प्रेम-रंग-रस ओढ़ चुंदरिया-(दूल्हन)
प्रवचन-नौवां
दिनांक : 09-फरवरी, सन् 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना।
सारसूत्र:
चारा पील पिपील को, जो पहुंचावत रोज।
दूलन ऐसे नाम की, कीन्ह चाहिए खोज।।
कोउ सुनै राग अरु रागिनी, कोउ सुनै जु कथा पुरान।
जन दूलन अब का सुनै, जिन सुनी मुरलिया तान।।
दूलन यह परिवार सब, नदी-नाव-संजोग।
उतरि परे जहंत्तहं चले, सबै बटाऊ लोग।।
दूलन यह जग आइके, काको रहा दिमाक।
चंदरोज को जीवना, आखिर होना खाक।।
दूलन बिरवा प्रेम को, जामेउ जेहि घट माहिं।
पांच पचीसौ थकित भे, तेहि तरवर की छांहि।।
धृग तन धृग मन धृग जनम, धृग जीवन जगमाहिं।
दूलन प्रीति लगाय जिन्ह, ओर निबाहीं नाहिं।।
जा दिन संत सताइया, ता छिन उलटि खलक्क।
छत्र खसै, धरनी धसै, तीनेउं लोक गरक्क।।
कतहुं प्रकट नैनन निकट, कतहूं दूरि छिपानि।
दूलन दीनदयाल, ज्यों मालव मारू पानि।।
सघन विजन
के सूनेपन में,
संघर्षो
की घनी तपन में,
खोजा
कहां कहां पर तुझको पाया अपने अंतर्मन में।
बहता
रहा निरंतर लेकिन,
मैं
क्या हूं यह ज्ञात नहीं था।
सपनों
से अनजान रहा पर,
नयनों
से अज्ञात नहीं था।
कैसी
थी द्विविधा की माया,
भूल
गया मैं देख न पाया,
किसके
अगणित चित्र बने हैं मेरे आंसू के दर्पण में।
स्थिर
नत बैठा मंदिर में,
जब
सहमा विश्वास छल गया।
हर
पत्थर आराध्य हो गए,
जब
अंधा अनुराग हिल गया।
शाश्वत
अपराधी थी काया,
भूल
गया मैं देख न पाया,
शैशव
सा निर्वाण छिपा था मेरे ही दूषित आंगन में।
भ्रांति
उलझती रही जाल में,
लेकिन
गांठ नहीं खुल पायी।
टूट गई
तंद्रा भावों की,
लेकिन
मूर्ति नहीं बन पायी।
चक्षु
ज्ञान ने जब भटकाया,
भूल
गया मैं समझ न पाया,
कौन
राह दिखलाता मुझको छिपकर सांसों की धड़कन में।
पूजन
का पाखंड ओढ़कर,
तन
बैठा गंगा के तट पर।
गुरिया
हर क्षण रही फिसलती,
चिंतामणि
की हर करवट पर।
तन
सुरसरि में नित्य डुबाया,
भूल
गया मैं सोच न पाया,
सारे
पाप धुला करते हैं आत्मशुद्धि के आराधन में।
नामों
की महिमा न्यारी सुन,
दुःख
में रटता रहा निरंतर।
पाप
छिपा लेने को अपने,
झूठा
धर्म बनाया तस्कर।
विविध
उपायों को अपनाया,
भूल
गया मैं देख न पाया,
मेरे
सारे कलुष छिपे हैं मेरे ही अशुद्ध चिंतन में।
सघन
विजन के सूनेपन में,
संघर्षो
की घनी तपन में,
खोजा
कहां कहां पर तुझको पाया अपने अंतर्मन में।
मनुष्य
एक खोज है--एक शाश्वत खोज, एक
सनातन खोज। साफ भी नहीं है कि किसे हम खोज रहे हैं। खोज ही न लें उसे तब तक साफ भी
कैसे हो?
ठीक-ठीक
पता भी नहीं है किस मंजिल की ओर हम चले हैं। मिल ही न जाए मंजिल तब तक ठीक-ठीक पता
भी कैसे हो?
ऐसी
बेबूझ खोज है।
लेकिन
एक बात स्पष्ट है,
पूर्ण
रूपेण स्पष्ट है कि मनुष्य जैसा है वैसे में तृप्त नहीं है। कुछ खोया है, कुछ चूका है। कुछ होना चाहिए
जो नहीं है। उसे फिर हम जो भी नाम देना चाहें दें--कहें परमात्मा, कहें आत्मा, कहें मोक्ष, कहें निर्वाण, कहें सत्य। लेकिन एक बात सभी
के भीतर छिपी है कि मनुष्य को जैसा होना चाहिए वैसा वह नहीं है। कुछ चूका-चूका है।
कुछ बिंदु से,
केंद्र
से हटा-हटा है। जहां होना चाहिए वहां नहीं है।
और
इसलिए एक बेचैनी है, एक
संताप है। अहर्निश एक चिंता है। एक चिंता का बादल घेरे हुए है आदमी को। कितने ही
सुख हों,
वह
चिंता नहीं जाती;
और
कितना ही धन हो वह बात नहीं भूलती कि मुझे जहां होना था वहां नहीं हूं; जो होना था वह नहीं हूं; जो मुझे मिलना था अभी नहीं
मिला है। अभी खोज करनी है, अभी और
यात्रा शेष है। सब मिल जाए इस जगत का तो भी यह अभाव खड़ा ही रहता है, और सघन होकर खड़ा हो जाता है।
इस
अभाव के कारण ही धर्म है। धर्म इसलिए नहीं है कि परमात्मा है। परमात्मा का तो हमें
पता कहां है?
लेकिन
एक बात का हमें पता है कि हमारे भीतर अभाव है, कोई रिक्त स्थान है। और जब प्यास हो तो पानी
भी होता है और भूख हो तो भोजन भी होता है। और हमारे भीतर अभाव है तो उसे भरनेवाला
भी होगा। उस भरनेवाले का नाम ही परमात्मा है। जो उसे भर देगा वही परमात्मा है।
परमात्मा है या नहीं, यह
सवाल नहीं है;
हमारे
भीतर अभाव है। और अभाव है तो भरनेवाला भी होगा। जैसे प्यास है तो पानी भी होगा और
भूख है तो भोजन भी होगा।
और
आश्चर्यो का आश्चर्य तो तब प्रकट होता है, जब जिसे हम खोजते थे उसे अपने ही भीतर पा
लेते हैं। जिसे हमने न मालूम चांदत्तारों की कितनी-कितनी लंबी यात्राओं पर खोजा, दूर-दूर क्षितिजों के पास
जिसके लिए हम भटके--कितने जन्म, कितनी
दौड़ें! और नहीं पा सके। आश्चर्यो का आश्चर्य तो उस दिन, जिस दिन उसे हम अपने ही भीतर
पा लेते हैं।
सघन
विजन के सूनेपन में,
संघर्षो
की घनी तपन में,
खोजा
कहां कहां पर तुझको पाया अपने अंतर्मन में।
शायद
इसीलिए हम उसे खोज नहीं पाते क्योंकि वह खोजनेवाले में ही छिपा है। बीज को तोड़ो तो
क्या पाओगे?
न फूल
मिलेंगे न फल। बीज को तोड़ो तो क्या पाओगे? एक रिक्तता। मगर उसी रिक्तता में कहीं फूल
छिपे हैं,
कहीं
फल छिपे हैं,
कहीं
विराट वृक्ष छिपा है। अपने को ऐसे ही देखोगे तो खाली पाओगे, अपने को ठीक संदर्भ में रखकर
देखोगे तो भरा पाओगे, बस
संदर्भ की बात है।
बीज को
ऐसे ही तोड़ोगे तो फूल नहीं, फल नहीं, कुछ भी नहीं; लेकिन बीज को अगर भूमि में
डाल दोगे और टूटने दोगे भूमि में, ठीक
संदर्भ में तो जल्दी ही अंकुर आएंगे। अंकुराएगा बीज। जल्दी ही हरे पत्ते फूट
आएंगे। जल्दी ही तुम पाओगे एक वृक्ष खड़ा हो गया। जल्दी ही तुम पाओगे फूल लद गए, सुगंध उड़ने लगी। यह सब छिपा
था उसी बीज की रिक्तता में, उसी
बीज के शून्य में।
ऐसी
दशा मनुष्य की है। मनुष्य बीज है जिसमें परमात्मा छिपा है। मगर ऐसे ही काटो तो
मनुष्य के भीतर कुछ भी न पाओगे। इसलिए विज्ञान आत्मा को नहीं पाता; ऐसे ही बीज को काट लेता है।
धर्म आत्मा को पाता है क्योंकि धर्म ठीक संदर्भ में बीज को गलाता है। उस संदर्भ का
नाम धर्म है। उसी संदर्भ का नाम ध्यान। उसी संदर्भ का नाम प्रार्थना, पूजा, अर्चना। ये सब उसी की विधियां
हैं। जैसे कोई भूमि को साफ करे, कंकड़-पत्थर
हटाए, घास-पात उखाड़ दे; फिर बीज को डाले, फिर पानी सींचे और फिर वसंत
की प्रतीक्षा करे।
बस, धर्म का वास्तविक प्रयोजन
इतना ही है कि तुम्हें ठीक संदर्भ, ठीक भूमि मिल जाए तुम्हारा बीज तो टूटे, ऐसे ही न टूट जाए; ठीक पृष्ठ-भूमि में, ठीक संयोग में टूटे, सत्संग में टूटे। तुम भी फूल
बनोगे। और बनोगे फूल तभी तुम प्रसन्न हो सकोगे, प्रफुल्ल हो सकोगे; तभी तुम तृप्त हो सकोगे।
चारा
पील पिपील कौ,
जो
पहुंचावत रोज
दूलन
ऐसे नाम की,
कीन्ह
चाहिए खोज
दूलन
कहते हैंः जो हाथी को भी भोजन पहुंचाता है और जो चींटी को भी; छोटे की भी जिसे फिक्र है और
बड़े की भी;
क्षुद्र
की भी और विराट की भी--वह कौन है? दूलन
ऐसे नाम की,
कीन्ह
चाहिए खोज। इस सारे अस्तित्व के भीतर छिपा हुआ वह कौन है जो वृक्षों में हरा है, फूलों में लाल है, सूरज में सोना है, चांद में चांदी है। वह कौन है
जो इस सारे विस्तीर्ण अस्तित्व को संभाले है? वे कौन-से हाथ हैं जिनके सहारे यह विराट
आयोजन चल रहा है?
उसे
खोज लेना चाहिए।
दूलन
कहते हैं,
उसे
खोजे बिना तृप्ति नहीं हो सकेगी। उसकी जरूर खोज कर लेनी चाहिए। उसको पाया तो सब
पाया, उसको खोया तो सब खोया। उसकी
प्राप्ति में ही प्राप्ति है। क्योंकि उसके पाते ही फिर कुछ और पाने को शेष नहीं
रह जाता। फिर सब पा लिया। उसको पाते ही शेष भी कैसे रह जाएगा कुछ? मालिक को ही पा लिया तो उसकी
मालकियत भी पा ली। सम्राट को पा लिया तो उसका साम्राज्य भी पा लिया। और उसके बिना
तुम मांगते रहो,
मांगते
रहो, मांगते रहो, भिखमंगे हो और भिखमंगे रहोगे।
और तुम्हारे हाथ का भिक्षापात्र न कभी भरा है और न कभी भरेगा। मालिक से ही भरना
होगा।
दूलन
ऐसे नाम की,
कीन्ह
चाहिए खोज
कोउ
सुनै राग अरु रागिनी, कोउ
सुनै जु कथा पुरान
जन
दूलन अब का सुनै,
जिन
सुनी मुरलिया तान
कहते
हैं, मैंने तो सुन ली उसकी मुरली
की तान। मैंने तो उसका अनाहत नाद सुन लिया। मैं तो रंग गया उसके आनंद में। तुम्हें
भी पुकारता हूं कि तुम भी अब जगो। घड़ी आ गई। प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया! अब तुम भी
ओढ़ो प्रेम के रंग में, प्रेम
के रस में रंगी गई चदरिया को। तुम भी रंगो अब प्रभु की प्रीति में, भक्ति में भाव में। मैंने तो
सुन ली उसकी मुरलिया। मैंने तो उसका अनाहत नाद सुन लिया। और जब से उसका नाद सुना
है तब से सब नाद फीके हो गए। जब से उसका संगीत सुना है तब से और सब संगीत केवल
शोरगुल हो गए। जिसने उसकी रोशनी देखी उसके लिए सब रोशनियां अंधेरी हो जाती हैं।
जिसने उसके आनंद को अनुभव किया उसके लिए सारे सुख दुःखों जैसे हो जाते हैं। जिसने
उसका फूल खिला देखा उसके लिए सारे फूल व्यर्थ हो गए, कांटे हो गए। जिसने उस अमृत
जीवन की एक बूंद पी ली उसके लिए बाकी सारे जीवनों में कोई सार न रहा, अर्थ न रहा। उसके लिए और सब
जीवन मृत्युवत हो गए।
कोउ
सुनै राग अरु रागिनी . . .
