चौथा प्रवचन
बंबई; दिनांक 25 फरवरी,1970
प्रश्न :
ध्यान के समय मन एकाग्र नहीं होता, तो क्या करूं?
नहीं; पहली तो यह बात आपके खयाल में नहीं आयी कि एकाग्रता
ध्यान नहीं है। मैंने कभी एकाग्रता करने को नहीं कहा। ध्यान बहुत अलग बात है।
साधारणत: तो यही समझा जाता है कि एकाग्रता ध्यान है। एकाग्रता ध्यान नहीं है।
क्योंकि एकाग्रता में तनाव है। एकाग्रता का मतलब यह है कि सब जगह से छोड्कर एक जगह
मन को जबरदस्ती रोकना। एकाग्रता सदा जबरदस्ती है; इसमें
कोएर्सन है। क्योंकि मन तो भागता है, और आप कहते हैं : 'नहीं भागने देंगे ' तो आप और मन के बीच एक लडाई शुरू
हो जाती है। और जहां लडाई है, वहां ध्यान कभी नहीं होगा।
क्योंकि लडाई ही तो उपद्रव है, हमारे पूरे व्यक्तित्व की। कि
वह पूरे वक्त कॉनफ्लिक्ट है, द्वंद्व है, संघर्ष है। और मन को ऐसी अवस्था में छोडना है, जहां
कोई कॉनफ्लिक्ट ही नहीं है, तब ध्यान में आप जा सकते हैं।
मन को
छोडना है निद्वंद्व। अगर द्वंद्व किया, तो कभी ध्यान में नहीं जा सकते। और अगर द्वंद्व किया, तो परेशानी बढ़ जाने वाली है।
क्योंकि हारेंगे, दुखी होंगे। जोर से दमन करेंगे; हारेंगे, दुखी होंगे और चित्त विक्षिप्त होता चला
जायेगा। बजाय इसके कि चित्त आनंदित हो, प्रफुल्लित हो—और
उदास, और हारा हुआ, फ्रस्ट्रेटेड हो
जायेगा।
तो मन से
तो लड़ना ही नहीं है, यह तो मेरा पहला सूत्र है।
जो मन से लड़ेगा, उसकी हार निश्चित है। अगर जीतना है मन को,
तो पहला नियम यह है कि लड़ना मत। इसलिए मैं एकाग्रता के लिए,
कनसनट्रेशन के लिए सलाह नहीं देता हूं। मेरी सलाह तो है रिलैक्वेशन
के लिए—कनसनट्रेशन के लिए नहीं। मेरी सलाह एकाग्रता के लिए नहीं है, मेरी सलाह विश्राम के लिए है। एक घण्टे भर के लिए मन को विश्राम देना है,
तो विश्राम का सूत्र अलग हो जायेगा।
विश्राम
का पहला तो सूत्र यह है कि मन जैसा है, हम उससे राजी हैं। अगर आप नाराज हैं उससे, तो फिर
विश्राम संभव नहीं हो सकता है। क्योंकि नाराजगी से लडाई शुरू हो जायेगी। मन जैसा
भी है—बुरा और भला, क्रोध से भरा, चिंता
से भरा, विचारों से भरा—जैसा भी है, हम
उसी मन के साथ राजी हैं।
तो एक
घंटे के लिए समय निकाल लें और मन जैसा है, वैसा उसके साथ पूरी तरह राजी हो जायें। टोटल एक्सेप्टिबिलिटी। विरोधी नहीं
है हमारा मन। अगर मन भागता है, तो हम भागने देते हैं। अगर
रोता है, तो रोने देते हैं, अगर हंसता
है, तो हंसने देते हैं। अगर वह व्यर्थ की बातें सोचता है,
तो सोचने देते हैं। हम कहते हैं कि मन जो भी करे, एक घण्टा लडाई नहीं करेंगे। पहली बात। हम लडेंगे ही नहीं। मन जो भी करेगा,
हम चुपचाप बैठे देखते रहेंगे, इससे न लडेंगे।
एक तो
स्थूल लडाई है, जो आप लड़ते हैं कि मन कह
रहा है, 'यहां जाना है' और आप कहते हैं,
'वहां नहीं जायेंगे '। जैसा कि साधारणत:
धार्मिक आदमी करता रहता है। इसलिए धार्मिक आदमी साधारणत: दुखी आदमी होगा। धार्मिक
आदमी पूरे वक्त यही करता रहता है। मन कहता है, 'खाना खाओ। '
वह कहता है, 'नहीं खायेंगे। ' मन कहता है, 'यह कपडा बहुत सुंदर है। ' वह कहता है, 'हम कपड़े छोड़ देंगे। ' वह मन से लड़कर ही चलता है। तो मन से लड़कर वह दुखी होगा, परेशान होगा, लेकिन शांत नहीं हो पायेगा।
तो एक
घंटे के लिए मन से कोई लडाई नहीं लेनी है। मन जो करता है, हम कहते हैं—करो। लेकिन यह तो बहुत स्थूल हुई बात।
हमारे मन में बडी सूक्ष्म लडाई है, जिसका हमें पता नहीं है।
कडेमनेशन है हमारे मन में। जैसे हम यह भी कह देंगे कि अच्छा, जो करना है करो, लेकिन इसमें भी कडेमनेशन हो सकता है।
इसमें भी यह हो सकता है कि 'कोई बात नहीं है, हम नहीं लड़ते। पर यह बात तो ठीक नहीं है। ' कि मन
सोच रहा है कि एक वेश्या के घर चले जाओ। हम कहते हैं कि बात तो ठीक नहीं है,
लेकिन चूंकि एक घंटा हमको नहीं लड़ना है, इसलिए
हम नहीं लड़ते। लेकिन यह बात ठीक नहीं है!
अगर इतना
भी रुख है भीतर कि 'यह बात ठीक नहीं है',
तो लडाई जारी है। तब विश्राम उपलब्ध नहीं होगा। तो स्थूल रूप से लड़ना
नहीं है। सूक्ष्म रूप से निंदा और प्रशंसा नहीं करनी है कि यह ठीक है, यह गलत है। यह मन करेगा, तो यह भीतरी अप्रूवल है
हमारी कि है।, यह बहुत बढ़िया हो रहा है। कृष्य भगवान की
मूर्ति बना रहा है, यह बहुत ही बढ़िया हो रहा है। और एक नग्न
स्त्री की मूर्ति बना रहा है, तो बहुत बुरा हो रहा है। यह
सूक्ष्म निंदा और प्रशंसा भी नहीं होनी चाहिए ध्यान में। इसका मतलब यह हुआ कि लड़ना
मत, और किसी तरह का रुख मत लेना, एटिटचूड
मत लेना कि यह अच्छा है कि बुरा है। निर्णय मत लेना कि क्या है। जो है—है।
हम इस
वृक्ष के पास खड़े हैं। उसमें काटे लगे हैं, तो लगे हैं और फूल लगा है तो लगा है। हम न तो यह कहते हैं कि फूल अच्छा है;
न यह कहते हैं कि काटे बुरे हैं। हम इतना ही कहते हैं कि हमें पता
चल रहा है कि काटे लगे हैं और फूल लगे हैं। हम फूल और काटे के बीच न कोई तुलना
करते हैं, न एक दूसरे को ऊंचा नीचा बिठाते हैं। न हम यह
चाहते हैं कि फूल ही फूल हो जायें और काटे बिलकुल न रह जायें। अगर इसे ठीक से
समझेंगे तो एक स्थूल लडाई हुई और एक सूक्ष्म लडाई हुई, और एक
अति सूक्ष्म लडाई है।
अति
सूक्ष्म का मतलब यह है कि अगर हमारे मन में कोई चाह भी है कि ऐसा होना चाहिये, तो बहुत गहरे में लड़ाई चलती रहेगी। हम नहीं कहते कि
काटा बुरा है, लेकिन बहुत गहरे में मन यह है कि काटा न होता
और फूल होता, तो अच्छा होता। अगर इतना भी भीतर के किसी तल पर
भाव है, तो लड़ाई जारी रहेगी। आप लड़ रहे हैं। आप काटे को
स्वीकार नहीं कर पाये हैं। तो मेरे लिए ध्यान का मतलब है—संपूर्ण स्वीकृति। स्थूल
लड़ाई नहीं, सूक्ष्म लड़ाई नहीं, भावों की
अति सूक्ष्म लड़ाई भी नहीं। घड़ी दो घड़ी के लिए चौबीस घंटे में इस तरह छोड़ने लगें
अपने को। इस छोड़ने से... जैसे—जैसे छोड़ना सरल होगा...। एकदम से छोड़ना बहुत कठिन
होता है। क्योंकि हम इतने लड़ रहे हैं कि हम भूल ही गये हैं कि बिना लड़े कैसे रहें।
अगर एक
पति—पत्नी को हम कहें कि चौबीस घंटे बिना लड़े इस तरह घर में रह जाओ, तो रह सकते हैं बिना लड़े। लेकिन हम उनसे कहें कि लड़ने
का भाव ही मत उठने दो—निदा, प्रशंसा भी मत करो। तो कठिनाई
शुरू हो जायेगी। और उनसे अगर हम यह कहें कि यह सोचो ही मत कि पत्नी कैसी है,
पति कैसा है; जैसा है, है।
तब और कठिन हो जाता है।
न लड़ना
बहुत आसान है। चौबीस घंटे का कष्ट कर लिया कि नहीं लड़ेंगे, तो एक दूसरे से बचकर जा रहे हैं, लेकिन लड़ाई जारी है। क्योंकि उसके बचकर जाने में भी लड़ाई चल रही है। नहीं
बोल रहे हैं कि कहीं लड़ाई न हो जाये; तो न बोलना लड़ाई हो गयी।
ऐसी बातें नहीं उठा रहे हैं कि जिनमें लड़ाई हो जाये। लड़ाई जारी है।
लेकिन
सूक्ष्म तल पर अगर हम कोई भाव, अगर
कोई रुख ले रहे हैं—देख रहा हूं मैं कि यह जो पत्नी है, टेबल
वहीं रखे दे रही है, जहा कि कहा, हजार
दफे कहा कि मत रखना। चूंकि लड़ना नहीं है, नहीं लड़ रहे हैं,
और ठीक है, स्वीकार भी कर रहे हैं कि टेबल अब
जहा रख रही है, रखने दो। कोई बात नहीं क्योंकि चौबीस घंटे
लड़ना नहीं है। लेकिन मन में यह भाव आ रहा है कि वही गलती फिर की जा रही है,
जो सदा मना की गयी है। तो वह लड़ाई जारी है। अब भी वह प्रतीति हो रही
है कि लड़ाई जारी है।
तुम लाने
की कोशिश ही मत करना किसी फीलिंग को। तुम लाये, तो लड़ाई शुरू हो गयी और लाना ही नहीं है तुम्हें कुछ। जो हो रहा है,
वह है। तुम्हारी तरफ से कुछ भी मत करना। जो होता है, उसे होने देना।
यही
तकलीफ है कि हम सोचते हैं : हम क्या करें फिर। नहीं; आपने किया कुछ कि लड़ाई शुरू हुई, क्योंकि करने का
मतलब ही यह होता है कि कुछ था, जो नहीं होना था, वह हो रहा है। कुछ था, जो होना था और नहीं हो रहा है।
हम उसको बदल रहे हैं। तो लड़ाई शुरू हो गयी।
न, मैं यह कह रहा हूं कि तुम कुछ करना ही मत। जो हो,
होने देना; लेट—गो की हालत रखना आप। अपनी तरफ
से डूइंग की हालत नहीं है, लेट—गो की हालत है। जैसे समझ लो
कि मैं मर जाऊं इस कमरे में। फिर यह कमरा कैसे चलेगा। लोग यहां से गुजरेंगे। टेबल
कहीं रखी रहेगी। फोन की घंटी बजेगी। सब होगा।
लेकिन मैं क्या करूंगा!
