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गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

अनंत की पुकार—(अहमदाबाद)-प्रवचन-11



अनंत की पुकार(अहमदाबाद)
ओशो


प्रवचन-ग्याहरवां-(ध्यान-केंद्र: मनुष्य का मंगल)

हमारा विचार है कि एक मेडिटेशन हॉल और एक गेस्ट हाउस बनाना है। तो मैं आपको यह पूछना चाहता हूं कि ऐसा हम लोग जो फंड इकट्ठा करने का सोच रहे हैं, जो पंद्रह लाख रुपये करीब का हमारा अंदाज है, वह करने का पक्का मकसद क्या है? और ऐसा करने से वह जीवन जागृति केंद्र, उस सब जगह से क्या फायदा है? उसके लिए कुछ समझाएं।

यह तो बड़ा कठिन सवाल पूछा।

आपने तो सभी कठिन सवालों के जवाब दिए हैं।

बहुत सी बातें हैं। एक तो, जैसी स्थिति में आज हम हैं ऐसी स्थिति में शायद दुबारा इस मुल्क का समाज कभी भी नहीं होगा। इतने संक्रमण की, ट्रांजिशन की हालत में हजारों-सैकड़ों वर्षों में एकाध बार समाज आता है--जब सारी चीजें बदल जाती हैं, जब सब पुराना नया हो जाता है।
ये क्षण सौभाग्य भी बन सकते हैं और दुर्भाग्य भी। जरूरी नहीं है कि नया हर हालत में ठीक ही हो। पुराना तो हर हालत में गलत होता है, लेकिन नया हर हालत में ठीक नहीं होता। और जब पुराना टूटता है, तो हजार नये विकल्प, अल्टरनेटिव्स होते हैं। दुर्भाग्य बन सकता है, अगर गलत विकल्प चुन लिया।
तो इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए। मैं पुराने के हर हालत में विरोध में हूं। लेकिन नये, हर नये के हर हालत में पक्ष में नहीं हूं। पुराना तो जाना चाहिए। उसे क्षण भर रुकने की कोई जरूरत नहीं है। असल में हम पुराना ही उसे कहते हैं जो अपने समय से ज्यादा रुक गया है। जिसे अब नहीं होना चाहिए था। लेकिन जब पुराने के टूटने का क्षण आता है, तो हमारे जैसी कौमें बहुत मुश्किल में पड़ जाती हैं, जिन्होंने पुराने को कभी तोड़ा ही नहीं है। तो हम पुराने की तोड़-फोड़ भी बहुत स्वस्थ चित्त से न कर सकेंगे। यानी पुराने को जब तोड़ेंगे तो हम फीवरिश हालत और बुखार की हालत में ही तोड़ पाएंगे।
लेकिन ध्यान रहे, बुखार की हालत में पुराना तो टूट सकता है, लेकिन नया निर्मित नहीं हो सकता। नये के निर्माण के लिए बड़ा शांत और स्वस्थ चित्त चाहिए।
तो इस समय सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हम क्या करें और क्या न करें। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कुछ भी करने का निर्णय लेने के पहले मुल्क के पास एक शांत, स्वस्थ चित्त हो। यह तो दूसरी बात है कि हम फिर क्या करेंगे और किस रास्ते पर जाएंगे। यानी सवाल ऐसा नहीं है कि हम एक चौराहे पर खड़े हुए हैं अपनी जिंदगी की गाड़ी को लेकर, तो सवाल यह नहीं है कि हम किस रास्ते पर मुड़ें, सवाल यह है कि ड्राइवर होश में है या नहीं है। यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि अगर ड्राइवर बेहोश है तो कोई भी रास्ता खतरे में ले जाने वाला है। और चुनाव कौन करेगा कि रास्ता कौन सा ठीक है?
सब तरफ--चाहे राजनीति हो, चाहे नीति हो, चाहे साहित्य हो, चाहे कला हो--जीवन की सब दिशाओं में पुराना टूटने के करीब है, टूट रहा है। हम कुछ न भी करेंगे तो भी टूट जाएगा। नये का चुनाव करना ही होगा। यानी अभी कुछ ऐसा नहीं है कि नये का चुनाव करने में हमें कोई चुनाव करना है, यह बिलकुल मजबूरी की हालत खड़ी हो गई है कि नये को चुनना ही पड़ेगा। पुराने ने अपने होने का सारा कारण खो दिया है। अब उसका कोई आधार नहीं रह गया।
लेकिन दो तरह के लोग हैं मुल्क में। एक वे हैं जो डर के कारण पुराने को बचाए रखना चाहते हैं कि कम से कम परिचित है, पहचाना हुआ है। एक वे हैं जो किसी भी कीमत पर कुछ भी नया आए, पुराने को तोड़ देने को आतुर हैं कि कुछ भी नया आ जाए तो ठीक होगा।
मैं उन दोनों में से नहीं हूं। और इसलिए मेरी तकलीफ बहुत ज्यादा है। मुझे लगता है कि नया तो चुनना है, चुनना ही पड़ेगा, रोज चुनना चाहिए, लेकिन कौन चुनेगा? और इधर सैकड़ों वर्षों से यह भूल होती रही है।
जैसे कि हम उदाहरण के लिए लें--उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले कोई पचास साल पूरा मुल्क इस आशा में जीया कि आजादी आएगी और सब ठीक हो जाएगा। और जिनको हम बहुत बुद्धिमान लोग कहें, उन्होंने भी मुल्क को यही समझाया कि सारी परेशानी का कारण अंग्रेज है; अंग्रेज गया कि सब परेशानी गई।
