प्रेम-रंग-रस ओढ़ चुंदरिया-(दूल्हन)
दिनांक : 05-फरवरी, सन् 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना।
सारसूत्र:
पिया मिलन कब होइ, अंदेसवा लागि रही।।
जबलग तेल दिया में बाती, सूझ परै सब कोइ।
जरिगा तेल निपटि गइ बाती, लै चलु होइ।।
बिन गुरु मारग कौन बतावै, करिए कौन उपाय।
बिना गुरु के माला फेरै, जनम अकारथ जाए।।
सब संतन मिलि इकमत कीजै, चलिए पिय के देस।
पिया मिलैं तो बड़े भाग से, नहिं तो कठिन कलेस।।
या जग ढूढूं वा जग ढूढूं, पाऊं अपने पास।
सब संतन के चरन-बंदगी, गावै दूलनदास।।
जोगी जोग जुगत नहिं जाना।।
गेरू घोरि रंगे कपरा जोगी, मन न रंगे गुरु-ग्याना।
पढ़ेहु न सत्तनाम दुइ अच्छर, सीखहु सो सकल सयाना।।
सांची प्रीति हृदय बिलु उपजे, कहुं, रीझत भगवाना?
दूलनदास के साईं जगजीवन, मो मन दरस दिवाना।
पिया मिलन कब होइ, अंदेसवा लागि रही
उस परम
प्रिय का मिलना कब होगा, इसकी
कोई भी भविष्य-वाणी नहीं हो सकती। इसके लिए कोई भी आश्वासन नहीं दिया जा सकता।
क्योंकि परमात्मा से मिलन कार्य-कारण के जगत् का हिस्सा नहीं है। पानी को सौ
डिग्री तक गरम करोगे, भाप
बनेगा ही बनेगा;
लेकिन
भक्ति कब भगवान बनती है इसका कोई गणित नहीं है। आग में हाथ डालोगे, जलेगा ही जलेगा; लेकिन परमात्मा में परवाना कब
जलता है,
कौन
घड़ी, कौन शुभ-घड़ी, इसके लिए कोई सुनिश्चित
वक्तव्य नहीं दिया जा सकता।
परमात्मा
जब भी घटता है,
अनायास
घटता है। एक क्षण पहले भी पता नहीं होता। एक क्षण पहले अंधेरी रात और एक क्षण बाद
प्रकाशोज्ज्वल प्रभात! भरोसा ही नहीं आता कि इतनी अंधेरी रात से और ऐसी
प्रकाशोज्ज्वल सुबह का जन्म होगा; कि ऐसे
अंधियारी से ऐसा उजियाला जन्मेगा! एक क्षण पहले जो कांटा था, एक क्षण बाद फूल हो जाता है।
आंखें विस्मय-विमुग्ध रह जाती हैं! एक क्षण को भरोसा ही नहीं आता। लगता है कोई
सपना देखा है।
पहली
बार जब भी परमात्मा का अनुभव होता है तो ऐसा ही लगता है जैसे कोई सपना देखा है।
आंखें मीड़-मीड़ कर फिर से देख लेने का मन होता है। आस्था नहीं बैठती कि जिसे पुकारा
था उस तक पुकार पहुंच गई; कि
जिसे आना था वह अतिथि आ गया; कि जिस
मंदिर को खोजते थे उसके द्वार खुल गए।
भरोसा
आए भी तो कैसे आए?
जन्मों-जन्मों
तक सिवाय दुःख के कुछ जाना नहीं। सुख की तो एक बूंद नहीं पड़ी अनुभव में। कांटे ही
कांटे,
कांटे
ही कांटे झोली में भरते रहे। फूल का तो कोई साक्षात्कार कभी हुआ नहीं--और आज अचानक
झोली फूलों से भर गई है! न मालूम किस अज्ञात से उतरी है किरण और अंधेरे को सदा के
लिए काट गई है। ऐसा काट गई है कि फिर अब कभी घिरेगा नहीं। जानी थी अब तक मृत्यु और
आज अमृत के घन घिरे हैं, अमृत
की घनघोर वर्षा हो रही है। भरोसा हो भी तो कैसे हो?
मनुष्य
की बुद्धि के गणित के बाहर है। मनुष्य की बुद्धि सोच सके, विचार सके, विमर्श कर सके, उस सीमा के भीतर नहीं है।
इसलिए जैसे-जैसे भक्त करीब आने लगता है उस परम घड़ी के, वैसे ही उसके हृदय में बड़ी
धुकधुकी हो जाती है। . . .होगा कि नहीं होगा? होगा तो कैसा होगा? और होगा तो कब होगा? हुआ होगा मीरां को और हुआ
होगा चैतन्य को और हुआ होगा दूलनदास को, मुझे होगा? मुझ अभागे को होगा? मुझ सब तरह से अपात्र को होगा? अंदेशे घेरते हैं मन को। बड़े
भय उठते हैं। जब तक हो ही न जाए तब तक अंदेशा उठता ही रहता है।
अंदेशे
का अर्थ संदेह मत समझना। अंदेशे का अर्थ है, भय। अंदेशे से ऐसा मत सोच लेना कि परमात्मा
पर शक होता है कि है या नहीं! नहीं-नहीं! अंदेशे का अर्थ है, अपने पर शक होता है कि मेरी
पात्रता है या नहीं? अपनी
पात्रता पर भरोसा नहीं आता।
और इस
दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। एक--जिन्हें अपनी पात्रता का इतना भरोसा है कि
परमात्मा के होने पर भरोसा नहीं आता। और दूसरे--जिन्हें परमात्मा के होने का इतना
भरोसा है कि अपनी पात्रता पर भरोसा नहीं आता। बस, इन्हीं दो कोटियों में संसार
विभक्त है।
और तुम
सोच लेना,
अपने
पर इतना भरोसा कि परमात्मा पर संदेह करने की तुम जुर्रत जुड़ा लो तो सदा-सदा के लिए
चूक जाओगे। तुम्हारे जीवन में सुबह कभी होगी ही नहीं। तुम्हारी रात की फिर कोई
सुबह नहीं है क्योंकि तुमने रात पर भरोसा कर लिया। जिस पर भरोसा कर लिया वही सुदृढ़
हो जाता है। जिस पर भरोसा कर लिया वही सत्य हो जाता है। जिसमें भरोसा डाल दिया
उसमें श्वास डाल दी।
अपने
पर इतना भरोसा किए हैं लोग इसलिए नास्तिक हैं। आस्तिक कौन है? परमात्मा पर इतना भरोसा है कि
अपने पर भरोसा नहीं आता कि मैं भी हो सकता हूं? कि मेरे होने में भी कोई अर्थ हो सकता है? कि मेरे जीवन में भी कोई
अभिप्राय होगा?
कि
मेरे कारण भी इस जगत् का कोई काम सधता होगा? कि मेरी भी यहां कोई जरूरत है? कि मैं भी आवश्यक हो सकता हूं? और क्या मैं इतना आवश्यक हो
सकता हूं कि परमात्मा एक दिन अपनी झलक मुझे दे, उसका दरस-परस हो? धन्यभागी है वह जिसे परमात्मा
पर इतना भरोसा है कि सिवाय अपनी अपात्रता के उसे और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। ऐसा
ही धन्यभागी उसे पाता है।
मगर
स्वभावतः भक्त को निरंतर अंदेशा लगा रहता है। भक्त कंपता ही रहता है भय से। लाख
उपाय करे,
पूजा
करे, पाठ करे, प्रार्थना करे लेकिन एक बात
भीतर उसे लगती ही रहती है, मेरी
पूजा क्या! मेरी ही पूजा है, मैं ही
क्या हूं,
तो
मेरी पूजा का क्या मूल्य! ये मेरे ही तो हाथ हैं, इनमें आरती भी सजा लूं तो उस
आरती का क्या अर्थ है? मेरे
ही हाथों की आरती मुझसे ज्यादा मूल्यवान नहीं हो सकती। ये मेरे ही शब्द हैं, इनसे प्रार्थना बना लूं तो भी
इन शब्दों पर मेरी छाप रहेगी। ये मेरे ही तो पैर हैं, नाचूं तो नाच लूं; और मेरे ही स्वर हैं, गीत चाहूं तो गीत गा लूं, मगर सब मेरा है। और मैं हूं
अपात्र। मेरा होना न होने जैसा है। क्या परमात्मा मुझ पर भी अनुकंपा करेगा? ऐसा अंदेशा उठता है।
पिया
मिलन कब होइ,
अंदेसवा
लागि रही
और
अंदेशा उठता है कि अगर अपनी तरफ देखता हूं तो पिया मिलन कभी होगा नहीं। हां, पिया की तरफ देखता हूं तो
होना जरूरी है;
होगा
ही। उसकी अनुकंपा को देखता हूं तो होगा, और मेरी अपात्रता को देखता हूं तो कैसे होगा? इन दो के बीच भक्त की पीड़ा
है। मगर वह पीड़ा भी बड़ी मधुर है।
नास्तिकों
के सुख से भी आस्तिकों का दुःख ज्यादा बहुमूल्य है। क्योंकि नास्तिकों का सुख
छिछला है। आस्तिकों का दुःख भी गहरा है। आस्तिक की पीड़ा की इतनी गहराई है कि उस
पीड़ा में ही खोदते-खोदते तो एक दिन परमात्मा मिलता है।
लेकिन
अंदेशा बहुत लगता है। घड़ी-घड़ी संदेह आता है--अपने पर; याद रखना, भूल मत जाना। प्रश्न-चिह्न लग
जाता है अपने पर बार-बार। अपनी औकात नहीं मालूम होती। लेकिन जिस दिन घड़ी घटती है
उस दिन पता चलता है सब अंदेशे व्यर्थ थे। मुझे अपनी औकात ही पता न थी। मेरी औकात
उतनी ही है जितनी उसकी। क्योंकि मैं वही हूं। तत्वमसि! मैं बूंद जैसा लगता था
लेकिन सागर मुझमें समाया था, छिपा
था। मैं लगता था देह में आबद्ध, देह से
मुक्त था। लगता था सीमा में, असीम
ही मेरा आंगन था।
बीन भी
हूं मैं तुम्हारी रागिनी भी हूं!
नींद
थी मेरी अचल निस्पंद कण-कण में;
प्रथम
जागृति थी जगत के प्रथम स्पंदन में;
प्रलय
में मेरा पता पदचिह्न जीवन में,
शाप भी
हूं जो बन गया वरदान बंधन में,
कूल भी
हूं कूलहीन प्रवाहिनी भी हूं!
नयन
में जिसके जलद वह तृषित चातक हूं,
शलभ
जिसके प्राण में वह निठुर दीपक हूं;
फूल को
उर में छिपाए विकल बुलबुल हूं,
एक हो
कर दूर तन से छांह वह चल हूं;
दूर
तुम से हूं अखंड सुहागिनी भी हूं!
आग हूं
जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के,
शून्य
हूं जिसको बिछे हैं, पांवड़े
पल के;
पुलक
हूं वह जो पला है कठिन प्रस्तर में,
हूं
वही प्रतिबिंब जो आधार के उर में,
नील-घन
भी हूं सुनहली दामिनी भी हूं!
नाश भी
हूं मैं अनंत विकास का क्रम भी,
त्याग
का दिन भी चरम आसक्ति का तम भी;
तार भी
आघात भी झंकार की गति भी
पात्र
भी मधु भी मधुप भी मधुर विस्मृति भी;
अधर भी
हूं और स्मित की चांदनी भी हूं!
जानकर
तो पता चलता है,
जानकर
तो अनुभव होता है--
बीन भी
हूं मैं तुम्हारी रागिनी भी हूं!
कूल भी
हूं कूलहीन प्रवाहिनी भी हूं!
