प्रेम-रंग-रस ओढ़ चुंदरिया-(दूल्हन)
प्रवचन-छठवां
दिनांक : 06-फरवरी, सन् 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1—भगवान! दूलनदास एक ओर तो जीवन की क्षणभंगुरता का राग अलापते हैं और
दूसरी ओर प्रेम-रस पी कर अल्हड़ मस्ती में डूब जाते हैं, जहां समय अनंत हो जाता है।
कृपा करके उनके विपर्यास को समझाएं।
2—भगवान! कृष्णमूर्ति ने गुरु और शिष्य का नाता न बनाकर अपनेलिए
कोई मुसीबत खड़ी नहीं की; जबकि यहां आपको गुरु और शिष्य का नाता बनाकर अपने लिए मुसीबतों के
अतिरिक्त कुछ भी नहींमिल रहा है। क्या बुद्धपुरुषों की करुणा में भेद है?
3--धर्म के वास्तविक स्वरूप के संबंध में कुछ कहें।
पहला प्रश्नः भगवान! दूलनदास एक ओर तो जीवन की क्षणभंगुरता का राग
अलापते हैं और दूसरी ओर प्रेम-रस पीकर अल्हड़ मस्ती में डूब जाते हैं, जहां समय अनंत हो जाता है!
कृपा करके उनके इस विपर्यास को हमें समझाएं।
नरेंद्र!
क्षण भी शाश्वत का अंश है, वैसे
ही जैसे बूंद सागर का; जैसे
अणु विराट का। एक छोटे-से पत्ते में भी समग्र वृक्ष का ही रस प्रवाहित हो रहा है।
एक छोटे-से फूल में भी सारे अस्तित्व ने अपना सौंदर्य, अपना रंग, अपना रस, सब कुछ डाल दिया है।
महाकवि
टेनिसन के प्रसिद्ध वचन हैं कि अगर हम एक छोटे फूल को भी पूरा-पूरा समझ लें तो
सारा अस्तित्व समझ में आ जाएगा। क्योंकि एक छोटा फूल भी ऊपर से ही छोटा मालूम पड़ता
है, अनंत-अनंत मार्गो से समस्त से
जुड़ा है। इस फूल में गंध न होती अगर पृथ्वी का अंग न होता। इस फूल में रंग न होते
अगर सूरज से न जुड़ा होता। इस फूल में जीवन न होता अगर वायु इसमें श्वास न लेती
होती। इसको जितना गहरे में खोजोगे उतना ही पाओगे कि फूल तो कब का खो गया, धीरे-धीरे सारा ब्रह्मांड
तुम्हारे हाथ में आ गया है।
जैसे
अणु पदार्थ के सबसे छोटे अंश का नाम है, ऐसे ही क्षण शाश्वतता के सबसे छोटे अंश का
नाम है। क्षण शाश्वत का विरोधी नहीं है लेकिन क्षण में तुम जीते कहां हो? तुम तो जीते हो भविष्य में या
जीते हो अतीत में। अतीत शाश्वत का हिस्सा नहीं है और न भविष्य। अतीत और भविष्य तो
तुम्हारे मन के ही स्वप्न हैं। या तो स्मृतियां हैं या कल्पनाएं हैं; या तो मन पर जमी धूल है
अनुभवों की,
अतीत
की या भविष्य की आकांक्षाएं, वासनाओं, तृष्णाओं का जाल है। क्षण तो
दोनों के बीच में है। जब तुम अतीत में नहीं होते और वर्तमान में होते हो, भविष्य में भी नहीं होते और
वर्तमान में होते हो, तब तुम
क्षण में होते हो। मगर उसी क्षण से तो तुम सरक जाओगे शाश्वत में। जो क्षण में आ
गया वह शाश्वत में आ गया।
संसार
को क्षणभंगुर कहते हैं क्योंकि संसार समय का नाम है। संसार का अर्थ है, मैं जो कल था उसकी याद और जो
मैं कल होना चाहता हूं उसकी वासना। संसार बनता है अतीत और भविष्य से, वर्तमान से संसार नहीं बनता।
वर्तमान तो संसार से बिल्कुल बाहर है--होते हुए भी बिल्कुल बाहर है। वर्तमान से तो
हम वंचित ही रहते हैं। अभी और यहां तो हम कभी होते ही नहीं। जब भी होते हैं, विचार से घिरे होते हैं। जब
तुम निर्विचार,
मौन, निःस्तब्ध, ठहरे हुए इस क्षण को अनुभव
करोगे,
द्वार
खुल जाएगा मंदिर का; शाश्वत
का द्वार खुल जाएगा।
और ऐसा
भी नहीं है कि इस वर्तमान क्षण की कोई न कोई छाया तुम पर न पड़ी हो, न पड़ती हो। कभी-कभी पड़ती है, तुम्हारे बावजूद पड़ती है।
सुबह सूरज को उगते देखकर कभी तुम विस्मय-विमुग्ध खड़े रह गए हो। भूल गए थोड़ी देर को
नोनत्तेल-लकड़ी। भूल गए थोड़ी देर को तुम कौन हो, कहां हो, क्यों हो! थोड़ी देर को सन्नाटा हो गया।
तुम्हारे और सूरज के बीच सेतु बन गया। थोड़ी देर को तुम सूरज हो गए, सूरज तुममें हो गया। थोड़ी देर
को दृश्य और द्रष्टा में भेद न रहा। चाहे यह ज़रा-से ही क्षणभर को क्यों न हो, क्षण के भी अंश में क्यों न
हो, मगर जब यह होगा तभी सौंदर्य
टूट पड़ेगा। सारे आकाश से सौंदर्य की वर्षा हो जाएगी, तुम अभिभूत हो उठोगे। या कभी
संगीत को सुनते क्षणों में तार से तार मिल गए, भाव से भाव मिल गए और तुम सरक गए मन के
बाहर। मन के बारह सरक गए तो संसार के बाहर सरक गए। संसार यानी मन। मन के बारह सरक
गए यानी क्षण में डुबकी मार दी। और जिसने क्षण में डुबकी मारी उसने शाश्वत का
स्वाद ले लिया।
प्रेमी
जानते हैं इन क्षणों को झलकों की तरह। और भक्त जानते हैं इन क्षणों को स्थिर अनुभव
की तरह। प्रेमियों को कभी-कभी जैसे बिजली कौंध जाए ऐसे अनुभव होते हैं, और भक्तों को ऐसे जैसे सूरज
निकल आया जो कभी डूबेगा नहीं।
तुम्हारा
प्रश्न लेकिन सार्थक है क्योंकि तुम्हारे तथाकथित साधु-संत संसार को क्षणभंगुर कह
कर संसार की निंदा कर रहे हैं। संसार क्षणभंगुर है इसका केवल इतना ही अर्थ है कि
टिकेगा नहीं। इसलिए जो टिकेगा नहीं उससे अपने को बहुत मत जोड़ लेना और तुम उसी से
अपने को जोड़े हो। अतीत जा चुका, टिका
नहीं, फिर भी तुम जुड़े हो। कल किसी
ने तुम्हारे गले में फूलमालाएं डाली थीं, न तो फूलमालाएं डालने वाले रहे, न फूलमालाएं रहीं, कब के फूल कुम्हला गए और
मुर्झा गए और फेंक दिए गए। न तुम कल के अब रहे, कल का अब कुछ भी नहीं बचा है। मगर फूलमालाएं
अब भी तुम्हारे गले में पड़ी हैं। अभी-अभी भी तुम आंख बंद कर के रस ले लेते हो उस
प्रशंसा का जो कल तुम्हें मिली थी; वह सम्मान जो कल तुम्हें दिया था--क्षणभंगुर
था; आया और गया। पानी का बबूला था, मगर तुम अभी भी पकड़े बैठे हो।
हाथ में कुछ भी नहीं है लेकिन मुट्ठी डर के कारण खोलते नहीं कि कहीं ऐसा न हो कि
दिखाई पड़े कि हाथ में कुछ भी नहीं है तो मुट्ठी बांधे बैठे हो। डर तुम्हें भी लगता
है आशंका तुम्हें भी है कि हाथ में बबूला है भी या नहीं? खोलते भी नहीं मुट्ठी डर के
कारण, बांधे ही रखते हो। कहीं
साक्षात न हो जाए,
कहीं
अपने भीतर की रिक्तता दिखायी न पड़ जाए। और आने वाले कल को भी पकड़े हो जोर से। कल
यह मिले,
वह
मिले, ऐसा हो जाऊं वैसा हो जाऊं।
क्षणभंगुर
पर इतनी जोर से अगर मुट्ठियां कसोगे--यही संसार है। क्षणभंगुर क्षणभंगुर है ऐसा
जानना,
जब आए
तब जी लेना और जब जाए तब चले जाने देना, यही संन्यास है। संन्यासी भी यहीं रहता है
जहां संसारी रहता है। और तो रहोगे कहां! और तो जगह कहां है और तो स्थान कहां है, अवकाश कहां है? है तो यही एक जगत्। यही तारे, यही चांद, यही सूरज, यही वृक्ष, यही लोग! इन्हीं के बीच बुद्ध
होकर रहोगे,
इन्हीं
के बीच कृष्ण होकर रहोगे, इन्हीं
के बीच रोशन होकर रहोगे, इन्हीं
के बीच अंधेरे होकर रह सकते हो। रहने का ढंग तुम्हारा होगा। मगर जहां तुम रहोगे, वह स्थान तो यही है। भेद क्या
है? बुद्ध भी क्षण में रहते हैं, क्षणभंगुर में रहते हैं मगर
यह बोध है कि किसी चीज पर मुट्ठी न बंधे। मुट्ठी बंधी कि पीड़ा हुई। आसक्ति न हो, हाथ खुले रहें। आए समय की धार
और बहती रहे। अनुभव उतरें और जाते रहें, दर्पण पर धूल न जमे। दर्पण साफ रहे। जो गया
सो गया और जो आया सो नहीं आया। जो है बस वही दर्पण में झलकता रहे। इधर गया कि उधर
दर्पण से भी खाली हो जाए। दर्पण पकड़े न।
जागृत
पुरुष बिना पकड़े जीता है। सोया हुआ पुरुष जो नहीं है उसको भी पकड़े रहता है। जागृत
पुरुष जो है उसे भी पकड़ता नहीं। बस इतना ही भेद है।
जानने
वालों ने अगर कहा है कि क्षणभंगुर है संसार तो इसलिए कहा है कि ताकि तुम पकड़ो न।
और तुम्हारे तथाकथित साधु-संत भी तुम्हें दोहरा रहे हैं कि क्षणभंगुर है संसार। वे
इसलिए कह रहे हैं ताकि तुम संसार छोड़कर भाग खड़े होओ, पलायनवादी हो जाओ। उन दोनों
के प्रयोजन अलग हैं। साधु-संत तुम्हें समझा रहे हैं, क्षणभंगुर है संसार। तुम्हारे
लोभ को जगा रहे हैं। वे तुमसे यह कह रहे हैं, अगर पाना है तो उसको पाओ जो कभी छूटे न। वे
तुम्हें और भी लोभी बना रहें हैं। वे कहते हैं स्वर्ग को पाओ, मोक्ष को पाओ, यहां क्या रखा है पाने में? एक ही वक्तव्य है लेकिन
अलग-अलग लोगों के द्वारा दिए जाने पर अलग-अलग अर्थ का हो जाता है; उसकी भाव-भंगिमा बदल जाती है, उसकी मुद्रा बदल जाती है।
तथाकथित साधु-संत तुम्हें संसार के विरोध में समझा रहा है। वह जीवन-विरोधी है। वह
जीवन-निषेधक है,
नकारात्मकता
उसकी मौलिक स्थिति है। वह तुम्हें भी नकार में डाल रहा है। वह तुम्हारे पैरों को
उखाड़ने की कोशिश कर रहा है। वह तुम्हें घबड़ा रहा है और तुम्हारे लोभ को
प्रज्ज्वलित कर रहा है। और तुम्हें भयभीत कर रहा है।
यही
वचन क्षणभंगुरता का दूलनदास जैसे बुद्धपुरुष भी उपयोग करते हैं। वे भी कहते हैं
जगत् क्षणभंगुर है। उनका प्रयोजन? वे यह
कह रहे है,
जियो; मौज भर कर जियो। पकड़ना मत। वे
संसार-विरोधी नहीं हैं--हो नहीं सकते। संसार परमात्मा का है। इसके विरोध में होना
परमात्मा के विरोध में हो जाना है। यह तो उसी का साज बज रहा है। ये तो उसी चितेरे
ने रंग भरे हैं। इनके विपरीत हो जाओगे, इनके शत्रु हो जाओगे, इनसे पीठ कर लोगे तो इनके
मालिक के भी विपरीत हो जाओगे, याद
रहे। इनके चितेरे के भी दुश्मन हो जाओगे, याद रहे। अगर इस संगीत की तुमने निंदा की तो
