मुरदे—मुरदे
लड़ि मरे—(प्रवचन—छठवां)
दिनांक
16 नवम्बर 1979;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार:
प्रश्न–01
भगवान, कहते
हैं कि
अस्तित्व में
कुछ भी
निष्प्रयोजन
नहीं है। यदि
ऐसा है तो
मनुष्य के
जीवन में अहंकार, ईष्या और
घृणा का क्या
प्रयोजन है? क्या इनके
बिना जीवन
नहीं चल सकता?
प्रश्न—02
भगवान, पहली
ही बार आया
हूं। जहां
देखता हूं, चारों ओर
आंखों में
बहुत ही
अद्भुत शांति
नजर आ रही है।
ऐसा लगता है
कि फरिश्तों
की नगरी में आ
गया हूं।
प्रश्न–03
भगवान, मैं
अपने को बड़ा
ज्ञानी समझता
था, पर
आपने मेरे
ज्ञान के
टुकड़े—टुकड़े
कर रख दिए। अब
आगे क्या
मर्जी है?
प्रश्न—04
भगवान, क्राइस्ट
ने कहा : गांव
के मुरदे मुरदे
को दफना
देंगे। कबीर
ने कहा :
साधो, ई मुरदन
के गांव। और
मलूक कहते हैं
: मुरदे मुरदे
लड़ि मरे।
लोकजीवन मृत
है, इसका
क्या कारण है?
क्या जीवन
निषेध का
दर्शन इसका
कारण है? या
अहंकार और
अज्ञान कारण
है? क्या
इस मृतवत जीवन
से उबरने के
लिए बुद्धत्व ही
एकमात्र उपाय
है? हमें
समझाने की
अनुकंपा
करें।
पहला
प्रश्न :
भगवान, कहते हैं कि
अस्तित्व में
कुछ भी
निष्प्रयोजन
नहीं है। यदि
ऐसा है तो
मनुष्य के
जीवन में अहंकार, ईष्या और
घृणा का क्या
प्रयोजन है? क्या इनके
बिना जीवन
नहीं चल सकता?
आनंद
मैत्रेय! जीवन
में निश्चित
ही कुछ भी
निष्प्रयोजन
नहीं है, सिर्फ
जीवन को
छोड़कर। जीवन
निष्प्रयोजन
है। क्योंकि
जीवन के पार
कुछ और नहीं
है। जीवन
स्वयं साध्य
है। जीवन किसी
और का साधन
नहीं। और जीवन
है पर्यायवाची
परमात्मा का।
इसलिए जीवन का
तो कोई प्रयोजन
नहीं है।
लेकिन जीवन
में जो कुछ है,
उस सबका
प्रयोजन है।
निश्चित
कठिनाई होती
है कुछ बातें
स्वीकार करने
में। अहंकार
का क्या प्रयोजन
होगा? और
यदि अहंकार ही
भटकाता है
आदमी को, तो
यह कैसी करुणा
है परमात्मा
की कि अहंकार
के साथ आदमी
को पैदा किया?
क्यूं न काट दी जड़
पहले ही रोग
की? औषधि
का सवाल ही न
उठता। व्याधि
ही न होती। क्यों
दिया लोभ, क्यों
दिया मोह, क्यों
दिया काम,
ईष्या, क्रोध,
मत्सर? क्यों
दिया इतना
अंधकार? यदि
प्रकाश की ही
तलाश करवानी
थी, तो
प्रकाश ही
क्यों न दे
दिया? वह
प्रश्न
स्वाभाविक है,
लेकिन इस
प्रश्न को
गहरी आंख से देखोगे तो
जल्दी ही समझ
में आ जाएगा
कि प्रकाश
सीधा—सीधा
दिया नहीं जा
सकता। अंधकार
का अनुभव न हो
तो प्रकाश का अनुभव
हो ही नहीं
सकता। जिसने
दुःख नहीं
जाना, वह
सुख भी नहीं
जान सकेगा। और
जिसे कांटे
नहीं चुभे,
फूलों से
उसकी पहचान
असंभव है। और
यदि मृत्यु न
हो, तो
जीवन की
कल्पना ही
नहीं की जा
सकती। क्रोध अपने—आप
में तो दुखदायी
है, बंधन
है, लेकिन
क्रोध में
छिपी ऊर्जा
अगर ध्यान से
मुक्त की जा
सके तो वही
ऊर्जा करुणा
बनती है। क्रोध
के बिना करुणा
नहीं हो सकती।
यह तुम देखते हो?
जैनों
के चौबीस
तीर्थंकर
क्षत्रिय थे।
बुद्ध
क्षत्रिय हैं, राम और
कृष्ण
क्षत्रिय
हैं। इस देश
के सारे अवतार,
तीर्थंकर, बुद्धपुरुष क्षत्रियों
की दुनिया से
आए हैं, जहां
तलवार जीवन
है। जहां
क्रोध का सागर
उमड़ता
है। जहां
युद्ध ही सब
कुछ है। और इन
सब ने प्रेम
का, करुणा
का, दया का
संदेश दिया।
जैनों
का तो सारा
आधार ही
अहिंसा है।
चौबीस क्षत्रिय
तीर्थंकर और
"अहिंसा परमो
धर्मः"! कुछ
तालमेल नहीं
दिखाई पड़ता।
ब्राह्मण कहते
"अहिंसा परमो
धर्मः", समझ
में आता।
लेकिन
ब्राह्मणों
ने नहीं कहा। कहा
क्षत्रियों
ने। गहरे देखोगे
तो बात उलझी
हुई नहीं है।
क्षत्रिय ही
कह सकते हैं।
क्योंकि
क्षत्रियों
ने ही हिंसा
की वीभत्सता
देखी है।
क्षत्रियों ने
ही हिंसा का
दंश सहा है।
क्षत्रियों
ने ही हिंसा
का नरक पहचाना
है। इसलिए
अहिंसा परमो
धर्मः।
क्षत्रियों
के प्राणों
इ२५५से ही यह उद्घोष
उठ सकता है।
ब्राह्मण ने न
युद्ध देखा, न तलवार
उठाई, उसे
कैसे पता चले
अहिंसा के
अमृत का? जहर
से ही पहचान
नहीं हुई तो
अमृत से कैसे
पहचान हो? रात
ही नहीं अनुभव
में आई तो
सुबह कैसे हो?
जैनों
के पास
सर्वाधिक धन
है। जैन
भिखारी खोजना
मुश्किल है।
जैन भिखारी
जैसी कोई चीज
होती ही नहीं।
और जैनों की
आधारशिला में
जो पांच तत्त्व
हैं, उनमें
अहिंसा के साथ—साथ
अपरिग्रह—किसी
भी वस्तु का
परिग्रह न
करना, किसी
वस्तु के
मालिक न होना।
जिनके पास
परिग्रह है, जिनके पास
सब कुछ है, उन्हीं
को यह बोध
पैदा हो सकता
है। सब कुछ को
देख कर ही पता
चलता है उसकी
व्यर्थता; तो
अपरिग्रह का
भाव उठता है।
जिन्होंने
भोगा है, वे
ही त्याग सकते
हैं। तेन
त्यक्तेन भुंजीथाः।
उन्होंने ही
त्यागा
जिन्होंने
भोगा। जिसने भोगा
ही नहीं, वह
त्यागेगा
क्या ख़ाक!
उसके पास
त्यागने को
क्या है?
इस
द्वंद्व को
ठीक से समझ
लो। इस
द्वंद्वात्मक
विकास के
सिद्धांत को
ठीक से समझ
लो। फिर बहुत—सी
उलझनें नहीं उठेंगी।
तब तुम्हें
समझ में आएगा
कि जब तक मछली
को सागर से
निकाल कर तट
की उत्तप्त
रेती पर न डाल
दिया जाए, तब तक उसे
सागर की पहचान
नहीं होती।
मछुआ खींच
लेता है मछली
को जाल में
बांधकर, डाल
देता है तट पर,
धूप है घनी,
आग है बरसती,
उत्तप्त है
तट, मछली तड़पती। इस तड़फन में
ही उसे पहली
दफा याद आती
है सागर की। पहली
दफा सचेष्ट
रूप से, सचेतन
रूप से सागर
से परिचय होता
है। ऐसे सागर
में ही पैदा
हुई थी, सागर
में ही बड़ी
हुई थी, सागर
में ही रही थी,
मगर सागर
इतना करीब था
कि सागर को
देखने का उपाय
न था। ज़रा
दूरी चाहिए।
थोड़ा
परिप्रेक्ष्य
चाहिए। थोड़ा
फासला चाहिए।
अगर दर्पण में
तुम्हें अपनी
तस्वीर देखनी
है, तो
थोड़े दूर खड़े
होते हो। एकदम
दर्पण से नाक
लगा कर खड़े हो
गए तो तुम्हें
कुछ भी दिखाई
न पड़ेगा।
फासला आवश्यक
है बोध के
लिए। हां, अब
इस मछली को
वापस जल में
पटक दो। अब यह
आह्लादित
होगी। आनंदित
होगी। मस्त हो
जाएगी।
एक
आदमी के पास बहुत
धन था। इतना
कि अब और धन
पाने से कुछ
सार नहीं था।
जितना था, उसका भी
उपयोग नहीं हो
रहा था। मौत
करीब आने लगी
थी। न बेटे थे,
न बेटियां
थीं, कोई
पीछे न था। और
जीवन धन
बटोरने में
बीत गया। गया
वह तथाकथित
महात्माओं के
पास, कि
मुझे कुछ आनंद
का सूत्र दो।
महात्मा, पंडित,
पुरोहित, सब के द्वार खटखटाए।
खाली हाथ गया,
खाली हाथ
लौटा। फिर
किसी ने कहा
कि एक सूफी फकीर
को हम जानते
हैं, शायद
वही कुछ कर
सके। उसके ढंग
जरूर अनूठे
हैं; इसलिए
चौंकना मत।
उसके रास्ते
उसके निजी हैं;
उसकी
समझाने की
विधियां भी
थोड़ी बेढब
होती हैं। मगर
अगर कोई न
समझा सके, तो
जिनका कहीं
कोई इलाज नहीं
है, उस तरह
के लोगों को
हम वहां भेज
देते हैं। रहा
होगा फकीर
मेरे जैसा।
जिनका कहीं
कोई इलाज नहीं,
उनके लिए
सुनिश्चित
यहां उपाय है।
उस धनी ने एक
बड़ी झोली भरी
हीरे—जवाहरातों
से और गया
फकीर के पास।
फकीर बैठा था
एक झाड़ के
नीचे। पटक दी
उसने झोली
उसके सामने और
कहा कि इतने
हीरे—जवाहरात
मेरे पास हैं,
मगर सुख का
कण भी मेरे
पास नहीं। मैं
कैसे सुखी
होऊं?
फकीर
ने आव देखा न
ताव, उठाई
झोली और भागा!
वह आदमी तो एक
क्षण समझ ही नहीं
पाया कि यह
क्या हो रहा
है। महात्मागण
ऐसा नहीं
करते! एक क्षण
तो ठिठका रहा,
अवाक! फिर
उसे होश आया
कि इस आदमी ने
तो लूट लिया, मारे गए, सारी
जिंदगी भर की
कमाई ले भागा।
हम सुख की तलाश
में आए थे, और
दुःखी हो गए।
भागा, चिल्लाया
कि लुट गया, बचाओ! चोर है,
बेईमान है,
भागा जा रहा
है!
पूरे
गांव में उस
फकीर ने चक्कर
लगवाया। फकीर
का गांव तो
जाना—माना था, गली—कूंचे
से पहचान थी, इधर से
निकले, उधर
से निकल जाए।
भीड़ भी पीछे
हो ली—भीड़ तो फकीर
को जानती थी!
कि जरूर होगी
कोई विधि!
गांव तो फकीर
से परिचित था,
उसके ढंगों
से परिचित था।
धीरे—धीरे
आश्वस्त हो
गया था कि वह
जो भी करे, वह
चाहे कितना
बेबूझ मालूम
पड़े, भीतर
कुछ राज होता
है। लेकिन उस
आदमी को तो कुछ
पता नहीं था।
वह पसीना—पसीना,
कभी भागा भी
नहीं था
जिंदगी में
इतना, थका—मांदा,
फकीर उसे
भगाता हुआ, दौड़ाता हुआ, पसीने
से लथपथ करता
हुआ वापिस
अपने झाड़ के
पास लौट आया।
जहां उसका
घोड़ा खड़ा था।
लाकर उसने
थैली वहीं पटक
दी झाड़ के
पीछे छिप कर
खड़ा हो गया।
वह आदमी लौटा;
झोला पड़ा था,
घोड़ा खड़ा था;
उसने झोला
उठा कर छाती
से लगा लिया
और कहा कि हे
परवरदिगार! हे
परमात्मा!
तेरा शुक्र
है! तेरा
धन्यवाद! आज
मुझ जैसा
प्रसन्न इस
दुनिया में
कोई भी नहीं!
फकीर झांका
वृक्ष के उस
तरफ से और
बोला, कहा :
कुछ सुख मिला?
यही राज है।
यही झोली
तुम्हारे पास
थी, इसी को
लिए तुम फिर
रहे थे, और
सुख का कोई
पता नहीं था।
यही झोली
वापिस तुम्हारे
हाथ में है, लेकिन बीच
में फासला हो
गया, थोड़ी
देर को झोली
तुम्हारे हाथ
में न थी, थोड़ी
देर को झोली
से तुम वंचित
हो गए थे, अब
तुम कह रहे हो—शर्म
नहीं आती?—कि
हे प्रभु, धन्यवाद
तेरा कि आज
मैं आह्लादित
हूं, आज
पहली दफा आनंद
की थोड़ी झलक
मिली। बैठो
घोड़े पर और
भाग जाओ, नहीं
तो मैं झोली
फिर छीन
लूंगा।
रास्ते पर लगो!