दूर
तुमसे हूं अखंड सुहागिनी भी हूं!
नील-घन
भी हूं सुनहली दामिनी भी हूं!
नाश भी
हूं मैं अनंत विकास का क्रम भी,
त्याग
का दिन भी चरम आसक्ति का तम भीः
तार भी
आघात भी झंकार की गति भी
पात्र
भी मधु भी मधुप भी मधुर विस्मृत भी;
अधर भी
हूं और स्मित की चांदनी भी हूं!
लेकिन
ऐसा तो जानकर जाना जाता है। तब तो बूंद सागर मालूम होती है; तब तो अंधेरा प्रकाश मालूम
होता है;
तब तो
मृत्यु भी शाश्वत जीवन मालूम होती है। फिर तो भेद गिर जाते हैं। लेकिन जब तक भेद न
गिरे हों तब तक बड़ा अंदेशा उठता है। ठीक कहते हैं दूलनदास--
पिया
मिलन कब होइ,
अंदेसवा
लागि रही
बहुत
भयभीत हूं,
बहुत
अंदेशों से घिरा हूं, बहुत
हताश मालूम होता हूं। अपने पर देखता हूं तो एक बात निश्चित है कि पहुंचना नहीं
होगा, मंजिल बहुत दूर है। हां, लेकिन इस हताशा में भी एक
निराशा के पार से उतरती किरण है। उसकी अनुकंपा को देखता हूं तो लगता है, अब हुआ, अब हुआ। हुआ ही है। यह हुआ!
शायद एक पल की प्रतीक्षा और, या कि
एक पल की भी प्रतीक्षा की जरूरत नहीं है। होने ही चला! भक्त इन दो अनंत दूरियों के
बीच तना होता है। यही विरह की अवस्था है।
स्पंदन
हो यदि तुम जीवन का, मैं
हूं जीर्ण-शरीर।
मैं
हूं जो सूखी-सी सरिता, तुम हो
शीतल-नीर।
बिना
तुम्हारे मेरा जीवन,
एक
मरुस्थल-सा है निर्जन,
ताल-हीन
हो जैसे नर्तन,
मैं
हूं बुझते दिल की धड़कन, तुम हो
उसकी आस!
मेरे
उर में बस जाओ तुम, बनकर
उर की प्यास!
सिर से
पैरों तक जादू तुम, मैं
मोहित अनजान।
तुम हो
रूप-छली,
मैं
हूं सखि,
सरल
प्रेम नादान।
तुम हो
दीपक, मैं परवाना,
मैं
हूं तन्मयता,
तुम
गाना,
तुम
पागलपन,
मैं
दीवाना,
बिना
तुम्हारे जीवन नीरस, सुमन-हीन-मधुमास।
मेरे
उर में बस जाओ तुम, बनकर
उर की प्यास।
निष्ठुर
जग है आंख,
अश्रु
मैं, तुम धरती हो प्राण!
ठुकराया
मैं एक कोर पर,
आ बैठा
अनजान।
अपने
में अब मुझे मिला लो!
अपना
हृदय उदार बिछा लो!
"मुझे' मिटा दो, "मुझे' बना लो!
यह
अभिलाष करो पूरी या कर दो सत्यानास!
मेरे
उर में बस जाओ तुम, बनकर
उर की प्यास!
--पुकारता है, रोता है। अपनी तरफ देखता है
तो रोता है। परमात्मा की अनुकंपा की तरफ देखता है तो नाचता है। इसलिए कभी तुम भक्त
को रोते और हंसते साथ-साथ देखो तो चकित मत होना, पागल मत समझ लेना। ऐसे वह
पागल है,
परमात्मा
का पागल है,
मगर
साधारण पागल नहीं है। उसका पागलपन तुम्हारी बुद्धिमानी से ज्यादा बहुमूल्य है। उसका
पागलपन वरणीय है,
वांछनीय
है, मांगने योग्य है, प्रार्थना योग्य है। उसका
पागलपन यही है कि अपनी तरफ देखता है तो रोता है, उसकी तरफ देखता है तो हंसता
है। अपने तरफ देखता है तो हताश होकर बैठ जाता है, उसकी तरफ देखता है तो फिर उठा
लेता है अपना इकतारा और फिर नाचने लगता है। एक घड़ी रोना, एक घड़ी हंसना; यह भक्त की विरह की अवस्था
है।
स्पंदन
हो यदि तुम जीवन का, मैं
हूं जीर्ण-शरीर।
मैं
हूं जो सूखी-सी सरिता, तुम हो
शीतल नीर।
बिना
तुम्हारे मेरा जीवन,
एक
मरुस्थल-सा है निर्जन,
ताल-हीन
हो जैसे नर्तन,
मैं
हूं बुझते दिल की धड़कन, तुम हो
उसकी आस!
मेरे
उर में बस जाओ तुम, बनकर
उर की प्यास!
पुकारता
है, आओ! पुकारता है, आओ! दिन-रात पुकारता है कि
आओ। बोले या न बोले, कहे या
न कहे,
भीतर
अहर्निश पुकार उठती रहती है।
सिर से
पैरों तक जादू तुम, मैं
मोहित अनजान।
तुम हो
रूप-छली,
मैं
हूं सखि,
सरल
प्रेम नादान।
तुम हो
दीपक, मैं परवाना,
मैं
हूं तन्मयता,
तुम
गाना,
तुम
पागलपन,
मैं
दीवाना
बिना
तुम्हारे जीवन नीरस, सुमन-हीन-मधुमास।
मेरे
उर में बस जाओ तुम, बनकर
उर की प्यास!
भक्त
की और भावना क्या है कि परमात्मा उसके हृदय में अतिथि बने; कि भक्त को आतिथेय होने का
मौका मिले। मेहमान बने प्रभु, कि
भत्त मेजबान बने।
निष्ठुर
जग है आंख,
अश्रु
मैं, तुम धरती हो प्राण!
ठुकराया
मैं एक कोर पर,
आ बैठा
अनजान।
अपना
हृदय उदार बिछा लो!
अपने
में अब मुझे मिला लो!
"मुझे' मिटा दो, "मुझे' बना लो!
यह
अभिलाष करो पूरी,
या कर
दो सत्यानास!
मेरे
उर में बस जाओ तुम, बनकर
उर की प्यास!
"मुझे' मिटा दो, "मुझे' बना लो-- ये दोनों बातें एक
साथ घटती हैं। यही भक्ति का शास्त्र है। यही भक्ति का विरोधाभास भी। ये दोनों
बातें एक साथ घटती हैं--मुझे मिटा दो, मुझे बना लो! एक तरफ तो भक्त मिटे तो भगवान
हो सकता है,
लेकिन
भगवान हो तो भक्त हो जाए। जब बीज टूटता है तो वृक्ष होता है। और जब सरिता सागर में
गिरती है तो सरिता तो खो जाती है मगर सागर हो जाती है। भक्ति के लिए साहस चाहिए
मिटने का।
तुमने
बार-बार सुनी है यह बात, तुम्हारे
तथाकथित साधु-संत रोज-रोज दोहराते हैं यह बात कि कलियुग में भक्ति ही एकमात्र उपाय
होगा क्योंकि भक्ति बहुत सरल है। झूठी है यह बात, गलत है यह बात। भक्ति सरल
नहीं है,
भक्ति
से कठिन और कुछ भी नहीं। अपने को मिटाना, इससे कठिन और क्या होगा? तथाकथित ज्ञान सरल है क्योंकि
अहंकार को मिटना नहीं पड़ता बल्कि अहंकार और सज जाता है, और शास्त्रों की सजावट बैठ
जाती है। गीता,
कुरान, बाइबिल, वेद, उपनिषद इन सब पर और अहंकार
सिंहासन बना लेता है। इनकी गद्दी बना लेता है और ज्ञानी हो जाता है।
तपश्चर्या
कठिन नहीं है क्योंकि तपश्चर्या अहंकार के अनुकूल है। जितनी तपश्चर्या करोगे, अहंकार पर उतनी धार आ जाती
है। उतना ही अहंकार प्रज्ज्वलित हो उठता है। उतना ही लगता है, मैं विशिष्ट, मैं खास। उतना ही लगता है, मैं पात्र। उतना ही लगता है
कि परमात्मा को मुझको मिलना ही चाहिए, न मिलता हो तो अन्याय हो रहा है। जितना तुम
तपश्चर्या करोगे उतना ही तुम्हारे भीतर यह पत्थर की तरह भाव मजबूत होने लगेगा कि
अब मुझे मिलना ही चाहिए। और क्या करने को बचा है? इतने उपवास किए, इतने व्रत किए, इतने आसन-व्यायाम किए, इतने प्राणायाम! इतना सब कर
चुका हूं--शरीर को सुखाकर कांटा बना लिया, पेट पीठ से लग गया है, मांस-मज्जा जल गई है, कांटे की तरह रह गया हूं, अब और क्या चाहिए?
तपस्वी
के मन में स्वभावतः यह बात उठती है कि अब और क्या चाहते हो, अब और क्या मर्जी है, अब और क्या अपेक्षा है? उसे अहंकार जन्मता है, पात्रता का भाव जन्मता है कि
मैंने शुभ ही शुभ किया, कोई
पाप नहीं किया। पैर भी पूंक-पूंक कर रखता हूं कि कोई चींटी न मर जाए। रात पानी
नहीं पीता कि कोई हिंसा न हो जाए। एक ही बार भोजन करता हूं, शुद्ध भोजन करता हूं। सब तो
मैंने पूरा कर दिया जो तुमने चाहा हो। तुमने जो चाहा हो उससे ज्यादा पूरा कर दिया।
अब और इतनी देर क्यों है? तथाकथित
तपस्वी के भीतर एक शिकायत होती है कि बहुत देर हुई जा रही है, अन्याय हुआ जा रहा है। तुम हो
भी या नहीं?
कहीं
ऐसा तो नहीं है कि मैं व्यर्थ ही श्रम कर रहा हूं और तुम हो ही न!
मैं
तुमसे कहता हूं तपश्चर्या सरल है, हमेशा
सरल है। और तथाकथित ज्ञान भी सरल है और तुम्हारा तथाकथित कर्मयोग भी सरल है। अगर
दुनिया में कोई सबसे कठिन बात है तो प्रेम। और भक्ति प्रेम की पराकाष्ठा है। क्यों
कहता हूं प्रेम को कठिन बात? इसलिए
कहता हूं कि प्रेम में मरना होता है।
तुम हो
दीपक, मैं परवाना,
मैं
हूं तन्मयता,
तुम
गाना,
तुम
पागलपन,
मैं
दीवाना
बिना
तुम्हारे जीवन नीरस, सुमन-हीन-मधुमास
मेरे
उर में बस जाओ तुम, बन कर
उर की प्यास!
अपना
हृदय उदार बिछा लो!
अपने
में अब मुझे मिला लो!
"मुझे' मिटा दो, "मुझे' बना लो!
इसलिए
कठिन है भक्ति। लेकिन लोगों ने भक्ति से मतलब समझा है, बैठ गए सुबह, थोड़ी माला फेर ली; कि कभी सत्यनारायण की कथा करा
ली; कि कभी चले गए मंदिर में, पूजा चढ़ा आए; कि कभी चार ब्राह्मणों को
भोजन करा दिया;
कि
कन्याओं को भोजन करा दिया; कि घर
में कृष्ण की एक प्रतिमा रख ली, सावन
के महीने में झूला झुला दिया। तुम किसको धोखा दे रहो हो? किसको झूला झुला रहे हो?
