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रविवार, 30 अप्रैल 2017

जो बोले सो हरि कथा-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-06



जो बोले सो हरि कथा-(प्रश्नोत्तर)-ओशो

प्रवचन-छठवां-(धर्म का रहस्यवाद)
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक २६ जुलाई, १९८०

पहला प्रश्न: भगवान, निरुक्त में यह श्लोक आता है:
मनुष्या वा ऋषिसूत्क्रामत्सु
देवानब्रुवन्को न ऋषिर्भविष्यतीति।
तेभ्य एतं तर्कमूषिं प्रायच्छन।।
(इस लोक से जब ऋषिजन जाने लगे, जब उनकी परंपरा समाप्त होने लगी तब मनुष्यों ने देवताओं से कहा कि अब हमारे लिए कौन ऋषि होगा? उस अवस्था में देवताओं ने तर्क को ही ऋषि-रूप में उनको दिया। अर्थात देवताओं ने मनुष्यों से कहा कि आगे को तर्क को ही ऋषि-स्थानीय समझो।)
भगवान, हमें निरुक्त के इस वचन का अभिप्राय समझाने की कृपा करें।

सहजानंद!
पहली बात; ऋषि कभी गए नहीं; जा सकते नहीं। जैसे रात हो, तो आकाश में तारे होंगे; जैसे पृथ्वी हो, तो कहीं न कहीं फूल खिलेंगे; ऐसे ही मनुष्य-चेतना मौजूद हो, तो ऋषि विलुप्त नहीं हो सकते। कहीं न कहीं कोई झरना फूटेगा; कोई गीत उठेगा; कोई बांसुरी बजेगी।

मनुष्य इतना बांझ नहीं है कि ऋषियों की परंपरा समाप्त हो जाए! कभी समाप्त नहीं हुई। लेकिन निरुक्त जिन्होंने लिखा है, वे ऋषि नहीं हैं। वे भाषाशास्त्री हैं। व्याकरण के जानकार हैं। उनकी निष्ठा तर्क में है--उनकी निष्ठा काव्य में नहीं है। उनकी निष्ठा विचार में है--उनकी निष्ठा ध्यान में नहीं है। और अपनी निष्ठा को लोग हजार तरकीबों से प्रतिपादित करते हैं, चालाकियों से प्रतिपादित करते हैं।
निरुक्त कोई धर्म-शास्त्र नहीं है। वह तो भाषा का विज्ञान है। और भाषा का विज्ञान तो तर्क पर ही आधारित होगा। वह तो गणित है। व्याकरण गणित है। और इसलिए गणितज्ञ नहीं चाहेगा कि ऋषि हों। गणितज्ञ के लिए सबसे बड़ा खतरा ऋषियों से है।
गणितज्ञ तो चाहेगा कि तर्क परम हो--तर्क ही ऋषि हो। यह नहीं हो सकता। तर्क कैसे ऋषि हो सकता है?
तर्क का अर्थ क्या होता है? तर्क का अर्थ होता है: मनुष्य के सोचने-विचारने की प्रक्रिया। लेकिन क्या सत्य को सोचने-विचारने से जाना गया है कभी? जिसे तुम नहीं जानते हो, उसे सोचोगे कैसे, विचारोगे कैसे? सोच-विचार तो ज्ञात की परिधि में ही परिभ्रमण करते हैं। और सत्य तो अज्ञात है। अज्ञात ही नहीं--अज्ञेय भी।
विज्ञान समस्त अस्तित्व को दो हिस्सों में बांटता है--धर्म तीन हिस्सों में। विज्ञान कहता है, जगत दो कोटियों में विभाजित किया जा सकता है, और कोई कोटि नहीं है। एक ज्ञात और एक अज्ञात। जो आज ज्ञात है, वह कल अज्ञात था; और जो आज अज्ञात है, वह कल ज्ञात हो जाएगा। अज्ञात की सीमा रोज सिकुड़ती जा रही है। और ज्ञात की सीमा रोज बढ़ती जा रही है। इसी को विज्ञान विकास कहता है। जिस दिन अज्ञात शून्य हो जाएगा, बचेगा ही नहीं, सभी कुछ ज्ञात हो जाएगा--उस दिन विज्ञान अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाएगा, उस दिन विज्ञान गौरीशंकर का शिखर होगा।
लेकिन धर्म कहता है, एक और भी तीसरी श्रेणी है--अज्ञेय--जिसे तुम लाख जानो, तो भी अनजाना रह जाता है। जानते जाओ, जानते जाओ, फिर भी जानने को शेष बना ही रहता है। ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिसके तुम दावेदार बन सको कि मैंने जान लिया। उस अज्ञेय को ही ईश्वर कहा है। इसलिए उसे कभी भी जाना नहीं जा सकेगा। जानने वाले होते रहेंगे, उसका स्वाद लेने वाले होते रहेंगे, उसके गीत गाने वाले होते रहेंगे; जिसके हाथ भी उसकी बूंद पड़ जाएगी, वही स्वर्णिम हो उठेगा। जिसके हाथ में एक स्वर लग जाएगा, वही ऋषि हो जाएगा। लेकिन सागर को छू लेना, सागर को पा लेना नहीं है। सागर में डुबकी भी मार ली, तो भी सागर को पा लेना नहीं है। सागर में लीन भी हो गए, तो भी सागर विराट है। हम तो बूंदें हैं।
जान कर भी--जान-जान कर भी, फिर भी जो जानने को शेष रह जाता है, वही धर्म का रहस्यवाद है। और ध्यान रखना: विज्ञान की विभाजन प्रक्रिया खतरनाक है। उसका अर्थ है कि एक दिन सब जान लिया जाएगा। फिर क्या करोगे? फिर तो आत्मघात के अतिरिक्त कुछ भी न बचेगा। इसलिए मनुष्य जाति जितनी जानकार होती जाती है, उतनी ही आत्महत्याएं बढ़ती जाती हैं। जितना सुशिक्षित देश होता है, उतनी ज्यादा आत्महत्याएं! जितना सुसंस्कृत देश समझा जाता है, उतना ही आत्मघाती! क्यों? क्योंकि जीवन में फिर कोई रहस्य नहीं रह जाता। जब कुछ जानने को ही नहीं बचता, सब जान लिया--पहचान लिया, तो अब कल जी कर क्या करना है? किसलिए जीना है? क्यों जीना है? फिर यही पुनरुक्ति करनी होगी? फिर जीवन को इसी वर्तुल में घुमाना होगा। और उसी-उसी की पुनरुक्ति ही तो ऊब पैदा करती है।
सोरेन कीर्केगार्ड ने, जो पश्चिम के महानतम, महततम प्रतिभाशाली लोगों में एक हुआ--उसने कहा है कि मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या ऊब है, बोर्डम है। क्यों? इसीलिए मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या ऊब है, कि जो जान लिया, उससे ही ऊब पैदा हो जाती है। पति पत्नियों से ऊबे हुई हैं, पत्नियां पतियों से ऊबी हुई हैं! क्यों? जान लिया। अब जानने को कुछ बचा नहीं। पहचान ली एक दूसरे की भूगोल, झांक लिया एक दूसरे के इतिहास में, सब परिचित हो गया। अब फिर वही-वही है।
क्यों लोग एक धर्म से दूसरे धर्म में प्रविष्ट हो जाते हैं? क्यों हिंदू ईसाई बन जाते हैं? क्यों ईसाई हिंदू बन जाते हैं? ऊब गए पढ़-पढ़ कर गीता, दोहरा-दोहरा कर गीता--बाइबिल थोड़ी नई लगती है! बाइबिल से ऊब गए--गीता थोड़ी नई लगती है। लोग बदलते रहते हैं!
मन हमेशा बदलाहट की मांग करता है। मकान बदल लो; काम बदल लो; पत्नी बदल लो; कपड़े बदल लो; फैशन बदल लो। बदलते रहो, ताकि ऊब न पकड़ ले। न बदलो, तो ऊब पकड़ती है। लेकिन ये सब बदलाहटें ऊब को मिटा नहीं पातीं, ढांक भला देती हों।
धर्म की एकमात्र कीमिया है, जिससे ऊब सदा के लिए समाप्त हो जाती है। किसी ने बुद्ध को ऊबा नहीं देखा! किसी ने महावीर के चेहरे पर ऊब नहीं देखी, उदासी नहीं देखी, हारापन नहीं देखा, थकापन नहीं देखा।
तुम्हारे तथाकथित धार्मिक धार्मिक नहीं हैं। उनके लिए तो धर्म भी एक ऊब है। इसलिए तुम मंदिरों में, धर्म-सभाओं में लोगों को सोते देखोगे। क्या है वहां जानने को? रामलीला लोग देखने जाते हैं, तो सोते हैं। रामलीला तो पता ही है! सब वही-वही बार-बार देख चुके हैं।
एक स्कूल में ऐसा हुआ...। गांव में रामलीला चल रही थी। सारे बच्चे राम-लीला देखने जाते थे। अध्यापक उनको दिखाने ले जाता था। धर्म की शिक्षा हो रही थी। और तभी स्कूल का इंस्पेक्टर जांच करने आ गया। अध्यापक ने सोचा कि अभी सब बच्चे रामलीला देख रहे हैं, ऐसे अवसर पर अगर यह रामलीला के संबंध में ही कुछ प्रश्न पूछ ले, तो अच्छा होगा।
इंस्पेक्टर ने पूछा कि किस संबंध में बच्चों से पूछूं? उसने कहा कि अभी ये रोज रामलीला देखते हैं; मैं भी देखने जाता हूं; इनको दिखाने ले जाता हूं। अभी रामलीला के ही संबंध में कुछ पूछ लें।
तो इंस्पेक्टर ने कहा, यही ठीक। तो उसने पूछा कि बताओ बच्चो, शिवजी का धनुष किसने तोड़ा?
एक लड़का एकदम से हाथ हिलाने लगा ऊपर उठाकर। शिक्षक भी बहुत हैरान हुआ, क्योंकि वह एक नंबर का गधा था! इसने कभी हाथ हिलाया ही नहीं था जिंदगी में! यह पहला ही मौका था। शिक्षक भी चौंका। मगर अब क्या कर सकता था। कहीं यह भद्द न खुलवा दे और!
अध्यापक तो चुपचाप रहा। इंस्पेक्टर ने कहा, हां बेटा, बोलो। किसने शिवजी का धनुष तोड़ा--तुम्हें मालूम है?
उसने कहा कि मुझे मालूम नहीं कि किसने तोड़ा। मैं तो इसलिए सबसे पहले हाथ हिला रहा हूं कि पहले आपको बता दूं कि मैंने नहीं तोड़ा! नहीं तो कोई भी चीज टूटती है कहीं--घर में कि बाहर, कि स्कूल में--मैं ही फंसता हूं। अब यह पता नहीं, किसने तोड़ा है!
इंस्पेक्टर तो अवाक रहा कि यह कैसी रामलीला देखी जा रही है! इसके पहले कि वह कुछ बोले, सम्हले कि शिक्षक बोला कि इंस्पेक्टर साहब, इसकी बातों में मत आना। इसी हरामजादे ने तोड़ा होगा! यह सामने देख रहे हैं आप गुलमोहर का झाड़, इसकी डाल इसी ने तोड़ी। यह खिड़की देख रहे हैं, कांच टूटा हुआ--इसी ने तोड़ा! यह मेरी कुर्सी का हत्था देख रहे हैं--इसी ने तोड़ा। यह देखने में भोला-भाला लगता है; शैतान है शैतान! मैं तो कसम खाकर कह सकता हूं कि मैं इसकी नस-नस पहचानता हूं। इसी हरामजादे ने तोड़ा है!
इंस्पेक्टर तो बिलकुल भौंचक्का रह गया कि अब करना क्या है! अब कहने को भी कुछ नहीं बचा।
और, शिक्षक ने कहा, आप अगर मेरी न मानते हों, तो और लड़कों से पूछ लो?
लड़कों ने कहा कि जो गुरुजी कह रहे हैं, ठीक कह रहे हैं!
एक लड़के ने अपनी टांग बताई कि यह जो पलस्तर बंधा है; इसी ने मेरी टांग तोड़ी! शिवजी का धनुष अगर कोई तोड़ सकता है, तो यही लड़का है। यह जो चीज न तोड़ दे...!
इंस्पेक्टर तो वहां से भागा। प्रधान अध्यापक से जा कर उसने कहा कि यह क्या माजरा है?
लेकिन प्रधान अध्यापक बोला कि अब आप ज्यादा खयाल न करें। अरे, ये तो लड़के हैं, चीजें तोड़ते ही रहते हैं! लड़के ही ठहरे। आप इतने व्यथित न हों। अब यह तो स्कूल है। हजार लड़के पढ़ते हैं! अब तोड़ दिया होगा किसी ने शिवजी का धनुष। और जरूरत भी क्या है शिवजी के धनुष की! अरे टूट गया--तो टूट गया! भाड़ में जाए शिवजी का धनुष। आप क्यों चिंता कर रहे हैं!
उसकी तो सांसें रुकने लगीं इंस्पेक्टर की कि क्या रामलीला हो रही है गांव में! और सारा स्कूल जा रहा है। अध्यापक, प्रधान अध्यापक--सब रामलीला देखने जा रहे हैं! वह वहां से भागा, सीधा म्युनिसिपल कमेटी के दफ्तर में पहुंचा, जिसका कि स्कूल था। और उसने कहा कि मैं शिक्षा समिति का जो अध्यक्ष है, उससे मिलना चाहता हूं। उसने कहा कि उसको कहूं कि यह क्या माजरा--यह क्या शिक्षा हो रही है!
