पिव पिव लागी प्यास-(दादू दयाल)
जिज्ञासा-पूर्ति: चार
प्रवचन: आठवां,
दिनांक १८. ७. १९७५, प्रातःकाल,
श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—प्रवचन कर रहे होते हैं, उस समय
यदि आपका मुख निरखता हूं,तो शब्द सुनाई नहीं देते।
2—महानिर्वाण को उपलब्ध हो जाने के बाद भी, ज्ञानी प्रकार
हमारी सहायता करते हैं?
3— जन्मों-जन्मों से
हमने दुख का अनुभव जाना है। लेकिन हमारी भूल नहीं दिख पाती?
4— क्या बुद्धपुरुष
के होते हुए साधक को अपना स्वयं का समाधान खोजना अनिवार्य है?
5— ध्यान करते समय एक
ओर शांति और आनंद का अनुभव होता है।
6— मुझे तो बड़े
प्रयास,
अभ्यास और श्रम से गुजरना पड़ रहा है, क्यों?
7— लेकिन जिस लौ के
लगाम की बात संत कहते हैं, दादू कहते हैं, वह कहां
उपलब्ध है?
पहला प्रश्न: जब आप प्रवचन कर रहे होते हैं, उस समय यदि आपका मुख निरखता
हूं,
तो
शब्द सुनाई नहीं देते, और शब्द सुनता हूं तो बेचैनी सी मालूम होती है। ऐसा क्यों?
शब्द
का मूल्य भी कोई ज्यादा नहीं है। शब्द न भी सुनाई पड़े, तो चलेगा, शब्द सुनाई भी पड़ जाए तो कोई
लाभ नहीं है। मेरी तरफ देखोगे तो ध्यान बन जाएगा। अगर ध्यान ठीक बन गया, अगर तार जुड़ गया, तो शब्द सुनाई पड़ने बंद हो
जाएंगे। क्योंकि शब्द सुनने के लिए भी एक बेचैन मन चाहिए। उद्विग्न मन चाहिए, अशांत मन चाहिए।
उस घड़ी
मैं, तार-बंधी घड़ी में निःशब्द
सुनाई पड़ने लगेगा;
वही
असली सत्संग है। मैं क्या कहता हूं वह सुनाई पड़े, इसका बहुत मूल्य नहीं है। मैं
क्या हूं वही सुनाई पड़ जाए, तो ही
कोई मूल्य है। बोलना तो बहाना है, शब्द
तो उपाय हैं,
पहुंचना
तो निःशब्द पर है। जागना तो मौन में है।
अगर
ऐसा होता हो तो शब्द की बिलकुल फिक्र ही छोड़ दो; फिर मेरी तरफ देखते रहो। बंध
जाने दो लौ को। भूल ही जाओ, कि मैं
बोल रहा हूं। कोई जरूरत नहीं है याद रखने की। शब्द को इकट्ठा करके भी कुछ पा न
सकोगे। निःशब्द में जो सुन लोगे, निःशब्द
को सुन लोगे,
तो सब
पा लिया। मौन में ही जुड़ सकते हो मुझ से। बोलने से तो टूट पैदा होती है। बोल बोलकर
तो कभी कोई संवाद होता नहीं। बोलने में तो विवाद छिपा ही है। शून्य में ही संवाद
है।
तो
अच्छा ही हो रहा है। इससे नाहक चिंता मत लो, होने दो। अपने को बिलकुल छोड़ दो उसमें। और
अगर परेशानी पैदा करोगे, चिंता
लोगे, कि यह तो शब्द सुनाई नहीं
पड़ता, शून्य पकड़ लेता है, और सुनने की चेष्टा करोगे
देखना बंद करके--तो बेचैनी मालूम होगी। बेचैनी मालूम होगी, क्योंकि महत्वपूर्ण को छोड़ कर, गैर-महत्वपूर्ण को पकड़ते हो; चेतना भीतर बेचैन होगी। हीरों
को छोड़कर कंकड़-पत्थर बीनते हो, बेचैनी
स्वाभाविक है। उचित ही हो रहा है।
सत्संग
का अर्थ है: गुरु के पास मौन में बैठ जाना।
मैं
बोलता हूं इसी जगह लाने को, कि
किसी दिन तुम मौन में बैठने के योग्य हो जाओगे। बोलना लक्ष्य नहीं है। तुम्हें
समझाने को मेरे पास कुछ भी नहीं है। समझाने को कुछ संसार में है भी नहीं। सब शब्द
हैं, कोरे शब्द हैं। कितने ही
सौंदर्य से उन्हें जमा दो, पानी
के बबूलों पर आए हुए इंद्रधनुष हैं। अभी हैं, अभी मिट जाएंगे। उन्हें संपदा मत समझ लेना।
संपदा तो तुम्हारे भीतर है। जो शून्य में ही दिखाई पड़ेगी, जब मन की सब तरंगें बंद हो
जाएगी।
तो
देखो। मन भरकर देखो। इसलिए तो गुरु के पास जब हम जाते हैं तो उस जाने की घटना को
हम दर्शन कहते हैं। दर्शन का मतलब होता है, देखेंगे गुरु को। उसे हम श्रवण नहीं कहते।
सुनेंगे गुरु को,
ऐसा नहीं
कहते; देखेंगे। मन भरकर देखेंगे।
आकंठ भर जाएंगे,
इतना
देखेंगे। बाढ़ आ जाए देखने की, इतना
देखेंगे।
उस
देखने में ही वह चिनगारी सुलगेगी, जिसको
दादू लौ कहते हैं जगेगी लौ। गुरु की भागती हुई अग्नि, तुम्हारी राख में दबी अग्नि
को भी पुकार लेगी। गुरु की ऊपर जाती हुई अग्नि तुम्हारी अग्नि को भी ऊपर जाने के
लिए दिशा-निर्देश बन जाएगी। गहराई गहराई को पुकारेगी, अंतस अंतस को पुकारेगा।
शब्द
तो दीवाल बन जाते हैं। शब्दों की दीवाल बन जाएगी। तुम मुझे सुन लोगे, तुम मुझे समझ भी लोगे और तुम
मुझसे चूकते भी रहोगे। यह तो मजबूरी है, कि तुम अभी शून्य नहीं समझ पाते, इसलिए मुझे शब्द बोलना पड़ रहा
है। जिस दिन तुम शून्य समझने लगोगे, शब्द का आयोजन व्यर्थ है।
और अगर
ऐसा हो रहा है कि मुझे देखते-देखते सुनना बंद हो जाता है, अहोभागी हो। अनुगृहीत हो जाओ।
धन्यवाद दो परमात्मा को। सुनने की कोई जरूरत नहीं। देखो, जी भर कर देखो। दर्शन की
ऊर्जा को बहने दो।
उसी
घड़ी बंध जाओगे गुरु के साथ। तुम्हारी राख झड़ जाएगी। आग तो तुम्हारे भीतर भी छिपी
है; राख जम गई है। मेरे शब्द
इकट्ठे कर लोगे,
क्या
होगा? और राख जम जाएगी। ऐसे ही तुम
काफी ज्ञानी हो। मेरे शब्दों का संग्रह तुम्हें और ज्ञानी बना देगा।
और
ध्यान रखो,
परमात्मा
को उपलब्ध करना कोई परिमाण, क्वान्टिटी
की बात नहीं है,
कि
कितना तुम जानते हो। परमात्मा को उपलब्ध करना गुण-रूपांतरण की बात है, क्वालिटी की बात है। तुम सौ
तथ्य जानते हो,
कि
हजार कि करोड़,
इससे
कोई अंतर नहीं पड़ता। तुम्हारे होने का गुण बदल जाए, तो तुम परमात्मा को जानते हो।
पांडित्य से कोई कभी जानता नहीं।
मैंने
सुना है,
स्वर्ग
के द्वार पर ऐसा एक दिन हुआ कि दो सीधे-सादे साधु--सरलचित्त--द्वार पर दस्तक दिए, तभी एक पंडित ने भी द्वार पर
दस्तक दी। द्वार खुला। पंडित के लिए तो बड़ा स्वागत समारंभ किया गया। मखमली पायदान
बिछाए गए,
बाजे
बजे, फूलों की वर्षा की गई। उन दो
साधुओं के लिए कोई खास स्वागत-समारोह न हुआ। लगा उन्हें, कि उनकी उपेक्षा की जा रही
है। वे थोड़े हैरान हुए।
जब
समारोह पूरा हो गया तब उन्होंने द्वारपाल को पूछा, कि बात हमारी समझ में न आई।
हमने तो सदा सुना था, कि
साधुता कि गरिमा है वहां। यहां भी साधुता की कोई गरिमा नहीं मालूम होती। हमने तो
सुना था,
सरल का
स्वीकार है,
यहां
भी सरल के लिए कोई स्वीकार नहीं। हमने तो सुना था, जीसस के वचन सुने थे, कि जो दरिद्र हो रहे अपने
भीतर वही परमात्मा से समृद्ध हो जाएंगे। हम दरिद्र होकर आए हैं, लेकिन लगता है, यहां भी हमारी उपेक्षा है।
उस
द्वारपाल ने कहा,
कि तुम
व्यर्थ ही चिंता में मत पड़ो। तुम जैसे साधु-पुरुष तो रोज ही आते हैं, यह पंडित पहली दफा आया है।
इसका स्वागत समारंभ करना उचित है। सरलचित्त व्यक्ति तो रोज ही स्वर्ग आते रहते
हैं। यह उनका घर है। अपने ही घर कोई आता है, क्या स्वागत समारंभ करना होता है? मगर यह पंडित पहली दफा आया
है। ऐसा सदियों में कभी घटता है। इसका स्वागत समारंभ उचित है। तुम नाहक चिंता मत
लो।
तुम
कितने ही पंडित हो जाओ, इससे
तुम नहीं पहुंचोगे। सुनने से नहीं, स्मृति के भर लेने से नहीं, आंख के खुलने से। इसीलिए तो
हमने भारत में तत्वविद्या को दर्शन-शास्त्र कहा है। सारी दुनिया उसे फिलासफी कहती
है, फलसफा कहती है, और दूसरे नाम हैं, हमने उसे "दर्शन' कहा है। क्योंकि हमने यह जाना
है, कि केवल सोचने-विचारने से कोई
सत्य उपलब्ध नहीं होता, आंख के
खुलने से उपलब्ध होता है। इसलिए ज्ञानियों को हमने द्रष्टा कहा है, देखने वाला कहा है। सोचने
वाला नहीं कहा,
विचारक
नहीं कहा,
द्रष्टा
कहा है। उन्होंने देखा है सत्य को।
तो अगर
तुम भरपूर आंख मुझे देखते हो, इससे
ज्यादा शुभ और कुछ भी नहीं है। वही तुम कर पाओ, पर्याप्त है। सत्संग हुआ। तो मैं जो कह रहा
हूं, वह भला तुम्हारे भीतर न
पहुंचे--जरूरत भी नहीं है--मैं तुम्हारे भीतर पहुंचना शुरू हो जाऊंगा। मेरे शब्दों
पर बहुत ध्यान मत दो, मेरे
निःशब्द को सुनो। वहीं सत्य का संगीत है।
दूसरा प्रश्न: महानिर्वाण को उपलब्ध हो जाने के बाद भी, ज्ञानी और गुरुजन समष्टि में
मिलकर किस प्रकार हमारी सहायता करते हैं? इसे अधिक स्पष्ट करें।
सहायता
करते हैं,
ऐसा
कहना ठीक नहीं। सहायता होती है। करने वाला तो बचता नहीं। नदी तुम्हारी प्यास
बुझाती है,
ऐसा
कहना ठीक नहीं,
नदी तो
बहती है। तुम अगर पी लो जल, प्यास
बुझ जाती है। अगर नदी का होना प्यास बुझाता होता, तब तो तुम्हें पीने की भी
जरूरत न थी,
नदी ही
चेष्टा करती। नदी तो निष्क्रिय बही चली जाती है। नदी तो अपने तई हुई चली जाती है; तुम किनारे खड़े रहो
जन्मों-जन्मों तक,
तो भी
प्यास न बुझेगी। झुको, भरो
अंजुली में,
पीयो, प्यास बुझ जाएगी।
ज्ञानीजन
समष्टि में लीन हो जाने के बाद ही या समष्टि में लीन होने के पहले तुम्हारी सहायता