रास्ता
तुम्हें
मैंने बता
दिया।
लोग
ऐसे हैं। लोग
ही नहीं, सारा
अस्तित्व ऐसा
है। हम जिसे
गंवाते हैं, उसका मूल्य
पता चलता है।
जब तक गंवाते
नहीं तब तक
मूल्य पता
नहीं चलता। जो
तुम्हें मिला
है, उसकी
तुम्हें दो कौड़ी कीमत
नहीं है। जो
खो गया, उसके
लिए तुम रोते
हो। जो खो गया,
उसका अभाव
खलता है।
जिंदगी
तुम्हें मिली
है और तुमने
परमात्मा को
धन्यवाद नहीं
दिया।
हालांकि जब
मौत तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक देगी, तब तुम
कहोगे : हे
प्रभु, बस,
घड़ी—दो—घड़ी
और जी लेने
दे। चौबीस
घंटे और दे
दे। अस्सी साल
में धन्यवाद
नहीं दिया!
शायद अस्सी
साल में बहुत
बार शिकायत
जरूर की थी कि
हे प्रभु, यह
क्या जीवन
दिया? किसलिए दिया? अस्सी
साल में शायद
अनेक बार सोचा
होगा आत्महत्या
कर लूं।
एक लकड़हारा
लौट रहा है लकड़ियों
का बोझ लिए।
बूढ़ा हो गया, सत्तर साल
का हो गया, गरीब
है, अब भी
लकड़ी काटनी
पड़ती है, बेचनी
पड़ती है। तभी
एक जून रोटी
मिल पाती है।
कई बार कह
चुका है आकाश
की तरफ हाथ
उठा कर हे मौत!
हे मृत्यु के
देवता! तुम
जवानों को उठा
लेते हो, बच्चों
को उठा लेते
हो, मेरे
देखते—देखते
मेरे पीछे आए
लोग जा चुके, आखिर मेरा
क्या कसूर है,
मुझे भी उठा
लो! थक गया हूं,
बहुत थक गया
हूं!
उस दिन
भी बोझ भारी
था, दो दिन का
भूखा भी था।
क्योंकि दो
दिन पानी गिरता
रहा और लकड़ी न
काट सका।
रास्ते में
फिर वही बात
उठी कि हे मौत
के देवता! कब
उठाओगे? कितनी
देर और है? कितना
सताओगे? संयोग की
बात, मौत
करीब से गुजर
रही थी, उसने
सुन लिया। मौत
सामने खड़ी हो
गई। वह इतने क्रोध
में था जीवन
के प्रति कि
गट्ठर को जमीन
पर पटक कर
बिल्कुल उदास
बैठा हुआ था
वृक्ष के नीचे।
मौत सामने खड़ी
हो गई, उसने
कहा, मैं
रहा, मुझे
तुम पुकारते
हो, मैं
हूं मृत्यु का
देवता, बोलो
क्या चाहते हो?
अब बूढ़े को
होश आया, कि
यह हम क्या
मांग बैठे!
लोग होश में थोड़े
ही हैं! उनकी
सब मांगें
पूरी हो जाएं
तो मुश्किल
में पड़ जाएं।
वह तो मांगें
पूरी नहीं होतीं।
परमात्मा
सुनता ही
नहीं।
क्योंकि सुन ले
तुम्हारी तो
मुश्किल में
पड़ जाओ। फिर
तुम परमात्मा
की जान खाओ कि
मेरी सुनी
क्यों? अरे,
हम तो यूं
ही कह रहे थे!
इतना बुरा मानने
की क्या बात
थी! इतनी
शीघ्रता से
निर्णय लेने
को थोड़े ही
कहा था! अरे, बात की बात
थी, कुछ
करने का थोड़े
ही था!
बूढ़ा
एकदम चौंका।
सोचा न था कि
मौत सामने खड़ी
हो जाएगी।
होशियार आदमी, सत्तर साल
का अनुभव, जल्दी
से तरकीब
निकाल ली।
उसने कहा कि
धन्यवाद, बहुत—बहुत
धन्यवाद! असल
बात यह है कि
मेरा गट्ठर
गिर गया और यहां
कोई उठानेवाला
दिखाई पड़ता
नहीं। उठाकर
मेरा गट्ठर
मेरे सिर पर
रखवा दो, बस
इतना ही। और
दुबारा फिर
आने की कोई
जरूरत नहीं
है। और अब कभी
न पुकारूंगा।
इस भूल के लिए
क्षमा करो।
गट्ठर सिर पर
रखकर फिर चल
पड़ा। लेकिन अब
बड़ा प्रसन्न
है, उसके
पैरों में बड़ी
गति है। होठों
पर गुनगुन है।
हृदय में गान
है, कि बचे!
लौट कर बुद्धू
घर को आए, जान
बची और लाखों
पाए! ऐसा खुश
सत्तर साल में
वह कभी भी न
था।
जीवन
का यह द्वंद्व
समझो। जब मौत
तुम्हारे द्वार
पर खड़ी होगी, तब तुम्हें
जीवन का मूल्य
समझ में आएगा।
काश, तुम
समझदार हो तो
अभी समझ में आ
सकता है। मगर
उतनी समझ के
लिए बुद्धत्व
चाहिए। उतनी
समझ के लिए
समाधि की
प्रज्ञा
चाहिए। फिर
मछली को सागर से
बाहर निकलने
की जरूरत नहीं,
सागर में ही
सागर का
धन्यवाद
होगा। फिर
झोली छीननी
न पड़ेगी किसी
को।
लेकिन
इतनी समझ न हो
तो झकझोरे
देने पड़ते हैं, धक्के देने
पड़ते हैं, बामुश्किल
समझ में आता
है।
तुम
पूछते हो कि
अस्तित्व में
कुछ भी
निष्प्रयोजन
नहीं, कहते
हैं। यदि ऐसा
है तो मनुष्य
के जीवन में अहंकार, ईष्या और
घृणा का क्या
प्रयोजन है?
अहंकार
है परमात्मा
से फासला। और
कुछ भी नहीं।
मैं हूं, इस
भ्रांति में
तुम पड़े कि
परमात्मा
दिखाई पड़ना
बंद हो जाता
है। अहंकार
पीड़ा देता है।
क्योंकि तुम
अस्तित्व से
टूट जाते हो।
और सारा आनंद अस्तित्व
के साथ लयबद्ध
होने में है, छंदबद्ध
होने में है।
अस्तित्व के महासंगीत
में जब तुम भी
एक कड़ी होते
हो, एक
स्वर बनते हो;
जब
अस्तित्व के
महासागर में
तुम भी एक लय
होते हो, एक
तरंग होते हो,
भिन्न नहीं,
विपरीत
नहीं; जब
तुम अस्तित्व
के साथ रास
में होते हो, महारास, नाचते
हो; जब तुम
में और
अस्तित्व में
कोई इंच भर
विरोध नहीं
होता, संघर्ष
नहीं होता, द्वंद्व
नहीं होता; जब तालमेल
इतना गहरा
होता है कि
तुम हो, इसका
पता ही नहीं
चलता, परमात्मा
ही है, बस
इसका ही पता
चलता है; वही
है, उसका
ही विस्तार है;
मुझ में भी
वही फैला है, औरों में भी
वही फैला है, जब इसकी
प्रतीति होती
है, तो
आनंद की वर्षा
हो जाती है, अमृत के झरने
फूट पड़ते हैं।
मगर उसके पहले
अहंकार की पीड़ा
झेलनी जरूरी
है। उसके पहले
टूटना जरूरी
है। अपने घर
आने के पहले
अपने घर से
भटक जाना जरूरी
है। ये बातें
विरोधी मालूम
पड़ेंगी मगर
वस्तुतः
विरोधी नहीं
हैं।
जीसस
ने कहा है :
धन्य हैं वे
जो छोटे
बच्चों की
भांति हैं, क्योंकि
प्रभु का
राज्य उन्हीं
का है। लेकिन
छोटे बच्चे? सभी तो छोटे
बच्चों की
भांति पैदा
होते हैं। छोटे
बच्चों को तो
कोई प्रभु का
राज्य मिला
हुआ मालूम
नहीं होता।
छोटे बच्चे तो
जल्दी—जल्दी
बड़े होना
चाहते हैं।
शीघ्रता से
बड़े होना
चाहते हैं। और
जीसस कहते हैं:
धन्य हैं वे
जो छोटे
बच्चों की
भांति हैं!
वचन का खयाल
रखना। छोटे
बच्चे नहीं कह
रहे हैं जीसस,
छोटे
बच्चों की
भांति। इस
भांति में
सारा रहस्य
छिपा है। छोटे
बच्चे नहीं
हैं जो, हैं
तो बड़े, उम्र
तो बहुत हो गई
है, बूढ़े
हैं, लेकिन
छोटे बच्चों
की भांति पुनः
हो गए हैं।
फिर लौट कर
वर्तुल पूरा
हो गया है। जब
पैदा हुए थे
जैसे निर्दोष,
अब मरती घड़ी
में फिर वैसे
निर्दोष हो गए
हैं। वे प्रभु
के राज्य में
प्रवेश पा
जाएंगे। पा ही
गए। यह
अस्तित्व
उनके लिए
प्रभु का
राज्य ही बन
जाता है।
बचपन
को फिर से
पाना पड़ता है—एक
बार खो कर।
बच्चे सभी
निर्दोष होते
हैं। लेकिन
निर्दोषता जाएगी, कपट आएगा, चालबाजी
आएगी, चालाकी
आएगी, बेईमानी
आएगी, पाखंड
आएगा, सब
उपद्रव खड़े
होंगे, पूरे
नरक से गुजरना
होगा। उससे
गुजरकर ही निखार
है। जैसे
स्वर्ण
निखरता है आग
से गुजरकर। ऐसे
ही हम निखरते
हैं अहंकार से
निकल कर । हां,
सोने को आग
में ही मत पड़े
रहने देना।
नहीं तो निखर
कर भी क्या
सार होगा। जब
सोना निखर
जाए, कूड़ा—कचरा जल जाए,
तो निकाल
लेना सोने को
बाहर। अहंकार
आग है, प्रज्वलित
अग्नि है, धूं—धूं
कर जल रहे हो
तुम एक चिता
की भांति। न
तो पूरे जल
पाते हो, कि
पूरे जल जाओ, कि शून्य हो
जाओ तो
परमात्मा मिल
जाए, न
पूरे बुझ पाते
हो, कि
पूरे बुझ जाओ
तो कम—से—कम
प्राकृतिक हो
जाओ। धुंधुआते
हो। न पूरे
जलते, न
पूरे बुझते, बस धुआं—धुआं
होते हो।
बीच
में अटके हो, त्रिशंकु हो
गए हो, वही
अड़चन है, वही
पीड़ा है।
या तो
गिरकर पशु हो
जाओ, तो प्राकृतिक
हो जाओगे।
बहुत लोग वह
उपाय करते
हैं। हालांकि
वह उपाय
क्षणभंगुर
है। क्योंकि
जीवन का एक महानियम
है : जो पा लिया
गया, उसे
तुम खो नहीं
सकते। जो जान
लिया गया, उसे
अनजाना नहीं
किया जा सकता।
जो अनुभव में
आ गया, उसे
पोंछा नहीं जा
सकता। हां, उसके पार जा
सकते हो, पीछे
नहीं लौट
सकते। समय की
धार में पीछे
लौटने का उपाय
ही नहीं।
हालांकि
कोशिश करते
हैं लोग, अथक
कोशिश करते
हैं लोग। शराब
पीनेवाला
क्या कर रहा
है? वह यही
कर रहा है कि
वह जो थोड़ा—सा
बोध उसके भीतर
पैदा हुआ है, शराब पी कर
उस बोध को भी
भुला दे। शराब
पी कर उतना—सा
बोध है वह भी
डूब जाए, ताकि
वह ठीक पशु
जैसा हो जाए।
तुमने
खयाल किया? शराबी मस्त—मौला
मालूम होता
है। ऐसा लगता
है जैसे
आनंदित है। बस
लगता है, भीतर
सारे दुःख का
अंबार है। ऊपर
से शराब ने थोड़ी—सी
देर को मूर्छा
दे दी है; सुबह
होगी, मूर्छा
टूट जाएगी। और
अपने को और भी
दुःख के गढ्ढे
में गहरा
पाएगा। और भी
अंधकार की गर्तो
में उतर
जाएगा।
क्योंकि
चिंताएं जब वह
शराब पी कर
बेहोश पड़ा था
तब उसके भीतर
बढ़ रही थीं, बड़ी हो रही
थीं, फैल
रही थीं। जैसे
कैंसर फैलता
रहता है भीतर,
तुम्हें
पता न भी हो, वैसे ही
चिंताएं
फैलती रहती
हैं भीतर।
और
चिंताओं और
कैंसर का बड़ा
जोर भी है।
चिंताएं शायद
मानसिक कैंसर
का नाम है और
कैंसर शायद शारीरिक
चिंता का नाम
है। आज नहीं
कल इसका उद्घाटन
होने ही वाला
है। क्योंकि
जैसे—जैसे
चिंताएं बढ़ती
हैं समाज में
वैसे—वैसे
कैंसर बढ़ता
है। कैंसर
शारीरिक
बीमारी कम
मालूम होता है, मानसिक
बीमारी
ज्यादा मालूम
होता है। शायद
मन में ही
उसका
सूत्रपात है।
अति चिंता, अति संताप, अति
उद्विग्नता, अति तनाव, देह को भी ज़राजीर्ण
कर जाता है; तोड़ जाता
है। ऐसा तोड़
जाता है कि
अभी तक उसका कोई
इलाज नहीं, उपाय नहीं, औषधि नहीं।
लेकिन
तुम रात जब
सोए हो तब भी
कैंसर बढ़ रहा
है, फैल रहा
है। ऐसे ही
चिंता फैल रही
है। तुम शराब
पी कर पड़े हो, ऊपर से
देखने में
चाहे तुम मस्त
भी मालूम पड़ो,
मगर मस्ती
झूठी है, सुबह
होते—होते उतर
जाएगी।
शराब
पी कर आदमी
पीछे गिरने की
कोशिश कर रहा
है, समय को झुठलाने
की कोशिश कर
रहा है। यह
कोशिश सफल
नहीं हो सकती।
मैं शराब का
विरोधी नहीं
हूं, मैं
इस कोशिश का
विरोधी हूं।
यह कोशिश सफल
नहीं हो सकती,
यह तुम समय
गंवा रहे हो।
शराब में क्या
रखा है? अंगूर
की बेटी है।
शराब में ऐसा
कुछ बहुत बुरा
नहीं है, शराब
में ऐसा कुछ
पाप नहीं है।
और कभी—कभार
घूंट भर पी ली
चार मित्रों
के बीच तो कुछ नरक
नहीं चले
जाओगे। जब स्वमूत्र
पीने वाले नरक
नहीं जा रहे, तो ज़रा
अंगूर का रस
पी लिया, इसमें
कहीं नरक चले
जाओगे?