सरासर झूठी यह बात थी। लेकिन उन्होंने शायद झूठ समझ कर न कही हो, उनकी बुद्धि को दिखाई नहीं पड़ रहा था। तो उन्नीस सौ सैंतालीस पर हमने सारी आशा टिका कर रखी कि आजादी आई कि सब आ जाएगा; अंग्रेज गया कि सब परेशानी गई, क्योंकि परेशानी का कारण वह है। गुलामी सब परेशानी का कारण है, वह हट गई तो सब ठीक हो जाएगा। इसलिए पंद्रह अगस्त की सुबह जब हम उठे तो हमने देखा कि सब ठीक हो गया कि नहीं हो गया। लेकिन वह कुछ भी ठीक नहीं हुआ था।
फिर बीस साल गुजर गए। अब हम जानते हैं कि अंग्रेज हमारी सारी मुसीबत का कारण न था। एकाध कारण रहा होगा। और वह एकाध कारण भी इसीलिए मौजूद था कि हमारे बाकी मुसीबत के कारण उसको मौजूद रखने में सहारा दे रहे थे। वे सबके सब कारण मौजूद हैं। लेकिन मुल्क के दिमाग में फिर कोई फर्क नहीं पड़ा।
अब जैसे मुल्क कह रहा है कि समाजवाद आ जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा। अब हम फिर वही पागलपन की बात कर रहे हैं। समाजवाद आकर भी फिर हम ऐसे ही चौंक कर खड़े रह जाएंगे--यह तो कुछ भी न हुआ! जैसे हमने पीछे यह समझा था कि अंग्रेज की गुलामी सारे उपद्रव का कारण है। जब कि यह बात बिलकुल सच न थी। बहुत मुश्किल है यह बात कहनी कि अगर अंग्रेज की गुलामी न होती, तो हम इतनी भी अच्छी हालत में होते जितनी अच्छी हालत में वे हमें छोड़ कर गए हैं। क्योंकि अंग्रेजों ने जब इस मुल्क को अपने हाथ में लिया था तो हमारी हालत तो इतनी बदतर थी जिसकी हमें कोई कल्पना नहीं है। वे जब छोड़ गए हैं तो उससे बहुत बेहतर हालत में छोड़ गए हैं। अब हमें एक खयाल लग रहा है कि पूंजीवाद किसी तरह नष्ट हो जाए। सारी बीमारी की जड़ वह है। उसे नष्ट करके हम फिर एक मुसीबत में पड़ेंगे। और हमको लगेगा कि पूंजीवाद तो नष्ट हो गया, लेकिन जो सपने हमने संवारे थे वे नहीं आए। वे नहीं आ सकते हैं। ऐसे नहीं आते हैं।
मुल्क के पास एक विचार करने वाला मस्तिष्क नहीं है, जो चीजों को उनकी गहराई में देखे, और खोजे, और समझे। और चीजें इतनी अन्यथा हैं जिसका हमें एकदम से पता नहीं चलता। अगर एक बड़ा मकान है और उस मकान के चारों तरफ छोटे-छोटे झोपड़े हैं, तो कोई भी आदमी चौगड्डे पर खड़े होकर यह कह सकता है कि झोपड़ों को छोटा कर-कर के यह मकान बड़ा हो गया है। और यह बात सबको ठीक मालूम पड़ेगी कि यह बात ठीक है।
लेकिन यह बात बिलकुल ही गलत है। और उलटी बात सच है। ये दस छोटे झोपड़े जिंदा हैं सिर्फ इसलिए कि वह एक बड़ा मकान बीच में उठा है, नहीं तो ये जिंदा भी नहीं रह सकते थे, ये होते ही नहीं यहां। क्योंकि एक बड़ा मकान जब उठता है, तो एक राज बनाता है, एक इंजीनियर काम करता है, एक मजदूर मिट्टी ढोता है, कोई गङ्ढा खोदता है, कोई लकड़ी काटता है। एक बड़ा मकान जब बनता है तो उसके आस-पास पचास छोटे मकान बड़े मकान को बनाने की वजह से बनते हैं।
लेकिन चौरस्ते पर समझाने वाला नेता कहेगा कि ये छोटे मकान इसलिए रह गए हैं कि यह मकान बड़ा बन गया है। अगर बड़ा मकान न बनता, तो तुम्हारे पास भी बड़े मकान होते। लेकिन आप ध्यान रखें, जिंदगी का तर्क बिलकुल उलटा है। अगर बड़ा मकान न होता, तो ये झोपड़े ही नहीं होते यहां। बड़ा मकान तो होता ही नहीं, ये झोपड़े भी नहीं हो सकते थे।
बुद्ध के जमाने में मुल्क की आबादी दो करोड़ थी केवल। और अगर गांधीजी जैसे लोगों की बात मान ली जाए तो अब भी मुल्क की आबादी दो ही करोड़ हो सकती है, उससे ज्यादा नहीं हो सकती। आज हिंदुस्तान-पाकिस्तान मिल कर सत्तर करोड़ लोग हैं। ये सत्तर करोड़ लोग कैसे जिंदा हैं? पूंजीवाद ने संपत्ति पैदा की है। लेकिन इसे देखने के लिए कोई बुखार से भरा हुआ चित्त नहीं चाहिए। इसे देखने के लिए बहुत स्वस्थ, शांत चित्त चाहिए। और तब, मैं मानता हूं कि तब हम पूंजीवाद का उपयोग कर सकते हैं समाजवाद लाने के लिए। और अभी हम पूंजीवाद से लड़ेंगे समाजवाद लाने के लिए। और पूंजीवाद को तोड़ेंगे समाजवाद लाने के लिए। जब कि मेरी समझ ऐसी है कि पूंजीवाद जब पूरी तरह सफल होता है तो अनिवार्यरूपेण समाजवाद में परिणत होता है। समाजवाद जो है पूंजीवाद का अगला कदम है। लेकिन इसके लिए तो बड़ी समझ और बड़ा शांत चित्त चाहिए।
यह एक उदाहरण के लिए मैंने बात कही। ऐसा मुल्क की पूरी जिंदगी सब तरफ से उलझ गई है--चाहे राजनीति हो, चाहे धर्म हो, चाहे नीति हो, चाहे कुछ भी हो। फिर मेरा यह आग्रह नहीं है बहुत कि हम इसकी फिकर करें कि जो ठीक हमें लगता है वह मान लिया जाए। ज्यादा फिकर इस बात की करने की है कि ठीक को समझा जा सके, इस योग्य चित्त पैदा किया जाए। अगर वह चित्त यही ठीक समझे कि ऐसा करने से ठीक हो जाएगा, तो वैसा किया जाए। लेकिन ठीक और गलत का निर्णय करने वाला शांत मन मुल्क के पास नहीं है।
