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मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

रोम रोम रस पीजिए-(साधाना-शिविर)-प्रवचन-06



रोम-रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर)

ओशो
छठवां-प्रवचन
धर्म है आत्म-स्मरण

ज्ञान मार्ग नहीं है। ज्ञान ही रोक लेता है, अटका लेता है। ज्ञान का बोझ मन को इतना भारी कर देता है कि फिर सत्य तक की यात्रा करनी कठिन हो जाती है। ज्ञान के तट से जिनकी नाव बंधी है, वे सत्य के सागर में यात्रा नहीं कर सकेंगे। इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल सुबह मैंने आपसे कही थीं।
स्वभावतः, यदि ज्ञान मार्ग नहीं है, तो एक दूसरा विकल्प है जो सदियों से प्रस्तुत किया गया है। वह दूसरा विकल्प है: भक्ति का, कल्पना का। यदि ज्ञान नहीं है द्वार सत्य के लिए, तो फिर भक्ति है, समर्पण है, भावना है, कल्पना है। दूसरा विकल्प, दूसरा ऑल्टरनेटिव, ज्ञान के विरोध में मनुष्य के सामने प्रस्तुत किया गया है, वह है भक्ति का।

आज सुबह मैं आपसे कहना चाहूंगा, भक्ति भी मार्ग नहीं है। यदि ज्ञान मार्ग नहीं है, तो कल्पना तो और भी मार्ग नहीं हो सकती है। ज्ञान यदि द्वार नहीं है, तो स्वप्न तो और भी द्वार नहीं हो सकता है। ज्ञान है तर्क, भक्ति है स्वप्न; ज्ञान है विचार, भक्ति है कल्पना। मनुष्य का मन या तो तर्क करना जानता है। तर्क से विज्ञान का जन्म हुआ है। या मनुष्य का मन कल्पना करना जानता है, इमेजिनेशन करना जानता है। कल्पना से काव्य का जन्म हुआ है। लेकिन न तो काव्य धर्म है और न विज्ञान धर्म है।
मनुष्य के मन की क्षमता है उन स्वप्नों को देख लेने की, जो वास्तविक नहीं हैं। बल्कि मन जिन बातों को देखना चाहता है और नहीं देख पाता है, उनकी भी तृप्ति का उपाय उसके पास है: स्वप्न में उन्हें देख लेता है, कल्पना में उन्हें देख लेता है। जिसे जीवन में नहीं उपलब्ध कर पाता, उसे सपने में पा लेता है। हम सभी सपने देखते हैं। और हम जानते हैं कि जो सूर्य के प्रकाश में दिन में उपलब्ध नहीं होता, वह रात्रि के अंधकार में और नींद की गोद में उपलब्ध हो जाता है। स्वप्न परिपूरक हैं, सब्स्टीटयूट हैं। जिंदगी में यथार्थ में जो नहीं मिलता, स्वप्न उसे पूरा कर देते हैं।
तो जिस सत्य को ज्ञान से, विचार से नहीं खोजा जा सका, सोचा होगा कि उसे हम स्वप्न से और कल्पना से और भावना से पा लेंगे। लेकिन मनुष्य का मन, जो भी कल्पना करेगा, वह कल्पना मन की सृष्टि होगी, वह मेंटल क्रिएशन होगा। वह कल्पना सत्य होने को नहीं है। सत्य के लिए कल्पना करनी जरूरी नहीं है, बल्कि सब भांति की कल्पना छोड़ कर जो देखता है, वह सत्य को उपलब्ध होता है।
और हमारा मन बहुत समर्थ है कल्पना करने में, बहुत समर्थ है; इतने दूर तक समर्थ है कि जिसकी हम कल्पना करें उसे प्रत्यक्ष सामने भी खड़ा कर ले सकते हैं। जिस बात का सुझाव हमारे मन के भीतर बैठ जाए और हम उसके लिए चेष्टा करें, वह हमें प्रतीत भी होने लग सकता है।
एक छोटी सी घटना से मैं आज की बात प्रारंभ करूं।
एक विश्वविद्यालय में उस विश्वविद्यालय के सारे शोध के विद्यार्थी, सारे रिसर्च स्कॉलर इकट्ठे हुए थे। कोई सौ विद्यार्थी थे, वे जिस हाल में बैठ कर विचार-विनिमय करते थे, तभी एक युवक भीतर आया, उसने टेबल पर आकर एक बहुत खूबसूरत बोतल रखी और कहा कि अगर पांच मिनट मुझ दे सकें, तो कृपा करें, मैं कुछ प्रयोग कर रहा हूं।  मैंने कोई सुगंध बनाई है, गुलाब की सुगंध है, और मैं जानना चाहता हूं कि यह कितनी तीव्रता से कमरे में यात्रा करती है और कितनी देर तक कमरे में टिकती है। तो मैं इस बोतल को खोलूंगा, जिस-जिस को सुगंध आनी शुरू हो जाए वे हाथ उठा दें। उसने बोतल खोली, वे सौ विद्यार्थी शोध के विद्यार्थी थे, विचारशील युवक थे, तर्कनिष्ठ थे, खोजी थे, विज्ञान के नियमों का अनुसरण करते थे। उसने बोतल खोली, वे सारे विद्यार्थी उत्सुक होकर प्रतीक्षा करते रहे, फिर एक व्यक्ति उठा और उसने कहा कि मुझे सुगंध आई। फिर दूसरा व्यक्ति उठा, फिर तीसरा और धीरे-धीरे बहुत से विद्यार्थी उठे और उन्होंने कहा, हमें सुगंध आई।
उस युवक ने बोतल बंद की और कहा, क्षमा करें, यह बोतल खाली है, इसमें कोई सुगंध नहीं है। मैं सुगंध पर प्रयोग नहीं कर रहा हूं, मैं सुझाव पर प्रयोग कर रहा हूं, मैं सजेशन पर प्रयोग कर रहा हूं। बोतल तो खाली है और आप सारे लोग हैं विचारशील, तर्कनिष्ठ, विज्ञान की पद्धति से काम और खोज करने वाले, यह सुगंध आपको कैसे आई?
कल्पना और सुझाव संयुक्त हो गए, इमेजिनेशन और सजेशन मिल गए। कल्पना थी युवकों के पास, सुझाव यहां से दे दिया गया, कल्पना और सुझाव संयुक्त हो गए, एक स्वप्न निर्मित हो गया सुगंध का। लेकिन वह स्वप्न बिलकुल वास्तविक प्रतीत हुआ था, क्योंकि वे सोए हुए नहीं थे। सुगंध उन्होंने जानी थी, सुगंध को उन्होंने पहचाना था, सुगंध उन्होंने पाई थी। वे सोए हुए नहीं थे, वे छोटे बच्चे भी नहीं थे, वे किसी आदिवासी इलाके के रहने वाले अंधविश्वासी लोग भी नहीं थे, वे एक विश्वविद्यालय में शोध के विद्यार्थी थे।
कैसे यह हुआ?