तुमने संगीतज्ञ की भी निंदा की, यह भूल
न जाए। फिर तुम लाख करना प्रार्थनाएं, तुम्हारी प्रार्थनाएं सार्थक नहीं हो
सकेंगी। तुम्हारी मौलिक दृष्टि गलत हो गई, नकार की हो गई, निषेध की हो गई, विरोध की हो गई।
दूलनदास
भी कहते हैं संसार क्षणभंगुर है, जागो।
लेकिन यह नहीं कहते कि संसार क्षणभंगुर है, भागो। उतना ही फर्क है। पंडित-पुरोहित कहता
है, भागो! जागृत पुरुष कहते हैं, जागो! भगोड़ेपन से क्या होगा? भागोगे कहां? भागने को कोई स्थान कहां छोड़ा
है परमात्मा ने;
वह तो
सब जगह भरा है। वहां भी उसकी कोयल गीत गाएगी जहां तुम भागकर जाओगे। वहां भी उसका
ही सूरज निकलेगा जहां तुम भागकर जाओगे। वहां भी उसी की दूब हरी होगी जहां तुम
भागकर जाओगे। वहां भी उसके पक्षी और वहां भी उसके पौधे और वहां भी उसके लोग होंगे
जहां तुम भागकर जाओगे। ऐसे ही लोग, ऐसे ही पौधे, ऐसे ही पक्षी, ऐसे ही पशु, सब ऐसा ही होगा। यह सारा आकाश
उसका है और इस आकाश से अन्यथा कोई आकाश नहीं है।
नहीं, भागा तो नहीं जा सकता लेकिन
जागा जा सकता है। और जागने की कीमिया बिल्कुल अलग है, शास्त्र अलग है। जागने का
अर्थ है,
जियो।
दूलनदास कहते हैं,
खूब
प्रेम-रस पीकर जियो, अल्हड़-अलमस्त
होकर जियो। प्रेमरंग-रस ओढ़ चदरिया। ओढ़ लो चादर प्रेम की, रंग की, रस की। बना लो जीवन को एक
शाश्वत दीवाली--कि जलते ही रहें दीए; कि शाश्वत होली--कि रंग-गुलाल उड़ती ही रहे। इसे
एक महोत्सव बना लो। मगर इतना ही स्मरण रहे, जो जाए, जाने देना, पकड़ना मत। जो अभी आया न हो, उसकी सोचना मत, अपेक्षा मत करना। जो सामने हो
उसे जी लेना धन्यवाद से, प्रभु-अनुग्रह
से। उसकी भेंट है! सूरज उगा है उसे नमस्कार कर लेना। जो सूरज डूबे गए उनकी
तस्वीरें मत टांगे बैठे रहो और जो सूरज अभी उगे नहीं हैं, उनकी प्रशंसाओं में, स्तुतियों में गीत मत रचो। जो
है वही परमात्मा है जो अभी उगा है, जो अभी मौजूद है। इस मौजूद के साथ तुम भी
मौजूद हो जाओ उसी मौजूदगी का नाम प्रार्थना है। मौजूद के साथ मौजूद हो जाने का नाम
प्रार्थना है।
इन
दोनों बातों में विरोध नहीं है दूलनदास के वक्तव्य में। हालांकि ये दोनों बातें इस
तरह से कही गई हैं, इस तरह
के लोगों ने कही हैं कि जिनकी बातों में विरोध की झलक मालूम होती है। मगर सचमुच जो
जाग गया है उसके विरोधी वक्तव्यों में भी तारतम्य होता है, एकता होती है। उसके विरोध में
दिखनेवाले वचन भी एक ही तरफ इशारा करते हैं। उसके वक्तव्यों में विरोध हो ही नहीं
सकता क्योंकि उसके भीतर विरोध नहीं है; वह अविरोध है, अद्वैत है तो उसके प्रत्येक
वक्तव्य में अविरोध होगा, अद्वैत
होगा।
कवियों
ने भी गीत गाए हैं क्षण में जीने के, मगर उनके गीत केवल आकांक्षाएं हैं। बुद्धों
ने भी गीत गाए हैं क्षण में जीने के, मगर उनके गीत उनकी अनुभूतियां हैं।
प्रेमियों ने भी क्षण के महोत्सव को मनाना चाहा है, मनाया भी है, मगर प्रेमी की सामर्थ्य छोटी
है, उसका प्रेमपात्र छोटा है। कोई
किसी स्त्री के प्रेम में है, कोई
किसी पुरुष के प्रेम में है, कोई
मित्र के प्रेम में है। प्रेमपात्र ही छोटी है तो प्रेम भी छोटा हो जाएगा। पात्र
में उतना ही तो भर सकोगे न जितना भर सकता है! भक्त का प्रेमपात्र यह सारा अस्तित्व
है, वह सारा आकाश है, यह सारा अनंत। और जब भक्त
प्रेम से भरता है तो उसका प्रेम भी इतना बड़ा होता है, इतना विराट होता है, सभी को अपने में समाहित कर
लेता है।
उफ ये
पूरब की हवा,
हाय ये
काले बादल
रस भरी
बूंदों से भीगा हुआ शब का आंचल
ला
मेरा जाम,
कहां
है मेरी मै की बोतल?
आज
पीने का मजा है मुझे पी लेने दे।
मौत की
छांओं में एक रात तो जी लेने दे।
रात
अपनी है मेरी जान,
सहर हो
कि न हो,
फिर
कोई लम्हा मुहब्बत का बसर हो कि न हो,
और
जुबारेत्तरब शोला-एत्तर हो कि न हो,
कल
खुदा जाने कहां जुस्तजू ले जाएगी?
अजनबी
वादियों में ठोकरें खिलवाएगी
मैं मुसाफिर
हूं बहुत दूर है मेरी मंजिल,
राह
में सैकड़ों तूफाने-हवादिस हायल
मैं
कहां और कहां फिर ये निशाते-महफिल
सुबह
होते ही उखड़ जाएगा डेरा अपना।
जाने
कल रात कहां होगा बसेरा अपना।
गम का
मारा हुआ आलम का तड़पाया हुआ,
नासाजा
सूरते-हालात का सहमाया हुआ,
और इस
कश-म-कशे-जीस्त से उकताया हुआ,
तोड़ कर
बंदे-कफस आज यहां आया हूं।
अपने
पहलू में दहकता हुआ दिल लाया हूं।।
बज्म
में धूम मचाने के लिए आया हूं,
तलखी-ए-गम
को भुलाने के लिए आया हूं,
आज मैं
पीने-पिलाने के लिए आया हूं,
तू भी
पी ले मेरी जां,
मुझको
भी पी लेने दे।
मौत की
छांओं में इक रात तो जी लेने दे।।
ऐसा
वक्तव्य कवि का है, ऐसा
वक्तव्य प्रेमी का है। इस वक्तव्य की सीमा है मगर इस वक्तव्य में भी शाश्वत की
थोड़ी झलक है,
सचाई
के थोड़े आसार हैं। यही झलक अपनी परिपूर्णता में बुद्धपुरुषों के वचनों में प्रकट
होती है। वे भी पीने-पिलाने का ही निमंत्रण दे रहे हैं। वे भी पीने-पिलाने को ही
चले आए हैं यद्यपि उनकी शकाब बड़ी और है; और उनकी मधुशाला और, और उनका साकी भी और है, उनका प्रेमी और है। लेकिन मूल
सूत्र कहीं मेल खाता है।
आज
पीने का मजा है मुझे पी लेने दे।
मौत की
छांओं में इक रात तो जी लेने दे।।
कल का
तो कोई भरोसा नहीं, कल तो
मौत है। आज है हाथ में--आज की रात, आज का दिन,
आज का
क्षण। और पी सकता हूं तो अभी पी सकता हूं।
आज
पीने का मजा है मुझे पी लेने दे।
मौत की
छांओं में इक रात तो जी लेने दे।।
उफ ये
पूरब की हवा,
हाय ये
काले बादल
रस भरी
बूंदों से भीगा हुआ शब का आंचल
ला
मेरा जाम,
कहां
है मेरी मै की बोतल?
जिन्होंने
खोजा है उन्होंने भी शाश्वत का जाम ही खोजा है। उन्होंने भी मधुशाला की तलाश की
है। कवियों की बातों में भीनी-भीनी भनक है, दूर की आवाज है, बहुत दूर की रोशनी झलक रही है
लेकिन उस रोशनी में एक सच्चाई तो है।
रात
अपनी है मेरी जान,
सहर हो
कि न हो
सुबह
का क्या भरोसा!
रात
अपनी है मेरी जान,
सहर हो
कि न हो,
फिर
कोई लम्हा मुहब्बत का बसर हो कि न हो,
और
जुबारेत्तरब-शोला-एत्तर हो कि न हो,
कल
खुदा जाने कहां जुस्तजू ले जाएगी?
अजनबी
वादियों में ठोकरें खिलवाएगी।।
कल का
तो कुछ भी पक्का नहीं है।
सुबह
होते ही उखड़ जाएगा डेरा अपना।
जाने
कल रात कहां होगा बसेरा अपना।।
और इस
कश-म-कशे-जीस्त से उकताया हुआ,
तोड़कर
बंदे-कफस आज यहां आया हूं।
अपने
पहलू में दहकता हुआ दिल लाया हूं।।
बज्म
में धूम मचाने के लिए आया हूं,
तलखी-ए-गम
को भुलाने के लिए आया हूं,
आज मैं
पीने-पिलाने के लिए आया हूं,
तू भी
पी ले मेरी जां,
मुझको
भी पी लेने दे।
मौत की
छांओं में इक रात तो जी लेने दे।।
कवियों
के इन निमंत्रणों में, तुम्हें
बाहर की शराब की गंध आए तो आश्चर्य नहीं; बाहर के प्रेमी की झलक मिले तो आश्चर्य
नहीं। लेकिन इन्हीं शब्दों को ज़रा भीतर की तरफ उल्टा दो, इन्हीं शब्दों को ज़रा भीतर के
प्यारे की तरफ पलटा दो। इन्हीं शब्दों को अंगूर की शराब से हटा लो और आत्मा की
शराब की तरफ मोड़ दो। और फिर यही शब्द उपनिषद हो जाते हैं। यही शब्द भगवद्गीता बन
जाते हैं। इन्हीं शब्दों से कुरान की आयतें उठने लगती हैं। ज़रा शब्दों को मोड़ देना
सीखो।
ठीक
तुमने पूछा कि एक तरफ तो जीवन की क्षणभंगुरता की बात कहते हैं दूलनदास और दूसरी ओर
प्रेम-रस पीकर अल्हड़-मस्ती में डूब जाने का निमंत्रण भी देते हैं।
उनके
शब्दों को वैसा ही मत समझना जैसा तुमने और कवियों के शब्द समझे हैं। ये कवि के
शब्द नहीं हैं,
नबी के
शब्द हैं। ये ऋषि के शब्द हैं। इन शब्दों के साथ बहुत नाजुक नाता बनता है। ये शब्द
बड़े कोमल हैं,
इनको
ज़रा जोर से दबा दोगे, इनके
प्राण निकल जाएंगे। इनको ज़रा इधर-उधर मोड़ दोगे, इनके अर्थ बदल जाएंगे। इनके साथ तो बड़ी
होशियारी से पैर पूंक-पूंककर रखना होगा।
क्षण
भी शाश्वत का हिस्सा है--वह क्षण जो अभी मौजूद है। यह क्षण तुम मेरे पास बैठे हो, तुम मुझे सुन रहे हो, तुम एक शांति में हो, एक सन्नाटे में हो। पक्षी की
धीमी-सी आवाज भी आती है तो सुनाई पड़ती है। हवा भी गुजरेगी वृक्षों से, और सूखे पत्तों को खड़खड़ाएगी
तो सुनाई पड़ेगा। तुम यहां ऐसे हो जैसे यहां कोई है ही नहीं। इस मौन में, इस आनंद में यह जो क्षण
तुम्हारे सामने खड़ा है यह पृथ्वी पर है पर पृथ्वी का नहीं है। यह आकाश से उतरा है।
इस क्षण को खूब जियो, प्रेम
रंग-रस ओढ़ चदरिया! इस क्षण में मस्त होओ, डूबो, मगन होओ और तुम्हें इसी क्षण से परमात्मा का
घर मिल जाएगा। यह द्वार है उसका। संसार क्षणभंगुर कहा जाता है ताकि तुम चीजों को
पकड़ो मत। और क्षण में ठहरने का नाम ध्यान है ताकि तुम परमात्मा में प्रवेश कर जाओ।
दूसरा प्रश्नः भगवान! कृष्णमूर्ति ने गुरु और शिष्य का नाता न
बनाकर अपने लिए कोई मुसीबत खड़ी नहीं की; जबकि यहां आपको गुरु और शिष्य
का नाता बनाकर अपने लिए मुसीबतों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिल रहा है।
क्या बुद्धपुरुषों की करुणा में भेद है? अगर कोई भेद नहीं है तो भगवान
आपने क्यों ऐसा असुविधापूर्ण रास्ता चुना?