नहीं करते। क्योंकि कर्ता का भाव ही जब खो जाता है तभी तो ज्ञान का जन्म होता है।
जब तक कर्ता का भाव है, तब तक
तो कोई ज्ञानी नहीं, अज्ञानी
है।
मैं
तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर रहा हूं, और न तुम्हारी कोई सेवा कर रहा हूं। कर नहीं
सकता हूं। मैं सिर्फ यहां हूं। तुम अपनी अंजुलि भर लो। तुम्हारी झोली में जगह हो, तो भर लो। तुम्हारे हृदय में
जगह हो,
तो रख
लो। तुम्हारा कंठ प्यासा हो, तो पी
लो। ज्ञानी की सिर्फ मौजूदगी, निष्क्रिय
मौजूदगी पर्याप्त है। करने का ऊहापोह वहां नहीं है, न करने की आपाधापी है।
इसलिए
ज्ञानी चिंतित थोड़े ही होता है। तुमने उसकी नहीं मानी, तो चिंतित थोड़े ही होता है।
उसने जो तुम्हें कहा, वह
तुमने नहीं किया,
तो
परेशान थोड़े ही होता है। अगर कर्ता भीतर छिपा हो, तो परेशानी होगी। तुमने नहीं
माना, तो वह आग्रह करेगा, जबरदस्ती करेगा अनशन करेगा कि
मेरी मानो,
नहीं
तो मैं उपवास करूंगा, अपने
को मार डालूंगा अगर मेरी न मानी...।
सत्याग्रह
शब्द बिलकुल गलत है। सत्य का कोई आग्रह होता ही नहीं। सब आग्रह असत्य के हैं।
आग्रह मात्र ही असत्य है। सत्य की तो सिर्फ मौजूदगी होती है, आग्रह क्या है? सत्य तो बिलकुल निराग्रह है।
सत्य तो मौजूद हो जाता है, जिसने
लेना हो,
ले ले।
उसका धन्यवाद,
जो ले
ले। जिसे न लेना हो, न ले, उसका भी धन्यवाद, जो न ले। सत्य को कोई चिंता
नहीं है कि लिया जाए, न लिया
जाए; हो, न हो।
सत्य
बड़ा तटस्थ है। करुणा की कमी नहीं है, लेकिन करुणा निष्क्रिय है। नदी बही जाती है, अनंत जल लिए बही जाती है, लेकिन हमलावर नहीं है, आक्रमक नहीं है। किसी के कंठ
पर हमला नहीं करती। और किसी ने अगर यही तय किया है कि प्यासे रहना है, यह उसकी स्वतंत्रता है। वह
हकदार हैं प्यासा रहने का।
संसार
बड़ा बुरा होगा,
बड़ा
बुरा होता,
अगर
तुम प्यासे रहने के भी हकदार न होते। संसार महागुलामी होती, अगर तुम दुखी होने के भी
हकदार न होते। तुम्हें सुखी भी मजबूरी में किया जा सकता, तो मोक्ष हो ही नहीं सकता था
फिर। तुम स्वतंत्र हो; दुखी
होना चाहो,
दुखी।
तुम स्वतंत्र हो;
सुखी
होना चाहो,
सुखी।
आंख खोलो तो खोल लो। बंद रखो, तो बंद
रखो। सूरज का कुछ लेना-देना नहीं। खोलोगे, तो सूरज द्वार पर खड़ा है। न खोलोगे, तो सूरज कोई अपमान अनुभव नहीं
कर रहा है।
जीते
जी, या शरीर के छूट जाने पर ज्ञान
एक निष्क्रिय मौजूदगी है।
इसको
लाओत्से ने "वुईवेई' कहा
है। "वुईवेई'
का
अर्थ होता है,
बिना
किए करना। यह जगत का सबसे रहस्यपूर्ण सूत्र है। ज्ञानी कुछ करता नहीं, होता है। ज्ञानी बिना किए
करता है। और लाओत्से कहता है कि जो कर करके नहीं किया जा सकता, यह बिना किए हो जाता है।
भूलकर भी,
किसी
के ऊपर शुभ लादने की कोशिश मत करना, अन्यथा तुम्हीं जिम्मेदार होओगे उसको अशुभ
की तरफ ले जाने के।
ऐसा
रोज होता है। अच्छे घरों में बुरे बच्चे पैदा होते हैं। साधु बाप बेटे को असाधु
बना देता है। चेष्टा करता है साधु बनाने की। उसी चेष्टा में बेटा असाधु हो जाता
है। और बाप सोचता है, कि
शायद मेरी चेष्टा पूरी नहीं थी। शायद मुझे जितनी चेष्टा करनी थी उतनी नहीं कर पाया
इसीलिए यह बेटा बिगड़ गया। बात बिलकुल उलटी है। तुम बिलकुल चेष्टा न करते तो
तुम्हारी कृपा होती। तुमने चेष्टा की, उससे ही प्रतिरोध पैदा होता है।
अगर
कोई तुम्हें बदलना चाहे, तो न
बदलने की जिद पैदा होती है। अगर कोई तुम्हें स्वच्छ बनाना चाहे, तो गंदे होने का आग्रह पैदा
होता है। अगर कोई तुम्हें मार्ग पर ले जाना चाहे, तो भटकने में रस आता है।
क्यों?
क्योंकि
अहंकार को स्वतंत्रता चाहिए, और
इतनी भी स्वतंत्रता नहीं!
जो लोग
जानते हैं,
वह
बिना किए बदलते हैं। उनके पास बदलाहट घटती है। ऐसे ही घटती है, जैसे चुंबक के पास लोहकण
खिंचे चले आते हैं। कोई चुंबक खींचता थोड़े ही है! लोह-कण खिंचते हैं। कोई चुंबक
आयोजन थोड़े ही करता है, जाल
थोड़े ही फेंकता है। चुंबक का तो एक क्षेत्र होता है। चुंबक की एक परिधि होती है, प्रभाप की जहां उसकी मौजूदगी
होती है,
तुम
उसकी प्रभाव-परिधि में प्रविष्ट हो गए कि तुम खिंचने लगते हो, कोई खिंचता नहीं।
ज्ञानी
तो एक चुंबकीय क्षेत्र है। उसके पासभर आने की तुम हिम्मत जुटा लेना, शेष होना शुरू हो जाएगा।
इसीलिए तो ज्ञानी के पास आने से लोग डरते हैं। हजार उपाय खोजते हैं न आने के। हजार
बहाने खोजते हैं न आने के। हजार तरह के तर्क मन में खड़े कर लेते हैं न आने के।
हजार तरह अपने को समझा लेते हैं कि जाने की कोई जरूरत नहीं।
पंडित
के पास जाने से कोई भी नहीं डरता, क्योंकि
पंडित कुछ कर नहीं सकता। अब यह बड़े मजे की बात है, कि पंडित करना चाहता है और कर
नहीं सकता। ज्ञानी करते नहीं, और कर
जाते हैं।
सत्संग
बड़ा खतरा है। उससे तुम अछूते न लौटोगे, तुम रंग ही जाओगे। तुम बिना रंगे न लौटोगे; वह असंभव है। लेकिन ज्ञानी
कुछ करता है यह मत सोचना। हालांकि तुम्हें लगेगा, बहुत कुछ कर रहा है। तुम पर
हो रहा है,
इसलिए
तुम्हें प्रतीति होती है, कि
बहुत कुछ कर रहा है। तुम्हारी प्रतीति तुम्हारे तईं ठीक है, लेकिन ज्ञानी कुछ करता नहीं।
बुद्ध
का अंतिम क्षण जब करीब आया, तो
आनंद ने पूछा,
कि अब
हमारा क्या होगा?
अब तक
आप थे,
सहारा
था; अब तक आप थे, भरोसा था; अब तक आप थे आशा थी, कि आप कर रहे हैं, हो जाएगा। अब क्या होगा?
बुद्ध
ने कहा,
मैं था, तब भी मैं कुछ कर नहीं रहा
था। तुम्हें भ्रांति थी। और इसलिए परेशान मत होओ। मैं नहीं रहूंगा तब भी जो हो रहा
था, वह जारी रहेगा। अगर मैं कुछ
कर रहा था तो मरने के बाद बंद हो जाएगा।
लेकिन
मैं कुछ कर ही न रहा था। कुछ हो रहा था। उससे मृत्यु का कोई लेना-देना नहीं, वह जारी रहेगा। अगर तुम जानते
हो, कि कैसे अपने हृदय को मेरी
तरफ खोलो,
तो वह
सदा-सदा जारी रहेगा।
ज्ञानी
पुरुष जैसा दादू कहते हैं, लीन हो
जाते हैं,
उनकी
लौ सारे अस्तित्व पर छा जाती है। उनकी लौ फिर तुम्हें खींचने लगती है। कुछ करती
नहीं, अचानक किन्हीं क्षणों में जब
तुम संवेदनशील होते हो, ग्राहक
क्षण होता है कोई,
कोई लौ
तुम्हें पकड़ लेती है, उतर
आती है। वह हमेशा मौजूद थी। जितने ज्ञानी संसार में हुए हैं, उनकी किरणें मौजूद हैं। तुम
जिसके प्रति भी संवेदनशील होते हो, उसी की किरण तुम पर काम करना शुरू कर देती
है। कहना ठीक नहीं, कि काम
करना शुरू कर देती है, काम
शुरू हो जाता है।
इसलिए
तो ऐसा होता है कि कृष्ण का भक्त ध्यान में कृष्ण को देखने लगता है। क्राइस्ट का
भक्त ध्यान में क्राइस्ट को देखने लगता है। दोनों एक ही कमरे में बैठे हों, दोनों ध्यान में बैठे हों, एक क्राइस्ट को देखता है, एक कृष्ण को देखता है। दोनों
की संवेदनशीलता दो अलग धाराओं की तरफ हैं। कृष्ण की हवा है, क्राइस्ट की हवा है, तुम जिसके लिए संवेदनशील हो, वही हवा तुम्हारे तरफ बहनी
शुरू हो जाती है। तुमने जिसके लिए हृदय में गङ्ढा बना लिया है वही तुम्हारे गङ्ढे
को भरने लगता है।
अनंत
काल तक ज्ञानी का प्रभाव शेष रहता है। उसका प्रभाव कभी मिटता नहीं क्योंकि वह उसका
प्रभाव ही नहीं है, वह
परमात्मा का प्रभाव है। अगर वह ज्ञानी का प्रभाव होता तो कभी न कभी मिट जाता।
लेकिन वह शाश्वत सत्य का प्रभाव है, वह कभी भी नहीं मिटता।
तुम थोड़े
से खुलो। और तुम्हारे चारों तरफ तरंगें मौजूद हैं जो तुम्हें उठा लें आकाश में; जो तुम्हारे लिए नाव बन जाएं
और ले चलें भवसागर के पार। चारों तरफ हाथ मौजूद हैं जो तुम्हारे हाथ में आ जाएं, तो तुम्हें सहारा मिल जाए।
मगर वे हाथ झपट्टा देकर तुम्हारे हाथ को न पकड़ेंगे। तुम्हें ही उन हाथों को टटोलना
पड़ेगा। वे आक्रमक नहीं हैं, वे
मौजूद हैं। वे प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन आक्रमक नहीं हैं। ज्ञान अनाक्रमक है।
ज्ञान का कोई आग्रह नहीं है।
इसे
थोड़ा समझ लो। ज्ञान का नियंत्रण तो है, आमंत्रण तो है, आग्रह नहीं है। आक्रमण नहीं
है। जिसने सुन लिया आमंत्रण, वह जगत
के अनंत स्रोतों से जलधार लेने लगता है। जिसने नहीं सुना आमंत्रण, उसके पास ही जलधाराएं मौजूद
होती हैं। और वह प्यासा पड़ा रहा है। तुम किनारे पर ही खड़े-खड़े प्यासे मरते हो; जहां सब मौजूद था।
लेकिन
कोई करने वाला नहीं है। करना तुम्हें होगा। बुद्ध ने कहा है, बुद्धपुरुष तो केवल इशारा
करते हैं,
चलना
तुम्हें होगा।
तीसरा प्रश्न: जन्मों-जन्मों से हमने दुख का अनुभव जाना है। लेकिन
किस कारण हमें हमारी भूल नहीं दिख पाती?
