी, वह भागी हुई पीछे गई। उसने
जाकर द्वार पर जोर से धक्के मारे और कहा, दरवाजा खोलो। अल्बर्ट ने पीछे से पूछा, कौन है? उसने कहा, क्वीन आफ इंग्लैंड, मैं हूं इंग्लैंड की महारानी।
फिर पीछे से दरवाजा नहीं खुला। फिर वह दरवाजा ठोंकती रही, फिर पीछे से कोई उत्तर भी
नहीं आया,
कोई
आवाज भी नहीं।
घड़ी भर
बीत जाने के बाद उसने धीरे से कहा, अल्बर्ट, दरवाजा खोलो, मैं हूं तुम्हारी पत्नी। वह
दरवाजा खुल गया। अल्बर्ट, मुस्कुराता
हुआ सामने खड़ा था।
परमात्मा
के द्वार पर हम जाते हैं--"मैं हूं इंग्लैंड की महारानी', दरवाजा खोलो। वह दरवाजा नहीं
खुलने वाला है। यह "मैं' जो है, इगो, इसके लिए कोई दरवाजा नहीं
खुलता। दरवाजा खुलने के लिए ह्यूमिलिटि चाहिए, विनम्रता चाहिए। और विनम्रता वहीं होती है, जहां "मैं' नहीं होता है। और कोई
विनम्रता नहीं होती।
अहंकार
को लेकर कोई कभी ईश्वर तक नहीं पहुंचा है, न पहुंच सकता है। खो देना पड़ेगा स्वयं को
तो। छोड़ देना पड़ेगा स्वयं के इस भाव को कि मैं हूं। इसे हम बड़े जोर से पकड़े हुए
हैं कि "मैं हूं'। एक
सख्त दीवाल बन गई हमारे चारों तरफ, जिसमें कोई किरणें प्रकाश नहीं करतीं, नहीं प्रवेश कर पाती हैं। छोड़
देना होगा इस "मैं' को। तो
मैं ईश्वर के दर्शन करना चाहता हूं--यह भाषा ही गलत है।
और
दूसरी बात। ईश्वर के दर्शन की बात भी गलत है। ईश्वर का दर्शन कोई आदमी का दर्शन
थोड़े ही है कि आप गए और सामने खड़े हो गए और आपने दर्शन कर लिया! ईश्वर कोई व्यक्ति
तो नहीं है। कोई रूप-रंग, कोई
रेखा तो नहीं है। ईश्वर के दर्शन का मतलब: किसी व्यक्ति का कोई दर्शन थोड़े ही मिल
जाने वाला है! ईश्वर के दर्शन का मतलब है: वह जो जीवंत चेतना है, सर्वव्यापी, वह जो ऊर्जा है, वह जो शक्ति है जीवन की, वह जो सृजन का मूल-स्रोत है, वह जो सब तरफ व्याप्त
अस्तित्व है,
वह जो
एक्जिसटेंस है--वही सब, उस
सबका इकट्ठापन,
उसकी
टोटेलिटी,
उसकी
होलनेस,
यह
अस्तित्व की समग्रता और पूर्णता ही, ईश्वर है।
तो जिस
दिन मेरे अहंकार की बूंद इस विराट अस्तित्व के सागर में खोने को राजी हो जाती है, उसी दिन मैं उसे उपलब्ध हो
जाता हूं,
मैं
उसे जान लेता हूं। बूंद खो जाए तो सागर के साथ एक हो जाती है। लेकिन बूंद कहे कि
मैं सागर को जानना चाहती हूं, फिर
बहुत कठिनाई है। बूंद कहे कि मैं मिटने को राजी हूं, तो जिस जगह वह मिट जाएगी, उसी जगह वह सागर को उपलब्ध हो
जाती है--वहीं मिल जाएगी सागर से। अहंकार की बूंद लिए रास्ता तय नहीं हो सकता है।
इसलिए
यह मत पूछें कि मैं ईश्वर के दर्शन को उपलब्ध हो सकता हूं? नहीं, न तो "मैं' ईश्वर के दर्शन को उपलब्ध हो
सकता है,
और न
ईश्वर का दर्शन किसी व्यक्ति का दर्शन है।
एक मित्र ने पूछा है कि ध्यान में बैठता हूं, तो बस अंधकार ही अंधकार दिखाई
पड़ता है। कोई प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता।
प्रकाश
दिखाई पड़ने की जरूरत क्या है? अंधकार
दिखाई पड़ता है,
यही एक
बीमारी है। धीरे-धीरे यह भी दिखाई नहीं पड़ेगा। जब कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा--कुछ भी; जब कुछ भी अनुभव में नहीं
उतरेगा--कुछ भी;
रह
