प्रेम-रंग-रस ओढ़ चुंदरिया-(दूल्हन)
प्रवचन-दसवां
दिनांक : 10-फरवरी, सन् 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1—प्रार्थना में बैठता हूं तो शब्द खो जाते हैं।
यह कैसी प्रार्थना!
2—मैं संन्यास तो लेना चाहता हूं लेकिन समाज से बहुत डरता हूं।
कृपया मार्ग दिखाएं।
3—संतों की सृजनात्मकता का स्रोत कहां है?
सब सुख-सुविधा है, फिर भी मैं उदास क्यों हूं?
पहला प्रश्नः भगवान, मैं प्रार्थना में बैठता हूं
तो बस चुप रह जाता हूं। प्रभु से क्या कहूं, क्या न कहूं, कुछ भी सूझता नहीं है। फिर
सोचता हूं कि यह कैसी प्रार्थना! आप मार्ग दिखावें।
प्रार्थना
भाव है। और भाव शब्द में बंधता नहीं। इसलिए प्रार्थना जितनी गहरी होगी उतनी
निःशब्द होगी। कहना चाहोगे बहुत, पर कह
न पाओगे। प्रार्थना ऐसी विवशता है, ऐसी असहाय अवस्था है। शब्द भी नहीं बनते।
आंसू झर सकते हैं। आंसू शायद कह पाएं लेकिन नहीं कह पाएंगे कुछ। पर शब्दों पर
हमारा बड़ा भरोसा है। उन्हीं के सहारे हम जीते हैं। हमारा सारा जीवन भाषा है।
तो
स्वभावतः प्रश्न उठता है कि परमात्मा के सामने भी कुछ कहें। जैसे कि परमात्मा से
भी कुछ कहने की जरूरत है! हां, किसी
और से बोलोगे तो बिना बोले न कह पाओगे। किसी और से संबंधित होना हो तो संवाद
चाहिए। परमात्मा से संबंधित होना हो तो शून्य चाहिए। संवाद नहीं, वहां मौन ही भाषा है। जो कहने
चलेगा,
चूक
जाएगा। जो न कह पाएगा वही कह पाएगा।
इसे
खूब गहराई से हृदय में बैठ जाने दो; नहीं तो बस तोतों की तरह रटे हुए शब्द
दोहराओगे। कोई गायत्री पढ़ेगा, कोई
नमोकार पढ़ेगा। ओंठ तो दोहराते रहेंगे मंत्रों को और भीतर भीतर कुछ भी न होगा, क्योंकि भीतर कुछ होता तो ओंठ
चुप हो जाते। भीतर कुछ होता तो कहां गायत्री, कहां नमोकार, कहां कुरान! कब के खो गए
होते! भीतर शून्य होता, शब्दों
को पी जाता। भीतर शून्य होता, शब्द
शून्य में लीन हो जाते। जब तक गायत्री न भूले, गायत्री पूरी न होगी। जब तक नमोकार याद रहा
तब तक नमोकार याद ही नहीं। जब तक कुरान की आयत तुम दोहराते रहे तब तक जानना अभी
कुरान के जगत् से तुम्हारा संबंध नहीं हुआ। वह तो उतरता है शून्य में, वह तो बोलता है मौन में।
परमात्मा
से तो केवल एक ही नाता बन सकता है हमारा, एक ही सेतु--वह है, चुप्पी का। परमात्मा और कोई
भाषा जानता नहीं। जमीन पर तो हजारों भाषाएं बोली जाती हैं। फिर एक ही जमीन नहीं
है। वैज्ञानिक कहते हैं, कम-से-कम
पांच हजार जमीनों पर जीवन होना चाहिए। होना ही चाहिए पांच हजार पर तो। इससे ज्यादा
पर हो सकता है,
कम पर
नहीं। फिर उन जमीनों पर और हजारों-हजारों भाषाएं होंगी। इन सारी भाषाओं को
परमात्मा जानेगा भी तो कैसे जानेगा? एक ही भाषा तो विक्षिप्त करने को काफी होती
है। इतनी भाषाएं,
एक
अकेला परमात्मा! बहुत बोझिल हो जाएंगी।
भाषा
सामाजिक घटना है,
भाषा
नैसर्गिक घटना नहीं है। भाषा प्राकृतिक घटना नहीं है, मनुष्य की ईजाद है। बड़ी ईजाद
है, महत्त्वपूर्ण ईजाद है, पर प्रार्थना के जगत् में
उसका कोई उपयोग नहीं है। जैसे नाव को पानी में चलाओ तो ठीक, जमीन पर घसीटो तो पागल हो।
नाव पानी में ठीक है, जमीन
पर खींचोगे तो व्यर्थ बोझ ढोओगे। ऐसे ही भाषा को प्रार्थना में मत ले जाओ। नाव को
जमीन पर मत खींचो। भाषा को छोड़ दो। और तुम सौभाग्यशाली हो। यह अपने से हो रहा है।
यह किए-किए नहीं होता।
तुम
पूछते हो मैं प्रार्थना में बैठता हूं तो बस चुप रह जाता हूं। यही तो प्रार्थना
है। पहचानो,
प्रत्यभिज्ञा
करो, यही प्रार्थना है। यह चुप हो
जाना ही प्रार्थना है। मैं तुम्हारी अड़चन समझता हूं। तुम सोचते होओगे गायत्री पढ़ूं, नमोकार पढ़ूं, कुरान पढ़ूं, कुछ कहूं। प्रभु की स्तुति
करूं। कुछ प्रशंसा करूं परमात्मा की। कुछ निवेदन करूं हृदय का। और नहीं कर पाते हो
निवेदन;
जैसे
जबान पर जंजीर पड़ गयी, जैसे
ओंठ किसी ने सी दिए। तो चिंता उठती है, यह कैसी प्रार्थना! न बोले न चाले, तो उस तक आवाज कैसे पहुंचेगी? उस तक आवाज पहुंचाने की जरूरत
ही नहीं है।
दूलनदास
ने कहा न अभी कुछ दिन पहले कि वह परमात्मा बहरा नहीं है! तुम चिल्लाओ इसकी कोई
जरूरत नहीं है। सच तो यह है, इसके
पहले कि भाव तुम्हारे हृदय में उठे, उस तक पहुंच जाता है। इसके पहले कि
प्रार्थना की जाए,
सुन ली
जाती है। कहने का उपाय ही नहीं है। कहने के पहले ही बात पहुंच गयी। होनी चाहिए बात, हृदय में भाव होना चाहिए सघन, प्रेमसिक्त! तुम भाव से मग्न
होकर मौन रह जाओ,
प्रार्थना
हो गयी। उसी मौन में निवेदन हो जाएगा। वही मौन निवेदन है। उस मौन में ही जो नहीं
कहा जा सकता,
नहीं
कभी कहा गया है,
नहीं
कभी कहा जाएगा--कह दिया जाएगा।
एक बार
बस पास बुला लो,
फिर न
कहूंगा,
सच
कहता हूं।
मैं
सोया था सोने देते क्यों सोते से मुझे जगाया,
सिंदूरी
सपनों से रंगकर क्यों स्वर्णिम संसार दिखाया।
कैसा
दर्द जगाया तुमने सारा जग झूठा लगता है,
रस से
भरा हुआ कंचन घट अधरों को फूटा लगता है।
अब
पनघट तेरा भाता है,
जहां न
रस चुकने पाता है,
अपने
इस अनंत पनघट में,
एक बार
बस कलश डुबा लो,
फिर न
कहूंगा,
सच
कहता हूं।
एक मंद
आभास मात्र से मन सरवर का जल लहराया,
तुमको
ही आराध्य मानकर तेरे तट से जा टकराया।
लेकिन
कुछ ऐसा लगता है शायद तुमको पा न सकूंगा,
इतनी
दूर पा रहा तुमको उड़कर भी मैं आ न सकूंगा।
कहते
सभी कठिन होता है,
जग में
नहीं मिलन होता है,
महामिलन
को मृत्यु दान कर,
एक बार
बस गले लगाओ,
फिर न
कहूंगा,
सच
कहता हूं।
जाने
क्या हो गया हृदय को सब कुछ तेरा ही लगता है,
बिना तुम्हें
पाए यह जीवन व्यर्थ और सूना लगता है।
ऐसी मन
की व्याकुलता है तेरे बिन अब रहा न जाता,
तुमको
सुधियों में पाकर दर्द विरह का सहा न जाता।
ओ, मेरी सुधियों के वासी,
प्रेम
स्वरूप अमर अविनाशी,
कर
स्वीकार साधना मेरी,
एक बार
मुझको अपना लो,
फिर न कहूंगा,
सच
कहता हूं।
मगर यह
सिर्फ भाव हो,
शब्द न
बने। यह तुम्हारे भीतर घनी प्रतीति हो। शब्द तो सब चीजों को छिछला कर जाते हैं।
जैसे बड़े-से-बड़े शब्द, कीमती-से-कीमती
शब्द किसी से तुम्हें प्रेम हो गया है और जब तुम कहते हो कि मुझे प्रेम हो गया है, तब तुम्हें लगता नहीं कि
प्रेम शब्द में वह बात आती नहीं है जो तुम्हें हो गयी है। प्रेम शब्द बड़ा छोटा पड़
जाता है। ये ढाई अक्षर उस जीवन के महाकाव्य को कैसे कहेंगे? उसकी गहराइयां बहुत हैं।
प्रशांत महासागर की उतनी गहराई नहीं है जितनी हृदय में प्रेम की गहराई होती है। और
न ही गौरीशंकर की उतनी ऊंचाई है जितनी हृदय में उठे हुए प्रेम के शिखर की ऊंचाई
होती है। प्रशांत सागर उथला है और गौरीशंकर भी टीले-टाले हैं। कैसे भरोगे उस ऊंचाई, उस गहराई को इस छोटे से ढाई
अक्षर के शब्द में--प्रेम में? नहीं, भर नहीं पाएगा।
और फिर
इसी प्रेम शब्द का उपयोग हम और हजार चीजों के लिए भी करते हैं। कोई कहता है, मुझे आइसक्रीम से बड़ा प्रेम
है। कोई कहता है,
मुझे
मेरी कार से बहुत प्रेम है और कोई कहता है, मुझे धन से बहुत प्रेम है। यही प्रेम शब्द
छिछली से छिछली बात के लिए उपयोग में आता है। यही प्रेम शब्द जब परमात्मा से
तुम्हारी लगन जुड़ जाती है तब भी उपयोग में आता है। अब आइसक्रीम और परमात्मा में
क्या संबंध जोड़ पाओगे? कोकाकोला
में और मोक्ष में क्या संबंध जोड़ पाओगे? लेकिन कोकाकोला से भी प्रेम है, मोक्ष से भी प्रेम है।
हमारे
शब्द बड़े थोड़े हैं, बड़े
छोटे हैं,
बड़े ओछे
हैं; बस काम-चलाऊ हैं। ठीक है, लोक-व्यवहार चल जाता है।
लेकिन प्रार्थना कोई लोक-व्यवहार नहीं है। प्रार्थना अंतर्निवेदन है। शब्द-शून्य
अस्तित्व के चरणों में समर्पण है। झुको! तुम्हारे झुकने में बात हो जाएगी। मौन हो
जाओ। आंखों को बंद हो जाने दो। क्योंकि कुछ चीजें हैं जो खुली आंख से दिखाई पड़ती
हैं और कुछ हैं जो सिर्फ बंद आंख से दिखाई पड़ती हैं। कुछ चीजों के लिए बंद आंख ही
खुली आंख है।
और अगर
आंसू झर उठें तो समझना तुमने फूल चढ़ा दिए उसके चरणों में। डोल उठो मस्ती में, जैसे कोई शराब पिए हो कि पैर
कहीं पड़ें,
कहीं
रखो। तो समझना कि बात हो गयी। आंखों में एक लाली छा जाए, एक मादकता छा जाए। जीवन
रसविभोर होने लगे। प्राणों के पंछी पंख तड़फड़ाने लगें, उड़ने की तैयारी होने लगे। मगर
यह सब निःशब्द है,
इसमें
शब्द की कहीं कोई आवश्यकता नहीं है। और तुम चकित हो जाओगे, जब तुम्हारे भीतर एक भी शब्द
नहीं बनता तो सारा अस्तित्व तुम में कुछ उंडेलने लगता है। क्योंकि तुम खाली गागर
हो जाते हो। खाली गागर हो जाना प्रार्थना है। और तब सागर उतर जाते हैं। फिर गागर
में भी सागर समा जाते हैं। फिर बूंद में भी समुंद उतर आते हैं।
कबीर
ने कहा है,
हेरत
हेरत हे सखि रह्या कबीर हिराई; बुंद
समानी समुंद में सो कत हेरी जाई। लेकिन पि१३२र दूसरे दिन सुधार कर दिया। दूसरे दिन
थोड़ी-सी बात बदल दी और गजब की बात कर दी। ज़रा-सी बदलाहट, और चमत्कार हो गया। दूसरे दिन
लिखा कि नहीं-नहीं, ऐसा
ठीक नहीं है।
हेरत
हेरत हे सखि रह्या कबीर हिराई
समुंद
समानी बुंद में सो कत हेरी जाई
पहले
दिन कहा था,
बूंद
समुद्र में समा गयी, अब उसे
कैसे वापिस लाएं?
दूसरे
दिन कहा कि नहीं-नहीं, समुद्र
ही बूंद में समा गया है, अब उसे
कैसे वापिस लाएं?