दूलन
कहते हैं किसी को मैं सुनता हूं राग सुनते, किसी को रागिनी सुनते। कोई वीणा सुन रहा है, कोई और-और संगीतों में लीन
है।
कोउ
सुनै जु कथा पुरान. . .कोई कथाएं सुन रहा है प्रभु की, कोई पुराण पढ़ रहा है। लोग
शास्त्रों में डूबे हैं, शब्दों
में डूबे हैं,
ध्वनियों
में डूबे हैं।
जन
दूलन अब का सुनै. . .लेकिन अब मैं क्या सुनूं! मुझे सुनने को कुछ भी नहीं बचा, जब से उसे सुना। जिन सुनी
मुरलिया तान. . .उसका अनाहत नाद मैंने सुन लिया है।
एक नाद
है इस अस्तित्व का। जब तुम परिपूर्ण शांत हो जाते हो, शून्य हो जाते हो तब सुनाई
पड़ता है। जब तुम्हारे चित्त में कोई भी शोरगुल नहीं रह जाता, विचारों की दौड़-धूप नहीं रह
जाती, विचारों का सतत् प्रवाह जब
अवरुद्ध हो जाता है, जब
तुम्हारे भीतर सन्नाटा होता है--बस सन्नाटा! न शब्द बनते, न विचार, न वासना, न भाव, न कल्पना, न स्मृति उठती! जब तुम्हारे
भीतर सारा प्रवाह क्षीण हो जाता है चित्त का, चित्त-वृत्ति निरोध हो जाता है जब, जब तुम्हारे भीतर बस तुम ही
होते हो,
जैसे
खाली दर्पण,
जिस पर
कोई प्रतिबिंब नहीं बनता, वैसी
अवस्था में तुम्हें वह नाद सुनाई पड़ता है जो इस अस्तित्व का नाद है; जो इस अस्तित्व के प्राणों
में समाया हुआ है,
जो इस
अस्तित्व के हृदय की धड़कन है, जो इस
अस्तित्व की श्वासों की हलन-चलन है। उस नाद को अनाहत नाद कहा है।
अनाहत
इसलिए कि वह दो चीजों के टकराने से पैदा नहीं होता, आहत नहीं है। तबला बजाओ तो दो
चीजें टकरा गईं,
हाथ
तबले से टकराया। वीणा बजाओ तो दो चीजें टकरा गईं, अंगुलियों ने तार छेड़े। वह
अनाहत नाद है। वह दो चीजों के टकराने से नहीं होता क्योंकि उस शून्य में एक ही है, दो नहीं हैं। वह एक की ही मौज
है। वह उस एकाकी का नृत्य है। वह एकांत संगीत है। उसको ही काव्य की भाषा में उसकी
मुरली की तान कहा है। वह बज ही रही है सतत्। जिन्होंने जाना है उन्होंने तो ऐसा
जाना कि यह सारा अस्तित्व उसी नाद से बना है, उसी नाद से निर्मित है, उसी नाद का सघन रूप है; लेकिन चुप होना सीखना पड़े, मौन होना सीखना पड़े। जितनी
सूक्ष्म बात सुननी हो उतनी ही गहराई मौन की होनी चाहिए। और जब परम मौन फलित हो जाए
तो ही तुम परम संगीत भी सुन सकोगे। वह तुम्हारे भीतर बज रहा है, तुम्हारे बाहर भी बज रहा है।
हम उसी के महोत्सव के अंग हैं।
धरती
जब डूबे सागर में,
एकाकार
प्रलय होती है।
डूब
चुका हूं तुममें इतना,
जितना
स्वर में लय होती है।
तेरी
सुधियों के सागर में भीग गया है तन मन सारा,
सांसों
की असीम गहराई मेरा डूबा हुआ किनारा।
चंचल
लहरों सा आंचल ही मेरे जीवन की गतिमयता,
मृत्यु
अतल सी मधुर गोद में महामिलन की अमर सफलता।
त्याग
प्रेम की अमर कहानी,
जिसमें
हार विजय होती है।
धरती जब
डूबे सागर में,
एकाकार
प्रलय होती है।
डूब
चुका हूं तुममें इतना,
जितना
स्वर में लय होती है।
बाती
जले शलभ भी जलता दीपक तो आधार पात्र है,
अमर
प्राण जन्मों का साथी नश्वर तन व्यवहार मात्र है।
तन के
हित ही सीमाएं हैं हृदय मुक्त अंबर असीम है,
सीमाहीन
हुआ जब तन भी सीमा बन जाती असीम है।
भेद
नहीं रहता जब मन में,
काया
तभी विलय होती है।
धरती
जब डूबे सागर में,
एकाकार
प्रलय होती है।
डूब
चुका हूं तुममें इतना,
जितना
स्वर में लय होती है।
अनजाने
पनघट तक तेरे आया रीता कलश उठाए,
तुमने
चितवन की डोरी से बांध प्रेम में प्राण डुबाए।
अब तो
कुछ ऐसा लगता है पनघट से ही घट का जीवन,
पनघट
से ही घट की सुंदरता घट से ही पनघट का यौवन।
पता
नहीं था मुझको पहले
प्रेम
प्यास अक्षय होती है।
धरती
जब डूबे सागर में,
एकाकार
प्रलय होती है।
डूब
चुका हूं तुममें इतना
जितना
स्वर में लय होती है।
जैसे
स्वर में लय डूबी है; लय को
स्वर से अलग नहीं किया जा सकता। जैसे किरण से रोशनी को अलग नहीं किया जा सकता ऐसे
जब तुम अपने भीतर के शून्य में डूब जाते हो। एक तुम्हारे भीतर महाप्रलय हो जाती
है। अहंकार गया और गया सदा को। और गया सारा शोरगुल और सारा बाजार अहंकार का। शून्य
रहा; उसी शून्य में पूर्ण का
पदार्पण होता है।
डूब
चुका हूं तुममें इतना,
जितना
स्वर में लय होती है।
धरती
जब डूबे सागर में,
एकाकार
प्रलय होती है।
जैसे
धरती सागर में डूब जाए और प्रलय हो जाए, ऐसे ही तुम जब अपने ही शून्य में लीन हो
जाते हो तब अनाहत सुनाई पड़ता है; तब
उसकी मुरली की तान सुनाई पड़ती है। मंदिरों में तुमने कृष्ण की मूर्ति बना रखी है
मुरली लिए हुए। लाख करो पूजा वहां, कुछ भी न होगा। वह तो प्रतीक है। वह तो केवल
काव्य प्रतीक है,
प्यारा
प्रतीक है। समझो-बूझो तो बड़ा प्यारा है। और ऐसे ही सिर पटकते रहो, आरती उतारते रहो तो बिल्कुल
व्यर्थ है। वह अनाहत नाद का प्रतीक है।
कृष्ण
के साथ राधा का नाम ऐसे जुड़ा है जैसे काया के साथ छाया जुड़ी होती है। लेकिन
शास्त्र कहते हैं कि राधा कब हुई, कहना
मुश्किल है। पुराने शास्त्रों में राधा का कोई उल्लेख नहीं है। राधा का उल्लेख
बहुत बाद में शुरू हुआ। मध्ययुग के संतों ने राधा का उल्लेख करना शुरू किया। और अब
तो राधा उतनी ही ऐतिहासिक मालूम होती है जितने कृष्ण। लेकिन कभी उसका नाम भी नहीं
था। राधा कभी हुई ऐसा नहीं है, राधा
प्रतीक है। राधा बड़ा मीठा प्रतीक है। जिन्होंने भीतर के अनाहत नाद में डुबकी लगाई
है वे कुछ ऐसा अर्थ करते हैंः वे कहते हैं, राधा धारा का उल्टा रूप है, केवल प्रतीक है। धारा बहती है
बाहर की तरफ,
नीचे
की तरफ। गंगा उतरी हिमालय से, चली
सागर की तरफ। छोड़ दिया स्रोत, गंगोत्री
छोड़ दी। चली गंगा सागर की तरफ। धारा बहती है दूर की तरफ। गंतव्य उसका बहुत दूर है।
धारा अपने स्रोत से दूर होती जाती है, प्रतिपल दूर होती जाती है।
अनाहत
नाद को सुननेवाले कहते हैं कि धारा को उल्टा करके राधा शब्द बनाया है। जब तुम्हारी
चेतना की धारा बाहर की तरफ न बह कर भीतर की तरफ बहती है, जब तुम गंगा-सागर की तरफ न
जाकर गंगोत्री की तरफ चल पड़ते हो, जब तुम
अपने में ही डुबकी मारने लगते हो तब तुम्हारे भीतर राधा का जन्म होता है। धारा
राधा बन जाती है। और जैसे ही तुम राधा बने कि कृष्ण से मिलन है; कि सुनी उसकी बांसुरी; कि सुनाई पड़ी उसकी तान; कि दिखाई पड़ा उसका नृत्य।
जिन्हें भी खोजना है अनाहत नाद को उन्हें राधा बनना होगा।
राधा
कोई ऐतिहासिक व्यक्तित्व नहीं है। राधा प्रत्येक भक्त के भीतर घटने वाली घटना का
नाम है। राधा की अवस्था भक्त की चरम अवस्था है। बस, कृष्ण से मिलने के क्षणभर
पूर्व राधा का जन्म होता है--बस क्षणभर पूर्व! क्षणभर राधा नाचती है कृष्ण के
आस-पास,
आती-जाती
पास, आती-जाती पास, आती-जाती पास और फिर कृष्ण
में लीन हो जाती है। जिस दिन तुम अपनी ही चेतना में, अपने ही मूलस्रोत में लीन हो
जाते हो उस दिन प्रलय घट गई, अहंकार
गया। और जहां अहंकार नहीं है वहीं वह परम संगीत है। तुम्हारा अहंकार व्याघात है, व्यवधान है। तुम्हारे अहंकार
के कारण छंद बंध नहीं पा रहा है, टूट-टूट
जाता है। गीत जम नहीं पाता, उखड़-उखड़
जाता है। राग बैठ नहीं पाता, बांसुरी
बज नहीं पाती। तुम्हारा अहंकार बांसुरी में भरा है, बजे बांसुरी तो कैसे बजे? अहंकार से खाली हो बांसुरी, बस पोली पोंगरी रह जाए। कबीर
ने कहा कि मैं तो बांस की पोली पोंगरी हूं। और जब से बांस की पोली पोंगरी हो गया
हूं तब से अहर्निश, दिन और
रात उसका संगीत मुझसे बह रहा है।
दूलन
यह परिवार सब,
नदी-नाव-संजोग
उतरि
परे जहंत्तहं चले,
सबै
बटाऊ लोग
यह
संसार,
यह
परिवार,
प्रियजन, मित्र, यह भीड़-भाड़, यह संबंधों का विस्तार
नदी-नाव संयोग है। तुम नदी पार होने गए, नाव पर बैठे, और भी बहुत लोग बैठे। फिर
थोड़ी वार्ता भी हुई, जान-पहचान
भी हुई। पूछा,
कहां
से आते हैं,
कहां
जाते हैं! नाम-धाम, पता-ठिकाना।
मैत्री भी बन गई शायद, शत्रुता
भी निर्मित हो गई शायद। सब हो गया। और देर नहीं लगनी है, जल्दी ही नाव दूसरे किनारे लग
जाएगी। और फिर सब बटोही उतर पड़े और अपनी-अपनी राह चल पड़े।
जन्म
नाव में बैठना है,
मृत्यु
नाव से उतर जाना है। बीच में सब मित्रताएं हैं, शत्रुताएं हैं। कितना हम फैलाव नहीं कर
लेते! कितना हम पसारा नहीं कर लेते! कितनी आसक्तियां, कितने मोह, किस-किस भांति हम एक-दूसरे से
बंध नहीं जाते,
एक-दूसरे
को बांध नहीं लेते! कितने बंधन! और कितना कष्ट पाते हैं उन बंधनों से। और यह जानते
हुए कि मौत आती होगी। यह लगी नाव किनारे, यह लगी नाव किनारे--और उतर जाएंगे बटोही। न
जन्म के पहले उनसे हमारा कुछ संबंध था, न मृत्यु के बाद कोई संबंध रह जाएगा। न हम
उन्हें पहले जानते थे नदी में बैठने के पहले, नाव में उतरने के पहले, न फिर कभी जानेंगे। मगर थोड़ी
देर को घड़ीभर को साथ, और
हमने कितना संसार रचा लिया!
