अक्टूबर
28, 1985।
अलियर जैट
शारटल उतरी
कैरोलिया के
हवाई-अड्डे पर
उतरने वाला था
और मैंने बाहर
अंधेरे में
देखा,
हवाई अड्डा
सूनसान पडा
था। कुछ लम्बी, पतली
झाड़ियां जैट
द्वारा उड़ाई
गई हवा में झूल
रही थी। जैसे
ही जैट ने
ज़मीन को छुआ
और इंजन बंद
हुआ। निरूपा
ने हान्या को
देखा। हास्या,जिसके हाथ
हम शारलट में
रहनेवाले थे
निरूपा की अत्यंत
युवा सास थी।
वह तारकोल की
विमान पट्टी
पर अपने मित्र
प्रसाद के साथ
खड़ी थी।
निरूपा ने उत्साहपूर्वक
हान्या को
पुकारा और ठीक
उसी समय कई
दिशाओं से आई ‘हैंड्स आप’ की आवाज़ों
ने मुझे किसी
अन्या सच्चाई
में पहुंचा
दिया। एक पल
के विचार थम
गए। एक भयावह
अंतराल और फिर
मन ने कहा—‘नहीं, यह सत्य
नहीं है। कुछ
ही क्षणों में
लगभग पंद्रह बंदूकधारी
व्यक्तियों
ने बंदूकों का
निशाना हम पर
साधे हुए विमान
को चारों और
से घेर लिया।’
यह वस्तुत:
सत्य था—अँधेरा
कौंधती बत्तियां, कर्कश ध्वनि
करती ब्रेक्स, चीखें,आतंक, भय सब मेरे
आस-पास बुना
हुआ था। मैं
खतरे के प्रति
इतनी सजग थी
की शांत रहने
के अतिरिक्त
और कुछ न कर
सकती थी। ‘छींकना
भी मत’
मैंने स्वयं
से कहा। ये
लोग गोली मार
देंगे। वे लोग
भयभीत दिखाई
दे रहे थे। और
होते भी क्यों
न।
इस घटना के
तीन वर्ष पश्चात
जब एक स्वतंत्र
पत्रकार ने
अधिकारियों
से साक्षात्कार
किया तो उसे
बताया गया और
प्रमाण प्रस्तुत
किए गए कि उन
दो विमानों के
यात्रियों को गिरफ्तार
करने के आदेश
दिए गये थे।
और उन्हें
कहा गया था कि
हम लोग क़ानून
से भागे हुए
अपराधी और सब
मशीनगनों से लैस
आतंकवादी है।
वे लोग एक
विशेष प्रकार
की जैकेट और
जींस पहने हुए
थे। मैंने
सोचा कि ऑरेगान
के रेडनेक्स
और हिलबिलीस
है जो ओशो का
अपहरण करने आए
है। हमें न तो
ये बताया गया
कि हम हिरासत
में थे और न यह
कि वे एफ. बी. आई.
एजेंट है।
मैं पेशेवर
हत्यारों की
और देख रही
थी। वे विकृत
और अमानुषिक
लग रहे थे।
उनकी आंखों
में कोई भाव
नहीं था। वे
उनके चेहरों
पर चमकते
छिद्र मात्र
थे।
वे लोग
चिल्ला–चिल्लाकर
कह रहे थे कि
हम हाथ ऊपर
उठाए विमान से
बाहर आ जाये।
हालांकि
विमान-चालक ने
द्वार खोल दिया
था। परंतु हम
बाहर नहीं
निकल पा रहे
थे। क्योंकि
ओशो की आराम
कुर्सी जैट के
एक तिहाई आकार
के बराबर थी
और दरवाज़े
में अटकी हुई
थी। हमने अपने
बंदी बनाने वालों
को यह बताने
की बहुत चेष्टा
की कि हम बाहर
नहीं निकल पा
रहे है। लेकिन
उन्होंने
समझा की हम
बहाना बना रहे
है। और इस दौरान
हम अपनी-अपनी
मशीनगन में
गोलियां भर
रहे है। मैं
मुड़ी और देखा
कि मुझसे बारह
इंच की दूरी
पर बंदूक की
नली थी। और बंदूक
के अंत में था
एक तनावग्रस्त
भयभीत चेहरा।
मैंने महसूस
किया कि वह
मुझसे भी अधिक
भयभीत था और
वह बात खतरनाक
थी। मौंटी
पायथन के दृश्य
की तरह वे
परस्पर विरोधी
आदेश दे रहे
थे। ‘स्थिर
खड़े रहो’
विमान से नीचे
उतर आओ। और
हिलो मत। ओशो
की आराम
कुर्सी वहां
से हटाई गई।
तथा वे लोग
कूदकर विमान
पर चढ़ गये।
मुक्ति के सर
में तो
उनहोंने गोली
दाग ही दी थी।
जब वह अपने
जूते पहनने के
लिए झुकी थी।
बाहर विमान
पट्टी पर
हमारे पेट
विमान में घुसा, बाजू ऊपर
उठवा तथा
टांगें खुली
करवा हमारी तलाशी
ली गई। जिस
समय हमें
बेहूदे और
क्रूर ढंग से
बंदी बनाया जा
रहा था मैं
हान्या क और
मुड़ी। वह
बहुत घबराई
हुई थी। मैंने
उससे कहा सब
ठीक हो
जायेगा। जब हम
हवाई अड्डे के
विश्राम कक्ष
में बैठे तो
देखा के पीछे
बंदूकधारी
खड़े थे।
बंदूकों को
प्रवेश—द्वार
की और ताने
हुए। ओशो के
विमान से
उतरने की
प्रतीक्षा कर
रहे थे।
वहां भारी बूटों
के दौड़ने की, बाजुओं
के प्लास्टिक
की बुलेट
प्रूफ जैकेट
के साथ रगड़
खाने से तथा वाकीटाकी
से फुसफुसा कर
दिए जा रह संकेतों
की मिली जुली आवाजें
आ रही थी। और
फिर एक जैट के
नीचे उतरने की
आवाज़ आई।
अगले पाँच
मिनट बहुत ही
कष्ट दाई थे।
हमें नहीं
मालूम था कि
वे ओशो के साथ क्या
करने वाले है।
निरूपा कांच
के दरवाजे तक
गई, जहां
से विमान
पट्टी का दृश्य
दिखाई दे रहा
था। उसने सोचा
कि वह किसी
तरह उन्हें
सचेत कर दे।
परंतु उसे