प्रार्थना
में, तुम्हारी छोटी-सी प्राणों की
बूंद में परमात्मा का सागर समा जाता है। प्रार्थना में तुम परमात्मा तक नहीं जाते, परमात्मा तुम तक आता है। तुम
तो बस शून्य होते हो, मौन
होते हो। तुम तो नहीं होते हो। यही शून्य और मौन होने का अर्थ है--तुम नहीं होते
हो। और जहां तुम नहीं हो वहीं परमात्मा प्रकट हो जाता है। अनंत-अनंत रूपों में, हर फूल में उसकी गंध। हवा के
झोंके में उसका झोंका। हर हरियाली में वही हरा। चांदत्तारों में वही, सूरज में वही, लोगों में वही। हंसते हुए
बच्चे की किलकारी में वही। हिरन की छलांग में वही। आकाश में उड़ गए पक्षी में वही।
जब तुम बिल्कुल चुप हो जाते हो तब तुम्हारे सामने जीवन अपने सारे पर्दे गिरा देता
है। तुम पात्र हो गए।
इसलिए
यह मत कहो कि मैं चुप रह जाता हूं, क्या करूं! शब्द नहीं बनते। परमात्मा से
क्या कहूं,
क्या न
कहूं! कुछ कहना ही नहीं है। वह जानता है। तुम नहीं थे तब से जानता है, तुम नहीं होओगे तब भी जानता
रहेगा। परमात्मा जानने की अवस्था है। वह परम वेद है। तुम चुप हो जाओ। तुम सन्नाटे
में डूब जाओ। तुम मिट जाओ, तुम न
हो जाओ और फिर देखो चमत्कार। फिर देखो घटते परमात्मा को चारों ओर।
मलयानिल
बन छू-छू जाता उर को सुरभित श्वास किसी का!
यह मधु
स्मित,
फैली
हो जैसे
शून्य
गगन में स्निग्ध चांदनी,
यह
अपरूप रूप,
बजती
हो
अंतहीन
ज्यों रजत रागिनी,
यह
अशेष सौंदर्य-स्रोत, इसका
चिर
उद्गम-स्थान कहां है?
मुझे
बहाए लिए जा रहा सागर-सा उल्लास किसी का!
मलयानिल
बन छू-छू जाता उर को सुरभित श्वास किसी का!
किसकी
रूप-परिधि में निशि-भर
चांद-सितारे
घूमा करते?
किस
लावण्य-शिखा को आकुल
प्राण-शलभ
ये चूमा करते?
नयनों
में छाया सहता-सा
किसका
चिर छवि-स्वप्न विमोहन?
उल्लासों
के पुष्प खिलाता शत-शतशः मधुमास किसी का!
मलयानिल
बन छू-छू जाता उर को सुरभित श्वास किसी का!
अमर
वल्लरी फैल रही यह
आदिरहित-सी, अंतरहित-सी,
उमड़
रही अक्षय रस-धारा
करती
सब कुछ परिप्लावित-सी
एक
स्वप्न-संगीत,
गूंज
से
जिसकी
रंध्र-रंध्र प्रतिघोषित,
बांध
रहा जैसे तन-मन को सम्मोहनमय पाश किसी का!
मलयानिल
बन छू-छू जाता उर को सुरभित श्वास किसी का!
रोम-रोम
यह आज निवेदन--
पुष्प, गीत-वंदन-स्वन कोमल,
नवल
प्रीति आरती-दीप-लौ-सी
झलमल-झलमल
मृदु उज्ज्वल,
यह
समस्त अस्तित्व स्वयं ही
बनता
जाता मूक समर्पण,
चिर
अमरत्व दिए जाता है मुझे अमृतमय हास किसी का!
मलयानिल
बन छू-छू जाता उर को सुरभित श्वास किसी का!
चुप हो
जाओ, तुम्हें उसकी श्वासें छूती
हुई मालूम पड़ेंगी। चुप हो जाओ, तुम्हें
उसकी धड़कन सुनाई पड़ेगी। चुप हो जाओ, तुम्हें उसके पैरों की आहट पास आती मालूम
होने लगेगी।
मुझसे
पूछते होः आप मार्ग दिखावें, मार्ग
समझावें। तुम मार्ग पर हो। बस, इस पर
ही टिको। न शब्द बनाओ न भाषा को बीच में लाओ। भाषा पहाड़ की तरह खड़ी हो जाती है
भक्त और भगवान के बीच में। मनुष्यों से बोलना हो तो भाषा की जरूरत है, परमात्मा से बोलना हो तो भाषा
की कोई भी जरूरत नहीं है।
दूसरा प्रश्नः भगवान, मैं संन्यास तो लेना चाहता हूं पर संसार से बहुत भयभीत हूं।
संन्यास लेने से मेरे चारों ओर जो बवंडर उठेगा उसे मैं झेल पाऊंगा या नहीं? आप आश्वस्त करें।
संन्यास
का अर्थ है,
असुरक्षा
में उतरना। संन्यास का अर्थ है, अज्ञात
में चरण रखना। संन्यास का अर्थ है, जाने-माने को छोड़ना, अनजाने से प्रीति लगाना।
आश्वस्त
तो तुम्हें कैसे करूं? बवंडर
तो उठेगा। मेरा आश्वासन झूठा होगा। मैं तो इतना ही कह सकता हूं कि बवंडर निश्चित
उठेगा,
उठना
ही चाहिए। अगर न उठे तो संन्यास पकेगा कैसे? जैसे धूप न निकले और सूरज न आए तो फल पकेंगे
कैसे? आंधी न उठे, तूफान न उठे तो वृक्षों की
रीढ़ टूट जाएगी। आंधी और तूफान के झोंके सहकर ही वृक्ष सुदृढ़ होता है।
बवंडर
तो उठेगा। इतना ही आश्वस्त कर सकता हूं कि बिल्कुल निश्चित रहो, ज़रा भी चिंता न करो, बवंडर उठेगा ही। और तुमने
जितना सोचा है उससे बहुत ज्यादा उठेगा। और उठता ही रहेगा; ऐसा नहीं कि आज उठा और कल शांत
हो जाएगा। तुम जब तक जियोगे बवंडर उठता ही रहेगा और बवंडर रोज बड़ा होता जाएगा।
संन्यास की परिपक्वता ही तब होती है। चुनौतियों में ही आत्मा का जन्म होता है।
जितनी बड़ी चुनौतियां हों उतनी बड़ी आत्मा का जन्म होता है। आत्मा ऐसे ही नहीं पैदा
होती। अपने को बचाए रखो, सुरक्षित
सब तरह से,
तो
आत्मा नहीं पैदा होगी, तुम्हारे
भीतर एक फुसफुसापन पैदा होगा। संघर्ष में तुम्हारे भीतर कुछ सघन होगा। संघर्ष में
तुम्हारे भीतर कुछ सबल होगा। इसलिए जो बवंडर उठाएंगे वे शत्रु नहीं हैं, मित्र हैं। मित्र ही उठाएंगे।
शत्रु मत समझ लेना उन्हें, वे
तुम्हारे मित्र हैं। गालियां पड़ेंगी, पत्थर भी पड़ सकते हैं। लेकिन सौभाग्य मानना
उस सबको;
वरदान
मानना,
परमात्मा
का प्रसाद मानना। ऐसे ही कोई व्यक्ति आत्मवान होता है।
लोगों
की बड़ी अनुकंपा है कि जब भी वे देखते हैं कहीं आत्मा का जन्म हो रहा है तो सब तरफ
से सहयोग करते हैं। फिर जैसा वे सहयोग कर सकते हैं वैसा करते हैं; जैसा जानते हैं वैसा करते
हैं। मगर तुम्हारे अहित में नहीं है।
तुम
पूछते हो,
मैं
संन्यास तो लेना चाहता हूं पर संसार से बहुत भयभीत हूं। अगर संन्यास ऐसा हो कि
जिसमें ज़रा भी भय न मालूम पड़े तो उसे लेने का प्रयोजन क्या होगा? वह एक नयी सुरक्षा होगी, एक नया बैंक-बैलेंस होगा।
नहीं, अड़चनें आएंगी, बहुत आएंगी। कल्पनातीत अड़चनें
आएंगी। जिन दिशाओं से तुमने कभी न सोचा था कि अड़चनें आ सकती हैं उन दिशाओं से
आएंगी। जिन्हें तुमने अपना माना है उनसे आएंगी। और ध्यान रखना, नाराज न होना, रुष्ट न होना, बेचैन न होना, अशांत न होना, क्रुद्ध न होना। क्योंकि अंत
में तुम पाओगे कि उन्हीं सब चुनौतियों ने तुम्हें जीवन दिया, जीवन को निखार दिया, धार दी, तुम्हारी प्रतिभा को चमकाया।
जो धार
नहीं रुकती है चट्टानों से भी,
सागर
केवल उसका अभिनंदन करता है।
कागज
की बनी नाव केवल,
दो
क्षण पानी पर चलती है।
जो
बिना तेल जलती बाती,
वह
केवल दो क्षण जलती है।
तूफान
घुमड़ कर जब चलता,
बुझ
जाते अनगिन दीप जले।
जो
जलते केवल जलने को,
वे दब
जाते अंधियार तले।
जो दीप
नहीं बुझते हैं तूफानों में भी,
उजियारा
उनकी बाती बनकर जलता है।
जो
पांव नहीं रुकते हैं व्यवधानों में भी,
पर्वत
केवल उनके आगे ही झुकता है।
चलना, गिरना, फिर से चलना,
उन्नति-सोपानों
का क्रम है।
चलते-चलते
ही मिट जाना,
जीवन
का पावन संगम है।
उसका
पौरुष ही पुण्य धाम,
जिसकी
सांसों में तीरथ है।
जिसमें
निश्चय का तेजपुंज,
गंगा
का वही भगीरथ है।
हर
लक्ष्य उसी के लिए बना
जो तप
करता विश्वासों का।
हर फूल
उसी की माला है,
जो दास
नहीं मधुमासों का।
जो
साहस का प्रतिबिंब न दे,
वह
केवल दर्पण का पट है।
जिसके
अधरों पर प्यास नहीं,
वह
पनघट केवल मरघट है।
जो
प्यास नहीं बुझती है मिट जाने पर भी,
अमृत
केवल उसके अधरों को मिलता है।
कीमत
चुकानी होती है। और जितने बड़े सत्य को खोजने चलोगे उतनी अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी।
सत्य मुफ्त नहीं मिलता। परम सत्य को पाने के लिए तो सब कुछ दांव पर लगा देना होता
है। और संन्यास परम सत्य को पाने का प्रयास है। अभीप्सा है, आकांक्षा है--अनंत को अपने
आंगन में बुला लेने की। अभीप्सा है, प्रार्थना है--विराट को अपने प्राणों में
समा लेने की। तैयारी करनी होगी। जुआरी होना होगा। व्यवसायी संन्यासी नहीं हो सकता।
जो दो-दो कौड़ी का हिसाब लगाए और जो सदा लाभ ही लाभ की सोचे वह संन्यासी नहीं हो
सकता। यह तो दांव की बात है। इसलिए मैं फिर कहता हूं, जुआरी ही संन्यासी हो सकता है
जो सब दांव पर लगा दे--इस पार या उस पार।
तुम
कहते हो,
संन्यास
लेना चाहता हूं। लेना चाहते हो तो लो। व्यवधान तो होंगे, अड़चन तो होगी। लेकिन अकसर ऐसा
हो जाता है कि असली अड़चन तुम्हारे भीतर है। और बाहर की अड़चनें नहीं रोकतीं, भीतर की अड़चनें रोक लेती हैं।
अकसर ऐसा होता है कि यह भय सिर्फ बहाना है। इस भय को बड़ा करके देख लेना सिर्फ बचने
की एक प्रक्रिया है। कैसे लूं संन्यास? मैं तो लेना चाहता हूं मगर बवंडर उठेंगे।
कैसे लूं संन्यास?
समझा
लिया अपने को कि मैं लेना भी चाहता हूं और बहाने भी खोज लिए कि क्यों नहीं लेता
हूं। यह सिर्फ तर्काभास है। जिसे लेना है, लेना है; फिर परिणाम जो हो।
इस
संसार में क्या बवंडर! क्या छीन लेंगे तुमसे? तुम्हारे पास अभी है क्या? पद जाएगा, प्रतिष्ठा जाएगी, धन जाएगा, मान-मर्यादा जाएगी--जाने ही
वाली है। जो मौत छीन लेगी उसे अपने ही हाथ से छोड़ दो। मौत तो छीन लेगी; तब छोड़ने का मजा भी न मिलेगा।
तब छोड़ने का जो गौरव है गरिमा है, वह भी
चूक जाएगी। मौत तो छीन ही लेगी तो तुम्हीं क्यों नहीं छोड़ देते?
और
मर्यादा का मूल्य क्या है? पानी
पर खींची गयी लकीरें हैं। और सम्मान और सत्कार! किससे ले रहे हो सम्मान और सत्कार? जो खुद अंधे हैं, जो खुद मूर्च्छित हैं, उनके सम्मान और सत्कार का
क्या मूल्य! अगर पागल तुम्हें फूलमालाएं भी पहना दें तो भी उन फूलमालाओं का क्या
मूल्य है?