लेकिन
शराब के पीछे
जो आकांक्षा
है, मैं उसका
जरूर विरोध
करता हूं। वह
आकांक्षा गलत
है। वह पूरी नहीं
हो सकती।
इसी
तरह और भी
उपाय आदमी
खोजता है। धन
की दौड़ में, पद की दौड़
में अपने को
भुलाने की
कोशिश करता है।
याद न रहे
अपनी, ऐसा
अपने को उलझा
लेना चाहता
है। राजनीति
के दांव—पेंचों
में पड़ जाता
है। ऐसे
चक्करों में
पड़ जाता है कि
अपनी याद न
आए। यह भी
शराब है। और
यह ज्यादा
खतरनाक शराब
है। क्योंकि
शराब तो सुबह
उतर जाएगी, मगर यह जिंदगीभर
चढ़ी रह
सकती है।
एक
शराबी निकला
है शराबघर से।
लड़खड़ाता।
और एक बदशक्ल, बहुत मोटी
महिला ने घृणा
से उस शराबी
की तरफ देख कर
कहा कि अरे मूढ़,
क्यों शराब
पी—पी कर अपना
जीवन नष्ट कर
रहा है? वह
इतनी चिल्ला
कर बोली—आवाज
रही होगी उसकी
बुलंद! मोटी
औरत थी बदसूरत
भी—कि शराबी
को भी एक क्षण
को होश आ गया।
उसने गौर से
देखा, हंसने
लगा। उसने कहा,
देखकर
हंसते क्या हो?
रोओगे, पछताओगे!
उस शराबी ने
कहा कि देवी, मेरा नशा तो
सुबह उतर
जाएगा, मगर
तू सुबह भी ऐसी
की ऐसी रहेगी।
तू मुझ से
बदतर हालत में
है। यह जो तुझ
पर चढ़ा है, यह
उतरनेवाला
नहीं। यह इतना
आसानी से उतरनेवाला
नहीं। और तू
अपनी शकल तो
आईने में देख!
यद्यपि मेरी
आंखें धुंधली—धुंधली हो
रही हैं, मुझे
कुछ साफ—साफ
दिखाई नहीं पड़
रहा है, मगर
तू अपनी शकल
तो आईने में
देख! अभी मैं लड़खड़ा रहा
हूं, मगर
सुबह ठीक
संभलकर चलने लगूंगा।
मगर तेरी
दुर्गति तो
सदा रहनेवाली
है।
जिसने
शराब पी है, वह तो सुबह
होश में आ
जाएगा, जिसने
राजनीति पी है,
वह शायद होश
में आए ही न।
उसकी सुबह
शायद हो ही न।
जिसने धन का
नशा पीया
है, पद का
नशा पीया
है—इसलिए तो
हमने धन—मद, पद—मद कहा है
इनको; मद, मदिरा!
जिन्होंने
कहा है, ठीक
शब्द खोजे
हैं। ये
मूर्छा लाते
हैं। ये
अहंकार को फुला
देते हैं।
पीछे
गिरने का उपाय
नहीं है। सब
उपाय असफल हो जानेवाले
हैं। लेकिन
जितनी देर तुम
पीछे गिरने के
उपाय करते हो, उतना समय
गंवाते हो।
उपाय तो आगे
बढ़ना है। आग
से गुजरना है
और आग के पार
जाना है।
अहंकार
से गुजरना ही
होगा। अहंकार
अनिवार्य प्रक्रिया
है, परमात्मा
से दूर होने
की, परमात्मा
से छिटक जाने
की, परमात्मा
से भटक जाने
की। उस भटकाव
में ही संताप
होगा, विरह
होगा; याद
आएगी, तलाश
शुरू होगी, प्रार्थना
जगेगी, पूजा
का आविर्भाव
होगा। ध्यान
की अभीप्सा पैदा
ही न हो अगर
तुम्हें पता न
चले कि
परमात्मा चूक
गया है। यह तो
अहंकार देगा
कष्ट, छेदेगा तुम्हारे
प्राणों को, भरेगा
तुम्हें न—मालूम
कितने रोगों
से, इस
सारी पीड़ा से
ही तुम जागोगे,
नींद तुम्हारी
टूटेगी।
और तब तुम
चलोगे
परमात्मा के
निकट—उसके
निकट जिससे
तुम आए हो।
मूल स्रोत की
तरफ लौटोगे।
अहंकार
का यही
प्रयोजन है।
अहंकार
का प्रयोजन है
ताकि तुम्हें
याद आ जाए परमात्मा
की। मछली को
सागर की याद आ
जाए। भटके—भूले
को अपने घर की
याद आ जाए। यह
अहंकार का
प्रयोजन है।
निश्चय
ही, आनंद
मैत्रेय, जीवन
में कुछ भी
निष्प्रयोजन
नहीं है। फिर
वे अहंकार के
ही हिस्से हैं—ईष्या,
घृणा, इनका
भी प्रयोजन
है। ये अहंकार
की छायाएं हैं।
ईष्या
क्या है?
किसी
दूसरे का
अहंकार
तुम्हें कष्ट
दे रहा है, कोई दूसरा
तुम्हें बड़ा
मालूम हो रहा
है और तुम
चाहते हो कि
सबसे बड़ा मैं।
मुझ से बड़ा
कोई भी नहीं।
अहंकार की
आकांक्षा यही
है कि मुझ से
बड़ा कोई भी
नहीं है। और
कोई दूसरा
तुम्हें बड़ा
मालूम पड़ता
है। और यह
असंभव है कि
तुम सभी बातों
में सभी से
बड़े हो जाओ।
कहीं—न—कहीं
कोई खोट रह
जाएगी। कहीं—न—कहीं
कोई कमी रह
जाएगी।
अस्तित्व ने
उसका इंतजाम
रखा है।
तुम्हें
अहंकार भी
देगा तो वह एक—आयामी
होगा—और बहुत
आयामों में
तुम दीन रह
जाओगे। धन
होगा, तो
पद नहीं होगा;
पद होगा, सौंदर्य
नहीं होगा; सौंदर्य
होगा, बुद्धिमत्ता
नहीं होगी; बुद्धिमत्ता
होगी, स्वास्थ्य
नहीं होगा; कुछ—न—कुछ
कमी रह जाएगी।
क्योंकि अगर
तुम्हारा अहंकार
तुम्हें पूरा
भर दे, कोई
कमी न छूटे, तो फिर
परमात्मा की
खोज न हो
पाएगी। उतना
इंतजाम है; कुछ कमी रह
जाएगी; वही
कमी सालेगी,
खटकेगी,
कांटे की
तरह चुभेगी।
उसकी चुभन
सार्थक है।
ईष्या
क्या है?
चुभन
है। किसी के
पास तुम से
ज्यादा धन है।
किसी ने तुमसे
बड़ा मकान बना
लिया, किसी
के पास तुम से
ज्यादा ज्ञान
है, कोई
तुम से ज्यादा
त्याग कर दिया,
बस
तुम्हारे
भीतर चुभन
पैदा हुई।
तुम्हारे भीतर
पीड़ा उठी।
मुल्ला
नसरुद्दीन
का एक मित्र
उससे मिलने
आया। घोड़े से
उतर ही रहा था
कि नसरुद्दीन
बाहर निकला।
उस मित्र ने
कहा, क्या तुम
कहीं बाहर जा
रहे हो? मैं
बीस साल बाद
मिलने आया
हूं! नसरुद्दीन
ने कहा कि तुम
रुको, विश्राम
करो, नहाओ—धोओ, भोजन
करो, तब तक
मैं आता हूं।
मैंने दोत्तीन
जगह जाने का
पहले ही
निश्चय कर
लिया है, उनको
खबर भी कर दी, वे मेरी राह
देखते होंगे।
मित्र ने कहा,
इतने दिन
बाद मिला हूं,
मैं
तुम्हें क्षणभर
को छोड़ना नहीं
चाहता, मैं
भी साथ चलता
हूं। लेकिन
मेरे कपड़े
गंदे हैं, यात्रा
में धूल से भर
गए हैं, तुम
मुझे दूसरे
कपड़े दे दो। नसरुद्दीन
को सम्राट ने
कपड़े भेंट किए
थे एक बार। वे
उसने संभाल कर
रखे थे, किसी
मौके पर
पहनेगा। पहने
कभी नहीं थे।
वही कपड़े देने
योग्य मालूम
पड़े। दे तो
दिए, मित्र
ने उसकी
शानदार पगड़ी
पहनी, कोट
पहना, चूड़ीदार पायजामा
पहना, जूते
पहने, जब
मित्र पहन कर
तैयार हुआ तो नसरुद्दीन
को ईष्या लगी।
कि इतने सुंदर
कपड़े, इतनी
सुंदर पगड़ी,
ऐसे शानदार
जूते, मैं
रखे ही बैठा
रहा, मैंने
अब तक पहने ही
नहीं! और आज
उसे पहनवा
दिए। उसे खलने
लगी बात। वह
उसके सामने
नौकर—चाकर
मालूम होने
लगा। अपने ही
मित्र के
सामने। अपने
ही कपड़े। और
अपने ही कपड़ों
के कारण नौकर—चाकर
मालूम होने
लगा।
पहली ही
जगह पहुंचे, सब की नजरें
मित्र पर
पड़ीं। दुनिया
में आदमियों
को कौन देखता
है, कपड़ों
को लोग देखते
हैं। पूछा
परिवार के
लोगों ने : आप
कौन हैं? नसरुद्दीन को चोट लगी।
चोट लगनी
स्वाभाविक
थी। आया है नसरुद्दीन,
उसकी तो कोई
पूछत्ताछ
नहीं, आप
कौन हैं! बड़े
स्वागत—समारोह
से मित्र को बिठाला
गया। नसरुद्दीन
ने कहा, यह
हैं मेरे
मित्र जमाल।
बड़े पुराने
मित्र हैं।
रहे कपड़े, सो
कपड़े मेरे
हैं। मित्र को
तो बहुत सदमा
लगा कि कोई
कहने की बात
थी। कह कर तो नसरुद्दीन
को भी ग्लानि
हुई। यह कोई
कहने की बात
थी। मगर अब जो
हो गया सो हो
गया। शामदा
था, बाहर
निकला, आंखें
झुकाए
हुए था। मित्र
ने कहा, नसरुद्दीन,
यह मैंने
कभी नहीं सोचा
था कि तुम
मेरी फजीहत करवाओगे।
चार लोगों के
सामने यह कहने
की क्या बात
थी? अरे, कपड़े
तुम्हारे हैं
सो हैं। कोई
मैंने ले नहीं
लिए। और
उन्होंने कुछ
पूछा नहीं था
कपड़ों के बाबत।
तुम यह क्यों
बोले कि कपड़े?
कपड़े की बात
ही क्यों
उठायी? नसरुद्दीन ने कहा, अब
जो भूल हो गई, हो गई। ऐसे
ही नहीं हो गई
भूल, भीतर
अंतर्धारा चल
रही है,
ईष्या की, कि
मेरे कपड़े और
यह हरामजादा मुफकीरत
अकड़ दिखला रहा
है! क्या शान
से चल रहा है!
जूते चरर—मरर
हो रहे हैं! पगड़ी
भी क्या तिरछी
सिर पर रखी है!
और मैं इसके
सामने
बिल्कुल नौकर—चाकर
मालूम हो रहा
हूं। अपने हाथ
से यह मूढ़ता
कर ली! भीतर तो
वही चल रही थी
बात।
दूसरे
घर पहुंचे।
वहां भी वही
हुआ, लोगों ने
एकदम ध्यान
दिया मित्र के
लिए। फिर चोट
लगी उसे। पूछा,
आप कौन हैं?
कहां से आए?
कोई
राजकुमार
मालूम होते
हैं। आग लग गई
जब उसने कहा
कि कोई
राजकुमार
मालूम होते
हैं! अरे, कहा,
कोई
राजकुमार
नहीं, मेरे
मित्र हैं, जमाल इनका
नाम है। बीस
साल बाद मिलने
आए हैं। रहे
कपड़े, सो
कपड़े इन्हीं
के हैं।
निकल
गया मुंह से
आधा वचन कि
रहे कपड़े, तब उसे खयाल
आया कि फिर
वही भूल हुई
जा रही है, सो
उसने कहा, कपड़े
इन्हीं के
हैं। कौन कहता
है कि मेरे
हैं? मगर
फिर बात तो हो
गयी। फिर कपड़े
की बात उठ गई। बाहर
आकर मित्र ने
कहा, अब
मैं न जाऊंगा
तुम्हारे
साथ। नसरुद्दीन
ने कहा, एक
मौका और दो, तीसरी जगह
और जाना है।
और एक मौका और
इसलिए दो ताकि
यह भूल से मैं बच
सकूं। यह क्या
हो रहा है? मेरी
जबान को क्या
हो गया? ऐसा
तो कभी नहीं
होता था। बात
उठानी ही नहीं
थी मुझे और
फिर भी उठ गई।
हालांकि
मैंने सुधारने
की कोशिश की, मगर तीर हाथ
से निकल जाए
तो लौटता
नहीं। सुधारते—सुधारते
भी बात बिगड़
गई। मगर तीसरी
जगह बिल्कुल
खयाल रखूंगा,
सजग रहूंगा!