मैं
नसरुद्दीन की एक कहानी कहता रहता हूं। उसने अपनी पत्नी से एक बार पूछा कि 'कई लोग मरते जा रहे हैं। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा
है कि लोग मर कैसे जाते हैं? और अगर कभी मैं मर जाऊं,
तो मैं कैसे पहचानूंगा कि मैं मर गया हूं! तुझे अगर कुछ पता हो,
तो मुझे बता दे। समझूंगा कैसे कि मैं मर गया हूं?'
उसकी
पत्नी ने कहा, 'इसमें कुछ समझने की बात
है! हाथ—पैर ठंडे हो जायेंगे। '
नसरुद्दीन
गया था जंगल में लकड़ी काटने। सर्द थी सुबह, बर्फ पड़ रही थी। उसके हाथ—पैर ठंडे हो गये। तो उसने सोचा कि ' लगता है कि अब मैं मर रहा हूं। क्योंकि हाथ—पैर ठंडे हो रहे हैं और लक्षण
हमें एक ही बताया गया था कि हाथ—पैर ठंडे हो जायेंगे। ' जब
वे होते ही चले गये ठंडे और उसकी कुल्हाड़ी भी छूटने लगी हाथ से, तो उसने सोचा, ' अब तो पक्का ही है। ' तो उसने मरते हुए लोगों को देखा था कि मरा हुआ आदमी खड़ा नहीं रहता है,
लेटा रहता है। वह लेट गया। जब वह लेट गया, तब
और सब ठंडा होने लगा, क्योंकि काम कर रहा था, तो थोड़ा गर्म था; वह और सब ठंडा हो गया। उसने सोचा,
' अब ठीक है। अब तो आखिरी वक्त आ गया। अब मर गया। ' जब पूरा ठंडा हो गया तो समझा कि मर गया। तो स्वभावत: मरा हुआ आदमी किसी को
चिल्लाता नहीं, किसी से बोलता नहीं, किसी
को देख नहीं सकता, तो उसने आंख बंद कर लीं; चिल्लाना बंद कर दिया। उसने कहा, ' अब कोई सहारा
नहीं, जब मर ही गये और लक्षण पूरा हो गया!'
चार आदमी
निकले थे रास्ते से, उन्होंने देखा कि कोई आदमी
मर गया। तो उन्होंने अर्थी बनायी उसकी। उसने सोचा कि 'मुर्दे
की तो अर्थी बनती ही है, तो बन रही है। कई बार अर्थी ठीक
नहीं बन रही थी, क्योंकि उन चारों का कोई इंतजाम नहीं था,
तो कई बार उसे लगा कि सुझाव दे दूं कि जरा ऐसा बांधो डंडा, लेकिन उसने कहा मुर्दे को यह बात ही नहीं करनी चाहिए। वह जो आदमी मर ही
गया वह कैसे बतायेगा! इसलिए उसने जैसी भी बनी अर्थी, बनने दी।
वह अर्थी पर सवार भी हो गया अर्थी चल पड़ी। लेकिन वे चारों परदेशी थे। चौरस्ते पर
पहुंचे, तो उनको सवाल उठा कि मरघट कहां है इस गांव का?
नसरुद्दीन को मालूम था, लेकिन उसने सोचा कि
मुर्दे को बात नहीं करनी चाहिए! उन चारों ने सोचा कि बड़ी सर्दी है, बर्फ पड़ रही है, मरघट कहां है? अब कोई निकले राहगीर तो पूछ लें। बड़ी देर हो गयी, कोई
राहगीर न निकला।
नसरुद्दीन
से रहा न गया। बड़ी देर तक उसने अपने को सम्हाला। कोई राहगीर भी नहीं निकल रहा है यहां
से। इमरजेन्सी के क्षण में मुर्दा भी बोले, तो कोई हर्जा भी नहीं है। उसने कहा कि 'जब मैं जिंदा
हुआ करता था, तब लोग बायें तरफ जाते थे मरघट को! जब मैं
जिंदा हुआ करता था!' फिर वह इतना कहकर अपनी जगह पर लेटा रहा।
तो उन्होंने कहा, ' अरे मुर्दे, तू बोल
ही रहा है, तो हमें क्यों परेशानी में डाले हुए है!'
यह जो एक
घंटे भर नसरुद्दीन ने किया, यह ध्यान में होगा। होना
चाहिए। यानी आपको कुछ करना ही नहीं है। इमरजेन्सी भी आ जाये, तो भी नहीं बताना है कि यह हो रहा है। आपको सब कुछ छोड़ ही देना है। जो हो
रहा है, हो रहा है। जब आप सब छोड़ देंगे और जो होना है,
वह तो होता रहेगा ही, बंद तो नहीं हो जाने
वाला है। विचार चलते रहेंगे। आवाज कानों में पड़ती रहेगी, हृदय
धड़कता रहेगा, श्वास चलती रहेगी। पैर में कीड़ा काटेगा,
तो पता चलेगा। पैर जाम हो जायेगा, तो पता
चलेगा। करवट बदलने का मन हो, तो करवट लेने देना। हाथ कीड़ों
को हटाना चाहे, तो हटाने देना। न अपनी तरफ से हटाना, न अपनी तरफ से रोकना। मेरा मतलब समझ रहे हो न! अपनी तरफ से कुछ मत करना।
अगर हाथ हटाना चाहें तो हटा देने देना। न हटाना चाहें, तो
पड़े रहने देना। तो सारी स्थिति को पूरी तरह स्वीकार कर लेना। सब होता रहेगा।
जब सब
होता रहे और हम सब स्वीकार कर लें, तो एक बहुत नयी चेतना का जन्म शुरू होता है। तत्काल तुम साक्षी हो जाते हो,
तत्काल। क्योंकि जैसे ही तुम कर्त्ता नहीं रहते, तुम साक्षी हो जाते हो। कोई उपाय ही नहीं है दूसरा। यह ट्रांसफामेंशन
आटोमैटिक है। लोग सोचते हैं कि साक्षी होना पड़ेगा। साक्षी कोई हो ही नहीं सकता। वह
तो जब कर्त्ता नहीं रह जाता, तो होगा क्या! जैसे कि
नसरुद्दीन की अर्थी बांधी जा रही है। क्या करेगा बेचारा, देख
रहा है। साक्षी है भर, अब तर्क करने की बात ही खत्म हो गयी।
वह आदमी मर गया है।
जिस क्षण
तुम्हारा कर्त्ता का भाव चला जाता है, उसी क्षण तुम्हारा साक्षी का भाव आविर्भूत हो जाता है। यह सहज होता है।
इसलिए साक्षी होना कोई कर्म नहीं, कृत्य नहीं। और साक्षी हो
जाना ध्यान है। साक्षी हो जाना ध्यान है—इससे ज्यादा ध्यान कुछ भी नहीं है।
इसलिए
एकाग्रता तो कभी ध्यान नहीं है, क्योंकि
तुम कर्त्ता हो, तुम कर रहे हो। तुम्हारा किया हुआ, तुमसे बड़ा नहीं होने वाला है। तुम परेशान हो, दुखी
हो। तुम्हारा किया हुआ भी परेशानी होगी, दुख होगा। अगर मैं
स्टुपिड आदमी हूं मूड आदमी हूं तो मेरी एकाग्रता भी मूढ़ता ही होगी। मैं ही एकाग्र
करूंगा न! एकाग्रता कोई और तो नहीं करेगा। मैं एक मूड आदमी हूं मैं एकाग्रता करता
हूं। तो एक मूरख एकाग्र हो जायेगा और क्या हो जाने वाला है! और एकाग्र मूरख और
खतरनाक है। अगर तुम दुखी हो, तो दुखी होना ही एकाग्रता बन
जायेगी। दुख पर ही तुम एकाग्र हो जाओगे और और मुश्किल है।
एकाग्रता
कभी भी तुम्हें अपने से ऊपर नहीं ले जा सकती। ट्रान्सेंडेन्स उसमें नहीं है संभव, क्योंकि तुम्हीं करोगे, तो आगे
कैसे जाओगे? लेकिन साक्षी भाव जो है, वह
तुम्हारा कृत्य नहीं है। तुम हो ही नहीं उसमें। वह हैपनिग है। तुम तो अचानक पाते
हो कि जिस क्षण वह स्थिति आ जाती है कि तुम कर्त्ता नहीं रहे, तुम अचानक पाते हो कि तुम साक्षी हो गये हो। इस होने में कोई यात्रा नहीं
करनी पड़ती। कर्त्ता होने से साक्षी होने तक तुम्हें जाना नहीं पड़ता। बस, अचानक एक क्षण पहले तुम कर्त्ता थे और अचानक एक क्षण बाद तुम पाते हो कि
कर्त्ता खो गया है और मैं सिर्फ साक्षी रह गया हूं।
यह जो
दशा है, यह ध्यान है। और इसलिए
ध्यान करने की कोशिश मत करना। ध्यान हो सके, इस हालत में
अपने को छोड़ना है। ध्यान होगा, आपको तो सिर्फ अपने को उस
हालत में छोड़ देना है कि हो जाये। सूरज निकला है और मैंने अपना दरवाजा खुला छोड़
दिया है। सूरज निकलेगा, रोशनी भीतर आ जायेगी, वह मुझे लानी नहीं पड़ेगी। लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि मैं सूरज की
रोशनी बांधकर कमरे के भीतर तो नहीं ला सकता, लेकिन दरवाजा
बंद करके सूरज की रोशनी को रोक सकता हूं। बाहर रोकने में कठिनाई है। दरवाजा बंद है,
तो रुक जायेगी। तो तुम ध्यान को होने से रोक सकते हो, रोक रहे हो; लेकिन ध्यान को ला नहीं सकते। हमारी जो
सारी तकलीफ है, वह बहुत उलटी है।
जो
असलियत है, वह यह है कि जब कोई मुझसे
पूछता है कि ध्यान नहीं हो रहा है, तो उलटी ही बात पूछ रहा
है। वह असल में प्राणपण से चेष्टा कर रहा है कि कहीं ध्यान न हो जाये! पूरी जिंदगी
लगा रहा है कि ध्यान न हो जाये। जन्म—जन्म उसने खराब किये हैं कि ध्यान न हो जाये!
