गुरु
मारैं
प्रेम का
बान—(प्रवचन—पहला)
दिनांक
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
सूत्र:
अब
तेरी शरण आयो
राम।।
जबै सुनिया
साध के मुख, पतितपावन
नाम।।
यही
जान पुकार कीन्ही, अति
सतायो
काम।।
विषय
सेती भयो आजिज, कह
मलूक
गुलाम।।
सांचा
तू गोपाल, सांच
तेरा नाम है।
जहंवां
सुमिरन होय, धन्य
सो ठाम है।।
सांचा
तेरा भक्त, जो
तुझको जानता।
तीन
लोक को राज, मनैं
नहिं आनता।।
झूठा
नाता छोड़ि, तुझे
लव लाइया।
सुमिरि तिहारो
नाम, परम पद पाइया।।
जिन
यह लाहा
पायो, यह जग आइकै।
उतरि गयो भव पार, तेरो
गुन गाइकै।।
तुही मातु
तुही
पिता, तुही हितु
बंधु है।
कहत मलूकदास, बिन
तुझ धुंध है।।
कौन मिलावै
जोगिया हो, जोगिया
बिन रह्यो
न जाई।।
मैं
जो प्यासी पीव
की,
रटत फिरौं
पिव पीव।।
जो
जोगिया नहिं मिलिहै हो, तो
तुरत निकासूं
जीव।।
गुरुजी
अहेरी मैं
हिरनी, गुरु मारैं
प्रेम का बान।
जेहि
लागै सोई जानई हो, और
दरद नहिं
जान।।
कहैं
मलूक सुनु
जोगिनी रे, तनहिं
में मनहि समाय।
तेरे
प्रेम के कारने
जोगी सहज मिला
मोहिं
आय।।
बाबा मलूकदास!
यह नाम ही ऐसा
प्यारा है! तन—मन—प्राण
में मिसरी घोल
दे! ऐसे तो
बहुत संत हुए
हैं,
सारा आकाश
संतों के जगमगाते
तारों से भरा
है, पर मलूकदास
की तुलना किसी
और से नहीं हो
सकती। मलूकदास
बेजोड़
हैं। उनकी
अद्वितीयता
उनके अल्हड़पन
में है—मस्ती
में, बेखुदी
में। यह नाम
मलूक का मस्ती
का पर्यायवाची
हो गया। इस
नाम में ही
कुछ शराब है।
यह नाम ही दोहराओ
तो भीतर नाच
उठने लगे।
मलूकदास न
तो कवि हैं, न
दार्शनिक हैं,
न
धर्मशास्त्री
हैं। दीवाने
हैं, परवाने
हैं! और
परमात्मा को
उन्होंने ऐसे
जाना है जैसे
परवाना शमा को
जानता है। वह
पहचान बड़ी और
है। दूर—दूर
से नहीं, परिचय
मात्र नहीं है
वह पहचान—अपने
को गंवा कर, अपने को मिटाकर
होती है। रामदुवारे
जो मरे! राम के
द्वार पर मरकर
राम को पहचाना
है। सस्ता
नहीं है काम।
कविता लिखनी
तो सस्ती बात
है; कोई भी
जो तुक जोड़
लेता हो, कवि
हो जाए। लेकिन
मलूक की मस्ती
सस्ती बात नहीं
है; महंगा
सौदा है। सब
कुछ दांव पर
लगाना पड़ता
है। ज़रा
भी बचाया तो
चूके। रत्ती
भर बचाया तो
चूके। निन्याबे
प्रतिशत दांव
पर लगाया और
एक प्रतिशत भी
बचाया तो चूके,
क्योंकि उस
एक प्रतिशत
बचाने में ही
तुम्हारी
बेईमानी
जाहिर हो गयी।
निन्यानबे
प्रतिशत दांव
पर लगाने में
तुम्हारी
श्रद्धा
जाहिर न हुई, मगर एक
प्रतिशत
बचाने में
तुम्हारा काईयांपन
जाहिर हो गया।
दांव तो हो तो
सौ प्रतिशत
होता है; नहीं
तो दांव नहीं
होता, दुकानदारी
होती है।
मलूक
के साथ चलना
हो तो जुआरी
की बात समझनी
होगी; दुकानदार
की बात छोड़
देनी होगी। यह
दांव लगानेवाले
की बात है—दीवानों
की!—धर्म—शास्त्री
नहीं है। नहीं
समझ में पड़ता
कि वेद पढ़े
होंगे। नहीं
समझ में पड़ता
कि उपनिषद
जाने होंगे।
लेकिन फिर भी
वेदों का जो
राज है और
उपनिषदों का
जो सार है, वह
उनके प्राणों
से बिखरा है, पाला है।
वेद जानकर कभी
किसी ने वेद
जाने? स्वयं
को जानकर वेद
जाने जाते
हैं। चार वेद
नहीं हैं— एक
ही वेद है! वह
तुम्हारे
भीतर है; वह
तुम्हारे
चैतन्य का है।
और एक सौ आठ
उपनिषद नहीं
हैं—एक ही
उपनिषद है! और
वह उपनिषद
शास्त्र नहीं
है; स्वयं
की सत्ता है।
मलूकदास
पंडित नहीं
हैं,
ज्ञानी
नहीं हैं। मलूकदास
से पहचान करनी
हो तो मंदिर
को मधुशाला
बनाना पड़े। तो
पूजा—पाठ से
नहीं होगा।
औपचारिक
आडंबर से
परमात्मा
नहीं सधेगा।
हार्दिक
समर्पण
चाहिए।
समर्पण—जो कि
समग्र हो!
समर्पण ऐसा कि
झुको तो फिर
उठो नहीं।
उसके द्वार पर
झुक गए तो फिर
उठना कैसा! जो
काबा से लौट
आता है वह
काबा गया ही
नहीं। जो मंदिर
से वापिस आ
जाता है वह
कहीं और गया
होगा, मंदिर
नहीं गया।
मैंने
सुना है—
बंगाल
में एक बहुत
बड़ा वैयाकरण
हुआ। कभी मंदिर
नहीं गया।
उसके पिता
बूढ़े होने लगे
थे,
नब्बे साल
की उम्र हो
गयी पिता की।
बेटा भी अब कोई
सत्तर पार कर
रहा है। आखिर
पिता ने कहा
कि तू कब
जाएगा मंदिर,
कब राम को
पुकारेगा? तो
बेटे ने कहा :
मैं हूं
व्याकरण का
ज्ञाता। एक
वचन में "राम",
"राम"
जिंदगी भर
कहने से क्या
फायदा? बहुवचन
में एक ही बार
राम को पुकार
लेंगे। और एक
ही बार पुकारूंगा!
और पुकार
सच्ची होगी तो
एक ही बार में
पहुंच जाएगी।
और पुकार अगर
झूठी है तो करोड़
बार में भी
कैसे पहुंच
सकती है? नाव
अगर कागज की
है तो करोड़
बार चलाओ, डूब—डूब
जाएगी। नाव
सच्ची हो तो
बस एक बार छोड़ी
कि उस पार
पहुंची। ऐसे
अंधेरे में
तीर चलाने से
क्या फायदा है?
एक बार
समग्र शक्ति
लगाकर सारी
आंखों को एकजुट
करके, एकाग्र
करके पुकार
लूंगा राम को।
पिता ने कहा :
मैं बूढ़ा हो
गया हूं, तू
भी सत्तर साल
का हुआ, अब
इन व्यर्थ की
बातों में मत
लगा रह। जब भी
तुझसे कहता
हूं, तभी
तू यह बात
कहता है—एक
बार पुकार
लूंगा! आखिर
कब पुकारेगा?
तो उसने कहा
: आज ही पुकार
लेता हूं।
बेटा
मंदिर गया।
जैसे बाप भी
रोज मंदिर
जाता था. . .जिंदगीभर
का नियम था।
बाप राह देखता
रहा कि बेटा
लौटता होगा, लौटता
होगा, लौटता
होगा। नहीं
लौटा। दोपहर
होने लगी, सूरज
ढलने लगा, तो
बाप भागा
मंदिर गया कि
बात क्या हुई?
तब तक मंदिर
से भी लोग आ
रहे थे, उन्होंने
कहा कि
तुम्हारा
बेटा तो चल
बसा। उसने तो
बस एक बार
मूर्ति के
सामने खड़े होकर
जोर से "राम"
को पुकार दी
और वहीं गिर
गया। फिर उठा
नहीं।
ऐसा
रास्ता है
जुआरी का। रामदुवारे
जो मरे! वह परम
जीवन को
उपलब्ध हो
जाता है।
लेकिन
हम हैं चालबाज, हम
हैं होशियार।
होशियारी ही
हमारी डुबा
रही है। हमारी
होशियारी ही
हमारी फांसी
बनी है। हम
परमात्मा के
साथ भी हिसाब—
किताब से चलते
हैं। उसके साथ
भी हम सौदा
करते हैं। मैं
इतना दूंगा तो
तुम कितना
दोगे? मैं
इतना पुण्य
करूंगा तो
मुझे स्वर्ग
में मिलेगा? मैं इतना
दान दूंगा तो
इसका कितना फल
होगा? और
तुम्हें शोषण
करनेवाले
पंडित हैं, पुरोहित
हैं। वे कहते
हैं : यहां एक
पैसा दो, वहां
करोड़गुना
पाओगे।
यह तो
धर्म न हुआ, कुछ
लाटरी की बात
हो गयी। और तब
लोभी इस तरह
के धर्म में
उत्सुक होते
हैं—प्रेमी
नहीं, लोभी।
और प्रेम का
लोभ से क्या
नाता है!
प्रेम जानता
है समर्पण, मांगता नहीं
हालांकि
मिलता है
बहुत। करोड़गुना
ही क्यों, अनंत—अनंत
गुना मिलता
है! मगर मिलने
की आकांक्षा
प्रेम में
नहीं होती।
प्रेम तो सिर्प
देकर ही धन्यभागी
है; चढ़ा कर
कृतकृत्य है,
कृतार्थ
है। स्वीकार
किया
परमात्मा ने
मेरी भेंट को,
मेरी आहुति
को, इतना
ही क्या कम है!
इतना आनंद
बहुत है। इतना
आनंद भी समाएगा
नहीं। छाती
छोटी पड़ जाएगी,
पूरा आकाश
छाती में उतर
आएगा।
प्रेमी
देने में मस्त
होता है। लोभी
देता भी है
अगर,
तो आंख के
कोनों से
देखता रहता है
कि वापिस मिल
रहा है कि
नहीं मिल रहा
है। और ज्यादा
मिल रहा है कि
नहीं मिल रहा
है। जितना
लगाया है, कम—से—कम
ब्याज सहित तो
मिलना ही
चाहिए! और
जिसको ब्याज
की चिंता है, वह निर्ब्याज
नहीं हो पाता,
सरल नहीं हो
पाता। जिसको
पाने की
आकांक्षा है,
उसका त्याग
झूठा। त्याग
तो सच्चा तभी
है जब त्याग
अपने—आप में
अपना लक्ष्य
है; कोई और
गंतव्य नहीं,
कोई और
मंजिल नहीं, जब त्याग
अपने में अपना
आनंद है।
इसलिए मलूकदास
कहते हैं : रामदुवारे
जो मरे! आते
होओ इस रास्ते
पर तो मरने की
तैयारी लेकर
आना। यह
रास्ता
परवानों का
है। और कितनी
सदियां हो
गयीं, परवाने शमाओं पर
मरते ही जाते
हैं! क्योंकि
मरने में कुछ
राज है जो
परवाना ही
जानता है। दूर
खड़े हुए, देखने
वाले, दर्शक
उस सत्य को
कभी नहीं देख
सकते; वह
आंतरिक अनुभव
है। मिटने का
मजा, गलने का मजा, खो
जाने का मजा—परवाना
जानता है! और
परमात्मा तो
परम ज्योति है।
उस परम ज्योति
के सामने
तुम्हें खो
जाने की
तैयारी करनी
होगी।
समर्पण
संन्यास है। समग्ररूप
समर्पण
संन्यास है।
मलूकदास ने
परिभाषा ठीक
कर दी
संन्यासी की : रामदुवारे
जो मरे! ......राम
के द्वार पर
झुक गया सिर
तो उठना क्या!
लौटकर देखना
क्या! हिसाब—किताब
क्या लगाना!
