ओशो
! ओशो ! ओशो ! (अध्याय—21)
' मैं उतना ही
अनुपस्थित
हूं जितना मैं
मृत्यु के
उपरान्त
होऊंगा,
केवल एक
अन्तर होगा..
अभी मेरी
उपस्थिति एक
देह में है और
तब मेरी
अनुपस्थिति
अशरीरी होगी, ओशो
ने उरुग्वे
में कहा था।
उन्होंने
कई ढंगों से
कहा कि वे न
कुछ हैं और कि
वे मात्र
अनुपस्थित
हैं, परन्तु मैं
समझ न सकी । एक
बार उरुग्वे
में जब वे बोल
रहे थे मैंने अनुभव
किया उनकी
कुर्सी खाली
थी। मैंने
देखा कि
कुर्सी खाली
थी और उनके
पीछे की दीवार
के पार आकाश
देख सकती थी।
मैंने एक
अद्भुत ऊर्जा
को उनमें से
गुजरते देखा
जो बहुत शक्तिशाली
थी और
तीव्रगति से
चलायमान थी।
मैं भयभीत हो
गई क्योंकि वे
पूर्णत :
भेद्य लग रहे
थे। ' मैं
अस्तित्व को
अपने साथ ऐसा
नहीं करने
दूंगी ' मेरे
मस्तिष्क में
एक आवाज ने
कहा। मैंने
उन्हें इसके
बारे में लिखा
और बताया कि
मैं बहुत घबरा
गई थी ।
उन्होंने
उत्तर दिया
'तुम्हें एक
सम्बुद्ध
व्यक्ति की
घटना को गहराई
में जाकर
देखना होगा ।
वह है भी और
नहीं भी,
दोनों
एक साथ। वह है
क्योंकि उसका
शरीर है वह
नहीं है क्योंकि
अब उसका कोई
अंहकार नहीं
है ।
'वहां कोई
नहीं है जो कह
सके 'मैं हूं' और
फिर पूरा
ढांचा है, और
भीतर है
विशुद्ध आकाश।
और वह विशुद्ध
आकाश
तुम्हारी
दिव्यता है, तुम्हारी
भगवत्ता है, वह
विशुद्ध आकाश वही
है जो बाहर भी
विशुद्ध आकाश
है। आकाश केवल
दिखाई देता है? वह
है नहीं। यदि
तुम आकाश की
खोज में जाओगे
तुम इसे कहीं भी
न पाओगे,
वह केवल
एक आभास है।
'बुद्ध
पुरुष आकाश की
भांति एक आभास
है परन्तु जब
कभी तुम उसके
साथ समस्वर हो
जाते हो तो
कभी-कभी तुम्हें
लगता है कि वह
है ही नहीं।
तुम भयभीत हो
सकते हो,
घबरा
सकते हो,
और ऐसा
ही हुआ होगा ।
'तुम्हारा
स्वर मेरे
स्वर में मिल
गया।
तुम्हारे
बावजूद
कभी-कभार तुम
मेरे साथ
समस्वर हो
जाते हो। हो
सकता है
कभी-कभार तुम
स्वयं को भूल
जाओ और तुम्हारा
स्वर मेरे
स्वर में मिल
जाए क्योंकि
यह मिलन तभी
सम्भव है जब
तुम अपने को
भूल जाते हो।
और उस मिलन में
तुम पाते हो
कि कुर्सी
खाली है। यह
झलक भले ही
क्षणिक हो
परन्तु तुमने
वास्तव में
ऐसा सत्य देख
लिया जो पहले
कभी नहीं देखा
था। तुमने
बांस की खोखली
पोगरी को और
उसके भीतर से
बह रहे संगीत
के चमत्कार को
देख लिया है।
इस प्रवचन
के पश्चात ओशो
ने चेतना से
मेरा नाम
बदलकर प्रेम
शून्यो रख
दिया -शून्य
का प्रेम ।
'मेरी
उपस्थिति
दिन-प्रतिदिन
अनुपस्थिति-सी
होती जा रही
है ।
'मैं' भी और नहीं
भी ।
'मैं जितना
मिटता हूं
उतना ही मैं
तुम्हारी सहायता
कर सकता हूं।'
मैं जब भी
ओशो की ओर
देखती उनकी आंखों
में एक खालीपन
दिखाई देता, परन्तु
यह स्वीकार न
कर पाती कि वे
पूर्णत किसी
व्यक्तित्व व
अहंकार से
रहित हैं, क्योंकि
मेरे पास यह
समझने का कोई
उपाय न था कि
इसका क्या
अर्थ है। अब
मैं जब पीछे
मुड़कर देखती
हूं तो यह देख
पाती हूं कि
वे हमें कैसे
सिखाते रहे और
कितनी सहजता