और ध्यान के लिए उसने हजार तरह के बैरियर खड़े किये हैं कि वह हो न जाये! कहीं मैं
साक्षी न हो जाऊं, इसके लिए तुम सब इंतजाम किये हुए बैठे हो।
और फिर जब सुनते हो किसी से कि साक्षी होने में बड़ा आनंद है, तब तुम सोचते हो, 'चलो, साक्षी
भी हो जायें। ' तो साक्षी होने की भी कोशिश करते हो और वह
तुम्हारा साक्षी से रोकने का पूरा इंतजाम जारी है। उसमें कोई फर्क नहीं पडता है।
उसी इंतजाम के भीतर तुम साक्षी भी होना चाहते हो। यह नहीं होगा।
तो घड़ी
दो घड़ी के लिए अपने को पूरा छोडो। जो हो रहा है, उसे पूरा स्वीकार कर लो। फिर कुछ होगा। वह कुछ होना ध्यान है। और इसलिए
जिनको ध्यान मिलेगा, जिनको हो जायेगा, वे
यह नहीं कह सकेंगे कि मैंने किया। अगर कहते हों, तो समझ लेना,
अभी नहीं हुआ। और इसीलिए तो बेचारा वैसा आदमी कहता है, 'प्रभु की कृपा है।' उसका कोई और मतलब नहीं है,
कोई प्रभु कृपा वगैरह नहीं करता। मगर उसकी तकलीफ है। उसकी तकलीफ यह
है कि उसके द्वारा तो हुआ नहीं, वह कहां कहे, किससे कहे। हो तो गया है। उसके द्वारा हुआ नहीं। किसने किया है? बताने जाइए, तो उसकी बडी मुश्किल है। तो वह कहता है
कि प्रभु की कृपा से हुआ है, इसका कुल मतलब इतना है कि मेरे
द्वारा नहीं हुआ है। प्रभु कृपा से नहीं हुआ है। प्रभु कृपा का मतलब तो यह हो
जायेगा कि प्रभु किसी पर कम कृपालु है, किसी पर ज्यादा है,
तो बडी गड़बड़ हो जायेगी। उसमें प्रभु पर बडा लांछन लगेगा।
प्रश्न :
आप कहते हैं कि मैं विद्रोह जगा रहा हूं। फिर आप कहते हैं कि सब
परमात्मा ही करवा रहा है। ये दोनों वक्तव्य तो विरोधी लगते हैं।
मामला
ऐसा है, जिंदगी इतनी जटिल है और
हमारे निर्णय सब सरल होते हैं, और इसलिए हम तालमेल नहीं बिठा
पाते। तुम्हें लगता है, एक तरफ मैं यह कह रहा हूं कि मैं
विद्रोह उठाना चाहता हूं और दूसरी तरफ मैं कह रहा हूं कि परमात्मा जो करवा रहा है,
वह मैं कर रहा हूं। तो विरोध दिखता है—है नहीं। क्योंकि जब मैं यह
कह रहा हूं कि मैं विद्रोह कर रहा हूं यह भी परमात्मा ही कह रहा है मेरे हिसाब में।
इसलिए विरोध नहीं है। और अगर तुम्हारे हिसाब में ऐसा लगता है कि यह आप ही कह रहे
हो, तो दूसरा भी मैं ही कह रहा हूं। तब भी कोई फर्क नहीं है,
तब भी विरोध नहीं होता है। क्योंकि मैं कह रहा हूं कि मैं विद्रोह
कर रहा हूं; अगर आप मानो कि यह आप ही कर रहे हो, और यह कि हम किसी परमात्मा को नहीं मानते—तो दूसरी बात जो मैं कह रहा हूं
कि यह परमात्मा कर रहा है, यह भी मैं ही कर रहा हूं। तब भी
कोई विरोध नहीं है। तुम्हारी तरफ से भी विरोध नहीं है। विरोध इसलिए होता है कि एक
बात मेरी तरफ से ले लेते हो, एक तुम्हारी तरफ से ले लेते हो,
तब विरोध होता है। अगर तुम भी अपनी दोनों ही बात करो, तो विरोध नहीं है।
मेरा
मतलब यह है कि मैं कह रहा हूं कि मैं विद्रोह जगा रहा हूं। अगर तुम्हें यह लगता है
कि यह आप ही कह रहे हो, और दूसरी तरफ आप कहते हो
कि जो करवा रहा है, वह परमात्मा करवा रहा है, तो विरोध दिखता है इसमें। क्योंकि अगर परमात्मा करवा रहा है, तो फिर आप ऐसा क्यों कह रहे हैं कि मैं विद्रोह जगा रहा हूं। मेरी तरफ से
इसलिए विरोध नहीं है कि मैं कहता हूं यह भी परमात्मा ही करवा रहा है। मेरे लिए
इसमें कोई फर्क नहीं है दोनों बातों में। एक ही बात है। यानी यह भी मैं अपनी तरफ
से नहीं कह रहा हूं कि मैं विद्रोह जगा रहा हूं।
प्रश्न :
जनरल जेंट्री की हालत तो भिन्न होगी?
जनरल जेंट्री की बात मत करो। वह है ही नहीं कहीं।
तुम हो, मैं हूं। ये हैं, मैं हूं। जनरल जेंट्री कहीं भी नहीं है। वह है नहीं कहीं। मैं तो इधर
पंद्रह साल से भटकता हूं वह मुझे मिलती नहीं। सीधे आदमी हैं और सीधी बात करनी
चाहिए। वह जनरल जेंट्री बहुत दिक्कत दे देती है। इसको बीच में लेकर बड़ा मुश्किल हो
जाता है काम करना। तुम्हारी बात मुझे खयाल में आती है, मेरी
बात तुम्हें। बात खत्म हो गयी। जनरल जेंट्री जब मुझे मिलेगी, उससे मैं बात कर लूंगा। अगर तुम्हारी समझ में आ गया है, तो जनरल को भी समझ में आ सकता है। मैं यह कह रहा हूं कि जैसे ही ध्यान का
विस्फोट होगा—कल तक तुमने जहा अपने को कर्त्ता माना था, कल
तक तुम्हारा सब काम कर्तृत्व का था—जैसे ही ध्यान का विस्फोट होगा, काम सब जारी रहेंगे, लेकिन कर्त्ता विदा हो जायेगा
और अब तुम्हारी बड़ी तकलीफ होगी कि तुम क्या कहो, कि कैसे कर
रहे हो। कल तक तुमने अपनी पत्नी को कहा था कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। अपने बेटे
से कहा था कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। अगर ध्यान का विस्फोट हो गया, तो तुम कहोगे कि मैं नहीं जानता। यह प्रेम तेरी तरफ बहता है, मुझे पता नहीं है। एक रास्ता तो यह है कि प्रेम हो रहा है मुझे पता नहीं। 'मैं करता हूं अब मैं नहीं कह सकता। मैंने कभी किया नहीं प्रेम, यह हुआ है। एक तो रास्ता यह है। यह सैक्युलर हुआ। इसमें परमात्मा को बीच
में नहीं लिया गया। हम कहते हैं, प्रेम जो है, वह घटता है, कोई करता नहीं। यह सैक्युलर हुई बात।
इसमें धर्म को बीच में लेने की जरूरत नहीं समझी गयी। यानी यह उसी बात को गैर—धार्मिक
ढंग से कहने की व्यवस्था हुई।
लेकिन
अगर इसमें और गहराई बढ़ जाये, और
गहराई बढ़ जाये, तो तुम्हें यह लगेगा कि अगर मैं यह कहता हूं
कि मैंने प्रेम नहीं किया है और प्रेम घट रहा है, तो इसके दो
मतलब हो गये—या तो प्रेम सिर्फ एक्सीडेंट है, जिसके पीछे कुछ
भी नहीं है, कोई सोर्स नहीं है। जो कि बहुत इल्लाजिकल और
अनसाइटिफिक है। क्योंकि अगर घट रही है कोई चीज, तो भी तो कोई
ओरिजिनल सोर्स होना चाहिए। नहीं तो घट नहीं
सकती, कहां से घटेगी।
तो धर्म
की जो दृष्टि है, वह और गहरी है। वह घटना
पर ही नहीं रुकती है, वह इस पर रुकती है, कि मैंने तो प्रेम नहीं किया है और प्रेम हो रहा है। और तुमको भी मैं
प्रेम करते देखता हूं और मैं देखता हूं कि तुमने प्रेम नहीं किया है। प्रेम हो रहा
है। तुमको भी प्रेम करते देखता हूं और देखता हूं कि प्रेम हो रहा है। तब इस समग्र
का जो इकट्ठा नाम है धार्मिक, वह परमात्मा है। तब हम समग्र
को कह देते हैं कि समग्र की तरफ से हो रहा है। इसमें व्यक्ति नहीं कर रहे हैं,
वह जो समग्रीभूत चेतना है, सब जहा इकट्ठे हैं,
वहीं से कुछ हो रहा है।
एक वृक्ष
बड़ा हो रहा है। अगर हम इस वृक्ष से पूछ सकें और वृक्ष उत्तर दे सके, तो दो ही उत्तर हो सकते हैं। या तो वह यह कहे कि मैं
बड़ा हो रहा हूं जो कि जरा ज्यादा होगा कहना। क्योंकि फिर सूरज का क्या होगा?
