ओशो
दूसरा-प्रवचन
मनुष्य के मन पर शब्दों का भार है; और शब्दों का भार ही
उसकी मानसिक गुलामी भी है। और जब तक शब्दों की दीवालों को तोड़ने में कोई समर्थ न
हो, तब तक वह सत्य को भी न जान सकेगा, न
आनंद को, न आत्मा को। इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल मैंने आपसे
कहीं।
सत्य की खोज में--और सत्य की खोज ही जीवन की खोज है--स्वतंत्रता सबसे
पहली शर्त है। जिसका मन गुलाम है, वह और कहीं भला पहुंच जाए,
परमात्मा तक पहुंचने की उसकी कोई संभावना नहीं है। जिन्होंने अपने
चित्त को सारे बंधनों से स्वतंत्र किया है, केवल वे ही आत्माएं
स्वयं को, सत्य को और सर्वात्मा को जानने में समर्थ हो पाती
हैं।
ये थोड़ी सी बातें कल मैंने आपसे कहीं। उस संबंध
में बहुत से प्रश्न मेरे पास आए हैं।
सबसे पहले एक मित्र ने पूछा है कि यदि हम शब्दों
से मौन हो जाएं, मन हमारा शून्य हो जाए, तो फिर
जीवन का, संसार का व्यवहार कैसे चलेगा?
हम सभी को यही भ्रांति है कि मन हमारे जितने बेचैन और अशांत हों, संसार का व्यवहार उतना ही अच्छा चलता है। यह हमारा पूछना वैसे ही है,
जैसे बीमार लोग पूछें कि यदि हम स्वस्थ हो जाएं, तो संसार का व्यवहार कैसे चलेगा? पागल लोग पूछें कि
हम यदि ठीक हो जाएं और हमारा पागलपन समाप्त हो जाए, तो संसार
का व्यवहार कैसे चलेगा? बड़े मजे की बात यह है, अशांत चित्त के कारण संसार का व्यवहार नहीं चल रहा है, बल्कि संसार के चलने में जितनी बाधाएं हैं, जितने
कष्ट हैं, संसार का जीवन जितना नरक है, वह अशांत चित्त के कारण है। यह जो संसार का व्यवहार चलता हुआ मालूम पड़ता
है, इतने अशांत लोगों के साथ भी, यह
बहुत आश्चर्यजनक है। शांत मन संसार के व्यवहार में बाधा नहीं है, बल्कि शांत मन इस संसार को ही स्वर्ग के व्यवहार में बदल लेने में समर्थ
है। जितना शब्दों से मन शांत हो जाता है, उतनी ही जीवन में
दृष्टि, अंतर्दृष्टि मिलनी शुरू हो जाती है। फिर भी हम
चलेंगे, लेकिन वह चलना और तरह का होगा; फिर भी हम बोलेंगे, लेकिन वह बोलना और तरह का होगा;
फिर भी हम उठेंगे, फिर भी जीवन का जो सामान्य
क्रम है वह चलेगा, लेकिन उसमें एक क्रांति हो गई होगी।
भीतर मन यदि शांत हो गया हो, तो दो परिमाण होंगे।
ऐसे मन से जो चर्या निकलेगी, जो जीवन निकलेगा, वह दूसरों में अशांति पैदा नहीं करेगा। और दूसरे लोगों के अशांत व्यवहार
की प्रतिक्रिया में ऐसे चित्त में कोई अशांति पैदा नहीं होगी, बल्कि उस पर फेंके गए अंगारे भी उसके लिए फूल जैसे मालूम होंगे और वह खुद
तो अंगारे फेंकने में असमर्थ हो जाएगा। संसार में इससे बाधा नहीं पड़ेगी, बल्कि संसार को हमने अपनी अशांति के द्वारा करीब-करीब नरक के जैसा बना
लिया है, उसे स्वर्ग जैसा बनाने में जरूर सहायता मिल जाएगी।
और चूंकि हम आज तक मनुष्य के मन को बहुत बड़े सामूहिक पैमाने पर शांति के मार्ग पर
ले जाने में असमर्थ रहे हैं, इसीलिए हमें अपना स्वर्ग आकाश
में बनाना पड़ा। यह जमीन पर हमारे अशांत मन के कारण हमें स्वर्ग आसमान में बनाना
पड़ा। अगर मन शांत हो तो स्वर्ग को आकाश में बनाने की कोई जरूरत नहीं है, वह जमीन पर बन सकता है। स्वर्ग जब तक आकाश में रहेगा, तब तक इस बात को भलीभांति जानना चाहिए कि आदमी ठीक अर्थों में आदमी होने
में समर्थ नहीं हो पाया। यदि वह ठीक अर्थों में आदमी हो जाए तो जमीन बुरी नहीं है
और उस पर स्वर्ग बन सकता है। स्वर्ग का और क्या अर्थ है? जहां
शांत लोग हों, वहां स्वर्ग है; जहां
भले लोग हों, वहां स्वर्ग है।
सुकरात को उसके मरने के पहले कुछ मित्रों ने पूछा कि क्या तुम स्वर्ग
जाना पसंद करोगे या नरक? तो सुकरात ने कहा: इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं
कहां भेजा जाता हूं, मैं जहां जाऊंगा वहां मैं स्वर्ग का
अनुभव करने में समर्थ हूं। इससे कोई भेद नहीं पड़ता कि मैं कहां जाता हूं, मैं जहां जाऊंगा अपना स्वर्ग अपने साथ ले जाऊंगा। हर आदमी अपना स्वर्ग या
अपना नरक अपने साथ लिए हुए है। और वह उसी मात्रा में अपने साथ लिए हुए है, जिस मात्रा में उसका मन शांत हो जाता है, शब्दों की
भीड़ से मुक्त हो जाता है, मौन हो जाता है। जितनी गहरी
साइलेंस होती है, उतना ही उसके बाहर एक स्वर्ग का घेरा,
एक स्वर्ग का वायुमंडल उसके आस-पास चलने लगता है। इसलिए यह हो सकता
है कि एक ही साथ बैठे हुए लोग, एक ही जगह पर न हों; यह हो सकता है कि आपके पड़ोस में जो बैठा है व्यक्ति, वह स्वर्ग में हो और आप नरक में। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उसका मन
कैसा है? उसके मन की आंतरिक दशा कैसी है? उस आंतरिक दशा पर ही बाहर का सारा जीवन, देखने का
ढंग, अनुभूतियां सभी परिवर्तित हो जाती हैं।
हमारे ही बीच महावीर या बुद्ध या क्राइस्ट जैसे लोग हुए हैं, जो हमारे ही बीच थे, हमारी ही जमीन पर थे, लेकिन इसी जमीन पर उन्होंने उस आनंद को जाना जिसकी हमें कोई भी खबर नहीं
है। कैसे? कौन से रास्ते से? कौन से
मार्ग से? उनके पास शरीर हमारे जैसा ही था, उस शरीर पर बीमारियां भी होती थीं और उस शरीर को एक दिन मर भी जाना पड़ा।
उनके पैर में भी कांटा चुभ जाता, तो खून बहता। और उनको भी
गोली मार दी जाती, तो उनका शरीर समाप्त हो जाता। हड्डी और
मांस हमारे ही जैसा था, भूख और प्यास हमारे ही जैसी थी,
जिंदगी और मरण हमारे ही जैसा था। लेकिन फिर फर्क क्या था? फर्क था तो भीतर कोई फर्क था। भीतर मन और तरह का था। हमारा मन और तरह का
है। मन शांत था, मन मौन था। इस मौन और शांति से भी उन्होंने
जीवन को जीया और उस जीवन में से बहुत सी सुगंध पाई, बहुत सा
संगीत पाया।
हम अशांति के द्वारा जीवन को जीते हैं और हम यह भी सोचते रहते हैं कि
अगर हम शांत हो गए तो फिर जीवन कैसे चलेगा? जैसे जीवन अशांति से
चल रहा हो। जीवन अशांति से चल नहीं रहा है, घिसट रहा है।
जीवन अशांति से विकसित नहीं होता, केवल तड़पता है और परेशान
होता है। और जीवन के व्यवहार का शांत हो जाने से कोई विरोध नहीं है। लेकिन शायद
सैकड़ों वर्षों की शिक्षाओं ने हमारे मन में एक तरह का द्वंद्व, एक तरह का द्वैत पैदा कर दिया। सैकड़ों वर्षों से यह कहा जाता रहा है कि
जिस व्यक्ति को शांत होना है उसे संसार छोड़ देना पड़ेगा। सैकड़ों वर्षों से यह बात
समझाई गई है कि शांत होना, सत्य के मार्ग पर होना और संसार
का व्यवहार, ये दोनों विरोधी बातें हैं।
मैं आपसे निवेदन करता हूं, यह बड़ी खतरनाक शिक्षा
थी और इस शिक्षा के कारण ही जीवन धार्मिक नहीं हो पाया। इस शिक्षा के कारण ही जमीन
आज भी अधार्मिक है। क्योंकि यह शिक्षा हमारे लिए एक एस्केप बन गई, एक पलायन बन गई, एक बचाव का रास्ता बन गई। हमने सोचा
कि यदि संसार को चलाना है तो धर्म हमारे लिए नहीं है; और
धर्म हमारे लिए उस दिन होगा जिस दिन हम संसार को छोड़ने को राजी होंगे। न हम संसार
को छोड़ने को राजी होंगे और न धर्म से हमारा कोई संबंध होगा। धर्म से बचने के लिए
हमने एक तरकीब खोज ली। यह शिक्षा, हमारे धर्म और हमारे बीच
दूरी और फासला बन गई।
मैं आपसे निवेदन करता हूं, मन जितना स्वस्थ और
शांत होगा, वह संसार का विरोधी नहीं होगा बल्कि संसार को
ट्रांसफार्म करने में, संसार को नया जीवन देने में सहयोगी
बनेगा। शांत आदमी संसार का शत्रु नहीं है बल्कि वही मित्र है। और जीवन का धर्म से
कोई विरोध नहीं है और परमात्मा और संसार के बीच कोई दुश्मनी नहीं है। जीवन को ठीक
से जीना ही परमात्मा को पाने का मार्ग है और धर्म या आंतरिक जीवन और शांति की खोज
ठीक-ठीक अर्थों में हम कैसे जीएं, इस दिशा में हमारे पैरों
को बढ़ाने की तरकीब और माध्यम और मार्ग है। इसलिए यह न सोचें कि मैंने कहा: मन शांत
हो जाए, शब्दों से मुक्त हो जाए, तो
आपका संसार और व्यवहार बिगड़ जाएगा। नहीं; वह अभी बिगड़ा हुआ
है। अगर, अगर मन शांत हो सके, तो संसार
में ही, इस सामान्य जीवनचर्या में ही, इस
दैनंदिन जीवन में ही परमात्मा के दर्शन शुरू हो जाएंगे।
एक रात एक साध्वी एक गांव में मेहमान होना चाहती थी। लेकिन उस गांव के
लोगों ने उसे ठहरने के लिए अपने दरवाजे न खोले। हर दरवाजे पर उसने प्रार्थना की कि
आज की रात मैं यहां ठहर जाऊं, लेकिन द्वार बंद कर लिए गए--जैसा
कि मैंने कल कहा--वह साध्वी, वह अकेली महिला उस रात उस गांव
में शरण मांगती थी, लेकिन उस गांव के लोगों का धर्म दूसरा था
और साध्वी का धर्म दूसरा। इसलिए शरण देना संभव नहीं हुआ। एक शब्द बाधा बन गया।
साध्वी किन्हीं और विचारों को मानती थी और गांव के लोग किन्हीं और विचारों को
मानते थे। उस साध्वी को ठहरने की जगह नहीं मिली। आखिर उस सर्द रात में उसे गांव के
बाहर एक वृक्ष के नीचे ही सो जाना पड़ा। रात कोई बारह बजे होंगे, तब ठंडी हवाओं में उसकी नींद खुल गई। उसने आंखें खोलीं, तो ऊपर पूर्णिमा का चांद वृक्ष के ऊपर खड़ा है और वृक्ष में रात के फूल
चटक-चटक कर खिल रहे हैं। और उसने पहली बार आकाश में इतने सुंदर चांद को देखा,
इतने एकांत में, इतने अकेलेपन में। और उसने
पहली बार जीवन में उस वृक्ष पर रात के फूलों को खिलते हुए सुना। छोटी-छोटी बदलियां
आकाश में तैरती थीं। वह उठी और मौन उस रात के सौंदर्य को उसने जाना और पीया। और
फिर आधी रात को ही वह गांव में वापस पहुंच गई और उसने उन लोगों के द्वार खटखटाए
जिन्होंने सांझ उसे शरण देने से इनकार कर दिया था। अंधेरी रात, आधी रात में वे घर के लोग उठे और उन्होंने पूछा, कैसे
आई हो? हम तो सांझ को तुम्हें इनकार कर चुके। उस साध्वी ने
कहा: मैं धन्यवाद देने आई हूं। काश, तुमने मुझे अपने घर में
ठहरा लिया होता तो आज रात मैंने जो सौंदर्य जाना है वह मैं कभी भी न जान पाती। तो
मैं तुम्हें धन्यवाद देने आई हूं कि तुमने मुझ पर कृपा की कि रात अपने घर में मुझे
न ठहरने दिया। अन्यथा तुम्हारी दीवालें बहुत छोटी थीं और मैं उसमें मेहमान भी हो
जाती, तो आकाश को न देख पाती और उस चांद को न देख पाती और उन
फूलों को न सुन पाती जो खिल रहे हैं। तो मैं धन्यवाद देने आई हूं तुम्हारे पूरे
गांव को, तुमने मुझ पर जो कृपा की है वह बहुत बड़ी है।
यह साध्वी के, यह प्रतिक्रिया, आपमें होती?