दूलन
यह परिवार सब,
नदी-नाव-संजोग
उतरि
परे जहंत्तहं चले,
सबै
बटाऊ लोग
फूलों
को मैंने खिलते और बिखरते दोनों देखा है,
कैसे
कह दूं उपवन तेरा मधुमास बना रह पाएगा।
होते
हैं जहां फूल लाखों पतझार वहीं पर आता है,
पतझार
जहां डसता होता मधुमास वहीं मुस्काता है।
यह
परिवर्तन की धूप-छांह जग जीवन का शाश्वत क्रम है,
केवल
मुसकाने की उमंग सपनों में पलता विभ्रम है।
सपनों
को मैंने बनते और टूटते दोनों देखा है,
कैसे
कह दूं हर स्वप्न तुम्हारा पूरा ही हो जाएगा।
जिन
नयनों में मधुस्वप्न भरे उनमें ही आंसू पलते हैं,
जिन
अधरों से है तृप्ति सुखद वे ही तृष्णा में जलते हैं।
सपने
तो रूठे नयनों से पर चुका न आंसू का सागर,
खारी
जल बढ़ता रहा और फूटी केवल रीती गागर।
गागर
को मैंने भरते और फूटते दोनों देखा है,
कैसे
कह दूं यह कलश तुम्हारा सदा भरा रह पाएगा।
जो भी
जन्मा इस धरती पर पैदा होते ही रोया है,
जागा
जीवन भर रोते ही दो पल न चैन से सोया है।
सुख
रूप और श्रृंगार सदा महका दो दिन फिर चला गया,
जिसने
अभिमान किया निज पर वह अहं स्वयं से छला गया।
सूरज
को मैंने चढ़ते और उतरते दोनों देखा है,
कैसे
कह दूं अभिमान तुम्हारा तुम्हें अमर कर पाएगा।
फूलों
को मैंने खिलते और बिखरते दोनों देखा है,
कैसे
कह दूं उपवन तेरा मधुमास बना रह पाएगा।
वसंत
आते हैं,
जाते
हैं। जीवन आता है,
बिखरता
है। फूल खिलते हैं, धूल
में मिल जाते हैं। इस क्षणभंगुरता को स्मरण रखो, सदा स्मरण रखो। क्योंकि इस
क्षणभंगुरता का स्मरण बना रहे तो शाश्वत की खोज पैदा हो सकती है। क्योंकि
क्षणभंगुर तृप्त नहीं करता। जो आज है और कल नहीं हो जाएगा, उसके होने में सार भी क्या
है! अभी जो हाथ में है और अभी जो हाथ से छूट जाएगा, क्षणभर को इसे पकड़ रखने में
अर्थ भी क्या है?
पानी
के बबूले हैं फिर,
बने और
मिटे। इनका भरोसा क्या है? थोड़ी
देर के सपने हैं और टूटे। और फिर कितने ही प्रीतिकर सपने क्यों ने हों, जब टूट ही जाने हैं तो एक बात
निश्चित है,
वही
टूटता है जो नहीं है।
यह धर्म
की शाश्वत आधारशिलाओं में से एक है--वही टूटता है जो नहीं है। जो है वह सदा है। जो
है वह न तो आता और न जाता। जो आता है जाता है, वह नहीं है। इसलिए आते-जाते को माया कहा है।
माया का इतना ही अर्थ हैः लगता है कि है। बस लगता है कि है। ठीक से लग भी नहीं
पाता कि हाथ से छिटक जाता है, बिखर
जाता है।
फूलों
को मैंने खिलते और बिखरते दोनों देखा है,
कैसे
कह दूं उपवन तेरा मधुमास बना रह पाएगा।
सपनों
को मैंने बनते और टूटते दोनों देखा है,
कैसे
कह दूं हर स्वप्न तुम्हारा पूरा ही हो जाएगा।
गागर
को मैंने भरते और फूटते दोनों देखा है,
कैसे
कह दूं यह कलश तुम्हारा सदा भरा रह पाएगा।
सूरज
को मैंने चढ़ते और उतरते दोनों देखा है,
कैसे
कह दूं अभिमान तुम्हारा तुम्हें अमर कर पाएगा।
ज़रा
गौर से देखो! ज़रा चारों तरफ आंख खोलकर देखो! जो है वह छायाओं की तरह भागा जा रहा
है। जो अभी था,
अभी
नहीं है। जो अभी हो गया है, अभी
नहीं हो जाएगा। यहां क्या पकड़ने योग्य है? यहां क्या छाती से लगाने योग्य है? यहां जिसे तुम छाती से लगा
रहे हो वह भी नहीं बचेगा और छाती भी नहीं बचेगी। न हाथ रह जाएंगे न जिसे तुमने
हाथों में पकड़ रखा है वह रह जाएगा। यह बात अगर गहरी बैठ जाए, तीर की तरह चुभ जाए तो जगाने
के काम आती है।
इस
जगत् में केवल वे ही जागते हैं जो इस जगत् की क्षणभंगुरता को देख लेते हैं और
क्षणभंगुरता में व्यर्थता को जान लेते हैं। जब संसार असार मालूम पड़ता है तो फिर
चैन नहीं पड़ती। फिर एक बेचैनी पैदा होती है कि सार कहां है? फिर हम क्या खोजें? फिर हम किस शरण में जाएं? फिर हम किस छाया को खोजें जो
हमें छोड़ेगी नहीं?
उसी
घड़ी में कोई जाता है--"बुद्धं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं
गच्छामि।'
उस
क्षण कोई खोजता है किसी बुद्ध का साथ। उस क्षण कोई खोजता है बुद्धों की संगति। उस
क्षण कोई खोजता है बुद्धों का सार क्या है, उनके जागरण का मूल सूत्र क्या है, धर्म क्या है! जब तक तुम
सपनों पर भरोसा करोगे, सत्य
की खोज नहीं होगी शुरू। जब तक सपनों को ही सत्य माने रहोगे, कैसे सत्यों को खोजोगे? सपना सपना दिखाई पड़े, सत्य की खोज होनी अनिवार्य है, अपरिहार्य है; फिर बचा नहीं जा सकता।
दूलन
यह जग आइके,
काको
रहा दिमाक
चंदरोज
को जीवना,
आखिर
होना खाक
दूलन
कहते हैं,
इस
संसार में आकर किसकी रही? कौन
बचा पाया अपनी लाज? कौन
अपने अहंकार को संभाल पाया? किसका
सिर ऊंचा रहा?
दूलन
यह जग आइके,
काको
रहा दिमाक
चंदरोज
को जीवना,
आखिर
होना खाक
बड़े-से-बड़े
सिर, सिकंदरों के सिर भी गिरे धूल
में और मिले धूल में। कितने अकड़ कर चलते थे ये लोग! कैसी इनके हाथों में नंगी
तलवारें थीं! कितना दंभ था! चलते थे तो पृथ्वी कंपती थी। हंसती होगी पृथ्वी
क्योंकि पृथ्वी तो भलीभांति जानती है कि मुझसे ही बने हो और मुझमें ही मिल जाओगे।
थोड़ी देर उछल लो,
कूद लो, फिर कब्र में सो जाना है।
मेरे ही मिट्टी के अंग हो, मुझ पर
ही अकड़ कर चल रहे हो!
लेकिन
फिर भी भ्रांति जारी है। कितने सिकंदर आए कितने सिकंदर गए, पर भ्रांति नहीं टूटती। हर
नया बच्चा फिर वही भ्रांति लेकर आ जाता है। हम सीखते ही नहीं। शायद मनुष्य के जीवन
में सबसे बड़े रहस्य की बात यही है कि सब तरफ मृत्यु को स्मरण दिलाने वाली घटनाएं
घट रही हैं। यह पत्ता अभी हरा था और पीला होकर गिर गया, मगर तुम्हें होश नहीं आएगा।
तुम इस पीले पत्ते को कुचलते हुए, पैर से
रोंदते हुए चले जाओगे। तुम्हें याद भी न आएगा कि यह पीला पत्ता तुम्हारी पूरी कथा
कह गया है।
यह
अर्थी गुजर गई राह से। कल इसी आदमी से रास्ते पर जय रामजी भी हुई थी। आज यह आदमी
समाप्त हो गया। ले चले लोग इसे बांधकर मरघट की तरफ। और तुम राह के किनारे खड़े होकर
बड़ी सांत्वना प्रकट करते हो, बड़ी
संवेदना! कहते,
बड़ा
बुरा हुआ। कच्ची गृहस्थी थी, बच्चों
का क्या होगा?
जो मर
गया उसके प्रति तुम बड़ी संवदेना प्रकट करते हो, मगर तुम्हें एक क्षण को भी याद नहीं आती कि
कल तुम्हारी अर्थी ऐसे ही गुजरेगी और दूसरे लोग राह के किनारे खड़े होकर तुम्हारे
प्रति संवेदना प्रकट करेंगे--तुम्हारी कच्ची गृहस्थी के प्रति, तुम्हारे बच्चों के प्रति।
ज़रा कुछ अपनी तो याद करो! हर अर्थी तुम्हारी अर्थी है, अगर समझ हो। और हर पीला पत्ता
तुम्हारी मौत है,
अगर
कुछ समझ हो। हर पानी का बबूला जब टूटता है, तुम्हीं टूटते हो।
अंग्रेजी
में कहावत है कि मत भेजो पूछने किसी को कि चर्च में घंटियां किसके लिए बजती हैं!
क्योंकि जब कोई ईसाई मरता है तो चर्च की घंटियां बजती हैं खबर देने को कि कोई
मृत्यु हो गई। कहावत है--मत भेजो किस को पूछने कि चर्च की घंटियां किसके लिए बजती
हैं? तुम्हारे लिए ही बजती हैं।
जो
व्यक्ति ऐसा देखने लगे--हर पीला पत्ता मेरी कथा, मेरी व्यथा; हर अर्थी मेरी अर्थी, हर चिता मेरी चिता--वह कितनी
देर तक सपनों में खोया रहेगा? कितनी
देर तक?
उसे
जागना ही होगा। यह दंश ऐसा होगा कि जगा देगा। यह पीड़ा ऐसी होगी कि उसे आंख खोलकर
उठकर बैठ जाना होगा। उसे सत्य की खोज पर निकलना होगा।
यह
इंद्रधनुष के रंगों का संसार मिले न मिले तो क्या।
जब
स्वयं कल्पना झूठी है साकार मिले न मिले तो क्या।
जितना
मोहक लघु चित्र जगत्,
उतना
ही विस्तृत शून्य गगन।
वैसे
जग भी विस्तृत लेकिन,
उसका
उतना जो जहां मगन।
इस जग
में उल्टी अजब रीति,
रोते
देखा पाने वाला।
सब
लुटे यहां आकर लेकिन,
हंसते
देखा खोने वाला।
इस
महाशून्य की सीमा सा विस्तार मिले न मिले तो क्या।
जब
लुटना है तो वैभव का भंडार मिले न मिले तो क्या।
क्या
है यदि जग के हर सुख से,
चाहों
की झोली भर जाए।
शूलों
के बो देने पर भी,
उपवन
फूलों से मुस्काए।
पर फूल
सभी दो दिन महके,
आए
मुरझाकर चले गए।
जिसने
भी प्यार किया जग में,
वह सदा
अंत में छले गए।
मधुवन
के सुंदर फूलों-सा फिर प्यार मिले न मिले तो क्या।
जब
जीवन ही क्षणभंगुर है अधिकार मिले न मिले तो क्या।
नयनों
ने जिसको कहा सत्य,
अंतः
ने उसको कहा झूठ।
इस झूठ
सत्य के विभ्रम में,
हर
सत्य हाथ से गया छूट।
कब
सांस रही कब प्यास रही,
कब
जीने की अभिलाष रही।
धोखा
ही केवल रहा सत्य,
तृष्णा
मरघट के पास रही।
तृष्णा
में डूबे नयनों को श्रृंगार मिले न मिले तो क्या।
जब
छलना ही है जगत् सत्य आधार मिले न मिले तो क्या।
यहां
पाकर भी क्या होगा? यहां
पानेवाले और न पानेवाले सब तो बराबर हो जाते हैं। मृत्यु तो दोनों को नंगा कर जाती
है, दोनों के हाथ रिक्त कर जाती
है।
इस
महाशून्य की सीमा-सा विस्तार मिले न मिले तो क्या।
जब
लुटना है तो वैभव का भंडार मिले न मिले तो क्या।
सब
बराबर है। यहां सम्राट और प्यादे और पिद्दी, सब बराबर हैं। थोड़ा-सा शोरगुल है, थोड़ा-सा उपद्रव है, थोड़ी-सी कहानी है। पूरी भी
नहीं हो पाती कहानी और लोग पूरे हो जाते हैं। किसकी कहानी कब पूरी हो पाती है? कौन अपनी आकांक्षाएं पूरी कर
पाता है?
