जो बोले सो हरि कथा-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
प्रवचन-पांचवां-(झूठा धर्म और राजनीति)
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक २५ जुलाई,
१९८०
पहला प्रश्न: भगवान, अब तक धर्म और राजनीति को परस्पर-विरोधी आयाम माना जाता था। लेकिन आज यह
साफ हो गया है कि धर्म और राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आज भुज में
स्वामीनारायण संप्रदाय के महंत हरिस्वरूपदास जी ने आपके कच्छ-प्रवेश को कच्छ
संस्कृति पर आक्रमण की संज्ञा दी है। तथा एक राजनीतिज्ञ श्री बाबू भाई शाह ने आपको
साधु-वेश में शिकारी संबोधित किया है!
इस धर्म और राजनीति के ब्लैक बोर्ड पर आपकी
धार्मिकता सफेद खड़िया से लिखी हुई सिद्ध हो रही है।
मुकेश भारती!
धर्म का सम्यक स्वरूप तो सदा राजनीति से उतने ही दूर है, जितने दूर पृथ्वी से आकाश। या शायद उससे भी ज्यादा दूर। पृथ्वी और आकाश के
बीच तो शायद सेतु बनाया भी जा सके; धर्म और राजनीति के बीच
कोई सेतु नहीं बन सकता है।
धर्म का अर्थ होता है: आत्म विजय, स्वयं को जानना।
राजनीति का अर्थ होता है: दूसरे पर मालकियत कायम करना। इन दोनों में क्या तालमेल
हो सकता है? राजनीति में प्रवेश ही वह व्यक्ति करता है,
जो अपने भीतर अनुभव करता है कि अपना मालिक तो मैं कभी हो न सकूंगा।
उस कमी को कैसे पूरी करूं? उस खड्ड को कैसे भरूं? वह खड्ड काटता है।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एडलर ने उसे तो मनुष्य-जाति की सारी मानसिक
रुग्णताओं का आधार-स्रोत माना है। उसे हीनता की ग्रंथि कहा है--इन्फीरियारिटी
काम्पलेक्स। भीतर लगता है: मैं कुछ भी नहीं हूं, तो कम से कम बाहर ही
दिखावा कर लूं! सिद्ध कर दूं बाहर दुनिया में कि मैं महान हूं। कि देखो, मेरे यश की पताका दूर-दिगंत तक उड़ रही है! कि देखो, मेरे
धन की राशि--कि मेरे पद की ऊंचाई--कि गौरीशंकर की ऊंचाइयां छोटी हो गईं?
भीतर की कमी है, बाहर किसी तरह पूरा कर लूं। कम
से कम औरों के सामने तो सिद्ध हो जाएगा कि मैं कोई छोटा-मोटा आदमी नहीं! विशिष्ट
हूं--साधारण नहीं। असाधारण हूं--सामान्य नहीं। हालांकि भीतर की हीनता ऐसे मिटती
नहीं। वरन और भी प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ने लगती है।
बाहर कितना ही धन इकट्ठा कर लो, भीतर की निर्धनता
रत्ती भर कम नहीं होगी। हां, पहले दिखाई न पड़ती रही हो इतनी
प्रगाढ़ता से, अब और भी प्रगाढ़ता से दिखाई पड़ेगी।
इसलिए राजनीति की दौड़ का कोई अंत नहीं आता। और आगे--और आगे! और
ज्यादा--और ज्यादा! जितना जाओ आगे, उतना ही लगता है: अभी
तो बहुत बाकी है। जितना पाओ, उतना ही लगता है: अभी तो मैं
बहुत खाली। बाहर ढेर लगते जाते हैं पद के, प्रतिष्ठा के,
सम्मान के, अहंकार के--उनके ही अनुपात में
भीतर का गङ्ढा और भी साफ दिखाई पड़ने लगता है। शिखरों के पास ही तो गङ्ढे साफ दिखाई
पड़ते हैं!
राजनीति की यही दुविधा है। और जब मैं राजनीति शब्द का प्रयोग करता हूं
तो खयाल रखना--धन की दौड़ भी राजनीति है--पद की दौड़ ही नहीं। सब दौड़ राजनीति है। और
की दौड़ राजनीति है। राजनीति के फिर बहुत पहलू हैं। लेकिन जहां और की मांग है, वहां राजनीति है।
धर्म है संतुष्टि--राजनीति है असंतोष। इनमें क्या तालमेल हो सकता है? कोई तालमेल नहीं हो सकता।
जो अपने को जानने में लग जाता है, उसकी राजनीति मिटनी
शुरू हो जाती है। उसे क्या पड़ी किसी को जीतने की! अपने को जीता--तो सब जीता। अपने
को जाना--तो सब जाना। उसे फिर सिकंदर नहीं होना; नेपोलियन
नहीं होना; स्टैलिन नहीं होना; माओत्से
तुंग नहीं होना। ये सब बचकानी बातें हो जाती हैं।
जो स्वयं हो गया--वह सब हो गया। जो स्वयं हो गया, वह तो परमात्मरूप हो गया। उसने तो भगवत्ता पहचान ली। अब उससे ऊपर और क्या
बचना? अब उसके पार और क्या है! उसके पार और कुछ भी नहीं है।
उसने तो आखिरी ऊंचाई छू ली। परम शिखर पर पहुंच गया। इसलिए उसके जीवन में राजनीति
नहीं होगी। और जो राजनीति की दौड़ में है, उसके जीवन में धर्म
नहीं होगा।
लेकिन यह जो मैं कह रहा हूं, सम्यक धर्म के संबंध
में ही लागू हाता है। तथाकथित धर्मों के संबंध में लागू नहीं होता। तुम दोनों में
भेद स्पष्ट कर लो। वहीं तुमसे चूक हो रही है।
तुमने लिखा: अब तक धर्म और राजनीति को परस्पर-विरोधी आयाम माना जाता
था। लेकिन आज यह साफ हो गया कि धर्म और राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
झूठा धर्म निश्चित ही राजनीति का ही एक अंग है। झूठा धर्म हमेशा
राजनीति के साथ सांठ-गांठ करता है। झूठा धर्म उसी षडयंत्र का हिस्सा है, जिसका नाम राजनीति है।
राजनीतिज्ञ एक तरह से लोगों पर कब्जा पाता है। तथाकथित झूठा धार्मिक
व्यक्ति भी दूसरे ढंग से औरों पर कब्जा पाता है। और जिसने दूसरों पर कब्जा जमा
लिया है, उसे बेचैनी तो होगी। उसे बेचैनी इस बात से होगी कि
कोई और उसकी भेड़ों को न छीन ले जाए! उसे घबड़ाहट होगी। वह डरा-डरा रहेगा!
मेरे विरोध में स्वामीनारायण संप्रदाय के महंत हरिस्वरूपदास जी को और
क्या कारण हो सकता है! कहीं ऐसा न हो कि स्वामीनारायण संप्रदाय की कुछ भेड़ें मेरी
बातों में आ जाएं, बहक जाएं! कुछ भेड़ों को अपना स्वरूप याद आ जाए और
सिंह की गर्जना करने लगें! तो महंत की जो प्रतिष्ठा है, जो
साख है, उसको चोट पड़ेगी!
इसके पहले जैन मुनि भद्रगुप्त ने वक्तव्य दिया है। सारे जैनियों के
आह्वान किया है कि मेरे कच्छ-प्रवेश को रोकना ही होगा। इसके लिए जो भी कुरबानी
करनी पड़े, जैन-समाज को कुरबानी देने के लिए तैयार हो जाना
चाहिए! जैसे मेरे कच्छ-प्रवेश से जैन-धर्म को खतरा है!
अब स्वामीनारायण संप्रदाय को खतरा पैदा हो गया! अभी और-और खतरे पैदा
होंगे। अभी तो सभी धर्मों के लोगों को खतरे पैदा होंगे। अभी तो वे सभी इकट्ठे
होंगे! अभी जैनों के सातों संप्रदायों ने इकट्ठे होकर निर्णय किया है कि हम संघर्ष
करेंगे। अभी तुम पाओगे कि जैन, हिंदू, मुसलमान,
ईसाई--वे भी सब इकट्ठे हो कर घोषणा करेंगे कि हम संघर्ष करेंगे।
क्योंकि सब का भय एक है। उनकी आपसी दुश्मनियां भूल जाएंगे वे। क्योंकि मैं किसी
धर्म का नहीं हूं। धर्म मेरा है। मेरे संन्यासी किसी धर्म के नहीं हैं। हालांकि
धर्म मेरे संन्यासियों का है। और धर्म बहुत नहीं हैं। बहुत तो राजनीति ने बना दिया
है उन्हें। नहीं तो धर्म तो एक ही है। धर्म कैसे बहुत हो सकते हैं?
जब विज्ञान बहुत नहीं होते, तो धर्म कैसे बहुत हो
जाएंगे! कोई हिंदुओं की भौतिकी (फिजिक्स) मुसलमानों की भौतिकी से अलग होगी?
कि हिंदुओं का रसायनशास्त्र जैनों के रसायनशास्त्र से अलग होगा?
यह बात ही मूर्खतापूर्ण मालूम होगी! कोई कहे कि यह जैन-रसायनशास्त्र,
और यह हिंदू-रसायनशास्त्र!
धर्म भी न हिंदू होता, न मुसलमान होता। न
ईसाई होता--न जैन होता। धर्म तो एक धार्मिकता की बात है। जीवन को जीने की एक कला
है। जीवन को प्रामाणिकता से जीने का विज्ञान है। जीवन को आनंद-उत्सव बनाने का राज
है, रहस्य है कीमिया है। अलग-अलग नहीं है। चाहे हिंदू को
आनंदित होना है--और चाहे मुसलमान को--आनंद होने का सूत्र एक है।
जिसको भी संतुष्ट होना है, उसको राजनीति की दौड़
छोड़नी पड़ेगी। फिर वह कहीं भी हो, दुनिया के किसी कोने में
हो। सभ्यताएं अलग-अलग होती है; संस्कृति, अलग-अलग नहीं होती, नहीं हो सकती है। सभ्यता का अर्थ
होता है--तुम्हारे कपड़े पहनने का ढंग, तुम्हारे बाल कटाने का
ढंग, तुम्हारे खाने बनाने का ढंग, तुम्हारे
मकान बनाने का ढंग, मकान को सजाने का ढंग। सभ्यता ऊपरी चीज
का नाम है।
स्वभावतः आदिवासी जंगल में रहने वाला एक तरह के मकान बनाता है। और
बंबई में रहने वाला दूसरे तरह के मकान बनाता है। उनकी जरूरतें अलग। अब कोई आदिवासी
को तीस मंजिल मकान थोड़े ही बनाने की जरूरत है! क्या करेगा बना कर तीस मंजिल मकान!
चढ़ते-उतरते मर जाएगा! व्यर्थ ही परेशान हो जाएगा! और तीस मंजिल मकान बना कर फिर
बस्ती कहां बसेगी? एक ही मकान में बस्ती खतम हो जाएगी! बस्ती की आबादी
ही दो सौ, तीन सौ होती है! एक मकान को भी पूरा नहीं भर
पाएगी! और फिर जमीन इतनी पड़ी है आदिवासी के पास। पूरा जंगल उसका है, पहाड़ उसके हैं! क्या जरूरत कि मकान के ऊपर मकान, डब्बे
के ऊपर डब्बों को रखता चला जाए! और फिर डब्बों में से लोग झांक रहे हैं, जैसे कबूतरों के लिए हम खोके बना देते हैं। उनमें से वे झांक रहे हैं और
गुटर-गूं कर रहे हैं! बंबई और न्यूयार्क में जरूरत है। आदमी थोड़े ही हैं; कबूतरखाने हैं! लेकिन जंगल में जहां जमीन खूब पड़ी है, वहां क्या जरूरत है? तो वहां एक-मंजला मकान काफी है।
सीमेंट का भी बनाने की जरूरत नहीं है। घास-फूस का पर्याप्त है। घास-फूस का ही
पर्याप्त है, और उचित है। क्योंकि वही उसे उपलब्ध है;
आसानी से उपलब्ध है। और कोई शाश्वत बनाने की जरूरत है? हर साल घास बदल ले। हर साल नया कर ले। तुम्हें तो बासे मकान में रहना पड़ता
है। रहे आओ बासे मकान में जिंदगी भर! एक बासे मकान से दूसरे बासे मकान में चले
जाओ। वह मकान भी बदल लेता है हर साल। उसके पास सामान भी थोड़ा है। उतनी उसकी जरूरत
है। उससे ज्यादा का उसे प्रयोजन नहीं है। उसकी सभ्यता अलग होगी। उसका काम-धाम,
उसका जीवन एक और दुनिया में है।
लेकिन संस्कृति तो आंतरिक संस्कार का नाम है।
सभ्यता शब्द का अर्थ समझो। सभ्यता शब्द का अर्थ होता है, सभा में बैठने योग्य। बाहरी बात है। सभ्य उसको कहते हैं, जो सभा में बैठने योग्य हो। जिसे तमीज हो, शिष्टाचार
हो। जो चार आदमियों के बीच बैठे, तो इतनी भद्रता हो उसमें,
कि कैसे बैठना, कैसे उठना। औरों के साथ हमारे
जो संबंध हैं, उनका नाम सभ्यता है। वह बाह्य घटना है।
स्वभावतः अलग-अलग देश में अलग-अलग होगी। और कई दफे बड़ी भूल हो सकती है।
जापानी मित्र मुझसे संन्यास लेने आते हैं। धीरे-धीरे मुझे समझ में आया; फिर भी भूल जाता हूं, क्योंकि वे सिर अलग ढंग से
हिलाते हैं। जब हमको हां कहना होता है, तो हम सिर को
ऊपर-नीचे करते हैं। जब उनको हां कहना होता है, तो वे सिर को
दाएं-बाएं करते हैं! सारी दुनिया में सिर को दाएं-बाएं करने का मतलब होता
है--नहीं। लेकिन जापान में अर्थ होता है--हां! और जब वे सिर को ऊपर-नीचे करें,
तो वे नहीं कर रहे हैं!
तो पहले पहल तो मुझे बड़ी मुश्किल होती थी। उनसे मैं पूछूं कि रुकोगे
कुछ देर! वे बेचारे हां कह रहे हैं, और समझूं कि नहीं! तो
मैं उनसे पूछूं कि इतनी क्या जल्दी है? मगर वे मुझसे कहें,
जल्दी! साल भर रुकने आए हैं! जापानी सबसे ज्यादा रुकते हैं! जर्मनों
का नंबर दो है। जापानियों ने सबको मात किया हुआ है! छह महीने से कम तो कोई जापानी
रुकता ही नहीं। नौ महीने, साल भर, दो
साल तक रुकने वाला जापानी आता है। कि वह दो साल के लिए आया हो। वह बेचारा दो साल
रुकने आया है और मैं समझ रहा हूं--मैं उससे पूछता हूं: इतनी जल्दी क्या है?
तो वह स्वभावतः पूछेगा कि जल्दी!
उसके सिर हिलाने का ढंग अलग है। फिर बाद में मुझे नर्तन ने, जो मेरा अनुवाद करती है, जापानियों और मेरे बीच,
उसने मुझे बताया कि यह झंझट बार-बार खड़ी होती है!
