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बुधवार, 12 अप्रैल 2017

एस धम्मो सनंतनो-(ओशो)-प्रवचन-063



सारे अस्तित्व का चौराहा : मनुष्य—प्रवचन—63


सूत्र--

यस्‍स जित नावजीयति जितमस्‍स नौ याति कोचि लोके।
तं बुद्धमनंतगोचरं अपदं केन पदेन नेस्‍सथ ।।155।।


यस्‍स जालिनी विसत्‍तिका तन्‍हा नत्‍थि कुहिज्‍चि नेतवे।
तं बुद्धमनंतगोचरं अपद्रं केन पदेन नेस्‍सथ ।।156।।

ये ज्ञानपसुत्‍ता धीरा नेक्‍खम्‍मूपसमें रता।
देवापि तेसं पिह्मंति संबुद्धानं सतीमतं ।।157।।

किच्‍छोमनुस्‍सपटिलाभो किच्‍छ मच्‍चान जीवितं।
किच्‍छं सद्धम्‍मसवणं किच्‍छो बुद्धानं उप्‍पादो ।।158।।

सब्‍बापापस्‍स अकरणं कुसलस्‍स उपसंपदा।
सच्‍चित्‍तपदरियोदपनं एतं बुद्धान सासनं ।।159।।

खंती परमं तपो तितिक्‍खा निब्‍बानं परमं बदंति बुद्धा।
नहि पब्‍बजितो परूपधाती समणो होति परं विहेठयंतो ।।160।।

अनूपादो अनपधातो पातिमोक्‍खे च संवरो।
मत्‍तज्‍जुता च भत्‍तस्‍मिं पंतज्‍च सयनासनं।
अधिचित्‍ते च आयोगो एतं बुद्धान सासनं ।।161।।