पागलों
ने पहनायी हैं। बुद्धिमान, कोई
बुद्धपुरुष प्रेम से तुम्हारी ओर देख भर दे एक बार, उतना काफी है। सारे संसार के
द्वारा फूलमालाएं चढ़ायी जाएं तो भी व्यर्थ हैं। जिन्हें खुद अपना पता नहीं वे
तुम्हारा क्या सम्मान करेंगे! वे सम्मान कर रहे हैं किसी पारस्परिक लेन-देन के
हिसाब से। सम्मान के द्वारा वे तुम्हारे पैरों में बेड़ियां डाल रहे हैं, हाथों में जंजीरें डाल रहे
हैं। सम्मान के द्वारा तुम्हें बांध रहे हैं।
और
संन्यास स्वतंत्रता है। संन्यास घोषणा है इस बात की कि मैं अपने जीवन को अपने ढंग
से जीऊंगा। मैं वैसे जीऊंगा जैसी मेरी अंतःप्रेरणा होगी। मैं दूसरों की मानकर न
जीऊंगा। मैं दूसरों का अनुकरण करके न जीऊंगा। मेरा जीवन एक अभिनय मात्र नहीं होगा।
मेरा जीवन प्रमाणिक होगा, मेरा
होगा; मेरी निजता से जन्मेगा, स्वतर्ःस्पूत होगा। और
संन्यास का क्या अर्थ है? अपने
ढंग से जीऊंगा ताकि परमात्मा के सामने जब जाऊं तो यह कह सकूं कि तुमने जो प्रेरणा
मुझे दी थी उसके ही अनुसार जिया हूं। झुका नहीं, समझौता नहीं किया। और जिस दिन
तुम जानोगे उस दिन तुम चकित होओगे कि बवंडर, तूफान, विरोध सब तुम्हें सहारा दे गए हैं।
मुझको
फूलों से प्यार नहीं मैं कांटों का दीवाना हूं।
मैं
जलने वाला दीप नहीं जलने वाला परवाना हूं।
सुख हो
अधरों को प्यास नहीं,
दुःख
का मन को आभास नहीं।
आशाएं
सब पूरी होंगी--
ऐसा
मुझको विश्वास नहीं।
मैं
जीवन को सुंदर बुनता, कर्मो
का ताना बाना हूं।
जो बंध
न सके वह धारा हूं,
जो उठ
न सके वह पारा हूं।
मानवता, प्रेम, शांति के हित--
मैं
महाक्रांति का नारा हूं।
जिसको
न रोक पाए पर्वत ऐसा राही मस्ताना हूं।
मिट
जाऊं ऐसा बीज नहीं,
बिक
जाऊं ऐसी चीज नहीं।
सबकी
मनचाही जो कर दे--
वह
तांबे की ताबीज़ नहीं।
मैं
अपनी मस्ती में डूबा अनगाया एक तराना हूं।
संन्यास
का अर्थ हैः ऐसी घोषणा कि मैं अपना गीत गाऊंगा, मैं उधार गीत न गाऊंगा; कि मैं अपना जीवन जीऊंगा। कि
मैं किसी का अनुकरण नहीं करूंगा। कि मैं चलूंगा पगडंडी पर, राजपथों पर नहीं। राजपथों पर
भीड़ें चलती हैं। भीड़ें सदा भेड़ों की होती हैं। मैं अपना मार्ग बनाऊंगा। मैं
परमात्मा को अपने ढंग से खोजूंगा। चाहे भटकूं, चाहे देर लगे, मगर खुद अपनी पगडंडी बनाकर
पहुंचूंगा। फिर मजा और है। जो परमात्मा की तरफ अपनी ही पगडंडी बनाकर पहुंचता है
उसके आनंद की सीमा नहीं है। और भीड़ न तो कभी पहुंचती न कभी पहुंच सकती है। सिंहों
के लिए खुलता है द्वार, भेड़ों
के लिए नहीं। भेड़चाल छोड़ो।
क्या
बवंडर! कौन बवंडर उठाएगा? क्या
छीन लेगा,
क्या
मिट जाएगा?
हंसते-हंसते
दे देना। अगर संन्यास लेने की आकांक्षा उठी है तो किसी कीमत पर झुको मत। हां, आकांक्षा ही न उठी हो तो किसी
कीमत पर लेना मत। कोई लाख कहे, मैं
लाख कहूं,
भूलकर
मत लेना। क्योंकि मेरे कहे लोग तो भेड़ हो गए। अपनी आकांक्षा से लोगे तो सिंह की
गर्जना तुम्हारे भीतर होगी। ज़रा-सा फर्क है। इतना बारीक फर्क है कि दिखाई भी नहीं
पड़ता। मेरे कहे से लिया तो व्यर्थ हो गया। अपनी बूझ से, अपनी सूझ से लिया, अपनी अंतःप्रज्ञा से लिया तो
क्रांति घटी। अप्पदीपो भव! अपने दीए खुद बनो। दूसरों की उधार रोशनी में कितने तो
चले, पहुंचे कहां! शास्त्रों की
मानकर,
संतों
की मानकर कितने-कितने जन्मों से तो तुम भटकते हो, उपलब्धि क्या है? खाली के खाली हो। प्राण भरे
नहीं, फूल खिले नहीं, फल लगे नहीं, पंख खुले नहीं। खाली ही नहीं
हो, कारागृह में भी पड़े हो।
दूसरों की मानकर जिंदगी सींकचों में बंद हो गयी है। मेरी मानकर संन्यास मत ले
लेना। मैं लाख कहूं, मेरी
मौज है,
मैं
कहता हूं। तुम्हारी मौज हो तब लेना। जब तुम्हारी मौज और मेरी मौज का मिलना हो तो
मिलन है।
जो धार
नहीं रुकती है चट्टानों से भी,
सागर
केवल उसका अभिनंदन करता है।
मैं भी
तुम्हारा अभिनंदन करूं उसी क्षण, जब तुम
ऐसी धार बनो जो चट्टानों से न रुके।
जो दीप
नहीं बुझते हैं तूफानों में भी,
उजियारा
उनकी बाती बनकर जलता है।
बुद्धपुरुषों
से केवल उनका ही संबंध हो पाता है जो दीप नहीं बुझते हैं तूफानों में भी। नहीं तो
लोगों के पास आत्माएं ही नहीं हैं। लोग नपुंसक हैं। उनके भीतर न गौरव है न गरिमा
है न तेज है न दीप्ति है न बुद्धिमत्ता है। बुद्धिमत्ता दूसरों की मानकर कभी पैदा
भी नहीं होती।
एक
छोटे स्कूल में शिक्षक ने एक विद्यार्थी से पूछा--चूंकि विद्यार्थी के घर में
भेड़ें हैं,
उसने
उसके योग्य प्रश्न बनाया। कि तुम्हारी बगिया में भीतर दस भेड़ें हैं, एक छलांग लगाकर बाहर निकल गयी
तो कितनी भेड़ें पीछे बचेंगी? उस
छोटे बच्चे ने कहा, एक भी
भेड़ पीछे नहीं बचेगी। उस शिक्षक ने कहा कि तुझे गणित आता है कि नहीं? उसने कहा, गणित मुझे आता हो या न आता हो, भेड़ों को मैं अच्छी तरह जानता
हूं। अगर एक भेड़ कूद गयी तो सारी भेड़ें कूद जाएंगी। और भेड़ों को भी आपका गणित नहीं
आता है। मेरी भेड़ों से पहचान है।
लोग
ऐसे ही चल रहे हैं। हिंदुओं की जमात, मुसलमानों की जमात, जैनों की जमात! तुम अपनी
मर्जी से सम्मिलित हुए हो तो बात और। तुम जन्म के कारण सम्मिलित हो गए हो तो बात
और। संयोग है कि तुम किसी घर में पैदा हुए--कि मुसलमान कि हिंदू कि जैन बने। कि
पिता और मां तुम्हें मंदिर ले गए तो मंदिर गए और मस्जिद ले गए तो मंदिर नहीं, मस्जिद गए; गुरुद्वारा ले गए तो
गुरुद्वारा गए। ऐसे दूसरों ने तुम्हें संस्कारित कर दिया। तुम अपनी घोषणा कब करोगे? तुम कब कहोगे कि मैं स्वयं
चुनूंगा?
जिस
दिन तुम धर्म को स्वयं चुनते हो उस दिन धर्म से तुम्हारा नाता जुड़ता है, तुम्हारे प्राण संयुक्त होते
हैं।
जो
पांव नहीं रुकते हैं व्यवधानों में भी,
पर्वत
केवल उनके आगे ही झुकता है।
चलना, गिरना, फिर से चलना,
उन्नति-सोपानों
का क्रम है।
चलते-चलते
ही मिट जाना,
जीवन
का पावन संगम है।
उसका
पौरुष ही पुण्य धाम,
जिसकी
सांसों में तीरथ है।
जिसमें
निश्चय का तेजपुंज,
गंगा
का वही भगीरथ है।
गंगा
उतरने को तैयार है, भगीरथ
बनो!
हर
लक्ष्य उसी के लिए बना,
जो तप
करता विश्वासों का।
हर फूल
उसी की माला है,
जो दास
नहीं मधुमासों का।
जो
साहस का प्रतिबिंब न दे,
जो
केवल दर्पण का पट है।
जिसके
अधरों पर प्यास नहीं,
वह
पनघट केवल मरघट है।
मरघट
तुम बहुत दिन रह लिए, अब
पनघट बनो। अपनी प्यास को जगने दो, अपनी
पुकार को जगने दो,
अपनी
प्रार्थना को जगने दो। कह दो संसार से, अपनी तरह जीऊंगा। जीऊंगा तो अपनी तरह जीऊंगा, अन्यथा मरना बेहतर है।
जो
प्यास नहीं बुझती है मिट जाने पर भी,
अमृत
केवल उसके अधरों को मिलता है।
अमृत
तैयार है। मधुकलश भरा बैठा है कि तुम ज़रा आत्मवान हो जाओ तो उंडल जाए। तो इतना ही
मैं तुमसे कहता हूंः संन्यास लेना हो, लेना अपनी मर्जी, अपने आनंद, अपने अहोभाव से। न तो किसी के
कहने से रुकना और न किसी के कहने से लेना। क्योंकि दोनों बातें हो सकती हैं--कहने
से रुक जाओ,
कहने
से ले लो। दोनों ही बातों में सब व्यर्थ हो जाएगा। याद रखना--
मुझको
फूलों से प्यार नहीं मैं कांटों का दीवाना हूं।
मैं
जलने वाला दीप नहीं जलने वाला परवाना हूं,
जो बंध
न सके वह धारा हूं,
जो उठ
न सके वह पारा हूं,
मिट
जाऊं ऐसा बीज नहीं,
बिक
जाऊं ऐसी चीज नहीं,
सबकी
मनचाही जो कर दे--
वह
तांबे की ताबीज़ नहीं।
मैं अपनी
मस्ती में डूबा अनगाया एक तराना हूं।
संन्यास
तुम्हारे प्राणों का गीत है, तुम्हारे
प्राणों की सुवास है। खिलो, मगर
किसी और की मानकर नहीं, अपनी
मानकर। प्राणों से उठने दो यह सुवास तो यही सुवास स्वतंत्रता है, परम मुक्ति है, सत्य है, निर्वाण है।
तीसरा प्रश्नः संत सदियों से गाते रहे हैं--गीत शाश्वत के, सनातन के। यह गंगा अखंड बहती
रही है।
मैं सोचकर ही चमत्कृत हो उठता हूं। इतनी सृजनात्मकता का स्रोत कहां है?