पहली
तो बात;
जन्मों-जन्मों
की बात ही तुमने सुनी है, जानी
नहीं, यह तुम्हारा बोध नहीं है कि
तुम जन्मों-जन्मों से यहां हो।
और
जन्मों की तो तुम बात ही छोड़ो, इस
जन्म का भी तुम्हें बोध है? तुम जब
पैदा हुए थे,
तुम्हें
कुछ याद है?
कुछ भी
तो याद नहीं। वह भी लोग कहते हैं, कि यह
तुम्हारी मां है,
ये
तुम्हारे पिता हैं। तुम फलां-फलां तारीख को फलां-फलां समय पैदा हुए थे। ज्योतिषी
सर्टिफिकेट देते हैं, या
म्यूनिसिपल कारपोरेशन के रजिस्टर में लिखा है। बाकी तुम्हें कुछ याद है?
तुम नौ
महीने इस जन्म में गर्भ में रहे हो, तुम्हें उन नौ महीने की कुछ याद है? तुम पैदा हुए हो उसकी तुम्हें
कुछ याद है?
पीछे
लौटोगे,
तो
बहुत पीछे गए तो बस, चार
साल की उम्र तक जा पाओगे। उसके बाद फिर स्मृति तिरोहित हो जाती है। फिर कुछ याद
नहीं आता;
फिर सब
धुंधला है;
फिर
अंधकार है। कभी कोई फुटकर एकाध दो याददाश्तें मालूम होतीं हैं, वे भी चार साल की उम्र की
आखिरी-उसके बाद फिर अंधेरी रात है। और बात तुम करते हो जन्मों-जन्मों की।
इस
जन्म का भी तुम्हें पूरा पता नहीं है। इस जन्म में भी तुम पैदा हुए कि नहीं या यह
भी तुम्हारा अनुभव नहीं है। यह भी लोग कहते हैं। यह, भी सुनी-सुनाई बात है।
तुम्हारा जन्म भी,
तुम्हारे
प्रमाण पर नहीं,
वह भी
लोग-प्रमाण से है। अब और इससे ज्यादा झूठा जीवन क्या होगा'! अपने र्जंन्म का ही पता नहीं।
अगर समाज तय कर ले धोखा देने का, तो तुम
कभी अपने असली पिता या मां को न खोज पाओगे। और कई बार आदमी, जो पिता नहीं हैं, उसे पिता माने चला जाता है।
मैंने
सुना है इक्कीसवीं सदी में सौ वर्ष भविष्य में कंप्यूटर बन चुके। उनसे तुम कुछ भी
पूछो वे जवाब दे देते हैं। एक आदमी थोड़ा संदिग्ध है। उसने जाकर कंप्यूटर को पूछा, कि मेरे पिता इस समय क्या कर
रहे हैं?
तो
कंप्यूटर ने कहा,
वे
समुद्र के तट पर मछलियां मार रहे हैं। वह आदमी हंसने लगा, उसने कहा, सरासर झूठ। मेरे पिता को तो
मैं अभी घर बिस्तर पर सोया हुआ छोड़कर आया हूं। कंप्यूटर ने कहा, वह तुम्हारे पिता नहीं हैं, जिनको तुम घर पर छोड़ आए हो।
उसने कहा,
कि
तुम्हारे पिता तो समुद्र के किनारे मछलियां मार रहे हैं।
पिता
होने तक का कुछ पक्का भरोसा नहीं है, कि जिनको तुम पिता मानते हो, वे तुम्हारे पिता हैं जिनको
तुम मां मानते हो,
वह
तुम्हारी मां हो। तुम जन्मों-जन्मों की बात कर रहे हो? तुमने सुन लिया। सुन-सुनकर
धीरे-धीरे,
तुम
इतनी बार सुन चुके हो यह बात, कि तुम
यह भूल ही गए,
कि
तुम्हारा यह बोध नहीं है। इस देश में तो जन्मों-जन्मों की बात इतने काल से चल रही
है, और तुमने इतनी बार सुनी है, कि तुम्हारे भीतर लकीर खिंच
गई है।
ध्यान
रखो, जितना अपना बोध हो, उससे आगे मत जाओ; अन्यथा झूठ शुरू हो जाता है।
महावीर,
बुद्ध
कहते हैं,
कि और
भी जन्म थे क्योंकि उन्हें उन जन्मों की याद आ गई है। तुम मत कहो। तुम अपनी सीमा
में रहो,
मैं
नहीं कहता,
कि तुम
यह कहो,
कि
नहीं होते। क्योंकि यह भी सीमा के बाहर जाना होगा। होते हैं, नहीं होते, तुम्हें कुछ पता नहीं है। तुम
कृपा करके ठहरो उतने ही तक जहां तक तुम्हें याद है। और चेष्टा करो कि किस भांति
याद गहरी हो सके। और कैसे तुम्हें स्मृति की शृंखला का बोध हो सके, कैसे तुम्हारी जीवनधारा
प्रकाशित हो सके और तुम पीछे की तरफ जान सको।
सिद्धांतों
को चुपचाप स्वीकार कर लेने से कुछ हल नहीं होता, उनसे और उलझनें खड़ी होती हैं।
अब तुम पूछते हो,
जन्मों-जन्मों
से हमने दुख का अनुभव किया है। पहली तो बात जन्मों-जन्मों की झूठ। वह कभी बुद्ध, किसी महावीर को होता है
स्मरण। तुम्हें है नहीं स्मरण।
दूसरी
बात, कहते हो, "हमने दुख को जाना है,' वह भी गलत। दुख जब चला जाता
है, तब तुम जान पाते हो। जब होता
है, तब तुम नहीं जान पाते।
तुम्हारा सब जानना जब समय जा चुका होता है तब होता है।
समझो, क्रोध आया, तब तुम जानते हो, क्रोध आया? नहीं, जब तुमने किसी का सिर तोड़
दिया और किसी ने तुम्हारा सिर तोड़ दिया, तुम बैठे हो अपने कमरे में पट्टियां बांधे; और सोच रहे हो, कि क्रोध आया, क्रोध बुरा है, बड़ा दुखदायी है, अब कभी न करूंगा। इसको तुम
अनुभव कहते हो। लेकिन जब क्रोध आया था जिस क्षण में, उस समय तुम होश में थे, कि क्रोध को तुमने सीधा देख
लिया हो आमने सामने? अगर
देख ही लेते तो ये सिर पर पट्टियां न बंधती। अगर देख ही लेते तो पश्चात्ताप का समय
ही न आता। जो साक्षात्कार कर लेता है क्षण का, वह कभी भी पछताता नहीं। उसके जीवन में
प्रायश्चित जैसी बात ही नहीं होती।
तुमने
क्रोध को खड़े देखा है उस क्षण में जब क्रोध सामने खड़ा होता है? नहीं, तब तो तुम बेहोश होते हो; तब तो तुम क्रोध के नशे में
होते हो,
तब तक
क्रोध के जहर में दबे होते हो; तब तो
तुम जो करते हो,
वह तुम
अपने बस से नहीं करते हो, क्रोध
के प्रभाव में कर रहे हो।
हां, जब क्रोध जा चुका, आंधी जा चुकी, झाड़-झंखाड़ उखाड़ गई, मकान का छप्पर, उड़ा गई, दीवालें तोड़ गई, तब तुम बैठे रो रहे हो। तुमने
जो भी जाना है,
वह क्षण
में जाना है,
या
क्षण के बीत जाने पर जानते हो? इसे
थोड़ा समझने की कोशिश करो।
तुम्हारा
सब जानना अतीत का है। वर्तमान से तुम्हारा संबंध ही नहीं जुड़ता। जुड़ जाए तो तुम
बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओ। तो कुछ करने को नहीं है, फिर कोई दुख नहीं है। तुम्हें
पता ही तब चलता है, जब बात
जा चुकी होती है। तुम सदा स्टेशन पर पहुंचते हो, जब ट्रेन छूट गई होती है।
एक
मित्र मेरे पास कुछ दिन पहले पूछते थे, कि मुझे एक सपना बार-बार आता है, कि मैं ट्रेन पकड़ने जा रहा
हूं और टे्रेन छूट जाती है; इसका
मतलब क्या है?
मतलब
साफ है,
कि
ट्रेन रोज-रोज छूट रही है, हर घड़ी
छूट रही है,
हर
क्षण छूट रही है। तुम जब भी पहुंचते हो, पाते हो, स्टेशन खाली है। कुली बताते हैं, जा चुकी।
इस तरह
के सपने बहुत लोग देखते हैं। यह सपना कोई एक-आध आदमी देखता है, ऐसा नहीं। चूक जाने के सपने
बहुत लोग देखते हैं। वे सपने तुम्हारे यथार्थ की छाया हैं। वे प्रतिबिंब हैं, जो तुम्हारे जीवन की कहानी कह
रहे हैं,
कि तुम
हमेशा देर से पहुंचते हो। क्षण जा चुका होता है, तब आप मौजूद होते हैं। जब
क्षण होता है,
तब आप
मौजूद नहीं होते।
मौजूद
हो जाना क्षण में;
तभी
तुम जान सकोगे। अन्यथा तुम्हारे जानने का क्या मूल्य है? तुम्हारा जानना भी झूठा है।
क्योंकि जो बीत चुका, उसको
तुम कैसे जानोगे?