कौन
अपनी अभीप्साएं पूरी कर पाता है? कौन कह
सकता है कि मेरी आकांक्षाएं आ गईं पूर्णता पर? कितने ही दौड़ो, तुम्हारे और क्षितिज के बीच
की दूरी बराबर रहती है। कितने ही दौड़ो, तुम्हारी और तुम्हारी वासना के बीच की दूरी
बराबर उतनी की उतनी रहती है--मिले तो, न मिले तो।
यह
इंद्रधनुष के रंगों-सा संसार मिले न मिले तो क्या।
जब
स्वयं कल्पना झूठी है साकार मिले न मिले तो क्या।
इंद्रधनुष-सा
संसार है यह। दीखता खूब प्यारा, हाथ
कुछ भी नहीं लगता। इंद्रधनुषों पर मुट्ठी बांधी, हाथ कुछ भी नहीं लगता। शायद
हाथ थोड़ा भीग जाए क्योंकि इंद्रधनुष कुछ भी नहीं है, हवा में लटकी हुई पानी की
छोटी-छोटी बूंदें;
जिनसे
सूरज की किरणें गुजर गयीं और जाल रच गयीं रंगों का।
मरते
वक्त हाथ गीला भी नहीं होता; इंद्रधनुष
में तो हाथ गीला भी हो जाएगा। मरते वक्त हाथ बिल्कुल खाली और बिल्कुल रूखा होता
है। कितने इंद्रधनुष पकड़े, कितने
इंद्रधनुषों के पीछे दौड़े! छोटे बच्चे ही तितलियों के पीछे नहीं दौड़ रहे हैं, बूढ़े भी तितलियों के पीछे दौड़
रहे हैं। छोटे बच्चों और बूढ़ों में कोई भेद नहीं है। छोटे बच्चे भी खिलौनों में
उलझे हैं,
बूढ़े
भी खिलौनों में उलझे हैं। खिलौने किन्हीं के छोटे हैं, किन्हीं के बड़े हैं, बस इतना ही भेद है। छोटे
बच्चे भी उसी अहंकार की यात्रा पर हैं जिस पर बूढ़े भी। छोटे बच्चे क्षमा किए जा
सकते हैं,
उनका
अनुभव क्या! मगर बूढ़े जो मौत के कगार पर आ गए, जिनका एक पैर कब्र में है, वे भी अभी आपाधापी में लगे
हैं--और थोड़ा छीन लें और थोड़े बड़े पद पर हो जाएं और थोड़ी प्रतिष्ठा और थोड़ा यश मिल
जाए और थोड़ा नाम हो जाए और थोड़ी अकड़ रह जाए। थोड़ा सोचना। थोड़ा विचारना। दौड़ने के
पहले थोड़े ठिठकना।
मधुवन
के सुंदर फूलों-सा फिर प्यार मिले न मिले तो क्या।
जब
जीवन ही क्षणभंगुर है अधिकार मिले न मिले तो क्या।
तृष्णा
में डूबे नयनों को श्रृंगार मिले न मिले तो क्या।
जब
छलना ही है जगत् सत्य आधार मिले न मिले तो क्या।
एक बार
यह दिखाई पड़ जाए,
अपना
अंत दिखाई पड़ जाए तो तुम संन्यस्त हो गए। इसे मैं संन्यास कहता हूं; यही दीक्षा है। मृत्यु दीक्षा
देती है मनुष्य को, और कोई
दीक्षा नहीं दे सकता। इसलिए मृत्यु गुरु है और इसीलिए गुरु को मृत्यु कहा है।
आचार्यो मृत्युः।
गुरु
को मृत्यु कहा है क्योंकि मृत्यु से बड़ा और कोई गुरु नहीं है। नचिकेता ने ही
मृत्यु के देवता से दीक्षा नहीं ली थी, सभी नचिकेताओं को मृत्यु के देवता से ही
दीक्षा लेनी पड़ती है। जो भी कभी सत्य की खोज पर निकला है उसे मृत्यु से ही दीक्षा
लेनी पड़ती है। मृत्यु की दीक्षा के बिना द्वार ही नहीं खुलता अमृत का। तुम मृत्यु
को पहचानो। गीता और कुरान और बाइबिल पढ़ने से कुछ भी न होगा, मृत्यु को पहचानो।
अकसर
तो ऐसा होता है कि गीता, कुरान, बाइबिल वैसे लोग पढ़ते हैं जो
मृत्यु से डरे हुए हैं। मृत्यु के डर के कारण पढ़ते हैं। मृत्यु से बचने के लिए
पढ़ते हैं कि कोई आश्वासन दे दे कि आत्मा अमर है। कि कहीं भरोसा भीतर बैठ जाए कि
मुझे नहीं मरना है; कि मैं
तो रहूंगा। इसलिए लोग शास्त्र पढ़ते हैं। शास्त्र पढ़कर सांत्वना खोजते हैं। यह तो
उल्टी बात हो गयी।
मृत्यु
को पढ़ो तो शास्त्रों को समझ सकोगे। शास्त्रों को पढ़ा तो कहीं ऐसा न हो जाए कि तुम
मृत्यु को भी झुठलाने लगो। कहीं ऐसा न हो जाए कि मृत्यु और अपने बीच एक पर्दा बना
लो और वही पर्दा फिर तुम्हारे और परमात्मा के बीच पर्दा हो जाएगा। मृत्यु को तो
देखना ही होगा आंख भरकर। मृत्यु इस जीवन का सबसे बड़ा सत्य है--सबसे सुनिश्चित, सर्वाधिक सुनिश्चित। और कुछ
निश्चित नहीं है,
बस
मृत्यु ही निश्चित है। धन मिलेगा नहीं मिलेगा, पद मिलेगा नहीं मिलेगा, कोई कुछ कह नहीं सकता। एक बात
निश्चित है कि मृत्यु मिलेगी। कुछ भी उपाय करो, मृत्यु मिलकर ही रहेगी। इधर जाओ कि उधर, भिखारी रहो कि सम्राट, मृत्यु मिलकर रहेगी। मृत्यु
कभी अपना वचन नहीं तोड़ी है, उसका
भर भरोसा है।
इस
जगत् में अगर किसी पर श्रद्धा करनी हो तो मृत्यु पर ही करनी चाहिए क्योंकि मृत्यु
कभी किसी को धोखा नहीं देती। आती ही है, कभी दगा नहीं करती। तुम कहीं भी छिपो, खोज लेती है। कभी वचन-भंग
नहीं करती। इस मृत्यु के महासत्य को जो पहचान लेता है आंख भरकर, आंख मिलाकर जो देख लेता है
मृत्यु की आंखों में, उसके
जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है; वही क्रांति संन्यास है। फिर
वह घर में रहे,
बाजार
में रहे,
कुछ
फर्क नहीं पड़ता। मृत्यु की याद ने उसकी दौड़-धूप बंद कर दी, उसकी आपाधापी गयी, उसकी महत्त्वाकांक्षा मर गयी।
मिला तो ठीक,
नहीं
मिला तो ठीक। सफल हुए तो ठीक, असफल
हुए तो ठीक। यश हुआ तो ठीक, अपयश
हुआ तो ठीक। आएगी कल मौत, सब पर
पानी फेर जाएगी। यशस्वी, अयशस्वी, सब धूल चाट जाएंगे।
ठीक
कहते हैं दूलन--
दूलन
यह जग आइके,
काको
रहा दिमाक
चंदरोज
को जीवना,
आखिर
होना खाक
जो
दर्पण नयन जला डाले,
क्यों
उससे आंखें चार करे।
उसको
हंसकर अपनाए क्यों,
जिसको
न हृदय स्वीकार करे।
अभिलाषाओं
का गला घोंट,
कोई कब
तक जी सकता है।
विष से
प्याला भरकर कोई,
क्या
अमृत कह पी सकता है।
छल
सकती हैं प्यासी आंखें,
पर
हृदय नहीं छल सकता है।
जल
सकता बिना तेल दीपक,
बिन
बाती कब जल सकता है।
विष को
विष कहकर पी जाए,
क्यों
सुधा समझ कर प्यार करे।
माना
जीवन नाटक है पर,
सब
मनचाहे का खेल यहां।
हर गलत
भूमिका लेने पर,
हो
जाता सब बेमेल यहां।
विष
अंतर में मुख में पय हो,
वह
छलनाओं की गागर है।
जो
शूलों को भी फूल कहे,
वह
धोखे का सौदागर है।
क्यों
स्नेह करे डसकर उससे,
जो
धोखे का व्यापार करे।
यह
रंग-बिरंगी सी दुनिया,
किसके
घर सब कुछ आ पाए।
उसकी
होती उतनी दुनिया,
जिसके
मन जितनी भा जाए।
मनचाहे
का सब रंग ढंग,
मनचाहे
का हंसना रोना।
है
प्यार किसी को माटी से,
तो चाह
रहा कोई सोना।
जब
अपने मन का दुःख सुख है,
तब
क्यों कृत्रिम व्यवहार करे।
जो
दर्पण नयन जला डाले,
क्यों
उससे आंखें चार करे।
उसको
हंसकर अपनाए क्यों,
जिसको
न हृदय स्वीकार करे।
ज़रा
आंख मिलाओ मौत से और तुम्हारा हृदय तत्क्षण एक इनकार से भर जाएगा--इनकार उस सबसे
जो व्यर्थ है;
इनकार
उस सबसे जो मौत छीन लेगी; इनकार
उस सबसे जिसमें कल तुम इतने रस-लिप्त होकर दौड़ रहे थे। तुम्हारा हृदय इनकार कर
देगा। तुम्हारी अंतर्वाणी कह देगी कि मत व्यर्थ में समय गंवाओ। बहुत दौड़ लिए, अब रुको। बहुत खोज लिए बाहर, अब भीतर खोजो।
उसको
हंसकर अपनाए क्यों,
जिसको
न हृदय स्वीकार करे।
फिर
झूठी हंसी,
फिर
झूठी औपचारिकता,
फिर
झूठे ढोंग गिरने लगते हैं, अपने
से गिरने लगते हैं।
विष को
विष कहकर पी जाए,
क्यों
सुधा समझ कर प्यार करे।
जीता
तो आदमी तब भी है--जानकर कि मौत आ रही है। लेकिन तब वह जानता है कि विष विष है, अमृत नहीं है। यह जीवन मृत्यु
का ही एक विस्तार है। मौत आखिर में नहीं आती सत्तर साल के बाद, जन्म के क्षण से ही आनी शुरू
हो जाती है। मौत सत्तर साल पर फैली हुई है। यह पूरा जीवन मृत्यु की ही लंबी
श्रृंखला है;
धीमी-धीमी, आहिस्ता-आहिस्ता घटती हुई मौत
है।
क्यों
स्नेह करे डरकर उससे,
जो
धोखे का व्यापार करे।
इस
जीवन में डरे-डरे,
भयभीत, घबड़ाए हुए क्यों हम जिएं? डर क्या है? जहां सभी छिन जाना है वहां
डरने योग्य भी क्या है?
तुम्हें
यह पता है,
पिछले
दो महायुद्धों में मनोवैज्ञानिक बहुत चकित हुए यह बात जानकर कि सैनिक युद्ध पर जब
तक जाते नहीं तब तक डरते हैं; लेकिन
जैसे ही युद्ध के मैदान पर पहुंच जाते हैं, उनका सब डर समाप्त हो जाता है। यह चकित होने
वाली बात थी। होना तो उल्टा था। उल्टा होता तो तर्कयुक्त होता। अपनी छावनियों में
तो डरते हैं मौत से, घबड़ाते
हैं कि हमारा नंबर न आ जाए जाने का। छाती धड़कती रहती है। ठीक से सो नहीं सकते।
रोज-रोज सैनिक जा रहे हैं, आज
नहीं कल हमारा नंबर आता होगा। लेकिन जब नंबर आ जाता है और जब चल ही पड़ते हैं और जब
पहुंच ही जाते हैं रणक्षेत्र में जहां गोलियां चल रही हैं, बम गिर रहे हैं, आग भड़क रही है, लोग मर रहे हैं, लाशें बिछी हैं, वहां जाकर एकदम भय समाप्त हो
जाता है।
मनोवैज्ञानिक
बहुत चौंके इस बात से। ऐसा क्यों? यहां
तो भय बढ़ना चाहिए। भय बिल्कुल समाप्त हो जाता है युद्ध के मैदान पर। कारण स्पष्ट
हो गया। कारण यह है कि जब मौत सुनिश्चित ही मालूम हो जाती है तो भय समाप्त हो जाता
है। जब तक सुनिश्चित नहीं है तभी तक भय है। जब सामने ही खड़ी है, जब मौत होनी ही है तो अब
होगी। तो ठीक है,
अब
होगी तो होगी! फिर युद्ध के मैदान पर सैनिक ताश भी खेलते हैं। कल जिनके साथ ताश
खेले थे,
आज वे
नहीं हैं,
कल
शायद हम भी नहीं होंगे, मगर
फिर ताश खेलते हैं। शराब भी पीते हैं। रात मस्त होकर नाचते भी हैं, गीत भी गाते हैं। कल सुबह का
कोई भरोसा ही नहीं है। खाई-खंदकों में पड़े होते हैं, बम वर्षा हो रही है और गीत
गुनगुनाते हैं--प्रेम के गीत, प्रेयसियों
के गीत,
जगत के
सौंदर्य के गीत!
