ओशो
दिनांक 18, नवम्बर, सन्
1980
आठवां प्रवचन-(चिंतन नहीं--मौन अनुभूति)
पहला
प्रश्न: भगवान,
उत्तमा
तत्त्वचिंतैव मध्यम शास्त्रचिंतनम्।
अधमा तंत्रचिंता च तीर्थ भ्रांत्यधमाधमा।।
अनुभूतिं
विना मूढ़ो वृथा ब्रह्मणि मोदते।
प्रतिबिंबितशाखाग्रफलास्वादनमोदवत।।
तत्व का चिंतन उत्तम है, शास्त्र का चिंतन मध्यम है, तंत्र की चिंता अधम है
और तीर्थों में भटकना अधम से भी अधम है। जैसे कोई पेड़ की छाया में प्रतिबिंबित फल
को खाकर प्रसन्न हो, वैसे ही वास्तविक अनुभव के बिना मूढ़
मनुष्य ब्रह्म का आनंद पाने की व्यर्थ कल्पना करता है।
भगवान, हमें मैत्रेयी उपनिषद
के इन दो सूत्रों का अभिप्राय समझाने की अनुकंपा करें।
पूर्णानंद!
तत्व का चिंतन उत्तम है, क्योंकि तत्व का
चिंतन हो ही नहीं सकता। तत्व का चिंतन असंभव है। तत्व वस्तु नहीं है, विषय नहीं है। तत्व तो तुम्हारी जीवन-ऊर्जा है, तुम्हारा
स्वरूप है, तुम्हारी चेतना है। तत्व का चिंतन नहीं होता,
तत्व की चेतना होती है।
तत्व का अनुभव ही तब होता है, जब सब चिंतन छूट जाता, सब चिंता छूट जाती, सब विचार शून्य हो जाते। जहां कोई तरंग नहीं होती चित्त पर, जहां चित्त निस्तरंग होता है, वहीं अनुभूति है तत्व
की।
इसलिए मैत्रेयी उपनिषद का यह सूत्र महत्वपूर्ण है, इशारा कर रहा है। लेकिन शब्दों में इशारा करना असंभव नहीं तो कठिन तो है
ही। उन्हीं शब्दों का उपयोग करना होता है जो उपलब्ध हैं। और सभी शब्द आदमी के गढ़े
हुए हैं, और तत्व तो आदमी का गढ़ा हुआ नहीं है। इसलिए किसी
शब्द में तत्व समाता नहीं।
एक होटल में मुल्ला नसरुद्दीन ने प्रवेश किया। गर्मी के दिन हैं, सूरज से आग बरसती है। थका-मांदा, पसीना-पसीना आकर
होटल में बैठा।
मैनेजर ने आकर कहा कि क्या आपकी सेवा करें?
मैनेजर था कुछ दार्शनिक वृत्ति का व्यक्ति। फुरसत के समय में दर्शन
पढ़ा करता था।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, कुछ और नहीं। सबसे
पहले तो पानी का एक गिलास!
मैनेजर ने कहा, क्षमा करें। कांच का गिलास तो दे सकता हूं; पानी का गिलास कहां से लाऊं?
पानी का गिलास होता ही नहीं। कहते हम सब हैं, पानी का गिलास। काम चल जाता है, समझने वाला समझ लेता
है। ऐसे ही समझना इस सूत्र के प्रारंभ को, पानी के गिलास की
भांति। इस पर अटक मत जाना।
"उत्तमा तत्त्वचिंतैव--उत्तम है तत्व का चिंतन।'
ऐसा मत सोच लेना कि तत्व का कोई चिंतन होता है। तत्व का कोई चिंतन
होता ही नहीं; तत्व का तो अनुभव होता है। और अनुभव भी तब होता है,
जब चिंतन शून्य हो जाता है।
लेकिन किसी भी शब्द का उपयोग करो, कठिनाई खड़ी हो जाती
है। अगर कहो, तत्व का ध्यान। उपद्रव शुरू हुआ, क्योंकि ध्यान भी तो तुम किसी विषय का करते हो। धन का लोभी धन का ध्यान
करता है। काम से पीड़ित काम का ध्यान करता है। तत्व का कैसे ध्यान होगा? ध्यान भी तो विषय का होता है।
मेरे पास लोग आकर पूछते हैं, किसका ध्यान करें?
राम का, कृष्ण का, बुद्ध
का, महावीर का--किसका ध्यान करें? कौन
सा ध्यान सार्थक होगा?
शब्द ने भरमाया। शब्द ने खूब भरमाया है, सदियों से उलझाया है।
जंगलों में भटके लोग तो कभी न कभी घर लौट आते हैं, शब्दों
में भटके लोग जन्मों-जन्मों तक भटकते रहते हैं। फिर शब्दों में और-और शब्द लगते
चले जाते हैं। शब्दों में और नई-नई शाखाएं निकल आती हैं, नए-नए
पत्ते, नए-नए फूल। शब्दों की शृंखला का कोई अंत ही नहीं है।
यह पूछना कि किसका ध्यान करें, बुनियादी रूप से गलत
सवाल है। मगर मैं उनकी मजबूरी समझता हूं। वे हमेशा बाहर की भाषा में ही सोच सकते
हैं, क्योंकि सारी भाषा ही बाहर के लिए है। भीतर तो मौन है।
भीतर की तो कोई भाषा होती नहीं। भीतर तो भाषा की कोई जरूरत भी नहीं। भाषा का उपयोग
ही तब है, जब हम किसी और से बोल रहे हों। भाषा संवाद है।
जहां मैं और तू हैं, वहां भाषा की उपादेयता है। जहां दो हैं,
वहां भाषा है। और जहां एक ही बचा, वहां कैसी
भाषा! वहां तो मौन रह जाता है। इसलिए मैं कहता हूं, परमात्मा
की तो एक ही भाषा है, मौन। वहां बोल कर चूक जाओगे। न बोले,
पा जाओगे। वहां एक शब्द भी उठ गया, तो जमीन और
आसमान का फासला हो जाएगा। वहां बोलना ही मत।
पश्चिम के बहुत बड़े विचारक, यहूदी दार्शनिक
मार्टिन बूबर ने अपनी प्रसिद्धतम पुस्तक में लिखा है...। पुस्तक का नाम है: मैं और
तू--आई एंड दाऊ। इस सदी में लिखी गई महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण किताबों में एक है।
लेकिन बूबर एक दार्शनिक हैं, ऋषि नहीं। विचारक हैं, मनीषी नहीं। सोचा है, समझा है; जाना नहीं, पहचाना नहीं, अनुभव
नहीं, स्वाद नहीं, पीया नहीं। प्यास
वैसी की वैसी है।
शब्दों से प्यास बुझ भी नहीं सकती है। किसी को प्यास लगी हो और तुम
सिर्फ पानी की बातें करो, सुंदर-सुंदर बातें करो; वर्षा
के गीत गाओ, मेघ मल्हार छेड़ो; तो भी
प्यास न बुझेगी। भूख लगी हो, तो पाक-शास्त्र किसी काम के
नहीं हैं। रूखी-सूखी रोटी भी ज्यादा उपयोगी है। लेकिन परमात्मा के संबंध में हम
पाक-शास्त्रों में उलझे हैं।
और क्या हैं वेद? और क्या हैं कुरान? और क्या हैं पुराण? और क्या हैं बाइबिलें? ब्रह्म की भूख है, सत्य की भूख है, और शब्दों के थाल सजे रखे हैं! सुंदर-सुंदर थाल! तुम भूखे बैठे हो,
और रंगीन से रंगीन छपा हुआ मेनू भी तुम्हारे हाथ में पकड़ा दिया जाए,
तो क्या करोगे? उलटोगे-पलटोगे, पेट तो न भरेगा! मेनू से तो कभी किसी का पेट भरा नहीं।
वैसी ही स्थिति दार्शनिक की, चिंतक की होती है।
बूबर ने किताब तो बड़ी महत्वपूर्ण लिखी। लिखा है कि परमात्मा और व्यक्ति के बीच जो
प्रार्थना का संबंध है, वह मैं और तू का संवाद है। लेकिन
जहां मैं हो और तू हो, वहां संवाद होता है? वहां तूत्तू मैं-मैं होती है, वहां विवाद होता है।
संवाद तो वहां है, जहां मैं और तू मिल कर एक हो जाते हैं।
जहां मैं मैं नहीं, तू तू नहीं; जहां
दोनों गए; जहां अद्वय बचा।
लेकिन फिर वहां, जब विवाद नहीं है, तो संवाद भी कहां! संवाद की भी क्या जरूरत! मौन में ही बात कह दी गई,
मौन में ही बात समझ ली गई। परमात्मा की भाषा मौन है।
बूबर जिस प्रार्थना की बात कर रहे हैं, वह प्रार्थना सच्ची
नहीं। मैं और तू का संवाद, वह कहते हैं, प्रार्थना है। मैं तुमसे कहता हूं, मैं और तू जब तक
है तब तक कहां प्रार्थना?