भक्ति
इतनी आसान नहीं है। तुम्हें मौत में झूलना पड़ेगा। तुम्हें अपने को मिटाने का साहस
जुटाना पड़ेगा। तुम मिटोगे तो ही हो सकोगे। इधर तुम गए, उधर परमात्मा आया। इधर तुम
शून्य हुए,
उधर परमात्मा
की पूर्णता तुममें अवतरित हुई।
पिया
मिलन कब होइ,
अंदेसवा
लागि रही
डरता
हूं, कंपता हूं, कहते दूलनदास, भयभीत होता हूं। हजार-हजार
अंदेशे उठ रहे हैं। कब होगा पिया का मिलन? मेरी पात्रता तो नहीं है, फिर भी आशा कर रहा हूं।
त्यागी
दावा करता है,
भक्त
आशा करता है। त्यागी सौदा करता है, भक्त अर्पण करता है। त्यागी कहता है कि
तुम्हारी शर्ते पूरी कर दीं, अब अगर
न मिलो तो अन्याय है। भक्त कहता है, तुम्हारी शर्ते मैं कभी पूरी कर ही नहीं
पाऊंगा। तुम्हारी शर्ते मुझसे पूरी होने वाली ही नहीं हैं। यह मेरी पात्रता ही
नहीं है। तुम मिलो तो करुणा से मिलो। तुम मिलो, तुम्हारी अनुकंपा से मिलो। तुम रहीम हो, रहमान हो। तुम मिलो करुणा से
तो ही मिलना हो सकता है। मुझ पर मुझे भरोसा नहीं है। मेरे किए कुछ भी न होगा। मेरे
किए ही तो सब अनकिया हो गया है।
और जिस
दिन ऐसा भाव उठता है भक्त को कि मेरे किए कुछ भी न होगा, उस दिन कुछ होना शुरू होता
है। उस दिन पहला फूल खिलता है वसंत का। उस दिन पहली हवा का झोंका आता है अनंत से।
उस दिन मलय-बयार बहती है। उस दिन पहली बार भक्त को अनुभव लगता है, अंगीकृत हुआ। क्योंकि उसके
द्वारा अंगीकृत होने की एक ही शर्त है कि तुम्हारे भीतर कोई अस्मिता न हो। अस्मिता
गई कि क्रांति घटी।
किस
स्नेह-परस ने छेड़ दिया
निष्प्राण
पड़ी-सी वीणा को?
चिर
श्रांत,
थकित, चिर मौन और
चिर
एकाकिनि,
चिर
क्षीणा को?
तुम
समर्पित होओ। तुम सिर झुकाओ। तुम उसकी अनुकंपा पर भरोसा करो। जिसने जीवन दिया है
वही परम जीवन भी देगा। न तो जीवन तुमने कमाया है और न परम जीवन तुम कमा सकते हो।
कमाने की बात ही भ्रांत है। कमाने की बात में ही धोखा है। कमाने की बात में ही
अहंकार के लिए आड़ मिल गई, बचने
का उपाय मिल गया।
किस
स्नेह-परस ने छेड़ दिया
निष्प्राण
पड़ी-सी वीणा को?
चिर
श्रांत,
थकित, चिर मौन और
चिर
एकाकिनि,
चिर
क्षीणा को?
जिसके
ढीले-से मौन तार,
झंकृत
हो गाना भूल गए
मन को, मस्तक को, नस-नस को,
पल में
सिहराना भूल गए।
जिसका
मन शिथिल,
पड़े
जिसकी
वाणी
पर थे चुप के ताले।
जिसके
तन पर अगनित जाले,
दुःख
की मकड़ी ने बुन डाले।
किस
स्नेह-परस ने छेड़ दिया?
सब तार
तने, झंकार उठी।
ज्यों
अंधकार में रजनी के,
हो
ज्योत्स्ना की दीवार उठी।
किस
स्नेह-परस ने छेड़ दिया?
गानों
के सागर फूट पड़े।
संगीत
भरे नभ से तारे
तानों
के अगनित टूट पड़े।
ध्वनि
के खग उड़-उड़ फैल गए,
औ"
दशों दिशाएं जाग उठीं।
अंबर
की सोई सी स्मृतियां
सुन कर
यह अभिनव राग उठीं।
झुको!
समग्ररूपेण झुको और तुम भी पाओगे--
किस
स्नेह-परस ने छेड़ दिया?
सब तार
तने, झंकार उठी।
ज्यों
अंधकार में रजनी के,
हो
ज्योत्स्ना की दीवार उठी।
किस स्नेह-परस
ने छेड़ दिया?
गानों
के सागर फूट पड़े।
संगीत
भरे नभ से तारे
तानों
के अगणित टूट पड़े।
तुम पर
वर्षा हो सकती है,
लेकिन
तुम अपने से इतने भरे हो कि परमात्मा चाहे भी तो तुम्हारे भीतर जगह नहीं है। तुम
अपने से अपने को खाली करो, रिक्त
करो। भक्ति का इतना ही अर्थ है कि भत्त अपने से अपने को रिक्त कर ले, खाली कर ले, शून्य हो जाए, ना कुछ हो जाए। कह सके, मैं नहीं हूं। बस, जिस क्षण तुम समग्र मन प्राण
से कह सकोगे,
"मैं
नहीं हूं'
उसी
क्षण परमात्मा है।
लोग
मुझसे पूछते हैं,
परमात्मा
कहां है?
वे
परमात्मा को पहले देख लेना चाहते हैं। ऐसे ही जैसे कोई बंद आंख वाला आदमी कहे कि
पहले सूरज को देखूंगा तब आंख खोलूंगा। आंख क्यों खोलूं?पहले भरोसा आ जाना चाहिए कि
सूरज है तो आंख खोलूंगा। आंख खोलने का कष्ट क्यों लूं?
वह भी
ठीक कह रहा है। ऐसे तर्क की बात कह रहा है कि सूरज हो तो आंख खोलूं। मंजिल हो तो
चार कदम चलूं। लेकिन सूरज पहले मेरे अनुभव में आ जाए तो आंख खोलूंगा। तब तो बड़ी
कठिनाई हो गई। तर्क तो ठीक है मगर जीवन विरोध से भरा है। आंख बिना खोले सूरज का
अनुभव नहीं होगा। और वह आदमी कह रहा है, जब तक सूरज का अनुभव न हो, आंख न खोलूंगा। तो फिर अनुभव
कभी नहीं होगा क्योंकि आंख कभी खोली ही न जा सकेगी।
लोग
पूछते हैं ईश्वर कहां है?. . .गलत प्रश्न पूछा। पूछना चाहिए कि कौन-सी चीज ईश्वर के देखने में
बाधा बन रही है?
कौन-सा
पर्दा मेरी आंख पर है? कौन-सी
चट्टान मेरी छाती पर है? मेरी
प्रार्थना क्यों नहीं बह रही? लोग
पूछते हैं,
परमात्मा
कहां है। लोगों को पूछना चाहिए, प्रार्थना
कैसे हो?
लोगों
को पूछना चाहिए,
मेरा
हृदय उसकी प्यास से कैसे भरे? मेरे
भीतर भक्ति का कैसे उदय हो? लोग
पूछते हैं,
भगवान
कहां है?
लोग
कहते हैं,
भगवान
हो तो हम भक्ति करेंगे।
और मैं
तुमसे यह कह रहा हूं और यही भक्तों ने सदा कहा है, तुम भक्त हो जाओ तो भगवान अभी
है। भक्ति की शर्त पहले पूरी करनी होती है। मगर भत्ति की शर्त आसान नहीं है, माला फेर लेने की नहीं है, चंदन-मंदन लगा लेने की नहीं
है, घंटी बजाकर किसी पत्थर की
मूर्ति के सामने पूजा कर देने की नहीं है, कृष्ण को खूब रेशमी वस्त्र पहनाकर और दो फूल
चढ़ा देने की नहीं है। भक्ति में तो सिर्फ एक ही बात चढ़ायी जाती है ः अस्मिता, अहंकार; मैं हूं, यह भाव। और जिसने इस मैं को
चढ़ा दिया उसे तत्क्षण दरस हो जाता है, तत्क्षण परस हो जाता है।
पिया
मिलन कब होइ,
अंदेसवा
लागि रही
जबलग
तेल दिया में बाती, सूझ
परै सब कोइ
दूलनदास
कहते हैं,
जरा
संभल कर चलना,
होशियारी
से चलना क्योंकि यह जिसको तुमने जिंदगी समझा है, यह बड़े जल्दी चुक जाएगी; जैसे सांझ जलाया दीया सुबह
चुक जाता है,
तेल
चुक जाता है,
बाती
बुझ जाती है।
जबलग तेल
दिया में बाती,
सूझ
परै सब कोइ
यह तुम
जिस मिट्टी के दीए पर भरोसा किए बैठे हो और यह जो मिट्टी में चल रही जीवन की
थोड़ी-सी धारा है,
यह
जल्दी ही क्षीण हो जाएगी। यह तेल भी चुकेगा, यह बाती भी चुकेगी, फिर कुछ भी सूझ न पड़ेगा। मौत
जब द्वार पर दस्तक देगी, कुछ भी
सूझ न पड़ेगा। जिंदगी में ही नहीं सूझा तो मौत में क्या खाक सूझेगा! जीते-जी नहीं
सूझा तो मरते क्षण में कैसे सूझेगा?
और
बेईमानों ने तुम्हें समझाया है कि मरते समय नाम ले लेना राम का, सब हो जाएगा। जिंदगी भर रावण
की सेवा करना,
मरते
वक्त राम का नाम ले लेना। जिंदगी भर अंधेरे को बटोरना, मरते वक्त प्रकाश को पुकार
लेना। यह होगा कैसे? जिसने
जिंदगी भर अंधेरा बटोरा वह मरते वक्त भी अंधेरे पर ही गठरी बांधे बैठा रहेगा। और
जोर से बांध लेगा और मुट्ठियां कस लेगा और गठरी को छाती से लगा लेगा कि अब छूट न
जाए; अब छूटी, तब छूटी। यह मौत आने लगी।
जिसने
अंधेरे से ही आसक्ति बनाई वह प्रकाश को पुकारना भी कैसे चाहेगा? चाहे भी तो भी पुकार कैसे
सकेगा?
उसके
ओंठों पर प्रकाश शब्द ही न बनेगा। राम शब्द भी दोहराना चाहेगा तो जबान काम दे
जाएगी,
नहीं
काम आएगी;
लड़खड़ा
जाएगी;
राम
नहीं उठेगा। जो तुम्हारे भीतर जीवनभर बहा है वही मृत्यु में भी तुम्हारे बाहर
प्रकट हो सकता है। जो तुम्हारी जीवनभर की संपदा है वही मृत्यु में तुम्हारी संपदा
बनेगी।
जबलग
तेल दिया में बाती, सूझ
परै सब कोइ
दूलन
कहते हैं ,
सब
दिखायी पड़ रहा है क्योंकि अभी भीतर जीवन की बाती जल रही है, जीवन का तेल जल रहा है, मगर जल्दी ही यह बुझ जाएगा।
यह शाश्वत प्रकाश नहीं है। इस प्रकाश का उपयोग कर लो शाश्वत प्रकाश को खोजने में।
हाथ में दीया मिला है, सत्तर
साल जलेगा समझो,
इस
सत्तर साल में इस छोटे-से दीए का हाथ में उपयोग करके अंधेरे में तलाश कर लो उस
द्वार की,
जिससे
शाश्वत प्रकाश में प्रवेश हो जाए। "तमसो मा ज्योतिर्गमय।' पुकारो परमात्मा को कि मुझे
ले चलो अंधेरे से प्रकाश की ओर। इस छोटी-सी जीवन की क्षमता का उपयोग कर लो। इसकी
सीढ़ी बना लो। यह मंजिल नहीं है, सीढ़ी
पर ही मत बैठ जाना अन्यथा बहुत रोओगे, बहुत पछताओगे।
जबलग
तेल दिया में बाती, सूझ
परै सब कोइ
जरिगा
तेल निपटि गइ बाती, लै चलु
लै चलु होइ
इधर
तेल समाप्त हुआ,
उधर
बाती बुझी। जिनको तुमने अपना समझा था वे ही कहेंगे अब जल्दी ले चलो, अब जल्दी ले चलो। बंधने लगी
अर्थी। चले मरघट की तरफ। और पड़ा रह गया सब ठाठ। और पड़ा रह गया सब आयोजन जो जीवनभर
किया--धन भी,
पद भी, प्रतिष्ठा भी। जिस पर सब
गंवाया उसमें से कुछ भी साथ नहीं जा रहा है। ज़रा लोगों को मरते हुए देखते हो? उससे खुद को चेताते हो या
नहीं चेताते?