मगर इसके पहले...वह पूरी बात कर भी नहीं पाया था...उसने कहा कि आप फिक्र न करो। अरे, जुड़वा देंगे। टूट गया, तो जुड़वा देंगे! ऐसा कौन करोड़ों का दिवाला निकल गया है! अब यह तो टूटती फूटती रहती हैं चीजें; जुड़ती रहती हैं! और हम किसलिए बैठे हैं? कहां है धनुष? एक बढ़ई को तो हमें लगाए ही रखना पड़ता है। स्कूल में कहीं कुर्सी टूटी, कहीं टेबल टूटी, कहीं कुछ टूटा, कहीं कुछ टूटा। जोड़ देगा धनुष को! इसमें इतने क्यों आप पसीना-पसीना हो रहे हैं!
रामलीला सब देख रहे हैं! मगर यह बात, यह कहावत सच है कि लोग रात भर रामलीला देखते हैं और सुबह पूछते हैं कि सीतामैया रामजी की कौन थीं! क्योंकि देखता कौन है? लोग सोते हैं। इतनी बार देख चुके हैं कि अब ऊब पैदा हो गई है। कोई नई घटना घट जाए, तो भला देख लें।
जैसे एक रामलीला में यह हुआ कि हनुमानजी गए तो थे लंका जलाने, अयोध्या को जला दिया! तो सारी सभा आंख खोलकर बैठ गई! लोग खड़े हो गए! कि भैया, क्या हो रहा है?
रामजी भी बोले कि अरे हनुमानजी, तुम बंदर के बंदर ही रहे! तुमसे किसने कहा, अयोध्या जलाने को?
हनुमानजी भी गुस्से में आ गए! उन्होंने कहा कि तुम भी समझ लो साफ कि मुझे दूसरी रामलीला में ज्यादा तनख्वाह पर नौकरी मिल रही है! मैं कुछ डरता नहीं। जला दी। कर लो, जो कुछ करना हो! बहुत दिन जला चुका लंका। बार-बार लंका ही लंका जलाओ! मैं भी ऊब गया। कर ले जिसको जो कुछ करना है!
वह था गांव का पहलवान, उसको कोई क्या करे! रामजी तो छोटे-से लड़के थे। उसने कहा, वह धौल दूंगा एक कि छठी का दूध याद आ जाएगा! है कोई माई का लाल, जो मुझे रोक ले! जला दिया अयोध्या--कर ले कोई कुछ!
बामुश्किल परदा गिरा कर, समझा-बुझा कर उसको कहा कि भैया, अब तू घर जा। तुझे दूसरी रामलीला में जगह मिल गई है, वहां काम कर!
उस रात गांव में जरा चर्चा रही! लोगों ने आंख खोलकर देखा। नहीं तो किसको पड़ी है--अब लंका जलती ही रहती है!
आदमी का मन नए की तलाश करता है। विज्ञान के हिसाब से तो नया बहुत दिन बचेगा नहीं। कब तक नया बचेगा! इसलिए विज्ञान उबा ही देगा। इसलिए पश्चिम में जितनी ऊब है, पूरब में नहीं है। क्योंकि पूरब विज्ञान में पिछड़ा हुआ है। पश्चिम में जैसी उदासी छाई जा रही है, लोगों को जीवन का अर्थ नहीं दिखाई पड़ रहा है। सब अर्थ खो गए हैं। वैसा पूरब में नहीं हुआ है अभी। लेकिन होगा--आज नहीं कल। पूरब जरा घसिटता है, धीरे-धीरे घसिटता है; पहुंचता वहीं है, जहां पश्चिम। मगर वे जरा तेज गति से जाते हैं; ये बैलगाड़ी में चलते हैं! पहुंच रहे हैं वहीं। हम भी विज्ञान की शिक्षा दे रहे हैं।
मैं कोई विज्ञान के विरोध में नहीं हूं। मैं चाहता हूं, विज्ञान की शिक्षा होनी चाहिए। लेकिन यह भ्रांति होगी कि विज्ञान धर्म का स्थान भरने लगे।
धर्म की तीसरी कोटि तो हमारे खयाल में बनी ही रहनी चाहिए कि कुछ है, जो रहस्यमय है। और कुछ है जो ऐसा रहस्यमय है कि हम जान-जान कर भी न जान पाएंगे। जान लेंगे, और कह न पाएंगे। पहचान लेंगे, और बता न पाएंगे। जानेंगे, कि गूंगे हो जाएंगे--गूंगे का गुड़ हो जाएगा! स्वाद तो आ जाएगा, मगर बोल भी न सकेंगे! जो बोलेंगे--सो गलत होगा।
लाओत्सू ने कहा है, मत पूछो मुझसे सत्य की बात। क्योंकि सत्य के संबंध में कुछ भी कहो, कहते से ही गलत हो जाता है; असत्य हो जाता है। क्योंकि सत्य इतना विराट है! और शब्द इतने छोटे हैं!
निरुक्त कोई धर्म की अनुभूति पर आधारित शास्त्र नहीं है। वह तो भाषा, व्याकरण--उनका गणित है। निश्चित ही गणित तर्क का ही विस्तार होता है। इसलिए इस परोक्ष कथा से निरुक्त यह कह रहा है कि अब ऋषियों की कोई जरूरत नहीं है। जा चुके दि!
मगर भारतीयों के कहने के ढंग भी बेईमान होते हैं! सीधी बात भी न कहेंगे। नाहक देवताओं को घसीट लाए! यहां कोई सीधी बात कहता ही नहीं! यहां सीधी बात कहो, तो लोगों को जहर जैसी लगती है। यहां तो गोल, घुमा-फिरा कर कहो कि किसी को पता ही नहीं चले--क्या कह रहे हो! और पता भी चल जाए, तो उसके कई अर्थ किए जा सकें!
अब देवताओं की कोई जरूरत नहीं है इसमें। और देवताओं को क्या खाक पता है! कोई देवता ऋषियों से ऊपर है? देवता ऋषियों से ऊपर नहीं हैं। ऋषि से ऊपर तो कोई भी नहीं है।
हमारा देश अकेला देश है इस अर्थ में, जिसके पास कवि के लिए दो शब्द हैं: एक कवि और एक ऋषि। दुनिया की किसी भाषा में कवि के लिए दो शब्द नहीं है। क्योंकि कविता का दूसरा रूप ही किसी भाषा में नहीं निखरा। वह बात ही नहीं उतरी पृथ्वी पर। इसलिए एक ही शब्द है--कविता या कवि। ऋषा और ऋषि--बड़ी और बात है! उस भेद को खयाल में लो, तो समझ में बहुत कुछ आ सकेगा।
कवि हम उसे कहते हैं, जिसे कभी-कभी झरोखा खुल जाता--सत्य की थोड़ी-सी झलक मिल जाती--एक किरण। आंख में एक ज्योति जगमगा जाती और तिरोहित हो जाती। फिर गहन अंधेरा हो जाता है। कवि को पता भी नहीं है, यह क्यों होता है, कैसे होता है! यह उसके हाथ के, बस की बात भी नहीं है कि वह जब चाहे, तब हो जाए। यूं अगर कोई कविता लिखने बैठते, तो तुकबंदी होगी--कविता नहीं होगी।
तुकबंदी कोई भी कर सकता है। और इधर तो नई कविता चली है, उसमें तुकबंदी की भी जरूरत नहीं है! इसलिए कोई भी मूढ़ कवि हो जाता है! अब तो कवि होने में भी अड़चन न रही--ऋषि होना तो दूर की बात है। अब तो कवि होने में भी अड़चन नहीं है। अतुकांत कविता! अब तो तुम भी नहीं बिठानी पड़ती! अब तो कुछ भी उलटा-सीधा जोड़ो! कविता बनाने में कोई अड़चन नहीं है। इसलिए इतने कवि हैं! गांव-गांव मोहल्ले-मोहल्ले इतने कवि-सम्मेलन होते हैं! सुनने वाले नहीं मिले! और सुनने वाले भी क्या आते हैं! सब गांव के सड़े टमाटर, अंडे, केलों के छिलके--सब ले आते हैं, क्योंकि कवियों का स्वागत करना पड़ता है!
असल में जिस गांव में कवि-सम्मेलन होता है, कवि पहले जाते हैं सब्जी-मंडी में और सब खरीद लेते हैं! ताकि फेंकने को कुछ बचे ही नहीं! और जनता केवल एक काम करती है--हूट करने का!
कविताओं में है भी क्या अब! कविता भी नहीं है उसमें। ऋचाओं की तो बात ही बहुत दूर हो गई!
कवि उसको हम कहते थे, जिसके जीवन में अनायास, बिना किसी साधना के, पता नहीं क्यों, एक रहस्य की भांति, कभी-कभी किसी रंध्र से कोई किरण प्रवेश कर जाती है। और वह किरण को बांध लेता है शब्दों में। किरण को धुन दे देता है। किरण को गीत बना लेता है।
कूलरिज मरा, अंग्रेज महाकवि, तो कहते हैं, चालीस हजार कविताएं उसके घर में अधूरी मिलीं। सारा घर अधूरी कविताओं से भरा था। और उसके मित्र जानते थे, और वे मित्र उससे कहते थे कि इनको पूरा क्यों नहीं करते!
लेकिन कूलरिज ईमानदार कवि था। वह कहता, मैं कैसे पूरा करूं! कोई कविता उतरती है, कुछ पंक्तियां उतरती हैं, फिर नहीं उतरती आगे, तो मैं अपनी तरफ से नहीं जोडूंगा। कविता जब उतरेगी--उतरेगी। जब आएगी, तब आएगी। जितनी आ गई, उतनी मैंने लिख दी। अब प्रतीक्षा करूंगा। क्योंकि जब भी मैंने जोड़ा है, तभी मैंने पाया कि कविता खो जाती है। वह जो रहस्य होता है, रस होता है, सूख जाता है। मेरे द्वार जोड़ा गया अलग दिखाई पड़ता है।
ऐसा रवींद्रनाथ के जीवन में हुआ। जब उन्होंने गीतांजलि अंग्रेजी में अनुवादित की, तो उन्हें थोड़ा-सा संदेह था कि पता नहीं अंग्रेजी में बात पहुंच पाई या नहीं, जो बंगला में थी! तो सी.एफ.एंडरूज को अपनी अंग्रेजी अनुवाद की गीतांजलि दिखाई। एंडरूज ने कहा कि और तो सब ठीक है, चार जगह भाषा की भूलें हैं। ये सुधार लें।
जो एंडरूज ने सुझाया, वह रवींद्रनाथ ने बदल दिया। स्वभावतः वह उनकी मातृभाषा नहीं थी अंग्रेजी। और एंडरूज विद्वान पुरुष थे; भाषा पर उनका अधिकार था। जो कह रहे थे, ठीक कह रहे थे। रवींद्रनाथ को यह बात जंची।
फिर जब उन्होंने योरोप में पहली दफा कवियों की एक छोटी-सी गोष्ठी में जाकर गीतांजलि का अनुवाद सुनाया, तो वे बड़े हैरान हुए। भरोसा न आया। एक युवक कवि खड़ा हुआ, यीट्स उसका नाम था, और उसने कहा कि कविता बड़ी मधुर है। अदभुत है। नोबल पुरस्कार इस पर मिलेगा आज नहीं कल। यीट्स ने यह मिलने के पहले कह दिया था। भविष्यवाणी कर दी थी कि इस सदी में अंग्रेजी में कोई इतना अदभुत काव्य नहीं लिखा गया है। लेकिन चार जगह भूल है।
रवींद्रनाथ ने कहा, कौन-सी चार जगह? सुधार लेता हूं।
हैरान हुए वे तो। वे ही चार जगह थीं, जहां सी.एफ.एंडरूज ने सुधार करवाया था। रवींद्रनाथ ने कहा, आप क्या कह रहे हैं! ये तो वे जगहें हैं, जहां मैंने भूल की थीं और सी.एफ. एंडरूज ने सुधार करवा दिया है!