अलेक्जेंडर डयूमा अपना मोहल्ला बदल लिया था। एक मोहल्ले में रहता था, उस आस-पास के लोग उससे परिचित हो गए थे, वे उसकी आदतों से परिचित हो गए थे। फिर उसने अपना मोहल्ला बदल लिया, वह नये मोहल्ले में गया। तो वहां तो उपद्रव हो गया। रात मोहल्ले के लोगों की नींद टूट गई, आधी रात, और लोगों ने देखा कि अलेक्जेंडर डयूमा के कमरे में बहुत जोर से दो व्यक्तियों में लड़ाई हो रही है, शायद तलवारें चल रही हैं, जोर की आवाजें निकल रही हैं। कोई मार रहा है, कोई मारा जा रहा है। वे घबड़ा गए, नया आदमी मोहल्ले में आया था और यह क्या हो रहा है? उन्होंने पुलिस को खबर कर दी। पुलिस इकट्ठी हो गई, दरवाजे जोर से धक्के देकर बामुश्किल खुलवाए गए। अलेक्जेंडर डयूमा अकेला कमरे के भीतर खड़ा हुआ था। उन्होंने कहा कि दूसरा आदमी कहां है?
थोड़ी देर तो डयूमा चुपचाप खड़ा रहा। बड़ा साहित्यकार, नाटककार, विचारशील व्यक्ति था। फिर हंसने लगा और कहा, माफ करिए, दूसरा व्यक्ति वह आपको दिखाई नहीं पड़ेगा।
उन्होंने पूछा, क्यों?
उसने कहा, वह मेरे एक नये नाटक का पात्र है। उससे मैं जरा बातचीत कर रहा था। और जब भी मेरे पात्र निर्मित होते हैं तो मैं खुद भूल जाता हूं कि वे सच्चे हैं या झूठे, विवाद इतना बढ़ गया कि तलवार तक निकाल ली मैंने। कोई था नहीं यहां। झगड़ा हो गया, लेकिन कोई है नहीं।
वे लोग समझे कि यह तो पागल है। लेकिन डयूमा तो बड़ा प्रसिद्ध, बड़ा विचारशील व्यक्ति था। डयूमा ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि पागल व्यक्ति, कवि और साहित्यकार अपने पात्रों को देख पाते हैं, मिल पाते हैं।
टॉल्सटॉय जैसा योग्य और समझदार व्यक्ति एक लाइब्रेरी की सीढ़ियां चढ़ता था। संकरी थीं सीढ़ियां, उसके साथ उसके बगल में उसके एक उपन्यास में काम कर रही एक पात्रा, एक स्त्री साथ चल रही थी। वह कहीं थी नहीं, उसके मन में थी। लेकिन उसके साथ चल रही थी, वह उससे बात करता हुआ धीरे-धीरे सीढ़ियां चढ़ रहा था। दो के लायक जगह थी, ऊपर से कोई तीसरा व्यक्ति उतरता हुआ आया, तो कहीं स्त्री को धक्का न लग जाए, इसलिए टॉल्सटॉय हटा। सीढ़ियों पर जगह न थी, वह हटा और नीचे गिर गया और पैर तोड़ लिया।
उस दूसरे व्यक्ति ने पूछा, हम दो के लायक काफी जगह थी, आप हट कैसे गए? किसके लिए हटे?
टॉल्सटॉय ने कहा, दो नहीं, तीन थे। मेरी एक पात्र, एक स्त्री भी साथ चल रही थी। उस स्त्री को धक्का न लग जाए, इस कारण मैं हटा।
लेकिन उस दूसरे व्यक्ति ने कहा, मुझे तो यहां कोई भी दिखाई नहीं पड़ता, कोई स्त्री दिखाई नहीं पड़ती।
टॉल्सटॉय ने कहा, वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगी।
लेकिन टॉल्सटॉय हटा, उस क्षण में उसे सहज ही परिपूर्णता से यह अनुभव हुआ कि कोई स्त्री साथ है। यह तो पैर टूट गया तब उसे बोध आया कि एक सपना देख रहा था।
मनुष्य की क्षमता बहुत है कल्पना करने की। हम सब भी कल्पना करते हैं, हम सब भी अनुपस्थित मित्रों से बात करते हैं। इस कल्पना की शक्ति को विकसित किया जा सकता है। कुछ लोगों में सहज ही ज्यादा होती है। पुरुषों की बजाय स्त्रियों में ज्यादा होती है। युवकों की बजाय बच्चों में ज्यादा होती है। सामान्यजनों की बजाय कवियों में, चित्रकारों में ज्यादा होती है। लेकिन अगर इसको ट्रेनिंग दी जाए, अगर इसको प्रशिक्षित किया जाए तब तो यह किसी में भी विकसित की जा सकती है। और जिनमें है उनकी इतनी दूर तक विकसित की जा सकती है कि कोई भी चीज जिसकी हम कल्पना करें, वह प्रतीत होने लगे, वह अनुभव में आने लगे, उसका साक्षात हो जाए।
भक्तों ने भगवान के जो दर्शन किए हैं, वे इस कल्पना से भिन्न नहीं हैं। और यह भी अकारण नहीं है कि अक्सर भक्त कवि भी होता है, यह भी आकस्मिक नहीं है, एक्सिडेंटल नहीं है। अक्सर ही भक्त कवि भी होता है, यह भी एक्सिडेंटल नहीं है, आकस्मिक नहीं है। कवि की क्षमता ज्यादा होती है कल्पना करने की। कुछ भटके हुए कवि भक्त हो जाते हैं, तो वे पात्र नहीं देखते, वे भगवान को भी देखने लगते हैं।
भगवान की हम जैसी कल्पना करें और अगर अपनी कल्पना को ठीक से प्रशिक्षित करें...ठीक से प्रशिक्षित करने की विधियां हैं, वही भक्ति-योग है। प्रशिक्षित करने की विधियां क्या हैं? निरंतर उसी मूर्ति का स्मरण, सोते-बैठते उसी प्रतिमा की धारणा, उठते-जागते उसी के रूप के साथ रहना और जीना, उसी का चिंतन, उसी का मनन। निरंतर-निरंतर जिस बात का भी हम चिंतन, मनन और विचार करते हैं, जिसकी आकांक्षा करते हैं, जिसकी प्रतीक्षा करते हैं, सोते-जागते अपने प्राणों में जिसके रूप को, आकार को बसाते हैं--किसी क्षण में वह आकार साकार बनना शुरू हो जाता है। वह प्रतिमा जीवंत मालूम पड़ने लगती है। वह जीवन हमने डाला है, हमारी कल्पना ने डाला है। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे उस स्थिति में हम पहुंच जा सकते हैं कि यह वास्तविक जगत तो झूठा दिखाई पड़ने लगे और वह काल्पनिक प्रतिमा सत्य दिखाई पड़ने लगे।
