सबै सयाने एक मत-(संत दादू)
दिनांक : 12 सित्म्बर, सन् 1975,
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रार्थना क्या है?
प्रश्न-सार:
1—क्या प्रार्थना ही पर्याप्त है?
2—हम अंधे हैं, अंधकार में जी रहे हैं।
प्रकाश का कुछ अनुभव नहीं।
ऐसी अवस्था में हम प्रार्थना क्या करें?
3—आपने कहा कि पाप की स्वीकृति से पात्रता का जन्म होता है।
लेकिन उसी से आत्मदीनता का जन्म भी तो हो सकता है!
4—दादू की खोज जिज्ञासु की थी या साधक की या भक्त की?
पहला प्रश्न: क्या प्रार्थना ही पर्याप्त है?
प्रार्थना
प्रार्थना हो,
तो
पर्याप्त से भी ज्यादा है। लेकिन असली सवाल है कि प्रार्थना प्रार्थना हो। उधार न
हो, हार्दिक हो; सिखाई-पढ़ाई न हो, अंतरतम से उठी हो; तो पर्याप्त ही नहीं, पर्याप्त से भी ज्यादा है।
प्रार्थना
अगर शुद्धतम हो जाए तो परमात्मा भी आवश्यक नहीं है, प्रार्थना काफी है। परमात्मा
रूपांतरित नहीं करता है, प्रार्थना
ही रूपांतरित करती है। परमात्मा तो प्रेम का ही गहनभूत अनुभव है। ऐसा नहीं है कि
प्रार्थना साधन है और परमात्मा साध्य है। ऐसा है कि प्रार्थना ही जब सघन हो जाती
है, तो परमात्मा प्रकट हो जाता
है। प्रार्थना का ही सघनीभूत रूप परमात्मा है।
लेकिन
तुम जिसे प्रार्थना कहते रहे हो--परमात्मा तो बहुत दूर, वह प्रार्थना भी नहीं है।
ऐसा
हुआ, मैं कलकत्ता की यात्रा पर था।
एक निपट कंजूस मित्र ने बार-बार आग्रह किया कि उनके घर आऊं; नया घर किराए पर लिया है। घर
उनका देखने योग्य होगा नहीं, यह मैं
भलीभांति जानता था। जाना व्यर्थ ही होगा--कंजूस, महाकंजूस! फिर भी पीछे पड़े, तो मैं गया।
जाकर
पाया कि जाना बेकार नहीं हुआ। एक बड़ा कीमती अनुभव मिला। वे अपना मकान घूम-फिर कर
मुझे दिखाने लगे। कुछ भी देखने योग्य न था। पुराने कैलेंडर टांग रखे थे; वे भी पुराने सालों के। सामान
भी जो था वह भी सब चोर-बाजार में खरीदा होगा। सब फटा-पुराना, सब ऐतिहासिक। लेकिन जो आखिरी
कमरा उन्होंने दिखाया, वह बड़ा
उदघाटक सिद्ध हुआ। कहने लगे, यह
हमारा संगीत का कमरा है।
चारों
तरफ मैंने देखा,
न कोई
वीणा है,
न कोई
तबला है। तबला और वीणा तो दूर, कोई
रेडियो भी नहीं है। मैंने पूछा कि कोई साज-समान नहीं है? सिर्फ टूटी-फूटी दो-चार
पुरानी कुर्सियां पड़ी हैं।
कहने
लगे, साज-सामान? साज-सामान की जरूरत भी नहीं
है। यहीं बैठ कर हम पड़ोसियों के रेडियो से निकली स्वरलहरी को बड़े आनंद से सुन लेते
हैं।
वह
इनका संगीत का कमरा है। पड़ोसियों के रेडियो से निकली स्वरलहरी को! एक तो रेडियो ही
उधार, वह भी पड़ोसी का। स्वरलहरी भी
बासी, क्योंकि वह भी रेडियो पर
बजाया गया रिकार्ड। वहां भी कोई जीवित प्राण स्पंदित नहीं हो रहा है।
प्रार्थना
तुम्हारी नहीं है। किसी ने तुम्हें सिखा दी है। मां-बाप ने सिखाई होगी; समाज ने सिखाई होगी।
सदियों-सदियों से चली आती है शृंखला संस्कारों की। जिनसे तुमने सीखी है उनमें से
पहले ने भी गाई होगी हृदय से, यह भी
संदिग्ध। इस बासे खेल में तुम भागीदार बनोगे और इससे तुम नित-नूतन परमात्मा को
पाने की आकांक्षा करोगे।
इसीलिए
तो दादू कहते हैं: नित नूतन नेह दे, नित नूतन नाम।
तू ही
नया कर। हम तो हर चीज को पुराना कर लेंगे। हमारे तो होने का ढंग ही जराजीर्ण और
बासा है। हमारा तो मन ही उधार है। शब्द कितनी बार ओंठों पर दोहरा लिए गए हैं।
उन्हीं बासे शब्दों को तुम दोहराए चले जाओगे। हृदय में कहीं कोई कंपन, कोई लहर भी न उठेगी, कोई सोए प्राण नाचेंगे भी
नहीं। और तुम सोचते हो प्रार्थना से सब हो जाएगा, तो गलत सोचते हो।
पहली
तो बात है कि प्रार्थना उधार नहीं हो सकती; प्रेम उधार नहीं हो सकता। तुम्हारे
बाप-दादों ने कितना ही प्रेम किया हो, इससे तुम प्रेमी न हो जाओगे। और तुम्हारे
देश में कितने ही साधु-संत क्यों न हुए हों, इससे तुम भक्त न हो जाओगे। किसी दूसरे से
लेना-देना नहीं है। तुम्हें तुम्हारी अपनी निजता को ही खोजना होगा। तुम्हारे ही
हृदय के अंतरतम से उठेगी आवाज, तो
सार्थक है। वह तुम्हें रूपांतरित करेगी।
प्रार्थना
भूल कर भी किसी और से मत सीखना। सीखी सभी प्रार्थनाएं झूठी हो जाती हैं। जाना
मंदिर,
मस्जिद, गुरुद्वारा; कोई हर्ज नहीं है। लेकिन
प्रार्थना अपनी ही करना। कोई हर्ज नहीं शब्द न निकलें। क्योंकि परमात्मा को शब्दों
से क्या संबंध है?
आंसू
ही बहें,
मौन ही
बैठे रहो,
या कि
नाचने लगो उन्मत्त पागल की भांति; या कि
हंसो खिलखिला कर;
या कि
बोलो अनर्गल वाणी--ऐसी वाणी का नाम भारत में पड़ गया है सधुक्कड़ी; वह जो साधु बोलता है। वह कुछ
हिसाब नहीं रखता।
एक
सूफी फकीर के संबंध में उल्लेख है। बड़ा फकीर हुआ बायजीद। बोलता था तो साफ नहीं
होता था,
क्या
बोलता है! व्याकरण की कभी चिंता नहीं थी। बुद्धि से नहीं बोलता था, हृदय से बोलता था। एक दिन राह
से गुजरता था,
एक
गहरे कुएं से आवाज आई कि बचाओ, मैं
मरा!
वह पास
गया, अंधेरी रात थी। उसने पूछा, कौन हो भाई? क्या शोरगुल मचाया? क्या कर रहे हो वहां?
उस
आदमी ने कहा कि बचाओ, मैं मर
रहा हूं। मैं गांव का पंडित हूं, मौलवी
हूं।
बायजीद
ने कहा कि ठहरो;
मैं
जाता हूं,
लाता
हूं अभी रस्सी-बाल्टी, जो भी
जरूरी है;
निकाल
लूंगा। घबड़ाओ मत। धीरज रखो।
पर
बोला वह अपने ही ढंग से; जिसमें
न कोई व्याकरण थी,
न कोई
ढंग था। जाने को था कि भीतर से आवाज आई कि सुनो! जो भी होओ तुम, लेकिन भाषा तो कम से कम ठीक
करो। व्याकरण की भूल तो न हो।
तो
बायजीद ने कहा,
फिर
तुम्हें ज्यादा देर तक रहना पड़ेगा। मैं जाता हूं, व्याकरण सीखूंगा।
कहते
हैं, साल भर बायजीद ने व्याकरण
सीखी, तब आया। तब तक तो वह
व्याकरणाचार्य मर चुका था।
हृदय
की भाषा चाहिए;
व्याकरण
न हो तो चलेगा। क्योंकि वहां तो कोई और डूब कर मर रहा था, अगर तुमने हृदय की भाषा न
पकड़ी तो तुम्हीं डूब कर मर रहे हो। भाषा न भी हो तो भी चलेगा। क्योंकि जिससे तुम
बोलने चले हो,
परमात्मा
से--प्रार्थना यानी परमात्मा से एक वार्तालाप, एक गुफ्तगू, कानों की फुसफुसाहट--जिससे
तुम बोलने चले हो,
वह
तुम्हारी भाषा की चिंता नहीं करता, तुम्हारा भाव काफी है।
दादू
कहते हैं: भाव भगति बेसास। भाव दे। वही मूल है।
भाव
बड़ी और बात है। भाव की कोई व्याकरण है? भाव के कोई शब्द हैं? भाव तो निशब्द में उठी हुई
लहर है। शून्य में गूंज गया हृदय का गीत है। काव्य है, गणित नहीं। तुम्हारे हृदय से
उठे। तुम उसे पहले से तैयार मत करना। प्रार्थना कोई रिहर्सल नहीं हो सकती। उसकी
कोई तैयारी नहीं हो सकती। वह कोई नाटक नहीं है।
नाटक
तो सारा संसार है;
फिर
मंदिर जाने की कोई जरूरत नहीं। नाटक तो तुम यहीं काफी कुशलता से कर रहे हो। मंदिर
जाने का तो अर्थ है: ऊब गए नाटक से, बहुत खेल लिए नाटक; अब कुछ जीवन के यथार्थ को
जानने की तमन्ना उठी। खेल अब रसपूर्ण नहीं रहा। बचपन जा चुका, पक गए, प्रौढ़ता उठी।
तो तुम
घर से तैयार करके मत जाना प्रार्थना। अगर तुमने शास्त्रों से प्रार्थना तैयार कर
ली तो तुम उस छोटे बच्चे की भांति हो, जो परीक्षा देने तो चला है, लेकिन सब कंठस्थ कर आया है।
तुम्हारे कंठस्थ किए गए की थोड़े ही परीक्षा होनी है! हृदयस्थ जो है, उसी की परीक्षा होगी।
अगर
तुमने याद कर-कर के प्रार्थना की सब व्यवस्था रट ली है, तो तुम दोहरा दोगे जाकर
प्रार्थना,
लेकिन
तुम ग्रामोफोन के रिकार्ड हो; तुम
आदमी नहीं हो। प्रार्थना तो तुम्हारे वास्तविक से उठनी चाहिए। उसकी कोई
पूर्वत्तैयारी नहीं हो सकती। सभी पूर्वत्तैयारियां गलती में डाल देती हैं।
कल ही
मैं एक कहानी पढ़ रहा था। एक स्कूल में इंसपेक्टर आने वाला है। शिक्षक ने सारे
विद्यार्थियों को समझा दिया, पढ़ा
दिया, सब तैयार करवा दिया। क्योंकि
पता है,
इंसपेक्टर
हर स्कूल में क्या सवाल पूछता है। सबसे होशियार बच्चे को--बंटू उसका नाम--उसने
बार-बार रटवा दिया कि देख, वह जब
पूछे कि बच्चो,
तुम्हें
संसार में किसने भेजा? तो तू
जल्दी से खड़े हो जाना और कहना, जी, भगवान ने! वे बड़े भक्त आदमी
हैं, बड़े पूजा-प्रार्थना वाले हैं।
और वे यह प्रश्न सदा ही पूछते हैं बच्चों से। तो यह तू बिलकुल याद रख। भूल-चूक न
हो। कई बार दोहरा लिया।
और
दूसरे दिन जब इंसपेक्टर आया, तो
शिक्षक ठीक ही कहा था, उसके
बंधे हुए प्रश्न थे। उसने यह भी पूछा कि बच्चो, तुम्हें संसार में किसने भेजा?
थोड़ी
देर सन्नाटा,
खामोशी
रही। शिक्षक भी थोड़ा बेचैन हुआ कि क्या भूल गए बच्चे? चारों तरफ नजर डाली। एक
दुबला-पतला लड़का खड़ा हुआ। उसने कहा कि जी, भगवान ने जिस बच्चे को भेजा था, वह आज आया नहीं, उसे बुखार आ गया।
तुम्हारे
रटे हुए उत्तर जीवन के किसी प्रश्न के साथ तालमेल न कर पाएंगे। तुम जितने तैयार
होओगे उतने ही हारोगे। तैयार होकर कहीं कोई प्रेम का निवेदन करने गया है!
मुल्ला
नसरुद्दीन किसी स्त्री के प्रेम में था। उसने बड़े पत्र लिखे। आभूषण भी भेंट किए, साड़ियां भी दीं। फिर झगड़ा हो
गया, बात नहीं बनी, विवाह के पहले ही सब नाता टूट
गया। तो वह आकर सब सामान ले जाने लगा जो-जो उसने दिया था।
वह स्त्री
तो नाराज थी ही,
उसने
सब फेंक दिए कपड़े-गहने। तब भी नसरुद्दीन को खड़ा देख कर उसने कहा, अब और क्या बचा है?
नसरुद्दीन
ने कहा,
जो
पत्र मैंने लिखे थे!
उस
स्त्री ने कहा,
हद हो
गई! अंगूठी ले जाओ, ठीक; गहने दिए, ले जाओ; साड़ी...पत्रों का क्या करोगे?
नसरुद्दीन
ने कहा,
क्या
अभी जिंदगी समाप्त हो गई? दूसरी
स्त्री को लिखने पड़ेंगे। उन्हीं से काम चला लूंगा। लिखना तो वही है; और फिर लिखने की दुबारा क्या
मेहनत करनी! नाम ऊपर बदल देंगे।
तुम्हारी
प्रार्थनाएं ऐसी ही झूठी हैं। तुमने पत्र भी नहीं लिखे परमात्मा को। तुम नाम ही बदलते
रहे हो। वही तुम्हारे बाप ने लिखा था, वही उनके बाप ने लिखा था। उसमें ही तुम नाम
बदल देते हो;
दस्तखत
अपने मार देते हो। प्रार्थना सब झूठी है।
हृदय
का अंतरभाव है प्रार्थना। जाना, छोड़
देना परमात्मा के समक्ष। और तब तो मंदिर जाने की भी कोई खास जरूरत नहीं है।
क्योंकि मंदिर भी क्रियाकांड का हिस्सा है। तब तो एक वृक्ष के पास भी बैठ जाना; बहती नदी-धार के किनारे बैठ
जाना; या देखना हिमालय के उत्तुंग
शिखरों को,
या
देखना आकाश के तारों को--वहीं मंदिर है। सभी तरफ उसके मंदिर के स्तंभ खड़े हैं। सभी
तरफ उसके मंदिर की चांदनी फैली है। सभी कुछ उसका है। जहां भी तुम हो, वहीं पवित्र भूमि पर खड़े हो।
वहीं हृदय को निवेदन करने देना। ऐसा निवेदन कि तुम्हें भी चौंकाए। तुम्हें भी पता
नहीं था कि तुम्हारे भीतर से यह भाव उठेगा।
जर्मनी
के बहुत बड़े कवि गेटे से किसी ने पूछा कि तुम्हारा जो महाग्रंथ है: फास्ट, उसका अर्थ क्या है? प्रयोजन क्या है?