और जरूरी नहीं है कि पूरे मुल्क के पास शांत मन हो तब कुछ हो। जिंदगी बहुत थोड़े से लोग चलाते हैं; बहुत थोड़े से लोग जिंदगी को चलाते हैं। अगर हम मनुष्य-जाति में एक दो सौ नाम काट दें, तो मनुष्य-जाति वहीं होगी जहां कि दो लाख साल पहले आदमी था। वह अभी झाड़ से उतरना भी नहीं सीखा होगा आदमी ने। एक दो सौ आदमियों की प्रतिभा सारे जगत को गति दे जाती है।
तो इधर मेरे मन में यह निरंतर चलता है कि देश के सारे प्रमुख नगरों में ध्यान-केंद्र हों। जहां हम इसकी चिंता नहीं कर रहे हैं कि क्या ठीक है, जहां हम इसकी चिंता कर रहे हैं कि कुछ लोग क्लैरिटी को उपलब्ध हो रहे हैं, उनका मन शांत हो रहा है और चीजों को देखना शुरू कर रहा है कि चीजें कैसी हैं। न उनका पक्षपात काम कर रहा है, न उनके अपने कोई पूर्वाग्रह काम कर रहे हैं, उनके पास सिर्फ ठीक देखने वाली दूरदृष्टि है, उससे वे देखना शुरू कर रहे हैं।
अगर मुल्क के सारे बड़े नगरों में हम थोड़ी सी छोटी जमात भी चीजों को ठीक देखने वाली पैदा कर सकें, तो इस संक्रमण के काल में उसके बहुमूल्य उपयोग होंगे। और मैं मानता हूं शायद वह सर्वाधिक मूल्यवान बात सिद्ध हो।
तो इसलिए कि ठीक शांत चित्त के लिए हम हवा, भूमि और व्यवस्था दे सकें। अब उस व्यवस्था जुटाने में बहुत सी बातें होंगी। जैसे ध्यान-केंद्र के लिए कहा, मेडिटेशन हॉल के लिए कहा। एकदम जरूरी है कि सारे बड़े नगरों में ऐसे भवन हों, जो न हिंदू के हैं, न मुसलमान के हैं, न ईसाई के हैं। जो सभी मनुष्यों के लिए हैं। और जो भी वहां शांत होना चाहता है उसके लिए हैं। उन भवनों में शांति के लिए सब तरह की व्यवस्था की जा सकती है। छोटे बच्चों के लिए वहां अलग व्यवस्था की जा सकती है। उस तरह का साहित्य निर्मित किया जा सकता है जो छोटे बच्चों को ध्यान में ले जाने में सहयोगी हो सके। और हजार उपाय किए जा सकते हैं।
अब उपाय का मामला ऐसा है कि अगर आज कोई पश्चिम की पेंटिंग उठा कर देखे, तो उसे ऐसा लगेगा कि जरूर रुग्ण चित्त से पैदा हुई है।
अभी मैं पूना में जिस घर में मेहमान था, वहां दो पेंटिंग वे ले आए थे। वे काफी पैसे खर्च करके लाए थे। पेंटिंग अच्छी भी थी। उन्होंने मुझसे पूछा, आप क्या कहते हैं? तो मैंने कहा कि मैं कुछ नहीं कहूंगा, तुम इस पेंटिंग के पास आधा घंटे के लिए बैठ कर इसे देखते रहो। और आधा घंटे बाद तुम्हारा मन कैसा होता है वह मुझे बता दो।
तो आधा घंटा तो बहुत दूर है, वह जो पेंटिंग थी उसे पांच मिनट भी गौर से देखने में आपका सिर घूमने लगेगा और ऐसा लगेगा कि आप पागलखाने में हैं। उसका टोटल इफेक्ट पेंटिंग का जो है वह सूदिंग नहीं है।
अगर पिकासो की एक पेंटिंग देख कर कोई थोड़ी देर उस पर ध्यान करे, तो वह पागल हो सकता है, शांत नहीं। लेकिन एक बुद्ध की मूर्ति पर कोई पांच मिनट बैठ कर ध्यान करे, तो वह पागल भी हो तो भी भिन्न और शांत होकर लौटेगा। मूर्ति के माध्यम से या पेंटिंग के माध्यम से हमने शांति का इंतजाम किया। दरवेश फकीरों के नृत्य हैं। अब मैं चाहता हूं कि ऐसे हॉल होने चाहिए सारे मुल्क में। नाच तो हम रहे ही हैं, सारी दुनिया नाच रही है। और दुनिया को नाचने से नहीं रोका जा सकता। और जो कौम नाचने से रुकेगी, उसको भारी नुकसान होने शुरू हो जाएंगे। लेकिन नाच ऐसा भी हो सकता है कि नाचने वाला नाचने में शांत हो और ऐसा भी हो सकता है कि नाचने में अशांत हो। मूवमेंट और रिदम की बात है। ऐसा नाच हो सकता है कि कामुकता से भर दे। और ऐसा नाच हो सकता है कि कामुकता के बाहर कर दे। देखने वाला भी देखते-देखते कामुक हो जा सकता है।
अभी एक लड़की लंदन से लौटी और उसने मुझे कहा कि वह हिप्पीज़ के एक नाटक को देखने गई। तो वे नाच रहे हैं, और फिर नाचते-नाचते उन्होंने कपड़े फेंक दिए हैं और वे नग्न हो गए हैं। और उनसे मोहाविष्ट होकर हॉल में कम से कम बीस परसेंट लड़के और लड़कियों ने, युवक और युवतियों ने कपड़े फेंक दिए हैं और नग्न हो गए हैं--हॉल में अंदर, देखने वाले। तो वह कहने लगी, मैं बहुत हैरान हुई कि यह क्या हो रहा है! क्योंकि यहां तक भी ठीक है कि कोई नाच रहा है, नंगा हो गया है, ठीक है। लेकिन हॉल में देखने वाले को क्या हो रहा है!