   योगियोका लिबास लगते है,
      लोग कितने उदास लगते है
      दर्द की ओस में धुले चेहरे
      मकबरों पर की घास लगते हैं
      सुबह सूरज किधर से निकलेगा
      मैकदे में कयास लगते हैं
      आप भी जिंदगी से आजिज हैं
      आप भी देवदास लगते हैं
      हाय, पलकें लहूलुहान हुईं
      ख्वाब टूटे गिलास लगते हैं
      आप उस शख्स तक नहीं पहुंचे
      ही, मगर आसपास लगते हैं
      जिस्म आधी है आरजूओं की
      लोग उडूती कपास लगते हैं
      पास में आईने नहीं रखते
      सुख सभी सूरदास लगते हैं
      कत्‍ल करके किसी का भागे हों
      लोग यूं बदहवाश लगते हैं
      योगियों का लिबास लगते हैं
      लोग कितने उदास लगते हैं
आदमी उदास है। आदमी इतना उदास है कि उसका तथाकथित जीवन तो उदास है ही, उसका धार्मिक जीवन भी उदास है। इसलिए योगी का लिबास तो उदास आदमी का प्रतीक हो गया। योगी का तो अर्थ ही हो गया हारा, टूटा, दुखी, जीते जी मरा हुआ। जिसके जीवन में कोई रस की धार नहीं है। मरुस्थल है जो।
पर यह बात उलटी है। योगी के ही जीवन में रस की धार होती है। और सब मरुस्थल हैं। योगी के जीवन में ही परमात्मा की झलक होती है। और योगी के जीवन में ही ऊगता है अंतर का सूरज। तो योगी के जीवन में तो आनंद होगा, नृत्य होगा, गीत होगा। चाहे तुम पहचान न पाओ। क्योंकि जिन गीतो को तुम पहचानते हो, वैसे गीत वहां न होंगे। और जिस आनंद को तुमने जाना है, वह आनंद तो झूठा है।
सारे अस्तित्व का चौराहा मनुष्य असली सिक्के वहां होंगे। नकली सिक्कों के तुम आदी हो गए हो, तो शायद तुम न भी पहचान पाओ।
मैंने सुना है कि एक की स्त्री अपने बेटे के साथ—बेटा एक चित्रकार था—एक कला—प्रदर्शनी को देखने गयी। वहां उसने पिकासो की एक बहुत प्रसिद्ध कृति देखी। लेकिन न उसे पिकासो का कुछ पता है, न पिकासो की मूलकृति उसके सामने है, लाखों रुपए की उसकी कीमत है, न इसका उसे पता है। वह अपने बेटे से देखकर बोली, यह भी कौन चित्रकार है? मालूम होता है, अपने घर जो कैलेंडर टंगा है, उसी की नकल इसने की है।
कैलेंडर पिकासो की इस कृति की नकल है, यह मूलकृति है। लेकिन उस की स्त्री को माफ करना होगा। कैलेंडर ही उसने देखा सदा घर में टंगा हुआ, अब आज अचानक मूलकृति देखी, तो उसे लगता है कि शायद यह कैलेंडर की नकल है। और वह चकित है कि किस नासमझ ने इसको यहां टांगा है! इसको प्रदर्शन करने की जरूरत क्या है? पहली तो बात, नकल, वह भी एक साधारण से कैलेंडर की जो अपने घर में वर्षों से टंगा है।
तुमने तो जो जाना है, वह नकल है। योगी के जीवन में जो सुवास तुम्हें मिलेगी, लग असल है। वह असली सिक्का है।
स्वामी राम कहा करते थे, धर्म नगद है और असली सिक्का है।
यहां तो सब उलटा हो गया है। यहां तो तुमने करीब—करीब दुख को ही धीरे — धीरे सुख मनि लिया है। मानो न तो करो भी क्या! मन को तो समझाना पड़ता है। उदास से उदास आदमी से मिलो, पूछो —कैसे हो? वह कहता है, सब मजा है। सब ठीक चल रहा है। प्रभु की कृपा। और चेहरा कुछ और कह रहा है, आंखें कुछ और कह रही हैं, ओंठ कुछ और कह रहे हैं। शब्द झुठला रहे हैं उसके व्यक्तित्व को। मातमी से मातमी चेहरा भी कहता है, सब ठीक है। तुम सब ठीक है शायद होश में भी नहीं कहते कि तुम क्या कह रहे हो। सब कहां ठीक है? सब ही ठीक होता तो फिर क्या कहना था।
लेकिन तुम्हारी अड़चन क्षमा करने योग्य है। क्योंकि अगर तुम इसको ही ठीक न मान लो तो जीओगे कैसे? सोओगे कैसे, उठोगे कैसे, बैठोगे कैसे? प्रतिपल काटा चुभेगा। मुश्किल हो जाएगा जीना। जीवन कठिन हो जाएगा। इसलिए धीरे — धीरे इसी को सुख मान लेते हैं।
      हम सब बहुत सुखी हैं
      लेकिन सुख की कोई बात नहीं,
      हम सब बहुत दुखी हैं
      लेकिन दुख का कारण ज्ञात नहीं।
      प्रेमालाप मग्न ये जोड़े
      चट्टानों की छाहों में,  
      जैसे कोई सत्य खोजता हो
      झूठी अफवाहों में
      कुछ खोखले रिक्त शब्दों का
      फिर—फिर दोहराया जाना
      नकली विश्वासों के हाथों
      बार—बार धोखा खाना
      तन के भोग—कक्ष में कैदी
      शापग्रस्त प्यासी रूहें
      इन पर कभी किसी बादल का
      होता दृष्टि—निपात नहीं
      हम सब बहुत सुखी हैं
      लेकिन सुख की कोई बात नहीं,
      हम सब बहुत दुखी हैं
      लेकिन दुख का कारण ज्ञात नहीं।
न तो सुख है जीवन में और न हमने दुख के कारणों में झाकना चाहा है। उसमें भी डर लगता है कि कहीं और झंझट न हो जाए। कहीं दुख के कारण खोजते और दुखी न हो जाएं। तो हम दुख से आंख चुराते हैं।
इस बात को खयाल में लेना। सुख जहा नहीं है वहां सुख मान लेते हैं, जीना तो है किसी बहाने! और दुख जहा है वहां से आंख चुराते हैं, क्योंकि दुख को देखने में डर लगता है कि अगर देखा तो कहीं दुख और न हो जाए। फिर देखने में सार भी क्या है! तो हम वहां देखते हैं, दूर सपनों की दुनिया में, जहां सुख कभी होगा। और यहीं चूक हो रही है। दुख को गौर से देखो, दुख का कारण मिल जाए तो जीवन में सुख के आने का द्वार मिल जाता है।
बुद्ध ने कहा है, दुख है, दुख का कारण है, दुख से मुक्त होने का उपाय है, दुख—मुक्ति की अवस्था है। इन चार को बुद्ध ने आर्य —सत्य कहा है। अत्यंत बुनियादी सत्य। इनसे बुनियादी और कुछ भी नहीं। पहला बुनियादी सत्य दुख है। तुमने तो अभी वही स्वीकार नहीं किया। तुम तो झुठलाए जा रहे हो। तुम तो कहते हो, दुख? नहीं, सुखी हूं सब है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, भगवान की कृपा से सब है। बच्चे हैं, पत्नी है, घर—द्वार है, धन—दौलत है, सब है, मगर...। फिर मगर क्या? जब सब है परमात्मा की कृपा से तो अब मगर क्या? कैसा हम झुठ बोले जा रहे हैं। और हम ही झूठ नहीं बोलते, परमात्मा को भी झूठ में घसीट रहे हैं। उसकी कृपा से! अगर यही उसकी कृपा है, जो तुम्हारे जीवन में हो रहा है, तो फिर उसे कृपालु कहना बंद कर दो। होगी कोई दुष्टता की प्रक्रिया परमात्मा के नाम पर छिपी बैठी, जो तुम्हें सता रही है।
नहीं, लेकिन तुम झूठे हो तो तुम्हारा परमात्मा भी झूठा हो जाता है। तुम झूठे हो, तुम जो छूते हो वही झूठा हो जाता है। और झूठ की पहली सीढ़ी कहां पड़ती है? वहीं जहा तुम दुख को दुख नहीं मानते और सुख समझा लेते हो कि सुख है। फिर जब तुम दुख को सुख मान लेते हो, तो तुम एक ऐसी प्रक्रिया में पड़ गए कि अब तुम दुख के कारण कैसे खोजोगे—जब सुख ही मान लिया तो दुख का कारण कैसे खोजोगे? जिसने बीमारी को स्वास्थ्य मान लिया, वह चिकित्सक के पास जाए क्यों? और जिसने बीमारी को स्वास्थ्य मान लिया, वह बीमारी का कारण क्यों खोजे? बीमारी रही नहीं, तो कारण कैसे खोजे? तुमने जहा दुख को इंकार किया, वहीं तुम चूक गए। वहीं से तुम भटक रहे हो और जन्मों—जन्मों में तुमने वही किया है।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, पहला आर्य—सत्य है. दुख है। इसे झुठलाओ मत, भागों मत। आंख मत मूंदो। आंख मूंदने से दुख मिटेगा नहीं। आंख मूंदने के कारण ही दुख बढ़ता गया है—तुम आंखें मूंदे खड़े हो और दुख बढ़ता चला गया। आंख खोलो। कारण खोजो। दुख है, सुख जरा भी नहीं है। सुख मान्यता है, दुख सत्य है। तो दुख के कारण को खोजो।
और उसी के कारण की खोज करते —करते तुम चकित हो जाओगे। जैसे ही यह कारण हाथ में आ जाता है, तुम्हारे हाथ में एक अपूर्व कुंजी आ गयी। अब तुम्हारी मर्जी, दुखी होना हो तो हो जाओ, न होना हो तो न होओ। कौन चाहकर दुखी होना चाहेगा! जब समझ में आ जाए कि द्वार कहां, तब कौन दीवाल से निकलकर सिर तोड़ना चाहता है!
लेकिन तुम दीवाल को द्वार कहते हो। तो द्वार तुम्हें दिखायी नहीं पड़ सकता। बार—बार टकराते हो, फिर भी सजग नहीं होते, चौंकते नहीं। बार—बार कोई बहाना खोज लेते हो कि टकरा गए होंगे, कोई और भूल—चूक हो गयी, दरवाजा तो यही है, निकलना तो यहीं से है, निकलना तो यहीं से हो सकता है।
दुख का कारण खयाल में आ गया तो दुख से मुक्ति तुम्हारे हाथ में आ गयी। अब तुम्हारी मर्जी। और कौन है जो दुख चाहता है! दुख का कारण समझ में आते ही दुख से मुक्ति का उपाय मिल जाता है। दुख—मुक्ति का उपाय मिलते ही तुम्हारे जीवन में धीरे— धीरे वह घड़ी आनी शुरू हो जाती है—कभी—कभी झलक आती है, कभी किरण उतरती है, कभी देर टिक जाती है, कभी थोड़ी और ज्यादा देर टिक जाती है —जब सुख होता खै। दुख का अभाव सुख है।
इस बुद्ध—विचार को समझो।
बुद्ध कहते हैं, दुख—निरोध। बुद्ध से लोग पूछते कि मोक्ष में सुख होगा? निर्वाण में सुख तो होगा न! बुद्ध कहते, सुख की बात ही मत करो, इतना ही कह सकता हूं कि दुख नहीं होगा।
बुद्ध अदभुत हैं। क्योंकि बुद्ध जानते हैं, तुम इतने बेईमान हो कि तुम निर्वाण में भी सुख खोजने लगोगे। वही तो तुम्हारी संसार की भूल है कि तुम सुख खोज रहे। दुख को तो पहचानते नहीं, सुख को खोजते हो, वही तुम्हारी चूक है। वही तुम्हारी फिसलन है, वहीं से तुम गिरे हो, वहीं से तुम गिरते जा रहे हो।
अगर तुमसे कहा जाए कि मोक्ष में सुख है—जैसा कि हिंदू कहते हैं, आनंद जैसा जैन कहते हैं, परम आनंद। बुद्ध ने नयी भाषा खोजी। बुद्ध की भाषा मनुष्य के मनोविज्ञान को जिस ठीक ढंग से पहचान पायी है, वैसी किसी दूसरे व्यक्ति की भाषा नहीं पहचान पायी। बुद्ध ने मनुष्य को सोचकर भाषा निर्मित की।
महावीर अपने को देखकर बोल रहे हैं। महावीर को आनंद हुआ है, तो वह कहते हैं कि मोक्ष परम आनंद की दशा है। लेकिन उन्होंने यह खयाल नहीं लिया है कि जिस आदमी से बोल रहे हैं, उसने तो आनंद जाना नहीं, वह तो आनंद के नाम से सुख समझेगा, पहली बात। दूसरी बात, अभी तक सुख खोजता रहा संसार में, अब वह मोक्ष में सुख खोजने लगेगा। और सुख खोजने में ही उसकी भ्रांति है। इसलिए महावीर की भाषा आदमी को देखकर नहीं है, महावीर की अपनी चित्त—दशा को देखकर है। बुद्ध की भाषा तुम्हें देखकर है। बुद्ध पागलों की भाषा में बोल रहे हैं—पागलों से बोल रहे हैं। देखकर, जानकर कि तुम किस तरह की भूल कर सकते हो।
जैन—शास्त्रों में लिखा है कि जब मोक्ष—रमणी तुम्हें वरेगी। मोक्ष—रमणी! कि जब मोक्ष की सुंदर स्त्री तुम्हारा वरण करेगी।
अब बात बिलकुल ठीक है, कहीं भी भूल—चूक नहीं है, लेकिन जो रमणियों के पीछे दीवाना रहा है अब तक, और फिल्म अभिनेत्रियों के द्वार खटखटाता रहा है, वह तो पढकर गदगद हो जाएगा—मोक्ष—रमणी! वह क्या समझेगा? उसके सामने कौन सी प्रतिमा उठेगी, कौन सा रूप उठेगा—मोक्ष—रमणी! वह मोक्ष में भी वही खोजने लगेगा जो यहां खोज रहा था।
नहीं, बुद्ध ने एक शब्द भी नहीं ऐसा बोला जिसके साथ तुम फिर से धोखा खा सको। बुद्ध की भाषा बड़ी अदभुत है। बड़ा संयम रखना पड़ा होगा बुद्ध को। क्योंकि मैं जानता हूं कठिनाई कैसी है। जब भीतर आनंद बरस रहा हो, तब इस बात को सदा याद रखना कि तुमसे आनंद की बात न की जाए, कठिन है। और जब भीतर सच ही मोक्ष की रमणी के साथ भोग चल रहा हो, तब यह बात बड़ी मुश्किल है कि तुमसे न कही जाए। कभी भूल—चूक, समय— असमय निकल ही जाएगी। लेकिन बुद्ध से न निकली। चालीस साल बोले, लेकिन फूंक—फूंककर कदम रखा।