संत
सदियों से नहीं गाते रहे हैं, संतों
से सदियों से एक ही गाता रहा है। संत नहीं, परमात्मा ही गाता रहा है। जब तक संत गाए तब
तक कवि,
जिस
दिन संत से परमात्मा गाए उस दिन ऋषि। जब तक संत स्वयं अपना बोल बोले, अपना सोच-विचार, अपने अनुमान, अपना तर्कजाल, अपना सिद्धांत, अपना शास्त्र; जब तक संत की बुद्धि बीच में
हो तब तक संत संत नहीं है। चाहे कितने ही मधुर उसके वचन हों, चाहे कितनी ही मधुसिक्त उसकी
वाणी हो,
पौरुषेय
है, मनुष्य की ही है; पार से नहीं आयी है इसलिए
मुक्तिदायी नहीं हो सकती है। जब संत केवल वाहक होता है, केवल बांस की पोली पोंगरी
होता है--परमात्मा के ओंठ पर रखी हुई। तुम्हें तो सुनाई पड़ते हैं गीत बांसुरी से
ही आते हुए,
मगर
गीत परमात्मा के होते हैं। जब संत स्वयं नहीं बोल रहा होता, स्वयं शून्य हो गया होता है
और परमात्मा को बोलने देता है तब वेद का जन्म होता है, उपनिषद का जन्म होता है, गीता का, कुरान का जन्म होता है, बाइबिल का जन्म होता है; तब बड़े अद्भुत गीत उतरते हैं।
मगर संत के उन पर हस्ताक्षर नहीं होते, उन पर हस्ताक्षर परमात्मा के होते हैं।
तो
पहली बातः संत तो बहुत हुए लेकिन गायक एक है। बांसुरियां बहुत लेकिन बांसुरीवादक
एक है।
दूसरी
बातः वे जो गीत शाश्वत के और सनातन के हैं, मनुष्य गा भी नहीं सकता। मनुष्य तो
क्षणभंगुर है। क्षणभंगुरता में कैसे शाश्वत का गीत उठेगा? मनुष्य तो मिटे तो ही शाश्वत
का गीत बन सकता है। मनुष्य भूल ही जाए कि मैं हूं। उस विस्मृति में ही शाश्वत समय
में झलकता है।
भक्त
वही है जो भगवान की भक्ति में मस्त हो जाए ऐसा कि भूल जाए, जैसे शराबी भूल जाए; भूल जाए सारा संसार। न और की
सुध रहे न अपनी सुध रहे। ऐसे मस्ती की अवस्था में शाश्वत और सनातन निश्चित गाता है, जरूर उतर आता है।
तुमने
पूछा, चमत्कृत होता हूं यह देखकर।
यह गंगा,
अखंड
गंगा बहती ही रही है। क्योंकि यह परमात्मा की गंगा है, बहती ही रहेगी। भौतिक गंगा तो
कभी सूख भी सकती है लेकिन यह स्वर्गीय गंगा है, यह नहीं सूखेगी। जब तक वृक्षों में फूल
लगेंगे,
आकाश
में तारे होंगे,
पक्षी
पंख फैलाएंगे और उड़ेंगे तब तक जब तक मनुष्य है और मनुष्य के भीतर अनंत को पाने की
अभीप्सा जगती रहेगी और जब तक प्रार्थना उठती रहेगी तब तक कहीं न कहीं, किसी कोने में पृथ्वी के किसी
हिस्से में तीर्थ बनता रहेगा, काबा
निर्मित होता रहेगा। कोई गाएगा शाश्वत को, सनातन को। परमात्मा अखंड है इसलिए उसकी गंगा
अखंड है। और हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारे बावजूद भी कभी-कभी कोई कंठ परमात्मा को
हमारे भीतर गुंजा देते हैं, हमारे
बीच गुंजा देते हैं।
एक
स्वर पाकर तुम्हारा,
बन गया
हूं बांसुरी मैं।
मौन
विजड़ित बांस सा मैं,
पड़ा था
बेसुध अजाना।
किंतु
तन-मन छेड़ तुमने,
कर
लिया अपना न माना।
दर्द
पीने को तुम्हारा,
बन गया
हूं आंजुरी मैं।
अधर
क्या तुमने मिलाए,
हुए
रसमय भाव मेरे।
गीत
अगणित सप्त स्वर में,
गा उठे
सब घाव मेरे।
मधु-अधर
छूकर तुम्हारा,
बन गया
हूं मधुकरी मैं।
यदि न
देते वेदना तुम,
भावना
क्यों जन्म लेती।
शब्द
केवल शब्द रहते,
चिंतना
यदि लय न देती।
कल्पने, होकर तुम्हारा,
बन गया
हूं नभचरी मैं।
एक
स्वर भी उतर आए उसका, एक झलक
भी मार जाए वह,
ज़रा-सी
देर को झरोखा खुल जाए, एक
किरण उसकी उतर आए कि तुम्हारे भीतर गीतों ही गीतों की वर्षा हो जाएगी। तुम उठोगे
तो गीत होगा,
तुम
बैठोगे तो गीत होगा। तुम सोओगे तो गीत होगा। गीत गाओ या न गाओ तुम्हारा होना ही
गीतमय होगा। तुम्हारे चारों तरफ गीत की झर लगी रहेगी, बूंदा-बांदी होती रहेगी।
तुम्हारा अस्तित्व काव्यमय हो जाएगा।
एक
स्वर पाकर तुम्हारा,
बन गया
हूं बांसुरी मैं।
बस एक
स्वर काफी है। एक स्वर भी बहुत है। उसके मधुकलश की एक बूंद काफी है। ऐसा डुबाती है
कि फिर उभरने का मौका नहीं मिलता। ऐसा मस्त करती है कि फिर मस्ती कभी टूटती नहीं।
और जिसके जीवन में परमात्मा से थोड़ा-सा संबंध जुड़ गया हो, ज़रा-सा कच्चा धागा भी जुड़ गया
हो, उसके जीवन में सृजनात्मकता बह
उठती है,
अनंत-अनंत
धारों में बह उठती है। क्यों? क्योंकि
परमात्मा स्रष्टा है। उससे जुड़ने का लक्षण ही यही है कि तुम्हारे भीतर भी स्रष्टा
का जन्म हो जाएगा;
तुम्हारे
भीतर भी सृजन की ऊर्जा तरंगें लेने लगेगी। अगर परमात्मा से जुड़कर तुम्हारे भीतर
सृजन पैदा न हो तो समझना कि तुम जुड़े नहीं, कुछ चूक हो गयी। तुम भ्रांति में हो; या तो खुद धोखा खा गए हो या
दूसरों को धोखा दे रहे हो।
इसलिए
मैं कहता हूं कि तुम्हारे बहुत से तथाकथित साधु-संत या तो धोखे में हैं या धोखा दे
रहे हैं। उनके जीवन में कोई सृजनात्मकता नहीं मालूम होती। न कोई गीत बनता मालूम
होता है,
न कोई
नृत्य उठता मालूम होता है। उनके जीवन में आनंद नहीं, उल्लास नहीं, रंग नहीं, रस नहीं। यह जो दूलनदास कहते
हैं--"प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया', कितने तुम्हारे महात्मा कह सकेंगे? राम-राम छपी हुई नाम की
चदरिया ओढ़ लेंगे लेकिन कितने तुम्हारे महात्मा कह सकेंगे कि हमने प्रेम के रंग और
रस में डुबायी गयी चादर ओढ़ी है?
कहने
की ही बात नहीं है, कितनों
का जीवन इसका प्रमाण होगा? जब तक
कोई नाच न उठे,
गुनगुना
न उठे,
जब तक
किसी के उठने-बैठने में सृजनात्मकता का प्रसाद न झरने लगे, जब तक किसी की आंखों में
चांदत्तारों की चमक न आ जाए, सागरों
की गहराई न हो,
उत्तुंग
शिखरों की ऊंचाई न हो, जब तक
किसी के हाथों में आकाश न रखा हुआ मालूम पड़े तब तक समझना, कुछ चूक हो रही है।
लेकिन
सदियों से हम नकारात्मक हो गए हैं। हम किसी को इसलिए महात्मा मानते हैं कि उसने
बहुत उपवास किए हैं। उत्सव कितने किए? उत्सव की कोई गिनती ही नहीं करता।
एक जैन
मुनि से मैं मिला। उनके भक्तों ने कहा कि मुनि महाराज ने इस वर्ष एक साल में एक सौ
बीस उपवास किए हैं। मैंने मुनि महाराज की तरफ देखा, उनकी रीढ़ सीधी हो गयी, चेहरे पर दंभ आ गया। मैंने
पूछा, और उत्सव कितने किए? श्रावक को तो कुछ समझ में ही
नहीं आया कि यह प्रश्न भी कोई प्रश्न है? उत्सव! मुनि महाराज और उत्सव! वे केवल उपवास
करते हैं। और उपवास, मैंने
उनके श्रावकों को कहा, कहने
की जरूरत नहीं,
उनके
चेहरे पर लिखा हुआ है। इससे ज्यादा मातमी चेहरा मैंने दूसरा देखा ही नहीं।
धर्म
के नाम पर मातम है। जैसे घर में कोई मर गया हो, जैसे अर्थी बांधी जा रही हो। लोगों की
नकारात्मक दृष्टि हो गयी है। कितने उपवास किए यानी कितने दिन भूखे मरे! कितना अपने
को सताया! कांटे की सेज पर जो सोया है, लोग उसको नमस्कार करते हैं। अब यह पागल है, विक्षिप्त है। आदमी कांटे की
सेज पर सोने को बनाया नहीं गया है।
तुमने
किसी पशु को,
किसी
पक्षी को कांटों की सेज बनाकर सोते देखा? पशु-पक्षी भी अपने लिए सुविधा बनाते हैं।
पक्षी भी घोंसला बनाता है, घोंसले
में घास-पात की गद्दी लगाता है। पशु भी अपने लिए मांद खोदता है जमीन में ताकि जमीन
उत्तप्त होती है,
गर्म
होती, शीत से बच सके। झाड़ियों में
छुपकर सोता है।
तुमने
किसी पशु-पक्षी को कांटों की सेज बनाकर उस पर लेटते देखा है? सिवाय आदमी के इतना पागलपन और
कहीं नहीं होता। लेकिन हम इसकी पूजा करते हैं। इसलिए कुछ नासमझ, कुछ विक्षिप्त लोग यह भी करने
को राजी हो जाते हैं। जिस चीज से पूजा मिले लोग वही करने को राजी हो जाते हैं। अगर
सिर के बल खड़े होने से पूजा मिलती है तो लोग सिर के बल खड़े हो जाएंगे। हालांकि सिर
के बल ज्यादा देर खड़ा होना खतरनाक है। एकाध क्षण के लिए तो ठीक है लेकिन ज्यादा
देर खड़ा होना--मस्तिष्क को नष्ट करता है क्योंकि मस्तिष्क के तंतु बहुत बारीक होते
हैं। और खून की धार अगर बहुत जोर से मस्तिष्क में पहुंचे तो तंतु टूट जाते हैं।
बहुत बारीक तंतु हैं। उनके बारीक होने का तुम अंदाजा इसी से लगा सकते हो कि एक लाख
मस्तिष्क के तंतु एक के ऊपर एक रखे जाएं तो एक बाल के बराबर मोटे होते हैं। उनकी
बारीकी तुम इससे अंदाज लगा सकते हो, इस छोटी-सी खोपड़ी में सात अरब तंतु हैं।
जमीन की जनसंख्या कम है, अभी
चार अरब है। तुम्हारे भीतर मस्तिष्क की जनसंख्या बड़ी है--सात अरब!
ये जो
नाजुक,
अति
नाजुक तंतु हैं जिनको आंख से देखा भी नहीं जा सकता, जब तुम सिर के बल खड़े हो जाते
हो और खून झटके के साथ जमीन के गुरुत्वाकर्षण के कारण सिर की तरफ भागता है, तो चेहरा भला थोड़ी देर को लाल
होता मालूम पड़े लेकिन मस्तिष्क गंवा बैठोगे। इसलिए तुम्हारे हठयोगियों में
बुद्धिमान आदमी मिल जाए यह ज़रा असंभव है। सिर के बल खड़े होनेवाले लोगों में तुम
बुद्धि की कोई प्रखरता न पाओगे।
वैज्ञानिक
कहते यही हैं कि आदमी में बुद्धि ही इसलिए पैदा हुई कि वह दो पैर के बल खड़ा हो गया, नहीं तो बुद्धि पैदा नहीं
होती। बंदर और आदमी में इतना ही फर्क है। बंदर में बुद्धि पैदा नहीं हो सकी। क्यों? उसके मस्तिष्क में खून का
प्रवाह ज्यादा हो रहा है। इसलिए तंतु, बारीक तंतु पैदा नहीं हो सकते। मनुष्य दो
पैर के बल खड़ा हो गया, सिर की
तरफ खून का प्रवाह कम हो गया, क्योंकि
जमीन की तरफ चीजें खिंचती हैं गुरुत्वाकर्षण से। सिर की तरफ खून का जाना कम हो गया, कम से कम हो गया। जितना कम
खून गया उतने बारीक तंतु पैदा हो गए। जितने बारीक तंतु पैदा हो गए उतनी सूक्ष्म
प्रतिभा का जन्म हुआ, अभिव्यक्ति
हुई।
लेकिन
अगर सिर के बल खड़े होने वाले लोगों को लोग सम्मान देते हों तो लोग सिर के बल खड़े
हो जाएंगे। सिर गंवा देंगे, बुद्धि
खो देंगे मगर सम्मान मिल जाएगा। कोई अपने को कोड़े मार रहा है, कोई धूप में नंगा खड़ा है, कोई शीत में नंगा खड़ा है, कोई जाकर जब बर्प पड़ रही हो
तब बर्प में नंगा खड़ा है; इन
सबको हम सम्मान देते हैं। यह असृजनात्मकता को सम्मान देना है। और इसका परिणाम यह
हुआ है कि धर्म के नाम पर विक्षिप्त लोगों की भीड़ें इकट्ठी हो गयी हैं। उनको देखना
हो तो तुम कुंभ के मेले में चले जाना। एक से एक ज्यादा विक्षिप्त लोगों के समूह
तुम देखोगे। सब तरह के पागल, जिनको
पागलखानों में होना चाहिए, जिनकी
मानसिक चिकित्सा होनी चाहिए। लेकिन वे सब तुम्हारे महात्मा हो गए हैं।
धर्म
की हमें मौलिक व्याख्या बदलनी चाहिए। धर्म की हमें कसौटी ही सृजनात्मकता से करनी
चाहिए--विधायक,
नकारात्मक
नहीं। किसने जीवन को कितना सौंदर्य दिया है यह कसौटी होनी चाहिए। किसने जीवन को
कितने गीत दिए,
कितना
उत्सव दिया। किसने जीवन को कितना प्रेम दिया और प्रेम की संभावना दी। अगर तुम
जिंदगी को थोड़ा-सा सुंदर छोड़ जाओ जैसा तुमने पाया था तो मैं तुम्हें धार्मिक
कहूंगा। तुम ज़रा-सा और रंग दे जाओ जिंदगी को, एकाध फूल और खिला जाओ तो मैं तुम्हें
धार्मिक कहूंगा। जिंदगी में कुछ जोड़ जाओ-- एक राग और, एक मल्हार और, मैं तुम्हें धार्मिक कहूंगा।
क्योंकि तुम जब भी कुछ सृजन करते हो तभी तुम परमात्मा से जुड़ गए होते हो। या जब
तुम परमात्मा से जुड़ गए होते हो तभी तुम्हारे भीतर सृजनात्मकता का जन्म होता है।
परमात्मा
स्रष्टा है यह तो तुमने सुना है, बार-बार
सुना है लेकिन इसका तुमने ठीक-ठीक तार्किक निष्कर्ष नहीं निकाला। अगर परमात्मा
स्रष्टा है तो सृजन प्रार्थना होगी। अगर परमात्मा स्रष्टा है तो सृजन साधना होगी।
क्योंकि स्रष्टा सृजन की ही भाषा समझ सकेगा। अगर परमात्मा ने यह विराट अस्तित्व
बनाया,
कुछ
तुम भी बनाओ! छोटा सही, अपनी
सीमा में छोटा ही होगा, हमारे
हाथ भी छोटे हैं,
क्षमता
भी छोटी है। मगर एक मूर्ति तो गढ़ सकते हो! एक पत्थर को तो छैनी उठाकर रूप दे सकते
हो! एक पत्थर में छुपी हुई प्रतिमा को तो प्रकट कर सकते हो! शब्दों में छंद तो
बांध सकते हो! तूलिका उठाकर किसी चित्र में रंग तो भर सकते हो! जीवन में, जीवन के संबंधों में थोड़ी
प्रेम की वातास तो घोल सकते हो। जीवन को थोड़ा उत्सवमय, नृत्यमय तो कर सकते हो! बजाओ
वीणा। बजाओ बांसुरी। नाचो! मृदंग पर थाप पड़ने दो, मैं तुम्हें धार्मिक कहूंगा।
उत्सवपूर्ण
जीवन धार्मिकता है।
जिस
क्षण वाणी का हुआ प्राण से मिलन मौन
सर्जना
पिघलकर धरती में साकार हुई!