मलूकदास के
जीवन के संबंध
में कुछ थोड़ी—ही
बातें ज्ञात
हैं। वे
प्रतीकात्मक
हैं। समझ लेने
जैसी हैं। ऊपर
से तो नहीं
दिखायी पड़तीं
कि बहुत कीमती
हैं,
लेकिन अगर
उन प्रतीकों
के भीतर
प्रवेश करोगे तो
जरूर बड़े राज,
बड़े
रहस्यों के
द्वार
खुलेंगे।
जो
पहली घटना
उनके संबंध
में ज्ञात है, वह
है कि बचपन से
ही एक अजीब—सी
आदत उन्हें
थी। रास्ते पर
कोई कांटा पड़ा
मिल जाए तो
हजार काम
छोड़कर पहले उस
कांटे को
हटाते। छोटे
थे तब से! कूड़ा—करकट
कहीं पड़ा मिल
जाए......और भारत
के रास्ते! कूड़ा—करकट
की कोई कमी है!
कांटों की कोई
कमी है! काम के
लिए भेजा जाता
तो घंटों लग
जाते, क्योंकि
पहले वे
रास्ता साफ
करें, कूड़ा—करकट हटाएं,
कांटें बीनें। कभी—कभी
सुबह घर से
भेजे जाएं कि
जाकर बाजार से
सब्जी ले आओ, सांझ लौटें।
दिनभर
मां उनकी राह
देखे कि तुम
रहे कहां, गए
कहां? तो
वे कहते : और भी
जरूरी काम आ
गए, सब्जी
से भी ज्यादा
जरूरी काम आ
गया, रास्ते
पर कांटे थे, कूड़ा—करकट था, उसे
बीना, हटाया।
ऐसे तो
यह छोटी—सी
बात है, लेकिन
छोटी नहीं।
जीवनभर भी यही
किया—लोगों के
रास्तों पर से
कांटे बीने।
लोगों के जीवन
से कांटे बीने!
लोगों के मनों
में भरा हुआ कूड़ा—कचरा
साफ किया। पूत
के लक्षण
पालने में!
एक
सद्गुरु ने यह
उन्हें करते
देखा था कि वे
रास्ते पर
कांटे बीन रहे
हैं,
कूड़ा—करकट बीन रहे
हैं, तो वह
सद्गुरु उनके
पीछे हो लिया।
दिनभर इस
छोटे—से बच्चे
की यह अद्भुत
जीवनशैली
देखता रहा। सांझ
को लौटकर उसने
मलूकदास
के पिता सुंदरदास
को कहा : धन्यभागी
हो तुम!
तुम्हारे घर
एक सद्गुरु
पैदा हुआ है।
सुंदरदास ने
तो सिर ठोंक
लिया। सुंदरदास
ने कहा : हम परेशान
हैं इस
सद्गुरु से!
किसी काम का
नहीं। छोटे—मोटे
काम को भेजो, दिनभर
व्यतीत हो
जाता है, लौटता
ही नहीं। यह
तो किसी भंगी
के घर पैदा होता
तो अच्छा था।
यह पिछले जन्म
का भंगी होगा।
इसको पता नहीं
क्या धुन है!
मारा, पीटा,
धमकाया, सब
तरह से समझाया
कि यह अपना
काम नहीं।
तुझे क्या
लेना—देना है?
और कुछ करना
है कि रास्ते
ही साफ करते
रहने हैं?
मगर
छोटा—सा बच्चा
मलूकदास
हंसता और वह
कहता कि यही
काम जिंदगी भर
मुझे करना है, सो
अभ्यास कर रहा
हूं।
लेकिन
उस सद्गुरु ने
कहा कि मत, मत
ऐसी बात कहो।
तुम्हें पता
नहीं तुम क्या
कह रहे हो।
तुम्हारे घर
ज्योति उतरी
है! अभी कुछ और नहीं
कर सकता, छोटा
बच्चा है, तो
बाहर का कूड़ा—कचरा
साफ कर रहा
है। जल्दी ही
यह भीतर का कूड़ा—कचरा
साफ करेगा।
बहुत लोगों के
जीवन इसके कारण
स्वच्छ और
निर्मल
होंगे। और
देखते हो—सद्गुरु
ने कहा—यह
आजानुबाहु है!
इसकी बाहुएं
कितनी लंबी
हैं! घुटनों
तक पहुंचती
हैं! यह तो चक्रवर्ती
सम्राट होगा
और या एक
अद्भुत बुद्धपुरुष।
जैसे
बुद्ध के
संबंध में
ज्योतिषियों
ने कहा था कि
या तो यह
चक्रवर्ती
सम्राट होगा
और या फिर परम
बुद्ध—ठीक
वैसी ही बात
उस सद्गुरु ने
मलूकदास
के संबंध में
कही। बुद्ध के
संबंध में तो
समझ में भी आ
सकता है कि
चक्रवर्ती
हों शायद, क्योंकि
राजा के बेटे
थे। मलूकदास
तो एक साधारण
दीन—हीन
परिवार में
पैदा हुए थे।
इनके संबंध
में तो कल्पना
भी करनी कि ये
चक्रवर्ती
सम्राट होंगे,
असंभव थी।
बुद्ध तो हो
भी सकता था
चक्रवर्ती सम्राट
हो जाएं।
सम्राट के
बेटे थे, राज्य
और थोड़ा बड़ा
हो सकता है।
लेकिन मलूकदास......!
पिता
ने पूछा कि
मजाक तो नहीं
कर रहे हैं? यह
कोई बुद्ध तो
नहीं है।
बुद्ध तो
चक्रवर्ती सम्राट
हो सकते थे, मगर यह तो
मुझ गरीब को
बेटा है। यह
कैसे चक्रवर्ती
सम्राट होगा?
सद्गुरु
ने जो बात कही, वह
बड़ी प्यारी
है! उसने कहा
कि यह सद्गुरु
हो जाएगा, वही
चक्रवर्ती
सम्राट होना
है। दुनिया
जीत कर थोड़े
ही जीती जाती
है! परमात्मा
को जो जीत लेता
है, वह
दुनिया को जीत
लेता है।
दुनिया
को जीतने के
दो ढंग हैं : एक
सिकंदर का ढंग
है और एक
बुद्ध का। सिकंदर
दुनिया जीतने
चलता है और
हारा हुआ मरता
है,
खाली हाथ
जाता है। और
बुद्ध दुनिया
नहीं जीतते, अपने भीतर
विराजमान परम
सत्य को जीतते
हैं—और उसको
जीतते ही सारी
दुनिया जीत ली
जाती है।
मैंने
सुना है......पुरानी
कथा है—
शिवजी
अपने बच्चों
के साथ खेल
रहे हैं—गणेश
और
कार्तिकेय।
और उन्होंने
खेल—खेल में
कहा कि तुम
दोनों जाओ और
दुनिया का चक्कर
लगाकर लौटो, जो
पहले आ जाएगा,
उसे इनाम
मिलेगा।
कार्तिकेय तो
एकदम रफूचक्कर
हो गया! इधर
उसने सुनी कि
भागा! गणेशजी
वैसे भी भाग
नहीं सकते।
ऐसा शरीर लेकर
कहां भागेंगे!
और कार्तिकेय से
कहां जीत
पाएंगे! लेकिन
पुरस्कार
गणेश को मिला।
कैसे मिला यह
पुरस्कार? यह
कथा प्यारी है
और बड़ी सूचक
है। गणेश कहीं
नहीं गए।
शिवजी ने खुद
भी कहा कि उठो
भी, कुछ दो—चार
कदम तो चलो!
कार्तिकेय
चक्कर लगाने
चला गया है, सारे विश्व
का भ्रमण करके
वह आता ही
होगा। गणेशजी
ने कहा : आप
फिक्र छोड़ें।
वे उठे और
उन्होंने
शिवजी का एक
चक्कर लगाया
और कहा कि यह
मेरा सारी
दुनिया का
चक्कर हो गया।
आपका चक्कर
लगा लिया, फिर
क्या शेष बचा?
कार्तिकेय
जब तक आया तब
तक पुरस्कार
बंट चुका था।
शिव ने कहा :
कार्तिकेय, मैं
क्या कर सकता
हूं? तू हार
गया दांव, गणेश
जीत गया। मुझे
तो शक था कि यह
हारेगा। मगर
इसने बुद्धों
की राह पकड़
ली।
कार्तिकेय
गया सिकंदर के
मार्ग पर।
गणेश गए बुद्ध
के मार्ग पर।
सारी
दुनिया का
चक्कर लगाओ तो
बड़ी लंबी
यात्रा है; शायद
पूरी हो भी न।
किसकी हो पायी
है? महत्त्वाकांक्षी
की यात्रा
हमेशा अधूरी
रह जाती है।
वासना की दौड़
कभी पूरी न
हुई है, न
होगी। वासना दुष्पूर
है। लेकिन जो
स्वयं को पा
लेता है, जो
परमात्मा को
पा लेता है, उसने सब पा
लिया; उसे
पाने को क्या
रहा? मालिक
को पा लिया, तो उसकी
सारी मालकियत
अपनी हो गयी।
एक
सम्राट लौटता
था अपने घर—सारी
दुनिया की विजययात्रा
करके। उसकी सौ
रानियां थीं।
उसने खबर भेजी
कि जिसे जो
चाहिए हो वह
मैं लेता आऊं।
किसी ने कहा, कोहिनूर
हीरा लेते आना
और किसी ने
कहा कि स्वर्ण—आभूषण
लेते आना और
किसी ने कहा
कि साड़ियां
लेते आना और
किसी ने कुछ, किसी ने
कुछ। लेकिन सबसे
छोटी रानी ने
कहा : मेरे
मालिक, तुम
वापिस आ रहे
हो, और
क्या चाहिए? बस, तुम आ
जाओ सकुशल!
सम्राट
सबके लिए
भेंटें लाया।
निन्यानबे रानियों
को तो भेंटें
दे दीं और
छोटी रानी को
गले लगा लिया
और कहा कि
तूने सब को
हरा दिया।
तूने मुझे पा लियाः और
मुझे पा लिया
तो मेरी सारी
मालकियत तेरी
हो गयी। तू
होशियार है।
ये जो
निन्यानबे
मेरी रानियां
हैं,
बड़ी
होशियार
दिखायी पड़ती
हैं बड़ी नासमझ
सिद्ध हुईं।
यह
दुनिया बड़ी
अद्भुत है, इसका
गणित बहुत
अद्भुत है!