बंदूक की नोक
पर अपनी सीट
पर बैठे रहने
का आदेश दिया
गया। उन हिंसक
व्यक्तियों
के हाथों में असहाय
मुझे
प्रतीक्षा
मृत्यु की
खामोशी जैसी
प्रतीत हो रही
थी। उस वीरान
प्रतीक्षालय
में दम घोटने वाला
तनाव था और
ऊपर से बंदूक धारियों
की आतंकित
करने वाली
आवाज़ें गूंज
रही थी। उनकी समझ
में नहीं आ रहा
था कि जैट के
जमीन पर उतर
जाने के बाद
भी इंजन क्यों
चल रहा है। यह
केवल इसलिए था
कि ओशो के लिए एयर
कंडीशनर चलते
रहे। लेकिन
उन्हें इस
बात कापता व्याकुल
कर देनेवाले
खालीपन का
एहसास हुआ।
फिर कांच के
द्वार से
हथकड़ी में
जकड़े ओशो जी
प्रविष्ट
हुए। उनके
दोनों और थे
बंदूकें ताने
वे लोग। ओशो
भीतर इस तरह
प्रविष्ट
हुए जैसे
बुद्ध सभा में
अपने शिष्यों
को प्रात:
प्रवचन देने आ
रहे हो। वे
शांत थे और जब
उन्होंने
हमें ज़ंजीरों
में जकड़े
प्रतीक्षा
करते देखा तो
उनके चेहरे पर
एक मुस्कुराहट
फैल गई। वे
नाटक में
रंगमंच पर आए
सर्वथा भिन्न
नाटक जिसे
हमने पहले कभी
अनुभव नहीं
किया था—और अब
भी वे वैसे ही
थे ओशो के साथ
जो भी घटता वह परिधि
पर ही घटता
उनके केंद्र
को कभी स्पर्श
नहीं कर पाता।
कितना गहरा और
शांत सरोवर
होगा वह।
हमें बंदी
बनाने वालों
ने नामों की
सूची पढ़ना
आरम्भ किया, मैं एक भी
नाम न पहचान
पाई। नाटक और
भी उलझता जा
रहा था।
‘आपने
गलत लोगों को
पकड़ा है।
विवेक ने
कहां।’
गलत फिल्म
गलत लोग—मुझे
तो सब बेतुका
लग रहा था। जो
व्यक्ति
सूची पढ़ रहा
था मुझे रंजक
हीन (अलबिनो)
लगा जिसने
अपने बाल लाल
रंग लिये हों।
हमने एक प्रबल
काम तरंग थी
जिसने मुझे यह
सोचने को बाध्य
कर दिया कि
मैं शर्त
लगाकर कह सकती
हूं कि यह व्यक्ति
दूसरों को
पीड़ा
पहुंचाने में
आनंद लेता होगा।
हमारे बार-बार
पूछने पर भी
कि क्या हम
हिरासत में है, उन्होंने
कोई उत्तर
नहीं दिया।
हम सबको
बाहर धकेल
दिया गया और
वहां कम-से-कम
बीस लाल और
नीची कौंधती
बतियों वाली
कारें प्रतीक्षा
कर रही थी।
यही पर ओशो को
हमसे अलग कर दिया
गया। उन्हें
एक कार में
अकेले ले जाया
गया। मेरा
ह्रदय धक से
बैठ गया और
जैसे ही मुझे
एक दूसरी कार
में बिठाया
गया,
मैंने अपना
सिर झुकाया और
अपना हाथ
ह्रदय के उपर
रखा। मेरे
दहशत भरे मन
को इस विचार
ने बाढ़ की
तरह घेर लिया
कि कुछ अनिष्ट
होने वाला है।
पुलिसवालों
ने एक बार भी
हमें गौर से
नहीं देखा।
यदि उन्होंने
देखा होता तो वे
हमारे साथ जन
संहारक व्यक्तियों
की भांति हमसे
दुर्व्यवहार
न करते। हमें
बेड़ियों मे न
जकड़ते। वे
देख लेत कि ये
चार अत्यंत
कोमल महिलाएं
जो कि तीस
वर्ष से ऊपर
की आयु वाली
है उतनी ही
खतरनाक हो
सकती है।
जितनी की कोई
बिल्ली का
छोटा बच्चा।
दो प्रौढ़,
बुद्धिमान
पुरूष इतने
सौम्य और
सुशिष्ट कि
पहले कभी देखे
न हों और ओशो—ओशो
के बारे में
क्या कहना।
जरा उनके
चित्र को
देखो।
गिरफ्तारी की
इस सम्पूर्ण
घटना के दौरान
मैं विश्वास
ही नहीं कर पा
रही थी कि
अमरीका के लोग
ओशो की गिरफ्तारी
को टी. वी. पर
देख रहे हों।
और उनमें और
उनको बंदी
बनाने वालों
में, ओशो
और ऐसे किसी
भी इंसान म
जिसे उनहोंने
कभी टी. वी. स्क्रीन
पर देखा हो, काई अंतर
देख पा रहे
हो।
जेल में
मैं
टेलीविज़न
देख रही थी तो
मैंने उसमे वह
फिल्म देखी
जिसमें हमें
जेल से न्यायालय
और फिर वापस
जेल लाया गया
था। टेलीविज़न
के प्रोग्राम
बहुत
कोलाहलपूर्ण
अभद्र और हिंसापूर्ण
थे आरे फिर
अचानक स्क्रीन
पर एक परम
पावन संत
प्रकट हुआ हाथ
और पैर
बेड़ियों से
जकड़ हुए फिर
भी विश्व पर
मुस्कुराहट
बिखेरता हुआ।
उसने ज़ंजीरों
में बंधे अपने
दोनों हाथ ऊपर
उठाकर उस
संसार को नमस्कार
किया। जो उसे
मिटा देना पर
तुला था लेकिन
कोई उसे पहचान
न पा रहा था।
अंधाधुन्ध
गाड़ी चलाते
हुए हमें
मार्शल की जेल
तक लाया गया
और मैं समझ न
पा रही थी कि
क्या ये लोग
पागल हो गए है
या कुछ ओ। सड़कें
खाली और शांत
थी लेकिन फिर
भी वे गाड़ी
इस तरह चला
रहे थे कि कार
के पिछले भाग
में बैठ हम
उछल-उछल कर
कभी कार की
दीवारों से
टकरा रहे थे
तो कभी दरवाजे
से, और
इस गिरने और
संभलने में
हमारे घुटने
और कंधे छिल
गये थे। ओशो