तुम
उसे वैसा तो जान ही नहीं सकते, जैसा
वह था। वह अब है ही नहीं। उसकी भनक रह गई है।
ऐसा ही
समझो, कि रात तुम सपना देखते हो, सुबह जागकर जानते हो, कि सपना देखा; लेकिन तब तक सपने के बहुत से
खंड तो भूल ही जाते हैं। तब तक सपने की बहुत सी बातें तो बदल ही जाती हैं। रंग और
हो जाते हैं। और वह भी तुम जागने के बाद कोई मिनट दो मिनट तक तुम्हें याद रहती हैं, फिर वह भी भूल जाती हैं।
लेकिन जब सपना चलता होता है, तब
तुमने सपना जाना है? अगर
तुम जान लो,
तो
सपना टूट जाए,
जागरण
आ जाए। बुद्धत्व कुछ और नहीं है, इस
सोएपन से जागने का नाम है। क्षण की नाव को वहीं पकड़ लेना है, जब वह चूकती है।
हमेशा
चूकते रहते हो और फिर भी तुम कहते हो, कि जाना है दुख का अनुभव। वह भी जाना नहीं
है, वह भी सुना है। बुद्ध कहते
हैं, जीवन दुख है, जरा दुख है, जन्म दुख है, मरण दुख है, सब दुख है। और बुद्धपुरुष बड़े
प्रभावी हैं। स्वभावतः उनके एक-एक वचन में बड़ी गरिमा है, गौरव है। उनके एक-एक वचन में
बड़ा बल है;
प्रभाव
है। उनके वचन की चोट तुम्हारे भीतर पड़ती है, प्रतिध्वनि होती है--तुम सोचते हो यह
तुम्हारी आवाज है। यह ऐसे ही है, जैसे
पहाड़ों में तुम जाओ, और जोर
से आवाज लगाओ,
और
घाटियों में आवाज गूंजे, और
घाटियां सोचती हों यह उनकी आवाज है।
तुम
घाटियों की तरह हो। बुद्धपुरुषों के वचन तुममें गूंजते चले जाते हैं। तुम
धीरे-धीरे भूल ही जाते हो कि ये वचन हमारे नहीं; सुने हैं। ध्यान रखो, दुख का अनुभव भी तुमने जाना
नहीं है। अगर जान ही लेते तो दुख बंद हो जाता। ज्ञान का दिया जल गया हो और दुख बच
रहे, तो ऐसा ही हुआ, कि घर में तुमने रोशनी कर ली
और अंधेरा जाता ही नहीं।
ऐसा
कहीं होता है,
कि तुमने
बिजली जला ली,
दिए
जला लिए और अंधेरा बना ही हुआ है, अंधेरा
कहता है हम जाएंगे ही नहीं; अंधेरा
हठयोग साधकर वहीं बैठा हुआ है? न; तुमने दीया जलाया, अंधेरा गया। वह जलाते ही चला
जाता है। अगर तुम जान लो दुख को, तो दुख
गया। दुख अंधेरा है, जानना
दीया है।
तुम कहते
हो, जन्मों-जन्मों से हमने दुख का
अनुभव जाना है,
लेकिन
किस कारण हमें हमारी भूल नहीं दिख पाती? अगर जाना होता तो दिख जाती। भूल तुम वहीं कर
रहे हो जो तुमने जाना नहीं है उसको जाना हुआ मान रहे हो। अगर जान लो, तो भूल बिलकुल सीधी है। क्या
है भूल?
इतनी
सीधी-साफ है--
दुख
में बार-बार गिरने का अर्थ यही है, कि तुम अब तक यह नहीं जान पाए, कि दुख पहले सुख का आश्वासन
देता है। और आश्वासन में तुम फंस जाते हो। आश्वासन हर बार गलत सिद्ध होता है। हर
बार सुख की चाह से जाते हो और दुख पाते हो। मैं निरंतर कहता हूं, कि नर्क के द्वार पर स्वर्ग
की तख्ती लगी है। शैतान में इतनी अक्ल तो है ही, कि अगर नर्क की तख्ती लगाएगा, तो कौन भीतर प्रवेश करेगा? उसने स्वर्ग की तख्ती लगा रखी
है। लोग प्रवेश कर जाते हैं।
ऐसा
हुआ कि एक राजनेता मरा। होशियार आदमी था, जिंदगी के दांव-पेंच जानता था। जिंदगीभर दिल्ली
में बिताई थी। मरा, तो
उसने जाकर कहा,
कि मैं
दोनों देख लेना चाहता हूं; स्वर्ग
भी और नर्क भी। तभी मैं चुनाव करूंगा, कि कहां मुझे रहना है। द्वारपाल ने कहा, आपकी मर्जी। आप स्वर्ग देख
लें, नर्क देख लें।
स्वर्ग
दिखाया;
राजनेता
को कुछ जंचा नहीं। दिल्ली में जो जीया हो, उसे स्वर्ग बिलकुल उदास मालूम पड़ेगा। दिल्ली
की उत्तेजना,
घेराव, आंदोलन, सभाएं, नेताओं की टकराहट, सब तरह का उपद्रव! दिल्ली तो
एक पागल बाजार है। सारे मुल्क के पागल वहां इकट्ठे हैं। जो वहां रह लिया एक दफा, पागलखाने में जो रह लिया, उसे मंदिर जंचेगा नहीं। उसे
मंदिर में ऐसा सन्नाटा मालूम पड़ेगा, कि जी टूटता है, उदासी मालूम होती है। यह भी
कोई जगह है! न कोई शोरगुल न कुछ।
सब जगह
घूमा, फिर उसने पूछा, "अखबार वगैरह निकलते हैं?'
"यहां कोई घटना ही नहीं घटती।
लोग अपनी-अपनी सिद्धशिला पर आंख बंद किए बैठे रहते हैं। न कोई झगड़ा न झांसा, न कोई किसी का सिर तोड़ता, न कोई हत्या, न कोई किसी की पत्नी को लेकर
भाग जाता कुछ यहां होता ही नहीं। अखबार निकालो भी, तो क्या छापो? यहां कोई खबर ही नहीं है।
अखबार वगैरह कुछ नहीं निकलता।'
उसने
कहा,
"बेकार
है। जब अखबार ही नहीं निकलता, जिंदगी
क्या? जब सुबह से अखबार ही न हो
पढ़ने को,
तो
यहां करेंगे क्या?
ये लोग
ऐसे बैठे रहते हैं झाड़ों के नीचे? ऊब
नहीं जाते होंगे?
तो मैं
तो नर्क भी देख लेना चाहता हूं, फिर तय
करूंगा।'
तो वह
नर्क देखने गया। बड़ा स्वागत किया गया उसका। बैंड-बाजे बजे, सुंदर स्त्रियां नाचीं, शराब ढाली गई। वह बड़ा ही
प्रसन्न हुआ। उसने कहा, दुनिया
में बिलकुल गलत खबरें फैलाई जा रहा हैं, कि स्वर्ग में बड़ा आनंद है और नर्क में बड़ा
दुख है। और सदियों से ये पंडित, पुरोहित, और मंदिरों के पुजारी यह धोखा
दे रहे हैं लोगों को। स्वर्ग तो बिलकुल नर्क जैसा है और यह नर्क तो बिलकुल स्वर्ग
जैसा है। कहीं कोई भूल-चूक हो रही है।
शैतान
ने कहा,
कि
मामला ऐसा है,
कि
प्रचार के सब साधन परमात्मा के हाथ में हैं। हमारी कोई सुनता ही नहीं। हम लोगों को
समझाते हैं,
तो भी
वे कहते हैं,
शैतान, तू दूर रह! परमात्मा ने सब को
भड़काया हुआ है,
एक-पक्षीय
प्रचार चल रहा है। हमारा न कोई मंदिर है। न कोई बाइबल, न कुरान, न हमारा कोई संत है जो हमारा
प्रचार करे। यह सब विज्ञापन का करिश्मा है। आप तो जानते ही हैं, कि विज्ञापन से क्या नहीं हो
सकता!
राजनेता
ने कहा,
कि बात
ठीक है। तो मैं तो यहीं रहने का चुनाव करता हूं। उसने कह दिया स्वर्ग के द्वारपाल
को कि तू वापिस जा। मैंने निर्णय कर लिया, कि मैं यहीं रहूंगा।
द्वार
बंद हुआ,
और
जैसे ही वह लौटा,
देखकर
दंग रह गया। वहां तो दृश्य बदल गया। वे जो बैंड-बाजे और खूबसूरत स्त्रियां वहां
थीं, वे वहां नहीं हैं। नर-कंकाल
नाच रहे हैं। और बड़ी आग जल रही है और कड़ाहे चढ़ाए जा रहे हैं, और लोग फेंके जा रहे हैं।
शैतान की तरफ देखा, तो
प्राण छूट गए। शैतान उसकी गर्दन दबा रहा है, छाती पर चढ़ा है। बोला, यह क्या मामला है? अभी तो सब ठीक था। उसने कहा, अगर शुरू में ठीक न हो, तो यहां कोई आएगा ही कैसे? वह जो दृश्य दिखाया, वह तो टूरिस्टों के लिए था।
अब यह असली नर्क शुरू होता है। इतनी सुविधा हम भी देते हैं चुनाव की।
नर्क
के द्वार पर स्वर्ग लिखा है। हर दुख के द्वार पर सुख लिखा है। और कितनी बार तुम
सुख की आकांक्षा में जाते हो और दुख में उलझ जाते हो। जाते हो आशा में, निराशा हाथ लगती है। जाते हो
पाने, सिर्फ खोते हो। सपना बड़ा
मालूम पड़ता है शुरुआत में, पीछे
दुःस्वप्न हो जाता है। दुख की परिभाषा ज्ञानियों ने यह की है, जो प्रथम सुख जैसा मालूम पड़े
और अंत में दुख हो जाए। तुम इसी तरह तो कटे हो। तुम्हारे पंख कट गए हैं, हाथ-पैर कट गए हैं, लूले-लंगड़े हो, अंधे हो बहुत आश्वासनों में।
फिर भी तुम कहते हो, हमने
दुख जाना है। अगर तुम दुख जान लेते तो तुम यह जान लेते, कि जहां-जहां सुख लिखा है, वहां-वहां दुख है। "दुख' जिसे तुम सुख कहते हो उसकी
परिणति है। दुख,
जिसे
तुम सुख मानते हो,
उसका
अंतिम फल है।
बीज तो
तुम सोच सकते हो कि तुमने आम के बोए थे, लेकिन जब फल लगते हैं, तब कड़वे नीम के लगते हैं। अगर
तुम जान लो;
तो तुम
यह भी जान लो कि बीज जो आम के मालूम पड़ते थे, वे आम के थे नहीं। अन्यथा आम में कैसे नीम
लग जाती?
वे बीज
ही नीम के थे। लेकिन बीज के आसपास जो प्रचार था, बीज ने खुद तुम्हें जो समझाया
था, वह यह था, कि मैं आम हूं। जिसने दुख का
अनुभव जान लिया,
उसने
यह जान लिया कि सभी दुख, सुख का
आश्वासन देकर जाते हैं। नहीं तो तुम उन्हें भीतर ही कैसे आने दोगे? एक बार आ जाते हैं तो फिर घर
में अड्डा जमाकर बैठ जाते हैं।
इसका
यह अर्थ हुआ,
कि जो
दुख को जान लेता है वह सुख से मुक्त होने की कोशिश करता है, दुख से मुक्त होने की नहीं।
अगर तुमने दुख से मुक्त होने की कोशिश की, तो तुमने दुख जाना ही नहीं। दुख से तो सभी
मुक्त होना चाहते हैं। यह तो सीधी बात है। सभी सुख पाना चाहते हैं सभी दुख छोड़ना
चाहते हैं और सभी दुख पाते हैं। सुख किसी को मिलता नहीं।
जब
गणित में कहीं कठिनाई है। इसे थोड़ा समझ लेना पड़े। साफ कर लेना पड़े। सुख मत चाहो, दुख न मिलेगा। सुख चाहोगे, दुख मिलेगा। अज्ञानी सुख
मांगता है,
दुख में
फंसता है। ज्ञानी सुख मांगना बंद कर देता है, दुख का द्वार ही बंद हो गया। और जब ज्ञानी
सुख मांगना बंद कर देता है, आौर
दुख का द्वार बंद हो जाता है। तब जो घड़ी आती है जीवन में उसको शांति कहो, आनंद कहो, निर्वाण कहो, मोक्ष कहो, जो कहना हो। लेकिन वह सुख-दुख
दोनों के पार है।
"जन्मों-जन्मों से हमने दुख का
अनुभव जाना,
लेकिन
किस कारण हमें हमारी भूल नहीं दिख पाती!'