नहीं, नाच आपके भीतर कुछ करेगा। जो भी आप देख रहे हैं वह आपके भीतर कुछ करेगा।
दरवेश फकीरों के नृत्य हैं, अगर उन्हें कोई आधा घंटे तक देखता रहे, तो वह पाएगा कि सारे मन की चिंता विलीन हो गई है। क्योंकि वह जो मूवमेंट है, वह जो गति है, वह इतने वैज्ञानिक हिसाब से निर्मित की गई है कि आपके मन को थपकी देती हो, शांत करती हो।
तो मेरे लिए मेडिटेशन हॉल बहुत और अर्थ रखता है। वहां हम उस तरह के चित्रों की व्यवस्था करें कि जिन्हें देख कर मन शांत होता हो, स्वच्छ होता हो। उस तरह के नृत्यों की व्यवस्था करें जिन्हें देख कर मन शांत होता हो, स्वस्थ होता हो। उस तरह के गीत की व्यवस्था करें, उस तरह के संगीत की व्यवस्था करें, उस तरह की वीणा वहां बजती हो, उस तरह का शिक्षक वहां पैदा हो, उस तरह का बच्चा भी वहां हो, बूढ़ा भी हो, पति भी हो, पत्नी भी हो। जीवन के सारे पहलुओं को हम वहां छूना शुरू करें।
पुरानी दुनिया ने भी बहुत से ध्यान-भवन पैदा किए थे, लेकिन वे सब पलायनवादी थे, एस्केपिस्ट थे। अगर कोई आदमी मंदिर में जाता है, तो वह जिंदगी से भागना शुरू हो जाएगा।
मैं ऐसे मंदिर चाहता हूं कि जो जिंदगी में और गहराई में ले जाते हों, जिंदगी से भगाते न हों। तो बड़े से बड़ा तो यह है कि ऐसा केंद्र जहां जीवन की सब दिशाओं को छूने के लिए और सब दिशाओं से काम करने के लिए, और मनुष्य को सब तरफ से शांति में डुबकी लगाने के लिए हम कोई व्यवस्था दे सकें। वह व्यवस्था दी जा सकती है। उसमें कोई बहुत कठिनाई नहीं है। जिस तरकीब से हमने आदमी को अशांत किया है, वह भी व्यवस्था है। वह भी हमारा इंतजाम है जिसने यह पागलपन पैदा कर दिया है।
तो ध्यान-केंद्र चाहिए। पैसे की बात मैं नहीं जानता; वह ईश्वर बाबू खुद समझें और आप समझें। उससे मुझे मतलब नहीं है कि वह...। इतना मैं जानता हूं कि अगर इस तरह की कुछ व्यवस्था जुटा पाते हैं आप, तो आप आने वाली, इस मुल्क की आने वाली समस्त पीढ़ियों के लिए कुछ काम कर सकेंगे। अपने लिए भी, कुछ मूल्यवान, जिसका स्थायी परिणाम देश की चेतना पर हो सकता है।
ऐसा साहित्य चाहिए...धर्म के नाम पर हमारे पास जो साहित्य है, बिलकुल कचरा है। यानी उस साहित्य की वजह से, जिनमें थोड़ी भी बुद्धि है, वे धार्मिक नहीं हो पाएंगे। यानी हमारा जो धार्मिक साहित्य जिसको हम कहते हैं, रिपल्सिव है, जिसके पास बुद्धि है उसके लिए। उस साहित्य को पढ़ने के लिए बुद्धिहीनता बहुत अनिवार्य आवश्यकता है। तो ऐसा साहित्य चाहिए जो मुल्क की प्रतिभा को छुए और स्पर्श करे। मुल्क की प्रतिभा जिसमें पाए कि कुछ रस हो सकता है। उस साहित्य के लिए भी ऐसे केंद्र, प्रचार और विस्तार के लिए आधार बन सकते हैं।
अब हमारे पास बहुत नये साधन हैं जो कभी भी न थे, दुनिया में कभी भी न थे। आज हमारे पास हैं, लेकिन उन साधनों का प्रयोग अभी हम मनुष्य के मंगल के लिए नहीं कर पा रहे हैं। अब बुद्ध के पास कोई उपाय नहीं था सिवाय इसके कि वे पैदल घूम-घूम कर चालीस साल तक...लेकिन चालीस साल पैदल बुद्ध घूमे तो भी बिहार के बाहर न जा सके, सिर्फ एक दफा बनारस तक गए। इतनी बड़ी दुनिया है। बुद्ध के पास उपाय नहीं था। अगर मेरे जैसे आदमी को भी बुद्ध जैसा ही भटकना पड़े, तो ढाई हजार साल बेकार गए। और जहां तक मामला ऐसा ही है कि बुद्ध जितना काम कर सके उससे ज्यादा काम मैं भी न कर सकूं। लेकिन ढाई हजार साल में जो सारी टेक्नोलॉजी विकसित हुई है, उसका क्या मतलब है? उसका मतलब यह है कि फिल्म ऐसी हो सकती है कि जिस गांव में मैं नहीं गया हूं वहां भी मेरी बात पहुंच जाए। फिल्म ऐसी हो सकती है कि जिस गांव में हम नृत्य की वह व्यवस्था न कर सकेंगे जो हमने बंबई में की है, तो फिल्म उस नृत्य की वहां पहुंच जाए। जरूरी नहीं है कि हम हर गांव में पेंटिंग्स पहुंचा सकें; लेकिन बंबई में जो पेंटिंग्स हमने लगाई हैं अपने ध्यान-कक्ष में, उनको पूरा मुल्क फिल्म के जरिए देख ले। कोई वजह नहीं है। पूरा मुल्क ही नहीं, पूरी दुनिया भी संबंधित हो जाए। रेडियो का माध्यम है, टेलीविजन का माध्यम है। अब हमारे पास ऐसे माध्यम हैं जिनका कि पुराना जगत उपयोग ही नहीं कर सकता था, उसके पास नहीं थे। हमारे पास हैं। हम भी उपयोग कर रहे हैं। लेकिन मंगल के लिए उपयोग नहीं हो रहा है, अमंगल के लिए उपयोग हो रहा है। तो एक बड़ी लड़ाई...