हमसे अगली कार
में थे और उनकी
कार को भी इसी
ढंग से चलाया
जा रहा था।
मुझे रह-रहकर
उनकी नाजुक
देह तथा
जोड़ों से
हिली हुई उनकी
रीढ़ की हड्डी
का ख्याल आ
रहा था। बाद
में ओशो ने
बताया था ‘मैं
स्वयं भी एक
दुस्साहसी
कार चालक हूं,अपने पूरे
जीवन मैंने दो
अपराध किए,
और वे थे दुत
गति। लेकिन यह
तेज गति से
गाड़ी चलाना
नहीं था।
लेकिन यह
दूसरे ही ढंग
था,
चलाते-चलाते
अचानक गाडी को
रोक देना।
बिना किसी कारण
के केवल मुझे झटका
देने के लिए।
मेरे हाथों
में हथकड़ियाँ
थी। और मेरे
टांगों में
बेड़ियां और
उन्हे विशेष
रूप से
निर्देश दिए
गए थे कि बेड़ियां
मेरी कमर में
कहां बांधी
जाएं....ठीक उस
स्थान पर
जहां मुझे
तकलीफ है।
केवल मुझ कमर
से अधिक से अधिक
कष्ट पहुंचाने
के उद्देश्य
से यह हर पांच
मिनट पश्चात
दोहराया गया—अचानक
तेज़ गति,
अचानक रूक
जाना। और किसी
ने
नहीं कहा कि
तुम उसे कष्ट
पहुंचा रहे
हो।’
जेल
पहुंचने पर जयेश
जो अपनी छुट्टियों
के नए मोड़ पर
विस्मित था—बनावटी
क्रोध में
बोला,
इस होटल में
आवास के लिए
आरक्षण किसने
करवाया है।
हमने रात
स्टील की
बेंचों पर
बिताई। हमे
खाने-पीने के
लिए कुछ भी
नहीं दिया
गया। शौचालय
कमरे के ठीक
मध्य में था
ताकि द्वार के
बीच लगी इलेक्ट्रानिक
आँख हमारी हर
गतिविधि को
देख सके। पिंजरे
नुमा कोठरी
में ओशो को भी
रखा गया था
अकेले और
उनमें अगली
कोठरियों में
थे देवराज, जयेश और
तीनों पुरूष
विमान चालक।
देवराज ने
कोठरी की सलाख़ों
के पीछे से
ओशो को पुकारा
कहा:
भगवान?
‘हूं।
ओशो ने उत्तर
दिया।’
‘भगवान
आप ठीक है।’
‘हूं, ऊँ, उत्तर
आया। फिर एक
क्षण मौन के
बाद भगवान की
और से आवाज आई, देवराज।’
‘जी
भगवान।’
‘क्या
हो रहा है।’
‘मुझे
मालूम नहीं
भगवान।’
‘एक
लम्बा मौन
तत्पश्चात
भगवान की
आवाज़’
‘हम कब
आगे प्रस्थान
कर रहे है।’
देवराज ने
उत्तर दिया, भगवान कह
नहीं सकता।
एक लम्बी
चुप्पी और
एकबार पुन:
भगवान की
आवाज।
लगता है
कोई भूल हो गई
है। या कुछ
ऐसा ही। हमे उन्हें
स्पष्ट कर
देना चाहिए।
पिंजड़ों
की पंक्ति
में तीसरे में
थी हम चार
लड़कियां और
एक महिला
विमान चालक जो
रो रही थी और
चिल्ला रही
थी। मैंने
अंतर देखा कि
कैसे हम सब
अपने केंद्र
में स्थिर थी
और वह
रोती-चिल्लाती
ऊपर नीचे टहल
रही थी। मैं
अनुगृहित थी
कि ऐसी परिस्थिति
में भी में
अपने भीतर उस
ध्यान की
अवस्था को
देख पा रही
हूं। जो ओशो
ने वर्षों से
हमें सिखाया
था। इसे इतनी
स्पष्ट रूप
से अनुभव करने
का अवसर मुझे
पहले कभी नहीं
मिला था।
हालांकि
मेरे क्रोध के
क्षण भी
बीच-बीच में
आये। यह स्पष्ट
था कि जेल की
पूरी व्यवस्था
इस तरह बनाई
गई थी कि व्यक्ति
को इस क़दर
तोड़ दिया जाए, अपमानित
किया जाए,
आतंकित किया
जाए, और
फिर उसे
आज्ञाकारी
गुलाम बना
लिया जाए। प्रथम
कुछ घंटों के
दौरान हमें
बताया गया कि कैदी
को काफी पीने
के लिए देना
नियमों के
विरूद्ध हे।
ऐसा इस लिए है
क्यों कि अक्सर
वह गार्ड में
मुंह पर फेंक
दी जाती है।
जब मैंने यह
सुना तो मैं
बहुत हैरान
हुई कि कैसे कोई
उस व्यक्ति
के मुंह पर
कॉफी फेंक
देगा जो उसे
कॉफी दे रहा
हो। कुछ घंटों
के पश्चात ही
में पूर्ण रूप
से समझ गई और
मुझे स्पष्ट
हो गया कि यदि
मौका मिला तो
मेरी गर्म
कॉफी किस व्यक्ति
के ऊपर होगी।
पूरी रात
और पूरा दिन
हम अपनी-अपनी
कोठरियों में
बंद रहे और
फिर हमें
कोर्ट कक्ष
में ले जाया
जहां हमारी
जमानत का
निर्णय होना
था। हमें बताया
गया कि लगभग
बीस मिनट
लगेंगे—वही
सामान्य
कार्य विधि कोर्ट
के कमरे तक ले
जाने के लिए
टांगों में
बेड़ियां और
हाथों में हथकड़ियाँ
पहनाई गई और
हथकड़ियों से
जुड़ी एक
जंजीर में
बांधी गई। दो
व्यक्ति
ओशो की कोठरी
में गए। मैंने
उन्हें सलाख़ों
के पीछे से
देखा। ओशो के
प्रति उनका व्यवहार
बहुत कठोर था।
उनका चेहरा
दीवार की और करवाने
के लिए एक व्यक्ति
ने उन पर टाँग
से प्रहार
किया। उसने
ठोकर मार कर
ओशो की टांगों
को चौड़ा
किया। और फिर
इधर उधर
धकेला। एक नवजात
शिशु के
साथ होता ऐस
क्रूर, नृशंस व्यवहार
देखना भी इससे
अधिक विकर्षक
नहीं हो सकता
था। ओशो ने