किसी दूसरे व्यक्ति में होती? असंभव है। दूसरा
व्यक्ति तो इतने क्रोध से भर जाता, इतने वैमनस्य से, इतनी घृणा से, इतने अपशब्दों से कि शायद उसे नींद भी
न आती। और इतने अपशब्दों और क्रोध से भरे होने के कारण उसे चांद भी दिखाई न पड़ता।
और अपने भीतर इतने शोरगुल की वजह से, उसे फूलों के खिलने की
खबर भी न मिलती। वह रात तो वैसी ही आती, चांद भी निकलता,
फूल भी खिलते, लेकिन वह क्रोध से भरा हुआ मन,
वह अशांत मन उस सबको न देख पाता और उस गांव के प्रति सदा के लिए एक
शत्रुता का भाव उसके मन में पैदा हो जाता।
हम सारे लोगों का मन भी संसार के प्रति जो इतनी शत्रुता से भर गया है, उसका कारण यह नहीं है कि संसार में चांद नहीं उगता और फूल नहीं खिलते;
उसका यह कारण नहीं है कि संसार में सौंदर्य की कोई कमी है; उसका यह कारण नहीं है कि संसार में सत्य का कोई अभाव है; उसका यह भी कारण नहीं है कि संसार में चारों तरफ से परमात्मा की वर्षा
नहीं हो रही है; या कि प्रकाश की किरणों ने आना बंद कर दिया
है; या कि जीवन मृत हो गया है। नहीं; आज
भी फूल खिलते हैं; आज भी चांद निकलता है; आज भी परमात्मा की रोशनी चौबीस घंटे वर्षा करती है; आज
भी चारों तरफ उसकी ध्वनि उठती है। लेकिन हमारे पास वह मन नहीं है, जो उसे जान सके, देख सके और पहचान सके। उसे जानने और
पहचानने के लिए चाहिए एक शांत, एक साइलेंट माइंड; तो चारों तरफ संसार दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा।
मैं आपसे निवेदन करूं, संसार कहीं भी नहीं
है, सिवाय हमारे अशांत मन के। संसार हमारे अशांत मन का
प्रोजेक्शन है, हमारे अशांत मन की प्रतिछाया है। और अगर
हमारा मन शांत हो जाए, तो संसार कहीं भी नहीं है। फिर जो शेष
रह जाता है, वह परमात्मा है, संसार
नहीं। दो चीजें नहीं हैं, संसार और परमात्मा, ऐसी दो चीजें कहीं भी नहीं है। ऐसी दो चीजें कभी भी नहीं रहीं। या तो
संसार है या परमात्मा है। हम अशांत होते हैं, तो हमें जो
अनुभव में आता है, वह संसार है और हम शांत हो जाते हैं,
तो हमें जो अनुभव में आता है, वह परमात्मा है।
परमात्मा और संसार जैसी दो चीजें नहीं हैं। दो तरह के मन हैं, शांत मन और अशांत मन। शांत मन न तो व्यवहार में बाधा है, न संसार में, बल्कि जैसे-जैसे भीतर शांति गहरी होती
चली जाती है, बाहर सब कुछ परिवर्तित होने लगता है। एक दूसरे
ही जगत का, एक दूसरे ही सत्य का आविर्भाव होने लगता है। कुछ
और ही दिखाई पड़ने लगता है वहीं, जहां हमें पदार्थ के
अतिरिक्त और कुछ भी कभी दिखाई नहीं पड़ा। कुछ और ही दिखाई पड़ने लगता है वहीं,
जहां हमें शरीरों के अतिरिक्त और कभी कोई स्पर्श न हुआ। अपार्थिव का
प्रारंभ हो जाता है, अशरीरी का बोध शुरू हो जाता है।
हमारे देखने और हमारे मन की गहरी क्षमता पर, हमारी रिसेप्टिविटी पर, हमारी ग्राहकता पर निर्भर
करता है कि क्या हमें अनुभव हो...हम अशांत होंगे, तो निश्चय
मानिए, बाहर जहां-जहां अशांति है उसके अतिरिक्त आपको और कुछ
भी अनुभव नहीं होगा। आपका अशांत मन केवल अशांति को जानने में ही समर्थ है। समान के
पास समान खिंचा हुआ चला आता है। जब भीतर अशांति होती है, तो
चारों तरफ से अशांति हमारी तरफ चुंबक की तरह खिंचने लगती है। इसमें उस अशांति का
कोई कसूर नहीं है। हमने जो अशांति का गङ्ढा बनाया हुआ है, वह
अशांति को खींचने लगता है। और जब हमारे भीतर शांति होती है, तो
चारों तरफ से शांति के झरने हमारी तरफ बहने शुरू हो जाते हैं। इसलिए इस जमीन पर जो
आदमी जैसा होता है वैसा ही अनुभव कर लेता है। यह जमीन न तो बुरी है और न भली। यहां
न स्वर्ग है और न नरक। न यहां अंधकार है और न प्रकाश। यहां तो हम जैसे होते हैं
वैसे का ही हमें अनुभव हो जाता है, वैसे का ही हमें साक्षात
हो जाता है। हम उसी से टकरा जाते हैं, जो हम हैं। प्रत्येक
व्यक्ति केवल अपने को ही सुनता और अहसास करता है।
इसलिए यह न सोचें कि मन शांत हो जाएगा, तो सब बंद हो जाएगा।
नहीं; मन शांत होगा, तो ही सबकी शुरुआत
होगी। अभी तो करीब-करीब सब बंद है। अभी तो हमारे जानने की न कोई क्षमता है और न
कोई विराट शक्ति है। अभी तो जानने वाला मन ही नहीं है। क्योंकि जानने की पहली शर्त
है: शांत हो जाना। अनुभव करने की पहली शर्त है: शांत हो जाना। प्रेम को पाने की
पहली शर्त है: शांत हो जाना। कोई अपने घर में द्वारों को बंद किए बैठा हो, तो सूरज बाहर खड़ा रहेगा; द्वारों पर आवाज नहीं करेगा,
थपकी नहीं देगा, द्वार पर दस्तक नहीं देगा कि
द्वार खोलो, सूरज बाहर प्रतीक्षा करेगा। और अगर हम द्वार बंद
किए ही बैठे रहें, तो हम अपने हाथों अपने लिए अंधकार पैदा कर
लेते हैं। परमात्मा भी निरंतर सबके द्वार पर खड़ा है, लेकिन
हम मन के द्वार बंद किए बैठे हैं। तो परमात्मा प्रतीक्षा करेगा और हम अपने अंधकार
में बैठे रहेंगे। मन को शांत करने, मन को शब्दों से मुक्त
करने का अर्थ है, मन के सारे द्वार और दीवालों को गिरा देना,
ताकि मन के ऊपर कोई आवरण न रह जाए, मन के ऊपर
कोई बंधन न रह जाए, मन के ऊपर कोई दीवाल न रह जाए, कोई कारागृह न रह जाए, तो फिर आ जाएगा वह प्रकाश जो
चारों तरफ मौजूद है और हमारी प्रतीक्षा कर रहा है।
परमात्मा हमारे ऊपर हिंसा नहीं करना चाहता है, इसलिए बाहर दरवाजे पर प्रतीक्षा करता है कि हम अपने द्वार खोलें। लेकिन हम
अपने द्वार ही न खोलें, तो अंधकार में हम अपने हाथ से जीते
हैं।
शांत मन का अर्थ है: द्वार खोलना। शांत मन का अर्थ है: दीवाल को
तोड़ना। शांत मन का अर्थ है: असीम के साथ तालमेल, असीम के साथ संबंध को
स्थापित करना। उससे संसार मिटेगा नहीं, बल्कि संसार ही
स्वर्ग बन जाएगा। उससे जीवन के संबंध नष्ट नहीं होंगे, जैसा
कि हमें सिखाया गया है। हमें सिखाया गया है कि जो परमात्मा का हो जाएगा, वह पत्नी का नहीं रह जाएगा, वह व्यक्ति वह अपने
बच्चों का नहीं रह जाएगा, वह अपने घर का नहीं रह जाएगा,
वह अपने संबंधियों का नहीं रह जाएगा। यह झूठ है बात, एकदम झूठ। इससे ज्यादा झूठी बात कभी नहीं कही गई। सच्चाई उलटी है। सच्चाई
यह है कि उसके घर के लोग तो उसके होंगे ही, इस जमीन पर कोई न
रह जाएगा जो उसके घर का बाहर का हो। सच्चाई यह है कि उसके संबंध तो जिनसे हैं उनसे
होंगे ही, इस जगत में कोई न रह जाएगा जिससे उसके संबंध न रह
जाएं। उसका परिवार मिटेगा नहीं, बड़ा हो जाएगा; उसका प्रेम समाप्त नहीं होगा, विराट हो जाएगा। उसका
छोटा सा घर नष्ट नहीं होगा, बल्कि उसके घर की सीमाएं बड़ी होती
चली जाएंगी और जमीन पर कोई कोना ऐसा न होगा जो उसे अपना घर जैसा मालूम न पड़े। यह
बात झूठी है कि वह अपने घर से छोड़ देगा। सच बात यह है कि पूरी जमीन उसका घर हो
जाएगी। यह बात गलत है कि वह अपने परिवार का शत्रु हो जाएगा। सच्ची बात यह है कि इस
जमीन पर सब कुछ उसका परिवार हो जाएगा। उसका प्रेम विराट होगा, क्षुद्र नहीं।
और निश्चित ही जब इतने विराट प्रेम का जन्म होगा, तो जिस प्रेम को हम जानते हैं उसमें एक क्रांति हो जाएगी, उसमें एक परिवर्तन हो जाएगा। हमारे प्रेम में तो घृणा भी मौजूद होती है।
जिस पत्नी को हम प्रेम करते हैं, उसकी हम हत्या भी कर सकते
हैं। जिस मित्र को हम कहते हैं कि मैं तुम्हारे लिए प्राण दे दूंगा, जरा सी बात बिगड़ जाए और हम उसके प्राण लेने को तैयार हो सकते हैं। हमारा
प्रेम अपने भीतर घृणा को छिपाए हुए है। यह प्रेम झूठा है। क्योंकि जिस प्रेम के
भीतर घृणा बैठी हो, उस प्रेम का मूल्य कितना? हम जिसे प्रेम करते हैं उसी को घृणा भी करते हैं। जरा सी बात बिगड़ जाए,
हमारी इच्छाओं के विपरीत हो जाए बात, हमारी
आकांक्षा से भिन्न हो जाए, हमारा प्रेम समाप्त और हमारी घृणा
बाहर निकल आएगी। जब दो मित्र शत्रु हो जाते हैं, तो उन जैसा
शत्रु और कोई भी नहीं होता। और जब दो भाई लड़ने लगते हैं, तो
उन जैसा लड़ने वाला भी खोजना कठिन है। क्यों? क्या बात है?