यहां जो
समझदार साबित
होने चाहिए, समझदार
साबित नहीं
होते; बड़े
नासमझ सिद्ध
होते हैं।
यहां नासमझ
समझदार सिद्ध
हो जाते हैं।
मलूकदास की
गिनती तुम नासमझों
में न करो।
उन्होंने
मालिक को पा
लिया और सब पा
लिया।
यह तो
बचपन की पहली
घटना मलूकदास
के संबंध में
ज्ञात है कि
वे कूड़ा—कचरा
रास्तों से
साफ कर देते
थे। और एक
सद्गुरु ने
कहा था उनके
पिता को कि घबड़ाओ
मत,
चिंतित मत
होओ, तुम्हारे
घर ज्योति
उतरी है; यह
बहुतों के
जीवन से कूड़ा—कचरा
दूर करेगा। यह
तो केवल बाहर
की सूचना दे रहा
है अभी। यह प्रतीकवत
है।
दूसरी
घटना बचपन के
संबंध में—जो
रोज—रोज घटती
थी,
जिससे मां—बाप
परेशान हो गए
थे—वह थी : साधु—सत्संग।
कोई आ जाए
साधु, कोई
आ जाए संत, फिर
मलूकदास
घर की सुध—बुध
भूल जाते।
दिनों बीत
जाते, घर न
लौटते। साधु—संग
में लग जाते।
घर में जो भी
होता, साधुओं
को दे देते।
साधुओं को तो
बहुत लोगों ने
दिया है, लेकिन
जिस ढंग से मलूकदास
ने दिया है
वैसा किसी ने
शायद ही दिया
हो! चोरी करके
देते। मां—बाप
आज्ञा न दें
तो घर में से
ही चोरी करके,
जब रात सब
सोए होते, अपने
ही घर की
चीजें चुराकर
साधुओं को दे
आते। क्योंकि
कोई साधु है
जिसके पास
कंबल नहीं है और
सर्दी उतरने
लगी। और कोई
साधु है जिसके
पास छाता नहीं
है और वर्षा
सिर पर खड़ी है।
तो चोरी करके
भी बांटते।
कभी—कभी
चोरी भी पुण्य
हो सकती है।
इसीलिए तुमसे
कहता हूं :
कृत्य नहीं
होते पाप और
पुण्य—कृत्यों
के पीछे छिपे
हुए
अभिप्राय।
कभी पुण्य भी
पाप ही होते
हैं और कभी
पाप भी पुण्य
हो जाते हैं।
जीवन का गणित
पहेली जैसा
है। सीधी रेखा
नहीं है जीवन
के गणित की।
कोई नहीं कह
सकता कि यह
ठीक और यह
गलत। कि ऐसा
करोगे तो ठीक
और ऐसा करोगे
तो गलत। सब
कुछ निर्भर
करता है भीतर
की अभीप्सा पर, अभिप्राय
पर। अब चोरी
को कौन पुण्य
कहेगा? लेकिन
मलूकदास
की चोरी को
मैं कैसे पाप
कहूं? मलूकदास की चोरी को
पाप नहीं कहा जा
सकता। और तुम
चोरी भी न करो
तो भी क्या
पुण्य हो रहा
है! तुम दान भी
देते हो तो
पाप हो जाता है;
क्योंकि
तुम्हारी दान
के पीछे भी
व्यावसायिक
बुद्धि होती
है। तुम मंदिर
भी बनाते हो
तो पाप हो
जाता है; क्योंकि
मंदिर के
द्वार पर भी
तुम अपना
पत्थर लगवा
देते हो।
अब तुम
देखते हो देश
में कितने
मंदिर हैं! "बिड़ला
मंदिर"! कृष्ण
के मंदिर होते
थे,
राम के
मंदिर होते थे,
जिन—मंदिर
होते थे, बुद्ध—मंदिर
होते थे, मगर
"बिड़ला
मंदिर" तुमने
सुने थे? आज
तक जो किसी ने
न किया था, वह
जुगलकिशोर
बिड़ला ने
किया।
मैंने
तो सुना है, जब
जुगलकिशोर
बिड़ला
मरे......मेरे
परिचित थे।
मुझसे भी
उन्होंने
व्यावसायिक
संबंध बनाना
चाहा था।
मुझसे भी कहा
था कि अगर आप
हिंदू धर्म का
प्रचार करें,
तो जितने धन
की जरूरत हो
वह मैं देने
को तैयार हूं।
मैंने कहा :
अपना धन आप
अपने पास रखो।
जहां हिंदू है,
जहां
मुसलमान है, जहां ईसाई
है, वहां
धर्म कहां? मैं किसी
धर्म का
प्रचार नहीं
कर सकता हूं।
मुझे बहुत
हैरानी से
देखा था और एक
ही शब्द कहा था
कि आप जैसे
लोग हमेशा
अटपटे क्यों
होते हैं! मैं
सब कुछ देने
को, बेशर्त
देने को तैयार
हूं, जितना
धन चाहिए, लेकिन
दुनिया भर में
हिंदू धर्म का
प्रचार होना
चाहिए। दो
चीजों का
प्रचार—हिंदू
धर्म और गऊ
माता! मैंने
कहा : यह मुझसे
नहीं हो सकता।
यह असंभव है। ......जब
जुगलकिशोर
मरे, तो
स्वभावतः
उन्होंने
सोचा था कि
स्वर्ग पहुंचेंगे।
क्योंकि इतने
मंदिर बनवाए
हैं, अब और
क्या चाहिए!
और पहुंचे भी
स्वर्ग। तो
स्वभावतः अकड़
से प्रवेश
किया।
द्वारपाल से
पूछा कि मुझे
स्वर्ग मिला
है, इसका
कारण जानते हो?
द्वारपाल
ने कहा : कारण
सभी जानते
हैं। जुगलकिशोर
बिड़ला ने
कहा कि
निश्चित ही।
तो मतलब मेरे
पहले मेरी
सुगंध पहुंच
चुकी है!
मैंने इतने
मंदिर जो बनवाए!
द्वारपाल ने
कहा : आप
भ्रांति में
हैं। आप
मंदिरों के
कारण यहां
प्रवेश नहीं
कर रहे हैं।
मंदिरों के
कारण तो आपको
नरक जाना
पड़ता। यह तो
आपने एम्बेसेडर
गाड़ी बनायी, उसकी वजह
से।
जुगलकिशोर भी
बहुत चौंके!
एम्बेसेडर
गाड़ी! उससे
स्वर्ग जाने
का क्या संबंध? तो
द्वारपाल ने
कहा कि जो भी एम्बेसेडर
गाड़ी में बैठे,
राम—राम
करता रहता है।
जितने लोगों
को आपने राम—राम
करवाया है, उतनों को
बड़े—बड़े पंडित,
बड़े—बड़े
पुरोहित भी
नहीं करवा
सके! ......चीज भी
अद्भुत बनायी
है एम्बेसेडर
गाड़ी! हर चीज
बजती है सिर्प
हार्न छोड़कर!
जो बैठता है, वह राम—राम
करता है, जो
उसको देखता है
वह राम—राम
करके एकदम
रास्ते से हट
जाता है!
सोचा
था कि मंदिर
की वजह से
प्रवेश
मिलेगा स्वर्ग
में। लेकिन वे
मंदिर तो बिड़ला
के अहंकार के
प्रतीक हो गए।
और जहां
अहंकार आ गया
वहां पुण्य
कहां?
तुम
दान भी देते
हो तो किसलिए? देने
में तुम्हें
आनंद है या कि
देने के पीछे
कुछ पाने का
गणित बिठा रहे
हो, कोई
दुकान फैला
रहे हो? अगर
दान साधन है, तो पाप हो
गया। अगर दान
साध्य है, तो
पुण्य है।
तो कभी—कभी
ऐसा भी हो
सकता है कि मलूकदास
जैसे व्यक्ति
की चोरी भी
पुण्य हो और जुगलकिशोर
बिड़ला
जैसे व्यक्ति
का दान भी पाप
हो। वे मुझे
दान दे रहे थे
कि जितना धन
चाहिए—मगर
उसमें भी शर्त
थी। वह दान था? वे
मुझे खरीदना
चाह रहे थे।
उसमें दान
कहां था? शर्त
जहां हो वहां
दान कहां? दान
तो बेशर्त
होता है।
कुछ
चमत्कारों की
भी घटनाएं
बाबा मलूकदास
के संबंध में
जुड़ी हैं।
वैसी घटनाएं
करीब—करीब
अनेक संतों के
साथ जुड़ जाती
हैं। उनके जाने
के पीछे राज
है। उनको तथ्य
मत समझना।
तथ्य समझा तो
भ्रांति हो
जाती है। उनको
केवल संकेत समझना।
वे सांकेतिक
हैं। जैसे
जीसस के संबंध
में कथा है कि
उन्होंने लज़ारस
को मुर्दे से
जगा दिया, वापिस
बुला लिया।
आवाज दी : लज़ारस,
निकल कब्र
से! और लज़ारस
कब्र से बाहर
निकल आया। मरे
चार दिन हो
चुके थे! वैसी
ही कहानी मलूकदास
के संबंध में
है कि अपने एक
शिष्य को
उन्होंने मौत
की दुनिया से
वापिस बुला
लिया था।
अब या
तो हम इन्हें
ऐतिहासिक
तथ्य मानें, जैसा
कि ईसाई मानते
हैं कि यह
ऐतिहासिक
तथ्य है कि लज़ारस
को जीसस ने सच
में ही जिंदा
किया था, और
या फिर हम
इन्हें गहन
प्रतीक
मानें। ऐतिहासिक
तथ्य मानो तो
ये दो कौड़ी
के हो जाते
हैं। पहली तो
बात ये झूठे
हो जाते हैं, ये सच नहीं
रह जाते हैं।
जीवन में कोई
अपवाद नहीं
है। जीवन का
नियम सबके लिए
समान है। कोई
मृत्यु से
वापिस नहीं
लौटता; कोई
लौटा नहीं
सकता। अगर
जीसस लज़ारस
को मृत्यु से
वापिस लौटा
सकते थे तो
फिर सूली पर
मरे क्यों? खुद को न
लौटा सके? लज़ारस
को लौटा लिया!
जैसे आवाज दी
थी लज़ारस
को कि लज़ारस,
निकल कब्र
से, वैसे
ही सूली पर
अपने को आवाज
दे देनी थी कि
जीसस, मत
मर, लगने
दे सूली!
मलूकदास ने
किसी शिष्य को, मर
गया था और
जिंदा कर
लिया! फिर मलूकदास
कहां हैं? वे
भी मर गए। खुद
मरते वक्त याद
न रही अपनी
कला, अपना
चमत्कार! नहीं,
ये
ऐतिहासिक
तथ्य नहीं
हैं। और जो
उनको ऐतिहासिक
तथ्य मानते
हैं वे बहुत
भयंकर भूल
करते हैं।
चाहे वे सोचते
हों कि हम
भक्त हैं।, लेकिन वे
भक्त नहीं हैं,
वे हानि
पहुंचाते
हैं। इसी तरह
की बातों के
कारण धर्म
असत्य मालूम
होने लगता है।
धर्म के साथ
अगर तुम इस
तरह की बातें
जोड़ दोगे, तो
ये बातें तो
असत्य हैं, इनके साथ
धर्म की नाव
भी डूब जाएगी।
असत्य के साथ
धर्म को मत जोड़ो।
लेकिन
इस तरह की
कहानियों में
सार बहुत है।
जीसस
ने अंधों को
आंखें दीं, बहरों
को कान दिए, गूंगों को जबान दी, लंगड़ों को पैर दिए, मुर्दो को
जिंदगी दी—ये
प्रतीक हैं।
तुम सब अंधे
हो। तुम सब
बहरे हो। तुम
सब गूंगे हो।
तुम सब लंगड़े
हो। तुम सब मर
चुके हो—जन्म
के पहले ही मर
चुके हो। तुम
सब कब्रों
में जी रहे
हो। तुम्हारी
देह तुम्हारी
कब्र के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है।
सद्गुरु
तुम्हें
पुकारता है
तुम्हारी
कब्र से—उठो! जागो! वह
पुकारता है।
उसकी पुकार
अगर तुम सुन
लो तो तुम्हारा
बहरापन खो
जाए। उसका
स्पर्श अगर
तुम अनुभव कर
लो तो
तुम्हारी बंद
आंखें खुल
जाएं। बंद
आंखे खुल जाएं
अर्थात् अब तक
जो धुंध था, वह
छंट जाए; जो
अंधेरा था, वह कट जाए; जो परदा था, वह हट जाए।
गूंगे बोलने
लगें, लंगड़े
पहाड़ चढ़ जाएं।
ये सिर्प
प्रतीक हैं इस
बात के कि
तुम्हारी यह
संभावना है, किसी
सद्गुरु के
सान्निध्य
में सत्य बन
सकती है। तुम
लंगड़े नहीं हो,
तुम जीवन के
परम शिखर पर चढ़ने के
योग्य हो, मगर
तुम्हें अपनी
योग्यता भूल
गयी है।
जैसे
किसी पक्षी को
अपने पंखों की
याद न रही हो।
और ऐसा
हो सकता है।
तुम्हारे
घर में तुम एक
अंडे से एक
कबूतर को
निकाल लो और
उस कबूतर को
कभी दूसरे
कबूतरों से न
मिलने दो। उस
कबूतरों की
दुनिया से उस
कबूतर को तुम
दूर ही रखो।
उसे पता ही न
चले कि और भी
कोई मेरे जैसे
हैं,
कि और भी
कोई हैं मेरे
जैसे जो दूर—दूर
नील गगन में
उड़ जाते हैं, जो चांद
तारों से
मुलाकात करने
की अभीसा
रखते हैं, जो
पंख फैलाते
हैं और ऐसे खो
जाते हैं अनंत
आकाश में कि
पता ही नहीं
चलता कि बचे
की नहीं! उस कबूतर
को याद भी
नहीं आएगी
अपने पंखों
की। कैसे याद
आएगी!
तुमने
ये कहानियां
सुनी होंगी; कहानियां
नहीं, सत्य
घटनाएं हैं।
कभी—कभी कोई
बच्चा मनुष्य
का भेड़िए
पाल लेते हैं।
अभी एक—दो
वर्ष पहले ही
उत्तर प्रदेश
में एक बच्चा
लाया गया था, जो भेड़ियों
की मांद में
बड़ा हुआ—बारह
साल का बच्चा।
लेकिन चारों
हाथ—पैर से
चलता था। किसी
मनुष्य को कभी
देखा ही नहीं
उसने। भेड़ियों
के साथ ही रहा
तो भेड़िए
जैसे चलते थे
वैसे ही वह भी
चलता था—चारों
हाथ—पैर से।
चाल उसकी तेज
थी, कोई
आदमी उसका
मुकाबला न कर
सके। शरीर
उसके पास
खूंखार था।
नाखून उसके
पास ऐसे थे
जैसे छुरियां
हों और दांत
उसके ऐसे तीखे
थे कि चुभा
दे तो तुम छूट
न सको। कच्चा
मांस खा जाए।
एक आदमी क्या
चार—चार
आदमियों को
उसे पकड़ने
के लिए रखना
पड़ता था। फिर
भी भाग—भाग
खड़ा होता था।
लेकिन जब भी
भागता, चारों
हाथ—पैर से।
उसने
जब किसी को
देखा ही नहीं
कि कोई दो पैर
से भी खड़ा हो
सकता है तो
स्मृति भी
कैसे आए। स्मृति
के लिए भी तो
कोई बीज
चाहिए। तो अगर
कबूतर को तुम
अपने घर में
रखो और
कबूतरों से
परिचित न होने
दो,
तो वह कभी
भी उड़ेगा
नहीं। शायद
पंख फड़फड़ाएगा
भी तो भी बस
वहीं जमीन पर
पड़ा—पड़ा फड़फड़ाएगा।
और ऐसी
ही प्रत्येक
मनुष्य की
स्थिति है। जब
तक तुम्हें
बुद्धों का
सत्संग न मिले, जब
तक तुम्हें
सद्गुरु का
साथ न मिले, तुम अपने
पंख न खोल
सकोगे—न आंख
खोल सकोगे, न तुम पहाड़
की उन
ऊंचाइयों को
चढ़ सकोगे जो
तुम्हारी हैं!