जहां मैं नहीं तू नहीं, जहां दोनों गए,
जहां कोई नहीं, जहां घर में सन्नाटा हो गया;
जहां विवाद क्षीण, जहां संवाद क्षीण, जहां शून्य का साम्राज्य स्थापित हो गया; उस शून्य
में जो संगीत बज उठता है, जो हृदयतंत्री कंपित हो उठती है,
जो शब्द-शून्य, जो मौन गदगद अवस्था होती
है--आंखें आनंद से गीली हो आती हैं; प्राण आनंद से पुलक उठते
हैं; एक नृत्य घेर लेता है--उस घड़ी का नाम प्रार्थना है। उसी
घड़ी का नाम ध्यान है। ये शब्द ही अलग-अलग हैं। प्रार्थना प्रेमी का शब्द है। ध्यान
ज्ञानी का शब्द है। प्रार्थना--मीरा का, चैतन्य का, राबिया का, जीसस का, जरथुस्त्र
का। ध्यान--पतंजलि का, लाओत्सु का, महावीर
का, बुद्ध का। शब्द का ही भेद है, लेकिन
अर्थ? अर्थ तो एक ही है। अर्थ में जरा भी अंतर नहीं है।
एक जर्मन सेनापति दूसरे महायुद्ध के बाद अपने मित्र अंग्रेज सेनापति
से बातें कर रहा था। और उसने कहा कि पता नहीं हम क्यों हारे? यह बात राज ही बनी रहेगी। यह रहस्य कभी खुलेगा या नहीं! क्योंकि शक्ति
हमारे पास ज्यादा थी। वैज्ञानिक, तकनीकी दृष्टि से हम तुमसे
ज्यादा संपन्न थे। फिर भी हम हारे और तुम जीत गए! यह बात गणित में बैठती नहीं!
अंग्रेज सेनापति मुस्कुराया और उसने कहा, उसका राज मैं तुम्हें बताए देता हूं। राज छोटा है। बात छोटी है, मगर गहरी है। हम इसलिए जीते कि हर युद्ध के दिन की शुरुआत में हम
प्रार्थना करते थे। हम परमात्मा की प्रार्थना करके ही युद्ध में उतरते थे। माना कि
तकनीकी दृष्टि से, वैज्ञानिक दृष्टि से हम तुमसे पीछे थे,
मगर परमात्मा जब साथ हो, तो फिर किसी और चीज
की जरूरत नहीं है। इसलिए हम जीते और तुम हारे।
जर्मन सेनापति ने कहा, यह बात तो और भी उलझा
देती है मामले को, सुलझाती नहीं। क्योंकि प्रार्थना तो हम भी
करते थे, रोज करते थे, नियम से करते
थे। प्रार्थना के बाद ही युद्ध पर जाते थे। अगर प्रार्थना से ही निर्णय होना था,
तो हमारी प्रार्थना तुमसे कुछ कमजोर न थी!
अंग्रेज सेनापति तो खिलखिला कर हंस पड़ा। उसने कहा, तुम समझते नहीं बात। तुम प्रार्थना किस भाषा में करते थे?
स्वभावतः, जर्मन ने कहा कि हम जर्मन भाषा में करते थे!
अंग्रेज ने कहा, बस बात साफ हो गई। अरे, भगवान जर्मन भाषा समझता है? हम अंग्रेजी में करते
थे! इसलिए हमारी बात पहुंच गई और तुम्हारी बात नहीं पहुंची।
हंसो मत इस पर। सेनापति तो बुद्धू होते हैं। बुद्धू न हों तो सेनापति
न हों! सेनापतियों को माफ किया जा सकता है, लेकिन तुम्हारे
पंडित-पुरोहित भी तो यही कहते रहे। वे कहते हैं, संस्कृत
देव-भाषा है! वह ईश्वर की अपनी भाषा है। संस्कृत में बोलोगे तो समझेगा। और जैन
कहते हैं, प्राकृत में बोलोगे तो समझेगा। और बौद्ध कहते हैं,
पाली में बोलोगे तो समझेगा। और यहूदी कहते हैं, हिब्रू के सिवाय उसे कोई भाषा आती नहीं। और मुसलमान कहते हैं, अरबी ही बस उसकी भाषा है। और सब तो आदमियों की ईजादें हैं! अगर अरबी उसकी
भाषा न होती, तो कुरान अरबी में क्यों उतरता?
सारी भाषाएं आदमी की हैं। उसकी कोई भाषा नहीं। मौन ही उसकी भाषा है।
और चिंतन मौन का अभाव है। तत्व को जानना हो तो शून्य होना होता है।
इसलिए इस पहली बात को ठीक से समझ लो: "उत्तमा तत्त्वचिंतैव।'
तत्व के चिंतन को उत्तम कहता है ऋषि, क्योंकि तत्व का
चिंतन चिंतन ही नहीं होता। तत्व का चिंतन अर्थात चिंतन से रिक्त हो जाना, अचिंत्य हो जाना। तत्व का चिंतन अर्थात निर्विचार, निर्विकल्प,
निर्बीज। इसलिए उत्तम। उत्तम होने का कारण? क्योंकि
जहां शून्य है, वहां पूर्ण है। तुम शून्य हुए, और पूर्ण उतरा। पूर्ण उतरता ही शून्य में है। घड़े को भरना हो, तो पहले उसे कूड़े-करकट से तो खाली कर लेना होगा न! घड़ा खाली हो, तो ही भर सकता है।
इस प्रकृति का एक नियम है कि यह खालीपन को पसंद नहीं करती। यह खालीपन
को तत्क्षण भर देती है। तुमने कभी देखा, नदी की जलधार में
अंजुलि बना कर पानी को भरा है! और जैसे ही अंजुलि को ऊपर उठाया है, वैसे ही चारों तरफ से जल दौड़ा है और अंजुलि में भरे जल के कारण जो थोड़ा सा
गङ्ढा पैदा हो गया था, वह फिर भर गया है। तत्क्षण भर जाता
है। देर ही नहीं लगती। ऐसे ही तुम जरा शून्य तो होओ! और तुम पाओगे, तुम्हारे शून्य होने से चारों तरफ से परमात्मा की ऊर्जा दौड़ पड़ती है;
तुम्हारी तरफ प्रवाहित होने लगती है। तुम्हें भर देती है। तुम्हें
ऐसा भर देती है कि तुम कभी भी न भरे थे।
लेकिन यह भराव तुम्हारे मैं का भराव नहीं है। इस भराव में तुम तो गए, तुम तो मिटे, परमात्मा बचा। यह भराव यूं है जैसे कोई
बांसुरी में गीत को बजाए, जैसे कोई बांसुरी में सुर छेड़ दे।
बांसुरी तो खाली है, और इसीलिए तो स्वर उससे प्रवाहित हो
पाते हैं।
तत्व के चिंतन को उत्तम कहा, क्योंकि तत्व का
चिंतन चिंतन ही नहीं है।
मैं आप अपनी तलाश में हूं, मेरा कोई रहनुमा नहीं
है।
वो क्या दिखाएंगे राह मुझको, जिन्हें कुछ अपना पता
नहीं है।
मसर्रतों की तलाश में है, मगर यह दिल जानता
नहीं है,
अगर गमे-जिंदगी न हो, तो जिंदगी में मजा नहीं है।
शऊर-ए-सज्दा नहीं है मुझको, तू मेरे सज्दों की
लाज रखना,
यह सर तेरे आस्तां से पहले, किसी के आगे झुका