हमारे प्रेम और हमारी मित्रता के पीछे हमारी घृणा मौजूद है। जब कोई
व्यक्ति शांत होता है, तो प्रेम नष्ट नहीं होता, उसके भीतर से घृणा समाप्त हो जाती है, उसके पास
शुद्ध प्रेम बच जाता है। इसलिए उसके प्रेम में वह वायलेंस, वह
हिंसा नहीं होती, जो हमारे प्रेम में है। लेकिन उसके प्रेम
में एक अपार्थिव प्रकाश आना शुरू हो जाता है, एक दिव्य
ज्योति आनी शुरू हो जाती है।
निश्चित ही जिस प्रेम में घृणा है, वह सीमित होता है,
वह किसी से बंधा होता है, लेकिन जिस प्रेम में
कोई घृणा नहीं रह जाती, वह असीम हो जाता है, उसका बंधन नहीं रह जाता। वह प्रेम किसी को पजेस नहीं करता, वह किसी का मालिक नहीं बनता, वह किसी को डॉमिनेट
नहीं करता, वह किसी का अधिकार नहीं ले लेता। हमारा प्रेम तो
मालकियत है। मैं अपनी पत्नी को कहूंगा कि मैं तुम्हारा मालिक हूं। पति हमेशा से
पत्नियों से यह कहते रहे हैं और पत्नी भी अपने मन में जानती है कि वह भी मालकिन
है। जो यह जानता है कि जिसे मैं प्रेम करता हूं उसका मैं मालिक हूं, वह ठीक से समझ ले, उसने कभी प्रेम को जाना भी नहीं,
उसने कभी प्रेम को किया भी नहीं।
प्रेम कभी किसी का मालिक हो सकता है? मालिक तो हम उसके
होना चाहते हैं जिससे हमें डर होता है, भय होता है। हम उस पर
कब्जा कर लेना चाहते हैं, ताकि उससे भय न रह जाए, उससे डर न रह जाए। मालिक तो हम उसके होना चाहते हैं जिससे हमें कोई प्रेम
नहीं होता। मालिक तो हम वस्तुओं के होना चाहते हैं। व्यक्तियों का कभी कोई मालिक
हो सकता है? आत्माओं का कभी कोई मालिक हो सकता है? जो किसी को प्रेम करता है वह कभी उसका मालिक न होना चाहेगा। मालकियत घृणा
का सबूत है, प्रेम का नहीं। तो हमारा यह जो प्रेम है जो
मालिक बन जाता है, और जिसकी मालकियत जरा भी डांवाडोल हो जाए
तो हत्या करने को उतारू हो जाएगा। यह प्रेम जरूर शांत व्यक्ति में नहीं रह जाएगा।
शांत व्यक्ति के प्रेम में कोई पजेशन, कोई मालकियत, कोई घृणा नहीं होगी। इसलिए शांत व्यक्ति का प्रेम असीम होता चला जाएगा। वह
एक को पार करके धीरे-धीरे अनेक पर पहुंच जाएगा; वह एक की
सीमा से मुक्त होकर धीरे-धीरे सबमें प्रवेश पा जाएगा। ऐसे ही प्रेम को मैं
प्रार्थना कहता हूं, जो एक को पार कर लेता है और सब तक पहुंच
जाता है।
मंदिरों में कही जाने वाली प्रार्थनाएं प्रार्थनाएं नहीं हैं, थोथे शब्द हैं। सच्चा प्रार्थना से भरा हुआ हृदय तो वह है जिसका प्रेम
अनंत और असीम तक पहुंचने लगा हो, जिसके प्रेम की लहरें
दूर-दूर फैल रही हों, और जिसका प्रेम किसी सीमा को न मानता
हो, और जिसका प्रेम केवल देना जानता हो, मांगना न जानता हो।
प्रेम तो नष्ट नहीं होगा, लेकिन प्रेम
परिवर्तित हो जाएगा; परिवार तो नहीं मिटेगा, लेकिन परिवार बहुत बड़ा हो जाएगा; संसार तो नहीं
बिगड़ेगा, लेकिन संसार एक अभूतपूर्व रूप से परिवर्तित होकर
स्वर्ग बन जाएगा। इसलिए भयभीत न हों। इस बात से भयभीत न हों कि संसार बिगड़ जाएगा।
बड़े मजे की बातें हैं, क्या है आपके संसार
में? कौन सी शांति है? कौन सा आनंद है?
कौन सा प्रेम है? जिसके खो जाने से हम भयभीत
हो जाते हैं कि कहीं हम शांत हो गए तो सब खो न जाए। क्या है आपके पास जो खो जाएगा?
हमारी हालत करीब-करीब उस भिखमंगे जैसी है जो एक राजधानी के किनारे रात
भर जागा रहता था। पुराने दिनों की घटना है। उस गांव का बादशाह रोज घोड़े पर सवार
होकर रात को आधी रात गांव की निरीक्षण को निकलता। वर्ष पर वर्ष बीत गए। सर्दी हो
कि बरसात कि गर्मी हो, कि अंधेरी रात हो कि उजाली रात हो, वह भिखारी गांव के बाहर निरंतर खड़ा हुआ जागता रहता। आखिर उस बादशाह से न
रहा गया। उसने एक दिन अपने घोड़े को रोका और पूछा, मेरे मित्र,
किस चीज का पहरा देते हो रात भर? उस भिखारी ने
कहा: मेरा भी सामान है, कोई उठा कर न ले जाए। उसके पास एक
भिक्षा-पात्र था, एक डंडा था, एक झोली थी।
वह रात भर जाग कर पहरा देता था कि कहीं कोई उसके इस सामान को चुरा कर न ले जाए। तो
उसने राजा से कहा कि क्या आप सोचते हैं मैं सो जाऊं और कोई मेरा सामान ले जाए?
तो मैं दिन को सो लेता हूं, जब रास्ते चलते
होते हैं, तब कोई डर नहीं होता। रात मैं जागता हूं कि कहीं
कोई मेरा सामान न ले जाए।
राजा बहुत चिंतित हुआ। वह लौटा और उसने अपने राजगुरु को जाकर कहा कि
मैंने बड़ी हैरानी की घटना देखी। एक भिखमंगे ने मुझसे यह कहा है कि वह रात भर इसलिए
जागता है कि कहीं उसका कोई सामान न ले जाए। और सामान उसके पास एक भिक्षा-पात्र, एक डंडा और एक झोली से ज्यादा नहीं है। उसके राजगुरु ने कहा: अक्सर ऐसा
होता है, जिनके पास कुछ भी नहीं होता, वे
हमेशा डरे रहते हैं कि उनकी चोरी न हो जाए। अक्सर ऐसा होता है, जिनके पास कुछ भी नहीं है, वे भयभीत रहते हैं,
कहीं वह खो न जाए।
हमारे पास क्या है जिससे हम भयभीत हैं? क्या है हमारे संसार
में जिसके खो जाने से हम डरे हुए हैं? क्या है? कौन सा आलोक हमारे प्राणों को आलोकित कर गया है? कौन
सा जीवन हमने जीया और जान लिया है? स्मरण आती है कोई घड़ी
जीवन में लौट कर देखने पर जिसे हम कहें कि यह मेरी संपदा है इसे मैं सम्हालना
चाहूं? कोई क्षण याद आते हैं जो ऐसे लगते हों जिनको बचाना
जरूरी है? और अगर कल कोई परमात्मा आपसे आकर कहे कि जो जिंदगी
आप जीए थे, मैं दुबारा उसी जिंदगी को जीने का हक देता हूं,
हममें से कितने लोग उसी जिंदगी को दुबारा जीने को राजी होंगे?
कौन राजी होगा इस बात के लिए कि जो जिंदगी उसने जी, ठीक वैसी जिंदगी दुबारा जीने को अगर मौका मिल जाए। इनकार कर देगा कि ऐसी
जिंदगी मुझे नहीं जीनी। कुछ भी तो नहीं जाना, कुछ भी तो नहीं
पाया, सिवाय दुख और पीड़ा के। सिवाय क्रोध और अशांति के क्या
जाना है? सिवाय बेचैनी और परेशानी के कौन सी चीज से पहचान हो
गई? कुछ भी नहीं, लेकिन भय है कि कहीं
वह खो न जाए?
मत भयभीत होइए। शांत होने के साथ ही वह संपदा मिलनी शुरू होती है, जिसे खोने के लिए कोई भयभीत हो, तो उचित भी माना जा
सकता है। लेकिन बड़े आश्चर्यों का आश्चर्य यह है कि शांति से जो संपदा मिलती है,
उसके खो जाने का कोई मार्ग नहीं है। उसे न कोई छीन सकता है, न कोई नष्ट कर सकता है, उसे न कोई मिटा सकता है,
न कोई जला सकता है। शांत होने से जो संपदा मिलती है, हो सकता है कि कोई उसके खो जाने के लिए भयभीत भी हो, क्योंकि वह संपदा है, लेकिन उसके खो जाने का कोई भय
नहीं। क्योंकि वह प्राणों की प्राण है। वह हमारे बाहर नहीं है कि भटक जाए, खो जाए। वह तो हम स्वयं हैं, वह तो हमारा स्वरूप है।
उस स्वरूप की दिशा में शांत होने के संबंध में थोड़ी सी बातें मैंने
आपसे कल कहीं। स्मरण रखिए, कुछ खोएगा नहीं शांत होने से, क्योंकि
अभी कुछ है ही नहीं पास में। हां, कुछ मिल जरूर जाएगा। लेकिन
उसकी हमें कल्पना भी नहीं है कि वह क्या है जो मिल सकता है?
और एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि मैंने कहा कि
शब्दों को दोहराएं नहीं। दोहराने, रिपीटीशन से तो मन जड़
हो जाता है। तो उन्होंने पूछा है कि हमारे मंत्र--सभी धर्मों के मंत्र हैं और
शास्त्रों ने उनका अनुमोदन किया है। सैकड़ों वर्षों से कहा जाता रहा है, उनको दोहराओ, दोहराओ। और जितना ज्यादा दोहराओगे,
जितना ज्यादा रिपीट करोगे, उतना ही ज्यादा
भगवान के निकट पहुंच जाओगे। तो उस संबंध में मेरा क्या खयाल है?