तुम उसके परमपद
को न पा सकोगे,
जिसका
दूसरा नाम
परमात्मा है।
और तुम सत्य
को न देख
सकोगे, क्योंकि
तुम्हारी
आंखें असत्य
के परदों से ढंकी
रहेंगी।
और तुम
क्या खाक
जिंदा हो!
तुम्हारी
जिंदगी क्या
है?
एक धोखा है।
नाममात्र को
जिंदा हो। खा
लिया, पी
लिया, उठ
लिए, सो
लिए, चल
लिए, काम
कर लियाः
सांस आयी, सांस
गयी; सत्तर
साल यूं गुजर
गए जैसे नदी
में पानी बह जाए;
और फिर एक
दिन मिट्टी
में गिर गए।
तुम्हारी जिंदगी
क्या है! इस
जिंदगी को अभी
शाश्वत का कुछ
भी तो पता
नहीं। यह
जिंदगी तो
खिलौनों में
उलझी है। इस
खिलौनों में
उलझी जिंदगी
को जिंदगी
नहीं कह सकते।
दुनिया
जिसे कहते हैं, बच्चे
का खिलौना है,
मिल
जाए तो मिट्टी
है, खो जाए
तो सोना है.
अच्छा—सा
कोई मौसम, तन्हा—सा
कोई आलम,
हर
वक्त का रोना
तो बेकार का
रोना है!
बरसात
का बादल तो
दीवाना है
क्या जाने,
किस
राह से बचना
है, किस छत
को भिगोना है.
ये
वक्त जो तेरा
है ये वक्त जो
मेरा है,
हर
गाम पे पहरा
है, फिर भी
इसे खोना है.
गम
हो कि खुशी
दोनों कुछ दूर
के साथी हैं,
फिर
रस्ता ही
रस्ता है, हंसना
है न रोना है.
आवारा
मिजाजी ने
फैला दिया
आंगन यों,
आकाश
की चादर है, धरती
का बिछौना है.
दुनिया
जिसे कहते हैं, बच्चे
का खिलौना है,
मिल
जाए तो मिट्टी
है, खो जाए
तो सोना है.
इस
दुनिया का
अद्भुत नियम
है—मिल जाए तो
मिट्टी है, खो
जाए तो सोना
है! जो
तुम्हें मिल
जाता है, वही
मिट्टी हो
जाता है।
तुम्हारा हाथ
सोने को लगा कि
वह भी मिट्टी
हो जाता है!
तुम इतने
मुर्दा हो कि
तुम्हारे हाथ
में जिंदगी
आते—आते मौत
हो जाती है।
तुमने जो भी
पा लिया, सब
बेकार हो गया
है। हां, आकांक्षा
भटकती है दूर—दूर।
जो नहीं मिलता
है......दूर के ढोल
सुहावने मालूम
पड़ते हैं......और
उसके लिए तुम
दौड़ते रहते, दौड़ते रहते—दौड़ते—दौड़ते
गिरते हो एक
दिन, मिट
जाते हो एक
दिन। दूसरों
को गिरते
देखते हो मगर
तुम्हें यह
खयाल नहीं आता
कि मुझे भी
गिरना है। दूर
जो है वह सोना
मालूम पड़ता
है। जो नहीं
मिला, सोना
मालूम पड़ता है;
हाथ लगते ही
मिट्टी हो
जाता है।
इसे
तुम जिंदगी
कहोगे?!
अगर
यही जिंदगी है
तो फिर मौत
क्या होगी? मौत
और क्या हो
सकती है? जिंदगी
तो वह है जहां
शाश्वत का
अनुभव हो; जहां
परमात्मा
भीतर
विराजमान हो;
जहां उसका
दीया जले—बिन
बाती बिन तेल!
जो जलता है तो
है, लेकिन
फिर बुझता
नहीं। जहां
आनंद की
अहर्निश
वर्षा हो!
जहां अमृत झरे!
जब तक तुम ऐसे
शाश्वतता से
परिचित न हो
जाओ, जिसकी
कोई मृत्यु
नहीं है; जब
तक तुम
कालातीत को न
पहचान लो; तब
तक मत समझना
कि तुम जिंदा
हो।
इसी
अर्थ में मलूकदास
की घटना को
मैं लेना
चाहूंगा । इसी
अर्थ में जीसस
की घटनाओं को
लेता हूं।
शिष्य
मुर्दा हैं।
सद्गुरु
मुर्दो को
जगाता है। मगर
ये ऐतिहासिक
तथ्य नहीं हैं, ये
सांकेतिक
तथ्य हैं।
इनमें बड़ा
काव्य छिपा है
और बड़े रहस्य
भी। ये तथ्य
नहीं हैं, सत्य
हैं। तथ्य तो
दो कौड़ी
के होते हैं।
सत्यों का
मूल्य होता
है। लेकिन सत्य
को कहो कैसे? हमारी भाषा
नपुंसक है, सत्यों को
प्रकट नहीं कर
पाती। इसीलिए
हमें प्रतीक
कथाएं चुननी
पड़ती हैं, सांकेतिक
इशारे बनाने
पड़ते हैं।
चांद को बताओ
कैसे, तो
उंगली उठानी
पड़ती है।
उंगली चांद
नहीं है। उंगली
को मत पकड़
लेना, नहीं
तो चांद से
सदा के लिए
चूक जाओगे। ये
सब उंगलियां
हैं।
और भी
इसी तरह का एक
उल्लेख मलूकदास
के जीवन में
है,
वह भी खयाल
में ले लेने
जैसा है। वैसा
उल्लेख अकेले मलूकदास
के जीवन में
है, इसलिए
और भी
महत्त्वपूर्ण
है। मुर्दो को
तो जीसस ने भी
जिलाया। और—और
संतों के जीवन
में भी मुर्दो
को जिलाने की
बातें हैं।
लेकिन यह बात सिर्प मलूकदास
के जीवन में
है। कि आलमगीर
नाम का बादशाह
मलूक के दर्शन
को आया, तो
चकित रह गया।
जो उसने देखा,
उसे अपनी
आंखों पर
भरोसा न आया।
आंखें मींड़
कर देखा, फिर
भी बात जैसी
थी वैसी ही
थी। उसने क्या
देखा कि मलूकदास
अधर में लटक
रहे हैं, नाच
रहे हैं, गीत
गा रहे हैं!
उनके पैर नहीं
छूते।
अधर
में!
निश्चित
ही हम तो
कहेंगे, हो
गया चमत्कार!
लेकिन सभी संत
अधर में हैं।
किस संत के
पैर जमीन को
छूते हैं? जो
जमीन के
आकर्षण से
मुक्त हो गया,
वह जमीन के
गुरुत्वाकर्षण
से भी मुक्त
हो गया। ऐसे
आंखों से देखोगे
चमड़े की, तो
जमीन को छूते
हुए मालूम
पड़ते हैं, मगर
किसी संत के
पैर जमीन को
नहीं छूते
हैं।
झेन
फकीर रिंझाई
अपने शिष्यों
को कहता था कि
देखो, एक बात
याद रखनाः
पानी में चलना
तो जरूर मगर याद
रहे—पानी पैर
को न छुए!
शिष्यों ने
बहुत बार जाकर
गांव के बाहर
नदी में चलकर
देखा, क्या
करें, पानी
छूता था! बहुत
ध्यान करते, झाड़ों के नीचे
बैठते, बुद्ध
की तरह घंटों
बैठे रहते, फिर उठते; फिर नदी में
चलते, वह
फिर पानी पैर
को छू लेता।
आखिर
उन्होंने कहा,
यह भी क्या
शर्त लगा दी!
पानी है तो
पैर को छुएगा
ही। और जब नदी
में से निकलोगे
तो पैर को
छुएगा नहीं तो
कैसे तुम बचोगे?
लेकिन जब भी
वे जाते तो
रिंझाई पूछता :
क्या हुआ? याद
रखना, पैर
चलें तो पानी
से जरूर, मगर
पानी पैर को
छुए न! तभी
समझूंगा कि
ध्यान हुआ।
शिष्य
तो थक गए कि यह
बात तो पूरी
होनेवाली नहीं
है और यह ऐसी
शर्त लगा दी
है कि ध्यान
भी पूरा
होनेवाला
नहीं।
फिर एक
बार यात्रा को
जाते थे, संयोग
से रास्ते में
नदी पड़ी।
शिष्य बड़े खुश
हुए कि आज
पक्का पता चल
जाएगा कि
रिंझाई के पैर
पानी को छूते
कि नहीं!
रिंझाई तो मजे
से उतरा पानी
में, डट कर
पानी ने छुआ।
शिष्य तो बीच
ही नदी में खड़े
हो गए कि
रुकिए, महाराज!
हमारी जान लिए
लेते हैं, आपके
खुद के पैर
पानी छू रहे
हैं! रिंझाई
ने कहा : कहां? मेरे पैर
पानी नहीं छू
रहे हैं, न
पानी मेरे
पैरों को छू
रहा है। ज़रा
गौर से देखो! ज़रा मुझे
देखो! तुम
पानी देख रहे
हो, मुझे
नहीं देख रहे।
ऐसे तो
पैर जमीन को
छुएंगे।
बुद्ध चलें कि
जीसस चलें कि मलूकदास
कि कबीर कि
नानक, ऐसे तो
पैर जमीन को
छुएंगे।
लेकिन तुमसे
मैं कहता हूं :
अगर संतों को पहचानोगे,
तो नहीं
छूते, नहीं
छुएंगे। नहीं
छू सकते हैं।
क्योंकि संत गुरुत्वाकर्षण
से मुक्त हो
गया। अब जमीन
का उसे कोई
आकर्षण नहीं
है। मिट्टी का
उसे कोई मोह
नहीं। जिसने
अपनी देह से
तादात्म्य
छोड़ दिया, जिसने
जान लिया कि
मैं देह नहीं
हूं, उसने
जान लिया कि
मैं मिट्टी
नहीं हूं। बस,
यही अर्थ है
अधर में हो
जाने का।
फिर
आकाश में ही
क्यों नहीं
चला जाता संत, अधर
में क्यों? अधर का मतलब
बीच में। वह भी
प्रतीक है—मध्य
का। संत हमेशा
मध्य में होता
है, अतियों
से हमेशा
मुक्त होता
है।
कुछ
लोग हैं जो एक
चीज को छोड़ते
हैं तो दूसरी
चीज को पकड़
लेते हैं; अति
पर चले जाते
हैं। धन छोड़ते
हैं तो त्याग
पकड़ लेते हैं;
यह अति हो
गयी। भोजन
छोड़ते हैं तो
उपवास पकड? लेते हैं; यह अति हो
गयी। संसार
छोड़ते हैं; संन्यास पकड़
लेते हैं, यह
अति हो गयी।
संत तो सदा
मध्य में होता
है। बुद्ध ने
कहा है—मज्झिम
निकाय! उसका
रास्ता तो बीच
का है, वह
अतियों से
बचता है।
जैसे
घड़ी के पेंडुलम
को तुम बीच
में पकड़ कर
रोक दो—न बाएं
जाए न दाएं; तो
क्या होगा? घड़ी की चाल
बंद हो जाएगी,
समय रुक
जाएगा, समय
ठहर जाएगा। मन
का नियम है : या
तो वह बाएं
जाता है, अति
पर, या
दाएं जाता है,
अति पर। जो
आदमी भोजनभट्ट
है, वह कभी
भी उपवासी हो
सकता है, खयाल
रखना। भोजनभट्ट
आज नहीं कल उरलीकांचन
जाएगा। उरलीकांचन
जाओ तुम, जो
भी मिलें
समझना कि
भूतपूर्व भोजनभट्ट
हैं। नहीं तो उरलीकांचन
किसलिए
जाएंगे!