तीसरी
जगह पहुंचे तो
और मुश्किल हो
गई। घर का मालिक
तो था नहीं, मालकिन थी।
बड़ी सुंदर
स्त्री। उसकी
नजरें एकदम
टिकी रह गईं
मित्र पर। नसरुद्दीन
को तो उसने
देखा ही नहीं।
मित्र को
बिठाया, अपने
हाथों से उसके
जूते खोले, नसरुद्दीन खड़ा है, उसकी
कोई बात ही
नहीं, उसको
बैठने को भी
नहीं कहा। बस
इतना ही पूछा नसरुद्दीन
से कि नसरुद्दीन,
आप कौन हैं,
किस देश के
सम्राट हैं? नसरुद्दीन ने कहा, सम्राट
इत्यादि कुछ
भी नहीं, मेरा
मित्र है जमाल;
अरे, लंगोटिया यार है, बचपन
के साथी हैं, बीस साल बाद
आया है; रहे
कपड़े, सो
कपड़े की बात
नहीं करनी है,
बिल्कुल
नहीं करनी है।
बात ही नहीं
करनी है। वह
बात ही मत छेड़ना!
जो बात दो दफा
भूल हो चुकी
है, अब भूल
नहीं करूंगा।
किसी के हों, तुम्हें
क्या मतलब? क्यों कपड़ों
के पीछे पड़े
हो?
यह
स्वाभाविक
है। ईष्या
अहंकार को लगी
चोट है। और
जिस दिन अहंकार
चला जाता है, उसी क्षण
ईष्या चली
जाती है।
ईष्या कितना
जलाती है! ऐसा
समझो कि
अहंकार अगर
अग्नि है तो
ईष्या ईंधन
है। जैसे आग
में कोई घी
डालता जाए, चाहे कि बुझाऊं
और डाले घी, तो लपटें और उठें, आग
और भभके, ऐसे ईष्या
है। ईष्या
ईंधन है।
जितनी ईष्या
डालोगे उतना
अहंकार भभकेगा।
जहां
तुम्हारा
अहंकार जीत
जाएगा, जहां
तुम्हारे
अहंकार को
विजय मिलेगी,
वहां तो तुम
खुश होओगे; और जो
तुम्हें विजय दिलवाएंगे,
उनसे तुम
कहोगे, मेरा
बड़ा प्रेम है
तुम से।
तुम्हारा प्रेम
भी क्या है? बस, वह सिर्फ
अहंकार की
विजय जो दिला
दे, जो
उसमें साधन हो
जाए, उससे
तुम प्रेम
जतलाते हो। जो
तुम्हारे
अहंकार को बढ़ा
दे, उससे
तुम प्रेम
जतलाते हो। वह
प्रेम झूठा है,
क्योंकि वह
अहंकार की
पूजा में
संलग्न है। असली
प्रेम तो
अहंकार के मिट
जाने पर ही
पैदा होता है।
प्रेम और
परमात्मा एक
साथ पैदा होते
हैं। प्रेम और
परमात्मा एक—दूसरे
के ही नाम
हैं। प्रेम
परमात्मा की
छाया है। या
परमात्मा
प्रेम का सघन
रूप है। असली
प्रेम और
परमात्मा में
रत्ती भर भेद
नहीं है। इसलिए
जीसस ने कहा
है : प्रेम
परमात्मा है।
लेकिन
तुम जिसे
प्रेम कहते हो, वह तो केवल
तुम्हारे
अहंकार को जो—जो
सहारा देता है,
जब तक सहारा
देता है, तब
तक प्रेम।
इसलिए
तुम्हारा
प्रेम किसी भी
क्षण घृणा बन
जाता है, देर
नहीं लगती।
जिसके लिए
जीते थे, जिसके
लिए मर सकते
थे—इतना प्रेम
था—उसको ही
तुम मार सकते
हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी मरणशैय्या
पर पड़ी थी।
अंतिम क्षण
में उसने आंख
खोली और नसरुद्दीन
से कहा कि नसरुद्दीन, अब जाते समय
झूठ को क्यों
साथ ले जाऊं, एक बात तुम
से कह दूं और
तुम से क्षमा
भी मांग लूं, क्योंकि फिर
मिलना होगा, नहीं होगा, कुछ कहा
नहीं जा सकता।
फिर हमारे
रास्ते कभी एक—दूसरे
के करीब आएंगे
भी अनंतकाल
में, कौन
जाने? इसलिए
यह बोझ अपनी
छाती पर नहीं
ले जाना चाहती
हूं, इसे
मैंने काफी
ढोया है, इसे
आज पंद्रह साल
से अपनी छाती
पर ढो रही हूं,
आज इसे
हल्का कर लेने
दो। मुझे
क्षमा कर दोगे?
नसरुद्दीन
ने कहा, बिल्कुल,
क्षमा कर
दूंगा, क्षमा
किया। तू बोल,
क्या अड़चन
है? उसकी
पत्नी ने कहा,
अड़चन यह है
कि तुम्हारे
मित्र से मेरा
प्रेम था और
मैं तुम्हें
धोखा देती
रही। नसरुद्दीन
ने कहा, बिल्कुल
फिक्र ही मत
कर! तू भी मुझे
क्षमा कर! तू
जानती है कि
तू क्यों मर
रही है? मैंने
तुझे जहर
पिलाया है। तू
मेरा बोझ कम
कर दे, मैं
तेरा बोझ कम
कर देता हूं, बात खत्म!
जिसको
तुम प्रेम
करते हो, उसको
जहर पिला सकते
हो। अगर
तुम्हारे
अहंकार के
विपरीत हो जाए
उसका
व्यवहार। तुम
उसे गोली मार
दे सकते हो।
जिसकी ज़रा—ज़रा सी
बातों की तुम
चिंता करते हो,
कि उसके पैर
में मोच न आ
जाए, इसकी
फिक्र लेते हो,
उसको तुम
पहाड़ से ढकेल
दे सकते हो।
तो तुम्हारा
प्रेम प्रेम
नहीं है। जो
प्रेम घृणा बन
सकता है, वह
प्रेम नहीं
है। प्रेम और
घृणा कैसे बन
सकता है!
तुम्हारी
घृणा क्या है? तुम्हारे
प्रेम का ही
शीर्षासन
करता हुआ रूप है।
जिनके द्वारा
तुम्हारे
अहंकार में
बाधा पड़ती है,
उनसे
तुम्हें घृणा,
जिनसे
तुम्हारे
अहंकार में
सहयोग मिलता
है, उनसे
तुम्हें
प्रेम।
अहंकार
के जाते ही न
तो तुम्हारी
घृणा बचेगी, न तुम्हारा
तथाकथित
प्रेम बचेगा।
दोनों विलीन
हो जाएंगे। और
तब एक नए, एक
बिल्कुल नवीन
प्रेम का
सूत्रपात
होता है। उस
प्रेम का जो
दिव्य है, उस
प्रेम का जो प्रार्थनापूर्ण
है, उस
प्रेम का जो
परमात्मा की
ही आभा है।
ईष्या, घृणा, लोभ,
मोह, मत्सर,
ये सब
अहंकार की ही
अलग—अलग प्रतिछवियां
हैं। अहंकार
बहुरूपिया
है। लोभ का
क्या अर्थ होता
है? अहंकार
खाली है, भरो
इसे। बहुत धन
होगा तो बहुत
अहंकार होगा।
उतनी अकड़
होगी। जितना
धन कम हो
जाएगा, उतना
अहंकार होगा।
बड़ा पद होगा
तो उतना अहंकार
होगा। पद गया
कि अहंकार
गया। अहंकार
ही लोभ में ले
जाता है। लोभ
का मतलब इतना
है कि भरो मुझे।
मुझे बड़ा करो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
और उसका बेटा, दोनों एक
नाले को छलांग
लगा कर पार
किए। मुल्ला
तो एकदम छलांग
लगा गया और उस
पार पहुंच
गया। जब बेटे
ने देखा कि
बूढ़ा बाप
छलांग लगा गया
तो मैं नाले
को न पार करूं,
अच्छा नहीं
मालूम पड़ता।
जवान होकर! तो
उसने भी
हिम्मत की और
छलांग लगायी।
बीच नाले में
गिरा!
बड़ा
हैरान हुआ!
कहा कि पिताजी, इसका राज समझाइए।
आप बूढ़े हैं
और छलांग लगा
गए, नाला
पार कर गए, और
मैं जवान हूं,
मैंने पूरी
ताकत से छलांग
लगाई, फिर
भी मैं बीच
में गिर गया!
मुल्ला ने कहा,
इसका राज
है। उसने अपना
खींसा
जोर से हिलाया
और चांदी के
रुपए खनकाए।
बेटे ने कहा, मैं कुछ
समझा नहीं।
मुल्ला ने कहा,
अरे, रुपए
जेब में हों
तो शरीर में
गर्मी रहती
है। फोकट, खाली
जेब कूदेगा,
गर्मी कहां?
धन
अहंकार का
प्राण है। पद
अहंकार का
प्राण है।
यह
जानकर तुम
हैरान होओगे
कि राजनेता जब
तक पद पर होते
हैं, तब तक
उनकी अकड़, उनके
ढंग एक होते
हैं। जैसे ही
पद से उतरते
हैं, सब
अकड़ खो जाती
है, सब ढंग
खो जाते हैं।
चुनाव में जब
तुम्हारे सामने
राजनेता हाथ जोड़कर खड़ा
होता है, तो
तुम यह मत
समझना कि
तुम्हीं को
धोखा दे रहा है,
यह उसकी
हालत ही है
अब। हाथ जोड़े
खड़ा है, तुम्हारे
पैर भी छूने
को कहो तो वह भी
करने को राजी
है। जनता का
सेवक हो जाता
है एकदम। और
पद पर पहुंचते
ही जनता का
शासक हो जाता
है। फिर
तुम्हें
पहचानेगा भी
नहीं। वह जो
तुम्हारे
सामने हाथ जोड़कर
खड़ा हुआ था, वह तुम्हें
बिल्कुल नहीं
पहचानेगा।
जैसे तुम्हें
कभी देखा ही
नहीं। भूल गई
सब सेवा! सत्ता
हाथ में आ गई, अब कौन सेवा
की फिक्र
करता! सेवा तो
केवल सीढ़ी थी
सत्ता तक जाने
की।
किसी
की भी गर्दन दबानी हो
तो पैर दबाने
से शुरू करना
चाहिए—यह सेवा
का सूत्र है।
पहले पैर
दबाओ। पैर जब दबाओगे तो
कोई भी मना
नहीं करता, वह पैर पसार
देगा कि मजे
से दबाओ। फिर
दबाते—दबाते
बढ़ते जाना
आगे! दबाते—दबाते
उसको भी झपकी
आने लगेगी, नींद भी आने
लगेगी, और
तुम भी धीरे—धीरे
बढ़ोगे, उसका
विश्वास भी
तुम पर बढ़ता
जाएगा, फिर
तुम उसकी जेब
भी काट लेना, फिर उसकी
गर्दन भी दबा
दोगे तुम तो
उसको पता नहीं
चलेगा। मगर
धीरे—धीरे
करना; एकदम
से मत कर
देना। एकदम से
पैर से छलांग
मत लगा देना
गर्दन पर, नहीं
तो वह भी चौंक
कर बैठ जाएगा।
एक
वैज्ञानिक
प्रयोग कर रहा
था। उसने एक
मेढक को उबलते
हुए पानी में
डाला। मेढक
छलांग लगा कर
बाहर निकल
गया। एकदम!
निकल ही
जाएगा। उबलता हुआ
पानी, मेढक
क्यों उसमें
रहेगा? ऐसी
छलांग लगाई
मेढक ने जैसी
जिंदगी में
कभी भी नहीं लगाई
होगी! फिर
उसने उसी मेढक
को साधारण
पानी में रखा।
मेढक के ही
शरीर के
तापमान का
पानी। और उसको
धीरे—धीरे गरम
करना शुरू
किया, बहुत
आहिस्ता—आहिस्ता!
चौबीस घंटे, धीरे—धीरे उबलने तक
लाया और मेढक
उबल गया और मर
गया, छलांग
नहीं लगाई।
क्योंकि धीमे—धीमे
गरम हुआ। इतने
धीमे गरम हुआ
कि मेढक उतनी
गर्मी से राजी
होता चला गया।
इतने आहिस्ता—आहिस्ता
गरम हुआ।
मैं एक
पहलवान को
जानता हूं, जिसने एक
भैंस के बच्चे
को पहले दिन
से ही उठा कर
घूमना शुरू
किया। रोज
भैंस का बच्चा
बड़ा होने लगा,
पड़वा बड़ा होने
लगा। और
पहलवान रोज
उसे लेकर
घूमता ही रहा।
घंटों घूमता। पड़वा बड़ा
होता गया और
पहलवान भी उसे
रोज लेकर घूमता
गया। वह दिन
भी आ गया जब पड़वा
पूरा—का—पूरा
भैंसा हो गया,
मगर पहलवान
उसे उठा ले और
घूम ले—धीमे—धीमे
बात होती रही।
उतना—उतना
पहलवान भी समायोजित
होता गया।
किसी
के पैर दबा कर
एकदम गर्दन मत
पकड़ लेना। नहीं
तो वह भी चौंक
कर बैठ जाएगा।
आहिस्ता—आहिस्ता!
वही तुम्हारे
राजनेता करते
हैं। धीरे—धीरे!