यीटस ने पूछा कि आप बताइए, आपने क्या शब्द पहले रखे थे! रवींद्रनाथ ने अपने पुराने शब्द बताए। उनको ही काट कर तो उन्होंने नए शब्द लिख दिए थे।
यीटस ने कहा कि आपके शब्द भाषा की दृष्टि से गलत हैं, लेकिन काव्य की दृष्टि से सही हैं। वे चलेंगे। एंडरूज के शब्द भाषा की दृष्टि से सही हैं, लेकिन काव्य की दृष्टि से गलत हैं। वे नहीं चलेंगे। वे पत्थर की तरह पड़े हैं। उनमें आपकी जो सतत धारा है काव्य की, विच्छिन्न हो गई, टूट गई। वे दीवाल की तरह अड़ गए हैं।
एंडरूज ने भाषा की दृष्टि से बिलकुल ठीक कहा है, लेकिन कविता भाषा थोड़े ही है। भाषा से कुछ ऊपर है। जो भाषा में आ जाता है, उसे तो हम गद्य में लिख देते हैं। जो भाषा में नहीं आता, उसे पद्य में लिखते हैं। पद्य का अर्थ ही यही है कि गद्य में नहीं बंधता। गाना होगा, गुनगुनाना होगा। नृत्य देना होगा। तर्क के जाल को थोड़ा ढीला करना होगा। व्याकरण की उतनी चुस्ती नहीं रखनी होगी, जितनी गद्य पर होती है। इसलिए कवि को स्वतंत्रता होती है थोड़ी, शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने की; शब्दों को नए अर्थ, नई भाव-भंगिमाएं देने की। नई मुद्राएं देने की। शब्दों को नया रस देने की।
यीटस ने कहा, आप अपने शब्द वापस रखें। आपके शब्द प्यारे हैं। वे उतरे हैं। इसलिए हमने वेदों को अपौरुषेय कहा है। अपौरुषेय का अर्थ है: हमने लिखा जरूर, मगर हम सिर्फ लिखने वाले थे, हम रचयिता न थे, लेखक थे। रचयिता तो परमात्मा था। वह बोला--हमने लिखा। वह गुनगुनाया--हमने भाषा में उतारा। हम तो केवल माध्यम थे, हम स्रष्टा न थे।
यह वेदों के अपौरुषेय होने की बात प्रीतिकर है। सारा काव्य अपौरुषेय होता है। आती है बात किसी अज्ञात लोक से, तुम्हारे प्राणों को थरथरा जाती है। वही थरथराहट जब तुम देने में समर्थ हो जाते हो भाषा को, तो कविता का जन्म होता है।
लेकिन काव्य आकस्मिक है। तुम उसके मालिक नहीं हो।
रवींद्रनाथ महीनों कविता नहीं लिखते थे। और कभी ऐसा होता था कि फिर दिनों लिखते रहते थे। तो द्वार-दरवाजे बंद कर देते थे। तीनत्तीन दिन तक खाना नहीं खाते थे, स्नान नहीं करते थे। क्योंकि कहीं धारा न टूट जाए। तो घर के लोगों को सूचना थी कि जब वे द्वार-दरवाजे बंद कर लें, तो कोई दस्तक भी न दे, कि धारा न टूट जाए। क्योंकि नाजुक मामला है! बड़े सूक्ष्म तंतुओं में उतरती है कविता, जैसे मकड़ी का जाला, जरा से धक्के में टूट जा सकता है। फिर लाख बनाओ, न बनेगा। कौन आदमी है, जो मकड़ी का जाला बना दे! कितना ही कुशल हो।
तो रवींद्रनाथ भूखे-प्यासे, बिना नहाए-धोए...सोते नहीं थे, इस डर से कि पता नहीं, जो धारा बह रही है, वह कहीं रात खो न जाए! कहीं सपनों के कारण बाधा न आ जाए। लिखते ही रहते थे; लिखते ही जाते थे--पागल की तरह। हां, जब धारा अपने आप रुक जाती थी, तब वे रुकते थे। फिर लौट कर देखते थे कि क्या उतरा। फिर प्रत्यभिज्ञा करते थे कि यह उतरा, ऐसा उतरा।
सच्चा कवि सुधार नहीं करता। क्योंकि सुधार करने वाले तुम कौन हो! तुमसे जो आया ही नहीं, तुम उसमें कैसे सुधार करोगे? वह तो अपने हाथ परमात्मा के हाथ में छोड़ देता है, वह जो चाहे लिखवा ले। वह जो चाहे, बोला ले।
लेकिन इसके ऊपर भी एक काव्य का लोक है, जिसको हम ऋचा का लोक कहते हैं--ऋषि का लोक। ऋषि वह है, जिसके जीवन में कविता आकस्मिक नहीं है। जिसके जीवन में कविता शैली हो गई। जिसका उठना काव्य है, जिसका बैठना काव्य है। जो बोले, तो काव्य; जो न बोले, तो काव्य। जिसके मौन में भी काव्य है। जिसके पास तुम बैठो, तो तुम्हारे हृदय की वीणा बजने लगे। जिसका हाथ तुम हाथ में ले लो, तो तुम्हारे भीतर ऊर्जा का एक प्रवाह हो जाए।
कविता पढ़ कर कवि से मिलने कभी मत जाना, क्योंकि अकसर यह होगा कि कविता पढ़ कर तो तुम बहुत आह्लादित हो जाओगे; कवि से मिलकर बहुत उदास हो जाओगे! क्योंकि काव्य को पढ़कर तो ऐसा लगेगा कि किसी अपूर्व व्यक्ति से मिलने जा रहे हैं। और जब तुम कवि को मिलोगे, तो तुम बहुत हैरान होओगे। हो सकता है, तुमसे गया-बीता हो। बैठा हो किसी शराबघर में, शराब पी रहा हो। गालियां बक रहा हो। कि नाली में पड़ा हो। कि झगड़ा-झांसा कर रहा हो।
तुम कभी भूलकर भी कविता पढ़ कर कवि से मिलने मत जाना, नहीं तो कविता पर तुम्हें जो आनंद-भाव जगा था, वह मिट जाएगा। जैसे खलील जिब्रान की अगर तुमने किताबें पढ़ीं; खलील जिब्रान से मिलने मत जाना। क्योंकि जो भी खलील जिब्रान से मिले, उनको बहुत उदास हो जाना पड़ा। कहां खलील जिब्रान की किताब प्राफेट, जिसका एक-एक शब्द हीरों में तौला जाए; ऐसा है। लेकिन खलील जिब्रान से मिलोगे, तो वह साधारण आदमी है। वही क्रोध, वहीर् ईष्या, वही वैमनस्य, वही अहंकार, वही झगड़ा-फसाद, वही तिकड़म बाजियां, वही राजनीति--सब वही, जो तुममें है। और उससे भी गया-बीता!
ऐसा अकसर हो जाता है ना! रास्ते पर तुम जा रहे हो अंधेरे में। अंधेरे में चलते-चलते अंधेरे में भी थोड़ा दिखाई पड़ने लगता है। फिर पास से ही कोई कार गुजर जाए। तेज रोशनी तुम्हारी आंखों में भर जाए। एक क्षण को तुम तिलमिला जाते हो। कार तो गई। आई और गई। लेकिन एक हैरानी की बात पीछे अनुभव होती है कि कार के चले जाने के बाद अंधेरा, और अंधेरा हो गया! इतना अंधेरा पहले न था। अंधेरा तो वही है, मगर तुम्हारी आंखों ने रोशनी जो देख ली। अब तुम्हारी आंखों को फिर से इस अंधेरे को देखने में तुलना पैदा हो गई।
तो अकसर यह होता है: कवि उड़ान भरता है आकाश की, क्षण भर को। और फिर जब गिरता है, तो तुमसे भी नीचे के गङ्ढे में गिर जाता है! उसकी आंखों में चकाचौंध भर जाती है। इसलिए कवियों के जीवन बड़े साधारण होते हैं; बड़े क्षुद्र होते हैं।
मैं बहुत कवियों को जानता हूं। उनकी कविताएं प्यारी हैं। उनकी कविताओं के मैं कभी उल्लेख करता हूं, उद्धरण देता हूं। मगर उन कवियों के नाम नहीं लेता। मुझसे कई दफे पूछा गया है कि मैं किसी कवि का जब उल्लेख करता हूं, तो नाम क्यों नहीं लेता? नाम इसलिए नहीं लेता, कि कविता ही तुम समझो, उतना ही अच्छा है। कवि को भूलो। कवि को बीच में न लाओ। क्योंकि वह कवि किसी क्षण में कवि था, फिर तो वह साधारण आदमी है। क्षण भर को उछला था। पंख लग गए थे। फिर क्षण भर बाद गिर पड़ा है। और जब गिरता है कोई उछल कर, तो हड्डी-पसली टूट जाती है। जब उछल कर कोई गिरता है, तो चारोंखाने चित्त गिरता है। तुम समतल भूमि पर चलते हो। कवि की जिंदगी कभी पहाड़ों पर, और कभी खाइयों में। वह समतल भूमि पर चलता ही नहीं।
ऋषि वह है, जिसने पहाड़ों पर ही चलने की कला सीख ली। जो एक शिखर से दूसरे शिखर पर पैर रखता है। जिसके लिए पहाड़ों की ऊंचाइयां ही अब समतल भूमि हो गई हैं।
कवि की कोई साधना नहीं होती। उसका कोई योग नहीं होता। उसका कोई ध्यान नहीं होता। कोई प्रार्थना नहीं होती। कोई पूजा नहीं, कोई अर्चना नहीं। वह तुम्हारे जैसा ही व्यक्ति है। पता नहीं किन पिछले जन्मों के पुण्य के कारण कभी झरोखे खुल जाते हैं। पता नहीं क्यों। उसे पता नहीं है कि क्यों द्वार खुल जाता है और अचानक सूरज झांक जाता है! पानी की बूंदें बरस जाती हैं। आकाश के तारे दिखाई पड़ जाते हैं। कैसे द्वार खुलता है, इसका भी उसे पता नहीं; कैसे द्वार बंद हो जाता है, इसका भी उसे पता नहीं। क्यों उसके जीवन में कभी काव्य का आकाश खुल जाता है और क्यों सब बंद हो जाता है--उसे कुछ भी पता नहीं है।
ऋषि के हाथ में चाबी है। वह जानकर द्वार खोलता है। उसे पता है--आकाश तक जाने का रास्ता। उसकी साधना है। उसने अपने को निखारा है। उसने आकाश और अपने बीच एक तालमेल बिठाया है। उसकी आत्मा और आकाश एक हो गए हैं। भीतर का आकाश बाहर के आकाश से मिल गया है। उसमें कोई भेद नहीं रह गया। अभेद हो गया है, अद्वैत हो गया है।
कवि में से तो कभी-कभी ईश्वर बोलता है; कभी-कभी। जब कवि बोलता है, तो सब साधारण होता है। और जब कभी अपने को मिला देता है, तो कचरा हो जाता है। उसकी श्रेष्ठ कविता में भी कचरा आ जाता है।
ऋषि में से ईश्वर नहीं बोलता; ऋषि ईश्वर के साथ एक हो गया है। ऋषि माध्यम नहीं है। कवि माध्यम है। ऋषि तो स्वयं ईश्वर है। वह भगवद-स्वरूप है।
इसलिए यह बात मैं मानने को राजी नहीं हूं कि ऐसा कोई दिन आया, जिस दिन ऋषिजन इस जगत से जाने लगे। अभी भी नहीं गए। यह मैं अपने अनुभव से कहता हूं।
यह निरुक्त का श्लोक जब लिखा गया, उसके बाद कितने ऋषि हो चुके! बुद्ध हुए, महावीर हुए, गोरख हुए, कबीर हुए, नानक हुए, फरीद हुए, दादू हुए--यह तो भारत की बात हुई। भारत के बाहर भी हुए। जीसस हुए। मोहम्मद हुए! मोहम्मद से बड़ा कोई ऋषि हुआ! कुरान जैसी ऋचाएं उतरीं कहीं! कुरान की ऋचाओं का जो रस है, जो तरन्नुम है, उनकी जो गेयता है, वह किसी और शास्त्र की नहीं।
तुम कुरान न भी समझो, उसकी एक खूबी, लेकिन अगर कोई कुरान को गा कर तुम्हें सुना दे, तो तुम डोल जाओगे। अब शराब को कोई समझना थोड़े ही पड़ता है कि कैसे बनती है। पी ली--कि डोले। शराब का कोई अर्थ थोड़े ही जानता होता है। कि कैसे अंगूर से ढली! कि किस देश के अंगूर से ढली! पीओगे--और जान लोगे--ऐसी कुरान है।
कुरान को पढ़ना नहीं चाहिए। जो कुरान को पढ़ता है, वह चूक जाता है। कुरान तो गाई ही जा सकती है। कुरान को पढ़ा कि मजा ही चला गया। उसका सारा राज गेय में है। कुरान शब्द का भी अर्थ होता है--गा। कुरान शब्द का भी अर्थ होता है--गा, गुनगुना।
मोहम्मद पर जब पहली दफा कुरान उतरी, तो मोहम्मद बहुत घबड़ा गए। क्योंकि आकाश से कोई वाणी जैसे गूंजने लगी कि गा--गुनगुना। उठ--क्या सोया पड़ा है। मोहम्मद ने कहा, न मैं पढ़ा हूं न मैं लिखा हूं! न मुझे शास्त्रों का कुछ पता है! (वे बे पढ़े-लिखे आदमी थे।) मैं क्या गुनगुनाऊं, मैं कैसे गाऊं?
लेकिन आवाज आई, तू फिक्र छोड़े शास्त्रों की। शास्त्रों को जानने वाले कब गुनगुना पाते हैं! कब गा पाते हैं! तू तो गा। अरे, पक्षी गाते हैं। कोयल गाती है। पपीहा गाता है। तू गा। तू गुनगुना। तू संकोच छोड़।
वे तो इतने घबड़ा गए कि घर आकर उन्होंने पत्नी से कहा कि मेरे ऊपर दुलाइयों पर दुलाइयां डाल दो। मुझे बुखार चढ़ा है! मेरे हाथ-पैर थरथरा रहे हैं। मुझे ठंड लग रही है। बहुत शीत लग रही है। मैं कंपा जा रहा हूं।
पत्नी ने कहा, क्या हुआ! तुम अभी-अभी ठीक गए थे!