वह जो
स्त्रियों के
पीछे दीवाना
रहा है, आज
नहीं कल
स्त्रियों को
छोड़कर भागेगा,
ब्रह्मचर्य
व्रत लेगा। जो
भी
ब्रह्मचर्य
का व्रत ले, समझ लेना
व्यभिचारी
रहा है। नहीं
तो ब्रह्मचर्य
के व्रत की
क्या जरूरत
है! व्यभिचारी
ही ब्रह्मचर्य
का व्रत लेते
हैं। और
ब्रह्मचर्य का
व्रत लेना पड़े
तो वह व्रत
व्रत होने के
कारण ही झूठा
हो जाता है।
व्रत का अर्थ
होता है—
जबरदस्ती
थोपा; संकल्प
की शक्ति से
थोपा; अपने
को बांधा
नियंत्रण में—यम
में, नियम
में, संयम
में—अपने
चारों तरफ बागुड़
लगायी, ताकि
कहीं कोई खतरा
न हो जाए।
अपने हाथों
में खुद ही
जंजीरें पहना
लीं कि कहीं
किसी कमजोर क्षण
में छूट न भागूं।
अपने को सब
तरफ से घेर
लिया, ताकि
निकलना भी
चाहूं तो निकल
न पाऊं।
जो
व्यभिचारी
रहा है, वह
ब्रह्मचर्य
का व्रत लेगा।
और जो भोगी
रहा है, वह
आज नहीं कल
योगी हो
जाएगा। जिन—जिन
को तुम सिर के
बल खड़े देखो, सावधान हो
जाना—ये भोगी
हैं जो अब
उलटे खड़े हो
गए हैं। नहीं
तो सिर के बल
खड़े होने की
कोई जरूरत है?
अगर
परमात्मा को
तुम्हें सिर
के बल ही खड़े
रखना था, तो
उसने सिर में
पैर दिए होते।
कम—से—कम पैर
नहीं तो सींग
तो दिए ही
होते। कम—से—कम
तीन सींग, तिपाई
की तरह खड़े हो
जाओ। ऐसा गोल
सिर तो न दिया
होता।
शीर्षासन का
तो इरादा
परमात्मा का
नहीं दिखता
है। तुम्हारे
गोल सिर से
साफ जाहिर है।
शीर्षासन
करनेवाले को
हाथ की टेक
देनी पड़ती है,
कि तकिए की
टेक देनी पड़ती
है, कि
दीवाल के
किनारे खड़ा
होना पड़ता है।
परमात्मा ने
तुम्हें पैर
के बल ही खड़ा
होने को बनाया
है। लेकिन एक
अति से आदमी
दूसरी अति पर
चला जाता है।
अति
में बंधन है; अति
संसार है। और
मध्य मुक्ति
है; मध्य
अतिक्रमण है।
इसलिए
यह जो आलमगीर
ने देखा कि मलूकदास
अधर में लटके
गीत गा रहे
हैं,
भजन कर रहे
हैं, नाच
रहे हैं, मस्त
हो रहे हैं, यह प्रतीक
है : मध्य में
देखा, बीच
में देखा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक रात देर से
घर लौटा। तीन
बजे थे।
घड़ियाल ने तीन
की आवाज दी।
जब मुल्ला
बिस्तर में
प्रवेश कर रहा
था,
पत्नी ने
पूछा कि सुनते
हो घड़ी की
आवाज, तीन
बज गए! मुल्ला
ने कहा : तू
फिक्र मत कर, तीन नहीं
बजे। असल में
तेरी नींद
खराब न हो, इसलिए
मैं घड़ी का पेंडुलम
पकड़कर
लटक गया था, तो बारह ही
हैं। और जैसे
ही मैंने पंडुलम
छोड़ा तो तीन
घंटे बजे।
थोड़ी देर और
मुझे पकड़े
रहना था, लेकिन
पता कैसे चले
कि अब घंटे
बजने का समय
बीत गया! तो नौ
घंटे तो मैंने
बचाए, मगर
तीन बज गए।
घड़ी के पेंडुलम
को पकड़ कर लटक
जाओ तो घड़ी
रुक जाएगी। न
बारह बजेंगे, न
नौ बजेंगे,
न तीन बजेंगे,
न एक, न
दो, कुछ भी
नहीं बजेगा।
बजेगा ही
नहीं। घड़ी की
चाल ही बंद हो
जाएगी। ठीक
ऐसी ही अद्भुत
घटना उस
व्यक्ति को घटती
है जो जीवन की
अतियों के
मध्य में खड़ा
हो जाता है।
उसके जीवन से
समय तिरोहित
हो जाता है। वह
कालातीत हो
जाता है। उसके
भीतर समय
समाप्त हो
जाता है। और
जहां समय गया,
वहीं शाश्वतता
का द्वार है।
मगर
मैं तुमसे घड़ी
के पेंडुलम
से लटकने को
नहीं कह रहा
हूं। लेकिन मन
भी घड़ी है।
अभी तो
वैज्ञानिक भी
इस बात पर
राजी हो रहे
हैं कि शरीर
के भीतर भी
ठीक घड़ी की
तरह व्यवस्था है।
इसीलिए तो
तुम्हें अगर
बारह बजे तुम
रोज भोजन करते
हो,
तो ठीक बारह
बजे पेट खबर
दे देता है कि
अब भोजन का
वक्त हुआ। तुम
अगर रोज दस
बजे रात सोते
हो तो दस बजे
तुम्हारी
आंखें झपकने
लगती हैं, जम्हाई
आने लगती है।
तुम्हारे
भीतर एक घड़ी
है, जो
चुपचाप चल रही
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
घर लौटा रात. .
.वही फिर तीन
बजे। ज्यादा
देर मधुशाला में
जमा रहता है।
जब मधुशाला
बंद होती तभी
उठता है। तीन
बजे मधुशाला
बंद होती है, तब
वह उठता है।......घर
आया तो
नौकरानी
द्वार पर ही
मिली। इधर घड़ी
ने तीन के
घंटे बजाए
और नौकरानी ने
कहा कि आप रहे
कहां, मालिक?
पता है, आपकी
पत्नी को
बच्चे हुए? और तीन
बच्चे एक साथ हुए।
मुल्ला ने कहा,
धन्य हो
परमात्मा का!
अच्छा हुआ कि
बारह बजे नहीं
लौटा!
बाहर
एक घड़ी है। वह
तो कृत्रिम है; वह
तो कामचलाऊ
है। भीतर एक
घड़ी है—जैविक
घड़ी, बायोलाजिकल। उस घड़ी से
भी मुक्त होना
है। उस घड़ी से
वही मुक्त हो
सकता है जो
अति की
व्यर्थता को
समझ ले। लेकिन
बड़ी सावधानी
चाहिए।
क्योंकि मन का
नियम यह है कि
जब एक चीज से
ऊबता है तो
तत्क्षण उसके
विपरीत चीज को
चुन लेता है।
सोचता है
इसमें रस नहीं
मिला तो शायद
उल्टे में रस
मिलेगा। फिर जब
उससे ऊब जाता
है तो फिर
उल्टे तक
पहुंच जाता है
और ऐसे ही
डोलता रहता है
और इसी तरह
भीतर की घड़ी
चलती है। और
भीतर की घड़ी
ही तुम्हारे
तथाकथित जीवन
का आधार है।
फिर एक जन्म चलता
है। दूसरा
जन्म चलता है,
जन्मों पर
जन्म चलते हैं;
भीतर की घड़ी
चलती रहती है
तो जन्मों की
यात्रा चलती
रहती है। भीतर
की घड़ी रुक
जाती है, जन्मों
की यात्रा रुक
जाती है।
आलमगीर ने
मध्य में लटके
हुए देखा है मलूकदास
को;
यह प्रतीक
है। कोई मध्य
में लटक नहीं
सकता। इसको
तथ्य मत मान
लेना।
बस, ये
थोड़ी—सी
घटनाएं मलूकदास
के संबंध में
ज्ञात हैं।
शेष उनके
प्यारे शब्द
उपलब्ध हैं।
उन्हीं में
तुम मलूकदास
को खोजो।
खयाल
रखना, काव्य
मत खोजना, भाषा
का सौष्ठव मत
खोजना, व्याकरण
मत खोजना, तर्क
मत खोजना। मलूकदास
जैसे मस्तों
को इनकी फिक्र
नहीं होती।
उनकी भाषा
होती है सधुक्कड़ी।
उन्हें हिसाब
नहीं होता
मात्राएं
बिठाने का।
लेकिन भीतर का
संगीत जरूर सुनोगे; अनाहत नाद
जरूर तुम्हें
सुनायी पड़ेगा;
हृदय के संगीत
की छाप तुम
जरूर पाओगे।
परमात्मा की
छवि जरूर
तुम्हें इन
सीधे—सादे
शब्दों में
झलकती हुई
मिलेगी।
मगर
हमें उल्टी
बातें सिखायी
जाती हैं।
विश्वविद्यालयों
में कबीरदास
भी पढ़ाए
जाते हैं तो
उनका भाषा—सौष्ठव, उनकी
छंदबद्ध
रचनाओं की
काव्यात्मकता,
उनका पग में
जो अद्भुत
प्रवाह है, उनका पद्य।
ये सब गौण
बातें हैं। यह
ऐसा है जैसे
तुम किसी से
मिलने जाओ और
उसके
वस्त्रों के
संबंध में ही
बातचीत करके
लौट आओ—कि बड़ा
प्यारा कोट है,
कि बटन भी
सोने के, कि
अहा......कि आपकी
कुर्सी भी बड़ी
अच्छी है; कि
आप बैठे भी
बड़ी सुरुचि से
हैं! तो वह
आदमी भी थोड़ा
हैरान होगा।
मिर्जा
गालिब के जीवन
में ऐसा
उल्लेख है।
मिर्जा
गालिब को बहादुरशाह
जफर ने एक
भोजन पर
निमंत्रण
दिया। और भी
लोग निमंत्रित
थे। कोई शाही
जलसा था।
मिर्जा गालिब
गरीब आदमी।
उधारी ही न
चुका पाए
जिंदगी भर। कचहरियों, अदालतों
में मुकदमे
चलते रहे। सदा
फटेहाल रहे।
कहा भी है
अपनी एक कविता
में कि जिस
दिन आया भी
प्यारा तो एक
नजर हम उसकी
तरफ देखते हैं
और एक नजर
अपने घर की तरफ
देखते हैं, क्योंकि आज
ही घर में
बोरिया न हुआ!
और तो और , एक
बोरिया भी
नहीं है
बिछाने को! कि
मालिक आया है
तो उसको बैठने
को कहें! किस
मुंह से बैठने
को कहें! आज ही
घर में बोरिया
न हुआ! कुछ
नहीं था, फाके चल
रहे थे। शाही
निमंत्रण
मिला तो खुश
हुए कि चलो एक
दिन तो भोजन
ठीक से
मिलेगा। कपड़े—लत्ते
लेकिन ठीक
नहीं थे।
मित्रों ने
कहा कि ये
कपड़े—लत्ते
पहन कर जाओगे?
दरबार में?
चपरासी भीतर
ही नहीं घुसने
देंगे, चौकीदार
बाहर से ही
धक्का देकर
निकाल देंगे। मिर्जा
गालिब ने कहा :
निमंत्रण
मुझे मिला है
या मेरे
वस्त्रों को ?
मैं तो जैसा
हूं वैसा ही जाऊंगा।
वैसे ही गए।
मित्रों ने कहाः फिर
भी तुम हमारी
मानो। न मानो,
तुम्हारी
मर्जी! और जो
होना था वही
हुआ। जैसे ही
भीतर प्रवेश
करने लगे, पहरेदार
ने हाथ पकड़ कर
रोक लिया कि
कहां भीतर जा
रहा है? भाग
यहां से! तो
मिर्जा गालिब
ने कहा कि मैं
मिर्जा गालिब
हूं। उसने कहा
वह समझ गया।
दिमाग खराब
होगा तेरा, तू और
मिर्जा गालिब!
रास्ता लग!
मिर्जा
गालिब ने अपना
निमंत्रण—पत्र
निकालकर
दिखाया तो
उसने वह छीन
लिया। उसने
कहा,
तूने किसी
का चुरा लिया
होगा। ये कपड़े—लत्ते,
यह शक्ल! . .