पहले सेवा
करते हैं। और
अगर आदमी की
सेवा से नहीं
तो जो बहुत
होशियार हैं, वे गऊ—सेवा
से शुरू करते
हैं। बड़ी दूर
से शुरू करते
हैं! कहां गऊ—सेवा
और कहां
दिल्ली! कहां
"पिंजरा—पोल"
और कहां
"दिल्ली" मगर
पिंजरा—पोल से
दिल्ली
पहुंचेंगे
वे। गऊ—रक्षा
से शुरू करते
हैं।
कोई
हरिजन की सेवा
से शुरू करता
है। कोई अनाथालय
खुलवाता है।
कोई अस्पताल बनवाता
है। कोई
विधवाश्रम चलवा देता
है। धीरे—धीरे
चलते—चलते—
चलते—चलते
आखिर दिल्ली आ
जाती है।
अहंकार
खाली है, बिल्कुल
खाली है।
क्योंकि थोथा
है, झूठा
है। उसका
वास्तविक कोई
अस्तित्व
नहीं है। सिर्फ
मान्यता है।
और मान्यता को
संभालने के
लिए बैसाखियों
की जरूरत पड़ती
है। धन चाहिए,
पद चाहिए, प्रतिष्ठा
चाहिए, नाम
चाहिए, यश
चाहिए, गौरव
चाहिए; फिर
इसके लिए जो
भी करना पड़े, अहंकार सब
कुछ करने को
राजी है। अगर
लोग कहते हैं
कि हम
चरित्रवान का
ही सम्मान
करेंगे, तो
अहंकार
चरित्रवान
बनेगा। अगर
लोग कहते हैं
कि हम केवल
उपवास करने
वाले का ही
सम्मान करेंगे,
तो अहंकार
उपवासी
बनेगा। अगर
लोग कहते हैं
हम जब तक
दिगंबर न हो
जाओगे, नग्न
फकीर न हो
जाओगे तब तक
सम्मान नहीं
करेंगे, तो
अहंकार
दिगंबर हो
जाता है, नग्न
फकीर हो जाता
है। अगर लोग
कहते हैं जब
तक केश—लुंच
न करोगे, बाल
न उखाड़ोगे
अपने हाथों से
तब तक हम
सम्मान न
देंगे, तो
लोग केश—लुंच
भी करते हैं।
अहंकार
हर हाल में
तैयार है, सब कुछ करने
को तैयार है, भरो लेकिन
उसे। कोई भी
शर्त हो, पूरी
करने को तैयार
है। ये सारी
शर्ते हैं :
लोभ, मोह, ममता, माया,
ये सब शर्ते
हैं। ये सारी वासनाओ का
जाल एक
बुनियादी
सूत्र से उठता
है वह है अहंकार
और अहंकार का
अर्थ मेरी
दृष्टि में :
ईश्वर से अपने
को भिन्न मान
लेना, अस्तित्व
से अपने को
भिन्न मान
लेना। अहंकार यह
भी कह सकता है
कि ईश्वर नहीं
है।
फेड्रिक
नीत्शे ने कहा
है, ईश्वर मर
गया है। और
कहा कि अगर
ईश्वर हो भी
तो मैं मान
नहीं सकता।
क्योंकि मैं अपने
को मानूं कि
ईश्वर को
मानूं? उसने
बड़ी ठीक बात
कही है। अपने
को मानूं या
ईश्वर को
मानूं! दो में
से किसको चुनूं?
ईमानदार है फेड्रिक
नीत्शे, तुम
से ज्यादा
ईमानदार है।
वह कहता है, मैं अपने को
ही चुनता हूं।
मैं हूं, ईश्वर
नहीं है। यही
तुम सबकी भी
दशा है। भले
तुम ईश्वर को
कहते हो कि है,
मगर भीतर तो
तुम जानते हो :
मैं हूं, कहां
का ईश्वर, कहां
का क्या! हां, मंदिर में
कभी दो फूल भी
चढ़ा आते हो कि
कहीं भूलचूक
से हो ही! तो
थोड़ा—सा
इंतजाम कर रखो,
अपना बिगड़ता
भी क्या है! दो
फूल चढ़ा दिए, क्या हर्ज
है? धूप—दीप
जला दिया, हर्ज
क्या है? कभी
माला फेर ली
दो घड़ी बैठ कर,
हर्ज क्या
है? माला
फेरते रहे और
टेलिविजन
देखते रहे।
माला फेरते
रहे और दुकान
भी चलाते रहे।
राम—राम जपते
रहे और दुकान
में आ गए
कुत्ते को भी
भगाते रहे।
हर्ज क्या है?
ऐसे किनारे—किनारे
कर लिया।
तिब्बती
बहुत होशियार
हैं।
उन्होंने एक
चक्का बना रखा
है। उस चक्के
में जो आरे
हैं, आरों पर
मंत्र लिख दिए
हैं। बैठे
रहते हैं, अपना
और काम करते
रहते हैं—दुकान
चलाएंगे,
धंधा
करेंगे—और जब
भी फुरसत
मिलेगी, उस
चक्के को एक
धक्का मार
देंगे। वह
चक्का घूमने
लगेगा धक्का
मारने से।
हिसाब यह है
कि वह जितने
चक्र पूरे कर
लेगा, जितने
चक्कर ले लेगा,
उतने
मंत्रों का
लाभ मिल
जाएगा। एक
तिब्बती लामा
मेरे पास
मेहमान था, उससे मैंने
कहा कि पागल, तुझे पता
नहीं कि अब यह
बार—बार हाथ
मारने की क्या
जरूरत है? इसमें
एक प्लग लगा
कर बिजली से
जोड़ दे। यह दिनभर
घूमता रहेगा,
तू रात सोया
रहे तब भी
घूमता रहेगा।
आखिर
पंखे घूम रहे
हैं, इसी तरह
यह भी घूमता
रहेगा। या
पंखे की पखुड़ियों
पर मंत्र लिख
दे, झंझट
मिटा! कहां का
प्राचीन
तुमने भी, बैठे—बैठे
बारबार इसको
धक्का मारो!
खयाल रखना
पड़ता है!
अगर
चक्के के आरों
पर लिखे गए मंत्रों
के घूमने से
काम पूरा हो
जाता है, तो
आदमी सोचता है
कर ही लो, हर्ज
क्या है! कभी सत्यनारायण
की कथा करवा
दी; कभी
थोड़ा प्रसाद बंटवा
दिया; कभी कन्याओं
को भोजन करवा
दिया; कभी
व्रत—उपवास रख
लिए, अपना
इतने में बिगड़ना
क्या है?! अगर
हुआ ईश्वर तो
कहने को बात
रह जाएगी कि
देखो, कितना
तुम्हारे लिए
किया था! और
नहीं हुआ, तो
गंवाया क्या
अब? इन सब
कामों को करने
से समाज में
थोड़ी प्रतिष्ठा
ही मिली, अहंकार
थोड़ा जगमगाया
ही, थोड़े चांदत्तारे
लगे, हर्ज
क्या है? थोड़े
सलमा—सितारे
जुड़ गए! थोड़ी
और रौनक आ गई, लोग कहने
लगे बड़ा धार्मिक
आदमी है। साधु—पुरुष
है। और जिसकी
प्रतिष्ठा
साधु—पुरुष की
तरह हो जाए, धार्मिक
आदमी की तरह
हो जाए, लोग
उससे लुटने
को आसानी से
राजी हो जाते
हैं। तो उसे
लूटने में भी
सुविधा मिलती
है। तिलकधारी
दुकानदार हो,
तो तुम उससे
ज्यादा पैसे
नहीं ठहराओगे,
सोचोगे कि तिलकधारी
है, सच्चा
ही कहता होगा।
बड़ी चुटिया
लटक रही हो, तुम सोचोगे
कि ठीक ही
कहता होगा!
इतनी चुटिया लटकानेवाला
आदमी और झूठ
बोले? रामनाम
की चदरिया ओढ़े
बैठा हो, तो
तुम यह मान ही
नहीं सकते कि
यह दंडी
मारेगा, और
कम तौलेगा।
कि नकली रुपए
हाथ में थमा
देगा।
बेईमानी
में सुविधा
मिल जाती है
अगर लोग
तुम्हें
धार्मिक
समझते हों।
तुम्हें
पाखंड भी लाभपूर्ण
मालूम होता
है। हालांकि
तुमसे भी कोई
ईश्वर को
मानता नहीं।
क्योंकि
ईश्वर को
मानने की पहली
शर्त ही तुम
कहां पूरी किए
हो? "मैं" को
गंवाओ, तो
ईश्वर को
जानोगे। और
जानोगे तो ही
मानने में कुछ
अर्थ है। बिना
जाने मानने
में क्या अर्थ
हो सकता है? बिना जाने
मानना झूठ है,
पाखंड है।
तुम्हारे
विश्वासी
आस्तिक सब पाखंडी
हैं, सब
झूठे हैं। जब
तक अनुभव में
न आ जाए, तब
तक कुछ भी
मान्यता का
सार नहीं है।
तब तुम किसको
भुलावा दे रहे
हो? भीतर
संदेह भरे हैं,
संदेहों की कतारें
लगी हैं, और
सिर्फ तुमने
अपना चेहरा
रंग लिया है, आस्तिक हो
गए हो, वैसे
भीतर तुम
नास्तिक हो।
आस्तिक के
भीतर कुरेद कर
देखो और तुम
नास्तिक को
पाओगे। कभी—कभी
तो ऐसा होता
है कि नास्तिक
कहीं ज्यादा
ईमानदार होता
है बजाय
आस्तिक के। कम—से—कम
इतनी
ईमानदारी तो
है कि साफ
कहता है कि
मुझे ईश्वर का
कोई पता नहीं
तो कैसे मानूं?
शायद कभी
इसे पता भी चल
जाए। क्योंकि
जो नहीं मानता
है, वह
खोजने में
लगेगा। उसे
कभी—न—कभी
जिज्ञासा
उठेगी कि इतने
लोग मानते हैं—बुद्ध,
कृष्ण, महावीर,
जीसस, मुहम्मद—क्या
ये सारे लोग
गलत होंगे? मैं भी
खोजूं, तलाशूं। मगर
आस्तिक को तो
तलाश की भी
जरूरत नहीं
है।
तलाश
की जरूरत ही
क्यों हो? वह तो मानता
ही है। उसने
तो मानने में
ही तलाश को
डुबो दिया, मार डाला, आत्महत्या
कर दी उसकी।
अहंकार
का एक ही
प्रयोजन है :
तुम्हें
परमात्मा से
दूर कर दे।
ताकि तुम पास
आ सको।
निष्प्रयोजन
जीवन में कुछ
भी नहीं है, सिवाय जीवन
को छोड़ कर।
हां, स्वयं
जीवन
निष्प्रयोजन
है। क्योंकि
जीवन के पार
कुछ भी नहीं
जिसका जीवन
साधन बन सके।
जीवन आह्लाद
है, आनंद
है, संगीत
है, नृत्य
है, उत्सव
है।
उसे
भी देख, जो भीतर भरा
अंगार है
साथी!
सियाही
देखता है, देखता है तू
अंधेरे को,
किरण
को घेर कर छाए
हुए विकराल
घेरे को।
उसे
भी देख, जो इस बाहरी
तम को बहा
सकती,
दबी
तेरे लहू में
रोशनी की धार
है साथी?
पड़ी
थी नींव तेरी
चांद—सूरज के
उजाले पर,
तपस्या
पर, लहू
पर, आग पर, तलवार—भाले पर।
डरे
तू नाउमेदी
से, कभी
यह हो नहीं
सकता,
कि
तुझ में
ज्योति का
अक्षय भरा
भंडार है साथी?
बवंडर
चीखता लौटा
फिरा तूफान
जाता है,
डराने
के लिए तुझको
नया भूडोल आता
है;
नया
मैदान है राही, गरजना है नए
बल से;
उठा, इस बार वह जो
आखिरी हुंकार
है साथी?
विनय
की रागिनी में
बीन के ये तार
बजते हैं,
रुदन
बजता, सजग
हो क्षोभ—हाहाकार
बजते हैं।
बजा, इस बार दीपक—राग
कोई आखिरी सुर
में;
छिपा
इस बीन में ही
आग वाला तार
है साथी।
ज़रा
झांको अपने
भीतर, अपने
अहंकार के
भीतर। अपने
अंधेरे के
भीतर ज़रा
झांको और तुम
ज्योति का
पुंज पाओगे।
अपने अज्ञान
के भीतर झांको
और ज्ञान की
अखंड गंगा
पाओगे। अपने
अहंकार के
भीतर उतरो, उसकी
गहराइयों में
झांको और
इनमें तुम
परमात्मा को
छिपा हुआ
पाओगे।
अहंकार तो बस
आवरण है, ऊपर
की खोल है।
उसे
भी देख, जो भीतर भरा
अंगार है
साथी!
उसे
भी देख, जो इस बाहरी
तम को बहा
सकती,
दबी
तेरे लहू में
रौशनी की धार
है साथी?
डरे
तू नाउमेदी
से, कभी
यह हो नहीं
सकता,
कि
तुझ में
ज्योति का
अक्षय भरा
भंडार है साथी?
बजा, इस बार दीपक—राग
कोई आखिरी सुर
में;
छिपा
इस बीन में ही
आग वाला तार
है साथी।
दूसरा
प्रश्न :
भगवान, पहली ही बार
आया हूं। जहां
देखता हूं,चारों
ओर आंखों में
बहुत ही
अद्भुत शांति
नजर आ रही है।
ऐसा लगता है
कि फरिश्तों
की नगरी में आ
गया हूं।
प्रभु, क्या यहां
सब सिद्ध—पुरुष
ही रहते हैं?
रमेश!
सिद्ध तो तुम
भी हो, बुद्ध
तो तुम भी हो। सिर्फ
होश नहीं। याद
दिलाए जाने की
बात है, बस।
कुछ भी तुम
में कमी नहीं
हैं। कुछ पाना
नहीं है, सब
मिला हुआ है, सब प्रथम से
ही मिला हुआ
है, अक्षय
संपदा
तुम्हारी है,
प्रभु का
राज्य
तुम्हारा है,
लेकिन
तुम्हें
स्मरण नहीं, तुम्हें
विस्मरण हो
गया है। तुमने
खोया कुछ भी
नहीं है। सोना
सोना है, सिर्फ भूल
गया है। अपनी
तरफ देखता ही
नहीं, इसलिए
भूल गया है।
औरों की तरफ
देख रहा है।
तो याद कैसे
आए? आत्म—स्मरण
कैसे हो? तुम्हारी
आंखें भटक रही
हैं इस सारे
संसार में, दूर चांदत्तारे
तुम्हें
दिखाई पड़ते
हैं—और तुम
खुद अपने को
दिखाई नहीं
पड़े हो। चांद
पर आदमी चल
लिया, और—और
तारों पर भी
चलेगा, अपने
भीतर गति नहीं
हुई अभी।
समुद्रों की
गहरी से गहरी
गहराइयों में
डुबकी मारी है
आदमी ने; प्रशांत
महासागर पांच
मील गहरा है, उस गहराई को
भी छू लिया
आदमी ने; और
गौरीशंकर
के शिखर पर भी
चढ़ गया है; और
अपने भीतर? अपने भीतर
जाता नहीं।
जैसे उसे खयाल
ही नहीं है कि
अपने भीतर भी
एक आकाश है।
एक ऊंचाई, एक
गहराई, एक
अद्भुत लोक, जीवन—ऊर्जा
का, सुरत्ताल में बंधा
हुआ एक संगीत,
कि अपने
भीतर अनाहत का
नाद है, कि
अपने भीतर
ब्रह्म
विराजमान है।
मैं
यहां लोगों को
सिर्फ याद
दिला रहा हूं।
तुम्हारे
तथाकथित
धार्मिक
व्यक्ति, तुम्हारे
पंडित—पुरोहित—महात्मा,
साधु—संत, वे लोगों से
कहते हैं :
धार्मिक बनो!