नहीं, न तो जन्मों-जन्मों से कुछ
जाना है,
न
तुमने दुख जाना है, अन्यथा
भूल दिख जाती। यही भूल है, कि तुम
समझ रहे हो कि तुमने जाना है, और
जाना नहीं। अब यह भूल छोड़ो। अब फिर से अ, ब, स से शुरू करो। अभी तक तुम्हारा जाना हुआ
किसी काम का नहीं। अब फिर से आंख खोलो और देखो। हर जगह, जहां तुम्हें सुख की पुकार आए, रुक जाना। वह दुख का धोखा है।
मत जाना! कहना,
सुख
हमें चाहिए ही नहीं। शांति को लक्ष्य बनाओ। सुख को लक्ष्य बनाकर अब तक रहे हो और
दुख पाया है। अब शांति को लक्ष्य बनाओ।
शांति
का अर्थ है,
न सुख
चाहिए। न दुख चाहिए क्योंकि सुख-दुख दोनों उत्तेजनाएं हैं। और शांति अनुत्तेजना की
अवस्था है। और जो व्यक्ति शांत होने को राजी है, उसके जीवन में आनंद की वर्षा
हो जाती है। जैसा मैंने कहा, सुख
दुख का द्वार है। ऐसा शांति आनंद का द्वार है।
साधो
शांति,
आनंद
फलित होता है। आनंद को तुम साध नहीं सकते। साधोगे तो शांति को। और शांति का कुल
इतना ही अर्थ है,
कि अब
मुझे सुख-दुख में कोई रस नहीं। क्योंकि मैंने जान लिया, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू
हैं। अब मैं सुख-दुख दोनों को छोड़ता हूं। जो दुख को छोड़ता हैं, सुख को चाहता है, वह संसारी है। जो सुख को
मांगता है,
दुख से
बचना चाहता है वह संसारी है। जो सुख-दुख दोनों को छोड़ने को राजी है, वह संन्यासी है।
संन्यासी
पहले शांत हो जाता है। लेकिन संन्यासी की शांति संसारी को बड़ी उदास लगेगी; मंदिर का सन्नाटा मालूम होगा।
वह कहेगा,
यह तुम
क्या कर रहे हो?
जी लो, जीवन थोड़े दिन का है। यह
राग-रंग सदा न रहेगा, कर लो, भोग लो। उसे पता ही नहीं, शांति का जिसे स्वाद आ गया
उसे सुख-दुख दोनों ही तिक्त और कड़वे हो जाते हैं। और शांति में जो थिर होता
गया--शांति यानी ध्यान; शांति
में जो थिर होता गया, बैठ गई
जिसकी ज्योति शांति में, तार
जुड़ता गया,
एक दिन
अचानक पाएगा,
आनंद
बरस गया।
शांति
है साज का बिठाना;
और
आनंद है जब साज बैठ जाता है, तो
परमात्मा की उंगलियां तुम्हारे साज पर खेलनी शुरू हो जाती है। शांति है स्वयं को
तैयार करना;
जिस
दिन तुम तैयार हो जाते हो, उस दिन
परमात्मा से मिलन हो जाता है। इसलिए हमने परमात्मा को सच्चिदानंद कहा है। वह सत है, वह चित है, वह आनंद है। उसकी गहनतम
आंतरिक अवस्था आनंद है।
चौथा प्रश्न: क्या बुद्धपुरुष के होते हुए साधक को अपना स्वयं का
समाधान खोजना अनिवार्य है?
समाधि
उधार नहीं हो सकती। कोई तुम्हें दे नहीं सकता। कोई देता हो तो भूलकर लेना मत। वह
झूठी होगी। समाधि तो तुम्हें ही खोजनी पड़ेगी। क्योंकि समाधि कोई बाह्य घटना नहीं, तुम्हारा आंतरिक विकास है।
धन में
तुम्हें दे सकता हूं। धन बाहरी घटना है। लेकिन ध्यान रखना जो बाहर से दिया जा सकता
है, वह बाहर से छीना भी जा सकता
है। कोई चोर उसे चुरा लेगा। अगर दिया जा सकता है, तो लिया जा सकता है।
वह
समाधि ही क्या,
जो ली
जा सके। जो चोर चुरा ले, डाकू
लूट ले,
इन्कम
टैक्स,
का दफ्तर
उसमें कटौती कर ले, वह
समाधि क्या! समाधि तो वह है, जो तुम
से ली न जा सके। समाधि तो वह है, कि
तुम्हें मार भी डाला जाए, तो भी
समाधि को न मारा जा सके। तुम कट जाओ, समाधि न कटे। तुम जल जाओ, समाधि न जले। तुम्हारी मृत्यु
भी समाधि की मृत्यु न बने। तभी समाधि है। नहीं तो क्या खाक समाधान हुआ!
तो फिर
ऐसी समाधि तो कोई भी दे नहीं सकता, तुम्हें खोजनी होगी। बुद्धपुरुष भी नहीं दे
सकते। अनिवार्य है, कि तुम
अपना विकास खुद खोजो। हां, बुद्धपुरुष
सहारा दे सकते हैं, उनकी
मौजूदगी बड़ी कीमत की हो सकती है, उनकी
मौजूदगी में तुम्हारा भरोसा बढ़ सकता है।
ऐसे ही
जैसे मां मौजूद होती है तो छोटा बच्चा खड़े होने की चेष्टा करता है। उसे पता है, अगर गिरेगा तो मां सम्हालेगी।
मां नहीं चल सकती बेटे के लिए; बेटे
को ही चलना पड़ेगा। बेटे के पैर ही जब शक्तिवान होंगे तभी चल पाएगा। मां के मजबूत
पैरों से कुछ न होगा। लेकिन मां कह सकती है कि हां, बेटा चल। डर मत, मैं मौजूद हूं। गिरेगा नहीं।
मां थोड़ा हाथ का सहारा दे सकती है। खड़ा तो बेटा अपने ही भरोसे पर होगा, अपने ही बल पर होगा लेकिन मां
की मौजूदगी एक वातावरण, एक
परिवेश देती है। उस परिवेश में हिम्मत बढ़ जाती है।
मनोवैज्ञानिकों
ने बहुत अध्ययन किए हैं। अगर बच्चों के पास परिवेश न हो प्रेम का तो वे देर से
चलते हैं। अगर प्रेम का परिवेश हो, जल्दी खड़े होने लगते हैं। अगर प्रेम का
परिवेश न हो,
तो
उन्हें बहुत देर लग जाती है बोलने में। अगर प्रेम का परिवेश हो, तो वे जल्दी बोलने लगते हैं।
अगर उन्हें प्रेम बिलकुल भी न मिले तो वे खाट पर पड़े रह जाते हैं। वे पहले से ही
रुग्ण हो जाते हैं। फिर उठ नहीं सकते, चल नहीं सकते। किसी ने भरोसा ही न दिया, कि तुम चल सकते हो।
बच्चे
को पता भी कैसे चले, कि मैं
चल सकता हूं?
उसका
कोई अनुभव नहीं,
कोई
पिछली याद नहीं। बच्चे को पता कैसे चले, कि मैं भी बोल सकता हूं? उसने अपने कंठ से कभी कोई
शब्द निकलते देखा नहीं। हां, अगर
प्रेम का परिवेश हो, कोई
उसे उकसाता हो,
सहारा
देता हो,
कोई
कहता हो घबराओ मत;
आज
नहीं होता है,
कल हो
जाएगा। ऐसे ही हम भी चले, ऐसे ही
हम भी गिरे थे,
ऐसी
चोट खानी ही पड़ती है, यह कोई
चोट नहीं है,
यह तो
शिक्षण है। ऐसा कोई सहारा देता हो, प्रेम की हवा बनाता हो, तो चलना आसान हो जाता है, उठना आसान हो जाता है, बोलना आसान हो जाता है।
जो
छोटे बच्चे के लिए सही है, वही
साधक के लिए भी सही है। साधक छोटा बच्चा है आत्मा के जगत में। बुद्ध तुम्हें देते
नहीं, दे नहीं सकते; सिर्फ तुम्हारे चारों तरफ एक
प्रेम का परिवार बना सकते हैं। उस हवा में बहुत कुछ घट जाता है। तुमने कभी सोचा, कभी निरीक्षण किया? अगर दस आदमी प्रसन्न-चित्त
बैठे हों,
हंस
रहे हों। गपशप कर रहे हों, तो तुम
उदास भी हो,
तो
जल्दी ही उदासी भूल जाते हो। उनकी हंसी संक्रामक हो जाती है। वह तुम्हें छू लेती
है। तुम भूल ही जाते हो, कि तुम
उदास आए थे।
दस
आदमी उदास बैठे हों, कोई मर
गया हो,
रो रहे
हों, तुम गीत गुनगुनाते रास्ते से
जा रहे थे। अचानक किसी ने कहा, कि कोई
मर गया परिचित। वहां घर में गए हो, तुम एकदम उदास हो गए। हृदय बैठ गया। जैसे
श्वास बंद हो गई। खून बहता नहीं, जम
गया। क्या हो गया?
एक हवा
है वहां उदासी की।
इसलिए
परिवार बनाए हैं बुद्धों ने। बुद्ध ने संघ बनाया। बुद्ध ने संघ के तीन सूत्र
बनाए...पहला सूत्र था, बुद्धं
शरणं गच्छामि कि मैं बुद्ध की शरण जाता हूं। लेकिन बुद्ध जब तक जीवित हैं, तब तक यह आसान होगा। बुद्ध के
जीवित न होने पर साधारण आदमी को मुश्किल हो जाएगा, कि जो बुद्ध नहीं हैं उनकी
शरण कैसे जाऊं?
कहीं
दिखाई नहीं पड़ते,
अदृश्य
हैं, चरण भी दिखाई नहीं पड़ते, शरण कैसे जाऊं?
तो
बुद्ध ने दूसरा सूत्र बनाया--धम्मं शरणं गच्छामि। अगर बुद्ध नहीं हो तो धर्म की
शरण जाना। लेकिन धर्म भी बड़ी वायवीय बात है, हवाई बात है। धर्म यानी नियम, जिससे जगत चल रहा है। लेकिन
वह दिखाई नहीं पड़ता।
तो
बुद्ध ने फिर तीसरा सूत्र बनाया--सघं शरणं गच्छामि। संघ का अर्थ है: भिक्षुओं का
संघ; परिवार।
बुद्ध
सर्वाधिक सूक्ष्म बात है। बुद्धत्व का अर्थ है, धर्म को उपलब्ध, जाग कर उपलब्ध हुआ व्यक्ति।
फिर बुद्ध से थोड़ा नीचे आएं, तो
नियम, गणित विज्ञान की बात
है--धर्म। फिर उससे और नीचे आए तो संघ, परिवार।
मुझसे
लोग पूछते हैं,
कि आप
हजारों लोगों को संन्यास दे रहे हैं, क्या मतलब? क्या प्रयोजन? क्या आप का कोई इरादा है समाज
को, दुनिया को बदलने का?