यह
चमत्कार कैसे घटता है? गणित
सीधा है। कितना ही तर्क के विपरीत मालूम पड़ता हो, मगर गणित सीधा है। जब मौत
बिल्कुल निश्चित है तो भय का कोई कारण नहीं रह जाता। और जहां भय नहीं है वहां लोभ
नहीं है।
यह तुम
खयाल रखना--भय,
लोभ एक
ही सिक्के के दो पहलू हैं। जितना भयभीत आदमी होता है उतना लोभी। जितना लोभी उतना
भयभीत। भय नहीं होता तो लोभ भी नहीं होता। लोभ नहीं होता तो भय भी नहीं होता।
दोनों साथ आते हैं, साथ
जाते हैं। दोनों का गठबंधन है। दोनों में तलाक नहीं हो सकता। दोनों सदा से भांवर
में बंधे हैं।
आदमी
डरता जरूर है,
डर कर
मौत से आंख चुराता है। ऐसे सिद्धांतों की आड़ ले लेता है जिनमें भरोसा है कि आत्मा
अमर है। ऐसे सिद्धांतों की आड़ ले लेता है कि भगवान है और भगवान बचाएगा। मैं ज़रा
पूजा कर लूं,
सत्य-नारायण
की कथा करा दूं,
यज्ञ-हवन
कर लूं,
फिर
कोई डर नहीं है। मंदिर हो आऊं की हर रविवार को चर्च हो आऊं कि कभी-कभी नमाज पढ़ लूं
कि प्रार्थना कर लूं कि कभी वेद दोहरा लूं कि कभी नमोकार मंत्र का स्मरण कर लूं।
कुछ उपाय कर लूं छोटे-मोटे, फिर सब
ठीक है। थोड़ी परमात्मा की खुशामद कर लूं। उसी को तुम प्रार्थना कहते हो, स्तुति कहते हो। शायद खुशामद
काम कर जाएगी। वह तो तारणहार है। वह बचाएगा, वह तो बचावनहार है। उसकी शरण गह लूं। मगर यह
भय से हो रहा है सब और लोभ से हो रहा है। और जहां भय है और लोभ है वहां धर्म की
किरण नहीं उतरती।
सिद्धांतों-शास्त्रों
में तुम क्यों जाते हो? या तो
भय के कारण या लोभ के कारण। या तो नरक का भय या स्वर्ग का लोभ। और जो नरक और
स्वर्ग की भाषा में सोच रहा है वही सांसारिक है।
राबिया
को एक दिन लोगों ने बाजार में देखा बुखारा के, एक हाथ में मशाल लिए थी और एक हाथ में एक
मटकी जल से भरी हुई। और भागी चली जा रही थी पागल की तरह। राबिया को लोग समझते थे
कि थोड़ी दीवानी तो है, मगर
बड़ी प्यारी औरत थी। जैसे मीरां भारत में, ऐसी राबिया भारत के बाहर। ऐसा किसी ने नहीं
देखा था कभी राबिया को भागते, हाथ
में मशाल और एक मटकी लिए। लोगों ने पूछा, राबिया कहां भागी जाती हो? पागल तो हम तुम्हें मानते ही
हैं, मगर आज पागलपन भी सीमा के
बाहर है। यह मशाल किसलिए भरे दिन में? अभी सूरज निकला है, मशाल किसलिए? और यह हाथ में पानी की मटकी
क्यों है?
तो
राबिया ने कहा,
मैं जा
रही हूं कि तुम्हारे नरक को डुबा दूं पानी से और तुम्हारे स्वर्ग में आग लगा दूं।
क्योंकि जब तक तुम्हारा स्वर्ग और नरक नष्ट न हो तब तक तुम कभी धार्मिक न हो
सकोगे। हे लोगो! तुम्हें यह कहने के लिए मैं बाजार में आयी हूं। यह मशाल हाथ में
ली है,
मटकी
हाथ में ताकि कोई न कोई पूछेगा तो मैं उत्तर दे सकूंगी।
नरक और
स्वर्ग जब तक हैं तब तक तुम संसारी हो। संसारियों ने ही नरक और स्वर्ग की बात की
है। ज्ञानियों ने मोक्ष की बात की है, नरक और स्वर्ग की नहीं। मोक्ष का अर्थ हैः
लोभ से और भय से मुक्ति। और उसकी पहली व्यवस्था है-- मौत के साथ आंख मिलाओ, भागो मत। मत मानो कि मौत नहीं
है। मौत है,
अभी तो
मौत ही है। अभी कहां आत्मा! अभी तो मौत से आंख मिलाने तक की आत्मा तुम में नहीं
है। इतने भी आत्मवान तुम नहीं हो; अभी
कहां की आत्मा! आत्मा अभी दूर की मंजिल है। होती होगी, मगर तुम्हारे लिए नहीं है।
हुई होगी महावीर को, कबीर
को, नानक को, दूलन को, तुमको नहीं है। तुमने तो अभी
मौत से भी साक्षात्कार नहीं किया, अमृत
से तुम्हारा साक्षात्कार कैसे होगा? मृत्यु की आड़ में ही अमृत छिपा है। मौत से
आंख मिलाओ और तुम अमृत से मिलने के हकदार हो गए। मौत को भेंट लो और तब तुम्हारे
भीतर ही वह गूंज उठेगी जो वेद कहते हैंः अमृतस्य पुत्रः--कि तुम अमृत के पुत्र हो।
मौत को भेंटनेवाला ही अमृत का पुत्र है।
दूलन
यह जग आइके,
काको
रहा दिमाक
चंदरोज
को जीवना,
आखिर
होना खाक
दूलन
बिरवा प्रेम को,
जानेउ
जेहि घट माहिं
पांच
पचीसौ थकित भे,
तेहि
तरवर की छांहि
देखना
इस गणित को। बूझना इस गणित को। मौत की बात करते-करते एकदम प्रेम की बात आ गयी। मौत
की बात करते-करते एकदम यह कैसी छलांग? मगर यह छलांग नहीं है। मौत के बाद बस प्रेम
की ही बात रह जाती है करने योग्य। जिसने मौत को देख लिया उसके जीवन में न भय रह
जाता न लोभ। उसके जीवन में प्रेम ही बचता है। उसकी सारी जीवन-ऊर्जा प्रेम हो जाती
है। उसी प्रेम की पराकाष्ठा प्रार्थना है।
जो
भयभीत है,
जो
लोभी है उसके पास तो ऊर्जा ही नहीं है प्रेम करने की। लोभी आदमी प्रेम नहीं करता, कर ही नहीं सकता। कृपण आदमी
को तुमने कभी प्रेम करते देखा? कृपण
प्रेम करने से डरता है, भयभीत
होता है। मित्र भी नहीं बनाता क्योंकि मित्र बनाने का मतलब है कि कभी जरूरत पड़ जाए
मित्र को और मांगने आ जाए। और कहावत है कि जो वक्त पर काम पड़े वही मित्र। ऐसी झंझट
क्यों करनी! मित्र भी नहीं बनाता, दोस्ती
भी नहीं बनाता। प्रेम के नाते भी खड़े नहीं करता। कोई मांगने आ जाए तो फिर इनकार
करना मुश्किल हो जाएगा। अपने को दूर-दूर रखता है।
मैं एक
घर में बहुत दिनों तक रहा। गृहपति जो थे, वे न अपने बच्चों से सीधे बोलें, न अपनी पत्नी से सीधे बोलें, न अपने नौकर-चाकर से सीधे
बोलें। हमेशा तिरछे, हमेशा
भागे-भागे! मैंने उनसे पूछा कि मामला क्या है? न आप कभी पत्नी से प्रेम से बोलते हुए दिखाई
पड़ते न कभी बच्चों के साथ बैठे दिखाई पड़ते। घर में नौकर-चाकर हैं वे भी आदमी हैं, आप उनकी तरफ देखते ही नहीं, जैसे वे हैं ही नहीं। आपको
मैं देखता हूं घर से एकदम भागते हुए दुकान की तरफ, दुकान से घर की तरफ आते हुए।
दुकान पर भी मैंने आपको देखा, घर पर
भी आपको देखा,
दुकान
पर ही आप कहीं ज्यादा सदय मालूम पड़ते हैं--तुलनात्मक रूप से ही कहना चाहिए।
उन्होंने
कहा, बात है, इसके पीछे बात है। जिसदिन भी
पत्नी से प्रेम से बोलो कि बस, उपद्रव!
कि वह कहती है कि जौहरी की दुकान पर एक नया हार आया है। बस प्रेम से बोले नहीं कि
उसने जेब में हाथ डाला नहीं। कि एक नयी साड़ी खरीदनी है, कि अब कार पुरानी पड़ गयी है, अब नयी ले डालो। बच्चों से
प्रेम से बोलो कि उनका जेब में हाथ गया। किसी को साइकिल खरीदनी है, किसी को बंदूक खरीदनी है, किसी को कुछ खरीदना है, किसी को कुछ। नौकर-चाकरों की
तरफ देखो कि उनकी तनख्वाह बढ़ाने का मौका आ गया। देखा कि उन्होंने कहा कि मालिक, साल भर हो गया. . .। तो मैं
देखता ही नहीं। मैं अंगीकार ही नहीं करता कि नौकर मौजूद हैं। मैं स्वीकार ही नहीं
करता कि वे हैं। मेरी तरफ से मैं उनको मानता ही नहीं कि वे हैं। मैं इस भांति ही
अपने को दूर-दूर रखकर बचाता हूं, नहीं
तो उनका सबका हाथ मेरी जेब में है।
फिर
मैंने कहा कि मेरी समझ में आ गया कि न दुकान पर आप क्यों थोड़े सदय मालूम पड़ते हैं
क्योंकि वहां आपका हाथ ग्राहकों की जेब में है। वहां थोड़े मुस्कुराते हैं, वहां थोड़े सदय मालूम पड़ते
हैं। घर एकदम कठोर हो जाते हैं।
कृपण
व्यक्ति प्रेम से भयभीत होता है। और कृपण कोई क्यों होता है? भय के कारण कृपण होता है।
सोचता है धन इकट्ठा कर लूं तो सुरक्षा रहेगी। वृद्धावस्था में काम आएगा, बीमारी में, असमय में, दुर्घटना में। जब कोई साथ
नहीं देगा तब भी धन साथ देगा। जब मित्र काी काटने लगेंगे तब भी धन साथ देगा। जब
बच्चे अपने-अपने रास्तों पर चल पड़ेंगे, तब भी धन साथ देगा। तो धन इकट्ठा कर लूं, धन दुर्दिन का साथी है। भयभीत
होकर धन को इकट्ठा करता है।
भयभीत
होकर लोभी हो जाता है। और जितना लोभी होता जाता है उतना भयभीत होता जाता है
क्योंकि फिर उसे डर लगने लगता कि मेरे पास इतना धन है कोई ले न ले! कोई चोरी न हो
जाए, कोई बैंक का दिवाला न निकल
जाए। कहीं धंधे में घाटा न लग जाए।
यह ज़रा
तुम देखना,
जैसे-जैसे
भय से लोभ पैदा होता है वैसे-वैसे लोभ से भय पैदा होता है। जिनके पास बहुत धन है
वे सो ही नहीं पाते। क्योंकि रात-दिन उनको चिंता लगी है कि कहीं कोई नुकसान हो
जाए। जिनके पास कुछ नहीं है वे ही निश्चित सो जाते हैं। है ही नहीं कुछ, चिंता भी क्या हो! जिसके पास
कुछ है वह तो न जागता, न सोता, न जीता, फिक्र में ही लगा रहता है, सुरक्षा ही करता रहता है। भय
लोभ को बढ़ाता है लोभ भय को बढ़ाता है और तुम्हारी सारी ऊर्जा इन्हीं दो में बह जाती
है। प्रेम बने तो कैसे बने? प्रेम
का बिरवा रोपो तो कहां रोपो? भूमि
नहीं बचती। बस घास-पात ही उग आता है। ये ही कंटीली झाड़ियां लोभ की और भय की। ये ही
नागफनी के झाड़ लोभ और भय के फैलते चले जाते हैं। गुलाब उगे तो कहां उगे? जगह नहीं बचती। चंपा खिले तो
कहां खिले?