मैं लोगों को
कह रहा हूं कि
तुम धार्मिक
तो हो ही सिर्फ
स्मरण करो!
इसलिए यहां
आसानी से घटना
घट रही है।
क्योंकि पाना
तो लंबा मामला
है। जनम—जनम लगेंगे।
और उन्होंने
बड़ा फैलाव कर
रखा है। पहले
तो कहते हैं, पिछले
जन्मों में
तुमने जो पाप
किए हैं, वे
काटने होंगे।
अब कितने
तुम्हारे जनम
हुए! और कितने
तुमने पाप न
किए होंगे!
उनको काटते—काटते
ही अनंत जन्म
लग जाएंगे। और
उनको काटते—काटते
ही अनंत पाप
और हो जाएंगे।
क्योंकि तुम
पाप ही थोड़े
काटते रहोगे,
कुछ और भी
तो करोगे। पाप
काटने के लिए
भी कुछ करना
पड़ेगा। समझो
कि मंदिर
बनाओगे, तो
पहले दुकान
चलानी होगी।
धन कमाओगे
तो मंदिर
बनेगा। धन कमाओगे
तो दान हो
सकेगा। लेकिन
धन कमाओगे
कैसे? किसी
को लूटोगे।
किसी का शोषण
करोगे। पुण्य
भी करोगे तो
पहले पाप करना
होगा। चोरी करोगे,
बेईमानी
करोगे।
अनंतकाल लग
जाएगा तब तो।
और चालबाजों
ने यह
सिद्धांत बड़े
हिसाब से खोजा
है। इस भांति
तुम्हें सदा
के लिए धोखा
दिया जा सकता
है।
पहली
तो बात, अनंत—अनंत
जन्मों के
तुम्हारे
कर्म ऐसे हैं
कि आज तुम्हारा
छुटकारा नहीं
हो सकता।
इसलिए
तुम्हारे महात्मागण
तुम्हें जो
विधियां देते
हैं, अगर
वे सफल न हों, तो उनका
क्या कसूर?
खलील
जिब्रान की
प्रसिद्ध
कहानी है। एक
आदमी लोगों को
गांव—गांव
समझाता फिरता
था कि आओ मेरे
पीछे, मैं
तुम्हें
परमात्मा से
मिला दूं।
लेकिन न कभी कोई
आया—क्योंकि
किसको पड़ी है
परमात्मा से
मिलने की? लोग
कहते, आएंगे,
जरूर आएंगे,
एक दिन
आएंगे, अभी
तो और हजार
काम करने हैं।
अभी तो फसल काटनी
है; अभी तो बगीचे में
फल पक रहे हैं,
उनकी फिक्र
लेनी है, अभी
बच्चे बड़े हो
रहे हैं; अभी—अभी
तो दुकान खोली
है, अभी
मकान अधूरा
बना है, आएंगे,
जरूर आएंगे,
एक उम्र पर
तुम्हारे साथ
आएंगे। वह
आदमी गांव—गांव
घूमता। न कभी
कोई उसके पीछे
आया परमात्मा
तक जाने के
लिए, न उसे
कोई झंझट आई।
एक
गांव में
उपद्रव हो
गया। एक आदमी
उठ कर खड़ा हो
गया, उसने कहा
कि मैं आता
हूं। न मुझे
मकान बनाना, न मेरी
पत्नी, न
मेरे बच्चे, न धन—दौलत, मुझे कोई
झंझट ही नहीं
है। मैं तो आप
ही जैसे किसी
की तलाश में
था। गुरु थोड़ा
घबड़ाया।
क्योंकि पता
तो उसे ईश्वर
के घर का नहीं
था मालूम। यह
तो काम चल रहा
था, क्योंकि
कोई कभी साथ
आता ही नहीं
था! मगर उसने कहा
कि देख लेंगे—वह
भी कोई साधारण
गुरु नहीं था,
गुरुघंटाल था! उसने कहा
इसको ऐसे चकमे
देंगे, ऐसे
चक्करों में
डालेंगे! मगर
वह भी कुछ
गुरु से कम
नहीं था। गुरु
तो गुड़ था, वह
शिष्य जो था
शक्कर था। वह
जो पीछे पड़ा
सो पड़ा ही।
गुरु ने कहा, सिर के बल
खड़े होओ; गुरु
कहता, आधा
घंटा, वह एक
घंटा खड़ा
होता। गुरु
कहता राम—राम
जपो घंटे भर, गुरु कहता
एक घंटा, वह
चौबीस घंटे
जपता। उसने
गुरु को पकड़
ही लिया। गुरु
उसे ले जाता
पहाड़ों में, यहां—वहां
घुमाता, चक्कर
दिलवाता। एक
साल बीत गया।
गुरु
थक गया।
उसके
पीछे अब गुरु
की बदनामी भी
होने लगी। क्योंकि
गांव—गांव खबर
पहुंचने लगी
कि अभी तक उस
आदमी को पहुंचा
नहीं पाया, बड़ी बातें
करता था! और वह
आदमी लोगों से
कहने लगा कि
भई, कुछ हो
नहीं रहा! और
जो भी कहता है,
वही मैं
करता हूं।
गुरु भी उदास
होने लगा; वह
जो पुराना दंभ
था, पहुंचा
देने का, वह
भी शिथिल होने
लगा। लोग पूछने
लगे, पहले
एक को तो
पहुंचाओ! अब
गांव में
उपदेश करने
जाता तो लोग
पूछते कि
शिष्य का क्या
हुआ? शिष्य
वहीं बैठा
रहता, वह
कहता, कुछ
नहीं हुआ।
उसकी बोलती
बंद हो गई
गुरु की। उसने
छः साल तक
चक्कर दिलवाए
पहाड़ों में, रेगिस्तानों
में, मगर
जब शिष्य को
चक्कर दिलवाए
तो खुद भी
चक्कर खाने
पड़े। और शिष्य
तो हिम्मत से
लगा था। उसको
तो एक आगे
आकांक्षा थी,
अभीप्सा थी,
आशा थी कि
ईश्वर
मिलेगा। गुरु
को तो वह भी
आशा नहीं थी।
और धीरे—धीरे
उसकी यह भी
आशा टूटी जा
रही थी कि
शिष्य पीछा
छोड़ने वाला
है। यह आखिरी
दम तक पीछा
करेगा। यह मार
कर ही रहेगा!
थक गया, सूख
गया गुरु, एक
दिन वह शिष्य
के चरणों में
गिर पड़ा और
कहा कि मुझे
क्षमा कर, भैया!
पहले मुझे
उसके घर का
पता था, जब
से तू क्या
मिला है, तेरे
सत्संग में
मेरा तक पता
खो गया है, मुझे
तक उसके घर का
अब कोई पता
नहीं! अब तू
मेरा पीछा
छोड़! मुझे माफ
कर; भूल हो
गई!
तुम्हारे
पंडित—पुरोहित
तुम्हें
विधियां देते
रहते हैं। और विधियां
चलती रहती
हैं। कैसी ही मूढ़तापूर्ण
विधि दी जा
सकती है
तुम्हें।
क्योंकि अनंत
जन्मों का
कर्म पहले
काटना है! वह
कोई इसी जन्म
में तो कट
नहीं जाएगा।
इसलिए बड़ी
सुरक्षा है। अनंत
जन्म लगेंगे।
अब अगले जन्म
की अगले जन्म
में देखी
जाएगी, कोई
लौट कर तो
कहता नहीं।
मैं
नगद धर्म में
विश्वास करता
हूं। मैं तुमसे
कहता हूं कि
तुम्हें कोई
कर्म नहीं
काटने हैं।
तुमने अतीत
जन्मों में जो
भी किया है, वह वैसे ही
है जैसे कोई
सपनों में
करे। अब सपनों
में किए कर्मो
के लिए कोई
काटना थोड़े ही
पड़ता है। तुम
मूर्छित थे, इसलिए तुमसे
भूलें हुईं।
मूर्छा में
भूलें स्वाभाविक
हैं। रात
तुमने सपना
देखा कि तुम
चोर हो और तुम
हत्यारे हो, फिर सुबह जागकर
क्या तुम्हें
रात चोर और
हत्यारे होने
के लिए कुछ
प्रायश्चित
करना होता है?
कोई यज्ञ—हवन
करवाना होता
है? कि कुछ
पाप को काटने
का विधि—विधान
करना होता है?
सुबह जागे,
जाना कि
सपना था, बात
खतम हो गई।
मैं तुम्हें
जगाता हूं, जागते ही
तुम्हारे
सारे पिछले
जन्म सपने सिद्ध
हो जाते हैं।
क्योंकि
मूर्छा में
तुम जिए, तुमने
जो भी किया, किया नहीं, हुआ; नींद
में हुआ। उसका
कोई मूल्य
नहीं है।
और मैं
तुम से यह भी
नहीं कहता कि
अगले जन्मों में, जन्मों—जन्मों
के बाद
तुम्हें
उपलब्धि
होगी। मैं कहता
हूं : अभी और
यहीं।
तुम्हारी
तैयारी अगर
चाहिए तो बस
एक, वह
जागने की।
ध्यान उसकी
प्रक्रिया
है।
इसलिए
रमेश, तुम्हें
यहां
प्रसन्नता
दिखाई पड़ेगी,
आह्लाद
दिखाई पड़ेगा,
वसंत दिखाई
पड़ेगा। फूल
खिलते मालूम
होंगे। ये तुम
जैसे ही लोग
हैं। ठीक तुम
जैसे।
तुम्हारे
जैसे ही संसार
में रहते हैं,
दुकान करते
हैं, नौकरी
करते हैं, बच्चे
हैं, पत्नियां हैं, सब
कुछ है।
क्योंकि मैं
किसी चीज से
किसी को छुड़ाना
नहीं चाहता।
किसी को कहीं
से व्यर्थ
तोड़ना नहीं
चाहता। मैं
खिलाफ हूं उस
संन्यास के जो
भगोड़ापन
सिखाता है।
क्योंकि उस भगोड़े
संन्यास ने
दुनिया को
बहुत कष्ट दिए
हैं। वह किसी
ने हिसाब नहीं
रखा कि जब
करोड़ों—करोड़ों
लोग संन्यासी
हुए, तो
उनकी पत्नियों
का क्या हुआ, उनके बच्चों
का क्या हुआ? बच्चों ने
भीख मांगी, चोर बने, हत्यारे
बने; पत्नियां वेश्याएं
हो गईं, कि
उन्हें भीख
मांगने पर
मजबूर होना
पड़ा, कि
दूसरों के
बर्तन मलने
पड़े! क्या हुआ
उनकी
पत्नियों का,
क्या हुआ
उनके बच्चों
का, उनका
हिसाब किसी ने
भी नहीं रखा।
अगर उनका
हिसाब रखा जाए
तो तुम बहुत
हैरान होओगे।
तुम्हारे
तथाकथित
संन्यासियों
ने जितने
लोगों को कष्ट
दिया है, उतना
किसी और ने
नहीं दिया। एक—एक
संन्यासी न—मालूम
कितने लोगों
को कष्ट दे
गया! मां है
बूढ़ी, पिता
है बूढ़ा, बच्चे
हैं छोटे, पत्नी
है, और रिश्तेदार
हैं—और भाग
गया! एक
संन्यासी कम—से—कम
दस—पच्चीस
लोगों को दुःख
दे जाएगा—जितने
लोग उससे
संबंधित हैं।
और
तुम्हारा
संन्यासी बोझ
हो जाता है समाज
के ऊपर। मुफकीरतखोर
हो जाता है।
उसकी
सृजनात्मकता
खो जाती है।
वह तुम्हें
चूसने लगता
है। संसार को
गालियां देता
है। और
सांसारिक
लोगों के ऊपर
ही निर्भर है।
उनका ही दिया
भोजन, उनके
ही दिए कपड़े
पहनता है। वे
कमाते हैं, वह खाता है।
और संसारियों
को गालियां
देता है और
कहता है, तुम
अज्ञानी हो, तुम पापी
हो। और वह
पुण्यात्मा
है! चूसता
तुम्हें है!
शोषक है।
मैं उस
संन्यास के पक्ष
में नहीं हूं।
मेरे संन्यास
की नव—धारणा
है। नया
प्रत्यय है
मेरा
संन्यास। जहां
हो, जैसे हो,
वैसे ही
रहो। वहीं
जागरण आ सकता
है, कहीं
और जाने की
जरूरत नहीं।
क्योंकि
जागरण तुम्हारा
स्वभाव है। ज़रा अपने
को हिलाना—डुलाना
है। ज़रा
अपने को संकल्पवान
करना है। ज़रा
अपना समर्पण
करना है। अपने
अहंकार को
विसर्जित
करना है। और
वसंत आया।
वसंत आने में
देर नहीं।
धीरे—धीरे
उतर क्षितिज
से
आ
वसंत—रजनी!
. . . पुकार
देनी है वसंत
को, बस।
वसंत द्वार पर
ही खड़ा है, द्वार
खोलने हैं।ष्ठ
धीरे—धीरे
उतर क्षितिज
से
आ
वसंत—रजनी!