नहीं है।
ये इनके मंदिर, ये इनकी मस्जिद, ये जरपरस्तों
की सज्दागाहें,
अगर ये इनके खुदा का घर है, तो इनमें मेरा खुदा
नहीं है।
बहुत दिनों से मैं सुन रहा था, सजा वो देते हैं हर
खता पर,
मुझे तो इसकी सजा मिली है, कि मेरी कोई खता नहीं
है।
ये इनके मंदिर, ये इनकी मस्जिद, ये जरपरस्तों
की सज्दागाहें,
अगर ये इनके खुदा का घर है, तो इनमें मेरा खुदा
नहीं है।
यह सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है। इस सूत्र में बड़ी आग है। जल सको, तो नए हो जाओ। जल सको इसमें, तो नया जीवन मिल जाए।
"उत्तमा तत्त्वचिंतैव।'
उत्तम है तत्व का चिंतन।
"मध्यम शास्त्रचिंतनम्।'
और शास्त्र का चिंतन मध्यम; नंबर दो का।
क्यों? क्योंकि शास्त्र के चिंतन का अर्थ होता है: उधार,
बासा; किसी और ने जाना, किसी
और ने जीया, तुमने तो सिर्फ सुना। किसी ने स्वाद लिया,
तुम्हारे हाथ तो सिर्फ शब्द पड़े। किसी ने अमृत पीया और अमृत हुआ,
और तुम्हारे हाथ में तो बस यह कोरी बात रह गई। जैसे कोई नदी के तट
पर चलता है, तो रेत पर पदचिह्न बन जाते हैं। आदमी तो गुजर
जाता है, पदचिह्न पड़े रह जाते हैं। शास्त्र पदचिह्न हैं--समय
की रेत पर बुद्धों के पैरों के चिह्न।
मगर समय की इस रेत पर बुद्धू भी चलते हैं! और बुद्धों के और बुद्धुओं
के पैरों के चिह्नों में कुछ बहुत भेद नहीं होता। एक तो बुद्धों के भी पैरों के
चिह्न ही हैं वे, उन पर अगर चले भी तो भी तुम न पहुंच पाओगे। क्योंकि
दो व्यक्ति एक जैसे नहीं होते। इसलिए जिसने भी किसी दूसरे व्यक्ति का अनुसरण करने
की चेष्टा की, उसने अपने भाग्य में हार लिख ली, उसने अपने को बर्बाद करने का इंतजाम कर लिया।
सुनना सबकी, गुनना अपनी। समझो, बुद्धों ने
जो कहा हो; मगर लकीर के फकीर न हो जाना। और शास्त्रों का
अध्येता लकीर का फकीर हो जाता है। उसकी आंखों पर शास्त्रों के चश्मे चढ़ जाते हैं।
और इतने शास्त्रों के शब्द उसकी आंखों पर इकट्ठे हो जाते हैं कि उसे दिखाई ही पड़ना
बंद हो जाता है। शास्त्रों ने जितने लोगों को अंधा किया है, उतना
किसी और चीज ने नहीं। इस दुनिया में शास्त्रीय अंधों की भीड़ है, जमघट है! अलग-अलग शास्त्रों के कारण अंधे हैं! मगर किताबों को आंखों पर रख
लोगे, तो देखोगे कैसे?
और फिर किताबें एकाध-दो हों, तो भी ठीक। बहुत
किताबें हैं! और किताबों पर किताबें हैं! पहाड़ खड़े हो जाते हैं तुम्हारी आंखों पर
सिद्धांतों के, शब्दों के जालों के। और फिर तुम उन्हीं
शब्दों के जालों को गुनते-बुनते रहते हो। फिर तुम्हें वह नहीं दिखाई पड़ता जो है,
जो सामने खड़ा है, जो चारों तरफ से तुम्हें
घेरे हुए है; जो तुम्हारे भीतर भी है और जो तुम्हारे बाहर भी
है; जिसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है; वह
तत्व फिर तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता।
शास्त्र का चिंतन मध्यम है, नंबर दो का। जिसकी
हिम्मत न हो तत्व में उतरने के लिए, उस कायर के लिए शास्त्र
हैं। चलो, कुछ न बने, तो बुद्धों के
वचन ही दोहराते रहो। हालांकि कितना ही दोहराओ, तुम तोते ही
रहोगे। तोते कितना ही राम-नाम जपें, तो भी परमात्मा की
अनुभूति को उपलब्ध न हो जाएंगे। और तुमने सुना ही है कि वाल्मीकि तो राम का उलटा
नाम जप कर भी परमात्म-अनुभव को पा लिए! मरा-मरा जपा, और
पहुंच गए। और तोते तो शुद्ध राम-राम जपते हैं, फिर भी नहीं
पहुंचते! क्या है बात?
सवाल, तुम क्या जपते हो, इसका नहीं
है। भाव का है, प्रगाढ़ता का है, तन्मयता
का है, तल्लीनता का है, ओत-प्रोत होने
का है, डूबने का है, रंग जाने का है।
तोता कहता तो राम-राम है, मगर बस कह ही रहा है।
मैंने सुना, आधी रात एक व्यक्ति थका-मंदा एक होटल के द्वार को
खटखटाया। मैनेजर ने कहा, आधी रात है, तुम्हें
लौटाऊं, यह भी अच्छा नहीं लगता। थके-मांदे, दूर से आए हो, भूखे-प्यासे हो, यह मैं देख सकता हूं चेहरे से। लेकिन सब कक्ष तो भरे हुए हैं। इतना ही कर
सकता हूं, अगर तुम राजी होओ, एक कक्ष
में दो बिस्तर हैं, लेकिन एक यहूदी धर्मगुरु, एक रबाई उसमें ठहरा हुआ है। आदमी भला है, इसलिए
इनकार न करेगा, तुम भी सो सकते हो।
वह युवक इतना थका-मांदा था कि उसने कहा कि मुझे सिर्फ सोना ही है। कुछ
थोड़ा खाने-पीने को दे दो, और फिर मैं जाकर सो जाऊं।
वह ऊपर कमरे में पहुंचाया गया। देख कर हैरान हुआ, थोड़ा चिंतित भी हुआ, थोड़ा किंकर्तव्यविमूढ़ भी मालूम
पड़ा। क्योंकि रबाई, यहूदी धर्मगुरु अपने पलंग के बगल में
घुटने टेके परमात्मा की प्रार्थना में लीन था। दो पलंग थे कमरे में। कौन सा पलंग
मैं चुनूं? उस युवक के मन में सवाल उठा। धर्मगुरु से पूछ
लेना जरूरी है, क्योंकि वह पहले से यहां रुका हुआ है। और पता
नहीं उसने कोई बिस्तर चुन ही रखा हो! मगर वह कर रहा है प्रार्थना, टोकूं भी तो कैसे टोकूं! और पता नहीं यह प्रार्थना कितनी देर चलेगी,
क्योंकि वह ऐसा लीन मालूम हो रहा है कि जल्दी तो टूटने वाली नहीं
मालूम होती।
सो उसने सोचा, हिम्मत की, और उसने कहा कि परम
पूज्य, बाधा तो नहीं देनी चाहिए आपकी प्रार्थना में, लेकिन मजबूरी है। सिर्फ इतना इशारा कर दें कि कौन सा बिस्तर मैं चुनूं!