मुकेश!
ये बातें चुनने की नहीं हैं। ऐसा कोई चुनता नहीं है। ऐसा नहीं कि कृष्णमूर्ति ने
ऐसा चुना या मैंने ऐसा चुना। जब तक चुननेवाला है तब तक न तो कृष्णमूर्ति हो सकते
हैं न मैं हो सकता हूं। जब तक चुननेवाला है तब तक बुद्धत्व घटता ही नहीं है। जब
चुननेवाला विदा हो जाता है तब बुद्धत्व का अवतरण होता है। फिर जो होता है होता है, फिर जैसा होता है वैसा होता
है--चुनावरहित। जैसे वृक्ष के पत्ते हरे हैं उन्होंने कुछ चुना नहीं है, और गुलाब के फूल लाल हैं
उन्होंने कुछ चुना नहीं है। जैसे कोई फूल सफेद है और कोई फूल पीला है, और कोई फूल ऐसी गंध से भरा और
कोई फूल वैसी गंध से भरा। न तो चंपा ने चुना है न चमेली ने न जूही ने। चुनाव की
बात ही नहीं है। जैसे जूही जूही है वैसे कृष्णमूर्ति कृष्णमूर्ति है, मैं मैं हूं, मलूक मलूक है, दादू दादू है, दूलन दूलन। यह बात चुनाव की
होती तो संसार की ही हो जाती। संसार यानी चुनाव। जहां तुम चुनते हो वहां संसार है।
और जहां तुम परमात्मा को अपने भीतर से बहने देते हो, जैसा बहे, जैसी उसकी मर्जी! तुम ज़रा भी
व्यवधान नहीं डालते, तुम
ज़रा भी अपेक्षाएं नहीं करते, आकांक्षाएं
नहीं करते। ऐसा हो, वैसा
हो, ज़रा भी नहीं सोचते; जैसा होता है होने देते हो।
तुम बीच में आते ही नहीं। तुम द्वार दे देते हो, तुम हट जाते हो मध्य से। फिर
परमात्मा तुम्हारे भीतर चमेली का फूल बने तो तुम क्या करोगे? या चंपा का फूल बने तो तुम
क्या करोगे?
फिर जो
बने, बने। फिर जो बने, उसकी मौज! फिर जो बने वही
तुम्हारी मौज,
वही
तुम्हारा आनंद।
मुकेश!
इस तरह से मत सोचो कि कृष्णमूर्ति ने चुना कि शिष्य और गुरु का नाता नहीं बनाना
है। कि इससे उपद्रव खड़े होते हैं, कि
इससे झंझटें आएंगी। क्यों मुसीबतों में पड़ना! क्यों झंझटों में पड़ना! ऐसा चुना
नहीं, परमात्मा उनके भीतर इस ढंग से
प्रकट हुआ। मैंने भी कुछ ऐसा चुना नहीं है कि शिष्य हों। और शिष्यों के साथ
स्वाभावतः आने वाले उपद्रव होंगे। जहां भीड़ होगी वहां उपद्रव होंगे, कठिनाइयां होंगी, अड़चनें होंगी। एक आदमी आता है
तो अकेला थोड़े ही आता है, अपने
साथ हजार उपद्रव लाता है। जब एक आदमी को तुम अंगीकार करते हो तो तुम उसके भीतर के
सारे उपद्रव अंगीकार करते हो। कोई आदमी अकेला-अकेला थोड़े ही आता है, हर आदमी एक भीड़ है। और जब एक
आदमी आता है तुम्हारे पास सत्य की तलाश में, अंधेंरे में भटकता हुआ तो अंधे आदमियों की
भीड़ इकट्ठी करोगे तो बहुत तरह के उपद्रव होंगे। अंधरे में भटके लोगों को इकट्ठा
करोगे तो बहुत टकराहटें होंगी, लोग
गिरेंगे,
उठेंगे, यह सब होगा। विक्षिप्त लोगों
को इकट्ठा करोगे तो शोरगुल तो मचेगा। सब तरह की मुसीबतें होंगी मगर यह मत सोचना कि
ऐसा मैंने चुना है। यह मेरा चुनाव नहीं है। जैसी उसकी मर्जी! मेरे द्वारा उसकी यही
मर्जी है तो यही हो। और तुम यह भी मत सोचना--जैसा कि तुम कह रहे हो कि आपको सिवाय
मुसीबतों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं मिल रहा है। तुम्हें मुसीबतें दिखायी पड़ती
होंगी,
मुझे
कोई मुसीबत नहीं दिखायी पड़ती। जब चुनते ही नहीं तुम तो फिर कैसी मुसीबत और कैसी
नहीं मुसीबत! फिर जो है ठीक है, जो है
सुंदर है,
जैसा
है शुभ है। मुझे कोई मुसीबत नहीं दिखायी पड़ रही है।
गुलाब
बोओगे तो उसमें कांटे लगते हैं, इसमें
मुसीबत क्या है?
यह तो
सीधा-साफ गणित है। गुलाब के फूल चाहते हो तो कांटे भी आते हैं साथ-साथ। और कांटों
के बिना गुलाब के फूल पूरे-पूरे गुलाब के फूल नहीं होंगे। कुछ कमी रह जाएगी, उनमें धार न होगी, उनमें तलवार न होगी। उनके भीतर
कुछ अप्रकट रह जाएगा। उनकी सहजता, स्वाभाविकता
न होगी। तो मेरे लिए कोई मुसीबत नहीं है।
तुम
सोचते हो,
मंसूर
को सूली लगी तो मंसूर सोच रहा था कि बड़ी मुसीबत में पड़ा। क्यों न चुप रह गया!
कितनी बार तो लोगों ने समझाया था कि मंसूर, मत घोषणा कर "अनलहक" की; मत कह कि मैं परमात्मा हूं, इससे झंझट खड़ी होगी। मंसूर के
गुरु ने भी उससे बहुत बार कहा था कि मत कह यह बात। क्या तू सोचता है कि तुझी को
पता है,
मुझे
पता नहीं?
मुझे
भी पता है,
मैं भी
जानता हूं मगर चुप हूं, कहता
नहीं। तू भी मत कह। मंसूर वचन भी दे देता था कि नहीं कहूंगा, अब नहीं कहूंगा। जब आप कहते
हैं तो अब नहीं कहूंगा और घड़ी नहीं बीती, और मंसूर अपनी मस्ती में आ गया है और फिर
वही--अनलहक! फिर वही उद्घोषणा--"अहं ब्रह्मास्मि"।
तो
गुरु कहता कि तू वायदे दे देकर वायदे क्यों तोड़ देता है? मंसूर कहताः वायदे मैं देता
हूं, वायदे तोड़नेवाला दूसरा है। जब
मैं मौजूद होता हूं और जब आप समझाते हैं तो बात बिल्कुल समझ में आती है। मगर वैसी
घड़ियां आती हैं जब मैं मौजूद ही नहीं होता और जब वही मेरे भीतर से बोलने लगता है
"अनलहक", तो मैं
क्या करूं,
मैं
कौन हूं?
न वहां
मैं हूं न मेरा दिया वायदा है न तुम्हारी याद है न कोई और है। वहां वही अकेला है
और वह मालिक है;
वह
मालिकों का मालिक है। उसके सामने मेरी चले भी क्या! वह जो कहना चाहता है, कहलवा लेता है। जबान उसकी है, ओंठ उसके है, कंठ उसका है, प्राण उसके हैं। मैं करूं तो
क्या? जब अपने होश में होता हूं तो
तुम्हें वायदा कर देता हूं लेकिन वैसी भी घड़ियां हैं जो मेरी नहीं हैं, उसकी हैं।
मंसूर
को जब सूली लगी तो क्या तुम सोचते हो मंसूर दुःखी था, कि मैंने यह झंझट क्यों ली, चुप रह जाता! नहीं, मंसूर हंस रहा था। खिलखिलाकर
हंस रहा था जब उसे मारा गया। और किसी ने भीड़ में से पूछा कि मंसूर, तू क्यों हंसता है? तो मंसूर ने कहा मैं इसलिए
हंसता हूं,
परमात्मा
की तरफ देखकर मैं हंस रहा हूं कि तू मुझे धोखा नहीं दे सकेगा। तू बहुत रूपों में
आया है,
आज तू
हत्यारे के रूप में आया है, मगर तू
मुझे धोखा नहीं दे सकेगा। मैं तुझे पहचान रहा हूं। मैं तेरे हाथ पहचानता हूं, मैं तेरे ढंग पहचानता हूं, मैं तुझे पहचानता हूं। आज तू
तलवार लेकर मेरी गर्दन काटने आया है, शायद यह तू मेरी आखिरी परीक्षा ले रहा है।
यह भी सही! मैं हंसते हुए मरूंगा। यह मेरी कसौटी है क्योंकि मैं कहता हूं तेरे
अतिरिक्त और कोई भी नहीं है तो हत्यारे में भी तू है और तलवार में भी तू है। और यह
गर्दन गिरेगी तो तेरे कारण गिरेगी। पर तूने ही बनायी थी और तूने ही गिरायी। तू जान, तेरा काम, तू समझ। मैं बीच में कौन! मैं
खिलखिलाकर हंस रहा हूं, सारा
खेल देखकर हंस रहा हूं।
नहीं, मंसूर मुसीबत में नहीं था।
मुकेश, तुम्हें दिखायी पड़ता होगा कि
मुझे हजार तरह की मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं। कोई मुसीबत नहीं है। उसका खेल है, वह जाने।
तुमने
यह भी पूछा कि क्या बुद्धपुरुषों की करुणा में भेद है? करुणा में तो कभी भेद नहीं
होता। करुणा में कैसे भेद होगा? करुणा
यानी करुणा। कई तरह की करुणा नहीं होती मगर बुद्धपुरुषों के व्यक्तित्व में भेद
होता है।
समझो, कोई वीणावादक अगर बुद्धत्व को
उपलब्ध हो जाए तो मेरे जैसा बोलेगा नहीं, वीणा बजाएगा। उसे जो अनुभव हुआ है, वीणा के स्वरों में ढालेगा।
मैं वीणा नहीं बजा सकता हूं। मीरां को अनुभव हुआ, मीरां नाची; बुद्ध नहीं नाचे। बुद्ध को
अनुभव हुआ,
बुद्ध
चुप बैठ गए। सात दिन तक बोले ही नहीं, शून्य हो गए। बुद्धों के व्यक्तित्व में भेद
होता है। जैसे कि तुम बहुत तरह की लालटेनें बना सकते हो--और किसी में लाल रंग का
कांच और किसी में नीले रंग का कांच और किसी में पीले रंग का कांच और कोई सोने की
लालटेन,
कोई
चांदी की लालटेन और कोई पीतल की और कोई लोहे की, कोई मिट्टी की। लेकिन जब भीतर
दीया जलाओगे तो रोशनी तो एक होती है। रोशनी अलग-अलग नहीं होती, मगर नीचले कांच की लालटेन से
रोशनी जब बाहर आएगी तो नीली मालूम होगी, और पीले रंग की लालटेन से जब बाहर आएगी तो
पीली मालूम होगी। जहां से जन्मती है स्त्रोत से, वहां तो एक ही रंग है उसका, एक ही ढंग है उसका लेकिन तुम
तक पहुंचते-पहुंचते रंग-ढंग बदल जाएगा।
कृष्णमूर्ति
से रोशनी एक रंग ले लेती, मुझसे
एक रंग लेगी। नानक से एक रंग लिया, मुहम्मद से और रंग लिया। इसलिए तो दुनिया
में इतना विवाद चलता है। कि लोग तय ही नहीं कर पाते कि कौन बुद्धपुरुष! अगर महावीर
को बुद्ध मानो तो मुहम्मद को कैसे मानो? क्योंकि महावीर ने तो पैर पूंक-फूंककर रखा।
तलवार तो दूर,
हाथ
में डंडा भी नहीं रखा। और मुहम्मद के हाथ में तलवार है। अगर महावीर को बुद्ध मानो
तो मुहम्मद को कैसे बुद्ध मानो? और अगर
मुहम्मद को बुद्ध मानो--हाथ में तलवार , तो फिर राम हो सकते हैं बुद्ध--धनुष-बाण और
कृष्ण भी हो सकते हैं बुद्ध, लेकिन
फिर महावीर बुद्ध न हो सकेंगे।
मनुष्य
जाति के लिए बड़ी विवाद की स्थिति रही है क्योंकि हमने व्यक्तित्वों को पकड़ लिया और
व्यक्तित्वों के पीछे छिपे हुए सार को नहीं पकड़ा। महावीर की नग्नता में जो झलक रहा
है वही मुहम्मद की तलवार में चमकता है। यह देखने के लिए ज़रा आंखें चाहिए। बुद्ध के
शून्य में जो प्रकट हो रहा है, मीरां
के घूंघर में वही बज रहा है; इसे
देखने के लिए ज़रा गहरी आंख चाहिए। पंडित इसे नहीं देख पाएगा। पंडित के पास कोई आंख
होती है?