जाएंगे केवल जागरूक; रह
जाएगा केवल ज्ञान,
बोध
मात्र;
रह
जाएगी केवल कांशसनेस और सामने कोई भी आब्जेक्ट नहीं, कोई भी विषय नहीं, कोई भी अनुभव नहीं, उसी क्षण जो जान लिया जाता है, वह समग्रता का अनुभव है। उसे
हम प्रेम की भाषा में परमात्मा कहते हैं।
परमात्मा
शब्द सिर्फ हमारी प्रेम की भाषा है। अन्यथा सत्य ही कहना उचित है। उस दिन हम जान
पाते हैं,
सत्य
क्या है। लेकिन सत्य को जब हम प्रेम की तरफ से देखते हैं, जब हम सत्य को प्रेम से देखते
हैं तब सत्य बड़ा दूर मालूम पड़ता है, बड़ा गणित का सिद्धांत मालूम पड़ता है, मैथमेटिकल मालूम पड़ता है।
उससे कोई संबंध पैदा होता नहीं मालूम पड़ता, तब हम कहते हैं, परमात्मा। और तब एक संबंध
बनता हुआ मालूम पड़ता है। एक प्रेम का नाता और एक सेतु बनता हुआ मालूम पड़ता है।
एक मित्र ने पूछा है कि मैं आखिरी में कहता हूं कि आप सबके भीतर
परमात्मा के लिए प्रणाम करता हूं। या कभी कहता हूं कि परमात्मा करे...तो मेरा मतलब
क्या है?
मेरा
मतलब किसी ऐसे परमात्मा से नहीं, जो ऊपर
बैठा है और सब चला रहा है। मेरा मतलब सबके भीतर बैठी हुई, सोई हुई चेतना से है। उस
चेतना को ही बुलाता हूं। कोई दूर किसी परमात्मा को नहीं। वह जो आपके भीतर है और
कण-कण में,
पत्ते
में, पत्थर में, सब में है।
और
हमारे शब्द और हमारी भाषा सब असमर्थ है ऐसे तो उसके बाबत कुछ कहने में। लेकिन फिर
कुछ इशारे अत्यंत जरूरी हैं। तो कोई नाम हम दे दें, परमात्मा कहें, सत्य कहें या कुछ भी कहें, कुछ भी कहें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
मोक्ष कहें,
निर्वाण
कहें, ब्रह्म कहें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
हमारे सब शब्द एक से असमर्थ हैं, उसे
सूचित करने में। लेकिन शब्द के बिना कोई सूचना भी कठिन है।
तो
इसीलिए निःशब्द में जाने का हम प्रयोग करते हैं, शब्द को छोड़ने का, ताकि वहां शायद उसका स्पर्श, उसका संस्पर्श हो सके।
एक
अंतिम बात फिर हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।
अंतिम बात यह मुझे कहनी है, वह भी एक मित्र ने पूछा है कि
हम कैसे हो जाएं कि वह प्रगट हो सके?
एक
छोटी सी कहानी अंत में कह देनी है। उसके साथ ही बात पूरी हो जाएगी।
एक
पंडित था। बहुत शास्त्र उसने पढ़े थे। बहुत शास्त्रों का ज्ञाता था। उसने एक तोता
भी पाल रखा था। पंडित शास्त्र पढ़ता था, तोता भी दिन-रात सुनते-सुनते काफी शास्त्र
सीख गया था। क्योंकि शास्त्र सीखने में तोते जैसी बुद्धि आदमी में हो, तभी आदमी भी सीख पाता है। सो
तोता खुद ही था। पंडित के घर और पंडित भी इकट्ठे होते थे। शास्त्रों की चर्चा चलती
थी। तोता भी काफी निष्णात हो गया। तोतों में भी खबर हो गई थी कि वह तोता पंडित हो
गया है।
फिर
गांव में एक बहुत बड़े साधु का, एक
महात्मा का आना हुआ। नदी के बाहर वह साधु आकर ठहरा था। पंडित के घर में भी चर्चा
आई। वे सब मित्र,
उनके
सत्संग करने वाले सारे लोग, उस
साधु के पास जाने को तैयार हुए कुछ जिज्ञासा करने। जब वे घर से निकलने लगे तो उस
तोते ने कहा,
मेरी
भी एक प्रार्थना है, महात्मा
से पूछना,
मेरी
आत्मा भी मुक्त होना चाहती है, मैं
क्या करूं?