.बालों में
तेल नहीं पड़ा
महीनों से, कपड़े धुले न
होंगे जमानों
से, जूते
फटे, पगड़ी चीथड़े
हो रही।
मिर्जा
गालिब वापिस
गए। मित्रों
से कहा कि तुम
ठीक कहते थे।
तुम्हारे कोट—कमीज, तुम्हारी
पगड़ी, तुम्हारे
जूते मुझे
उधार दे दो।
उधार कपड़े—कोट
कमीज लेकर
वापिस लौटे।
वही पहरेदार
झुक—झुक कर
नमस्कार
किया। इस बार
उसने यह भी
नहीं पूछा कि
निमंत्रण—पत्र
कहां है? ......था
भी नहीं अब तो,
वह तो पहले
ही उसने छुड़ा
लिया था। झुक
कर यही कहा कि
मालूम होता है
आप मिर्जा
गालिब हैं।
मिर्जा मुस्कराए
और अंदर
प्रवेश कर गए।
सम्राट
बहादुरशाह
जफर तो खुद भी
बड़े शायर थे, बड़े
कवि थे। "जफर"
उनका उपनाम है—कवि
का। अपने पास
बिठाया गालिब
को। लेकिन जफर
बहुत हैरान
हुए। पहले तो
कुछ बोले नहीं,
शिष्टाचारवश,
कि बोलना
उचित नहीं।
लेकिन जब बात
बहुत बढ़ने लगी
तो न रहा गया।
कहा : क्षमा
करें, पूछे
बिना नहीं रहा
जाता। यह आप
क्या कर रहे हैं?
मिर्जा
गालिब अजीब
काम कर रहे
थे। उठाते
बरफी, पगड़ी को लगाते कि
ले पगड़ी!
कोट को छुलाते
कि ले कोट, दिल
भर कर खा! जूते
को लगाते कि
ले जूता! खुद
एक कौर नहीं
लिया। जफर ने
पूछा : आप यह
क्या कर रहे
हैं? यह
कौन—सी शैली
है? यह
आपका कौन—सा
ढंग है? जरूर
कोई राज होगा।
आप जैसा आदमी
जब यह कर रहा है
तो इसका राज
क्या है?
मिर्जा
गालिब ने कहा :
राज कुछ नहीं, बात
सीधी—साफ है।
मैं तो आया था
तो धक्के देकर
निकाल दिया
गया; अब तो
कपड़े आए हैं, अब मैं नहीं
हूं। मैं तो
आया ही नहीं।
अब मैं तो सिर्प
खूंटी हूं, जिस पर टंग
कर ये कपड़े आ
गए हैं। खूंटी
कहीं भोजन
करती है! वह और
उल्टा होगा।
इसलिए मैं
कपड़ों को खिला
रहा हूं। कि
अब खूंटी को खिलाओ तो
और हंसी होगी।
कम से कम कपड़े
थोड़ा खा भी
सकते हैं, जैसे
बरफी कोट के
खीसे में डाली,
लड्ड२०८
कमीज के खीसे
में डाल दिया।
एक बरफी मैं—आप
देखते हैं—जूते
के अंदर डाल
दी। खूंटी को
कैसे खिलाओ?
मैं तो सिर्प
खूंटी हूं।
तब बहादुरशाह
जफर को पूरी
कहानी पता
चली। लेकिन तब
तो बहुत देर
हो चुकी थी।
घटना
महत्त्वपूर्ण
है।
लेकिन
कबीर को, सूर
को, मलूक
को, रैदास
को, फरीद
को, नानक
को लोग इस तरह
पढ़ते हैं
विश्वविद्यालय
में, जिस
तरह मिर्जा
गालिब उनके
कपड़ों से
पहचाने जाएं।
इस तरह मत
देखना। यह कोई
विश्वविद्यालय
नहीं है। यह
तो दीवानों के
मिलने की एक
जगह है, एक
मधुशाला! यहां
तो रस में
उतरना। न
मात्रा की
फिक्र करना, न व्याकरण
की, न भाषा
की। मलूकदास
जैसे लोगों को
इस सब की कोई
परवाह होती भी
नहीं।
अब
तेरी शरण आयो
राम।।
सीधे—सादे
वचन हैं। समझो, तो
सारे शास्त्र
उनमें छिपे
हैं। न समझो, तो तुम थोड़ा
सोचोगे कि इसमें
समझाने जैसा
भी क्या है, समझने जैसा
भी क्या है?
अब
तेरी शरण आयो
राम।।
पहले
तो इस "अब"
शब्द को तुम
थोड़ा—सा ध्यान
करना। यह ठीक
वैसा ही है
जैसे ब्रह्मसूत्र
शुरू होता है—"अथातो
ब्रह्मजिज्ञासा", अब
ब्रह्म की
जिज्ञासा।
"अब"। अब से
क्या मतलब? अब से मतलब
है : देख लिया
बहुत जीवन, चख लिए सब
स्वाद। सब
बेस्वाद है
यहां। जहां मिठास
का आभास था
वहां नीम की कड़वाहट
पायी; जहां
धन सोचा था
वहां कौड़ियां
भी न थीं; जहां
हीरों की चमक
देखी थी वहां कंकड़—पत्थर
पाए; इसलिए—"अब"।
अब का अर्थ है :
अनुभव के बाद।
"अथातो ब्रह्मजिज्ञासा!"
"अब तेरी शरण
आयो राम!" थक
गया बहुत। न—मालूम
किन—किन की
शरण गया हूं! न—मालूम
किन—किन के
चरण गहे! न—मालूम
कहां—कहां
झुका, किन—किन
द्वार—दरवाजों
पर और सब जगह
से खाली हाथ
लौटा; इसलिए
अब तुम्हारे
द्वार आया
हूं! "अब तेरी
शरण आयो राम!"
आदमी
ने जो दुनिया
बनायी है उसका
धोखा देख लिया, पहचान
लिया। वहां
सपने ही सपने
हैं, सत्य
नहीं! मृगमरीचिकाएं
हैं, झूठे
आभास हैं; असली
आदमी कहीं खो
गया है। असली
आदमी का कोई पता
ही नहीं चलता।
तन—मन—प्रान, मिटे
सबके गुमान
एक
जलते मकान के
समान हुआ आदमी
छिन
गए बान, गिरी
हाथ से कमान
एक
टूटती कृपान
का बयान हुआ
आदमी
भोर
में थकान, फिर
शोर में थकान,
पोर—पोर
में थकान पे
थकान हुआ आदमी
दिन
की उठान में
था उड़ता
विमान
हर
शाम किसी चोट
का निशान हुआ
आदमी
तन—मन—प्रान, मिटे
सबके गुमान
एक
जलते मकान के
समान हुआ
आदमी।
बुद्ध
ने कहा है कि
मैं जिसे पीछे
छोड़ आया हूं, वह
राजमहल नहीं
है, सिर्प लपटें लगी
हैं, आग जल
रही है—चिता
है!
......एक
जलते मकान के
समान हुआ
आदमी!
मलूकदास ने
जिंदगी को सब
तरफ से टटोला, खोजा,
पहचाना, अनुभव
किया—पाया कि
बिल्कुल थोथी
है। समय भर
गंवाना हो तो
बात और।
लेकिन
लोग बड़े अजीब
हैं। ताश
खेलते हैं, शतरंज
के मोहरे
चलाते हैं।
असली हाथी—घोड़े
नहीं हैं पास,
तो लकड़ी के
हाथी—घोड़े—या ज़रा पैसे
पास में हुए
तो हाथी—दांत
के हाथी—घोड़े—और
उनसे पूछो कि
क्या कर रहे
हो? ये
चालें, ये जीतें, ये
हारें, ये मातें! तो
वो कहते हैं :
समय काट रहे हैं।
पागल हो! समय
तुम्हें काट
रहा है या तुम
समय काट रहे
हो? होश
ठिकाने हैं? समय की
तलवार
तुम्हें रोज
काटे जा रही
है। तुम्हारी
गर्दन रोज
कटती जा रही
है। तुम रोज
मर रहे हो। और
समय क्या इतना
ज्यादा है
तुम्हारे पास
कि उसे काटो? थोड़ा—सा तो
समय है और इसी
थोड़े समय में
पहचान लेना है
कि सत्य क्या
है। इसी थोड़े
समय में आत्म—परिचय
करना है, आत्मबोध
करना है, आत्म—साक्षात्कार
करना है।
लेकिन बस लोग
हैं कि बेहोशी
में भागे चले
जा रहे हैं।
भीड़ है, भीड़
के साथ भागे
चले जा रहे
हैं। ज़रा
भी होश नहीं
है।
ढब्बूजी घर
पहुंचे। जोर
से चिल्ला कर
बोले : हाय, हाय,
मेरी जेब कट
गयी! उनकी
पत्नी ने जोर
से आंखें गड़ा
कर ढब्बूजी
को देखा और
कहा कि पर जेबकतरे
ने तुम्हारी
जेब में हाथ
डाला तब
तुम्हें पता
नहीं चला? बोलो,
बोलते
क्यों नहीं?
ढब्बूजी की
आंखें नीचे
झुक गयीं, कहा
: पता क्यों
नहीं चला. . .। पर
मैंने सोचा कि
वह मेरा ही
हाथ है।
होश
कहां! बेहोशी
चल रही है।
तुम होश में
जी रहे हो? होश
में तुम समय
काटोगे? इतना
समय तुम्हारे
पास है? और
समय जैसा
बहुमूल्य और
क्या है? गया
एक बार हाथ से
तो फिर लौटेगा
नहीं। फिर लाख
उपाय करोगे तो
एक क्षण भी
वापिस नहीं आ
सकता। इसे तुम
ताश के पत्तों
में और शतरंज
के खेलों में
और फिल्मों
में बैठे हुए
काट रहे हो! जिस
समय में
परमात्मा मिल
सकता है, उसको
काट रहे हो!
जिस समय में
मिल सकती हैं
हीरों की
खदानें, उनको
खिलौनों में
काट रहे हो!
यह सब
देख लिया मलूकदास
ने। आंखें तेज
रही होंगी।
बचपन से ही कूड़ा—कचरा
साफ करते थे
रास्तों का, कूड़े—कचरे
की पहचान रही
होगी। जल्दी
ही समझ में आ गया
होगा कि इस
जिंदगी में कूड़े—कचरे
के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं है। जब
मौत आ कर सब
छीन लेती है
तो जो भी है, कूड़ा—कचरा है।
धन की
परिभाषा समझ
लो।
धन वही
है,
जो मौत न
छीन सके। जो
मौत छीन ले, वह धन नहीं
है, धन का
धोखा है।
लेकिन
धन के धोखे
में लोग जी
रहे हैं। ऐसे
लोग हैं जिनके
पास बहुत है, फिर
भी मांग उनकी
समाप्त नहीं
होती। उन जैसा
दरिद्र और कौन
होगा? और
ऐसे भी लोग इस
जमीन पर रहे
हैं, जिनके
पास ना—कुछ है
और फिर भी परम
तृप्ति है।
जितना है, वह
भी जरूरत से
ज्यादा मालूम
होता है। वे
असली धनी हैं।
वे सम्राट
हैं।
अब
तेरी शरण आयो
राम।।
मलूकदास
कहते हैं : सब
देखकर, सब
द्वार—दरवाजे खटखटाकर, अनंत—अनंत
द्वार—दरवाजे खटखटाकर—अनंत—अनंत
जीवन में—अब
तेरी शरण आ
गया हूं। अब
मुझे समझ आयी;
अब मुझे बोध
हुआ; अब
मुझे होश जगा।
जबै सुनिया
साध के मुख
पतितपावन
नाम।।
कैसे
आया तुम्हारे
पास?
इसमें कुछ
मेरा गौरव
नहीं है।. .
.समझना भक्त
की विनम्रता,
भक्त का
अनुग्रह भाव।.
. .कैसे आया
तुम्हारे द्वार?
इसमें मेरी
कोई गौरव
गरिमा नहीं है;
इसमें मेरी
कुछ खूबी नहीं
है।
जबै सुनिया
साध के मुख
पतितपावन
नाम।।
जब
किसी पहुंचे
हुए साधु के
मुख से
तुम्हारा नाम
सुना, बस
स्वाद लग गया।
एक बूंद पड़
गयी अमृत की
मेरी जीभ पर
भी।
जबै सुनिया
साध के मुख
पतितपावन
नाम।।
जब
किसी सद्गुरु
से तुम्हारा
नाम सुना और
जब सद्गुरु की
आंखों में
झलकता हुआ
आनंद देखा और
उसके पैरों में
बंधे हुए
घूंघर सुने, और
उसके हाथ में
उठा हुआ
इकतारा बजा—बस,
तब से एक ही
धुन सवार है :
कैसे तुम्हें पाऊं? कैसे
तुम्हें खोज
लूं? कहां
तुम मिलोगे?
यही
जान पुकार कीन्ही, अति
सतायों
काम।।
और ऐसे
ही नहीं आ गया
हूं,
कच्चा घड़ा
नहीं हूं; काम
ने बहुत सताया
है और काम की
आग ने बहुत
पकाया है, तब
तुम्हारे
द्वार पर आया
हूं।
दो ही
तरह के जीवन
हैं : काम का
जीवन और राम
का जीवन। काम
का अर्थ हैः और, और,
और। काम
यानी कामना, वासना। एक
काम का जीवन
है—यह भी मिले,
वह भी मिले!