निश्चित ही शांति मिलेगी इस बात से, एक तरह का सुख मिलेगा, क्योंकि एक तरह की मूर्च्छा हो जाएगी। वास्तविक जीवन तो हो जाएगा माया और जो माया जैसा स्वप्न है वह हो जाएगा सत्य। तो वास्तविक जीवन की सारी चिंताएं हो जाएंगी विलीन, सारे दुख हो जाएंगे क्षीण, सारा संताप आंखों से हो जाएगा ओझल और एक स्वप्न जगत मनोकामना का, मनोसृष्टि का समक्ष हो जाएगा, उसमें हम जीने लगेंगे।
अभी अमेरिका में उन्होंने मैस्कलीन और लिसर्जिक एसिड पर बड़े प्रयोग किए हैं। मैस्कलीन मैक्सिको में पाई जाने वाली भांग जैसी एक बूटी है, जड़ी है। हजारों वर्ष से मैक्सिको के भक्तगण उस भांग को पीकर मस्त होते रहे थे और भगवान के दर्शन करते रहे थे। फिर अभी वैज्ञानिकों ने उस जड़ी की खोज-बीन की और उससे इंजेक्शन बना लिए। मैस्कलीन का इंजेक्शन लगा लेने पर छह घंटे के लिए आप भी भक्त हो जाएंगे; और छह घंटे जो आपको देखना हो, वही आप देख सकते हैं। अगर कोई क्रिश्चियन भक्त मैस्कलीन का इंजेक्शन ले लेगा तो क्राइस्ट से मुलाकात हो जाएगी। और अगर कोई कृष्ण का भक्त मैस्कलीन का इंजेक्शन ले लेगा तो कृष्ण से मुलाकात हो जाएगी।
अब ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं है, विज्ञान ने उपाय दे दिया, अब भगवान के दर्शन और आसान हैं। और अभी अमेरिका के बड़े से बड़े लोग, अल्डुअस हक्सले से लेकर और दूसरे लोग भी मैस्कलीन का इंजेक्शन लगवा रहे हैं और भक्तों के जगत में प्रवेश कर रहे हैं।
पुराने ढंग थे, उनमें वर्षों लग जाते थे। दस-पांच वर्ष लगते थे, तब कोई भगवान के दर्शन कर सकता था। अब जमाना बदल गया, अब कोई बैलगाड़ी से चलने का सवाल नहीं है। अब हम हवाई जहाजों से बड़ी तीव्र गति से उड़ सकते हैं, राकेट से चांद तक जा सकते हैं। तो अब भगवान के पास भी भक्त और जल्दी पहुंच सके, इसकी भी विज्ञान ने खोज कर ली है।
हमारी कल्पना को तीव्र करने के ड्रग्स खोज लिए गए हैं, जो कल्पना को इतनी तीव्रता दे देंगे कि जो वर्षों मेहनत करने से आप किसी प्रतिमा का साक्षात कर पाते हैं, वह शीघ्र, अभी, यहीं कर ले सकते हैं। कल्पना तीव्र हो जाएगी, गतिमान हो जाएगी। और उस ड्रग के नशे के प्रभाव में विचार और तर्क की क्षमता क्षीण हो जाएगी। तर्क और विचार सो जाएगा तो कल्पना पूरी तरह, पूरी शक्ति से गतिमान हो जाती है।
इसलिए ये भक्तगण तर्क के और विचार के विरोध में हैं, क्योंकि तर्क और विचार जहां हो वहां कल्पना तीव्र नहीं हो सकती। इसलिए भक्तगण कहते हैं, तर्क, विचार इससे कुछ न होगा। होगा समर्पण के भाव से, होगा भक्ति के भाव से, होगा भावना से। तर्क छोड़ो, विचार छोड़ो, इससे कुछ होने वाला नहीं है। क्योंकि तर्क और विचार जिस मन में होते हैं, संदेह जिस मन में होता है, वह मन बहुत कल्पना में एकदम पागल की तरह नहीं जा सकता, रुकावट खड़ी हो जाती है। इसलिए संदेह के विरोध में हैं भक्तगण, विचार के विरोध में हैं।
यह एक दूसरी धारा है, जिसने मनुष्य-जाति के बहुत हजारों वर्ष धर्म के आगमन में बाधा पैदा की है हजारों वर्षों से। नहीं, कल्पना भी नहीं है द्वार। क्योंकि कल्पना कौन करेगा? मैं करूंगा! मेरी कल्पना मुझसे श्रेष्ठ नहीं हो सकती। कल्पना आप करेंगे! आपकी कल्पना आपसे बड़ी कैसे होगी? आपकी कल्पना आपके ऊपर कैसे जाएगी? आपकी कल्पना है आपका सृजन, आपके मन का सृजन, तो वह आपसे ऊपर नहीं जा सकता।
इसलिए जब हिंदू भगवान की कल्पना करता है, तो वे भगवान हिंदू से मिलते-जुलते होते हैं, उनका नाक-नक्श हिंदू से मिलता-जुलता होता है। और जब नीग्रो करता है भगवान की कल्पना, तो वह नीग्रो से मिलते-जुलते भगवान होते हैं, उनके ओंठ मोटे होते हैं, बाल घुंघराले होते हैं। और जब चीनी करता है भगवान की कल्पना, तो उनका रंग पीला होता है और गाल की हड्डियां उभरी हुई होती हैं और नाक चपटी होती है। हम अपनी ही कल्पना में तो अपने भगवान को निर्मित कर लेंगे। हमारी ही कल्पना में तो हम जो भी बनाएंगे वह हम को अतिक्रमण नहीं कर सकता, वह हम से ऊपर नहीं जा सकता।
हम जिस बात को सुंदर समझते हैं उसको हम भगवान में जोड़ देंगे। हम जिस बात को प्रीतिकर समझते हैं उसको जोड़ देंगे। हम जिस रूप को चाहते हैं, प्रेम करते हैं, उसको जोड़ देंगे।
क्या आपको पता है, आज तक पुरुषों ने जितने भी भगवान बनाए हैं, उनको दाढ़ी-मूंछ नहीं उगती, पता है? क्योंकि पुरुष के मन में स्त्री सुंदर है, इसलिए सब भगवान स्त्री के रूप में ही उसने बना लिए हैं। न कृष्ण को दाढ़ी उगती, न मूंछ उगती, न महावीर को, न बुद्ध को, न राम को, किसी को नहीं उगती है? बड़ी हैरानी की बात है, यह क्यों नहीं उगती? पुरुष की जो कल्पना है सौंदर्य की वह स्त्री की प्रतिमा है। अगर स्त्रियों ने कभी भगवान बनाए तो उनको दाढ़ी-मूंछ जरूर उगेगी। उगनी जरूरी है, बिलकुल उगनी जरूरी है।
न केवल पुरुष ने दाढ़ी और मूंछ से विहीन भगवान बनाए, लेकिन खुद की भी दाढ़ी-मूंछ इसीलिए काट डाली है। उसके मन में सौंदर्य की प्रतिमा दाढ़ी-मूंछ से रहित है, इसलिए खुद की भी उसने साफ कर दी है। लेकिन शायद उसे पता नहीं है कि स्त्री की प्रतिमा कुछ और होगी।
ये जो प्रतिमाएं हम बनाते हैं, ये हम बनाते हैं। ये प्रतिमाएं हमारे मन का पूरा प्रतिफलन हैं, पूरा रिफ्लेक्शन हैं। तो हम अपने हिसाब से सब जोड़ देते हैं। और फिर इन प्रतिमाओं को बना कर इनकी हम पूजा करते हैं, प्रार्थनाएं बनाते हैं। और फिर अपने को इनमें मूर्च्छित करते हैं और सोचते हैं कि हम सत्य की या परमात्मा की खोज में जा रहे हैं।