मैं
कैसा हो जाऊं कि मेरी आत्मा मुक्त हो जाए?
सो उन
पंडितों ने कहा,
उन
मित्रों ने कहा कि ठीक है, हम
जरूर तुम्हारी जिज्ञासा भी पूछ लेंगे। वे नदी पर पहुंचे, तब वह महात्मा नग्न नदी पर
स्नान करता था। वह स्नान करता जा रहा था। घाट पर ही वे खड़े हो गए और उन्होंने कहा, हमारे पास एक तोता है, वह बड़ा पंडित हो गया है।
उस
महात्मा ने कहा,
इसमें
कोई भी आश्चर्य नहीं है। सब तोते पंडित हो सकते हैं, क्योंकि सभी पंडित तोते होते
हैं। हो गया होगा। फिर क्या?
उन
मित्रों ने कहा,
उसने
एक जिज्ञासा की है कि मैं कैसा हो जाऊं, मैं क्या करूं कि मेरी आत्मा मुक्त हो सके?
यह
पूछना ही था कि वह महात्मा जो नहा रहा था, उसकी आंख बंद हो गईं, जैसे वह बेहोश हो गया हो, उसके हाथ-पैर शिथिल हो गए।
धार थी तेज,
नदी
उसे बहा ले गई। वे तो खड़े रह गए चकित। उत्तर तो दे ही नहीं पाया वह, और यह क्या हुआ! उसे चक्कर आ
गया, गश्त आ गया, मूर्च्छा हो गई, क्या हो गया? नदी की तेज धार थी--कहां नदी
उसे ले गई,
कुछ
पता नहीं।
वे बड़े
दुखी घर वापस लौटे। कई दफा मन में भी हुआ इस तोते ने भी खूब प्रश्न पुछवाया। कोई
अपशगुन तो नहीं हो गया। घर से चलते वक्त मुहूर्त ठीक था या नहीं? यह प्रश्न कैसा था, प्रश्न कुछ गड़बड़ तो नहीं था? हो क्या गया महात्मा को?
वे सब
दुखी घर लौटे। तोते ने उनसे आते ही पूछा, मेरी बात पूछी थी? उन्होंने कहा, पूछा था। और बड़ा अजीब हुआ।
उत्तर देने के पहले ही महात्मा का तो देहांत हो गया। वे तो एकदम बेहोश हुए, मृत हो गए, नदी उन्हें बहा ले गई। उत्तर
नहीं दे पाए वह।
इतना
कहना था कि देखा कि तोते की आंख बंद हो गईं, वह फड़फड़ाया और पिंजड़े में गिरकर मर गया। तब
तो निश्चित हो गया, इस
प्रश्न में ही कोई खराबी है। दो हत्याएं हो गईं व्यर्थ ही। तोता मर गया था, द्वार खोलना पड़ा तोते के
पिंजड़े का।
द्वार
खुलते ही वे और हैरान हो गए। तोता उड़ा और जाकर सामने के वृक्ष पर बैठ गया। और तोता
वहां बैठकर हंसा और उसने कहा कि उत्तर तो उन्होंने दिया, लेकिन तुम समझ नहीं सके।
उन्होंने कहा,
ऐसे हो
जाओ, मृतवत, जैसे हो ही नहीं। मैं समझ गया
उनकी बात। और मैं मुक्त भी हो गया--तुम्हारे पिंजड़े के बाहर हो गया। अब तुम भी ऐसा
ही करो,
तो
तुम्हारी आत्मा भी मुक्त हो सकती है।
तो अंत
में मैं यही कहना चाहूंगा: ऐसे जीएं जैसे हैं ही नहीं। हवाओं की तरह, पत्तों की तरह, पानी की तरह, बादलों की तरह। जैसे हमारा
कोई होना नहीं है। जैसे मैं नहीं हूं। जितनी गहराई में ऐसा जीवन प्रगट होगा, उतनी ही गहराई में मुक्ति
निकट आ जाती है।
इन तीन
दिनों में इस तरह ही जी सकें। उसी के लिए मैंने सारी बातें कहीं हैं। इस तरह जीएं, जैसे नहीं हैं। बस, साधना का इससे ज्यादा गहरा
कोई और सूत्र नहीं है।
अब हम
रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे और फिर विदा होंगे। यह अंतिम रात्रि है, इसलिए बहुत शांति से ध्यान