कुछ
तार पड़े थे बिखरे-से
सब
कहते हैं--वे आदि-अंत-अवसान न जाने क्या-क्या थे--
स्वर
सोए थे उनमें कितने
कितनी
झंकारें उनमें थीं निस्पंद।
उन
तारों पर कुछ गाऊं मैं--
बहलाऊं
मन हे देव! तुम्हारा भी--
तुमने
छोटी-सी वीणा दी
फिर एक
बार
जिस
क्षण वीणा का हुआ प्राण से मिलन मौन
वंदना
पिघलकर धरती में साकार हुई!
मैं
क्या जानूं--पथ भी विधान?
मैं तो
भविष्य के ज्योति-शिखर पर
पग
धरनेवाला विहान
जिसकी
विधायिका शक्ति--भावना भरी भक्ति।
मैं
पलक एक--मैं एक गान
उच्छ्वास
एक--विश्वास एक
मैं ही
तूली था देव! तुम्हारे हाथों में
जिस पर
श्रद्धा थी गई रीझ
फिर एक
बार
जिस
क्षण श्रद्धा का हुआ प्राण से मिलन मौन
साधना
पिघलकर धरती में साकार हुई!
जिस
क्षण वाणी का हुआ प्राण से मिलन मौन
सर्जना
पिघलकर धरती में साकार हुई!
उतारो, परमात्मा को थोड़ा तुमसे
पृथ्वी पर लाओ। सेतु बनो, द्वार
बनो उसके। सीढ़ियां बनो कि नाचता परमात्मा तुमसे पृथ्वी पर उतर सके। बहुत हो चुकीं
स्वर्ग की बातें जो कहीं और है। इस पृथ्वी को स्वर्ग बनाओ। स्वर्ग कहीं और है और
नरक तुमने यहां बना लिया! स्वर्ग कहीं और है तो तुम करते भी क्या फिर नरक न बनाते
तो? या तो स्वर्ग होगा या नरक
होगा। दोनों के बीच तटस्थ नहीं हो सकते।
या तो
तुमसे कुछ सुंदर का सृजन होगा या फिर कुछ विध्वंस होगा। कुछ सुंदर का विनाश होगा।
तुम तटस्थ नहीं हो सकते। जीवन तटस्थता मानता ही नहीं। जीवन में तटस्थता होती ही
नहीं। या तो सुंदर को बनाओ या तुमसे कुछ कुरूप निर्मित होगा। या तो आगे बढ़ो अन्यथा
पीछे हट जाओगे;
वहीं
के वहीं रुके नहीं रह सकते। या तो कुछ गाओ या गालियां तुमसे निकलनी शुरू हो
जाएंगी। वह जो प्राण की ऊर्जा है, या तो
गीत बने या गाली बने।
और
चूंकि हमने समझा स्वर्ग कहीं और है-- दूर सात आकाशों के पार, तो फिर हम करते भी क्या? फिर हमने पृथ्वी को नरक बना
लिया। तीन हजार सालों में पांच हजार युद्ध आदमी ने लड़े हैं। नरक में भी इतने युद्ध
होते हैं,
इसका
कोई पुराणों में इतना उल्लेख नहीं है। तीन हजार साल में पांच हजार युद्ध! एक साल में
करीब-करीब दो महायुद्ध! आदमी मारता ही रहा, काटता ही रहा। प्रत्येक राष्ट्र की सत्तर
प्रतिशत संपदा विध्वंस में लग रही है। और बनाओ अणुबम, और बनाओ उद्जन बम। वैसे भी
जरूरत से ज्यादा तैयार हो गए हैं। आज से पांच साल पहले एक-एक आदमी को सात बार मारा
जा सकता था,
इस तरह
की सात पृथ्वियां नष्ट की जा सकती थीं, इतने उद्जन बम थे। अब सात सौ बार मारा जा
सकता है। पांच साल में काफी प्रगति हुई! एक आदमी एक ही बार में मर जाता है इसका
खयाल रखना। सात सौ बार मारने की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन राजनेता पूरा इंतजाम कर
लेते हैं,
कौन
भूल-चूक करे! सात सौ बार पृथ्वी को नष्ट करने की तैयारियां हो गयी हैं। और
तैयारियां बंद नहीं हैं, तैयारियां
जारी हैं। बमों के अंबार लगते जा रहे हैं।
क्या
होगा? इतने विध्वंस का आग्रह! जबकि
लाखों-करोड़ों लोग भूखों मर रह हों, जबकि न मालूम कितने लोगों को दवा न मिलती हो, जबकि न मालूम कितने बच्चे
बिना दूध के मर जाएंगे, तब
गरीब से गरीब देश भी, हमारा
देश भी--जिसको अहिंसक होने की भ्रांति है और जिसको धार्मिक होने का अहंकार है और
जो घोषणा करता रहता है कि हम पुण्यभूमि हैं क्योंकि सारे अवतार यहीं हुए, यह देश भी अपनी संपदा का सत्तर
प्रतिशत विध्वंस और युद्ध और सेनाओं पर खर्च करता है। यह कैसी विक्षिप्तता है!
आदमी को क्या हो गया है? इतनी
ऊर्जा से तो हम स्वर्ग को यहां बना सकते हैं, निश्चित बना सकते हैं। और ऐसा स्वर्ग कि
देवता तरसें पृथ्वी पर जन्मने को। कथाएं कहती हैं कि देवता पुराने दिनों में तरसते
थे। मुझे लगता नहीं क्योंकि पुराने दिन में भी हालात यही थे; शायद इससे बदतर थे, बेहतर तो नहीं थे।
राम और
रावण भी ऐसे ही लड़ रहे थे। और ध्यान रखना, जो जीत जाता है, इतिहासकार उसके पक्ष में
लिखते हैं। अगर रावण जीत गया होता तो तुम राम के पुतले जला रहे होते क्योंकि
इतिहास तब रावण लिखवाता। अगर हिटलर जीत गया होता तो थोड़ा सोचो, इतिहास कौन लिखवाता, कैसा लिखा जाता? मुकदमे फिर भी चलते। जैसे
नूरेनबर्ग में मुकदमे चले वैसे ही कहीं मुकदमे चलते लेकिन उन मुकदमों में जिन पर
मुकदमे चलते वे होते रूज़वेल्ट, चर्चिल, ट्रूमन, स्टैलिन, इन लोगों पर मुकदमे चलते।
इतिहास फिर भी लिखा जाता मगर चूंकि इतिहास हिटलर लिखवाता, इतिहास कुछ और ही होता। हिटलर
होता उद्धारक,
मनुष्य-जाति
को बचानेवाला पापियों से, उद्धार
करनेवाला।
युद्ध
उस दिन भी होते थे, महाभारत
उस दिन भी हुए। विध्वंस उस दिन भी जारी था। लोग इतने ही बेईमान थे लोग इतने ही चोर
थे, लोग इतने ही दुष्ट थे जितने
आज हैं,
ज़रा भी
कम नहीं थे। शायद थोड़े ज्यादा भला रहे हों। क्योंकि बुद्ध ने बयालीस साल सुबह और
शाम, दोपहर और रात एक ही बात कही
कि चोरी न करो,
हिंसा
न करो,र् ईष्या न करो, दूसरे को कष्ट न दो। लोग जरूर
ये ही कामों में लगे रहे होंगे, नहीं
तो बुद्ध क्यों बयालीस साल तक. . . दिमाग खराब था?
महावीर
भी चालीस साल तक यही लोगों को समझाते रहे ः हिंसा न करो। जरूर लोग हिंसा में रत
होंगे। चोरी न करो, बेईमानी
न करो। जैनों के पांच महाव्रत. . .। आखिर चोरों की दुनिया में ही अचौर्य का
सिद्धांत पैदा होता है और पापियों की दुनिया में पुण्य की बातें करनी पड़ती हैं।
और तुम
ज़रा सोचकर कहा करना कि सारे अवतारों का जन्म यहीं हुआ। उसका कारण यह हो सकता है कि
सबसे ज्यादा उपद्रवी आदमी यहां थे। क्योंकि जहां बहुत लोग बीमार होते हैं वहां
चिकित्सकों को आना पड़ता है। तुम्हारे मोहल्ले में भी अगर किसी घर में रोज चला आ
रहा है डाक्टर और रोज चले आ रहे हैं वैद्य और हकीम, तो क्या तुम सोचते हो उस घर
के लोग बड़े स्वस्थ हैं? जहां
इतने हकीम--सब हकीम और सब वैद्य और चिकित्सक आते हैं, और वह घर का आदमी बाहर आकर
डींग मारे कि यह पुण्य-भूमि है। ऐसा एक हकीम नहीं जो यहां न आया हो। ऐसा एक वैद्य
नहीं जो यहां न आया हो, ऐसा एक
डाक्टर नहीं जो यहां न आया हो। सब यहीं पलते हैं।
वैसा
ही तुम्हारा दावा है। इतने अवतार आए. . .आना पड़ा! कृष्ण कहते हैं न गीता में कि
जब-जब धर्म की हानि होगी, मैं
आऊंगा। तो तुम्हारे देश में धर्म की हानि कितनी बार नहीं हो चुकी होगी इसका हिसाब
लगाया?
इतनी
बार कृष्ण को आना पड़ा! फिर भी तुम पुण्य-भूमि अपने को माने चले जाते हो।
नहीं, अब तक पुण्य-भूमि नहीं बन सकी, धर्मभूमि कहीं नहीं बन सकी।
क्योंकि धर्मभूमि बनने का विज्ञान ही नहीं बन सका। धर्म को सृजनात्मकता दो। धर्म
को विधायक करो। धर्म को जीवन-विरोध से बचाओ, जीवन के प्रेम में लगाओ। प्रेम रंग-रस ओढ़
चदरिया! धर्म को चादर बनाओ प्रेम की, रंग की, रस की। सारे इंद्रधनुष उस चादर पर हों। सारे
गीत, सारे दीए उस चादर पर हों।
होली हो,
फाग हो
उस चादर पर। भगोड़ापन न हो, पलायनवाद
न हो। जीवन का अंगीकार हो अहोभाव के साथ।
धर्म
की यही दृष्टि मैं देने की कोशिश कर रहा हूं। धर्म हो जीवन का प्रेम; जीवन का विरोध नहीं, निषेध नहीं। धर्म हो इस
अद्भुत जीवन के प्रति सम्मान, सत्कार।
और हो कृतज्ञता की एक प्रतीति कि हे परमात्मा! तूने इतना प्यारा जीवन दिया, अब हम क्या करें? हम कैसे तेरी पूजा करें और
कैसे तेरी प्रार्थना करें ? एक ही
उपाय है कि अगर हम थोड़ा इस जीवन को सुंदर कर पाएं, थोड़े और रंग भर दें, थोड़े और गीत भर दें तो ही
प्रार्थना,
तो ही
साधना।
जिस
क्षण वाणी का हुआ प्राण से मिलन मौन
सर्जना
पिघलकर धरती में साकार हुई!
जब भी
तुम्हारे भीतर प्रार्थना होगी, मौन
होगा, शांति होगी, ध्यान होगा, सर्जना पिघलकर पृथ्वी पर
साकार होगी!
कुछ
तार पड़े थे बिखरे-से
सब
कहते हैं--वे आदि-अंत-अवसान न जाने क्या-क्या थे--
स्वर
सोए थे उनमें कितने
कितनी
झंकारें उनमें थीं निस्पंद।
उन
तारों पर कुछ गाऊं मैं--
बहलाऊं
मन हे देव! तुम्हारा भी--
और
क्या कहेगा भक्त?
इतना
ही कह सकता है
उन
तारों पर कुछ गाऊं मैं--
बहलाऊं
मन हे देव! तुम्हारा भी--
तुमने
छोटी-सी वीणा दी
फिर एक
बार
जिस
क्षण वीणा का हुआ प्राण से मिलन मौन
वंदना
पिघलकर धरती में साकार हुई!
तुम्हें
एक वीणा दी है परमात्मा ने। तुम्हारा हृदय एक वीणा है, छेड़ो इसके तार। साधो! इस वीणा
से कुछ अद्भुत स्वर उठ सकते हैं। उठाओ उन्हें। यह वीणा ऐसी ही पड़ी न रह जाए।
मैंने
सुना है,
एक घर
में एक पुराना वाद्य, जिसे
बजाना घर के लोग भूल गए थे, सदियों-सदियों
से रखा था,
परंपरा
से रखा था। पूर्वज छोड़ गए थे तो रहने दिया था। फिर घर में भीड़ भी बढ़ती गयी, बच्चे भी बढ़ते गए। उस वाद्य
को रखने की जगह भी नहीं थी तो उसको सरकाते गए। बैठकखाने से पीछे के कमरे में चला
गया, पीछे के कमरे से कचरे की
कोठरी में चला गया। लेकिन कचरे की कोठरी में कभी-कभी उसके कारण उपद्रव हो जाता।
कोई बिल्ली रात उस पर कूद जाती, उसके
तार झनझना जाते। कोई चूहा टंकार मार देता, तार तोड़ देता, आवाज हो जाती। तो रात घर के
लोगों की नींद में बाधा पड़ने लगी। आखिर एक दिन उन्होंने तय किया कि इसे हम रखे
क्यों हैं?