कल्पना की यात्रा पर जा रहे हैं, सत्य की खोज में नहीं। कल्पना की यात्रा पर जितने दूर निकल जाएंगे, स्मरण रखें, सत्य से उतने ही दूर हो जाएंगे। क्योंकि कल्पना की यात्रा पर गया हुआ मन विवेक, जागरण, अवेयरनेस, इन सब में क्षीण हो जाता है। सिर्फ स्वप्न देख पाता है, सिर्फ स्वप्न देख पाता है।
स्वप्न में जरूर सुख उसे मिलता है। सुखद सपने हम भी देख लेते हैं तो हमें भी सुख मिलता है। भक्त बड़ा सुखद सपना देखता है भगवान से मिलने का, भगवान के निकट होने का। इस सुखद सपने में सुख मिलता हो, इसमें आश्चर्य नहीं है। लेकिन सपना चाहे सुखद ही हो तो भी सत्य नहीं हो जाता है। और इस सपने को साध-साध कर रखना होता है; क्योंकि सपने के तिरोहित हो जाने की हमेशा संभावना है। नींद टूट जाए, सपना तिरोहित हो जाएगा। तो भक्त सब भांति इसे सम्हालता है, सब तरफ से दीवाल बनाता है, सब संदेह को परे करता है, सब प्रकार की श्रद्धा मन में लाता है, सब तरह के विश्वास से अपने को भरता है, ताकि यह सपना कहीं क्षीण न हो जाए।
लेकिन इस काल्पनिक स्वप्न-जगत के निर्माण को मैं धर्म नहीं कहता हूं, यह धर्म नहीं है। यह तो एक तरह का नशा है। इस नशे में बहुत सी चीजों से सहयोग मिल सकता है। संगीत से सहयोग मिल सकता है। क्योंकि संगीत सुलाने में, मूर्च्छा लाने में अदभुत उपाय है। इसलिए भक्तगण संगीत का सहारा ले सकते हैं, लेते रहे हैं। गीत से, गान से, नृत्य से सहारा मिल सकता है। इसलिए भक्तगण उसका भी सहारा लेते रहे हैं। जो-जो चीजें हमारे चित्त को तंद्रा में ले जाएं, मूर्च्छा में ले जाएं, सम्मोहन में ले जाएं, एक तरह की हिप्नोसिस पैदा कर दें, उन सब का सहारा लिया जाता रहा है।
लखनऊ में वाजिद अली के दरबार में एक बार एक संगीतज्ञ आया। उस संगीतज्ञ ने कहा कि मैं बजाऊंगा तो सितार, लेकिन एक शर्त है: मेरे सुनने वाले जो हों उनमें से किसी का सिर न हिले, सिर हिला तो मैं नहीं बजाऊंगा। वाजिद अली तो, आप जानते हैं, पागल था। ऐसे अक्सर ही नवाब पागल ही होते हैं। क्योंकि कोई समझदार आदमी कैसे नवाब होना पसंद करेगा? वह भी वाजिद अली भी पागल था। उसने कहा, ऐसा! बेफिक्र रहो, हिलने की बात का खयाल भी मत करो। मैं घोषणा निकाले देता हूं कि अगर कोई सिर हिला तो सिर कटवा देंगे।
खबर कर दी गई गांव में कि जो लोग सुनने आएं, सचेत होकर आएं। अगर कोई सिर हिला तो कटवा दिया जाएगा। हजारों लोग आते उस बड़े संगीतज्ञ को सुनने, लेकिन फिर दो-चार सौ लोग ही आए। जो संयमी रहे होंगे, जिन्होंने सोचा होगा कि अपने सिर पर संयम रख सकते हैं, ऐसे व्रती और संयमी, तपस्वी वहां आए होंगे सुनने को, बाकी तो कोई आया नहीं। तीन-चार सौ लोग आए थे। उसने सितार बजाना शुरू किया होगा, कोई पंद्रह-बीस मिनट तक तो सभी थिर थे मूर्तियों की भांति, क्योंकि कोई अपना जीवन नहीं खोना चाहता था। घड़ी दो घड़ी बीतीं, रात गहरी होने लगी, धीरे-धीरे दो-चार सिर हिलने शुरू हो गए, फिर और दस-बारह सिर हिलने लगे। रात बीतते-बीतते कोई बीस लोग पकड़े गए जिन्होंने सिर हिलाए थे। वाजिद अली ने उनको पकड़वा कर इकट्ठा करवा लिया और उस संगीतज्ञ को पूछा, इनके सिर अलग करवा दें?
उस संगीतज्ञ ने कहा कि नहीं! लेकिन कल अब और कोई न आए, ये बीस लोग ही आएं, इनके सामने ही मैं बजाऊंगा। बस ये ही वे लोग हैं जिनके सामने बजाने का कोई आनंद हो सकता है।
वाजिद अली ने उन लोगों से पूछा कि तुम कितने पागल हो! मरने की बात तय थी, फिर भी तुमने सिर हिलाए?
उन लोगों ने कहा कि नहीं, जब तक हम थे तब तक हमने सिर नहीं हिलाए; और जब हम खो गए, बेहोश हो गए, हमें कुछ पता न रहा, संगीत में बह गए, तब सिर हिले होंगे। हमने सिर नहीं हिलाए हैं, सिर हिले होंगे। क्योंकि जब सिर हिले तब हम मौजूद नहीं थे, जब तक हम मौजूद थे तब तक हमने सिर नहीं हिलाए थे। ऐसे हमारा कोई कसूर नहीं है, हमारा इसमें कोई हाथ ही नहीं है।
एक तंद्रा पैदा हो सकती है जहां स्वयं का विस्मरण हो जाए। संगीत में हो सकती है, सेक्स में होती है, भक्ति में भी हो सकती है। इतना कोई अपने को किसी चीज में डुबा ले, जिसको भक्त कहते हैं तन्मयता, कोई इतना तन्मय हो जाए किसी चीज में कि खुद को भूल जाए, स्वयं का विस्मरण हो जाए, किसी भी चीज में कोई इतना तन्मय हो जाए कि स्वयं का विस्मरण हो जाए, सेल्फ फार्गेटफुलनेस पैदा हो जाए, तो बड़ा सुख मिलेगा। क्योंकि इस स्वयं की स्मृति के साथ ही सारा दुख जुड़ा है, सारी चिंता, सारी पीड़ा। इसीलिए दुनिया में बहुत तरह के उपाय प्रचलित हैं जहां व्यक्ति अपने को खो देना चाहता है।
एक आदमी राष्ट्र की सेवा में लग जाता है पागल की भांति, तो खुद को भूल जाता है, बहुत सुख मिलता है। एक आदमी समाज की सेवा में अपने को डुबा देता है और अपनी आइडेंटिटी कर लेता है समाज के साथ, अपने को भूल जाता है। एक आदमी इस्लाम की रक्षा के लिए पागल हो जाता है, एक आदमी हिंदू धर्म की रक्षा के लिए पागल हो जाता है। बस किसी चीज में अपने को भूलने का उपाय मिल जाए जिसमें मैं अपने को खो सकूं, तो जैसे ही मैं अपने को खो दूंगा, एक बहुत अदभुत नशा पैदा हो जाएगा, उस नशे में मुझे अपना स्मरण नहीं रहेगा। स्मरण नहीं रहेगा, तो दुख नहीं है, पीड़ा नहीं है।