महावीर जमीन पर फूंक—फूंककर कदम रखते हैं, बुद्ध एक—एक शब्द पर फूंक—फूंककर कदम रखते हैं। कितनी ही बार पूछा गया और कितने ही ढंग से पूछा गया, लेकिन उन्होंने सदा यही कहा कि दुख—निरोध। दुख नहीं होगा, इतना ही तुमसे कह सकता हूं। सुख होगा कि नहीं, तुम जानो। मेरी तरफ से इतनी भर पक्की बात है कि दुख नहीं होगा।
इसीलिए बुद्ध का प्रभाव बहुत समझदार लोगों पर पड़ा। नासमझ लोगों पर नहीं पडा। नासमझों ने तो कहा, यह भी कोई लक्ष्य हुआ—दुख—निरोध? दुख नहीं होगा। यह बात कुछ जंचती नहीं। कुछ विधायक। होगा क्या, यह कहो न! नहीं होगा! इधर दुख से परेशान हैं, तुम कहते हो, दुख नहीं होगा। यह लक्ष्य कुछ बहुत हृदय को गदगद नहीं करता। करता है? —दुख निरोध! काटा नहीं होगा, घाव नहीं होगा। लेकिन बुद्ध यह नहीं कहते कि फूल खिलेगा। सुगंध होगी, सुवास होगी, बुद्ध यह बात नहीं कहते। बुद्ध कहते हैं, कांटा नहीं होगा, बस इतना ही।
अब काटा नहीं होगा, इससे मन में कहीं कोई तरंग उठती है! कोई लहर उठती है! इसको कोई लक्ष्य मानकर अपना जीवन समर्पित करेगा? दुख—निरोध के लिए कोई साध्य बनाएगा? किसी से तुम पूछोगे, क्या खोज रहे हो, तो वह कहेगा, मैं दुख—निरोध खोज रहा हूं!
यह बात कुछ जंचती नहीं। दुख—निरोध की प्रतिमा बनती नहीं।
इसलिए बुद्ध का प्रभाव अत्यंत बुद्धिशाली लोगों पर पड़ा। और जैसे ही बुद्ध विदा हो गए, वह प्रभाव क्षीण होने लगा। क्योंकि भीड़ तो बुद्धिहीनों की है। बुद्ध का धर्म इस जगत में सर्वाधिक वैज्ञानिक धर्म था, लेकिन विलुप्त हो गया। इस देश से विलुप्त हो गया जहा पैदा हुआ! क्योंकि इस देश से विलुप्त हो जाने के बहुत कारणों में एक कारण यह था कि इस देश के शेष सारे धर्म आनंद की भाषा बोलते हैं —सच्चिदानंद, मोक्ष, मोक्ष—रमणी, अपूर्व सुख की वर्षा, महासुख। और बुद्ध ने सिर्फ इतना कहा—दुख—निरोध।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं बुद्ध की बात समझकर चलोगे तो इस मंदिर की सीढियों पर चढ़ सकते हो। क्योंकि दुख—निरोध ही सुख को पाने का मार्ग है। दुख न रह जाए तो जो बचेगा, उसका नाम आनंद है। दुख के अभाव का नाम आनंद है। फूल खिलता है, निश्चित खिलता है, लेकिन जो व्यक्ति सुख की तलाश में लगा है, वह संसार को ही बढ़ाए चला जाता है। और जो व्यक्ति दुख की तलाश में लग जाता है, वह संसार को काटने लगता है। कारण हाथ में आने लगते हैं, उतना—उतना दुख गिरने लगा, उतना संसार गिरने लगा। निदान हो गया रोग का, चिकित्सा बड़ी आसान हो जाती है।
बुद्ध चिकित्सक हैं। बुद्ध ने कहा भी कि मैं वैद्य हूं। जैसा नानक ने कहा है कि मैं वैद्य हूं ऐसा बुद्ध ने भी बहुत बार कहा कि मैं वैद्य हूं। अनेक— अनेक बार बुद्ध ने दोहराया है कि मैं कोई दार्शनिक नहीं, कोई ज्ञानी नहीं, मैं तो वैद्य हूं। तुम बीमर हो, मैं वैद्य हूं।
तुम जब वैद्य के पास जाते हो तो वह तुम्हारी बीमारी दूर कर देता है। स्वास्थ्य तो तुम्हें देता नहीं, दे भी नहीं सकता, किस वैद्य की सामर्थ्य है! स्वास्थ्य कब किसने किसको दिया? स्वास्थ्य को देने की जरूरत ही नहीं। स्वास्थ्य का अर्थ ही होता है, जब बीमारी नहीं रह जाती है तो जो बचता है।
तो वैद्य तुम्हारी बीमारी छीन लेता है। औषधि देता है कि तुम्हारी बीमारी कट जाए, जब सब बीमारी कट जाती है तो जो पीछे अपने आप स्वभावत: रह जाता है, उस स्वभाव में जो है वही तो स्वास्थ्य है। ये दोनों शब्द एक से ही बने हैं—स्व से—स्वभाव और स्वास्थ्य। स्वयं रह गए तो स्वस्थ। कुछ और विजातीय न बचा, तो स्वस्थ।
तो स्वास्थ्य तो कोई नहीं दे सकता। तुम अगर डाक्टर के पास जाओ और कहो कि कुछ स्वास्थ्य दे दें, तो वह कहेगा, बीमारी क्या है? तुम कहो, बीमारी तो कुछ भी नहीं है, मैं स्वास्थ्य की तलाश कर रहा हूं तो वह कहेगा कि बीमारी जब कुछ भी नहीं है तो तुम स्वस्थ हो। और स्वास्थ्य देने का कोई उपाय नहीं है। बीमारी छीनी जा सकती है, स्वास्थ्य दिया नहीं जा सकता।
तो बुद्ध बीमारी का विश्लेषण किए। बीमारी को ठीक—ठीक तर्कयुक्त ढंग से साफ कर दिया। फूल खिलता है।
      नाव नहीं, ये अधर हैं
      हंसती इनसे झील
      पता नहीं ये जिंदगी
      कितने लंबे मील
      लकड़ी की इस देह के
      टूटे हुए किवाड़
      पीछे रेगिस्तान है
      आगे उठे पहाड़
      कोने पर से फट गयी
      यह चिट्ठी—सी धूप
      संध्या ऐसी लग रही
      ज्यों विधवा का रूप
      कच्ची मिट्टी के मनुज
      आवे जैसा गांव अंगारों का फर्श है
      और धुएं की छाव
      बारह बजते ही मिलीं
      सुइयां दोनों साथ
      अभिवादन करता समय
      जुड़े घड़ी के हाथ
      पीली आंखें धूप की
      नीले दर्द हजार
      पतझड़ में शायद तभी
      हरा हो गया प्यार
      कपट—छलावों का नगर
      तीखे—तीखे लोग
      मित्रों को भी लग गया
      नागफनी का रोग
      संबंधों की हथकड़ी
      चेहरे हैं अभियुक्त
      आंखों  के पक्षी उड़े
      होकर बंधनमुक्त
      चोरी करके चांद की
      गए तिमिर के चोर
      गश्त लगाता फिर रहा
      यहां सिपहिया भोर
      लहंगा पहने धूप का
      उतरी जल में शाम
      बूढ़े बरगद ने कहा
      पलक मूंदकर राम
      अनगिन चेहरों से लदा
      यह नीला आकाश
      बरसों खोजा न मिला
      अपना सुर्ख पलाश
बरसों क्या! जन्मों खोजा न मिला, अपना सुर्ख पलाश। वह जो अपने भीतर का सुर्ख फूल है, वह मिला नहीं। और जब तक वह नहीं मिला, तब तक कुछ भी नहीं मिला। तब तक तुमने जो भी इकट्ठा कर लिया, सब बोझ है। और तब तक तुमने जो भी खोजा, सब व्यर्थ है। तुम रेगिस्तानों में भटकते रहे, मरूद्यान मिला नहीं। यह भी स्वीकार करने का मन नहीं होता कि मरूद्यान मिला नहीं, इसलिए मान लेते हो कि मिल गया। ऐसे सांत्वना हो जाती है। सांत्वना से जागो, तो ही सत्य मिलता है।
तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासी तुम्हें सांत्वना ही देते हैं। सांत्वना से जागो तो सत्य मिलता है, सांत्वना से सत्य नहीं मिलता।
मैं तुम्हारे साथ जो प्रयोग कर रहा हूं वह है तुम्हारी सांत्वनाएं छीन लेने का प्रयोग। तुम्हारी सबसांत्वनाएं छिन जाएं तो तुम्हारे जीवन का दुःख इतना है कि वही दुख तुम्हें जगा देगा। तुम्हें दुख जगा नहीं पा रहा है, क्योंकि तुमने सांत्वनाओं की खूब आडू बना रखी है। सांत्वनाओं के खूब तुमने कवच पहन रखे हैं।
दुख है और नहीं जगा पा रहा है। अलार्म बज रहा है दुख का और तुम कानों में रुई लगाए पड़े हो। वह रुई सांत्वना है। दुःख बजता है, लेकिन कान में रुई लगाए पड़े हो तो सुनायी कैसे पड़े? और तुम चाहते हो कि किसी तरह सुनायी न पड़े, तो तुम रुई बढ़ाते चले जाते हो।
धर्म या धर्मगुरु का एक ही प्रयोजन है कि तुम्हारे कान की सब रुई निकाल ले। बुद्ध ने चालीस वर्ष यही अदभुत प्रयोग किया और बहुत लोग उनके पास सत्य को उपलब्ध हुए। और जिसे भी सत्य को पाना हो उसे टालना नहीं चाहिए। उसे यह नहीं कहना चाहिए, कल निकालेंगे कान की रुई। अभी निकालो तो निकलेगी, कल पर छोड़ा तो कभी न निकलेगी।
      एक संस्मरण और जोड़ दूं
      ओ मेरे इतिहास रुको तो
हम रोके जा रहे हर चीज को। हम कहते हैं, जरा ठहरो। थोड़ा और धन इकट्ठा कर लूं कि थोड़ा और मन इकट्ठा कर लूं कि थोड़ा और ऐसा कर लूं कि थोड़ा और वैसा कर लूं।
      एक संस्मरण और जोड़ दूं
      ओ मेरे इतिहास रुको तो
हम तो मौत से भी यही कहें। मौत सुनती नही, इसलिए बात मुश्किल हो जाती है। नहीं तो हम तो मौत से भी यही कहें कि जरा रुक जा—एक संस्मरण और जोड़ दूं।  
      मैंने तुमको अपना जाना
      अपने से भी ज्यादा माना
      पर इतना सब करने पर भी
      सचमुच क्या तुमको पहचाना
      तुम तो अब भी पहले जैसे
      लगते हो वैसे के वैसे
      एक संस्मरण और जोड़ दूं
      ओ मेरे मधुमास रुको तो
      रात न रुचती स्वप्न न भाता
      दिवस सरीखा दिवस न जाता
      लगता पहले मैं भी था कुछ 
      पर अब कुछ भी याद न आता
      सच कितना मजबूर हुआ है
      अपने से भी दूर हुआ है
      एक विस्मरण और जोड़ दूं
      ओ मेरे विश्वास रुको तो
      केवल इतनी कथा हमारी
      अथ पर इति की पहरेदारी
      कभी संवरना चाहा होगा
      अब तो बुझने की तैयारी
      मन था नयी सृष्टि रचने का
      अब प्रयास सबसे बचने का
      एक संवरण और जोड़ दूं
      ओ मेरे संन्यास रुको तो
      एक संस्मरण और जोड़ दूं
      ओ मेरे इतिहास रुको तो
बुद्ध ने ऐसा नहीं किया। जिस दिन देखा कि मृत्यु है, जिस दिन देखा कि बुढ़ापा है, जिस दिन देखा कि जीवन में दुख है, उसी रात छोड़ दिया सब। उस रात छोड़ने के बाद बुद्ध ने जो कसम खायी, वह समझने जैसी है! बुद्ध ने कहा, चाहै मेरा चमड़ा, नसें, हड्डी ही क्यों न शेष रह जाएं; चाहे शरीर, मांस, रक्त —क्यों न सूख जाए, किंतु बिना सम्यक—संबोधि को प्राप्त किए नहीं रहूंगा।
क्योंकि उसके बिना रहने का कोई अर्थ नहीं है। सम्यक—संबोधि एकमात्र संपदा है। सम्यक—संबोधि का अर्थ है, बिना जागे नहीं रहूंगा। सोया—सोया अब नहीं रहूंगा, सब दाव पर लगा दूंगा, लेकिन अब नींद में रहने का कोई भी कारण नहीं है। जहां मौत है, वहां जो सो रहे, वे गाफिल हैं और नासमझ हैं। जहा मौत सब छीन लेगी, वहां जो इकट्ठा कर रहे, वे पागल हैं और विक्षिप्त हैं। अब नहीं।
तो बुद्ध ने सब दाव पर लगा दिया। लंबी तपश्चर्या की। छह वर्ष कठोर तपश्चर्या की। सच में ही हड्डी —मांस—मज्जा सब सूख गया। छाती की हड्डियां दिखायी पडने लगीं। कथाएं कहती हैं कि पेट पीठ से लग गया। सब सूख गया। अपूर्व संघर्ष किया। गहन संकल्प किया और सब दाव पर लगा दिया। उसी संकल्प का अंतिम परिणाम समर्पण था। उसी संघर्ष का अंतिम परिणाम विश्राम था।
तुममें से बहुत लोग समर्पण करते हैं। लेकिन समर्पण के पहले समर्पण करने को ही कुछ नहीं होता। कभी मुझे सुन लेते हैं यह कहते कि ध्यान भी छोड़ना पड़ेगा, तो वे कहते हैं, फिर ठीक है, हमने किया ही नहीं, झंझट में ही क्यों पड़ना! कभी मैं कहता हूं गुरु भी छोडना पड़ेगा, तो वे कहते हैं, फिर ठीक है, जब छोडना ही पड़ेगा, तो गुरु करना ही क्यों?
लेकिन तुम वही छोड़ सकते हो जो तुम्हारे पास है। ध्यान हो, तो ध्यान छोड़ सकते हो। निश्चित ही मैं बार—बार कहता हूं कि नदी पार कर जाने पर नाव छोड़ देनी पड़ती है, तो तुम कहते हो, नाव चढ़े ही क्यों? लेकिन तब तुम दूसरे किनारे ही रह जाओगे। यह बात उस किनारे जाकर छोड़ने की हो रही थी। नाव पकड़नी पड़ेगी और छोड़नी पड़ेगी।
बुद्ध ने संकल्प किया, संघर्ष किया, तपश्चर्या की और आखिरी चरम शिखर पर पहुंचे—उसके पार मनुष्य के हाथ में करने को कुछ भी नहीं बचता—कर्ता की आखिरी स्थिति आ गयी, वहां से कर्ता गिरा, बिखर गया, समाप्त हो गया, वहीं अहंकार विसर्जित हो गया। जो बचा, वही बुद्धत्व है।
आज के सूत्र जिस कथा से संबंधित हैं, वह मैं पहले कह दूं र जिस परिस्थिति में बुद्ध ने ये सूत्र, आज के पहले दो सूत्र कहे। पहले दो सूत्र—