पहली बात, शांति दो प्रकार की होती है। एक तो शांति वह होती है,
जो आदमी को नींद में मिलती है, जब वह रात सो
जाता है और सुबह उठ कर कहता है, मैं बहुत गहरी नींद में सोया,
बड़ा अच्छा लगा, बड़ा मन शांत है। बेहोशी की
शांति है! पैर में दर्द है और डाक्टर एक इंजेक्शन लगा दे, जिससे
स्नायु सो जाएं, तो एक तरह की शांति मिलती है, दर्द का पता होना बंद हो जाता है। जड़ता की शांति है! पैर जड़ हो गया,
उसकी संवेदनशीलता कम हो गई, दर्द का अनुभव
नहीं होता। जो आदमी जितना ज्यादा संवेदनशील है, जितना
सेंसिटिव है, उतना ही पीड़ाओं को अनुभव करता है। जो आदमी
जितना जड़ है, जितना ईडियट है, उतना ही
कम पीड़ाओं को अनुभव करता है। क्योंकि पीड़ा के अनुभव के लिए संवेदनशीलता चाहिए। तो
जितना संवेदनशील व्यक्ति होगा, उतनी पीड़ा अनुभव करेगा;
जितना कम संवेदनशील होगा, उतनी कम पीड़ा अनुभव
करेगा।
जमीन पर जो सर्वाधिक बुद्धिमान, सर्वाधिक संवेदनशील
हृदय हैं, वे सर्वाधिक दुख पाते हैं। जमीन पर जो बहुत
जड़बुद्धि हैं, उन्हें कोई भी दुख व्याप्त नहीं होता, उन्हें पता ही नहीं चलता, उन्हें खयाल भी नहीं होता
कि यह दुख है। क्योंकि दुख के लिए बोध चाहिए, अवेयरनेस चाहिए,
होश चाहिए दुख के अनुभव के लिए।
तो शांति दो प्रकार की हो सकती है। मन जड़ हो जाए, तो भी ऐसा लगेगा कि शांत हो गए। नशा कर लें, शराब पी
लें, तो भी शांति मालूम पड़ेगी। लेकिन वह शांति झूठी है। उससे
दुख मिटता नहीं, केवल दुख को अनुभव करने वाला यंत्र जड़ हो
जाता है। दुख को अनुभव करने वाला यंत्र जड़ हो जाए इससे दुख नहीं मिटता, इससे केवल दुख भूल जाता है। कितनी देर भुलाइएगा?
भुलाने के कई रास्ते हैं। शारीरिक रास्ते हैं और मानसिक रास्ते हैं।
शारीरिक रास्ते तो ये हैं--एक आदमी शराब पी लेता है, एक आदमी नाचने लगता
है, नाचने में पागल हो जाता है। एक आदमी मैस्कलीन का
इंजेक्शन लगवा लेता है, या और नये-नये नये ड्रग्स हैं,
एल एस डी है और जमाने भर के ड्रग्स हैं, उनको
ले लेता है। कुछ घंटों के लिए उसकी सारी, जो दुख को अनुभव की
क्षमता है, वह विलीन हो जाती है। फिर वापस लौट आएगी। दुनिया
में लोग शराब व्यर्थ ही नहीं पीते रहे हैं। सारी दुनिया पर नये-नये ढंग के
इंटाक्सिकेंट ऐसे ही ईजाद नहीं होते रहे हैं। कोई मनुष्य की बहुत गहरी जरूरत है,
जिसको वे पूरा करते रहे हैं। वह जरूरत यह है, दुख
का पता न चले। तो जड़ता, कोई भी तरह की जड़ता और बेहोशी आ जाए,
दुख का पता नहीं चलेगा।
जो लोग शराब नहीं पीना चाहते, इंजेक्शन नहीं लेना
चाहते, उनके लिए और भी सरल रास्ते हैं। वे किसी शब्द को और
मंत्र को निरंतर उच्चारण करें, रिपीट करें, उससे भी मन जड़ हो जाता है। कोई भी चीज की बार-बार पुनरुक्ति करने से चित्त
पर बोर्डम पैदा होती है, डलनेस पैदा होती है। अगर मैं यहां
बैठ कर बोल रहा हूं और एक ही बात घंटे भर तक बोले चला जाऊं, तो
आपके मन पर क्या प्रतिक्रिया होगी? आपमें से बहुत से लोग तो
सो जाएंगे। जैसा अधिकतर लोग सभाओं में सोते हैं--खास कर धार्मिक सभाओं में।
क्योंकि वहां वे ही बातें दोहराई जाती हैं जो हजारों बार दोहराई गई हैं। तो लोग सो
जाते हैं।
बोलने वाला सोचता होगा कि यह सोने वालों का कसूर है। यह बोलने वाले का
कसूर है। वह इस तरह की बातें बोल रहा है, जिनसे बोर्डम पैदा
होती है। रिपीट कर रहा है कुछ बातों को, उससे लोग ऊब जाते
हैं, ऊब से नींद पैदा होती है। उसमें जो बहुत सचेतन लोग
होंगे, वे उठ कर चले जाएंगे, क्योंकि
यह तो जड़ता की बात हो गई। और इसीलिए जवान आदमी धार्मिक सभाओं में दिखाई नहीं पड़ते।
अभी उन्हें जिंदगी है। बूढ़े आदमी दिखाई पड़ते हैं। बूढ़े आदमी मौत की तरफ सरक रहे
हैं, वे जड़ता की तरफ सरक रहे हैं। उनको कोई भी जड़ता प्रीतिकर
लगती है। जवान को जड़ता मुश्किल मालूम पड़ती है कि वहां बैठा रहे। और अगर बिलकुल
छोटे बच्चे बिठाल दिए गए हों, तो वे तो बिलकुल ही नहीं
बैठेंगे, अभी वे बहुत जीवंत हैं। अभी वे जड़ होने को राजी
नहीं हैं। अभी जिंदगी उनमें बड़ा प्रवाह ले रही है; अभी
जिंदगी उनमें खड़ी हो रही है, तो उन्हें जड़ता की कोई बात अपील
नहीं करेगी। इसीलिए तो सारी दुनिया में धर्म से बच्चों और जवानों का संबंध टूट गया,
सिर्फ बूढ़ों का संबंध रह गया।
यह इस बात की सूचना है कि जिस धर्म को हम बार-बार दोहरा रहे हैं, वह किसी न किसी रूप में जड़ता का पक्षपाती होगा। अगर वह जीवन का पक्षपाती
होता, तो बच्चे और जवान उसमें निश्चित ही उत्सुक होते। लेकिन
यह जो रिपीटीशन है, यह जो बार-बार दोहराना है किन्हीं बातों
का, यह एक तरह की राहत, एक तरह की
शांति लाता है। और वह शांति इस बात की है--अगर आप राम-राम, राम-राम
घंटे भर तक कहते रहें, मन ऊब जाएगा जो कि मन का स्वभाव है।
मन जागता है नये से, नई चीज हो तो जागता है। पुरानी-पुरानी
बात तो मन को जागने का कोई कारण नहीं रह जाता, वह सो जाता
है। उससे जो तंद्रा पैदा होती है, उसको लोग शांति समझते हैं।
उससे जो निद्रा पैदा होती है, जिसको योग-निद्रा कहते हैं,
वह शांति नहीं है। वह केवल सो जाना है। वह ऑटो-हिप्नोसिस है। वह
आत्म-सम्मोहन है। वह एक तरह की नींद है, जो हम ईजाद कर रहे
हैं।
अगर आपको नींद न आती हो, तो राम-राम का जप बड़ा
लाभ पहुंचा सकता है। कोई भी मंत्र का जप लाभ पहुंचा सकता है। लेकिन नींद आ जाना
सत्य को जान लेना नहीं है। नींद आ जाना शांति को पा लेना नहीं है। लिविंग साइलेंस
बड़ी और बात है, डेड साइलेंस बड़ी और बात है। मरघट पर शांति
होती है। वह भी एक शांति है। लेकिन हम यहां इतने लोग बैठे हैं और शांत हैं,
यह बिलकुल दूसरी शांति है। यह मरघट की शांति नहीं है। यहां इतने
जिंदा लोग बैठे हैं, जीवंत लोग बैठे हैं और यहां एक शांति
है। यह शांति बात और है।
बुद्ध का वैशाली के पास आना हुआ। दस हजार भिक्षु उनके साथ थे। गांव के
बाहर उन्होंने डेरा डाला। वैशाली का नरेश भी उत्सुक हुआ देखने जाने को कि बुद्ध आए
हैं। दस हजार भिक्षु उनके साथ आए हैं। कैसा यह आदमी है? जिसने राज्य छोड़ दिया, जो सम्राट से सड़क पर भिखारी
हो गया--कैसा यह आदमी है? तो उस नरेश ने भी अपने मंत्रियों
को कहा कि मुझे दिखाने ले चलो, मैं चलना चाहूंगा। एक संध्या
वह वैशाली के बाहर गया। उसने अपने मंत्रियों से पूछा, कितनी
दूर है? रथ पास आ गया था, वृक्षों का
घना झुरमुट था। मंत्रियों ने कहा: इन्हीं वृक्षों के उस पार, बस हम निकट ही हैं। दस कदम के बाद वह नरेश संदेह से भर गया, उसने कहा: तुम कहते थे, दस हजार भिक्षु उनके साथ हैं
और यहां तो बिलकुल सन्नाटा है? उसने अपनी तलवार निकाल ली।
उसने कहा: मालूम होता है कोई धोखा दिया गया है मुझे। तुम मुझे यहां कहां ले आए हो?
दस हजार लोग जहां हों, वहां दस कदम के फासले
पर इतना सन्नाटा!
उसके मंत्रियों ने कहा: आप परेशान न हों। उन लोगों को आप नहीं जानते।
वे जीते जी शांत हो गए हैं। वहां कोई आवाज नहीं है। वहां कोई बातचीत नहीं हो रही।
नरेश गया, डरा हुआ, तलवार नंगी हाथ में
लिए हुए। डर था उसे कि पता नहीं क्या खतरा हो जाए? दस हजार
लोग जहां हों, वहां इतनी शांति कल्पनातीत थी। वहां जाकर उसने
देखा, वहां तो पूरी बस्ती है दस हजार लोगों की। उसने बुद्ध
से जाकर पूछा, बड़े अजीब मालूम होते हैं ये लोग। ये जिंदा हैं
या मुर्दा? ये न कोई बात कर रहे हैं, न
कोई चीत; न यहां कोई शोरगुल, न कोई
आवाज। दस हजार लोग चुपचाप बैठे हैं!