अभी मुझे मिलते हैं लोग, वे कहते हैं कि सिनेमा बंद करो! यह करो बंद!
बंद करने का सवाल नहीं है। जो माध्यम जगत में आ गया वह बंद नहीं होगा। इसलिए सवाल बंद करने का नहीं है, सवाल उसके उपयोग का है। उसका कैसा उपयोग हो। अब सिनेमा जैसी शक्तिशाली चीज का एकदम ही गलत उपयोग हुआ जा रहा है।
तो मैंने एक कहावत सुनी है, फ्रेंच एक कहावत है कि जब भी कोई आविष्कार होता है, तो शैतान सबसे पहले उस पर कब्जा कर लेता है। और वे जिनको हम अच्छे लोग कहें, वे खड़े देखते रहते हैं। और वे यही चिल्लाते रहते हैं कि बड़ा बुरा हुआ जा रहा है, बड़ा बुरा हुआ जा रहा है। लेकिन तुमको कौन रोक रहा है कि तुम उस पर कब्जा मत कर लो? नहीं, वे यही काम करते रहेंगे, वे साधु-सम्मेलन करके तय करते रहेंगे कि रद्दी पोस्टर नहीं लगने चाहिए। लेकिन अच्छा पोस्टर लगाने से तुमको कौन रोक रहा है? और तुम इतना अच्छा पोस्टर क्यों नहीं लगा पाते हो कि रद्दी पोस्टर अपने आप उखड़ जाए और फिंक जाए, उसे कोई देखने न आए। लेकिन वह नहीं; उनकी फिकर यह है कि रद्दी पोस्टर नहीं होने चाहिए। वे चिल्लाएंगे, रद्दी फिल्म नहीं होनी चाहिए। तुम्हें अच्छी फिल्म बनाने से कौन रोक रहा है?
लेकिन हमारी कल्पना में नहीं आता। हम सोच ही नहीं सकते कि बुद्ध जैसा आदमी अगर फिल्म में खड़ा किया जा सके, तो क्या परिणाम होंगे! हम कहेंगे, पहले तो बुद्ध खड़े ही नहीं होंगे उस फिल्म में। क्यों? आखिर बुद्ध बोल सकते हैं, चल सकते हैं, तो बुद्ध का बोलना और चलना फिल्म के द्वारा पूरा मुल्क क्यों नहीं देख सकता? वह सारा मुल्क देख सकता है। लेकिन बुरा आदमी सबसे पहले कब्जा कर लेता है और अच्छा आदमी सिर्फ चिल्लाता रहता है। अच्छा आदमी सदा से इंपोटेंट है, वह बिलकुल नपुंसक है। वह कुछ नहीं करता, वह सिर्फ चिल्लाता रहता है। वह कहता रहता है, यह बुरा हो रहा है, यह बुरा हो रहा है, वह बुरा हो रहा है। वह करता कभी कुछ नहीं। बुरा आदमी आग लगाता है, अच्छा आदमी बाल्टी पानी लेकर भी नहीं आता। वह इतना ही कहता रहता है, बुरा हो रहा है। यह नहीं होना चाहिए।
मेरी समझ में, अच्छे आदमी को वीर्यशाली बनाने की जरूरत है। बुराई से जो लड़ाई है, वह बातचीत से नहीं हो सकती है। जिन-जिन माध्यम का बुराई उपयोग करती है, उन-उन माध्यम का भलाई को भी उपयोग करना चाहिए।
अब जैसे मैं हैरान हूं! मैं जाऊंगा एक-एक गांव, घूमूंगा, भटकूंगा एक-एक गांव में। अगर मैं किसी गांव में जाऊं और दस हजार लोग भी मुझे सुन लें, तो यह समुद्र में रंग डालने जैसा है, यह कभी रंगीन होने वाला नहीं है। इतना बड़ा समुद्र है! अगर मैं जिंदगी भर मेहनत भी करूं तो भी इस मुल्क के पचास करोड़ लोगों से आमने-सामने नहीं हो सकता हूं। लेकिन अब कोई वजह नहीं है कि आमने-सामने क्यों न हो सकूं! अब हो सकता हूं, जो कि पहले कभी संभव नहीं था। अब यह संभव हो सकता है। तो नवीनतम टेक्नोलॉजी का और साइंस का धर्म कैसे उपयोग करे, इस संबंध में न केवल चिंतन बल्कि व्यवस्था जुटाने की बात है। वह पंद्रह लाख तो बहुत छोटी बात है, उसको शुरू मान कर चलना चाहिए। लेकिन अगर इसका उपयोग हो सके, तो बड़ा क्रांतिकारी काम हो सकता है।
अब बच्चे हैं; बच्चे फिल्म देख रहे हैं, उनको आप मना कर रहे हैं। मैं नहीं मानता कि उनको मना करने की जरूरत है। उनको जरूर फिल्म दिखानी चाहिए। बच्चे फिल्म देखेंगे। लेकिन कोई कारण नहीं है कि ऐसी फिल्म बच्चे क्यों न देखें कि उनकी जिंदगी में रोशनी बन कर आए। आ सकती है। ऐसा गीत क्यों न गाएं, वह भी वे गा सकते हैं। उन्हें गीत चाहिए। अब बच्चे टि्वस्ट कर रहे हैं या नाच रहे हैं या कुछ और कर रहे हैं, जॉज, यह सब चलता है। मैं मानता हूं कि बच्चों को नृत्य होना ही चाहिए। क्योंकि जो बच्चा नाच नहीं सकता वह बूढ़ा हो गया। उसको नाचना ही चाहिए।
लेकिन हम चिल्लाएंगे कि नहीं-नहीं, यह नाच ठीक नहीं है।