भक्त भी आत्म-विस्मरण खोजता है, खोजता है किसी काल्पनिक भगवान में अपने को डुबा देना, किसी काल्पनिक भगवान के चरणों में अपने को खो देना, अपने को खो देना, अपने को डुबा देना, भुला देना। जब वह अपने को बिलकुल भूल जाता है और मिट जाता है, और सिर्फ भगवान ही रह जाते हैं उसकी कल्पना के, तब वह बड़े सुख का अनुभव करता है।
यह सुख एकदम झूठा है। आत्म-विस्मरण नहीं है धर्म; धर्म है परिपूर्ण रूप से आत्म-स्मरण, सेल्फ रिमेंबरिंग, सेल्फ फार्गेटफुलनेस नहीं। स्वयं को भूल नहीं जाना है, स्वयं को उसकी परिपूर्णता में जान लेना है। स्वयं को किसी में डुबा नहीं देना है, बल्कि स्वयं को उसकी समग्रता में पहचान लेना है। और ये तो बातें बिलकुल ही विपरीत हैं। और ये तो दिशाएं बिलकुल ही विरुद्ध हैं।
भक्त अपने को डुबाता है। धर्म तो अपनी खोज है। धर्म किसी में तन्मयता नहीं है, धर्म किसी में डूब जाना नहीं है, धर्म किसी के साथ एक हो जाना नहीं है। बल्कि समग्रता में जो भीतर है उसे जान लेना है, उसकी परिपूर्णता में पहचान लेना है, उसके प्रति पूरे बोध से भर जाना है। और जब कोई व्यक्ति पूरे रूप से स्वयं को जान लेता है, तो वह पाता है कि स्वयं और सर्व में कोई विरोध नहीं है, कोई भेद नहीं है, कोई दीवाल नहीं है। वे जुड़े हुए हैं, वे एक हैं। यह वह कल्पना से नहीं अनुभव करता। भक्त यह कल्पना से अनुभव करता है कि मैं भगवान से एक हो जाऊं, एक हो जाऊं, इसकी चेष्टा करता है, चेष्टा करता है। अगर वह एक भी हो जाता है तो यह एकता एकदम काल्पनिक, इमेजिनरी होती है, बिलकुल मिथ्या होती है।
धर्म की दिशा है स्वयं को पूरी तरह जान लेने में। जब कोई स्वयं को पूरी तरह जानता है तो स्वयं और सर्व में कोई फासला नहीं रह जाता, कोई भेद नहीं रह जाता, कोई डिस्टेंस नहीं रह जाता। वह पाता है कि जो स्वयं में है, वही, वही सब में है। वह स्वयं को खोता नहीं, लेकिन एक दिन पाता है कि स्वयं है ही नहीं। वह स्वयं को किसी में डुबाता नहीं, लेकिन खोज करते-करते पाता है कि स्वयं तो तिरोहित हो गया, रह गया है सर्व। मैं तो गया, रह गया है वह, रह गया परमात्मा। खोता नहीं, डुबाता नहीं, लेकिन एक दिन पाता है कि स्वयं तो है ही नहीं। और तब जो एकता और तब जो अनुभूति समग्र के साथ हो जाने की--जैसा बूंद सागर में गिर कर जानती होगी, सागर हो गई, वैसा ही वह भी जानता है। लेकिन यह है जानना, यह कोई कल्पना नहीं है। और यह जानना तभी उपलब्ध होगा जब हम सारी कल्पनाओं को छोड़ देने को तैयार हों।
कल्पना भी छोड़ देनी पड़ती है, क्योंकि कल्पना है मेरी और मुझसे ऊपर नहीं ले जाएगी। और कल्पना है मेरी, इसलिए मैं डूब जाऊं, लेकिन मैं मिट नहीं सकूंगा। क्योंकि मेरी ही कल्पना मुझे कैसे मिटा सकती है? मैं बना ही रहूंगा, बना ही रहूंगा, मैं निरंतर बना रहूंगा। और भगवान के चरणों में सिर जरूर रखूंगा, लेकिन भगवान से मैं निरंतर बड़ा रहूंगा। मैं भी भगवान से बड़ा रहूंगा, मेरे पूरे अचेतन में मैं भगवान से बड़ा रहूंगा, क्योंकि वे भगवान मेरे बनाए हुए हैं।
एक भक्त को, एक बड़े भक्त को राम के मंदिर में ले जाया गया था। तो उन्होंने हाथ जोड़े, पैर पड़े। फिर उन्हें उसी गांव में कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया। तो उन्होंने कहा कि मैं हाथ नहीं जोड़ूंगा। मैं तो उस भगवान को मानता हूं जो धनुर्धारी है, यह बांसुरी वाले भगवान को मैं नहीं मानता। तो अगर तुम भी हे कृष्ण, अगर चाहते हो कि मैं तुम्हारे पैर पर सिर रखूं, तो धनुष-बाण हाथ में ले लो।
तो यह भक्त भगवान को भी चूज करता है, च्वाइस है इसकी। भगवान भी इसका निर्णय है कि कौन सा भगवान है और कौन सा भगवान नहीं है। यह चुनाव करने वाला कैसे मिटेगा? यह नहीं मिट सकता। जिसने चुनाव किया है, जिसका चुनाव किया है वह उससे बड़ा होता है। चुनाव करने वाला कल चाहे तो इनकार कर दे, कल धनुर्धारी को भी कह दे कि नहीं, अब तुम भी भगवान नहीं हो। तो धनुर्धारी क्या कर लेंगे? जिसने चुनाव किया है वह इनकार करने को हमेशा मौजूद है। और जिसने समर्पण किया है--जिसको हम कहते हैं सरेंडर, कि भक्त सरेंडर करता है, समर्पण करता है भगवान के चरणों में--जो सरेंडर करता है, समर्पण करता है, वह अपने समर्पण को वापस लेने को हमेशा मौजूद है। वह कल कह सकता है कि समर्पण वापस लिया। वह मैं नहीं मिट सकता है, चाहे उसे डुबाओ, चाहे उसे खोओ। थोड़ी-बहुत देर को मूर्च्छित हो सकता है, फिर वापस लौट आएगा। तो फिर उसकी पीड़ा लौट आएगी, फिर उसको डुबाओ। जो नशे में आदमी की हालत होती है, शराब पी लेता है, थोड़ी देर को सब भूल जाता है। फिर जब होश में आता है, फिर चिंताएं वापस लौट आती हैं, दुख वापस लौट आते हैं। फिर शराब चाहिए, फिर रोज शराब चाहिए, फिर सतत शराब चाहिए, फिर बेहोश ही पड़े रहना चाहिए, फिर होश में जब भी आता है तभी दुख आना शुरू हो जाता है।