इटैलियन मित्र आते हैं। उनके गले में माला डालता हूं, पूछता हूं--मेरी तरफ देखो। वे फौरन आंख बंद कर लेते हैं! सिर्फ इटैलियन
आंख बंद करते हैं, और कोई नहीं बंद करता। मैं बड़ा हैरान कि
क्या बात है! मैं जब भी कहता हूं, मेरी तरफ देखो, वे फौरन आंख बंद कर लेते हैं! मैं देखने को कह रहा हूं, वे आंख बंद कर रहे हैं, बात क्या है? कहीं कुछ मेरे और उनके बीच भेद पड़ रहा है। शायद वे ही ठीक हैं। क्योंकि
मुझे देखना हो, तो आंख ही बंद करके देखा जा सकता है। वह भी
देखने का एक ढंग है। स्त्रियां उसी ढंग से देखती हैं। वह ज्यादा प्रेमपूर्ण ढंग
है--और ज्यादा आंतरिक।
जब स्त्री किसी को गले लगेगी, तो आंख बंद कर लेगी।
इसलिए स्त्रियों को पुरुषों के रंग में, रूप में, आकृति में उतनी उत्सुकता नहीं होती, जितनी उनकी
संस्कारशीलता में उत्सुकता होती है। स्त्रियां अलग चीजों से प्रभावित होती
हैं--पुरुष अलग चीजों से। पुरुष देखता है कि रंग कैसा है, रूप
कैसा है, नक्श कैसा है। नख से शिख तक वह पूरा का पूरा
रूप-रंग-आवरण--सब देखता है। बाल का रंग, चमड़ी का रंग,
नाक का ढंग, आंख का ढंग! स्त्री इन चीजों में
उतना रस नहीं लेती। उसका रस कुछ और है। वह देखती है: पुरुष में कितना प्रसाद है;
कितना विनम्र, कितना सरल है। कितना आनंदित
व्यक्ति है, आह्लादित व्यक्ति है! अब आह्लाद का, आनंद का, प्रसाद का नाक की लंबाई से कोई संबंध नहीं
है। न रंग से कोई संबंध है।
और स्त्री को जब तुम आलिंगन करोगे, तो वह आंख बंद कर
लेगी, क्योंकि वह तुम्हें भीतर से पकड़ना चाहती है। वह
तुम्हारे भीतर डूब जाना चाहती है। वह अंतर्मुखी है। पुरुष बहिर्मुखी है। वह स्त्री
को प्रेम भी करना चाहता है, तो बिजली का बल्ब जला कर करना
चाहता है। वह देखना चाहता है कि उसके चेहरे पर क्या भाव आते हैं। यहां तक ही
नहीं--यहां तक पागल पुरुष हैं कि आईने लगा रखते हैं अपने बिस्तर के ऊपर, कि अगर ठीक से न देख पाएं, तो आईने में दिखाई पड़ता
रहे!
और पश्चिम के मुल्कों में तो मूर्खों ने हद्द कर दी। कैमरे लगा रखे
हैं आटोमैटिक, कि फिर बाद में अलबम में देखेंगे कि प्रेम में
क्या-क्या घटा! इसलिए पुरुषों के पास इस तरह की किताबें छपती हैं उनके लिए,
इस तरह की पत्रिकाएं--जिसमें स्त्रियों के नग्न चित्र होते हैं।
पुरुष को रस है उनमें। स्त्रियों को इस बात में बहुत रस नहीं है। बहुत उत्सुकता
नहीं है कि वे पुरुषों कि नग्न चित्र देखें। उसे पुरुष की आत्मा में रस है,
देह में कम।
शायद इटैलियन ही ठीक करते हैं कि आंख बंद कर लेते हैं! वे मेरे साथ
तल्लीन हो रहे हैं। वे एकरूप हो रहे हैं।
ये सभ्यता के भेद हैं। सभ्यता अलग-अलग होगी। लेकिन संस्कृति अलग-अलग
नहीं होगी। और यहां तो हद्द हो गई! भारतीय संस्कृति का ही मामला नहीं है, अब, तो कच्छ की संस्कृति पर हमला है! तब तो
गांव-गांव की संस्कृति का अलग हो जाएगा मामला!
अभी तो भारतीय संस्कृति की बात थी। अब भारतीय संस्कृति वगैरह तो दूर, महाराष्ट्रियन संस्कृति है, और गुजराती संस्कृति है!
और गुजरात की संस्कृति भी जाने दो भाड़ में! कहां गुजरात! कच्छ की संस्कृति! थोड़े
दिन में मांडवी की संस्कृति और भुज की संस्कृति! फिर मोहल्लों की संस्कृति। फिर हर
घर की संस्कृति! फिर अपनी-अपनी संस्कृति!
संस्कृति का अर्थ समझो। उसका शाब्दिक अर्थ भी प्यारा है: संस्कार
शीलता, परिष्कार होना। जीवन भीतर ऊंचाइयां छूने लगे।
तुम्हारे भीतर शिखर उठने लगें चैतन्य के। वह आत्मा को आविष्कृत करने का विज्ञान
है। वह कच्छ की, और गुजरात की, और महाराष्ट्र
की, और कर्नाटक की नहीं होती। न भारत की होती है, न चीन की होती है, न जापान की होती है।
अगर लाओत्सू, बुद्ध, जीसस, मोहम्मद, बहाउद्दीन, कबीर,
नानक--एक साथ बैठें, तो उनकी सभ्यताएं तो
अलग-अलग होंगी, लेकिन उसकी संस्कृति बिलकुल अलग-अलग नहीं
होगी। सभ्यताएं तो अलग-अलग होंगी।
बुद्ध एक ढंग से बैठेंगे--पद्मासन लगा कर। शायद जीसस से पद्मासन न
लगे। जिंदगी भर नहीं लगाया, तो लगे कैसे! लाओत्सू जिंदगी भर भैंसे पर सवार होकर
चलता था। अब बुद्ध को तुम भैंसे पर बिठाओगे, फौरन गिरेंगे।
चारों खाने चित्त पड़ेंगे! भैंसे पर कभी बाप-दादे नहीं बैठे! और चीन में पुराना
रिवाज है भैंसे पर सवार होना। तो कोई अड़चन न थी। लाओत्सू की सवारी ही भैंसा था।
और जीसस तो गधे पर बैठ कर चलते रहे। अब महावीर ने कितना ही परित्याग
कर दिया हो राज्य का, सब छोड़ दिया हो, मगर उनसे भी
तुम कहो कि गधे पर बैठो, तो वे भी झिझकेंगे! कि नंग-धड़ंग--और
गधे पर! क्या और बदनामी करवानी! वैसे ही तो लोग नंग-लुच्चे समझते हैं! क्योंकि
महावीर बाल लोंच कर उखाड़ देते थे, इसलिए लुच्चे! और नंगे
रहते थे, इसलिए नंगे। यह नंगा-लुच्चा शब्द सबसे पहले महावीर
के लिए उपयोग में आया था! अब तो तुम किन्हें नंगे-लुच्चे कहते हो! कहना ही नहीं
चाहिए। यह तो महावीर जैसे व्यक्ति के लिए उपयोग किया गया महान शब्द है! बाल लोंचे
कोई, और नग्न रहे।
महावीर भी कहेंगे कि एक तो वैसे ही लोग नंग-लुच्चे कह रहे हैं--और गधे
पर बिठाल दो! मगर जीसस जिंदगी भर गधे पर बैठे। वह जेरुशलम का रिवाज था; कोई अड़चन न थी। सभी गधे पर बैठते थे, उसमें कोई बाधा
ही न थी।
लेकिन संस्कृति अलग-अलग नहीं होगी। अगर ये सारे लोग बैठेंगे, तो एक दूसरे को तत्क्षण पहचान लेंगे। इनके भीतर का स्वाद एक होगा।
एक व्यक्ति, एक ईसाई पादरी झेन फकीर रिंझाई के पास बाइबिल लेकर
पहुंचा। प्रभावित करने, और रिंझाई को ईसाई बनाने। ईसाइयों को
एक पागलपन सवार है: सारी दुनिया को ईसाई बनाना है! जैसे इतने ईसाई काफी नहीं! हर
तरह के उपाय में लगे रहते हैं! बस, ईसाई बन जाओ! वह राजनीति
का जाल है। क्योंकि राजनीति रहती है संख्या पर। जितने ज्यादा ईसाई होंगे, उतना ईसाइयों का बल होगा पृथ्वी पर। इसलिए दूसरे भी उत्सुक होते हैं कि हम
भी यही धंधा करें।
तो आर्य समाजी हैं; उनको कोई ईसाई हो जाए हिंदू,
तो उसको फिर से हिंदू बनाना है! अब एक दफे भूल कर ली, तो कर लेने दो। दुबारा तो न करवाओ! चलो, ईसाई हो गया
है, ठीक है, होने दो। कुछ हर्जा क्या
है! अगर जीसस से इसको कुछ सीख मिल जाए, तो भी ठीक है। नहीं
सीख पाया तुम्हारे कृष्ण से, तो जीसस से सीख लेने दो! शायद
वहां इसके जीवन का फूल खिल जाए। किसी भूमि में खिले, फूल तो
खिलने दो। नहीं, इसको फिर खींचत्तान कर हिंदू बनाना है! फिर
इसको आर्य समाजी बनाना है!
सबको सवार है भूत--संख्या बढ़ाने का! कि संख्या बढ़ जानी चाहिए। संख्या
बढ़ेगी, तो वोट का अधिकार तुम्हारे हाथ में है। वोट का अधिकार
तुम्हारे हाथ में है, तो राजनीति तुम्हारी है! राजनीति उनकी
है, जिनके पास भीड़ है।
तो यह पादरी गया था। सुना था इसने कि रिंझाई सरल-सीधा आदमी है। सोचा
कि चलो, बदल लेंगे! जीसस के प्रसिद्ध वचन हैं, जो उन्होंने पर्वत पर प्रवचन दिया। तो उसने सोचा कि यही सुनाऊं। तो उसने
कहा कि क्या आप पसंद करेंगे, मैं कुछ मेरे धर्म-ग्रंथ के वचन
सुनाऊं!
रिंझाई ने कहा, जरूर!
उसने पहला वचन पढ़ा कि धन्य हैं वे, तो सरल हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।
रिंझाई ने कहा कि बस, और ज्यादा सुनाने की कोई जरूरत
नहीं। जिसने भी यह कहा हो, वह व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो
गया था।
वह ईसाई पादरी तो बोला, और तो सुनिए!
उसने कहा, लेकिन बात ही खतम हो गई। इसके आगे अब कुछ बचा नहीं!
उसने पूछा, यह भी तो पूछिए कि ये वचन किसके हैं?
उसने कहा, यह भी क्या करूंगा! नाम कुछ अर्थ रखता है! किसी के भी
हों, जिसने भी यह कहा है, वह आदमी
बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है।
जीसस का नाम भी उसने नहीं पूछा। क्या करना है! जब सामने सागर बह रहा
हो, तो चख लिया। पाया, कि नमकीन है। कहा कि ठीक है। अब
यह सागर अरब सागर हो, कि बंगाल सागर हो, कि हिंद महासागर हो, कि पैसेफिक महासागर हो--कोई भी
सागर हो, क्या लेना-देना है! सागर का भी कोई नाम होता है?
हमने दे दिए नाम। नमकीन उसका स्वाद चख लिया, उसका
रस ले लिया। और एक बूंद ही बता देती है बात!
उसने कहा, बस, अब और तुम मेहनत न करो। मैं
पूरी तरह राजी। जिसने भी यह कहा, वह आदमी बुद्धत्व को उपलब्ध
हो गया।
वह ईसाई पादरी तो बड़ा हतप्रभ हुआ कि ऐसे आदमी के साथ क्या करना! इसको
तो जीसस का नाम भी बताना मुश्किल है; ईसाई बनाना तो बहुत
दूर की बात है!
लेकिन उसको समझ में ही नहीं आ रहा है कि ऐसे व्यक्ति को क्या ईसाई
बनाना है! यह तो स्वयं ईसा है। यह तो स्वयं बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति है, इसलिए तो तत्क्षण पहचान गया।
महावीर जीसस को पहचान लेंगे। जीसस मोहम्मद को पहचान लेंगे। मोहम्मद
बुद्ध को पहचान लेंगे। कबीर नानक को पहचान लेंगे। नानक फरीद को पहचान लेंगे। बात
भी न होगी। आंख आंख में बात हो जाएगी। नजर नजर में बात हो जाएगी। खामोशी में बात
हो जाएगी। नजर से नजर कह देगी। शब्द भी उपयोग न करने पड़ेंगे।
बुद्ध ने कहा है कि दो अज्ञानी मिलें, तो खूब चर्चा होती
है। हालांकि उसमें मतलब कुछ नहीं होता; बकवास होती है। दो
ज्ञानी मिलें, चर्चा बिलकुल नहीं होती, मतलब बहुत होता है। बात होती ही नहीं, मगर बड़ी बात
होती है। बात इतनी बड़ी होती है कि बात में बंट नहीं सकती, समा
नहीं सकती। आकाश जैसी होती है, कहां शब्दों में समाओगे?
कहां शब्दों के छोटे-छोटे आंगन, घरघूले--उसमें
कहां विराट आकाश को भरोगे! यूं बात बहुत होती है, मगर नजरों
नजरों में हो जाती है। बिन बोले हो जाती है! बिन डोले हो जाती है। हलन-चलन भी नहीं
होता। लहर भी नहीं उठती और संदेश यहां से वहां हो जाते हैं। ज्योति ज्योति को
तत्क्षण पहचान लेती है। आंख वाला आंख वाले को पहचान लेता है। जागा हुआ आदमी जागे
हुए दूसरे आदमी को पहचान लेता है। हां, सोया हुआ आदमी जागे
हुए आदमी को नहीं पहचान सकता। और दो सोए आदमी तो बिलकुल ही नहीं पहचान सकते,
चाहे रात भर बड़बड़ाएं! और अकसर सोए हुए आदमी बड़बड़ाते हैं। मगर कौन
किसकी सुन रहा है?
बुद्ध ने कहा, दो ज्ञानी मिलते हैं, तो बोलते
नहीं। बिन बोले बात हो जाती है। दो अज्ञानी मिलते हैं, तो
बहुत बकवास होती है! ऐसी होती है कि सिर खुल जाएं! बकवास ही बकवास में सिर खुल
जाएं! बात ही बात में बतंगड़ बन जाए। बात में से बात निकल आए। कुछ का कुछ हो जाए!
एक ज्ञानी और एक अज्ञानी मिल सकते हैं। ये तीन ही तो घटनाएं हो सकती
हैं मिलने की। एक ज्ञानी और अज्ञानी मिलता है, तो ज्ञानी कहने की
कोशिश करता है उसको, जो कहा नहीं जा सकता। और अज्ञानी उसको
अपने अज्ञान से समझने की कोशिश करता है। ज्ञानी उसकी खबर देना चाहता है उसे,
जो शब्दों के पार है। और अज्ञानी अपनी मूढ़ताओं के जाल में घिरा हुआ
उन्हीं के माध्यम से उसे समझने की कोशिश करता है! तो कुछ का कुछ समझ लेता है! कुछ
कहो, कुछ समझ लेता है।
मगर ज्ञानी और अज्ञानी के बीच वार्ता हो सकती है। क्योंकि कम से कम एक
तो उसमें जागा हुआ है। वह कोशिश करके, खींच कर अज्ञानी को
ला सकता है उस झरोखे पर। समझा-बुझा कर, मना कर, फुसला कर, प्रलोभन दे कर उस झरोखे पर ला सकता है,
जहां से सूरज दिखाई पड़ जाए। जहां से खुला आकाश, चांदत्तारे दिखाई पड़ जाएं।
यही तो सारी चेष्टा है सत्संग में।
मैं क्या कर रहा हूं? तुम्हें फुसला रहा हूं कि झरोखे
पर आ जाओ। मगर तुम अपनी-अपनी जिद्द में बैठे हुए हो! कोई कहता है कि हम तो
बजरंगबली पर भरोसा करते हैं। जितने हुड़दंगअली हैं, सब
बजरंगबली पर भरोसा करते हैं! ये सिर्फ तुम्हारे हुड़दंगेपन का सबूत है, और कुछ भी नहीं।
इससे बजरंगबली का कोई कसूर नहीं है। इससे सिर्फ तुम्हारी बुद्धि की
जड़ता का पता चलता है। और कुछ भी नहीं।
मगर बहुत दिन तक बात सुनी हो, तो हम जकड़ जाते हैं।
कल ही पूछा था न खिलाड़ी राम ने! तीन राम तो यहां मौजूद हैं। एक खयाली
राम भी मौजूद हैं! और एक बुलाकी राम मौजूद हैं! तीनों के प्रश्न आ गए। मैं भी थोड़ा
सोचने लगा कि असली राम क्या बिलकुल दुनिया से नदारद ही हो गए हैं! खयाली
राम--बुलाकी राम--खिलाड़ी राम! यह तो ऐसे ही हुआ, जैसे असली घी नदारद
हो गया है। तरहत्तरह के घी उपलब्ध हैं! असली डालडा तक नदारद हो गया!