जगह
नहीं बचती। तुम्हारे पास ऊर्जा भी नहीं बचती, सुविधा भी नहीं बचती, अवकाश भी नहीं बचता। प्रेम के
लिए अवकाश चाहिए। प्रेम के लिए ऊर्जा
चाहिए। प्रेम के फूल बड़े कोमल फूल हैं। जब तक उनकी साज-संभाल न हो, वे नहीं खिलते। और अभागा है
वह जिसके जीवन में प्रेम नहीं। क्योंकि उसे छाया न मिलेगी, न उसे अनुभव होगा संतोष का
कभी, न परितोष की वर्षा होगी उस पर, न उसे कभी परितृप्ति मालूम
होगी। जब खिलते हैं फूल प्रेम के तुम्हारे जीवन में, तभी तुम भरे-पूरे होते हो।
तभी तुम्हें लगता है कि आया और व्यर्थ नहीं आया, सार्थक हुआ। जैसे फूल से भर
जाता है वृक्ष,
लद
जाता है दुल्हन की भांति, ऐसे
तुम जब फूलों से लद जाते हो प्रेम के तब तुम्हारे जीवन में भी कृतार्थता होती है।
दूलन
बिरवा प्रेम को,
जानेउ
जेहि घट माहिं
इसलिए
मृत्यु से एकदम प्रेम की बात शुरू होती है। मृत्यु को तुमने समझ लिया तो भय गया, लोभ गया। भय की जरूरत नहीं है, मृत्यु होगी ही। कितना ही भय
करो, बच नहीं सकते तो बचने की
जरूरत ही क्या है?
प्रयोजन
ही क्या है?
भागने
का अर्थ क्या है?
और जब
बच ही नहीं सकते और जो भी तुम बचाओगे वह मौत छीन ही लेगी तो फिर लोभ का अर्थ क्या
है? फिर लोभ और भय का गणित टूट
गया। वह तर्क-सरणी व्यर्थ हो गयी। और तब तुम्हारे पास इतनी ऊर्जा बच जाती है। जो
लोभ में लगी थी,
भय में
लगी थी वह सारी की सारी ऊर्जा बच जाती है। वह ऊर्जा प्रेम बनती है।
दूलन
बिरवा प्रेम को. . .अब प्रेम के बिरवे को रोपा जा सकता है। अब तुम्हारा हृदय खाली
है। अब तुम्हारे इस शून्य में प्रेम फैल सकता है। प्रेम का बिरवा अब जमाओ। अब घड़ी
आ गयी। ऐसे ही क्षण में प्रेम का बिरवा जमाया जा सकता है।
दूलन
बिरवा प्रेम को,
जानेउ
जेहि घट माहिं
अब जमा
लो। क्योंकि जिस घट में यह बिरवा प्रेम का जम जाए. . . .
पांच
पचीसौ थकित भे,
तेहि
तरवर की छांहि
तुम्हारी
तो बात ही क्या,
तुम्हारी
तो सारी थकान मिट ही जाएगी और भी पांच-पच्चीस तुम्हारी छाया में बैठकर अपनी थकान
मिटा लेंगे। तुम तो तृत हो ही जाओगे और पांच-पच्चीस तुम्हारी सुगंध से आंदोलित
होकर तृप्त होने लगेंगे। तुम्हारे पास सत्संग जम जाएगा। तुम्हारा दीया क्या जला, औरों के बुझे दीए भी जलने
लगेंगे। ज्योति से ज्योति जले! फूल से फूल खिले! तुम्हारे फूल को खिलता देखकर औरों
की कलियों के भी प्राण छटपटा उठेंगे। तुम्हारे भीतर वर्षा होती अमृत की देखकर औरों
को भी ढांढस बंधेगा हिम्मत बंधेगी कि निकल पड़ें हम भी इस यात्रा पर; कि खोजें हम भी राम को।
दूलन
ऐसे नाम की,
कीन्ह
चाहिए खोज
किसी
सद्गुरु को देखकर,
किसी
उपलब्ध पुरुष को देखकर--जिसके प्रेम के बिरवे में फूल आ गए, तुम्हारे भीतर भी यह खोज पैदा
होनी सुनिश्चित है।
तुमने
जब जग की पीड़ा को,
अपना
ही नहीं बनाया है।
जब
प्रेम ज्योति की बाती को,
नैनों
में नहीं जलाया है।
कैसे
समझोगे गीतों का होता मादक आधार है क्या।
जीवन
मधुवन करने वाला होता नैसर्गिक प्यार है क्या।
जब
तुमने अपनी चाहों में,
सिंदूरी
सपने भरे नहीं।
वेदना
निरख कर पीड़ित की,
आंसू
नयनों से झरे नहीं।
जब भूख
तुम्हारे जीवन में,
आराध्य
अर्चना की प्रतिमा।
अपनी
तृष्णा की तृप्ति मात्र,
जब निज
कृतित्व की है गरिमा।
कैसे
समझोगे अंतः में होने वाला विस्तार है क्या।
देवत्व
दिला सकने वाला निज स्वार्थहीन उपकार है क्या।
यह
विश्व एक मधुशाला है,
पर
हृदय सिर्फ पीने वाला।
मादक
सी बिखरी कण-कण में,
निस्सीम
वेदना की हाला।
जब
तुमने केवल अधरों से,
विष-घृणा
निगलना सीखा है।
जब
तुमने केवल निज मन के,
अंगार
उगलना सीखा है।
कैसे
समझोगे अमृत की होती अनंत रसधार है क्या।
मन में
मस्ती भरने वाली भावों की मृदु झंकार है क्या।
हर गीत
भावना का मंदिर,
अपने
प्राणों का अर्चन है।
हर
पंक्ति स्वयं में पावनता,
जग
प्रेम ज्योति का वंदन है।
जब
तुम्हें नियति से मधुर कंठ,
का दान
नहीं मिल पाया है।
जब
तुम्हें प्रकृति से हंसने का,
वरदान
नहीं मिल पाया है।
कैसे
समझोगे गीतों में झंकृत वीणा का तार है क्या।
संगीत
अमर करने वाला स्वर संगम का उपहार है क्या।
थोड़ा-सा
प्रेम तुम्हारे भीतर जगे तो ही तुम्हारे भीतर परमात्मा को पहचानने वाली पहली आंख, पहली बार पलक खुले। तुम प्रेम
से भरो तो परमात्मा है--तो ही परमात्मा है। मत पूछो कोई और प्रमाण। कोई और प्रमाण
नहीं है। तुम प्रेम से भरो तो परमात्मा है। प्रमाण ही प्रमाण हैं मगर तुम प्रेम से
भरो तो। मैं प्रेम को परमात्मा का एकमात्र प्रमाण कहता हूं।
कैसे
समझोगे गीतों का होता मादक आधार है क्या।
जीवन
मधुवन करने वाला होता नैसर्गिक प्यार है क्या।
कैसे
समझोगे अंतः में होने वाला विस्तार है क्या।
देवत्व
दिला सकने वाला निज स्वार्थहीन उपकार है क्या।
कैसे
समझोगे अमृत की होती अनंत रसधार है क्या।
मन में
मस्ती भरने वाली भावों की मृदु झंकार है क्या।
कैसे
समझोगे गीतों में झंकृत वीणा का तार है क्या।
संगीत
अमर करने वाला स्वर संगम का उपहार है क्या।
थोड़ा
तुम्हारी वीणा बजे तो समझोगे। थोड़ा तुम्हारा प्रेम उमगे तो समझोगे। थोड़ा तुम्हारा
दीया जले तो समझोगे।
दूलन
बिरवा प्रेम को,
जानेउ
जेहि घट माहिं
जिस
हृदय में प्रेम का बिरवा आ गया, बस सब
आ गया। आ गयी प्रार्थना, आ गयी
पूजा। खुल गए मंदिर के द्वार।
पांच
पचीसौ थकित भे,
तेहि
तरवर की छांहि।
तुम्हारी
तो छोड़ ही दो,
तुम्हारी
तो सारी थकान मिट ही जाएगी जन्मों-जन्मों की। तुम तो पहली बार ऊर्जा के अजस्र
स्रोत हो जाओगे। तुम्हारे भीतर से तो अनंत धन प्रकट होने लगेगा। तुम तो धनी हो ही
जाओगे,
यह तो
बात ही नहीं है लेकिन तुम्हारे आसपास पांच-पच्चीस वृक्ष की छाया के नीचे बैठ
जाएंगे। उनकी थकान भी मिटेगी, उनके
प्राण भी जुडेंगे और तुम्हारे भीतर बहती रसधार उनके भीतर रसधार की संभावना की याद
दिलाएगी उन्हें,
स्मरण
कराएगी उन्हें,
सुधि
जगाएगी उनके भीतर। तुम्हारे वृक्ष पर होते हुए पक्षियों का गुंजार उनके भीतर भी
कोई सोयी आशा को झंकृत करेगा, किसी
संभावना को उभारेगा। उनके मन में भी सपना उठेगा आकाशों में उड़ने का। उनके पंख भी
फड़फड़ाएंगे। उनको भी स्मृति आ जाएगी कि यह मेरे भीतर भी हो सकता है। यही हरापन, ये ही फूल, ये ही पक्षियों के गीत, यही छाया, यही माधुर्य, यही रस का झरना मेरे भीतर भी
टूट सकता है।
एक
व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है, अनेकों
के लिए रास्ता बन जाता है। एक व्यक्ति उस किनारे पहुंचता है, अनेकों को पुकार सुनाई पड़
जाती है।
धृग तन
धृग मन धृग जनम,
धृग
जीवन जग मांहि
दूलन
प्रीति लगाय जिन्ह, ओर
निबाहीं नाहिं
दूलन
कहते हैं,
खयाल
रखना लेकिन,
यह
प्रेम का पौधा बड़ा कोमल है, बड़ा
सुकोमल,
बड़ा
नाजुक। यह घास-पात नहीं है कि अपने-आप उग आए; कि भैंसें चरती रहें तो भी उगता रहे; बच्चे खेलते-कूदते रहें तो भी
उगता रहे;
कि लोग
इस पर से गुजरते रहें तो भी उगता रहे। यह प्रेम का बिरवा कोमल गुलाब का पौधा है; अति सुकोमल है। पैदा मुश्किल
से होता है,
मर बड़े
जल्दी जाता है। जमाना कठिन, उखड़ना
बहुत आसान। ऊंचाइयों के रास्ते ऐसे ही होते हैं। पहुंचना बहुत मुश्किल, भटक जाना बहुत आसान। चढ़ना
कठिन, गिर जाना आसान। जितनी ऊंचाई
पर पहुंचोगे उतने संभल कर चलना पड़ेगा। और प्रेम सबसे बड़ी ऊंचाई है, उसके पार और कुछ भी नहीं है।
धृग तन
धृग मन धृग जनम. . .इसलिए कहते हैं खयाल रखना, धिक्कार है तुम्हारे तन को, धिक्कार है तुम्हारे मन को, धिक्कार है तुम्हारे जनम को, धिक्कार है तुम्हारे जीवन को, अगर प्रेम का पौधा लगे और उखड़
जाए, बात बनते बनते बिगड़ जाए।
दूलन
प्रीति लगाय जिन्ह, ओर
निबाहीं नाहिं. . .अगर लगा लो एक बार पौधा तो निभाना। अगर प्रार्थना को जगाओ तो
फिर पानी डालते जाना। फिर सुरक्षा करना, बागुड़ लगाना, बचाना।
और
स्मरण रहे,
चूंकि
यह संसार प्रेम से शून्य है, प्रेम
से रिक्त है,
जब भी
किसी व्यक्ति के जीवन में प्रेम का बिरवा लगता है, चारों तरफ से उसे तोड़ने और
नष्ट करने वाले लोग आ जाते हैं। चारों तरफ से! अपने भी पराए हो जाते हैं। मित्र भी
दुश्मन हो जाते हैं। कोई यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि तुम्हारे भीतर और प्रेम का
पौधा लग जाए। क्यों? क्योंकि
तुम्हारा प्रेम का पौधा उनके लिए आत्मग्लानि का कारण हो जाता है। उनके अहंकार को
चोट लगती है,
उनके
अभिमान को भारी घाव पहुंचते हैं। तुम पाने लगे और मुझे नहीं मिला? अभी मैं नहीं पहुंचा और तुम
पहुंचने लगे?