से हमें अपने
गहनतम
रहस्यों को
खोजने के उस
मार्ग की और प्रेरित
करते रहे जो
सब पीड़ाओं और
यातनाओं से बहुत
ऊपर ले जाता
है और फिर भी
वह ऐसा मार्ग
है जो हमें
मानव के हृदय
तक ले जाता है।
वह मार्ग जो
हर संगठित धर्म
के विरोध में है
और फिर भी
सच्ची
धार्मिकता है।
मैं देख सकती
हूं कि यद्यपि
उन्होंने
पैन्तीस वर्ष
तक निरन्तर
लोगों की
सहायता करने
में बिताए
परन्तु उसमें
उनका कोई
निहितस्वार्थ
नहीं था। वे
अपने विवेक
में, अपनी
बुद्धिमत्ता
में हमें
सहभागी बनाना
चाहते थे और
यह सर्वथा हम
पर निर्भर था
कि हम उन्हें
सुनें या
नहीं। उन्हें
समझें या
नहीं। वे हमें
जो भी दिखाने
की चेष्टा कर
रहे थे उसे ग्रहण
करने की हमारी
अयोग्यता पर
वे कभी क्रोधित
नहीं हुए : न ही
वे कभी अधीर
हुए कि हम
अपनी आदतों को
दोहराते रहते
हैं।
उन्होंने
कहा कि एक दिन
हम अपने
बुद्धत्व को
उपलब्ध होंगे
क्योंकि ऐसा
अवश्यम्भावी
है। उन्होंने
कहा कि इससे
कोई अन्तर
नहीं पड़ता कि
कब।
'मैं
तुम्हें अपने
होने का स्वाद
दे रहा हूं । और
तुम्हें भी
उसके लिए
तैयार कर रहा
हूं, ताकि तुम
उसे दूसरों को
दे सको। यह सब
तुम पर निर्भर
करता है कि
मेरे शब्द
जीवित रहेंगे
या मर जाएंगे।
जहां तक मेरा
प्रश्न है, मुझे
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।
जब मैं यहां
हूं तो स्वयं
को तुम पर
उंडेल रहा हूं
। और मैं
कृतार्थ हूं
कि तुम ऐसा
होने दे रहे
हो, कल की
चिन्ता कौन
करता है? मेरे
भीतर कोई भी
नहीं जो
भविष्य की चिन्ता
करे। यदि
अस्तित्व
मुझे अपना
वाहन बना सकता
है तो मैं
आश्वस्त हो
सकता हूं कि
यह सहस्रों
लोगों को अपना
वाहन बना सकता
है।'
‘फ्रॉम द
फॉल्स टुर्थ’
वे जानते
हैं कि वे
अपने समय से
सैकड़ों वर्ष आगे
हैं और वे
कहते कि कोई
प्रतिभावान
व्यक्ति अपने
समकालीन व्यक्तियों
से कभी मिल
नहीं पाएगा ।
जिस दिन
कृष्णमूर्ति
ने प्राण
त्यागे ओशो ने
कहा ' अब मैं
संसार में
अकेला हूं । ' जब
उन्हें पूछा
गया कि उन्हें
कैसे याद रखा
जाए तो बोले
'मैं केवल
इतना ही
चाहूंगा कि
मुझे क्षमा कर
दिया जाए और
भुला दिया जाए।
मुझे स्मरण
रखने की कोई
आवश्यकता
नहीं।
आवश्यकता है
तुम्हें
स्वयं को
स्मरण रखने की।
लोगों ने गौतम
बुद्ध जीसस
क्राइस्ट कन्फूशियस
और कृष्ण को
स्मरण रखा है
। यह काम नहीं
आता । अत, मैं
चाहूंगा कि? मुझे
पूर्ण रूप से
भुला दिया जाए
और क्षमा कर
दिया जाए-क्योंकि
मुझे भुला
पाना कठिन
होगा। इसी
कारण मैं तुम
लोगों को कष्ट
देने के लिए
क्षमा मांगता
हूं। स्वयं को
स्मरण रखें। '
द
ट्रांसमिशन
ऑफ द लैम्प
उन्होंने
इस धरती को
बिना अपने
किसी नाम के
छोड़ दिया ।
ओशो कोई नाम
नहीं है । ओशो
ने व्यवस्था
की कि उनकी
सभी पुस्तकों
(जिनकी संख्या
सात सौ है) में
उनका नाम
भगवान श्री
रजनीश से
बदलकर ओशो कर
दिया जाए।
भावी पीढ़ी को
यह पता भी न
चलेगा कि कभी
कोई रजनीश नाम
का व्यक्ति भी
हुआ था । केवल
ओशो बचेगा और
ओशो….?