खयाली राम मतलब खयाल ही खयाल में राम हैं! और खिलाड़ी राम यानी खेल-खेल
में राम। मतलब--कोई गंभीरता से मत लेना इनको! शुद्ध राम का पाना भी मुश्किल है!
उसमें भी शर्तें जुड़ी हुई हैं!
और अगर इनको कुछ कहो, तो इनके हृदय को चोट पहुंच जाती
है। एकदम आघात हो जाता है कि हमारी अटूट श्रद्धा पर चोट हो गई!
श्रद्धा पर कभी चोट होती ही नहीं। श्रद्धा को कोई चोट पहुंचा सकता ही
नहीं। श्रद्धा ज्ञान का नाम है। और श्रद्धा का अर्थ विश्वास नहीं होता। विश्वास तो
श्रद्धा का दुश्मन है। जो जितना विश्वास करता है, उतना ही श्रद्धा से
दूर है।
विश्वास का अर्थ है: पता तो नहीं है, मान लिया है। श्रद्धा
का अर्थ है: पता है। इसलिए मानें न मानें, तो करें क्या!
मानना ही पड़ेगा। विश्वास में चेष्टा है मानने की। श्रद्धा में न मानना भी चाहो,
तो कोई उपाय नहीं है।
श्रद्धा अखंड है। और विश्वास कितना ही अटूट तुम्हें मालूम पड़ता हो, जरा में टूट जाएगा।
झूठा धर्म विश्वास पर जीता है। झूठी संस्कृति विश्वास पर जीती है।
असली संस्कृति, असली धर्म श्रद्धा का आविष्कार है।
धर्म है वह नियम, जिसके माध्यम से संस्कृति का
जन्म होता है। धर्म है वह पत्थर, जिस पर तुम्हारी प्रतिभा पर
धार रखी जाती है। जैसे कोई पत्थर पर घिस-घिसकर तलवार पर धार रखता हो। धर्म है वह
पत्थर, जिस पर तुम्हारी प्रतिभा की तलवार पर धार रखी जाती
है। और वह जो धार आ जाती है प्रतिभा पर, उसका नाम संस्कृति
है।
धर्म से संस्कृति पैदा होती है, संस्कार पैदा होता है,
परिष्कार पैदा होता है। तुम शुद्धतर होने लगते हो। तुम पवित्रतर
होने लगते हो। तुम्हारे जीवन में नए-नए फूल खिलते हैं; नई-नई
गंध उड़ती है। नया संगीत उठता है। नए काव्य का आविर्भाव होता है।
लेकिन झूठा धर्म और झूठी संस्कृति हमेशा विश्वास पर आधारित होती है।
इसलिए हमेशा भयभीत होती है। इसलाम खतरे में है--यह भी क्या बकवास है! इसलाम कभी
खतरे में नहीं है। और जो खतरे में है, वह इसलाम नहीं!
हिंदू-धर्म खतरे में है! पागल हो गए हो! और तुम धर्म को बचाओगे--हद्द हो गई! धर्म
तुम्हें बचाता। तुम्हें धर्म को बचाना पड़ रहा है! यह तो यूं हुआ कि--
सेठ चंदूलाल घर आए। एकदम पत्नी से बोले कि सौभाग्य की बात है आज, कि यूं तो सब लुट गया, मगर मेरी पिस्तौल बच गई!
डाकुओं ने घेर लिया। जेबें खाली कर डालीं। हाथ की घड़ी भी उतार ली। अरे और तो
और--मेरी टोपी तक ले गए! जूते ले गए। कोट उतार लिया।
पत्नी ने कहा, लेकिन तुम्हारे पास पिस्तौल थी। तुम करते क्या रहे?
बोले, मैं पिस्तौल को ही तो बचाता रहा! कि ये हरामजादे कहीं
पिस्तौल न ले जाएं! क्योंकि वही महंगी चीज थी। मगर धन्यवाद हो परमात्मा का,
कि किसी की नजर ही न पड़ी पिस्तौल पर! मैंने भी ऐसी छिपाई थी बिलकुल
अपनी धोती में!
अब पिस्तौल तुम्हारी रक्षा के लिए है, कि तुम पिस्तौल को
धोती में छिपा कर बैठे हुए हो! कि मेरी पिस्तौल खतरे में है! तो पिस्तौल है किसलिए?
कौन धर्म को बचाएगा?--ये महंत स्वरूपदास जी धर्म को
बचाएंगे? ये ही तो हत्यारे हैं! धर्म की हत्या कौन कर रहा है?
महंत का मतलब ही यही समझना चाहिए कि जिसने कर दी हत्या।
हंता--महंता--महान हंता! मार-मूर कर बैठे हैं बिलकुल! हत्या करके बैठे हैं! लाश पर
सवार हैं!
अब इनको खतरा है कि कोई आकर कह न दे कि यह तुम जिस चीज को पकड़े बैठे
हो, यह धर्म नहीं है।
खतरा धर्म को नहीं है। खतरा झूठे धर्म को जो लोग धर्म की तरह चला रहे
हैं--उनको है। असली सिक्के को क्या खतरा होता है? नकली सिक्के को खतरा
होता है। नकली सिक्का चलाने वाला डरा-डरा जाता है। चुपचाप निकालता है। जल्दी से
पकड़ा कर भागता है। दस रुपए का नोट देगा, तुम उसको वापस जो
पैसे लौटाओगे, उनकी गिनती भी नहीं करता। क्योंकि गिनती-विनती
की, इतने में कहीं तुम दस का नोट पहचान लो! जब कोई आदमी तुम
चिल्लर वापस लौटाओ, गिनती न करे, फौरन
गौर करना! हां, कुछ महापुरुष होते हैं, उनकी बात छोड़ दें।
चंदूलाल! दस का नोट दिया उन्होंने; एक सिनेमा में जाकर
टिकिट खरीद रहे थे। और फिर एक-एक रुपए को, जो नौ रुपए फिर
वापस मिले, उसको गौर से देख रहे थे।
उसने पूछा, भाई क्या बात है? कुछ कमी है?
नहीं-नहीं। कोई बात नहीं। कमी वगैरह कुछ भी नहीं है। मैं तो यही देख
रहा था कि कहीं वही हाल तो नहीं है, जो मेरी नोट का था!
कहीं तो एक किसी तरह उसको चला कर बचे। अब इनको चलाते फिरो!
वह जो नकली पर भरोसा किए बैठा है, या नकली पर लोगों को
भरोसा करवा रहा है, उसको खतरा है।
बड़े मजे की बात है! सारे जैन मुनि हैं कच्छ में। स्वामीनारायण
संप्रदाय के स्वामीगण हैं। और हिंदू संन्यासी हैं। मुसलमान हैं, मौलवी हैं, पंडित हैं--इन सबको मुझ एक अकेले आदमी से
क्या खतरा हो सकता है? खतरा मुझे हो, क्योंकि
इनकी भीड़ है! मुझे तो कोई खतरा दिखाई नहीं पड़ता। खतरा इन सबको हो रहा है, इससे बात जाहिर है कि मामला क्या है।
जेब काटने की एक घटना पर लंबी-चौड़ी जिरह होने के बाद जिसकी जेब कटी थी, उससे पूछा गया, आपको विश्वास है कि इसी व्यक्ति ने
आपकी जेब काटी?
उत्तर मिला, विश्वास है नहीं--था। जिरह के बाद तो मुझे शक हो रहा
है कि मैंने उस दिन कोट पहना भी था या नहीं!
ये लोग तर्क का जाल फैला कर बैठे हुए हैं। किसी तरह लोगों के सिर पर
जबर्दस्ती थोप दिए हैं विचार। तो इनको खतरा है कि कहीं उखड़ न जाए यह झूठी पर्त!
कहीं यह लीपापोती खुल न जाए! कहीं ये झूठी गांठें वक्त पर दगा न दे जाएं। कहीं कोई
आकर इनको तोड़ न डाले!
नहीं तो मेरी चुनौती है। आखिर उन्हीं लोगों से तुम बात कर रहे हो
सदियों से, उन्हीं से मुझे भी बात करनी है--करने दो। तुम भी करो।
मैं भी बात करूं। जिसकी बात उनको रुचेगी, जिसकी बात उनको भली
लगेगी, उसके साथ हो लेंगे! अब तुम्हारी उनको भली न लगे,
तो मैं क्या करूं? अगर मेरी भली लगे, तो मेरा क्या कसूर? निर्णय उनके हाथ में है। लेकिन
खतरा क्या है तुमको?
खतरा यही है कि तुम्हें खुद ही शक है कि तुम्हारी बात में बल कितना
है! न तुम जानते हो, न जिन ने तुम्हें समझाया है, वे
जानते हैं। न तुम जिनको समझा रहे हो, वे जानते हैं। यह सब
अंधेरे में बैठे हुए जो चर्चा चल रही है, यह छोटे-से दीए के
जलने से भी घबड़ाता है अंधेरा। इसके प्राण कंपते हैं कि यह टूट न जाए!
क्या तुमको गवाही देने के लिए किसी ने पहले से ही सिखा-पढ़ा कर भेजा है? जज ने पूछा।
जी हां, उत्तर मिला।
प्रतिपक्षी वकील उछला, मैं तो पहले ही कह
रहा था कि यह बच्चा सिखा-पढ़ा कर लाया गया है।
वकील को शांत रहने का आदेश देकर जज ने लड़के से पूछा, किसने सिखाया तुम को?
मेरे पिताजी ने।
वकील ने जज का आदेश भूल कर फिर उतावली में कहा, माननीय महोदय, एकदम ठीक कह रहा है यह लड़का। इसके बाप
ने इसको सिखा-पढ़ा कर भेजा है।
इस बात भी जज ने वकील की ओर ध्यान नहीं दिया और लड़के की ओर मुड़कर
तीसरा प्रश्न किया, क्या सिखाया है तुम्हें?
लड़ने ने कहा, यही कि अदालत में प्रतिपक्षी वकील तुम्हें तरहत्तरह
से परेशान करेगा, पर तुम उसका खयाल न करना; सच्ची बात ही कहना।
मैं लोगों को क्या कह रहा हूं! इतना ही कह रहा हूं कि सच्ची बात
कहो--सच्ची बात जीओ। इससे जो झूठ के सौदागर हैं, उनको चिंता हो रही
है। फिर उस झूठ के सौदागर में राजनीतिज्ञ भी हैं और धार्मिक भी हैं। उन दोनों को
झंझट है। उन दोनों का पुराना षडयंत्र है।
राजनेता और धर्मगुरु सदियों से सांठ-गांठ किए बैठे हैं। एक ने कब्जा
कर लिया है आदमी के शरीर पर, और दूसरे ने कब्जा कर लिया है
आदमी की आत्मा पर। दोनों ने बंटवारा कर लिया है कि हम आत्मा पर कब्जा रखेंगे,
तुम शरीर पर कब्जा रखो। तुम हमारे काम में दखलंदाजी मत देना,
तुम हमारी प्रशंसा करना; हम तुम्हारे काम में
दखलंदाजी नहीं देंगे। तुम्हें जरूरत पड़ेगी, हम तुम्हारी
सहायता करेंगे; हमें जरूरत पड़े, तुम
हमारी सहायता करना। लेकिन हम एक दूसरे का साथ देंगे, क्योंकि
हमारा धंधा एक है। वे दोनों के दोनों साझीदार हैं एक ही धंधे में। और धंधा क्या है?
आदमी के शोषण का धंधा है।
इससे मुझसे दोनों नाराज हैं। नहीं तो राजनीतिज्ञों को और धार्मिक को
मेरे विरोध में एक साथ खड़े हो जाने की क्या जरूरत?
तुमने पूछा है कि एक राजनीतिज्ञ श्री बाबूभाई शाह ने आपको साधुवेश में
शिकारी संबोधित किया है।
साधु का मेरा वेश है नहीं। पक्का शिकारी हूं! सिर्फ शिकारी हूं! और
शिकार करने के सिवाय मुझे कोई शौक नहीं। वे गलती में हैं। साधुवेश कहां? इतने लोगों को मैंने साधुवेश पहना दिया, मैंने नहीं
पहना! मेरा न कोई गुरु है, न मेरा कोई धर्म है! न मेरा कोई
शास्त्र है। न मेरा कोई वेश है। मेरी तो मौज है। दिल आ जाता है, तो तुर्की टोपी लगा लेता हूं। सरदार गुरदयालसिंह को भाव आ गया कि एक दिन
तो आप सरदारी साफा बांधिए! मैंने कहा, ले आओ। सो वे साफा
बांध गए ला कर। तो मुझे कोई अड़चन नहीं है। मुझे क्या तकलीफ है! मेरा कोई वेश वगैरह
नहीं है। मुझे कोई आग्रह नहीं है।
मेरी एक संन्यासिनी ने मुझे पत्र लिखा कि एक दिन आप टाई बांध कर आएं!
मैंने कहा, मुझे कोई अड़चन नहीं है। मैं तो नंग-धड़ंग और टाई बांध
कर आ सकता हूं; तू क्या बातें कर रही है! कि महावीर स्वामी
भी सिर पीट लें, कि हद्द हो गई! कि कम से कम नंग-धड़ंग हुए,
तो टाई नहीं बांधना! टाई बांधने वाले भी सिर पीट लें कि हद्द हो गई!
टाई की भी इज्जत गई! इस आदमी के हाथ में जिस चीज की इज्जत न चली जाए, कहना मुश्किल है।
शिकारी हूं। नाहक साधुवेश वगैरह की बात न करो। मैं कोई महात्मा हूं, कि कोई बाबा हूं! कि कोई महंत हूं, कि कोई संत हूं!
इन सब टुच्ची-फुच्ची बातों में मुझे कोई रस नहीं है।
मैं तो अपनी मौज से जी रहा हूं। जो मेरी मौज। कोई मेरे ऊपर किसी तरह
का आग्रह मैंने रखा नहीं है।
लेकिन इनकी अड़चनें तुम समझो। इन बेचारों की तकलीफ भी समझो। इन पर दया
भी खाओ। ये दीन हैं, अत्यंत दीन हैं। ये क्या कह रहे हैं, कि कच्छ की संस्कृति पर आक्रमण हो रहा है!
मैं अपने कमरे से बाहर निकलता नहीं। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं
महाराष्ट्र में हूं, कि गुजरात में हूं, कि
हिंदुस्तान में हूं, कि जापान में हूं। मैं अपने कमरे में ही
रहूंगा। वही चार दीवालें मेरे कमरे की, कहीं भी रहें। और तुम
जानकर हैरान होओगे कि मैं एक-सा ही कमरा बनवा लेता हूं, जहां
रहता हूं। जबलपुर में था, तो मेरा कमरा ऐसा था। बंबई में था,
तो मेरा ऐसा कमरा था। यहां हूं, तो मेरा कमरा
वैसा ही है। मुझे सच में पक्का पता ही नहीं चलता कि मैं कहां हूं। कमरा ही एक जैसा
रहता है! और चौबीस घंटे उसी में रहना है!