रति भर भी
प्रतिरोध
नहीं किया।
जहां तक ओशो
का सम्बन्ध
है—उनके लिए
एक फूल तोड़ना
भी हिंसा है।
उनकी कोमलता
और सौम्यता
मन में
श्रद्धा (एक
भाव) उत्पन्न
करनेवाली है।
मैंने उस व्यक्ति
को देखा जिसने
ऐसा किया था।
मैं आज भी
उसका चेहरा
देख सकती हूं।
मुझे बहुत
क्रोध आया और
कुछ भी कर
पाने में विवश
जब भी मैं उस
व्यक्ति को
देखती उसके
सिर में अपनी
दृष्टि गड़ा
यह इच्छा
करती कि उसका
सिर फट जाए।
जमानत की
बात प्रारम्भ
सेही एक झूठ
थी। मैंने इस
पर ध्यान
दिया कि बार-बार
डी लानी नाम
की जज—जो
घरेलू सी महिला
दिखाई दे रही
थी—कोर्ट की
पूरी
कार्यवाही के
समय एक बार भी
ओशो की और
नहीं देखा। मुक्दमें
के दौरान एक
अवसर पर हमारे
वकील बिल डीहल
ने कहा था, जज साहिबा
ऐसा लगता है कि
आप पहले ही
निर्णय ले
चुकी है।
बेहतर है हम
सब घर लोट
जाये।
ओशो को
ग़ैरकानूनी
उड़ान के
अपराध में
बंदी बनाया
गया था। बताया
गया उन्हें
आप्रवासन (इमिग्रेशन)
के आरोपों के
लिए गिरफ़्तारी
के वारंट के
बारे में
मालूम था और
वे जानबूझकर
उससे बचकर भाग
रहे थे। हम पर
ये आरोप लगाए गए
कि हमने
ग़ैरकानूनी
उड़ान में
सहयोग दिया और
गिरफ़्तारी
से बचाने के
लिए किसी व्यक्ति
को छिपाया।
हम चिंतित
थे कि यदि ओशो
को एक रात और
जेल में बितानी
पड़ी तो वे
भयानक रूप से
बीमार हो
जाएंगे। कई
वर्षों से
मधुमेह रो के
कार उनका आहार
नियन्त्रित
था और वह नियमित
रूप से नीयत
समय पर दवाई
लेते थे। उनका
नित्य क्रम
सुनिश्चित
था। हम लोग इस
का पालन बड़ी
सख्ती के साथ
करते थे। उसे
कभी तोड़ा
नहीं जाता था।
यदि वे कभी
उचित आहार समय
पर न लेते तो
बीमार पड़
जाते थे। उन्हें
दमे की शिकायत
थी और किसी भी
प्रकार की गंध
से उन्हें
एलर्जी थी।
वर्षों से इस
बात का ध्यान
रखा जा रहा था
और वहां तक कि
नए पर्दे की
गंध या किसी
के इत्र की
गंध से भी उन्हें
दमे का दौरा
पड़ जाता था।
उनकी रीढ़ की
हड्डी के अपने
स्थान से हिल
जाने के कारण
कमर की हालत
अभी वैसी ही
थी और कभी
सुधरी नहीं।
यह निवेदन
किया गया कि
ओशो को अस्पताल
की सुविधाओं
में रखा जाएं।
जज महोदय, ओशो ने
बोलना शुरू
किया, मैं
आपसे एक
साधारण सा
प्रश्न पूछ
रहा हूं...
जज ने उन्हें
बहुत ही
अभद्रता से
बीच में ही
टोक दिया और
कहा कि आपको
जो भी कहना है, अपने
वकील के माध्यम
से कहें। ओशो
ने बोलना जारी
रखा, ‘जज
महोदया, इन
स्टील बेंचों
पर मैं पूरी रात
बीमारी की
अवस्था में
पडा रहा और
निरंतर इनसे
कहता रहा—उन्होंने
मुझे एक तकिया
तक नहीं दिया।’
‘मुझे
नहीं लगता कि
उनके पास
तकिया है,
जज डी लानी ने
उत्तर दिया।’
‘स्टील
बेंच पर सोना—मैं
बेंचों पर
नहीं सो सकता।
जो वे मुझे दे
सकते है वह सब
में नहीं खा
सकता।’
यह भी कहा
गया कि कम-से
कम ओशो को
उनके कपड़े पहनने
दिए जाएं, क्योंकि
जेल द्वारा
दिए गए कपड़ों
में उन्हें एलर्जी
हो सकती है।
‘नहीं
सुरक्षा
नियमों के
कारण ऐसा नहीं
किया जा सकता।’ जज ने जवाब
दिया।
सुनवाई
अगले दिन भी
जारी रहनी थी
और हमारा स्थानान्तरण
मैक लैन वर्ग
जिला जेल में
कर दिया गया।
कम से कम हम मार्शल
जेल से बाहर आ
गए थे। अपने
जीवन के अंतिम
दिनों में ओशो
ने निजी
चिकित्सक से
कहा था:
‘यह
सब मार्शल की
जेल कोठरी से
शुरू हो गया
था।’
हम मैक लैन
बर्ग के जिला
कारावास में
ले जाए गये, और पुन:
हमारे
हाथ-पाँव ज़ंजीरों
में बांधे
गये। मेरे
पैरों में
बंधी जंजीर ने
मेरे टखने पर
गहरा धाव कर
दिया और मेरे
लिए चलना भी
कठिन हो गया।
पांवों में
बेड़ियों के
बावजूद ओशो की
चाल पहल जैसी
थी—गरिमापूर्ण।
पहली बार जब
उन्होने
विवेक ओर मुझे
एक ही जंजीर
में बंधे देखा
था तो हंस
पड़े।
जब किसी एक
कैदी को जेल
के भीतर या
बाहर ले जाया
जाता है तो
उसे एक ऐसी
कोठरी में
प्रतीक्षा करनी
पड़ती है
जिसमें कोई
खिड़की नहीं
होती वह कोठरी
लगभग आठ फुट
लम्बी होती है।
जिसमे एक स्टील
की चारपाई के
लिए जगह होती
है। और घुटनों
और दीवारों के
बीच छह इंच का
ही फासला होता
है।
विवेक और
मैं दोनों स्टील
की चारपाई पर
पास-पास ही
बैठी थी। और पेशाब
की दुर्गंध से
हमारा दम घुट
रहा था।