मिलता ही रहे।
सब कुछ मिल
जाए! अच्छा—अच्छा
सब मुझे मिल
जाए। सब फूल
मैं बटोर लूं।
बात
पुराने जमाने
की है। झग्गड़
मियां अपने मसखरेपन
तथा हाजिरजवाबी
के लिए बहुत
मशहूर थे। एक
जलसे में जब
चाय की प्यालियां
आयीं तो झग्गड़
मियां ने जोर
से कहा : इधर से, इधर
से! नौकरों ने झग्गड़
मियां की आवाज
सुनी, जोर
की आवाज—इधर
से, इधर से!—तो
उसी तरफ आ गए
और वहीं से
चाय शुरू की।
फिर जब पान की गिलौरियां
बंटने
लगीं तो जनाब
फिर चिल्लाने
लगे : इधर से, इधर से! इतना
सुनना था कि रायबहादुर
श्यामनंदन
सहाय को
गुस्सा आ गया।
और चिढ़ कर जोर
से गरजे : कौन
है रे, लगाओ
जूता! अभी वे
चुप भी नहीं
हुए थे कि झग्गड़
मियां ने कहा :
जूता! उधर से, उधर से!
यह
हमारी जिंदगी
का ढंग है।
फूल—फूल सब
हमें मिल जाएं, कांटे—कांटे
सब दूसरों को
मिल जाएं। मगर
दूसरे भी यही
कर रहे हैं :
फूल—फूल
उन्हें मिल
जाएं, कांटे—कांटे
सब तुम्हें
मिल जाएं।
इसलिए खूब
छीनाझपटी है।
फूल तो छीनाझपटी
में नष्ट हो
जाते हैं, कांटे
चुभ जाते
हैं। सबके हाथ
लहूलुहान
हैं। फूल तो
बचते नहीं, क्योंकि फूल
कोमल हैं।
इतनी
छीनाझपटी
होगी तो फूल
नहीं बच सकते।
हां, कांटे
मजबूत हैं, कांटे बच
जाते हैं।
सारा जगत्
कांटों से भर
गया है।
यही
जान पुकार कीन्ही, अति
सतायो
काम।।
वासना
इतना क्यों
सताती है? क्योंकि
वासना में
प्रतिस्पर्धा
है, सतत
संघर्ष है, गलाघोंट
प्रतियोगिता
है। एक—दूसरे
के गले पर लोग
सवार हैं। एक—दूसरे
की जेब में
हाथ डाले हुए
हैं। एक—दूसरे
की गर्दन
काटने को तत्पर
बैठे हुए हैं।
मलूकदास
कहते हैं : यह
सब देख कर आया
हूं,
यह सब अनुभव
करके आया हूं,
कच्चा मत
समझना। पककर
आया हूं।
संसार की तरफ
पीछे लौटने का
अब कोई इरादा
नहीं, देखने
की भी कोई
आकांक्षा
नहीं।
विषय
सेती भयो आजिज, कह
मलूक गुलाम।।
कहते
हैं कि बहुत
दुर्दशा हो
गयी है। बहुत
आजिज हुआ।
विषय—भोगों के
कारण, वासनाओं
के कारण बहुत
दीन हो गया
हूं, बहुत
दरिद्र हो गया
हूं, भिखमंगा
होकर आया हूं।
बड़ी गुलामी
की। अब तेरी
शरण आयो राम!
अब तेरी शरणागति
आया हूं। तू
मुक्त करे तो
मुक्ति मिले।
जुल्म
हंस—हंस के
सभी सहने लगा
है आदमी,
गीदड़ों के
रंग में रहने
लगा है आदमी.
फूल
औ कांटे में
वो पहचान कर
पाता नहीं,
भीड़
जो कहती है, वही
कहने लगा है
आदमी.
यह
समय की धार से
टकरायेगा
कैसे भला,
जब
कि तिनके की
तरह बहने लगा
है आदमी.
चंद
सिक्कों के
लिए संबंध
सारे तोड़कर,
हर
किसी की बांह
को गहने लगा
है आदमी.
ज़रा
चारों तरफ
देखो, अपने को
देखो, औरों
को देखो—और
तुम्हें भी
समझ में आ
जाएगा कि जिस
आपाधापी में
तुम लगे हो, नितांत
व्यर्थ है।
कांटे के
अतिरिक्त और
कुछ यहां हाथ लगनेवाला
नहीं। राख ही
राख हाथ
लगेगी। और
शायद राख में पड़े
अंगारे भी हाथ
में लगें तो
फफोले भी पड़ें,
तो जलो
भी।
सांचा
तू गोपाल, सांच
तेरा नाम है।
मलूकदास
कहते हैं : एक
बात समझ आ गयी—सब
यहां असत्य है, सत्य
है तो तू है।
सांचा
तू गोपाल, सांच
तेरा नाम है।
जहंवां
सुमिरन होय, धन्य
सो ठाम है।।
जहां
तेरा स्मरण चल
रहा हो, जहां
चार दीवाने
मिलकर तेरी
याद करते हों—वहीं
तीर्थ है, वहीं
मंदिर है। और
तेरे सिवाय
कुछ भी सच्चा
नहीं है। बाकी
सब नाते झूठे,
सब रिश्ते
झूठे। बस शब्द
ही शब्द हैं
नाते और रिश्ते।
हमारे
नाते रिश्ते
भी क्या हैं? शायद
झगड़ने की थोड़ी
व्यवस्थित
पद्धतियां हैं।
जिनको कहो पति—पत्नी,
कहते तो हैं
प्रेम का नाता,
लेकिन
प्रेम तो शायद
कभी क्षण—दो—क्षण
को होता हो तो
होता हो, बाकी
समय तो कलह और
संघर्ष है।
मां—बाप और
बच्चों के बीच
कलह और संघर्ष
है। पीढ़ियों
के बीच इतना
फासला है कि
बात करनी
मुश्किल है।
बच्चे मां—बाप
से बोलते ही
तब हैं जब
उन्हें पैसे
की जरूरत हो।
मां—बाप
बच्चों से
बोलते ही तब
हैं जब उन्हें
डांटने—डपटने
का जोश आ जाए।
नहीं तो कोई
और संबंध नहीं
है।
पति—पत्नी
छुट्टियां
मनाने के लिए
एक होटल में
गए। वहां पर
उन्होंने
ठहरने के लिए
कमरा मांगा।
मैनेजर बोला :
पहले आप इस
बात का प्रमाणपत्र
दीजिए कि आप
पति—पत्नी ही
हैं।
रही
होगी निश्चित
ही दिल्ली की
होटल!
पत्नी
ने यह सुना ही
था कि गुस्से
से टेहुनी
मारी अपने पति
को और बोली कि
हजार दफे कहा
कि प्रमाणपत्र
साथ लेकर चला
करो। आप जब घर
से चलते हैं, प्रमाणपत्र
साथ क्यों
लेकर नहीं
चलते? जवाब
दो!
मैनेजर
ने मुस्करा
कर चाबी दे दी
और कहा कि
साहब, प्रमाणपत्र
मिल गया, लीजिए
चाबी और भीतर
जाइए! आप
पक्के पति—पत्नी
हैं। और किसी
प्रमाणपत्र
की आवश्यकता नहीं
है।
पति—पत्नियां
झगड़ रहे
हैं। मां—बाप—बच्चे
झगड़ रहे
हैं। भाई—बहन, भाई—भाई,
मित्र—मित्र
झगड़ रहे
हैं। यहां
दुश्मन तो
दुश्मन हैं, यहां मित्र
भी कहां मित्र
हैं? यहां
मित्र भी बस
प्रयोजन से
मित्र हैं।
जीसस
का प्रसिद्ध
वचन है : अपने
शत्रुओं को
ऐसे प्रेम करो
जैसे अपने मित्रों
को।
एक
ईसाई मिशनरी
से मैं बात कर
रहा था। मैंने
उससे कहा :
इसका अर्थ
समझते हो? इसका
अर्थ यह है कि
मित्रों में
और दुश्मनों
में कोई खास
फर्क नहीं है।
अपने
दुश्मनों से
वैसा ही प्रेम
करो जैसा अपने
मित्रों से।
जीसस साफ कह
रहे हैं कि
तुम्हारे
मित्र और
दुश्मन, दोनों
एक ही कोटि
में हैं। जो
आज मित्र हैं,
कल दुश्मन
हो सकता है।
जो कल दुश्मन
था, वह आज
मित्र हो सकता
है। फर्क क्या
है?
मैक्यावेली
ने—जो कि
पश्चिम का
चाणक्य हुआ—उसने
अपनी किताब
में लिखा है :
अपने मित्रों
को भी वह बात
मत बताना जो
तुम अपने
शत्रुओं को न
बताना चाहते
हो। क्योंकि
कौन मित्र कब
शत्रु हो
जाएगा, कुछ
नहीं कहा जा
सकता। और अपने
शत्रुओं के संबंध
में भी वे
बातें मत कहना
जो तुम अपने
मित्रों के
संबंध में
कहने में
झिझकते होओ।
क्योंकि कौन
शत्रु कब
मित्र हो
जाएगा, क्या
कहा जा सकता
है।
यहां
शत्रु मित्र
हो जाते हैं, मित्र
शत्रु हो जाते
हैं। यह संसार
बड़ा अजीब गोरखधंधा
है। इस गोरखधंधे
से—मलूकदास
कहते हैं—बिल्कुल
ऊब गए; यह
सब झूठ है, यह
सब नाटक है! यह
सब पर्दे के
इस तरफ जो चल
रहा है, सच्चा
नहीं है, पर्दे
के भीतर कुछ
और ही मामला
है। तुम कभी—कभी
रामलीला पीछे
से भी जाकर
देखा करो—पर्दे
के पीछे, जहां
अभिनेता सजते
हैं।
मेरे
गांव में जब
भी रामलीला
होती थी तो
मैंने हमेशा
पीछे से ही
देखी है। बाहर
में क्या है, एक
दफा देख ली, वही का वही
खेल हर साल!
मगर भीतर का
खेल बड़ा अद्भुत
है। मैंने सीताजी
को बीड़ी
के कश लगाते
देखा है! बस
एकदम जा रही
हैं बाहर, स्वयंवर
रचा जा रहा है—आखिरी
कश! मैंने
रावण को
रामचंद्र जी
को डांटते
देखा है कि
क्यों रे हरामजादे,
तुझे कल
मेरी तरफ
देखकर बोलना
था और तू देख
रहा था मेरी
पत्नी की तरफ!......पत्नी
वहां
देखनेवालों
में, दर्शकों
में बैठी
होगी।......अगर
दुबारा यह
हरकत की, चटनी
बना दूंगा। यह
असली नाटक!
इसको देखना हो
तो पर्दे के
पीछे देखना
चाहिए।
मेरे
गांव में जो
मैनेजर थे वे
मुझसे पूछते
कि यह. .
.तुम्हें पीछे
से क्यों
देखना है? सारी
बस्ती बाहर
देखती है, एक
अकेले तुम हो
जो कहते हो कि
मुझे पीछे बैठ
जाने दो! यहां
पीछे क्या रखा
है? मैंने
कहा : तुम
फिक्र न करो।
इससे मुझे बड़े
गहरे सूत्र मिलते
हैं।
जिंदगी
को ज़रा
गौर से देखो। ज़रा पर्दे
उठाकर देखो। ज़रा ऊपर—ऊपर
के जो ढांचे
हैं,
इनके भीतर
झांको और तुम
भी कहोगे यही—
सांचा
तू गोपाल, सांच
तेरा नाम है।
जहंवां
सुमिरन होय, धन्य
सो ठाम है।।
सांचा
तेरा भक्त, जो
तुझको जानता।
तीन
लोक को राज, मनैं
नहिं आनता।।
धन्य
है वह भक्त जो
तुझे सत्य
जानता है!