और मुझे कोई रस नहीं है कच्छ वगैरह में! क्या मुझे रस पड़ा हुआ है? तुम सोचते हो, मैं कभी मांडवी जाऊंगा, कि कभी भुज जाऊंगा? कभी नहीं जाऊंगा! मैं तो अपने
कमरे में प्रवेश कर जाऊंगा--बात खतम हो गई! फिर उस कमरे से क्या मुझे निकलना है?
इतना ही रास्ता जो कमरे से यहां तक सुबह तुम्हारे पास आता हूं, यही मैं कुल जमा इतनी यात्रा करता हूं।
मुझसे कच्छ की संस्कृति को क्या खतरा है? और आक्रमण! जिनको उत्सुकता हो, उनको मेरे पास आना
पड़ेगा। अब जिनको उत्सुकता है, उनको यहां भी आना हो तो आ जाते
हैं। यहां भी, आखिर कच्छ से आकर लोग यहां भी संन्यस्त हुए
हैं। कच्छ में मेरे संन्यासी हैं। जिनको बिगड़ना ही है, उनको
तुम कैसे रोकोगे? वे कच्छ से बेचारे यहां तक आते हैं!
और यूं मुझसे मिलना आसान नहीं है। जिसने बिगड़ने की जिद्द ही कर रखी हो, वही मिल पाता है। जिसने कसम ही खा ली हो कि बिगड़ेंगे ही, वही मिल पाता है। हर-किसी से मैं मिलता भी नहीं हूं।
ये कोई आक्रमण के ढंग हैं? यह मैं किसी के घर पर
जाकर दरवाजे खटखटाता हूं? कि किसी की गरदन पकड़ता हूं?
असल में बहुत मुश्किल है आश्रम में प्रवेश। हिंदुस्तान में है कोई
दूसरा तुम्हारा धार्मिक व्यक्ति जिसके आश्रम में प्रवेश के लिए तुम्हें पहले पैसा
देना पड़ता हो? अपनी गरदन कटवाओ--और पैसा दो! अब तुम्हारा दिल
ही है, तो अब मैं क्या करूं! तो मैं तो अपनी मेहनत का पैसा
लूंगा! तुम्हें गरदन कटवानी है, मैं मुफ्त में ही काटूं!
तो अब जिसको गरदन कटवानी है, वह आएगा। मैं कहीं भी
रहूं, वह आएगा। और सच यह है कि कच्छ मैं जा रहा हूं, क्योंकि पूना में जब तक रहूंगा, पूना के कुछ लोग
गरदन कटवाने से बचे हुए हैं, इनके लिए कच्छ जाना पड़ रहा है!
क्योंकि जब मैं कच्छ जाऊंगा, तब ये आएंगे! ऐसे बुद्धू हैं!
मैं बंबई था, तो कुछ लोग नहीं आए बंबई। पूना आ गया, तो अब आए! जब तक बंबई था, तब तक उनने सोचा कि कभी भी
चले जाएंगे! जब पूना आ गया, तो उनने सोचा कि अब चले ही जाना
चाहिए। पता नहीं, फिर जाना हो पाए, न
हो पाए!
यह चेतना मेरे सामने बैठी हुई है। इससे पूछो। यह उसी मकान में रहती थी, वुडलैंड में, जिसमें मैं रहता था। मेरी खोपड़ी पर
बैठी थी ऊपर! तब न आई! और फिर यहां आई, तो गई ही नहीं! अब
वहीं उसी मकान में था मैं, तो सोचती थी कि कभी भी चले
जाएंगे! ऐसी जल्दी क्या है! लिफ्ट वहीं मेरे दरवाजे पर से रोज गुजरती रही। आती रही,
जाती रही। इसमें ही जाती होगी, आती होगी! मगर
मेरी नजर में थी। शिकारी जो ठहरा! इसमें मैं ध्यान लगाए बैठा था! कि तू बच ले--कब
तक बचती है! मगर तुझको बिगाड़ कर रहूंगा! और बिगाड़ कर ही रहा। और खुद बिगड़ी सो
बिगड़ी, पति को भी बिगाड़ दिया! मैं तरकीब जानता हूं। पहले
पत्नियों को बिगाड़ लेता हूं, फिर उनके पतियों को बिगाड़ लेता
हूं! अरे जब पत्नी बिगड़ गई, तो पति की क्या हैसियत! वे तो
बेचारे छाया की तरह अपने आप चले आएंगे!
पूना के नालायकों की वजह से कच्छ जा रहा हूं! नहीं तो इनकी गरदन नहीं
कटेगी; ये यूं ही रह जाएंगे। और तुम जानकर हैरान होओगे कि अब
कच्छ की खबर जोर पकड़ी, तो आने लगे! यूं नहीं आते थे। और
छोटे-मोटे लोग ही नहीं, पूना के उद्योगपति, आकर प्रार्थना करने लगे कि मत जाइए! कि हमने तो सुना ही नहीं। हम तो कभी
बैठे ही नहीं, आए ही नहीं! और मैं यहां छह साल से क्या कर
रहा हूं? अब जब कि उनको पक्का होने लगा कि जा ही रहा हूं,
तो अभी पूना के उद्योगपतियों का एक प्रतिनिधि-मंडल महाराष्ट्र के
चीफ मिनिस्टर को मिलने जा रहा है, कि मुझे रोका जाए! मैं
पूना न छोडूं। जब तक पूना में था, तब तक इनमें से कोई न आया!
अब ये आए हैं प्रार्थना करने कि मत जाइए! क्यों आप कच्छ जाते हैं! आपको क्या तकलीफ
है? आपको पूना में कौन-सी सुविधाएं चाहिए?
कल एक उद्योगपति आए कि दो हजार एकड़ जमीन मैं यहां इंतजाम करता हूं। आप
हां भर भर दें! कहीं मत जाएं। महाराष्ट्र को क्यों छोड़ते हैं?
मैं जब पहुंच जाऊंगा कच्छ, तब ये वहां आएंगे।
तभी ये वहां आएंगे। नहीं तो ये नहीं आने वाले हैं।
मैं जबलपुर था। जो लोग कभी जबलपुर नहीं आए, मिलने नहीं आए--अब वे यहां आकर दावेदारी करते हैं कि हम तो जबलपुर से हैं!
हमें तो मिलने का पहले अधिकार है। और मैं बीस साल जबलपुर में था, तब तुम कहां थे! कभी तुम्हारी शकल न देखी।
यह आदमी बड़ा अजीब आदमी है!
कच्छ के लोगों को बिलकुल नहीं घबड़ाना चाहिए। ये स्वामी हरिस्वरूपदास
जी, इनको तो बिलकुल नहीं घबड़ाना चाहिए। कच्छियों को बचाने का सबसे ज्यादा ठीक
उपाय यह है कि मुझको कच्छ में बुला लो! कच्छी निश्चिंत हो जाएंगे कि अब कोई फिक्र
नहीं है। कभी भी चले जाएंगे! अभी यहां आते हैं कच्छी। संन्यस्त भी होते हैं। और
मुझे इन सबकी बकवास रोक नहीं पाएगी। क्योंकि मेरे पास दूसरी तरफ से भी रोज खबरें आ
रही हैं। कच्छ के युवकों ने खबर भेजी है कि पंद्रह हजार युवक तैयार हैं। आप जिस
दिन आएं, हम स्वागत के लिए तैयार हैं। और देखें, कौन रोकता है!
अब ये अपने हाथ से मुसीबत में पड़ेंगे। ये चुपचाप रहें। शांति से अपना
भजन-कीर्तन करो। तुम्हें क्या करना है इन बातों में! जिन्हें बिगड़ना है, वे कोई न कोई रास्ता खोज लेंगे। और जिनको मेरा शिकार ही होना है, वे हो ही जाएंगे।
और तुम्हारे बचाने से बचने वाले नहीं हैं। सिर्फ तुम्हारी घबड़ाहट उनको
और भी बता देगी कि अरे, दो कौड़ी के हो! क्या घबड़ाते हो! एक आदमी के आने से
पूरा कच्छ इतना घबड़ाया हुआ हो! सारे साधु-महात्मा, सारे
राजनेता इतने घबड़ाए हों, ऐसी क्या घबड़ाहट है? कोई मैं जादू कर दूंगा सारे लोगों को, जाकर!
मगर बेचैनी का कारण यह है कि बुनियादें झूठ पर खड़ी हैं। और मैं तो
दो-टूक बात कहने का आदी हूं। जैसा है, वैसा ही कह देता हूं।
मैंने तो कसम खाई है कि जैसा है वैसा ही कहूंगा, चाहे कोई भी
परिणाम हो।
मेरे पहुंचने से इन सबकी जो ढोल में पोल है, उसके खुल जाने का डर है। मगर वह इनके शोरगुल मचाने से ही खुली जा रही है!
मैं अभी पहुंचा ही नहीं हूं, ये अपने हाथ से ही अपनी पोल
खोले दे रहे हैं! चुप रहते, तो शायद थोड़ी देर छिपी भी रहती।
और यह कैसा कमजोर हो गया देश! यह कैसा नपुंसक हो गया देश; यहां देश में लोग घूमते थे। बुद्ध पूरे बिहार में घूमे; महावीर घूमे। शंकराचार्य तो पूरे देश में घूमे। नानक ने तो देश के बाहर तक
यात्राएं कीं! मक्का और मदीना तक यात्राएं कीं।
लोग प्रभावित होते थे, आनंदित होते थे कि
शंकराचार्य का गांव में आगमन हो रहा है। निश्चित ही उस गांव के पंडित को अड़चन आने
वाली है। लेकिन वे भी हिम्मत के लोग थे।
जब मंडन मिश्र के गांव मंडला में शंकराचार्य गए, विवाद करने मंडन मिश्र से, तो मंडन मिश्र ने
आह्लादित हो कर उनका स्वागत किया। ये शानदार लोग थे! क्योंकि यह कहना कि यह तो हम
पर हमला हो जाएगा, इस बात का सबूत होगा कि तुम कमजोर हो!
तुम्हारे पास बुनियाद नहीं है।
मंडन मिश्र ने स्वागत किया कि मैं धन्यभागी हूं कि तुम इतनी दूर से, दक्षिण से, केरल से यात्रा करके आए! मैं तो बूढ़ा हो
गया हूं। मैं चाहता तो भी इतनी यात्रा नहीं कर सकता था। (पैदल यात्रा के दिन थे।)
तुमने बड़ी कृपा की, जो तुम आए! और मैं गौरवाविंत हूं कि मुझसे
विवाद करने तुम इतनी दूर से आए हो!
मंडन मिश्र ने कहा कि एक व्यक्ति को मैं जानता हूं, लेकिन मैं नहीं कह सकता कि उस व्यक्ति को न्यायाधीश बनाया जाए।
शंकराचार्य ने कहा, आप कहें या न कहें, मुझे भी उस व्यक्ति का पता है। मैं निवेदन करता हूं कि उस व्यक्ति को मेरा
भी उतना ही भरोसा है, जितना आपका! और वह व्यक्ति कौन था?--वह मंडन मिश्र की पत्नी थी! भारती। मंडन मिश्र ने स्वभावतः कहा कि मैं
कैसे कहूं कि मेरी पत्नी न्यायाधीश बन कर बैठे! क्योंकि उसमें तो यह हो सकता है कि
वह पक्षपात कर जाए! वह मेरे पक्ष में निर्णय दे दे।
शंकराचार्य ने कहा, मुझे बिलकुल भी चिंता नहीं है।
मैंने उसकी बड़ी ख्याति सुनी है। उससे योग्य और कौन निर्णायक होगा! वह निर्णायक हो।
पत्नी निर्णायक हुई। छह महीने विवाद चला और पत्नी ने छह महीने बाद
निर्णय दिया कि मंडन मिश्र हार गए!
शानदार लोग थे!
पत्नी निर्णय दे सकी कि पति हार गया। और हार गया, इसलिए अब पति को एक ही उपाय है कि वह शंकराचार्य का शिष्य हो जाए। इनसे
दीक्षित हो।
शंकराचार्य भी चौंके। इतनी निष्पक्षता! इतनी सरलता! सत्य के प्रति ऐसा
अदभुत भाव कि कोई नाता-रिश्ता काम नहीं करता। सब नाते-रिश्ते फीके पड़ जाते हैं
सत्य के सामने!
लेकिन भारती अदभुत महिला थी। मंडन मिश्र से तो उसने कहा कि तुम्हें
शंकराचार्य का शिष्य होना पड़ेगा। लेकिन शंकराचार्य से कहा कि सुनो। अभी विवाद पूरा
नहीं हुआ। मंडन मिश्र हारे हैं; मैं उनकी अर्धांगिनी हूं। इसलिए
अभी तुमने सिर्फ आधे मंडन मिश्र को जीता। अभी आधा मंडन मिश्र मुझमें जिंदा है। तुम
मुझे भी जीत लो। तो ही जीत पूरी होगी अन्यथा अधूरी है। मंडन मिश्र तो तुम्हारे
शिष्य हो जाएंगे, लेकिन मैं नहीं। मैं तुम्हें विवाद के लिए
चुनौती देती हूं। और मंडन मिश्र तो हार चुके हैं, वे
तुम्हारे शिष्य हैं। इसलिए ये न्यायाधीश हो जाएं।
शंकर थोड़े घबड़ाए! घबड़ाए इसलिए कि स्त्री से उन्होंने कभी विवाद नहीं
किया था। पहला मौका। और स्त्री से विवाद करना जरा झंझट की बात है! क्योंकि स्त्री
को सोचने-विचारने के ढंग और होते हैं! उसकी तर्क-पद्धति और होती है। तर्क से कम
जीती है वह; उसकी जीवन की प्रक्रिया अनुभूतिगत होती है--तर्कगत
नहीं होती। इसलिए थोड़े झिझके।
लेकिन भारती ने कहा कि आप झिझकेंगे तो जीत अधूरी रहेगी। मंडन मिश्र को
आप ले जाएं। मगर भूल कर भी कभी मत कहना कि मंडन मिश्र पूरे जीते गए। अभी मैं जिंदा
हूं और मुझे हरा दें, तो अच्छा हो, ताकि हम दोनों ही
आपके शिष्य हो जाएं!
चुनौती स्वीकार करनी पड़ी। और वही हुआ, जो होना था, जिससे घबड़ा रहे थे शंकराचार्य। उसने पहला ही प्रश्न जो पूछा, वह कामशास्त्र के संबंध में था!
शंकराचार्य ने कहा कि मुझे मुश्किल में डालती हो! अरे कुछ ब्रह्म की
चर्चा करो! मैं ठहरा ब्रह्मचारी; विवाह मैंने किया नहीं, और तुम कामशास्त्र का प्रश्न पूछती हो!