दीवारों पर
रक्त और मल
पौंछा हुआ था
और भारी दरवाजे
पर धब्बों के
निशान थे। स्पष्ट
था कि पिछले
कैदियों ने
विक्षिप्त
होकर दयनीय
अवस्था में
इससे अपना सिर
मार-मार कर स्वयं
को घायल किया
होगा। हमने
सतर्क होकर एक
दूसरे की और
देखा जब
दरवाजे की दूसरी
और से दो व्यक्तियों
को धीमी आवाज
में अपने बारे
में बातें
करते सूना। वे
चार रजनीशी
महिलाओं के बारे
में बात कर
रहे थे। कि
उनके साथ कैसा
व्यवहार
करेंगे। वे
कैसी लगती है, ‘और उनमें
से एक रजस्वला
है, उन्होंने
कहा: (उन्हें
यह कैसे पता
चलो) हम दो
घंटे
प्रतीक्षा करती
रही, बलात्कार
और दुर्व्यवहार
की
आकांशा से
भयभीत। हमे यह
भी मालूम नहीं
था कि अब यही
रहेंगी या
नहीं। लेकिन
सबसे अधिक दु:ख
की बात तो यह
थी कि ओशो के
साथ भी ऐसा
बर्ताव किया
जा रहा था।
जैसा हमारे
साथ किया जा
रहा है। हम
उन्हें देख
भी नहीं सकत
थे।’
जेल के
पूरे अनुभव
में सबसे अधिक
पीड़ादायी बात
तो यह थी कि
हमें पता चल
गया था कि ओशो
के साथ औरों
से बेहतर
बर्ताव नहीं
किया जा रहा
था, और
अगर उनके साथ
ऐसा ही बर्ताव
होता रहा.....।
हमसे हमारे
कपड़े ले लिए
गए, ओशो
के भी, और
हमें जेल के
कपड़े दे दिए
गए। वे पुराने
थे और स्पष्ट
था कि बहुत
बार धोएं जा
चुके थे।
लेकिन उनकी
बगलें पुराने
पसीने के कारण
अकडी हुई थी।
और जब मेरे
शरीर की गर्मी
से वे पिघली तो
मुझ उन सब
लोगों की
दुर्गंध को
सहन करना पडा।
जिन्होंने
इसे मुझसे
पहले पहना था।
वह बुत ठोस थी लेकिन
फिर भी
जब मुझे तीन
दिन बाद कपड़ बदलने
के बारे में
पूछा गया तो
मैंने इंकार
कर दिया। क्योंकि
अब तक मुझे कम
से कम कोई त्वचा
रोग या स्कैबीज़
तो नहीं हुआ
था। कौन जाने
अगली बार.....।
मैंने नर्स
कार्टर से, जो ओशो की
देख-भाल कर
रही थी,
सुना कि जब
ओशो को कपड़े
दिए गए तो उन्होंने
मज़ाक में
मात्र इतना
कहा, लेकिन
ये तो मेल
नहीं खाते।
बिस्तर के
कपडे,
पहनने वाले
कपड़ों से भी
बदतर थे;
इसलिए मैं
कपड़े पहनकर ही
सोती। चादरें
फटी हुई थी।
और उन पर पीले
दाग थे;
कम्बल ऊनी था
और उसमे छेद
थे। ऊन,ओशो
को तो ऊन से
एलर्जी है।
नीरेत,
हमारा वकील नए
सूती कम्बल
ओशो के लिए
जेल में लेकिर
आया परंतु कम्बल
उन तक पहुंच
ही नहीं पाया।
जेल एक
ईसाई संस्था
है। पादरी जेल
की कोठरियों
में बाइबिल
लेकिर आता है
और जीसस की
शिक्षाओं के
बारे में बताता
है। मुझे लगा
कि मैं समय
में पाँव सौ
वर्ष पीछे लौट
गई हूं, यह सब कितना
आदिम प्रतीत
हुआ।
निन्यानवे
प्रतिशत
क़ैदी नीग्रो
थे। क्या यह
सम्भव है कि
केवल काले लोग
ही अपराध करते
है। या कि ऐसा
है,
केवल काले
लोगों को ही
सज़ा दी जाती
है।
मैं अपनी
कोठरी में गई
जहां मुझे
लगभग बारह नशीले
पदार्थों का
सेवल
करनेवाले
लोगों तथा वेश्याओं
के साथ रहना
था। बचाओ, मैंने स्वयं
से कहां। ‘एड्स
का क्या
होगा।’
महिलाएं जो-जो
काम वे कर रह
थी, उसे
बंद कर दिया।
और जैसे ही
मैंने पिस्सुओं
से भरी चटाई
लेकर खाली शायिका
तक पहुंचने के
लिए फर्श को
पार किया सब
सिर मेरी और
घूम गये। एक
पल के लिए में
अंतराल में
पहूंच गई।
बेंचों ओर में
जों के पास कई
महिलाएँ ताश
खेल रही थी।
मैंने उनसे
पूछा क्या
मैं भी आप के
साथ यह खेल
सकती हूं,
जेल छोड़ने से
पहले मैं उनकी
तरह दक्षिणी
उच्चारण में
बोलना—सीखना
चाहती थी।
मुझे क़ैदी
अच्छे लगे और
वे उन लोगों
से अधिक
बुद्धिमान थे
जिन्हें मैं
जेल से बाहर
मिली थी। उन्होंने
मुझे बताया कि
उन्होंने
मुझे अपने
गुरु के साथ
टेलीविजन पर
देखा था और वे
यह नहीं समझ
पा रहे
कि केवल
आप्रवास आरोप
के लिए इतना
उपद्रव कर हमे
गिरफ्तार कर
जेल में क्यों
डाला जा रहा
है। उन्हें
यह नहीं समझ आ
रहा था कि यह
सब क्या हो
रहा है। और क्यों
हो रहा है
हमारे साथ,बड़े-बड़े
अपराधियों का
सा व्यवहार
किया जा रहा
है हमारे साथ,क्यों? मैंने
सोचा कि यदि
इन महिलाओं को
यह स्पष्ट
है तो निश्चित
ही बहुत से
अमरीकनों को
भी ओशो की
गिरफ्तारी से आघात
पहुंचा होगा
और कोई न कोई, बुद्धिमान, साहसी एवं
शक्तिशाली व्यक्ति
शीध्र ही आगे
आएगा और कहेगा, ‘एक मिनट
रूको....यह सब क्या
हो रहा है?