      यस्स जित नावजीयति जितमस्स नौ याति कोचि लोके ।
      तं बुद्धमनंतगोचर अपदं केन पदेन नेस्सथ ।।
      यस्स जालिनी विसत्तिका तन्हा नत्थि कुहिन्चि नेतवे ।
      त बुद्धमनंतगोचरं अपद केन पदेन नेस्मथ ।।

'जिसका जीता कोई अनजीता नहीं कर सकता, और जिसके जीते को कोई दूसरा नहीं पहुंच सकता, उस अनंतद्रष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे?'  'अपने जाल में सबको फंसाने वाली तृष्णा जिसे नहीं डिगा सकती, उस अनंतद्रष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे?'
ये पहले दो सूत्र एक खास स्थिति में कहे गए थे, वह स्थिति बड़ी समझने जैसी है। क्योंकि उस स्थिति से तुम्हें कभी न कभी गुजरना होगा। स्थिति यह थी—

बुद्ध ने छह वर्ष की तपश्चर्या की। जो करने योग्य था किया जो भी किया जा सकता था किया। कुछ भी अनकिया न छोडा जिसने जो कहा वही किया। जिस गुरु ने जो बताया उसको समग्र मन— भाव से किया तन— प्राण से किया। रत्तीभर भी अपने को बचाया नहीं। सब तरह अपने को दांव पर लगा दिया!
ऐसी स्थिति की अंतिम घडी में जहा संकल्प अपने शिखर पर पहुंचता है और जहा से आदमी मन से मुक्त होता है, तो मन आखिरी हमले करता है। स्वाभाविक। जिस मन के साथ हम वर्षों रहे, जन्मों रहे और जिस मन की हम पर मालकियत रही, वह मालकियत यूं ही नहीं छोड़ देता। कौन मालकियत यूं ही छोड़ देता है!
अगर तुम्हारा नौकर भी तुम छुड़ाना चाहो तो वह भी आसानी से नहीं छोड़ता, तो मालिक की तो बात ही और। नौकर नौकरी छोड़ने को आसानी से राजी नहीं होता तो मालिक मालकियत छोड़ने को कैसे राजी होगा! और अगर नौकर कहीं भूल—चूक से मालिक बन बैठा हो, तब तो फिर छोड़ने की बात ही नहीं। और यही हुआ है। मन नौकर है, बन बैठा मालिक है। तो अगर नौकर सिंहासन पर बैठ जाए तो फिर आसान नहीं है उतारना।
मैंने सुना है, एक झक्की बादशाह ने कोर्ट के मसखरे को ऐसे ही बातचीत में पूछ लिया कि बोल, तुझ पर हम बहुत प्रसन्न हैं, तू क्या चाहता है? तेरी मर्जी पूरी कर देंगे। मसखरा था अदभुत और सम्राट को हंसाया करता था और सम्राट—उसने कुछ मजाक की बात कही—खूब हंसा, लोटा—पोटा, बहुत प्रसन्न हो गया। तो उसने कहा, देख, तू जो चाहेगा। उसने कहा, कुछ ज्यादा नहीं, चौबीस घंटे के लिए सम्राट बना दो। अब यह कोई बड़ी बात न थी, सम्राट ने कहा, ठीक है, चौबीस घंटे का ही मामला है, बन जा।
चौबीस घंटे के लिए मसखरा सम्राट बन गया। लेकिन चौबीस घंटे में उसने सब तहस—नहस कर डाला। पहला काम तो उसने कहा कि सम्राट को फासी लगा दो। सम्राट ने कहा, अरे पागल, मैंने तुझे सम्राट बनाया! उसने कहा, वह मैं जानता हूं, तुम्हीं मुझे उतारोगे। फैसला! खतम करो! देर—दार की जरूरत नहीं, चौबीस घंटे का मामला है, चौबीस घंटे में सब कर लेना है। सब दरबारियों वगैरह को जेल में डाल दिया। सेनापति बदल डाले, अपने आदमी बिठा दिए। चौबीस घंटे का था मामला, लेकिन सदा के लिए बनने की योजना कर ली। चौबीस मिनट में भी यह हो सकता था।
अगर गुलाम कभी मालिक बन जाए तो बहुत खतरनाक सिद्ध होता है। क्योंकि वह जानता है कि मैं हूं तो गुलाम और यह जो थोड़ी सी घड़ियां मुझे मिल गयी हैं, अगर इनका उपयोग न कर लिया तो फिर का फिर गुलाम हो जाऊंगा। नौकर अगर मालिक जन्मों तक रहा हो, तब तो बहुत कठिन है उसे हटा देना। और वही स्थिति है मन की।
तो जब कोई साधक अपने अंतिम शिखर पर पहुंचता साधना के, तो मन आखिरी जद्दोजहद करता है, आखिरी संघर्ष होता है—कुरुक्षेत्र। अंतिम निर्णायक युद्ध होता है। उस निर्णायक युद्ध को अनेक—अनेक प्रतीकों से कहा गया है।
मुसलमान कहते हैं—शैतान हमला करता है। वह शैतान मन है। ईसाई कहते हैं —डेविल, बीलझेबब हमला करता है। वह बीलझेबब कोई और नहीं, मन है। हिंदू कहते हैं—कामदेव। और स्वभावत: हिंदुओं के पास सबसे श्रेष्ठ कथाएं हैं। क्योंकि उन्होंने खूब परिमार्जित किया है। दस हजार साल तक परिमार्जन किया है। .'गैसें की कथाएं नयी—नयी हैं, उनमें कई भूल—चूके मिल जाएंगी, लेकिन हिंदुओं ने तो खूब परिमार्जन किया है। इसके पहले कि हिंदुओं की कथाएं लिखी गयीं, हजारों साल तक वे कथाएं बुद्धिमानों के हाथ से गुजरती रहीं, उन पर परिमार्जन होता रहा।
तो हिंदुओं की कामदेव की कथा बड़ी अदभुत है, उसमें पहली तो बात यह कि वह अनंग हैं, उनकी कोई देह नहीं। यही तो मन है। मन की कोई देह थोड़े ही है। मन अदेही है। इसीलिए तो मन को कहीं भी जाने में देर नहीं लगती। तुम्हें दिल्ली जाना, समय लगे, कलकत्ता जाना, समय लगे, मन, यह गया। अदेही है, न कोई ट्रेन, न मोटर, न हवाई जहाज, किसी की कोई जरूरत नहीं। सोचा नहीं कि गया नहीं। क्षण भी बीच में टूटता नहीं—समय नहीं लगता। देह अगर मन की होती तो समय लगता।
हिंदुओं की कथा अदभुत है कि शिव को काम ने बहुत ज्यादा पीड़ित किया, परेशान किया तो वह नाराज हो गए और उन्होंने आंख अपनी, तीसरा नेत्र खोल दिया। उस तीसरे नेत्र के कारण जलकर भस्म होकर काम का जो शरीर था वह गिर गया। तब से वह अनंग है। उसके पास देह नहीं है।
यह कथा भी प्यारी है कि तीसरे नेत्र के खोलने से काम जल गया। तीसरे नेत्र के खुलने पर ही काम जलता है। तीसरे नेत्र के खुलने का अर्थ है, अंतर्दृष्टि उपलब्ध हो गयी, भीतर की आंख खुल गयी। जब तक भीतर की आंख बंद है, तभी तक काम का तुम पर प्रभाव है। भीतर की आंख खुल गयी, काम का प्रभाव समाप्त हो गया। भीतर तुम सोए हो, इसलिए काम तुम्हें फुसला लेता है, राजी कर लेता है। भीतर जाग गए, फिर तुम्हें कोई राजी न कर सकेगा।
बौद्धों में यही काम मार कहा जाता है। यह बौद्ध नाम है काम का ही। बौद्धों ने भी खूब परिष्कार किया है मार का। और यह घटना तुम्हें बताएगी कि किस तरह परिष्कार किक है।
साधना अंतिम शिखर पर पहुंच गयी उनकी। तपश्चर्या के अंतिम शिखर पर मार ने भगवान को पछाड़ने की चेष्टा की। मार सब तरफ से हमले किया।
सब द्वार—दरवाजों से हमले किया। क्षणभर भी खोने का उपाय न था, जल्दी करनी जरूरी थी, क्योंकि बुद्ध वहां जा रहे हैं जहां तीसरा नेत्र खुल जाएगा। इसके पहले कि तीसरा नेत्र खुल जाए, सब उपाय कर लेना जरूरी था।
लेकिन उसे मार खानी पड़ी। मार को मार खानी पड़ी। हार खानी पडी।
यह शब्द भी बड़ा अच्छा है। इसलिए बुद्ध इसे मार कहते हैं कि तुम घबड़ाओ मत, आखिर में तो इसको मार खानी पड़ेगी। यह मार खाएगा। बीच के ही दिन हैं इसकी विजय —यात्रा अगर होती है। अंततः तो इसे हारना है—सत्यमेव जयते। सत्य अंततः तो जीतेगा। अगर झूठ जीतता है तो बीच में ही जीतता है, इसलिए बहुत परेशान मत होना। अगर झूठ जीत भी जाए तो प्रतीक्षा करना, डांवाडोल मत हो जाना, अंततः तो सत्य ही जीतेगा। क्योंकि झूठ है ही नहीं तो जीतेगा कैसे? इसलिए मार तो खानी ही पड़ेगी। उसका स्वभाव ही ऐसा है कि वह हारेगा। तुम जागे कि हारेगा। अगर जीत रहा है तो सिर्फ इसीलिए कि तुम अभी सोए हो। तुम खुद ही झूठ हो, इसलिए झूठ जीत रहा है। जैसे ही तुम सच हुए कि सच की जीत हो जाएगी। मार अपने कारण नहीं जीत रहा है, तुम्हारे कारण जीत रहा है। तुम हारे हुए बैठे हो, इसलिए जीत रहा है। तुम जरा उठकर खड़े हो जाओ, तो मार जीत न सकेगा।
मार को हार खानी पड़ी। तब उसने अपनी तीन कन्याओं को भेजा। मार— कन्याएं नाना प्रकार के प्रयत्न कर भगवान को वश में करना चाहीं।
अब यह भी समझना। पहले मार स्वयं आया। हार गया, तो उसने अपनी तीन  ,।।न्याओं को भेजा। यह आखिरी उपाय है।
इन प्रतीकों को खयाल में लेना जरूरी है। पहली बात, जैसा मैंने तुमसे पहले ?r दन कहा कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर पुरुष है और स्त्री है। और प्रत्येक स्त्री के भीतर स्त्री है और पुरुष है। तो बुद्ध पुरुष हैं। स्वभावत:, सबसे पहले बुद्ध का जो अधिक अंशों वाला मन है—पुरुष का मन—वह हमला करेगा। स्वभावत:। क्योंकि बुद्ध के पास पुरुष का मन बड़ा है स्त्री के मन के मुकाबले। तो मन पहले तो अपनी बड़ी से बड़ी शक्ति को लगाएगा। मन के भीतर पुरुष जैसी बातें हैं, जैसे अहंकार, क्रोध, पद, मद, मत्सर, मोह, ये सब पुरुषवाची हैं। अहंकार इनका मूलस्रोत है। तुम्हारे भीतर जो जाल है, उस जाल में जो पुरुष तुम्हारे भीतर छिपा है, जो तुम्हें उलझा रहा है, वह है अहंकार।
इसलिए तुम पाओगे कि पुरुषों की सबसे बड़ी पीड़ा अहंकार है। सबसे बड़ी अड़चन उनकी अहंकार की। इसलिए पुरुष को समर्पण करना बहुत कठिन होता है। झुकना कठिन होता है। टूट जाए, झुकना नहीं चाहता। कहावतें कहती हैं—टूट जाना मगर झुकना मत। यह पुरुष की अकड़ है। अहंकार पुरुष मन का आधार है।
तो मार पहले स्वयं आया। इसका अर्थ है, पुरुष के द्वार से आया। उसने बुद्ध के अहंकार को जगाया होगा। साफ नहीं है कथा में कि उसने क्या कहा, क्योंकि बहुत अनूठी कथाएं बहुत सी बातें बिना कहे छोड़ देती हैं। क्योंकि सभी बातें कह दी जाएं तो फिर ध्यान करने योग्य उन कथाओं में कुछ भी नहीं रह जाता। और ये कथाएं ध्यान करने के लिए निर्मित की गयी हैं। इन पर ध्यान करना है। और जो खाली हिस्से हैं उनको ध्यान से भरना है।
इसलिए भारत में इतना विवेचन, इतनी व्याख्या चली। उस विवेचन और व्याख्या का कारण है, क्योंकि कथाएं अधूरी हैं। ईसाइयत के पास ऐसी व्याख्याएं नहीं हैं, न इस्लाम के पास ऐसी व्याख्याएं हैं। कुरान पर कोई अच्छी व्याख्या हुई ही नहीं। क्योंकि कुरान में कुछ खाली छोड़ा नहीं। सब कुछ कह दिया। बेकार की बातें भी कह दीं जो कि कुरान में नहीं होनी चाहिए थीं। शादी—विवाह, समाज, राजनीति, सब डाल दिया। कुछ छोड़ा ही नहीं।
इससे एक बात साफ होती है कि कुरान जिन लोगों के लिए लिखा गया, वे कोई बहुत बुद्धिमान लोग नहीं थे। उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता था, डिटेल्स में सब बातें कह देनी जरूरी थीं, अन्यथा वे गड़बड़ कर देंगे। एक—एक बात ब्योरे में कह देनी जरूरी थी कि ऐसा करना, ऐसे उठना, ऐसे बैठना। सब साफ कर दिया। इसलिए कुरान में व्याख्या की बहुत गुंजाइश नहीं है।
लेकिन उपनिषदों में व्याख्या की खूब गुंजाइश है। कुछ भी साफ नहीं किया है। इशारे हैं और इशारों के कुछ भी अर्थ बन सकते हैं। फायदा भी है, नुकसान भी है। हर फायदे में नुकसान होता है। कुरान का एक फायदा है कि मुसलमान बिलकुल निश्चित हैं कि क्या करना है और क्या नहीं करना है। इस मामले में दुविधा नहीं है। हिंदू बिलकुल अनिश्चित हैं—क्या करना, क्या नहीं करना, एकदम दुविधा है। और तुम पूछने जाओ तो जिस आचार्य से पूछो, वह अलग व्याख्या दे रहा है। शंकराचार्य कुछ कहेंगे, रामानुजाचार्य कुछ कहेंगे, वल्लभाचार्य कुछ कहेंगे, निंबार्काचार्य कुछ कहेंगे। और तुम खोजते रहो आचार्यों को और हर आचार्य व्याख्या देगा। खतरा यह है कि लोग साफ कभी नहीं हो पाएंगे कि ठीक—ठीक क्या करना है! और फायदा यह है कि ध्यान के लिए बड़ी सुविधा है। सोच—विचार के लिए बड़ी गुंजाइश है।
इसलिए इस्लाम में बहुत विचार पैदा नहीं हो सका। मुसलमान सीधा—सादा आदमी है। जो करने योग्य है, करता है, जो नहीं करने योग्य है, नहीं करता है। जो बात उसे कही है, उसे लकीर के फकीर की तरह मानकर चलता है। लेकिन बहुत विचार का जन्म नहीं हुआ। हिंदुओं जैसा चिंतन पैदा नहीं हुआ, होने का कारण ही नहीं था। चिंतन तो वहीं पैदा होता है जहा खाली जगह छोड़ दी गयी हैं। जिन्हें तुम्हें भरना होगा।
तो भारत में जो भी कथाएं रची गयी हैं, उनमें बड़े रिक्त स्थान हैं। जैसे, पहले मार ने हमला किया, लेकिन उसने क्या किया हमले में, यह बात नहीं कही गयी। यह सोचनी पड़ेगी।
मार यानी पुरुष। पुरुष यानी अहंकार। तो उसने बुद्ध के अहंकार को गुदगुदाया होगा कि अरे, तेरे जैसा तपस्वी कोई भी नहीं। तू महातपस्वी है। तू तपस्वियों का तपस्वी। प्रसन्न हो जा। तेरे जैसा कभी न हुआ, न कभी होगा। उसने बुद्ध को खूब फुसलाया होगा। और उसने बुद्ध को खूब समझाया होगा कि धन्यभाग, कि तेरे दर्शन हो गए! मैं तेरे चरणों में झुका हूं। उसने बुद्ध के अहंकार को मक्खन लगाया होगा। यह कथा का अंश छूटा है। यह साफ नहीं है। उसने चमचागिरी की होगी। उसने इस कोने, उस कोने से बुद्ध को कहा होगा, अरे, धन्यभाग! लेकिन उसे मात खानी पड़ी। मार को मार खानी पड़ी। बुद्ध चुप रहे, बैठे रहे, कुछ भी न बोले। उसकी प्रशंसाओं का कोई परिणाम न पड़ा। उसने क्या कहा, वह जैसे बहरे कानों पर पडा। बुद्ध अडिग रहे, जरा डावाडोल न हुए।
और जब कोई आदमी ऐसी अवस्था में हो, अडोल, कि पुरुष के द्वारा, अहंकार की प्रतिष्ठा के द्वारा उसे न हिलाया जा सके, तो फिर दूसरा उपाय है कि उसको हिलाने के लिए कुछ स्त्रैण उपाय खोजे जाएं। क्योंकि जहा पुरुष हार जाता है, वहां स्त्री अक्सर जीत जाती है।
तुमने देखा, दुनिया के बड़े से बड़े पुरुष—नेपोलियन, सिकंदर—युद्ध के मैदान पर बड़े पुरुष हैं, लेकिन घर आकर एक दुबली—पतली स्त्री से हार जाते हैं।
मैंने सुना है, एक जिद्दी सम्राट ने, एक झक्की सम्राट ने यह घोषणा की अपने वजीरों से कि पता लगाओ, मेरे राज्य में जो पुरुष अपनी स्त्री की मानकर न चलता तो, उसको जो मेरा श्रेष्ठतम घोड़ा है वह भेंट किया जाए और उसका राजकीय सम्मान किया जाए। और जो—जो लोग अपनी स्त्री की मानकर चलते हों, उनको भी एक—एक भेड़ प्रतीक रूप भेंट की जाए।
तो वजीरों का एक समूह राजधानी में पता लगाने गया। जिससे भी उन्होंने पूछा कि आप अपनी पत्नी से डरते हैं, आप अपनी पत्नी की मानकर चलते हैं—और ध्‍यान रखना, अगर झूठी बात कही और राजा को पता चल गया तो घोड़ा तो मिलेगा नहीं, फांसी लगेगी। इसलिए सच—सच कह देना। तो लोगों ने कहा, भई, अब इसमें मठ क्या कहना, तुम भी जानते हो। तुम भी पति हो, हम भी पति हैं, अब इसमें छिपाना किससे है! तुम नाहक की खोज पर निकले, ऐसा पति कहां मिलेगा?
थक गए राजा के लोग खोजते—खोजते, लेकिन एक झोपड़े में एक आदमी मिल गया। एक बड़ा पहलवान अपना बैठा हुआ भांग घोंट रहा था। उसकी मसलें ऐसी थीं। कि कभी देखी भी नहीं गयीं। उसका शरीर तो बड़ा सुंदर था। लोहे का बना हो जैसे। किसी का हाथ पकड़ ले तो हड्डी चरमरा जाए। कोई होगा साढ़े छह फीट लंबा। तगड़ा जवान आदमी, लोहे की देह। उन्होंने कहा हो न हो, यह आदमी घोड़ा ले जाएगा।
तो उन्होंने उस आदमी से पूछा कि ऐसा सम्राट ने पुछवाया है। तो उसने सिर्फ अपनी मसलें उठाकर दिखायीं उनको, उनका दर्शन, कहा कि देखते हैं, स्त्री इत्यादि को हो तो ऐसा मसल दूंगा। अगर मेरे हाथ में स्त्री पड़ जाए तो बस खतम। जरा मेरा हाथ तो पकड़कर देखो, उसने कहा। और वजीर का हाथ पकड़ लिया तो वजीर को छुडाना मुश्किल हो गया। और वजीर रोने लगा, उसने कहा, मेरा हाथ छोड़ भाई।  घोड़ा तुझे मिल जाएगा, मगर तू यह क्या करता है, हाथ तो छोड़। मगर घोड़ा किस रंग का चाहिए, राजा के पास दो घोड़े हैं—काला और सफेद।
तो उसने भीतर आवाज दी कि मुन्ने की मां, काला कि सफेद? मुन्ने की मां ने कहा, सफेद। तो वजीर ने कहा, तुझे भेड़ मिलेगी। यह मुन्ने की मां से ही पूछकर तय न, कर रहा है आखिर में। और मुन्ने की मां निकली, बिलकुल दुबली—पतली. औरत, और उसने कहा, भूलकर काला मत लेना। भेड़ ही मिली पहलवान को।
जहा कठोर हार जाए, वहां कोमल के जीतने की संभावना है। कथा अर्थपूर्ण है। खुद तो हार गया मार, उसने अपनी तीन कन्याओं को भेजा। तीन क्यों? आखिर खुद अकेला आया था, एक ही कन्या काफी होती, तीन क्यों?
उसमें भी बौद्ध प्रतीक है। बौद्ध कहते हैं, स्त्री का इसीलिए तो पता नहीं लग पाता कि वह कितनी है। होती एक, लेकिन तीन। अभी कुछ, अभी कुछ, अभी कुछ; सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। पक्का भरोसा नहीं कि क्या है। त्रिवेणी है न प्रयाग में! ऐसा स्त्री भी एक अपूर्व संगम है। उसमें दो नदियां तो दिखायी पड़ती हैं, एक बिलकुल दिखायी ही नहीं पड़ती, सरस्वती का तो पता ही नहीं चलता कि है। तो तुम जो देख सकते हो, उसको ही तो तुम पहचान सकते हो, लेकिन एक है जो अदृश्य है। और जो दृश्य से जीत जाए, वह भी अदृश्य से हारने की संभावना रखता है। तो तीन। तीन प्रतीक है।
तीन का मतलब है, एक से जीते तो दूसरे से मुश्किल, दूसरे से जीते तो तीसरे से मुश्किल। और एक तरफ लड़ाई नहीं होगी, तीन तरफ से लडाई होगी।
तुमने कभी स्त्री से झगड़ा करके देखा? झगड़ा कई तरह का होगा! वह तर्क से भी लड़ेगी—हालाकि तर्क चाहे उससे करते न बनें—तर्क भी करती जाएगी, क्रोध भी करती जाएगी और रोने भी लगेगी। अब यह बहुत मुश्किल काम हो जाता है। क्योंकि यह अगर तर्क ही करना है तो बात साफ समझ में आती है। पुरुष को समझ में आता है कि तर्क कर लो, चलो निपटारा कर लें, उसमें पुरुष जीत भी सकता है। लेकिन स्त्री उसी पर भरोसा नहीं रखती। वह क्रोध भी कर रही है—हो सकता है चीजें फेंक रही हो तुम्हारे ऊपर। लेकिन उस पर भी भरोसा नहीं, क्योंकि क्रोध में तो पुरुष जीत सकता है। तो वह रो भी रही है।
अब उसने तुम्हें तीन तरफ से घेर लिया। तर्क से हारो तो ठीक, क्रोध से हारो तो ठीक, नहीं तो उसके रोने को देखकर तो हारोगे न! वह अपनी ही छाती पीटने लगी है और अपना ही सिर पटक रही है। उसका हमला तीन द्वारों से है। इसलिए कथा कहती है कि मार ने अपनी तीन कन्याओं को भेजा।
मार— कन्याएं नाना प्रकार के प्रयत्न कर भगवान को अपने वश में करना चाहीं। लेकिन बुद्ध शांत रहे। उन्होंने हां— हूं कुछ भी न किया। वह सिर्फ देखते ही रहे जो हो रहा था।