मौत
तुम पर चोट करती है या नहीं करती?
जरिगा
तेल निपटि गइ बाती, लै चलु
लै चलु होइ
बिन
गुरु मारग कौन बतावै, करिए
कौन उपाय
अगर
थोड़ा होश हो,
अगर
थोड़ी समझ हो,
अगर यह
जिंदगी की थोड़ी-सी रोशनी जो परमात्मा ने तुम्हें दी है जन्म के साथ और मौत में छिन
जाएगी,
इसका
उपयोग करना हो तो शाश्वत की तलाश में करो, सत्य की तलाश में करो। ऐसे मंदिर की तलाश
में करो जो गिरेगा नहीं। मगर कैसे यह होगा?
बिन
गुरु मारग कौन बतावै
कौन
बताएगा रास्ता?
जिसने
रास्ता देखा हो वही बताएगा। जो चला हो वही बताएगा। जो पहुंचा हो वही बताएगा। लेकिन
तुम पंडितों से पूछते हो, सद्गुरुओं
से नहीं। पंडित तो वहीं है जहां तुम हो। पंडित में और तुममें ज़रा भी भेद नहीं है।
पंडित की और तुम्हारी दृष्टि में क्या अंतर है? हां, सूचनाओं में भेद है। तुम थोड़ा कम जानते हो, वह थोड़ा ज्यादा जानता है।
लेकिन यह भेद तो परिमाण का है, मात्रा
का है,
गुण का
नहीं है। यह भी हो सकता है कि तुम बुद्ध से ज्यादा जानते होओ, तो भी तुम बुद्ध से ज्यादा
नहीं हो जाओगे।
बुद्ध
के समय में भी बड़े-बड़े पंडित थे जो बुद्ध से बहुत ज्यादा जानते थे। लेकिन बहुत
ज्यादा जानना एक बात है और जानना बिल्कुल दूसरी बात है। बुद्ध का साक्षात्कार हो
गया है प्रकाश से,
शाश्वत
प्रकाश से। और उन पंडितों ने अभी शाश्वत प्रकाश के संबंध में जो बातें कहीं हैं, कहीं गई हैं, लिखी गई हैं उन्हीं को
संगृहीत किया है।
सारिपुत्र
आया बुद्ध के दर्शन को। सारिपुत्र बड़ा पंडित था। बहुत संभावना है कि बुद्ध से
ज्यादा सूचनाओं का ढेर था उसके पास। बुद्ध एक तो क्षत्रिय थे, तो शास्त्र पढ़ने में कोई समय
ज्यादा गंवाया भी नहीं था। बचपन तो युद्ध की कला सीखने में बीता। धनुर्विद्या को
जानते थे। फिर पिता ने ऐसी व्यवस्था कर दी थी कि भोग-विलास में डूबे रहें। क्योंकि
ज्योतिषियों ने कहा था, अगर
भोग-विलास में न डुबाए रखा तो यह व्यक्ति संन्यासी हो जाएगा। तो कुछ समय बीता होगा
सैनिकी शिक्षण में, कुछ
समय बीता भोग-विलास में। उन्तीस वर्ष के थे तब घर से निकल गए। शास्त्र पढ़ने का
मौका भी नहीं आया,
अवसर
भी नहीं था। क्षत्रिय का वह धर्म भी नहीं था।
सारिपुत्र
ब्राह्मण था,
ब्राह्मण
पुत्र था,
एक
महापंडित का बेटा था, बड़ा
प्रतिभाशाली था। उसके पांच सौ शिष्य थे। उसका बड़ा गुरुकुल था। वह दूर-दूर तक विवाद
करने और शास्त्रार्थ करने जाता था। उसने न मालूम कितने पंडितों को हराया था। फिर
यह होना ही था कि खबरें आने लगीं कि जब तक बुद्ध को न हराओगे, इन जीतों में कुछ सार नहीं
है। हराना हो तो बुद्ध को हराओ। तो बुद्ध को हराने आया था। अपने पांच सौ शिष्यों
को लेकर बड़ी अकड़ से आकर खड़ा हो गया। लेकिन बुद्ध को देखा और ऐसे पिघल गया जैसे
सुबह की रोशनी में ओस की बूंद उड़ जाए; कि तेज धूप में मोम पिघल जाए। बुद्ध को
देखता ही रहा खड़ा थोड़ी देर।
उसके
शिष्य तो थोड़े विचलित भी हुए। ऐसी दशा कभी नहीं देखी थी अपने गुरु की। जहां भी गया
था, अकड़ से गया था, दुंदुभी बजाता गया था। जहां
भी गया था जीतकर लौटा था, विजय
की पताकाएं फहराता लौटा था। यह बुद्ध के सामने कैसा खड़ा रह गया है
किंकर्तव्यविमूढ़! और फिर जब शिष्यों ने देखा कि सारिपुत्र झुक गया बुद्ध के चरणों
पर और आंसुओं की झड़ी लगी है तो उनको भरोसा ही नहीं आया। उन्होंने पूछा सारिपुत्र
को, आपको क्या हो गया है?
सारिपुत्र
ने कहाः मैं सिर्फ सूचनाएं जानता हूं; सत्य का मुझे कोई अनुभव नहीं है। सूचनाएं
शायद इस व्यक्ति से मेरे पास ज्यादा हैं। चारों वेदों का मैं ज्ञाता हूं लेकिन सब
फीका पड़ गया। इस आदमी को वह स्रोत पता है जहां से चारों वेद पैदा हुए। यह आदमी मूल
स्रोत पर खड़ा है। आज विवाद नहीं होगा। विवाद गया! आज समर्पित होता हूं।
निर्अहंकारी
रहा होगा सारिपुत्र। पंडित और निर्अहंकारी बड़ी मुश्किल से होता है। लेकिन उसके
जीवन में क्रांति हो गई। बुद्ध के पास बैठकर क्या सीखा उसने? जो भी बुद्ध बता सकते थे वह
सब जानता था,
मगर एक
भेद था। अंधा आदमी भी प्रकाश के संबंध में सब जान सकता है मगर एक भेद हैः आंखवाला
प्रकाश को जानता है, अंधा
आदमी प्रकाश के संबंध में जानता है।
बहरा
भी संगीत के संबंध में बड़ा ज्ञानी होता है। संगीत भी तो लिखा जाता है न! संगीत की
भी लिपि होती है न! बहरा लिपि पढ़ सकता है लेकिन तुम फर्क समझते हो? रविशंकर की वीणा बजती हो, सितार बजता हो--इसका अनुभव, इसके साथ-साथ नाच उठा, तुम्हारा हृदय, इसके साथ मंत्रमुग्धता! और
फिर किसी बहरे ने कागज पर लिखी गई संगीत की लिपि को पढ़ा हो--इसी संगीत की लिपि को
जिसे सुनकर तुम मयूर जैसे मत्त हो उठे थे, क्या तुम सोचते हो दोनों एक ही बात है? क्या बहरे को कुछ भी पता
चलेगा ध्वनि का आनंद? क्या संगीत
का कोई भी स्वाद आएगा? लिखे
हुए संगीत को पढ़कर? बस, वैसा ही सारिपुत्र था। वैसे
ही सारे पंडित हैं।
मगर
सारिपुत्र सौभाग्यशाली पंडित था कि चला गया, एक बुद्ध के चरणों में झुक गया। सौ में
निन्यानबे पंडित इतने सौभाग्यशाली नहीं होते। वे अपने अहंकार की पूजा में ही लगे
रहते हैं। वे अपने विवाद में ही संलग्न रहते हैं, शब्दों के युद्धों में उलझे
रहते हैं।
बिन
गुरु मारग कौन बतावै, करिए
कौन उपाय
दूलनदास
कहते हैं,
अगर यह
बात समझ में आ जाए कि जिंदगी हाथ से जा चुकी जा रही है, यह तेल जला जा रहा है, यह बाती बुझी जा रही है, जल्दी ही घड़ी आ जाएगी, अंधकार छा जाएगा। फिर किए कुछ
भी न हो सकेगा,
फिर
लोग अर्थी पर बांधकर ले चलेंगे। उसके पहले किसी ऐसे व्यक्ति का सत्संग खोज लो, किसी ऐसे व्यक्ति के चरणों
में झुक जाओ,
किसी
ऐसे व्यक्ति से हृदय का नाता जोड़ लो, किसी ऐसे व्यक्ति के साथ आत्मसात हो जाओ
जिसने जाना हो;
जिसकी
सुवास तुम्हें भी पकड़ ले; जिसकी
सुंगध तुम्हें भी मत्त कर दे। किसी ऐसे व्यक्ति की सुराही से तुम भी पी लो जिसने
पिया हो और जो भर गया हो।
जब तक
सत्संग की शराब न पियोगे तब तक कोई मार्ग मिल नहीं सकता। शास्त्रों से नहीं मिलता
मार्ग,
सद्गुरुओं
से मिलता है। सत्संग की शराब पीकर ही कोई भक्ति को उपलब्ध होता है। वहीं तुम
सीखोगे मंदिर का दीप कैसे बनना! मंदिर में दीए तो तुमने जलाए हैं, उससे कुछ भी न होगा। मंदिर के
दीए कैसे बनोगे?
यह
मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो!
रजत-शंख-घड़ियाल
स्वर्ण-वंशी-वीणा-स्वर,
गए
आरती-वेला को शत-शत लय से भर;
जब था
कलकंठों का मेला,
विहंसे
उपल तिमिर था खेला,
अब
मंदिर में इष्ट अकेला,
इसे
अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!
यह
मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो!
चरणों
से चिह्नित अलिन्द की भूमि सुनहली,
प्रणत
शिरों के अंक लिए चंदन की दहली,
झरे
सुमन बिखरे अक्षत सित,
धूप-अर्घ्य-नैवेद्य
अपरिमित,
तम में
सब होंगे अंतर्हित,
सब की
अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो!
यह
मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो!
पल के
मनके फेर पुजारी विश्व सो गया,
प्रतिध्वनि
का इतिहास प्रस्तरों बीज खो गया,
सांसों
की समाधि-सा जीवन,
मणि
सागर-सा पंथ गया बन,
रुका
मुखर कण-कण कर स्पंदन,
इस
ज्वाला में प्राण-रूप फिर से ढलने दो!
यह
मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो!
झंझा
है दिग्भ्रांत रात की मूर्च्छा गहरी,
आज
पुजारी बने,
ज्योति
का यह लघु प्रहरी,
जब तक
लौटे दिन की हलचल,
जब तक
यह जागेगा प्रतिपल,
रेखाओं
में भर आभा-जल,
दूत
सांझ का इसे प्रभाती तक चलने दो!
यह
मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो!