ध्यान रखना, मानने
की बात नहीं
है, यह
जानने की बात
है। मानने से
कुछ नहीं
होता। मानते
तो सभी हैं।
कोई हिंदू है,
कोई
मुसलमान, कोई
ईसाई, कोई
जैन—सभी मानते
हैं। मगर
मानने से कुछ
संबंध नहीं है।
जानना, अनुभव—केवल
अनुभव ही मुक्तिदायी
है।
सांचा
तेरा भक्त, जा
तुझको जानता।
खयाल
रखना, मलूकदास नहीं कहते
कि जो तुझको
मानता है।
श्रद्धा पर जोर
नहीं है, विश्वास
पर जोर नहीं
है, आस्था
पर जोर नहीं
है—अनुभव पर
जोर है। समस्त
ज्ञानियों का,
समस्त
बुद्धों का
अनुभव पर जोर
है। और जिसने
तुझे जान लिया
उसे कोई तीन
लोक का राज्य
भी दे तो भी उसके
मन को भाएगा
नहीं।
झूठा
नाता छोड़ि, तुझे
लव लाइया।
सब
झूठे नाते छोड़
देता है जो; सब
झूठे नातों को
झूठा मानकर जो
अतिक्रमण कर जाता
है—
सुमिरि तिहारो
नाम, परम
पद पाइया।।
वह
तेरे नाम के
स्मरण मात्र
से,
तेरी तरफ
आंख उठाने
मात्र से, तेरी
तरफ झुक जाने
मात्र से तुझे
पा लेता है, परम पद पा
लेता है।
लेकिन यह बात
केवल मानने से
नहीं होगी।
मानने से क्या
होगा? मानने
से तो बड़ी
झूठी बातें
चलती हैं।
मैंने
सुना है, इलेक्ट्रिकल
इंजीनियरिंग
के एक छात्र
से प्रोफेसर
ने परीक्षा में
प्रश्न किया :
बताओ स्विच
दबाते ही पंखा
कैसे चलने
लगता है?
विनम्रतापूर्वक
छात्र बोला :
सब भगवान की
कृपा है!
ऐसे
भगवान के माननेवालों
से कुछ हल
होनेवाला
नहीं है।
भगवान को
जानना बड़ी और
बात है। कीमत
चुकानी पड़ती
है! मानना सस्ता
धंधा है। मां—बाप
मानते हैं, भीड़
मानती है, सभी
लोग मानते हैं—तुम
भी मान लेते
हो। मानना
आसान मालूम
पड़ता है। सब
मानते हैं, न मानो तो
अड़चन होगी; मानो, तो
सुविधा
रहेगी।
रूस
में नास्तिक
होने में
सुविधा है, क्योंकि
सभी लोग
नास्तिक हैं।
भारत जैसे देश
में आस्तिक
होने में
सुविधा है, क्योंकि सभी
लोग आस्तिक
हैं। मगर भारत
के आस्तिक और
रूस के
नास्तिकों
में ज़रा
भी भेद नहीं, रत्ती भर
भेद नहीं—वे
भी भीड़ को
देखकर
नास्तिक हैं,
तुम भीड़ को
देखकर आस्तिक
हो। न
तुम्हारी
आस्तिकता में
कोई दम है, न
उनकी
नास्तिकता
में कोई दम
है। व्यक्ति
को खोज करनी
चाहिए। अपनी
ही खोज से आगे
बढ़ना चाहिए।
जिन
यह लाहा
पायो, यह जग आइकै।
जिसने
तुझे पा लिया
इस जग में, उसने
ही जग का
उपयोग किया।
उतरि गयो भव पार, तेरो
गुन गाइकै।।
फिर
उसे दोबारा जग
में आने की
जरूरत न रही।
जिसने पाठ पढ़
लिया, वह फिर
दोबारा स्कूल
में क्यों
लौटे! जो
परीक्षा उत्तीर्ण
हो गया, वह
क्यों दोबारा
पाठशाला में
आए!
तुही
मातु तुही
पिता, तुही हितु
बंधु है।
कहत मलूकदास, बिना
तुझ धुंध है।।
तेरे
बिना सब धुंध
है, अंधकार
है।
तुम्हारे
पंडित—पुरोहित
तुम्हें इस
परमात्मा को न
दे सकेंगे।
उपदेश तो बहुत
दे सकते हैं।
उन्हें उपदेश
देने की खुजली
सवार है। मिल
भर जाए कोई, वे
उसको पकड़ कर
उपदेश देने
लगते हैं।
बचाओ!
बचाओ!! कवि ने
कुएं में झांक
कर देखा, आदमी
डूब रहा था।
झट से उसे
बाहर निकाला।
आपका
आभार कैसे चुकाऊं!
आपने मुझे
डूबने से
बचाया, नया
जीवन दिया!
मेरी
कविताएं सुन
लीजिए, उपकार
से उऋण हो
जाएंगे—कवि ने
कहा।
पहले
क्यों नहीं
बताया कि आप
भी कवि हैं? एक
कवि की
कविताएं सुन
कर ही तो मैं
कुएं में कूद
पड़ा था।
वह कवि
कहां है?
इसी
कुएं में है, मेरी
तलाश कर रहा
है।
फिर
ठीक है, बच कर
कहां जाएगा!
जी भर कर
कविताएं
सुनाऊंगा। यह
कह कर दूसरे
कवि ने भी
कुएं में
छलांग लगा दी।
ये
तुम्हारे कवि, ये
तुम्हारे
पंडित, ये
तुम्हारे
ज्ञानी, ये
तुम्हारे
दार्शनिक
तलाश में हैं—कोई
मिल जाए! कूड़ा—कचरा
उनकी खोपड़ी
में इकट्ठा है,
तुम्हारी
खोपड़ी में डाल
दें। इनसे
नहीं होगा।
किसी सद्गुरु
के साथ बैठना
होगा जिसने
जाना हो, जिसने
जिया हो, जिसके
भीतर की
ज्योति जगी हो—तो
उसके पास आकर
तुम्हारा
बुझा दीया भी
जल उठ सकता
है। यह
सैद्धांतिक
चर्चा नहीं है
परमात्मा; यह
जीवन का
रूपांतरण है;
यह आमूल
क्रांति है।
कौन मिलावै
जोगिया हो, जोगिया
बिन रह्यो
न जाई।
कौन मिलाएगा
उस परम
परमात्मा से? कोई
जोगिया, कोई
सद्गुरु, कोई
परम योगी—जो
मिल गया है!
योग का अर्थ
होता है :
मिलन। जोगिया
का अर्थ होता
है : जो मिल
चुका, जो
परमात्मा से
एक हो गया है।
कौन मिलावै
जोगिया हो, जोगिया
बिन रह्यो
न जाई।
मैं
जो प्यासी पीव
की, रटत फिरौं
पिव पीव।
घूमती
फिरती हूं
प्यासी, चिल्लाती
हूं प्यारे को,
पुकारती
हूं पिया को; मगर कौन
मुझे दिखाए
राह, कौन
मुझे सुझाए
राह; कौन
मेरा हाथ पकड़े?
वही—जिसने
परमात्मा को
जाना हो!
शास्त्र
जाननेवाले
बहुत मिल
जाएंगे, उनसे
सावधान रहना!
वे तोतों से
ज्यादा नहीं
हैं। सद्गुरु तलाशो।
सद्गुरु
की तलाश
परमात्मा की
तलाश में
अनिवार्य चरण
है। उसके बिना
कोई परमात्मा
तक नहीं
पहुंचता। उस
पार जाना है
तो नाव चाहिए।
नाव की बातें
करनेवालों से
मत उलझे रहना।
बहुत हैं जो
नाव की बातों
में ही लगे
हैं कि नाव
ऐसी होनी
चाहिए, कि
नाव वैसी होनी
चाहिए, कि
नाव ऐसी होती
है, कि
पहले जमाने
में नाव ऐसी
होती थी, कि
अब कहां नाव, वह तो सतयुग
में हुआ करती
थी! जो
शास्त्रों की ही
बातें कर रहे
हैं वे नाव की
बातें कर रहे
हैं। नाव शब्द
में चढ़कर
तुम पार नहीं
उतर सकते, बुरी
तरह डूबोगे।
सद्गुरु
चाहिए!
सद्गुरु
कौन है? जिसके
वचन आप्त हैं।
जो अपने
प्रमाण से
बोलता है। जो
कहता है :
मैंने जाना है,
वह कह रहा
हूं। और जिसके
पास बैठकर
तुम्हें अनुभव
होने लगे, जिसकी
तरंग तुम्हें
छूने लगे, तुम्हारे
हृदय की वीणा
के तार झनझनाने
लगें और
तुम्हें लगने
लगे कि तुम जो
सुन रहे हो वह सिर्प
खोपड़ी से
निकली हुई बात
नहीं है, हृदय
से उठी हुई
उमंग है, सुगंध
है। फिर उस
द्वार से मत
हटना।
जो
जोगिया नहिं मिलिहै हो, तो
तुरत निकासूं
जीव।।
मलूकदास
कहते हैं : अगर
नहीं मिला
सद्गुरु, तो
मैं अपने जीवन
को खो देने को
तैयार हूं! सब
दांव पर लगा
दूंगा मगर
सद्गुरु को
पाकर रहूंगा।
"गुरुजी अहेरी मैं
हिरनी . . ."
कहते
हैं कि हे
सद्गुरु, मैं
तो एक हिरन की
भांति हूं, आप हैं
अहेरी, शिकारी!
......"गुरु
मारैं
प्रेम का
बान।"
चढ़ाओ
अपने धनुष पर
प्रेम का बाण, छेद
दो मेरे
प्राण!
जेहि
लागै सोई जानई हो, और
दरद नहिं
जान।।
और यह
प्रेम की जो
पीड़ा है, उसको
ही पता चलती
है जिसको यह
प्रेम का बाण
लगता है।
इसलिए
तुम्हें अगर
सद्गुरु मिल
गया और तुम्हारे
प्राण अगर
उसके प्रेम के
बाण से छिद गए,
तो तुम किसी
को समझा न
सकोगे; तुम
किसी को बता न
सकोगे; तुम
किसी को
प्रमाण न दे
सकोगे। लोग
तुम्हें पागल
कहेंगे, दीवाना
कहेंगे। लोग
कहेंगे :
तुमने गंवाया
अपना होश। ठीक—ठाक
थे, तुम्हें
क्या हो गया? लेकिन तुम
कोशिश भी मत
करना औरों को
समझाने की। वह
कोशिश कभी सफल
नहीं होती।
हां, तुम्हारी
धुन से कोई
रंग जाए, कोई
खोजी
तुम्हारे
आनंद को देखकर
डोलने लगे, तो जरूर
उससे अपने
हृदय की बात
कह देना।
क्योंकि वही
समझ सकता है, जो थोड़ा—सा
प्रेम की पीड़ा
को अनुभव किया
हो। जिसने स्वाद
लिया हो मिठास
का, उससे
मिठास की बात
करोगे तो समझ
सकता है। जो सदा
से जहर पीता
रहा हो, उससे
अमृत की बातें
मत करना।
कहैं
मलूक सुनु
जोगिनी रे, तनहिं
में मनहि समाय।
मलूकदास
कहते हैं कि
सुनो, ऐ योगियो,
ऐ प्रेमियो,
ऐ प्रेयसियो,
ऐ योगिनियो,
सुनो! "तनहिं
में मनहि समाय।" वह
जो परमात्मा
है, कहीं
बाहर नहीं है—इसी
मन में, इसी
तन में समाया
हुआ है। मगर
कोई उसका पता
देनेवाला मिल
जाए!
हम
अपने भीतर
जाने का मार्ग
ही भूल गए
हैं। बाहर
जाने के सब
रास्ते हमें
पता हैं, लेकिन
भीतर जाने का
हमें कोई
रास्ता पता
नहीं रहा है।
सदियों से
नहीं गए हैं, जन्मों से
नहीं गए हैं, रास्ता
अवरुद्ध हो
गया है; शायद
द्वार है, बंद
हो गया है, दीवार
बन गया है।
तेरे
प्रेम के कारने
जोगी, सहज
मिला मोहिं
आय।।
लेकिन
सद्गुरु से
प्रेम हो जाए
तो उसके प्रेम
के कारण ही वह
जो तुम्हारे
भीतर ही छिपा
है,
प्रकट होने
लगता है। जैसे
कली खुल जाए, फूल बन जाए, जैसे फूल से
सुगंध उड़े।
जैसे
तुम्हारे
भीतर दीया है
और गुरु की
ज्योति उस दीए
को लपट पकड़ा
दे। भभक उठे
तुम्हारे भीतर
की ज्योति भी,
तुम भी
प्रकाशित हो
जाओ।
मलूकदास के
ये वचन अति
प्यारे हैं!
इन वचनों को
तुम शब्द ही
मत मानना, ये
सत्य के अनुभव
से आविर्भूत
हुए हैं।
लेकिन इन
शब्दों के
सत्य को तुम
तभी जान पाओगे
जब तुम भी
प्रेम में डूबो,
भत्ति में डूबो,
ध्यान में
उतरो। अब तेरी
शरण आयो राम!
जब तुम भी कह
सको कि देख
लिया जीवन
बहुत, नहीं
कुछ पाया, अब
आ गया हूं
तुम्हारी शरण!
और शरण
आने की शर्त
जानते हो!
—रामदुवारे
जो मरे!
आज
इतना ही।
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