क्योंकि तुमने हां—हूं किया कि फंसे। तुम अगर इंकार भी कर दो तो गए। तुम अगर डर भी जाओ, भयभीत हो जाओ, तुम चिल्लाने लगो कि मुझे बचाओ, या भाग निकलो बाहर, तो तुम हार गए। नहीं, वह बैठे रहे जहा बैठे थे। जैसे थे वैसे ही बैठे रहे। जैसे कुछ हुआ ही न हो। जैसे यह सब उनके आसपास जो हो रहा था—तीनों तरफ से कन्याएं खींचने लगीं, सुंदर होंगी, रूपवती होंगी, सुगंध आती होगी उनके जीवन से, उनकी देह अपूर्व होगी, मगर वह बैठे रहे। उन्होंने जरा भी स्वीकार भी न किया कि कोई है चारों तरफ।
भगवान शांत रहे— शांत का यही अर्थ होता है— जैसे कोई है ही नहीं ऐसे ठाकेले रहे न मोहे न क्रोधे।
दो चीजों का खयाल रखना, दोनों में आदमी फंस जाता है। जिसको तुम संसारी कहते हो, वह मोह जाता है। जिसको तुम संन्यासी कहते हो, वह क्रोध जाता है। या पो मोहो या क्रोधो। मगर दोनों हालत में आदमी स्त्री से हार जाता है। लेकिन भगवान के संबंध में कहा कि न मोहे, न क्रोधे।
और जहां मोह नहीं, क्रोध नहीं, वहां फिर कोई परिणाम नहीं हो सकता। वहां शून्य निर्मित हो जाता है। शून्य को कैसे रिझाओगे? क्रोध किया तो अहंकार आ गया मोह किया तो भी अहंकार आ गया। तो तुम्हारे जो ऋषि—मुनि नाराज हो गए, वे भी हार गए। जो ऋषि—मुनि नाराज न हुए, प्रसन्न हो गए, वे भी हार गए।
बुद्ध शून्यवत रहे शांत रहे। उन्होंने उपेक्षा रखी।
उपेक्षा बौद्धों का अपना शब्द है। उपेक्षा का अर्थ है, उन्होंने कोई भी अपेक्षा न रखी। ये स्त्रिया यहां नहीं होनी चाहिए, यह भी अपेक्षा न रखी। क्योंकि यह भी अपेक्षा हो कि ये स्त्रियां यहां नहीं होनी चाहिए, तो फिर उपेक्षा नहीं रह जाती। फिर तुम्हारे मन में संबंध जुड़ गया। फिर तुमने एक संबंध बना लिया कि नहीं होना था। जो नहीं होना था। जो वह हुआ। तो धीरे—धीरे रोष पैदा होगा, क्रोध पैदा होगा, नाराजगी पैदा होगी कि स्त्रियां यह क्यों कर रही हैं। उपेक्षा रखी, तटस्थ रहे। जैसे कोई किनारे पर बैठा नदी के, नदी बहती है, देखता रहता है। नदी बहे, नदी से क्या लेना—देना। तुम रास्ते के किनारे खड़े, राह चलती रहती है, लोग आते—जाते—अच्छे, बुरे, सुंदर, कुरूप—तुम्हें क्या लेना—देना, तुम राह के किनारे खड़े। ऐसे बुद्ध तटस्थ रहे। उन्होंने उपेक्षा रखी।
और अंतत: उन्होंने जितनी बात कही वह इतनी सी थी उन्होंने कहा— हटो भी पागलो! क्या देखकर इतना प्रयत्न इतना श्रम कर रही हो।
बुद्ध ने अनूठी बात कही, कहा कि पागलो, हटो भी। दया की, पागल कहा। नाराज न हुए, न मोहे। अनुकंपा जतलायी। अनुकंपा के सामने कामवासना एकदम हार जाती है। अनुकंपा जतलायी, कहा, हटो पागलो, क्या देखकर इतनी मेहनत कर रही हो? यहां कुछ भी तो नहीं है। यह हड्डी, मांस, मज्जा सब सूख गयी है। यहां भीतर भी कोई नहीं है। तुम किसके लिए यह नाच—गान आयोजित कर रही हो? किसको रिझाना चाहती हो? किसको रिझाती, वह तो जा चुका। क्या तुम्हें रागरहितो से कभी तुम्हारी कोई पहचान नहीं हुई? क्या तुम्हारे जीवन में कभी ऐसा मौका नहीं आया कि तुमने कोई वीतराग देखा हो? तो तुम देख लो। वीतराग पर तुम्हारा कोई प्रयत्न काम न आएगा।
तथागत तो रागरहित हैं राग आदि प्रहीन हैं किस कारण तुम उन्हें अपने वश में करोगी? 

बचे ही नहीं हैं, तो वश में क्या करोगी? तुम्हारी मर्जी, तुम्हें उछल—कूद करनी हो, तुम अपना करती रहो। लेकिन इतना तुम्हें कह दूं कि तुम नाहक का श्रम कर रही हो, थकोगी, परेशान होओगी, अपने घर जाओ, विश्राम करो। ऐसा बुद्ध ने कहा। उस समय उन्होंने ये पहले दो पद कहे। अब तुम्हें पदों का अर्थ साफ हो जाएगा। ये गाथाएं कहीं—

      युस्स जित नावजीयति जितमस्स नो याति कोचि लोके ।
      ने बुद्धमनंतगोचरं अपदं केन पदेन नेस्सथ ।।

'जिसका जीता कोई अनजीता नहीं कर सकता, और जिसके जीते को कोई दूसरा नहीं पहुंच सकता, उस अनंतद्रष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे?'
कई बातें समझने जैसी हैं।
बुद्ध कहते हैं, 'जिसका जीता कोई अनजीता नहीं कर सकता। '
जो तुमने संयम से जीता हो, उसको तो अनजीता किया जा सकता है। संयमी का संयम तोड़ा जा सकता है। लेकिन जिसने बोधपूर्वक जीता हो, उसको फिर तोड़ा नहीं जा सकता।
जिसने जबरदस्ती अपने जीवन में आचरण उठा लिया हो, बना लिया हो, आरोपित कर लिया हो, उसके आचरण को तो तोड़ा जा सकता है। क्योंकि भीतर तो अभी भी वासना मौजूद होगी। बीच में एक आचरण की पर्त है, उसमें छेद भर करने की जरूरत है। भीतर जो सोया है, दबा पड़ा है, उसे उठाया जा सकता है। लेकिन बुद्ध की तो सारी प्रक्रिया यही है कि दबाना मत, दमन मत करना, जागकर देखना, होश से देखना। और धीरे — धीरे होश में ही जल जाए वासना, तो जो शेष रह जाए उस निर्वासना में ही भरोसा है।
'जिसका जीता कोई अनजीता नहीं कर सकता। '
फिर उसको जैसे अनजीता करोगे? जिसकी वासना दग्ध हो गयी बोध से, होश से, ध्यान से, उसको कैसे अनजीता करोगे?

      यस्स जित नावजीयति जितमस्स नो याति कोचि लोके ।

'और जिसके जीते को कोई दूसरा पहुंच ही नहीं सकता। '
बोध के उस शिखर पर तो केवल बुद्ध ही पहुंच सकते हैं। तो ये स्त्रियां जो इनके आसपास नाच रही हैं, ये तो वहां पहुंच न सकेंगी उस शिखर पूर। जहा तुम पहुंच नहीं सकते, वहां से किसी को डिगाओगे कैसे? कोई बुद्ध ही पहुंच सकता है उस शिखर पर। और बुद्ध तो किसी बुद्ध को क्यों डिगाना चाहेगा! बुद्ध वहां पहुंच नहीं सकते। तो तुम खाई—खंदक में शोरगुल मचाते रहो, उससे कुछ फर्क न पड़ेगा।  
'उस अनंतद्रष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे?'
और उन्होंने कहा कि पागलो, यह भी समझो कि तुम अगर मुझे ले जाना चाहो वासना में, संसार में, मेरे पैर टूट गए हैं—अपद हो गया हूं।
कभी तुमने खयाल किया, तुम्हारी वासना ही तुम्हें चला रही है, वही तुम्हारा पैर है। इसीलिए तो परसों मैंने अंगुलीमाल की कथा में कहा कि बुद्ध ने कहा, पागल, मेरा चलना तो बहुत पहले रुक गया। तू ही चल रहा है, तू रुक। और अंगुलीमाल बैठा हुआ धार दे रहा था, चल नहीं रहा था, और बुद्ध चल रहे थे।

      तं बुद्धमनंतगोचरं अपदं केन पदेन नेस्मथ ।

तो बुद्ध ने जब यह कहा कि मुझ न चलते हुए को तू सोचता है कि चल रहा हूं और तू अपने को बैठा हुआ मान रहा है जो कि तू चल ही रहा है, तो उनका अर्थ है—वासना में ही पैर हैं तुम्हारे। आत्मा तो कहीं जाती ही नहीं। आत्मा तो अपने घर में ही है सदा। भीतर ही विराजी है। उसके कोई पैर ही नहीं कि कहीं चली जाए। वासना जाती है। और वासना कभी घर नहीं आती। वासना आवारा है। वह घूमती ही रहती है, चक्कर ही मारती रहती है, वह कभी घर नहीं लौटती। और आत्मा सदा भर में विराजमान है, वह कभी घर से बाहर जाती नहीं।
तो जब तक तुम वासना के प्रभाव में रहोगे, तुम्हें भीतर जो पड़ा है, उसका पता न चलेगा। तुम वासना के कंधों पर बैठकर भटकते रहोगे। वासना में ही तुम्हारे पैर है। बुद्ध तो अपद कहते अपने को कि मेरे तो पैर टूट गए, पागलो, जरा देखो भी तो। अब तो मुझे ले जाना भी चाहो तो कैसे? अब चलने वाला बचा नहीं है। अब चलने की वृत्ति ही जा चुकी है। अब मुझे न कुछ पाना है, न खोजना है। तो मुझे तुम प्रलोभित कैसे करोगे?
' अपने जाल में सबको फंसाने वाली तृष्णा जिसे नहीं डिगा सकती, उस अनंतद्रष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे?'
तृष्णा का जाल था, तब तक तुम अगर आयी होतीं तो जरूर मैं प्रभावित होता। लेकिन अब तो तृष्णा का जाल न रहा, अब तो मैंने भरी आंखों  देख लिया कि संसार में कुछ भी नहीं है। अब तो संसार में कुछ भी नहीं है, यह मेरी दृष्टि हो गयी है। इसलिए वे कहते हैं, उस अनंतद्रष्टा को। अब तो मैं अनतरूपेण दृष्टि को उपलब्ध हुआ हूं, अब तो मेरी आंखें समग्र को देख रही हैं, आर—पार देख रही हैं, अब मेरा रोध पारदर्शी हुआ है।

      तं बुद्धमनतगोचरं....... ।

और जो सबको देखने लगा है, और जिसकी आंख में अब जरा भी तिनका नहीं रहा मूर्च्छा और प्रमाद का, जिसकी सारी सीमाएं गिर गयी हैं देखने की, असीम जिसकी देखने की क्षमता हो गयी है, मुझ देखने वाले को तुम कहां ले जाओगे? अंधों को तुम ले जाती रही हो, अंधों को तुम्हारी जरूरत है, क्योंकि वे चाहते हैं किसी का सहारा मिल जाए। मेरी आंख खुल गयी, अब तुम मुझे न ले जा सकोगी। अब तुम्हें उछल—कूद करनी हो, तुम करो। ऐसी परिस्थिति में बुद्ध ने ये गाथाएं कही थीं।  
'जो धीर ध्यान में लगे हैं, परम शांत निर्वाण में रत हैं, उन स्मृतिवान संबुद्धों की स्पृहा देवता भी करते हैं। '
तीसरा सूत्र!

      ये ज्ञानपसुता धीरा नेक्खम्‍मूपसमे रता ।
      देवापि तेसं पिह्यंति संबुद्धानं सतीमतं ।।

'जो धीर ध्यान में लगे हैं..। '
ज्ञानी बुद्ध उसी को कहते हैं जो ध्यान में लगा है। वही है धीरपुरुष, जो ध्यान में लगा है। जो जान का अर्जन कर रहा है, वह जानी नहीं है, विद्वान होगा। जो ध्यान का अर्जन कर रहा है, वही ज्ञानी है, वही धीर है। क्योंकि ज्ञान तो बासा है और उधार है। ध्यान से अपनी अनुभूति संगृहीत होती है। जो ध्यान में लगे, वे धीर।
'जो परम शात निर्वाण में रत हैं। '
और निर्वाण का अर्थ है, बुद्ध की भाषा में, परम शाति की खोज। जहा कोई तरंग न रह जाए। जहा चित्त की सारी तरंगें शात हो जाएं, झील मौन हो जाए। जहा कोई लहर न आए, न जाए। तृष्णा न हो, वासना न हो, कामना न हो, वहीं आत्मा है।  'ऐसे शांत निर्वाण में रत जो धीर हैं, ध्यान में जो लगे हैं, उन स्मृतिवान संबुद्धों की स्पृहा देवता भी करते हैं। '
ऐसा जो स्वयं के बोध को उपलब्ध, स्मृतिवान, संबुद्ध हो गया है, जाग गया है, देवता भी उसकी स्पृहा करते हैं। देवता भी वैसा हो जाना चाहते हैं। देवताओं के मन में भी ईर्ष्या जगती है।
इस गाथा को जब कहा, उस परिस्थिति को समझ लेना जरूरी है—

बुद्ध ने श्रावस्ती में तीन मास का वर्षा— वास पूरा किया। उस वर्षा— वास में वे सतत समाधि में लीन रहे। बाहर निकले नहीं। लोगों से बोले नहीं। नियमित रूप से जो उपदेश देते थे वह भी न दिया। तीन माह अपने में ही डूबे रहे।
बौद्ध—ग्रंथ कहते हैं, तीन माह वह पृथ्वी पर न रहे। बड़ी मीठी बात! तीन माह वह कहीं और रहे। किसी और लोक में विचरे।
कथाएं अदभुत हैं हमारे पास। उनका अर्थ समझ में आने लगे तो उनमें से ऐसे मणि—माणिक्य झरने लगते हैं! कहा गए बुद्ध? तीन माह कैसे लीन हो गए? प्रश्न उठने स्वाभाविक थे भिक्षु —संघ में। क्योंकि बुद्ध तो परमज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं, अब समाधि में रहने का, आंख बंद करके बैठे रहने का तीन महीने तक, बाहर न आने का क्या कारण होगा? हजार—हजार प्रश्न उठे होंगे, जिज्ञासाएं जगी होंगी, अफवाहें उड़ी होंगी।
जब बुद्ध लौटे तो उन्होंने कहा मैं स्वर्ग गया था। क्योंकि देवताओं की बड़ी आकांक्षा थी कि उन्हें भी उपदेश दूं। वे मेरे पीछे पड़े थे वे कहते थे मनुष्यों— मनुष्यों को ही समझाते रहोगे? हम पर दया कब होगी? इस बात पर तो लोगों को शायद भरोसा भी न आता लेकिन भरोसा करना पड़ा। क्योंकि तीन महीने बाद जब वे जिस भवन में तीन महीने तक मौन रहे थे उससे बाहर उतरे तो लोग चकित हो गए।
घटना ऐसी घटी कि न— मालूम कितने देवता भी उस दिन स्वागत करने के लिए खड़े थे। न— मालूम कितने मनुष्य और न— मालूम कितने देवता। देवताओं और मनुष्यों का अदभुत सन्निपात हुआ। संख्यातीत था सन्निपात। देवता मनुष्यों को देखने लगे और मनुष्य देवताओं को देखने लगे। मनुष्यों को तो बिलकुल भरोसा ही न आया कि ये देवता यहां क्या कर रहे हैं? ये यहां कैसे आए?