गेटे
ने अपने कंधे बिचकाए और कहा, तुम तो
ऐसे पूछते हो जैसे मुझे पता हो।
लिखा
उसी ने है। पूछने वाला भरोसा न कर सका। उसने कहा, कहते क्या हो? तुम्हीं ने लिखा है! उसने कहा, लिखा मैंने है, लिखवाया उसने है। और जब मैंने
लिखा था,
तो तुम
पढ़ कर जितना चौंकते, उससे
ज्यादा मैं चौंका था कि मेरे यह भीतर कहां से आता है? ये पंक्तियां कहां से उतरी
हैं? यह गीत किसने गाया है? मैं तो बांसुरी की तरह था।
जैसे तुम बांसुरी को पूछो गीत के संबंध में। बांसुरी कहेगी, तुम तो ऐसे पूछते हो जैसे
मैंने गाया हो। गाने वाले ओंठ कोई और थे।
प्रार्थना
तुम थोड़े ही करते हो! परमात्मा ही तुम्हारे द्वारा करता है और परमात्मा ही
तुम्हारे द्वारा लेता है। तुम तो केवल बांसुरी बन जाते हो--बांस की एक पोंगरी। बस
तुम राह दे दो,
इतना
काफी। तुम अवरोध न दो, इतना
पर्याप्त। तुम्हारे छिद्र खुले हों, इतना बहुत। परमात्मा ही गाता है अपने गीत को
और परमात्मा ही सुनता है। वही प्रतिमा है, वही पुजारी है। वही गायक है, वही श्रोता है।
जिस
क्षण तुम्हारे भीतर ऐसी घड़ी आएगी, जहां
तुम देख पाओगे कि मैं ही गाने वाला, मैं ही सुनने वाला; मैं ही प्रार्थी, मैं ही पूज्य; जिस दिन तुम्हारे भीतर
प्रार्थना में सब डूब जाएंगे द्वंद्व, द्वैत; एक उठता हुआ अहोभाव, विराट आकाश की तरफ फैलती हुई
एक तरंग--उस क्षण प्रार्थना न केवल पर्याप्त है, पर्याप्त से भी ज्यादा है। उस
क्षण प्रार्थना ही परमात्मा है।
उधार
ने मारा। उधार ने बुरी तरह मारा। सब झूठा हो गया। प्रेम के शब्द तक बासे!
प्रार्थना के शब्द भी पंडितों के सिखाए! छोड़ो उन्हें। मैं तुमसे कहता हूं, छोड़ो ये झूठी प्रार्थनाएं, ताकि सच्ची प्रार्थना का जन्म
हो सके। मैं तुमसे कहता हूं, हटो इन
मंदिरों से,
क्योंकि
वे केवल औपचारिक हो गए हैं। और प्रार्थना का मंदिर तो अनौपचारिक ही हो सकता है।
लोगों
ने तुमसे कहा है कि प्रार्थना करो जाकर मंदिर में। मैं तुमसे कहता हूं, जहां तुम प्रार्थना करोगे, वहीं मंदिर है। असली सवाल
प्रार्थना है;
असली
सवाल मंदिर नहीं है। लोगों ने कहा है, प्रार्थना करो परमात्मा से। मैं तुमसे कहता
हूं, बिना प्रार्थना के तुम
परमात्मा को जानोगे कैसे? किसके
सामने ले जाओगे अपनी अर्चना? किसके
सामने रखोगे नैवेद्य? किसके
चरणों में झुकाओगे सिर? अगर वे
चरण उपलब्ध ही हैं तो झुकना क्या है, खोजना क्या है, पाने को क्या बचा?
नहीं; मैं तुमसे कहता हूं, तुम प्रार्थना करो। तुम झुको।
चरणों की फिक्र मत करो। तुम जहां झुकोगे, वहीं उसके चरण होंगे। तुम जहां प्रार्थना
करोगे वहीं तुम उसे पाओगे। प्रार्थना परमात्मा से बड़ी है। कठिन होगा सोचना कि
प्रार्थना परमात्मा से बड़ी है। लेकिन होनी ही चाहिए।
कबीर
कहते हैं: गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके
लागूं पांव।
दोनों
सामने खड़े हो गए हैं गुरु गोविंद, किसके
पैर छुऊं?
अड़चन
उठी होगी।
फिर
कबीर ने गुरु के ही पैर छू लिए। क्योंकि कबीर ने कहा है: बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताए।
गोविंद
का पता ही कैसे चलता? आज
दोनों सामने खड़े हैं। गोविंद का तो पता ही न चल सकता था बिना गुरु के। तो गुरु
गोविंद से बड़ा है। उसके द्वारा ही जाना।
इसलिए
तुमसे कहता हूं,
प्रार्थना
परमात्मा से बड़ी है। क्योंकि प्रार्थना के बिना पता ही कैसे चलता कि परमात्मा है? तुमने उलटा ही पाठ पढ़ा, इसलिए दुनिया अधार्मिक है।
लोग
कहते हैं,
पहले
सिद्ध कर लो कि परमात्मा है, फिर
प्रार्थना करना। उनकी बात गणितऱ्युक्त लगती है। बात साफ लगती है, गणित सीधा है कि जब परमात्मा
है ही नहीं,
तो
प्रार्थना कैसे करनी? लेकिन
जीवन के गणित में यह बात ठीक नहीं है। बुद्धि के गणित में ठीक होगी। बुद्धि का कोई
गणित गणित है?
उसकी
कोई गहराई है?
सतही
है।
जीवन
का गहरा गणित कहता है, प्रार्थना
होगी तो परमात्मा प्रकट होगा। क्योंकि प्रार्थना परमात्मा को देखने की आंख है।
प्रार्थना परमात्मा को जानने का भाव है। प्रार्थना परमात्मा को पाने की पात्रता
है। जहां प्रार्थना होती है वहां परमात्मा प्रकट हो जाता है।
अगर
तुमने कहा कि पहले परमात्मा मिल जाए फिर प्रार्थना करेंगे, तो बात बड़ी होशियारी की कह
रहे हो,
पर बड़ी
मूढ़ता की। तुम्हें परमात्मा कभी मिलेगा नहीं। परमात्मा मिलेगा नहीं, प्रार्थना कभी होगी नहीं। तुम
भटकते ही रहोगे।
इसलिए
तो पृथ्वी अधिक मात्रा में नास्तिक है। इसलिए नास्तिक नहीं है कि लोगों को पक्का
पता चल गया है कि परमात्मा नहीं है; इसलिए नास्तिक है कि धर्मगुरुओं ने लोगों को
सिखाया है कि प्रार्थना तभी हो सकती है जब परमात्मा हो। गलत ही बात सिखा दी।
जीवन
में तुम कभी किसी के प्रेम में पड़ जाते हो। तुमने कभी सोचा, प्रेम पहले है या प्रेमी? अक्सर तुम्हारा गणित भी यही
कहता है कि यह स्त्री मिल गई, बड़ी
प्रिय है,
इसलिए
प्रेम हो गया। गलत! अगर प्रेम हृदय में होता ही न, यह स्त्री मिलती ही नहीं। प्रेम
पहले है। प्रेम भीतर था। यह स्त्री बहाना बन गई उसे प्रकट होने का। दूसरी
स्त्रियां न बन सकीं इतना बहाना, यह
स्त्री बहाना बन गई; लेकिन
प्रेम भीतर था। इस स्त्री ने सुविधा दी होगी प्रेम को बहने की, लेकिन इस स्त्री के कारण
प्रेम पैदा नहीं हुआ है। प्रेम था ही। धारा मौजूद थी। बहाने के लिए द्वार इस
स्त्री ने दे दिया होगा। लेकिन प्रेम पहले है। नहीं तो प्रेमी पैदा ही कैसे हो
सकेगा?
प्रार्थना
पहले है। और अगर प्रार्थना है, तो
तुम्हें कहीं से भी द्वार मिल जाएगा। वृक्ष में भी वही खुल जाएगा, चट्टान में भी वही दिख जाएगा।
प्रेम चाहिए। प्रेम है प्रमाण परमात्मा का। कोई और प्रमाण नहीं है।
इसलिए
तुम मत कहो कि क्या प्रार्थना ही पर्याप्त है? मैं तुमसे कहता हूं, परमात्मा भी जरूरी नहीं है।
प्रार्थना एकदम पर्याप्त--पर्याप्त से भी ज्यादा। पा ली प्रार्थना, पा लिया परमात्मा।
उलटी खोज
में मत पड़ना। उस खोज से आदमी नास्तिक हो जाता है। जो मैं कह रहा हूं, उसी मार्ग से आदमी आस्तिक हो
सकता है। और कोई उपाय आदमी के आस्तिक होने के नहीं हैं।
दूसरा प्रश्न: हम अंधे हैं, अंधकार में जी रहे हैं।
प्रकाश की चर्चा भर सुनी है, लेकिन उसका कुछ अनुभव नहीं।
ऐसी अवस्था में हमारी प्रार्थना का क्या रूप हो सकता है? यानी हम प्रार्थना क्या करें?
मुझसे
मत पूछो। किसी से मत पूछो। क्योंकि कोई भी रूप दे देगा, प्रार्थना उधार हो जाएगी।
उठने दो। इतना डर क्या है? इतनी
घबराहट क्या है?
रुको, शांत बैठो और उठने दो
प्रार्थना को। और तुम पाओगे कि बड़ी अनूठी घटना घटनी शुरू हो जाती है।
लेकिन
तुम रिहर्सल के आदी हो। तुम कहते हो--पहले पक्का तो पता चल जाए कि प्रार्थना क्या
करनी है। लेकिन अगर पता ही चल गया कि प्रार्थना क्या करनी है, तुम सदा के लिए प्रार्थना से
वंचित रह जाओगे। मत पता लगाओ। छोड़ दो उसके अनजान हाथों में। अंधेरा है? छोड़ दो अंधेरे में। प्रकाश का
कोई पता नहीं है?
अगर
मैं कुछ कह भी दूंगा तो भी पता न हो जाएगा। तो तुम प्रकाश के लिए कहे गए शब्दों को
याद कर लोगे। उन्हीं को तुम अंधेरे में दोहराते रहोगे।
शब्दों
से अंधेरा मिटता है? तुम
कितना ही दोहराओ: प्रकाश, प्रकाश, प्रकाश...। अंधेरा मिटेगा? दीया चाहिए! शब्द मैं तुम्हें
दे सकता हूं,
दीया
तुम्हें कौन देगा?
दीया
तुम्हें ही जलाना पड़ेगा। क्योंकि तुम्हारे प्राणों के प्राणों का ही दीया है।
"प्रकाश'
शब्द
मैं दे सकता हूं। शब्द का क्या करोगे? शब्द से ज्यादा बेजान कोई चीज संसार में और
है?
टाल्सटाय
की बड़ी प्रसिद्ध कथा है। मुझे बड़ी प्रीतिकर है। रूस के महापुरोहित को पता चला कि
एक झील के पार,
पहाड़ों
के पीछे छिपे,
तीन
संतों का आविर्भाव हुआ है। और लोग भागे जा रहे हैं। गरीब ग्रामीणों में बड़ी
प्रतिष्ठा है। भोले-भाले लोग भगवान की तरह पूजा कर रहे हैं उन संतों की। यह
महापुरोहित को बरदाश्त न हुआ।
पुरोहित
को संत कभी बरदाश्त नहीं होते। क्योंकि संत की मौजूदगी, पुरोहित का धंधा टूटता है।
संत सभी तरह की औपचारिकता के विरोध में है। संत यानी एक बगावत, एक विद्रोह। संत कभी भी
गैर-बगावती नहीं हो सकता--सिर्फ विनोबा भावे को छोड़ कर। वे सरकारी संत हैं--अगर
सरकारी संत कोई हो सकता है। संत तो विद्रोही ही होगा। सरकार और समाज और व्यवस्था
हमेशा उससे अड़चन में होगी।
पुरोहित
घबड़ाया। और फिर उसने कहा कि यह बात समझ में नहीं आती। मेरी बिना स्वीकृति के कोई
संत कैसे हो सकता है?
ईसाइयत
ने तो हद मूढ़ता कर दी। वे संतत्व के लिए सर्टिफिकेट देते हैं चर्च से। वस्तुतः
अंग्रेजी में जो संत है, सेंट, वह एक यूनानी शब्द से बनता है, जिसका अर्थ होता है सैंकटस।
जिसको सैंक्शन मिल गया, वह
संत। जिसको अधिकारियों के द्वारा स्वीकृति मिल गई, प्रमाणपत्र मिल गया, वह संत। अंग्रेजी का सेंट
शब्द एक मजाक है। हिंदी का संत शब्द अंग्रेजी के सेंट शब्द से नहीं आया है और न
अंग्रेजी का सेंट शब्द हिंदी के संत शब्द से गया है, यह ध्यान रखना। दोनों एक से
लगते हैं। अंग्रेजी का सेंट शब्द आया है सैंकटस से। उसका मतलब होता है: अधिकारियों
के द्वारा प्राप्त स्वीकृति; राज्य
के द्वारा,
चर्च
के द्वारा,
व्यवस्था
के द्वारा। हिंदी का संत सत से बना है। जिसने सत्य को जान लिया, जो सत के साथ सत हो गया, वह संत। इसके लिए कोई
स्वीकृति नहीं हो सकती, कोई
प्रमाण नहीं हो सकता।
पुरोहित
नाराज हुआ कि मेरी बिना आज्ञा के? क्योंकि
फरमान निकाले जाते हैं ईसाइयत में हर साल कि कितने संत हो गए! फरमान में नाम होते
हैं। इनका नाम तो निकला भी नहीं है। मगर खबरें रोज आती गईं, भीड़ बढ़ती गई। शहरों से लोग
जाने लगे,
चर्चों
में लोगों का आना कम हो गया। संतों ने दीवानगी पैदा कर दी। आखिर पुरोहित को भी
जाना पड़ा। देखना तो चाहिए!
वह गया
अपनी मोटर बोट पर बैठ कर। सीधे-सादे लोग थे, उसको देख कर खड़े हो गए। उसका चोगा, उसके चमकते हुए सोने के
सितारे,
छाती
पर लगे हुए सम्राटों के द्वारा दी गई स्वीकृतियां सम्मान--उसका ढंग प्रभावशाली था।
जिनके
भीतर कुछ नहीं होता, वे
प्रभावशाली ढंग पैदा कर लेते हैं। जिनके भीतर आत्मा राख की तरह होती है, ज्योति की तरह नहीं, वे पद्मभूषण, भारतभूषण, भारतरत्न और न मालूम
क्या-क्या पद-पदवियां इकट्ठी कर लेते हैं। उन्हीं के सहारे थोड़ी सी आत्मा का अहसास
करते हैं। उधार! वह भी दूसरों के द्वारा दी गई आत्मा। दूसरों के द्वारा दिया गया
नाम, पद, प्रतिष्ठा।
देख कर
तीनों संत खड़े हो गए। तीनों ने झुक कर उसे प्रणाम किया।
संत तो
सदा ही झुकने को तैयार है। उसने झुकने की मौज, झुकने का मजा, झुकने की मस्ती जान ली। वह
झुकने का राज पकड़ गया है।
पुरोहित
पहले तो मन में डरा था कि पता नहीं ये बगावती संत झुकें न झुकें। राजी हों, न राजी हों। लेकिन ये तो
सीधे-सादे गांव के किसान थे। इन पर कब्जा करना तो कठिन ही न था। उसने जोर से कड़क
आवाज में कहा कि तुमने यह क्या उपद्रव मचा रखा है? यह इतनी भीड़-भाड़ यहां क्यों आ
रही है?