तारकमय
नव वेणी बंधन
शीशफूल
कर शशि का
नूतन
रश्मि
वलय सित घन—अवगुंठन;
मुक्ताहल
अभिराम बिछा
दे
चितवन
से अपनी!
पुलकती
आ वसंत—रजनी!
मर्मर
की सुमधुर
नूपुर ध्वनि
अलि
गुंजित पद्यों
की किंकिणि
भर पदगति में
अलस तरंगिणि;
तरल
रजत की धार
बहा दे
मृदु
स्मित से
सजनी!
विहंसती
आ वसंत—रजनी!
पुलकित
स्वप्नों की रोमावलि
कर
में हो
स्मृतियों की
अंजलि
मलयानिल
का चल दुकूल
अलि!
घिर
छाया—सी श्याम, विश्व को
आ
अभिसार बनी!
सकुचती
आ वसंत—रजनी!
सिहर—सिहर
उठता सरिता—उर
खुल—खुल
पड़ते सुमन
सुधा—भर
मचल—मचल
आते पल फिर फिर;
सुन
प्रिय की
पदचाप हो गई
पुलकित
यह अवनी!
सिहरती
आ वसंत—रजनी!
बस
इतनी—सी बात
यहां घटी है।
हमने वसंत को
पुकारा है और
वसंत आने लगा
है।
सुन
प्रिय की
पदचाप हो गई
पुलकित
यह अवनी!
सिहरती
आ वसंत—रजनी
तुम
वही हो, जो
तुम्हें होना
है। तुम्हें
होना नहीं है
कुछ और।
तुम्हें सिर्फ
अपने को जान
लेना है जैसे
तुम हो वैसे
ही। और आ जाएगा
मधुमास! खिल
उठेंगे फूल!
सखि, वसंत आया।
भरा
हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष
छाया।
रमेश, यह जो तुम
देखते हो
प्रसन्नता, यह जो पुलक, यह जो
आनंदमग्न—भाव,
यह जो तुम
लोगों की
आंखों में
शांति देखते
हो, प्रेम
देखते हो, यह
तुम्हारा भी
स्वभाव है, तुम्हारी भी
क्षमता है। बस,
तुमने अपनी
जेब ही नहीं टटोली।
तुम झोली
फैलाए औरों से
मांग रहे हो
वह, जो
तुम्हारे
भीतर पड़ा है।
सखि, वसंत आया।
भरा
हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष
छाया।
किसलय—वसना
नव—वय—लतिका,
मिली
मधुर प्रिय उरत्तरु—पतिका,
मधुप—वृंद
बंदी—
पिक—स्वर
नभ सरसाया।
लता—मुकुल
हार गंध—भार
भर
बही
पवन बंद मंद
मंदतर,
जागी
नयनों में वन—
यौवन
की माया
आवृत
सरसी—उर—सरसिज
उठे
केशर
के केश कली के छुटे,
स्वर्ण—शल्य—अंचल
पृथ्वी
का लहराया
सखि, वसंत आया।
भरा
हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष
छाया।
संन्यास
मेरे लिए
त्याग नहीं है, भोग की परम
कला है।
संन्यास मेरे
लिए परमात्मा
को भोगने की
विद्या है।
परमात्मा के
साथ नाचने, गाने, गुनगुनाने
का आयोजन है।
मैं लोगों को
यहां जीवन का
विषाद नहीं
सिखा रहा हूं,
जीवन का
आह्लाद!
पुरानी
तथाकथित
संन्यास की धारणा
जीवन—विरोधी
थी। उसका
मौलिक स्वर
निषेध का था।
मेरा मौलिक
स्वर विधेय का
है। जिओ, जी भर कर जिओ!
एक—एक पल
परिपूर्णता
से जिओ!
फिर कहीं और
स्वर्ग नहीं
है। फिर यहीं
स्वर्ग उतर
आता है। जो
परिपूर्णता
से जीता है, उसकी श्वास—श्वास
में स्वर्ग
समा जाता है।
रमेश, कुछ सीखो!
यहां नाचते, मदमस्त
लोगों से कुछ
तरंग लो। ये पियक्कड़ों
की जमात है, कुछ पिओ
। यह रिंदों
का जमघट है, यह मधुशाला
है, यहां
से ऐसे ही मत
लौट जाना।
यहां सुराही
भरी है। बस, तुम झुको।
और यहां कोई प्यालियों
से नहीं पिआ
जाता, सुराहियों से ही पिआ
जाता। क्या
प्याली लेनी
बीच में!
अच्छा
हुआ आ गए!
अच्छा हुआ कि
तुम्हें
दिखाई पड़ रहा
है! क्योंकि
भारतीय मन
इतना रुग्ण हो
गया है, इतना
अंधा हो गया
है, सदियों—सदियों
के निषेध ने
भारतीय मन को
इतनी व्यर्थ की
धारणाओं से भर
दिया है कि
देखना जो यहां
घट रहा है, उसे
पहचानना एकदम
असंभव मालूम
होता है। तुम
सौभाग्यशाली
हो, कि तुम
लोगों की
आंखों में देख
सके और
तुम्हें वहां
शांति दिखाई
पड़ी! तुम
सौभाग्यशाली
हो कि तुम्हें
थोड़ा—सा
स्वर्ग उतरता
हुआ यहां
अनुभव में
आया! नहीं तो
तथाकथित
परंपरागत, रूढ़िग्रस्त मन जब यहां
आता है, तो
उसे बड़ी
बेचैनी होती
है, क्योंकि
वह अपेक्षाएं
लेकर आता है।
वह
अपेक्षाएं
लेकर आता है
कि लोग बैठे
होंगे उदास, झाड़ों के नीचे, धूनी
रमाए, भभूत
लपेटे, भूखे—प्यासे,
रूखे—सूखे,
मरुस्थल
जैसे।
क्योंकि वही
उसकी महात्मा
की धारणा है।
और जब वह यहां
आकर लोगों को नाचते
देखता है, और
जब वह यहां
आकर देखता है
कि बांसुरी बज
रही है, और
कहीं कोई धूनी
नहीं दिखाई
पड़ती; संगीत,
और कहीं कोई
शरीर पर भभूत
रमाए हुए नहीं
दिखाई पड़ता; लोग सुंदर
तन, सुंदर
मन, संगीत
में डूबने को
आतुर, नृत्य
में जाने को
तत्पर, तो
वह चौंक जाता
है। उसे लगता
हैः यह कैसा
संन्यास! यह
कैसा आश्रम!
यह कैसी
तपश्चर्या!
उसकी धारणाओं
के विपरीत
पड़ता है। वह
अंधा हो जाता
है, एकदम
अंधा हो जाता
है, उसे
फिर कुछ दिखाई
नहीं पड़ता।
या उसे
ऐसी चीजें
दिखाई पड़ने
लगती हैं जो
उसके प्रक्षेपण
हैं। अगर वह
देख लेता है
एक जोड़े को
हाथ में हाथ
डाले चलते हुए, बस, उसके
प्राणों पर
संकट आ जाता
है। उसने
जीवनभर वासना
को दबाया है, वह उभर कर
खड़ी हो जाती
है। उसका
प्रक्षेपण हो जाता
है। वह उस
युवक की जगह
अपने को देखता
है। और सोचता
है कि अगर मैं
इस युवक की
जगह होता तो
क्यों इस
स्त्री का हाथ
पकड़ता? उसने और
किसी कारण से
कभी स्त्री का
हाथ पकड़ा ही
नहीं। उसने
स्त्री को कभी
और किसी तरह
देखा ही नहीं,
कामवासना
की धारणा से
ही देखा है, उतनी ही
उसकी पहचान
है। वह दूसरे
पर भी वही थोप
देता है। तुम
वही देख सकते
हो, जो तुम्हारे
भीतर भरा पड़ा
है। तुम अपना कूड़ा—करकट
दूसरों पर
आरोपित कर
देते हो।
तुम
सौभाग्यशाली
हो कि तुम देख
सके हो! तुम रुढ़ि
से मुक्त हो।
परंपरा का बोझ
तुम पर कम है।
ये अच्छे
लक्षण हैं।
ऐसे ही
व्यक्तियों
के लिए मेरा
संन्यास है।
मेरा तुम्हें
निमंत्रण! आओ, सम्मिलित
होओ इस राग
में, इस
रंग में!
तीसरा
प्रश्न :
भगवान, मैं अपने को
बड़ा ज्ञानी
समझता था, पर
आपने मेरे
ज्ञान के
टुकड़े—टुकड़े
कर के रख दिए।
अब आगे क्या
मर्जी है?
धर्मेश, जो उसको
मंजूर! मेरी
क्या मर्जी? यहां मेरी
मर्जी नहीं
चलती। और यहां
तुम्हारी
मर्जी भी नहीं
चलेगी। यहां
तो हम सबने
अपनी मर्जी
उसकी मर्जी में
डुबो दी। वह
जो करवाता है,
होता है। और
उस पर छोड़ने
का एक मजा है।
अगर
तुम इस
संन्यासियों
के परिवार का
थोड़ा अवलोकन
करोगे, तो
बहुत चौंकोगे।
न हम किसी से
भीख मांगने
जाते, न हम
किसी से दान
मांगते, हम
किसी के सामने
हाथ नहीं
फैलाते। उसके
सामने फैला
दिए हाथ, अब
किसके सामने
हाथ फैलाने!
और अड़चन आती
ही नहीं। सब
होता चला जाता
है। आज एक
हजार
संन्यासी
आश्रम के
हिस्से हैं।
और मेरे
संन्यासी कोई
दीनता और
दरिद्रता से
रहने में
भरोसा नहीं
रखते। जो
मनुष्य के लिए
बिल्कुल
जरूरी है, मिलना
ही चाहिए।
मस्ती से रहते
हैं, आनंद
से रहते हैं, उत्सव से
रहते हैं।
उस पर
छोड़ते ही कुछ
अनूठा घटित
होना शुरू
होता है।. . . अभी
पांच—सात दिन
पहले लक्ष्मी
को दस लाख
रुपयों की जरूरत
थी। वह मुझसे
कहने लगी कि
दस लाख रुपए
एकदम से कहां
से आएंगे? मैंने कहा, जैसे और आते
हैं, वैसे
ये भी आएंगे!
और आ गए!
लक्ष्मी भी
चौंकी! कि एक
व्यक्ति
परसों ही आया
स्विट्जरलैंड
से! और उसने
कहा कि मैंने
दस लाख रुपए
जमा कर दिए
हैं आश्रम के
नाम से, स्विट्जरलैंड
में! पूरे दस
लाख रुपए।
लक्ष्मी ने
पूछा, किसलिए?
किसने
तुमसे कहा? उसने कहा, किसी ने
मुझसे कहा
नहीं, लेकिन
अचानक मुझे
लाभ हो गया।
जिसकी कोई
अपेक्षा भी
नहीं थी, जिसके
लिए मैंने कोई
प्रयास भी
नहीं किया था,
तो मैंने
सोचा कि जिसके
लिए मैंने कोई
प्रयास नहीं
किया, जिसके
लिए मेरी कोई
अपेक्षा भी
नहीं थी, जो
आकस्मिक रूप
से आ गया है, वह अपना नहीं
है। इसे कहीं
भी भगवान के
काम में लगा
देना चाहिए।
जीवन
इस ढंग से भी जीआ जा
सकता है। सब
उस पर छोड़कर
भी जीआ जा
सकता है। और
यह तो मलूकदास
की श्रृंखला
चल रही है, तुम्हें
उनका वचन याद
ही होगा—सभी
को याद है, उसी
एक वचन के
कारण मलूकदास
को लोग जानते
हैं, और तो
उनके वचन
लोगों को
मालूम भी नहीं
हैं—अजगर करे
न चाकरी, पंछी
करे न काम; दास
मलूका कह
गए, सबके
दाता राम।
इसे मलूकदास
ने ऐसे ही
नहीं कह दिया
होगा। मलूकदास
का भी काम ऐसे
ही चला!
अब तुम
मुझसे पूछते
हो, आप की
क्या मर्जी? उसकी जो
मर्जी। उसकी
मर्जी पूछते
हो, धर्मेश,
तो पहला तो
काम संन्यास!
क्योंकि जब
ज्ञान खंडित
हो गया, और
तुम्हें
भ्रांतियां
थीं कि मैं
जानता हूं, वे टूट गई, सरलता अब
स्वाभाविक हो
जाएगी। और
सरलता ही संन्यास
है। अब ज्ञान
की भ्रांति
टूट गईं, तो
ध्यान सुगम हो
जाएगा। और
ध्यान ही
संन्यास है।
संन्यास तो बस
आयोजन है कि
ध्यान घट सके,
सरलता घट
सके, निर्दोष
हो सके चित्त
बच्चों की
भांति। और तुम्हारा
ज्ञान
तुम्हारा
नहीं था, इसलिए
टूट गया।
तुम्हारा
होता तो क्यों
टूटता? उधार
था, बासा
था; वेद का
था, कुरान
का था, बाइबिल
का था, तुम्हारा
नहीं था।
बुद्ध का था, महावीर का
था, कबीर
का था, तुम्हारा
नहीं था। काश,
तुम्हारा
होता तो कैसे
टूट जाता!
अपना
टूटता ही
नहीं। अपने को
टूटने का कोई
उपाय नहीं। आग
जला नहीं सकती
उसे, शस्त्र
छेद नहीं सकते
उसे, मृत्यु
मिटा नहीं
सकती उसे।
लोग
कहते हैं कि
मैं हूं शायरे—जादूबयां
सदरे—माअनी, दावरे—अल्फ़ाज़,
अमीरे—शायरां
और
खुद मेरा भी
कल तक, ख़ैर से, था ये ख़याल
शायरी
की फ़न में
हूं मिनजुमला—ए—अहले—कमाल
लेकिन
अब आई है जब इक—गोना
मुझमें
पुख्तगी
ज़हन
के आईने पर
कांपा है अक्से—आगही
आसमां
जागा है सर
में और सीने
में ज़मीं
अब
मुझे महसूस
होता है कि
मैं कुछ भी
नहीं
जिहल
की मंज़िल में
था मुझको ग़रूरे—आगही
इतनी
लामहदूद
दुनिया और
मेरी शायरी
जुल्फ़े—हस्ती
और इतने बेनिहायत
पेचो—ख़म
उड़
गया रंगेत्तअ?ल्ली खुल गया
अपना भरम
लोग कह
देते हैं कि
आपका बड़ा
ज्ञान है, आप बड़े
पंडित. . .