अगर सूरज न उगे, तो वृक्ष बड़ा न हो। हवाओं का
क्या होगा, जमीन का क्या होगा? हवाएं न
बहे, तो वृक्ष बड़ा न हो। जमीन का क्या होगा? अगर जमीन पानी न दे, तो वह वृक्ष बड़ा न होगा। लेकिन
अगर वृक्ष को भी चेतना आ जाए तो, वह कहेगा कि मैं बड़ा हो रहा
हूं। लेकिन अगर वृक्ष थोड़ा समझे, तो शायद वह कहे कि मैं बड़ा
नहीं हो रहा हूं बड़े होने की घटना घट रही है। लेकिन तब इसमें कोई सोर्स नहीं पकड़
पाये कि कहां से घट रही है।
अगर और
उसकी समझ गहरी हो जाये, तो शायद वह यह कहे कि
समस्त जगत मुझमें बड़ा हो रहा है। समस्त जगत—सूरज भी, पानी भी,
जमीन भी, हवा भी, आग भी,
सब मुझमें बड़े हो रहे हैं। अब सारे जगत की अगर एक—एक चीज को गिनाने
जायें, तो बहुत असंभव होगा। सब बड़े हो रहे हैं। करोड़ों—करोड़ों
मील दूर बैठा तारा भी उस वृक्ष के बड़े होने में हाथ बंटा रहा है। आकाश में उड़ती
हुई बदली भी हाथ बंटा रही है। दस करोड़ मील दूर सूरज भी बैठा हाथ बंटा रहा है। एक
बच्चा सुबह आकर उस वृक्ष को प्रेम करता है, पानी डाल जाता है,
वह भी हाथ बंटा रहा है। एक बकरी उस वृक्ष की टहनी काट डालती है,
उस टहनी से चार टहनियां निकल आती हैं, तो वह
भी उसमें हाथ बंटा रही है। अगर हम इन सारी चीजों को गिनायें तो सैक्युलर ढंग से भी
कहा जा सकता है, लेकिन इन सारी चीजों को गिनाना बिलकुल
बेमानी है। इसलिए धार्मिक आदमी ने एक शब्द निकाल लिया है,—परमात्मा।
परमात्मा का मतलब है, वह सब, जो गिनाया
नहीं जा सकता है, वह हाथ बंटा रहा है।
तो जब
मैं यह कह रहा हूं कि वही करवा रहा है, तो इसका मतलब यह है कि यह सब जो है, यह सबका होना ही
होना है। हम इसमें व्यक्ति की हैसियत से नहीं कुछ कर पा रहे हैं।
लेकिन
ध्यान की घटना न घटे, तो यह दिखायी भी नहीं
पड़ेगा। तब तो दिखायी पड़ेगा कि मैं कर रहा हूं। और इसलिए ध्यान के पहले अशांति है। क्योंकि वह मैं कर रहा हूं तो फिर जब वह न
होगा, तो मुझसे नहीं हुआ। हारूंगा तो मैं हारा, और जीतूंगा तो मैं जीता, तो वह 'मैं' चिंताएं इकट्ठी कर लेगा। ईगो जो है, वह एंग्जाइटी का केंद्र है। सारी चिंता का केंद्र ' मैं'
है। क्योंकि आज मैं कहूंगा, हौ, मैं जीत गया और कल हार जाऊंगा, तो फिर मुझे कहना
पड़ेगा कि मैं हार गया। तो अब जीतकर अकड़कर निकला था सड़क पर, तो
फिर हारकर रोता हुआ निकलना पड़ेगा। तो वह सारी तकलीफ खड़ी होगी।
लेकिन, घटना के बाद, हैपनिंग के बाद,
ध्यान के बाद वह इंपोटेंण्ट हो गया। अब हो रहा है। अब हारे तो
परमात्मा हारता है, जीते तो परमात्मा जीतता है। अपना कुछ
लेना—देना न रहा। अपन ही न रहे। इसलिए ऐसे आदमी को सुखी और दुखी होने के दोनों
उपाय न रहे। और जब सुखी और दुखी होने का कोई उपाय नहीं रह जाता है, तब जो शेष रह जाता है, वही आनंद है। सुखी—दुखी होने
का जब कोई उपाय नहीं रह जाता, तब भी तो कुछ शेष तो रह ही
जायेगा? मैं तो रहूंगा ही। सब रहेगा। लेकिन तब जो स्थिति
होगी, वह आनंद की है, या शांति की है।
इसलिए ध्यान जो है, वह अनिवार्य प्रक्रिया है, जिसके बिना मुक्ति, आनंद और शांति का कभी कोई पता
नहीं चलता है। क्योंकि उसके बिना अहंकार नहीं टूटता। और अहंकार टूट जाये, तो क्या कहिएगा? क्या कहिएगा कि कौन करवा रहा है?
एक तो रास्ता यह है, 'हो रहा है, कोई भी नहीं करवा रहा है। ' कहने में हर्जा नहीं है;
मैं कोई इनकार नहीं करता। लेकिन जितनी गहरी दृष्टि बढ़ेगी वैसा दिखाई
पड़ेगा कि कोई नहीं करवा रहा, ऐसा कहना बहुत अवैज्ञानिक है।
समष्टि, दि कलेक्टिव भागीदार है।
तो
परमात्मा जो है, आम तौर से हम उसे
व्यक्तिवाची समझ लेते हैं, वह गलत है। वह व्यक्तिवाची नहीं
है। असल में परमात्मा एक वचन में है ही नहीं—बाई इट्स वेरी नेचर प्लूरल—सिंगुलर
नहीं है वह। इसलिए परमात्मा शब्द का बहुवचन नहीं बनाया जा सकता, परमात्माओं, ऐसा नहीं बनाया जा सकता, इसका कोई मतलब ही नहीं है। परमात्मा, एक वचन में ही
बोलना पड़े; क्योंकि वह एक वचन है ही नहीं, वह कलेक्टिव की खबर है, समष्टि की। वह सब जो है,
उसकी खबर है। अब सब में सब आ गया, इसलिए अब और
आगे बचने को नहीं रहा कि हम कहें परमात्माओं, गाड्स। ऐसा
उपयोग गलत है।
इसलिए
अंग्रेजी जैसी भाषाओं के पास 'परमात्माओं'
के लिए ठीक शब्द नहीं है। उनका जो गॉड है, वह
गाड्स भी हो सकता है। इसलिए वह देवता का पर्यायवाची है, परमात्मा
का पर्यायवाची नहीं है। देवता बहुवचन में हो सकते हैं—परमात्मा नहीं। वह शब्द जो
है, वह समष्टि का, सबका, दि होल...। अंग्रेजी का 'होली' शब्द ज्यादा करीब है परमात्मा के। क्योंकि वह 'होल' से बनता है। होल से ही होली बनता है। होली शब्द
ज्यादा ठीक है, वह परमात्मा का अर्थ रखता है। लेकिन उसका
मतलब हमने पवित्रता और दूसरी बातें ले लिया है, वह ठीक नहीं
है। दि होली। वह निकट से पकडता है बात को कि वह जो समस्त, इकट्ठा
जहां सब हो गया है, उस इकट्ठे को हम कोई नाम देना चाहें तो
कोई नाम दिया जो सकता है। वह नाम परमात्मा है।
यानी जब
मैं यह कह रहा हूं कि मैं नहीं कर रहा, तब यह कह रहा हूं कि सब कर रहे हैं। उस करने में मैं सिर्फ एक हिस्सा हूं।
इससे ज्यादा नहीं। और यह खयाल में आ जाये, तो सारी चिंता गई,
क्योंकि तब न हार है न जीत है, तब न जन्म है,
तब न मरण है; क्योंकि कौन मरेगा, कौन जीएगा! सब तो सदा है। वह जो व्यक्ति मरता और जीता है, वह तो गया। वह ध्यान में डूब गया। तो ध्यान को करने की कोशिश मत करना,
इसका खयाल रखोगे, तो बहुत अच्छा है।
प्रश्न :
अगर एक आदमी देखे कि कोई गलत बोल रहा है और वह रोक देता है उसको कि यह
गलत है; कठोर शब्द मुंह से निकल
जाते हैं, तो सब लोग उसे बोलते हैं कि तुम्हें ऐसा नहीं करना
चाहिए। इतने कठोर शब्द कहकर उसका दिल दुखाया! लेकिन मैं तो यह समझती हूं कि यह बात
जो है, निकलवायी गई है भगवान की तरफ से, कही गई है कि यह गलत है।
नहीं, अगर यह भगवान से निकलवायी गई है, तो वह जो तुम्हारी गद्रन दबाकर कह रहे हैं कि ये कठोर शब्द निकले, वे भगवान से नहीं निकलवाये? मामला खत्म ही है,
उसमें क्या दिक्कत है। तुम्हारी तो भगवान से निकलवायी गई है। और यह
जो दूसरे आपसे कह रहे हैं कि तुमने गाली देकर बहुत बुरा किया, यह किससे निकलवायी गई है? यह इनको तुम छोड देती हो
भगवान के पास। तब बेईमानी हो जाती है। यह बेईमानी चल रही है पूरे वक्त। और जब सभी
भगवान से निकलवाया गया है, तब क्या सवाल है!