भगवान में भी कोई अपने को डुबा दे तो वह इनटॉक्सिकेंट जैसा ही परिणाम है। जैसे ही उस डूबने के बाहर आएगा, भजन-कीर्तन के बाहर निकलेगा, दुख शुरू हो जाएंगे, फिर दौड़ेगा मंदिर की तरफ। फिर वह धीरे-धीरे कहेगा, हम तो चौबीस घंटे ही अब भजन में रहेंगे, अब हम बिना भजन के एक क्षण भी नहीं रह सकते। क्योंकि जब भजन के बाहर होते हैं, दुख में होते हैं। पूजा में बड़ा आनंद मिलता है, प्रार्थना में बड़ा आनंद मिलता है। बाहर आते हैं, सब दुख है। बाहर दुख ही दुख है, पूजा में बड़ा आनंद है, प्रार्थना में बड़ा आनंद है।
अगर आनंद जिसे उपलब्ध होता है, उसे फिर सब जगह आनंद उपलब्ध होता है। लेकिन जिसे नशे का सुख मिलता है, उसे सिर्फ नशे में सुख मिलता है। अगर आनंद का झरना भीतर फूट पड़ेगा, तो मंदिर में भी आनंद होगा, मस्जिद में भी, सड़क पर भी, दुकान पर भी, सारे जीवन में; क्योंकि वह आनंद कोई नशा नहीं है, वह भीतर फूटता हुआ झरना है। लेकिन अगर आनंद कहीं मिलता हो और कहीं न मिलता हो, तो जान लेना कि वह आनंद नहीं है, वह मूर्च्छा में मिला हुआ सुख है।
जीवन है अविच्छिन्न प्रवाह, वह कंटिन्युटी है। अगर मेरे भीतर प्रेम है तो यह असंभव है कि मैं एक जगह जाऊं तो वहां मुझसे प्रेम बहे और दूसरी जगह जाऊं तो मुझसे प्रेम न बहे। अगर मुझ में आनंद है तो यह असंभव है कि मैं यहां बैठूं तो आनंदित रहूं और यहां से बाहर हट जाऊं तो आनंद चला जाए। अगर आनंद मेरे भीतर है, मेरा स्वभाव बना है, मेरे स्वभाव का विकास हुआ है, तो मैं जहां हूं वहां श्वास की भांति, हृदय की धड़कन की भांति मेरे साथ है।
लेकिन हम आनंद को जानते ही नहीं, हम केवल सुख को जानते हैं, सुख जो कि एक मूर्च्छा है। तो कहीं मिलता है, फिर कहीं नहीं मिलता; किसी के साथ मिलता है, फिर किसी के साथ नहीं मिलता।
मैं किसी को प्रेम करता हूं, वह मेरे पास होता है तो मुझे सुख मिलता है। क्यों? उतनी देर को मैं अपने को भूलने में समर्थ हो जाता हूं, उतनी देर को मैं उसके साथ एक हो जाता हूं। एक दूसरा आदमी है जो मुझे घृणा करता है, उसके पास बैठता हूं तो दुख मिलता है। क्योंकि जो मुझे घृणा करता है उससे एक होना मुश्किल हो जाता है। उसकी घृणा दीवाल की तरह खड़ी हो जाती है, वह मुझे एक नहीं होने देती, डूबने नहीं देती, भूलने नहीं देती। इसलिए दुश्मन के पास दुख मिलता है और मित्र के पास सुख मिलता है। क्योंकि मित्र एक नशे का काम करता है, दुश्मन नशा नहीं हो सकता। फिर यही प्रवृत्ति आगे बढ़ जाती है तो भगवान के चरणों में सुख मिलने लगता है, फिर भगवान के सान्निध्य में सुख मिलने लगता है, उनके सत्संग में सुख मिलने लगता है।
कोई यह सुख नहीं है। यह सिर्फ डूबने से, भूलने से आई हुई तंद्रा से भूला हुआ दुख है, आनंद नहीं।
धर्म की खोज तो भूलने की नहीं, जागने की है। तो कल्पना भी छोड़नी पड़ेगी। और जहां ज्ञान न हो, कल्पना न हो, वहां क्या होगा? उसकी बात मैं कल करूंगा कि जहां ज्ञान नहीं, जहां कल्पना नहीं, वहां क्या हो सकता है। वहां होगा कोई विस्फोट, वहां होगी कोई क्रांति, वहां कोई बुझी आग जल उठेगी, वहां कोई अंधियारे कमरे में दीया जल उठेगा, वहां कुछ होगा।
लेकिन दो चीजें छोड़नी जरूरी हैं: उधार ज्ञान छोड़ना जरूरी है, मन के सपने और कल्पनाएं छोड़नी जरूरी हैं। सत्य की खोज में, स्वयं की खोज में ये दो त्याग करने जरूरी हैं, ये दो निषेध बिलकुल जरूरी हैं। ये दो नकार जो करने में समर्थ नहीं हो पाता, वह सत्य को नहीं खोज पाएगा। और अगर खोज भी लेगा तो वह सत्य घर का ही बनाया हुआ होगा, होम मेड। वह खुद का ही बनाया हुआ होगा, वह सत्य नहीं होगा। वह अपना ही सृजन होगा। हम ही उसके मालिक और क्रिएटर होंगे, हम ही उसके स्रष्टा होंगे। वह हमारे हाथ का खिलौना होगा। वैसा सत्य मुक्त नहीं कर सकता है जो मेरा बनाया हुआ हो। सत्य तो वह मुक्त करेगा जो है अनादि और अनंत। और जब मैं अपने को उसके रास्ते से हटा लूंगा, तो ही वह मेरे भीतर प्रवेश कर सकेगा। और हम उसके रास्ते में दो भांति खड़े हुए हैं--या तो अपना ज्ञान और शास्त्र लेकर खड़े हुए हैं, या अपनी कल्पना और भक्ति लेकर खड़े हुए हैं। बस ये दो तरह के लोग हैं जो खड़े हुए हैं उसके लिए दरवाजे पर रोके हुए--या तो अपनी भक्ति से, या अपने ज्ञान से। दोनों ही हालतों में दीवाल खड़ी हो जाती है। दोनों ही जाने चाहिए।
आसान होता है यह कि हम शास्त्र छोड़ दें तो भक्ति की तरफ आ जाएं। एक एक्सट्रीम से दूसरी एक्सट्रीम पर आना हमेशा आसान होता है। एक अति से दूसरी अति पर आना हमेशा आसान होता है। लेकिन सवाल है बीच में रुक जाने का। सवाल एक अति से दूसरी अति पर आने का नहीं है।
कनफ्यूशियस एक गांव में गया था। उस गांव के बाहर ही था कि गांव के कुछ मित्र उसे मिले और उन्होंने कहा कि हमारे गांव में आए हो तो हम बड़ा स्वागत करते हैं और हम प्रार्थना करते हैं, हमारे गांव में भी एक बहुत बड़ा ज्ञानी है, क्या आप उससे मिलोगे?
कनफ्यूशियस ने कहा, उस ज्ञानी के संबंध में कोई खास बात हो तो बताओ, तो फिर मैं सोचूं कि मिलना चाहिए कि नहीं।
तो उन गांव के लोगों ने कहा कि बड़ा है वह ज्ञानी, एक काम को करने के पहले कम से कम तीन बार सोचता है, विचार करता है।
कनफ्यूशियस ने कहा कि मैं न मिलूंगा।
उन्होंने पूछा, क्यों?