उन
तीनों ने कहा कि हमने कुछ भी नहीं किया। हमने किसी को बुलाया भी नहीं। सच तो यह है
कि लोगों के आने से हमारी प्रार्थना में बड़ी बाधा पड़ रही है। आपकी बड़ी कृपा होगी, आप लोगों को रोक दें। हम बड़े मजे
में थे वर्षों तक,
कोई
जानता न था। यह झील थी, यह
पहाड़ था,
हम थे।
बड़ा मजा था। अब यह भीड़-भड़क्के से हम बड़े परेशान हो रहे हैं। आपकी बड़ी कृपा होगी।
और हम कोई संत वगैरह नहीं हैं। मगर हम कितना ही कहें, लोग मानते ही नहीं। जितना हम
कहते हैं कि हम नहीं हैं, उतनी भीड़
बढ़ती जा रही है।
महापुरोहित
स्वस्थ हुआ। उसने कहा, कोई
चिंता के योग्य नहीं हैं। ये तो बड़े साधारण से लोग हैं। उनको कहा, प्रार्थना में बाधा पड़ती थी? क्या प्रार्थना करते थे?
तो वे
तीनों जरा शर्माए। उन्होंने कहा कि अब आप यह मत पूछो। क्योंकि हम बेपढ़े-लिखे हैं; प्रार्थना करना हमें आता
नहीं। और हमने किसी से प्रार्थना सीखी भी नहीं है। हम बिलकुल गंवार हैं। आप इसमें
पक्के रहो। और हमने अपनी ही एक प्रार्थना बना ली है।
तब तो
पुरोहित और नाराज हुआ कि यह भी कभी तुमने सुना कि प्रार्थना और हर कोई बना ले? चर्च की प्रार्थना सुनिश्चित
है। तुम ईसाई हो?
उन्होंने
कहा कि निश्चित।
तो
तुमने कैसी प्रार्थना बनाई है बिना आज्ञा के? तुम अपनी प्रार्थना का रूप बताओ।
वे बड़े
शर्माने लगे। निश्चित ही, प्रार्थना
कोई किसी को बता सकता है? प्रार्थना
तो हार्दिक है,
निजी
है, एकांत की है। प्रार्थना किसी
को बताना तो ऐसे ही होगा, जैसे
कि बीच बाजार में खड़े होकर किसी को प्रेम करने लगना। वह बात बेहूदी होगी, अशोभन होगी। प्रेम तो एकांत
चाहता है। प्रार्थना तो और भी एकांत चाहती है। कानों-कान किसी को खबर न होनी चाहिए
उसकी। क्योंकि जैसे ही कोई दूसरा सुन लेगा, उसकी निजता खो जाएगी।
इसलिए
तो मंत्र को कान में फूंक कर देते हैं कि कोई सुन न ले। और गुरु कहता है कि मंत्र
को किसी को बताना नहीं। तुम चकित भी होओगे कि मंत्र कुछ भी खास तो नहीं है। कान
में कह दिया कि राम-राम राम-राम जपना। अब यह भी कोई बात है कि किसी को मत बताना!
इसमें बताने का क्या सवाल है? यह तो
सभी को पता है।
न, यह बात ही नहीं है पता होने
का या न होने का। मंत्र इतना निजी और एकांत है, उसे तुम किसी को कहना मत। क्योंकि कहने में
थोड़ा प्रदर्शन आ जाएगा। और जहां प्रदर्शन आता है वहां चीजें झूठी हो जाती हैं।
जीसस ने कहा है,
तुम्हारा
बायां हाथ पूजा करे तो दाएं हाथ को पता न चले। तुम्हारा बायां हाथ दान दे, तो दाएं को खबर न मिले।
तुम्हारे ही हाथों को खबर न हो पाए, ऐसा चुपचाप देना। जरा भी आवाज न हो।
तो वे
कहने लगे,
अब आप
यह मत पूछें। आप पूछते हैं तो बताना पड़ेगा। लेकिन हम कुछ जानते नहीं, ऐसी ही हमने एक घरेलू ढंग की
प्रार्थना बना ली है। और आप हंसेंगे और हमारी बड़ी मजाक होगी। परमात्मा तो झेल लेता
है, क्योंकि जानता है--हम नासमझ, अज्ञानी, अपराधी। मगर ये संसार के लोग
बहुत हंसेंगे।
पुरोहित
तो और अकड़ गया। उसने कहा, बतानी
ही पड़ेगी। क्योंकि अगर गलत है, तो मैं
सुधार कर दूंगा। अगर बिलकुल गलत है, तो तुम्हें ठीक-ठीक प्रार्थना--स्वीकृत चर्च
के द्वारा--वह मैं तुम्हें दे दूंगा। तुम बोलो!
तो वह
नहीं माना तो वे बोले। उन्होंने एक छोटी सी प्रार्थना बना ली थी। ईसाइयत मानती है
कि परमात्मा के तीन रूप हैं। जैसा कि हिंदू मानते हैं त्रिमूर्ति; ऐसा ही ईसाई मानते हैं
ट्रिनिटी। तो उन तीनों ने कहा, हमने
एक छोटी सी प्रार्थना बना ली है कि तुम भी तीन हो, हम भी तीन हैं, हम पर कृपा करो। अब यह भी कोई
प्रार्थना हुई! यह तो मजाक हो गई। तुम भी तीन, हम भी तीन--वे भी तीन ही थे--अब और ज्यादा
क्या कहना?
तुम भी
तीन हो और हम भी तीन हैं, बात बन
गई। अब तुम हम पर कृपा करो। और तो कुछ कहने को ज्यादा इससे है भी नहीं।
पुरोहित
को भी हंसी आ गई। गंभीरता टूट गई। उसने कहा, हद नासमझ हो तुम लोग। अब दुबारा यह मत करना।
यह कोई प्रार्थना हुई!
उसने
लंबी प्रार्थना,
जो
चर्च की स्वीकृत प्रार्थना थी, उनको
कही। सुनी उन्होंने बड़े भाव से। पर कहा, बहुत लंबी है, हम भूल जाएंगे। आप फिर एक दफा
कह दो। फिर उसने कही। फिर भी वे बोले कि कृपा होगी बड़ी, एक दफा और दोहरा दो। क्योंकि
हमें याद हो जाए। कहीं कोई शब्द भूल गए, या गड़बड़ हो गई, तो हम फंसेंगे। अभी तक जो भूल
हुई, हुई; अब आगे तो न हो। तो तीन बार
पुरोहित ने कहा। उसने कहा, ये तो
बिलकुल महामूढ़ हैं। प्रार्थना को भी तीन दफे कहना पड़ रहा है। बिलकुल ठीक व्यवस्थित
करके सब,
बड़ा
प्रसन्न होकर कि तीन भटकों को मार्ग पर ले आया...
सिर्फ
मूढ़ ही भटकों को मार्ग पर लाने का खयाल रखते हैं। सिर्फ मूढ़ ही सोचते हैं कि लोग
भटक रहे हैं,
उनको
मार्ग पर लाना है। ज्ञानी को जो मिला है, बांटता है; लेकिन किसी को मार्ग पर लाने
के लिए नहीं। कौन किसको मार्ग पर ला सकता है? लोग भटकते हैं अपनी स्वतंत्रता से। आते हैं
मार्ग पर अपनी स्वतंत्रता से। कौन किसको ला सकता है?
लेकिन
पुरोहित अकड़ा हुआ,
प्रसन्न
चित्त,
कि आना
व्यर्थ न हुआ। यात्रा सार्थक हुई। अब यह उपद्रव बंद हुआ। जाकर कह देगा कि ये भी
कोई संत हैं! ये तो गांव के गंवार हैं।
यही तो
उस पुरोहित ने दादू को कहा होता, कबीर
को कहा होता। ये भी गांव के गंवार हैं सब। इनकी प्रार्थना में भी कोई ढंग है! काशी
के पंडित कबीर को समझते ही रहे कि यह आदमी गंवार है, बेपढ़ा-लिखा है। ये कोई बातें
हैं प्रार्थना करने की?
लेकिन
पुरोहित जब मध्य झील में था और बड़े प्रसन्न मन से लौट रहा था, एक बड़ा काम करके। उस
प्रार्थना को तीन संतों को सिखा कर लौट रहा था, जिसको करना वह खुद भी नहीं जानता है। जो
उसने कभी नहीं की। शब्द दोहराए हैं, कंठस्थ हैं। काश, प्रार्थना शब्दों में होती!
बड़ा सरल हो जाता। बीच झील में था कि घबड़ा कर उसने देखा: पीछे एक तूफान की तरह कुछ
आ रहा है। समझ में न आया; नाविक
भी समझ न पाए कि ऐसा कभी देखा नहीं, इस झील में ऐसा कभी होता नहीं। यह क्या हो
रहा है?
जब
थोड़ा तूफान पास आता मालूम पड़ा, तब उसे
दिखाई पड़ा कि वे तीनों संत--गंवार--झील पर भागते हुए चले आ रहे हैं। डूबते नहीं पानी
में। पानी पर ऐसे चल रहे हैं जैसे रास्ता हो।
तीनों
आकर पास खड़े हो गए। हाथ जोड़ कर कहा कि रुकिए, हम भूल गए वह प्रार्थना। आप कृपा करके एक
बार और बता दें!
तब उस
पुरोहित की भी आंख खुल गई। अंधों की भी कभी खुल जाती है। यह देख कर महिमावान रूप
उसे समझ में आया कि मूढ़ कौन है। ये गंवार हैं या मैं गंवार हूं! इस बार वह झुका
उनके चरणों में। उसने कहा, मुझे
माफ कर दो। तुम्हारी प्रार्थना पुरानी ही ठीक है। हमारी स्वीकृति की जरूरत नहीं।
उसकी स्वीकृति मिल चुकी है, ऐसा
लगता है। हम कौन हैं? बीच के
दुकानदार हैं। तुम्हारा उससे सीधा संबंध हो गया, तुम हमें भूल जाओ। और हमारे
लिए भी प्रार्थना करना! जब तुम अब कहो कि तुम तीन हो, हम तीन हैं; तो अब कहना, तुम तीन हो, हम चार हैं--मुझे भी जोड़
लेना--हम पर कृपा करो।
नहीं, प्रार्थना कोई किसी को बता
नहीं सकता। तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारे जैसी होगी, मेरी प्रार्थना मेरे जैसी
होगी। तुम्हारे पड़ोसी की प्रार्थना उसके जैसी होगी। प्रार्थना तो तुम्हारे हृदय की
अद्वितीयता से निकलेगी। तुम उसे निकलने दो। तुम छोटे बच्चों की भांति हो जाओ।
परमात्मा के सामने भी तैयार होकर क्या जाना! उससे क्या छुपा है? उसके सामने क्या रूप दिखलाने!
क्या प्रदर्शन करना है! क्या भाषा और व्याकरण! क्या लयत्ताल! कुछ भी तो नहीं है।
वहां तो तुम्हारा सीधा भाव ही समझ लिया जाएगा। रोने जैसा लगे, रोना; वही तुम्हारी प्रार्थना होगी।
हंसने जैसा लगे,
हंसना; वही तुम्हारी प्रार्थना होगी।
झेन
फकीर सुबह उठ कर जो प्रार्थना करते हैं, वह सिर्फ हंसने की है। झेन फकीर सुबह उठते
हैं, बिस्तर से खड़े होकर सूरज की
तरफ देखते हैं,
दोनों
हाथ अपनी कमर पर रख कर झुक जाते हैं सूरज की तरफ, और हंसना शुरू कर देते हैं।
पागलपन है। कभी-कभी घंटों लोट-पोट हो जाते हैं।
एक
अमरीकी यात्री एक झेन फकीर के पास जापान में मेहमान था। जब सुबह उसने यह हाल देखा
तो उसने कहा कि मैं भी किस पागल के पास आ गया! वह अपना इंतजाम करने लगा, सामान बांधने लगा। लोगों ने
पूछा, कल ही तो रात आप आए, कहां जाते हैं?