लेकिन ठीक नाच कहां है? तो या तो नाच है ही नहीं या फिर गलत नाच है। मैं आपसे कहता हूं, इन दोनों में गलत नाच ही चुना जाएगा। कोई उपाय नहीं है। ठीक नाच कहां है? वह ठीक नाच सामने ले आइए, गलत नाच अपने आप विदा होने लगेगा। उसे फीका कर डालने की जरूरत है। यानी मेरा मानना यह है कि भलाई जो है अभी तक भी आकर्षक नहीं हो पाई है, बुराई अभी भी आकर्षक है। यह आश्चर्यजनक बात है कि बुराई इतनी आकर्षक है और भलाई में कोई आकर्षण नहीं है। आदमी जब मरने लगता है तब वह मंदिर की तरफ जाता है, बाकी वह नहीं जाता। हां, किसी फिल्म टाकीज़ का नाम मराठा मंदिर हो, वह बात अलग है। वहां जाता हो वह बात अलग है। नहीं तो मंदिर, मंदिर वह जब उम्र ढल जाती है और मरने के करीब होता है, तब जाता है। आकर्षक नहीं है, उसने पुकार नहीं दी है उसके प्राणों को। जब वह थकने लगता है और हारने लगता है, जब सब आकर्षण विदा होने लगते हैं, तब कहीं धर्म उसको आकर्षक मालूम पड़ता है। यानी अब तक का सारा धर्म मरे हुए आदमी को आकर्षित करता है, जिंदा आदमी को नहीं आकर्षित करता है। ताकत जिंदा आदमी के हाथ में है।
तो इन केंद्रों को तो मैं बिलकुल न्यूक्लिअस बनाना चाहता हूं, ऐसे न्यूक्लिअस, ऐसे केंद्र, जहां से हम जीवन की सब विधाओं को, सब डायमेंशंस को स्पर्श करने लगें। तो हम दस-पचास वर्षों में एक बिलकुल नये समाज के जन्म के लिए कुछ आधार रख सकते हैं। और यह काम...अब मुझे सब तरह के लोग, इधर दस वर्षों से निरंतर बोल रहा हूं, सब तरह के लोग मेरी नजर में हैं--कौन लोग क्या-क्या कर सकते हैं।
अभी मैं एक जंगल में ठहरा हुआ था, और एक मूर्तिकार, जो कभी बहुत प्रसिद्ध था, लेकिन दुनिया से परेशान होकर उस जंगल में जाकर रहने लगा। अब वह इस समय दुनिया में दस-पांच अच्छे मूर्तिकारों में एक है। लेकिन उसके पास मूर्ति बनाने के लिए पैसा नहीं है। फिर भी जो कुछ उसे कहीं से कोई दे देता है, कुछ कर देता है, वह बना कर खड़ी करता जाता है। अब उसके पास इतनी सामर्थ्य है, लेकिन सीमेंट ही नहीं है, कांक्रीट ही नहीं है जिससे वह मूर्ति बना ले। उसने मुझे कहा कि मैं जिस तालाब के पास हूं उसके चारों तरफ ऐसी मूर्तियां बना देना चाहता हूं। उसके सारे उसने मुझे अपने नक्शे बताए, मॉडल्स बताए। वे इतने अदभुत हैं! लेकिन वह उसके पास पैसे नहीं हैं। मैंने उससे कहा कि मैं कोई केंद्र खड़ा करूं और तुम्हें कहूं, तुम वहां आ जाओ और उस केंद्र के चारों तरफ ऐसी मूर्तियां फैला दो। उसने कहा कि मैं सारी जिंदगी वहां लगा दूं। क्योंकि मुझे और कोई काम नहीं है। मुझे रोटी मिल गई, इसके बाद मुझे कोई काम नहीं है, मैं सारी जिंदगी मूर्तियां खोद डालूं।
मूर्तिकार हैं, संगीतज्ञ हैं। लेकिन वही संगीत बाजार में बिकेगा जो रद्दी होगा, क्योंकि रद्दी आदमी ही सिर्फ खरीदने वाला है। धीरे-धीरे वह संगीतज्ञ रद्दी से रद्दी बेचने लगेगा, क्योंकि बाजार में कमोडिटी उसकी ही है, वही उसका मूल्य है। एक हमारे पास ऐसी व्यवस्था चाहिए मुल्क के प्रत्येक बड़े नगर में, जहां हम श्रेष्ठतम को फ्लावर होने के लिए, खिलने के लिए मौका खोज सकें। और वहां हम श्रेष्ठतम को, जितनी छोटी मात्रा में सही, जन्म दे सकें।
और ध्यान जो है बहुत ही चीजों का इकट्ठा जोड़ है। ध्यान कोई ऐसी चीज नहीं है कि वह एक चीज है कि आदमी चौबीस घंटे कुछ भी रहे और बस एक दफा ध्यान में चला जाए। अब मेरी समझ है कि अगर किसी आदमी को ध्यान में जाना है तो उसके घर की दीवालों के रंग की बदलाहट होनी चाहिए। क्योंकि दीवालों का रंग ऐसा हो सकता है जो कभी ध्यान में जाने ही न दे। अगर आपने लाल और पीले और काले रंग से दीवालें पोत डाली हैं, तो उनके भीतर बैठ कर आप पांच मिनट में, आंख बंद किए हुए भी बेचैन हो जाएंगे। उसने कैसे कपड़े पहने हैं, अर्थपूर्ण है। क्योंकि हम जीते बहुत शरीर के तल पर हैं, आत्मा वगैरह की तो बात होती है, जीते तो शरीर के तल पर हैं। ये जो केंद्र होंगे, ये जीवन की सब दिशाओं में खोज करें, अन्वेषण करें। कपड़े कैसे हों, मकान की दीवाल का रंग कैसा हो, मकान कैसा हो, मकान के पास दरख्त कैसे हों, सारी चीजों के संबंध में स्पर्श करने की जरूरत है। और जब उन सब पर स्पर्श हो, तो मैं मानता हूं, ध्यान इतनी सरल चीज है जितनी कोई और चीज सरल नहीं है। शायद उसे अलग से करने की जरूरत न रह जाए। अगर भोजन कैसा हो, कपड़े कैसे हों, मकान कैसा हो, बगीचा कैसा हो, उठते लोग कैसे हों, बैठते लोग कैसे हों, बात कैसे करते हों, अगर ये सारी बात के संबंध में एक बात स्मरण रख ली जाए कि कौन सी चीज शांति की तरफ ले जाने वाली होगी, तो जरूरी नहीं है कि उस आदमी को और अलग से ध्यान करने जाना पड़े। यह सब ही उसके भीतर ध्यान का सूत्र बन जाए।