इस
जीवन की ऊर्जा का एक दीया बनाओ, मंदिर
का दीप बनाओ ताकि यह तुम्हें कम-से-कम सुबह तक तो पहुंचा दे; ताकि रात तो कटा दे; ताकि प्रभात से तो मिला दे!
यह
मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो!
रजत-शंख-घड़ियाल
स्वर्ण-वंशी-वीणा-स्वर,
गए
आरती-वेला को शत-शत लय से भर;
जब था
कलकंठों का मेला,
विहंसे
उपल तिमिर था खेला,
अब
मंदिर में इष्ट अकेला,
इसे
अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!
यह
मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो!
तुम्हारे
भीतर चेतना का दीया जलना चाहिए, ध्यान
का दीया जलना चाहिए। कौन जलाएगा? कौन
विधि देगा?
जले
हुए दीप के पास जाओ तो तुम्हारा बुझा दीया भी जल सकता है। बस, पास जाते-जाते एक ऐसी घड़ी आ
जाती है,
एक ऐसी
नैकटय,
सामीय
की घड़ी,
जब
जलते दीए से बुझे दीए में छलांग लग जाती है ज्योति की। ऐसे गुरु से शिष्य तक
पहुंचती है रोशनी। ऐसे ही पहुंचती है। एक जीवित स्रोत से दूसरे जीवित स्रोत तक।
किताबों
में रोशनी के संबंध में लिखा है, रोशनी
नहीं है। किताबों में जल के संबंध में लिखा है, तुम्हारी प्यास को तृप्त करने वाले जल सरोवर
नहीं हैं। शास्त्रों में प्यारे और सुंदर शब्द हैं मगर केवल शब्द हैं। उन शब्दों
को न तो पी सकोगे,
न पचा
सकोगे,
न ओढ़
सकोगे,
न बिछा
सकोगे। उन शब्दों में मत भटक जाना।
दुनिया
में दो भटकनें हैं। एक अज्ञानी की भटकन है। और एक पंडित की, तथाकथित ज्ञानी ही भटकन है।
अज्ञानी की भटकन से भी बचो और ज्ञानी की भटकन से भी बचो तो कहीं तुम अंतर्यात्रा
पर निकल पाओगे। अज्ञानी सोचता है चूंकि मैं शास्त्र को नहीं जानता इसलिए अज्ञानी
हूं और ज्ञानी सोचता है चूंकि मैं शास्त्रों को जानता हूं इसलिए ज्ञानी हूं। दोनों
शास्त्र में अटके हैं। उनमें भेद कम ज्यादा का है, मात्रा का है, गुण का नहीं है। दोनों बाहर
भटके हैं। दोनों में कोई भी अभी भीतर नहीं आया है।
बिन
गुरु मारग कौन बतावै, करिए
कौन उपाय। क्या उपाय करें कि शाश्वत जीवन उपलब्ध हो, कि प्यारा मिले, कि हम सुहागिन बनें!
सब
संतन मिलि इकमत कीजै, चलिए
पिए के देस
और जो
जानते हैं वे चकित होकर हैरान हो जाते हैं यह बात देखकर कि सारे संतों का उपदेश एक
है। सबै सयाने एक मत। अगर भेद कहीं हो तो पंडितों में होगा। अगर भेद कहीं हो तो
शस्त्रज्ञों में होगा। संतों की सीख एक है। क्या है वह सीख? दो शब्दों में उस सीख को
बांधा जा सकता है। ऐसे तो सारा आकाश भी छोटा है और उसे बांधा नहीं जा सकता। नहीं
तो दो शब्द! एक शब्द है ध्यान और एक शब्द है प्रेम। बस, ये दो छोटे शब्द! इन दो में
सारे संतों की सीख समा गई है। भीतर मौन हो जाओ तो ध्यान। और मौन सूखा-सूखा न हो, रस-भीगा हो, प्रीति-पगा हो, प्रेम की वीणा बजती हो, प्रेम की रुन-झुन चलती हो, प्रेम की बयार बहती हो। ध्यान
का शून्य हो और प्रेम का फूल खिला हो बस, फिर कुछ और पाने को नहीं है। परमात्मा
तुम्हें खोजता आ जाएगा। कब किस घड़ी आ जाएगा। किस अनजान घड़ी में तुम्हारे द्वार पर
दस्तक दे देगा,
कहना
कठिन है।
पिया
मिलन कब होइ,
अंदेसवा
लागि रही
बिन
गुरु मारग कौन बतावै, करिए
कौन उपाय
बिना
गुरु के माला फेरै, जनम
अकारथ जाय
सब
संतन मिलि इकमत कीजै, चलिए
पिय के देस
पिया
मिलैं तो बड़े भाग से, नहिं
तो कठिन कलेस
बिना
गुरु के भी लोग मालाएं फेरते हैं। बिना गुरु के भी लोग साधन करते, विधि करते, योग करते, तप करते, भक्ति करते। मगर बिना गुरु के
करते हैं तो कुछ चूक हो जाती है। कुछ बुनियादी बात चूक जाती है। जब तक तुमने किसी
जीवंत गुरु को ध्यानस्थ न देखा हो, प्रेम में डुबकी लगाते न देखा हो, तब तक तुम जो भी करोगे, उथला-उथला होगा, थोथा-थोथा होगा।
छोटे-से
पक्षी को उड़ना सीखने के पहले कम-से-कम अपने मां-बाप को उड़ते हुए देखना पड़ता है।
अगर किसी पक्षी को तुम अंडे से निकलने के बाद संभाल कर रख लो और उसे कभी देखने को
न मिले और पक्षी पंख फैलाकर आकाश में उड़ता हुआ तो वह पक्षी कभी अपने पंख न
फड़फड़ाएगा और कभी आकाश में न उड़ेगा। उसे याद ही न आएगी कि मेरे पास भी पंख हैं; कि मेरे पास भी क्षमता है दूर
आकाश की यात्रा की; कि
चांदत्तारों से मैं भी मुलाकात करूं यह मेरा भी अधिकार है, ऐसी उसे याद ही न आएगी।
तो
छोटा-सा पक्षी बैठता है अपने घोंसले की कगार पर, देखता है मां को उड़ते पिता को
उड़ते, आते-जाते। धीरे-धीरे पंख
फड़फड़ाने लगता है। भरोसा आने लगता है। फिर फुदकता है एक डाल से दूसरी डाल पर। भरोसा
और सघन हो जाता है। फिर और ज़रा लंबी छलांग भरता है एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर।
चकित हो जाता है,
चमत्कृत
हो जाता है। तो मैं भी उड़ सकता हूं? बस, जिस दिन यह भरोसा आ गया कि मैं भी उड़ सकता
हूं, फिर गुरु की कोई जरूरत नहीं
रह जाती। मगर तब तक गुरु की अनिवार्यता है, अपरिहार्यता है। उसके बिना तुम माला भी फेर
लोगे, मगर फेरना मुर्दा होगा।
मधुप
ने की जाकर गुंजार,
"अरी, सुन री, कलिका सुकुमार,
खोल दे
अंध-गंध के द्वार!
देख री, आया है मधुमास,
लिए नव
हर्ष, नया उल्लास।
सुरभि
के कोष खोल री,
खोल,
नयन के
मोती जी भर रोल!
बिछा
दे चरणों में सत्कार!'
मधुप
ने की जाकर गुंजार
"अरी, सुन री, कलिका सुकुमार!'
उठा रे
कवि, भावों की बीन,
ढाल
स्वर आतुर,
मदिर
नवीन!
और फिर
होकर उनमें लीन,
छेड़ दे
एक नयी झंकार!
शिथिलता
छोड़, छेड़ दे तार!
स्वरों
में हृदय,
हृदय
में प्यार,
प्यार
में भर संचित उद्गर!
और
उद्गरों से भर साध!
और फिर
उनमें आश अगाध!
डाल दे, प्रिय चरणों पर दीन!
उठा रे
कवि, भावों की बीन,
ढाल
स्वर, आतुर मदिर, नवीन!
कोई
कहे, कोई पुकारे, कोई झकझोरे। मधुप ने की जाकर
गुंजार। कोई भौंरा आए और कली से कहे, खुल! कली को पता भी कैसे हो? कभी खुली हो तो पता हो। पहले
कभी खुली तो नहीं। कभी उसने अपनी पंखुरियां खोली तो नहीं। कभी हवाओं के साथ खेली
तो नहीं। राग-रंग नहीं किया। कभी सूरज को देखा तो नहीं।
कभी
चांदत्तारों से मुलाकात भी तो नहीं की। उसे पता भी क्या, अज्ञात में कदम कैसे रखे!
मधुप
ने की जाकर गुंजार,
अरी, सुन री, कलिका सुकुमार,
खोल दे
अंध-गंध के द्वार!
देख री, आया है मधुमास,
लिए नव
हर्ष, नया उल्लास।
सुरभि
के कोष खोल री,
खोल,
नयन के
मोती जी भर रोल!
बिछा
दे चरणों में सत्कार!
मधुप
ने की जाकर गुंजार
अरी, सुन री, कलिका सुकुमार!
ऐसे
कोई गुरु आकर शिष्य के कान में कहता है--
खोल दे
अंध-गंध के द्वार,
अरी, सुन री, कलिका सुकुमार!
ऐसे
कोई गुरु जब शिष्य के कान में कहता है, शिष्य की कली जब सुनती है यह खबर कि गंध
मेरे भीतर भरी है,
खोल
दूं, उड़ूं। कली के भीतर जब सपने
जगते हैं. . .कौन जगाएगा ये सपने? अज्ञात
के सपने,
असंभव
के सपने! कौन सुगबुगाएगा ये सपने?
उठा रे
कवि, भावों की बीन,
ढाल
स्वर आतुर,
मदिर
नवीन!
और फिर
होकर उनमें लीन,
छेड़ दे
एक नयी झंकार!
शिथिलता
छोड़, छेड़ दे तार!
स्वरों
में हृदय,
हृदय
में प्यार,
प्यार
में भर संचित उद्गार!
और
उद्गारों में भर साध!
और फिर
उनमें आश अगाध!
डाल दे, प्रिय चरणों पर दीन!
उठा रे, कवि, भावों की वीन,
ढाल
स्वर, आतुर मदिर, नवीन!