लोग
कहते हैं कि
मैं हूं शायरे—जादूबयां
सदरे—माअनी, दावरे—अल्फ़ाज़,
अमीरे—शायरां
और
खुद मेरा भी
कल तक, ख़ैर से, था ये ख़याल
शायरी
के फ़न में
हूं मिनजुमला
ए—अहले—कमाल
और अब
लोग कहते हैं, तो हम भी मान
लेते हैं। तुम
भी मान लेते
हो कि जब इतनी
भीड़ कहती है
कि आप बड़े
ज्ञानी, कि
बड़े कवि, कि
बड़े संत, कि
बड़े त्यागी, कि बड़े
महात्मा।
इतने लोग कहते
हैं, अब
इतने
सर्टिफिकेट, इतने
प्रमाणपत्र
मिलते हैं तुम
भी मान लेते हो।
और मानने का
कोई उपाय भी
तो नहीं है।
इसी तरह तो
तुम मानते हो
कि तुम कौन
हो। दूसरों का
आधार लेकर तुम
मानते हो तुम
कौन हो। वे
तुम्हारा
आधार लेकर
मानते हैं कि
वे कौन हैं।
बड़ा मजा चल
रहा है। अंधे
दूसरे अंधों
को समझा रहे
हैं। जिन्हें
खुद पता नहीं,
वे तुम्हें
भ्रांतियां
दे देते हैं।
लेकिन
अब आई है जब इक—गोना
मुझमें
पुख्तगी
ज़हन
के आईने पर
कांपा है अक्से—आगही
और जब
थोड़ी—सी
पुख्तगी आती
है, थोड़ी—सी प्रौढ़ता
आती है—जरूर धर्मेश, थोड़ा होश
आया है, थोड़े
प्रौढ़ हुए हो,
थोड़े जागे
हो, थोड़ी
करवट बदली है. . .
. . . लेकिन
अब आई है जब इक
गोना मुझमें
पुख्तगी
एक
थोड़ी—सी प्रौढ़ता
आई है. . .
. . . ज़हन के
आईने पर कांपा
है अक्से—आगही
तो वह
जो बुद्धिमानी
का खयाल था, वह थोड़ा कंपकंपा
गया है। उसका
प्रतिबिंब
झिलमिला गया
है। जैसे चांद
आकाश में है
और झील में
दिखाई पड़े, और तुम समझ
लो कि झील में
ही सच्चा चांद
है। जब तक झील
न हिले, पता
नहीं चलता। एक
कंकड़ी
फेंक दो, झील
हिल जाए और
पता चल जाता
है कि चांद
खंड—खंड हो
गया। वह असली
चांद नहीं था।
तुम्हारा ज्ञान
तो खंड—खंड हो
गया, मैंने
कंकड़ी ही
फेंकी है। मगर
वह झील में
बना चांद था।
वह तुम्हारी
भ्रांति टूट
गई है।
आसमां
जागा है सर
में और सीने
में ज़मीं
यह
शुभ अवसर है, इसे गंवा मत
देना।
आसमां
जागा है सर
में और सीने में
ज़मीं
अब
मुझे महसूस
होता है कि
मैं कुछ भी
नहीं
धन्यभागी
हैं वे, जिन्हें
यह महसूस होने
लगे कि मैं
कुछ भी नहीं
हूं। क्योंकि
फिर सारा
आसमान उनका है,
सारी जमीन
उनकी है।
जिहल
की मंज़िल में
था मुझको ग़रूरे—आगही
जब
तक मूढ़ता
थी, मूढ़ता की यात्रा
थी,. . .
. . . जिहल की
मंज़िल में था
मुझको ग़रूरे—आगही. . .
. . . तब
तक ज्ञान का
घमंड था। मूढ़ों
को ही सिर्फ
ज्ञान का घमंड
होता है। मूढ़ों
को भ्रांति
होती है
पांडित्य की।
जिहल
की मंज़िल में
था मुझको ग़रूरे—आग
ही
इतनी
लामहदूद
दुनिया और
मेरी शायरी
और मैं
सोचता था मैं
महाकवि हूं।
और जब अब
मैंने देखी
इतनी लामहदूद
दुनिया, इतना
अनंत विस्तार
सौंदर्य का, क्या मेरी
शायरी?! क्या
मेरी कविताएं?!
इतना
सौंदर्य! एक—एक
पत्ता
महाकाव्य है
परमात्मा का।
एक—एक फूल, एक—एक
झरना
भगवद्गीता
है। एक—एक
तारा कुरान।
जगह—जगह उसके
चिन्ह हैं। हर
जगह उसके
चिह्न हैं। कण—कण
पर उसके
हस्ताक्षर
हैं। वही है
एकमात्र महाकवि।
लेकिन
जब तक यह अनंत
सौंदर्य
दिखाई न पड़े, तब तक तुम
अपनी
टिमटिमाती—सी
मोमबत्ती को
जला कर बैठे
हो और सोच रहे
हो : यही
प्रकाश है। सूरजों को
देखा!
. . . इतनी
लामहदूद
दुनिया और
मेरी शायरी. . .
जुल्फ़े—हस्ती
और इतने बेनिहायत
पेचो—ख़म
इतने
असंख्य रहस्य!
कि गिनो तो
गिने न जा
सकें, मापो तो मापे
न जा सकें, इतना
अमाप
अस्तित्व!
जुल्फ़े—हस्ती
और इतने बेनिहायत
पेचो—ख़म
उड़
गया रंगेत्तअल्ली
. . .
. . . शेखी
का रंग उड़ गया . . .
उड़
गया रंगेत्तअल्ली
खुल गया अपना
भरम
मगर यह
शुभ है। यह
भ्रांति टूट
जाए, यह भरम
टूट जाए, तो
तुम्हारे
जीवन में
सच्चे ज्ञान
की शुरुआत हो
सकती है। यह
जानना कि मैं
अज्ञानी हूं,
ज्ञान का
पहला कदम है।
यह जानना कि
मैं कुछ भी नहीं
जानता हूं, जानने की
तरफ मुड़ना
है। यह जानना
कि मैं कुछ भी
नहीं हूं, सब
कुछ होने का
उपाय है।
आखिरी
प्रश्न :
भगवान, क्राइस्ट
ने कहा : गांव
के मुरदे मुरदे
को दफना
देंगे। कबीर
ने कहा : साधो, ई मुरदन
के गांव। और
मलूक कहते हैं
: मुरदे मुरदे
लड़ि मरे।
लोकजीवन मृत
है, इसका
क्या कारण है?
क्या जीवन—निषेध
का दर्शन इसका
कारण है? या
अहंकार और
अज्ञान कारण
है? क्या
इस मृतवत जीवन
से उबरने के
लिए बुद्धत्व ही
एकमात्र उपाय
है? हमें
समझाने की
अनुकंपा
करें।
आनंद
मैत्रेय!
मूर्छा
एकमात्र कारण
है और बुद्धत्व
एकमात्र उपाय
है। बुद्धत्व
यानी जागरण, होश से भर
जाना। मूर्छा
यानी ऐसे जीना
जैसे कोई शराब
पी कर रास्ते
पर चल रहा हो लड़खड़ाता—लड़खड़ाता।
जिसे अपना पता
नहीं है, वह
मूर्छित है।
और जिसे अपना
पता है, वह
बुद्ध है।
एक
दार्शनिक ने
सुबह—सुबह
अपनी पत्नी से
सुना कि :
"जानते हो जी, हमारे
मुन्ने ने
चलना शुरू कर
दिया!"
दार्शनिक
ने सोचते हुए
पूछा : "कब से?"
"अजी,
कोई एक हफकीरता
हो गया!"
"ओह!
तब तो वह काफी
दूर निकल गया
होगा!"
दार्शनिक
महोदय चिंतित
स्वर में
बोले।
होश
कहां? अपने
दर्शन में खोए
हैं। चारों
तरफ देखने की
फुर्सत कहां?
चंदूलाल
हनीमून मनाने
किसी हिल
स्टेशन पर गए।
कार की पिछली
सीट पर बैठे
वे अपनी नयी—नवेली
दुल्हन गुलाबो
से प्यार—मुहब्बत
कर रहे थे, किंतु
उन्हें डर लग
रहा था कि
साला ड्राइवर
कहीं देख न
रहा हो!
ड्राइवर
रास्ता भटक
गया था, किंतु
प्रेम में
मदहोश चंदूलाल
को इसकी खबर न
थी कि उसकी
कार एक ही जगह
का चक्कर काट
रही है। जब
उसी चौराहे पर
से कार फिर गुज़री
तो ड्राइवर ने
पूछा—"क्यों
साहब, यह
सातवीं बार है
न?"
गुलाबो
को दूर
खिसकाते हुए
गुस्से में चंदूलाल
बोले—"सातवीं
बार हो या सौवीं
बार, तुझे
इससे क्या
मतलब? तू
अपना काम कर, मैं अपना
काम कर रहा
हूं।"
लोग
अपने भीतर बंद
हैं, लोगों की
आंखें बंद हैं,
कान बंद
हैं!
संवेदनशीलता
बंद है।
मूर्छा।
एक गहरी
मूर्छा है। हम
चल लेते हैं, उठ लेते हैं,
काम भी कर
लेते हैं, किसी
तरह जिंदगी
बीत ही जाती
है। मगर किसी
तरह! हमें कुछ
पता नहीं चलता
कि हम कहां थे,
क्यों थे, किसलिए थे? क्यों
जन्मे, क्यों
जीए, क्यों
मरे; कौन
था जो आया और
कौन था जो गया,
कुछ पता
नहीं चलता!
इसको तुम होश
कहोगे? हां,
नाम हम बता
सकते हैं। वह
नाम हमारा
नहीं है, दिया
हुआ है। और
अपना पता भी
बता सकते हैं।
वह भी हमारा
नहीं है, दिया
हुआ है।
तुम्हें अपना
पता ही नहीं
है। जागो! झकझोरो
अपने को! अपने
प्रत्येक
कृत्य को जागरण
से जोड़ दो!
अचानक ढब्बूजी
को खबर लगी कि चंदूलाल
अस्पताल में
भरती हैं।
उसके शरीर में
घाव ही घाव हो
गए हैं और
करीब बीस फैक्चर
हुए हैं; हालत
गंभीर है।
समाचार मिलते
ही ढब्बूजी
भागे—भागे
अस्पताल
पहुंचे। देखा
कि पूरे शरीर
में पट्टियां
ही पट्टियां
बंधी हैं, आक्सीजन
लगी है, ग्लूकोज
की बोतल लटकी
है, और पास
ही में बैठी गुलाबो
सिर के बाल नोंचकर
जार—जार रो
रही है, छाती
पीट रही है। ढब्बूजी
ने कहा : "भाभी,
यह क्या हो
गया; कोई
दुर्घटना हो
गयी क्या?"
"मुझसे
क्या पूछते
हो", गुलाबो ने दहाड़
मारते हुए
रोकर कहा, "अपने
भैया से ही
पूछो न!"
"क्या
हुआ, भाई चंदूलाल",
ढब्बूजी ने उदास
स्वर में पूछा,
"क्या कर
बैठे यह? आखिर
ऐसी कौन—सी
गलती हो गयी
कि जिससे पूरे
शरीर पर
प्लास्टर ही
प्लास्टर चढ़
गया?"
बेचारे
चंदूलाल
ने बामुश्किल
मुंह खोलकर
जवाब दिया, "क्या बताऊं,
दोस्त, मैंने
तो बस इतना ही
कहा था कि दाल
में ज़रा
नमक कम है।"
यह
सुनते ही गुलाबो
की आंखें
गुस्से से लाल
हो गयीं।
"शर्म नहीं आती
झूठ बोलते", वह पूरी
ताकत लगाकर चीखी, "तुमने
यह नहीं कहा
था कि नमक ज़रा
कम है, तुमने
यह कहा था कि
नमक है ही
नहीं।"
"मगर
भाभी इतने
नाराज होने की
तो कोई बात
नहीं थी", ढब्बूजी ने समझाया,
"आपको दाल
में और नमक
डाल देना था।"
गुलाबो
बोली, "यदि
घर में नमक
होता तो मैंने
पहले ही न डाल
दिया होता! एक हफकीरते
से घर में नमक
है ही नहीं।
कहो अपने भैया
से, घर में
सामान लाकर
क्यों नहीं
रखते?"
"क्या
बात करती हो, जी!" चंदूलाल
बोले, "मैंने
पिछले शनिवार
को ही तो दस
किलो नमक लाकर
तुम्हें दिया
था।"
गुलाबो
का गुस्सा तो
अब आसमान पर
चढ़ गया। वह
बोली, "अरे कलमुंहे, मुझे बताया
क्यों नहीं कि
वह नमक है।
मैं तो उसे
शक्कर समझकर
रोज चाय में
डालकर तुझे
पिलाती रही!"
ऐसी
जिंदगी चल रही
है!
तुम पूछते
हो, क्राइस्ट
ने कहा : गांव
के मुरदे मुरदे
को दफना
देंगे। कबीर
ने कहाः
साधो, ई मुरदन
के गांव। और
मलूक कहते हैं
: मुरदे मुरदे
लड़ि मरे।
लोकजीवन मृत
है, इसका
क्या कारण है?
एकमात्र
कारण है कि
लोग बेहोश हैं, मूर्छित
हैं। और
एकमात्र औषधि,
रामबाण
औषधि, और वह
बुद्धत्व है।
इसके सिवाय न
कभी कोई उपाय
था, न है, न हो सकता
है।
जागो!
और जाग तुम
सकते हो, वह
तुम्हारी
संभावना है।
वह तुम्हारा
जन्मसिद्ध
अधिकार है!
आज
इतना ही।
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