तो मेरे लिए ध्यान का अर्थ भी बहुत और है। और अभी तो मैं जिनको ध्यान की बात कर रहा हूं, वे बिलकुल ही गलत लोग हैं, क्योंकि वे जिस दुनिया और जिस हिसाब में रहते हैं उससे कोई संबंध नहीं है। लेकिन उनको सुझाव देने का भी सवाल है। वह भी तो नहीं है उनके पास, वे कर भी क्या सकते हैं!
एक पूरा दर्शन तो है मेरे दिमाग में, उसको अगर, जिनको भी ठीक लगता है वे थोड़ी ताकत लगाएं, तो वह पूरा हो जाए। अन्यथा मुझे कोई परेशानी नहीं है, जितना मैं कर सकता हूं, मैं करता चला जाता हूं, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता।
अब मेरे पास कुछ लोग हैं जिनको मैं कहीं बिठा सकता हूं, जो कि बड़े काम के हो सकते हैं। क्योंकि मैं तो कहीं बैठ नहीं सकता। मेरा कहीं बैठना तो महंगी बात है। मैं चलता ही रहूंगा। पर कुछ लोगों को कहीं बिठाया जा सकता है, जो कि बड़े काम के सिद्ध हो जाएं। पर उनके बिठाने के लिए भी कोई उपाय और व्यवस्था चाहिए।
तो वह आपको सोचना चाहिए। और एक बंबई से शुरुआत करें, एक बंबई में एक मॉडल की तरह खड़ा कर लें। फिर हम देश के और नगरों में उसकी चिंता लें। जो भी महत्वपूर्ण है वह बहुत धीरे-धीरे प्रभावी होता है, वक्त लेता है। मौसमी फूल हम बोते हैं, तो वे महीने भर बाद फूल भी देने लगते हैं और दो महीने बाद समाप्त भी हो जाते हैं। यह कोई प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है कि आज हो जाएगी। और इसलिए मुझे लगता है कि अक्सर इसीलिए काम नहीं हो पाता। क्योंकि हमारी आकांक्षाएं बहुत मौसमी होती हैं, हम चाहते हैं कि अभी हो जाए। वह अभी नहीं हो पाती तो फिर हम थक कर लौट जाते हैं कि यह अभी नहीं होगी। पर यह तो लंबी यात्रा है। और ऐसी यात्रा है जो अंत कहीं भी नहीं होती है। हम उसे फिर धक्का दे जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं; फिर कोई और उसे धक्का दे जाता है और समाप्त हो जाता है; और यात्रा चलती रहती है। यात्रा अनंत है। पर एक ही ध्यान अगर आदमी की जिंदगी में रह जाए कि उसने मनुष्य के आनंद की तरफ और मनुष्य के मंगल की तरफ कुछ भी धक्का दे दिया था, तो भी वह मैं आदमी मानता हूं कि बड़ी शांति अनुभव करेगा, खुद भी कि मैंने मनुष्य को...
लेकिन अगर हमने यह नहीं किया, तो ध्यान रहे, यह नहीं हो सकता कि आप खाली रह जाएं, धक्के तो आप दे ही रहे हैं। तो आप अशांति की तरफ देंगे, अमंगल की तरफ देंगे। आप जी रहे हैं तो आपके धक्के तो जीवन को लगेंगे ही। अब सवाल इतना ही है कि वे धक्के किस तरफ ले जाते हैं, वे कहां ले जाते हैं--आदमी को मंगल की तरफ ले जाते हैं, शुभ की तरफ, आनंद की तरफ? इससे बड़ी कृतार्थता नहीं हो सकती कि एक आदमी अपने जीवन में कुछ भी सबके मंगल के लिए कुछ कर पाए।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे कि जब तुम ध्यान भी करो, तो कभी ऐसा मत सोचना कि ध्यान से जो शांति मिले वह मुझे मिल जाए। नहीं तो तुम कभी शांत ही न हो सकोगे। क्योंकि वह मुझे का भाव भी अशांति है। बुद्ध कहते थे: जब तुम्हें ध्यान से शांति मिले, तो तुम यह भी प्रार्थना करना कि सबको बंट जाए। यह मत सोच लेना कि मुझे मिल जाए। क्योंकि वह मुझे मिलने का जो खयाल है, वह भी अशांति का बुनियादी आधार है। वह बंट जाए, वह सबको मिल जाए। तो बुद्ध कहते: ध्यान करते वक्त, बैठते वक्त कहना कि जो शांति आए, वह सब में बंट जाए। वह सब तक, दूर-दूर तक फैल जाए। उसमें मेरे मैं को रखना ही मत बीच में। और जब ध्यान से उठो और शांति अनुभव हो, तो यही प्रार्थना करते उठना कि सबका मंगल हो, यह सब तक फैल जाए।
और बड़े मजे की बात है, जो अपने तक रोकना चाहता है, वह सब तक तो फैला नहीं पाता, अपने तक भी पहुंचा नहीं पाता। और जो सब तक फैलाना चाहता है, वह सब तक तो फैला देता है और अचानक पाता है कि सब तक फैलाने में उस तक तो बहुत फैल गई है। उस तक तो फैल ही गई है। वह तो सवाल ही नहीं है, वह तो आ ही गई है।

अच्छा और बुरा, जीवन और मरण, यह सब क्या है? क्यों है? किसलिए है? इसका उपाय क्या? इसको कैसे छोड़ सकते हैं? कैसे समझ सकते हैं? इसको कैसे पा सकते हैं?