इसकी
जरूरत क्या है?
फिजूल
जगह घेरता है,
फेंक
ही क्यों न दें?
उन्होंने
उठाया और जाकर उसे कचरे-घर में डाल आए। वे घर लौट भी नहीं पाए थे कि ठिठक गए बीच
में ही क्योंकि एक भिखारी ने, जो
रास्ते से गुजरता था, उस
अद्भुत वाद्य के तार छेड़ दिए। वे लौट पड़े। राह चलते लोग रुक गए। कोई गुजर न सका
वहां से। भीड़ स्तब्ध खड़ी हो गयी। ऐसा अपूर्व संगीत किसी ने कभी सुना ही न था।
अलमस्त होकर वह भिखारी उस अद्भुत वाद्य को बजा रहा था।
जब वाद्य का संगीत पूरा हुआ और संगीत शून्य में
लीन हो गया तो घर के लोगों को होश आया। उन्होंने भिखारी से कहा, वाद्य हमें वापिस लौटा दो। यह
हमारा है। आज उन्हें पता चला, यह
बहुमूल्य है। पर उस भिखारी ने कहा, यह तुम्हारा था तो कचरे-घर पर फेंका क्यों? जिस क्षण फेंका उसी क्षण
तुम्हारा नहीं रहा। और मैं तुमसे कह दूं कि वाद्य उसका है जो बजाना जानता है। तुम
इसका करोगे क्या?
फिर
बिल्ली कूदेगी,
फिर
चूहा काटेगा,
फिर
बच्चे तारों को छेड़ेंगे। और जिससे अद्भुत संगीत पैदा होता है उससे केवल शोरगुल
पैदा होगा। तुम करोगे क्या? यह
तुम्हारा नहीं है,
तुम
इसके मालिक नहीं हो। मालिक वही है जो इसे बजा ले।
जब तक
तुम अपने हृदय को बजाना न सीख लोगे, अपने हृदय के मालिक नहीं हो। तब तक हृदय पड़ा
है बेकार। वीणा तो है, कहो
परमात्मा से--
उन
तारों पर कुछ गाऊं मैं--
बहलाऊं
मन हे देव! तुम्हारा भी--
तुमने
छोटी-सी वीणा दी
फिर एक
बार
जिस
क्षण वीणा का हुआ प्राण से मिलन मौन
वंदना
पिघलकर धरती में साकार हुई!
मैं
क्या जानूं--पथ भी विधान?
मैं तो
भविष्य के ज्योति-शिखर पर
पग
धरनेवाला विहान
जिसकी
विधायिका शक्ति--भावना भरी भक्ति।
भक्ति
कुछ और नहीं है,
एक
विधायक रस है जीवन में।
मैं
पलक एक--मैं एक गान
उच्छ्वास
एक--विश्वास एक
मैं ही
तूली था देव! तुम्हारे हाथों में
जिस पर
श्रद्धा थी गई रीझ
फिर एक
बार
जिस
क्षण श्रद्धा का हुआ प्राण से मिलन मौन
साधना
पिघलकर धरती में साकार हुई!
जिस
क्षण वाणी का हुआ प्राण से मिलन मौन
सर्जना
पिघलकर धरती में साकार हुई!
तुम
पूछते हो,
संतों
की सृजनात्मकता का स्रोत कहां है? परमात्मा
स्रोत है सृजनात्मकता का। सब सृजनात्मकता का स्रोत परमात्मा है। और जब तुम उससे
जुड़ोगे तो तुमसे भी बहेगा। और तुमसे बहे तो ही जानना कि जुड़े। तुम्हारा चेहरा लंबा
और मातमी बना रहे,
और तुम
उपवास और व्रत और नियम, और
अपने को गलाने और सड़ाने और परेशान करने में ही लगे रहो तो समझना कि शायद तुम्हारा
शैतान से सत्संग हो गया है, भगवान
से नहीं। भगवान तो उत्सव है। इन हरे वृक्षों में देखो। इन हरे वृक्षों से छन-छनकर
आती हुई सूरज की किरणों में देखो। इन पक्षियों की आवाजों में देखो। भगवान तो उत्सव
है। भगवान महोत्सव है। और जब तुम्हारे जीवन में भी उत्सव आता है तो गीत पैदा होंगे, मूर्तियां बनेंगी, मंदिर उठेंगे, रंग फैलेंगे, फाग होगी, गुलाल उड़ेगी।
और जब
तुम्हारे जीवन में ऐसा आनंद का उत्सव आ जाए तो ही समझना कि तुम्हारी धर्म से पहचान
हुई, सद्धर्म से पहचान हुई। एस
धम्मो सनंतनो! ऐसा ही धर्म सनातन धर्म है, जो उत्सव ले आए।
लेकिन
रुग्ण मनुष्य ने धर्म को भी रुग्ण कर दिया है। बीमार हाथों में पड़कर धर्म भी बीमार
हो गया है। नकारात्मक आदमी मेरी दृष्टि में नास्तिक है। मेरी नास्तिक की परिभाषा
यही है। आस्तिक मैं उसे कहता हूं जो विधायक है; जो जीवन को कहता है हां, समग्रता से; उसे मैं आस्तिक कहता हूं।
ईश्वर को माने न माने, मानना-न
मानने का कोई मूल्य नहीं है, जीने
का मूल्य है। जो इस तरह जीता है कि जीवन के साथ हां का उसका संबंध होता है, वह आस्तिक। नास्तिक वह है
जिसका जीवन के साथ संबंध नहीं का संबंध है, नकार का संबंध है। जो हर चीज को तोड़ रहा है, हर चीज को खंडित कर रहा है।
जो मृत्यु की सेवा में लीन है। जो परमात्मा से शिकायत कर रहा है। कि तुमने मुझे
जन्म क्यों दिया?
किस
कसूर का दंड दिया है मुझे? किन
पापों का फल भोग रहा हूं? जो
परमात्मा से यह शिकायत कर रहा है वह नास्तिक है। वह किन्हीं पापों का फल नहीं है, यह तुम किन्हीं गलत किए गए
कामों का दंड नहीं पा रहे हो, यह
परमात्मा का प्रसाद है। इसे प्रसाद रूप ग्रहण करो ताकि तुम्हारे भीतर से धन्यवाद
उठ सके। और जिसके भीतर से धन्यवाद उठा उसके भीतर से प्रार्थना उठी। धन्यवाद ही
प्रार्थना है।
चौथा
प्रश्न ः मैं उदास क्यों हूं? ऐसे तो
सब है--सुख-सुविधा फिर भी उदासी है कि घटती नहीं वरन् बढ़ती ही जाती है। क्या ऐसे
ही, व्यर्थ ही समाप्त हो जाना
मेरी नियति है?
उदास
हो तो अकारण नहीं हो सकते। तुम्हारे जीवन-दर्शन में कहीं भूल होगी। तुम्हारा
जीवन-दर्शन उदासी का होगा। तुम्हें चाहे सचेतन रूप से पता हो या न हो, मगर तुम्हारी जीवन को जीने की
शैली स्वस्थ नहीं होगी, अस्वस्थ
होगी। तुम जीवन को ऐसे ढो रहे होओगे जैसे कोई बोझ को ढोता है।
मैंने
सुना है,
एक
संन्यासी हिमालय की यात्रा पर गया था। भरी दोपहर, पहाड़ की ऊंची चढ़ाई, सीधी चढ़ाई, पसीना-पसीना, थका-मांदा हांफता हुआ अपने
छोटे-से बिस्तर को कंधे पर ढोता हुआ चढ़ रहा है। उसके सामने ही एक छोटी-सी लड़की, पहाड़ी लड़की अपने भाई को कंधे
पर बैठाए हुए चढ़ रही है। वह भी लथपथ है पसीने से। वह भी हांफ रही है। संन्यासी
सिर्फ सहानुभूति में उससे बोला, बेटी
तारे ऊपर बड़ा बोझ होगा। उस लड़की ने, उस पहाड़ी लड़की ने, उस भोली लड़की ने आंख उठाकर
संन्यासी की तरफ देखा और कहा, स्वामी
जी! बोझ तो आप लिए हैं यह मेरा छोटा भाई है।
बोझ
में और छोटे भाई में कुछ फर्क होता है। तराजू पर तो नहीं होगा। तराजू को क्या पता
कि कौन छोटा भाई है और कौन बिस्तर है! तराजू पर तो यह भी हो सकता है कि छोटा भाई
ज्यादा वजनी रहा हो। साधु का बंडल था, बहुत वजनी हो भी नहीं सकता। पहाड़ी बच्चा था, वजनी होगा। तराजू तो शायद कहे
कि बच्चे में ज्यादा वजन है। तराजू के अपने ढंग होते हैं मगर हृदय के तराजू का
तर्क और है।
उस
लड़की ने जो बात कही, संन्यासी
ने अपनी आत्मकथा में लिखा है--उनका नाम था भवानी दयाल--उन्होंने अपनी आत्मकथा में
लिखा है कि मुझे ऐसी चोट पड़ी कि इस छोटी-सी बात को मैं अब तक न देख पाया? इस भोली-भाली लड़की ने कितनी
बड़ी बात कह दी! छोटी-सी बात में कितनी बड़ी बात कह दी! छोटे भाई में बोझ नहीं होगा।
जहां प्रेम है वहां जीवन निर्भार होता है।
तुम
जरूर अप्रेम के ढंग से जी रहे हो। तुम्हारा जीवन-दर्शन भ्रांत है इसलिए तुम उदास
हो। हालांकि तुमने जब प्रश्न पूछा होगा तो सोचा होगा कि मैं तुम्हें कुछ ऐसे उत्तर
दूंगा जिनसे सांत्वना मिलेगी। कि मैं कहूंगा कि नहीं--पिछले जन्मों में कुछ
भूल-चूक हो गयी है, उसका
फल तो पाना पड़ेगा। अब निपटा ही लो। किसी तरह बोझ है, ढो ही लो, खींच ही लो।
राहतें
मिलती हैं ऐसी बातों से। क्योंकि अब पिछले जन्म का क्या किया जा सकता है? जो हुआ सो हुआ। किसी तरह बोझ
है, ढो लो। मैं तुमसे यह नहीं
कहता कि पिछले जन्म की भूल है जिसका तुम फल अब भोग रहे हो। अभी तुम कहीं भूल कर
रहे हो,
अभी
तुम्हारे जीवन के दृष्टिकोण में कहीं भूल है। पिछले जन्मों पर टालकर हमने खूब
तरकीबें निकाल लीं। असल में पिछले जन्म पर टाल दो तो फिर करने को कुछ बचता नहीं, फिर तुम जैसे हो सो हो। अब
पिछला जन्म फिर से तो लाया नहीं जा सकता। जो हो चुका सो हो चुका। किए को अनकिया
किया नहीं सकता। अब तो ढोना ही होगा, खींचना ही होगा, उदास रहना ही होगा।
नहीं, उदास रहने की कोई भी जरूरत
नहीं है,
कोई
अनिवार्यता नहीं है। मैं तुमसे यह बात कह दूं कि परमात्मा के जगत् में उधारी नहीं
चलती। पिछले जन्म में कुछ गलती की होगी, पिछले जन्म में भोग ली होगी। परमात्मा कल के
लिए हिसाब नहीं रखता। वह ऐसा नहीं कि आज नगद, कल उधार। नगद ही नगद है, आज भी नगद और कल भी नगद। आग
में हाथ डालोगे,
अभी
जलेगा कि अगले जन्म में जलेगा पानी पियोगे, प्यास अभी बुझेगी कि अगले जन्म में बुझेगी? इतनी देर नहीं लगती प्यास के
बुझने में न हाथ के जलने में।
मेरे
देखे जब भी तुम शुभ करते हो तत्क्षण तुम पर आनंद की वर्षा हो जाती है। तत्क्षण!
देर-अबेर नहीं होती। तुमने कहावत सुनी है कि उसके जगत् में देर है, अंधेर नहीं। मैं तुमसे कहता
हूं कि देर हुई तो अंधेर हो जाएगा। न देर है न अंधेर है, सब नगद है।
तुम
ज़रा फिर से पुनर्विचार करो, अपनी
जीवन-शैली को थोड़ा जांचो। अब जो आदमी यह मान रहा है कि घर-गृहस्थी में रह कर कैसे
प्रसन्न हो सकता है, कहो!
मुझे कहो,
कैसे
प्रसन्न होगा?