बुद्ध की बात पर तो वे शायद भरोसा भी न करते, लेकिन जब ये अनंत— अनंत देवता स्वागत के लिए खड़े थे, तो उन्हें मानना ही पड़ा कि बुद्ध कहते हैं वे तीन माह तक स्वर्ग में रहे, वहां देवताओं को समझाया, जरूर समझाया होगा, इतने भक्त हो गए पैदा! वे सब खड़े हैं द्वार पर स्वागत करने के लिए।
उस दिन भगवान की शोभा अवर्णनीय थी। जैसे उनके चारों ओर इंद्रधनुष घिरा था। सातो रंग उनकी देह से फूट रहे थे। सभी रंगों की अभिव्यक्ति हो रही थी। भगवान के प्रमुख शिष्य सारिपुत्र ने उनका स्वागत करते हुए कहा भगवान न तो ऐसा कभी देखा था और न सुना था। उसे बहुत दिन हो गए भगवान के साथ रहते लेकिन ऐसा कभी उसने सुना भी नहीं था देखा भी नहीं था कि देवता और भगवान के लिए आतुर होकर खड़े हैं स्वागत में! भंते 1 मनुष्य ही नहीं देवता भी आपको चाहते हैं। ऐसी उसने जिज्ञासा की।
तब भगवान ने कहा संबोधि परम घटना है। उसके पार कुछ भी नहीं है। स्वभावत: देवता भी उसके लिए तरसते हैं लालायित होते हैं।
और तब उन्होंने यह गाथा कही—

      ये ज्ञानपसुत्ती धीरा नेक्खम्‍मूपसमे रता ।
      देवापि तेसं पिह्यंति संबुद्धानं सतीमतं ।।

'जो धीर ध्यान में लगे हैं, परम शांत निर्वाण में रत हैं, उन स्मृतिवान संबुद्धों की स्पृहा देवता भी करते हैं। '
अब इस कथा को समझने की कोशिश करें।
देवता शब्द से बहुत परेशान मत हो जाना। अकेला भारत ऐसा देश है, जिसने ध्यान की गहरी गहराइयों में प्रवेश किया है। या ध्यान की ऊंची ऊंचाइयों में गया है। अकेला भारत ऐसा देश है, जिसको यह बात साफ हो गयी है कि आदमी सबसे ऊपर नहीं है। मनुष्य से ऊपर भी चैतन्य की दशाएं हैं, देवता का इतना ही अर्थ होता है। जैसे मनुष्य के नीचे पशु—पक्षी हैं, ऐसे मनुष्य के ऊपर देवता हैं, देवताओं की कोटियां हैं।
और यह बात तर्कयुक्त मालूम पड़ती है, क्योंकि मनुष्य अंत हो भी क्यों? आखिर मनुष्य पर सारा विकास रुके भी क्यों? मनुष्य मध्य में है। पीछे बड़ी यात्रा है और आगे बड़ी यात्रा है। स्वभावत: जो पीछे हो गया, वह तो हमें दिखायी पड़ता है, क्योंकि वह हो चुका। जो अभी आगे होने को है, वह हमें दिखायी नहीं पड़ता; क्योंकि अभी हुआ नहीं है तो दिखायी कैसे पड़े? इसलिए देवता दिखायी नहीं पड़ते हैं।
देवता का अर्थ है, हमारी संभावनाएं। देवता का अर्थ है, हमारे चित्त की ऊंची तरंगें। हम जिस तरंग पर जी रहे हैं, इससे भी ऊंची तरंगें चित्त की हैं। कभी—कभी ऐसा होता है, कभी—कभी किसी आदमी में देवत्व के लक्षण होते हैं। कभी किसी आदमी को देखकर तुम्हें लगता है कि मन कह उठता है, देवता है। क्यों कह उठता है मन? क्योंकि आदमी जैसा आदमी है, हड्डी—मास—मज्जा है! लेकिन फिर भी लगता है, चेतना किसी और तल पर है। कहीं और है।
देवता का अर्थ समझ लेना। देवता का अर्थ होता है, मनुष्य से ऊपर शुद्ध चैतन्य की और तरंगें।
लेकिन एक और अनूठी बात भारत को खोज में आयी है। और वह अनूठी बात यह है कि देवता भी अंतिम अवस्था नहीं है। अंतिम अवस्था बुद्धत्व है। और बुद्धत्व को पाने के लिए मनुष्य चौराहा है। मनुष्य के नीचे पशु—पक्षी हैं, उनको भी अगर बुद्ध होना हो तो मनुष्य तक आना पड़ेगा। मनुष्य चौराहा है। और मनुष्य के ऊपर देवता हैं, देवताओं की अनेक कोटियां हैं। लेकिन उनको भी अगर बुद्ध होना हो, उनको भी मनुष्य तक आना पड़ेगा।
ऐसा ही समझो कि जब भी तुम्हें राह बदलनी हो तो चौराहे पर आना पड़ता है। तुम चले गए स्टेशन की तरफ, तुम आगे निकल गए चौराहे से। लेकिन अब तुम्हें राह बदलनी है, तुम्हें नदी की तरफ जाना है, तो तुम वापस चौराहे पर लौटते हो, क्योंकि चौराहे ही से रास्ता नदी की तरफ जाता है।
मनुष्य चौराहा है। इस सारे अस्तित्व का चौराहा है मनुष्य। उससे पीछे की तरफ भी रास्ते जाते हैं, आगे की तरफ भी रास्ते जाते हैं। और अतिक्रमण की तरफ भी रास्ते जाते हैं। सबसे ऊपर तो अतिक्रमण की दशा है—बुद्धत्व।
बुद्धत्व का अर्थ है, मन समाप्त ही हो गया। देवता का अर्थ है, मन की तरंगें और सुंदर और प्रीतिकर हो गयीं। मनुष्य की तरंगें उतनी सुंदर नहीं, उतनी प्रीतिकर नहीं। देवता की तरंगें प्रीतिकर हैं, सुंदर हैं। नारकीय का अर्थ है, मनुष्य से भी नीचे गिर गयीं तरंगें और दुख हो गया। इसलिए हम कहते हैं, नरक में दुख है, स्वर्ग में सुख है। सुख का मतलब इतना ही होता है कि तुम्हारी तरंगें सुख को पकड़ने में ज्‍यादा समर्थ हो गयीं। दुख का अर्थ इतना ही होता है कि तुम्हारी तरंगें दुख को पकड़ने में ज्यादा समर्थ हो गयीं।
तुमने कभी खयाल किया, दो आदमी एक ही जगह बैठे हों, एक सुखी हो सकता है, एक दुखी हो सकता है। दो आदमी एक ही अवस्था में हों, एक सुखी हो सकता है, एक दुखी हो सकता है। क्या कारण होगा? तुम्हारा चित्त क्या पकड़ता है, इस पर सब निर्भर है।
अल्डुअस हक्सले पश्चिम का एक बड़ा विचारक था। उसने जीवनभर बड़ी अनूठी किताबें इकट्ठी कीं। बडा संग्रह था उसके पास किताबों का। और अनूठे— अनूठे ग्रंथ इकट्ठे किए थे। और एक दिन अचानक आग लग गयी। वह जीवनभर उन्हीं को दृ कट्टा करता रहा था।
उसकी पत्नी लारा हक्सले ने तो समझा कि वह एकदम गिर ही पडेगा, उसका हार्ट फेल हो जाएगा। यह तो उसका प्राण था। किताब पर दीमक न लग जाए, किताब पर सीलन न आ जाए, ऐसी फिकर करता था। चौबीस घंटे किताबों में ही रत था। उसकी सारी की सारी संपदा जीवन की जलकर राख हो गयी। पत्नी तो धबडायी। पत्नी को किताबों में कुछ लेना—देना भी नहीं था, मगर यह पति को क्या ओ। जाएगा, कहा नहीं जा 'सकता! वह उसके बगल में ही खड़ी है। और लपटें उठती गयी, बहुत बुझाने की कोशिश की गयी, लेकिन सब मकान राख हो गया।
लेकिन लारा बहुत चौंकी, क्योंकि हक्सले चुपचाप खड़ा देख रहा है। दुखी भी नहीं मालूम होता, बेचैन भी नहीं मालूम होता, बल्कि एक तरह की प्रसन्नता उसके गहरे पर झलक रही है। उसने कहा कि मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा, आप और प्रसन्‍न ! कभी कोई एक किताब बच्चा फाड़ दे, या लकीर खींच देता था तो आप ऐसे नाराज हो जाते थे। अगर एक किताब खो जाती थी तो आप दीवाने हो जाते थे, रात सो नहीं सकते थे। अगर कोई मित्र किताब मांगता था तो आप देते नहीं थे, डरते थे कि कहीं लौटाए, न लौटाए। मित्रता चाहे खो जाए, किताब देने को राजी न थे। और आज सब जलकर राख हो गया है, आप प्रसन्नता से खड़े हैं?
हक्सले ने कहा, मैं भी चौंककर देख रहा हूं और बड़े आश्चर्य की बात है——तुम्हीं चकित नहीं हो, मैं भी चकित हूं —ऐसा लग रहा है कि मन से एक बोझ उतर गया। हल्का हो गया। इतना हल्का मैं कभी भी नहीं था। प्रभु की कृपा! यह  बोझ गया। यह बोझ उतर गया। यह मेरा मोह था, यह भी गया। अच्छा ही हुआ। यह अचानक लगी आग सौभाग्य है।
इसको कहेंगे, देवता। इसके मन की तरंग दुख में से भी सुख को पकड़ लेती है। मुल्ला नसरुद्दीन को लाटरी मिल गयी। लाख रुपए मिल गए। भागा हुआ घर आया। और पत्नी को कहा, खुशी मनाओ, नाचो—गाओ। पास—पड़ोस की स्त्रियों से बैठी पत्नी उसी की निंदा कर रही थी। पत्नियां और करें भी क्या! और यह बीच में आ गया और उसने लाकर लाख रुपए एकदम बीच में रख दिए और कहा, देखो, लाटरी मिल गयी! पत्नी ने कहा, लाटरी छोड़ो, पहले यह बताओ कि तुमने जो टिकिट खरीदी, वह रुपया कहां से पाया? क्योंकि वह सब नगद रखवा लेती है तनख्वाह पर। यह रुपया आया कहां से?
यह एक नारकीय चित्त है। लाख रुपए आ गए, उसकी खुशी नहीं है। उसने कहा, यह छोड़ो लाटरी—माटरी, पहले यह साफ करो कि रुपया तुमने पाया कहां से जिससे टिकिट खरीदी?
आदमी आदमी में फर्क हैं। तुम भी अपने भीतर जांचना। और ऐसा भी नहीं है कि तुम सदा एक ही अवस्था में होते हो। कभी—कभी तुम नारकीय अवस्था में होते हो, कभी—कभी स्वर्गीय अवस्था में होते हो। किन्हीं—किन्हीं क्षणों में तुम भी बड़े उदार होते हो, कि सब दे डालो। और किन्हीं क्षणों में बड़े कृपण हो जाते हो। किन्हीं—किन्हीं क्षणों में तुम भी जीवन में प्रकाश देख पाते हो, किन्हीं—किन्हीं क्षणों में सब अंधेरी रात हो जाती है। तुम भी नकारात्मक और विधायक में डोलते रहते हो। कभी सुबह अचानक तुम पाते हो, कितना सब हल्का! और किसी दिन अचानक पाते हो, सब बोझ, भारी। मर ही जाते तो अच्छा था, क्या सार! कभी असार में सार दिखता है और कभी सार में भी सार नहीं दिखता।
तो ऐसा मत सोचना कि देवता कहीं आकाश में रहते हैं और नारकीय कहीं दूर पाताल में रहते हैं। तुम भी कभी—कभी देवता हो जाते हो और कभी—कभी नारकीय हो जाते हो। कभी—कभी पशु हो जाते हो और कभी—कभी परमात्मा हो जाते हो। क्षणभर को कभी तुम भी झलक जाते हो प्रकाश से। तुम भी भर जाते हो रस से। उन्हीं क्षणों में तुम प्यारे आदमी हो जाते हो। उन्हीं क्षणों में लोग तुम्हें प्रेम करने लगते हैं। उन्हीं क्षणों में लोग तुम्हारे मित्र हो जाते हैं। लेकिन वे क्षण टिकते नहीं, खो—खो जाते हैं। देवता का अर्थ है, जिसने उन ऊंचाइयों पर रहना थिर कर लिया।
लेकिन देवता भी आखिरी अवस्था नहीं है। देवता को सुख तो ज्यादा है, लेकिन जहा सुख है, वहां दुख की संभावना सदा मौजूद रहती है। जहां दिन है, वहा रात होगी। विपरीत बना रहेगा। बुद्धत्व का अर्थ है, न दिन रहा, न रात। बुद्ध की अवस्था दोनों के पार है, द्वंद्व के पार है।
इसलिए जब कभी कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, तो उसमें सभी उत्सुक होते हैं। उसमें पशु —पक्षी भी उत्सुक हो जाते हैं, उसमें देवता भी उत्सुक हो जाते हैं, उसमें मनुष्य भी उत्सुक हो जाते हैं। उसमें बुरे से बुरे आदमी भी उत्सुक होते हैं, उसमें भले से भले आदमी भी उत्सुक होते हैं। जिसमें भले ही भले आदमी उत्सुक हों, वह महात्मा है। जिसमें बुरे ही बुरे आदमी उत्सुक हों, वह असंत। और जिसमें भले और बुरे दोनों तरह के आदमी उत्सुक हो जाएं, वह बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति। क्योंकि बुरे को भी उसमें से द्वार दिखायी पड़ता है, भले को भी द्वार दिखायी पड़ता है। इसलिए जब भी कहीं कोई बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति होगा, तुम उसके पास बूरे से बुरे आदमी पाओगे, भले से भले आदमी पाओगे। उसके पास एक समागम होगा। मनुष्यों का, पशुओं का, देवताओं का एक सन्निपात होगा।
अगर तुम कहीं जाओ और अच्छे—अच्छे आदमी पाओ तो समझना कि महात्मा है। अगर बुरे ही बुरे आदमी पाओ तो समझना कि कोई अपराधी। जहां तुम्हें दोनों तरह के लोग मिल जाएं, वहा तुम समझना कि कोई बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ है। क्योंकि वहा दोनों की आतुरता है। बुरा भी पार होना चाहता है और भला भी पार होना चाहता है। बुरा बुरे से थक गया है, भला भले से थक गया है। बुरा दुख से थक गया है, भला सुख से थक गया है। वहां गरीब को भी पा लोगे, अमीर को भी पा लोगे। वहा अपढ़ को भी पा लोगे, पढ़े हुए को भी पा लोगे। वहां तुम सब तरह के द्वंद्व एक साथ पा लोगे। जहा सब द्वंद्व एक साथ उत्सुक हो जाते हैं, उसका अर्थ है, वहा से कोई संक्रमण है। वहां से कोई संक्रांति घट सकती है।
यह कथा मीठी है। इस घड़ी में बुद्ध ने ये सूत्र कहे—
'जो धीर ध्यान में लगे हैं, परम शांति में रत हैं, उन स्मृतिवान संबुद्धों की स्पृहा देवता भी करते हैं। '
'मनुष्य का जन्म पाना दुर्लभ है; मनुष्य का जीवित रहना दुर्लभ है; सद्धर्म का श्रवण करना दुर्लभ है, और बुद्धों का उत्पन्न होना दुर्लभ है। '