डरते-डरते ही पूछा था। लेकिन धर्मगुरु ने प्रार्थना भी जारी रखी और
हाथ से इशारा भी कर दिया कि वह दूसरा बिस्तर तुम चुन लो।
युवक निश्चिंत हुआ। बिस्तर ठीक-ठाक करके लेटने जा रहा था, फिर उसके मन में थोड़ी परेशानी हुई। प्यास लगी थी। क्या उठ कर खटर-पटर करे,
पानी पी ले? प्रार्थना में बाधा पड?गी। पूछ लेना उचित है।
उसने कहा, परम पूज्य, प्यास लगी है जोर
से। क्या पानी पी सकता हूं?
धर्मगुरु ने प्रार्थना जारी रखी और हाथ से इशारा किया कि हां-हां, पीओ!
तब जरा युवक की हिम्मत भी बढ़ी और उसने कहा कि महामहिम, इतनी और बता दें कि क्या मैं अपनी लड़की को भी, प्रेयसी
को भी ला सकता हूं?
धर्मगुरु ने प्रार्थना जारी रखी और हाथ से इशारा किया कि दो ले आना!
प्रार्थना चल रही है और यह सब कारबार भी चल रहा है! अब कितनी ही शुद्ध
प्रार्थना पढ़ी जाए, बिलकुल हिब्रू में पढ़ी जाए, तो
भी क्या होगा! यह प्रार्थना कंठ तक भी नहीं जा रही है, हृदय
तो बहुत दूर। इस प्रार्थना में कुछ भीग ही नहीं रहा है। यह तो व्यर्थ की बकवास है।
शास्त्रों को तुम दोहरा सकते हो, कंठस्थ कर सकते हो,
लेकिन काश इतना आसान होता कि हम औरों के शब्दों को सीख कर सत्य को
जान लेते, तो दुनिया ने कभी का सत्य जान लिया होता! सारे
लोगों ने जान लिया होता। एक भी अज्ञानी न बचता। इस पृथ्वी पर सब चलते हुए दीए
होते। दीवाली मनाई जा रही होती। हर फूल खिला होता। सुगंध ही सुगंध होती। हर वीणा
बजती होती। संगीत ही संगीत होता। अनाहत नाद होता। अनहद में विश्राम होता।
शास्त्र तो सभी जानते हैं। हिंदू गीता पढ़ रहा है, मुसलमान कुरान पढ़ रहा है, ईसाई बाइबिल पढ़ रहे हैं।
लेकिन कहीं कुछ भीगता नहीं। हृदय कहीं डुबकी नहीं मारता। शब्दों में डुबकी लगाओगे
भी कैसे? अंधेरे कमरे में दीए की तस्वीर टांग भी लो, तो रोशनी तो नहीं हो जाएगी! लाख सुंदर तस्वीर हो, तो
भी तस्वीर तस्वीर है।
और शास्त्रों के साथ बहुत खतरा है। खतरा यह कि जब कोई व्यक्ति
प्रबुद्धता को उपलब्ध होता है, तो अनुभूति होती है मौन में। और
जब वह उस अनुभूति को शब्दों में उतारता है, तभी विकृत हो
जाती है, तभी बहुत कुछ खो जाता है। बूंदाबांदी रह जाती है।
कहां सागर और कहां बूंद! और फिर जब वह बोलता है, तो और भी
कुछ बचा होता है, वह भी खो जाता है। बूंद का भी हजारवां
हिस्सा नहीं रह जाता। फिर जब दूसरा सुनता है, तब कुछ अगर बचा
भी हो थोड़ा-बहुत, वह भी खो जाता है। क्योंकि दूसरा अपने
हिसाब से सुनता है। उसकी अपनी धारणाएं हैं, अपने पूर्व से ही
लिए गए निष्कर्ष हैं। वह उनके आधार से सुनता है।
और अक्सर दूसरों ने शास्त्र लिखे हैं। कृष्ण ने गीता बोली, लिखी नहीं। जीसस ने पर्वत का प्रवचन दिया, लिखा
नहीं। बुद्ध बोले, लिखा नहीं। आज तक समस्त सदगुरुओं की यह
प्रक्रिया रही कि उन्होंने बोला, लिखा नहीं।
क्यों? क्योंकि बोलने में थोड़ी सी संभावना है कि अगर सुनने
वाला प्रीतिपगा हो, अगर सुनने वाला भावाविष्ट हो, अगर सुनने वाले ने अपने हृदय के द्वार खोल रखे हों, अगर
सुनने वाला गुरु के पास बैठने की कला जानता हो--उपसीदन की कला, उपनिषद की कला, उपासना की कला; अगर गुरु के पास बैठना उसे आता हो--मौन में, चुप्पी
में, अहोभाव में, आनंद में, मस्ती में; अगर वह किसी बुद्ध-ऊर्जा-क्षेत्र का
हिस्सा हो; किन्हीं रिंदों की जमात में सम्मिलित हो गया हो;
किन्हीं दीवानों से उसका संग-साथ हो गया हो; किन्हीं
परवानों के साथ परवाना हो गया हो और चल पड़ा हो किसी ज्योति में मर मिटने को--तो
शायद गुरु जो कह रहा है, वह तो शब्द ही होगा, लेकिन गुरु की भाव-भंगिमा, उसकी मुद्रा, उसकी आंखें, उसका उठना, उसका
बैठना, उसकी सांसों की धड़कन उसके शब्दों के साथ-साथ लिपटी
श्रोता के, द्रष्टा के, मन्ता के भीतर
पहुंच जाएगी।
लेकिन लिखा हुआ शब्द तो मुरदा होता है, बिलकुल मुरदा होता
है। उसमें न तो गुरु की उपस्थिति होती है, न गुरु की
भाव-भंगिमा होती है, न गुरु का उठना-बैठना होता है। उसमें तो
गुरु की दूर की भी कोई छाप नहीं होती। छापेखाने की छाप होती है, स्याही होती है कागज पर फैली। लाश होती है। जीवंत कुछ भी नहीं होता।
इसलिए सारे गुरुओं ने सदा से बोलने के माध्यम को चुना है, क्योंकि बोलने में थोड़ी सी संभावना है कि शायद शब्दों के आस-पास लिपटी कोई
किरण पहुंच जाए। कोई लेने वाला ले ले।
कबीर कहते हैं, है कोई लेवनहारा! है कोई लेवनहारा!
अगर है कोई लेने वाला तो शायद उसकी आंखों में झांक कर ही बात हो जाए।
शायद उसका हाथ हाथ में लेकर ही बात हो जाए। शायद वह गुरु के चरणों पर सिर रख दे और
बात हो जाए। जो नहीं कही जा सकती, वह कह दी जाए।
शास्त्र तो सदगुरुओं ने लिखे नहीं; जिन्होंने सुने हैं,
उन्होंने लिखे हैं। इसलिए बौद्धों के सारे शास्त्र बड़े ठीक ढंग से
शुरू होते हैं। बौद्धों के सारे शास्त्रों का जो प्रथम वचन होता है, वह यह: ऐसा मैंने सुना है। यह किसी शिष्य की टिप्पणी है। ऐसा मैंने सुना
है कि भगवान आम्रकुंज में विचरते थे; कि निरंजना के तट पर
रुके थे; कि फलां-फलां नगर में ठहरे थे; कि श्रावस्ती में उनका वर्षाकाल व्यतीत होता था। ऐसा मैंने सुना है। फिर
वे जो बोले, वह मैं लिखता हूं। वह मैं अपनी सामर्थ्य से
लिखता हूं। वे बोले थे अपनी सामर्थ्य से, मैं लिखता हूं अपनी
सामर्थ्य से। फर्क तो बहुत हो जाने वाला है, बहुत हो जाने
वाला है!