उसने
कहा, मैं तो सोचा था कि कोई ज्ञानी
के यहां जा रहा हूं। यह आदमी पागल मालूम होता है। सुबह मैंने इसको देखा, यह सूरज की तरफ देखते-देखते
और ऐसा हंसने लगा खिलखिला कर। कोई था ही नहीं, कोई मजाक की बात भी न थी, हंसने का कोई सवाल ही न था।
और फिर लोट-पोट हो गया। और घंटे भर तक पसीना-पसीना हो गया। और ऐसा प्रसन्न था कि
मैंने कभी ऐसा पागल कोई देखा ही नहीं जो इतना प्रसन्न हो। जो पागल नहीं हैं, वे तो बड़े गंभीर रहते हैं।
पागल ही कभी हंसते हैं।
पर
उसने कहा,
आप
रुकें,
उनसे
पूछ कर जाएं। आपको पता नहीं, ये झेन
फकीरों की प्रार्थनाएं हैं। यह एक प्रार्थना का ढंग है।
फकीर
से पूछा,
तो वह
फिर हंसने लगा,
लोट-पोट
होने लगा। उसने कहा कि तुमने फिर छेड़ दी वही बात। रात हम बामुश्किल से सो पाए।
सुबह उठ कर हम हंसे, अब
तुमने फिर वही बात छेड़ दी। और वह लोट-पोट होने लगा और वह हंसने लगा। और उसने कहा, हंसना हमारी प्रार्थना है।
परमात्मा के सामने हम हंस कर अपने को निवेदन करते हैं। और सुबह का प्रारंभ हंसने
से ही होना चाहिए। सुबह क्या रोती हुई सूरत लेकर चलना! और सुबह ही हम उससे नाता
जोड़ लेते हैं हंसी का; फिर वह
हमें दिन भर हंसाता है, फिर
जगह-जगह से वह हंसाता है।
हंसो; उससे भी प्रार्थना बन जाएगी।
रोओ; उससे भी प्रार्थना बन जाएगी।
ध्यान
रखना, रोने का कोई संबंध दुख से
नहीं है। ये गलत संबंध मनुष्य ने जोड़ रखे हैं। तुम्हारे मन में, सभी के मन में यह बात बिठा दी
गई है कि रोने का संबंध दुख से है। कोई मर जाए, तब तुम रोते हो। कुछ नुकसान हो जाए, हानि हो जाए, तब तुम रोते हो। दिवाला निकल
जाए, मकान में आग लग जाए, तब तुम रोते हो। तुम यह भूल
ही गए हो कि रोने से कोई संबंध दुख का नहीं है।
कभी
तुम ठीक से हंसो,
और तुम
पाओगे--तब भी आंखों से आंसू बहने लगेंगे। कभी तुम परिपूर्ण रूप से आनंदित होकर
नाचो, और तुम पाओगे--आंसुओं की धार
लग गई। रोने का कोई लेना-देना दुख से नहीं है। रोने का अनिवार्य संबंध तो अतिशय से
है। कोई भी भाव-दशा अतिशय हो जाए, वह
आंसू बन जाती है। दुख अतिशय हो जाए तो आंसू बन जाता है; सुख अतिशय हो जाए तो आंसू बन
जाता है।
लेकिन
मनुष्य-जाति को वंचित कर दिया गया है, कुछ भ्रांत धारणाएं बिठा दी गई हैं--कि रोओ
मत! रोना दुख जाहिर करता है।
तुमने
कभी किसी को हंसते हुए और रोते हुए साथ-साथ देखा है? उसकी प्रार्थना में बड़ी गति
होगी। वह हंसेगा परमात्मा के लिए, रोएगा
अपने लिए। या उसका हंसना इतना अति हो जाएगा कि उसके आंसुओं से हंसी बहने लगेगी।
ओवर-फ्लोइंग! आंसुओं का अर्थ है, ऊपर से
बह जाना। इतना ज्यादा हो गया है भीतर भाव घना कि अब उसे भीतर सम्हाल रखने का कोई
उपाय न रहा। वह पात्र के ऊपर से बह रहा है। आंसू दिव्य हैं। और अगर तुम परमात्मा
के लिए रोते हो--चाहे दुख से रोओ, चाहे
सुख से रोओ,
चाहे
आनंद से रोओ,
चाहे
पीड़ा से रोओ--रोना प्रार्थना हो जाएगी। हंसना प्रार्थना हो जाएगी।
लेकिन
बुद्ध न कभी हंसे,
न कभी
रोए। उनकी प्रार्थना मौन है। वह उनकी प्रार्थना है। तुम्हारे लिए शायद ठीक बैठे, न बैठे। मीरा नाची। तुम
महावीर को नाचने कहोगे, जंचेगी
न बात। वह व्यक्तित्व नाचने वाला नहीं है। मीरा पर जब प्रार्थना का आघात हुआ, तो मीरा नाची। उसका यंत्र
तैयार था नाचने को। हाथ पड़ गए परमात्मा के, स्वर छिड़ गए, तार कंप उठे। चैतन्य महाप्रभु
नाचे; नाचते रहे। बुद्ध बैठे रहे, महावीर खड़े रहे। उनके लिए वही
प्रार्थना थी।
प्रत्येक
व्यक्ति की प्रार्थना ऐसी होगी, जैसे
तुम्हारे अंगूठे का निशान है। अलग-अलग होगी। उसका कोई सामूहिक ढंग नहीं हो सकता।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं, समूह
में प्रार्थना नहीं हो सकती। प्रार्थना निजी निवेदन है, अत्यंत वैयक्तिक है। क्योंकि
तुम्हारा पूरा व्यक्तित्व उस पर छाया होगा।
अगर
तुम मीरा से कहो कि तू चुप बैठ कर प्रार्थना कर जैसे बुद्ध बैठे हैं! तो तुम मीरा
को अड़चन में डाल दोगे। उसकी प्रार्थना हो ही न सकेगी। क्योंकि उसे सतत यह ध्यान
रखना पड़ेगा,
कहीं
शरीर नाचने न लगे। क्योंकि जैसे ही वह भाव-दशा में आएगी, शरीर नाचेगा। नाच उसके लिए
श्वास जैसा है। तुमने अगर कहा कि नाचना नहीं; बस शरीर को सीधा करके, रीढ़ को सीधा करके, बिलकुल ऐसे बैठ कर जैसे
मुर्दा प्रतिमा हो पत्थर की, ऐसे ही
प्रार्थना करना! तो मीरा की प्रार्थना ही न हो सकेगी। तुम मीरा को डुबा दोगे।
क्योंकि जब भी प्रार्थना आएगी तभी वह नाचने लगेगी।
तुम
अगर बुद्ध को कहोगे, नाचो; महावीर को कहोगे, नाचो; पतंजलि को कहोगे कि नाचो; तभी प्रार्थना होगी! देखो
मीरा को,
देखो
चैतन्य प्रभु को! वे सब सिर हिला देंगे। वे कहेंगे, यह हम से न होगा। और अगर हमें
तुमने नाचने को कहा, तो
हमारी जो शांति है, सब खो
जाएगी।
जब
उनके तार छेड़े परमात्मा ने, तो
वहां शून्य का संगीत उठा। जब उनके तार छेड़े परमात्मा ने, तो सारी गति शांत हो गई; जैसे झील पर एक भी लहर न रही।
ध्यान
रखना, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि
मीरा ठीक है। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि बुद्ध ठीक हैं। कौन ठीक या गलत है, इसका तुम हिसाब ही मत रखो।
तुम्हारे लिए क्या ठीक है, इतना
ही भर तुम हिसाब रखना; तो
तुम्हारा रास्ता भटकेगा नहीं।
प्रत्येक
के लिए धर्म अनूठा होगा। होना ही चाहिए। तुम दूसरे के कपड़े पहनने को राजी नहीं
होते; दूसरे के उपयोग किए जूते में
पैर नहीं डालते;
दूसरे
की थाली में भोजन नहीं करते। तुम दूसरे के धर्म को क्यों उधार लेते हो? शरीर पर तुम कपड़े दूसरे के
पहनना पसंद नहीं करते, वे
दीनता की खबर देते हैं। तुम आत्मा पर क्यों प्रार्थना के वस्त्र दूसरों के ओढ़ना
चाहते हो?
वे तो
महा-दीनता की खबर देंगे। वहां तो तुम्हें ठीक वैसे ही जाना पड़ेगा जैसे तुम हो।
परमात्मा पुनरुक्ति नहीं करता।
एक बार
ऐसा हुआ,
एक मंच
पर मैं बैठा था और एक स्वामी का व्याख्यान चलता था। वे क्रोधी आदमी हैं, जैसा कि अक्सर स्वामीगण होते
हैं। क्योंकि जिन्होंने भी जीवन की बहुत सी इच्छाओं को दबा लिया, उनके भीतर सारी इच्छाएं दबी
हुई क्रोध बन जाती हैं। उनके पास एक ही निकास रह जाता है--क्रोध का। उन्होंने बोला
कुछ, पुनर्जन्म का सिद्धांत समझाया
था। एक आदमी बार-बार खड़े होकर उलटे-सीधे प्रश्न पूछने लगा। वह भी पंडित मालूम होता
था। क्योंकि वेद के उल्लेख करता, उपनिषद
के सूत्र दोहराता। और स्वामी को उसने अड़चन में डाल दिया था। उसकी पूरी इच्छा उनको
परेशान करने की थी। स्वामी क्रोध में आने लगे। आखिर उस आदमी ने पूछा कि स्वामी जी, क्या ऐसा भी हो सकता है कि
अगले जन्म में मैं गधे का रूप लूं; जैसा कि आप पुनर्जन्म के सिद्धांत में समझा
रहे हैं?
स्वामी
को मौका मिला। उसने कहा कि नहीं, परमात्मा
तुम्हें वही रूप दुबारा कभी नहीं देता। गधे तो तुम अभी हो। अब दुबारा...
स्वामी
ने तो क्रोध में कहा था, लेकिन
मुझे बात जंची। बात तो ठीक है। परमात्मा दो व्यक्तियों को एक सा नहीं बनाता। और न
परमात्मा तुम्हें ही दुबारा ऐसा ही बनाएगा। परमात्मा नित-नूतन है। उसके आविष्कार
की कोई सीमा नहीं है। उसके सृजन की कोई सीमा नहीं है। वह रोज नये रंग भरता है, रोज नये गीत जन्माता है, रोज नये प्राण फूंकता है।
दोहराता नहीं। थक नहीं गया है, चुक भी
नहीं गया है। परमात्मा अथाह है। उसकी सृजनात्मकता असीम है। तुम्हारे जैसा न तो
उसने कभी किसी को बनाया था और न तुम्हारे जैसा फिर कभी किसी को बनाएगा। इसलिए कोई
बंधी परिपाटी तुम्हारा धर्म नहीं हो सकती। तुम्हारे लिए किसी धर्म में व्यवस्था ही
नहीं है। तुम्हें तो अपना धर्म खोजना पड़ेगा।
कृष्ण
ने बड़ी मीठी बात अर्जुन से कही है: स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः। उसका यह मतलब
नहीं है कि तुम जिस घर में पैदा हुए हो, उसी धर्म में मरना और दूसरे का धर्म कभी
स्वीकार मत करना। उससे कोई हिंदू, मुसलमान, ईसाई के धर्म का सवाल नहीं
है। स्वधर्मे निधनं श्रेयः! कृष्ण यह कह रहे हैं कि जो तुम्हारी स्वसत्ता का धर्म
है, उसमें अगर खो भी जाओ, मृत्यु भी हो जाए, तो भी श्रेयस्कर है। क्योंकि
उसी भांति तुम अपने को पा लोगे। मिट कर भी अपने को पा लोगे।
कृष्ण
तुम्हें जीवन का गहनतम सूत्र कह रहे हैं कि तुम तुम जैसे हो, तुम्हारे जैसा कोई नहीं। कोई
तुलना नहीं हो सकती। तुम किसी भी लकीर पर ठीक न बैठोगे। लकीर के फकीर मत बनना।
क्योंकि तुम्हारे लिए कोई लकीर खींची ही नहीं गई। तुम्हीं को खींचनी है। कोई राजपथ
नहीं है,
जिस पर
तुम चल पड़ना भीड़ के साथ। तुम्हें अपनी पगडंडी बनानी होगी। और पगडंडी भी ऐसी नहीं
कि बनी हुई मिल जाए कि कोई तुम्हें बना चुका हो पहले से। नहीं। यह जीवन का क्षेत्र
आकाश जैसा है। पक्षी उड़ते तो हैं, लेकिन
पदचिह्न नहीं छूट जाते, पगडंडी
नहीं बनती। चेतना के आकाश में भी कोई पगडंडी नहीं बनती। बुद्ध चलते हैं, महावीर चलते हैं, मीरा नाचती चलती है, लेकिन कोई पगडंडी नहीं बनती।
राजपथ का तो सवाल ही नहीं है, जहां
कि सारी भीड़ चल सके और राजनैतिक पार्टियां अपनी रैली कर सकें--यह तो कोई सवाल ही
नहीं है। राजपथ तो हैं ही नहीं धर्म में, पगडंडी भी बनी-बनाई नहीं मिलती, रेडीमेड नहीं मिलती।
फिर
कैसे रास्ता बनता है? ज्ञानियों
ने कहा है,
चल-चल
कर ही रास्ता बनता है। तुम्हीं चलते हो और थोड़ा सा रास्ता निकालते हो। जैसे तुम
जंगल में भटक गए हो, कोई
रास्ता नहीं है;
क्या
करोगे?
चलोगे, खोजोगे, झाड़ियां काटोगे, रास्ता बनाओगे।
तुम्हारा
रास्ता किसी और के काम आने वाला नहीं है। क्योंकि न तो पहले से रास्ता तैयार होता
है; तुम चलते हो उतना ही तैयार
होता है। और दूसरी बात भी याद रखना: तुम जितना चल चुके उतना शून्य हो जाता है, आकाश में खो जाता है। वह पीछे
नहीं रह जाता। इसलिए किसी के पीछे चलने की कोई सुविधा नहीं है।
धर्म
स्वयं होने की कला है।
और
इसलिए तुम्हारे तथाकथित धर्म धर्म नहीं हैं, राजनीतियां हैं। हिंदू की राजनीति, मुसलमान की राजनीति, ईसाई की राजनीति--सब
राजनीतियां हैं। उनका कोई लेना-देना धर्म से नहीं है। धर्म तो व्यक्ति का होता है, राजनीति भीड़ की होती है। भीड़
के पास कोई आत्मा नहीं होती; सिर्फ
शोरगुल,
नारेबाजी, उपद्रव होता है। व्यक्ति के
पास आत्मा होती है।
इस
पृथ्वी पर भीड़ ने जैसे पाप किए हैं, वैसे किसी व्यक्ति ने कभी नहीं किए। भीड़ से
थोड़े सावधान रहना। जहां भीड़ हो वहां से बचना।
भीड़ के
साथ चलने में एक मजा है, क्योंकि
सारा उत्तरदायित्व खो जाता है। भीड़ में डूब जाने में एक सुख है--शराब जैसा। इसलिए
तुम देखो,
जब भीड़
चलती है--हिंदुओं की भीड़ जा रही है मस्जिद में आग लगाने--देखो, कैसी मस्ती मालूम पड़ती है! कि
मुसलमान जा रहे हैं मंदिर को तोड़ने--देखो, उनके पैरों में कैसी गति है, कैसा उत्साह है! जैसे जीवन के
महा-उत्सव में भाग लेने जाते हों, कि
परमात्मा का निमंत्रण मिला हो। उनकी आंखों में चमक देखो। युद्ध-उत्तेजित, हिंसा करने को उतारू, आग-पाट लूट के लिए
तैयार--लेकिन तुम जरा उनके आस-पास देखो कैसी लहर चलती है उत्साह की। कोई बड़ा काम
करने जा रहे हैं! उस भीड़ में तुम अगर सम्मिलित हुए, तुम्हारी निजता खो जाएगी।
तुमने परधर्म को स्वीकार कर लिया।
कृष्ण
कहते हैं: परधर्मो भयावहः। वह जो दूसरे का है, उससे भयभीत होना, उससे डरना।
और बड़ा
मजा यह है कि सभी लोगों ने दूसरों के धर्म स्वीकार कर लिए हैं। महावीर का धर्म जैन
मानते हैं। वह महावीर के लिए बिलकुल परिपूर्ण था; नहीं तो महावीर पहुंचते कैसे? लेकिन उनके पीछे चलने वाले
कहीं पहुंचते नहीं मालूम पड़ते, सिर्फ
अपने को तकलीफ देते मालूम पड़ते हैं। दूसरे का धर्म भयावह है।
बुद्ध