मुझे पूर्ण
विश्वास था
कि ऐसा होगा।
इसी को आशा
कहते है। और
मुझे पाँच दिन
तक इसी आशा
में जीना था।’
कुछ घंटो
के पश्चात ही
मेरी कोठरी
बदल दी गई।
मैंने नहीं
पूछा क्यों
क्योंकि मुझ
यह देखकर राहत
मिली कि मुझे विवेक, निरूपा
और मुक्ति के
साथ रखा जा
रहा है। हमारे
साथ दो क़ैदी
और थे। कोठरी
में एक पंक्ति
में दो-दो शायिकाओं
के तीन-तीन
सेट थे। एक
मेज़, एक
बेंच,एक स्नान
गृह, और एक
टेलीविजन सेट
जो केवल रात
को सोने के समय
ही बंद होता
था।
शेरिफ किड
के पास जेल का
कार्यभार था
और मैं समझती
हूं कि मौजूदा
परिस्थतियों
में उसने ओशो
की सहायता
करने का
यथासम्भव
प्रयत्न
किया। उसने
विवेक और मुझे
कहा, ‘वे
(ओशो) निर्दोष
है।’ नर्स कार्टर
भी ओशो के
प्रति संवेदनशील
थी। और
प्रतिदिन
उनके बारे में
कोई न कोई सु-समाचार
दे जाती थी।
जैसे कि,
आज तुम्हारे
गुरु न पूरा दलियाँ
खाया। एक सुबह
कोठरी की सलाख़ों
से मैंने ओशो
को उपर प्रधान
सैम्युएल का
इस प्रकार
अभिवादन करते
देखा मानों
मेरे लिए तो
समय रूक गया।
जेल ने एक
मंदिर का रूप
ले लिया था।
उन्होंने सैम्युएल
के हाथ अपने
हाथों में
लिये और वे
दोनों कुछ क्षणों
तक खड़े एक
दूसरे को
निहारते रहे।
ओशो उसे इतने
प्रेम और आदर
से देख रहे थे
कि उसे देखकर
ऐसा लगा जैसा
कि यह मिलन
जेल में नहीं
हो रहा,
यद्यपि वास्तविकता
यही थी।
ओशो ने
पत्रकारों की
एक गोष्ठी को
सम्बोधित किया
और उन्हें
जेल के कपड़ों
में
पत्रकारों के प्रश्नों
के उत्तर देते
हुए टेलीविजन
पर दिखाया
गया। पहली बार
जब मैंने ओशो
को जेल के
कपड़ों में
देखा तो मैं
उनके उस
सौंदर्य को
देखती ही रह
गई। कुछ पाल
के लिए मैं
किसी और लोक
में चली
गई....विवेक
मेरे साथ थी मैंने
मुड़ कर
विवेकी और
देखा....हम दोनों
के पास कोई
शब्द नहीं
थे....बस था तो एक
विस्मय, एक अबोध
प्रेम.....ओर
दोनों के मुख से
एक साथ निकला ‘लाओत्सु।’ वे प्राचीन
चीनी सदगुरू
लाओत्सु की
तरह दिख रहे
थे।
जेल के बार्डर
हमारे प्रति
स्नेह पूर्ण
थे ओर ओशो के
लिए उनके
ह्रदय में आदर
था। मैंने
देखा कि वहां
लोग बहुत अच्छे
थे लेकिन शासन-तंत्र
बिलकुल
अमानुषिक है।
वे इसके प्रति
जागरूक नहीं
है। कोर्ट
जाते समय
लिफ्ट से नीचे
ले जाते हुए
एक महिला
गार्ड हमारी
और मुड़ी और
बोली: परमात्मा
का आर्शीवाद
आपके साथ हो, और जल्दी
से मुड़कर
वापस चली गई।
न जाने वह
शरमा गई थी या
फिर नहीं
चाहती थी कि
कोई उसे हमसे
बात करते न देख
ले न सुन ले।
हमें
प्रतिदिन व्यायाम-प्रांगण
में पंद्रह
मिनट के लिए
जाने दिया
जाता था।
दूसरी मंजिल
पर स्थित ओशो
की कोठरी में
एक लम्बी
खिड़की थी। एक
क़ैदी ने ऐसी
व्यवस्था
कर दी कि जब हम
प्रांगण में
जाते,
वो एक जूता
ऊपर फेंकता और
ओशो जी खिड़की
में आ जाते।
उनका हिलता
हुआ हाथ देख
कर हमें लगता
परमात्मा
हमें आर्शीवाद
दे रहा है। जो
हमें स्पष्ट
दिखाई नहीं
देते थे।
लेकिन हम उन्हें
पहचान लेते और
उनके
धीरे-धीरे
हिलते हुए हाथ
को देख कर
मंत्र मुग्ध
से हो जाते।
एक बार मूसलाधार
वर्षा में हम
खूब नाचे और
हमारे लिए ‘दर्शन’
जैसा था,
खिड़की से
दिखाती
घुंघली आकृति
मुझे चर्च की खिड़कियों
में लगे रंगीन
चित्र ऐसे प्रतीत
हो रहे हो
जैसे किसी संत
का हो। मन
इतना प्रसन्न
और गद्गद और नाच
उठा की जेल भी
मंदिर बन गया।
अपनी कोठरी की
और लोटते समय
गॉर्ड आश्चर्यचकित
था और हमसे
पूछा तुम्हें
क्या हो
गया.....जब तुम गई
थी तो तुम्हारे
चेहरे उदास...ओर
लटके हुए थे।
लेकिन इतने
ताजा और खिले
हुए चेहरे
लेकर तुम वापस
आए....क्या था
वहां। और हम
हंस कर, चली
गई। वह हमारी
चाल और हमारी
मस्ती को
निहारता ही रह
गया....।
आनेवाले
चार दिनों में
कोर्ट के कमरे
में एक तथ्य
स्पष्ट हुआ
कि अमरीका का
न्याय एक
ढोंग है।
सरकारी
एजेंटों ने कठधरे
में झूठ बोला, ओशो के
विरूद्ध उन संन्यासियों
की गवाही
प्रस्तुत की
जिन्हें ब्लैकमेल
कर झूठ बोलने
पर विवश किया
गया था। शीला
द्वारा किए गए
अपराधों को
प्रस्तुत
किया गया जबकि
उनका ओशो के
अभियोग से कुछ
लेना देना
नहीं था।
दिन-पर-दिन बीतते
गए और मैंने
देखा कि इस
संसार में कोई
समझ नहीं है।
कोई विवेक
नहीं है,
कोई न्याय
नहीं है। सब
अपनी नींद में
जी रहे
है....चाहे किस
के उपर लात
पड़ हाथ पड़े
बस पड़ना नहीं
चाहिए तुम्हारी
नींद में
विघन।
अभियोग
पाँच दिन तक
चला। जिस दिन
उनहोंने हमारी
बेड़ियां
उतारी और हम
न्यायालय से
बाहर आ रहे थे
एक संवाददाता ने