जो
आदमी मानता है कि यह पाप है, कब
इससे छुटकारा होगा--यह पत्नी, ये
बच्चे,
यह घर, यह संसार! कब आएगी वह सौभाग्य
की घड़ी कि चला जाऊंगा हिमालय की किसी गुफा में और बैठूंगा सब छोड़-छोड़ कर संसार का
माया-मोह! जो आदमी ऐसा मान रहा है. . .और ऐसे ही आदमी मान रहे हैं। इस देश में तो
हर आदमी ऐसा मान रहा है। जो अभी-अभी घोड़े पर सवार होकर दूल्हा बनकर जा रहा है, शहनाई बज रही है वह भी ऐसा
मान रहा है कि पाप में पड़ रहा हूं। शहनाई अभी ही फीकी हो गयी, फूल अभी कुम्हला गए। दुल्हन
को लेकर आया है डोले पर, दुल्हन
अभी मर गयी,
लाश आ
रही है घर अब। तुम्हारे चित्त में. . .तुम्हारे चित्त के मूल स्रोत ही जैसे
विषाक्त कर दिए गए हैं। तुम्हें इतनी गलत बातें सिखायी गयी हैं. . .।
मेरे
पास युवक आ जाते हैं, वे
मुझसे पूछते हैं कि शादी करें या न करें--आप क्या कहते हैं। मां-बाप पीछे पड़े हैं, पाप में उलझाना चाहते हैं।
उन्हें पता नहीं कि मैं ज़रा और ढंग का आदमी हूं। वे और साधु-संन्यासियों के पास
जाकर ऐसी बात कहते हैं तो वे बड़े प्रसन्न होते हैं कि बेटा, तू बड़ा सात्विक है, तू बड़ा धार्मिक है। मां-बाप
की बातों में मत पड़ना, ये तो
माया-मोह में उलझाने की बातें हैं। तेरे भीतर बड़ा बोध जगा है।
जब
मुझसे कोई ऐसा कहता है कि मुझे पाप में उलझा रहे हैं तो मैं थोड़ा सोचता हूं कि यह
युवक अगर विवाह करेगा तो मुश्किल में पड़ेगा, अगर नहीं विवाह करेगा तो मुश्किल में पड़ेगा।
इसकी जिंदगी में उदासी नियति हो जाएगी। नहीं विवाह करेगा तो इसकी प्रकृति बदला
लेगी। इसके जीवन की सहज आकांक्षाएं अतृप्त रह जाएंगी तो चित्त खिन्न रहेगा। दबाएगा
वासनाओं को,
वे
उभर-उभर कर आएंगीं तो जीवन एक अंतःसंघर्ष हो जाएगा। एक आत्मिक कलह हो जाएगी। यह
चौबीस घंटे अपने से लड़ेगा। और जो अपने से लड़ रहा है वह प्रसन्न नहीं हो सकता। उसकी
ऊर्जा तो लड़ाई में ही क्षीण हो जाती है। उसकी ऊर्जा फूल बनने को बचती ही नहीं।
उसके भीतर कभी सहस्रार नहीं खिलता, नहीं खिल सकता। और अगर यह विवाह कर लेगा तो
अभी से ही यह कह रहा है कि पाप, तो यह
बोझ ढोएगा--यह पत्नी, ये
बच्चे,
यह
घर-द्वार,
और
उदास रहेगा।
हमारी
जीवन को देखने की पद्धति में कहीं बुनियादी भूल है। हमारा गणित गलत है। तुम कहते
हो, मैं उदास क्यों हूं? तुम उदास हो क्योंकि तुम्हारा
फलसफा तुम्हारा दर्शनशास्त्र तुम्हें उदास कर रहा है। तुमने जिन धर्मो को पकड़ लिया
है वे तुम्हें उदास कर रहे हैं। तुम छुटकारा पाओ इन सारी दृष्टियों से। तुम जीवन
को ज़रा ज्यादा सरलता से जीने की शुरुआत करो, सिद्धांतों और शास्त्रों की आड़ मत लो जीवन
को जीने में। जीवन को जियो सरलता से, सहजता से; थोड़े नैसर्गिक, थोड़े प्राकृतिक--और तुम्हारे
जीवन में भी उत्फुल्ता आएगी। अगर गुलाब को यह खयाल आ जाए कि खिलना पाप है, तो फिर फूल खिलेगा तो भी उदास
होगा। नहीं खिलेगा तो गुलाब के प्राणों में पीड़ा होगी कि बिना खिला हूं। फूल टूटना
चाहेगा,
कली
खुलना चाहेगी और वृक्ष उसे दबाएगा और खुलने न देगा तो आत्मघाती हो जाएगा। और अगर
खुलने दिया,
फूल
खिला तो उदास खिलेगा फूल; उसमें
सुवास नहीं होगी,
जिंदगी
नहीं होगी। उसमें मौत की छाप होगी।
गलत
दृष्टियों ने तुम्हें जन्म से ही मार डाला है। मगर वे दृष्टियां बड़ी प्राचीन हैं, बड़ी सम्मानित हैं, परंपरा से बड़ी समादृत हैं।
तुम्हें याद भी नहीं है कि तुमने गलत दृष्टियां पकड़ रखी हैं। और फिर तुम उदास होते
हो तो स्वभावतः प्रश्न उठता है कि मैं उदास क्यों हूं? और फिर तुम उन्हीं महात्माओं
के पास जाते हो जिन्होंने तुम्हारी उदासी के सारे बीज बोए हैं। वे तुम्हें
सांत्वना देते हैं कि पिछले जन्मों के पाप के कारण उदास हो। अब इस जन्म में मत
करना, नहीं तो अगले जन्म में भी
उदास रहोगे। उन्हीं की बातों के कारण तुम इस जन्म में उदास हो, उन्हीं की बातों के कारण तुम
अगले जन्म में उदास रहोगे।
कब तुम
अपने महात्माओं से मुक्त होओगे? परमात्मा
की सुनो,
महात्माओं
से मुक्त होओ। और परमात्मा की सुननी हो तो बीच से सारे महात्माओं को हटा दो।
तुम्हारे भीतर ही निश्चल चेतना में उसका स्वर गूंजेगा। वहीं ध्यान जमाओ। शांत होकर
वहीं बैठो। वहीं से आने दो उद्घोष। वहीं से आने दो आवाज, वहीं से आने दो उपदेश, और उसी की मान कर चलो। और मैं
तुमसे कहता हूं कि तुम्हारी जिंदगी में प्रसन्नता ही प्रसन्नता फैल जाएगी। इस कोने
से लेकर उस कोने तक दीपावली ही दीपावली हो जाएगी, दीए वही दीए जल जाएंगे।
कहते
हो तुम ः ऐसे तो सब है--सुख-सुविधा, फिर भी उदासी है कि घटती नहीं है वरन् बढ़ती
ही जाती है। सुख-सुविधा से कोई संबंध नहीं है आनंद का। कभी-कभी जिनके पास कोई
सुख-सुविधा नहीं है वे भी आनंदित मिल जाएंगे। कोई अनिवार्य संबंध नहीं है कि
तुम्हारे पास धन है इसलिए तुम्हें सुखी होना चाहिए। सुख तो एक कला है। प्रसन्नता
एक कला है,
एक राज
है। जिसको आता है उसके पास धन न हो तो भी प्रसन्न होता है, और धन हो तो तो निश्चित ही
होता है।
तुम
मेरी बात ज़रा गौर से समझना। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धन न हो तो ही प्रसन्न हो
सकता है। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि धन हो ही, तो ही कोई प्रसन्न हो सकता
है। ये दोनों बातें अधूरी हैं, अधकचरी
हैं। जिसको प्रसन्न होना आता है वह कहीं भी प्रसन्न हो सकता है।
जिसे
नाचना आता है वह टेढ़ा आंगन हो तो भी नाच सकता है। जिसे नाचना आता है वह जेल की
काली कोठरी में भी नाच सकता है। जिसे बांसुरी बजाना आता है वह अंधेरी से अंधेरी
अमावस में भी बांसुरी बजा सकता है। और बांसुरी बजाना न आता हो और तुम्हें महल में
बिठा दिया जाए तो तुम करोगे क्या? झोंपड़े
में उदास थे,
महल
में और उदास हो जाओगे। क्यों और उदास हो जाओगे? क्योंकि झोंपड़े में एक आशा थी कि अगर महल
होगा तो प्रसन्न होंगे। अब वह आशा भी गई। अब उतनी आशा का भी सहारा न रहा। अब महल
भी है और उदासी है।
तुम
समझो, बाहर से उदासी और प्रसन्नता
का कोई संबंध नहीं है, भीतर
से संबंध है। इसलिए मैं नहीं कहता कुछ त्यागो, छोड़ो, भागो। नहीं, भीतर की कला सीखो। धन हो तो
जो भीतर की कला जानता है वह धन का सदुपयोग कर लेगा; वह धन को जी लेगा। अकसर तो
भीतर की कला न जाननेवालों के पास धन होता है तो वह धन से केवल इतना ही करते हैं कि
अपने लिए चिंताएं पैदा करते हैं। कृपण हो जाते हैं, कंजूस हो जाते हैं। धन को और
जोर से पकड़ लेते हैं, निन्यानबे
के फेर में पड़ जाते हैं। जिनके पास नहीं होता वे तो खर्च भी कर लेते हैं। वे तो
कहते हैं,
है ही
नहीं तो यह भी गया तो गया। वैसे भी क्या है? इसलिए गरीब आदमी तो थोड़ा हिम्मत से खर्च भी
कर लेता है,
अमीर
आदमी खर्च भी नहीं करता। वह कहता है कि इतना और बच जाए तो थोड़ा और हो जाएगा। इतना
और बच जाए तो थोड़ा और हो जाएगा। जैसे-जैसे आदमी अमीर होता जाता है। वैसे-वैसे
कंजूस होता जाता है।
और इस
देश में ऐसे कंजूसों को हम कहते हैं कितने सीधे-सादे हैं। कंजूस हैं, सीधे-सादे ज़रा भी नहीं हैं।
बहुत इरछे-तिरछे हैं, बहुत
चालबाज हैं। मगर हम उनको कहते हैं कैसे सीधे-सादे हैं। देखो इनका जीवन कैसा साधु
का जीवन है! जब साधु का ही जीवन जीना था तो कृपा करो यह धन किसी और को दो, उसको जी लेने दो। तुम साधु
बनो। धन पर तो बैठे हैं फन मारकर और साधु का जीवन जी रहे हैं। इस तरह की मूढ़ता को
समादर दिया जाता रहा है। यह निपट मूढ़ता है। धन हो तो धन को जी लो। जब नहीं होगा तो
निर्धनता को जी लेना। अभी तो धन है तो धन का गीत गाओ, जब नहीं धन हो तो निर्धनता का
गीत गा लेना। अभी जल्दी क्या पड़ी है! मगर लोग धन भी नहीं भोग सकते, क्योंकि भोग ही नहीं सकते।
भोग की ही निंदा है।
तुम
कहते हो सब सुख-सुविधा है, होगी
मगर तुम्हें कुछ नहीं है। तुम तो सुख-सुविधा में भी देख रहे होओगे कि यह सब भोग
है! कहां पड़ा हूं,
कहां
उलझा हूं! कैसा मजा नहीं होगा फकीरों को!?
अकसर
ऐसा हो जाता है कि शहरों में जो लोग रहते हैं वे सोचते हैं देहात में रहनेवाले लोग
बड़े मजे में हैं। देहात में रहनेवाले दूसरी बात सोचते हैं। वे सोचते हैं शहर में
रहनेवाले लोग बहुत मजे में हैं। असल में तुम जहां नहीं हो, लगता है मजा वहां है।
गांव
के लोग सब बंबई जाना चाहते हैं। कोई नहीं रुकना चाहता। नहीं तो आखिर बंबई में लोग
बढ़ते कहां से जा रहे हैं! सारे गांव बंबई आना चाहते हैं। अगर न रह पाएं तो
कम-से-कम दर्शन करने बंबई आना चाहते हैं। और बंबई के लोग देहात की सुनकर उनकी छाती
खिल जाती है अहा! देहात में कैसा सुख! कैसी सुविधा! प्राकृतिक सौंदर्य, ताजी हवाएं ये कहां बंबई की
गंदी हवा!
मैं
कश्मीर था,
बंबई
के कुछ मित्र मेरे साथ थे। जिस बजरे पर हम मेहमान थे, मेरे बंबई के मित्र, बंबइया मित्र--वे डल झील की
खूब तारीफ करें। और ताजी हवाएं और वृक्ष और चिनार के दरख्त, और चांदत्तारे और कश्मीर।
उनकी बातें सुनकर वह जो बजरे का मांझी था वह बड़ा चौंके, बड़ा हैरान हो। यह मैं देखता
रहा, देखता रहा। मैंने उससे पूछा
कि तू इनकी बातें सुनकर बड़ा चौंकता है। उसने कहा, मैं चौंक नहीं तो क्या करूं? मेरी जिंदगी यहीं बीती। यही
झील, इसी से सिर मारते-मारते
जिंदगी गंवाई। यही नाव, यही
चिनार! उनकी बातें सुनकर मैं भी देखता हूं कि क्या खूबी है चिनार में! कुछ मुझे
दिखाई पड़ती नहीं। वह मुझे बाबा कहता था। जब हम चलने लगे तो पैर पकड़ लिए। उसने कहा, बाबा बस एक आशीर्वाद, एक दफे बंबई के दर्शन करवा
दो। तो मैंने बंबइया मित्रों से कहा, सुनते हो? यह डल-झील का मांझी, यह कहता है, बस एक जीवन में इच्छा है, सिर्फ एक, कोई बड़ी इच्छा भी नहीं बेचारे
की-- कि बंबई का एक दफा दर्शन हो जाए। फिल्मों में देखा है, कहने लगा, कैसा सुख नहीं लोग भोग रहे
होंगे!
शहर
में रहनेवाला आदमी गांव की तारीफ करता है। गांव जाता-वाता नहीं। कौन तुम्हें रोक
रहा है?
जाओ, भोगो गांव की कीचड़ और मच्छर
और जो भी तुम्हें भोगना हो। और गांव की गंदगी और बदबू! जाओ! गांव जाता-करता नहीं, शहर बैठकर विचार करता है। महल
में बैठा आदमी सोचता है, अहा!