शब्दों
और शास्त्रों का ज्ञाता इसे नहीं समझ पाएगा। इतने भेद हैं--कहां मीरां, कहां महावीर, कहां बुद्ध, कहां मुहम्मद, कितने भेद हैं! और भेद हो भी
क्या सकते हैं ज्यादा?
अगर
दुनिया के बारह बुद्धपुरुषों के नाम, और उनकी जीवनचर्या, और उनके ढंग, और उनकी अभिव्यक्तियां तुम
विचार करने लगो तो विक्षिप्त हो जाओगे। तय ही न कर पाओगे कि किसको मानें, किसको न मानें! एक तरफ जीसस
हैं सूली पर लटके हुए, और एक
तरफ कृष्ण हैं बांसुरी बजाते हुए। कहां तालमेल! क्योंकि ईसाई कहता है कि क्राइस्ट
तो वही है जिसने मनुष्यता के उद्धार के लिए अपने प्राण दे दिए। अगर यह बात सच हो
तो कृष्ण का बांसुरी बजाना तो ज़रा अशोभन मालूम होगा। जहां दुनिया में इतना कष्ट है, लोग भूखों मर रहे हैं, लोग बीमार हैं, जहां मृत्यु है, जहां हजार-हजार दुर्दिन हैं, वहां कृष्ण को बांसुरी बजाने
की सूझी?
यह बात
तो बड़ी विलासपूर्ण मालूम पड़ती है। वहां कृष्ण को मोर-मुकुट बांधने की सूझी। ये कोई
प्रबुद्धपुरुष के लक्षण मालूम होते हैं?
अगर
क्राइस्ट को स्वीकार कर लो कसौटी की तरह तो कृष्ण बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। मगर
यही बात क्राइस्ट के साथ हो जाएगी अगर कृष्ण को कसौटी मान लो। क्योंकि कृष्ण कहते
हैं, यह सारा अस्तित्व परमात्मामय
है। अब हमारे पास बचा क्या, सिवाय
नाचने के?
यहां
कहां दुःख है?
और अगर
है तो तुम सिर्प स्वप्न देख रहे हो; सत्य में कोई दुःख नहीं है, सिर्प स्वप्न में दुःख है।
तुम एक दुःख -स्वप्न देख रहे हो। और तुमने दुःख-स्वप्न देखे हैं तो तुम कितने घबड़ा
जाते हो,
कितने
बेचैन,
पसीने-पसीने
हो जाते हो! सर्द ठंडी रात में भी पसीना छूट जाता है और जब आंख खुलती है तब भी
थोड़ी देर तक छाती धड़कती रहती है। जानते हो तुम कि सपना था, अब तुम्हें पहचान में भी आ
गया कि सपना था,
मगर
फिर भी थोड़ी देर तक शरीर को शांत होने में समय लगता है। तुम बहुत घबड़ा गए थे।
कृष्ण
कहते हैंः यह सारा जगत्, अगर
बंद आंख से देखो तो एक सपना है। और सपने में तुम बहुत दुःख झेल रहे हो। चूंकि सपने
के दुःख ही झूठे हैं, इसलिए
क्या रोना,
क्या
धोना! जागो! और बांसुरी बजाता हूं ताकि तुम जाग सको। उद्धार की जरूरत है ही नहीं, सिर्प जागरण की जरूरत है। और
बांसुरी से ज्यादा प्यारा ढंग जगाने का और क्या होगा? और सुमधुर, और लालित्यपूर्ण और सुंदर
जगाने का ढंग क्या होगा? कहां
की सूली इत्यादि लगा रखी है! और किसी के सूली पर चढ़ने से कहीं किसी का उद्धार होता
है! अगर ऐसा होता तो जीसस के बाद सबका उद्धार हो गया होता। मगर जो अंधेरे में पड़े
हैं वे अंधेरे में ही पड़े हैं। जिनको सपना देखना है वे सपना ही देख रहे हैं।
जिन्हें दुःख भोगना है वे दुःख भोग ही रहे हैं। कितने ही लोग सूली पर टंगें और न
टंगें,
इससे
कुछ फर्क नहीं पड़ता।
अगर
कृष्ण को कसौटी मानो, तो
क्राइस्ट रुग्ण मालूम पड़ते हैं। अगर कृष्ण को नहीं, क्राइस्ट को कसौटी मानो, तो कृष्ण विलासी मालूम पड़ते
हैं। क्या करो?
और मैं
तुमसे कहता हूंः इन सबके भीतर एक ही रोशनी प्रकट हो रही है--जो रोशनी क्रास पर
प्रकट हुई थी जीसस के जीवन में, वही
रोशनी जब बांसुरी बजती है कृष्ण की तो प्रकट होती है। मगर लालटेनों के रंग अलग-अलग
हैं। ढंग अलग-अलग हैं। प्रकाश एक है। और यह कोई चुनाव की बात नहीं है। ऐसा नहीं कि
कृष्ण ने चुना कि मैं तो बांसुरी ही बजाऊंगा; कि जीसस ने चुना कि मैं तो सूली पर लटककर ही
रहूंगा,
क्योंकि
दुनिया का उद्धार करना है!
जिन
लोगों ने अपने अहंकार को छोड़ दिया है उनके लिए अब चुनाव का उपाय कहां है! अब तो वे
उसके हाथ में हैं,
जो
उसकी मर्जी! बांसुरी बजवानी हो, बांसुरी
बजवा ले;
सूली
पर लटकवाना हो,
सूली
पर लटकवा ले। जो उसकी मर्जी! लेकिन बांसुरी बजाने में भी वही आनंद होगा, सूली पर लटकने में भी वही
आनंद होगा। अब आनंद में भेद नहीं पड़ेगा।
और यह
अच्छा है कि सारे बुद्धपुरुष एक जैसे नहीं होते, अन्यथा बड़ी बेरौनक बात हो
जाती। यह दुनिया बड़ी नमक से खाली हो जाती। इस दुनिया में नमक है थोड़ा, थोड़ा स्वाद है, क्योंकि इस दुनिया में
बुद्धपुरुष होते हैं भिन्न-भिन्न रंग-रूप के। ज़रा सोचो एक दुनिया, जिसमें गुलाब ही गुलाब के फूल
होते हैं,
बस
गुलाब ही गुलाब के फूल होते हैं, तो
करोगे क्या--भैंसों को चराओगे, और
करोगे क्या?
घर पर
घास-पात की तरह चढ़ाओगे, और
करोगे क्या?
और
गुलाब की पूछ क्या रह जाएगी, उसका
सम्मान क्या रह जाएगा, उसका
अर्थ क्या रह जाएगा?
नहीं, दुनिया प्यारी है क्योंकि
बहुत ढंग के फूल खिलते हैं, रंग-रंग
के फूल खिलते हैं। और बुद्धत्व तो चरम शिखर है फूल होने का; वहां तो बड़ी अद्वितीयता प्रकट
होती है। बुद्धत्व बड़ा विरोधाभास है; वहां व्यक्ति एकदम अद्वितीय होता है, बेजोड़ होता है और साथ ही
सार्वभौम होता है। एक तरफ से, परमात्मा
की तरफ से तो सार्वभौम होता है; मनुष्य
की तरफ से अद्वितीय होता है--उस जैसा न कभी कोई हुआ, न कोई कभी होगा।
तो तुम
यह मत पूछो कि क्या करुणा में भेद है? करुणा तो एक ही है। लेकिन जिन-जिन
व्यक्तित्वों से बहती है उससे भेद पड़ जाते हैं। करुणा में भेद नहीं होत, लेकिन व्यक्तित्वों से भेद पड़
जाते हैं,
माध्यम
से भेद पड़ जाते हैं।
और
चुनाव की कोई बात ही नहीं है, ज़रा भी
चुनाव की कोई बात नहीं है।
और
मुकेश,
कहीं
ऐसा तो नहीं है कि प्रश्न के बहाने तुम खुद अपनी घबड़ाहट प्रकट कर रहे हो? पूछ तो रहे हो मेरे संबंध में
कि मैंने क्यों मुसीबतें मोल ले ली हैं, कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम मुझसे जुड़कर डर
रहे हो,
घबड़ा
रहे हो अब?
क्योंकि
जो मुझसे जुड़ेगा उस पर भी कुछ तो छींटा-छांटी पड़ेगी ही, जब मुझ पर वर्षा होगी तो
छींटे उस पर पड़ने ही वाले हैं। कहीं-कहीं अंतर में यह डर तो नहीं है कि मैं भी किस
मुसीबत में पड़ गया संन्यासी होकर! और लोग तुम पर भी हंसेंगे, लोग तुमको भी पागल कहेंगे, लोग तुम्हारा भी विरोध करेंगे, तुम्हें भी अड़चनें डालेंगे।
और स्वभावतः,
मुझसे
ज्यादा अड़चनें तुम्हें डाल सकते हैं, क्योंकि तुम बाजार में हो, दुकान में हो, दफ्तर में हो, काम-काज में हो। उन्हीं लोगों
से दिनभर सुबह से सांझ तक काम है, उन्हीं
से मिलना है,
उन्हीं
से जुलना है। उनसे हजार तरह के संबंध हैं, नाते-रिश्ते हैं। कहीं तुम्हारे भीतर कोई और
भय तो नहीं है?
अगर भय
हो तो उसे सचेतन रूप से समझने की कोशिश करो।
अकसर
ऐसा हो जाता है,
तुम
पूछते कुछ हो,
तुम्हारा
अचेतन पूछना कुछ और चाहता था। लोग प्रश्न भी सीधे-सीधे नहीं पूछते; लोग प्रश्नों को भी सुंदर ढंग
दे देते हैं। जैसा प्रश्न होता है नंगा, वैसा नहीं पूछते; उसे सुंदर वस्त्र पहना देते
हैं। अगर तुम्हें मुसीबतें मालूम होती हों तो अंगीकार करना उन्हें, क्योंकि बिना मुसीबतों से
गुजरे कोई निखरता नहीं। स्वीकार करना उन्हें। सौभाग्य की भांति स्वीकार करना।
क्योंकि कांटों पर चलकर ही चलना आता है। और चुनौतियों में ही प्रतिभा पर धार आती
है। और जितनी ही चारों तरफ लपटें होंगी उतने ही तुम निखरोगे।
ताकते-रफ्तार
"ताबां" आजमाना है मुझे,
मुश्किलाते-राह
को आसां बनाना है मुझे,
कुछ भी
हो लेकिन कदम आगे बढ़ाना है मुझे,
दूर
जाना है मुझे।
गर्मी-ए-रफ्तारे-अहदे-नौजवानी
की कसम,
बर्क-गामी
की कसम,
तूफां-खरामी
की कसम,
इम्तियाजे-दूरी-ओ-कुरबत
मिटाना है मुझे,
दूर
जाना है मुझे।
बढ़
चुका है जो कदम पीछे वो हट सकता नहीं,
चाहे
कुछ हो जाए लेकिन मैं पलट सकता नहीं,
अब तो
बढ़ना है मुझे,
बढ़ते
ही जाना है मुझे,
दूर
जाना है मुझे।
डगमगाता, लड़खड़ाता, ठोकरें खाता हुआ,
मैं
चला जाऊंगा कुर्बो-बोद पर छाता हुआ,
जर्रा-ए-साबित
को सइयारा बनाना है मुझे,
दूर
जाना है मुझे।
रास्ते
में खशमगीं तूफान हायल ही सही,
इक-इक
जर्रा जफा-कोशी पे मायल ही सही,
हम
नशीं फिर भी कदम आगे बढ़ाना है मुझे,
दूर
जाना है मुझे।
खार
क्या तलवार सद्दे-राह बन सकती नहीं,
आहनी
दीवार सद्दे-राह बन सकती नहीं,
इंकिलाबी
अज्में-मुस्तहकम दिखाना है मुझे,
दूर
जाना है मुझे।
राह की
दुश्वारियों से खेलता जाऊंगा मैं,
सख्त
नाहमवारियों से खेलता जाऊंगा मैं,
आबला-पाई
पे "ताबां" मुस्कराना है मुझे,
दूर
जाना है मुझे।
मुकेश, संन्यास तो एक लंबी यात्रा का
प्रारंभ है--एक शुरुआत मात्र, पहला
कदम। अभी से डर मत जाना, अभी
से-घबड़ा मत जाना। एक बात हमेशा याद रहे कि सत्य की खोज में झेली गई कोई भी मुसीबत
व्यर्थ नहीं जाती। वही तो कीमत है जो सत्य के लिए चुकानी पड़ती है। खुशी से चुकाना, हंसते हुए चुकाना, मुस्कुराते हुए चुकाना।
क्योंकि रोकर चुकायी तो क्या चुकायी! हंसकर चुकायी तो ही चुकायी।
तो
कहीं अचेतन में तुम्हारे भय न हो! होगा जरूर, उसी भय से यह प्रश्न उठ आया है। इस प्रश्न
ने सुंदर रूप लिया, मगर
अपने भीतर तलाश करना। तुम इसके कुरूप रूप को भी अपने भीतर कुंडली मारे हुए पाओगे।
और आदमी बड़ा चालबाज है; बड़ी
बेईमानियां,
बड़े
तर्क और बड़े-बड़े हिसाब-किताब खोज लेता है अपने को बचाने के लिए, बड़ी आड़ें बना लेता है। और
अपने को समझा लेता है कि जो मैं कर रहा हूं ठीक कर रहा हूं। मगर अगर ज़रा सजगता रखो
तो ऐसा धोखा देना संभव नहीं हो पाएगा क्योंकि तुम भली-भांति जानते हो कि क्या ठीक
है और क्या ठीक नहीं है। और तुम भलीभांति जानते हो कि कब तुमने अपने घावों को छिपा
लिया और कब तुमने अपनी कमजोरियों को दबा लिया और कब तुमने अपने झूठों के ऊपर सत्य
के पर्दे डाल दिए। शब्दों के ही होंगे वे पर्दे, सिद्धांतों के ही होंगे वे पर्दे।
शायद
तुम सोचते हो कि कृष्णमूर्ति ने सोच-विचार कर झंझट मोल नहीं ली, तो तुम गलती में हो। जो हुआ
है सहज हुआ है। और ऐसा भी नहीं है कि जो हुआ है उसमें झंझटें न आयी हों। झंझटें
आयी थीं। अब काफी देर हो गई, लोग
धीरे-धीरे भूल गए। झंझटों के दिन बीत गए। पचास साल पहले आयी थीं। अब उनकी उम्र भी
हो गई। पचास साल पहले झंझटें आयी थीं, खूब आयी थीं!