जो शब्द मोहम्मद ने कहे, वे बड़े प्यारे हैं। अगर वे भारत में हुए होते, तो उन्होंने एक शब्द नहीं कहा होता। लेकिन मजबूरी थी; वे भारत में नहीं पैदा हुए थे।
उन्होंने कहा कि मुझे लगता है, या तो मैं पागल हो गया--या कवि हो गया!
अगर भारत में पैदा होते, तो वे कहते, या तो मैं पागल हो गया--या ऋषि हो गया!
लेकिन क्या...। मजबूरी थी। अरबी में ऋषि के लिए कोई शब्द नहीं है। कवि ही एकमात्र शब्द था। मगर तुम सुनो। उन्होंने कहा कि बस, दो में से कुछ एक बात हो गई है। या तो मैं पगला गया! मेरे भीतर ऐसी गूंज उठ रही है, जो कि मेरी है ही नहीं! जो मैंने कभी जानी नहीं; पहचानी नहीं। मेरी तैयारी नहीं! मगर झरनों पर झरने फूट रहे हैं! कोई मेरे प्राणों को धक्के दे रहा है। कह रहा है--गा--गुनगुना! गुनगुनाऊं! गाऊं! या तो मैं पागल हो गया--या कवि हो गया!
मैं तुमसे कहता हूं, अगर वे भारत में यह पैदा होते, तो उन्होंने कहा होता, या तो मैं पागल हो गया--या ऋषि हो गया! क्योंकि उसके बाद गुनगुनाहट चलती रही, चलती रही। कुरान एक दिन में नहीं लिखी गई। वर्षों लगे। ऋचाएं उतरती रहीं। जिसको मुसलमान आयत कहते हैं, उसको ही हम ऋचा कहते हैं। ऋचाएं उतरती रहीं।
मोहम्मद ऋषि हैं।
तो कौन कहता है? लाख निरुक्त कहे, मैं मानने को राजी नहीं। निरुक्त लिखी गई, उसके बाद चीन में लाओत्सू हुआ। च्वांगत्सू हुआ, लीहत्जू हुआ! क्या अदभुत लोग हुए! जिनके एक-एक शब्द में स्वर्ग का राज्य समाया हुआ है।
और तुम कहते हो, ऋषिजन जब जाने लगे...! कभी गए नहीं।
नानक को तो अभी पांच सौ साल ही हुए हैं। नानक के शब्द-शब्द में ऋचा है, गीत है। नानक तो गलत आदमियों के हाथों में पड़ गए; सैनिकों के हाथ में पड़ गए! संन्यासियों के हाथ में पड़ना था। कहां तलवारें चमकने लगीं! नानक के हाथ में कोई तलवार नहीं थी कभी।
नानक के साथ तो उनका एक शिष्य था--मरदाना--उनका साजिंदा था वह। उसके हाथ में तो एकतारा था। कहां नानक, कहां उनका साजिंदा मरदाना--कहां एकतारा--और कहां आज का सिक्ख! कि जरा कुछ कह दो कि वह एकदम कृपाण निकालने को तैयार है! जरा में तलवारें चमकाने लगे!
नानक गाते फिरे। उनके शब्द गेय हैं। गाए गा सकते हैं। और बड़े प्यारे हैं। नानक के गाने के कारण एक नई भाषा पैदा हो गई। क्योंकि नानक जैसा व्यक्ति जब गाता है, तो वह किसी पुरानी भाषाओं के नियम थोड़े ही मानता है। गुरुमुखी पैदा हो गई।
गुरुमुखी शब्द तुम समझते हो--गुरु के मुख से जो निकली। भाषा का नाम भी गुरुमुखी!
शुद्ध हिंदी कठोर होती है। शुद्ध हिंदी में कोने होते हैं। पंजाबी में एक माधुर्य है, एक मिठास है। शुद्ध नहीं है पंजाबी; बिलकुल अशुद्ध है। निरुक्त से पूछो, तो अशुद्ध है। लेकिन निरुक्त से पूछो क्यों? किसी ऋषि से पूछो, तो वह कहेगा, भाषा का क्या लेना-देना है? यह गायक की स्वतंत्रता है। और यह हमेशा दुनिया में रही है।
महावीर संस्कृत में नहीं बोले, क्योंकि संस्कृत बड़ी व्याकरणबद्ध है। और इतनी व्याकरण की सीमाएं हैं कि स्वतंत्रता बरतनी बड़ी मुश्किल है। महावीर प्राकृत में बोले।
प्राकृत और संस्कृत शब्द भी बड़े विचारणीय हैं। प्राकृत का अर्थ होता है, जिसको सहज, साधारण लोग बोलते हैं। जो स्वाभाविक है। संस्कृत का अर्थ होता है: जिसमें स्वाभाविकता को काट-छांट कर संस्कार दे दिया गया। सुधार दे दिया गया; जिसको ढांचा दे दिया गया; जो प्राकृत आदमी की भाषा नहीं है।
बुद्ध संस्कृत में नहीं बोले; पाली में बोले। पाली का अपना माधुर्य है।
नानक से एक नई भाषा का जन्म हो गया--गुरुमुखी। गाई--गुनगुनाई।
ये ऋषि तो पैदा होते रहे। निरुक्त गलत कहता है।
सहजानंद! मैं निरुक्त से राजी नहीं। तुम कहते हो कि यह सूत्र कहता है, इस लोक से जब ऋषिगण जाने लगे...। कभी गए ही नहीं; कभी जाएंगे भी नहीं। जिस दिन इस लोक से ऋषिगण चले जाएंगे, यह लोक ही समाप्त हो जाएगा। फिर इस लोक में क्या नमक रह जाएगा? क्या स्वाद रह जाएगा? क्या मिठास रह जाएगी? इन थोड़े-से लोगों के बल से तो यहां सुगंध है। नहीं तो यहां कांटे ही कांटे हैं। कुछ थोड़े से फूलों के बल तो इस जिंदगी में थोड़ा सौंदर्य है।
नहीं, ऋषिगण कभी भी नहीं गए। संत फ्रांसिस, इकहार्ट--ये लोग दुनिया के कोने-कोने में होते रहे; कोई भारत का ठेका थोड़े ही है! कोई ब्राह्मण का ठेका थोड़े ही है! ये क्षत्रियों में हुए। महावीर और बुद्ध क्षत्रिय थे। ये वैश्यों में हुए; तुलाधर वैश्य की कथा है उपनिषदों में।
एक गुरु ने अपने शिष्य को तुलाधर वैश्य के पास ज्ञान लेने भेजा। शिष्य ने कहा आप ब्राह्मण हैं। आप महापंडित हैं और एक बनिए के पास मुझे भेज रहे हैं ज्ञान लेने?
तो उसके गुरु ने कहा, ज्ञान न तो ब्राह्मण को देखता है, न वैश्य को देखता है, न क्षत्रिय को देखता है। जिसकी पात्रता होती है, उसका पात्र अमृत से भर जाता है। तो तू तुलाधर के पास जा।
जाना पड़ा; गुरु ने कहा था शिष्य को। तो तुलाधर के पास बैठा। उसे कुछ समझ में न आया कि क्या इस आदमी में...! तुलाधर उसका नाम ही हो गया था कि दिन भर वह तराजू लेकर तौलता रहता, तौलता रहता! उसने पूछा कि तुम्हारा राज क्या है?
उसने कहा कि मैं डांडी नहीं मारता। इतना ही मेरा राज है। चोर नहीं हूं। समभाव से तौलता हूं। समता, समत्व, सम्यक्त्व। मेरे तराजू को देखो, और मुझसे पहचान लो। जैसा मेरा तराजू सधा हुआ होता है; जैसे मेरे तराजू का कांटा ठीक मध्य में खड़ा हुआ है, ऐसा मैं भी मध्य में खड़ा हूं। न मेरा तराजू धोखा दे रहा है, न मैं धोखा दे रहा हूं। धोखा छोड़ दिया। पाखंड छोड़ दिया। जैसा हूं, वैसा हूं। बस, जिस दिन से जैसा हूं, वैसा ही रह गया हूं, उसी दिन से न मालूम कहां-कहां से लोग आने लगे पूछने--सत्य का राज!
शूद्रों में भी हुए। सेना नाई हुआ। नाई था, लेकिन ऋषि तो कहना ही होगा उसे। रैदास चमार हुआ। चमार था, लेकिन ऋषि तो कहना ही होगा उसे। गोरा कुम्हार हुआ। उसके पास हजारों लोग दूर-दूर से आते थे पूछने जीवन का सत्य। और कुम्हार था, तो कुम्हार की भाषा में बोलता था। किसी ने पूछा कि गुरु करता क्या है? आखिर गुरु का कृत्य क्या है?
तो गोरा कुम्हार उस वक्त अपने चाक पर घड़े को बना रहा था। उसने कहा, गौर से देख। एक हाथ मैं घड़े को भीतर से लगाए हुए हूं, और दूसरे हाथ से बाहर से चोटें मार रहा हूं। बस, इतना ही काम गुरु का है। एक हाथ से सम्हालता है शिष्य को, दूसरे हाथ से मारता है शिष्य को। ऐसा भी नहीं मारता कि घड़ा ही फूट जाए। कि सम्हाल ही न दे! और ऐसा भी नहीं सम्हलता कि घड़ा बन ही न पाए! इन दोनों के बीच शिष्य निर्मित होता है। गुरु मारता है; जी भर कर मारता है--और सम्हालता भी है। मार ही नहीं डालता। यूं मिटाता भी है--बनाता भी है। यूं मारता भी है, नया जीवन भी देता है।
कुम्हार है, कुम्हार की भाषा बोला है, लेकिन बात कह दी। और बात इस तरह से कही कि शायद किसी ने कभी नहीं कही थी।
मैंने दुनिया के करीब-करीब सारे शास्त्र देखे हैं, लेकिन गुरु के कृत्य को जैसा गोरा कुम्हार ने समझा दिया, यूं सरलता से, यूं बात की बात में--ऐसा किसी ने नहीं समझाया। कि गुरु भीतर से तो सम्हालता है...। भीतर से सम्हालता है, और बाहर से मारता है। बाहर से काटता है, छांटता है। बाहर बड़ा कठोर--भीतर बड़ा कोमल! भीतर यूं कि क्या गुलाब की पंखुड़ी में कोमलता होगी! और बाहर यूं कठोर कि क्या तलवारों में धार होगी!
तो जो मिटने और बनने को राजी हो एक साथ, वही शिष्य है। और जो मिटाने और बनाने में कुशल हो, वही गुरु है।
ऋषि तो होते रहे। होते रहेंगे।
यह बात ही गलत है कि मनुष्यता वा ऋषिसूत्क्रामत्सु--कि इस लोक से जब ऋषिगण जाने लगे, जब उनकी परंपरा समाप्त होने लगी...।
पहली तो बात: ऋषियों की कोई परंपरा होती ही नहीं। ऋषियों की तो निजता होती है, परंपरा नहीं होती। प्रत्येक ऋषि अनूठा होता है, उसकी परंपरा हो ही नहीं सकती। कोई तुमने दूसरा बुद्ध होते देखा? और यूं न सोचना कि बुद्ध होने की कोशिश नहीं की गई है। पच्चीस सौ वर्षों में लाखों लोगों ने कोशिश की है बुद्ध होने की। ठीक बुद्ध जैसे कपड़े पहने हैं। बुद्ध जैसा आसन लगाया है। बुद्ध जैसी आंखें बंद की हैं। बुद्ध जैसे ध्यान में बैठे हैं। बुद्ध जैसा भोजन किया है। बुद्ध जैसे उठे हैं, बैठे हैं, चले हैं--सब किया है। मगर नकल नकल है। एक भी बुद्ध नहीं हो सका। नकल से कभी कोई बुद्ध हुआ है? बुद्ध की कोई परंपरा होती है?
कोई जीसस हुआ दूसरा? कोई महावीर हुआ दूसरा? कितने जैन मुनि हैं भारत में! कोई है एकाध माई का लाल जो कह सके कि मैं महावीर हूं? और न कह सका, तो क्यों चुल्लू भर पानी में नहीं डूब मरते! क्या कर रहे हो? क्या भाड़ झोंक रहे हो?
पच्चीस सौ साल में एक जैन मुनि की हिम्मत नहीं पड़ी कहने की कि मैं महावीर हूं! हिम्मत पड़ती भी कैसे! होते--तो हिम्मत पड़ती। और ऐसा नहीं है कि उन्होंने कुछ नकल करने में कमी की हो। जो-जो महावीर ने किया, वह-वह किया! अगर महावीर नग्न रहे, तो हजारों लोग नग्न रहे। शीत झेली, धूप झेली। मगर महावीर की नग्नता कुछ और थी; इनकी नग्नता कुछ और। नकल कभी भी असल नहीं हो सकती।
मेरे एक मित्र हैं...। जैन संन्यास की पांच सीढ़ियां होती हैं। महावीर ने कोई सीढ़ियां पार नहीं कीं, खयाल रखना! महावीर तो महावीर हो गए। छलांग होती है महावीर की, जैन मुनि की सीढ़ियां होती हैं! बस, वहीं फर्क पड़ जाता है। महावीर ने तो एक दिन कपड़े छोड़ दिए। यूं थोड़े कि धीरे-धीरे अभ्यास किया!