कनफ्यूशियस ने कहा, एक बार सोचना कम होता है, तीन बार सोचना ज्यादा हो गया। दो बार काफी है, पर्याप्त है। कनफ्यूशियस ने कहा, एक बार सोचना कम होता है, तीन बार सोचना ज्यादा हो गया, एक अति से दूसरी अति पर चले गए। दो बार सोचना काफी है, बीच में रुकना काफी है। कनफ्यूशियस ने कहा कि जो बीच में खड़ा हो पाता है, वही ज्ञानी है, वही जानता है, वही जान सकेगा, वही खोजता है, वही खोज सकेगा।
बुद्ध के पास एक राजकुमार दीक्षित हो गया था, भिक्षु हो गया। जब राजकुमार था तब भी वह साधारण राजकुमार नहीं था, तब भी भोग की जो अंतिम चरम स्थिति हो सकती है वह उसने जानी थी। वह कभी मखमल के गद्दों के नीचे नहीं उतरा था। रास्ते पर भी चलता था तो कालीन बिछा दिए जाते थे। सारे राज्य की सुंदरतम स्त्रियां उसने इकट्ठी कर रखी थीं। सब भांति के नशे, सब भांति के भोग का आयोजन कर रखा था। वह सीढ़ियां चढ़ता था तो सीढ़ियों के किनारे सहारा लेने के लिए कोई लकड़ी या संगमरमर की चीज नहीं लगाई गई थी। नग्न स्त्रियों को सीढ़ियों के किनारे खड़ा कर लेता था, उनके कंधों पर हाथ रख कर ऊपर चढ़ता था। फिर वह हो गया भिक्षु।
आप कहेंगे कि ऐसा आदमी भिक्षु कैसे हो गया?
और मैं कहूंगा, ऐसा ही आदमी अक्सर भिक्षु हो जाता है। एक अति से दूसरी अति पर जाना बिलकुल आसान है। मन घड़ी के पेंडुलम की तरह घूमता है, एक कोने से दूसरे कोने, बीच में कभी नहीं ठहरता। इसलिए जो भोगी हैं वे अक्सर योगी हो जाते हैं। यह कोई आश्चर्यजनक नहीं है, एक बीमारी से दूसरी बीमारी पर चले जाते हैं। बीच में रुकना, बीच में बड़ा कठिन है, बहुत आरडुअस है। क्योंकि मन कहता है कि इससे ऊब गए, अब वहां चलो। और मन हमेशा एंटी-थीसिस में सोचता है। इससे ऊब गए, तो इसके विरोध में चलो, शायद वहां कुछ मिलेगा।
तो यह जो भोगी राजकुमार था, बहुत ऊब गया होगा। अति से कोई भी ऊब जाता है, अति भोग से कोई भी ऊब जाता है। अति भोजन से भी कोई ऊब जाता है तो फिर उपवास करने लगता है लंबे-लंबे। वह अति भोजन से उबा हुआ आदमी घबड़ा गया, अति भोजन की पीड़ा से घबड़ा गया, अति भोजन की बीमारियों ने परेशान कर दिया। तो अब वह कहता है, हम उपवास करेंगे, उपवास ही धर्म है। पहले अति भोजन धर्म था, अब उपवास धर्म है, लेकिन सम्यक भोजन कभी भी धर्म नहीं बन पाता। या तो भूखे रहेंगे, यह धर्म है; या इतना खा लेंगे कि जीना मुश्किल हो जाए और मरना आसान, वह धर्म है; लेकिन बीच में रुकना कभी धर्म नहीं है।
वह भोगी राजकुमार योगी हो गया। बुद्ध के पास आया और कहा कि मैं भिक्षु होना चाहता हूं। बुद्ध के शिष्य आनंद ने बुद्ध से पूछा कि यह तो अति भोगी है, यह कैसा, इस तरफ एकदम?
बुद्ध ने कहा, मन ऐसे ही चलता है। अब उस अति से ऊब गया तो उसके विरोध में जा रहा है। अब उससे ऊब गया तो उसकी शत्रुता करेगा। अभी स्त्रियों के पीछे गया था, अब ब्रह्मचर्य का व्रत लेगा, अब स्त्रियों से भागेगा, जहां स्त्री दिखेगी वहीं से जंगल की तरफ भागेगा। अभी स्त्रियां जहां दिखती थीं उसी तरफ भागता था, अब स्त्री जहां भी दिखेगी उससे उलटा भागेगा। अब इसके मन में वह अति आ गई है, अब यह दूसरी अति पर जा रहा है।
बुद्ध ने उसे दीक्षा दे दी। और यही हुआ, दीक्षा देने के बाद उसने दूसरी अति शुरू कर दी। वह स्त्रियों को देखना बंद कर दिया, स्त्रियों को देखते ही से आंख बंद कर लेता था। उसने धन को छूना बंद कर दिया। उसने वस्त्र छोड़ दिए, वह नग्न हो गया। छाया होती, धूप होती, तेज गर्मी होती, तो वह छाया में न बैठता, धूप में जाकर बैठता। जब गहरी सर्दी होती, तो वह कमरे में न सोता, बाहर सोता। जब सारे भिक्षु भिक्षा मांगने जाते, तो दूसरे भिक्षु राजपथ पर चलते, वह सड़क के किनारे जहां काटे होते वहां चलता। सब भांति वह उलटा हो गया। तीन महीने में सूख कर हड्डी हो गया, आंखें बाहर निकल आईं, पैरों में छाले पड़ गए और खून बहने लगा।
बुद्ध उसके पास गए और उससे कहा कि मेरे मित्र, एक बात मुझे पूछनी है। मैंने सुना है कि तुम जब राजकुमार थे तो तुम वीणा बजाने में बहुत कुशल थे। क्या मैं तुमसे पूछूं कि जब तार बहुत ढीले होते हैं तो संगीत उठता है या नहीं?
उस युवक ने कहा कि नहीं, तार ढीले हों तो संगीत कैसे उठेगा? उन पर चोट ही नहीं हो पाती।
और, बुद्ध ने पूछा, तार बहुत कसे हों तो संगीत उठता कि नहीं?
तो उस भिक्षु ने कहा कि नहीं, तब भी नहीं। तब तार टूट जाते हैं, संगीत नहीं उठता।
तो बुद्ध ने कहा, संगीत कब उठता है?