भारती ने कहा कि जिसमें मेरी पैठ है, जिसमें मेरी गहरी पैठ
है, वही प्रश्न मैं पूछूंगी। ब्रह्म का विवाद तो मैं देख
चुकी। उसमें तुम जीत गए। उसमें शायद तुम मुझसे भी जीत जाओगे। मगर उसमें मुझे रस ही
नहीं है। हार-जीत उससे निर्णय नहीं होगी। मुझे जिसमें रस है, मुझे प्रेम में रस है--ब्रह्म में नहीं। हां, तुम
अगर चाहते हो कि अभी तुम्हारी तैयारी नहीं है, तो तुम समय
मांग सकते हो, कि भई छह महीने, साल भर,
दो साल मैं अनुभव करके आऊंगा। तो तुम्हें छुट्टी दे सकती हूं। लेकिन
विवाद तो तुम्हें जो मैं पूछूंगी, उस संबंध में करना पड़ेगा।
और शंकराचार्य ने यही उचित समझा कि छह महीने की छुट्टी ले लें। कहा कि
छह महीने की मुझे छुट्टी दो। मैं अनुभव करके लौटूं, तभी मैं उत्तर दे
सकता हूं। मुझे कुछ भी पता नहीं है। मैं बाल-ब्रह्मचारी हूं! मैंने प्रेम न किसी
से किया, न प्रेम जाना, न प्रेम का
मुझे रहस्य पता है, न उसके राज पता हैं। मैं तो ब्रह्म में
ही उलझा रहा! मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि इस पर विवाद खड़ा होगा!
तो भारती ने छह महीने की छुट्टी दी। और कहानी बड़ी प्रीतिकर है, कि शंकराचार्य क्या करें! मैं तो मानता हूं कि यह कहानी कल्पित है। और बाद
में कमजोर पंडितों ने ईजाद की होगी। मेरे हिसाब से तो शंकराचार्य हिम्मत के आदमी
थे, बहुत हिम्मत के आदमी थे। इसलिए मेरे हिसाब में तो यह है
कि वे छह महीने जरूर किसी वेश्या के पास जाकर रहे होंगे। और कोई उपाय नहीं है
जानने का।
लेकिन हिंदू कैसे मानें यह? तो उन्होंने एक कहानी
गढ़ी कि एक राजा मर रहा था, तो उस मरते राजा के...वह तो मर ही
गया; उसकी आत्मा निकल गई--जल्दी से उसकी देह में घुस गए।
उनकी आत्मा राजा की देह में घुस गई! अब क्या-क्या जाल बनाने पड़ते हैं, सीधी-सादी बात को हल करने के लिए! आत्मा उनकी राजा की देह में घुस गई,
और अपनी देह को छोड़ गए वे; एक गुहा में रख गए।
अपने शिष्यों को बता गए कि इसकी सम्हाल रखना। छह महीने बाद मैं आऊंगा। कहीं देह सड़
न जाए! कीड़े-मकोड़े न लग जाएं! हिफाजत रखना चौबीस घंटे। कोई जानवर जंगली खा न जाएं,
नहीं तो मैं लौटूंगा कहां! छह महीने में अनुभव करके लौटता हूं।
तो उनकी आत्मा राजा के शरीर में प्रविष्ट हो गई और छह महीने राजा की
रानी के साथ उन्होंने भोग किया!
अब इतना जाल फैलाना, सीधी-सादी बात को--झूठ के
इर्दगिर्द खड़ा करना सत्य को! और मामले में क्या फर्क पड़ता है! आखिर आत्मा ने छह
महीने स्त्री का भोग किया ही। अब देह अपनी थी कि देह दूसरे की थी, इससे क्या फर्क पड़ता है! देह अपनी है ही नहीं। अरे देह तो मिट्टी है। फिर
मिट्टी किसकी थी? अपनी थी, कि और की थी,
इससे क्या फर्क पड़ता है? चलो, कहानी इनकी ही मान लो कि कहानी सही होगी। मगर कहानी मुझे लगता है कि
बेईमानी की है। इस बात को छिपाने के लिए कि शंकराचार्य छह महीने तक किसी स्त्री के
साथ रहे, ताकि काम कला की सारी की सारी व्यवस्था को समझ लें।
इस बात को अगर सीधा-सीधा कहो, तो उनके ब्रह्मचर्य का क्या
हुआ! कमजोर लोग! इनका ब्रह्मचर्य जरा में टूट जाए!
मेरे हिसाब से तो ब्रह्मचारी थे वे; हिम्मत वाले
ब्रह्मचारी थे। और उनकी ब्रह्मचर्या इतनी प्रतिष्ठित थी कि क्या चिंता थी! छह
महीने एक स्त्री के साथ रह लिए होंगे। ऐसे कहीं कुछ टूटता है ब्रह्मचर्य!
ब्रह्मचर्य क्या कोई इतना छोटा-मोटा-कच्चा मिट्टी का घड़ा है कि जरा बरसा हो गई,
कि बह गया! ब्रह्मचर्य तो ध्यान से उपलब्ध होता है। वे अपने ध्यान
में तल्लीन रहे होंगे। और इस स्त्री के साथ उन्होंने देह की सारी की सारी
संभावनाओं की तलाश की, खोज की। जो आदमी छह जन्मों में कर पाए,
वह छह महीने में किया। चौबीस घंटे डूबे रहे होंगे। फिर लौटे। फिर
भारती को उन्होंने विवाद में हराया। तो भारती भी उनकी शिष्या हो गई।
अदभुत लोग थे। मंडन मिश्र ने निर्णय दिया कि भारती हार गई। भारती ने
निर्णय दिया कि मंडन मिश्र हार गए! दोनों बूढ़े थे; शंकराचार्य तो बिलकुल
तीस साल के जवान लड़के थे! दोनों उनके चरणों में गिरे और दीक्षित हुए। दोनों ने
संन्यास लिया।
यह हिम्मतवार समय था। ये जानदार लोग थे। और ये आज के लोग हैं! ये जैन
मुनि भद्रगुप्त! और ये स्वामी हरिस्वरूप दास! और अभी और आएंगे। अभी तो शुरुआत है।
जब तक मैं कच्छ पहुंचूंगा नहीं, तब तक और भी अभी कई प्रतिभाएं
प्रकट होंगी! ये सब गोबर-गणेश हैं! एक तो गणेश--और फिर गोबर!
मुकेश! ऐसा मत सोचो कि धर्म और राजनीति विरोधी नहीं हैं। वे तो विरोधी
हैं ही। इसलिए तो मेरा विरोध हो रहा है। ये सब राजनैतिक लोग हैं। राजनीतिज्ञ तो
राजनीतिज्ञ हैं ही, ये तथाकथित तुम्हारे धर्मगुरु, पंडित-पुरोहित--ये
सब राजनीतिज्ञ हैं। यह सब राजनीति का ही जाल है।
मेरा राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। मेरा तो शुद्ध व्यक्ति को
कैसे आत्मज्ञान हो, बस उतनी ही बात से संबंध है। इसलिए मेरे संन्यासियों
को कुछ लेना-देना नहीं है। न मेरे संन्यासी किसी को वोट देने जाते हैं...। पता ही
नहीं चलता मेरे संन्यासी को--कब चुनाव आया, कब चुनाव चला
गया! कौन जीता, कौन हारा--किसी को कुछ लेना-देना नहीं है।
लेकिन उनको बेचैनी है।
मुझे तो इन लोगों के नाम भी पता नहीं हैं, कि कौन हैं स्वरूपदास जी! ये कौन हैं भद्रगुप्त जी! लेकिन इनको इतनी
बेचैनी मालूम हो रही है कि जरूर मेरा तीर--मैंने चलाया भी नहीं है--और इनकी छाती
में चुभ गया है। इसको तो शिकार कहते हैं! यही शिकार है।
चीन की प्रसिद्ध कथा है कि एक बहुत बड़ा शिकारी था। उसने अपने सम्राट
से कहा कि अब मैं चाहता हूं कि आप घोषणा कर दें कि मैं पूरे चीन का प्रथम शिकारी
हूं। मुझसे बड़ा कोई धुनर्विद नहीं है। अगर कोई हो, तो मैं चुनौती लेने
को तैयार हूं।
सम्राट भी जानता था कि उससे बड़ा कोई धनुर्विद नहीं है। घोषणा करवा दी
गई, डुंडी पिटवा दी गई सारे साम्राज्य में कि अगर किसी को चुनौती लेनी हो,
तो चुनौती ले ले। नहीं तो घोषणा तय हो जाएगी कि यह व्यक्ति राज्य का
सबसे बड़ा धनुर्धर है।
एक बूढ़े फकीर ने आकर कहा कि भई, इसके पहले कि घोषणा
करो, मैं एक व्यक्ति को जानता हूं, जो
चुनौती तो नहीं लेगा, उसको शायद तुम्हारी घोषणा पता भी नहीं
चली, क्योंकि वह दूर पहाड़ों में रहता है। उसको पता ही नहीं
चलेगा कि तुम्हारी डुंडी वगैरह पिटी। वहां तक कोई जाएगा भी नहीं। और वह अकेला
एकांत में वर्षों से रहता है। और मैं लकड़हारा हूं और उस जंगल से लकड़ियां काटता था,
जब जवान था। मैं जानता हूं कि उसके मुकाबले कोई धनुर्विद नहीं है।
इसलिए इसके पहले कि घोषणा की जाए, इस धनुर्विद को कहो कि जाए,
उस फलां-फलां बूढ़े को खोजे। अगर वह बूढ़ा जान जाए कि यह धनुर्विद है,
तो ही समझना। नहीं तो यह कुछ भी नहीं है।
वह धनुर्विद गया उस बूढ़े की तलाश में। बड़ी मुश्किल से तो उस पहाड़ पर
पहुंच पाया। एक गुफा में वह बूढ़ा था। बहुत वृद्ध था--कोई एक सौ बीस वर्ष उसकी उम्र
होगी। कमर उसकी झुक गई थी बिलकुल। झुक कर चलता था। यह क्या धनुर्विद होगा! पर आ
गया था इतनी दूर, तो उसने कहा कि महानुभाव, मैं
फलां-फलां व्यक्ति की तलाश में आया हूं। निश्चय ही आप वह नहीं हो सकते, क्योंकि आपकी देह देखकर ही लगता है कि आप क्या धनुष उठा भी नहीं सकेंगे!
धनुर्विद आप क्या होंगे! आप कमर सीधी कर नहीं सकते। आपकी कमर ही तो प्रत्यंचा हुई
जा रही है! तो जरूर कोई और होगा। मगर आपसे पता चल जाए शायद। आप इस पहाड़ पर रहते
हैं। जानते हैं आप यहां कोई फलां नाम का धनुर्विद?
वह बूढ़ा हंसा। उसने कहा कि वह व्यक्ति मैं ही हूं। और तुम चिंता न करो
मेरी कमर की। और तुम यह भी चिंता मत करो कि मैं हाथ में धनुष ले सकता हूं या नहीं।
धनुष जो लेते हैं, वे तो बच्चे हैं। मैं तो बिना धनुष हाथ में लिए,
और शिकार करता हूं।
वह तो आदमी बहुत घबड़ाया। उसने कहा कि मार डाला! बिना धनुष-बाण के कैसे
शिकार? उसने कहा, आओ मेरे साथ।
वह बूढ़ा उसको लेकर चला। वह गया एक पहाड़ के किनारे जहां एक चट्टान दूर
खड्ड में निकली थी, कि उस चट्टान से अगर कोई फिसल जाए, तो हजारों फीट का गङ्ढ था, उसका पता ही नहीं चलेगा।
उसका कचूमर भी नहीं मिलेगा कहीं खोजे से! हड्डी-हड्डी चूरा-चूरा हो जाएगी। वह बूढ़ा
चला उस चट्टान पर, और जाकर बिलकुल किनारे पर खड़ा हो गया।
उसकी अंगुलियां चट्टान के बाहर झांक रही हैं पैर की। और कमर उसकी झुकी हुई! और
उसने इससे कहा कि तू भी आ जा।
यह तो गिर पड़ा आदमी वहीं! यह तो उस चट्टान पर खड़ा हुआ, तो इसको चक्कर आने लगा। इसने नीचे जो गङ्ढा देखा, इसके
हाथ-पैर कंपने लगे। और वह बूढ़ा अकंप वहां चट्टान पर सधा हुआ खड़ा है। आधे पैर बाहर
झांक रहे हैं! अब गिरा, तब गिरा!
इसने कहा कि महाराज, वापस लौट आओ! मुझे हत्या का
भागीदार न बनाओ!
उसने कहा तू, फिक्र ही मत कर। तू कैसा धनुर्धर है! तुझे अभी मृत्यु
का डर है? तो तू क्या खाक धनुर्धर है। और तू कितने पक्षी मार
सकता है अपने धनुष से? देख ऊपर आकाश में पक्षी उड़ रहे हैं।
उसने कहा, अभी मैं कहीं नहीं देख सकता। इस चट्टान पर इधर-उधर
देखा; कि गए! इधर मैं धनुष भी नहीं उठा सकता। और निशाना
वगैरह लगाना तो बात ही दूर है! मेरी प्रार्थना है कि कृपा करके वापस लौट आइए।
यह तो गया भी नहीं उतनी दूर तक!
उस बूढ़े ने कहा कि देख। मैं न तो धनुष हाथ लेता हूं, न बाण; लेकिन यह पूरी पक्षियों की कतार मेरे देखने
से नीचे गिर जाएगी। और उसने पक्षियों की तरफ देखा और पक्षी गिरने लगे।
यह धनुर्विद उसके चरणों में गिर पड़ा और कहा कि मुझे यह कला सिखाओ। यह
क्या माजरा है! तुमने देखा और पक्षी गिरने लगे!
उसने कहा, इतना विचार काफी है। अगर निर्विचार होओ, तो इतना विचार काफी है। इतना कह देना कि गिर जा, बहुत
है। पक्षी की क्या हैसियत कि भाग जाए! भाग कर जाएगा कहां?
वर्षों वह धुनर्विद उसके पास रहा। निर्विचार होने की कला सीखी। भूल ही
गया धनुष-बाण। यहां धनुष-बाण का कोई काम ही न था। और जब निर्विचार हो गया, तो उसने धनुष-बाण तोड़ कर फेंक दिया। सम्राट से जा कर कहा कि बात ही छोड़
दो। जिस आदमी के पास मैं होकर आया हूं, उसको पार करना असंभव
है। हालांकि थोड़ी-सी झलक मुझे मिली। बस, उतनी मिल गई,
वह भी बहुत है। धनुष-बाण, मेरे गुरु ने कहा है,
कि बच्चों का काम है। जब कोई सचमुच धनुर्धर हो जाता है, तो धनुष-बाण तोड़ देता है। और जब कोई सचमुच संगीतज्ञ हो जाता है, तो वीणा तोड़ देता है। फिर क्या वीणा पर संगीत उठाना, जब भीतर का संगीत उठे!
मुकेश भारती! मैं शिकारी ही हूं। मगर कोई धनुष-बाण लेकर नहीं चलता। और
तुम देख रहे हो--पक्षी गिरने लगे! कहां कच्छ में गिर रहे हैं! अभी मैंने नजर भी
नहीं उठाई। अभी दरवाजे के बाहर भी नहीं गया--और कच्छ में पक्षी गिर रहे हैं!
राजनीतिज्ञ और धर्म गुरु और सब तरह के लोगों को एकदम तहलका मच गया है!