के धर्म को लाखों लोगों ने स्वीकार कर लिया है, करोड़ों लोगों ने। कहीं पहुंचते नहीं मालूम
पड़ते। अन्यथा पृथ्वी बुद्धों से भर जाती। बौद्ध हो जाना बुद्ध हो जाना नहीं है और
जैन हो जाना जिन हो जाना नहीं है। धोखा है। तुमने झूठे सिक्कों पर भरोसा कर लिया।
तुम्हारी
जिनता,
तुम्हारा
बुद्धत्व,
तुम्हारा
इस्लाम,
तुम्हारा
धर्म तुम्हारे भीतर से उठेगा। तुम्हारा वेद प्रतीक्षा कर रहा है लिखे जाने की।
तुम्हीं उसे लिखोगे तो लिखा जाएगा। तुम्हारे उपनिषद प्रतीक्षा करते हैं जन्म लेने
की। वे तुम्हारे गर्भ में छिपे हैं। तुम जन्म दोगे तो ही उनका जन्म होगा। तुम्हारी
गीता अभी गाई नहीं गई। तुम गाओगे तभी गाई जाएगी। और तुम्हारी गीता तुम्हारे
अतिरिक्त कोई भी नहीं गा सकता है।
इसलिए
मत पूछो मुझसे। क्योंकि मैं तुम्हें कोई गीता देने नहीं आया। कोई उपनिषद तुम्हें
पकड़ाने की मेरी आकांक्षा नहीं है। मैं अपना गीत गा रहा हूं। तुम्हें इससे केवल गीत
गाने का खयाल आ जाए, बस
इतना काफी है। गीत तो तुम अपना ही गाना। मैं अपनी प्रार्थना कर रहा हूं, इससे तुम्हें सिर्फ स्वाद लग
जाए प्रार्थना का। प्रार्थना तो तुम अपनी ही करना। मैं देने वाला कौन हूं? और मेरी दी गई प्रार्थना बासी
हो जाएगी। उसे तुम दोहराओगे, लेकिन
उससे वही न हो सकेगा जो मुझे हुआ है। क्योंकि मैंने किसी की प्रार्थना नहीं
दोहराई। मैं किसी के राजपथ पर नहीं चला।
इसलिए
मैं तुमसे कहता हूं, तुम भी
ध्यान रखना! न बुद्ध, न
महावीर,
न
कृष्ण--किसी का राजपथ, किसी
की बनी पगडंडी तुम्हारे लिए नहीं है। मेरी भी पगडंडी तुम्हारे लिए नहीं है। ऐसे
तुम भटकोगे।
प्रार्थना
के लिए पूछो ही मत। जब छोटे बच्चे को भूख लगती है तो वह क्या करता है, पूछता है? पूछेगा तो कौन बताएगा उसे? और बता भी देगा कोई, तो वह भाषा नहीं समझता। बच्चा
पैदा हुआ मां के पेट से, वह
पूछता है डाक्टर को कि अब मैं क्या करूं, मुझे भूख लगी है? वह रोता है। कभी रोया नहीं
इसके पहले। मां के पेट में कभी भूख लगने का मौका ही न आया था।
अंतर्निहित
है बात--भूख लगेगी, तुम
रोओगे। परमात्मा की प्यास जगेगी, तुम
प्रार्थना करोगे। सत्य की खोज की जरा सी भी ललक आ जाएगी, आंसू झरने लगेंगे, नाचने लगोगे, हंसने लगोगे--कुछ घटेगा। वह
ऐसे ही तुम्हारे भीतर पड़ी है तुम्हारी प्रार्थना, जैसे अजन्मे बच्चे के भीतर
रोने की संभावना पड़ी है। तुम्हारी प्रार्थना तुम साथ ही लाए हो। तुम्हारे खून, हड्डी, मांस-मज्जा में छिपी है। बस
मौका उसे दो कि वह प्रकट हो सके। दूसरों के द्वारा सिखाई गई प्रार्थनाओं में दबी
जा रही है। उसकी गर्दन घुटी जा रही है। तुम उसे मारे डाल रहे हो।
हटाओ
दूसरों का कचरा जो तुम्हारे ऊपर हो! ताकि तुम्हारी निपट निजता प्रकट हो सके अपनी
परिपूर्ण शुद्धता और नग्नता में। छोटा बच्चा रोता है। जब भूख लगती है तब रोता है।
मां भागी चली आती है। तुम रोओ, परमात्मा
भागा चला आएगा। तुम छोटे बच्चे की भांति हो जाओ।
मैं
तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि रोना तुम्हें न आता हो तो रोओ। तब तुम चूक जाओगे।
हंसो! नाच सकते हो, नाचो।
चुप बैठ सकते हो,
चुप
बैठो। आकाश की तरफ आंख करके कुछ बात करने का मन हो, बात करो; बोलो। जो तुम्हें ठीक लगे, जो तुम्हें सहज मालूम हो, जो सहजस्फूर्त हो, उसी को तुम्हारी प्रार्थना
बनने दो। तुम्हारी प्रार्थना तुम लाए हो। मैं तुम्हें प्रार्थना नहीं सिखाता। मैं
तुम्हें सिर्फ इतनी याद दिलाता हूं कि कहीं ऐसा न हो कि तुम मर जाओ और तुम्हारी
प्रार्थना का जन्म न हो पाए।
तुम्हें
मेरी बात कठिन लगेगी। क्योंकि तुम सस्ती बातों के आदी हो गए हो। तुम चाहते हो मैं
तुम्हें एक प्रार्थना दे दूं, झंझट
मिटे। तुम अपने घर जाकर रोज दोहरा लो और सो जाओ। तुम कुछ भी खोजना नहीं चाहते। तुम
परमात्मा के लिए एक कदम भी उठाना नहीं चाहते। यह भाव-दशा ही प्रार्थना के विपरीत
है। मेरी बात तुम्हें कठिन लगती है, क्योंकि तुम्हें कुछ खोजना पड़ेगा। तुम्हें
लोग चम्मचों से धर्म खिलाते रहे हैं। तुम्हें अपने हाथ ही भूल गए हैं कि इनसे हम
भोजन उठा सकते हैं। दूसरे चबा कर तुम्हारे मुंह में डालते रहे हैं। वह जूठा था, लेकिन उसमें श्रम नहीं करना
पड़ता।
नहीं, मैं तुम्हारे लिए ऐसा कोई काम
करने को तैयार नहीं हूं। मेरे पास कोई बंधी प्रार्थना नहीं है, सिर्फ प्रार्थना की तरफ इशारे
हैं। उन इशारों को तुम समझ जाओगे तो तुम अपने ही भीतर छिपे हुए इस हीरे को पा लोगे, जो सदा से वहां तुम्हारी
प्रतीक्षा करता है। मैं तुम्हें चलने को मार्ग नहीं देता, मैं तुम्हें सिर्फ समझ देता
हूं, ताकि तुम अपना मार्ग बना सको।
तीसरा प्रश्न: आपने कहा कि पाप की स्वीकृति से पात्रता का जन्म
होता है। लेकिन उसी से आत्मदीनता का जन्म भी तो हो सकता है। कृपया समझाएं।
पाप की
स्वीकृति अगर हो जाए तो आत्मदीनता का जन्म कभी नहीं हो सकता। आत्मदीनता का जन्म
होता है,
क्योंकि
स्वीकार तुम करना नहीं चाहते और स्वीकार करना पड़ता है।
इन
दोनों बातों में फर्क समझ लेना। चाहते तो तुम यह थे कि तुम महाज्ञानी होते। चाहते
तो तुम यही हो,
लेकिन
दादू कहते हैं,
अपने
अज्ञान को स्वीकार कर लो। अज्ञानी तुम हो। चाह तुम्हारी यह है कि दुनिया जाने कि
तुम महाज्ञानी हो। अपने मन में तो तुम मानते ही हो कि तुम महाज्ञानी हो। दूसरों को
अभी पता नहीं। समय पर पता चल जाएगा। लोग नासमझ हैं, अज्ञानी हैं, इसलिए तुम्हारे महाज्ञान को
नहीं समझ पा रहे हैं। अन्यथा ऐसे तो तुम महाज्ञानी हो।
अरब
में कहावत है कि परमात्मा हर संसार में भेजने वाले प्राणी को पास बुला कर अंतिम
विदा के क्षण में एक मजाक कर देता है। कान में कह देता है: तुम से महान व्यक्ति
मैंने कभी बनाया ही नहीं। और वह हर व्यक्ति अपने मन में जीवन भर ढोता है। किसी से
कहे तो लोग हंसते हैं, क्योंकि
उनको भी वही मजाक परमात्मा ने किया है। उनको भी कहा है कि तुमसे महाज्ञानी, तुमसे महापुरुष हमने कभी
बनाया नहीं। तो वे तुम्हारी मान नहीं सकते कि तुम हो सकते हो; क्योंकि वे पहले से ही हैं।
और महापुरुष तो एक ही हो सकता है, दो-दो
कैसे हो जाएंगे?
तुम
डरते भी हो कहने में दूसरों से। क्योंकि तुम जानते हो, कोई स्वीकार न करेगा। दूसरे
तुमसे कहते हैं,
तो भी
तुम स्वीकार नहीं करते। चेष्टा चलती है।
अहंकार
मानना नहीं चाहता कि पाप है; अहंकार
मानना नहीं चाहता कि चोरी है; अहंकार
मानना नहीं चाहता कि अंधकार है, अपराध
है। इस न मानने में ही अगर मजबूरी में तुम्हें मानना पड़े, तो दीनता पैदा होती है, आत्मग्लानि पैदा होती है।
आत्मग्लानि का अर्थ ही है कि तुम चाहते तो न थे; चाहते तुम अभी भी नहीं हो; लेकिन जीवन की मजबूरी ने मनवा
दिया।
या यह
भी हो सकता है कि दादू जैसे व्यक्ति को सुन कर कि जो कहे चला जा रहा है: रती-रती
का चोर,
पल-पल
का अपराधी तेरा। एक लोभ जग सकता है मन में; कि अगर ऐसा स्वीकार करने से परमात्मा का
मिलन हो जाता है,
तो चलो
स्वीकार कर लेंगे। यह तुम कुशलता दिखला रहे हो। अगर स्वीकार कर लेने से ऐसा
परमात्मा मिलता है, तो चलो
स्वीकार कर लेते हैं। स्वीकार तुमने किया नहीं। यह परमात्मा को पाने के लोभ के
कारण तुम कहते हो,
चलो
ठीक! लेकिन यह तुम्हारा अंतर्निवेदन न होगा। तो तुम कहोगे चोर, लेकिन जानते तो तुम हो कि यह
बात ठीक नहीं।
टाल्सटाय
ने लिखा है कि एक दिन सुबह-सुबह वह चर्च गया। गांव का सबसे बड़ा धनपति वहां उससे भी
पहले पहुंच चुका था। अंधेरा था चर्च में। कोई विशेष धार्मिक त्यौहार था। वह धनपति
हाथ जोड़े,
घुटने
टेके परमात्मा से कह रहा था कि मैं पापी हूं, चोर हूं, बेईमान हूं। क्या पाप नहीं जो मैंने न किए
हों! तू क्षमावान है, तू
क्षमा कर।
उसे
पता नहीं था कि कोई और भी सुन रहा है। टाल्सटाय अंधेरे में खड़े थे; उन्होंने सुन लिया। जब थोड़ी
रोशनी होने लगी और वह आदमी उठा और उसने देखा कि कोई और खड़ा है। और वह पहचान गया कि
यह तो टाल्सटाय है। टाल्सटाय तो शाही घराने का व्यक्ति था, ख्यातिनाम, विश्व ख्यातिनाम लेखक था।
उसने कहा यह तो झंझट हो गई। लेखक यानी अब यह तो...इससे बचना मुश्किल ही है। यह
हजारों से कहेगा जाकर। लेखक का मतलब जो गपशप में भरोसा करता है। यह लिखेगा। यह तो
झंझट हो गई। वह आदमी पास आया और उसने कहा, याद रखना, अगर तुमने वह सुन लिया हो जो
मैंने परमात्मा से कहा है, तो गलत
सुन लिया है। क्योंकि वह मेरा परमात्मा और मेरे बीच बातचीत थी। तुमको बीच में आने
की कोई जरूरत न थी। अगर सुन भी लिया हो तो भूल जाना। और अगर याद रखा, या कहीं यह बात पहुंची, तो अदालत में मानहानि का
मुकदमा करूंगा। मुश्किल में पड़ जाओगे।
टाल्सटाय
ने कहा,
मैं
समझा नहीं। आप अभी कहते थे--मैं महापापी, महाचोर, अज्ञानी, अपराधी; तू क्षमा कर! तो आप गलत कह रहे थे?
उसने
कहा, गलत-सही की तुम फिक्र मत करो।
तुमसे नहीं कहा है, इतना
याद रखो। और बाजार में यह किसी को पता नहीं चलना चाहिए, अन्यथा तुम मुसीबत में पड़ोगे।
अब यह
आदमी क्या कर रहा है? यह
वस्तुतः कह रहा है? नहीं!
तो अब इसको घबराहट पकड़ी। यह तो परमात्मा के साथ भी जालसाजी कर रहा था। यह तो
परमात्मा के साथ भी चालबाजी कर रहा था। यह तो उससे कह रहा था कि सुना है हमने कि
संत कहते हैं,
ऐसा
कहने से तुम मिल जाते हो; चलो, कह कर देख लें। अगर गांव में
पता चल जाए तो इसे बड़ी पीड़ा होगी। इसके अहंकार को बड़ी चोट पहुंचेगी।
और
ध्यान रखना,
जब तक
तुम तैयार न होओ कि सबको पता चल जाए, तब तक परमात्मा से कहने का कोई अर्थ नहीं
है। जब तक तुम इस सत्य को पहचान ही न लो कि यह मेरी सच्चाई है कि मैं चोर हूं।
मैंने जब भी दावा किया, तब मैं
चोर हो गया। जब भी मैंने किसी को अपना कहा, तब मैंने परमात्मा की सीमा-रेखा का उल्लंघन
किया। सब परमात्मा के हैं, सब
परमात्मा का है,
मेरा
कुछ भी नहीं। तो जब भी मैंने कहीं भी जाने-अनजाने मैं का घेरा बनाया, तभी मैंने गलत रेखा खींची। और
मेरी हर खींची गई सीमा परमात्मा की छाती पर बना हुआ घाव है। जिस दिन तुम्हें यह
अनुभव हो जाए उस दिन अपराध नहीं पकड़ेगा। उस दिन अपनी असलियत को स्वीकार करने से एक
परम शांति...! क्योंकि संघर्ष बंद हो जाएगा। और तुम इसे ग्लानि न बना लोगे; तुम इसकी वजह से छिपे हुए न
रहोगे। वस्तुतः आदमी छिपता है गलत काम करके, क्योंकि वह चाहता नहीं है कि लोगों की नजरों
में गलत दिखे। ग्लानि पैदा होती है। जो आदमी स्वीकार कर लेता है कि मैंने गलत किया, गलत ही कर सकता था--बेहोश था, मूर्च्छा में था--छिपाना क्या
है? जो अपने को स्वयं ही नग्न कर
देता है,
उस
आदमी की सारी ग्लानि मिट जाती है। वह परम शांति को उपलब्ध हो जाता है।
उस
शांति में ही परमात्मा के उतर आने की संभावना है। पात्रता पैदा होती है। पाप की
स्वीकृति से पात्रता पैदा होती है। और अगर तुम्हें ऐसा लगता है कि पाप की स्वीकृति
से दीनता पैदा होगी, तो
उसका अर्थ साफ है: तुम पाप को स्वीकार नहीं कर रहे हो। स्वीकार करने के लिए
स्वीकार कर रहे हो। लेकिन तुमने सत्य को नहीं समझा है--कि बेहोश आदमी कर भी क्या
सकता है?
जो
मुझसे हुआ,
वही हो
सकता था।
अपराध-भाव
का अनुभव भी अहंकार का अनुभव है। तुम जब अनुभव करते हो, मैं अपराधी, तो तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो कि जो मुझे
नहीं करना चाहिए था, वह
मैंने किया। तुम यह कह रहे हो कि यह मेरे योग्य न था। कहां मेरी प्रतिमा स्वच्छ, उज्ज्वल! और मैंने एक ऐसा काम
कर लिया जिससे काली रेखा खिंच गई। तुम्हारी जो कल्पना की अहंकार-प्रतिमा है, उसके विपरीत कुछ हो गया, इसलिए ग्लानि पैदा होती है।
ग्लानि भी अहंकार की छाया है।
अगर
तुम कहते हो,
मैं
कुछ और कर भी क्या सकता था? अंधेरे
में था,
अंधा
था, बेहोश था। जो हुआ, वह होना था। अन्यथा कर भी
क्या सकता था?