ये दस वर्ष से जैन मुनि हो गए थे। तो मैं पास से गुजर रहा था, कोई पांच-सात मील के फासले पर उनका ठहराव था, तो मैंने ड्राइवर को कहा कि ले चलो। एक पांच-सात मील का चक्कर लगा लें। दस साल से उन्हें देखा नहीं।
हम पहुंचे। मैंने खिड़की से देखा, जब उनके मकान के करीब पहुंच रहा था, कि अंदर वे नग्न टहल रहे हैं! और जब मैंने दरवाजे पर दस्तक दी, तो वे एक तौलिया लपेट कर आ गए! मैंने उनसे पूछा कि खिड़की से मैंने देखा कि आप नग्न थे। अब यह तौलिया क्यों लपेट ली?
उन्होंने कहा, अभ्यास कर रहा हूं!
नग्न होने का अभ्यास।
मतलब, पहले कमरे में नग्न होंगे, यूं टहलेंगे। कभी कोई खिड़की से देख लेगा। ऐसे धीरे-धीरे संकोच मिटेगा। फिर धीरे-धीरे बाहर भी बैठने लगेंगे तख्त पर आ कर। फिर धीरे-धीरे बाजार में भी जाने लगेंगे। ऐसे आहिस्ता-आहिस्ता अभ्यास करते-करते, करते-करते एक दिन नग्न हो जाएंगे!
मैंने उनसे कहा कि जरूर अभ्यास करोगे, तो हो ही जाओगे। मगर सर्कस में भरती हो जाना फिर! क्योंकि अभ्यास से जो नग्नता आए, वह सर्कस में ले जाएगी। महावीर ने कब अभ्यास किया था--मुझे यह तो बताओ? महावीर ने नग्न होने का कब अभ्यास किया था, इसका कोई उल्लेख है?
बोले, नहीं।
तो, मैंने कहा, फिर फर्क समझो। महावीर की नग्नता एक छलांग थी। एक निर्दोष भाव था। एक बात समझ में आ गई कि छिपाने को क्या है! जैसा हूं--हूं। उघड़ गए। यह एक क्षण में घटने वाले क्रांति है। यह तुम दस साल से अभ्यास कर रहे हो!
लेकिन जैन मुनि ने पांच सीढ़ियां बना ली हैं। एक-एक सीढ़ी चलता है। पहली सीढ़ी का नाम ब्रह्मचर्य। तो उसमें तीन चादर रख सकता है या चार चादर रख सकता है। गणित है उसका। फिर दूसरी सीढ़ी आ जाती है, तो छुल्लक हो जाता है। फिर एक चादर कम हो जाती है। फिर तीसरी सीढ़ी आ जाती है, तो झलक हो जाता है!
अभी बंबई में एक एलाचार्य आए हुए थे ना! और कहां उन्होंने अड्डा जमाया था! चौपाटी पर--जहां भेलाचार्य पहले से ही जमे हुए हैं! मैंने भी सोचा कि ठीक है। एलाचार्य और भेलाचार्य में कोई फर्क है नहीं! कोई भेल बेच रहा है, कोई ऐल बेच रहा है! और चौपाटी पर चौपट लोग ही इकट्ठे होते हैं!
अभी बंबई का नाम बदलने की इतनी चर्चा चलती है न। इसका नाम चौपट नगरी रख दो! क्या मुंबई, क्या बंबई, क्या बाम्बे! छोड़ो यह बकवास। चौपट नगरी अंधेर राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा! और चौपाटी को ही राजधानी बना दो!
फिर इलक हो जाता है आदमी, तो फिर उसकी और कमी हो जाती है। फिर ऐसे बढ़ते-बढ़ते मुनि होता है। जब मुनि होता है, तब सब वस्त्र छोड़ कर नग्न।
यह अभ्यासजन्य नग्नता और एक बच्चे की नग्नता में तुम फर्क नहीं समझोगे! एक बच्चा भी नग्न होता है; वह अभ्यासजन्य नहीं होता। उसकी नग्नता में एक सरलता होती है, एक निर्दोषता होती है। उसे पता ही नहीं कि नग्न होने में कुछ खराबी है। उसे कुछ चिंता ही नहीं। उसे अभी इतनी चालबाजी नहीं।
ऐसे ही एक दिन महावीर पुनः बालवत हो गए। फिर दो हजार, ढाई हजार साल बीत गए, कितने लोग नग्न होते रहे, मगर कोई महावीर नहीं! एक आदमी ने हिम्मत करके घोषणा की, वर्धा के एक स्वामी सत्य भक्त--उन्होंने घोषणा कि कि वे पच्चीसवें तीर्थंकर हैं! तो जैनियों ने उनका त्याग कर दिया फौरन। क्योंकि जैन शास्त्रों में चौबीस के अलावा पच्चीसवां तीर्थंकर हो ही नहीं सकता। एक महाकल्प में, एक सृष्टि में, सृष्टि और प्रलय के बीच में, अनंत काल बीतता है--उसमें सिर्फ चौबीस तीर्थंकर हो सकते हैं। पच्चीसवां हो नहीं सकता। महावीर के बाद उन्होंने चौबीसवें पर ठहरा दी बात। सभी धर्म यह कोशिश करते हैं।
सिक्खों ने दसवें गुरु के बाद बात ठहरा दी कि अब गुरु-ग्रंथ ही गुरु होगा। क्योंकि डर यह लगता है कि बाद में आने वाले लोग कुछ नई बातें न कह दें! कहीं ऐसा न हो जाए कि बदलाहट कर दें! तो रोक दो दरवाजा। ठहरा दो प्रवाह को।
जैनों ने चौबीसवें तीर्थंकर पर बात रोक दी। मुसलमानों ने मोहम्मद पर ही बात रोक दी! ईसाइयों ने जीसस पर ही बात रोक दी; आगे नहीं बढ़ने दी!
मैं वर्धा गया हुआ था। जिनके घर में मेहमान था, वे बोले कि स्वामी सत्य भक्त को जैनियों ने तो निकाल बाहर कर दिया, कि उन्होंने अपने को पच्चीसवां तीर्थंकर कह दिया! लेकिन आपकी भी बेबूझ बातें हैं। शायद आप दोनों का मेल बैठ जाए! तो मुलाकात करवा दूं।
जरूर मुलाकात करवाइए। मेल तो शायद ही बैठे।
उन्होंने कहा, क्यों?
मैंने कहा कि जो आदमी अपने को पच्चीसवां बता रहा है, उन आदमियों को मैं कोई आदमी नहीं गिनता। मैं भी इसके खिलाफ हूं कि पच्चीसवां नहीं!
उन्होंने कहा, अरे! मैं तो सोचता था कि आप क्रांतिकारी हैं!
मैंने कहा, उनको आने दो।
वे आए। कहने लगे कि आप भी कहते हैं कि कोई पच्चीसवां तीर्थंकर नहीं हो सकता!
मैंने कहा, चौबीस ही नहीं हो सकते; पच्चीस की बात क्या उठा रहे हो! प्रत्येक तीर्थंकर एक ही होता है। उस जैसा दूसरा होता ही नहीं। और मैंने कहा, तुम भी हद गधेपन की बात कर रहे हो। अरे, जब घोषणा ही करनी हो, तो प्रथम होने की घोषणा करो। क्या पच्चीसवां! क्यू में खड़े हैं! कुछ अकल की बात करो। यहां भी क्यू लगाए हो! तुम्हें क्यू में खड़े होने की आदत हो गई! यह कोई बस है? कि सिनेमा की टिकिट बेचने वाली खिड़की है--कि खड़े हैं! चौबीस नंग-धड़ंग पहले खड़े हैं, पच्चीसवें तुम खड़े हो!
मैंने कहा, मुझे घोषणा करनी हो, तो मैं कहूंगा--प्रथम। और प्रथम भी क्या कहना, क्योंकि द्वितीय कोई हो नहीं सकता, इसलिए बकवास में ही क्यों पड़ना! मैं मैं हूं, तुम तुम हो। महावीर महावीर थे, और सुंदर थे। और मुझे उनसे प्रेम है। लेकिन मैं मैं हूं। और मुझे मुझसे कहीं ज्यादा प्रेम है, जितना किसी और महावीर से होगा। स्वभावतः मुझे मेरी निजता से प्रेम है। मैं पच्चीसवें नंबर पर अपने को क्यों रखूंगा?
किसी व्यक्ति को किसी नंबर पर होने की जरूरत नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निजता...यही फर्क तुम समझने की कोशिश करो।
विज्ञान की परंपरा होती है। तुम चौंकोगे, जब मैं यह कहता हूं कि विज्ञान की परंपरा होती है, धर्म की परंपरा नहीं होती। विज्ञान बिना परंपरा के जिंदा ही नहीं रह सकता। उसका अतीत होता है। जैसे समझो तुम: अगर न्यूटन पैदा न हो, तो आइंस्टीन कभी पैदा नहीं हो सकता। न्यूटन के बिना आइंस्टीन के होने की कोई संभावना नहीं है। वह न्यूटन की ईंट चाहिए ही चाहिए। तभी आइंस्टीन पैदा हो सकता है। अगर न्यूटन को हटा लो, तो आइंस्टीन के लिए आधार ही नहीं मिलेगा खड़े होने का।
विज्ञान की परंपरा होती है। हर वैज्ञानिक विज्ञान में कुछ जोड़ता चला जाता है। लेकिन धर्म की कोई परंपरा नहीं होती। बुद्ध हुए हों या न हुए हों, मैं फिर भी हो सकता हूं। क्योंकि बुद्ध के होने से क्या लेना-देना है! अगर बुद्ध के पहले कृष्ण न भी हुए होते, तो भी बुद्ध होते। क्योंकि कृष्ण से क्या लेना-देना? बुद्ध ने अपने को जाना। अपने को जानने में दूसरा कहीं आता नहीं! उसकी कोई अपरिहार्य नहीं है। आखिर जीसस को तो कृष्ण का कुछ भी पता नहीं था, फिर भी हो सके। और लाओत्सू को तो कुछ भी पता नहीं था कृष्ण का, फिर भी हो सके! बुद्ध को तो लाओत्सू का कोई पता नहीं था, फिर भी हो सके। जरथुस्त्र को तो कोई पता नहीं था पतंजलि का, फिर भी हो सका। न पतंजलि को जरथुस्त्र का कोई पता था।
विज्ञान में यह नहीं हो सकता। विज्ञान में पूरा अतीत पता होना चाहिए। जो हो चुका है पहले, उसी की बुनियाद पर तुम आगे काम करोगे। विज्ञान में शृंखला होती है, परंपरा होती है, कड़ियां होती हैं। कड़ियों में कड़ियां जुड़ती चली जाती हैं। लेकिन धर्म में कोई परंपरा नहीं होती। धर्म में प्रत्येक व्यक्ति आणविक होता है। बुद्ध की निजता अपने में है। महावीर न हों तो, कृष्ण न हों तो--हों तो--कोई भेद नहीं पड़ता।
इसलिए धर्म की कोई परंपरा नहीं होती; ऋषियों की कोई परंपरा नहीं होती।
तुम कहते हो, जब उनकी परंपरा समाप्त होने लगी...। परंपरा ही नहीं होती, तो समाप्त कैसे होगी! मैं इस निरुक्त के वचन के बिलकुल विपरीत हूं। मैं इसको कोई समर्थन नहीं दे सकता। क्योंकि यह ऋषि का वचन ही नहीं है।
लेकिन कुछ लोग ऐसे पागल हैं कि वे भाषा को और व्याकरण को सब कुछ समझते हैं!
जब स्वामी राम अमरीका से भारत वापस लौटे, तो उन्होंने सोचा...। इतना प्रेम उन्हें मिला था अमरीका में, कल्पनातीत--इतना समादर हुआ था! लोगों ने उनकी बातें ऐसे पी थीं कि जैसे अमृत के घूंट। तो सोचा कि अमरीका जैसे भौतिकवादी देश में, नास्तिकों के बीच जब मेरी बातें का इतना मूल्य हुआ है, लोगों ने इस तरह पिया है, तो भारत में तो क्या नहीं होगा! तो उन्होंने सोचा, भारत चल कर काशी से ही काम शुरू करूं। स्वभावतः। कि काशी से ही शुरू करूं काम को। तो वे काशी ही पहुंचे। और काशी में जो पहला प्रवचन दिया उन्होंने, उसी में गड़बड़ खड़ी हो गई!
एक पंडित खड़ा हो गया। और उसने कहा, पहले रुकिए। (आधे ही प्रवचन में!) आपको संस्कृत आती है?
उनको संस्कृत नहीं आती थी। वे तो पंजाब में पैदा हुए, तो फारसी आती थी। उर्दू आती थी। पंजाबी आती थी। उनको संस्कृत नहीं आती थी। उन्होंने कहा, नहीं, मुझे संस्कृत नहीं आती है।
वह पंडित हंसा। उसके साथ और भी पंडित हंसे। हू-हल्लड़ हो गई। उस पंडित ने कहा, पहले संस्कृत सीखो, फिर ब्रह्मज्ञान की बातें करना! अरे, जब संस्कृत ही नहीं आती, तो क्या खाक ब्रह्मज्ञान की बातें कर रहे हो!