प्रश्न :
जो हो रहा है, आटोमैटिक
है, कहलवाया गया है?
नहीं—नहीं, उनसे भी आटोमैटिक हो रहा है। तुम्हीं से आटोमैटिक हो रहा है? और वह जिस आदमी ने बुरा काम किया था, जिसको तुमने
गाली दी है, उससे भी आटोमैटिक हो रहा है। और ये बेचारे जो
तुमसे कह रहे हैं कि तुमने बहुत कठोर शब्द बोल दिए हैं, यह
भी आटोमैटिक हो रहा है।
नहीं, हमारी कठिनाई यह है कि साक्षी का हमें पता नहीं है।
इसलिए हम मान लेते हैं कि अगर साक्षी हो जायें...। अगर का सवाल नहीं है वहां। वह
तो पता होगा, तो फिर ये तीनों बातें ही एक हो गयीं। इससे कुछ
झंझट न रही। इसमें कोई झंझट न रही। लेकिन हम मान कर सवाल उठाते हैं। हम कहते हैं,
' अगर साक्षी हो गये और फिर ऐसा हुआ। ' अभी
साक्षी तो हुए नहीं, इसलिए वह जो कि फिर ऐसा हुआ, जो आप सोच रही हैं, वह साक्षी होने के पहले का सोचना
है। साक्षी हो गये, तब क्या बात है! फिर कोई बात ही नहीं है।
तब कोई सवाल ही नहीं है।
महाभारत
में एक बहुत मजेदार बात है। महाभारत में एक बात आती है कि दिनभर लडाई चलती है, दिन भर लड़ते हैं। सांझ जब लडाई बंद हो जाती है,
तो सब एक—दूसरे के शिविरों में जाकर गपशप करते हैं। वे जो दिनभर लड़े
थे मैदान पर दुश्मन की तरह और जी—जान लगा दी थी एक—दूसरे को मारने—मिटाने में—जब
बिगुल बज जाता, लडाई बंद हो जाती, तो
फिर एक—दूसरे के शिविर में जाकर गपशप भी होती, बैठकर बातचीत
भी होती; रात, आधी रात तक सब चर्चा भी
चलती कि कौन मर गया, कौन बच गया। ये वही लोग, जो दिन भर बिलकुल जी—जान से लड़े। बड़े अदभुत लोग हैं। क्योंकि जिससे हम
दिनभर लड़े हैं, उससे शाम को हम गपशप करने थोडे जायेंगे! और
जिससे हम शाम को गपशप किए हैं, उससे दूसरे दिन लडेंगे कैसे!
पर यह हो
सकता है। पर यह जिस तल पर होता है, उसको मानकर नहीं चलना चाहिए कि है।, साक्षी हो गया।
ऐसा मानकर नहीं सवाल बनाया जाये। साक्षी हो जाओ। फिर सवाल लाना है। क्योंकि साक्षी
कभी कोई सवाल नहीं लायेगा। असल में साक्षी के लिए कोई सवाल ही न बचा। प्रश्न तो
उठते हैं हमारे कर्त्ता होने से। साक्षी अगर हो गये, तो जो
है, वह है। अब प्रश्न का क्या सवाल है! इसको ठीक से समझ लेना
जरूरी है।
हमारे
सारे प्रश्न हमारे कर्त्ता के भाव से उठते हैं। अगर कर्ता नहीं है तो प्रश्न क्या
है। जो है, है। मैंने तो किया नहीं
है। प्रश्न कैसे उठे! कल मुझसे किसी ने एक बहुत बढ़िया बात पूछी।
कल मुझसे
किसी ने पूछा कि ' आपने कभी किसी से प्रश्न
पूछा है?' मैंने तो नहीं पूछा। अपनी पूरी जिंदगी में नहीं
पूछा। मैंने कभी किसी से प्रश्न पूछा ही नहीं। कभी मेरे घर के लोगों ने मुझे कहा
कि कोई मुनि आए हैं, कोई संन्यासी आए हैं, कोई स्वामी आए हैं। छोटा भी था, तो मैंने कहा,
मैं चलता हूं। मेरे पिता मुझे कई दफा कहे कि 'इतनी
बातचीत करते हो, कुछ पूछ लो। ' मैं
क्या पूछूं? क्योंकि अगर मैं पूछूं कि ईश्वर है? और वह संन्यासी कह दे, है, तो
मुझे क्या फर्क पड़ेगा! और वह कह दे, नहीं है, तो मुझे क्या फर्क पड़ेगा! यह तो मुझे ही खोजना पड़ेगा न। उसके कहने से तो
कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला है। और अगर वह कह दे है, और झूठ
बोल रहा हो, तो मैं कहां पता लगाऊं!
तो मेरे
घर के लोग कहते कि चार आदमियों से पता लगा सकते हो कि यह आदमी झूठ नहीं बोलता। मैं
उन चार आदमियों में किससे पता लगाऊं कि झूठ नहीं बोलते हैं। एब्सर्ड है। कहां पता
लगाता फिरूंगा मैं। इसका तो कोई अंत ही न होगा कि उसमें संन्यासी झूठ नहीं बोलता, यह चार से पता लगाऊं। और ये चार झूठ नहीं बोलते,
यह फिर सोलह से पता लगाऊं। और वे सोलह सच बोल रहे हैं कि झूठ बोल
रहे हैं—इसका कोई अंत नहीं होगा। तो मैंने कहा, मैं पता खुद
ही लगा लूंगा। मैं इधर से ही शुरू करूंगा। उधर जाने की कोई जरूरत नहीं है। किसी से
क्या पूछना है?
प्रश्न :
जीवन के क्या कारण हैं?
नहीं हैं। हो ही नहीं सकते। वहां जो है, है। उसके लिए न कोई कारण दिया जा सकता है, न कारण है। इसलिए सवाल नहीं है; वहां कोई सवाल नहीं
है। लेकिन हमारा जो कर्त्ता है, वह अनरियल है। वह है नहीं।
इसलिए वह हर चीज में सवाल उठाता है।
मैं
यूनिवर्सिटी छोडा, तो जिनके घर पर मैं रहता
था, उनको आकर मैंने कहा कि ' आज मैं
यूनिवर्सिटी छोड़ आया। ' तो उन्होंने कहा, ' अरे! तो पूछ तो लेते। इतने दिन से हमारे साथ हो, आठ
वर्ष से, तो हमें कम से कम एक बार तो पूछ लेना था!' तो मैंने उनसे पूछा कि 'जब मैं मरूं, तो आपसे पूछ कर मरूंगा?' तो उन्होंने कहा, 'मुझसे पूछकर कैसे मरोगे?' 'मैं जब जन्मा आपसे पूछकर
जन्मा?, उन्होंने कहा, 'नहीं। क्या
पूछना, किससे पूछना!' 'असली काम तो
बिना पूछे हो जा रहे हैं, तो मैं फालतू काम क्यों पूछने
जाऊं!' तो उन्होंने कहा, ' आज नौकरी
छोड़ दी। कल अगर खाना न मिले, रोटी न मिले, भूखा मरना पड़े?' मैंने कहा, 'तो
मैं भूखा मरूंगा। वह भी मैं किसी से पूछने नहीं जाऊंगा कि भूखा क्यों मर रहा हूं।
यह क्या पूछने की बात है! मैं समझूंगा कि भूखे मरने का वक्त आ गया तो भूखा मर रहा
हूं। '
उन्होंने
कहा कि 'जब कोई मित्र तुम्हें
खिलायेगा—पिलायेगा नहीं, ठहरने नहीं देगा'...। वे बहुत नाराज थे। 'कोई ठहरने नहीं देगा, कोई खिलायेगा—पिलायेगा नहीं—फिर क्या करोगे?' मैंने
कहा, 'जो उस वक्त हो जायेगा, मैं
करूंगा। आपसे मैं यह पूछने नहीं आऊंगा कि क्या करूं? क्योंकि
सवाल यह है, जो मेरी समझ में आयेगा, उसमें
से मैं कर लूंगा। अगर गड्डा खोदना पड़ेगा, तो गड्डा खोद
लूंगा। मिट्टी काटनी पड़ेगी, तो मिट्टी काट लूंगा। ' उन्होंने कहा, 'न तुम गड्डा खोदोगे, न तुम मिट्टी काटोगे। ' तो मैंने कहा, फिर अगर खाना भी नहीं मिले, गड्डा भी न खोद सकूं?
मिट्टी भी न काट सकूं? कोई खिलाने वाला भी न
हो, तो किसी कुएं में किसी खाई में कूद जाऊंगा। लेकिन मैं
क्या करूं, यह मैं पूछने नहीं जाऊंगा किसी से। क्योंकि मेरे
होने न होने में किसी के भी उत्तर का कोई भी संबंध नहीं है। '
एक बार
यह खयाल हममें आ जाये कि हमारे सारे प्रश्न हमारी फील्स एंटाइटी हैं, जिससे उठते हैं। वह अपनी रक्षा के लिए सारा इंतजाम कर
रही है। वह हजार सवाल उठा रही है, हजार व्यवस्थाएं कर रही है
कि ऐसा हो जाएगा, तो क्या करोगे! ऐसा हो जाएगा, तो क्या करोगे! वह सारे इंतजाम में लगी हुई है। और उस सारे इंतजाम में वह
मजबूत होती चली जाती है।
अगर ऐसा
चलता रहे, तो हर प्रश्न का उत्तर दस
नये प्रश्न उठाता चला जायेगा, एंडलेस, जिसका
कोई अंत नहीं है। चीजें जैसी हैं, हैं। एक आदमी ने गाली दी
है और तुमने उसको चांटा मारा है, और दूसरे ने तुमको चांटा
मारा है। चीजें ऐसी हैं, हंसो और घर चले जाओ। इसमें पूछना
क्या है?