बुद्ध ने कहा: तुमने केवल मुर्दा शांति को ही जाना है इसलिए तुम्हें
शक पैदा होता है, कहीं ये लोग मुर्दा तो नहीं? तुमने
केवल मरघटों पर जो शांति होती है, उसको जाना है। हम उस शांति
की खोज में हैं, जो जिंदा आदमी को मिलती है, जीवित मन को मिलती है।
मैं उस शांति की बात कर रहा हूं, जो मन को मुर्दा न कर
दे, डेड न कर दे, मन को डल न कर दे,
शिथिल न कर दे, बल्कि मन को इतना सचेतना से भर
दे, इतनी अवेयरनेस से, इतने होश से,
इतने जीवंत शक्ति से कि वह जीवंत शक्ति के कारण शांत हो जाए। शक्ति
की क्षीणता के कारण नहीं, सो जाने के कारण नहीं, बल्कि जागरण के कारण शांत हो जाए।
तो जागरण से जो शांति आती है, वह तो जीवित है। उस
जीवित शांति में तो जाना जा सकता है सत्य। क्योंकि सत्य जानने के लिए जाग्रत होना
जरूरी है। नहीं तो जानेगा कौन? लेकिन मंत्रों, नाम-जप और इस तरह की बातों से जो शांति पैदा होती है, वह झूठी, निद्रा की शांति है, जीवन
की शांति नहीं। उससे कुछ होने वाला नहीं है।
और ये जो मंत्र हैं, यह भी उन्होंने पूछा है: इतने
मंत्र हैं, इनकी शक्तियों का वर्णन है, इनसे यह हो सकता है, यह हो सकता है, यह हो सकता है।
बड़ा एक षडयंत्र आदमी के साथ चलता रहा है, एक बड़ी कांस्प्रेसी चलती रही है। और वह षडयंत्र यह है, जो मैं एक छोटी सी कहानी से आपको कहूं।
एक मस्जिद के बाहर एक मुल्ला सुबह खड़े होकर पत्थर फेंक रहा था। गांव
का राजा वहां से निकला, उसने उस मुल्ला को पूछा कि मेरे मित्र, ये पत्थर किसलिए फेंक रहे हो? उस मुल्ला ने कहा:
ताकि शेर, चीते, जंगली जानवर यहां
राजधानी में न आ सकें, इसलिए पत्थर फेंक रहा हूं। वह राजा
बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि मैंने आज तक न तो यहां शेर देखे, न चीते देखे, तुम फिजूल पत्थर फेंक रहे हो। वह
मुल्ला क्या बोला? वह बोला कि तुम्हें पता ही नहीं है राजन,
मेरे पत्थर फेंकने की वजह से ही तो शेर और चीते यहां नहीं आते हैं।
तुम सोचते हो शेर-चीते नहीं हैं? और मेरे पत्थर फेंकने की
वजह से वे नहीं आते हैं।
अभी कुछ समय पहले आठ ग्रह इकट्ठे हो गए थे और सारा मुल्क दीवाना हो
गया सारी दुनिया को बचाने के लिए, और न मालूम किस-किस तरह की
बेवकूफियां हमने कीं। और अगर कोई हमसे कहे कि देखो, कुछ तो
हर्जा नहीं हुआ उन अष्टग्रह से। तो हम कहेंगे, तुम पागल हो।
अरे, हमारे यज्ञ-हवन की वजह से कोई हर्जा नहीं हो पाया। नहीं
तो हर्जा होता। वह तो हमने जो मंत्र उच्चार किए और हमने जो पवित्र अग्नियां जलाईं,
उनकी वजह से सारी दुनिया बच गई। नहीं तो दुनिया डूब जाती। वह हमारे
पत्थर फेंके इसलिए शेर-चीते नदारद हो गए। नहीं तो वे तो थे। अगर हमने यह नहीं किया
होता तो दुनिया कभी भी डूब कर नष्ट हो गई होती, महाप्रलय हो
गया होता।
ये सारे मंत्र उन भूत-प्रेतों को भगाते हैं, जो हैं ही नहीं। पहले हमें यह विश्वास दिला दिया जाता है कि भूत-प्रेत
हैं। पहले हमें यह विश्वास दिला दिया जाता है कि ये-ये फियर, ये-ये घबड़ाहट हैं। जब हम उससे भयभीत हो जाते हैं, तो
उसको दूर करने के लिए मंत्र बता दिया जाता है। निश्चित ही भय दूर हो जाएंगे उन
मंत्रों से, क्योंकि भय थे ही नहीं।
कहावत है: फेथ कैन मूव माउंटेंस। कहावत है: विश्वास पहाड़ों को हटा
सकता है। लेकिन केवल ऐसे पहाड़ों को जो काल्पनिक हों। सच्चे पहाड़ों को आज तक किसी
विश्वास ने न हटाया है और न हटा सकता है। हां, झूठे पहाड़ हटाए जा
सकते हैं। और झूठे पहाड़ समझाए जा सकते हैं कि हैं। हम इतने नासमझ हैं कि हम हजारों
झूठी बातों पर हजारों वर्ष तक विश्वास करते रहे हैं, और आज
भी हमारी नासमझी का कोई अंत नहीं हुआ, आज भी हम विश्वास करते
हैं। उनको हटाया जा सकता है, क्योंकि वे हैं ही नहीं। जो
बीमारियां नहीं हैं, वे मंत्रों से दूर की जा सकती हैं। जिन
सांपों में जहर ही नहीं होता, वे मंत्रों से उतर जाते हैं।
हिंदुस्तान में सत्तानबे प्रतिशत सांपों में कोई जहर नहीं होता। केवल
तीन प्रतिशत सांपों में जहर होता है। सौ आदमियों को सांप काटे, सत्तानबे के मरने का कोई भी कारण नहीं है, सिवाय इसके
कि वे भय से न मर जाएं। तो सत्तानबे मौकों पर तो मंत्र काम कर ही जाएगा। यह हो
सकता था कि मंत्र न होता तो वे आदमी मर जाते, क्योंकि दुनिया
में बीमारी से कम लोग मरते हैं, भय से ज्यादा लोग मरते हैं।
सांप ने काट खाया, यह बात मारने वाली हो जाती है, चाहे सांप में कोई जहर हो या न हो। हजारों सांप के काटे हुए लोग मर जाते
हैं केवल इसलिए कि उनको सांप ने काट खाया। उस सांप में कोई जहर ही नहीं होता। सौ
आदमियों को सांप काटे, सत्तानबे के मरने का कोई कारण नहीं है,
लेकिन मर सकते हैं। मंत्र ऐसे आदमियों को बचा सकता है, क्योंकि जो जहर नहीं था वह उतर सकता है। और भय हमें बहुत जोर से पकड़ते
हैं।
एक कहानी मैंने सुनी है।
एक राजधानी के बाहर एक फकीर रहता था। एक दिन सुबह-सुबह उसने देखा, एक बहुत बड़ी काली छाया नगर की तरफ भागी चली आ रही है। उसने उस काली छाया
से पूछा, तुम कौन हो?
उस काली छाया ने कहा: मैं प्लेग हूं।
फकीर ने पूछा, किसलिए जा रही हो नगर में?
उसने कहा कि मुझे एक हजार लोगों के प्राण लेने हैं।
वह छाया नगर में चली गई। तीन महीने बीत गए। उस फकीर ने उस जगह को न
छोड़ा, क्योंकि तीन महीने में कोई दस हजार आदमी मर गए उस
गांव में। उसने कहा कि लौटते हुए प्लेग से पूछ लूं कि मुझसे झूठ बोलने की क्या वजह
थी? तीन महीने बाद वह प्लेग की काली छाया वापस लौटी, तो उस फकीर ने टोका और उसने कहा कि हद हो गई, मुझसे
झूठ बोलने का क्या कारण था? तुमने तो कहा था एक हजार लोगों
के प्राण लेने हैं और दस हजार लोग मर गए?
उस प्लेग ने कहा: मैंने तो एक ही हजार मारे, बाकी भय से मर गए। मेरा उसमें कोई कसूर नहीं। बाकी नौ हजार आदमी अपने आप
घबड़ाहट से मर गए, उनको मैंने नहीं मारा।
इन नौ हजार आदमियों पर मंत्रों का उपयोग हो सकता था, ये बच सकते थे। इनको कोई बीमारी ही नहीं थी।
ये जो सारे मंत्र हैं, जो हमें शक्तिशाली
मालूम होते हैं। मंत्र शक्तिशाली नहीं हैं, हमारा मन कमजोर
है, भयभीत है। इसलिए अगर मन को किसी भी बात से बल दिया जा
सके, ताकत दी जा सके, तो फर्क पड़ जाता
है। और अगर हमको किसी दिन यह बात ठीक-ठीक समझ में आ गई, तो
मंत्रों को बीच में लेने की कोई जरूरत नहीं है। हम अपने आत्मबल को, अपने मन के बल को बिना किसी मंत्र के सहारे के नहीं खड़ा कर सकते हैं।
मंत्र से उसका कोई संबंध नहीं है। संबंध है मेरे भीतर, मेरे
अपने बल का। अगर वह है, अगर मेरा भय छूट जाए, अगर जीवन में मेरी चिंता छूट जाए, अगर जीवन में मेरी
अशांति छूट जाए, तो इतनी बड़ी शक्ति का उदय होगा, किसी मंत्र की कोई जरूरत नहीं है। यह कमजोर आदमी का शोषण है। कमजोर है
आदमी बहुत। और धर्मों ने, पुरोहितों ने उसे मजबूत तो नहीं
बनाया, उलटे और कमजोर किया है, उलटे और
भयभीत किया है। उसे ऐसे भय दे दिए हैं, जिनकी कोई जगह,
कोई गुंजाइश नहीं है, जिनकी सच्चाई में कहीं
कोई असलियत नहीं है। जमीन के भय हैं, नरक के भय हैं, स्वर्ग के भय हैं, और न मालूम कितने-कितने काल्पनिक
भय हैं। और उन काल्पनिक भय के भीतर घिरा हुआ आदमी है। इस आदमी को बल चाहिए।
इसको कोई भी नासमझी पकड़ा दें। अगर इसे ऐसा लगे कि हां, मेरी थोड़ी हिम्मत बढ़ती है, तो हिम्मत तो अंधेरे में
आप जा रहे हों, अगर जोर से फिल्म का गाना भी गाने लगें,
तो बढ़ जाती है। अगर अंधेरी गली से निकल रहे हों और सीटी बजाने लगें
तो भी हिम्मत बढ़ जाती है। कुछ भी करने लगें तो हिम्मत बढ़ जाती है, क्योंकि करने में आप भय को भूल जाते हैं। क्योंकि मन एक ही साथ दो काम
नहीं कर सकता। या तो फिल्मी गाना गा सकता है या भयभीत हो सकता है। अगर अंधेरी गली
से निकल रहे हों और जोर से फिल्म का गाना गाने लगें, तो मन
फिल्म का गाना गाने लगा, भयभीत कौन होगा? उतनी देर के लिए भय बंद हो जाएगा। तो चाहे फिल्मी गाना गा लें, चाहे राम-राम जप लें, चाहे नमोकार जप लें, चाहे कुछ और कर लें। लेकिन उससे कोई जीवन में क्रांति नहीं होती और न
परिवर्तन होता है, बल्कि जो कौमें और जो लोग इस तरह के झूठे,
इस तरह के झूठे विज्ञानों में, इस तरह की शूडो
साइंसिस में फंस जाते हैं, उन मुल्कों में असली विज्ञान का
जन्म नहीं हो पाता।
हमारे मुल्क का दुर्भाग्य यही है। यही मंत्र, यही थोथे विश्वास और इन पर श्रद्धा। हमारे मुल्क में साइंस पैदा नहीं हो
सकी। हम सारी जमीन पर पिछड़ गए हजारों साल के लिए। शायद अब हम किसी कौम के साथ कदम
मिला कर नहीं चल सकेंगे। किसके ऊपर जिम्मा है? उन लोगों के
ऊपर जो इन थोथी बातों को प्रचारित करते रहे, लोगों को समझाते
रहे। इसकी वजह परिणाम यह हुआ कि जिंदगी के दुख को मिटाने का जो कॉज़ेलिटी थी,
जो कारण था असली, वह तो हमने नहीं खोजा। हमने
कहा: मंत्र पढ़ लो, राम-राम जप लो, मामला
सब ठीक हो जाएगा। तो जिंदगी के दुख मिटाने के जो असली कारण थे, वे हमने नहीं खोजे। हमने ऊपरी तरकीबें खोजीं। न जीवन और पदार्थ के संबंध
में सत्यों को खोजा--न उसकी ताकत बढ़ी, न उसकी समृद्धि बढ़ी,
न उसका आत्मबल बढ़ा। सब तरह से हम दीन-हीन हो गए। और उस दीन-हीन हो
जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण, हमारे ये थोथे मंत्र, ये थोथे खयाल कि हम इन बातों को करके सब कुछ कर लेंगे।
सोमनाथ पर हमला हुआ। सोमनाथ के हमले के वक्त सारे हिंदुस्तान से
बहादुरों ने यह खबर भेजी कि मंदिर की रक्षा के लिए हम आ जाएं? तो मंदिर के गर्व से भरे हुए पुजारियों ने कहा: तुम्हारी जरूरत भगवान की
रक्षा के लिए! भगवान अपनी रक्षा नहीं कर सकेंगे? भगवान सबके
रक्षक हैं, तुम्हारी क्या जरूरत है? बात
तो ठीक थी। भगवान, जो सबके रक्षक हैं, उनके
लिए कोई तलवार की रक्षा की जरूरत है? मान गए वे लोग। तलवार
लिए हुए सिपाही खड़े थे, लेकिन वे लड़े नहीं। जिसने हमला किया
था, वह आदमी भीतर घुस गया। और पांच सौ पुजारी थे उस मंदिर
में और वे अपने मंत्रों का जाप कर रहे थे और प्रार्थनाएं कर रहे थे। और गजनी ने
मूर्ति पर चोट की और मूर्ति टुकड़े हो-हो कर गिर गई और उनके सारे मंत्र रखे रह गए
और सारी प्रार्थनाएं रखी रह गईं। और तब उन पुजारियों ने क्या कहा? जब उन्होंने देखा कि मंत्र फिजूल हो गए, सब व्यर्थ
हो गया, मूर्ति तोड़ दी गई, तो उन्होंने
एक नई बात ईजाद की। उन्होंने कहा कि गजनी शिव का अवतार मालूम होता है। नहीं तो यह
कैसे हो सकता है? और हम उन मूढ़ों में से हैं कि हमने पहली
बात भी मान ली और दूसरी बात भी मान ली कि गजनी जो है भगवान शिव का अवतार होना
चाहिए, तभी तो, तभी तो सारी बात हो गई।
यह जो हम इस भांति का जो चिंतन करते रहे हैं, यह चिंतन नहीं है, यह जड़ता है। और इसका परिणाम यह
हुआ कि हम साइंस को जन्म नहीं दे पाए; हम खोज नहीं कर पाए।
दूसरी कौमों के लोग, जो सभ्यता और विचार के रास्ते पर हमसे
बहुत पीछे चले, बहुत पीछे; वे आज
चांदत्तारों पर पहुंच रहे हैं। उन्होंने पदार्थ का अणु तोड़ लिया। वे आज आत्मा और
मन की तलाश में भी बहुत गहरे जा रहे हैं। और हम, जिन्होंने
यात्रा बहुत पहले शुरू की थी, आज जमीन पर सबसे पीछे खड़े हैं।
कौन है जिम्मेवार? वे ही लोग, जो आज भी
मंत्र और हवन की बातें कर रहे हैं।
जीवन बातचीत करने से हल नहीं होता और ऊपरी इलाज करने से चिकित्साएं
नहीं होतीं। जीवन में कारण खोजने पड़ते हैं। कारण की खोज साइंस है और बिना कारण को
खोजे शब्दों को दोहराने की आस्था, सुपरस्टीशन है, अंधविश्वास है।
मैं आपसे निवेदन करता हूं, कोई मूल्य इनका बहुत
नहीं है। और जब तक हम यह बात स्पष्ट रूप से न समझ लेंगे और हमारे मुल्क की नई पीढ़ी
इस जंजाल से नहीं छूट जाएगी, तब तक हम अपने मुल्क में सत्य
के अनुसंधान में न तो पदार्थ को खोज सकेंगे और न परमात्मा को।
मंत्र न तो पदार्थ की खोज में अर्थपूर्ण है और न परमात्मा की खोज में।
दोहराने वाली बातें और कोरे शब्दों को दोहराने वाली बातें ज्यादा से ज्यादा थोड़ी
सी हिम्मत दे सकती हैं; लेकिन उनसे कोई जीवन में क्रांति नहीं होती। और जितने
जल्दी हम इस बात को समझ लें, उतना अच्छा है। नहीं तो शायद
हमारे दुर्भाग्य के मिटाने के रास्ते भी बंद हो जाएंगे; समय
भी खो जाएगा और हम अपने दुर्भाग्य को पोंछने के सारे उपाय अपने हाथ से ही तोड़
देंगे। लेकिन हम आज भी यही किए चले जा रहे हैं।
आज भी पानी नहीं गिरता, तो हम मंत्र का सहारा
लेते हैं। पांच हजार साल से हम यही करते रहे हैं। पांच हजार साल से हम यही करते
रहे हैं कि जो हमसे न बन सके उसमें हम मंत्र का सहारा ले लेते हैं। बीमारी हो,
तो मंत्र; पानी न गिरे, तो
मंत्र; आदमी मरता हो, तो मंत्र;
अनाज पैदा न हो, तो मंत्र। मंत्रों का कुल जमा
परिणाम यह हुआ, जो हम आज हैं! और इसका फल यह हुआ कि हम
मंत्रों में खोए रहे और अगर हम कारण खोजने में इतनी ताकत लगाते, तो कोई वजह न थी कि आकाश से पानी क्यों न गिर सके! कोई वजह न थी कि जमीन
के भीतर से पानी क्यों न निकाला जा सके! जमीन के भीतर इतना पानी है कि अगर पांच सौ
वर्षों तक भी बिलकुल वर्षा न हो, तो भी पानी की कोई कमी नहीं
है। लेकिन हम उसे निकालने में समर्थ नहीं हो सके। हम बैठे रहे, मंत्र पढ़ते रहे।
बिहार में हर वर्ष, आए वर्ष अकाल पड़ता है। मंत्र
वहां बहुत पढ़े जाते हैं। मुल्क भर से भीख मांगी जाती है। अब तो हम दुनिया भर में
भिखारी की तरह जाहिर हो गए। हर जगह हाथ फैला कर खड़े हो जाते हैं। मंत्र घर में
पढ़ते हैं, भीख जमाने भर में मांगते हैं। लेकिन बिहार में वह
किसान हाथ पर हाथ रखे बैठा रहता है, जमीन में कुआं भी नहीं
खोदता। बिहार के खेतों में कुएं नहीं हैं। जहां निरंतर अकाल पड़ रहा है, वहां हर वर्ष यज्ञ, महायज्ञ और न मालूम क्या-क्या
बेवकूफियां हम करते हैं लेकिन कुआं खोदने की हम कोई फिक्र नहीं करते। कुआं हम
क्यों खोदें? हम तो मंत्रों के धनी हैं और मंत्र हमारे पास
हैं, तो सब पानी भी गिरेगा और फसलें भी उगेंगी और न मालूम हम
क्या-क्या कर लेंगे। इस भ्रम में, इस इल्युजन में हमने बहुत
गंवाया है।
वक्त आ गया है कि यह भ्रम टूट जाना चाहिए। नहीं तो मुल्क की रीढ़ हमेशा
के लिए टूट जाएगी। इस कौम का बहुत भविष्य नहीं है। अगर हम इन्हीं पुरानी
पिटी-पिटाई बातों को आगे भी दोहराते जाते हैं, तो इस कौम के आगे आने
वाले दिन अच्छे नहीं हो सकते। हम एक भिखमंगे में परिवर्तित हो गए हैं। और मंत्रों
की कृपा है और हमारे पुरोहितों की और हमारे पंडितों की। जरूर मंत्र उपयोगी हैं
पंडितों और पुरोहितों के लिए, आपके लिए नहीं। उनका धंधा है,
उनका व्यवसाय है, उनकी आजीविका है। वे उससे जी
रहे हैं। और अगर ये बंद हो जाएंगी बातें और लोगों का खयाल इनसे हट जाएगा, तो उनकी आजीविका जरूर टूट जाएगी। इसका तो जरूर मन में दुख होता है कि उनकी
आजीविका टूट जाएगी, लेकिन अब यह आजीविका तोड़नी पड़ेगी। अब
उनकी आजीविका चलेगी, तो इस पूरे मुल्क का जीवन टूट जाएगा।
अब दो बातों में से कुछ न कुछ निर्णय करना होगा कि या तो ये मंत्र
पढ़ने वाले पंडित और पुरोहित जीएं और हम मर जाएं, और या फिर अब इनको अपना
व्यवसाय बदलना होगा। अच्छा होगा कि मंत्र और यज्ञ करवाने की बजाय ये कुएं खोदने
लगें, कुछ और करने लगें, और मुल्क को
जीने दें और खड़ा होने दें। कोई उपयोग नहीं है। जरा भी कोई उपयोग नहीं है। और इस
बात को बहुत स्पष्ट दो और दो चार की भांति आपसे कह रहा हूं, कोई
उपयोग नहीं है। सोचें और देखें, मुल्क की कथा। क्या हुआ इनके
उपयोग का परिणाम? हम कहां खड़े हैं?
लेकिन हम विचार भी नहीं करते। हम शायद सोचते होंगे, हम ठीक से मंत्र नहीं पढ़ पाए इसलिए सब गड़बड़ हो गई। शायद हम सोचते होंगे,
यज्ञ-हवन कम कर पाए इसलिए यह गड़बड़ हो गई। या मंत्र तो पढ़े लेकिन
उच्चारण ठीक नहीं हो पाया, संस्कृत में कुछ भूल हो गई इसलिए
यह गड़बड़ हो गई। या शायद हमने पंडित-पुरोहितों की बात पूरी-पूरी तरह नहीं मानी
इसलिए यह सब गड़बड़ हो गई। यह समझाने वाले लोग भी हैं और हममें से बहुत से लोग इसको
समझने के लिए भी तैयार हैं। क्योंकि हजारों साल की दासता में जिस कौम का दिमाग पल
गया हो, उसकी सोचने-समझने की शक्ति समाप्त हो जाती है। उसे
सोच-विचार पैदा नहीं होता। उसकी आदत विश्वास करने की हो जाती है, विचार करने की नहीं होती।
मैं आपसे निवेदन करूंगा, विश्वास बहुत किया जा
चुका। विचार करिएगा या नहीं? बहुत हो चुका विश्वास। बिलीफ पर
हम बहुत जी चुके। अब विचार करिएगा या नहीं? चहुंमुखी विचार
की जरूरत है, सर्वांगीण विचार की जरूरत है। पदार्थ के संबंध
में, जीवन के संबंध में, परमात्मा के
संबंध में विवेक की जरूरत है, खोज की जरूरत है। अंधेपन की जरूरत
नहीं है कि मान लें। मान लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। किसी बात को मानने की कोई
जरूरत नहीं है। बहुत मान चुके और बहुत खो चुके। मुल्क बैंकक्रप्ट हो गया, दिवालिया हो गया, उसकी आत्मा नष्ट हो गई, उसके प्राण भटक गए, उसकी सारी दिशा खो गई, उसकी आंखें बंद हो गईं, लेकिन फिर भी, फिर भी हम दोहराए जा रहे हैं। हम दोहराए जा रहे हैं उन्हीं बातों को जो
हमारे भटकाने का रास्ता बनी, हम आज भी कहे जा रहे हैं।
जरूरत आ गई है कि इस सारी थोथी परंपरा, इस सारी रूढ़ि,
इस सारे अंधे चिंतन से देश मुक्त हो जाए। और मैं आपसे कहता हूं कि
उस भांति होने से मुल्क अधार्मिक नहीं हो जाएगा। अधार्मिक अभी है। विश्वासी
व्यक्ति अंधा होता है। अंधा आदमी कभी धार्मिक नहीं होता। धार्मिक तो बहुत खुली हुई
आंखों वाला आदमी होता है। विचार अधर्म में नहीं ले जाता; विचार
तो जितना तीव्र और गहरा और जितना प्रवेश करने वाला होता है, उतना
ही ज्यादा धर्म में ले जाता है।
तो विचार की क्रांति अगर आए, तो इससे घबड़ाने की
जरूरत नहीं कि अधार्मिक हो जाएंगे, लोग भटक जाएंगे। मैं आपसे
कहता हूं, लोग भटके हुए हैं, अब और
भटकने की कोई गुंजाइश नहीं है। और यह भी खयाल रखें कि जितना-जितना विचार की
सामर्थ्य पैदा होती है, सोच पैदा होता है, जीवन को कसने और परखने की हिम्मत और विश्लेषण करने की हिम्मत पैदा होती है,
संदेह करने की हिम्मत पैदा होती है, उतना ही
उतना भीतर प्राणों का साहस बढ़ता है, आत्मा बलवान होती है। जो
लोग कभी संदेह ही नहीं करते, उनकी आत्मा कमजोर न हो जाएगी तो
और क्या होगा?