स्वामी राम को इतना सदमा पहुंचा--कल्पनातीत! उन्होंने कभी सोचा न था कि यह दर्ुव्यवहार होगा! उन्होंने प्रवचन पूरा भी नहीं किया। उन्हें भारत में उत्सुकता ही खो गई। भारत में ही उत्सुकता नहीं खो गई, उन्हें भारत के पुराने संन्यास में तक उत्सुकता खो गई। तुम यह जानकर चकित होओगे, हालांकि यह बात आमतौर से कही नहीं जाती, कि स्वामी राम ने उसी दिन अपने गैरिक वस्त्र छोड़ दिए। और वे गढ़वाल चले गए, हिमालय। और फिर कभी भारत में उतरे नहीं।
क्या जाना ऐसे मूढ़ों के पास! जिनका खयाल है कि संस्कृत आई हो, तो ब्रह्मज्ञान। तब जो जिन देशों में संस्कृत नहीं है, वहां ब्रह्मज्ञानी हुए ही नहीं! तो बुद्ध ब्रह्मज्ञानी नहीं! उनको भी संस्कृत नहीं आती थी! और जीसस तो कैसे होंगे! और जरथुस्त्र तो कैसे होंगे! इन बेचारों का तो कहां हिसाब लगेगा!
मैं तुमसे कहता हूं, भाषा से कुछ लेना-देना नहीं है। ब्रह्मज्ञान भाव की बात है--भाषा की नहीं।
न तो ऋषियों की कोई परंपरा है; और न ऋषि कहीं चले गए हैं। तुम ऋषि हो सकते हो। मेरी उदघोषणा सुनो: तुम ऋषि हो सकते हो। तुम्हारे भीतर ऋषि होने का बीज उतना ही है, जितना किसी और ऋषि के भीतर रहा हो।
अपनी ऊर्जा को विकसित होने दो, मौका दो। अपनी ऊर्जा को ध्यान बनने दो, प्रार्थना बनने दो। बीज को फूटने दो, अंकुरित होने दो। तुममें भी फूल लगेंगे। तुममें भी ऋचाएं जगेंगी। तुम्हारे भीतर भी कोई एक दिन पुकारेगा कि गा, गुनगुना। तुमसे भी आयतें उठेंगी। तुमसे भी कुरान बहेगा।
मगर यह सूत्र चालबाजों का सूत्र है। वे कहते हैं, जब ऋषिजन जाने लगे, उनकी परंपरा समाप्त होने लगी, तब मनुष्यों ने देवताओं से कहा कि अब हमारे लिए कौन होगा? उस अवस्था में देवताओं ने तर्क को ही ऋषि-रूप में उनको दिया।
वह जो गणितज्ञ है, भाषा का हो या किसी और का, जिसके जीवन की शैली गणित है, तर्क उसका प्राण होता है। इसलिए उन्होंने कहा कि तर्क तुम्हारा ऋषि होगा।
अब इससे बेहूदी और कोई बात नहीं हो सकती। क्योंकि ऋषि का जन्म ही तर्कातीत है। जब तुम तर्क के पार जाते हो, तभी तुम्हारे जीवन में परमात्मा का अवतरण होता है। तर्क तो कभी भी धर्म का स्थान नहीं ले सका। तर्क तुम लाख करो, कुछ पा न सकोगे। तर्क तो बचकानी बात है।
और तर्क तो वेश्या जैसा होता है--क्या ऋषि होगा! तर्क का कोई ठिकाना है! तर्क तो पत्नी भी नहीं होता, वेश्या जैसा होता है। किसी के भी साथ हो ले।
मैं सागर विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था। उस विश्वविद्यालय का निर्माण किया सर हरिसिंह गौर ने। वे भारत के बहुत बड़े वकील थे। बड़े तर्क-शास्त्री थे। और भारत में ही उनकी वकालत नहीं थी। वे तीन दफ्तर रखते थे। एक पेकिंग में, एक दिल्ली में, एक लंदन में। सारी दुनिया में उनकी वकालत की शोहरत थी।
मैंने उनसे एक दिन कहा कि आपकी वकालत की शोहरत कितनी ही हो, वकील और वेश्या को मैं बराबर मानता हूं!
उन्होंने कहा, क्या कहते हो!
वे गुस्से में आ गए। वे संस्थापक थे विश्वविद्यालय के। प्रथम उपकुलपति थे। और मैं तो सिर्फ एक विद्यार्थी था। मैंने कहा कि मैं फिर कहता हूं कि वकील वेश्या होता है! अगर वेश्याएं नर्क जाती हैं, तो वकील उनके आगे-आगे झंडा लिए जाएंगे! और तुम पक्के--झंडा ऊंचा रहे हमारा--उन्हीं लोगों में रहोगे।
उन्होंने कहा, तू बात कैसी करता है? तुझे यह भी सम्मान नहीं कि उपकुलपति से कैसे बोलना!
मैंने कहा, मैं वकील से बात कर रहा हूं, उपकुलपति कहां! मैं सर हरिसिंह गौर से बात कर रहा हूं।
वे कहने लगे, मैं मतलब नहीं समझा कि क्यों वकील को तू वेश्या के साथ गिनती करता है!
मैंने कहा, इसीलिए कि वकील को जो पैसा दे दे, उसके साथ। वह कहता है कि तुम्हीं जीत जाओगे।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दफा अपने वकील के पास गया। उसने अपना सारा मामला समझाया। और वकील ने कहा कि बिलकुल मत घबड़ाओ। पांच हजार रुपए तुम्हारी फीस होगी। मामला खतरनाक है, मगर जीत निश्चित है।
उसने कहा, धन्यवाद। चलता हूं!
जाते कहां हो? फीस नहीं भरनी! काम नहीं मुझे देना!
उसने कहा कि जो मैंने वर्णन आपको दिया, यह मेरे विरोधी का वर्णन है। अगर उसकी जीत निश्चित है, तो लड़ना ही क्यों!
यह मुल्ला भी पहुंचा हुआ पुरुष है!
जब तुम कह रहे हो खुले आम कि इसमें जीत निश्चित ही है--यह तो मैं अपने विरोधी का पूरा का पूरा ब्यौरा बताया। अपना तो मैंने बताया ही नहीं! तो अब मेरी हार निश्चित ही है। अब पांच हजार और क्यों गंवाने! नमस्कार! तुम अपने घर भले, हम अपने घर भले!
वकील को भी चकमा दे गया। वकील ने भी सिर पर हाथ ठोंक लिया होगा। सोचा ही नहीं होगा कि यह भी हालत होगी! वह तो अपना मामला बताता तो उसमें भी वकील कहता कि जीत निश्चित है। आखिर दोनों ही तरफ के वकील कहते हैं, जीत निश्चित है! वकील को कहना ही पड़ता है कि जीत निश्चित है। तभी तो तुम्हारी जेबें खाली करवा पाता है।
तो मैंने कहा वकील की कोई निष्ठा होती है? उसका सत्य से कोई लगाव होता है? तो मैं उसकी वेश्या में गिनती क्यों न करूं! वेश्या तो अपनी देह ही बेचती है। वकील अपनी बुद्धि बेचता है। यह और गया-बीता है।
उन्होंने मेरी बात सुनी। आंख बंद कर ली। थोड़ी देर चुप रहे और कहा कि शायद तुम्हारी बात ठीक है। मुझे अपनी एक घटना याद आ गई। तुम्हें सुनाता हूं।
प्रीव्ही काउन्सिल में एक मुकदमा था, जयपुर नरेश का। मैं उनका वकील था। करोड़ों का मामला था। जायदाद का मामला था, जमीन का मामला था। और तुम जानते हो कि मुझे शराब पीने की आदत है। रात ज्यादा पी गया। दूसरे दिन जब गया अदालत में, तो नशा मेरा बिलकुल टूटा नहीं था। कुछ न कुछ नशे की हवा बाकी रह गई थी। नशा कुछ झूलता रह गया था। सो मैं भूल गया कि मैं किसके पक्ष में हूं! सो मैं अपने मुवक्किल के खिलाफ बोल गया। और वह धुआंधार दो घंटे बोला! और मैं चौंकूं जरूर कि न्यायाधीश भी हैरान होकर सुन रहे हैं! मेरा मुवक्किल तो बिलकुल पीला पड़ गया है! और वह जो विरोधी है, वह भी चकित है! विरोधी का वकील भी एकदम ठंडा है, वह भी कुछ बोलता नहीं! और मेरा जो असिस्टेंट है, वह बार-बार मेरा कोट खींचे! मामला क्या है!
जब चाय पीने की बीच में छुट्टी मिली, तो मेरे असिस्टेंट ने कहा कि जान ले ली आपने! आप अपने ही आदमी के खिलाफ बोल गए! बरबाद कर दिया केस! अब जीत मुश्किल है।
हरिसिंह ने कहा, क्या मामला है, तू मुझे ठीक से समझा। बात क्या है! मुझे थोड़ा नशा उतरा नहीं। रात ज्यादा पी गया एक पार्टी में। चल पड़ा सो चल पड़ा, ज्यादा पी गया।
तो उसने बताया कि मामला यह है कि जो-जो आप बोले हो, यह तो विपरीत पक्ष को बोलना था! और वे भी इतनी कुशलता से नहीं बोल सकते, जिस कुशलता से आप बोले हो। इसलिए तो बेचारे वे खड़े थे चौंके हुए, कि अब हमें तो बोलने को कुछ बचा ही नहीं। और मुकदमा तो गया अपने हाथ से!
कहा, मत घबड़ाओ। हरिसिंह गौर ने कहा, मत घबड़ाओ। और जब चाय पीने के बाद फिर अदालत शुरू हुई, तो उन्होंने कहा कि न्यायाधीश महोदय! अब तक मैंने वे दलीलें दीं, जो मेरे विरोधी वकील देने वाले होंगे। अब मैं उनका खंडन शुरू करता हूं!
और खंडन किया उन्होंने। और मुकदमा जीते!
तो वे मुझसे बोले कि शायद तुम ठीक कहते हो। यह काम भी वेश्या का ही है।
तर्क वेश्या है। तर्क कैसे ऋषि होगा? तर्क तो किसी भी पक्ष में हो सकता है। तर्क की कोई निष्ठा नहीं होती। वही तर्क तुम्हें आस्तिक बना सकता है; वही तर्क तुम्हें नास्तिक बना सकता है। इसलिए तो जो सच्चे धार्मिक हैं, उनकी आस्तिकता तर्क-निर्भर नहीं होती। तर्क पर जिसकी आस्तिकता टिकी है, वह आस्तिक होता ही नहीं। वह तो कभी भी नास्तिक हो सकता है। उसके तर्क को गिरा देना कोई कठिन काम नहीं है।
आस्तिक कहता है कि मैं ईश्वर को मानता हूं, क्योंकि दुनिया को कोई बनाने वाला चाहिए। और नास्तिक भी यही कहता है कि अगर यह सच है, तो हम पूछते हैं कि ईश्वर को किसने बनाया? तर्क तो दोनों के एक हैं। आस्तिक कहता है, ईश्वर बिना बनाया है। तो नास्तिक कहता है, जब ईश्वर बिना बनाया हो सकता है, तो फिर सारी प्रकृति बिना बनाई क्यों नहीं हो सकती? क्या अड़चन है? और अगर कोई भी चीज बिना बनाई नहीं हो सकती, तो फिर ईश्वर को भी कोई बनाने वाला होना चाहिए। इसका जवाब दो।
अब यह तर्क तो एक ही है। अब कौन कितना कुशल है, कौन कितना होशियार है, किसने अपनी तर्क को कितनी धार दी है, इस पर निर्भर करता है। इसलिए आस्तिक नास्तिकों से बात करने में डरता है। तुम्हारे शास्त्रों में लिखा है: नास्तिकों की बात मत सुनना। सुनना ही मत। ये आस्तिकों के शास्त्र नहीं हैं। ये नपुंसकों के शास्त्र हैं। नास्तिक की बात मत सुनना? दूसरे धर्म वालों की बात मत सुनना! क्यों? क्योंकि डर है कि अपनी ही बात तर्क पर खड़ी है, और उसी तर्क के आधार पर गिराई भी जा सकती है।
जैन शास्त्रों में लिखा हुआ है कि अगर पागल हाथी भी तुम्हारा पीछा कर रहा हो, और खतरा हो कि तुम उसके पैर के नीचे दब कर मर जाओगे, और पास में ही हिंदू मंदिर हो, तो पैर के नीचे दबकर मर जाना पागल हाथी के, मगर हिंदू मंदिर में मत जाना, क्योंकि पता नहीं वहां कोई बात सुनाई पड़ जाए, जिससे तुम्हारे धर्म में श्रद्धा का अंत हो जाए! मर जाना बेहतर है अपने धर्म में रहते हुए, बजाय जीने के, धर्म रूपांतरित करके।
और यही बात हिंदू ग्रंथों में भी लिखी है, बिलकुल ऐसी की ऐसी! जरा भी फर्क नहीं! कि जैन मंदिर में प्रवेश मत करना, चाहे पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना। अरे, अपने धर्म में मर कर भी आदमी स्वर्ग पहुंचता है। स्व-धर्मे निधनं श्रेयः--अपने धर्म में मरना तो श्रेयस्कर है। पर धर्मो भयावहः--दूसरे के धर्म से भयभीत रहना। मगर यही दूसरे भी कह रहे हैं!