जब तुम
इतने असहाय अनुभव करते हो कि कुछ और उपाय ही न था, तब स्वीकृति पैदा होती है।
स्वीकृति की बड़ी गहरी शांति है।
तुम
अंधेरे कमरे में हो, टटोलते
हो, कुर्सी से टकरा जाते हो। तुम
क्या करते?
क्या
तुम यह कह सकते हो कि अगर मैं चाहता तो कुर्सी से न टकराता? क्या तुम चाह कर कुर्सी से
टकराए?
चाह कर
तो दुनिया में कोई भी टकराता नहीं।
इसे--बड़ी
गहरी बात है--थोड़ा और ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करो। इस पर बहुत कुछ निर्भर है।
जब भी तुम अतीत के संबंध में ऐसा सोचते हो कि मैं चाहता तो अन्यथा कर सकता था, तभी तुम गलत सोच रहे हो। तभी
अहंकार बीच में आ गया।
कल
तुमने क्रोध किया था। आज तुम सोचते हो कि अगर मैं चाहता तो क्रोध न करता। गलती बात
है। जो हुआ,
उससे
अन्यथा नहीं हो सकता था। क्योंकि जो हुआ वह तुमसे हुआ। तुम जैसे थे उससे ऐसा ही हो
सकता था। इससे अन्यथा का उपाय न था। अब आज तुम पीछे बड़े बुद्धिमान बन रहे हो। तुम
कहते हो,
कल अगर
मैं चाहता तो क्रोध न करता। अब ग्लानि पैदा हो रही है। अहंकार कह रहा है कि तुम
जैसे महापुरुष,
सदा
शांत रहने वाले,
और
तुमसे क्रोध हो गया! अहंकार यह कह रहा है कि अगर जरा ही होश रखा होता, सम्हाल की होती, तो न होता। अहंकार कहता है, अब कल के लिए व्रत ले लेते
हैं, कसम खा लेते हैं मंदिर में
जाकर कि अब क्रोध न करेंगे।
लेकिन
तुमसे क्रोध होगा। कल भी होगा, परसों
भी होगा। क्योंकि जिस अहंकार के कारण क्रोध पैदा होता है उसे तो तुम बचा ही रहे
हो। वस्तुतः,
कल जो
क्रोध हुआ था,
उसके
कारण दो घटनाएं संभव थीं। एक तो घटना थी जो दादू कहते हैं; कर ली होती तो क्रांति हो
जाती। तुम कहते,
मैं कर
भी क्या सकता हूं! मैं अपराधी हूं जनम-जनम का। चोर हूं, पापी हूं, मूर्च्छित हूं, प्रमाद से भरा हूं। मैं कर भी
क्या सकता था?
इतना
भी मैं नहीं निवेदन कर सकता हूं कि अगर मैंने चाहा होता तो अन्यथा करता, क्रोध न करता। यह भी मैं आज
कैसे कहूं?
क्योंकि
कल जब मैंने किया था तब मैं बिलकुल बेहोश था। और अभी भी पक्का नहीं है। अगर कोई
गाली दे तो पक्का नहीं है कि मैं फिर बेहोश न हो जाऊंगा। ये सारी समझदारी की बातें
तब हो रही हैं,
जब
क्रोध की स्थिति मौजूद नहीं है।
क्रोध
करने के बाद तो सभी लोग समझदार हो जाते हैं। कामवासना में उतरने के बाद सभी लोग
ब्रह्मचर्य का विचार करने लगते हैं। लोभ करने के बाद सभी लोगों के मन में पुण्य के
विचार उठने लगते हैं। पाप करने के बाद पश्चात्ताप ऐसा ही स्वाभाविक है, जैसे आदमी के पीछे उसकी छाया।
लेकिन इससे कुछ पाप रुकता नहीं। पश्चात्ताप वस्तुतः पाप के विपरीत नहीं है।
पश्चात्ताप फिर से पाप करने की तैयारी है।
तुमने
क्रोध किया,
तुम्हारी
अपनी आंखों में तुम नीचे गिर गए। क्योंकि अब तक तुम सोचते थे तुम अक्रोधी हो, क्षमावान हो। पश्चात्ताप करके
तुम अपनी प्रतिमा को फिर से पुनः सिंहासन पर विराजमान कर रहे हो--कि देखो, मैंने पश्चात्ताप कर लिया!
मिच्छामि दुक्कणम्! तुम गए और क्षमा मांग ली कि देखो मैं कैसा विनम्र आदमी हूं।
भूल हो गई थी,
सुधार
कर लिया। अब तुम्हारी प्रतिमा जो डगमगा गई थी तुम्हारे भीतर, तुम्हारे अहंकार को जो पीड़ा होने
लगी थी कि मुझसे क्रोध हो गया, उस
क्रोध को सम्हाल लिया। प्रतिमा फिर सिंहासन पर विराजमान हो गई। प्रतिमा फिर उसी
स्थिति में आ गई जिस स्थिति में क्रोध करने के पहले थी। पश्चात्ताप क्रोध का
संगी-साथी है।
दादू
कहते हैं,
तुम
पश्चात्ताप में मत पड़ो, क्योंकि
पश्चात्ताप में पड़-पड़ कर फिर क्रोध की क्षमता, पाप की क्षमता निर्मित होती है। तुम तो यह
अनुभव करो कि मुझसे अन्यथा हो न सकेगा। तू कुछ कर, तो बात अलग। मेरे किए न होगा।
मैं तो कर चुका बहुत। क्रोध भी किया, पछतावा भी किया; बुरा भी किया, भला भी किया; लेकिन दादू कहते हैं कि आदि
से अंत तक--आज तक--सुकृत न हो सका। सब करके देख लिया है। ऐसा भी नहीं है कि भला
करके नहीं देखा। भला भी करके देख लिया है। लेकिन मैं भला भी करता हूं, तो भी दुष्कृत ही होता है, सुकृत नहीं होता। मैंने अपनी
स्थिति पहचान ली। कर्ता का भाव ही मेरा गिर गया है। अब तो तू कुछ कर, तो हो। अब मैं तुझ पर पूरा
छोड़ता हूं।
स्वीकार
का मतलब है,
मैं
अपने पूरे बही-खाते तेरे सामने खोल कर रख देता हूं। मैंने नंबर दो के बही-खाते
नहीं रखे हैं। ये सब खोल कर रख देता हूं, अब तू देख ले। मैं सब कर चुका, सब भांति हार चुका, सब शोध कर ली। मैंने जो भी
किया--बुरा किया,
बुरा
हुआ; अच्छा किया, तो भी बुरा हुआ। क्योंकि करने
वाला एक ही था।
यह बड़ी
गहरी बात है। तुम सोचते हो, अच्छा
कर सकते हो,
बुरा
कर सकते हो;
क्योंकि
अच्छाई और बुराई का संबंध कृत्य से है।
कृत्य
से नहीं है,
कर्ता
से है। यह तो ऐसे ही है जैसे नीम कहे कि माना कि मैंने बहुत सी पत्तियां कड़वी
निकाली हैं,
चाहूं
तो एक मीठी पत्ती भी निकाल सकती हूं।
तुम्हारे
कृत्य तुम्हारे जीवन को पत्तियों की तरह घेरे हैं। तुम जड़ हो। अगर जड़ ही जहरीली है
तो तुम मीठी पत्ती निकालोगे कैसे? हां, यह हो सकता है, कड़वी पत्ती पर मीठी का लेबल
लगा दो। यह हो सकता है, इसमें
कोई अड़चन नहीं है। भीतर तो कड़वाहट ही होगी। हो सकता है ऊपर शक्कर की पर्त जमा दो।
भीतर तो जहर ही होगा। किसको तुम धोखा दोगे? अपने को ही धोखा भला दे लो। लेकिन यह धोखा
चलने वाला नहीं है। परमात्मा के समक्ष कैसे धोखा चलेगा?
दादू
कहते हैं,
सब
करके देख लिया;
अच्छा
भी, बुरा भी। लेकिन मैं चूंकि गलत
हूं, मैं चूंकि सोया, बेहोश हूं, चूंकि मैं नीम का झाड़ हूं, जहर मेरी जड़ों में है, हर पत्ती में पहुंच जाता है।
अब तो तेरी कृपा हो, तेरी
क्षमा हो,
इसके
अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।
इसमें
कोई दीनता का भाव नहीं है, इसमें
केवल सत्य का स्वीकार है। यही प्रामाणिकता है, आथेंटिसिटी है। दादू समझ गए राज को कि मैं
कर रहा था,
लेकिन
यह मैं फिक्र ही नहीं कर रहा था कि मैं ही गलत हूं, तो जो मैं करूंगा उस पर मेरी
गलती की छाया पड़ेगी।
साधारणतः
पापी भी सोचता है कि चाहूं तो पुण्य कर सकता हूं। चोर भी सोचता है कि दान दे
दूंगा। कहीं न कहीं बाढ़ आएगी, कहीं न
कहीं भूकंप होगा। जरूर होगा, दान कर
देंगे। कुछ न होगा तो इलेक्शन आएगा, राजनैतिक पार्टियों को दान कर देंगे। फिर
पीछे लायसेंस निकाल लेंगे, वह बात
और! क्योंकि जो भी आदमी देता है, वह कुछ
पाने को देता है। वह अगर दान भी करता है तो भी हिसाब रख लेता है कि परमात्मा से
इससे कितना गुना मिलेगा। पंडित-पुजारी लोगों को समझाते हैं कि एक पैसा दान दो, करोड़ गुना पाओगे।
कोई तो
हिसाब रखो! इतना ब्याज कहीं भी नहीं मिलता है। एक पैसा दोगे, करोड़ पैसे पाओगे? थोड़ी तो सीमा में बात करो!
मगर लोभी अंधा होता है। वह इस आशा में कि एक करोड़ मिलेंगे, एक देता है। मगर वह देता है
एक करोड़ की आशा में। इसलिए देता ही नहीं। दान तो तभी है जब बिना आशा के दिया जाता
है, बिना फल की आकांक्षा के। देने
के आनंद से दिया जाता है, पाने
का कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा नहीं कि ऐसे व्यक्ति को नहीं मिलता; ऐसे व्यक्ति को करोड़ गुना भी
मिलता है। लेकिन वह गौण है बात। वह उसकी बात नहीं है।
इसलिए
शास्त्र गलत नहीं कहते हैं कि एक दोगे, करोड़ गुना पाओगे। गलती तब हो जाती है जब हम
एक, करोड़ गुना पाने के लिए देने
लगते हैं। जो एक देता है वह करोड़ गुना पाता ही है। लेकिन वह परिणाम है। वह
तुम्हारी फलाकांक्षा नहीं है। वह होता है। देने की क्षमता जितनी बढ़ती जाती है, उतनी पाने की क्षमता बढ़ती
जाती है। जितना तुम बांटते हो उतना परमात्मा तुम पर बरसाने लगता है। क्योंकि तुम
बांटने में कुशल हो गए। जितना तुम रोकते हो, उतना सिकुड़ जाते हो। परमात्मा के द्वार भी
बंद हो जाते हैं।
ऐसा ही
समझो कि एक कुएं से हम पानी भर लेते हैं, हजार झिरें बह रही हैं, वे पानी को फिर भर देती हैं।
कुएं से पानी मत भरो, झिरें काम
नहीं करतीं,
पड़ी
रहती हैं बंद। धीरे-धीरे मिट्टी जम जाएगी, कचरा जम जाएगा, कुआं सड़ जाएगा, डबरा हो जाएगा। भरा हुआ कुआं, जो कभी खाली नहीं किया जाता, सड़ जाता है।
कृपण
व्यक्ति ऐसा ही सड़ा हुआ कुआं है। जो कुआं लुटाता रहता है, नये झरने आते जाते हैं, वह कभी सड़ता नहीं, वह सदा ताजा रहता है। दोगे तो
ताजे रहोगे;
पकड़ोगे
तो मर जाओगे,
बासे
हो जाओगे। और जो ताजा है उसके लिए हजार-हजार ढंग से जीवन के द्वार खुलते चले जाते
हैं।
शास्त्र
ठीक कहते हैं,
तुम
गलत समझ लेते हो। तुम गलत हो, तुम कर
भी क्या सकते हो?
तुम
गीता भी पढ़ोगे,
तो भी
तुम समझोगे वही जो तुम समझना चाहते हो।
दादू
कहते हैं,
तुम इस
स्थिति को देख लो कि कर्ता का प्रश्न है, कृत्य का नहीं।
हमारी
सबकी मान्यता ऐसी है कि कभी-कभी बुरा आदमी भी अच्छे काम करता है। और इसी कारण
हमारी यह भी मान्यता है कि कभी-कभी अच्छा आदमी भी बुरे काम करता है। यह मान्यता
एकदम बुनियादी रूप से गलत है।
अगर
कोई आदमी अच्छा है, तो
बुरा काम करता ही नहीं। भला उसका काम तुम्हें बुरा लगता हो; वह तुम्हारी व्याख्या की बात
है। भले आदमी से बुरा काम होता ही नहीं। वह तो ऐसा ही हुआ जैसे कि आम के वृक्ष में
नीम लग जाए। वह होता ही नहीं। वह नियम नहीं है।
और
बुरे आदमी से भला काम नहीं होता। वह हो ही नहीं सकता है। इसमें ग्लानि कुछ नहीं
है। नीम का यह समझ लेना कि मैं नीम हूं, इसमें कोई ग्लानि नहीं है। सिर्फ इससे इतना
ही होगा कि वह व्यर्थ शक्कर चढ़ाने की जो कोशिश में लगी थी वह बंद हो जाएगी। और वह
परमात्मा के चरणों में समर्पित हो जाएगी--जैसी भी है। परमात्मा तुम्हारे जहर को भी
स्वीकार करने को राजी है।
हमारी
कथा है शिव के संबंध में कि वे नीलकंठ हैं। वह परमात्मा के संबंध की कथा है।
देव और
दानवों ने समुद्रमंथन किया। किया तो मंथन उन्होंने इसीलिए था कि अमृत को निकालना
चाहते थे। खबर लग गई कि समुद्र की गहराई में अमृत छिपा है। तो उन्होंने मथ डाला
समुद्र। बड़ी कठिन क्रिया थी। लेकिन जो पहला आविर्भाव हुआ, वह जहर था।
जो भी
अमृत की खोज में जाएगा, पहला
आविर्भाव जहर का होगा। क्योंकि जहर तुम छिपाए हो; जब तक उससे पार न हो जाओ तब
तक अमृत मिलेगा भी नहीं। जो व्यक्ति धार्मिक होने चलेगा, पहले उसे अपने भीतर की
अधार्मिकता दिखेगी। वह जहर है। जो पुण्यात्मा होने चलेगा, पहले अपने भीतर का पाप दिखाई
पड़ेगा।
वही तो
दादू कह रहे हैं: रती-रती का चोर। तेरा गुनहगार हूं।
संतत्व
के उदय के पहले,
अमृत
के उदय के पहले जहर। क्योंकि इस जहर को ही हम छिपाते रहे अब तक। अमृत तो भीतर था, उसका हमें पता नहीं था। और जो
भी जहर हम बचाना चाहते थे कि किसी को पता न चले, वह अपने भीतर छिपाते गए। और
कहीं छिपाते तो कोई न कोई खोज ही लेता। उसे भीतर छिपाते गए। अब जहर की पर्तें
इकट्ठी हो गई हैं।
बड़ी
मीठी कथा है। जहर पहले मिला। अब घबड़ा गए देव-दानव दोनों। क्योंकि वे कोई भी उस जहर
को तो पीने को राजी न थे। दोनों अमृत की तलाश में थे। यही तो मजा है। यहां बुरे
आदमी और भले आदमी में बहुत फर्क नहीं है। देव-दानव दोनों की आकांक्षा एक है। देव
ऊपर से अच्छे लगते हैं, दानव
ऊपर से बुरे लगते हैं। लेकिन दोनों की तीव्र आकांक्षा एक ही है। दोनों सोए हुए
हैं।
जहर
पीने को कोई राजी न था। वे बहुत घबड़ा गए, अब क्या करना! और समुद्र नाराज होगा, अगर जहर न पीया गया। जब
निकाला है तो पीओ! वे घबड़ाए, उन्होंने
जाकर शिव को प्रार्थना की कि आप कुछ उपाय करें। शिव जहर पी गए। इसलिए शिव का नाम
नीलकंठ हो गया। वह जहर उनके कंठ को नीला कर गया।
इसलिए
अब भी नीलकंठ की हम पूजा किए चले जाते हैं। वह मूढ़ता है; उसका कुछ लेना-देना नहीं है।
बेचारे नीलकंठ ने न कुछ किया है, न
कुछ...उसका किसी उपद्रव में कोई हाथ नहीं है। लेकिन प्रतीक कीमती है। शिव जहर पी
गए। जहर ने कुछ नुकसान न किया; और
सुंदर हो गए,
नीलकंठ
हो गए।
परमात्मा
तुम्हारे जहर को पी लेगा। तुम नाहक ग्लानि मत करो। तुम बस खोल दो, सामने रख दो। तुम छिपाओ मत, तुम निवेदन कर दो। जितना
छिपाओगे,
उतना
भटकोगे।
दादू
कोई अपराध-भाव पैदा नहीं करवाना चाह रहे हैं। अपराध तो है ही। लेकिन तुमने सदा यह
जाना कि अपराध कृत्यों में है। दादू कहते हैं, अपराध कर्ता में है। बस इतनी पहचान आ गई तो
फिर कोई भाव पैदा नहीं होता अपराध का। अपराध-वृत्ति भी पैदा नहीं होती। दीनता भी
नहीं आती।
अगर
तुमने समझा कि अपराध कृत्यों में है, तो अपराध की दीनता पैदा होती है--कि मैं तो
हूं नहीं अपराधी,
लेकिन
यह काम बुरा किया,
वह काम
बुरा किया। मैं तो अच्छा आदमी हूं और बुरे काम कर लिए। इस अच्छे आदमी की प्रतिमा
और बुरे काम का मेल नहीं बैठता। उससे बड़ी गिल्ट, बड़ी अपराध-भावना, ग्लानि-भावना पैदा होती
है--कि यह मैंने कैसा किया!