यह वे
बरदाश्त नहीं कर सकते। वे सब तुम पर टूट पड़ेंगे। वे तुम्हारे पौधे को नष्ट करने का
हर उपाय करेंगे। तर्क देंगे, खंडन
करेंगे,
तुम्हें
विक्षिप्त कहेंगे,
पागल
कहेंगे। तुम्हारे मार्ग में हजार तरह की अड़चनें, बाधाएं खड़ी करेंगे। तुम्हारे
गुलाब के पौधे पर हजार पत्थरों की वर्षा होगी। सजग होना! जितनी बड़ी संपदा हो उतना
ही आदमी को सजग होना चाहिए। कहीं बात बनते-बनते बिगड़ न जाए! बनते-बनते बिगड़ जाती
है। बिगड़ना इतना आसान है और बिगाड़ने वाले इतने लोग हैं।
सारा
वातावरण प्रेम के विपरीत है; प्रेम
का विरोधी है,
दुश्मन
है, शत्रु है। सारा वातावरण घृणा, वैमनस्य,र् ईष्या से भरा है। प्रेम की
यहां जगह कहां?
सबके
घरों में घास-पात की खेती हो रही है। तुम्हारे घर में गुलाब के फूल खिलेंगे, पास-पड़ोस के लोग बरदाश्त नहीं
करेंगे। तुमने अपने को समझा क्या है? गुलाब के फूल बो रहे हो। पहले तो हंसेंगे, पागल कहेंगे और अगर तुम अपनी
जिद में लगे ही रहे, अपने
संकल्प में भरपूर डूबे ही रहे,. . .नासमझ कहेंगे, दीवाना
कहेंगे,
हंसेंगे, उपेक्षा करेंगे। लेकिन तुम
माने ही नहीं और अपनी खेती में लगे ही रहे और तुमने गुलाबों की खेती करके दिखा ही
दी तो जिन्होंने तुम्हें पागल कहा था, विक्षिप्त कहा था, हंसे थे, उपेक्षा की थी वे सब टूट
पड़ेंगे। तुम्हारे खेत को नष्ट कर देना चाहेंगे। क्योंकि तुम्हारा खेत इस बात का
प्रमाण है कि वे भी जो हो सकते थे, नहीं हुए हैं। और यह कोई भी बरदाश्त नहीं
करता कि मैं हार गया हूं कि मैं असफल हूं कि मेरा जीवन एक दुर्घटना है।
फिर
उनकी भीड़ है,
तुम
अकेले हो। वे बहुत हैं, उनकी
संख्या है,
उनकी
सत्ता है,
उनकी
शक्ति है। बहुत संभलना। बहुत होशपूर्वक चलना। इसीलिए बुद्धों ने संघ बनाए ताकि तुम
अकेले न रह जाओ,
कुछ
संगी-साथी हों। कम-से-कम कुछ ही सही! थोड़ा संग-साथ रहेगा, थोड़ी हिम्मत रहेगी, थोड़ा बल रहेगा। एक-दूसरे को
हिम्मत देने का अवसर रहेगा, बिल्कुल
अकेले न पड़ जाओगे।
धृग तन
धृग मन धृग जनम,
धृग
जीवन जगमांहि
दूलन
प्रीति लगाय जिन्ह, ओर
निबाहीं नाहिं
द्वारे
तक सावन तो बरसा है रोज-रोज,
आंगन
का बिरवा पर प्यासा ही सूख गया।
देहरी
की मांग भरी,
चूनर
को रंग मिला।
अनगाए
गीतों को,
सांसों
का संग मिला।
चढ़ते
से यौवन की उमर बढ़ी रोज-रोज,
चाहों
का बचपन पर राहों में छूट गया।
द्वारें
तक सावन तो बरसा है रोज-रोज,
आंगन
का बिरवा पर प्यासा ही सूख गया।
उपवन
की सेज सजी,
सोंधी
सी रात हुई।
अंगूरी
स्वप्न जगे,
पागल
बरसात हुई।
हरियाई
शाखों में फूल खिले रोज-रोज,
अंकुर
सा सपना पर अनब्याहा टूट गया।
द्वारे
तक सावन तो बरसा है रोज-रोज,
आंगन
का बिरवा पर प्यासा ही सूख गया।
जितनी
अंगारों सी,
अंतर
की भूख जली।
उतनी
पहचान गयी,
द्वार
द्वार गली गली।
भिक्षुक-सी
ज्वाला को भीख मिली रोज-रोज,
भिक्षा
का पात्र किन्तु रीता ही फूट गया।
द्वारे
तक सावन तो बरसा है रोज-रोज,
आंगन
का बिरवा पर प्यासा ही सूख गया।
परमात्मा
रोज बरस रहा है तुम्हारे प्रेम के बिरवे के लिए, मगर तुम कुछ ऐसे बेहोश हो कि
सावन रोज-रोज बरसता है फिर भी तुम्हारे आंगन के बिरवे को जल नहीं मिल पाता।
द्वारे
तक सावन तो बरसा है रोज रोज,
आंगन
का बिरवा पर प्यासा ही सूख गया।
परमात्मा
प्रतिपल बरस रहा है, बरसता
ही रहा है। उसकी तरफ से कंजूसी नहीं है, कृपणता नहीं है। उसकी तरफ से रत्ती भर बाधा
नहीं है,
व्यवधान
नहीं है। मगर तुमने कुछ जीवन की ऐसी शैली बना ली है कि उसमें घृणा तो पनप जाती है, वैमनस्य तो पक जाता है,र् ईष्या के, द्वेष के कांटे तो खूब खिल
जाते हैं,
प्रेम
के फूल नहीं खिल पाते। भय और लोभ को छोड़ो तो उसका सावन, उसकी बूंदाबूंदी तुम्हारे
बिरवे तक पहुंचने लगे।
दूलन
प्रीति लगाय जिन्ह, ओर
निबाहीं नाहिं
अभागे
हैं वे लोग जिन्होंने लगाई भी और निबाही न। तो उनके दुर्भाग्य की तो बात ही क्या
करना जिन्होंने लगाई ही नहीं, निबाहने
की बात ही न उठी। उनकी तो बात ही नहीं की दूलन ने। उनको तो छोड़ ही दो गिनती के
बाहर। वे तो रहे न रहे बराबर। वे तो हुए ही नहीं। मानो कि हुए ही नहीं। जन्मे ही
नहीं वे कभी। जन्मे वे, जिनके
जीवन में प्रेम की थोड़ी-सी सुराग तो मिली थी, ज़रा-सा रंध्र तो खुला था रोशनी के लिए, मगर उसको भी बंद कर लिया।
और
समझना,
जब भी
प्रेम जगता है तो भय पैदा होता है, घबड़ाहट पैदा होती है। क्योंकि प्रेम का एक
ही अर्थ होता है,
अहंकार
का समर्पण करना होगा। जहां भी प्रेम पैदा होता है वहां अहंकार विसर्जन करना होता
है, और वहीं भय पकड़ता है। हम
अहंकार को पकड़ते हैं, चाहे
प्रेम मरे तो मर जाए। प्रेम को पकड़ो, अहंकार को मरने दो। अहंकार तो सिर्फ
भिक्षापात्र है टूटा-फूटा, प्रेम
संपदा है। प्रेम समाधि है। प्रेम सब कुछ है। प्रेम की ही नौका तुम्हें उस पार ले
जा सकती है।
जा दिन
संत सताइया,
ता छिन
उलटि खलक्क
छत्र
खसै, धरती धसै, तीनेउ लोक गरक्क
जिनके
जीवन में प्रेम पूरा जग गया है उन्हें संसार सताने को आतुर हो जाता है। ऐसे ही
नहीं जीसस को सूली पर लटका दिया। तुम्हारे ही जैसे लोग थे जिन्होंने सूली पर
लटकाया। तुम्हारे ही जैसे उनके तर्क थे, तुम्हारे ही जैसा लोभ था, तुम्हारे ही जैसा भय था, तुम्हारे ही जैसीर् ईष्या थी, तुम्हारे ही जैसा अहंकार था।
जिन्होंने सुकरात को जहर पिलाया, तुम्हारे
जैसे लोग थे। जिन्होंने मंसूर को, सरमद
को मारा,
तुम्हारे
जैसे लोग थे। जब प्रेम का बिरवा पूरा खिलता है तो लोग ऐसे अभागे हैं कि बजाय उसकी
छाया में बैठने के उसे काटने चल पड़ते हैं, कुल्हाड़ियां ले लेते हैं। लोग ऐसे विक्षिप्त
और अंधे हैं कि बजाय उस प्रेम के पौधे का लाभ लें, सत्संग लें, उस पौधे को नष्ट करने लग जाते
हैं, सूली पर लटका देते हैं
गुलाबों को।
इसलिए
दूलन कहते हैं,
लेकिन
याद रखना,
जिनको
तुम सूली पर लटकाते हो उन्हीं के कारण पृथ्वी पर थोड़ी रौनक है। उन्हीं के कारण
थोड़ा रस है,
उन्हीं
के कारण कहीं-कहीं छांव है, उन्हीं
के कारण इस मरुस्थल में कहीं-कहीं मरुद्यान हैं, उन्हीं के कारण कांटों में
कहीं-कहीं एकाध गुलाब खिला हुआ है। बस उन्हीं के कारण जीवन में थोड़ा नमक है।
जीसस
ने अपने शिष्यों को कहा है कि तुम हो पृथ्वी के नमक। तुम्हारे बिना पृथ्वी
स्वादहीन हो जाएगी। नमक बहुत नहीं डालना होता है, साग-सब्जी में कि दाल में, ज़रा-सा! मगर जरा-सा नमक न हो
कि सब बे-रौनक हो जाता है। एकाध बुद्ध, एकाध महावीर, एकाध मुहम्मद--और पृथ्वी पर
नमक बना रहा है। जीवन में थोड़ा स्वाद रहा है।
ज़रा
सोचो तो,
ये
दस-पांच नाम काट दो दुनिया के इतिहास से और आदमी कैसा बे-रौनक नहीं हो जाएगा! उसकी
आंखों में चमक न होगी। उसके पैरों में नृत्य न होगा। उसके कंठ में गीत न होंगे। आदमी
एकदम जंगली जानवर हो जाएगा। इन थोड़े से लोगों ने ही आदमी को आदमियत दी है, संस्कार दिया है, सभ्यता दी है इन थोड़े-से
लोगों के कारण ही. . . और मजा यह है कि तुम्हारे विपरीत, तुम्हारे बावजूद तुम्हें
संस्कार दिया है। तुम नहीं चाहते थे तो भी इनकी छाया तुम्हें थोड़ा-सा विश्राम दे
गयी है और इनकी गंध तुम्हें थोड़ा गंधायित कर गयी है और इनकी किरण तुम्हें छू गयी
है और थोड़ी-सी रोशनी दे गयी है--तुम्हारे बावजूद, तुम्हारे विपरीत। तुमने
इन्हें सूली दी है और ये ही तुम्हें सिंहासन दे गए हैं। इनके ही कारण तुम थोड़े-से
मनुष्य हो। तुम्हारे भीतर जो थोड़ी-सी संभावना है दीए के जल उठने की, वह उनके कारण है जिनको तुमने
बुझा दिया है।
दूलन
कहते हैं,
जा दिन
संत सताइया,
ता छिन
उलटि खलक्क। जिस समय संत सताए जाते हैं उस समय सारी सृष्टि उल्टी हो जाती है। तुम
अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेते हो। तुम जिस डाल पर बैठे हो उसी को काटने लगते
हो।
जा दिन
संत सताइया,
ता छिन
उलटि खलक्क
ज़रा
सोचो, जिस दिन जीसस को सूली लगी उस
दिन अस्तित्व कैसा न रोया होगा! उस दिन परमात्मा की आंखों से कितने न आंसू गिरे
होंगे। अब तक भी रुके न होंगे। जिस दिन जीसस को लोगों ने सूली दे दी उस दिन
परमात्मा को किस गहन अपमान का अनुभव नहीं करना पड़ा होगा। जिनके लिए आता है वे ही
सूली दे देते हैं। सावन की घटाएं जिनके लिए घिरती हैं वे अपने बिरवे को बचा लेते
हैं, चारों तरफ तंबू लगा देते हैं
कि कहीं वर्षा न हो जाए बिरवे पर, कहीं
बिरवे में हरियाली न आ जाए, कहीं
बिरवे में फूल न खिल जाएं। मनुष्य अपना ही दुश्मन है।
जा दिन
संत सताइया,
ता छिन
उलटि खलक्क
उस दिन
सृष्टि उल्टी हो जाती है जब संत सताए जाते हैं। मगर संत सताए जाते रहे हैं और
सृष्टि उल्टी है! अभी वह दिन नहीं आया जब जीवित संतों का सत्कार हो सकेगा। हां, मुर्दा संतों का सत्कार होता
है क्योंकि मुर्दा संतों से तुम्हें कोई अड़चन नहीं है। मुर्दा संत तुम्हारा कुछ
बिगाड़ नहीं सकते,
तुम्हारा
कुछ बदल नहीं सकते। मुर्दा हैं, खुद ही
मुर्दा हैं,
तुम्हारा
क्या करेंगे?