दुनिया में तीन सौ धर्म हैं। प्रत्येक धर्म के खिलाफ दो सौ निन्यानबे धर्म हैं! अब तुम जरा सोचो, जिस धर्म के खिलाफ दो सौ निन्यानबे धर्म हों, उसमें क्या जान होगी! कितनी जान होगी! जान इसमें है कि कान बंद रखो! सुनो मत, बहरे रहो।
तुमने घंटाकर्ण की तो कहानी सुनी है न कि वह भक्त था राम का और कृष्ण का नाम नहीं सुन सकता था! कृष्ण का नाम सुनकर उसको आग लग जाती थी। और स्वभावतः राम का भक्त कृष्ण का नाम कैसे सुने! कहां राम, मर्यादा पुरुषोत्तम! और कहां कृष्ण--न कोई मर्यादा, न कोई अनुशासन, न कोई साधना!
कृष्ण से तो मेरी दोस्ती हो सकती है! किसी और की नहीं हो सकती। राम से मेरा नहीं बन सकता। एक ही कमरे में हम घंटे भर नहीं ठहर सकते दोनों! क्योंकि उनकी मर्यादा भंग होने लगेगी! और मैं तो अपने ढंग से जीऊंगा। कृष्ण के साथ जम सकती है बैठक।
तो घंटाकर्ण बहुत घबड़ाता था। उसका नाम ही घंटाकर्ण इसलिए पड़ गया था कि उसने कानों में घंटे लटका लिए थे। वह घंटे बजाता रहता था। और राम-राम, राम-राम--घंटे; राम-राम, राम-राम--घंटे बजता रहता और राम-राम करता रहता! कि कोई दुष्ट कृष्ण का नाम न ले दे!
मेरे गांव में एक सज्जन थे, वे भी राम के भक्त थे, ऐसे ही घंटाकर्ण जैसे। नदी मेरे गांव से दूर नहीं है। जहां वे रहते थे, वहां से मुश्किल से पांच मिनट का रास्ता। मगर उसको पार करने में कभी उनको घंटा लगे, कभी दो घंटे लग जाएं! आधे नहाते में से बाहर निकल आएं वे, अगर कोई कृष्ण का नाम ले दे। चिढ़ते थे, बस इतना ही कह दो--हरे कृष्ण, हरे कृष्ण! दौड़े डंडा ले कर पीछे। मेरे पीछे वे इतना दौड़े हैं, इतनी कवायत मैंने उनकी करवाई और उन्होंने मेरी करवाई कि जब भी बाद में मैं कभी गांव जाता था, तो वे मुझसे कहते थे कि तुझे देखकर मुझे भरोसा ही नहीं आता कि तू कभी ढंग का आदमी भी हो सकता है! मुझ बूढ़े को तूने इतना दौड़वाया है!
खाना खा रहे हैं वे, मैं घर जाकर उनका दरवाजा बजा दूं--हरे कृष्ण! वे खाना छोड़ कर आ गए बाहर! और मुझे आनंद आता था। उनको गांव भर में दौड़ाना! और वे गालियां बक रहे हैं, और मैं हरे कृष्ण कह रहा हूं! वे गालियां बक रहे हैं। और मैं उनसे कहूं, तुम यह तो सोचो कि भक्त कौन है!
वे एकदम मां-बहन की गाली से नीचे नहीं उतरते थे! तो उनका धर्म भ्रष्ट कर दिया! वे नदी में नहा रहे हैं, मैं पहुंच जाऊं--हरे कृष्ण! वे वैसे ही निकल आएं, कपड़ा-वपड़ा वहीं छोड़ दें। भागें मेरे पीछे!
मेरे पिता जी से आ-आ कर शिकायत करें। मुझे बुलाया जाए, कि तुमने क्यों परेशानी की? क्या बात है?
मैं पूछूं उनसे कि यह तो बताएं कि मैंने क्या कहा! वह तो कह ही नहीं सकते। हरे कृष्ण शब्द तो वे बोल ही नहीं सकते। तो वे गुमसुम खड़े रहें। मैं कहूं, बोलो जी! कहा क्या मैंने, जिससे आपको तकलीफ हुई!
वे कहें, अबे तू चुप रह! वह बात मैं कभी मुंह से नहीं कह सकता!
अब मैं अपने पिता जी से कहूं कि लो। अब यह भी आप सोचो...! अच्छा लिखकर बता दो! पिता जी के कान में कह दो। इतनी बुरी बात हो! मगर पता तो चले कि मैंने तुमसे कहा क्या है! अब मुझे ही नहीं मालूम कि मैंने तुमसे क्या कहा है। सजा किस बात की?
अरे तुझे मालूम है! चौबीस घंटे मेरी जान खाता है। रात-आधी-रात मैं सो रहा हूं, पहुंच जाता है। और घंटी बजाता है। और वही बात...!
कौन-सी बात महाराज!
वह वे कभी न कहें। कि वह बात मैं कभी कह ही नहीं सकता!
अब ये भक्त हैं! गालियां दे सकते हैं, लेकिन वह बात कैसे कहें!
जब वे मर रहे थे, तब भी मैं पहुंच गया। मैंने कहा, हरे कृष्ण!
उन्होंने कहा, अरे, अब तो तू चुप रह! अब तो मैं दौड़ भी नहीं सकता। और अब तो मेरे मुंह से गालियां न निकलवा! तू भैया घर जा! तू कोई और काम कर। मुझे शांति से मर जाने दे! नहीं तो मैं तेरी ही भावना से क्रोध में मरूंगा और फल भोगूंगा! तू मरते वक्त तो मुझे शांत रहने दे! जिंदगी भर तूने मुझे सताया!
मैंने कहा, मैंने अभी कुछ आप से कहा नहीं। सिर्फ ईश्वर की याद दिलाने आया, कि जाते-जाते हरे कृष्ण की याद तो कर लो!
ये जो लोग हैं, ये धार्मिक लोग हैं! ये आस्तिक हैं! इनकी आस्तिकता कैसी आस्तिकता है? ये डरे हुए लोग हैं। ये घबड़ाए हुए लोग हैं, कि कहीं तर्क दिक्कत में न डाल दे! कहीं अड़चन न खड़ी कर दे!
ये जबर्दस्ती विश्वास बिठाए हुए हैं। मगर इनका विश्वास भी किसी तरह के तर्कों पर खड़ा हुआ है। विश्वास का मतलब ही होता है--किसी तरह के तर्कों पर सम्हाल कर बनाया गया मकान। संदेह को दबा लिया है; तर्क को उसकी छाती पर चढ़ा दिया है। अपनी मन पसंद तर्क को छाती पर चढ़ा दिया है। हिंदू का तर्क है, मुसलमान का तर्क है। सबके तर्क हैं! और उनके तर्कों के आधार से वे दबे हुए हैं।
धार्मिक व्यक्ति का कोई तर्क नहीं होता--अनुभव होता है, अनुभूति होती है। विश्वास नहीं होता--श्रद्धा होती है। श्रद्धा और विश्वास में जमीन-आसमान का फर्क है। शब्दकोश में तो एक ही अर्थ लिखा हुआ है। क्योंकि शब्द जानने वालों को यह भेद कैसे पता चले!
श्रद्धा का अर्थ है, जिसने जाना, जिसने पहचाना, जिसने अनुभव किया, जिसने जीया, जिसने पिया, जो हो गया। और विश्वास का अर्थ है--जिसने मान लिया किन्हीं तर्कों के सहारे।
यह निरुक्त जो कहता है कि देवताओं ने मनुष्यों से कहा कि आगे को तर्क को ही ऋषि-स्थानीय समझो। यह बात बिलकुल ही गलत है; बुनियादी रूप से गलत है।
तर्क कहीं ऋषि हो सकता है? तर्क से कहीं काव्य उठेगा? तर्क से कहीं अतर्क की तरफ आंख उठेगी? असंभव। तर्क से तो मुक्त होना है। संदेह से भी मुक्त होना है, तर्क से भी मुक्त होना है। विश्वास से भी मुक्त होना है। धारणाओं मात्र से मुक्त होना है। शून्य में उतरना है। निर्विचार में उतरना है, निर्विकल्प में उतरना है। जहां कोई विचार न रह जाए, वहां कैसा कोई तर्क? जहां कोई पक्ष न रह जाए, वहां कैसा कोई तर्क?
चुनावरहित शून्य में प्रभु मिलन है। चाहे प्रभु कहो--यह नाम की बात है। चाहे ईश्वर का राज्य कहो, चाहे मोक्ष कहो, कैवल्य कहो, निर्वाण कहो--जो मर्जी हो--सत्य कहो--लेकिन विचारशून्य अवस्था में पूर्ण का साक्षात्कार है। और जैसे ही तुम विचारशून्य हुए, पूर्ण उतरा। पूर्ण उतरा, कि तुम ऋषि हुए, कि तुम फिर जो बोलोगे, वही ऋचा है। तुम जहां बैठोगे, वहां तीर्थ बन जाएंगे। तुम जहां चलोगे, वहां मंदिर खड़े हो जाएंगे। तुम्हारी मस्ती जहां झरेगी--वहां काबा, वहां काशी।
सिर्फ विक्षिप्त लोग काशी और काबा जाते हैं। जिनको परमात्मा के संबंध में थोड़ा भी अनुभव है, वे क्यों कहीं जाएंगे? अपने भीतर उसे पाते हैं। और निश्चित ही तर्क पर उनका आधार नहीं होता।
रामकृष्ण के पास बंगाल के बड़े तार्किक मिलने गए थे। महापंडित थे। रामकृष्ण को हराने गए थे। केशवचंद्र सेन उनका नाम था। बंगाल ने ऐसा तार्किक फिर नहीं दिया। केशवचंद्र अद्वितीय तार्किक थे। उनकी मेधा बड़ी प्रखर थी। सब को हरा चुके थे। किसी को भी हरा देते थे। सोचा, अब इस गंवार रामकृष्ण को भी हरा आएं। क्योंकि ये तो बेपढ़े-लिखे थे। दूसरी बंगाली तक पढ़े थे। न जानें शास्त्र, न जानें पुराण--इनको हराने में क्या देर लगेगी! और भी उनके संगी-साथी देखने पहुंच गए थे कि रामकृष्ण की फजीहत होते देख कर मजा आएगा। लेकिन फजीहत केशवचंद्र की हो गई।
रामकृष्ण जैसे व्यक्ति को तर्क से नहीं हराया जा सकता, क्योंकि रामकृष्ण जैसे व्यक्ति का आधार ही तर्क पर नहीं होता। तर्क पर आधार हो, तो तर्क को खींच लो, तो गिर पड़ें। तर्क पर जिसका आधार ही नहीं है, तुम क्या खींचोगे?
केशवचंद्र ने तर्क पर तर्क दिए और रामकृष्ण उठ-उठकर उनको छाती से लगा लें! और कहें, क्या गजब की बात कही! वाह! वहा! अहा! आनंद आ गया!
वे जो साथ गए थे, वे भी हतप्रभ हो गए, और केशवचंद्र भी थोड़ी देर में सोचने लगे कि मामला क्या है! मैं भी किस पागल के चक्कर में पड़ गया! मैं इसके खिलाफ बोल रहा हूं, ईश्वर के खिलाफ बोल रहा हूं, शास्त्रों के खिलाफ बोल रहा हूं, और यह किस तरह का पगला है! कि यह उठ-उठ कर मुझे गले लगाता है!
केशवचंद्र ने कहा, एक बात पूछूं! कि मैं जो बोल रहा हूं, यह धर्म के विपरीत बोल रहा हूं; ईश्वर के विपरीत बोल रहा हूं; शास्त्र के विपरीत बोल रहा हूं। मैं आपको उकसा रहा हूं--आप विवाद करने को तत्पर हो जाएं। और आप क्या करते हैं! आप मुझे गले लगाते हैं! और आप कहते हैं: अहा, आनंद आ गया!
रामकृष्ण ने कहा, आनंद आ रहा है--कहता नहीं हूं। बड़ा आनंद आ रहा है। थोड़ा-बहुत अगर संदेह भी था परमात्मा में, वह भी तुमने मिटा दिया!
केशवचंद्र ने कहा, वह कैसे?
तो कहा कि तुम्हें देखकर मिट गया। जहां ऐसी प्रतिभा मनुष्य में हो सकती है, जहां ऐसी अदभुत चमकदार प्रतिभा हो सकती है, तो जरूर किसी महास्रोत से आती होगी। इस जगत के स्रोत में महा प्रतिभा होनी ही चाहिए, नहीं तो तुममें प्रतिभा कहां से आती? जब फूल खिलते हैं, तो उसका अर्थ है कि जमीन गंध से भरी होगी। छिपी है गंध, तभी तो फूलों में प्रकट होती है। तुम्हारी गंध को देखकर...मैं तो बेपढ़ा-लिखा आदमी हूं, रामकृष्ण कहने लगे, मेरी तो क्या प्रतिभा है! कुछ प्रतिभा नहीं। लेकिन तुम्हें तो देखकर ही ईश्वर प्रमाणित होता है!