तुमको
आटोमैटिक हुआ, उसको भी आटोमैटिक हुआ। अब
आटोमैटिक कौन करवा रहा है—वह कभी मिल जाए, तो उससे पूछना कि
यह कैसा आटोमैटिक करवा रहे हो तीन तरह का कि हमको ऐसा हो रहा है, इनको ऐसा हो रहा है! वह कभी मिलेगा नहीं, और जब तुम
उसके पास पहुचोगी, तो तुम मिट जाओगी—पूछने वाला नहीं रहेगा,
उत्तर देने वाला नहीं रहेगा। लेकिन हम मानकर कर लेते हैं। मानकर
बहुत दिक्कत हो जाती है। और सब चीजों में तो चलता है। गणित में हम मान लेते हैं कि
एक आदमी बाजार गया, उसने एक दुकान से छह आने के केले खरीदे।
तीन दर्जन खरीदे, तो कितने आने हुए। हम मानकर चलते हैं।
मुझे
बहुत मजा आता था—मेरे एक गणित के शिक्षक थे, वे बहुत नाराज हो जाते थे। वे कहते कि मान लो कि एक आदमी बाजार गया। मैंने
कहा कि 'मानें क्यों? कहां गया बाजार?'
तो वे कहते थे, ' तुम नासमझ हो। तुमको पता
नहीं। यह गणित है, इसमें मानकर चलना पड़ता है। ' फिर भी आदमी गया नहीं, तो हम क्यों झंझट में पड़े?
आदमी कहां है—इतना कहना बहुत आनंदपूर्ण था। वे मुझे क्लास से बाहर
कर देते थे कि तुम बाहर रहो। वे कहते, 'उसने तीन दर्जन केले
खरीदे। ' मैं कहता, ' लेकिन खरीदे कब
हैं, कहां खरीदे हैं!' लेकिन वे कहते,
'गणित इसके आगे नहीं बढ़ सकता। गणित में तो यह मानकर चलना ही पड़ेगा। '
तो मैं कहता कि ' हमें मानकर ही चलना है, तो मान लो कि उसने तीन दर्जन
केले खरीदे तो ऐसा क्यों नहीं मानते सरल कि जिसमें कोई ज्यादा झंझट न हो। एक रुपये
दर्जन के खरीदे तीन रुपये में खरीद लिए। जबकि मानकर ही चलना है, तो पांच आने, छह पाई के खरीदे, इतनी परेशानी क्यों कर रहे हो?' तो वे कहते,
'तुम समझ ही नहीं पाते!'
उन्होंने
मुझे... कभी उनकी अक्ल में नहीं आई बात कि मैं मजाक कर रहा हूं। वे यही सदा समझे
कि ' तुमको गणित कभी अक्ल में आयी नहीं। तुम गणित समझने के योग्य नहीं हो,
तुम बाहर खड़े रहो क्लास के। पूरी क्लास को खराब कर देते हो। '
क्योंकि बाकी लड़के पूछने लगे कि मानें क्यों? अगर
मानें न तो बहुत मुश्किल हो जाती है। और सारा खेल जो है वह मानकर ही चल रहा है कि
ऐसा हो तो ऐसा हो। ऐसा हो, तो ऐसा हो। लेकिन वह पहली कड़ी
क्यों मानने की जरूरत है?
साक्षी
हो जाओ, फिर देखना : न कोई बाजार
जाता, न कोई केले खरीदता, न कोई हिसाब
है। लेकिन वह साक्षी हो जाने के बाद, उसके पहले नहीं। सब
गणित उसके पहले है, उसके बाद कोई गणित नहीं है।
'सपोज' की कोई जगह नहीं है जिंदगी में और हमारे सब
काम सपोज से चल रहे हैं। पति घर लौट रहा है, तो वह सपोज करके
आ रहा है कि पत्नी यह कहेगी, इतनी देर कहां थे, तो क्या जवाब दूंगा। सब सपोजिशन चल रहा है। पत्नी घर तैयार हो रही है कि
पति आ रहा है वह जरूर कहेगा कि दफ्तर में काम था, इसलिए देर
हो गई। तो फोन करके पता लगा लूं कि दफ्तर पांच बजे तक था कि नहीं! यह सब सपोजिशन
चल रहा है। बड़ी सपोजिशन, बड़ी झंझट हो रही है, क्योंकि दोनों का गणित तैयार है। और वे गणित टकरा जाने वाले हैं, क्योंकि दोनों के अपने सपोजिशन हैं।
सीधी बात
है कि पति देर से आ रहा है, बात खत्म हो गई। अब इसमें
और क्या जांच—पड़ताल करने का है! पति देर से आनेवाला है। ऐसा आदमी मिला है, जो देर से आता है, बात खत्म हो गयी।
मगर नहीं, हम जिंदगी जैसी है, वैसा
स्वीकार नहीं करते। इसलिए हम उसके चारों तरफ जाल बुनते रहते हैं कि ऐसा होगा,
ऐसा होगा। और तब एक दिमाग का जाल है। फिर हम कहते हैं—मन शांत नहीं
होता, विचार बहुत चक्कर काटते हैं। विचार तुम चौबीस घंटे
पैदा कर रही हो। सब विचार सपोजिशन पर खड़े हैं—सब विचार। कि मान लो कि ऐसा हो जाये,
बस उस पर सब खेल चल रहा है। जैसा हो रहा है, वैसा
हो रहा है। जैसा होगा, वैसा होगा। ऐसा खयाल में आ जाए तो
विचार की कहां गुंजाइश है?
प्रश्न :
जिस तरह विचार हैं, वह उनका उठना स्वाभाविक है?
स्वाभाविक
तो सभी है। लेकिन वह भी मनुष्य का स्वभाव है, जो नहीं हो सकता। अस्वाभाविक होना भी मनुष्य का स्वभाव है। सिर्फ मनुष्य
ही हो सकता है। कुत्ता नहीं हो सकता, बिल्ली नहीं हो सकती—मनुष्य
ही हो सकता है। मनुष्य के स्वभाव की एक खूबी है कि वह अस्वाभाविक हो सकता है। वह
उसका स्वभाव है।
प्रश्न :
यह जो सपोजिशन चल रहे हैं, ये सारे भय के कारण चल रहे हैं?
हां, सारा भय है—सारा। हमने कितने सपोज किये हुए हैं कि
स्वर्ग होगा। सपोज—स्वर्ग हो, नर्क हो। पाप का फल मिलता हो,
पुण्य का फल मिलता हो। भगवान हो, जवाब पूछे।
कयामत आ जाये और उठाये और पूछे कि तुमने क्या किया? यह सारा
सपोजिशन है। कुछ मतलब नहीं है इसका। लेकिन मनुष्य के स्वभाव का यह हिस्सा है कि वह
अस्वाभाविक हो सकता है। अस्वाभविक होता है, तो दुख पाता है।
दुख का मतलब है, अस्वाभाविक होने का फल। स्वाभाविक होता है,
सुख पाता है। सुख का मतलब है, स्वाभाविक होने
का फल। लेकिन स्वाभाविक होने की चेष्टा मत करना, नहीं तो वह
भी अस्वभाव ही होगा। अस्वाभाविक होने को समझ लेना, बात खत्म
हो जायेगी। धीरे— धीरे स्वभाव आ जायेगा। चीजें जैसी हैं, हैं।
यह खयाल आ जाये, तो ध्यान के लिए बडी संभावना बन जाये।
प्रश्न :
तो अहं भाव की निवृत्ति कैसे होगी?
उसकी
निवृत्ति आप कर ही नहीं सकते हैं। क्योंकि जो कह रहा है कि निवृत्ति कैसे करूं, वही है अहं। इसकी आप निवृत्ति कर ही नहीं सकते।
अहंकार इतना सूक्ष्म है कि जब वह यह पूछता है कि अहंकार को कैसे मिटाये, तो वही पूछ रहा है। सवाल और कहीं से नहीं आ रहा है, क्योंकि
अहंकार के पीछे तो सवाल ही नहीं है। वहां अहंकार है ही नहीं। सवाल अहंकार का
हिस्सा है। साक्षी होने की जो चित्त दशा है, उसका हिस्सा
नहीं है।
अब यह
समझ लीजिए : पानी है, पानी पूछता है कि मैं
अपनी तरलता कैसे मिटाऊं, लिक्विडिटी कैसे मिटाऊं? तो पानी तो तरल होकर ही हो सकता है। तो पानी तो तरलता नहीं मिटा सकता है,
क्योंकि पानी की परिभाषा में तरलता है। तरलता उसका हिस्सा है। हम
उसको कहते हैं कि सौ डिग्री तक गर्म हो जाओ, कि शून्य डिग्री
के नीचे ठंडे हो जाओ। शून्य डिग्री के नीचे होकर ठंडे हो जाओगे, तो पानी रह ही नहीं जायेगा, बर्फ हो जाओगे। तो वह
कहता है, 'वह तो ठीक है। मान लिया कि बर्फ हो गये, लेकिन तरलता कैसे मिटेगी!'
हम उससे
कहते हैं कि 'सौ डिग्री तक गर्म हो जाओ,
तो तुम भाप हो जाओगे। ' वह कहता है कि 'मान लिया कि भाप हो गये, लेकिन तरलता कैसे मिटेगी!'
नहीं, तरलता तो पानी के सौ डिग्री के बीच का
ही खेल है।
अहंकार
जो है, वह कर्ता की डिग्रियों के
बीच का खेल है। या तो उससे नीचे गिर जाओ, जैसे बेहोशी में
गिर जाता है आदमी। तो अहंकार चला जाता है। वह फ्रोजननेस की स्थिति है। बर्फ हो गये।
नीचे गिर गये। इसलिए तो शराब का इतना शौक है। अहंकार से छुटकारा—नीचे गिरकर—बर्फ
की स्टेट में ला देता है वह आदमी को। लेकिन जिंदगी बहुत उष्ण है। ज्यादा देर बर्फ
नहीं रह सकते। जिंदगी की उष्णता पिघलाकर फिर पानी बना देती है। सुबह होती है,
फिर नशा नष्ट हो जाता है। फिर होश आता है, फिर
पता चलता है, मैं हूं।
तो एक
रास्ता है कि बेहोश हो जायें, अहंकार
के बाहर हो जायेंगे। लेकिन इसका आपको पता नहीं चलेगा कि बाहर हो गये, क्योंकि बेहोश होकर बाहर हुए हैं। और दूसरा रास्ता यह है कि आप साक्षी में
पहुंच जायें, तो आप पायेंगे कि बाहर चले गये हैं। लेकिन चूंकि
साक्षी में गये हैं, तो साक्षी तो होश है, इसलिए आपको यह पता नहीं चलेगा कि अहंकार नहीं रहा।
तो
साक्षी की अवस्था और बेहोश की अवस्था में बहुत बार भूल हो जाती है। इसलिए मेरी समझ
है कि रामकृष्ण कभी भी साक्षी की अवस्था में नहीं पहुंचे। बेहोशी की अवस्था में
पहुंच गए और नीचे गिरते रहे। लेकिन ये अवस्थाएं बिलकुल एक जैसी लगती हैं। क्योंकि
पानी दोनों हालत में तरल नहीं रह जाता। एक गुण तो दोनों में बराबर है, बर्फ में और भाप में, कि तरलता
खो जाती है।
प्रश्न :
मुक्ति की कोशिश क्या आत्मा की ही वृत्ति है?