      किच्छो मनुस्सपटिलाभो किच्छ मच्चान जीवितं ।
      किच्छं सद्धम्मसवणं किच्छो बुद्धानं उप्पादो ।।

बुद्ध कहते हैं, पहले तो मनुष्य का जन्म पाना दुर्लभ है। क्योंकि मनुष्य तो बहुत थोड़े हैं, पशु—पक्षी, पत्थर कितने हैं! अनंत! तो पहले तो इतनी सारी योनियों को खोजते —खोजते कोई आदमी मनुष्य हो पाता है।
'मनुष्य का जन्म पाना दुर्लभ है। '
और जन्म भी पाकर क्या होता है, मनुष्य की तरह जीवित रहना और भी मुश्किल है। बहुत से लोग मनुष्य की तरह जन्म पा लिए हैं, लेकिन मनुष्य हैं नहीं। शकल —सूरत से मनुष्य हैं, रंग—ढंग से मनुष्य हैं, भीतर अभी भी पशुता भरी है। 
भीतर अभी भी पशु के ढंग से ही जी रहे हैं। भीतर अभी भी पाशविक आकांक्षाएं भरी हैं।
तो पहले तो मनुष्य का जन्म पाना दुर्लभ, फिर मनुष्य होकर जीना और दुर्लभ है। फिर अगर मनुष्य होकर जीना भी आ जाए, तो सद्धर्म का श्रवण करना दुर्लभ है। क्योंकि जिन लोगों को थोड़ी सी मनुष्यता का रस आ जाता है, उन्हें बड़ा अहंकार जगता है। वे अपने को कुछ समझने लगते हैं। कोई कहता है, मैं ज्ञानी हूं; कोई कहता है, मैं त्यागी हूं; कोई कहता है, मैं यह हूं; कोई कहता है, मैं वह हूं; देखो मैंने कितना शुभ किया, कितनी सेवा की। तो अहंकार पकड़ता है। और जब अहंकार पकड़ता है, तो श्रवण मुश्किल हो जाता है।
फिर किसी के चरणों में जाना, सद्धर्म को सुनना, बहुत मुश्किल हो जाता है। तो फिर सद्धर्म का श्रवण करना दुर्लभ है। और अगर श्रवण की क्षमता भी हो, तैयारी भी हो, तो बुद्धपुरुष को पाना बहुत मुश्किल है, कि जिसको सुनकर कुछ हो जाए। जिसको मात्र सुनने से कुछ हो जाए। श्रवणमात्रेण।
'और बुद्धों का उत्पन्न होना अति दुर्लभ है। '
'सभी पापों का न करना, पुण्यों का संचय करना और अपने चित्त का शोधन करते रहना—यही बुद्धों का शासन है।'

      सबपापस्स अकरण कुसत्नस्स उपसंपदा ।
      सच्चित्तपरियोदपन एतं बुद्धान सासने ।।

बुद्ध ने कहा, 'पाप का न करना, पुण्य का करना और अपने चित्त का शोधन करते रहना—ये तीन बातें—यही बुद्धों का शासन है।'
जो तुम्हें बुरा लगे, उस तरफ न जाना। जो तुम्हें ठीक लगे, उस तरफ जीवन की धारा को बहाना। और इतने पर ही रुक नहीं जाना, चित्त को रोज—रोज शोधन करते रहना—ध्यान से। क्योंकि आज जो बुरा लग रहा है और आज जो भला लग रहा है, इस पर ही अंत नहीं है। चित्त—शोधन होता जाए तो तुम चकित होओगे—कल जो भला लगा था, वह भी बुरा लगने लगा। और नए भले के दर्शन हुए। चित्त का शोधन होता जाए तो तुम रोज—रोज पाओगे कि जिसको तुमने कल मंजिल समझ लिया था, वह भी पड़ाव था, क्योंकि और आगे के शिखर दिखायी पड़ने लगे। चित्त साफ होने लगता है, तो रोज—रोज गति होने लगती है।
तो बुद्ध कहते हैं, बुरे को मत करना। जो तुम्हें साफ लग जाए कि बुरा है, उसे मत करना। क्योंकि बहुत ऐसे लोग हैं, उन्हें लगता भी है कि बुरा है, फिर भी किसी अंधी आदतवश किए चले जाते हैं। आलस्य के कारण, पुराने अभ्यास के कारण किए चले जाते हैं। वह मत करना। आदत को तोड़ना। और, जो ठीक लगे, वह करना। बहुत ऐसे लोग हैं, जानते हैं, ठीक क्या है, एहसास होता है कि ठीक क्या है, कभी—कभी साफ झलक मिल जाती है कि ठीक क्या है, फिर भी नहीं करते। क्योंकि कभी किया नहीं, इसलिए अभ्यास नहीं है। तो यह बुरे और भले के बीच खयाल। और जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, अपने चित्त का शोधन—

      सच्चित्तपरियोदपनं……

अपने चित्त को रोज शोधते रहना। क्योंकि इसी चित्त से तुम्हें पता चलेगा कि और भला क्या है, और भला क्या है। यहां शिखर के ऊपर शिखर हैं, द्वार के बाद द्वार हैं, रहस्यों के बाद रहस्य हैं। तुम्हारे पास जितना शुद्ध चित्त होगा, उतनी ही तुम्हारी दृष्टि साफ होती जाएगी, और उसी दृष्टि को बुद्ध ने कहा कि मेरा शासन मानना। यही मेरा उपदेश है।
'तितिक्षा और क्षांति परम तप हैं। बुद्ध निर्वाण को परम कहते हैं। दूसरों का घात करने वाला प्रवजित नहीं होता है और दूसरों को सताने वाला श्रमण नहीं होता है। '

      खंती परमं तपो तितिक्सा निब्बानं परमं बदति बुद्धा ।
      नहि पब्बजितो परूपघाती समणो होति परं विहेठयतो ।।

'तितिक्षा और क्षाति परम तप हैं। '
जो हो, उसे तथाता भाव से स्वीकार कर लेना। करने की बात पहले बतायी. बुरे को करना मत, भले को करना और चित्त का शोधन करना। अब कहते हैं, जो तुम पर हों—क्योंकि इतने से ही तो खतम नहीं होता। तुमने क्रोध नहीं किया यह तो ठीक है, लेकिन कोई आदमी ने तुम पर क्रोध किया, फिर क्या करोगे? तो कोई तुम क्रोध करे, कोई तुम्हें गाली दे—तितिक्षा और क्षांति, तो सहज भाव से स्वीकार कर लेना कि उसके भीतर क्रोध उठा, इसलिए उसने गाली दी। बेचारा! नाहक उसने कष्ट पाया। स्वीकार कर लेना। इसको तुम अपने भीतर काटा मत बनने देना। ऐसा धैर्य, ऐसी क्षांति और ऐसी तितिक्षा।
'बुद्ध निर्वाण को परम कहते हैं। '
बुद्ध कहते हैं, होने योग्य तो एक ही चीज है, निर्वाण। बाकी जो होता है, उसको तो स्वीकार कर लेना—किसी ने गाली दी, किसी ने प्रशंसा की, किसी ने कहा आप बड़े सुंदर, किसी ने कहा आप बड़े कुरूप—यह सब कुछ होने जैसा नहीं, इसका कोई मूल्य भी नहीं है। इसको चुपचाप स्वीकार कर लेना कि ठीक, जैसी आपकी मर्जी; भले लगते, भले; बुरे लगते, बुरे। इस सब पर जरा भी श्रम मत लगाना और इस सब पर जरा भी दृष्टि मत देना। क्योंकि जो होने जैसा है, जो होना चाहिए, वह 
तो निर्वाण है। उसकी दिशा में अपनी सारी शक्ति को लगा देना।
'दूसरों का घात करने वाला प्रवजित नहीं होता है।'
और अक्सर लोग दूसरों का घात करने में अपनी शक्ति लगा रहे हैं। कोई किसी को मार डालना चाहता है, कोई किसी को हराना चाहता है, कोई किसी को पद से गिराना चाहता है, कोई किसी को पीछे कर देना चाहता है—दूसरों में उत्सुक है। अपने में उनकी कोई उत्सुकता ही नहीं है।
'दूसरे का घात करने वाला प्रवजित नहीं होता। '
प्रवज्या का अर्थ है, संन्यास। संन्यासी वही है, जो कहता है, मैं अपने निर्वाण की खोज कर रहा हूं। मेरे निर्वाण का किसी दूसरे से कोई लेना—देना नहीं है, कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। तुम जिस पद पर हो, मजे से रहो; तुम्हारे पास जो है, तुम मजे से भोगो; तुम जैसे हो, ठीक। यह तुम जानो। इसमें मेरा कुछ लेना —देना नहीं है। संन्यासी का अर्थ है, जिसकी दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं। जो किसी तरह की ईर्ष्या में नहीं है।
लेकिन अक्सर हमारी हालतें उलटी हैं। हम दूसरे को मिटाने में अगर खुद भी मिट जाएं तो कोई फिकर नहीं।
मैंने सुना है, एक आदमी ने बड़े दिन भक्ति की, परमात्मा प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा, मांग ले, क्या मांगता है? लेकिन एक बात खयाल रखना, जो तुझे मिलेगा, तेरे पड़ोसियों को दुगुना मिलेगा। उस आदमी की छाती बैठ गयी। उसने कहा, यह भी कोई वरदान हुआ! अरे, अभिशाप कहो इसको! तो फिर मैं मांगता कैसे? भगवान ने कहा, वह तू जान। लेकिन इतनी तेरी क्षमता होनी ही चाहिए, तो ही तू धार्मिक है। अन्यथा धार्मिक ही नहीं। यह मेरा वरदान कि जो तू मांगेगा, मिलेगा तुझे, दुगुना पड़ोसी को।
उसने किसी वकील से सलाह ली होगी कि करना क्या, इसमें से निकलना कैसे बाहर? वकील ने कहा, इसमें क्या रखा है! अरे, यह तो बाएं हाथ का खेल है। तू ऐसा कर, पहले देख तो कि यह होता भी कि नहीं। तू मांग कि सात मंजिल मकान बन जाए। मांगा, बन गया उसका सात मंजिल, लेकिन दोनों तरफ चौदह—चौदह मंजिल मकान पड़ोसियों के खड़े हो गए। पूरा गांव चौदह मंजिल का हो गया। एक वही गरीब रह गया—सात मंजिल का।
तो वकील ने कहा, अब ठीक। अब मांग कि मेरे घर के सामने एक कुआ खुद जाए बड़ा कुआ। उसके घर के सामने एक कुआ खुद गया, पड़ोसियों के घर के सामने दो —दो कुएं खुद गए। उसने कहा कि अब मांग कि मेरी एक आंख फूट जाए। उसकी एक आंख फूट गयी, पड़ोसियों की दोनों आंखें फूट गयीं। वकील बड़ा होशियार रहा होगा! सुप्रीम कोर्ट का वकील रहा होगा।
बिचारे पड़ोसी अब गिरने लगे कुओं में, क्योंकि दो—दो कुएं सामने और दोनों



आंखें फूट गयीं। और चौदह—चौदह मंजिल के मकान! कोई मंजिल से गिर पड़ा, कोई सीढ़ियों से गिर पड़ा—लिफ्ट उस समय थी नहीं। और लिफ्ट भी होती तो क्या सार था, क्योंकि लिफ्ट चलाने वाले भी अंधे हो जाते। एक अकेला वही बचा एक आंख वाला, उसकी प्रसन्नता का अंत नहीं। वह सम्राट की तरह घूमने लगा गांव में एक वही था जो देख सकता था। हालांकि आधा ही देख सकता था अब, लेकिन उसका दुख नहीं था कि कनवा हो गया, एक आंख का हो गया, मजा यह था कि सबकी गयी। खयाल करना, ऐसा व्यक्ति संन्यासी नहीं हो सकता।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, 'दूसरों का घात करने वाला प्रवजित नहीं होता है और दूसरी को सताने वाला श्रमण नहीं होता है। '
ये दो बातें छोड़ देना। तो तुम संन्यासी होते हो।
'निंदा न करना, घात न करना, पातिमोक्ष में सम्बर रखना, भोजन में मात्रा जानना, एकांतवास करना और चित्त योग में लगाना—यही बुद्धों का शासन है।'