दूर से चिल्लाकर
पूछा ज़ंजीरों
के बीना कैसा
लेता है। मैं रुकी
और हाथ ऊपर
उठा कर वैसा
ही लगाता है।
ओशो की
जमानत स्वीकार
नहीं हुई। उन्हें
एक कैदी की
भांति
पोटलैंड़ ऑरेगान
जाना था और
निर्णय वहीं
किया जाना था।
यह छह घंटे की
उड़ान थी।
मैंने उन्हें
टेलीविजन
समाचारों में
जेल से हवाई जहाज
की सीढ़ियों
तक जेल
अधिकारियों
के साथ जाते
देखा था।
हालांकि उनके
हाथ-पाँव ज़ंजीरों
से बंधे थे।
फिर भी उनकी
चाल ऐसी लावण्य
थी, एक
मधुर उन्माद
लिए जिस
शालीनता और
आनंद से चल
रहे थे। मैं
बस देखती ही
रह गई। एक
जाग्रत व्यक्ति
कैसा होता है
अगर किसी के
पास जरा भी
आँख हो तो वह
पल में अभिभूत
हो जाये। उन्हें
इस तरह से
बेड़ियों में
जकड़े हुए
चलते देख कर
मेरा ह्रदय रो
उठा। मैंने पल
को आसमान की और
आंखें उठाई ओर
पूछा हे
परमात्मा तू
ये सब क्या
दिखा रहा है......।
हमें
उन्हें सलाख़ों
के पीछे से ही
अलविदा कहने
की अनुमति दी
गई। मुक्ति, निरूपा
और मैं निकट
गई और अपने
हाथ सलाख़ों
से भीतर किए
और रोने लगी।
वे स्टील की
चारपाई से उठे,हमारी और आए
और हमारे हाथ
पकड़ कर कहते
लगे:
‘तुम जाओ।
चिंता मत करना, यहां सब ठीक
हो जायेगा।
मैं ये नहीं
देख पा रही थी
और शीध्र ही
बाहर की और
भागी। वो कहे
जा रहे थे,
सब ठीक हो
जायेगा तुम
लोग प्रसन्नतापूर्वक
जाओ।’
जेल के
कार्यालय में
बैठ जब हम
रिहा होने की
प्रतीक्षा
में ओशो को
टेलीविजन पर
देख रहे थे तो
मैंने एक
पुलिस कर्मचारी
को यह कहते
सुना: ‘इस
व्यक्ति
में सचमुच कुछ
है। इसके साथ
कुछ भी घट रहा
हो। यह शांत
और स्थिर ही
रहता है।’
मैं
समस्त विश्व
को बताना
चाहती थी कि
देखा कैसे एक
सदगुरू को
झूठे अपराधों
के आरोप में
बंदी बनाया
गया है। कैसे
अमरीकी न्यायिक
प्रणाली
द्वारा उनके
साथ दुर्व्यवहार
किया गया है।
शारीरिक रूप
से पीडित उन्हें
बंदूक की नोक
पर अमरीका में
न जाने कहां-कहां
घसीटा जाएगा—और
वे हमें यह कह
रहे है कि ‘प्रसन्नतापूर्वक
जाओ’ क्या
उनके इस छोटे
से कथन से उन्हें
दिखाई नहीं
पड़ता कि वे
किस तरह के व्यक्ति
है।
मेरी
ऊर्जा में
बदलाव आया।
मैंने रोना
बंद कर दिया।
और उनकी और
देखा। आनंदित
होने में एक शक्ति
है। और आनंद
ही उनका संदेश
था।
प्रसन्नतापूर्वक
जाऊंगी और
अपनी शक्ति
को क्षीण नहीं
होने दूंगी।
मैंने शपथ ली।
मुझे आंतरिक
शक्ति मिली
लेकिन मेरी
प्रसन्नता
सतही थी यह
ऐसा था जैसे
ह्रदय की शल्य
क्रिया के बाद
उस पर छोटी-सी ‘बैंड एड’ लगा दी गई
हो।
हम सब
रजनीशपुरम
लौट आए और ओशो
को उन हाथों
में छोड़ आए
जो उन्हें
मिटा देना
चाहते थे।
नॉर्थ
कैरोलिना में
पोर्टलैंड की
यात्रा जिसे
छह घंटे लगने
चाहिए थे उसे
सात दिन लगे।
और ओशो को इस
बीच चार विभिन्न
जेलों में रखा
गया। इस
कारावास की
अवधि में उन्हें
रेडिएशन के
प्रति
अरक्षित रखा
गया और थैलीयम
नाम विष दिया
गया।
हम
रजनीशपुरम
में चिर
प्रतीक्षा करते
रहे। 4 नवम्बर
की संध्या से
6 नवम्बर तक
उनका कोई
समाचार नहीं
मिला जबकि यह
प्रसारित कर
दिया गया था
ते ओक्लाहोमा
में उतरे है।
यात्रा को
केवल छह घंटे
लगने चाहिए।
और शारलट
छोड़ने के बाद
पहले ही तीन
दिन बीत चूके
है। जेल
अधिकारी उनके
पते ठिकाने के
बारे मे मौन
धारण किए हुए
थे। और विवेक
के काफी शोर
मचाने के बाद
कहीं तलाश
शुरू हुई। बिल
डीहल जिसने
शारलट में वकील के
रूप में हमारी
बहुत सहायता
की थी और ओशो
के लिए बहुत
प्रेम से कार्य
किया था। हवाई
जहाज से ओक्लाहोमा
चला गया। ओशो
मिल गए, इससे पहले
उन्हें दो
विभिन्न
जेलों में ले
जाया गया था
और बलपूर्वक
एक झूठे नाम
डेविड
वाशिंगटन के
अंतर्गत उनके
हस्ताक्षर
करने के लिए
दबाव डाला
गया। स्पष्ट
था कि ऐसा
इसलिए किया
गया था कि अगर उन्हें
कुछ हो जाए तो
जेल रिकार्ड
में भगवान
श्री रजनीश के
नाम से कोई
सुराग न मिले।
ओशो की गिरफ्तारी
के बारह दिनों
के बाद जूलिएट
फोरमैन की
पुस्तक ‘ट्वैल्व
डेज दैट शुक द
वर्ल्ड’
मैक्स
ब्रेकर की
पुस्तक ‘ऐपैसेज
टु अमेरिका’ पढ़िए।
ओशो ने
विश्राम किया
अगले कुछ दिन
प्रतिदिन बीस
घंटे सोये। 12
नवम्बर को
सुनवाई थी। एक
रात पहले मुझे
बताया गया कि सुनवाई
के पश्चात
ओशो अमरीका
छोड़कर भारत
चले जाएंगे।
लक्ष्मी
चार वर्ष कम्यून
से दूर रहने
के बाद अब पुन: पर्दे
पर उभर आई।
मैं उस मीटिंग
में उपस्थित
थी जिसमें वह
ओशो को हिमालय
में उस स्थान
के बारे में
बता रही थी
जहां नया कम्यून
शुरू किया जा
सकता था। वह
उन्हें एक
विशाल नदी के