जैसे
मैंने सारी दुनिया में संन्यासियों को फैलाकर झंझट ले ली--तुम्हें लगता है--ऐसे ही
उन्होंने सारी दुनिया में फैले हुए अपने शिष्यों को इंकार करके झंझट ले ली थी। वह
झंझट भी कुछ छोटी नहीं थी, क्योंकि
जो अपने थे वे दुश्मन हो गए। जो कल तक मरने को तैयार थे, वे मारने को तैयार हो गए।
जिन्होंने कल तक आशाएं रखी थीं उनके ऊपर वे ही दुश्मन हो गए। मगर वह भी अपने-आप
हुआ था। वह घटना तुम्हें स्मरण करने जैसी है।
आज से
पचास साल पहले सारी दुनिया से कृष्णमूर्ति को प्रेम करने वाले उनके भक्त, उनके शिष्यों का एक समूह
हालैंड में इकट्ठा हुआ था। छह हजार लोग सारी दुनिया से इकट्ठे हुए थे। जैसे आज
सारी दुनिया सें मेरे पास लोग इकट्ठे हो रहे हैं, पचास साल पहले उनके पास
इकट्ठे हो रहे थे। वह सम्मेलन एक विशेष आयोजन से किया गया था, कि उस सम्मेलन में वे घोषणा
करनेवाले थे अपने जगतगुरु होने की। सारी तैयारियां हुई थीं। दूर-दूर से लोग बड़ी
आशाएं लेकर आए थे। और किसी को सपने में भी कल्पना नहीं हो सकती थी कि क्या होगा!
जो निकटतम थे कृष्णमूर्ति के उनको भी पता नहीं था क्या होगा। एनी बीसेंट, जिन्होंने कृष्णमूर्ति को मां
की तरह पाला और बड़ा किया था, उनको
भी पता नहीं था कि क्या होगा! कृष्णमूर्ति को खुद भी पता नहीं था कि कल क्या होगा।
और कल सुबह उठकर जब वे गए सम्मेलन में और मंच पर खड़े हुए तो जो हुआ दूसरे तो चौंके
ही चौंके कृष्णमूर्ति भी चौंक गए। क्योंकि जो वक्तव्य निकला वह बहुत अनूठा था। वह
वक्तव्य यह था कि मैं इंकार करता हूं, मैं किसी का गुरु नहीं हूं। जगतगुरु की तो
बात ही अलग,
मैं
किसी का भी गुरु नहीं हूं। और न किसी को शिष्य होना है, न किसी को गुरु होना है।
तुम
थोड़ा सोचो,
वे छह
हजार लोग दूर-दूर से आए थे इसीलिए। वर्षो से इसकी तैयारी की गयी थी। ज़रा बेचारी
बूढ़ी ऐनी बीसेंट की सोचो, जिसने
हर तरह की मुसीबत उठायी थी। हर तरह की मुसीबत उठायी गई थी! कृष्णमूर्ति को तैयार
किया गया था वर्षो तक, योग्य
बनाया गया था कि वे ठीक-ठीक माध्यम बन सकें विश्वचेतना के प्रकट होने के लिए। एक
बुद्धत्व का जन्म हो सके इसके लिए उनके पात्र को सब तरह से शुद्ध किया गया था, सब तरह के प्रशिक्षण जो संभव
थे, दिए गए थे। और इसमें बहुत
अड़चनें आयी थीं। खुद कृष्णमूर्ति के पिता ने बहुत अड़चनें डाली थीं। क्योंकि
कृष्णमूर्ति के पिता. . .जैसे कि हमेशा उपद्रव खड़े हो जाते हैं, खड़े हो गए थे। गरीब आदमी थे
तो कृष्णमूर्ति को दे दिया था ऐनी बीसेंट को कि यह पालेगी, पढ़ाएगी, लिखाएगी, यूरोप में पढ़ेगा मेरा बेटा।
लेकिन यह नहीं सोचा था कि ऐनी बीसेंट उसे जगतगुरु बनाएगी। ब्राह्मण थे पिता तो
ब्राह्मण पीछे पड़ गए, राजनीति
खड़ी हो गई कि यह तो जगतगुरु बनने का मतलब है कि हिंदू धर्म से विपरीत एक धर्म खड़ा
हो रहा है। बेटे को वापिस ले लो। अदालत में मुकदमा चला। नाबालिग थे कृष्णमूर्ति
इसलिए बाप को हक था कि बेटे को अदालत से ले सकता था। और ऐसे-ऐसे आरोप किए थे कि
जिन आरोपों के कारण अदालत को देना ही पड़ता कृष्णमूर्ति को।
लीडबीटर
जो कि कृष्णमूर्ति का शिक्षक था और जिसके माध्यम से ही कृष्णमूर्ति की तैयारी की
जा रही थी उस पर यह आरोप लगाया गया था कि वह कृष्णमूर्ति का कामुक रूप से उपयोग कर
रहा है,
होमो-सेक्सुअल
है वह। इस-इस तरह के आरोप थे अदालत में। मुकदमा चला और आखिर में हालत ऐसी हो गयी
कि यह साफ हो गया कि अदालत तय करेगी कि कृष्णमूर्ति को उनके पिता को वापिस लौटा
दिया जाए। तो एनी बीसेंट को कृष्णमूर्ति को लेकर भारत से भाग जाना पड़ा, भारत छोड़ देना पड़ा ताकि भारत
के कानून की सीमा के बाहर कृष्णमूर्ति को बड़े होने का मौका मिल जाए। वे कम-से-कम
बालिग हो जाएं ताकि फिर खुद कह सकें कि मैं कहां रहना चाहता हूं, किसके पास रहना चाहता हूं।
ये
सारी मुसीबतें,
ये
सारे उपद्रव,
बहुत
अदालतें,
अदालतेंबाजी, झगड़े-झांसे सब चले थे। उतनी
सारी तैयारी के बाद कृष्णमूर्ति को खड़ा किया गया था। और उस सुबह कृष्णमूर्ति ने कह
दियाः मैं न किसी का गुरु हूं और न कोई मेरा शिष्य है। मुझे क्षमा कर दें। तुम
सोचते हो यह बात आसानी से हल हो गई? वे जो लोग मित्र की तरह आए थे, दुश्मन होकर गए। उनका अपमान
किया गया था। कृष्णमूर्ति ने गद्दारी की थी--उनकी नजरों में गद्दारी थी। तो
थियोसाफिस्ट,
जो
कृष्णमूर्ति को तैयार किए थे वही दुश्मन हो गए। कृष्णमूर्ति के रास्तों पर हर तरह
से बाधाएं डाली गयीं।
तुम
सोचते हो जो मुसीबतें मेरे लिए हैं वे कुछ नयी हैं? इस समाज में, अंधे लोगों के समाज में, आंखवाले आदमी को इस तरह की
मुसीबतें बिल्कुल स्वाभाविक हैं। आज कृष्णमूर्ति पर कोई झंझट नहीं है क्योंकि किसी
को कृष्णमूर्ति से डर नहीं मालूम होता। क्योंकि कृष्णमूर्ति का बल क्या है! एक
अकेला आदमी कहता फिरता है जो कहना है। कहते फिरो! क्या तुमसे बनता-बिगड़ता है! मैं
भी जब अकेले आदमी की तरह लोगों से कहता फिर रहा था, लोगों को कोई चिंता नहीं थी।
एक अकेला आदमी क्या करेगा! इस भयंकर शोरगुल में एक अकेले आदमी की आवाज का क्या
प्रयोजन! ठीक है,
कुछ
लोग सुन लेंगे,
समझ
लेंगे,
बात
खत्म हो जाएगी। आज अड़चन शुरू हुई है क्योंकि अब मैं अकेला नहीं हूं और उनको लगता
है कि मेरी बात का बल बढ़ता जाएगा। लोग इस बात के पीछे खड़े होते जाएंगे। तो अब
चिंता पैदा होनी स्वाभाविक है। हिंदू नाराज हैं क्योंकि हिंदू संन्यासी हो गए; वे उनके घेरे के बाहर हो गए।
मुसलमान नाराज हैं क्योंकि मुसलमान संन्यासी हो गए। ईसाई नाराज हैं क्योंकि ईसाई
संन्यासी हो गए। जैन नाराज हैं क्योंकि जैन संन्यासी हो गए। सच तो यह है कि एक
आदमी इससे ज्यादा और लोगों को नाराज कर ही नहीं सकता जितना मैं कर रहा हूं। लेकिन
यह मैं कर रहा हूं ऐसा मत मानना। यह मैं कर नहीं रहा हूं, इसमें कोई चेष्टा नहीं है।
जैसी उसकी मर्जी! इस बार उसका यही इरादा है तो यही होने दो। और मैं जिस मौज से ले
रहा हूं उसी मौज से मेरे प्रत्येक संन्यासी को भी लेना है।
बढ़
चुका है जो कदम पीछे वो हट सकता नहीं,
चाहे
कुछ हो जाए लेकिन मैं पलट सकता नहीं,
अब तो
बढ़ना है मुझे,
बढ़ते
ही जाना है मुझे,
दूर
जाना है मुझे।
तीसरा प्रश्नः धर्म के वास्तविक स्वरूप के संबंध में कुछ कहें।
धर्म
का अर्थ होता है स्वभाव। धर्म का अर्थ होता है तुम्हारी सहजता। जैसे गुलाब में गंध
है और जैसे अग्नि उत्तप्त है और जैसे जल शीतल है, ऐसे ही तुम्हारा भी एक स्वभाव
है; उस स्वभाव में जीने का नाम
धर्म है,
उस
स्वभाव से विपरीत जीने का नाम अधर्म है।
फिर
प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव में थोड़ा-सा भेद होगा--होना ही चाहिए क्योंकि परमात्मा
एक जैसे लोग नहीं बनाता। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के धर्म में भी थोड़ा-सा भेद होगा।
जो एक के लिए दवा है, दूसरे
के लिए जहर हो सकता है और जो एक के लिए जहर है, दूसरे के लिए दवा हो सकता है। इसलिए
प्रत्येक व्यक्ति को ध्यान की गहराइयों में अपने स्वभाव की तलाश करनी होती है। कोई
दूसरा तुम्हें तुम्हारे स्वभाव के संबंध में सुस्पष्ट निर्वचन नहीं दे सकता।
तुम्हें ही ध्यान की गहराइयों में धीरे-धीरे अपनी स्वाभाविकता को पहचानना पड़ता है
और फिर उसी स्वाभाविकता के अनुसार जीने की हिम्मत जुटानी पड़ती है। हिम्मत इसलिए
जुटानी पड़ती है क्योंकि जब तुम स्वभाव के अनुसार जियोगे तो जरूरी नहीं है कि जिसको
धर्म माना जाता है समाज के द्वारा, तुम वैसे ही जियो। उससे भिन्न भी जी सकते
हो। ठीक तो यह है कि तुम ठीक बिल्कुल वैसे तो जी ही नहीं सकते।
वह
जिसको धर्म समाज कहता है, वह तो
औसत धर्म है। और औसत के संबंध में एक बात खयाल ले लेना--औसत से बड़ी झूठ दुनिया में
दूसरी और कोई चीज नहीं होती। जैसे समझो कि पूना में दस लाख लोग हैं और अगर तुम
पूछो कि औसत आदमी की ऊंचाई क्या? तो पता
चले कि तीन फीट साढ़े तीन इंच। इसका अर्थ होता है गणित की भाषा में कि सारे दस लाख
लोगों की ऊंचाई नाप ली गई है--कोई सात फीट है, कोई छह फीट है, कोई पांच फीट है, कोई चार फीट है, बच्चे हैं छोटे कोई अभी बारह