बिलकुल
नहीं है। समाज को बदलने का कोई इरादा नहीं। दुनिया को बदलने का कोई इरादा नहीं।
दुनिया कभी बदलती नहीं; बदलने
की कोई जरूरत भी नहीं है। क्योंकि दुनिया भी चाहिए। जिनको उस ढंग से रहना है, उनके लिए वैसी दुनिया चाहिए।
उतनी स्वतंत्रता चाहिए। बाजार को मिटा दोगे, अच्छा न होगा। रहने दो; कुछ लोगों को बाजार चाहिए। वे
बाजार में ही जी सकते हैं, वे
बाजार के ही कीड़े हैं। उनको कहीं और ले जाओ, वे मर जाएंगे। संसार जिनको चाहिए उनके लिए
संसार है।
नहीं, ये जो हजारों लोगों को मैं
संन्यास दे रहा हूं, यह एक
संघ है,
एक
परिवार है,
एक हवा
है। जहां दस संन्यासी बैठेंगे वहां रंग बदल जाएगा। इसलिए तुम्हें लाल रंग दिया है।
वह अग्नि का रंग है। वह लपट का रंग है। जिस को दादू लौ कह रहे हैं, उसका रंग है।
जहां
दस संन्यासी बैठेंगे, वहां
रस बदल जाएगा,
वहां
चर्चा बदल जाएगी,
वहां
हवा और हो जाएगी। तुम बात परमात्मा की करोगे। तुम बीज परमात्मा के बोओगे। तुम
नाचोगे,
तुम
गाओगे,
तुम
उत्सव मनाओगे। वह जो उदास भी आया था, थका-मांदा आया था, पुनरुज्जीवित हो उठेगा।
एक
परिवेश चाहिए। बुद्ध सिर्फ परिवेश देते हैं, इशारा देते हैं, सहारा देते हैं। चलना तुम्हें
है, पाना तुम्हें है, खोजना तुम्हें है। मोक्ष कोई
दूसरा दे भी कैसे सकता है। अन्यथा वह क्या खाक मोक्ष होगा। वह तुम्हारा अंतर-विकास
है। वह तुम्हारे अंतरतम की आत्यंतिक अवस्था है।
इससे
निराश मत होना। उसे सहारा दिया जा सकता है, उसे बड़ा सहारा दिया जा सकता है। और अगर तुम
अपने गुरु के प्रेम में हो, तो
सहारा ही सहारा है।
पांचवां प्रश्न: ध्यान करते समय एक ओर शांति और आनंद का अनुभव होता
है तो दूसरी ओर विचार की एक हल्की धारा चलती रहती है। इस हालत में अनुभूत शांति मन
का धोखा है क्या?
मन
बहुत अदभुत है। वह कभी शक नहीं करता....। अगर दुख हो तो वह कभी नहीं पूछता, कि मन का धोखा है? क्रोध हो, कभी नहीं पूछता कि मन का धोखा
है? लेकिन अगर थोड़ी शांति मिले तो
भरोसा नहीं आता। मन पूछता है, धोखा
होगा। तुम्हें और शांति मिल सकती है? असंभव। तुम और आनंद अनुभव कर सकते हो? वह हो ही नहीं सकता। जरूर
कहीं कोई भूल हो रही है।
तुमने
अपने पर कितनी आस्था खो दी है। तुमने अपने भाग्य को बिलकुल अंधकार के साथ जोड़ रखा
है। तुमने विषाद को नियति बना लिया है। अगर उस विषाद के क्षण में कभी एक सूरज की
किरण भी उतरे,
तो तुम
मानते हो कि सपना होगा। सूरज की किरण और मुझ पर उतर सकती है? हो ही नहीं सकता। अंधेरा ही
उतर सकता है तुम पर, ऐसा
तुमने भरोसा क्यों कर लिया है?
और अगर
यह भरोसा तुम्हारा है, तो ऐसा
ही होगा। क्योंकि तुम्हारा भरोसा ही तुम्हारा भाग्य बन जाता है। सूरज की किरण
उतरेगी,
तो तुम
स्वागत न कर पाओगे, तुम
संदेह से देखोगे। अंधेरा आएगा, तुम
छाती से लगा लोगे। स्वभावतः अंधेरा बढ़ेगा। सूरज की किरण धीरे-धीरे कम आएगी। जहां
स्वागत ही न होता हो, वहां
आने का भी क्या प्रयोजन? जहां
अतिथि की तरह सम्मान न होता हो, वहां
परमात्मा भी धीरे-धीरे बचने लगेगा। क्योंकि परमात्मा तुम्हारे द्वार पर आ जाए तो
यह पक्का है,
तुम
भरोसा न करोगे कि यह परमात्मा हो सकता है। हो सकता है पीछे के दरवाजे से भागकर तुम
पुलिस में रिपोर्ट लिखवा आओ, कि पता
नहीं कौन खड़ा है। परमात्मा तो हो ही नहीं सकता। कोई न कोई झंझट आ गई। परमात्मा और
हमारे द्वार पर!
तुमने
क्यों अपने को इतना दीन समझ लिया है? तुमने क्यों अपने को इतना दुर्बल मान लिया
है? तुम क्यों इतने अपने शत्रु हो
गए हो?
अब दो घटनाएं
घट रही हैं। मन में शांति आ रही है ध्यान में। आनंद की थोड़ी-सी पुलक आ रही है। पास
ही थोड़े से मन की तरंगें चल रही हैं, विचार चल रहे हैं। दो घटनाएं घट रही हैं।
लेकिन
पूछने वाला यह नहीं पूछता, कि ये
जो मन की तरंगें चल रही हैं, यह
कहीं धोखा तो नहीं है। वह पूछता है, कि यह जो शांति मालूम हो रही है, यह कहीं धोखा तो नहीं है।
जिसको तुम धोखा समझोगे, वह मिट
जाएगा। जिसको तुम सत्य समझोगे, वह हो
जाएगा। विचार वस्तुएं बन जाते हैं भाव-दशाएं स्थितियां हो जाती हैं। जिसने जैसा
माना, वैसा हो जाता है।
बुद्ध
का बड़ा प्रसिद्ध वचन है धम्मपद में, कि तुमने जो सोचा, तुम वही हो जाओगे। तुम आज जो
हो, वह तुम्हारे बीते कल के सोचने
का परिणाम है। आज तुम जो सोचोगे वह तुम कल हो जाओगे। सोचना तो बीज बोना है। फिर
तुम रोते हो,
जब फल
काटते हो।
चलने
दो विचारों की तरंगों को। तुम अपने ध्यान को शांति पर लगाओ और अहोभाव से भरो। और
तुम धन्यवाद दो परमात्मा को, कि
इतनी शांति मिली। परमकृतज्ञ हो जाओ, शांति रोज बढ़ने लगेगी। जितनी शांति बढ़ेगी, उतनी ही मन की जो तरंगें हैं, वे कम होने लगेंगी। क्योंकि, वही तो ऊर्जा है, जो अब शांति बनने लगेगी। मन
उसको पा न सकेगा।
एक दिन
तुम अचानक पाओगे,
कि मन
की सब तरंगें खो गई। वह कोलाहल अब होता ही नहीं। वह रास्ता ही चलना बंद हो गया। उस
पर कोई यात्री नहीं गुजरते। अब वहां विचारों का कोई आवागमन नहीं है। अब गहन शांति
तुममें विराजमान हो गई।
लेकिन
अगर तुमने शांति पर संदेह किया, तो जल्दी
ही तुम पाओगे,
कि जो
ऊर्जा शांति की तरफ बहती थी, वह
विचारों की तरफ वापिस बहने लगी है। यह संदेह उन्हीं विचारों से आ रहा है। वे जो
किनारे पर चलती हुई थोड़े से विचार की तरंगें हैं, आखिरी कोशिश कर रही हैं अपने
को बचाने की। वे तुम्हारे मन को आच्छादित कर रही है। वे कह रही हैं, क्या शांति! शांति! शांति हो
ही नहीं सकती। शांति कभी किसी को हुई है?
पश्चिम
का एक मनोवैज्ञानिक इधर कुछ महीनों पहले मेरे पास था। बहुत विचारशील व्यक्ति है।
उसने मुझे कहा,
कि मैं
मान ही नहीं सकता,
कि मन
कभी शांत हो सकता है। यह अस्वाभाविक है। मन में विचार का चलना तो ऐसे ही है, जैसे शरीर में खून का बहना।
और मनोविज्ञान मानता ही नहीं, कि कभी
ऐसी घड़ी आ सकती है, कि मन
में विचार न चले। यह तो ऐसी ही होगी, जैसे शरीर में खून न बहे, तो आदमी मर जाए। विचार की गति
तो रहेगी ही।
मैंने
उन्हें कहा कि,
थोड़ा
प्रयोग करो। अब कोई उपाय नहीं है तुम्हें समझाने का फिलहाल। थोड़े प्रयोग करो, शायद किसी दिन क्षणभर को भी
मन में विचार रुक जाए, तो जो
क्षणभर को हो सकता है, वह दो
क्षण को भी हो सकता है, तीन
क्षण को भी हो सकता है। फिर हम आगे बात करेंगे।
संयोग
की बात! कोई पंद्रहवें-सोलहवें दिन वह घटना घटी, कि कुछ क्षणों के लिए विचार
बंद हो गए होंगे ध्यान में। वह व्यक्ति भागे हुए आए और उन्होंने कहा, मैं यह मान ही नहीं सकता, यह असंभव है। अब यह हो गया है
तो भी नहीं मान सकते, यह
असंभव है! वे कहने लगे, कि
जरूर मैंने कल्पना कर ली होगी।
पर शांति
की तुम कल्पना भी कैसे कर सकते हो, अगर तुम शांति को जानो न? कल्पना भी उसकी हो सकती है, जिसको तुमने जाना हो। तुम ऐसी
भी कोई कल्पना कर सकते हो, जो
बिलकुल ही अपरिचित, अनजान, अज्ञात की हो? असंभव है। हां, तुम ऐसी कल्पना कर सकते हो, जिसमें ज्ञात के कुछ खंड जोड़
लिए हों। तुम एक ऐसे घोड़े की कल्पना कर सकते हो जो सोने का है और आकाश में उड़ता
है। इसमें कोई अड़चन नहीं। क्योंकि उड़ने वाले पक्षी तुमने देखा है, सोने का सामान तुमने देखा है, घोड़ों को तुम जानते हो। तीनों
को तुमने जोड़ दिया। लेकिन क्या तुम ऐसी कोई कल्पना कर सकते हो, जो तुमने जानी ही नहीं।
मैंने
उन मित्र को कहा,
कि
तुमने शांति पहले कभी जानी? उन्होंने
कहा, नहीं। पहली दफा जानी है। मगर
ऐसे लगता है,
मन की
कल्पना है।
जिसको
तुमने कभी जाना नहीं, तुम
उसे कैसे कल्पना करोगे? कल्पना
का तो अर्थ ही यह होता है, जाने
हुए की पुनरुक्ति। हां, को
जाने हुए घोड़ा सुधार सकते सजा सकते हो। लेकिन अनजाने की कोई कल्पना नहीं हो सकती।
हां, परमात्मा की तुम कल्पना कर
सकते हो,
क्योंकि
मंदिरों में तस्वीरें लटकती हैं, मूर्तियां
रखी हैं। लेकिन शांति की कहीं तुमने कोई तस्वीर देखी है? शांति की कहीं काई मूर्ति
देखी है?
शांति
तो भाव है। उसे तो कहीं भी कोई चित्रित करने का कोई उपाय नहीं।
मैंने
उनसे कहा,
कि चलो
कल्पना ही सही;
बुरी
तो नहीं है?