तुमने कभी देखा, एक सीधी लकड़ी के डंडे को पानी
में डाला; और तुम तब चकित होकर देखोगे, पानी में पहुंचते ही डंडा तिरछा दिखाई पड़ने लगता है! तिरछा हो नहीं जाता।
खींच कर देखो, सीधा का सीधा है! फिर पानी में डालो, फिर तिरछा दिखाई पड़ने लगता है। पानी उतनी विकृति तो ले आता है, सीधा डंडा तिरछा हो जाता है।
बुद्धों के सीधे-सीधे वचन भी तुम्हारे भीतर जाकर बहुत तिरछे हो जाते
हैं, आड़े हो जाते हैं, कुछ के कुछ हो
जाते हैं!
तो शास्त्रों की बात तो दोयम है, नंबर दो।
"मध्यम शास्त्रचिंतनम्, अधमा
तंत्रचिंता।'
और उससे भी अधम है तंत्र, मंत्र, यंत्र की चिंता। विधि-विधान, यज्ञ-हवन-कुंड, पूजा-पत्री, ये धर्म के नाम पर जो क्रियाकांड चलते
हैं, उन सबका नाम तंत्र। यह तो बिलकुल ही गई-बीती बात हो गई।
यह तो बिलकुल तृतीय कोटि की बात हो गई।
लेकिन दुनिया इस तीसरी कोटि में उलझी है। कोई सत्यनारायण की कथा करवा
रहा है। कोई विश्व-शांति के लिए यज्ञ करवा रहा है।
अभी किसी तांत्रिक ने चंडीगढ़ में विश्व-शांति के लिए यज्ञ करवाया। और
यज्ञ हो जाने के बाद घोषणा कर दी कि यज्ञ सफल हुआ; विश्व में शांति हो
गई! और पंद्रह दिन बाद फिर दूसरा यज्ञ दिल्ली में करवाने लगे वे। जब खबर मुझे मिली,
तो मैंने कहा, अब किसलिए करवा रहे हो? दुनिया में तो शांति हो चुकी! वह तो चंडीगढ़ में यज्ञ जब हुआ तभी हो गई। अब
यह कौन सी दूसरी दुनिया है जिसमें शांति करवानी है? मगर फिर
शांति करवा रहे हैं वे।
और यहीं खतम नहीं हो जाएगा। उन्होंने कसम खाई है कि वे एक सौ बीस यज्ञ
करवा कर रहेंगे। मतलब एक सौ बीस बार दुनिया में शांति करवा कर रहोगे! बहुत ज्यादा
शांति हो जाएगी। आदमी को जिंदा रहने दोगे कि मार ही डालोगे? मरघट हो जाएगा! एक सौ बीस बार शांति होती ही चली गई, होती ही चली गई, तो लोगों की सांसें निकल जाएंगी!
शोरगुल ही बंद हो जाएगा! बोलचाल ही खो जाएगा!
मगर यह क्रियाकांड है। मैत्रेयी उपनिषद का यह वचन कहता है: "अधमा
तंत्रचिंता।'
अधम है तंत्र की चिंता। अब तो चिंतन भी न रहा, चिंता हो गई! पहला तो था अचिंत्य, तत्व का अनुभव।
शास्त्र का चिंतन होता है; वह नीचे गिरना हुआ। और अब तो बात
और बिगड़ गई। अब तो चिंतन से भी गिरे। अब तो चिंतन भी न बचा। अब तो चिंता हो गई। अब
तो परेशानी और बेचैनी आ गई। अब तो लोभ-मोह का व्यापार शुरू हुआ। यह पा लूं,
वह पा लूं! गंडेत्ताबीज की दुनिया आ गई।
और तीर्थों में भटकना अधम से भी अधम!
"च तीर्थ भ्रांत्यधमाधमा।'
और तीर्थों में भटकने को तो मैत्रेयी उपनिषद कहता है, यह तो अधम से भी अधम! इसके पार तो गिरना ही नहीं हो सकता।
कोई काशी जा रहा है। कोई काबा जा रहा है। कोई कैलाश, कोई गिरनार। क्या पागलपन है! परमात्मा भीतर बैठा है, और तुम कहां जा रहे? जिसे तुम खोजने निकले हो,
वह खोजने वाले के भीतर छिपा है। और जब तक तुम उसे कहीं और खोजते
रहोगे, खोते रहोगे। जिस दिन सब खोज छोड़ दोगे और अपने भीतर
ठहरोगे, अनहद में विश्राम करोगे, उस
क्षण पा लोगे।
खोया तो उसे है ही नहीं। वह तो तुम्हारे भीतर मौजूद ही है। एक क्षण को
नहीं खोया है। सिर्फ भूल गए हो, विस्मरण किया है। स्मरण भर की
कोई आवश्यकता है। और यह स्मरण शायद किसी सदगुरु के सत्संग में तो मिल जाए, लेकिन तीर्थों में क्या है!
तीर्थ बने कैसे? कभी कोई सदगुरु वहां था, तो तीर्थ बन गए। लेकिन सदगुरु तो जा चुका कभी का!
बुद्ध कभी बोधगया में थे, तो तीर्थ बन गया। अब
सारी दुनिया से बौद्ध आते हैं बोधगया की यात्रा करने। क्या पागलपन है!
कोई समझाए यह क्या रंग है मैखाने का,
आंख साकी की
उठे नाम हो
पैमाने का।
वह तो किसी साकी की आंख थी, जिससे नशा छा गया था,
खुमारी आ गई थी।
कोई समझाए यह क्या रंग है मैखाने का,
आंख साकी की उठे नाम हो पैमाने का।
गर्मिए-शम्मा का अफसाना सुनाने वालो,
रक्स देखा ही नहीं तुमने अभी परवाने का।
किसको मालूम थी पहले से खिरद की कीमत,
आलमे-होश पर एहसान है दीवाने का।
चश्मे-साकी मुझे हर गाम पे याद आती है,
रास्ता भूल न जाऊं कहीं मैखाने का।
अब तो हर शाम गुजरती है उसी कूचे में,
यह नतीजा हुआ नासेह तेरे समझाने का।
मंजिले-गम से गुजरना तो है आसां "इकबाल'
इश्क है नाम खुद अपने से गुजर जाने का।
बात तो अपने से गुजर जाने की है। हां, किसी बुद्धपुरुष की
आंख में शायद झलक मिल जाए। मगर तीर्थों में क्या रखा है? तीर्थ
तो मजार हैं।
कोई समझाए यह क्या रंग है मैखाने का,
आंख साकी की उठे नाम हो पैमाने का।
गर्मिए-शम्मा का अफसाना सुनाने वालो,
रक्स देखा ही
नहीं तुमने अभी
परवाने का।
तुम्हें तो मस्तों की कोई महफिल खोजनी चाहिए। अगर रक्स ही देखना हो, अगर नाच ही देखना हो, तो परवाने का देखना चाहिए।
हां, जब कोई बुद्ध मौजूद होता है, तो
मधुशाला जीवित होती है। तो वहां झरने फूटते हैं शराब के। वहां पियक्कड़ इकट्ठे होते
हैं। कभी काबा में इकट्ठे हुए थे। वह काबा के पत्थर की बात न थी, वह मोहम्मद की मौजूदगी थी। मोहम्मद की मौजूदगी में काबा का पत्थर भी लोगों
को नशा देने लगा था। आंख साकी की थी और नाम पैमाने का हो गया! तीर्थ यूं बन जाते
हैं, और फिर सदियों तक लोग तीर्थों में भटकते रहते हैं!