ही इंच का बच्चा है। सबकी ऊंचाइयां नाप ली गयीं और फिर उसमें दस लाख का भाग दे
दिया गया,
फिर जो
आया परिणाम वह औसत ऊंचाई--तीन फीट साढ़े तीन इंच। अब अगर हर आदमी को औसत ऊंचाई के
अनुसार जीना पड़े तो मुसीबत समझ लो किस तरह की हो जाएगी। अगर यह नियम हो जाए कि हर
आदमी औसत ऊंचाई के अनुसार जिए तो फिर पूना में जीना असंभव हो जाएगा। क्योंकि जो छह
फीट का है वह क्या करे? वह
झुका-झुका इस तरह चले कि तीन फीट तीन इंच मालूम पड़े, या हाथ-पैर काटे, या पहलवानों से कहे कि दबाओ
और दोनों तरफ से धक्के मारो--सिर की तरफ से भी पैर की तरफ से भी, कि किसी तरह तीन इंच साढ़े तीन
फीट, या कोई भी औसत ऊंचाई पर मुझे
ले आओ। या जो दो ही फीट का बच्चा है वह क्या करे? जाए, मालिश करवाए, खिंचवाए शरीर को कि किसी तरह
तीन फीट साढ़े तीन इंच का हो जाए।
बड़ी
मुसीबत हो जाएगी,
पूना
में लोग एकदम पागल हो जाएंगे। औसत ऊंचाई का नियम भर लागू करो और तुम पाओगे कि लोग
पगलाने लगे। और हर आदमी अपराधी हो जाएगा। क्योंकि कोई भी तीन फीट साढ़े तीन इंच का
हो नहीं पाएगा। शायद कभी एकाध आदमी मिल जाए औसत ऊंचाई का; वह भी मुश्किल ही है। शायद दस
लाख में एकाध आदमी संयोग से ऐसा मिल जाए जो अभी ठीक तीन फीट साढ़े तीन इंच का हो, मगर वह भी ज्यादा दिन नहीं रह
पाएगा। साल भर बाद वह हो जाएगा चार फीट का, कि आगे बढ़ेगा।
औसत
ऊंचाई अगर नियम हो जाए जीवन का तो प्रत्येक व्यक्ति के भीतर अपराध-भाव पैदा हो
जाएगा कि मैं गलत हूं कि मैं पापी हूं कि मैं ठीक नहीं हूं कि मुझे जैसा होना
चाहिए वैसा नहीं हूं। और यही हो गया है। सारी दुनिया में धर्म के कारण अपराध-भाव
पैदा हो गया है। हर आदमी को लग रहा है मैं पापी हूं क्योंकि मुझे जैसा होना चाहिए
वैसा मैं नहीं हूं। मैं भिन्न हूं, मैं धार्मिक नहीं हूं क्योंकि धार्मिक आदमी
को तो ऐसा होना चाहिए. . .।
कौन
निर्णय करता है धार्मिक आदमी का? किस
तरह से पता चलता है कि धर्म क्या है? औसत से पता चलाया जाता है। और औसत झूठ होता
है। औसत से बड़ा झूठ कोई भी नहीं है।
इसलिए
पहली बात तुमसे मैं कहना चाहता हूं, प्रत्येक व्यक्ति को अपना निज धर्म खोजना
पड़ता है। वही अर्थ है कृष्ण का--स्वधर्मे निधनं श्रेयः। उसका वैसा अर्थ नहीं है
जैसा हिंदू पंडित-पुजारी करते रहते हैं कि हिंदू धर्म में ही मरना श्रेयस्कर है; उसका यह मतलब नहीं है। हिंदू
शब्द की तो बात ही नहीं की कृष्ण ने। वे तो कहते हैं, स्वधर्मे निधनं श्रेयः
परमधर्मो भयावहः। अपने धर्म में मर जाना श्रेयस्कर है दूसरे के धर्म में जीने की
बजाय। क्योंकि दूसरे के धर्म में जीने में भी भय है, अपने धर्म में मरने में भी
अभय है।
इसका
अर्थ समझे?
यह बड़ी
वैज्ञानिक बात है। इसका अर्थ हुआ, दूसरों
से धर्म मत सीखना। अब दूसरों का मतलब क्या? अगर तुम हिंदू पंडित से पूछोगे, गीता पर टीका लिखने वाले लोग
हैं जो,
उनसे
पूछोगे,
वे
क्या कहेंगे?
वे
कहेंगे,
परधर्म
यानी मुसलमान,
ईसाई।
ईसाई, मुसलमान मत हो जाना। अब कृष्ण
के वक्त में न तो ईसाई थे और न मुसलमान थे, खयाल रखना। इसलिए परधर्म का यह तो अर्थ हो
ही नहीं सकता।
कृष्ण
के समय में जैन भी हिंदुओं से अलग नहीं हुए थे। कृष्ण के एक चचेरे भाई नेमिनाथ जैन
तीर्थंकर थे। अभी जैन शाखा अलग नहीं टूटी थी। नेमिनाथ को जब ज्ञान उपलब्ध हुआ तो
स्वयं कृष्ण उनका सम्मान करने गए थे। अभी जैनों के आदि तीर्थंकर आदिनाथ का नाम
वेदों में सम्मानपूर्वक लिया जा रहा था। अभी तो पृथ्वी पर कोई दूसरा धर्म था ही
नहीं इस अर्थो में। जैन थे नहीं, अभी
बुद्ध को पैदा होने में बहुत देर थी। अभी मूसा भी नहीं पैदा हुआ था, जरथुस्त्र भी पैदा नहीं हुआ
था, लाओत्सु भी पैदा नहीं हुआ था।
अभी क्राइस्ट तो बहुत दूर थे, मुहम्मद
तो और बहुत दूर,
नानक
और कबीर का तो अभी कोई हिसाब ही लगाना ठीक नहीं। कृष्ण ने जब यह वचन कहा--स्वधर्मे
निधनं श्रेयः,
तब
इसका एक ही अर्थ हो सकता था जो मैं कर रहा हूं--कि निज में, निजता में अपने स्वभाव में ही
जीना श्रेयस्कर है, वही
निःश्रेयस को लाएगा।
और
परधर्मो भयावहः। दूसरे के धर्म में जीना--दूसरे से किसका प्रयोजन है? और किसने कही थी यह बात? यह भी खयाल कर लो। क्या तुम
सोचते हो अर्जुन मुसलमान होने की सोच रहा था, कि अर्जुन को किसी ईसाई मिशनरी ने चक्कर में
डाल लिया था,
प्रलोभन
इत्यादि देकर?
कि
तेरे बच्चों को स्कूल में पढ़वा देंगे और अस्पताल खुलवा देंगे तेरे गांव में, घबड़ा मत! अर्जुन न तो ईसाई
होने की सोच रहा था न मुसलमान होने की सोच रहा था, अर्जुन क्या सोच रहा था? अर्जुन संसार छोड़कर संन्यासी
होने की सोच रहा था। मेरे ढंग के संन्यासी होने की नहीं, अभी इस ढंग के संन्यास को आने
में तो बहुत देर थी, पुराने
ढंग का संन्यास। कृष्ण अर्जुन को कह रहे थे कि संन्यास तेरा स्वभाव नहीं है अर्जुन, तू स्वभाव से क्षत्रिय है। तू
स्वभाव से योद्धा है। तू स्वभाव से संघर्षशील है। मरना-मारना, युद्ध के मैदान पर चमकती
तलवारों के बीच जीना, आग से
गुजरना,
वह
तेरा स्वभाव है। अगर तू भाग भी गया जंगल में यह सोच कर कि चलो संन्यासी हो जाएं, क्यों झगड़े-झांसे में पड़ना, क्यों अपनों को मारना, क्यों युद्ध करना!. . . अगर
तू भाग भी गया जंगल में तो मैं तुझे कहे देता हूं, तू मुश्किल में पड़ेगा। तू
जंगल में बैठा नहीं रह सकेगा आसानी से। और मुझे भी लगता है कि अगर अर्जुन जंगल चला
जाता तो कुछ-न-कुछ उपद्रव खड़ा करता जंगल में। आदिवासियों को इकट्ठा करके उनका राजा
हो जाता या कुछ करता। और नहीं तो कम-से-कम शिकार तो करता ही। धनुष-बाण तो ले ही
जाता वह अपने साथ,
वह छोड़
जानेवाला नहीं था। जानवरों को मारता अगर आदमी मारने को न मिलते तो।
कृष्ण
उससे यह कह रहे हैं कि तू अपनी निजता को पहचान, फिर तुझे अगर ऐसा लगता हो कि शांत किसी
वृक्ष के नीचे हिमालय की गुफा में बैठकर तू आनंदित हो सकेगा, मग्न हो सकेगा, तेरा फूल खिल सकेगा, तेरा गीत प्रकट हो सकेगा तो
तू जा। मगर तू सोच ले ठीक से कि यह तेरा निजधर्म है, स्वधर्म है? अगर नहीं तो फिर किन्हीं और
कारणों से भागने से . . .तेरे भागने के कारण सब झूठे हैं। तू कहता है ये मेरे
प्रियजन,
इनको
मुझे मारना पड़ेगा अगर ये प्रियजन न होते तो? तो तू ऐसे काट देता जैसे किसान जाकर खेत में
मूली काट देता है। तू बिल्कुल फिक्र न करता। तू घबड़ा क्यों रहा है? तू इसलिए नहीं घबड़ा रहा है कि
तुझे हिंसा में कुछ डर है, तू
इसलिए डर रहा है कि उस तरफ मेरे गुरु द्रोण, कि भीष्म पितामह, कि सब सगे संबंधी खड़े हैं।
इनको कैसे मारूं?
इन्हीं
के साथ तो बड़ा हुआ, खेला, इन्हीं के साथ तो जिंदगी का
सब राग-रंग था। सच तो यह है अगर मैं विजेता हो गया इन सबको मारकर तो मुझे मजा ही
नहीं आएगा क्योंकि विजय की घोषणा किसके सामने करूंगा? यही तो लोग थे जिनको मैं
दिखाना चाहता था कि देखो कि अर्जुन ने चने चबवा दिए! मगर ये सब खत्म हो जाएंगे।
इनके बिना मैं बैठ भी जाऊंगा सिंहासन पर तो प्रयोजन क्या होगा? जिनकी प्रशंसा का मैं सदा
आकांक्षी रहा हूं,
जिनकी
आंखों की मैंने सदा आशा की है कि जो कहेंगी कि हां अर्जुन, अब कुछ बात हुई! यही उठ
जाएंगे तो मेरी जीत का क्या प्रयोजन है? यह जीत दो कौड़ी की है, इसमें कोई सार नहीं है। इससे
मैं जंगल चला जाता हूं।
जंगल
यह इसलिए नहीं जा रहा है कि इसको कोई अहिंसा का उदय हुआ है, कि इसके भीतर कोई ध्यान की
भावना जगी है,
कि
चित्त-वृत्ति निरोध इसको करना है, कि
इसने कोई पतंजलि की निर्विकल्प समाधि का इसको कोई स्मरण आ गया है। इसे इन सब बातों
से कोई प्रयोजन नहीं है। इसका कारण ही गलत है। यह कह रहा है कि अपनों को क्या
मारना! इनको मारकर क्या जीतना! जीत कर फिर सार भी क्या है! फिर घोषणा भी किसके
सामने करूंगा?
यह
मुर्दो की बस्ती में डुंडी पीटता फिरूंगा कि मैं जीत गया, बहुत बुद्धू मालूम पड़ूंगा।
इसमें कोई सार नहीं है। ये जिंदा रहें और मैं जीतूं, तो कुछ मजा है। यही उठ गए तो
मेरी जीत और हार का कोई प्रयोजन नहीं। यह जीत तो बड़ी महंगी पड़ जाएगी।
इस
अर्जुन से कह रहे हैं कृष्ण--स्वधर्मे निधनं श्रेयः। अपने धर्म में, निजता में मर जाना श्रेयस्कर
है। क्यों?