बारे में बता
रही थी। जिसके
बीच में एक
द्वीप है।
वहाँ हम एक
बुद्धा हाल बनाएँगे।
लक्ष्मी ने
कहा। ‘कि
वहां कई
छोटे-छोटे
बंगले है,
और ओशो के लिए
एक बहुत बड़ा
घर हे। और
उसने यह भी
बताया कि
इमारतों की
पुन: विस्तार
योजना के लिए
अनुमति
प्राप्त
करने में भी
कोई कठिनाई
नहीं होगी।
ओशो नए सिरे
से कम्यून
प्रारम्भ
करने को
पूर्णतया
तैयार थे।
अपने कुछ संन्यासियों
द्वारा विश्वासघात
किए जाने और
अपने बिगड़ते
स्वास्थ्य
के बावजूद
उनके कार्य को
तो जारी रहना
ही था। जिस
समग्र उत्साह
से वे नए कम्यून
का विस्तार
से चर्चा कर
रहे थे उसे
देखकर में स्तब्ध
रह गई।’
मैंने
कम से कम बीस
बड़े बक्सों
में सामान बंद
कर दिया क्योंकि
मुझे भय था कि
यदि हम मीलों
ऊपर हिमालय
में रहने गए
तो गर्म कपड़े, प्रसाधन
सामग्री
खाद्य पदार्थ इत्यादि
वहां कहां
मिलेंगे। मैं
ओशो के अधिक
से अधिक कपड़े
ले जाना चाहती
थी। हो सकता
है नए कपड़े सीने
की व्यवस्था
करने में समय
लग जाये।
अगले
दिन विवेक और
देवराज ओशो से
पहले ही चले गए।
और मुझे ओशो
के साथ
पोर्टलैंड
जाने के लिए छोड़
गए। मैं जाने
की पीड़ा का
अनुभव कर रही
थी। यद्यपि
लक्ष्मी की
बात सही थी तो
हम शीध्र ही
फिर इकट्ठे होनेवाले
थे। फिर भी
दुःख तो था
ही।
जब मैं
ओशो के कमरे
की कुछ वस्तुओं
को संदूक़ों
में रख रही थी
तो उन्होंने
शिव की मूर्ति
जिसकी चर्चा
उन्होंने कई
बार अपने
प्रवचनों में
की भी,
उठाई और बोले, इसे कम्यून
को दे दो वे
इसे बेच सकते
हे। फिर वे
कमरे में
घूमते रहे और
बुद्ध की
मूर्ति के पास
गए उसके बो
में भी वही
कहां। मैंने
हकलाते हुए
कहा, ‘ओह
नहीं,
कृपया से नहीं, इन्हें आप
इतना प्रेम
करते है। ’
लेकिन उनहोंने
आग्रह किया।
फिर उन्होंने
कहा कि जब
उनकी घड़ियाँ फैडैरल
एजेंट से वापस
आए जाएं तो
उन्हें
मेडिटेशन हाल
में मंच पर रख
देना ताकि सब उन्हें
देख सकें। फिर
उन्होंने
अपने लोगों से
यह कह देने के
लिए कहा कि ‘ये घड़ियाँ
भारत जाने के
लिए हवाई जहाज
के किराए के
काम आएँगी।’
हमें
नहीं मालूम था, न हम कल्पना
ही कर सकत थे
कि सरकार ही
उनकी सब घड़ियाँ
चूरा लेगी। जब
हम शारलट में
बंदी बनाया
था। हमारा सब
सामान जब्त
कर लिया गया
था। कानुनी
लड़ाई के बाद
कुछ वस्तुएं
तो एक वर्ष बाद
लौटा दी गई थी
लेकिन ओशो की घड़ियाँ
उन्होंने रख
ली। अब यह तो
साफ़ डकैती
हुई।
मैंने
अपने मित्र से
विदाई ली और
फिर ‘अपने’ उस पर्वत को
झुककर प्रणाम
किया। पिछले
चार वर्ष जिसकी
गोद में मैं
सोई थी। जिसके
ऊपर में चढ़ा
करती थी। जिसे
मैं घंटो बैठ
कर निहारा
करती थी। फिर
मैंने आवेश को
पुकारा ओर
गैरेज से कार
लाने को कहा,जैसा कि
मैंने पहले कई
बार किया था।
आवेश कार चला
रहा था और मैं
पीछे बैठी थी।
बाशो सरोवर से
रजनीश मंदिर
होते हुए हम
रजनीशपुरम से घूमते
हुए जब जा रहे
थे।
वहां
चारो और
लोग-ही लोग
थे। जहां तक
नजर जा रही
थी...केवल लाल
ही लाल नजर आ
रहा था। वाद्य
यन्त्रों को
बजाये हुए, नाचते
हुए, गाते
हुए लोग अपने
सदगुरू को हाथ
हिला-हिलाकर
अलविदा कह रहे
थे। वाद्य
बजाते लोग,
झूमते हुए
लोग....जिनके
ह्रदय में एक
पीड़ा....आंखों
में एक उन्माद
के साथ-साथ
दर्द का सागर
हिलोरे मार
रहा था। कारों
के लेकिर
हमारे
पीछे....आते
रहे। कुछ तो
अपना ब्राजीलियन
ड्रम लेकिर
पैदल ही भाग
रहे थे। मैंने
उन लोगो के
चेहरे देखे जो
वर्षों पहले
निष्प्रभ
दिखाई देते थे, लेकिन
जिनका अब
रूपांतरण हो
गया था। लेकिन
अब उनकी चाल, उनकी मस्ती, उनका उन्माद
उनकी जीवंतता
को दर्शा रहा
था। अब वे
कांतिमान और
अधिक जीविंत
थे।
ओशो
ने अंतिम बार
रजनीशपुरम
में अपने
लोगों को नमस्कार
किया। मैं
पीड़ा से तनावपूर्ण
थी लेकिन स्वयं
को टूटने से
बचाने की
कोशिश कर रही
थी। मैं जानती
थी ये समय
भावावेग में
बह जाने का
नहीं है। मुझे
ओशो की
देख-भाल करनी
है। और मैंने
स्वयं से कहा, ‘बाद
में रो लुंगी।
लेकिन अभी
नहीं।’
हम
विमान पट्टी
पर खड़े विमान
तक पहुँचे,
सीढ़ियों पर ओशो
मुड़े और हाथ
हिलाकर सबसे
विदाई ली।
रनवे लोगों से
भरा हुआ था।
आशापूर्ण उल्लासित
चेहरे—संगी
बजाते हुए
अपने सदगुरू
को भाव-भिनी
विदाई दे रहे थे।
जैसे
जहाज़ उड़ा मैंने
छोटी सी
खिड़की से उस
स्थान को
देखा और फिर
देखा ओशो को
जो अपने लोगों
को पीछे छोड़
शांत बैठे थे।
अपने
अंदर एक
प्रभुता का
मंदिर
समेटे...।
मा प्रेम शुन्यो-(चेतना)
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