सूत्र ठीक कहता है:
अधमा तंत्रचिंता च तीर्थ भ्रांत्यधमाधमा।।
अनुभूतिं
विना मूढ़ो वृथा ब्रह्मणि मोदते।
प्रतिबिंबितशाखाग्रफलास्वादनमोदवत।।
प्यारी बात है: "जैसे कोई पेड़ की छाया में प्रतिबिंबित फल को
खाकर प्रसन्न हो...।'
पेड़ के नीचे बैठो। छाया में फल दिखाई पड़ता हो--छाया में! आम लगे हों
वृक्ष पर, और छाया में भी आम दिखाई पड़ेंगे। और उन्हीं को,
छाया के आमों को खा-खा कर कोई जैसे प्रफुल्लित होता रहे, ऐसे तुम पागल हो--अगर शास्त्रों में उलझे हो, अगर
तीर्थों में उलझे हो, अगर तंत्रों और मंत्रों में उलझे हो।
"वास्तविक अनुभव के बिना सिर्फ मूढ़ मनुष्य ही
कल्पना करता रहता है ब्रह्म को पा लेने की।'
अनुभव हो सकता है अभी और यहीं। अनुभव के लिए एक क्षण भी ठहरने की कोई
जरूरत नहीं है। लेकिन अनुभव होगा--उत्तमा तत्त्वचिंतैव--अनुभव तो उत्तम बात है, श्रेष्ठतम शिखर है। वह तो ध्यान में होगा, शून्य में
होगा, मौन में होगा।
आंख से सारे पर्दे हटाओ। बाहर से आंख बंद करो, भीतर आंख खोलो। ठहरो चुप्पी में, मौन में, शून्य में। भीतर जब सारा जल ठहर जाए, तरंग भी न उठे,
तो प्रतिफलित होगा परमात्मा। सारा अस्तित्व अपने सारे सौंदर्य के
साथ तुम्हारे भीतर झलक उठेगा। वह झलक, बस एक झलक! और काफी
है। जन्मों-जन्मों की भूली-बिसरी याद फिर आ जाती है। जिसे कभी खोया नहीं था,
वह फिर मिल जाता है।
दूसरा प्रश्न: भगवान, डोंगरे महाराज अपने प्रवचन के बाद श्रोताओं को लस्सी-बूंदी इत्यादि प्रसाद
वितरित करवाते हैं। कृपया समझाएं कि ब्रह्मचर्चा और लस्सी-बूंदी में क्या संबंध
है।
सुभाष
सरस्वती!
संबंध जरूर है। मैं रोज जब वापस लौटता हूं प्रवचन-स्थल से, तो सुभाष रास्ते में खड़े दिखाई पड़ते हैं। बिलकुल उदास! तभी मैं सोचता हूं
कि लस्सी-बूंदी की जरूरत है। सुभाष ऐसे खड़े रहते हैं, जैसे
प्राण-पखेरू कभी के उड़ चुके हों! सारे संसार का भार लिए हुए! बोझ इतना कि उनकी
गर्दन तक आड़ी रहती है।
तब मैं भी सोचने लगता हूं कि प्रवचन के बाद लस्सी और बूंदी बंटनी
चाहिए। ये बेचारे सुभाष को देखो!
प्रसाद का तो बड़ा मूल्य है।
मेरे गांव में एक कबीरपंथी महंत थे, साहबदास जी! महामूढ़
थे। मतलब यह कि डोंगरे महाराज वगैरह कुछ भी नहीं उनके सामने! मगर थे वे महंत,
और बड़ा उनका अखाड़ा था, बड़ी जमीन-जायदाद थी। सो
लोग मानते थे उन्हें। और मैं इसका लाभ उठाता था। लाभ यह था कि गांव में कोई भी सभा
हो, मैं उनको निमंत्रित कर आता। मुझे उनके व्याख्यान में
बहुत आनंद आता था। वे ऐसी-ऐसी गजब की बातें कहते थे कि न कभी आंखों देखी, न कभी कानों सुनी! वे क्या चले गए संसार से, संसार
में वह बात ही न रही! मैं आमतौर से किसी के मरने पर दुखी नहीं होता, मगर साहबदास जब मरे तो मैं दुखी हुआ।
उनको मैं निमंत्रण कर आता था। कोई भी सभा हो, किसी तरह की सभा हो--राजनीति की सभा हो, साहित्य की
सभा हो, धर्म की सभा हो--मैं चला जाता, उनको निमंत्रित कर आता कि आपको आना ही है, बोलना ही
है! वे बोलने को बड़े उत्सुक भी रहते थे। कभी-कभी मुझसे पूछते थे कि तू सभी सभाओं
का इंतजाम करता है? कोई भी सभा हो, संयोजक
तू ही?
मैंने कहा, क्या करूं! गांव के लोग मानते नहीं। वे कहते हैं कि
सम्हालो, तो सम्हालना पड़ता है। और आपके बिना तो सभा यूं जैसे
दूल्हे के बिना बारात! आपको तो आना ही होगा।
और पक्का कर लेने के लिए कि वे आ ही जाएंगे...। वे तो आ ही जाते; वे तो हमेशा ही आ जाते थे; फिर भी मैं किसी व्यक्ति
को भेज देता कि तुम मौजूद ही रहना; देर-अबेर न हो। क्योंकि
उनके बिना सभा बेकार है।
और जो भी सभा करते, वे मुझसे डरते। वे मेरे पास
हाथ-पैर जोड़ कर खबर पहुंचाते कि आप साहबदास जी को मत बुला लाना। कि हम आपके हाथ
जोड़ते हैं, आपके पैर पड़ते हैं, साहबदास
जी को भर मत बुला लाना! नहीं तो वे सब खराब कर देंगे। क्योंकि वे कुछ-कुछ बोलते
हैं, जिसका कोई मतलब ही नहीं है। और उनसे कोई कुछ कह भी नहीं
सकता।
मगर मैं उनको निमंत्रण दे ही आता। और वे जैसे ही आते, मैं मंच के पास ही खड़ा रहता और कहता, साहबदास जी
आइए! विराजिए-विराजिए! सो उनको भी भरोसा रहता कि मैं संयोजक हूं। और उनके डर के
मारे, क्योंकि थे तो वे महंत बड़े, कोई
यह भी नहीं कह सकता था कि भई तुम कौन हो? तुम क्यों उनको
बिठाते हो मंच पर जब हमने इनको बुलाया ही नहीं?
सो ऐसे दोनों के बीच में बात चल जाती थी। उनसे कोई कह नहीं सकता था कि
आप क्यों मंच पर चढ़ रहे हो? मुझसे कोई कह नहीं सकता था उनके सामने कि तुम क्यों
उन्हें मंच पर बिठाल रहे हो? सो उनको भी भ्रांति रहती कि मैं
संयोजक हूं और लोगों को भी पक्का था कि मैं बुला कर लाऊंगा, मैं
बिना उनके सभा होने नहीं दूंगा।
और फिर मैं अपने पांच-सात विद्यार्थियों को रखता। उनसे चिटें लिखवा कर
पहुंचाने लगता कि साहबदास जी का भाषण होना चाहिए! बीच-बीच में मैं खड़ा हो जाता कि
अब बहुत हो गई बकवास, साहबदास जी का भाषण होना चाहिए! यह जनता की मांग है!
और जनता दुखी होती, मगर करो क्या! साहबदास जी का व्याख्यान
होना चाहिए!
जयशंकर प्रसाद की जन्म-जयंती मनाई जा रही थी। मैं उनको बुला लाया। जब
मैंने उनको निमंत्रण दिया, उन्होंने कहा, यह प्रसाद है कौन?
अरे, मैंने कहा, प्रसाद
यानी प्रसाद! अब आप नहीं जानते प्रसाद? मतलब हर सभा के बाद जो
बंटता है वही!