कच्छ में भूकंप आ गया है! अभी मैं गया नहीं हूं। जब जाऊंगा, तब तुम देखना! तुम सब साक्षी रहोगे कि इसको ही शिकार करने की कला कहते
हैं।
मगर स्मरण रखना कि धर्म और राजनीति परस्पर विरोधी आयाम हैं। लेकिन
तथाकथित धर्म जो तुम्हें दिखाई पड़ते हैं दुनिया में, वे धर्म नहीं हैं।
धर्म तो किसी सदगुरु के जीवन में होता है--मस्जिदों में नहीं, मंदिरों में नहीं। शास्त्रों में नहीं। सिद्धांतों में नहीं। जब बुद्ध
श्वास लेते हैं, उसमें धर्म होता है। महावीर चलते हैं,
उसमें धर्म होता है। कृष्ण बांसुरी बजाते हैं, उसमें धर्म होता है। जीसस सूली पर प्रभु से प्रार्थना करते हैं--इन सब को
क्षमा कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते, ये क्या कर रहे हैं--उसमें धर्म होता है।
धर्म तो जीवित व्यक्ति में होता है--मुरदा शास्त्रों में नहीं, मुरदा मूर्तियों में नहीं। और ये सब मंदिर मुरदा हैं। इनमें पत्थर पूजे जा
रहे हैं। और जो पत्थरों को पूजते हैं, वे पत्थरों से गए-बीते
हो जाते हैं। उनकी खोपड़ी में सिर्फ कंकड़-पत्थर ही होते हैं, और
कुछ भी नहीं। उन्हें हीरों का कुछ पता नहीं है।
चलेंगे कच्छ। उनको हीरों की खबर तो देनी ही होगी। कुछ पक्षी तो मारने
ही होंगे। और यह मारना कुछ ऐसा है कि इधर मारते हैं और उधर जीलाते हैं। यूं मारा--और
यूं जिलाया! तभी यह कला पूरी होती है।
धर्म मृत्यु भी है और पुनर्जीवन भी। अहंकार मरे--तो आत्मा का अभ्युदय
होता है। और ये सब अहंकार हैं, जो पीड़ित हो गए हैं। चलेंगे। इन
अहंकारों को मिटाना होगा। इन अहंकारों को मिटाना ही इन व्यक्तियों के ऊपर करुणा
है।
दूसरा प्रश्न: भगवान, मैं बरसों से आपको सुनता हूं और सदा आप पर प्रेम भी बहुत उमड़ आता है और
अनुभव करता हूं कि आपकी अनुकंपा से मेरे मन पर संस्कार और धारणाओं का दबाव भी नहीं
रहा। लेकिन फिर भी ऐसा लगता है कि मेरा व्यक्तित्व पूरी तरह खुला और खिला नहीं है।
कहीं न कहीं घुटन शेष है। मुझे यह स्पष्ट बोध नहीं है। इसलिए आप से निवेदन हैं कि
आप ही समझाएं कि मेरा मूल रोग क्या है?
प्रेमतीर्थ!
मूल रोग अलग-अलग नहीं होते। मूल रोग तो एक ही है। और जो रोग अलग-अलग
होते हैं, वे मूल नहीं होते। हमारे भेद पत्तों के होते
हैं--जड़ों के नहीं होते। कोई इस तरह से बीमार है, कोई उस तरह
से बीमार है। किसी की छाती पर कुरान का वजन है; किसी की छाती
पर गीता का वजन है। किसी की छाती पर हनुमानजी बैठे हैं; किसी
की छाती पर गणेशजी बैठे हैं! वजन अलग-अलग हैं, मगर छाती दबी
है। और दबाव ऐसे हैं कि तुम बौद्धिक रूप से तो मेरी बातें समझ लेते हो...।
मैं तुम्हारे प्रेम को जानता; तुम्हारे मेरे प्रति
लगाव को जानता। और तुमने बड़े समर्पण से मेरी बातों को सुना है। मगर सदियों के
संस्कार गहरे चले जाते हैं, बहुत गहरे चले जाते हैं। वे
तुमसे कहीं ज्यादा गहरे हो जाते हैं।
तुम्हारा चैतन्य का जगत बहुत छोटा है। मनोविज्ञान के हिसाब से अगर
हमारे चेतना के दस खंड किए जाएं, तो एक खंड मात्र चेतन है और नौ
खंड अचेतन हैं। तुम सुनते हो मुझे, वह चेतन खंड से। वे नौ
खंड जो अचेतन हैं, उनमें इतना कूड़ा-कर्कट भरा है! और
तुम्हारे ही नहीं, सबके अचेतन खंडों में वैसा ही भरा हुआ है।
उसका तुम्हें पता भी नहीं होता। लेकिन इतना भी कुछ कम नहीं है; धन्यभागी समझो अपने को कि तुम्हें स्पष्ट हो रहा है कि मुझे स्पष्ट बोध
नहीं है कि माजरा क्या है! मामला क्या है? मैं पूरा खुला हुआ
और खिला हुआ क्यों अनुभव नहीं कर रहा हूं! यह शुरुआत है।
जिसको यह अनुभव शुरू हो गया कि कहीं घुटन है, वह शीघ्र ही खोज लेगा द्वार-दरवाजे, जिनको खोल लेगा
और खुली हवा आने लगेगी। मगर अभागे तो वे लोग हैं, जिनको यह
भी पता नहीं है कि वे घुट रहे हैं! कि सड़ रहे हैं! उन्होंने अपनी सड़ांध को भी
सुगंध समझ लिया है! अभागे तो वे लोग हैं, जो अपनी मूढ़ता को
अपना ज्ञान समझे बैठे हैं। बदकिस्मती तो उनकी है, कि जो अपनी
जंजीरों को आभूषण समझे हैं। और अगर तुम उनकी जंजीरें तोड़ो, तो
लड़ने को, मरने को तैयार हैं! जो बासे और उधार को छाती से
लगाए बैठे हैं! मुरदा लाशों को ढो रहे हैं। और सोच रहे हैं: इससे मुक्ति मिल
जाएगी! अगर तुम उनसे कहो कि लाश ढो रहे हो, तो वे मरने-मारने
को उतारू हैं! वे यह सुनना नहीं चाहते। उन्हें डर लगता है कि कहीं यह बात सच ही न
हो! कहीं हम लाश ही न ढो रहे हों।
अगर तुम उनसे कहो कि तुम्हारा धर्म झूठा है--फौरन वे तलवार खींचने को
तैयार हैं! कृपाण निकल आती है। अगर तुम उनसे कहो, तुम्हारा प्रेम झूठा
है, तो वे दुश्मन हो जाते हैं सदा के लिए तुम्हारे।
और मजा यह है कि साधारणतः आम आदमी का सब कुछ झूठा है। होगा ही। नहीं
तो क्यों इतनी पीड़ा? क्यों इतना संताप? क्यों इतनी
चिंता? क्यों इतनी उदासी? क्यों यह
अमावस की रात? जीवन पूर्णिमा क्यों नहीं बनता?
आइए प्यार करें।
एक अदद लहराती साड़ी
एक किलो नमकीन चेहरा
पांच सौ ग्राम मदमाती चाल
पाव भर नाज नखरे
चार आने की मुस्कुराहट
इन सबकी खिचड़ी पका कर
आइए प्यार करें।
दोस्त से मांगा गया एक सूट
उधार से हासिल एक स्कूटर
थोड़ी-सी दादा टाइप बुलंदी
चंद फिल्मी गाने
रात भर जाग कर रटी गई
दो चार शायरी
इन सबका भुरता बना कर
आइए प्यार करें।
ऐसा चल रहा है! सब उधार। सब बासा। सब कचरा।
मगर तुम्हें दिखाई पड़ना शुरू हो गया कि घुटन है। खिलापन नहीं, खुलापन नहीं; स्पष्ट बोध भी नहीं है--यह अच्छा
लक्षण। यह पहली किरण। यह जानना कि मैं अज्ञान में हूं--ज्ञान की तरफ पहला कदम।
सिर्फ अज्ञानी ही मानते हैं कि वे ज्ञानी हैं। अज्ञानी तो अखंड
श्रद्धा रखते हैं अपने ज्ञान पर! वे तो टस से मस नहीं होते! वे तो कस कर अपने को
बांधकर रखते हैं; वे ऐसी बात ही नहीं सुनना चाहते, जिससे उनकी श्रद्धा डगमगा जाए। और क्या खाक वह श्रद्धा है, जो डगमगाती हो? श्रद्धा ही नहीं।
तुम्हारे चेतन मन से तो अवरोध छटा है, धारणाएं गिरी हैं,
लेकिन तुम्हारे अचेतन मन में बहुत-सा कचरा भरा पड़ा है! जैसा सबके मन
में भरा पड़ा है। अब उस कचरे को भी निकालना होगा। मगर उसमें डर लगता है। उसमें डर
लगता है, क्योंकि वही हमारा भराव है। ऐसा लगता है कि कहीं उस
सब को निकाल दिया, तो बिलकुल गङ्ढा ही न हो जाए भीतर! भीतर
सब खाली न हो जाए!
हमारा गणित ऐसा है, हमें सिखाया यह गया है कि कुछ न
हो, इससे तो कुछ भी हो, वह अच्छा! न
कुछ से तो कुछ भी अच्छा! शून्य से हमें बहुत डराया गया है। रिक्तता से बहुत घबड़ाया
गया है।
मुझे मेरे कमरे में कुछ भी रखना पसंद नहीं। जो मजबूरी में रखना पड़ता
है--अब एक बिस्तरा रखना पड़ता है, एक कुर्सी रखनी पड़ती है! अन्यथा
मेरा कमरा बिलकुल खाली होता है। जब कोई कभी पहली दफे मेरे कमरे में आता है,
तो चौंक कर देखता है। वह कहता है, अरे,
कमरे में कुछ भी नहीं! उसे ऐसा सदमा लगता है! मैं उसे कहता हूं,
कमरे का मतलब ही यह होता है कि जहां खालीपन हो, नहीं तो रहोगे कैसे! अंग्रेजी में रूम शब्द का अर्थ ही खालीपन होता है।
कमरे का मतलब ही यह है कि जो खाली हो।
मैं एक धनपति के घर में सागर में रुका करता था। बिड़ी के भारत के बड़े
से बड़े उद्योगपतियों में वे एक हैं। अब तुम समझ सकते हो कि बिड़ी बेच-बेच कर जिसने
धन कमाया हो, उसकी अकल क्या होगी! बिड़ी बनवा-बनवा कर जिसने धन
इकट्ठा किया हो, उसका संस्कार कितना होगा! सो बिड़ी-भांज के
संस्कार हैं उनके। धन तो बहुत है, अटूट है, जरूरत से ज्यादा। समझ में नहीं आता कि क्या करें उसका।
उन्होंने मुझे उनके महल में जो सबसे सुंदर कमरा है, उसमें ठहराया। मैंने कहा कि पहले उसका सब कचरा बाहर करो।
उन्होंने कहा, मतलब! कचरा कह रहे हैं आप!
उस कमरे में रहने की जगह ही नहीं। उसमें चलना-फिरना मुश्किल! इतना
फर्नीचर! तरहत्तरह का फर्नीचर! क्योंकि बाजार में जो भी फर्नीचर आ गया, नई फैशन जिसकी आई, वही खरीद कर आ गया! पुराना तो
हटता ही नहीं, वह तो जमा ही है, नया भी
चला जाता है! और वे बंबई, कलकत्ता और दिल्ली और लंदन और
न्यूयार्क जाते हैं, तो जहां जो मिला, वह
सब भरता जाता है। रेडियो भी, टेलीविजन भी। रेडियो भी
तीन-चार!
मैंने कहा, कोई मेरी खोपड़ी को खराब करना है! ये तीन-चार रेडियो
का क्या करना है यहां? फोन--कमरे में ही नहीं--बाथरूम में!
मैंने कहा, हटाओ, बेवकूफी! मुझे नहाने
भी दोगे कि नहीं!
उन्होंने कहा कि अरे, यहां तो मेरे घर जो भी आते हैं,
वे बड़े प्रसन्न होते हैं कि आपने भी गजब का इंतजाम कर रखा है! फोन
बाथरूम में भी! कि वहीं बाथरूम में ही, संडास में बैठे-बैठे
फोन कर रहे हैं!
मैंने कहा, मैं एक काम एक ही बार में करता हूं। यह दो-दो काम मैं
एक साथ नहीं कर सकता। तुम यह हटाओ यहां से। कोई की घंटी बजे यह मुझे बरदाश्त नहीं।
कि मैं बाथरूम में लेटा हूं, स्नान कर रहा हूं और कोई घंटी
बजाने लगे! मैंने कहा, मुझे कमरे में भी नहीं चाहिए। मैं
किसी का फोन वगैरह लेता ही नहीं।
मैंने कहा, तुम यह सब हटाओ, तो ही मैं कमरे
में घुसूंगा। और मुझे टेलीविजन बिलकुल पसंद नहीं है। यहां से तुम हटा ही दो। मुझे
कोई अपनी आंखें खराब करनी हैं! कोई मुझे कैंसर...!
अरे, उन्होंने कहा, आप भी क्या बातें
कर रहे हैं! टेलीविजन--और कैंसर!
मैंने कहा, टेलीविजन कैंसर के मूल कारणों में से एक है। क्योंकि
टेलीविजन ने पहली दफा एक उपद्रव खड़ा कर दिया है कि तुम प्रकाश के स्रोत में सीधा
देखते हो। इससे तो फिल्म देखना बुरा नहीं है। फिल्म बहुत से बहुत तुम्हारी आंख
खराब कर सकती है। और ज्यादा नहीं। क्योंकि फिल्म में प्रकाश का स्रोत पीछे होता
है। परदे पर प्रकाश नहीं होता है; प्रकाश की केवल छाया मात्र
होती है। टेलीविजन में तो...तुम टेलीविजन में प्रकाश के स्रोत में देखते हो,
जहां से बिजली सीधी तुम्हारी आंखों में आ रही है। वह बिजली तुमको
मार डालती है। और लोग पांच-पांच, छह-छह घंटे टेलीविजन देख
रहे हैं! उनकी आंखों के रेशे जल जाते हैं, जो कि कैंसर का
कारण बनते हैं। आंख का कैंसर आज अमरीका में जोर से फैल रहा है। छोटे-छोटे बच्चों
को कैंसर हो रहा है। और कारण टेलीविजन है। ऐसा आग में जैसे अपने को जला रहे हो
व्यर्थ।
और मैंने कहा, इतना फर्नीचर! कोई मेरे हाथ-पैर तुड़वाओगे! कि अगर रात
को उठकर मुझे जाना भी हो बाथरूम, तो बिना बिजली जलाए नहीं जा
सकता। अपने की कमरे में ऐसे चलना पड़े, जैसे कोई चोर चल रहा
हो किसी और दूसरे के कमरे में! चुकता चीजें हटा दो। मुझे चाहिए सिर्फ...एक बिस्तर
और एक कुर्सी बहुत है।
वे कहने लगे, जो भी आता है, वही इस फर्नीचर
की प्रशंसा करता है। इसमें कई तो एंटीक चीजें हैं। यह रानी एलिजाबेथ के जमाने का
टेबल है। यह फलाने जमाने का, यह विक्टोरिया के जमाने का...!
मैंने कहा, मुझे न विक्टोरिया से कुछ लेना-देना है--न एलिजाबेथ
से। सब मर-मरा गए। ये फर्नीचर भी सब मुरदा। इसको हटाओ। मुझे तो सिर्फ एक ढंग की
कुर्सी दे दो जो आरामदायक हो। मुझे एंटीक से क्या लेना-देना है!
लोगों के कमरे ही कचरे से नहीं भरे हुए हैं। इसी तरह उनका भीतर का
चित्त भी कचरे से भरा हुआ है। खालीपन से उनको डर लगता है। रिक्तता से घबड़ाहट पैदा
होती है।
और प्रेमतीर्थ! वही अड़चन हो रही है। तुम्हें रिक्त होना सीखना पड़ेगा।
तुम्हें शून्य होना सीखना पड़ेगा।
तुमने मुझे प्रेम किया। अब मेरे प्रेम में इतनी हिम्मत भी करो कि
शून्य हो जाओ। अब ध्यान में उतरो।
एक आदमी अपनी पत्नी से बोला, श्रीमतीजी, मेरे मित्र घर आ रहे हैं। तुम जल्दी से यह गुलदान, टाइम
पीस, और अन्य सामान ड्राइंग रूम से उठा लो।
पत्नी ने हैरान होकर कहा, अरे, वह क्यों? क्या आपके मित्र कोई चोर हैं?