कोई
कहे तुम्हारे कान में। कोई झकझोरे तुम्हें नींद से। कोई पुकारे तुम्हें। तुम दूर
खो गए हो विस्मृति में। तुम्हें अपनी भी याद नहीं रही। कोई पुकारे, कोई आवाज दे। और जो सुन ले
वही शिष्य। और जो आवाज के साथ एक नए उन्मेष से भर जाए वही शिष्य। और जिसके भीतर एक
नई कल्पना अपने पंख फैला दे। और जिसके भीतर एक नया स्वर गुनगुन करने लगे। और जो
अज्ञात में कदम रखे। और कभी छेड़ी नहीं गई जो वीणा उसके तार छेड़ दे। और कभी खोले
नहीं गए गंध के जो द्वार, वे
द्वार खोल दे। नहीं, सद्गुरु
के बिना यह नहीं हो सकेगा। दूलनदास ठीक कहते हैं--
बिन
गुरु मारग कौन बतावै, करिये
कौन उपाय
बिना
गुरु के माला फेरै, जनम
अकारथ जाए
माला
फेरते रहो बिना गुरु के, राम-राम
जपते रहो बिना गुरु के, सब
अकारथ चला जाएगा।
कुछ
लोग सीखने से डरते हैं कुछ लोग सीखने में झुकना पड़ता है उससे डरते हैं। सीखने में
किसी के सामने झोली फैलानी पड़ती है उससे उन्हें दीनता मालूम होती है। ऐसे अभागे
वंचित ही रह जाएंगे। जीवन-कोष लुट जाएगा और भिखमंगे के भिखमंगे रह जाएंगे। उनकी
झोली में एक दाना भी न पड़ेगा। सीखने के लिए झुकने की सामर्थ्य चाहिए। और ध्यान
रखना, सिर्फ शक्तिशाली लोग ही झुक
सकते हैं,
कमजोर
नहीं। कमजोर तो झुकने में बहुत डरता है क्योंकि उसे पता है मैं कमजोर हूं। झुका तो
सारी दुनिया को मेरी कमजोरी का पता चल जाएगा। वह अपनी कमजोरी को छिपाता है।
इस
मनोवैज्ञानिक तथ्य को खूब समझ लो। अकसर लोग समझते हैं कि जो झुकता है वह कमजोर है; जो समर्पित होता है वह कमजोर
है; जो श्रद्धा करता है वह
बुद्धिमान नहीं है। हालात ठीक उल्टे हैं। असलियत ठीक उल्टी है। मनोविज्ञान से
पूछो! धर्म ने तो सदा यही कहा है लेकिन अब मनोविज्ञान भी इसके समर्थन में है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो व्यक्ति झुकता है वह संकल्पवान है। तभी झुकता है
झुकने के लिए बड़ा संकल्प चाहिए। बड़ा विरोधाभास है। समर्पण के लिए बड़ा संकल्प
चाहिए। वही झुक सकता है जिसको यह पक्का भरोसा है कि मैं झुकूं तो भी मेरी दीनता
प्रकट नहीं होती। झुककर भी मैं दीन नहीं हो जाऊंगा। झुकने से मेरा आत्मगौरव नष्ट
नहीं होता है। जिसे अपने आत्मगौरव पर इतनी श्रद्धा है वही किसी के चरणों में सर रख
पाता है। जो कमजोर है, जिनके
भीतर हीनता की ग्रंथि है, जो सदा
डरे हुए हैं कि कहीं कोई झुका न दे; कि कहीं किसी के सामने झुकना न पड़े; जो सदा अकड़े खड़े हैं, जो सदा अपनी सुरक्षा किए हुए
हैं ऐसे व्यक्ति कमजोर हैं, वस्तुतः
समृद्ध नहीं हैं। वस्तुतः उनके भीतर आत्मगौरव नहीं है, आत्मभाव नहीं है।
वही
झुक सकता है जो जानता है कि झुककर भी मैं मिटूंगा नहीं। वही झुक सकता है जो जानता
है कि झुक कर भी मैं रहूंगा। मेरा होना इतना है, इतना सघन है कि झुकने से
मिटने वाला नहीं है।
इसलिए
दुनिया में एक चमत्कार देखा जाता है। इस दुनिया में सबसे ज्यादा आत्मगौरववान
व्यक्ति सबसे कम अहंकारपूर्ण होता है। इस दुनिया में सबसे ज्यादा आत्मगौरवहीन
व्यक्ति सर्वाधिक अहंकारी होता है। इसलिए जिनको हमने संत कहा है वे तो निर्अहंकारी
थे। महावीर कि बुद्ध कि कबीर कि नानक कि मुहम्मद कि जलालुद्दीन--ये सारे लोग
निर्अहंकारी थे। मगर यह मत समझना कि इनमें आत्मगौरव नहीं था। इनमें ही आत्मगौरव
था। इन्होंने ही निर्अहंकार भाव से अपने फूल को खोल दिया अपनी पंखुड़ियां खोल दीं।
इनके भीतर से ही आत्मगौरव की गंध उठी। ये बड़े बलशाली लोग थे।
कमजोर
तो झुकते ही नहीं। कमजोर तो धर्म के रास्ते पर ही नहीं चलते। कमजोर तो राजनीति के
रास्ते पर चलते हैं। जिनके भीतर जितनी हीनता की ग्रंथि है वे उतने ही राजनीति के
रास्ते पर चलते हैं। क्योंकि राजनीति में झुकाना है, झुकना नहीं है। दूसरों पर
कब्जा करना है,
दूसरों
के सिर पर चढ़ना है। ये कमजोरों के, रुग्णचित्त लोगों के लक्षण हैं। राजनीति में
स्वस्थ आदमी उत्सुक होता ही नहीं; हो ही
नहीं सकता।
जा तू
अपनी राह बटोही!
गाता
क्या जीवन के गाने?
जीवन
को तू क्या पहचाने?
जा तू
अपनी राह बटोही!
भौंरों-सा
रस लेता रहता
गाता
फिरता तू राहों में।
रूप और
रस राग भरी इस
जीवन
की जल्वागाहों में।
जहां
गिरे पत्ते सड़ते हैं,
उन
सायों को तू क्या जाने?
तू
क्या जीवन को पहचाने!
जा तू
अपनी राह बटोही!
ऊपर-ऊपर
का दर्शन कर
जीवन-युक्ति
सिखाएगा क्या?
डूबा
नहीं अतल तल में जो
रत्न
भला वह लाएगा क्या ?
झूठे
रत्नों से भर झोली
समझ
इन्हें मत सच्चे दाने,
जीवन
को तू क्या पहचाने?
जा तू
अपनी राह बटोही!
जीवन
में सिर्फ रास्ते के किनारे खड़े होकर तमाशा देखनेवाले मत रह जाना, तमाशबीन मत रह जाना; नहीं तो तुम्हारे हाथ
कूड़ा-करकट लगेगा,
हीरे
नहीं लगेंगे;
झाग
लगेगी लहरों की,
हीरे
नहीं लगेंगे। और दुनिया में अधिक लोग बस राहगीर हैं, तमाशबीन हैं। कोई भी मूल्य
चुकाना नहीं चाहता। कोई भी गहरे नहीं जाना चाहता। किनारे पर बैठे-बैठे झाग समेटते
हैं। हां,
झाग
कभी-कभी सुबह सूरज की किरणों में चमकती है और ऐसी लगती है जैसे इंद्रधनुष छाए हों।
और झाग कभी-कभी रात की चांदनी में ऐसी लगती है जैसे चांदी के ढेर लगे हों। मगर दूर
से ही। जब मुट्ठी में झाग को लोगे तो सिवाय समुद्र के खारे जल के हाथ में कुछ भी न
छूट जाएगा। हीरे के लिए गोताखोरी करनी होती है, डुबकी मारनी होती है। बटोहियों के हाथ कुछ
भी नहीं लगता। तमाशबीन न रहो। दर्शक न रहो।
यहां
भी लोग आते हैं,
मुझसे
कहते हैं कि ध्यान पहले हम देखेंगे; दूसरों को करते देखेंगे। जब हमें जंचेगा तो
हम करेंगे। दूसरों को करते ध्यान कैसे देखोगे? ध्यान अंतर्भाव है। तुम किसी के अंतर्भाव
में प्रवेश नहीं कर सकते। उपाय ही नहीं है। ध्यान की तो बात दूर, ज़रा किसी के सपने में प्रवेश
करके तो देखो! किसी के सपने में भी प्रवेश नहीं कर सकते जो कि झूठा है, तो ध्यान तो सत्य है, उसमें तो कैसे प्रवेश करोगे?
मुल्ला
नसरुद्दीन अपने एक मित्र के साथ बात कर रहा था। मुल्ला ने मित्र से कहा कि रात बड़ा
मजा आया! मैं कुंभ के मेला गया था। बड़ी भीड़-भाड़, बड़े तमाशे! तमाशों पर तमाशें
देखे। दूसरा मित्र चुपचाप सुनता रहा लेकिन जैसे प्रभावित नहीं हुआ। नसरुद्दीन ने
कहा कि तुम प्रभावित नहीं मालूम हो रहे। मैंने इतना प्यारा सपना देखा, ऐसे मजे लूटे कुंभ के मेले
में, ऐसी धक्का-मुक्की! तुम
प्रभावित नहीं मालूम हो रहे। उसने कहा, मैं क्या खाक प्रभावित होऊं! मैंने भी रात
एक सपना देखा कि हेमामालिनी को लेकर हिमालय पर चला गया हूं--एकांत, बिल्कुल एकांत। हेमामालिनी का
नाम सुना मुल्ला ने तो कहा, यह किस
तरह की दोस्ती! मुझे क्यों नहीं बुलाया? उसने कहा, मैंने तो बुलाया था लेकिन
तुम्हारी पत्नी ने कहा कि तुम तो कुंभ के मेला गए हो।
किसी
के सपनों में तुम जा सकते हो? किसी
के अंतर्भाव में प्रवेश कर सकते हो? ध्यान तो तुम्हारे भीतर की गहरी से गहरी
स्थिति है। सपने तो ऊपर की झाग! वह भी हाथ नहीं लगती। लेकिन लोग कहते हैं, हम दूसरों को ध्यान करते
देखेंगे।
हां, यह हो सकता है, तुम मीरां को देखो, मीरां नाच रही है तो नाच
दिखाई पड़ेगा। मगर मीरां के नृत्य में और किसी नर्तकी के नृत्य में कैसे भेद करोगे? क्या भेद करोगे? वही हाव-भाव होंगे, वही अंगोपांग होंगे, वही नृत्य की भाव-भंगिमाएं
होंगी,
भेद
क्या करोगे?
मीरां
में ध्यान है और नर्तकी में ध्यान नहीं है यह कैसे पहचानोगे? मीरां के नृत्य के भीतर ध्यान
की घटना घट रही है यह तुम्हारी समझ में कैसे आएगा देखकर? तुम सोचते हो बुद्ध को बैठे
देखकर तुम समझ जाओगे ध्यान क्या है? हां, बुद्ध दिखाई पड़ेंगे, बैठे हैं पद्मासन में, आंख बंद किए बिल्कुल पत्थर की
मूर्ति बने। मगर और क्या दिखाई पड़ेगा?
लेकिन
लोग कहते हैं,
ध्यान
हम पहले लोगों को करते देखेंगे। लोगों के तमाशबीन होने की आदत हो गई है। इस सदी की
बड़ी-से-बड़ी बीमारियों में अगर कोई बीमारी है तो वह है, तमाशबीनी। यह सदी सबसे बड़ी
तमाशबीन सदी है। यहां लोग करते नहीं सिर्फ देखते हैं। कुश्ती खुद नहीं लड़ते, दो पहलवान लड़ रहे हैं, वे देखने जा रहे हैं। क्या
खाक तुम्हें मजा मिलेगा! खुद नहीं नाचते, नृत्य होता है उसे देखते हैं। खुद वीणा पर
तार नहीं छेड़ते,
कोई
वीणा बजाता है कोई पेशेवर, उसको
सुन आते हैं। अब तो वहां तक जाने की जरूरत नहीं है, घर में ही रेकार्ड बजा लिया
और बड़े कला-पारखी हो गए।
फिल्म
देख आते हैं. . .और देखते हो तुम, फिल्म
में भी लोग कैसे देखते हैं! जानते हैं कि पर्दे पर कुछ भी नहीं है। मगर तमाशबीनी
ऐसी गहरी घुस गई है कि भूल-भूल जाते हैं। पर्दे पर कुछ नहीं है। पता है कि पर्दा
कोरा है। देखा है कि पर्दा कोरा है। और पर्दे पर केवल धूप-छाया का खेल चल रहा है, कुछ भी नहीं है वहां; लेकिन पर्दे पर घटनाएं घटती
हैं और तुम्हारा हृदय आंदोलित होने लगता है। अगर कोई बहुत सनसनीखेज घटना घट रही हो, कि किसी डाकू को पकड़ने के लिए
पुलिस की कारें उसके पीछे लगी हों और पहोड़ियों के किनारों से और गोलाइयों पर भाग
रही हों,
दौड़
रही हों और तेज आवाज हो रही हो, तो फिर
तुम टिके नहीं बैठे रहते कुर्सी से। फिर तुम एकदम संभलकर बैठ जाते हो, कोई चीज चूक न जाए।
तमाशबीनी
बढ़ती जाती है। और जिन देशों में टेलीविजन फैल गया है वहां तो और ही हालत बिगड़ गई
है। अमरीका में प्रत्येक व्यक्ति पांच घंटे औसत दिन में टेलीविजन देख रहा है।
चौबीस घंटे में आठ घंटे सोने में चले गए। आठ घंटे दफ्तर जाना, दफ्तर से आना, दफ्तर में काम करने में चले
गए। कुछ थोड़ा-बहुत खाने पीने में--सिगरेट पीना, दाढ़ी बनाना, इस सब में चला गया। जो बाकी
समय बच जाता है पांच घंटे का, लोग
बैठे हैं। लोग ऐसे बैठते हैं जैसे गोंद से चिपका दिए गए हों कुर्सियों से; उठते ही नहीं। अपने-अपने
टेलीविजन के सामने बैठे हैं।
यह दिखाऊ, यह देखने की वृत्ति बड़ी घातक
है क्योंकि इसका अर्थ तो यह हुआ कि अनुभव तुम कब करोगे? कोई फुटबाल खेलता है वह भी
तुम देखने चले;
कोई
हाकी खेलता है वह भी देखने तुम चले; कोई कुश्ती लड़ता है वह भी देखने चले, कोई नाचा वह भी देखने चले।
फिल्म में किसी ने किसी को प्रेम किया वह भी देख आए। सब देखते ही रहोगे? कभी अनुभव भी कुछ करोगे? ध्यान को भी देखने आ जाते हो!