आत्मा की
वृत्ति नहीं है यह। कोशिश करने का तो सवाल है नहीं। कोशिश करियेगा, तो भी नहीं मार सकते। वह भी अहंकार का हिस्सा है—
अहंकार को बढ़ाने की कोशिश करो कि मारने की कोशिश करो, दोनों
हालत में अहंकार रहेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।
तो मैं
कोशिश की बात नहीं कर रहा, मैं तो यह कह रहा हूं कि
कर्त्ता होने की स्थिति से छलांग अपने आप घटती है। देखने को वहां कोई बचेगा नहीं,
यही तो सारी गड़बड़ है। वह सपोजिशन का मामला है। हम कहते हैं,
साक्षी बनकर अहंकार को...। साक्षी जहां होगा, वहां
अहंकार कैसे होगा! दोनों बातें साथ ही होने वाली हैं। साक्षी हुए, तुम पाओगे कि अहंकार न था, न है, न हो सकता है।
जैसे कि
सुबह कोई आदमी कहे—रात सपना देखे और सुबह कहे कि सपने को कैसे तोड़े? हम उससे कहें, 'तुम तो नींद तोड़ो,
सपने की फिक्र छोडो। ' वह कहे, 'है।, यह बात ठीक है। तो फिर जागकर सपने को देखते
रहें?' तो क्या मतलब रहेगा! वह जागकर कैसे सपने को देखता
रहेगा! वह जागने के साथ सपना टूट जायेगा। जागते से ही सपना देखने को बचेगा नहीं।
वह नींद का हिस्सा है।
सपना मूल
नहीं है, नींद मूल है। तो नींद तो
बिना सपने के हो सकती है; लेकिन सपना बिना नींद के नहीं हो
सकता। इसलिए सपने से आप मत लड़ो, क्योंकि अगर सपने में तुम
सपने से भी लड़े, तो तुम नये सपने पैदा कर सकते हो, और कुछ नहीं कर सकते। जाग जाओ; सपने की फिक्र ही
छोडो। वह नींद का
हिस्सा
है। तुम जाग गये, तो वह नींद के साथ गया,
वह बचेगा नहीं कहीं।
हमारे
कर्त्ता होने की जो नींद है, अहंकार
उसका सपना है। अहंकार से लड़े, तो नींद में चलेगी लड़ाई। कहीं पहुंचने वाले नहीं हैं।
दो तरह
के नींद के सपने हो सकते हैं कि एक आदमी कहे, कि अब मैं बिलकुल निरहंकारी हो गया। मगर नहीं हो गया निरहंकारी। होगा कौन
निरहंकारी? एक आदमी कहे, मैं तो बड़े अहंकार
से भरा हुआ हूं। एक कहे, मुझमें तो अहंकार बचा ही नहीं।
लेकिन दोनों में 'मैं ' बचे हुए हैं।
दो तरह की घोषणाएं कर रहे हैं, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। 'मैं ' मौजूद है और घोषणा कर रहा है। इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता है।
नहीं; एक आदमी जाग गया है। उससे पूछो कि अहंकार मिट गया
तुम्हारा? वह कहेगा, ' था ही नहीं,
क्योंकि होता, तो मिटाना मुश्किल था। मिटा
कैसे? जो है, वह कभी मिटता नहीं। '
वह कहेगा, ' था ही नहीं। ' पूछो, 'क्या अहंकार से छुटकारा हो गया तुम्हारा?
और वह कहेगा, 'हम कभी फंसे न थे, बंधे न थे। ' तब हमें उसकी भाषा समझ में नहीं आती।
हम कहते
हैं, ' बड़ी मुश्किल की बात है।
हम तो उसी से फंसे हैं। कोई तरकीब बता दो कि तुम कैसे निकल गये बाहर!' वह कभी बाहर निकला नहीं। उसने जागकर देखा और उसने पाया कि नींद में सपना
देखा था कि बंधे हैं।
इसलिए
मेरा सारा जोर इस बात पर है कि जिंदगी जैसी है, उसको चुपचाप स्वीकार कर लो। जो है, उसे पूरी तरह
स्वीकार कर लो। जिस दिन स्वीकृति पूरी हो जायेगी, इंच मात्र
भी अस्वीकृति तुम्हारे भीतर न होगी, उसी दिन तुम पाओगे—घटना
घट गयी। उसके बाद एक क्षण रुकने की जरूरत नहीं है घटना को। बस, उस क्षण तक घटना नहीं घट पायेगी। वह घट जायेगी और उसके पार फिर कुछ नहीं
है। उसके पार यह भी पता है कि पहले भी नहीं था। इसलिए जो कोई कहता है कि अहंकार
छोड़ो, वह गलत बात कहता है। गलत बातें कह रहा है। अहंकार छोड़ा
नहीं जाता, क्योंकि छोड़ना—पकड़ना सब अहंकार की तृप्ति है।
जो हमारी
सारी तकलीफ है, वह ऐसी है, जैसे कुत्ता पूंछ को पकड़ रहा है अपनी। पास दिखायी पड़ती है बिलकुल, मुंह के पास रखी है बिलकुल। उचकता है। जब वह उचकता है, तब पूंछ भी उचक जाती है। फिर उतना ही फासला रह जाता है। फिर वह देखता है,
पास तो बिलकुल है। जरा छलता ठीक से लगानी चाहिए, ठीक से पकड़ नहीं पाया, क्योंकि मैं जरा चूक गया। ऐसी
ताकत से उछलो कि पूंछ मिल जाये वहा, जहा है! वह जितनी ताकत
से उछलता है, उतनी ताकत से पूंछ उछल जाती है। क्योंकि पूंछ
कुत्ते का हिस्सा है। तो वह सोचता है, दूसरी तरफ से पकड़ो।
नहीं आती, तो दूसरी तरफ से पकड़ो। मुंह फिराओ। उलटी तरफ से
पकड़ लो। उधर से भी छलता लगाता है, तो वह पाता है कि पूंछ
हमेशा उचक जाती है। उसको यह पता नहीं चल पाता—पता चले भी कैसे कि पूंछ उसकी छलांग
से जुड़ी हुई है!
इसलिए वह
धन इकट्ठा करता है, तो अहंकार मजबूत हो जाता
है। तो वह सोचता है कि धन छोड़ दो। वह धन छोड़ देता है, तो
अहंकार मजबूत हो जाता है। वह पूंछ है उसकी जुड़ी हुई। वह कहता है, गृहस्थी में अहंकार से छुटकारा नहीं हुआ, संन्यासी
हो जाओ। फिर वह संन्यासी का अहंकार पकड़ लेता है। अंतर कुछ पड़ता नहीं है। अंतर पड़
नहीं सकता। कुत्ते को किसी दिन समझना पड़ेगा कि पूंछ अपनी है, पकड़ने की
जरूरत नहीं है। अपने पीछे लटकी हुई है। इसको
छोडो। इसकी झंझट में ही पड़ने की जरूरत नहीं है। यह पकडना क्या है, यह पकडी ही हुई है। बस, कुत्ता
मुक्त हो गया। अब वह पूंछ को पकड़ता नहीं, अब वह शान से चला
जा रहा है!
जो सारी
कठिनाई है हमारी, वह कठिनाई बहुत ही
क्रीशियस है, क्योंकि जो हम करते हैं, उससे
वह कठिनाई और बढ़ ती हुई मालूम पड़ती है। कुत्ता पागल हो सकता है। इतनी जोर से छलांग
लगाये पकड़ने को पूंछ कि पगला जाये। दिमाग खराब हो जाये उसका। उसको पूंछ इतनी करीब
लगती है कि वह सोचता है, इस बार चूक गया, अगली बार पकड लेंगे। दूर तो दिखती नहीं, इतनी पास है।
इससे भी दूर की चीजें पकड ली हैं उसने सदा, यह तो पूंछ है।
उतने दूर मिठाई पड़ी थी, उसने छलांग लगाई और पकड ली। उतने
दूर आदमी जा रहा था, दौड। और पकड लिया। दूर—दूर की चीजें पकड
लीं, तो कुत्ते के मन को बडा दुख होता है कि यह जो पूंछ इतने
पास है, यह चूकी जा रही है! तो मन बडा क्रोध में भरता है।
क्रोध से जोर से छलांग बढ़ ती है।
संन्यासी
और गृहस्थ जो हैं, करवट बदले हुए पूंछ पकड
रहे हैं; और कुछ नहीं कर रहे हैं। वह इधर से पकड रहा है,
वह उधर से पकड रहा है। पूंछ को पकड़ो ही मत।
प्रश्न : (रिकार्डिंग अस्पष्ट )
वे तो यह
कहेंगे। हरिद्वार गयीं, यह आपकी गलती। उनको
महात्मा समझा—यह आपकी भूल। वे क्या करें! आप तो लौटने का इंतजाम करती हैं कि लौटो।
टिकिट खरीदो और वापस जाओ। अगर हरिद्वार न जाओ, कुछ दिन में
महात्मा बंबई, इधर आपके पास—कि माई, कुछ
जानना हो, तो हम बताने आये हैं! उनसे कहना कि बाबा, कुछ नहीं जानना है, जा। वह हरिद्वार चला जायेगा।
प्रश्न :
परमात्मा जब मिल जायेगा, तब क्या हम दूसरे के लिए भी कुछ करेंगें?