में जाने का प्रयोग करें। इसलिए बहुत शांति से ध्यान में जाने का प्रयोग करें।
सब लोग
थोड़े दूर चले जाएं।...अपनी-अपनी जगह रुक जाएं, जो जहां हैं। कोई किसी तरह की बातचीत नहीं
करेगा। जो लोग खड़े हैं या बैठे हैं, वे सबका ध्यान रखेंगे--थोड़ी भी गड़बड़ न हो।
शांति
से लेट जाएं।...सारे शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें। वैसे ही जैसा अभी मैंने कहा, जैसे आप हों ही नहीं। बिलकुल
ढीला छोड़ दें। जैसे कोई जीवन भी नहीं है। बिलकुल शिथिल छोड़ दें।...
शरीर
शिथिल हो रहा है,
छोड़
दें। आंख आहिस्ता से बंद कर लें।...शरीर शिथिल हो रहा है, अनुभव करें। शरीर शिथिल हो
रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है।
शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है। छोड़ दें। शरीर शिथिल हो गया है।
श्वास
शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है। श्वास भी बिलकुल
ढीली छोड़ दें।...अब बिलकुल शांत और मौन चारों तरफ जो भी आवाजें सुनाई पड़ रही हैं, उन्हें सुनें। रात्रि की
आवाजें आ रही हैं,
जंगल
का सन्नाटा बोल रहा है, उसे
मौन, जागे हुए सुनते
रहें।...सुनें।...शांति से सुनें। भीतर जागे रहें और सुनते रहें।...सुनते-सुनते ही
मन शांत होता जाएगा।...सुनते-सुनते मन एकदम नीरव, एकदम शांत हो जाएगा।...सुनें।
...सुनें, रात्रि के सन्नाटे को सुनें।
सुनते-सुनते ही मन शांत और मौन होता जाएगा।
मन
शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन
शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है।
मन
शांत होता जा रहा है...मन शांत हो रहा है।
मन
शांत हो गया है...मन शांत हो गया है...मन बिलकुल शांत हो गया है।
मन
शांत हो गया है...मन एकदम शांत हो गया है। मन शांत हो गया है। मन शांत हो गया है।
मन
बिलकुल शांत और शून्य हो गया है। शून्य, बिलकुल शून्य हो गया है।
अब
धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें।...धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें। फिर बहुत
आहिस्ता से आंख खोलें। जैसी शांति भीतर है, वैसी ही बाहर भी है।...धीरे-धीरे आंख खोलें
और बाहर देखें।...फिर धीरे-धीरे उठ आएं।...शांति से मौन चुपचाप उठकर बैठते
जाएं।...धीरे,
आहिस्ता
अपनी-अपनी जगह चुपचाप बैठ जाएं।
दुख
पहुंचाने वाली बात आपको मैंने कही हो, किसी को भी--स्वप्न में भी दुख पहुंचाने का
मेरा मन नहीं है। लेकिन मजबूरी है? कुछ बातें दुख पहुंचाने वाली हो सकती हैं।
अंत
में, किसी को दुख पहुंच गया हो, उससे मैं क्षमा मांगता
हूं--सभी से। और विदाई के इन क्षणों में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता
हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
समाप्त
आज इतना ही।
साधना-शिविर माथेरान, दिनांक २१-१०-६७, रात्रि
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