      अनूपवादो अनूपघातो पातिमोक्खे च संवरो ।
      मतज्‍जुता वे भत्तस्मिं पंतज्‍च सयनासनं ।।
      अधिचिते व आयोगो एतं बुद्धान सासनं ।।

'निंदा न करना।'
क्योंकि निंदा का अर्थ है, तुम अभी दूसरे में उत्सुक हो, दूसरे को छोटा करने में उत्सुक हो। निंदा का मतलब ही इतना। इसीलिए तो इतना निंदा में रस है। हम कैसी निंदा बढ़ा—चढ़ाकर करते हैं। क्योंकि हमारे पास एक ही तरकीब है कि अगर हम सिद्ध कर दें कि दूसरा बुरा है, तो तुलना में हम भले मालूम पड़ेंगे। हम सिद्ध कर दें कि सब चोर हैं, तो तुलना में हम साधु मालूम पड़ेंगे। इसलिए हम निंदा में इतना रस लेते हैं। निंदा का एक ही प्रयोजन है, दूसरों की बुराई इतनी फैला—बढ़ाकर करना कि धीरे — धीरे तुम भले मालूम होने लगो। यही दूसरे तुम्हारे साथ कर रहे हैं। तो एक निंदा का व्यवसाय चलता पूरे समाज में। 
'निंदा न करना।'
क्योंकि संन्यस्त, प्रवजित, भिक्षु जो हो गया, अब उसकी आकांक्षा अपने को उठाने की है, दूसरे को गिराने की नहीं है।
'घात न करना। '
किसी को हानि न पहुंचाना। क्योंकि जितनी ऊर्जा दूसरे को घात करने में लगेगी, उतनी ऊर्जा तो ध्यान बन जाती, परम संपदा बन जाती, निर्वाण बन जाती।
'पातिमोक्ष में सम्बर रखना। '
पातिमोक्ष का अर्थ होता है, बुद्ध ने जो कहा है। बुद्ध अर्थात जागे हुए पुरुषों ने जो कहा है। उसको मानना, उसको स्वीकारना। क्योंकि बहुत बातें ऐसी भी उन्होंने कही हैं, जो तुम्हें आज समझ में शायद न भी आएं। प्रयोग से समझ में आएं, अनुभव से समझ में आएं। उन पर प्रयोग करके देखना। प्रयोग बिना किए निर्णय न लेना। ही या न कुछ भी नहीं।
जिसको वैज्ञानिक हाइपोथीसिस कहते हैं, कि कोई चीज की परिकल्पना। किसी ने कहा कि कमरे में कुर्सी रखी है, हमने कहा कि ठीक है, खोजने की दृष्टि से मान लेते हैं। मान नहीं लिया कि कुर्सी है, लेकिन खोजने की दृष्टि से मान लेते है—हाइपोथीसिस। अब हम कमरे में जाकर देखेंगे। अगर पाया कि कुर्सी है, तो जो परिकल्पना मानी थी, वह सत्य हो गयी। अगर पाया कि कुर्सी नहीं है, तो जो परिकल्पना मानी थी, वह असत्य हो गयी। लेकिन इसका नाम विश्वास नहीं है। हाइपोथीसिस का इतना ही मतलब है, प्रयोगार्थ स्वीकार कर लेते हैं कि ठीक है।
तो जो बुद्धपुरुषों ने कहा है—पातिमोक्स—जो—जो उन्होंने कहा है, उसमें सभी तुम्हारी समझ में आएगा भी नहीं। क्योंकि तुम्हारी समझ सारी चीजों के अनुभव से भरी भी नहीं है, तो विश्वास की जरूरत नहीं है, प्रयोगार्थ स्वीकार कर लेना। 
' भोजन में मात्रा जानना। '
बुद्ध को यह बात बार—बार कहनी पड़ी, ' भोजन में मात्रा जानना। '
उस समय यह बड़ा भारी सवाल था। एक तरफ लोग थे जो खूब खाए जा रहे थे, जो सदा से हैं। और उस समय एक और पागलपन पैदा हुआ था—दूसरी तरफ लोग थे जो उपवास किए जा रहे थे। इन दोनों ने आदमी को विक्षिप्त कर रखा था। या तो ज्यादा खाने वाले लोग, या न खाने वाले लोग। ज्यादा खाने वाले लोग शरीर को मिटाए ले रहे थे और शरीर के साथ मूर्च्‍छित हुए जा रहे थे। न खाने वाले लोग शरीर की हत्या किए दे रहे थे और ऊर्जा इतनी क्षीण हुई जा रही थी कि ध्यान का कोई उपाय न था।
तो बुद्ध हर चीज में मात्रा के लिए कहते हैं कि मात्रा जानना, मध्य में रुक जाना, अति मत करना—अतिसर्वत्र वर्जयेत्।
'एकांतवास करना। '
और जहां मौका मिले, जैसी सुविधा बने, वहा अकेलेपन को खोजना। क्योंकि तुम्हारे भीतर जो पडा है, जब तुम अकेले होओगे तभी उसे देख पाओगे। दूसरे की मौजूदगी तुम्हें बाहर ले जाती है। भीड़ में भी रहो तो भी अकेले रहना, यह बुद्ध का उपदेश है।
' और चित्त योग में लगाना।'
अभी चित्त संसार में लगा है, भोग में। धीरे— धीरे इसकी ऊर्जा को हटाना वहा से। धीरे—धीरे रत्ती कर—करके, बूंद कर—करके इसे ध्यान में, योग में, मोक्ष में लगाना। 
'यही बुद्धों का शासन है। '
यह सूत्र भी—यह अंतिम सूत्र बुद्ध ने एक परिस्थिति में कहे थे, वह मैं आपको दोहरा दूं।

जंगल में बुद्ध बैठे हैं ध्यान करने और एक सर्पराज— सर्पों का राजा— फन फैलाकर खड़ा हो गया। उसने झुककर बुद्ध के चरणों में प्रणाम किए। बुद्ध ने आंख खोली उन्होंने कहा महाराज— क्योंकि देखा उसके माथे पर अदभुत मणि है जो सिर्फ नागों में सम्राटों के माथे पर होती है— तो बुद्ध ने कहा महाराज क्या चाहते हैं?  तो उस नाग ने कहा मैं जन्मों— जन्मों से भटक रहा हूं। जो भी किया सब उलटा चला गया। कब तक सरकता रहूंगा जमीन पर? कब तक सरकता रहूंगा खाई— खंदकों में अंधेरी गलियों में? कब तक सरकता रहूंगा? कब उठूंगा? कब उड़ सकूंगा? तुम्हें मैने उड़ते देखा। तुम्हारे प्राणों की ऊर्जा को कहीं जाते देखा। इसलिए पूछता हूं मुझे कुछ उपदेश है?
ये जो सूत्र हैं :
'सभी पापों का न करना, पुण्यों का संचय करना और अपने चित्त का शोधन करते रहना—यही बुद्धों का शासन है। '
'तितिक्षा और क्षांति परम तप हैं, बुद्ध निर्वाण को परम रहते हैं, दूसरों का घात करने वाला प्रवजित नहीं होता और दूसरों को सताने वाला श्रमण नहीं है। '
'निंदा न करना, घात न करना, पातिमोक्ष में सम्बर रखना, भोजन में मात्रा जानना, एकातवास करना और चित्त योग में लगाना—यही बुद्धों का शासन है। ' ये उस सर्पराज को कहे गए थे।
सोचना इसे थोड़ा। हम भी सब जमीन पर सरकते हुए सर्प हैं। अभी हमने सिर भी उठाकर कहां आकाश की तरफ देखा? अभी तो अंधी गलियो—कूचों में, पोलों में, कोने—कातते में हम सरकते फिरते हैं।
फिर सर्प का प्रतीक ही क्यों चुना होगा? क्योंकि सर्प जन्म से ही दूसरे को चोट पहुंचाने का जहर लेकर आता है, इसलिए। उसके जहर की गांठ जन्म से ही उसके भीतर है। वह दूसरे को मारने में ही, दूसरे का घात करने में ही रस लेता है। यही तो गांठ हम भी लेकर आए हुए हैं। यह प्रतीक प्यारा है। और सर्प का प्रतीक सारे धर्मों ने चुना है। उसमें कुछ कारण है।
ईसाई कहते हैं कि सर्प ने भटकाया आदमी को। ईव को समझाया कि खा ले यह फल जो भगवान ने वर्जित किया है। ईव को फुसलाया सर्प ने। बुद्ध की इस कथा में सर्प कहता है कि कब तक मैं सरकता रहूंगा जमीन पर? हिंदू कहते हैं, कुंडलिनी जो ऊर्जा है मनुष्य के भीतर, वह सर्पाकार है। वह सर्प जैसी है। जब उठती है फन उठाकर तो उसका फन जब चोट करता है सहस्रार में तो सारे कमल खिल जाते हैं।
सर्प का प्रतीक आदमी के बहुत करीब है। उसमें कई खूबियां हैं। पहली बात, उसकी खूबी है कि सर्प बहुत चालाक। उस चालाकी के कारण ईसाइयों ने उसका प्रतीक बनाया कि उसने स्त्री को भरमाया, ईव को समझाया और अदम को ईश्वर की बगांवत में जाने का प्रोत्साहन दिया। सर्प बड़ा शैतान, क्योंकि बड़ा चालाक प्राणी है। बड़ा चालबाज। भरोसे का नहीं। उस प्रतीक का उपयोग किया।
बुद्ध की इस कथा में सर्प का प्रयोग हो रहा है इस अर्थ में कि सबकी दशा ऐसी है। कि हम जन्म से ही जहर की ग्रंथि लेकर पैदा हुए। दूसरे को चोट पहुंचाने में ही समाप्त हुए जा रहे हैं। दूसरे को मार डालने में ही हमने अपना जीवन समझा है। इसलिए। लेकिन एक दिन सर्प भी थक जाता है। तुम कब थकोगे? एक दिन सर्प भी बुद्ध से पूछता है कि मैं कब तक ऐसे ही सरकता रहूंगा! तुम कब पूछोगे? इसलिए प्रतीक चुना।
हिंदुओं ने प्रतीक चुना है कि सर्प जब खड़ा हो जाता है. तो सर्प की बड़ी खूबियां हैं, उसमें हड्डी होती नहीं। उसके पास हड्डी बिलकुल नहीं है, लेकिन सर्प खड़ा हो जाता है बिना हड्डी के। होना नहीं चाहिए वैज्ञानिक ढंग से, लेकिन सर्प पूंछ के बल खड़ा हो जाता है, फन उठाकर। और उसके पास कोई हड्डी नहीं है। तो चमत्कार है। ऐसा ही चमत्कार मनुष्य के भीतर घटता कि जो ऊर्जा काम—ग्रंथि में पड़ी है, बिना किसी सहारे के, बेसहारे, बिना माध्यम खड़ी हो जाती है, सर्प जैसी। फन जाकर चोट करता है ऊपर और आखिरी 'खुल जाता है। इसलिए हिंदुओं ने उसका वैसा प्रयोग कर लिया है। लेकिन सर्प का प्रयोग प्रतीकात्मक है। ये सूत्र बुद्ध ने सर्प को कहे थे। सभी सूत्र बुद्धों ने सर्पों को कहे हैं। क्योंकि मनुष्य अभी सर्प ही है। और इन सर्पों में भी कुछ कम, थोड़े से भाग्यवान सर्प पूछते हैं। नहीं तो पूछते ही नहीं। वे तो सोचते हैं, जैसा जी रहे हैं, वही ठीक है।
      इन पथरीले वीरान पहाड़ों पर
      जिंदगी थक गयी है चढ़ते —चढ़ते
      क्या इस यात्रा का कोई अंत नहीं
      हम गिर जाएंगे थककर यहीं कहीं
      कोई सहयात्री साथ न आएगा
      क्या जीवनभर कुछ हाथ न आएगा
      क्या कभी किसी मंजिल तक पहुंचेंगे
      या बिछ जाएंगे पथ गढ़ते—गढ़ते
      इन पथरीले वीरान पहाड़ों पर
      जिंदगी थक गयी है चढ़ते—चढ़ते
      धुंधुआती दिशाएं, अंगारे, ये खंडित दर्पण
      टूटे इकतारे, कहते इस पथ में हम ही नए नहीं
      हम से भी आगे कितने लोग गए 
      पगचिह्न यहां ये किसके अंकित हैं
      हम हार गए इनको पढ़ते—पढ़ते
      इन पथरीले वीरान पहाड़ों पर
      जिंदगी थक गयी है चढ़ते—चढ़ते
      हम से किसने कह दिया कि चोटी पर
      है एक रोशनी का रंगीन नगर
      क्या सच निकलेगा उसका यही कथन
      या निगल जाएगी हमको सिर्फ थकन
      देखें सम्मुख घाटी है या कि शिखर
      आ गए मोड़ पर हम बढ़ते—बढ़ते
      इन पथरीले वीरान पहाड़ों पर
      जिंदगी थक गयी है चढ़ते —चढ़ते

ऐसा जब तुम्हें दिखायी पड़ जाए कि सरकते—सरकते वीरान रास्तों पर थक गए हो, तब तुम किसी बुद्ध के चरणों में सिर झुकाकर पूछते हो, अब क्या करें? क्या सर्प ही बने रहेंगे हम, या उठने का कोई उपाय है?

उपाय है। सुख मत खोजो, दुख को देखो, दुख का कारण खोजो, दुख का कारण जानते दुख से मुक्त होने का उपाय मिल जाता, उपाय मिलते ही कौन नासमझ होगा जो उसका उपयोग न कर ले! उपयोग होते ही दुख—निरोध हो जाता है। वही दशा निर्वाण की है।

आज इतना ही।


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