उस युवक ने कहा, संगीत तब उठता है जब तार न तो ढीले होते हैं, न कसे होते हैं। एक ऐसी भी जगह है तारों की जब न तो कहा जा सकता है कि वे ढीले हैं और न कहा जा सकता है कि कसे हैं, तब उठता है संगीत।
तो बुद्ध ने कहा, मैं जाता हूं, यही कहने आया था, स्मरण रखना: जो वीणा में नियम है, वही जीवन में भी। जीवन में भी संगीत तभी उठता है जब तार न तो ढीले होते हैं और न कसे। और एक ऐसा बिंदु जीवन में भी है जहां दोनों अतियां नहीं होतीं और मध्य होता है, वहीं मध्य से संगीत उठता है।
मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं, न तो तर्क और शास्त्र और ज्ञान की अति और न अतर्क, विश्वास, कल्पना, भक्ति और समर्पण की अति, दोनों से सत्य का संगीत नहीं उठता है। उठता है मध्य से, वहां बीच में ठहर जाने से। वह बीच में ठहर जाना क्या है, उसकी बात मैं कल करूंगा। अभी की थोड़ी सी बातें कहीं, इन पर विचार करेंगे, सोचेंगे। कल्पना की जो हमारे भीतर संभावना है, उसको समझेंगे। अगर वह समझ में आ जाए तो उसका छूट जाना कठिन नहीं है। परमात्मा की कोई कल्पना नहीं करनी है, अगर परमात्मा को जानना हो। परमात्मा का कोई सपना नहीं देखना है, अगर सच में ही परमात्मा के प्रति जागना हो। जो परमात्मा की कल्पना करेगा, उसका परमात्मा अपना होगा, परमात्मा नहीं। जो सत्य की कल्पना करेगा, वह कल्पना उसकी अपनी होगी, सत्य नहीं। सत्य तक पहुंचने के लिए छोड़ देनी होंगी सारी कल्पनाएं, सारी धारणाएं। सारे स्वप्न, सारे हमारे निर्मित विचार और कंसेप्ट्स छोड़ देने होंगे, विदा कर देने होंगे। परमात्मा की सारी मूर्तियां विदा कर देनी होंगी। रह जाएगा खाली मन, खाली चित्त। उस खाली चित्त में कुछ हो सकता है।
ज्ञान और कल्पना से जो मुक्त है, वहां कुछ हो सकता है, वहां कुछ निश्चित हो सकता है। वहीं है बिंदु, वहीं है वह मध्य बिंदु जहां कोई घटना घट सकती है।
अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे। थोड़े दूर-दूर हट जाएं, कोई किसी को छूता हुआ न हो। दो बातें ध्यान के संबंध में आपसे कह दूं, फिर ध्यान के लिए बैठें।
परंपरा से ध्यान और साधना को एक श्रम, एक प्रयत्न, एक इफर्ट, एक अभ्यास समझा गया है। हम भी उन्हीं बातों को सब सुनते रहे हैं। तो जब हम ध्यान के लिए बैठते हैं तो हमारे मन में एक प्रयास, एक इफर्ट की भावना होती है कि हम ध्यान कर रहे हैं, हम ध्यान करें, ठीक से करें। इस तरह के भाव तनाव पैदा करते हैं, टेंशन पैदा करते हैं। और इस तरह के भावों के कारण ध्यान होना असंभव हो जाता है, क्योंकि ध्यान के लिए चाहिए तनाव से शून्य चित्त जिसमें कोई तनाव न हो। लेकिन जब भी आप कुछ करने के खयाल से भरते हैं तो तनाव पैदा हो जाता है। साधना को, ध्यान को हम बड़ा गुरुतर, बड़ा गंभीर कार्य समझते हैं। उससे भी तनाव पैदा हो जाता है।
नहीं; तो मैं निवेदन करूंगा, ध्यान को उस भांति लें जैसे कोई खेल को लेता है। ध्यान को बहुत गंभीरता से, बहुत कठोरता से, बहुत प्रयास से न लें। ऐसे लें जैसे अपनी मौज में बैठे हैं, सरलता से, शांति से, बिना तनाव के। कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर रहे हैं।
धार्मिकों ने ऐसा भाव फैला रखा है कि कोई आंख बंद करके बैठा है तो बहुत भारी काम कर रहा है। इससे अहंकार की तृप्ति होती है कि मैं बहुत भारी काम कर रहा हूं, देखो आधे घंटे तक रीढ़ को सीधा किए हुए बैठा हूं। कोई उलटा खड़ा हो जाता है सिर के बल तो वह कहता है, मैं बहुत बड़ा काम कर रहा हूं, देखो मैं शीर्षासन कर रहा हूं।
सर्कस नहीं है धर्म कोई कि आप बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। सर्कसी चित्त नहीं होना चाहिए। कुछ खास काम नहीं कर रहे हैं, मौज में बैठे हैं, शांति से बैठे हैं, आनंद से बैठे हैं, हलके-फुलके होकर बैठे हैं। कोई बहुत सीरियसली नहीं, बहुत हलके मन से, बहुत सरलता से--जैसे छोटे-छोटे बच्चे खेलते रहते हैं वैसे।
तो साधना को, ध्यान को अति गंभीरता के भार से नहीं लेंगे, बहुत मौज से बैठ जाएंगे। तो तनाव नहीं आएगा, नहीं तो तनाव आ जाता है। कुछ कर नहीं रहे हैं, थोड़ी देर को कुछ भी नहीं कर रहे हैं, न करने की स्थिति में बैठे हुए हैं। फिर आवाजें सुनाई पड़ेंगी, तो उन आवाजों को अप्रतिरोध से, नॉन-रेसिस्टेंस से सुनना है। कोई विरोध नहीं करना है उनका कि यह कौआ क्यों बोल रहा है? यह बच्चा क्यों रोने लगा? यह कोई आदमी क्यों खांसा? नहीं, कुछ भी नहीं। जो हो रहा है, अपने भीतर से निकल जाने देना। आएगा, गूंजेगा, निकल जाएगा। मौन से, शांति से उसे देखते रहना है।
हजारों वर्ष से यह भी सिखाया गया है कि ध्यान में कुछ सुनाई नहीं पड़ना चाहिए, तभी ध्यान है। कुछ पता नहीं चलना चाहिए आस-पास का, तभी ध्यान है।
वे सब एकाग्रताएं हैं, मूर्च्छाएं हैं; मूर्च्छित हो जाएंगे तो कुछ भी पता नहीं चलेगा। लेकिन जब जाग्रत होंगे तो और ज्यादा पता चलेगा। मूर्च्छित हो जाएंगे तो कुछ भी पता नहीं चलेगा। कुछ भी होता रहे, मकान में आग लग जाए, या कोई कुछ भी उपद्रव हो जाए, कोई बम गिरा दे, तो पता नहीं चलेगा, मूर्च्छित होंगे तो, सोए होंगे तो। लेकिन जब भीतर पूरी तरह जागे होंगे तो एक सूई भी गिरेगी तो उसकी आवाज भी पता चलेगी। जितना चित्त शांत होगा, जितना चित्त जाग्रत होगा, उतना ही सेंसिटिव हो जाएगा, उतना ही संवेदनशील हो जाएगा। सब सुनाई पड़ेगा, एक पत्ता भी हिलेगा तो उसकी खड़क सुनाई पड़ेगी, हवा चलेगी तो पता चलेगा।
तो यह मन में खयाल न रखें कि अरे यह सब पता चल रहा है! यह पता चलना चाहिए। और जितने आप जागरूक होंगे, उतनी ही छोटी-छोटी ध्वनियां--अभी कोई छोटे झींगुर बोल रहे होंगे, अभी पता नहीं चल रहे, लेकिन जब शांत बैठेंगे तो वे भी पता चलेंगे। धीरे-धीरे चारों तरफ ध्वनियों का एक संगीत गूंजने लगेगा। उस संगीत में खो नहीं जाना है, उस संगीत में डूब नहीं जाना है। उस संगीत के प्रति जागे रहना है, होश से भरे रहना है। अगर डूब गए तो वह तन्मयता हो गई, वह एक तरह की भक्ति हो गई, वह एक तरह का सम्मोहन हो गया। लेकिन अगर नहीं डूबे, जागे रहे, अवेयर रहे, तो वह ध्यान हुआ।

अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।
शरीर को बिलकुल शांति से शिथिल छोड़ दें, कोई तनाव शरीर पर न रखें।


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