महात्मा
गांधी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है...और उस घटना ने उनके जीवन भर को प्रभावित
किया। दादू उससे राजी न होते।...पिता बीमार थे, गांधी उनके पैर दाब रहे थे। फिर आधी रात हुई, वे थक गए, वे अपने कमरे में चले गए।
गांधी के चाचा आ गए, वे
पिता के पैर दाबने लगे। कोई घड़ी भर बाद गांधी के पिता की मृत्यु हो गई। तब गांधी
अपनी पत्नी के पास शय्या पर थे। द्वार किसी ने आकर खटखटाया और कहा कि तुम्हारे
पिता चल बसे। उनके मन में एक अपराध-भाव घर कर गया। वह अपराध यह कि पिता मरणासन्न
पड़े थे और तब भी मैं कामवासना से दूर न रह सका।
अब यह
बात कोई मतलब की नहीं है। क्योंकि पिता उसी रात मरने वाले थे, यह तय नहीं था। यह तो रोज ही
गांधी थोड़ी देर तक पैर दाबते थे, फिर
चले जाते थे। वैसे ही आज भी चले गए थे। फिर पिता के बीमार पड़ने से कोई अपनी पत्नी
को प्रेम न करेगा,
यह भी
बात अर्थपूर्ण नहीं है। अगर ऐसा होने लगे कि पिता के बीमार होने से लोग अपनी पत्नी
को प्रेम न करें और पिता के मर जाने से प्रेम बंद हो जाए, तो दुनिया में न तो बेटे होंगे
और न पिता होंगे।
लेकिन
गांधी इसको भूल न सके। उनको अपराध की बड़ी दीन, ग्लानि की भावना पैदा हो गई। इसलिए गांधी
जिंदगी भर घूम-फिर कर ब्रह्मचर्य साधने की चेष्टा करते रहे। अपने आश्रमों में भी
थोपते रहे दूसरों पर भी ब्रह्मचर्य। क्योंकि उनकी खुद की ग्लानि कष्ट दे रही थी।
वे जब भी पत्नी के पास जाते होंगे, उनको फिर पिता की मौत याद आती होगी। संयोग
हो गया दोनों बातों का।
और
गांधी को ग्लानि क्यों पैदा हुई? क्योंकि
गांधी मानते हैं: मैं चाहता तो और पैर दाबता। मैं चाहता तो उस रात पत्नी के पास न
जाता।
लेकिन
मैं कहता हूं,
यह हो
ही नहीं सकता था। जो हुआ, वही हो
सकता था। यह पीछे का पछतावा है। यह पीछे की समझदारी है, जो कि नासमझ से नासमझ आदमी
में भी हो जाती है। गांधी समझते हैं, मैंने गलत किया। गलत ही हो सकता है
मूर्च्छित आदमी से। ठीक होता है अमूर्च्छा में। मूर्च्छा में गलत ही होता है। फिर
उस मूर्च्छा का घाव पड़ गया। फिर वे जिंदगी भर उस घाव से छूटने की चेष्टा करते
रहे--किसी तरह छुटकारा हो जाए। वह मरते दम तक नहीं छूट सका।
आत्मग्लानि
पैदा हो जाए तो बड़ी पीड़ा देती है और वह घाव कभी छूटता नहीं। क्योंकि आत्मग्लानि का
एक गुण है कि घाव को बार-बार देखने की चेष्टा चलती है। क्योंकि उसी घाव को बार-बार
कुरेदने से यह अहसास होता है कि कृत्य मैंने गलत किया भला, लेकिन आदमी मैं ऊंचा हूं।
आदमी तो मैं महात्मा हूं, एक काम
हो गया गलत।
मैंने
सुना है,
एक
सूफी फकीर एक छोटी सी बात कर दिया। कोई भीख मांगने आया था। उसके खीसे में एक दीनार
पड़ा था,
एक
रुपया था। लेकिन उसने कहा, नहीं, मेरे पास कुछ नहीं है; आगे जा! फिर उसे पीछे याद आया
कि यह तो पाप हो गया। तो कहते हैं, चालीस साल तक--जब तक वह जिंदा रहा--कोड़े
मारता अपने को रोज सुबह उठ कर, क्योंकि
उसने एक झूठ बोल दिया। उसकी बड़ी ख्याति हो गई, दूर-दूर से लोग आने लगे। वह बड़ा महात्मा हो
गया कि ऐसा कभी देखा नहीं। इतना सा छोटा सा मामला, जिसके संबंध में इतना शोरगुल
मचाने की जरूरत भी न थी। बात ही कुछ बड़ी न थी। पाप भी कुछ ऐसा भारी न था। लोग बिना
ही कुछ सोचे-समझे भिखारी से कहते हैं कि आगे जा! यहां कुछ नहीं है।
एक
मारवाड़ी यही कह रहा था एक भिखारी से कि आगे जा भाई, यहां कुछ नहीं है। तो उसने
कहा कि न हो रुपया, तो एक
रोटी मिल जाए। उसने कहा कि रोटी भी नहीं है; आगे जा। तो उसने कहा, कुछ नहीं हो तो पुराना कपड़ा
ही मिल जाए। उसने कहा, यहां कोई
है ही नहीं और न कोई चीज है; तू आगे
जा। तो उसने कहा,
फिर आप
भीतर बैठे क्या कर रहे हैं? आप
मेरे साथ हो जाओ। जो भी शाम तक मिलेगा, बांट लेंगे।
लोग तो
यूं ही कहे चले जाते हैं। कोई इसको सोच-विचार कर नहीं कहते। मूर्च्छित चित्त है, टाल रहा है--नहीं है। उसका कोई
मतलब नहीं है कि नहीं है।
लेकिन
उसने चालीस साल अपने को सताया। और उपवास किए, प्रार्थनाएं, पूजा, तपश्चर्या, हज की यात्रा, कोड़े मारना--अपने को इस तरह
सताया।
एक रात, मरने के एक दिन पहले उसने
स्वप्न देखा कि वह मर गया है और उसे नरक ले जाया जा रहा है। उसने कहा, हद हो गई! वह एक बात के
पीछे--और बात भी कुछ बड़ी न थी--नरक जाना पड़ रहा है। और इतना मैंने सताया, मारा-पीटा।
उसने
देवदूतों से कहा,
पहले
मुझे परमात्मा के सामने निवेदन कर लेने दो, फिर मुझे नरक ले जाना। क्योंकि यह जरा
ज्यादती मालूम पड़ती है। और लोग भी मुझसे आकर कहते थे, इतने से छोटे पाप के लिए अगर
तुम इतना अपने को सता रहे हो, तो
हमारा क्या होगा?
हमारा
भी तो कुछ खयाल रखो! दूसरों तक को दया आ गई थी, और परमात्मा को दया नहीं है?
तो वह
परमात्मा के सामने मौजूद किया गया। उसने बड़ी भारी शिकायत की, जैसे कि महात्मागण हमेशा करेंगे।
क्योंकि वे हमेशा हिसाब रखते हैं: क्या-क्या किया। उसने कहा कि सुनो! चालीस साल तक
इतने-इतने कोड़े रोज मारे हैं; रमजान
के इतने उपवास किए हैं; एक दिन
खाता था,
एक दिन
खाता नहीं था पूरे साल--चालीस सालों तक। रात सोया नहीं, रोया, प्रार्थना की। जमीन पर
सरक-सरक कर हज की यात्रा करके आया। घुटने छिल गए, शरीर अपंग हो गया। और पाप
मैंने कुछ ऐसा बहुत बड़ा न किया था। इतना ही कहा था उस भिक्षमंगे से...हद हो गई, वह भी दुर्भाग्य का क्षण कि
कहां से वह आ गया,
जिंदगी
डुबा दी। और अब मैं नरक जा रहा हूं!
परमात्मा
ने कहा,
उसकी
हम फिक्र नहीं करते कि क्या तुमने भिखारी से कहा था। लेकिन तुमने शोरगुल बहुत
मचाया। वह बात क्षमा हो सकती थी, लेकिन
जो तुमने चालीस साल किया उसे क्षमा करने का कोई उपाय नहीं। भूल किससे नहीं होती? भूल क्षमा हो सकती है। लेकिन
तुम क्षमा नहीं मांगना चाहते थे इसलिए इतना उपाय किया।
इस बात
को थोड़ा समझ लेना। घबड़ाहट में उसकी नींद खुल गई। वह भरोसा न कर सका कि यह सपना
कैसा है! पूरे जीवन की बात साफ हो गई।
तुम्हारे
पाप तुम्हें न डुबाएंगे, तुम्हारा
पुण्यात्मा होने का प्रयास तुम्हें डुबाएगा। असल में, पाप के विपरीत पुण्य करने की
चेष्टा इस बात की चेष्टा है कि तुझसे हम क्षमा न मांगेंगे। हमने बुरा किया है, हम ठीक कर देंगे। मगर हम
मौजूद रहेंगे। मैं मालिक हूं। बुरा किया तो, भला किया तो। तुझसे हम कुछ मांगते नहीं।
तुझसे हमारी कोई प्रार्थना नहीं है।
तुम
प्रार्थना से बचना चाह रहे हो। तो फिर कठिनाई है।
खोल कर
रख दो अपनी किताब। उससे यह कह दो कि हम जैसे थे, यही हो सकता था। अब तुझे जहां
भेजना हो,
हम
राजी हैं। नरक तो नरक; हमारी
कोई शिकायत नहीं। मिलना ही चाहिए। स्वर्ग मिल जाए तो तेरा अनुग्रह; मिलना नहीं चाहिए था और तूने
दिया।
इसलिए
दादू का जोर है कि मेरी पात्रता के कारण तुझसे नहीं मांग रहा हूं, तेरी क्षमा की क्षमता के कारण
मांग रहा हूं।
यही
भक्त का और साधक का भेद है। साधक कहता है, बुरा किया है, हम ही निपटारा कर देंगे। भक्त
कहता है,
हमसे
बुरा हुआ है,
हम
बुरे हैं,
हम
निपटारे के लिए भी जो करेंगे उसमें और बुरा हो जाएगा। इसलिए हम तेरे सामने ही सब
रख देते हैं। तू ही निपटारा कर दे।
आखिरी प्रश्न: दादू देखा सोधि सब, तुम बिन कहिं न समाहिं--दादू
की यह बड़ी खोज जिज्ञासु की थी या साधक की या भक्त की?
भक्त
की कोई खोज नहीं। जहां जिज्ञासु और साधक की खोज समाप्त हो जाती है, गिर जाती है, वहां भक्ति का आविर्भाव है।
भक्त खोजता नहीं,
खोता
है। वह परमात्मा को खोजने नहीं जाता, अपने को मिटाने चलता है।
जिज्ञासु
पूछता है,
सत्य
क्या है?
सिर्फ
पूछता है। सोचता है कि सत्य क्या है? परमात्मा क्या है? यह एक प्रश्न है, जिसका कहीं न कहीं किसी
बुद्धिमान ने कोई उत्तर दिया होगा। वह सोचता है कि परमात्मा एक प्रश्न है, उत्तर से हल हो जाएगा। वह
बुद्धि का भरोसा करता है। जिज्ञासु अगर अपनी ही यात्रा में चलता चला जाए, तो दार्शनिक हो जाएगा, फिलासफर हो जाएगा। धीरे-धीरे
वह किसी न किसी प्रश्न को घूम-फिर कर, खोज-खोज कर किसी उत्तर के साथ राजी हो
जाएगा। इसलिए नहीं कि उत्तर मिल जाएगा; इसलिए कि आदमी थक जाता है। आखिर खोज की भी
एक सीमा है,
आदमी
थक जाता है। थक जाता है, तो फिर
कोई भी उत्तर स्वीकार कर लेता है।
मैंने
एक दार्शनिक के संबंध में सुना है कि उन्हें अपने से ही बात करने की आदत थी। किसी
मित्र ने पूछा कि यह कुछ समझ में नहीं आता। आप दूसरों से तो बात नहीं करते, मौन रहे आते हैं। लेकिन जब भी
अकेले होते हैं,
अपने
से बात करते हैं। यह आप आदतन करते हैं या इसका कोई कारण है?