क्योंकि
जो निज के अनुकूल चलता है वही आनंद को उपलब्ध होता है, निःश्रेयस को उपलब्ध होता है।
निज के अनुकूल होने का नाम ही आनंद है और निज के प्रतिकूल होने का नाम दुःख है। जो
तुम्हारे अनुकूल आता है वही स्वास्थ्यदायी है, जो तुम्हारे प्रतिकूल जाता है वही रोग लाता
है।
तुम
पूछ सकते हो चिकित्सकों से, रोग की
परिभाषा क्या है! रोग की जो परिभाषा है वही अधर्म की परिभाषा है। अधर्म यानी
आत्मिक रोग। रोग का अर्थ होता है, जो
तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल नहीं है। किसी ऐसी चीज को पकड़ लिया है जो तुम्हें
स्वभाव के बाहर खींच रही है, उसको
छोड़ते ही तुम स्वभाव में आ जाओगे और स्वास्थ्य अपने आप फलित हो जाएगा। हमारा शब्द
स्वास्थ्य बड़ा प्रीतिकर है। इसका अर्थ होता है, स्वयं में स्थित हो जाना; निज में स्थित हो
जाना--स्वस्थ। स्वधर्म में ठहर जाने में ही स्वास्थ्य है, स्वास्थ्य में ही आनंद है, स्वास्थ्य में ही जीवन का
अहोभाव है।
तुम
मुझसे पूछते हो,
धर्म
के वास्तविक स्वरूप के संबंध में कुछ कहूं। तो पहली बात कि न तो हिंदू, न ईसाई, न मुसलमान, न जैन--ये शब्द धर्मो की
सूचनाएं नहीं देते। ये अलग-अलग देशों में निकाले गए अलग-अलग औसत की सूचना देते हैं, इनसे सावधान रहना। ये
तुम्हारे ऊपर सदियों में निकाले गए औसत को थोप देते हैं। ये कहते हैं, महावीर ऐसे जिए, तुम भी ऐसे जियो तो जैन हो
जाओगे। मगर तुम महावीर नहीं हो और न समय यह महावीर का है। पच्चीस सौ साल बीत गए, गंगा में बहुत पानी बह गया
है। अब महावीर के ढंग से जीना एकदम ही अप्रासंगिक है। न तुम महावीर हो, न समय महावीर का है, न हवा महावीर की बची। इसमें
तुम महावीर की तरह जीने की कोशिश करोगे, तुम एकदम ही व्यर्थ और छूंछे हो जाओगे।
इसलिए जैन मुनि व्यर्थ और छूंछे हो गए, थोथे हो गए। और वही दशा औरों की है क्योंकि
कोई बुद्ध को मानकर नहीं जी रहा है, कोई शंकराचार्य को मानकर जी रहा है। सदियां
गईं, सदियों में कितना जीवन
रूपांतरित हुआ है! हम कहां से कहां आ गए! और तुम किस तरह की बातें कर रहे हो!
तो
धर्म से अर्थ नहीं है परंपरा का। ये परंपराएं हैं--हिंदू, जैन, बौद्ध। ये संप्रदाय हैं, धर्म नहीं।
ये
मुसलमां है,
वो
हिंदू,
ये
मसीही,
वो
यहूद
इस पे
ये पाबंदियां हैं,
और उस
पर ये कयूद
शैखो-पंडित
ने भी क्या अहमक बनाया है हमें
छोटे-छोटे
तंग खानों में बिठाया है हमें
कस्रे-इंसानी
पे जुल्मो-जहल बरसाती हुई
झंडियां
कितनी नजर आती हैं लहराती हुई
कोई इस
जुल्मत में सूरत ही नहीं है नूर की
मुहर
हर दिल पे लगी है इक-न-इक दस्तूर की
घटते-घटते
महरे-आलमताब से तारा हुआ
आदमी
है मजहबोत्तहजीब का मारा हुआ
कुछ
तमद्दुन के खलफ कुछ दीन के फर्जंद हैं
कुलजमों
के रहने वाले बुलबुलों में बंद हैं
काबिले-इब्रत
है ये महदूदियत इंसान की
चिट्ठियां
चिपकी हुई हैं,
मुख्तलिफ
अदयान की
फिर
रहा है आदमी भूला हुआ भटका हुआ
इक-न-इक
लेबिल हर इक माथे पे है अटका हुआ
आखिर
इन्सां तंग सांचों में ढला जाता है क्यों
आदमी
कहते हुए अपने को शर्माता है क्यों
क्या
करे हिंदोस्तां,
अल्लाह
की है ये भी देन
चाय
हिंदू,
दूध
मुस्लिम,
नारियल
सिख, बेर जैन
अपने
हमजिंसों के कीने से भला क्या फायदा
टुकड़े-टुकड़े
होके जीने से भला क्या फायदा
थोड़ा
आदमी की तरफ देखो! हमने कैसे कबूतरों के खानों में आदमियों को बंद कर दिया है!
कोई इस
जुल्मत में सूरत ही नहीं है नूर की
मुहर
हर दिल पे लगी है इक-न-इक दस्तूर की
यहां
प्रकाश की कोई संभावना नहीं दिखायी पड़ती। ऐसी अंधेरी रात छायी, ऐसी अमावस आयी कि कोई तारा भी
नहीं टिमटिमाता,
कोई एक
छोटा-सा मिट्टी का दीया भी जलता हुआ मालूम नहीं पड़ता।
कोई इस
जुल्मत में सूरत ही नहीं है नूर की
मुहर
हर दिल पे लगी है इक-न-इक दस्तूर की
और हर
आदमी के दिल पर दस्तूरों की, रीति-रिवाजों
की, परंपराओं की अंधविश्वासों की
मुहरें लगी हैं। उन मुहरों के भीतर प्रेम बंद हो गया है। उन मुहरों के भीतर
तुम्हारा स्वभाव बंद हो गया है। उन मुहरों के भीतर तुम्हारा धर्म है। वे मुहरें
टूटें तो तुम्हारा धर्म बहे। वे मुहरें उखड़ें तो तुम्हारा धर्म का पौधा पनपे।
घटते-घटते
महरे-आलमताब से तारा हुआ
कहां
तो हम सूरज होने को बने थे, और
कहां हम छोटे-छोटे टिमटिमाते तारे हो गए!
आदमी
है मजहबोत्तहजीब का मारा हुआ
कुछ
तमद्दुन के खलफ कुछ दीन के फर्जंद हैं
कुलजमों
के रहने वाले बुलबुलों में बंद हैं
सागरों
में जिन्होंने रहना था वे बुलबुलों में बंद हो गए हैं।
हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिक्ख, पारसी--इन नामों से धर्मो का
कोई संबंध नहीं है। धर्म का कोई विशेषण नहीं है। धर्म तो प्रत्येक व्यक्ति की
निजता है। और तुम्हारी निजता के संबंध में कोई शास्त्र निर्णायक नहीं हो सकता। हां, निजता को खोजने में शास्त्र, सद्गुरु, सत्संग सहयोगी हो सकते हैं।
मगर निजता का निर्णय तो तुम्हारे अंतर ध्यान में ही होगा। स्मरण रखना जो बात बहुत
लोग करते रहें हों जरूरी नहीं है कि तुम्हें मुक्त कर दे। बहुत लोग मानते हैं
इसलिए मानने से तुम मुक्त न हो जाओगे, जब तक कि तुम्हारे भीतर अपने जानने की
ज्योति न जगे।
धर्म
मानना नहीं है,
जानना
है; अंधविश्वास नहीं है, अनुभव है। किसी और का हाथ पकड़
कर चलना नहीं है बल्कि अपने भीतर की रोशनी को जगाना है। और सद्गुरु वही है जो
तुम्हारी निजता के दीए को जलाने में सहयोगी हो; जो तुम्हें, नकली आदमी न बनाए; जो तुम्हें औसत आदमी न बनाए; जो तुम्हें किन्हीं पाबंदियों, किन्हीं लेबलों, किन्हीं विशेषणों में आबद्ध न
करे; जो तुम्हें साहस दे, सिद्धांत नहीं; जो तुम्हें अभियान की अभीप्सा
दे, शास्त्र नहीं; जो तुम्हें अज्ञात और अनंत की
यात्रा पर जाने के लिए बुलावा दे, चुनौती
दे। सद्गुरु,
तुम्हारी
निजता को तुम कैसे पहचान लो इसकी विधि देता है। फिर अपनी निजता से जीना। और बहुत
बार ऐसा हो जाता है कि जो भी व्यक्ति अपनी निजता से नहीं जीते उनकी जिंदगी अकारण
ही दुःखों,
विषादों
से भर जाती है।
एक
युवक को मेरे पास लाया गया, उसकी
हालत बड़ी खराब हो रही थी। मैंने पूछा, कि मामला क्या है, तुझे हुआ क्या? उसके मां-बाप साथ आए थे, उन्होंने कहा कि यह बड़ा
धार्मिक है। यह अतिशय धार्मिक है। इसलिए हम कह भी नहीं सकते कि यह कुछ गलत करता है, गलत यह करता भी नहीं। गलत ही
नहीं करता बिल्कुल। न सिगरेट पीता, न चाय पीता, न काफी पीता, न सिनेमा जाता। तो मैंने कहाः
इसे तो फिर बहुत आनंदित होना चाहिए था, जब इतना धार्मिक है। उन्होंने कहा, लेकिन आनंदित यह बिल्कुल नहीं
है, यह विक्षिप्त हुआ जा रहा है।
यह उठता भी तीन बजे रात है--ब्रह्ममुहूर्त में। सोता भी पांच घंटे से ज्यादा नहीं
है। गलती तो यह कुछ करता ही नहीं है। इसमें गलती तो हम बता ही नहीं सकते। मगर हालत
इसकी बिगड़ती जा रही है। पहले तो साग-सब्जी भी लेता था, अब तो सिर्प दूध ही दूध पीता
है, दुग्धाहारी हो गया है। गलती
तो कुछ भी नहीं है क्योंकि ऋषि-मुनियों ने कहा है कि दूध तो शुद्ध आहार है, शुद्धतम आहार है।
उसकी
हालत इतनी खराब थी, शरीर
भी उसका सूख गया,
आंखें
उसकी विक्षिप्त जैसी मालूम पड़ें क्योंकि अभी जवान था, कम-से-कम आठ घंटे सोना जरूरी
था। नींद पूरी न हो तो आंखें जलती रहें और नींद पूरी न हो तो दिन भर नींद आती रहे।
और दिन भर नींद आती रहे तो वह कैसे पढ़े, कैसे लिखे? विश्वविद्यालय में दो साल से
फेल हो रहा था। भोजन पूरा नहीं लेता था, सिर्प दूध! कितना दूध पियोगे?
फिर
दूध आदमी को छोड़कर कोई भी जानवर, एक
उम्र के बाद नहीं पीता। वह तो अच्छा हुआ कि जानवरों को ऋषि-मुनियों की बात पता
नहीं चली। तुम जिस गाय का दूध पी रहे हो उस गाय का बछड़ा भी एक उम्र के बाद दूध
नहीं पीता। दूध तो तभी तक है जब और भोजन पचाने की क्षमता न आए। वह तो प्रारंभिक
तैयारी है बच्चों के लिए है। तो ठीक है, शायद बच्चों के लिए ठीक हो और शायद बुढ?ापे में फिर ठीक हो जाए, मगर जवान आदमी को तो और भी सब
पचाना चाहिए। उसने सब खाना-पीना बंद कर दिया है। अब बहुत-से तत्त्वों की कमी हो गई
होगी। अब उन सब तत्त्वों की कमी के कारण वह बिल्कुल जीर्ण-जर्जर हुआ जा रहा है, उसकी प्रतिभा भी मरती जा रही
है, बुद्धि भी क्षीण होती जा रही
है।
और
हालत जब बहुत बिगड़ गई, जब वह
अकेले में बैठे-बैठे अपने से बातें करने लगा तब उसके मां-बाप मेरे पास लाए। मैंने
कहा, इसने बातें अपने से कब से
शुरू की हैं?
उन्होंने
कहा कि अभी कुछ-कुछ दिन से शुरू की हैं। पहले भी करता था, मगर पहले तो यह
राम-राम-राम-राम इत्यादि जपता था, तब ठीक
था। अब तो यह बातचीत करता है। कोई दूसरा है ही नहीं और बातचीत करता है। मैंने कहा, पहले भी यही पागलपन था लेकिन
वह धार्मिक आवरण में था; राम-राम-राम-राम-राम-राम
कर रहा था। तुम समझे कि बिल्कुल ठीक है, धार्मिक काम कर रहा है। अब अगर यह दूसरे
शब्द उपयोग करने लगा तो तुम्हें लगता है कि यह पागल हो गया है। पागल यह पहले से हो
रहा था। नहीं तो कोई बैठकर राम-राम-राम-राम किसलिए करेगा? विक्षिप्त चित्त का लक्षण है।
कोई बैठकर माला किसलिए फेरेगा? बुद्धि
है या नहीं?