एक मित्र ने पूछा है, वह अंतिम प्रश्न, उसके बाद मैं चर्चा बंद करूंगा।
एक मित्र ने पूछा है: हमसे तो कहा जाता है कि हम
मां-बाप, गुरु को आदर दें, सम्मान दें और
उनकी बात को हमेशा प्रमाणिक मानें, उस पर शक न करें, उस पर संदेह न करें। तो मेरा क्या विचार है इस संबंध में?
पहली बात, अगर कोई भी आपसे कहता हो मुझे आदर दो, तो उसे आदर कभी मत देना; क्योंकि यह मांग उस आदमी के
भीतर आदर-योग्य होने की कमी का सूचक है। अगर कोई कहता हो; अगर
गुरु यह कहता हो, मुझे आदर दो, उसे कभी
आदर मत देना, क्योंकि यह आदमी गुरु होने के योग्य ही नहीं
रहा। गुरु कभी आदर नहीं मांगता। जो आदर मांगता है, वह गुरु
नहीं रह जाता। आदर की मांग बड़े क्षुद्र मन की सूचना है। आदर मांगा नहीं जाता;
आदर मिलता है।
मैं यह नहीं कहता कि मां-बाप को आदर दो। मैं यह कहता हूं, मां-बाप ऐसे होने चाहिए कि उन्हें आदर मिले। आदर मांगा नहीं जा सकता। और
मांगा हुआ आदर एकदम झूठा होगा। अगर कोई देगा भी, वह झूठा
होगा। अगर बच्चे आदर देंगे इसलिए कि मां-बाप मांगते हैं कि आदर दो, क्योंकि हम बुजुर्ग हैं, हमने जिंदगी देखी है और
हमने यह किया और हमने वह किया। अगर इस वजह से वे आदर मांगते हैं, तो वे पक्का समझ लें, वे बच्चे में आदर नहीं,
अनादर के बीज बो रहे हैं। हां, आज तो बच्चा
कमजोर है इसलिए डर की वजह से आदर देगा। लेकिन कल आप कमजोर हो जाएंगे और बच्चा
ताकतवर हो जाएगा; आप बूढ़े हो जाएंगे और बच्चा जवान हो जाएगा,
तब? तब पासा बदल जाएगा। बच्चा सताएगा और अनादर
देगा। ये जो जवान बच्चे अपने मां-बाप को अनादर दे रहे हैं, यह
अकारण नहीं है। इनसे बचपन में जबरदस्ती आदर मांगा गया, उसका
रिएक्शन है, उसकी प्रतिक्रिया है। जब इनके हाथ में ताकत आएगी,
तो ये इसका बदला चुकाएंगे। आपके हाथ में ताकत थी, तो आपने आदर मांग लिया। अब इनके हाथ में ताकत है, तो
अब ये उसका बदला चुकाएंगे कि जो आदर दिया था, उसको एक-एक
रत्ती-रत्ती पाई चुकता कर लेंगे।
सारी दुनिया में बच्चों की जो बगावत है, वह मां-बाप के प्रति
नहीं है, मां-बाप के जबरदस्ती मांगे गए आदर के प्रति है।
मां-बाप को कौन अनादर देगा? कोई कल्पना भी नहीं कर सकता उनको
अनादर देने की। लेकिन मां-बाप होने तो चाहिए, वे हैं कहां?
गुरु होने तो चाहिए, वे हैं कहां? इसलिए मैं यह नहीं कहता कि गुरु को आदर दो। मैं तो यह कहता हूं, जिसके प्रति तुम्हारा आदर खिंचा हुआ चला जाए, उसे
गुरु समझ लो। मां-बाप को आदर मिलना नहीं चाहिए; दिया नहीं
जाना चाहिए; मांगा नहीं जाना चाहिए। यह तो हद्द हो गई। अगर
एक मां अपने बेटे से कहे कि तुम मुझे आदर दो, यह किस बात की
खबर हुई? यह इस बात की खबर हुई कि वह मां मां होने में समर्थ
नहीं हो सकीं। नहीं तो आदर तो मिलता। एक पिता अपने बेटे से कहे, मुझे आदर दो, क्योंकि मैं तुम्हारा पिता हूं। यह बात
भी अगर कहनी पड़े और समझानी पड़े, तो बात खत्म हो गई। यह पिता
पिता होने के योग्य नहीं था।
जब भी आदर मांगा जाता है तो समझ लेना चाहिए, समाज में आदर पाने योग्य लोग समाप्त हो गए। सचमुच योग्य व्यक्ति कभी आदर
नहीं मांगता, सम्मान नहीं मांगता। और जिस व्यक्ति को इस बात
का अहसास है कि वह जो कह रहा है, सच है, वह कभी यह नहीं कहता कि मेरी बात को प्रमाण मान लेना। जिस आदमी को अपनी
बात पर शक होता है, वह हमेशा जोर देकर कहता है कि मेरी बात
प्रमाण है, मैं जो कह रहा हूं, वह सत्य
है। जिस आदमी को शक होता है अपनी बात पर, वह यह कहता है कि
मैं जो कह रहा हूं, वह प्रमाणित है, इस
पर शक करोगे, गर्दन काट देंगे। लेकिन जिसको अपनी सच्चाई पर,
अनुभव पर, जिसे सीधा बोध होता है कि मैं जो कह
रहा हूं, वह सच है, वह कभी ऐसा नहीं
कहता। वह कहता है कि मुझे दिखाई पड़ता है कि यह सच है, तुम भी
सोचना और खोजना। क्योंकि उसे इस बात का पता है कि अगर दूसरे व्यक्ति ने सोचा और
खोजा, तो वह निश्चित ही इस नतीजे पर आ जाएगा, जो मैं उससे कह रहा हूं। लेकिन जिसको यह डर होता है कि मैं जो कह रहा हूं,
पता नहीं, वह सच है या झूठ, वह कहता है, यह प्रमाणिक है। और मेरी बात को इसलिए
मान लेना कि मैं तुम्हारा पिता हूं; इसलिए मान लेना कि मैं
गुरु हूं; इसलिए मान लेना कि मेरी उम्र तुमसे ज्यादा है। ये
बातें सब कमजोरी के लक्षण हैं और झूठ के लक्षण हैं, सत्य के
लक्षण नहीं हैं।
इसलिए कोई गुरु कभी नहीं कहता कि मेरी बात को प्रमाण मान लेना। वह
कहता है, खोजना, अन्वेषण करना। वह यह
नहीं कहता कि मेरी बात मान लो कि यही सच है। जो आदमी ऐसा कहता है, वह गुरु नहीं है, वह तो शत्रु है, क्योंकि वह आपके भीतर सोच-विचार के पैदा होने के बीज को नष्ट कर रहा है।
वह आपको विश्वास की तरफ ले जा रहा है। विश्वास आपको अंधेपन की तरफ ले जाएगा। कल
कोई दूसरा आदमी कहेगा कि मेरी बात मान लो, क्योंकि मेरी उम्र
भी ज्यादा है, फिर आप उसकी बात भी मान लेना। परसों कोई तीसरा
आदमी कहेगा कि मेरी बात मान लो, तो उसकी बात भी मान लेना।
सोवियत रूस में उन्नीस सौ सत्रह में क्रांति हुई। वहां के लोग मानते
थे कि ईश्वर है, विश्वास करते थे कि ईश्वर है। पुरोहित कहते थे,
पादरी कहते थे, ईश्वर है; तो वे मानते थे। पुरोहित बड़ा आदमी था। गांव में उसकी इज्जत थी। उसके तगमे
चमकते थे; उसके कपड़े चमकते थे। चर्च, उसका
बड़ा मकान। पुरोहित की बड़ी इज्जत थी। खुद बादशाह भी आता तो पुरोहित के पैर छूता था।
तो पुरोहित के हाथ में शक्ति थी, पॉवर था। तो पुरोहित कहता
था, जो मैं कहता हूं, वही सत्य है। मैं
कहता हूं कि क्राइस्ट कुंआरी लड़की से पैदा हुए, तो लोग मानते
थे कि हुए। जब हुकूमत बदल गई और कम्युनिस्ट हुकूमत में आ गए और उन्होंने पुरोहितों
को निकाल कर बाहर कर दिया और पुरोहित दीन-हीन हो गए, तो पॉवर
बदल गया। पॉवर आ गया कम्युनिस्टों के हाथ में और कम्युनिस्टों ने कहा: कोई ईश्वर
नहीं है, और उन्होंने कहा: कोई आत्मा नहीं है, कोई परमात्मा नहीं है। लोग इसको मान लिए। कोई आत्मा नहीं, कोई परमात्मा नहीं; ठीक है।
कल मानते थे पुरोहित को, क्योंकि वह ताकत में
था। आज कम्युनिस्ट ताकत में आ गए, उन्होंने उसकी बात मान ली
कि ठीक है, ये जो कहते हैं वही ठीक है। बीस साल के दोहराने
के बाद रूस के लोग कहने लगे, कोई आत्मा नहीं, कोई परमात्मा नहीं, कोई पुनर्जन्म नहीं। ये वे ही
लोग हैं, जो कल कहते थे ईश्वर है। और जो कहते थे, कुंआरी मरियम से क्राइस्ट पैदा हुआ। अब वे सब हंसने लगे और कहने लगे,
वे सब बेवकूफी की बातें थीं। क्योंकि अब जो ताकत में आ गए, उन्होंने कहा कि वे बेवकूफी की बातें थीं। ये वे ही लोग; इनमें कोई फर्क नहीं पड़ा। ये विश्वास के परिणाम हुआ यह। अगर इन लोगों ने
विचार किया होता और अगर इन्होंने क्राइस्ट को या परमात्मा की खोज को विचार से
अंगीकार किया होता, तो कोई कम्युनिस्ट इनको यह समझाने में
समर्थ नहीं हो सकता था कि ईश्वर नहीं है। इनके भीतर विचार का अनुभव होता। कोई
दुनिया की ताकत उसको तोड़ नहीं सकती थी।
दुनिया में बड़ा खतरा है विश्वास के कारण। क्योंकि जो लोग विश्वास करते
हैं, वे किसी भी चीज पर विश्वास कर सकते हैं। उन्हें कोई
भी चीज समझाई जा सकती है, क्योंकि विश्वास करने वाला आदमी
कभी विचार नहीं करता। इसलिए दुनिया की हुकूमतें, दुनिया के
पोलिटिशियंस, दुनिया के धर्म-पुरोहित, दुनिया
के शोषण करने वाले लोग, कोई भी यह नहीं चाहते कि आप विचार
करो। वे सब चाहते हैं, विश्वास करो। क्योंकि आप विश्वास
करोगे, तो दुनिया में कोई क्रांति नहीं होगी, कोई बगावत नहीं होगी। आपका शोषण मजे से होता रहेगा, आपको
मूढ़ बनाया जाता रहेगा और आप चुपचाप चलते रहोगे। विचार से वे सब घबड़ाए हुए हैं। और
विचार के न होने का यह परिणाम है कि पांच हजार साल से आदमी कष्ट उठा रहा है,
न मालूम कितने प्रकार के, जिनका कोई हिसाब