उन्होंने
कहा, बुरी तो नहीं, आनंद तो बहुत आया। लेकिन शक
होता है।
यह हो
नहीं सकता। कुछ दिन और चलाओ, थोड़ा
और अनुभव करो। तुम्हारा मन जो दुख पर कभी संदेह नहीं करता, अशांति को बिलकुल स्वीकार
करता है,
वह
शांति पर संदेह करता है। मन तुम्हारा शत्रु है।
ऐसी जब
घड़ी आए तो तुम मन की सुनना ही मत। तुम मन से यह कह देना, कि कल्पना ही सही। लेकिन तेरे
सत्यों से यह कल्पना बेहतर है। तेरा सत्य है--दुख, चिंता, विषाद। तेरा सत्य है, अशांत, तनाव, संताप। तेरे सत्यों में यह
कल्पना बेहतर है शांति की, संतोष
की, एक गहन आनंद की। कल्पना में
ही रहेंगे। तेरे सत्यों से छुटकारा चाहिए। अगर तुम अपने ध्यान को इस शांति को
स्वीकार करने के लिए राजी कर सको, और तुम्हारा
सारा ध्यान शांति की तरफ बहने लगे, तुम्हारी जीवन-ऊर्जा शांति को पल्लवित करने
लगे, पोषित करने लगे, भोजन देने लगे, तो जल्दी ही तुम पाओगे, कि जो तुम्हें आज कल्पना जैसे
लगी है,
वहीं
जीवन का सबसे बड़ा सत्य हो जाती है। और जिस मन को तुमने सत्य समझा था, वह सिर्फ एक अतीत का सपना हो
जाता है।
मन
सपना है;
लेकिन
सपना बहुत पुराना है। उसकी बड़ी गहरी जड़ें तुम्हारे भीतर हैं। और शांति सत्य है; लेकिन वह बिलकुल नया पौधा है।
आज ही अवतरित हुआ है। बल दो उसे, भूमि
दो उसे,
जल दो
उसे, पोषण दो, ताकि वह बड़ा हो सके। और अगर
आज ही तुमने मन से उसे लड़ाया, तो मन
बहुत पुराना है,
बहुत
मजबूत है। स्वभावतः लड़ने में ज्यादा समर्थ है। उसकी जड़ें बहुत मजबूत हैं। मन को कह
दो, कि तू अपना सम्हाल, हमें थोड़ी कल्पना का आनंद
लेने दे। जल्दी ही तुम पाओगे, वह बड़ा
वृक्ष मन का गिरने लगा सूखने। वह तुम्हारे सहारे से जीता है, तुम्हारी ही ऊर्जा के शोषण से
जीता है। अगर तुम्हारी ऊर्जा शांति के पौधे पर लगने लगी, उपेक्षित मन का पौधा अपने आप
सूख जाएगा। और जिस दिन मन का पौधा सूखकर गिर जाता है, उस दिन तुम अचानक पाते हो, जहां स्वर्ग था, वहां मन के कारण तुमने नर्क
बना रखा था।
छठवां प्रश्न: कल आपने समझाया कि सुख-पूर्वक सुरति से समाधान घटता
है,
परंतु, मुझे तो बड़े प्रयास, अभ्यास और श्रम से गुजरना पड़
रहा है,
क्यों? साधक को बहुत प्रयास, श्रम और तपश्चर्या से क्यों
गुजरना पड़ता है?
आलस्य
हो मन में,
तो
छोटी-मोटी चीजें बड़ा प्रयास मालूम होती हैं। तुम्हारी व्याख्या की बात है। कुछ भी
तुम्हें श्रम नहीं करना पड़ रहा है। मैं तुमसे कहता हूं कि मेरे निकट जो लोग साधना
में लगे हैं,
पृथ्वी
पर सबसे कम श्रम उन्हें करना पड़ रहा है। तुम्हें श्रम का कुछ पता ही नहीं है।
मगर
महाआलसी व्यक्तित्व हो; तो
छोटी-छोटी बातें श्रम मालूम पड़ती हैं। कर क्या रहे हो तुम? किस बात को तुम बार-बार कहते
हो, कि बड़े प्रयास। कौन-सा बड़ा
प्रयास कर रहे हो?
थोड़ा
नाच लेते हो,
इसको
बड़ा प्रयास कहते हो? नाचना
प्रयास है?
नाचना
तो आनंद है। लेकिन तुम्हारी दृष्टि गलत है! आनंद को प्रयास समझोगे, चूक गए। नाचना तो उत्सव है, एक रसपूर्ण घटना है, प्रयास क्या है? अगर नाचना भी प्रयास है, तो फिर अप्रयास क्या होगा?
अगर
मैं तुमसे कहूं कि, खाली
बैठे रहो,
तो भी
तुम कहते हो,
कि बड़ा
प्रयास करना पड़ता है। खाली बैठे रहो, आंख बंद करके बैठो। बड़ा प्रयास करना पड़ता
है। नाचने को कहूं तो बड़ा प्रयास है। तुम्हारे आलस्य का कोई अंत नहीं मालूम पड़ता।
और तुम इसे बड़ा गौरवपूर्ण समझ रहे हो, कि बड़ा प्रयास कर रहे हो।
मैंने
सुना है,
कि एक
गांव में वन-महोत्सव चल रहा था और एक बड़े नेता ने व्याख्यान दिया और लोगों को
समझाया,
कि वृक्षों
को बचाना चाहिए,
रक्षा
करनी चाहिए। वृक्ष जीवन है, उनके
बिना पृथ्वी उजाड़ हो जाएगी। और फिर उसने कहा, कि जहां तक मैं जानता हूं, यहां जो लोग भी मौजूद हैं, इनमें से किसी ने भी कभी अपने
जीवन में किसी वृक्ष की कोई रक्षा नहीं की। कोई नहीं उठा, लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन बड़े
गौरव से खड़ा हो गया। उसने कहा, आप गलत
कहते हैं। एक बार मैंने पत्थर से एक कठफोड़वा को मारा था--वह जो कठफोड़वा पक्षी होता
है--उसको मैंने पत्थर से मारा था। मरा नहीं, मगर चेष्टा मैंने बड़ी की थी।
इसको
वे वृक्षों की रक्षा समझ रहे हैं, कठफोड़वा
को मारा क्योंकि कठफोड़वा वृक्षों को खराब करता है वह भी मरा नहीं मगर पत्थर चूक
जाए तो इसमें मेरा क्या कसूर है, मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहा,
मैंने
कोशिश की थी। बड़ा प्रयास कर रहे हो--कठफो॰?वा मार रहे हो! थोड़ी सांस ले ली जोर से, इसको तुम बड़ा अभ्यास कहते हो? इससे सिर्फ तुम्हारा महातमस
और आलस्य पता चलता है और कुछ भी नहीं।
तो
तुम्हें साधना का कुछ पता ही नहीं। तुमको तो कोई महावीर मिलता, तब पता चलता कि साधना क्या
है! जब वे तुम्हें तीनत्तीन चार-चार महीने भूखा रखवाते, बारह साल तक मौन करवाते तब
तुम्हें पता चलता,
कि
साधना क्या है?
मैं तो
तुमसे नाचने को कह रहा हूं, मैं
तुमसे हंसने को कह रहा हूं, मैं
तुम्हें जीवन में कुछ भी तोड़ने को नहीं कह रहा हूं, जीवन ने जो कुछ दिया है उसका
उपभोग करने को कह रहा हूं। मैं तुम्हें पहाड़ों पर भागने को नहीं कह रहा हूं, पहाड़ को तुम्हारे बाजार में
लाने की चेष्टा कर रहा हूं!
वस्तुतः
तुमसे कुछ करने को नहीं कह रहा हूं, तुमसे कह रहा हूं, तुम समर्पण कर दो। समर्पण का
मतलब है,
कुछ भी
तुम अपने ऊपर मत लो। करने की बात ही छोड़ दो। करने दो परमात्मा को। तुम चरणों को
पकड़ लो और कह दो,
अब तू
जो करे,
तेरी
मर्जी। तुम नाचो कृतज्ञता से। बहुत मिला है।
मैं
तुम्हें अहोभाव सिखा रहा हूं, साधना
करवा ही नहीं रहा। वही दादू का अर्थ है, जब वे कहते हैं, सुखपूर्वक सुरति--सुख सुरति।
लेकिन
तुम कहते हो,
मुझे
तो बड़े प्रयास,
अभ्यास
और श्रम से गुजरना पड़ रहा है।
मुझे
दिखाई नहीं पड़ता कौन-सा श्रम तुम कर रहे हो, कौन-सा बड़ा अभ्यास कर रहे हो, कौन-सी तपश्चर्या तुमसे करवाई
जा रही है?
लेकिन
तुम्हारे आलस्य को मैं समझता हूं। तुम्हारी दृष्टि से हो सकता है नाचना भी बड़ी
भारी तपश्चर्या हो। इससे तुम केवल अपनी दृष्टि की खबर देते हो।
मैंने
सुना है,
मुल्ला
नसरुद्दीन अपने एक मित्र के साथ एक वृक्ष के नीचे लेटा था। आम पक गए थे, एक आम गिरा। मित्र ने
नसरुद्दीन से कहा,
कि देख
बिलकुल तेरे पास पड़ा है, उठाकर
मेरे मुंह में लगा दे। नसरुद्दीन ने कहा, तू मित्र नहीं शत्रु है। थोड़ी ही देर पहले
एक कुत्ता मेरे कान में मूत रहा था, तूने उसे भगाया तक नहीं, और मैं आम उठाकर तेरे मुंह
में लगा दूं।
बस, ऐसा ही तुम्हारा जीवन है। पड़े
हो, आम भी कोई उठाकर तुम्हारे
मुंह में लगा दे। कुत्ता भी तुम्हारे साथ दर्ुव्यवहार कर रहा हो, तो भगा नहीं सकते। खुद नहीं
भगा सकते,
उसकी
भी अपेक्षा दूसरे से कर रहे हो। और सोचते हो कि महातपश्चर्या में तुम संलग्न हो।
छोड़ो
व्यर्थ की बातें। अपने आलस्य को तोड़ो, प्रमाद को हटाओ। जितने कम पर मैं तुम्हें
जीवन-यात्रा को ले जाने के लिए कह रहा हूं उससे कम पर कभी किसी दूसरे ने नहीं कहा
है। और अगर तुम मेरे द्वारा चूक जाते हो, तो फिर तुम्हारे लिए कोई उपाय नहीं है।
आखिरी प्रश्न: अत्यल्प ही सही, मन का घोड़ा और चेतना का सवार
समझ में आता है; वैसे ही गुरु के शब्द का कोड़ा भी। लेकिन जिस लौ के लगाम की बात संत
कहते हैं,
दादू
कहते हैं,
वह
कहां उपलब्ध है?
उसे
अपने भीतर खोजो।
ये सब
बातें समझ में आ जाती हैं। क्योंकि ये सब बातें बुद्धि की हैं। बुद्धि इन्हें समझ
लेती हैं। लौ की बात हृदय की है, वह समझ
में नहीं आती,
क्योंकि
बुद्धि से उसका लेना-देना नहीं।
मन का
घोड़ा समझ में आता है। चौबीस घंटे भागा है। ऊबड़-खाबड़ रास्तों में ले जाता है, उल्टी-सीधी यात्राएं करवाता
है, जहां नहीं जाना था, वहां पहुंचा देता है। जहां
जाना था,
वहां
नहीं पहुंच पाते क्योंकि, घोड़ा
कहीं और भागा जा रहा है। समझ में आता है। बुद्धि समझ लेती है इस बात को। इसमें कुछ
अड़चन नहीं है।
चेतना
का सवार भी समझ में आता है, कि अगर
होश साधो,
कभी
घोड़ा भी साधो,
तो
घोड़े पर सवारी हो जाती है। होश अगर हो, तो फिर घोड़ा तुम्हें हर कहीं नहीं ले जा
सकता। तुम जहां जाना चाहते हो, उस तरफ
यात्रा शुरू हो जाती है, एक
दिशा मिलती है,
एक
भाव-दशा निर्मित होती है, जिसमें
यात्रा हो पाती है। मन तो केवल भटकाता है, चैतन्य पहुंचाता है। वह भी समझ में आ जाता
है।
गुरु
के शब्द को कोड़ा भी समझ में आ जाता है, क्योंकि गुरु सदा ही कोड़े मारते रहे--यह सब
बात समझ में आ जाती है।
समझ
में नहीं आती एक बात--लौ की बात। कि वह प्यास कैसे जगे? वह आग कैसे उठे? और अगर वह न उठे, तो सब समझ बेकार है। वह ऐसा
ही है,
कि भूख
ही न लगी थी,
भोजन
तैयार था। प्यास ही न लगी थी। सरोवर घर के सामने आ गया था। लेकिन प्यास ही न हो तो
क्या करोगे सरोवर को? बाकी
सब समझ बेकार है,
जब तक
लौ न हो।
लेकिन
लौ को कहां पाओगे?