जीवित
संतों का अभी तक सत्कार नहीं हुआ है। महावीर मर जाएं तो पूजो। जिंदा रहें तो पत्थर
मारो, कानों में सलाखें खोंस दो।
गांव-गांव भगाओ,
टिकने
मत दो। निंदा करो--यह नंगा आदमी! बुद्ध जिंदा हों तो पत्थर मारो। पागल हाथी छोड़ो, चट्टानें सरकाओ कि दब जाएं और
मर जाएं,
और मर
जाएं तो मूर्तियां बनाओ। इतनी मूर्तियां बनाओ कि सारी पृथ्वी मूर्तियों से भर जाए।
तुम भी खूब हो,
अजीब
लोग हो!
और ज़रा
भी फर्क नहीं पड़ा है, बात अब
भी वैसी की वैसी है। सब कुछ वैसा का वैसा है। अभी भी तुम यही कर रहे हो, अभी भी तुम यही करोगे।
जा दिन
संत सताइया,
ता छिन
उलटि खलक्क
छत्र
खसै. . .उस दिन आकाश खिसका जाता है अपनी जगह से। धरती धसै. . . पृथ्वी पश्चात्ताप
से अपने में ही सिकुड़ जाती है। धंस जाती है। अपने में ही डूब कर मर जाना चाहती है।
कहते हैं न कि कोई जब बहुत आत्मग्लानि से भर जाता है तो कहता है कि पृथ्वी फट जाती
और धंस जाता है। मगर पृथ्वी कहां धंसे? अपने में ही धंस जाना चाहती है।
सुकरात
के लिए जहर जिस दिन तैयार किया जा रहा था, उस दिन पृथ्वी ने नहीं धंस जाना चाहा होगा? उसके सबसे प्यारे पुत्र को, उसकी महिमा को, उसके गौरव को जहर पिलाने की
तैयारी की जा रही है। सदियों-सदियों में इस प्रतिभा के लोग पैदा होते हैं जैसे
सुकरात। अगर धरती मां है तो मर जाना चाह होगा।
छत्र
खसै, धरती धसै, तीनेउं लोक गरक्क
तीनों
लोक गर्क हो रहे हैं, होते
रहे हैं। तुम संतों को सताते रहे हो, फिर भी संतों की तरफ से तुम्हारे लिए आशीष
बरसते रहे हैं। जीसस ने मरते वक्त भी कहा ः हे प्रभु! इन सबको माफ कर देना क्योंकि
इन्हें पता नहीं, कि ये क्या कर रहे हैं। नाराज मत होना इन पर।
कतहुं
प्रकट नैनन निकट,
कतहूं
दूरि छिपानि
दूलन
दीनदयाल,
ज्यों
मालव मारू पानि
कतहुं
प्रकट नैनन निकट. . . परमात्मा खोजो तो इतने पास है जितनी कि तुम्हारी आंखें
तुम्हारे पास हैं। जिन आंखों से परमात्मा को देखोगे उन में ही छिपा बैठा है।
कतहुं
प्रकट नैनन निकट,
कतहूं
दूरि छिपानि
न खोजो
तो बहुत दूर है;
दूर से
भी दूर है,
अनंत
दूर है।
दूलन
दीनदयाल,
ज्यों
मालव मारू पानि
जो
नहीं खोजते उनके लिए जैसे राजस्थान में पानी बड़ी मुश्किल से मिलता है, मरुस्थल में। और राजस्थान के
पास ही मालवा है,
और
मालवा में पानी तो एकदम पास मिल जाता है। कुछ दूर नहीं है मालवा मरुस्थल से।
तुम्हारे पास ही कोई बैठा हो जिसे परमात्मा भीतर मिल जाए। और तुम्हें दूर-दूर तक
खोजे न मिले। खोज-खोज की बात है। ठीक खोजो तो पास ही मिल जाता है, गैर-ठीक खोजो तो दूर भी नहीं
मिलेगा।
सघन
विजन के सूनेपन में,
संघर्षो
की घनी तपन में,
खोजा
कहां-कहां पर तुझको पाया अपने अंतर्मन में।
शाश्वत
अपराधी थी काया,
भूल
गया मैं देख न पाया,
शैशव-सा
निर्वाण छिपा था मेरे ही दूषित आंगन में।
कैसी
थी द्विविधा की माया,
भूल
गया मैं देख न पाया,
किसके
अगणित चित्र बने हैं मेरे आंसू के दर्पण में।
चक्षु
ज्ञान ने जब भटकाया,
भूल
गया मैं समझ न पाया,
कौन
राह दिखलाता मुझको छिपकर सांसों की धड़कन में।
पास ही
है। तुम्हारी धड़कनों में धड़क रहा है। तुम्हारी सांसों में आंदोलित हो रहा है। ज़रा
भीतर लौटो। ज़रा आंखों को भीतर पलटाओ। बाहर देखना छोड़ो, भीतर देखो। शुरू-शुरू में तो
अंधेरा ही मिलेगा। घबड़ाना मत। बाहर की आंखें आदी हो गयी हैं इसलिए भीतर जब पहली
दफा देखोगे,
कुछ भी
दिखाई न पड़ेगा। देखते चले जाना, देखते
चले जाना. . .जल्दी ही आंखें भीतर की आदी हो जाएंगी।
तुम
जानते हो न,
चोरों
को रात के अंधेरे में भी, दूसरो
घर में भी दिखाई पड़ता है। जो चोर नहीं हैं, उनको रात के अंधेरे में अपने घर में भी
दिखाई नहीं पड़ता,
अपने
घर में भी चीजों से टकरा जाते हैं, चोर के पास क्या चमत्कार है? कि दूसरे के घर में--जहां कभी
गया भी नहीं,
टकराता
नहीं, चीजें गिरती नहीं। रात के
अंधेरे में दीया भी जला नहीं सकता। चोर की कला का एक अनिवार्य अंग है--अंधेरे में
देखने का अभ्यास। बस अंधेरे में बैठकर देखता है। इसका अभ्यास करता है। धीरे-धीरे
आंखें अंधेरे में देखने की अभ्यासी हो जाती हैं।
अंधेरा
भी अंधेरा नहीं है सिर्फ देखने के अभ्यास की बात है। आखिर उल्लू को रात दिखाई पड़ता
है न! अंधेरे में भी रोशनी है। बस तुम्हारे पास देखनेवाली आंख चाहिए। पूरब में तो
उल्लू बुद्धूपन का प्रतीक समझा जाता है। किसी को गाली देना हो तो कहते हैं उल्लू
के पट्ठे! मगर पश्चिम में उल्लू को बुद्धिमानी का प्रतीक समझा जाता है क्योंकि उसे
रात के अंधेरे में दिखाई पड़ता है। उसे अंधेरे में दिखाई पड़ता है। मेरा मन भी करता
है कि पूरब ने उल्लू के साथ सद्व्यवहार नहीं किया। उल्लू के पास कुछ खूबी है। वैसी
ही खूबी ध्यान से उपलब्ध होती है। बैठे अपने भीतर देखते-देखते-देखते-देखते दिखाई
पड़ने लगता है।
ऐसा
नहीं कि हम बिल्कुल ही चुक गए, उल्लू
को बिल्कुल नहीं पहचान पाए, ऐसा
नहीं। एक दर्शनशास्त्र है हमारा, जिसका
नाम है ः औलूक्य दर्शन। उस दर्शन शास्त्र ने स्वीकर किया है उल्लू की महिमा को। यह
गुणवत्ता तुम्हारी भी हो सकती है। अभी तो अंधेरा मिलेगा। शुरू-शुरू अपने भीतर
जाओगे तो अंधेरा पाओगे। इससे घबड़ाकर लौट मत आना। यह मत सोच लेना कि अंधेरा अंधेरा
है, यहां क्या रखा है! चलें बाहर; वहां रोशनी है, वहीं खोजेंगे। अभ्यास करना
होगा अंधेरे में बैठने का। उसी अभ्यास का नाम योग है, ध्यान है। बैठते ही रहो। आज
नहीं कल,
कल
नहीं परसों,
परसों
नहीं नरसों,
एक न
एक दिन तुम पाओगे कि धीरे-धीरे अंधेरा छटने लगा, अंधेरे में रोशनी आने लगी, आंखें देखने लगीं। और तब
तुम्हारे भीतर ही वह मिल जाता है जिसकी तुम बाहर तलाश करते थे और नहीं पा सके।
आंज
लिया तुझको क्या--
काजल-सा
नयनों में,
हर
सपना तेरी मनुहार लिए आता है।
भावों
की प्रतिमा में--
तेरा
ही चित्र मधुर,
अनचाहे
अनजाने रूप बदल आता है।
धुंधली
सी परछांही--
छूती
जब अंतर को,
सांसों
के सरगम पर गीत मचल जाता है।
बांध
लिया तुझको क्या--
पायल-सा
गीतों में,
हर
गुंजन तेरी झंकार लिए आता है।
मूक
दिवा स्वप्नों में--
पागल-सी
स्मृतियां,
जलती
दोपहरी को रात बना देती हैं।
जब भी
तप जाता हूं--
जग के
संघर्षो में,
मस्ती
को मादक बरसात बना देती है।
साध
लिया तुझको क्या--
मस्ती-सा
यादों में,
हर
आंसू तेरा उद्गार लिए आता है।
प्रेममयी
दृष्टि जभी--
उठती
जिस ओर मुखर,
तेरा
ही शाश्वत विस्तार मुझे लगता है।
पीड़ा
का रूप उसे--
कह दूं
या प्यार कहूं,
रूप ही
तेरा साकार मुझे लगता है।
मान
लिया तुझको क्या--
पीड़ा-सा
छवियों में,
हर
चिंतन तेरा श्रृंगार लिए आता है।
आंज
लिया तुझको क्या--
काजल-सा
नयनों में,
हर
सपना तेरी मनुहार लिए आता है।
थोड़ा
आंखों में काजल आंजने की कला सीखो। ध्यान से आंजो आंखों को। प्रेम से आंजो आंखों
को। और तुम अपने भीतर ही उसे देख लोगे। और उसे देखना ही जीवन को कृतार्थ करना है।
बिना देखे मत जाना। निर्णय जगने दो, संकल्प प्रगाढ़ होने दो कि इस बार जानकर ही
जाएंगे। और मजा यह है कि जो जानकर गया उसे फिर लौटकर नहीं आना पड़ता। पाठ सीख लिया
तो फिर पाठशाला में लौटने की जरूरत नहीं रह जाती।
बुद्ध
से पूछोगे तो वे कहेंगे, ध्यान
से आंज लो आंखों को। दूलनदास से पूछोगे तो दूलनदास कहेंगे, प्रेम से आंज लो आंखों को।
मगर प्रेम का दूसरा पहलू ध्यान है। जिसने प्रेम से आंजा, ध्यान से अंज गयीं आंखें। और
ध्यान का दूसरा पहलू प्रेम है। तुम एक को ले आओ, दूसरा अपने आप आ जाता है।
प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया! ओढ़ लो प्रेम के रंग-रस में रंगी गयी चादर, और परमात्मा तुम्हारा है। और
जीवन का साम्राज्य तुम्हारा है और अस्तित्व की शाश्वतता तुम्हारी है। इस जगत् की
सारी संपदा,
इस
जगत् की अनंत संपदा तुम्हारी है। तुम सम्राट होने को पैदा हुए हो, क्यों भिखारी बने बैठे हो?
आंज
लिया तुझको क्या--
काजल-सा
नयनों में,
हर
सपना तेरी मनुहार लिए आता है।
ज़रा
प्रेम से आंखें अंज जाएं कि ध्यान से, कि फिर तुम्हें हर जगह वही दिखाई पड़ने
लगेगा। फूल-फूल में, पत्ती-पत्ती
में, कांटे-कांटे में, पत्थर-पत्थर में तुम्हें उसी
का दर्शन होने लगेगा। ज़रा सोचो, जिस
दिन तुम्हें परमात्मा सब तरफ दिखाई पड़ने लगे, जिस दिन तुम परमात्मा से घिर कर जीने लगो, कैसा होगा वह आनंद! कैसी होगी
वह मस्ती,
कैसी
होगी वह मादकता! उस मादकता का नाम ही आनंद है, सच्चिदानंद है। वह तुम्हारा स्वरूप-सिद्ध
अधिकार है। उसे बिना पाए नहीं जाना है, उसे पाना है। उसे तुम पा सकते हो। वह
तुम्हें मिला ही हुआ है, सिर्फ
देखना है;
सिर्फ
लौटकर पहचानना है। बस प्रत्यभिज्ञा मात्र, पहचान मात्र और क्रांति घटित हो जाती है।
प्रेम-रंग-रस-ओढ़ चदरिया!
आज इतना
ही।
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