केशवचंद्र का सिर झुक गया। चरण पर गिर पड़े। और कहा, मुझे क्षमा कर दो। मैं तो सोचता था, तर्क ही सब कुछ है। लेकिन आज मैंने प्रेम देखा। मैं तो सोचता था--तर्क ही सब कुछ है--आज मैंने अनुभव देखा। आपने मुझे हराया भी नहीं, और हरा भी दिया! यूं तो मुझे हारने का कोई कारण नहीं था, अगर आप तर्क करते तो। मगर आपने अतक्र्य बात कह दी। अब मैं क्या करूं! मेरी जबान बंद कर दी।
रामकृष्ण जैसे व्यक्ति को मैं धार्मिक कहता हूं। मैं विवेकानंद को भी धार्मिक नहीं कहता। क्योंकि विवेकानंद मूलतः तार्किक ही रहे। उनको केशवचंद्र की परंपरा में ही गिना जाना चाहिए। रामकृष्ण की परंपरा में नहीं। रामकृष्ण बात और। कहां रामकृष्ण--और कहां विवेकानंद! रामकृष्ण कोहिनूर हीरा हैं; विवेकानंद तो दो कौड़ी की बात है। मगर लोगों को विवेकानंद जंचते हैं, क्योंकि वे तर्क में जी रहे हैं। रामकृष्ण की बात तो बेबूझ लगेगी। अतक्र्य है।
लेकिन धर्म ही अतक्र्य है। तर्क के पार जाने में ही धर्म है।

दूसरा प्रश्न, जो कि इससे ही संबंधित है और समझना उपयोगी होगा।
भगवान, इस संसार की उत्पत्ति की घटना किस प्रकार घटी? पृथ्वी पर पहले पुरुष आया कि पहले स्त्री? कृपया हम अज्ञानियों को विस्तारपूर्वक समझाइए!
एच.एल.जोगन!
तुमने तो सोचा होगा कि बड़ा दार्शनिक प्रश्न पूछ रहे हो। यह दार्शनिक प्रश्न नहीं है; यह बहुत बचकाना प्रश्न है। यह छोटे-छोटे बच्चों की बातें हैं।
अगर कोई तुमसे कह भी दे कि संसार की घटना यूं घटी, तो तुम पूछोगे कि यूं ही क्यों घटी! और तरह क्यों न घटी? कोई कहे कि संसार को परमात्मा ने बनाया, तो प्रश्न का हल हो जाएगा! तुम पूछोगे, क्यों बनाया? किसलिए बनाया? क्या परमात्मा लोगों को कष्ट देना चाहता है, दुख देना चाहता है? क्यों बनाया?
और धर्मगुरु तो कहते हैं कि संसार से मुक्त होना है, भवसागर से मुक्त होना है--और यह परमात्मा क्या अधार्मिक है, जो संसार बनाता है? परमात्मा संसार बनाता है; महात्मा समझाते हैं, संसार से मुक्त होना है! कौन सच्चा है? महात्माओं की सुनें कि परमात्मा की मानें?
और फिर परमात्मा इतने दिन क्या करता रहा! संसार नहीं बनाया होगा, फिर एक दिन बना दिया एकदम! एकदम झक आ गई; क्या हुआ! किस कारण झक आई? भांग पी गया था? भांग कहां से आई?
सवाल पर सवाल उठते चले आएंगे। इससे कुछ हल नहीं होगा। यह बच्चों जैसी बातें हैं। इसमें दर्शन कुछ भी नहीं है। मगर बहुत से लोग इन्हीं बातों को दार्शनिक ऊहापोह समझते हैं! यह शेखचिल्लियों की बकवास है। इसमें मत पड़ो।
यह गाय और बछड़ा किसका है? पुलिस वाले ने गांव वालों से पूछा।
गाय का पता नहीं साहब, पर बछड़ा किसका है, यह बता सकता हूं--एक बच्चे ने कहा।
किसका है?
बच्चे ने कहा, गाय का! गाय किसकी है यह मुझे पता नहीं!
एक गांव में चोरी हो गई। बहुत लोगों ने खोजबीन की। पुलिस इंस्पेक्टर आए; यह हुआ, वह हुआ; पता ही न चले चोर का। आखिर गांव के लोगों ने कहा, कि हमारे गांव में लाल बुझक्कड़ जी रहते हैं, वे हर चीज को बूझ दें! जिसको बूझ सके न कोय--उसको लाल बुझक्कड़ तत्क्षण बूझ देते हैं। अरे, एक दफे गांव से हाथी निकल गया था। गांव वालों ने कभी हाथी देखा नहीं था; रात निकल गया। सुबह उसके पैर के चिह्न दिखाई पड़े। बड़ी गांव में चिंता फैली कि किसके पैर हैं! इतने बड़े पैर! तो जानवर कितना बड़ा होगा!
फिर लाल बुझक्कड़ ने सूझा दिया। उसने कहा कि कुछ घबड़ाने की बात नहीं। अरे हरिणा चक्की पैर में बांध कर...। सीधी-सी बात है; चक्की के निशान हैं। और उछला है, तो हरिण रहा होगा। पैर में चक्की बांध कर हरिणा उछला होय!
हल कर दिया मामला लाल बुझक्कड़ ने! आप क्या इधर-उधर पूछ रहे हैं; लाल बुझक्कड़ से पूछ लो!
इंस्पेक्टर ने कहा, यह भी ठीक है। चलो, देखें। शायद कुछ बता दे!
लाल बुझक्कड़ ने कहा, बता तो सकता हूं, मगर सब के सामने नहीं बताऊंगा। क्योंकि मैं झंझट नहीं लेना चाहता। मैं तो बता दूं फिर कल मैं मुसीबत में पडूं! अरे, किसने चोरी की है, मुझे मालूम है। मगर उसका मैं नाम लूं, तो फिर मेरी जान आफत में आए। मैं सीधा-सादा आदमी, मैं झंझट में नहीं पड़ना चाहता। कान में कहूंगा, एकांत में कहूंगा। और कसम खाओ कि किसी को कहोगे नहीं।
इंस्पेक्टर ने स्वीकृति दी कि किसी को कहूंगा नहीं; कसम खाता हूं। मगर तुम बता तो दो भैया!
उसको लेकर लाल बुझक्कड़ एकांत में गए, गांव के बाहर जंगल में ले गए। वे बोले कि अब बता दो। यहां कोई भी नहीं है। पशु-पक्षी तक नहीं हैं सुनने को!
तो कान में फुसफुसा कर कहा कि मैं पक्का कहता हूं; देखो बताना मत। किसी चोर ने चोरी की है!
इस तरह की बकवास में न पड़ो। ये छोटे-छोटे बच्चों की बातें हैं।
अध्यापक ने पूछा, राजेश, बताओ, सारस एक टांग पर क्यों खड़ा होता है?
राजेश ने कहा, सर उसे पता है कि अगर वह दूसरी टांग उठाएगा, तो गिर पड़ेगा!
सेठ चंदूलाल गांव में आए एक महात्मा के पास गए थे। पूछने लगे, महात्मा जी; क्या यह सही है कि हर व्यक्ति को मरना है?
महात्मा ने कहा कि हां, यह तो निश्चित ही है। अरे, मृत्यु से कौन बचा है! सभी को मरना है। प्रत्येक मरणधर्मा है।
चंदूलाल ने सिर खुजलाया और कहा कि मैं सोचता हूं कि जो व्यक्ति आखिर में मरेगा, उसे श्मनशानघाट कौन ले जाएगा?
देखते हो, कैसे-कैसे कठिन सवाल उठते हैं आदमियों के दिमाग में! यह बात तो बड़े पते की है!
एक मित्र दूसरे से कह रहा था, तुम्हारे उस वैवाहिक विज्ञापन का कोई जवाब आया? जिसमें तुमने छपवाया था कि एक सुंदर, सुशील और कमाऊ युवक जिंदगी में रोशनी की एक किरण चाहता है!
दूसरे ने कहा, हां, आया। एक जवाब आया था--बिजलीघर के दफ्तर से!
इस तरह के प्रश्न...! तुम पूछते हो कि इस संसार की उत्पत्ति की घटना किस प्रकार घटी?
एक बात पक्की समझो कि शिवजी का धनुष मैंने नहीं तोड़ा!
मैंने नहीं बनाया यह संसार! मैं पहले ही अपने को अलग कर लेता हूं। नहीं तो लोग तरहत्तरह के इल्जाम मेरे ऊपर लगाते हैं! कोई यही कहने लगे कि इसी की हरकत! कि इसी ने उपद्रव किया होगा!
तो एच.एल. जोगन, इतना मैं पक्का कह देता हूं, जितना मैं पक्का कह सकता हूं; कि मैंने बिलकुल...मेरा हाथ ही नहीं है इसमें। दूर का नाता-रिश्ता भी नहीं है इसके बनाने में। न मुझे इसके बनने में उत्सुकता है, न इसके मिटने में उत्सुकता है। जब नहीं था, तब मुझे कोई अड़चन नहीं थी। जब नहीं हो जाएगा, तब मुझे कुछ अड़चन नहीं होगी। है--तो मुझे कोई अड़चन नहीं है। मैं पूरे मजे में हूं। रहे, तो ठीक। न रहे, तो ठीक।
तुम कैसी चिंताओं में पड़े हो! और तुम सोचते हो कि इन बातों को जान लोगे; तो तुम्हारा अज्ञान मिट जाएगा? इन बातों को जान लिया, तो उससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होगा कि तुम सच्चे ही पक्के अज्ञानी हो। ये बातें कुछ जानने की नहीं हैं।
बुद्ध जिस गांव में आते थे, पहले खबर करवा देते थे कि ग्यारह प्रश्न कोई मुझसे न पूछे। उनमें से एक प्रश्न यह भी था कि संसार की उत्पत्ति किसने की! पूछे ही नहीं कोई। क्योंकि ये बुद्धुओं के प्रश्न हैं; और बुद्ध इनके उत्तर नहीं देते।
मेरे दादा मुझसे पूछा करते थे अकसर; औरों से भी पूछा करते थे। लेकिन जब उन्होंने मुझसे पूछा, तो फिर पूछना बंद कर दिया। वे पूछा करते थे कि अक्ल बड़ी कि भैंस?
अब उनको कौन उत्तर दे! मुझसे एक दिन पूछ बैठे। मैंने कहा, भैंस।
उन्होंने कहा, क्यों?
मैंने कहा, क्योंकि भैंस यह सवाल नहीं पूछती! यह खुजली तुम्हारी अक्ल में ही चलती है। भैंस तो बिलकुल परमहंस दशा में है! मैं कई भैंसों के पास जाकर कई घंटे खड़ा रहा। कोई भैंस नहीं पूछती कि अक्ल बड़ी की भैंस! अरे, भैंस को पता ही है कि हम बड़े हैं। क्या पूछना!
फिर उनने नहीं पूछा। फिर मैं कई दफे उनसे पूछता था कि पूछो ना! अक्ल बड़ी कि भैंस!
वे कहते, तू चुप रह!
वे मुझे कहीं नहीं ले जाते थे। वे बड़ा सत्संग करते थे; महात्माओं के पास जाते थे। वे जब भी जाएं, मैं बैठा रहता था कि आया मैं भी!
कहते कि नहीं, तुझे ले जाना नहीं। तू कुछ न कुछ उलटी-सीधी बात कह देगा!
मैंने कहा, उलटी-सीधी बातें तुम लोग करते हो! मैं सीधी-सादी बात करता हूं। अब तुम यह बात पूछते हो कि अक्ल बड़ी कि भैंस! और मैंने सीधा उत्तर दे दिया कि भैंस--तो तुमको लगता है कि उलटी-सीधी बातें कर रहा हूं! अरे, आने दो, मैं भी तुम्हारे महात्मा को जरा देख आऊंगा।
एक दफा मुझे ले गए; सिर्फ एक दफा ले गए। एक महात्मा के पास गए वे मिलने। मुझे ले गए। महात्मा की उम्र रही होगी कोई तीस साल। मेरी उम्र रही होगी मुश्किल से कोई पंद्रह साल। और मेरे दादा की उम्र रही होगी कम से कम साठ साल। महात्मा ने उनसे कहा, आओ बच्चा, बैठो! मैंने कहा--ठीक!
मेरे दादा ने मुझसे कहा, तुम्हें कुछ पूछना हो, तुम पहले ही पूछ लो। नहीं तो फिर गड़बड़ हो जाएगी। फिर मैं पूछ लूं!
मैंने उनसे पूछा कि बच्चा, एक जवाब दो!
महात्मा बहुत नाराज हुए। कहने लगे, मुझसे बच्चा कहते हो!
मैंने कहा, तुम मेरे दादा को बच्चा कह रहे हो, हरामजादे! साठ साल की उम्र के बूढ़े को बच्चा कह रहे हो। तीस साल के तुम हो, पंद्रह साल का मैं हूं, तो कोई गणित में गलती कर रहा हूं? तुम बच्चा नहीं, महा बच्चा हो!
मेरे दादा ने मुझे फौरन बाहर निकाला कि तू जा भैया! तू घर जा, और कभी मेरे साथ मत आना!
क्या बातें पूछ रहे हो! सृष्टि को किसने बनाया? जान भी लोगे, तो क्या करोगे! क्या फिर से बनाना है? एक से ही मन नहीं भरा!
अरे इतना ही जान लो कि अपना अज्ञान कैसे मिटे! यह जानने से नहीं मिटेगा। ध्यान का दीया जला लो, अज्ञान मिट जाता है। यह सारी जानकारी तुम्हारे अज्ञान को नहीं मिटा पाएगी; अज्ञान को और बूढ़ा बना देगी। पंडित हो जाओगे। पंडित यानी महा अज्ञानी।
पापी तो पहुंच भी जाएं परमात्मा तक, पंडित कभी नहीं पहुंचते।
आज इतना ही।
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक २६ जुलाई, १९८०



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