जिनके पास कुछ नहीं है, घोड़े
बेचकर सोते हैं। क्या मस्ती की नींद! फकीरों की नींद! एक हम हैं कि रात भर चिंता
ही चिंता। और वह जो फकीर है, वह देख
रहा है कि महल में मजा आ रहा होगा, राग-रंग चल रहा होगा। बड़ी उल्टी दुनिया है।
मैंने
सुना है एक बार बनारस में एक महात्मा की मृत्यु हुई और उसी दिन एक वेश्या की भी मृत्यु
हुई। दोनों आमने-सामने रहते थे। अकसर महात्मा और वेश्या आमने-सामने रहते हैं।
दोनों का बड़ा पुराना लेन-देन है। महात्मा के बिना वेश्या नहीं हो सकती और वेश्या
के बिना महात्मा नहीं हो सकता। जिस दिन दुनिया में महात्मा नहीं होंगे, वेश्याएं समाप्त हो जाएंगी। क्योंकि
वेश्याओं को पैदा कैसे करोगे? महात्मा
सिखाता है काम-वासना को दबाओ। और जब महात्मा का पाठ सीख लिया तो फिर वेश्या पैदा
होती है। वह दबी हुई काम-वासना वेश्या को पैदा करती है। अगर वेश्याएं मिटानी हैं
तो पहले महात्मा मिटाने होंगे।
सो
कहानी ठीक ही मालूम पड़ती है, तर्कयुक्त
मालूम पड़ती है। महात्मा और वेश्या आमने-सामने रहते थे। दोनों साथ-साथ मर गए।
देवदूत लेने आए। महात्मा तो बहुत नाराज हुआ, क्योंकि उसको नरक की तरफ ले चले--पाताल की
तरफ, जहां आजकल अमरीका है। और
वेश्या को स्वर्ग की तरफ ले चले, आकाश
की तरफ। महात्मा ने कहा रुको, यह
ज्यादती हो रही है। मैं महात्मा हूं। लगता है कुछ भूल-चूक हो गई। दफ्तर की कोई भूल
मालूम होती है। स्वर्ग मुझे ले जाना चाहिए।
देवदूत
हंसने लगे। उन्होंने कहा, शक
हमें भी हुआ था। तो हमने परमात्मा से पूछा, कुछ भूल-चूक तो नहीं हो गई? कि महात्मा को नरक ले जाना है, वेश्या को स्वर्ग? हमें भी शंका उठी थी तो हम
पूछ कर ही आए हैं। अच्छा हुआ हम पूछ कर ही आए। परमात्मा ने कहा, कोई भूल-चूक नहीं हुई, यही शाश्वत नियम है। शाश्वत
नियम? हम नए-नए देवदूत हैं, सिक्खड़ हैं, सच पूछो तो यह हमारा पहला ही
काम है। तो हमें तो कुछ पता नहीं शाश्वत नियमों का। तो हम और भी चौंके। हमने पूछा, आपका मतलब क्या?
तो
उन्होंने कहा,
बात यह
है कि महात्मा जिंदगी भर यह सोचता रहा कि मजा वेश्या के घर हो रहा है। और वेश्या
जीवन भर सोचती रही, रोती
रही कि मजा है,
आनंद
है, तो महात्मा के झोंपड़े में है।
महात्मा करता था पूजा, बजाता
था घंटी मेरे सामने, सताता
था मुझको घंटी बजा बजा कर। अब किसी के भी सामने घंटी बजाओगे तो तुम समझ सकते हो।
और रोज-रोज! और पानी चढ़ा रहे हो चाहे ठंड हो, चाहे गर्मी हो। तो घंटी तो मेरे सामने बजाता
था लेकिन इसका दिल लगा रहता था वहां--वेश्या की तरफ। खिड़की में खड़े होकर ऐसे तो
राम-राम-राम-राम,
राम-राम
करता था,
माला
जपता था,
मगर
देखता रहता था खिड़की से वेश्या को। रात को उठ-उठ कर आता था। उठता था राम-राम कहते
हुए, बुलाता था मुझे और मुझको भी
जगा देता था। मगर वेश्या के घर नाच चल रहा है, गीत चल रहा है, वीणा बज रही है, मस्त होकर लोग वाह-वाह कर रहे
हैं। दिल में इसके बड़ी खटक होती थी। कि मैं भी कहां उलझ गया हूं! यह कौन-सी
महात्मागीरी में फंस गया! मजा वहां है, इधर तो उदासी ही उदासी है।
और
वेश्या को जब भी समय मिलता था तब वह रोती थी। जब महात्मा मंदिर में घंटी बजाता था
और पूजा उठती,
धूप
जलती और सुगंध वेश्या तक पहुंचती तो वह रोती थी कि एक मैं अभागिन! यूं ही जिंदगी
बीत जाएगी?
परमात्मा
को कब पुकारूंगी?
उसने
कभी पुकारा नहीं मगर उसके आंसू मुझ तक पहुंच गए। और यह मुझे रोज पुकारता रहा लेकिन
इसकी पुकार में पुकार थी ही नहीं क्योंकि प्राणों का आह्वान नहीं था। इसे नरक ले
जाओ, वेश्या को स्वर्ग ले आओ।
ऐसा
कुछ आदमी का चित्त है। जो जहां नहीं है वहां होना चाहता है। तुम कहते हो
सुख-सुविधा में हो, मगर
तुम हो नहीं वहां सुख-सुविधा में। तुम सोचते हो यही होओगे कि फकीर मजे में हैं, संन्यासी मजे में हैं, महात्मा मजे में हैं। इसलिए
तुम भीतरर् ईष्या से जल रहे हो। औरर् ईष्या उदासी लाएगी। जहां हो वहीं मजे में हुआ
जा सकता है। जैसे हो वहीं कला है जीवन को जीने की। तुम जीवन की कला से चूक रहे हो।
और तुम कहते हो यह बढ़ती जा रही है उदासी, घटती नहीं। वह तो बढ़ेगी। उम्र जैसे-जैसे
बढ़ेगी वैसे-वैसे हताश होने लगोगे कि इतने दिन और गए। अब दिन थोड़े बचे। यह तो सांझ
आने लगी। यह तो सूरज डूबने को होने लगा। यह मौत दरवाजे पर दस्तक देने लगी। हाथ-पैर
लड़खड़ाने लगे,
बुढ़ापा
आने लगा,
अब तक
कुछ पाया नहीं। तो और घबड़ाहट बढ़ जाएगी और उदासी बढ़ जाएगी।
लेकिन
यह मत सोचो कि क्या ऐसे ही व्यर्थ ही समाप्त हो जाना मेरी नियति है? नहीं, किसी की भी नियति व्यर्थ
समाप्त हो जाना नहीं है। नियति तो है सच्चिदानंद हो जाना। नियति तो है परमानंद हो
जाना। लेकिन उस नियति को पूरा करने के लिए भी कुछ करो! बीज को डालो जमीन में
अंकुरित होगा। पत्थर भी रख दोगे तो क्या करेगा बीज, कैसे अंकुरित हो? और जमीन में भी डाल दोगे और
कभी पानी न डालोगे तो भी क्या करे बीज, कैसे अंकुरित हो? और पानी भी डाल दोगे और धूप न
मिलने दोगे,
छाता
लगा कर रख दोगे बीज पर तो क्या करे बीज? संयोजन जुटाओ। सच्चिदानंद के घटने का संयोजन
जुटाओ। बीज को गिरने दो भूमि में, जल से
सींचो,
धूप
आने दो। फिर कुछ करना नहीं है तुम्हें और। कुछ खींच-खींच कर पत्ते निकालने हैं, अपने से निकलेंगे। फिर
तुम्हें कलियों को पकड़-पकड़ कर खोलना नहीं पड़ेगा। तुम्हें कुछ नहीं करना है, तुम्हें सिर्फ व्यवधान हटा
देने हैं।
तो कुछ
सूत्र की बातें तुमसे कह दूं। एक--यह जीवन परमात्मा की भेंट है। तुम सौभाग्यशाली
हो कि जीवित हो। इसको आधारशिला बनाओ। यह किन्हीं पापों का दंड नहीं है। यह
परमात्मा की तरफ से सौगात है। अगर होगा तो पुण्यों का फल होगा। इतना प्यारा जीवन, इतना अद्भुत जीवन, इतना रहस्यमय लोक, और पापों का दंड! हटा दो उस
पत्थर को और तुम्हारा बीज भूमि में पड़ जाएगा।
फिर
तुम जहां हो,
वहीं
आनंद से जीने की चेष्टा करो। जहां तुम नहीं हो वहां के विचार छोड़ो। क्योंकि वे
विचार केवल समय को खराब करवाते हैं। और ऐसा एक भी आदमी नहीं है, ऐसी एक भी स्थिति नहीं है
जहां कुछ आनंद संभव न हो। जो तुम्हारे लिए संभव हो, वहीं जितना संभव हो उतना आनंद
से जियो।
जीसस
का एक अद्भुत वचन है। कि जिनके पास है उन्हें और दिया जाएगा और जिनके पास नहीं है
उनसे वह भी ले लिया जाएगा जो उनके पास है। अगर तुम आनंद चाहते हो तो थोड़े आनंदित
होओ तो तुम्हें आनंद दिया जाएगा। तुमने यह बात तो सुनी है न कि धन, धन का खींचता है? यह सच है। ध्यान भी ध्यान को
खींचता है,
यह भी
उतना ही सच है। आनंद भी आनंद को खींचता है, यह भी उतना सच है। जो आदमी थोड़ा-सा भी
आनंदित हो जाता है वह और ज्यादा आनंदित हो जाता है। तुम थोड़े तो आनंदित हो ही सकते
हो, कितने ही उदास होओ। ज़रा जीवन
का पहलू बदलो। ज़रा जीवन को आशा से देखो, निराशा से नहीं।
मैंने
सुना है,
एक
आशावादी एक बार गिर पड़ा मकान से। न्यूयार्क का मकान! सत्तरवीं मंजिल से गिर पड़ा।
चला नीचे की तरफ। आशावादी था, कभी
किसी ने उसके मुंह से दुःख की कोई बात नहीं सुनी थी। हर चीज में कुछ न कुछ अच्छा
खोज लेता था। शुभ्र पहलू को देखना उसका अभ्यास था। उसको जीवन में सदा ही आनंदित
लोगों ने पाया था। आज लोग खिड़की से झांक-झांक कर पूछने लगे, क्या हाल है? क्योंकि अब तो पक्का था कि आज
तो वह कहेगा कि मारे गए! लेकिन पता है उसने क्या कहा? उसने कहा, अब तक तो आनंद ही आनंद है। अब
तक! गिर रहा है जमीन की तरफ। ऐसे ही हम सभी गिर रहे हैं जमीन की तरफ। आखिर मौत
नीचे प्रतीक्षा कर रही है। लेकिन अब तक तो उसने कहा, आनंद ही आनंद है।
जीवन
को आशा की दृष्टि से देखो। निराशा की आदतें छोड़ो। हर अंधेरी रात में चमकते हुए
तारे हैं। और हर काले बादल में चमकती हुई बिजली का गोटा जड़ा हुआ है। कांटे मत गिनो
गुलाब की झाड़ी में, फूल
गिनो। और फूल गिनना सीख जाओ तो धीरे-धीरे तुम पाओगे कि कांटे भी फूल हो गए। जिनके
पास है उन्हें और दिया जाएगा और जिनके पास नहीं हैं उनसे वह भी ले लिया जाएगा जो
उनके पास है। जो कांटे गिनेंगे उनके लिए फूल भी कांटे हो जाएंगे। गिनती बदलो, गणित बदलो, और तुमने पानी डाल दिया बीज
पर।
और
तीसरी बात--सिर्फ सोचो-विचारो मत; आनंद
को अभिव्यक्त करो,
तो धूप
आ जाने दी तुमने। अभिव्यक्त करो आनंद को। लोग आनंद को अभिव्यक्त नहीं करते। गाली
तो दे देते हैं,
गीत
नहीं गाते। हंसो भी, मुस्कुराओ
भी, नाचो भी, गुनगुनाओ भी। क्योंकि जिसे
तुम अभिव्यक्त करोगे, बहाओगे, फैलाओगे, उसके लिए तुम्हारे भीतर और
नए-नए झरनों से ऊर्जा आनी शुरू हो जाएगी। जैसे कुंए से कोई पानी खींचता है तो झरने
नया पानी ले आते हैं कुंए में, ऐसे ही
हम सब परमात्मा के सागर से जुड़े हैं। उलीचो! दोऊ हाथ उलीचिए। उलीचो! जो तुम्हारे
पास है उसे बांटो! मस्ती को लुटाओ। और तुम चकित होओगे नई-नई ऊर्जा, नई-नई धाराएं, नए-नए झरने फूटते आ रहे हैं।
और एक बार यह रहस्य पता चल जाए, यह राज
हाथ में आ जाए कि लुटाने से बढ़ता है, बांटने से बढ़ता है, अभिव्यक्त करने से मिलता है, और-और मिलता है तो बस! ये तीन
सूत्र पूरे हो जाएं कि उदासी गयी, रात
गयी, सुबह हुई।
नियति
नहीं है उदास होना, दुर्भाग्य
है, दुर्घटना है। तथाकथित गलत
जीवन-दृष्टियों,
गलत
जीवन-शास्त्रों का परिणाम है। गले में तुम्हारी फांसी लगी है। मगर चूंकि फांसी
महात्मा लगाए हुए हैं, तुम
फांसी नहीं तोड़ सकते। क्योंकि तुम्हें लगता है कि महात्मा फांसी नहीं लगा सकता, फूल-माला पहनाई होगी। ज़रा गौर
से देखो,
तुम्हारे
धर्म ने तुम्हें जीवन नहीं दिया है, जीवन छीन लिया है। एक नए धर्म की तलाश जरूरी
है।
सारी
पृथ्वी पर एक नई धार्मिकता की तलाश जरूरी है। धार्मिकता होगी आने वाले भविष्य में; न हिंदू होगा न मुसलमान न ईसाई
होगा, एक धार्मिकता होगी। जीवन को
जीने का एक अहोभाव होगा। एक धन्यवाद होगा परमात्मा के प्रति। उस नए मनुष्य के लिए
ही आह्वान है। मेरा संन्यास उस नए मनुष्य के अवतरण के लिए भूमिका है।
आज इतना ही।
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