उस
दार्शनिक ने कहा,
इसके
दो कारण हैं। एक तो मैं केवल बुद्धिमान आदमी से ही बात करना पसंद करता हूं; और मैं बुद्धिमान आदमी की ही
बात भी सुनना पसंद करता हूं। तो इसका एक ही उपाय है कि अपने से ही बात करूं।
बुद्धिमान आदमी की ही बात भी सुनना पसंद करता हूं और बुद्धिमान से ही बात भी करना
पसंद करता हूं। अब इसका कोई और उपाय ही नहीं सिवाय इसके कि अपने से ही बात करूं।
तो
दार्शनिक धीरे-धीरे अपनी ही बातों से राजी हो जाता है सोच कर कि बुद्धिमान हो गया।
बहुत दिन तक पूछते-पूछते थक जाता है प्रश्नों से, क्योंकि प्रश्न बेचैनी देते
हैं, फिर किसी न किसी उत्तर पर राजी
हो जाता है। इसलिए नहीं कि उत्तर मिल गया; उत्तर तो बुद्धि से कभी किसी को मिला ही
नहीं है। दर्शन से ज्यादा असफल कोई यात्रा ही नहीं है। फिलासफी से ज्यादा व्यर्थ
इस संसार में कुछ है ही नहीं। लेकिन आदमी कब तक परेशान रहता है? पूछता रहता है, पूछता रहता है, फिर राजी हो जाता है।
इसलिए
तुम हर दर्शनशास्त्र में अगर गौर से देखोगे तो तुम पाओगे कि आखिरी प्रश्न वैसा ही
का वैसा खड़ा है। उसका कोई हल ही नहीं होता। लेकिन जिसने उस दर्शन को मान लिया है, वह अपने को उतनी जगह देखने को
अंधा हो जाता है। बस एक प्रश्न बुनियादी को छोड़ देता है, बाकी सब उत्तर मिल जाते हैं।
अगर
तुम जैन दार्शनिकों से पूछो कि आत्मा क्यों कष्ट भोग रही है? तो उनके पास उत्तर है: पाप
किए थे। कैसे मुक्त होगी? उनके
पास उत्तर है: पुण्य करे तो मुक्त हो जाएगी। तुम उनसे सब तरह के प्रश्न पूछ लो, एक भर मत पूछना। वह भर उनका
अंधापन है।
सभी
दार्शनिकों का एक प्रश्न अंधापन होता है। उससे वे खुद ही बचना चाहते हैं, क्योंकि अगर वह फिर शुरू हो
गया, तो फिर विचार करना पड़ेगा। वह
प्रश्न यह है कि आत्मा संसार में आई कैसे? वह तुम कभी जैनियों से मत पूछना।
क्योंकि...क्यों है अभी? इसलिए
है कि पिछले जन्मों में पाप किए; ठीक।
आगे कभी मोक्ष हो जाएगा, क्योंकि
पाप बंद हो जाएंगे, पुण्य
हो जाएगा। लेकिन सवाल यह है कि इस संसार में आई ही कैसे? कभी तो आई होगी।
करोड़ों-करोड़ों जन्म पहले, लेकिन
एक दफा तो पहला जन्म हुआ होगा। वह पहला जन्म बिना पाप के कैसे हुआ? और या कि संसार में बिना आए
भी पाप हो सकता है? तो
बिना संसार में आए तो पाप कैसे होगा? परिस्थिति चाहिए, तभी पाप होगा। तो पहली आत्मा
कैसे उतरी?
वह जैन
से मत पूछना;
अन्यथा
वह बेचैन हो जाता है। वह कहता है, तुम
नास्तिक हो। फिर वह गाली-गलौज देता है; फिर उत्तर नहीं देता।
शंकराचार्य
से पूछो,
हिंदुओं
से पूछो। वे कहते हैं, सब
माया है,
सब
सपना है। इसमें कोई सार नहीं है। यह सब झूठा है। परमात्मा ही, ब्रह्म ही केवल सत्य है। उनसे
यह मत पूछना कि अगर ब्रह्म ही केवल सत्य है, तो माया आई कहां से? क्योंकि सत्य से केवल सत्य ही
आ सकता है। उनसे तुम यह मत पूछना कि माया कहां से आई? तब वे नाराज हो जाएंगे। वे
कहेंगे,
अब तुम
जरा ज्यादा हठ दिखला रहे हो, तर्कवादिता
दिखला रहे हो। इसका उत्तर उनके पास नहीं है। इसके प्रति वे अंधे हैं।
ऐसा
हुआ कि वेदों में,
उपनिषदों
में कहानी है कि जनक ने एक बहुत बड़े शास्त्रार्थ के लिए एक सभा बुलाई। उसने हजार
गौएं खड़ी रखीं। उनके सींगों पर सोना चढ़वा दिया, हीरे लगवा दिए; कि जो भी जीत जाएगा विवाद में, वह इनको ले जाएगा।
बड़े-बड़े
पंडित इकट्ठे हुए। ज्ञानी तो वहां कोई भी न आया होगा, क्योंकि ज्ञानी विवाद में
भरोसा नहीं करता। शास्त्रार्थ तो मूढ़ों की प्रक्रिया है, बच्चों का खेल है। लेकिन
बड़े-बड़े पंडित आ गए। और तब पीछे याज्ञवल्क्य आया। वह महा-पंडित था। वह इतना बड़ा
पंडित था कि जब वह आया, तो
दोपहर हो गई थी,
लोग
उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे कि वह आ जाए तो काम शुरू हो, विवाद शुरू हो। वह अपने
शिष्यों के साथ आया। गौओं को पसीना आ रहा था। उसने कहा कि देखो, तुम गौएं ले जाओ अपने आश्रम; मैं विवाद निपटा लूंगा। जो
जीतेगा उसी को मिलने वाली हैं, जीत
निश्चित है। तुम फिक्र मत करो।
उसने
गौएं हंकवा दीं। जनक भी खड़ा रह गया। कहना कुछ मुश्किल था। बात भी ठीक थी कि वह
जीतेगा विवाद में। और वह विवाद में करीब-करीब जीत गया था, तभी एक स्त्री ने उसकी हालत
खराब कर दी।
और
स्त्री ने ही वह हालत खराब की, यह भी
थोड़ा सोचने जैसा है। कहानी बड़ी मधुर है। पुरुष से अगर तुम विवाद करो, तो तुम जानते हो ठीक-ठीक कि
विवाद किस रास्ते पर चलेगा। दोनों पुरुष हो, एक-दूसरे का मन समझते हो। स्त्री के साथ
विवाद मुश्किल है। हर आदमी जानता है, जिसका भी स्त्री से कभी विवाद हुआ। उसका कुछ
तर्क समझ में नहीं आता। वह कहां से कहां छलांग लगा ले। तुम कुछ कह रहे हो और वह
कुछ सुने। तुम कुछ बताओ, वह कुछ
समझे। स्त्री के साथ कोई पुरुष जीत नहीं पाता। सिर ठोंक लेता है, अपना अखबार पढ़ने लगता है। वह
सोचता है कि यह बात ही नहीं चल सकती आगे। इसमें कोई सार नहीं है।
यह ठीक
है कथा कि गार्गी नाम की स्त्री खड़ी हुई आखिर में। पहले तो पुरुष ने सोचा, याज्ञवल्क्य ने, जैसा सभी पुरुष सोचते हैं कि
स्त्री है,
इसमें
क्या रखा है! निपटा देंगे। बड़े-बड़े पुरुषों को हरा दिया। लेकिन वहीं भूल हो जाती
है।
वही
भूल मोरारजी और जयप्रकाश कर बैठे। कुछ मामला बड़ा नहीं था, सब सीधा-सादा था। बस एक भूल
हो गई कि स्त्री के तर्क अलग ही ढंग से चलते हैं। उससे पुरुष का कुछ लेना-देना
नहीं है। मोरारजी-जयप्रकाश लड़ते, कोई एक
जीत जाता;
कोई
झगड़ा न था। दोनों साफ समझ लेते। दोनों एक-दूसरे की चाल भी समझते। शतरंज के खेल में
दो पुरुष बैठें,
पुरुष
पहले से जान लेता है कि दूसरा क्या चलेगा। दोनों का मन एक ही तर्क को मानता है।
स्त्री के साथ उपद्रव है। हो सकता है, वह चाल ही न चले और पलटा उलटा दे। वही हुआ।
चाल ही खत्म कर दी, खेल ही
बंद हो गया। अब सब खिलाड़ी जेल में बैठे हैं।
याज्ञवल्क्य
उस दिन इसी मुसीबत में पड़ा। वह गार्गी खड़ी हुई तब तो उसने सोचा कि क्या रखा है।
ऐसी बहुत गार्गियां देख लीं! लेकिन अगर उसे थोड़ी भी समझ होती तो उसे याद होना
चाहिए था। उसकी दो पत्नियां थीं; उनसे
कुछ भी सीखा होता तो यह भूल कभी न करता। लेकिन लोग सीख-सीख कर भूल जाते हैं।
गार्गी
ने प्रश्न किए। प्रश्न बड़े सीधे लगते थे। उसने कहा, पृथ्वी कहां ठहरी है?
याज्ञवल्क्य
हंसा। उसने कहा,
यह भी
कोई बड़ा प्रश्न है? शास्त्रों
में लिखा है कि पृथ्वी को हाथी सम्हाले हुए हैं।
हाथी
कहां ठहरे हुए हैं? उसने
पूछा।
यहां
जरा याज्ञवल्क्य चौंका। उसने कहा, हाथी? हाथी परमात्मा सम्हाले हुए
है।
गार्गी
ने पूछा,
और
परमात्मा को कौन सम्हाले हुए है?
तो
याज्ञवल्क्य ने कहा कि गार्गी, बस
चुप! अन्यथा तेरा सिर नीचे गिरा दिया जाएगा। अतिप्रश्न हो गया।
यह
क्रोध है। यह कोई उत्तर नहीं है। अतिप्रश्न? अतिप्रश्न कब होता है? जब तुम किसी दार्शनिक के घाव
को छू देते हो,
जिसको
वह खुद ही हल नहीं कर पाया। बस वहां भर तक न पूछो, तो बाकी सब विस्तार वह ठीक से
समझा देगा। कितने हाथी सम्हाले हुए हैं, कितने बड़े हैं, परमात्मा कैसे सम्हाले है, सब बता देगा। बस आखिरी सवाल
तुम मत पूछना। अतिप्रश्न का अर्थ है: जिसके प्रति दार्शनिक खुद अपनी सुविधा के लिए, बेचैनी से बचने के लिए अंधा
हो गया। वह उसको नहीं देखता।
इसलिए
यह बड़े मजे की घटना है कि हर दार्शनिक दूसरे की भूल बिलकुल तत्क्षण देख लेता है और
कोई दार्शनिक अपनी भूल नहीं देख पाता। सब दर्शनशास्त्र दूसरों का खंडन कर देते हैं
और अपना बचाव नहीं कर पाते। यह बड़े मजे की बात है। खंडन में उनकी कुशलता का अंत
नहीं। बचाव में एकदम निहत्थे हो जाते हैं। क्योंकि दूसरा भी फौरन वहीं बात को खींच
लाता है।
जैसे
ही तुम समझो कि दूसरा आदमी क्रोध में आने लगा, समझ लेना कि तुम उस जगह के करीब आ रहे हो
जहां उसने आंख बंद कर रखी हैं।
जिज्ञासु
कभी पहुंचता नहीं,
अगर
जिज्ञासा में ही रहा आए। दार्शनिक बन जाएगा, बड़े विवाद भी जीत सकता है, लेकिन असली प्रश्न चूक गया।
उसका उत्तर जिज्ञासा से नहीं मिलता।
अगर
जिज्ञासु जिज्ञासा में हार जाए और समझ ले कि यह खोज पूरी होती ही नहीं। प्रश्न
बचता ही चला जाता है। कितने ही पीछे हटाओ, आखिर में प्रश्न वहीं का वहीं बना रहता है।
जब जिज्ञासु ऐसा देख लेता है, तब
साधक का जन्म होता है। तब वह कहता है, सोचने से न होगा, साधने से होगा। तब वह ध्यान
करता है,
तपश्चर्या
करता है,
उपवास
करता है,
सब
भांति के उपाय करता है कि साध ले। कुंडलिनी का जागरण हो, चक्र खुलें, रोशनी दिखे। यह सब होना भी
शुरू हो जाता है।
अगर
साधक साधक ही बना रहे और सदा इन्हीं खेल-खिलौनों में उलझा रहे, ये भीतर के अनुभव सब कुछ हो
जाएं--शक्तियां भी पैदा हो जाती हैं, सिद्धियां भी आ जाती हैं। साधक का आखिरी अंत
सिद्धि पर होता है। वह चमत्कार भी कर सकता है। लेकिन वे सब चमत्कार अहंकार को ही
भरते हैं। साधक आखिरी क्षण तक भी शुद्ध अहंकार से भरा रहता है, वह मिटता नहीं। अगर कोई साधक
ही रह गया,
तो वह
शुद्धतम अहंकारी हो जाता है। लेकिन परमात्मा को उपलब्ध नहीं होता। सब सिद्धियां हो
जाती हैं,
सिद्धावस्था
भर उपलब्ध नहीं होती।
अगर
कोई उससे भी थक गया; देख
लिए सब भीतर के रंग-बिरंगे प्रकाश; देख लिए खेल तारों के भीतर; देख लिया ऊर्जा का उठना; देख लिया भीतर का सब दृश्य, नाटक; वे भी सब सपने हैं। कितने ही
मधुर, कितने ही प्रीतिकर, बस सपने हैं। उससे भी जो थक
गया, वह भक्त होता है।
भक्त
का अर्थ है: अब वह कहता है, मेरे
किए कुछ न होगा। दो काम संभव थे: या मन से करता तो जिज्ञासा करता; शरीर से करता तो तपश्चर्या
करता। दोनों करके देख लिए। दोनों से पाया, अंत नहीं आता। तेरी कोई सीमा नहीं है। अब
मैं तीसरी दिशा में प्रवेश करता हूं। वह तीसरी दिशा अपने को मिटाने, समर्पित करने की है। अब मैं
अपने को छोड़ता हूं। अब मैं कुछ करना नहीं चाहता। अब तो मैं इतना ही चाहता हूं कि
तू जो कुछ करना चाहे, कर।
कर्ता
को विदा कर देता है जो, वह
भक्त होता है। भक्ति कोई क्रिया नहीं है, भक्ति कर्ता का परिपूर्ण हार जाना है। भक्ति, कर्म पर श्रद्धा चली जानी है।
भक्ति का अर्थ है,
अब किए
कुछ भी न होगा। अब मैं छोड़ता हूं तेरी धार में। अब तू जहां ले जाए, उसी को किनारा समझूंगा। अब
मेरा कोई गंतव्य नहीं है, मेरा
कोई लक्ष्य नहीं है।
और ऐसी
घड़ी में ही भक्त भगवान हो जाता है। इस घड़ी में सब बाधाएं टूट जाती हैं। कर्ता न
रहा, अहंकार न रहा। अहंकार गया कि
अवतरण हो जाता है। उतनी ही बाधा थी, उतना ही पर्दा था। भक्त होते ही भक्त भगवान
हो जाता है। और भक्त हुए बिना भगवान के पीछे तुम लाठी लेकर घूमते रहो; तुम जितनी तेजी से घूमते हो, उतना ही वह तुमसे बचता है।
परमात्मा
को खोजना नहीं है,
परमात्मा
में खोना है।
आज इतना ही।
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