'
तुम एक
अनाम सत्य हो।
और यह अच्छा
है, क्योंकि
प्रत्येक नाम
तुम्हारे
आसपास एक सीमा
निर्मित करता
है, तुम्हें
छोटा बनाता
है।'
द ग्रेट
पिलग्रिमेज
फ्रॉम हियर टु
हियर
और फिर भी वे
अपने पीछे वह
धरोहर छोड़ गए
हैं जिसकी
तुलना विश्व
के सभी हीरों
के साथ भी
नहीं की जा
सकती। वे ' अपना
कार्य ' अपने लोगों
में छोड़ गए
हैं।
मानव-जाति के
विकास में वे
हजारों लोगों
को एक बहुत
बड़ी छलांग के
साथ आगे ले आए
हैं। हम भले
ही इसे पूरी
तरह अनुभव न
कर पाए हों परन्तु
तय यह समझ गए
हैं कि मृत्यु
का कोई
अस्तित्व
नहीं है।
मृत्यु जो
मनुष्य के
सबसे अधिक
वर्जित शब्द, सबसे
गढ़ रहस्य और
सबसे बड़ा भय
है हमारे
सद्गुरु ने
हमें उससे
बाहर खींच
दूसरी ओर कर
दिया है।
मृत्यु केवल
शरीर की होती
है और यह मेरा
अपना अनुभव है।
मृत्यु का
रहस्य, स्वर्ग, मरणोपरान्त
जीवन, पुनर्जन्म-ये
सभी रहस्य अब
रहस्य नहीं
रहे।
अन्तिम बार
बिना किसी भय
के मेरी
दृष्टि उनकी
दृष्टि से
मिली थी-मैं
भयभीत थी
क्योंकि मैं देख
पा रही थी कि उनका
शरीर दुर्बल
होता जा रहा
था। अन्तिम
बार वास्तव
में मैं
उन्हें उस रात
मिली थी जब
निर्वाणो की
मृत्यु हुई थी।
निर्वाणो की
मृत्यु सात
बजे सायं
बुद्ध सभागार
में ध्यान के
लिए जाने के
कुछ ही समय
पहले हुई थी।
उस रात मैं
बुद्ध सभागार
के बहार ओशो
की कार के आने
की प्रतीक्षा
कर रही थी।
मैंने कार का
दरवाजा खोला।
ऐसा हम छह लोग
बारी-बारी से
करते थे और उस
दिन मेरी बारी
थी। वे ज्यों
ही कार से
बाहर निकले
उन्होंने मुझ
पर एक पैनी
दृष्टि डाली, यह
जानते हुए कि
मुझे पता था।
मैं यही
अनुमान लगा
सकती हूं कि
वे देख रहे थे
कि मुझ पर
क्या बीत रहा
है। मुझे
स्मरण है कि
मैंने उन्हें
देखा और मन-हीं-मन
कहा, ' हां, ओशो ' और मैं
सोचती हूं कि
मैं उस पीड़ा
को थोड़ा-सा समझ
पाई थी जो
उन्हें महसूस
हुई होगी, और
मैं उसे सच
में कभी नहीं
जान सकती थी-परन्तु
यह मेरा ख्याल
है-क्योंकि वे
उसे बहुत
प्रेम करते थे
। मैं उन्हें
कहना चाहती थी
कि इसे सहन
करने की शक्ति
बनाए रखूंगी ।
दो महीने
पहले बुद्ध
सभागार में
प्रवेश करने पर
ओशो ने हमारे
साथ नृत्य
करना बन्द कर
दिया। दोनों
हाथ जोड़े वे
मंच पर आते, धीरे-धीरे
चलते हौले-से
अपना बायां
पैर उठाकर आगे
रखते फिर दाएं
पैर को खिसकाकर
बाएं पैर के
साथ रख लेते।
वे कभी-कभी
आगे की पंक्ति
में बैठे किसी
व्यक्ति को
देखते और फिर
उनकी आंखें
क्षितिज का
अवलोकन करती
ऐसे प्रतीत
होतीं जैसे किसी
दूर के सितारे
को देख रही
हों। जहां मैं
बैठती थी वहां
से ऐसा लगता
था जैसे अब वे
किसी भी
व्यक्ति
विशेष को नहीं
देख रहे। ओशो
प्राय : यह
कहते रहे हैं
कि उनके लोग
ही इस संसार
में उनके लिए
लंगर का काम
करते हैं।
लेकिन अब ऐसा
लगता है कि वे
कहीं दूर देख
रहे हैं।
आविर्भावा के
सामने आते ही
वे खेलने लगते
जैसे वे फिर
अपने शरीर में
लौट आए हों। वे
खेलते हुए
बच्चों की भांति
दिखते।
उन्हें संसार
में लौटकर
आविर्भावा के
साथ खेलते हुए
देखना अति