असल में हमारे ऐसे जो सवाल होते हैं, सवाल ये नहीं हैं, इन सवालों में कुछ बातें हम मान कर चल पड़ते हैं। एक बात तो हम यह मान लेते हैं कि हर चीज का अर्थ होना चाहिए। यह हम मान कर चल पड़ते हैं कि जो भी चीज है उसका अर्थ होना चाहिए। एक फूल खिला है तो हम पूछते हैं: किसलिए खिले हो? एक सूरज जल रहा है और रोशनी फेंक रहा है, हम पूछते हैं: किसलिए? लेकिन न सूरज जवाब देगा, न फूल जवाब देगा। फूल खिलने में लगा रहेगा, सूरज बिखरने में लगा रहेगा। और हम सवाल पूछने में खराब होते रहेंगे।
यानी आदमी जो सवाल उठाता है, वे सवाल ऐसी नासमझी के हैं, उसमें उसने बुनियाद में ही कुछ नासमझी पकड़ रखी है। हमें पहले से ही मालूम है कि हर चीज में कोई मतलब होना चाहिए। लेकिन आपको खयाल में नहीं, अगर हर चीज में मतलब हो, तो जिंदगी इतनी बदतर हो जिसका कोई हिसाब नहीं है। जिंदगी में जो भी थोड़ा सा सुंदर है, वह गैर-मतलब का है, परपजलेस है। जो भी थोड़ा सा सुंदर है।
मैं किसी को प्रेम करता हूं। और अगर मैं पूछने लगूं: मतलब क्या है प्रेम करने का? तो बात गई। हम जब पूछते हैं, तो हम सभी चीजों को मतलब की भाषा में पकड़ना चाहते हैं। अगर हम मतलब की भाषा में सब चीजों को पकड़ेंगे, तो जिंदगी एकदम उदास और बेकार हो जाएगी। जिंदगी का जितना आनंद है वह उन्हीं सब चीजों में है जो गैर-मतलब हैं। अब एक आदमी नाच रहा है, क्या मतलब है? वह कहता है कि नाचना ही मतलब है। एक आदमी गीत गा रहा है, क्या मतलब है? वह कहता है, गीत गाना ही मतलब है। ये पक्षी सुबह गीत गा रहे हैं और आकाश में उड़ रहे हैं, क्या मतलब है? उड़ना आनंद है, मतलब कुछ भी नहीं है।
लेकिन मतलब होना ही क्यों चाहिए? क्या जरूरत है कि हर चीज में मतलब हो? मेरी समझ तो उलटी है। मेरी तो समझ यह है कि जितनी समझ बढ़ती है, जिन चीजों में हम मतलब समझते हैं वे भी गैर-मतलब हो जाती हैं। और आखिर में यह सारा जगत जस्ट ए प्ले, एक लीला रह जाती है; मतलब नहीं रह जाता, एक खेल रह जाता है। लेकिन हमारे दिमाग खेल को स्वीकार नहीं करते, काम को स्वीकार करते हैं। और काम और खेल में फर्क है। काम में मतलब होता है, खेल में मतलब नहीं होता। और मजा यह है कि काम से हम परेशान हैं और काम को ही हम स्वीकार करते हैं। और खेल भी खेल रहे हैं तो उसको भी काम बनाना चाहते हैं। अगर चार बच्चे खेल खेल रहे हैं, तो बड़े-बूढ़े उनसे यह पूछना चाहते हैं: क्या मतलब है? किसलिए खेल रहे हो? क्योंकि बड़े-बूढ़े खेलेंगे भी अगर तो तभी खेलेंगे जब दांव पर कुछ पैसा लगा लें। तो कुछ मतलब रहेगा उसमें--कि हम पचास जीते कि पचास हारे। नहीं तो बेकार क्यों सिर फोड़ना है! कोई फायदा नहीं है।
लेकिन बच्चे खेल रहे हैं और उनकी समझ के बाहर है कि आप मतलब क्यों पूछ रहे हैं! खेलना अपने में काफी है, पर्याप्त है। उसके आगे पूछने की बात कहां उठती है! उसके आगे पूछने की बात इसलिए उठती है कि आपको खेल भूल गया है। आपको खेल का पता ही नहीं है। बस आपको सिर्फ काम रह गया है। दुकान है तो मतलब है, मंदिर है तो मतलब है। आदमी मुझसे पूछते हैं कि किसलिए भगवान के मंदिर में जाएं? और क्या मिल जाएगा हमें वहां? असल में वे मंदिर में भी तभी जाएंगे जब मंदिर भी दुकान सिद्ध हो जाए। वहां कुछ मिले तो वे जा सकते हैं। और अगर यह आदमी इस तरह पूछता रहे, पूछता रहे, तो इसका क्या अंतिम परिणाम हो सकता है? आखिर में वह यही पूछेगा कि मेरे होने का क्या मतलब है? तब फिर आत्महत्या के सिवाय उपाय नहीं रह जाता। यह जो सवाल है न आपका, इसका आखिरी उत्तर आत्मघात है, यह जो सवाल है।


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