और तो
कहीं पाने का उपाय नहीं। अपने भीतर ही खोजनी पड़ेगी। लौ जल रही है, लेकिन तुम्हारे हृदय में और
तुम्हारे सिर में संबंध टूट गया है। लौ तुम्हारे हृदय में जल रही है। हृदय की
तुमने सुनना बंद कर दिया है, और
बुद्धि सोचे चली जाती है। और उसे लो कहीं मिलती नहीं। क्योंकि लौ सदा हृदय की है।
उतना पागलपन सिर्फ हृदय ही कर सकता है--जलने का, विरह का, लौ का, प्यास का।
जब तुम
प्रेम करते हो किसी को, तो तुम
ऐसा नहीं कहते कि किसी से प्रेम हो गया है और सिर पर हाथ रखकर बताओ। हृदय पर हाथ
रखकर बताते हो। तुमने कभी कोई प्रेमी देखा, जो सिर पर हाथ रखकर बताता हो? वह बात ही न जंचेगी। सारी दुनिया
में सभी संस्कृतियों में, सभी
सभ्यताओं में जब भी कोई व्यक्ति प्रेम में पड़ता है तो वह हृदय पर हाथ रखता है, कुछ हृदय में होने लगता है।
कोई सुगबुगाहट,
कोई
अंकुर का फूटना,
जमीन
का टूटना,
हृदय
के भीतर कोई हलचल--हृदय पर हाथ रखता है। वहां--जहां से तुम प्रेम करते हो, वहीं से तुम प्रार्थना भी
करोगे। वहीं खोजो। उतरो नीचे की तरफ, अपने हृदय में आओ। जब भी सवाल उठे, कि कहां खोजें उस लौ को, तो आंख बंद करो और हृदय में
तलाशो। हृदय पर हाथ रखो और खोजो।
लेकिन
कठिनाई यह हो गई है कि तुमने प्रेम भी बंद कर दिया है, प्रार्थना भी बंद हो गई है, परमात्मा का द्वार भी अवरुद्ध
हो गया है। प्रेम करो! अगर तुम प्रेम करने लगो, तो जल्दी ही तुम्हें लौ में गति मालूम होगी।
लौ भभकने लगेगी। थोड़ा प्रेम का ईंधन दो।
प्रेम
से मेरा मतलब है,
अगर
वृक्ष को छुओ तो प्रेम से छुओ। कुछ भी तो जाता नहीं, कुछ भी तो खर्च नहीं होता।
प्रेम से छुओ। कभी छोटे प्रयोग करके देखो। वृक्ष के पास बैठे हो, हाथ रखो वृक्ष पर और ऐसा भाव
करो, जैसे वृक्ष से तुम्हारा बड़ा
गहरा प्रेम है। वृक्ष एक मित्र है, तुम बहुत दिन बाद आए हो, वृक्ष से हाथ में हाथ लिए
बैठे हो,
कि
वृक्ष को आलिंगन करके छाती से लगा लो। और आंख बंद करके थोड़ी देर वृक्ष के साथ रह
जाओ।
और
देखो, क्या घटता है! तुम पाओगे, हृदय की धड़कन बदली, हृदय का गुण बदला, तुम मस्तिष्क से नीचे उतरे।
क्योंकि वृक्ष के पास तो कोई मस्तिष्क नहीं है। उसके पास तो सिर्फ हृदय है। अगर
तुमने उससे थोड़ी हृदय की बात की, थोड़ा
हृदय का राग-रंग जोड़ा--वह बड़ा सरल है--वह जल्दी ही तुम्हारी तरफ प्रेम की किरणें
फेंकने लगेगा। तुम्हारे हृदय ने अगर उसे पुकारा, तो वह तुम्हारे हृदय को
पुकारेगा।
चट्टान
को भी छुओ तो प्रेम से छुओ और तुम फर्क पाओगे। चट्टान को अगर तुम प्रेम से छुओगे
तो लगेगा,
चट्टान
में भी एक ऊष्मा है, एक
गरमी है। और अगर तुम मनुष्यों के हाथ के भी हाथ में लोगे और बिना प्रेम के लोगे तो
पाओगे एक ठंडापन है, एक
मुर्दापन है।
थोड़ा
अपने प्रेम को फैलाओ। भोजन करो तो प्रेम से करो। क्योंकि भोजन तुम अपने भीतर ले जा
रहे हो। ले जाओ अहोभाव से। बड़े प्रेम से निमंत्रण दो।
हिंदू
बड़े कुशल थे। वे पहले परमात्मा को चढ़ाते फिर अपने को। बड़ा प्रेम का कृत्य था। वे
यह कहते थे,
कि
अन्न ब्रह्म है। इसको ऐसे ही नहीं ले जाना है। प्रार्थना करनी है, पूजा करनी है, परमात्मा को प्रसाद लगा देना
है। फिर भोग लगाना परमात्मा को, फिर
प्रसाद लेना है।
स्नान
करो तो जल के साथ प्रेम से भरो। क्योंकि जल है तुम्हारा शरीर। तुम्हारे शरीर में
निन्यानबे प्रतिशत तो जल है। तुम सागर से आए हो। सारा जीवन सागर से आया है, सागर के पास बैठो, तो सागर की तरफ बड़े प्रेम से
देखो। जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी को देखता है। तब तुम लहरों में आमंत्रण पाओगे।
और जल्दी ही पाओगे कि तुम्हारा सिर तो अलग हो गया, बीच से हट गया, हृदय का तार जुड़ गया।
पहाड़
पर जाओ। हरियाली को देखकर प्रसन्न होते हो, नाचो। आकाश को देखो, चांदत्तारों को! तुम सारे अस्तित्व
से जुड़े हो! प्रेम जोड़ेगा, मस्तिष्क
ने तोड़ा है। और जैसे-जैसे यह जोड़ जगेगा, वैसे-वैसे तुम पाओगे, दादू की लौ भभकने लगी।
पहले
तो तुम प्रेम में पड़ो अस्तित्व के, उसी प्रेम में उतरने से धीरे-धीरे तुम पाओगे, कि तुम्हारा प्रेम इतना बड़ा
होता जा रहा है,
कि अब छोटे-मोटे
प्रेम-पात्र काम न देंगे, अब
परमात्मा ही चाहिए। समग्र अस्तित्व चाहिए। प्रेम की पात्रता बढ़ाओ, तभी तुम परमात्मा को
प्रेम-पात्र बना सकोगे।
तुम्हारी
जितनी पात्रता होती है, वैसा
ही तुम्हारा प्रेम होता है। कोई आदमी तिजोड़ी को प्रेम करता है, उसके पास लोहे का हृदय है। वह
आदमी को प्रेम नहीं कर सकता, रुपए
को प्रेम करता है। रुपया यानी धातु; बस उसी तल की उसकी दुनिया है। उसके हृदय में
धातु भरी है,
उससे
ज्यादा कुछ भी नहीं।
कोई
आदमी मनुष्यों को प्रेम करता है--ऊपर उठा। कोई आदमी बुद्ध, महावीर, कृष्ण को प्रेम करता है--और
ऊपर उठा। अवतारों को प्रेम करता है--ऊपर आ गया।
फिर एक
ऐसी घड़ी आती है,
तुम्हारे
प्रेम का पात्र इतना बढ़ा हो जाता है, सिवाय परमात्मा के कोई तुम्हारा पात्र नहीं
हो सकता। उस दिन लौ भभकती है।
इसे
तुम कहीं और न पा सकोगे। तुम्हारे हृदय में मौजूद है चिनगारी। राख जम गई है। उतरो
हृदय में। डरो मत।
हृदय
में उतरने में डर लगता है। यह ऐसे ही है, जैसे कोई खाई, कुएं में उतरता है, गहरे में। घबराहट होती है, भीतर जाने में घबराहट होती
है। खोपड़ी में बने रहने में सब ठीक मालूम पड़ता है। वहां तुम बिलकुल परिचित हो।
वहां सुपरिचित भूमि पर चलते हो। सब नक्शा साफ है।
हृदय
में जाओ। बड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। क्योंकि हृदय इतना जाम पड़ा है, इतने दिनों से यंत्र काम ही
नहीं कर रहा है,
तुम
भूल ही गए हो,
कहां
है हृदय। प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। प्रतीक्षा करना भी भूल गए हो। जो प्रेम करना जानता
है, वह प्रतीक्षा करना भी जानता
है।
मैं
मुल्ला नसरुद्दीन के साथ एक स्टेशन पर बैठा था, ट्रेन लेट हो गई थी। उसने एक कुली को
बुलाया। वह बड़ा नाराज हो रहा था और एक क्षण भी शांति से नहीं बैठ पा रहा था। फिर
खड़ा हो जाता,
फिर
टाइमटेबिल देखता। फिर तख्ते पर जाकर पढ़ता, फिर जाकर स्टेशन मास्टर को पूछता, कि कितनी देर है? फिर घड़ी मिलाता, यह करता, वह करता। एक कुली को बुलाया।
पूछा कुली से,
कि
यहां कोई कब्रिस्तान है पास में? उस
कुली ने पूछा। कब्रिस्तान यहां किसलिए? यहां स्टेशन है।
मुल्ला
ने कहा,
कि
यहां जो लोग प्रतीक्षा करते-करते मर जाते हैं उनको कहां दफनाते हो?
प्रतीक्षा
की तो जरा भी सुविधा नहीं रही है। मरते हैं--जैसे प्रतीक्षा यानी मौत आई। एक क्षण
रुकना पड़े कहीं,
प्रतीक्षा
करनी पड़े,
मरे!
दौड़ने में जिंदगी मालूम पड़ती है, रुकने
में मौत मालूम पड़ती है।
और
हृदय में वही उतर सकता है जो बहुत प्रतीक्षा करने को राजी हो। हृदय और मस्तिष्क
में इतना फासला है, कि
प्रतीक्षा...ऐसा मत सोचना, कि
पास-पास है। शरीर में पास-पास दिखाई पड़ते हैं, कि हाथभर का फासला है। लेकिन मैं तुमसे कहता
हूं कि हृदय और मस्तिष्क में उतना फासला है, जितना फासला और दो चीजों में और कभी भी हो
नहीं सकता। ये बिंदु दो अत्यंत विपरीत बिंदु हैं। इनमें जमीन-आसमान का फासला है।
यात्रा
लंबी है। और वहां जाए बिना कोई उपाय नहीं। इसलिए करनी ही पड़ेगी। जितना समय
यहां-वहां गंवाओगे, व्यर्थ
गंवाया हुआ सिद्ध होगा। मत भटको कहीं। खोपड़ी से नीचे उतरो, और हृदय की तरफ जाओ। और जियो
हृदय से। विचार से जीना बंद करो। अगर लुट भी जाओ हृदय के साथ जीने में, तो लुट जाना। उस लुट जाने में
बड़ी संपदा पाओगे। और अगर सिर के साथ जीकर जरा भी न लुटे और दुनिया को लूट लिया, तो भी आखिर में पाओगे, खाली हाथ जा रहे हो; कुछ कमा न पाए, जिंदगी गंवा दी है। केवल वे
ही जीवन की संपदा को पाते हैं, जो
हृदय की लौ को जगा लेते हैं।
वहीं
मंदिर है,
वहीं
जल रही है अहर्निश अग्नि। मत पूछो, कि कहां खोजें, कहां पाएं? तुम्हारे भीतर है।
आज इतना ही।
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