उन्होंने कहा, फिर ठीक। फिर मैं बोलूंगा।
फिर आकर उन्होंने जो प्रसाद की महिमा गाई, जनता सिर ठोंके! कि जयशंकर प्रसाद की तो यह जयंती हो रही है और उसमें
बूंदी और लस्सी की चर्चा चल रही है! और वे समझा रहे कि बिना प्रसाद के कोई सभा
पूरी होती ही नहीं।
वही तो डोंगरे महाराज कहते हैं। और लाभ तो है ही।
तुमने डोंगरे महाराज का अभी कुछ ही दिन पहले तो वक्तव्य देखा कि पहले
शक्ति चाहिए। लस्सी और बूंदी के बिना कहीं शक्ति होती है? अरे पंजाबी में जो शक्ति होती है, वह लस्सी के ही
कारण तो होती है! जब पूरा पंजाबी गिलास भर कर लस्सी पीओगे, तब
शक्ति उतरती है। और फिर उसके ऊपर से बूंदी भी होनी चाहिए। क्योंकि लस्सी में थोड़ी
सी खटास होती है। कहीं बुद्धि बिलकुल खट्टी न हो जाए। तो थोड़ी मिठास भी चाहिए।
वही तो उन्होंने समझाया कि शक्ति के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। शक्ति
से होती भक्ति! भक्ति से होता ध्यान! डोंगरे महाराज समझाते हैं।
इसलिए तो मैंने तुमसे कहा कि--जैसे मेरी संन्यासिनी है, मां प्रेम शक्ति। अब उसकी शिष्याएं भी हो गईं। राज भारती की पत्नी नीलम
उसकी शिष्या हो गई! और नीलम ने मुझे पत्र लिखा है कि भगवान, मुझे
ऐसा लगता है कि शक्ति से मेरे जन्मों-जन्मों के संबंध हैं!
अरे, होने ही चाहिए। शक्ति के बिना कहीं भक्ति? भक्ति के बिना ज्ञान? कुछ भी नहीं। और जब नीलम शक्ति
की भक्ति हो गई, तो राज भारती भी चले आए दो दिन बाद। वे भी
दिखाई पड़ रहे हैं! अरे, जब पत्नी ही भक्ति हो गई, तो अब राज भारती भी क्या करें! पति को तो हमेशा पत्नी का अनुसरण करना पड़ता
है। अब शक्ति का प्रचार हो रहा है!
तो उस शक्ति को बढ़वाने के लिए बेचारे मेहनत करते हैं। लस्सी बंटवाते
हैं। बूंदी खिलवाते हैं। और प्रसाद की तो महिमा है। प्रसाद के बिना कहीं कोई
प्रवचन पूरा होता है!
इसीलिए तो मेरे प्रवचन धार्मिक नहीं हैं, क्योंकि इनमें प्रसाद होता ही नहीं। और लोग जाते ही क्यों हैं धार्मिक
प्रवचन में? प्रसाद के लिए! असली चीज तो प्रसाद है। धार्मिक
प्रवचन तो मजबूरी है, सुनना पड़ता है; क्योंकि
नहीं तो प्रसाद कहां से मिलेगा!
सरदार बिचित्तर सिंह ट्रेन में सफर कर रहे थे। पोपटलाल गुजराती और
उसकी पत्नी भी उसी डिब्बे में थे। पोपटलाल की पत्नी ने पोपटलाल से कहा, पप्पू के पिता, गर्मी लग रही है, खिड़की खोल दें!
अब पोपटलाल बेचारे गुजराती! न पी कभी लस्सी, न खाई कभी बूंदी। पोपटलाल ने बड़ी कोशिश की, पर खिड़की
सख्त थी, सो न खुली। न खुली सो न खुली।
सरदार बिचित्तर सिंह यह देख रहे थे और मुस्कुरा रहे थे। फौरन उठे और
एक क्षण में खिड़की खोल दी। और पोपटलाल से बोले कि लाला, लस्सी पीओ!
पोपटलाल को दुख तो बहुत हुआ कि कमबख्त सरदार! मगर करें भी क्या! और जब
उसने खिड़की खोल दी, तो यह भी समझ में आ गया कि इससे झंझट लेना खतरे से
खाली भी नहीं। खुद तो खिड़की नहीं खोल पाए थे, यह और भीतर तक
की खिड़कियां खोल देगा। सो चुप ही रहे।
थोड़ी देर बाद पोपटलाल की पत्नी को ठंड लगने लगी। सो उसने पति से कहा
कि पप्पू के पिता, अब खिड़की बंद कर दो!
सख्त होने के कारण खिड़की पोपटलाल से बंद नहीं हुई। फिर बिचित्तर सिंह
उठे और उठ कर खिड़की बंद कर दी। और बोले, लाला, लस्सी पीओ!
पोपटलाल को बहुत बुरा लगा। गुजराती थे, सहनशील थे, शांति रखी। गांधीवादी थे, अहिंसा में भरोसा करते थे।
भीतर ही भीतर अहिंसा परमो धर्मः का विचार भी किया। मगर चोट तो बहुत लगी, कि लस्सी पीओ! यह कमबख्त सरदार बार-बार लस्सी पीओ! लस्सी पीओ! इसने समझ
क्या रखा है? और फिर पत्नी के सामने ही बेइज्जती हो रही है!
एकांत भी होता, पत्नी न होती, तो भी
ठीक था। पत्नी पर भी बिचित्तर सिंह का असर पड़ रहा है। वह भी बिचित्तर सिंह की तरफ
आंखें फाड़-फाड़ कर देख रही है। अरे, मर्द बच्चा मालूम होता
है! पोपटलाल वैसे ही छोटे, और छोटे हुए जा रहे हैं!
पोपटलाल को बहुत बुरा लगा। बदला लेने का इरादा किया। रास्ता ढूंढ़ने
लगे। अहिंसावादी कोई रास्ता होना चाहिए, जिसमें झगड़ा-झांसा भी
न हो, क्योंकि यह आदमी खतरनाक है। और वहां कोई और है भी
नहीं। पत्नी है, पोपटलाल हैं, और
बिचित्तर सिंह है। पिटेंगे भी और पत्नी भी हाथ से जाएगी। क्योंकि पत्नी इतने गौर
से देख रही है बिचित्तर सिंह को! वह जंजीर खींचने का झूठ-मूठ बहाना करने लगा।
पोपटलाल ने तरकीब निकाली, गांधीवादी तरकीब! झूठ-मूठ जंजीर
खींचने का बहाना करने लगा।
पोपटलाल से जंजीर न खिंचते देख कर बिचित्तर सिंह ने आव देखा न ताव, थे तो सरदार ही, आ गए चक्कर में, सटाक से जंजीर खींच दी! और पोपटलाल से बोले, लाला,
मैंने कहा न कि लस्सी पीओ!
झटके के साथ ट्रेन रुक गई। गार्ड आया। बिना किसी कारण जंजीर खींचने के
कारण बिचित्तर सिंह को पांच सौ रुपए का जुर्माना भरना पड़ा।
पोपटलाल प्रसन्न हैं कि क्या मारा! चारों खाने चित्त कर दिया। इशारे
से चित्त कर दिया। न हल्दी लगी न फिटकरी, रंग चोखा हो गया।
सीना फुला कर गौर से पत्नी की तरफ देख कर मुस्कुरा रहे हैं, कि
देखा पप्पू की मां! क्या लस्सी पिलाई सरदार को! अब बोलने की बारी स्वभावतः पोपटलाल
की थी। बोले, सरदार जी, लस्सी के साथ
थोड़ी-थोड़ी बूंदी भी खाया करो! क्योंकि बूंदी में मिठास होती है। और ज्ञान मीठा
होता है। सो थोड़ा ज्ञान भी चाहिए। शक्ति तो चाहिए, मगर ज्ञान
भी चाहिए।
इसलिए सुभाष! बेचारे डोंगरे महाराज लस्सी भी बंटवाते हैं, बूंदी भी खिलवाते हैं, जिससे कि शक्ति भी रहे और
भक्ति भी रहे। लस्सी से शक्ति! बूंदी से भक्ति!