बिलकुल एक
ही बात को कहने के दो ढंग हैं। दूसरा तो बचता नहीं है। वह तो झंझट है। सपोजिशन की
वजह से हम परेशान हैं। परमात्मा की अनुभूति होने पर दूसरा बचता नहीं है। स्व भी
नहीं बचता। यह सारी कठिनाई जो है हमारी कि हम पहले से पूछ रहे हैं। ये सारे जो
सवाल हैं, ये ऐसे सवाल हैं कि हम
पहले से पूछ रहे हैं। यह ऐसा मामला है कि एक आदमी बैलगाड़ी में बैठा है। उसको हमने
कहा कि हवाई जहाज भी होता है। उस आदमी ने कहा, 'बैल कितने
लगते हैं हवाई—जहाज में?' हमने कहा कि, 'बैलगाड़ी से बहुत तेज चलता है। ' उसने कहा, 'बैल तो हजार दो हजार बांधने पड़ते होंगे!' हमने कहा,
' भई, बैल लगते नहीं। ' उसने
कहा, 'क्या बातें कर रहे हैं! अगर चलता है, तो बिना बैल के चलेगा कैसे! बिना बैल के चलेगा कैसे? हांकते रहने वाला रहता है?' 'हांकने वाला नहीं रहता
है। क्योंकि बैल ही नहीं रहते। ' वह कहे कि 'बिना हांकने वाले के कहीं चल सकता है?' मेरा मतलब
समझे न!
वह जो
आदमी है, पूछता है, 'कितना बडा रास्ता बनाना पडता है? हवाई जहाज के चलने
के लिए कितना बडा रास्ता बनाना पडता है?' 'उसके लिए रास्ता
बनाना नहीं पडता। ' उसकी जो कठिनाई है, वह कठिनाई बैलगाड़ी में बैठकर हवाई जहाज के संबंध में प्रश्न पूछने की
कठिनाई है, जो स्वाभाविक है। हमारी सबकी कठिनाई यही है।
तो मैं
यह कहता हूं कि ये प्रश्न अर्थ नहीं रखते। क्योंकि हम जो भी प्रश्न करेंगे, वे प्रश्न गड़बड़ होंगे। गड़बड़ ही होने वाले हैं वे।
क्योंकि हमें उस जगह का कोई पता नहीं है। कोई पता नहीं कि वहां क्या होगा। उस
संबंध में बिलकुल ही अज्ञात जाना पड़ेगा तुम्हें। उत्तर पहले मिल भी नहीं सकते। और
इसलिए सब उत्तर नकार के होंगे, निगेटिव होंगे। सिर्फ इतना ही
कह सकते हैं कि 'नहीं, बैल नहीं होते
हैं'—बैलगाड़ी वाले से— 'इतना तू पक्का
मान, एक बात पक्की है कि बैल नहीं होते हैं। ' और यही उसकी तकलीफ है, क्योंकि बैल अगर हों, तो वह समझ भी ले कि हवाई जहाज, ठीक है, बडी बैलगाड़ी होगी। यही उसकी तकलीफ है। हम उससे कहते हैं, 'बैल नहीं होते हैं। ' वह कहता है, ' आप निषेधात्मक बताते हैं। आप हमको पॉजिटिवली बताओ। बैल नहीं हो, तो घोड़ा होता है। क्या होता है? बस, पॉजिटिवली बताओ। ' बैलगाड़ी वाले के पास जो भाषा है,
उससे कुछ भी संबंध नहीं रह गया है।
जब हम
पूछते हैं कि जब परमात्मा मिल जायेगा, तो फिर हम दूसरे के लिए कुछ करेंगे? तब दूसरा बचेगा
नहीं, आप बचेंगे नहीं। कर्त्ता बचेगा नहीं। होना बचेगा। और
होना होता रहेगा—दूसरे के लिए भी, अपने लिए भी, सबके लिए भी। होना होता रहेगा। आपको कुछ करने जाना नहीं पड़ेगा। अभी आपको
करने जाना पडता है।
अभी
रास्ते पर एक आदमी गिर पडता है, तो
आपको सोचना पडता है कि उठायें कि नहीं उठायें। इसका डिसीजन लेना पडता है कि इसको
उठायें कि न उठायें। जरा उसकी चोटी उठाकर देखनी पड़ती है कि चोटी है कि नहीं! अगर
मुसलमान हो, तो नाहक उठाने का पाप लग सकता है। हिंदू हो,
तो पुण्य मिल जाये। चोटी उठाकर देखनी पड़ती है।
यह जो
अभी हो रहा है, अब आदमी यह पूछेगा कि समझ
लो परमात्मा मिल गया है, फिर हम इसकी चोटी उठाकर देखेंगे कि
नहीं, कि चोटी है कि नहीं! चोटी होगी तो भी परमात्मा है,
चोटी नहीं होगी तो भी परमात्मा है। चोटीवाला परमात्मा, एक गैर—चोटी वाला परमात्मा—उठाने में उसमें कोई फर्क नहीं पडता।
फिर यह
भी सवाल नहीं होगा कि उठायें कि नहीं। क्योंकि उठायें कि नहीं, यह सवाल तब उठता है, जब कर्ता
होता है। नहीं, हम आदमी को गिरते देखेंगे और अपने को उठाते
देखेंगे। इससे भिन्न कुछ बात नहीं है। एक आदमी गिरा, यह
दिखायी पड़ेगा और हमने उसको उठाया, यह भी दिखाई पड़ेगा। और
इन दोनों में कहीं कर्ता का सवाल नहीं उठता कि मैं उठाऊं कि न उठाऊं; कि यह करूं कि न करूं। यह सवाल नहीं है।
प्रश्न :
स्वानुभव के पहले तो दूसरे से पूछना ही पड़ेगा ना?
स्वानुभाव
के अतिरिक्त कोई रास्ता ही नहीं है। दूसरे से पूछ रहे हैं, इसलिए खयाल ही नहीं आ रहा है। दूसरे से पूछ रहे हो,
इसलिए खयाल नहीं आ रहा है। नहीं पूछो, तो अभी
तुमको भी खयाल आ जाये।
प्रश्न :
अपने आप कैसे मालूम पड़ेगा?
अपने आप
ही मालूम पड़ेगा, और नहीं मालूम पड़ेगा,
तो नहीं मालूम पड़ेगा। लेकिन दूसरे से तो कभी नहीं मालूम पड़ेगा।।
पूछो—वह
भी हिस्सा है भटकने का। भटकना जरूरी है अपने घर पर लौट आने के लिए। और जितना जो
भटक ले, उतना अच्छा है। क्योंकि
जितना थका—मांद। लौटेगा, उतना घर में विश्राम करेगा आकर। तो
भटकना भी जरूरी है। एकदम जरूरी है। भटकना हिस्सा है जिंदगी का। उसके भटकने में कुछ
भी बुरा नहीं है। पूछो— भटको। जब भटक जाओगे और किसी से न मिलेगा, तब क्या करोगे? फिर लौट ही आना पड़ेगा न आपको!
प्रश्न :
हजारों वर्ष से लोग भटक रहे हैं।
हजारों
वर्ष से कहां भटक रहे हो तुम? एक
वर्ष भी भटक लो, बहुत है। भटकते भी नहीं हो। ऐसे अपनी जगह पर
खड़े हुए नाचते रहते हैं, उचकते रहते हैं! भटक भी लो,
तो कुछ हो जाये।
अब
हजारों वर्ष से भटक रहे हैं! कौन भटक रहा है? तुम भटक रहे हो हजारों वर्ष से? एक दिन भी भटक लो
चौबीस घंटे पूरी तरह से, तो पहुंच जाओ घर। लेकिन भटकते भी
नहीं हो, उसमें भी ताकत नहीं लगाते हो। खड़े हैं। उछलकूद कर
रहे हैं वहीं और सोच रहे हैं कि भटक रहे हैं, बडी खोज कर रहे
हैं! कुछ खोज—वोज नहीं कर रहे हैं। कोई अपनी गीता पर उछल रहा है। कोई अपनी कुरान
पर उछल रहा है। कोई बाइबिल पर खड़ा हुआ उछल रहा है। गीता, कुरान,
बाइबिल—मरे जा रहे हैं उछल—कूद की वजह से। तुम कहीं जा नहीं रहे हो,
अपनी किताब पर खड़े नाच रहे हो। चीजें तो दिखायी पड़ेगी न, भटकने से ही दिखायी पड़ेगी। फिर उसमें हर्जा नहीं है।
पूछो—उसमें
हर्ज नहीं है। लेकिन सब पूछना व्यर्थ सिद्ध होगा। आखिर में तुम पाओगे कि कहां के
पागलपन में पड़े हुए हैं। क्या पूछना है? किससे पूछना है? कौन बतायेगा! कोई बता भी देगा,
तो मैं कैसे जान लूंगा! यह पता चलेगा। एक रेवोल्यूशन होगा, तुम्हारे भीतर से होगा यह। कोई नहीं बतायेगा, कोई
बताने वाला नहीं है। कोई जानता होगा, तो भी नहीं बता सकता।
यह कोई बताने की बात नहीं है। तब क्या करोगे?
जब कुछ
करने को न बचेगा, तब तुम ध्यान कर सकोगे,
नहीं तो नहीं कर सकोगे। जब तक तुम्हें कुछ भी करने को बच गया है,
तब तक तुम वही करोगे, ध्यान नहीं करोगे।
यही तो
तकलीफ है। वही मैं पूरे वक्त कह रहा हूं कि तुम वही मानकर चल रहे हो कि एक आदमी
बाजार गया और उसने केले खरीदे। उसने खरीदे भी नहीं और गया भी नहीं। वह तो मान कर
चलते हो न, कि अगर ऐसी आपकी बात मान
लेंगे, तो ऐसा हो जायेगा! ऐसा करके देखो न!
वह तो
समझ में आ गयी बात, तो करने को थोडे ही रहेगी।
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