नहीं, पति ने कहा, बिलकुल नहीं। वे
चोर नहीं हैं। मगर वे अपनी चीजें पहचान लेंगे!
तुम भरे हो क्या-क्या! कहीं गीता भरी, कहीं कुरान भरा,
कहीं वेद भरे। जमाने भर का कूड़ा-कर्कट, जिससे
तुम्हें कुछ लाभ नहीं हुआ, लेकिन भीतर भरा हुआ है। बस,
इतना अच्छा लगता है कि सामान है; खाली नहीं
है।
संन्यासी को पहली कला सीखनी पड़ती है--खाली होने की, रिक्त होने की, शून्य होने की। तुम शून्य हो जाओ और
तुम खिल जाओगे। जो शून्य हुआ, वह पूर्ण हुआ। और जो शून्य
होने को राजी है, उसके भीतर परमात्मा उतर आता है।
लेकिन लोग शून्य होने को राजी नहीं हैं। हर तरह के उपद्रव करने को
राजी हैं! जो भी चीज भर दे, उसके लिए ही राजी हैं! खाली नहीं बैठ सकते। खाली घड़ी
भर नहीं बैठ सकते। कुछ न कुछ खटर-पटर करते रहेंगे। खिड़की खोलेंगे, बंद करेंगे। अखबार उठाएंगे, रखेंगे। रेडियो खोलेंगे,
पंखा चलाएंगे--फिर बंद कर देंगे। कुछ न कुछ करते रहेंगे।
मैं ट्रेन में सफर करता था, बीस वर्षों तक सफर
करता रहा, तो मुझे बड़े-बड़े अनूठे अनुभव हुए। कभी छत्तीस घंटे
सफर करनी पड़ती मुझे, तो किसी सज्जन को मेरे कमरे में मेरे
साथ रहना पड़ता। मैं उन्हें पहले से ही हताश करता, ताकि वे
बातचीत न करें, क्योंकि छत्तीस घंटे कौन सिर पचाएगा! तो
हां-हूं करके जवाब देता। वे एक पूछते, मैं और भी जवाब दे
देता, ताकि आगे के भी आप ये उत्तर ले लो! जैसे वे पूछते कि
आप किस गांव में रहते हो। तो मैं गांव का पता देता। जिला बता देता। प्रदेश बता
देता। और मेरे पास ये-ये और गांव हैं!
वे कहते, हम आपसे सिर्फ आपके गांव की पूछ रहे हैं!
भइया, तुम आगे यह भी पूछोगे...। मेरे पिताजी का यह नाम है।
घर में यह धंधा होता है। इतने भाई-बहन हैं। मैं सब बताए देता हूं, ताकि झंझट खतम! एक दफे छत्तीस घंटे का मामला निपटा लो तुम अभी!
सब उत्तर दे देता। वे एक पूछते कि आप कहां जा रहे हो! मैं उनको सब बता
देता: कहां से आ रहा हूं, कहां जा रहा हूं। पूरी जिंदगी का उनको संक्षिप्त-सार
दे देता कि आप निश्चिंत हो जाओ। अब दुबारा आप न पूछना। अब छत्तीस घंटे शांति से हम
रह सकते हैं!
वे कहते, हम तो सोचे थे, प्रसन्न हुए थे
कि चलो भई, कोई यात्री, सहयात्री मिल
गया! तो मतलब छत्तीस घंटे अब हमको ऐसी चुप्पी में गुजारने पड़ेंगे!
मैंने कहा, आपको जो करना है, आप कर सकते
हैं!
थोड़ी बहुत देर तो वे संकोच रखते, कि कैसे कुछ भी करें,
अंट-शंट करें। सामने आदमी बैठा हो...! कोई न हो तो आदमी देखते अपने
बाथरूम में फिल्मी गाना गुनगुनाएंगे; मुंह बिचकाएंगे--आईने
के सामने खड़े होकर! क्योंकि कोई है ही नहीं, तो डर क्या! मगर
जब कोई सामने ही बैठा हो...! तो मैं अकसर आंख बंद करके लेट जाता, ताकि इनको जो भी करना हो, करें। ऐसा बीच-बीच में आंख
खोल कर देख लेता! जब कभी बीच में आंख खोलकर देखता, वे जल्दी
सम्हल कर...!
छत्तीस घंटे में क्या-क्या तमाशा नहीं देखना पड़ा मुझे! खिड़की खोलेंगे, बंद करेंगे। सूटकेस खोलेंगे, कपड़े फिर से जमा लेंगे।
वही अखबार फिर पढ़ने लगेंगे! फिर रख देंगे! फिर नौकर को घंटी बजाकर बुलाएंगे कि चाय
ले आओ। सोडा ले आओ। फलाना करो, ढिकाना करो! मगर छत्तीस
घंटे--गुजारे नहीं गुजर रहे हैं! छत्तीस जनम जैसे लगे जा रहे हैं! प्राण निकले जा
रहे हैं उनके!
और मुझे उन पर दया भी आती, हंसी भी आती। और उनको
मुझ पर क्रोध आता! क्योंकि मैं मस्ती से लेटा हूं, शांति से!
और उनका तमाशा देख रहा हूं।
वे कहते, आपको घबड़ाहट नहीं होती?
मैंने कहा, घबड़ाहट क्या हो! मुफ्त का खेल देख रहा हूं, घबड़ाहट क्या हो! अरे, सर्कस में भी ऐसे करतब देखने
को नहीं मिलते, जो आप दिखा रहे हैं! और आपको भी मालूम कि यह
सूटकेस आप बीस दफे खोल चुके! काहे के लिए बीस दफे खोले? निकाल
लो एक दफे जो निकालना हो! या खोलकर ही रख लो इसको अपने पास! सो देखते रहे। बार-बार
क्या खोलना, बंद करना! और यह खिड़की क्यों आप बार-बार खोल रहे
हैं, बंद कर रहे हैं? अखबार कितनी दफे
पढ़ चुके? और ठेठ शुरू में! ब्रुकबांड टी का जहां ऊपर
विज्ञापन होता है, वहां से लेकर आखिर तक कि संपादक कौन है,
वहां तक कितनी दफे पढ़ चुके! फिर-फिर उठा लेते हो इसी अखबार को! तो
तमाशा देख रहा हूं। मुझे तो मजा आ रहा है, कि आदमी की यह
क्या गति है!
खाली होना सीखो प्रेमतीर्थ। खटपट कम करो। जितनी देर मौका मिल सके, उतनी देर सन्नाटे में बैठो।
और तैयारी कर लो, क्योंकि जल्दी ही तुम्हें आना
पड़ेगा कम्यून में। नए कम्यून में तुम्हें आना ही पड़ेगा, क्योंकि
तुम्हारी पत्नी आ ही चुकी समझो!
प्रेमतीर्थ हैं नीलम के पति। नीलम तो आ ही चुकी है। वह सिर्फ राह देख
रही है कि मैं कहूं कि बस, अब जाना नहीं! और अब ज्यादा देर नहीं है, किसी भी दिन उससे कहूंगा कि अब जाना नहीं। तो तैयारी कर लो। क्योंकि
कम्यून में आनंदित तभी हो सकोगे, जब पूरे खिले होओगे।
और भारतीय मन जरूर बहुत कुंठाओं से ग्रस्त है। अजीब-अजीब कुंठाओं से
ग्रस्त है! अजीब-अजीब ज्ञान से परेशान हैं! तुम सब लुधियाना में ही छोड़ आओ। सब
कूड़ा-कर्कट वहीं रख आना। यहां तो बिलकुल मेरे पास खाली आ जाने की तैयारी करो। उसके
पहले थोड़ा अभ्यास कर लो, तो अच्छा लगेगा। क्योंकि जिस नई जगह में मैं कम्यून
बनाना चाह रहा हूं, जहां बनेगा कम्यून, वहां सन्नाटा होगा, जंगल होगा, झील होगी, और लंबा विस्तार होगा कि दूर-दूर तक,
तुम मीलों तक किसी को देख न पाओ।
तो उसकी तैयारी करके आ जाओ।
खिलोगे। कोई बाधा नहीं है। जैसे मैं खिला हूं, तो मैं जानता हूं कि कैसे कोई और खिलेगा। सूत्र तो वही है--शून्य होना। और
कोई अड़चन नहीं है।
तीसरा प्रश्न: भगवान,
करके विवाह,
हुआ तबाह
अब हंसी नहीं,
निकलती है आह
अंधा हुआ हूं
सूझती न राह
तुम्हीं बताओ
राह दिखाओ
मुझे मेरे बीबी से बचाओ।
रतनसिंह भारती!
सिंह होकर जब तुम्हारी यह हालत हो रही है...! तुम बीबी को मेरे पास ले
आओ। उसके द्वारा मैं तुमको भी बचा लूंगा। मगर तुम चाहो कि तुम्हारी बीबी से
तुम्हें बचाऊं, तो जरा मुश्किल मामला है! तुम्हारी बीबी को बचाकर
उसके द्वारा तुमको भी बचवा लूंगा। बीबी बची, तो तुम भी बच
जाओगे। लेकिन तुम चाह रहे हो कि तुम बच जाओ--और बीबी से बच जाओ! ऐसा असंभव कार्य न
तो कभी हुआ है, न हो सकता है!
दूसरे शहर से चिड़ियाघर देखने आया एक दल ज्यों ही शेर के पिंजड़े के पास
पहुंचा, शेर ने एक खौफनाक दहाड़ लगाई। दहाड़ इतनी जोरदार थी कि
एक व्यक्ति को छोड़ कर सारा दल बेहोश हो गया। चिड़ियाघर का एक अधिकारी उस व्यक्ति की
ओर प्रशंसा भरी दृष्टि से देखता हुआ बोला, लगता है आप बहुत
निडर हैं!
वह व्यक्ति बोला, जी नहीं। दरअसल में तो रोज-रोज
ऐसी दहाड़ें सुनने का अभ्यस्त हो चुका हूं।
क्या आप भी किसी चिड़ियाघर में काम करते हैं? अधिकारी ने पूछा।
जी नहीं, मैं शादीशुदा हूं, उस आदमी ने
कहा।
लेकिन बीबी से बचना मुश्किल मामला है। एक बीबी से बचा लो, तो तुम दूसरी बीबी के चक्कर में पड़ जाओगे। क्योंकि तुम तो तुम ही रहोगे।
बीमारी बदल जाएगी, और कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। बीमारी जारी
रहेगी। तुम कितनी देर अकेले रह सकोगे?
अकसर लोग विवाह करके सोचते हैं कि करके विवाह, हुआ तबाह। मगर जरा उनको विवाह से मुक्त करवा दो...। अब पश्चिम में तो
सुविधा बहुत हो गई है, तलाक देकर लोग मुक्त हो जाते हैं। मगर
चार-छह महीने भी मुक्त नहीं रहते! फिर विवाह! एक-एक आदमी एक-एक जिंदगी में आठ-आठ,
दस-दस बार विवाह कर रहा है!
कई बार टूटे हैं एक बार और सही
यदि कोई मोह-पाश काम नहीं आए तो
रेशे-रेशे होकर बिखर-बिखर जाए तो
बेवजह हवाओं में गाले मंदारों के
कई बार फूटे हैं, एक बार और सही।
परिचय आकर्षण की, स्नेह की, समर्पण
की
कितनी मुद्राएं हैं छोटे-से दर्पण की
निष्ठुर हैं चंचल छायाएं तो कई प्यार
कई बार झूठे हैं, एकबार और सही।
कुछ ट्रेनें ऐसी भी, द्रुतगामी होती हैं
जो शहरों से शहरों के रिश्ते ढोती हैं
जिनके आगे हम हैं स्टेशन छोटे तो
कई बार छूटे हैं, एक बार और सही।
आदमी एक झंझट से बचता नहीं कि तत्काल दूसरी झंझट ले लेता है। तुम यूं
ही नहीं फंस गए हो। अपने आप फंसे हो। क्योंकि अकेले नहीं रह सकते हो। वही तो
प्रेमतीर्थ से मैं कह रहा था, वही मैं तुमसे कहता हूं। वही
सबसे कहता हूं।
एकांत, मौन, शून्य होने की कला में
निष्णात होओ, नहीं तो यह जाल तो जन्मों से चल रहे हैं। यह
कोई पहला जन्म है तुम्हारा? जनम-जनम हो गए, यही धंधा--गोरखधंधा करते-करते!
नर्स का इंटरव्यू था। डाक्टर ने जिस नर्स का चुनाव किया, उस नर्स से पूछा, आप तनख्वाह क्या लेंगी?
नर्स बोली, यही कोई तीन सौ रुपए।
डाक्टर बोला, अजी तीन सौ रुपए तो मैं आपको आनंद के साथ दूंगा।
नर्स बोली, महाशय, आनंद के साथ तो मैं पांच
सौ रुपए से एक पैसा कम नहीं लूंगी!
कौन फसा रहा हैं तुम्हें? नर्स तो तीन सौ में
ही राजी थी। मगर तुम आनंद के साथ...! तो फिर तो महंगा पड़ ही जाएगा सौदा!
आनंद की झोली फैला रहे हो दूसरों के सामने कि दे दे कोई आनंद! कि है
कोई देने वाला आनंद! तो फिर जो भी तुम्हें आनंद देगा, वह उसका बदला भी लेगा। वह तुम्हें उसका मजा भी चखाएगा, उसका पाठ भी पढ़ाएगा।
और मजा ऐसा है कि पति आनंद की झोली फैलाए हैं पत्नियों के सामने, और पत्नियां आनंद के लिए झोली फैलाई हैं पतियों के सामने। भिखमंगे
भिखमंगों से भीख मांग रहे हैं! फिर क्रोध आता है। क्योंकि न उसको मिलती, न इसको मिलती। मिले कहां से? पास किसी के कुछ हो,
तो कोई दे दे। और जब नहीं मिलता, तो विषाद
पकड़ता है।
और इस देश में और बुरी तरह पकड़ता है। क्योंकि यहां छूटने का भी उपाय
नहीं है। नहीं तो थोड़े दिन में यह भी अकल आ जाती है कि इसमें दूसरा कोई जिम्मेवार
नहीं है, हम ही मूरख हैं! एक स्त्री से बचे कि दूसरी स्त्री के
चक्कर में पड़ेंगे!
असल में यह है सचाई कि एक से बचने के पहले ही आदमी दूसरे चक्कर में पड़
जाता है। दूसरे के चक्कर पड़ता है, तभी एक से बच पाता है!
मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा फजलू पूछ रहा था कि पापा! सरकार आदमियों को
एक ही विवाह करने के लिए क्यों मजबूर करती है?
नसरुद्दीन ने कहा, बेटा, जब
बड़ा होगा, तू समझ जाएगा। आदमी बड़ा कमजोर है। अगर उसको एक ही
विवाह के लिए मजबूर न किया जाए, तो वह अपनी आत्मरक्षा नहीं
कर पाएगा! इतनी स्त्रियां हैं, वह ऐसी ठोकरें खाएगा इधर से
उधर--इस घर से उस घर--न घर का न घाट का; धोबी का गधा हो
जाएगा। उसको एक स्त्री चाहिए, जो उसकी रक्षा करे!
तुम्हारी पत्नी तुम्हें और स्त्रियों से रक्षा करती है। और फिर
स्वभावतः जो रक्षा करेगा, वह फिर मालकियत भी दिखाएगा। वह उसी डंडे से तुम्हारी
रक्षा करती है दूसरों से, उसी डंडे से फिर तुमको भी ठीक करती
है!