नहीं है। विचार पैदा होना चाहिए। क्योंकि विचार बगावत है, विचार
रिबेलियन है। विचार पैदा होना चाहिए, तो शायद बगावत भी पैदा
हो और हम एक नई दुनिया बनाने में समर्थ हो जाएं।
निश्चित ही पुरानी दुनिया तोड़नी पड़ेगी, नई दुनिया बनाने के
लिए; पुराने ढांचे मिटाने होंगे, नये
आदमी को जन्म देने के लिए।
पुरानी दुनिया भली नहीं थी। क्या आपको पता है, पांच हजार सालों में पंद्रह हजार युद्ध लड़े हैं पुरानी दुनिया ने। इस
दुनिया को कोई भला कहेगा? यह दुनिया पागल रही होगी। जहां
पांच हजार साल में पंद्रह हजार युद्ध लड़ने पड़े हों, जहां रोज
युद्ध करने पड़े हों, जहां रोज हत्या करनी पड़ी हो, यह दुनिया अच्छी दुनिया रही होगी? यह पागलों की
दुनिया रही होगी। इस दुनिया को बदल देना जरूरी है। और बदलने के लिए पहला सूत्र है,
विश्वास करना नहीं, विचार करना, खोजना विवेक से, अपने प्राणों की पूरी ताकत से,
जो ठीक लगे उसको स्वीकार करना। निश्चित ही जो मां-बाप अपने बच्चों
को विचार करने में सहयोगी बनेंगे, बच्चे उनके लिए सदा के लिए
आदर से भर जाएंगे। जो मां-बाप अपने बच्चों के लिए विचार और विवेक की शक्ति जगाने
में सहयोगी होंगे, वे बच्चे आजीवन उन मां-बाप के प्रति
सम्मान का अनुभव करेंगे। जो गुरु आदर नहीं मांगेगा, बल्कि इस
तरह का जीवन जीएगा, जो कि बच्चे के भीतर स्वतंत्रता लाए,
बच्चे के भीतर विचार और विवेक लाए, उस गुरु के
प्रति उन बच्चों के माथे हमेशा के लिए झुक जाएंगे।
आदर तो मिलता है; मांगा नहीं जाता। प्रेम मिलता है;
मांगा नहीं जाता। सम्मान मिलता है; खरीदा नहीं
जाता। न भय दिखा कर पाया जाता है, न झपटा जाता है। लेकिन वह
तभी मिलता है जब हम किसी की आत्मा को विकसित होने में सहयोगी बनते हैं। तो निश्चित
ही वह आत्मा सदा के लिए ऋणी हो जाती है, वह आत्मा हमेशा के
लिए अनुगृहीत हो जाती है, एक ग्रेटिटयूड उसके भीतर पैदा हो
जाता है। क्या आप अपने बच्चों को स्वतंत्र करने में सहयोगी हो रहे हैं? अगर हो रहे हैं, तो ये बच्चे आपको सम्मान देंगे।
जितने ये स्वतंत्र होंगे, उतना सम्मान देंगे। क्या इन बच्चों
में विचार पैदा कर रहे हैं? अगर इनमें विचार पैदा किया,
तो ये अनुगृहीत होंगे। क्योंकि विचार इन्हें जीवन की बड़ी ऊंचाइयों
पर ले जाएगा, जीवन के शिखरों पर ले जाएगा, जीवन की गहराइयों में ले जाएगा। विचारपूर्वक ये सत्य को किसी दिन जानने
में समर्थ हो सकेंगे। ये आनंदित हो सकेंगे किसी दिन। और जिस क्षण इनके जीवन में
आनंद उतरेगा, उस दिन आपके प्रति इनका ऋण, उस दिन आपके प्रति इनकी कृतज्ञता, उस दिन आपके प्रति
इनकी धन्यता का कोई पारावार न होगा, कोई सीमा न होगी।
दुनिया से कृतज्ञता उठ गई है क्योंकि हम अपने बच्चों को परतंत्र कर
रहे हैं, स्वतंत्र नहीं। हम अपने बच्चों को गुलाम बना रहे हैं,
मुक्त नहीं; हम अपने बच्चों को दासता सिखा रहे
हैं, विद्रोह नहीं। सच्चे मां-बाप और सच्चे गुरु बच्चों को
विद्रोह सिखाते हैं, ताकि जो गलत है उसे वे तोड़ सकें;
और साहस सिखाते हैं, ताकि जो सही है उसे वे
निर्मित कर सकें। और बच्चे अगर गलत को तोड़ने में समर्थ हो जाएं और सही को सृजन
करने में, तो निश्चित ही, निश्चित ही
वे बच्चे सदा-सदा के लिए अपनी पुरानी पीढ़ी के चरणों में सिर को टेक देंगे।
लेकिन अभी जो हो रहा है और आज तक जो होता रहा है, उसने बच्चों को घबड़ा दिया है और एक क्लाइमेक्स पर बात पहुंच गई है जैसे।
और सारी दुनिया में युवक पुरानी पीढ़ी के शत्रु हुए जा रहे हैं। इसमें जिम्मा किसका
है? इसमें पुरानी पीढ़ी जिम्मेवार है। और अगर पुरानी पीढ़ी ने
यह गलती की कि जिम्मेवारी नई पीढ़ी पर सौंपी, तो कोई फर्क न
हो सकेगा। लेकिन अगर पुरानी पीढ़ी ने यह समझा कि कुछ बुनियादी भूलें हैं, जिनकी वजह से नई पीढ़ी भटक रही है; जिनकी वजह से नई
पीढ़ी के मन में कोई कृतज्ञता का भाव नहीं है, कोई ग्रेटिटयूड
नहीं है, कोई सम्मान नहीं है, कोई आदर
नहीं है, तो शायद हम नई पीढ़ी में वह भाव पैदा कर सकें,
जो कि उसमें होना चाहिए। लेकिन वह मांगा नहीं जा सकता; वह बुलाया नहीं जा सकता; वह कहा नहीं जा सकता कि
हमें दो। वह तो हमारे भीतर कुछ होगा परिवर्तन, तो अपने आप
मिलता है। अपने आप मिलता है। सुबह सूरज निकलता है और हमारी आंखें उसकी तरफ उठ जाती
हैं। बगीचे में फूल खिलते हैं और उनकी सुगंध से हम भर जाते हैं। अगर पुरानी पीढ़ी
किसी सूरज को अपने भीतर जन्म दे सके और किसी सुगंध को, तो नई
पीढ़ियां, नई पीढ़ियां तो हमेशा अनुगृहीत होने को हैं।
इतनी थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं। और कुछ प्रश्न हैं, लेकिन उनका तो उत्तर आज संभव नहीं हो पाएगा। और सभी प्रश्नों के उत्तर
जरूरी भी नहीं हैं। इसलिए नहीं कि वे प्रश्न कम महत्वपूर्ण हैं; बल्कि इसलिए कि जो बातें थोड़ी सी मैंने कहीं, अगर वे
आपके खयाल में, समझ में आ जाएं, तो
उनके आधार पर आप उन प्रश्नों के उत्तर भी पा सकेंगे, जिनके
बाबत मैंने कुछ भी नहीं कहा।
मेरा दृष्टिकोण आपके सामने मैंने रख दिया। यह दृष्टिकोण विश्वास कर
लेने के लिए नहीं है। मैंने जो भी बातें कहीं, उन पर विश्वास कर
लेने की कोई भी जरूरत नहीं है। मैं न तो गुरु हूं, न उपदेशक
हूं, न मुझे यह भ्रम है कि जो बात मैं कहूं, उसे आप मान लें। मैंने ये बातें आपके सामने रखीं ताकि आप इन पर सोचें,
विचार करें। जरूरी नहीं है कि विचार करने के बाद मेरी बातें आपको
सही ही मालूम पड़ें। लेकिन एक बात है, अगर आपने विचार किया,
तो मेरी बातें चाहे आपको गलत मालूम पड़ें लेकिन जितना आप विचार करेंगे,
उससे आपके भीतर विवेक की शक्ति विकसित होगी और बड़ी होगी। मेरी बातों
का कोई मूल्य नहीं है। लेकिन उन पर विचार करने में आपके भीतर विचार की शक्ति
विकसित होगी। और वह विचार की शक्ति विकसित हो जाए, तो आप खुद
ही अपने प्रश्नों के उत्तर पा लेने में समर्थ हो जाएंगे।
कोई दूसरा आदमी किसी के प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता। कोई दूसरा
आदमी किसी की प्यास नहीं बुझा सकता। हर आदमी की प्यास अद्वितीय है, यूनीक है। हर आदमी अलग है। हर आदमी बेजोड़ है, उस
जैसा कोई दूसरा आदमी नहीं है। हर आदमी का प्रश्न भी बेजोड़ है, उसका उत्तर मेरे पास कैसे हो सकता है? आपका प्रश्न
है, इस जमीन पर किसी के पास आपका उत्तर नहीं हो सकता। फिर
मैं किसलिए बोल रहा हूं? मैं इसलिए नहीं बोल रहा हूं कि आपको
मैं उत्तर दे दूं। मैं इसलिए बोल रहा हूं, ताकि आपको अपने
भीतर उत्तर खोजने की विधि, मेथड मिल जाए, सोच-विचार मिल जाए, आप चीजों को सोचने-विचारने लगें,
तो आपके भीतर जहां से प्रश्न पैदा हुआ है, वहीं
उत्तर भी सदा मौजूद है। और जब अपने भीतर का उत्तर आता है, तो
वह उत्तर मुक्त कर देता है। वह उत्तर ही जीवन-दर्शन बन जाता है; वह उत्तर ही जीवन का सत्य बन जाता है; वह उत्तर ही
हमारे प्राणों की प्यास को बुझाने वाला जल बन जाता है। उसको खोजें। मुझ पर या किसी
पर विश्वास करने से वह नहीं मिलेगा, बल्कि संदेह करने से
मिलेगा।
तो मैंने जो बातें कहीं उन पर खूब संदेह करें, उनका खूब विश्लेषण करें, उनको तोड़ें-फोड़ें, उनको बजाएं और परखें। हो सकता है वे सारी बातें गलत हों, तो उन सारी बातों के गलत होने में भी आपको सही की झलक मिलनी शुरू हो
जाएगी। और हो सकता है कोई बात उसमें सही हो, तो आपकी खोज-बीन
से वह सही आपको दिखाई पड़ जाएगा। और तब उससे मेरा कोई संबंध नहीं होगा; वह सत्य आपका हो जाएगा। और जो सत्य आपका है, वही
सत्य है। दूसरों के सब सत्य असत्य हैं। आपका सत्य ही सत्य हो सकता है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को
प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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