और सब देखो तो देखो, कम-से-कम
ध्यान तो अनुभव करो। मगर बस, लोग
तमाशबीन हैं। और तब ऐसे देख-देखकर तुम जो सीख लेते हो और उसको सीख-सीखकर जो करने
लगते हो उसमें प्राण नहीं होते, वह
निष्प्राण होता है। माला हाथ फेरता रहता है, मन में और हजार बातें चलती रहती हैं।
बिना
गुरु के माला फेरै, जनम
अकारथ जाय
खूब
सावधान हो जाओ। अगर जीवन को अकारथ ही खो देना हो तो बस, ऐसे ही देख-देखकर, बिना झुके, बिना समर्पण किए, बिना सत्संग किए, बिना किसी सद्गुरु से जुड़े
करते रहना! इसमें होशियारी मालूम पड़ती है। कुछ लोग किताबें पढ़ कर कर लेते हैं
ध्यान। किताबों में से खोज लेते हैं। यह भी पक्का नहीं जिसने किताब लिखी है उसने
कभी ध्यान भी किया?
मैंने
बहुत किताबें देखी हैं। सौ किताबों में से शायद एक किताब ध्यान पर नहीं लिखी जाती
जो कि करने वाले लिखते हों। निन्यानबे तो उनके द्वारा लिखी जाती हैं जो बाकी और
लोगों की लिखी हुई किताबों को पढ़कर लिखते हैं। क्योंकि मेरे पास ऐसे लोग आ जाते
हैं जिन्होंने ध्यान पर किताबें लिखी हैं और जिनकी किताबें बड़ी प्रसिद्ध हैं; और मुझसे पूछते हैं कि ध्यान
कैसे करें?
मैं
उनसे पूछता हूं,
तुम तो
कम-से-कम न पूछो! तुमने तो इतनी सुंदर किताब लिखी। उन्होंने कहा, किताब तो सुंदर लिखी क्योंकि
किताब तो सुंदर लिखी जा सकती है। वह तो दस-पच्चीस किताबें पढ़ीं और लिख दी। लिखना
तो एक कला है। मगर ध्यान मुझे अभी नहीं आया।
न तो
ध्यान किताबों से सीखा जा सकता है, न दूसरे लोगों को करते देखकर सीखा जा सकता
है। ध्यान इतनी सूक्ष्म प्रक्रिया है कि किसी से भाव का मिलन हो, किसी से प्रीति का संबंध हो, किसी से नाता जुड़े ऐसी गहराई
का कि जिसमें भेद-भाव न रह जाए, तब
सीखा जा सकता है।
पिया
मिलैं तो बड़े भाग से, नहिं
तो कठिन कलेस
और एक
बात को ही कसौटी मान लेना--परम प्यारा मिल जाए तो समझना कि जीवन सार्थक हुआ, नहीं तो जीवन सिर्फ एक दुःख
की लंबी यात्रा थी। कथा नहीं थी, सिर्फ
व्यथा थी।
या जग
ढूढूं वा जग ढूढूं, पाऊं
अपने पास
और बड़े
रहस्यों की बात यह है कि यहां ढूंढो वहां ढूंढो लेकिन जब पाया जाता है परमात्मा तो
बिल्कुल अपने पास पाया जाता है; अपने
से भी ज्यादा पास पाया जाता है। दूर है ही नहीं। यही कारण कि हम चूक रहे हैं। हम
खोजते हैं दूर और परमात्मा है पास। शायद पास कहना भी ठीक नहीं, खोजनेवाले में ही परमात्मा
है। पास कहना भी ठीक नहीं, खोजनेवाला
ही परमात्मा की एक तरंग है। अपने में ही झांक लोगे तो पा लोगे। मगर हमारी आंखें
बाहर देखने की आदी हो गई हैं। आंख बंद भी करते हैं तो भी बाहर ही देखते हैं।
तुम
आंख बंद करके देखना! आंख बंद कर लो फिर भी दुकान दिखाई पड़ती है, खाते-बही दिखाई पड़ते हैं। आंख
बंद कर लो फिर भी वही लोग--पत्नी-बच्चे, घर, बाजार, मित्र। आंख बंद कर लो, वही संसार! रात सो जाते हो तब
भी सपने में वही संसार।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने एक रात उठकर जोर से अपनी चादर फाड़ दी। उसकी पत्नी ने रोका, अरे, अरे! यह क्या करते हो? मुल्ला ने कहा तो तू अब दुकान
पर भी आने लगी?
तब होश
उसे आया। कपड़ा बेचने का काम करता है, दिन भर कपड़े फाड़ता है। रात आ गया होगा कोई
ग्राहक सपने में। आ गया जोश, फाड़ दी
चादर। और नाराज बहुत हुआ पत्नी पर एक क्षण को तो। कि घर में बाधा डालती है वह तो
ठीक है। घर में नहीं जीने देती। इधर न बैठो, उधर न बैठो, यह न करो, वह न करो। हद हो गई! तो तू अब
दुकान पर भी आने लगी, कि
कपड़ा भी न फाड़ो,
कपड़ा
भी न बेचो!
नींद
में भी तुम देखोगे क्या? तुम्हारी
नींद भी तुम्हारे ही दिन की झलक है। तुम्हारी नींद में भी वही बाहर की भीड़, वही बाजार! वे ही काम थोड़े
हेर-फेर से चलते रहते हैं। नींद की स्थिति में भी तुम भीतर नहीं जाते। और भीतर जाए
बिना कोई अनुभव न कर पाएगा जीवन के सत्य का, अपना, स्वयं का, परमात्मा का।
या जग
ढूढ़ं वा जग ढूढूं,
पाऊं
अपने पास
सब
संतन के चरन-बंदगी, गावै
दूलनदास
दूलनदास
कहते हैं कि जब से यह जाना है कि अपने पास, जब से यह पहचाना है कि अपने पास तब से सब
संतों के चरण में बंदगी है। सब संतों के! ख्याल रखना। अगर तुम्हारे मन में सिर्फ
महावीर के प्रति बंदगी है तो तुमने अभी पाया नहीं, जाना नहीं। अगर बुद्ध के
सामने झुकने में तुम्हें संकोच है क्योंकि तुम जैन! कैसे बुद्ध के सामने झुको? कि राम के सामने झुकनेवाला
कैसे कृष्ण के सामने झुके? कि
मुहम्मद के सामने झुकनेवाला कैसे क्राइस्ट के सामने झुके? कि गीता पर फूल चढ़ानेवाला
कैसे कुरान पर दो फूल रखे? अगर
ऐसी कंजूसी है तुम्हारे भीतर अभी भी, समझ लेना कि पाया नहीं है अभी। जिसने पा
लिया उसके लिए मंदिर और मस्जिद एक। मस्जिद पास होगी तो मस्जिद में जाकर ध्यान कर
लेगा और मंदिर पास होगा तो मंदिर में जाकर ध्यान कर लेगा। इतनी सामर्थ्य होती है
उसकी जिसने पा लिया; जिसे
अनुभव हो गया है कि मैं कौन हूं, जिसने
जान लिया कि मेरे भीतर कौन बैठा है। फिर कहीं भी बैठ गए! वह कुरान भी पढ़ लेगा और
गीता भी और बाइबिल भी; और एक
ही सद्भाव से।
सब
संतन के चरन-बंदगी गावै दूलनदास
तुमने
जैनों का प्रसिद्ध मंत्र णमोकार सुना है न! जैन उसका बड़ा गलत अर्थ करते हैं ।
जैनों का मंत्र है--णमो अरिहंताणं। जिन्होंने पा लिया है, जो अरिहंत हो गए हैं उनको
नमस्कार। लेकिन अगर किसी जैन पंडित से पूछो तो वह कहेगा, अरिहंतों को नमस्कार। अरिहंत
यानी जैन सिद्ध। उसमें बुद्ध नहीं आएंगे, उसमें क्राइस्ट नहीं आएंगे, उसमें जरथुस्त्र नहीं आएंगे।
जैसे सिद्ध होने का ठेका सिर्फ जैनों ने ले लिया हो! जैसे परमात्मा इतना कंजूस है
कि उसने एक छोटी-सी गली बनाई है, बस, उसमें से जो गुजरेगा वही उसके
मंदिर तक पहुंचेगा।
सारी
गलियां उसकी हैं। यह सारा वृंदावन उसका है। अरिहंत का अर्थ जैन सिद्ध नहीं होता, अरिहंत का अर्थ होता है, जिसने अपने सारे शत्रु मार
डाले। अरि यानी शत्रु, हंत
यानी मार डाले। जिसने अपने सारे शत्रु मार डाले। न काम रहा न क्रोध रहा, न लोभ रहा न मोह रहा, न अहंकार रहा--ऐसा है जो उसको
नमस्कार। णमो अरिहंताणं।
णमो
सिद्धाणं--उनको सबको जिन्होंने अपनी आत्मा को सिद्ध कर लिया है। क्या तुम सोचते हो
जिन्होंने यह मंत्र बनाया था उनको समझ नहीं थी कि इसमें जैन शब्द जोड़ देते! कहीं
एकाध जगह जोड़ देते। एक जगह भी नहीं जोड़ा। णमो आयरियाणं--आचार्यो को नमस्कार, गुरुओं को नमस्कार, जिन्होंने बोध दिया उन्हें
नमस्कार। णमो उव्ज्झायाणं--उपाध्यायों को नमस्कार। जिनके चरणों में बैठ कर कुछ
सीखा उनको नमस्कार। और अंतिम वचन तो बहुत अद्भुत हैः णमो लोए सब्ब साहूणं। सब
साधुओं को नमस्कार--सब्ब साहूणं। इससे ज्यादा स्पष्ट क्या बात होगी? सब्ब साहूणं--सब साधुओं को
नमस्कार।
लेकिन
अगर जैन पंडित से पूछो तो वह कहता है, साधु का मतलब ही जैन साधु होता है। और बाकी
तो असाधु हैं,
कुसाधु
हैं। गुरु का अर्थ ही जैन गुरु होता है, बाकी तो कुगुरु हैं। शास्त्र का अर्थ ही जैन
शास्त्र होता है बाकी तो सब कुशास्त्र हैं। इस जगत् में जाननेवालों ने अगर अमृत भी
बरसाया है तो पंडितों ने उसे जहर कर दिया। णमो लोये सब्ब साहूणं!