और वह भी तुमसे नाराज है। वह भी कुछ प्रसन्न नहीं है। वह भी अपना सिर
ठोंकती रहती है, कि किस दुर्भाग्य के क्षण में इस दुष्ट से बंधन हो
गया! क्योंकि उसके भी सब सुख के सपने टूट गए हैं।
लेकिन दूसरे से सुख के सपने पूरे हो ही नहीं सकते, इस सत्य को समझो। तब फिर कोई नाराजगी नहीं है। फिर बचने का भी कोई सवाल
नहीं है। पत्नी अपनी जगह, तुम अपनी जगह। क्या लेती-देती है!
थोड़ा शोरगुल भी मचाती होगी, तो उसको भी ध्यान बनाओ। सुने
प्रसन्नता से। समभाव रखे। डांवांडोल न हुआ करे। ध्यान को खंडित न होने दिया करे।
हंसकर सुन लिए। पत्नी खुद ही चौंकेगी, जब तुम हंसकर सुनोगे,
कि तुम्हें हो क्या गया है! मैं बेलन लिए खड़ी हूं, और तुम हंस रहे हो!
तुम अपनी प्रसन्नता में खंडन न पड़ने दो किसी चीज से। अगर तुम प्रसन्न
हो सको, आनंदित हो सको, भीतर से--तो
पत्नी खुद ही तुमसे पूछने लगेगी कि राज सीखा कहां से! प्रसन्न उसे भी होना है,
आनंदित उसे होना है। दुखी तुम भी हो, दुखी वह
भी है। दया करो उस पर भी। उसे भी यहां लाओ। तुमने संन्यास का रस लिया है, उसको भी पीने दो।
क्या तुम सुरक्षित उस रात अपने घर पहुंच गए थे?
दूसरे ने उत्तर दिया, नहीं यार। उस रात बड़ी गड़बड़ हो
गई। मैं नशे में चूर चला जा रहा था कि रास्ते में पुलिस वालों ने मुझे पकड़ लिया और
मुझे सारी रात हवालात में बंद रहना पड़ा!
पहला बोला, यार, तुम तो बड़े भाग्यशाली रहे।
मैं तो अभागा ऐसा कि पार्टी से निकल कर सीधा अपने घर पहुंच गया था! फिर मुझ पर जो
गुजरी वह मैं जानता हूं!
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी एक दिन बिगड़ पड़ी उस पर, तो वह भाग गया घर से। सब जगह जाकर उसने खोजा--जहां-जहां उसके अड्डे थे।
कहीं न मिला। रात भर आया भी नहीं, तो पत्नी भी चिंतित हुई।
सुबह से फिर निकली खोजने, तो किसी ने बताया कि हमने उसे वह
गांव में जो सर्कस आया हुआ है, उस तरफ जाते देखा था रात को।
तो वह सर्कस की तरफ गई। सर्कस तो रात को होता है। दिन में सब बंद था।
उसने देखा, तो देखकर चमत्कृत हो गई। बरसात के दिन थे, तो छाता लगाई हुई थी। सो छाते से उसने क्या किया--हुद्दा मारा नसरुद्दीन
को। वह सो रहा था--जो सिंह का पिंजड़ा था, उसके भीतर! सिंह भी
सो रहा था, और नसरुद्दीन उसका तकिया बनाए सो रहे थे! सो उसने
सींकचों के भीतर छाता डाल कर नसरुद्दीन को हुद्दा दिया और कहा कि अरे कायर,
बाहर निकल! घर चल, फिर तुझे बताऊं!
अब यह नसरुद्दीन एक देखो तो एक तरफ तो बहादुर यूं कि सिंह का तकिया
बना कर लेटे हैं! रात और इन्हें कोई जगह मिली नहीं बेचारे को, सो वह सिंह का जो कटघरा था, उसमें घुस कर सो गए! यूं
सिंह से नहीं डरते, और पत्नी इनसे कह रही है--अरे कायर! बाहर
निकल! घर चल, फिर तुझे मजा चखाऊं!
नसरुद्दीन क्या बोले! नहीं जाता? अपना मालिक हूं! जहां
रहना है, वहां रहेंगे! तेरी हो हिम्मत तो भीतर आ जा। वह भीतर
न आए, क्योंकि सिंह! और नसरुद्दीन बोले, देखा! कौन मालिक है, यह आज तय ही हो जाना चाहिए। बोल
चीं, तो घर चलूं! नहीं तो हम नहीं निकलेंगे। अरे यहीं मर
जाएंगे। सिंह ने खाया कि तूने खाया, यहीं मर जाएंगे! और रात
भर जिस शांति से आज सोए हैं, जिंदगी में नहीं सोए।
तुम्हारी तकलीफ क्या है? तुम्हारी तकलीफ यही
है ना कि तुमने अपेक्षाएं की थीं, वे पूरी नहीं हुईं।
अपेक्षाएं की थीं, वह तुम्हारी भूल थी। पत्नी ने भी
अपेक्षाएं की होंगी। पत्नी भी दुखी होगी--तुम ही थोड़े दुखी हो। जब एक व्यक्ति दुखी
होता है; तो दूसरा भी दूसरे पहलू पर दुखी होता है।
तुम्हारी पत्नी क्या कहती है, मुझे पता नहीं। उसे
ले आओ। उसकी भी सुन लूं। क्योंकि यह एक तरफा बात हुई। दूसरी तरफ की बात भी मुझे
पता चलनी चाहिए। तुम्हें पता भी नहीं होगा कि तुम पत्नी के साथ क्या कर रहे हो!
एक साहब ने शाम को अपनी पत्नी से कहा, प्यारी, मैं बहुत जरूरी काम से एक मीटिंग में जा रहा हूं। शायद एक घंटे ही में
वापस आ जाऊं, क्योंकि तुम जानती हो, तुम्हारे
बिना एक क्षण गुजारना भी मुझ पर भारी होता है। लेकिन अब शाम हो गई है, और अगर मीटिंग में बहुत देर हो गई, तो मैं वहीं
मीटिंग रूम में सो जाऊंगा। इस सूरत में किसी चपरासी के हाथ तुम्हें एक चिट्ठी लिख
कर भेज दूंगा, ताकि तुम परेशान न होओ।
पत्नी बोली, चिट्ठी भेजने की आवश्यकता नहीं, उसे मैंने पहले ही आपकी जेब में से निकाल लिया है!
वे चिट्ठी लिख कर रखे ही हुए हैं! और कह रहे हैं, प्यारी, तुम्हारे बिना एक क्षण गुजारने का मन नहीं
होता। तुम्हारे बिना जीने में कोई सार ही नहीं!
तुम क्या कर रहे हो पत्नी के साथ, पता नहीं!
न पति भला व्यवहार कर रहे हैं, न पत्नियां भला
व्यवहार कर रही हैं। और उसका कुल जाल यह है कि विवाह ही एक रोग है। विवाह का मतलब
ही होता है, अपेक्षा से भरे हुए एक दूसरे के साथ बंध जाना
है। निरपेक्ष भाव से एक दूसरे से मैत्री होनी चाहिए, बस।
मांग नहीं--दान। तुम जो दे सकते हो, दे दो। मांगो मत।
प्रेम बेशर्त होना चाहिए। और जब भी प्रेम में कोई शर्त आती है, प्रेम गंदा हो जाता है। और जहां गंदगी आई, सड़ांध आई,
वहां दुर्गंध उठेगी, वहां जीवन विषाक्त होगा।
विवाह ने सारी पृथ्वी को विषाक्त कर दिया है। मेरी, विवाह के संबंध में अलग ही धारणा है। मैं उसे गठबंधन नहीं मानता। अभी तुम
यही कहते हो कि प्रेम-गठबंधन, विवाह-गठबंधन--कि मेरा बेटा और
बेटी प्रणय-सूत्र में बंध रहे हैं! प्रेम मुक्ति होना चाहिए--बंधन नहीं।
विवाह को हम बंधन मानते हैं! विवाह मुक्ति होनी चाहिए। लेकिन यह तभी
हो सकता है, जब तुम्हारा प्रेम ध्यान में परिष्कृत होकर आए,
तो फिर मिट्टी सोना हो जाती है।
दो ध्यानी व्यक्ति ही केवल प्रेम कर सकते हैं और आनंदित हो सकते हैं।
क्यों? क्योंकि वे वैसे ही आनंदित हैं; अकेले भी आनंदित है। न दूसरा हो, तो भी आनंदित हैं।
जो व्यक्ति अपने एकांत में आनंदित है, वह दूसरे के साथ
जुड़कर आनंद को हजार गुना कर लेता है। दोनों का आनंद गुणनफल हो जाता है। कई गुना हो
जाता है।
लेकिन तुम भी दुखी, तुम्हारी पत्नी भी दुखी--तो फिर
दुख का गुणनफल हो जाता है। जो भी तुम लेकर आते हो, उसी का
गुणनफल हो जाता है।
तुम पूछ रहे हो कि मुझे मेरी बीबी से बचाओ!
तुम्हारी बीबी से तुम्हें बचाना तो बहुत कठिन नहीं है। संन्यासी
सदियों से यही करते रहे हैं। बीबियों से भागते रहें। बचने का और क्या उपाय?--भाग गए! अब यह कोई नसरुद्दीन ही थोड़े सिंह से जाकर पीठ लगा कर सोया।
तुम्हारे साधु-संन्यासी जो हिमालय की गुफाओं में बैठे हैं, वे
भी यही किए हैं। हिमालय की गुफा में बैठ गए हैं, वहां नहीं
डर रहे हैं--घर में डर गए थे! और हिमालय की गुफा में आसपास सिंह दहाड़ मार रहे हैं।
यह तो सर्कस का सिंह था। इसके दांत वैसे ही टूटे हुए होंगे। इससे कोई खतरा भी नहीं
था ज्यादा। यह तो देखने का ही सिंह था। मगर असली सिंह जहां दहाड़ रहे हैं, वहां भी साधु-संन्यासी धूनी रमाए बैठे हैं--डर नहीं! और वहीं पत्नी आ जाए,
कि बस, इनका जीवन-जल निकल जाए--वहीं! एकदम
पत्नी को देखकर बस इनके होश हवास खो जाएं! एकदम घबड़ा कर उठा लें अपना दंड-कमंडल और
भागने लगें! कि ऐ बाई, तू यहां क्यों आ रही है! हे चंडीगढ़
वासिनी चंडी, तू यहां क्यों आ रही है! माई, मैं तो सोचता था कि इतने दूर निकल आया! तुझे किसने पता दिया--किस दुश्मन
ने तुझे मेरा पता दे दिया?
पत्नियों से ऐसा डर क्या है? डर है, क्योंकि अपेक्षा है। मांगा था--मिला नहीं। देने का वायदा किया था--दिया
नहीं। झूठे साबित हो गए हो। पत्नी के सामने आंख उठाने लायक नहीं रहे हो, इसलिए उसका कब्जा है।
और फिर तुम पत्नी पर जो कब्जा बांधे हुए हो, कि किसी और से मिलना नहीं, किसी और से बात करना नहीं,
किसी और के साथ हंसना नहीं, कहीं और जाना
नहीं! तो स्वभावतः तुम पर भी उसने कब्जा किया हुआ है। तुम जो पत्नी के साथ करोगे,
वही वह तुम्हारे साथ कर रही है। अगर तुम चाहते हो मुक्ति--उसे भी
मुक्त करो।
तुम चाहते हो, वह तुम पर भरोसा करे, तुम भी उस
पर भरोसा करो। तुम चाहते हो, वह तुम्हारे साथ आदमी जैसा
व्यवहार करे--तो तुम भी उसके साथ आदमी जैसा व्यवहार करो। तुम पशुओं जैसा व्यवहार
कर रहे हो! तुम्हारे बाबा तुलसीदास जैसे आदमी क्या-क्या कह जाते हैं! क्या-क्या
व्यर्थ की बातें! और फिर भी स्त्रियां हैं कि पढ़े जा रही हैं रामचरितमानस! बाबा
तुलसीदास का! स्त्रियां ही ज्यादा उनकी चौपाई रटे बैठी है! जला भी नहीं देतीं,
कि जला दें आग में। क्योंकि जो आदमी इस तरह की बातें लिख रहा हो कि
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी!
कम से कम स्त्रियों को तो तुलसीदास के खिलाफ खड़ा हो ही जाना चाहिए। कि
इस आदमी को कहीं न टिकने देंगे; किसी घर में न टिकने देंगे! मगर
नहीं। तुलसीदास बाबा उन्हीं पर सवार हैं। उन्हीं के मुंह से बोल रहे हैं!
स्त्रियां खुद इन वचनों को पढ़ती हैं और डोलती हैं--चौपाई पढ़-पढ़ कर। प्रसन्न होती
हैं कि वाह, बाबा क्या बात कह गए! क्या पते की बात कह गए!
इससे राजी हैं। राजी हो गई हैं बिलकुल कि अगर पति नहीं मारता-पीटता उनको, तो सोचती हैं: प्रेम खतम! क्योंकि ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी! जब तक पति इनको ताड़ता है, तब
तक समझो कि प्रेम करता है! गांव और देहातों में स्त्रियां यह मानती हैं कि जब तक
पति मारता-पीटता है, तभी तक समझो कि प्रेम करता है। जब उसने
मार-पीट करनी बंद कर दी, मतलब कहीं और मार-पीट करने लगा यह!
अब इसको रस नहीं है।
क्या पागलपन है! इस पागलपन में कैसे आनंद हो सकता है? मुक्ति दो। स्त्री का सम्मान करो। उसे आदर दो। तुम्हारे साधु-संतों-महंतों
ने तुम्हें अनादर सिखाया है। स्त्री को बिलकुल जड़ बनाकर रख दिया है।
स्त्री-संपत्ति कहा है उसको! बाप कन्या-दान करता है! क्या पागलपन की बातें हैं!
जीवित व्यक्ति दान किए जा रहे हैं! जैसे कन्या न हुई, गौ-माता
हुई!
स्त्री को संपत्ति समझा जा रहा है। धर्मराज जिनको तुम कहते हो
युधिष्ठिर, वे स्त्री को जुए पर लगा देते हैं! जब संपत्ति है,
तो लगाएंगे। शर्म नहीं, संकोच नहीं। स्त्री को
दांव पर लगा दिया, और कोई निंदा भी नहीं! भारत के पांच हजार
साल के इतिहास में तुम्हारे किसी संत-महात्मा ने निंदा नहीं की, कि युधिष्ठिर को कहा होता कि यह आदमी आदमी नहीं है। धर्मराज! यह जुआरी को?
और यह लंपटता की हद्द हो गई। जुआ भी खेलो, तो
भी समझ में आता है। स्त्री को भी दांव पर लगा दिया! और फिर धर्मराज के धर्मराज
रहे! उसमें कुछ कमी न आई। ज्ञाता के ज्ञाता बने रहे, ज्ञानी
बने रहे!
इस सब जाल को उखाड़ कर फेंको। स्त्री को सम्मान दो। वह भी वैसी ही, उतने ही मूल्य की आत्मा है, जितने मूल्य के तुम हो।
तुमसे रत्ती भर कम नहीं। न ज्यादा, न कम। एक समता का भाव
लाओ। मुक्ति दो--और मुक्ति पाओ।
और नाता-रिश्ता सिर्फ प्रेम का होना चाहिए। इससे ज्यादा कोई बंधन
नहीं। मगर चूंकि मैं ऐसी बात करता हूं, इसलिए तुम्हारी
संस्कृति पर हमला हो जाता है! चूंकि मैं सत्य की ऐसी बात कहता हूं, तुम्हारा धर्म डगमगाता है। तुम्हारा धर्म और संस्कृति इसी तरह के बेहूदे
खयालों पर रची गई है। इसलिए तुम्हारे साधु, संत, महात्मा, मेरे खिलाफ खड़े होंगे ही। इनमें उनका कोई
कसूर नहीं। मेरा ही कसूर है।
आज इतना ही।
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक २५ जुलाई,
१९८०
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