अरे, कबीरदास जी कह ही गए हैं: समुंद में बुंद समाना,
सो कत हेरी जाई! और बुंद में समुंद समाना, सो
कत हेरी जाई! अरे, बूंदी में तो समुंद समाया हुआ है, जरा खोजो।
और सुभाष, तुम्हें दोनों चीजों की जरूरत है। तुम लस्सी भी पीओ
और बूंदी भी खाओ। लस्सी से थोड़ा सरदारीपन तुममें आएगा। वह जो तुम गर्दन तिरछी करके
खड़े रहते हो, वह सीधी हो जाएगी। और बूंदी से तुम्हारा ज्ञान
भी थोड़ा बढ़ेगा। नहीं तो अज्ञानी के अज्ञानी रह जाओगे! और तुम्हारी अवस्था पोपटलाल
की है; क्योंकि पत्नी सुभाष की गुजराती है! सो तुम पत्नी का
भी खयाल रखो। अगर लस्सी न पी लाला, तो हमारे कोई संत महाराज
तुम्हारी पत्नी को ले भागेंगे! पहले से ही सावधान कर देना उचित है।
आखिरी सवाल: भगवान, मेरे पिताजी आप पर बहुत नाराज हैं। आपके विचारों से तो सहमत हैं। यहां तक
कि संन्यास भी लेना चाहते हैं। नाराजगी का कारण है, आपके
चंदूलाल मारवाड़ी के लतीफे। मेरे पिताजी मारवाड़ी हैं और उनका नाम चंदूलाल है!
विजय!
यह तो बड़ा तुमने अच्छा किया, याद दिला दी। यह
आठ-दस दिन से मैं चंदूलाल को बिलकुल भूला ही हुआ था। और तुम्हारे पिताजी हैं,
सो तो स्वभावतः अब कभी नहीं भूलूंगा। तुम्हारे पिताजी के लिए कुछ
लतीफे।
न्यायाधीश ने अदालत के कठघरे में खड़े सेठ चंदूलाल से कहा, इतनी छोटी सी बात के आधार पर, सेठ, तलाक नहीं दिया जा सकता। क्या तुम्हारे पास कोई ठोस प्रमाण भी हैं जिनसे
पता चले कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारे प्रति वफादार नहीं?
चंदूलाल ने कहा, एक नहीं हजारों प्रमाण हैं,
माई लार्ड! कल की ही रात की बात है। यह रात को तीन घंटे गायब रही।
और पूछने पर सफाई पेश करने लगी कि मैं अपनी सहेली गुलजान के साथ सिनेमा देखने गई
थी।
जज ने पूछा, मगर तुम्हें यह कैसे पता चला कि तुम्हारी पत्नी झूठ
बोल रही थी?
चंदूलाल ने कहा, क्योंकि कल रात को मैं तो खुद ही
गुलजान के साथ सिनेमा देखने गया था! अब आप स्वयं सोचिए कि यह औरत मेरे साथ सरासर
धोखा कर रही है या नहीं!
तुम्हारे पिताजी हैं तो मैं क्या करूं विजय, आदमी वे गजब के हैं!
फजलू अपने साथ पढ़ने वाली रीता नामक एक लड़की पर फिदा हो गया। एक दिन यह
पता लगा कर कि वह किस मोहल्ले में रहती है, फजलू वहां जा पहुंचा।
अब मुश्किल यह थी कि उसका घर कैसे ढूंढा जाए! फजलू ने सामने से चले आ रहे एक वृद्ध
सज्जन से पूछा, दादा जी, क्या आपको पता
है कि रीता कहां रहती है? मैं उसका भाई हूं। लेकिन पांच-छह
सालों के बाद इस शहर में आया हूं। अतः पहचान नहीं पा रहा हूं कि उसका मकान कौन सा
है। सब बदला-बदला नजर आ रहा है!
उस बूढ़े आदमी ने फजलू के कंधे पर हाथ रख कर कहा, तुमसे मिल कर बड़ी प्रसन्नता हुई बेटे। मैं रीता का बाप सेठ चंदूलाल
मारवाड़ी हूं!
एक मोटा व्यक्ति समुद्रतट पर बैठा सामने की ओर देख रहा था, जहां जवान लड़कियां अल्प वस्त्रों में व्यायाम कर रही थीं। पास से गुजरते
हुए दूसरे मोटे व्यक्ति ने कहा, आपका क्या खयाल है सेठ
चंदूलाल! क्या इससे वजन घटता है?
चंदूलाल ने जवाब दिया, क्यों नहीं! इसी
दृश्य को देखने के लिए तो मैं रोज सुबह तीन मील चल कर आता हूं! अरे, वजन क्यों नहीं घटेगा? घटता है।
सेठ चंदूलाल मारवाड़ी ने अपने दोस्त ढब्बूजी को बताया कि मेरी पत्नी
कपड़ों के पीछे दीवानी है। जब देखो तब कपड़ों की मांग करती रहती है। सुबह से शाम तक
एक ही रट लगाए रखती है कि नए कपड़े चाहिए। मैं तो यह सुन-सुन कर घनचक्कर हुआ जा रहा
हूं। शादी को बीस साल हो गए, एक दिन ऐसा नहीं होता, जब वह कपड़ों की रट न लगाती हो। बस कपड़े! कपड़े! कपड़े!
ढब्बूजी बोले, आश्चर्य की बात है! आखिर वह इतने कपड़ों का करती क्या
है?
चंदूलाल ने कहा, मुझे क्या पता! मैंने तो आज तक
एक भी कपड़ा खरीद कर दिया नहीं। अरे, जब दहेज में मिले
वस्त्रों में सब आराम से चल रहा है, तो नए कपड़ों में भला
क्यों पैसा व्यर्थ किया जाए! कल फिर मुझसे कहने लगी कि अब तो कपड़े नाम-मात्र को ही
बचे हैं। पड़ोस के छोकरे खिड़की में से झांक-झांक कर तमाशा देखते हैं! अब तो कुछ करो,
मोहल्ले भर में हंसी होती है!
ढब्बूजी ने पूछा, तो फिर तुमने कुछ किया?
सेठ चंदूलाल बोले, और भला क्या करता! यही किया कि
एक पुरानी साड़ी का पर्दा बना कर खिड़की पर लटका दिया।
पहुंचे हुए व्यक्ति हैं तुम्हारे पिताजी, विजय!
नसरुद्दीन आफिस गया था और फजलू स्कूल। गुलजान घर में अकेली थी। दोपहर
को नसरुद्दीन के दोस्त सेठ चंदूलाल आए और धीरे-धीरे बातों ही बातों में एक हजार
रुपए के बदले में गुलजान को अपना स्त्रीत्व बेचने के लिए फुसलाने लगे। कुछ समय तक
आनाकानी करने के बाद गुलजान तैयार हो गई। चंदूलाल ने उसे नगद एक हजार रुपयों का
बंडल थमा दिया।
शाम को नसरुद्दीन ने आफिस से आते ही पूछा, अरे, आज क्या मेरा दोस्त चंदूलाल आया था? उसकी छड़ी वहां कोने में टिकी है। लगता है छड़ी भूल गया!
गुलजान को तो पसीना छूट गया। मगर अब क्या कर सकती थी, कोने में छड़ी टिकी तो थी। बोली, हां, आज दोपहर को आया था।
मुल्ला ने कहा, गजब हो गया। मारवाड़ी से ऐसी आशा न थी। क्या वह पूरे
एक हजार रुपए दे गया?
यह सुन कर तो गुलजान पर जैसे बिजली गिर पड़ी हो। घबड़ाहट में उसके मुंह
से निकल गया, हां, पूरे एक हजार।
नसरुद्दीन ने खुशी से उछलते हुए कहा, मान गया मैं भी कि
मारवाड़ी भी वायदे के पक्के होते हैं। पिछले महीने उसने एक हजार रुपए उधार लिए थे
और वचन दिया था कि ठीक एक माह में आज की ही तारीख को लौटा दूंगा!
तुम घबड़ाओ मत विजय, अपने पिताजी को घर लौट कर कहना
कि मैं तो चंदूलाल के लतीफे कहना बंद नहीं कर सकता, एक तरकीब
है आसान। वे आ जाएं और संन्यासी हो जाएं। उनका नाम बदल दूंगा।
आज इतना ही।
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