दूलनदास
कहते हैं,
सब
संतन के चरन-बंदगी, गावै
दूलनदास।
जोगी
जोग जुगत नहिं जाना
पहले
ठीक से युक्ति सीख लो, विधि
सीख लो,
अनुशासन
सीख लो। किसी से अनुशासित होओ।
जोगी
जोग जुगत नहिं जाना
गेरू
घोरि रंगे कपरा जोगी. . .
पहले
किसी से हृदय तो रंगा लो, फिर
कपड़े रंग लेना। हृदय पहले रंगना चाहिए।
गैरिक
वस्त्र सनातन से संन्यास के वस्त्र हैं। गैरिक रंग प्रकाश का रंग है, सुबह उगते सूरज का रंग है।
गैरिक रंग अग्नि का रंग है। गैरिक रंग फूलों का रंग है। ये तीनों बातें इसमें छिपी
हैं--भीतर प्रकाश को जगाना है कि सुबह हो जाए; कि प्राची लाली हो उठे। कि भीतर आग जलानी है, जिसमें कि अहंकार भस्मीभूत हो
जाए और तुम्हारा अस्तित्व शुद्ध कुंदन होकर प्रकट हो। कि भीतर फूल खिलाने हैं। कली
ही नहीं रह जाना है। कि भीतर सुगंध उड़ानी है।
मगर
कपड़े ही रंगने से नहीं हो जाएगा। रंगना चाहिए हृदय फिर हृदय के पीछे कपड़े रंग जाएं
तो ठीक। मगर यह मत सोचना कि कपड़े ही रंग लिए तो सब हो जाएगा। हृदय के रंग जाने से
कपड़े तो रंग जाते हैं मगर कपड़े के रंग जाने से हृदय नहीं रंगता।
जोगी
जोग जुगत नहिं जाना. . .
पहले
युक्ति तो सीखो कि भीतर पहले बदलना होता है, फिर बाहर की बदलाहट।
गेरु
घोरि रंगे कपरा जोगी, मन न
रंगे गुरु-ग्याना
गुरु
के ज्ञान में अभी मन न रंगा, अभी
भीतर प्राची लाली न हुई, अभी
भीतर फूल न खिले,
अभी
भीतर मधुमास न आया, अभी
भीतर ध्यान का जन्म न हुआ, अभी
भीतर रंगे ही नहीं और बाहर-बाहर रंग लिया तो बहुत अड़चन ही नहीं है, बड़ी आसान बात है। कोई भी दो
पैसे की गेरू ले ले। गेरू से सस्ती चीज और दुनिया में है भी क्या? कपड़े रंग लो और जोगी हो गए।
काश, जोगी होना इतना सस्ता होता!
पढ़ेहु
न सत्तनाम दुइ अच्छर. . .
नाम
में दो ही अक्षर हैं। वे दो अक्षरों का भी तुम्हें पता न हो और तुम सोचते हो कि
तुम सयाने हो जाओगे? सीखहु
सो सकल सयाना। बिना प्रभु-स्मरण के तुम सोचते हो, सयाने हो जाओगे--शास्त्रों से
शब्दों से सिद्धांतों से? तो
किसको धोखा दे रहे हो? आत्मवंचना
न करो।
सांची प्रीति
हृदय बिनु उपजै,
कहुं
रीझत भगवाना
जब तक
तुम्हारे हृदय में सच्ची प्रीति न उपजेगी, क्या तुम सोचते हो भगवान तुम पर रीझ सकेंगे?
सांची
प्रीति हृदय बिनु उपजै, कहुं
रीझत भगवाना
मिट
जाती हैं स्रष्टा की,
जब-जब
रचनाएं सुंदर।
तबत्तब
वह और बनाता,
उनसे भी
अनुपम सत्वर।
कब
जाना आहें भरना,
उसने
असफल होने पर?
वह कब
चुप हो बैठा है,
सिर को
घुटनों में देकर?
क्यों
छोड़ूं फिर मैं भी सखि,
नित
नूतन जगत् बनाना?
यह लाख
बार बुझ जाए,
क्यों
छोड़ूं दीप जलाना?
बहुत
कठिनाई है हृदय को रंगने में इसलिए लोगों ने कपड़े रंगने में आसानी पाई। हृदय रंगने
में कठिनाई है;
रंग
उतर-उतर जाता है,
चढ़ता
नहीं। भीतर का दीया जलाना कठिन है; बुझ-बुझ जाता है, जलता नहीं। ध्यान पकड़ में आता
नहीं, आते-आते छिटक-छिटक जाता है।
वर्षो लग जाते हैं तब कहीं ध्यान पकड़ में आता है। वर्षो लग जाते हैं जब कभी प्रेम
पकड़ में आता है। मगर घबड़ाना मत। जब परमात्मा नहीं थका है और बनाता है जगत् को
रोज-रोज,
नए-नए
लोगों को जगत् में जन्म देता है, तुम भी
क्यों थको?
हम भी
उसी के अंग हैं। हम भी क्यों थकें?
क्यों
छोड़ूं फिर मैं भी सखि,
नित
नूतन जगत् बनाना?
यह लाख
बार बुझ जाए,
क्यों
छोड़ूं दीप जलाना?
छोड़ना
मत प्रयास। लगे ही रहना, लगे ही
रहना, लगे ही रहना। एक दिन घटना
सुनिश्चित है,
घटेगी।
तिथि तो नहीं बताई जा सकती। इसलिए हम पुराने दिनों में परमात्मा को अतिथि कहते थे।
हम देवता को भी अतिथि कहते थे, अतिथि
को भी देवता कहते थे इसलिए। अतिथि और देवता का एक ही अर्थ करते थे। अतिथि का मतलब
समझते हो?
बिना
तिथि बताए जो आ जाए।
आजकल
जो अतिथि आते हैं,
हमें
कोई नया शब्द बना लेना चाहिए। वे तो तिथि बताकर आते हैं। वे तो तार कर देते हैं कि
फलां गाड़ी से आ रहे हैं। अब उनको अतिथि कहना ठीक नहीं है। अतिथि शब्द का अर्थ चला
गया। अतिथि का तो अर्थ पुराने दिनों में था। न कोई तार थे न कोई चिट्ठी थी, कोई खबर नहीं देता था। एकदम
अचानक आकर मेहमान द्वार पर खड़ा हो जाता था। एकदम चौंका ही देता था। तैयारी करने का
मौका भी नहीं देता था। पति-पत्नी को लड़ने-झगड़ने का कि फिर आ रहा है यह कमबख्त! अब
फिर पता नहीं कितने दिन सताएगा! कि चलो मोहल्ले-पड़ोस से कुछ फर्नीचर मांगकर इकट्ठा
कर लें। मौका ही नहीं था। अतिथि बिना तिथि बताए आ जाता था।
अतिथि
को देवता कहते थे। क्यों? क्योंकि
देवता भी बिना तिथि बताए ही आता है। वह भी अचानक एक दिन द्वार पर खड़ा हो जाता है।
बस तुम्हारी तैयारी जिस दिन पूरी हो जाती है।
सांची
प्रीति हृदय बिनु उपजै, कहुं
रीझत भगवाना
दूलनदास
के साईं जगजीवन,
मो मन
दरस दिवाना
दूलनदास
कहते हैं,
दीवाना
हो गया हूं,
पागल
हो गया हूं,
मस्त
हो गया हूं। गुरु क्या मिले, दूलनदास
के साईं जगजीवन। मुझे जगजीवन के मिलने में ही साईं मिल गया। तो जगजीवन मेरे साईं
हो गए। उनसे मेरी क्या पहचान हो गई, परमात्मा से मेरी पहचान हो गई। अब तो बस एक
दीवानगी छाई है। कैसे उसके दरस हो जाएं! गुरु तो मिल गया, द्वार तो मिल गया, अब मंदिर में कैसे प्रवेश हो
जाए! भक्त रोता है, पुकारता
है, जार-जार रोता है--आ जाने दो
मंदिर में। खोलो द्वार।
जब
पंचम में पिक बोला,
ऋतुराज
आज हैं आए!
हंस कर
कलियों ने अपने,
तब मधु
के कोष लुटाए!
नीड़ों
में चहक उठे तब,
अगनित
खग-बालों के स्वर!
उन्मत्त
हुईं किन्नरियां,
स्वागत
के गाने गा कर!
पर
ओस-बिंदु को जाने,
क्या
बात कह गई आकर!
सिहरी, ढुल पड़ी निमिष में,
नयनों
से नीर बहा कर!
फूल
खिलते हैं और भक्त रोता है। पक्षी गाते हैं और भक्त रोता है। झरने बहते हैं और
भक्त रोता है। वसंत आता है और भक्त रोता है। सावन की घटाएं घिरती हैं और भक्त रोता
है। लेकिन उसका रोना मस्ती का रोना है। वह प्यारे के लिए रो रहा है। आंसुओं के
सिवाय और हमारे पास चढ़ाने को भी क्या है! आंसू ही तो हमारे पास एकमात्र संपदा हैं
जो हमारी अपनी है;
जो
हमारी आत्मा से आती है; जो
हमारी गहराइयों से उतरती है; जो
हमारा निचोड़ है;
जो
हमारे प्राणों की पुकार है; जो
हमारा मंत्र-जाप है।
अगर
सद्गुरु के पास सीखा तो माला फेरना नहीं सीखोगे, आंसू झरेंगे। आंसुओं के
मोतियों की माला फिरेगी। अगर सद्गुरु के पास सीखा तो ये राम-राम राम-राम की
तोता-रटंत नहीं होगी। भीतर निस-बासर, रोएं-रोएं में, कण-कण में, धड़कन-धड़कन में, बिना शब्द के निःशब्द और मौन
एक अहर्निश प्रार्थना गूंजती रहेगी। फिर किसी मंदिर में पूजा के थाल नहीं सजाने
होते, प्राणों के ही थाल सज जाते
हैं। तब आता है,
जरूर
आता है अतिथि। मगर कब, किस
घड़ी, कोई भी नहीं जानता है।
पिया
मिलन कब होइ,
अंदेसवा
लागि रही।
मगर
धन्यभागी हैं वे जिन्हें यह अंदेसा लग गया कि कब प्रभु का आना होगा! उसकी पगध्वनि
सुनाई पड़ने लगी मालूम होता है। मालूम होता है पहली खबरें आने लगीं, संदेश पहुंचने लगे। उसकी
सुगंध उड़-उड़कर आने लगी। उसकी शीतलता झरने लगी। उसके अमृत की बूंदा-बांदी होने लगी।
जल्दी ही घनघोर वर्षा होगी। जल्दी ही अनंत सूरज निकलेंगे। मगर कब? कोई सुनिश्चित घड़ी नहीं हो
सकती। कोई पहले से भविष्य-वाणी नहीं कर सकता। इतना कहा जा सकता है कि जो पुकारेगा
वह पाएगा। जो प्यासा होगा उसकी प्यास बुझाई जाएगी।
जीसस
ने कहा है,
खटखटाओ
और द्वार खुलेंगे;
मांगो
और मिलेगा। देर कितनी लगेगी द्वार खटखटाने में, यह तुम पर निर्भर है। तुम्हारे खटखटाने में
कितनी त्वरा है,
कितनी
प्राणवंतता है,
कितनी
सजीवता है,
कितनी
समग्रता है! खटखटाओ, द्वार
खुलेंगे। मांगो,
मिलेगा।
उस द्वार से न कोई कभी खाली गया है, न कभी कोई खाली जा सकता है।
आज इतना ही।
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