माला
के गुरिए किसलिए सरकाओगे? लेकिन
धार्मिक आवरण में कोई बात छिपी रहे तो पता नहीं चलता।
मैंने
उससे पूछा कि तू अपनी सारी कथा कह। उसने कहा, कि मैं स्वामी शिवानंद-ऋषिकेश वालों का
शिष्य हूं। तब शिवानंद जिंदा थे, तब की
यह बात है। उनकी ही किताब मैंने पढ़ी। उसमें पांच घंटे ही सोना चाहिए, पांच घंटे से जो ज्यादा सोता
है वह तामसी है. . .। अब यह बड़े मजे की बात हो गयी। चौबीस घंटे सोना पड़ता है बच्चे
को मां के पेट में। भयंकर तामस हो गया यह! फिर बच्चा पैदा होगा, फिर तेईस घंटे सोएगा, फिर बाईस घंटे। फिर बीस घंटे।
यह तामस ही तामस चल रहा है। फिर एक उम्र आएगी जब आठ घंटे के करीब ठहर जाता है। एक
तिहाई समय नींद के लिए जरूरी है। सिर्प जब बूढ़े होने लगोगे, जब मौत करीब आने लगेगी, तब नींद कम होगी। और नींद
इसलिए कम होगी बुढ़ापे में कि अब शरीर को अपने को बनाने का काम बंद कर देना पड़ा है।
नींद में शरीर निर्मित होता है। तुम जो खाते हो, पीते हो, पचाते हो वह सब नींद में शरीर
निर्मित होता है। अब मौत करीब आ रही है, अब शरीर को निर्मित होना नहीं है इसलिए बूढ़े
आदमी को नींद कम होने लगती है। जरूर शास्त्रों में जिन्होंने लिखा है कि पांच घंटे
सात्विक निद्रा! वे बूढ़ों ने लिखी होंगी किताबें--बूढ़ों ने ही लिखी हैं। उनको नींद
आ ही नहीं रही है वह तो पांच घंटे भी बड़ी कृपा की जो लिख दी! नहीं तो तीन ही घंटे
बहुत हैं। जो और भी ज्ञानी हैं ऊपर वे तो तीन ही घंटे बताते हैं।
तो
मैंने कहा कि तू अभी जवान है, आठ
घंटे तो तुझे सोना ही चाहिए। उसने कहा, वह तो मैं नहीं कर सकता, गुरुदेव का कथन नहीं है।
उन्होंने तो पांच घंटे बताया था। और पांच घंटे जब से सोने लगा तब से दिन-भर नींद
आने लगी। आएगी ही। पूछा तो उन्होंने कहा कि तामस का लक्षण है। इसका अर्थ है कि तू
तामसी भोजन करता है। देखते हैं कि तर्क कैसे गलत रास्तों पर यात्रा करता है!
सीधी-साफ बात है कि यह कम सो रहा है इसलिए दिन में नींद आ रही है। मगर तर्क कैसे
चलते हैं,
मूढ़तापूर्ण
बातें कैसी चलती रहती हैं। अगर दिन में नींद आती है तो इसका मतलब है कि तू तामसी
भोजन कर रहा है। तू भोजन में बदल कर ले। उसने धीरे-धीरे बदल ऐसी की कि अब वह दूध
ही पीता है। अब दूध ही पीता है तो देह क्षीण होने लगी। और मस्तिष्क की भी जो ताजगी
थी, प्रतिभा थी, वह भी मरने लगी। क्योंकि
मस्तिष्क के लिए कुछ विटामिन एकदम जरूरी हैं, अगर वे न मिलें तो मस्तिष्क सिकुड़ना शुरू हो
जाता है,
प्रतिभा
मरनी शुरू हो जाती है।
जबसे
यह हालत उसकी हो गई कि प्रतिभा क्षीण होने लगी और बुद्धि क्षीण होने लगी तो उसको
मंत्र दे दिया कि राम-राम, राम-राम
जप क्योंकि अब तो परमात्मा को पुकारे बिना कोई चारा नहीं। यह भी खूब रहा! इसको खूब
असहाय बना दिया,
अब
परमात्मा को पुकरवाओ। अब परमात्मा भी इससे बचेगा। परमात्मा तक भी इसकी आवाज नहीं
पहुंचेगी,
यह
विक्षिप्त हो गयी आवाज। उस तक स्वस्थ आवाज पहुंचती है। जो स्वयं में स्थिर हो गया
उसकी आवाज पहुंचती है। यह आदमी तो अपने स्वास्थ्य के बिल्कुल बाहर हो गया, यह तो अपने स्वभाव के विपरीत
चला गया।
इसको
मुझे बड़ी मेहनत करनी पड़ी, बामुश्किल
इसको मैं राजी कर पाया। क्योंकि धर्म के खिलाफ किसी को राजी करना बड़ा मुश्किल हो
जाता है। उसको लगता है कि मैं पाप करवाने की कह रहा हूं। मैंने उससे कहा कि तू आठ
घंटे सो। वह कहे,
यह
पाप! कि तू ठीक से भोजन कर वह कहे यह पाप!
सदियों-सदियों
में, न मालूम किस-किस तरह के
भिन्न-भिन्न लोगों ने धर्म के संबंध में भिन्न-भिन्न वक्तव्य दिए हैं। वे उनके
संबंध में सही रहे होंगे। तुमसे उनका कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हें अपना धर्म
स्वयं खोजना होगा। हां, उनकी
बातें सुन लो,
उनकी
बातें समझ लो,
उनकी
बातों से प्यास ले लो लेकिन उनकी बातें मत ले लेना। प्रत्येक व्यक्ति को अपना दीया
स्वयं जलाना है। और तब ही तुम्हारे जीवन में उमंग होगी--प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया!
तब तुम नाच सकोगे जब स्वस्थ होओगे, स्वयं में स्थित होओगे।
स्वधर्मे
निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः। जब तुम्हें यह अनुभव में आने लगेगा कि यह मेरा
स्वधर्म,
यह
मेरा निःश्रेयस,
यह
मुझे प्रीतिकर,
रुचिकर, यह मेरे अनुकूल। बस, ऐसे मैं जियूंगा। तुम फिक्र
ही मत करना और सब औसत सिद्धांतों की। तुम अपने निर्णायक स्वयं हो। और तुम्हारे पास
निर्णय का सूत्र है, कसौटी
है--जिस चीज से तुम्हें सुख मिले, शांति
मिले, आनंद मिले--वही धर्म है। आनंद
को मानो,
निर्णायक, परीक्षा का सूत्र। जैसे सुनार
सोने को कसने के लिए कसौटी का पत्थर रखता है ऐसे आनंद को तुम कसौटी का पत्थर मानो।
हर चीज को इस पर कस लेना। अगर आनंद मिले तो धर्म, अगर आनंद न मिले तो अधर्म।
फूल
मुट्ठी में अगर कुछ देर तक रहते हैं बंद
हाथ
में होती है पैदा इक मुअत्तर-सी नमी
यूं ही
जब कुछ देर करता हूं तसव्वुर हुस्न का
सांस
में होती है खुशबू, और
आंखों में तरी
और ये
महसूस होता है,
कि
जानां ने मुझे
भींचकर
आगोश में ता-देर छोड़ा है अभी
अगर
क्षणभर को भी तुम अपने भीतर डूब जाओ तो ऐसा लगेगा कि परमात्मा से आलिंगन करके लौटे
हो।
फूल
मुट्ठी में अगर कुछ देर तक रहते हैं बंद
हाथ
में होती है पैदा इक मुअत्तर-सी नमी
देखा
नहीं, फूल को हाथ में रख लो तो एक
सुगंधित गीलापन हाथ से छूट जाता है। फूल छूट भी जाए फिर, तो भी हाथ में गंध रह जाती।
बगीचे से गुजर जाओ, फूल
छुओ भी मत,
तो भी
हवाओं में उड़ती पराग तुम्हारे वस्त्रों को पकड़ लेती। तुम सुगंधित हो उठते हो। ऐसे
ही जब कोई अपने भीतर क्षणभर को भी डुबकी लगाता है तो उसके जीवन में सुगंध ही सुगंध
फैल जाती है।
फूल
मुट्ठी में अगर कुछ देर तक रहते हैं बंद
हाथ
में होती है पैदा इक मुअत्तर-सी नमी
यूं ही
जब कुछ देर करता हूं तसव्वुर हुस्न का
सांस
में होती है खुशबू, और
आंखों में तरी
और अगर
तुम्हारे भीतर प्यारे की तुम्हें एक झलक भी मिल जाए, उसके सौंदर्य की ज़रा-सी लहर
भी तुम्हारे आस-पास कौंध जाए तो तुम्हारी सांस में खुशबू होगी। तुम्हारी आंखों में
तरावट,
तुम्हारी
आंखों में एक गहराई, तुम्हारी
आंखों में एक नीलिमा, एक
आकाश।
और ये
महसूस होता है,
कि
जानां ने मुझे
भींचकर
आगोश में ता-देर छोड़ा है अभी
एक
डुबकी भीतर लगे तो लगेगा यूं, जैसे
कि प्यारे ने बांहों में ले लिया था और अभी-अभी बड़ी देर तक बांहों में भींचकर छोड़ा
है।
जिससे
ध्यान,
जिससे
आनंद, जिससे प्रेम, जिससे सुगंध, सौंदर्य जन्मे, जानना वह धर्म है। धर्म
तुम्हें सुखाने को नहीं है, धर्म
तुम्हें हजार-हजार फूलों को खिलाने का अवसर है। धर्म मधुमास है, पतझड़ नहीं। धर्म आनंद-उत्सव
है। और उसकी याद एक बार बैठ जाए तो फिर मिटती नहीं है। एक बार भीतर का स्वाद आ जाए
तो तुम फिर छोड़ना भी चाहो तो छूटता नहीं है।
नक्शे-खयाल
दिल से मिटाया नहीं हनोज
बेदर्द
मैंने तुझको भुलाया नहीं हनोज
वो सर
जो तेरी राहे-गुजर में था सिज्दारेज
मैंने
किसी कदम पे झुकाया नहीं हनोज
महराबे-जां
में तूने जलाया था खुद जिसे
सीने
का वो चिराग बुझाया नहीं हनोज
बेहोश
होके जल्द तुझे होश आ गया
मैं
बदनसीब होश में आया नहीं हनोज
मरकर
भी आएगी ये सदा कब्रे-"जोश" से--
"बेदर्द! मैंने तुझको भुलाया
नहीं हनोज"
एक बार
उस प्यारे की झलक मिल जाए तो उसे भुलाया ही नहीं जा सकता। मर जाओ, मगर भुलाया नहीं जा सकता।
मरकर
भी आएगी ये सदा कब्रे-"जोश" से--
"बेदर्द! मैंने तुझको भुलाया
नहीं हनोज"
मैंने
तुझे आज तक भुलाया नहीं है।
नक्शे-खयाल
दिल से मिटाया नहीं हनोज
बेदर्द
मैंने तुझको भुलाया नहीं हनोज
और एक
बार जिसे उसका अनुभव हो गया फिर सिर और नहीं झुकता। फिर सब मंदिर-मस्जिद व्यर्थ, फिर सब काबा-कैलास व्यर्थ।
मैंने
किसी कदम पे झुकाया नहीं हनोज
वो सर
जो तेरी राहे-गुजर में था सिज्दारेज
मैंने
किसी कदम पे झुकाया नहीं हनोज
महराबे-जां
में तूने जलाया था खुद जिसे
सीने
का वो चिराग बुझाया नहीं हनोज
धर्म
एक चिराग है जो तुम्हारे भीतर जलने को बैठा है, तैयार है। धर्म एक आत्म-अनुभव है; न शास्त्र से मिलेगा, न सिद्धांत से मिलेगा। इसलिए
मेरा सारा जोर ध्यान पर है। ध्यान का अर्थ है अपने भीतर रुको, ठहरो। अपने भीतर जितनी गहराई
तक जा सको,
जाने
के प्रयास करो। कितनी बार हार जाओ, हराना मत, चेष्टा जारी रखना। द्वार
खटखटाये जाना। एक न एक दिन भीतर का द्वार खुलेगा। और एक क्षण को भी अगर झलक मिल
गयी--बस,
उस
क्षण के बाद तुम्हारा जीवन दूसरा है। फिर तुम पृथ्वी पर हो और पृथ्वी पर नहीं। फिर
तुम संसार में रहोगे और संसार में नहीं क्योंकि परमात्मा तुम्हारे भीतर रहेगा, तुम कहीं भी रहो। तुम्हें
घेरे रहेगा। फिर खिलेंगे हजार-हजार फूल।
प्रेम-रंग-रस
ओढ़ चदरिया!
आज इतना ही।
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