आनन्ददायी था।
वे धीमे से हंसते
और हंसी के
साथ उनके कन्धे
ऊपर-नीचे होते
और बड़ी-बड़ी आंखें
पूरी तरह
खोलकर वे उसे
डराते, कभी इशारे
से ऊपर पोडियम
पर अपने पास
बुलाते।
आविर्भावा
चीख मारकर
फर्श पर गिर
जाती जैसे वह
भी खेल का एक
हिस्सा हो।
जब वे
हमारे साथ
बैठते, संगीतकार
भारतीय धुन
बजाते और
बीच-बीच में
बन्द कर देते, एक
मौन छा जाता।
और वे फिर
कहीं दूर चले
जाते। कई बार
मेरा मन होता
कि चिल्लाकर
उनसे कहूं ' वापस
आ जाइए, वापस आ
जाइए।'
दिसम्बर के
मध्य में ओशो
ने हमें
सन्देश भेजा कि
उन्होंने
किसी को
मन्त्रोच्चारण
करते सुना है और
वह उनके मौन
को भंग कर रहा
है। और किसी
ने भी नहीं
सुना था,
परन्तु
मैं जानती हूं
कि ओशो की
श्रवणशक्ति अन्य
लोगों की
तुलना में
कहीं अधिक
संवेदनशील है, अत, इस
बात से कोई
आश्चर्य नहीं
हुआ ।
इस
मन्त्रोच्चार
को बन्द करने
की घोषणाओं के
बावजूद भी यह
जारी रहा ।
इससे ओशो के
पेट में पीड़ा
होने लगी ।
उन्होंने कहा
कि ऐसा
जान-बूझकर
किया जा रहा
है और जबकि
बुद्ध सभागार
में हमारे साथ
बैठे वे
पूर्णत : खुले
तथा ग्रहणशील होते
ताकि हम उनके
मौन की गहराई
को अनुभव कर सकें
। उनके ऊपर
वही लोग इस
तरह आक्रमण कर
रहे थे
जिन्होंने
अमरीका में
कम्यून को
नष्ट किया था
। उन्होंने
बाद में बताया
कि ये सी आई .ए.
के लोग थे और
वे काले जादू
का उपयोग कर
रहे थे ।
हमने
व्यक्ति या
व्यक्तियों
को मनोवैज्ञानिक
ढंग से तथा
साधारण जांच-
पड़ताल से
ढूंढने का
प्रयत्न
किया। बुद्ध
सभागार में
प्रतिदिन एक
ही स्थान पर बैठने
वाले लोगों का
स्थान-परिवर्तन
भी किया गया।
वह आवाज प्राय_ओशो
के दाईं ओर से
आती थी। वे
ध्यान के बीच आखें
खोलते और आवाज
की दिशा की ओर
संकेत करते ।
एक रात मैं
बुद्धा हाल के
मध्य में ओशो
के दाईं ओर
बैठी थी और
अपने आसपास
बैठे एक-एक
व्यक्ति को
देखा, अलग- अलग
लोगों को बाहर
ले जाया गया
ताकि यह पता
लग सके कि
किसकी
अनुपस्थिति
में
मन्त्रोच्चार
बन्द होता है।
ओशो ने कई बार
अपनी गर्दन
घुमाई और देर
तक आखें गड़ाकर
देखा जहां ' सन्दिग्ध
' व्यक्ति
बैठा था ।
परन्तु सब
व्यर्थ सिद्ध
हुआ। हम उस
व्यक्ति को
खोजने में
असमर्थ रहे और
इधर-उधर सरकने
और लोगों को
बाहर जाने के
लिए कहने के
कारण ध्यान
में बाधा आई।
हमें समझ
में नहीं आ
रहा था कि
मन्त्र बोलते
हुए उस व्यक्ति
को कैसे पकड़े।
हमारी तरफ़ से
सब गड़बड़ था ।
हम अंधेरे में
भटक रहे थे और
ओशो की ओर से
सब स्पष्ट था
और वे अच्छी
तरह जानते थे
कि क्या हो
रहा है और
कहां से वह आवाज
आ रही है ।
लेकिन हम समझ
नहीं पा रहे
थे कि वे हमें
क्या बता रहे
थे।
हमने सभी
विद्युत उपकरणों
की अच्छी तरह
जांच की और एक
नई आविष्कृत मशीन
लाए जो हो
सकता है
मनुष्य की
साधारण श्रवण-शक्ति
से पार उस
मृत्यु- किरण
या ध्वनि को
बाहर भेज सके।
16 जनवरी को
बुद्धा हॉल से
बाहर आते समय
ओशो ने मुझे
अन्तिम बात
कही, ' व्यक्ति
चौथी पंक्ति
में है । ' उस रात
हमने चौथी
पंक्ति में
बैठे लोगों की
वीडियों फ़िल्म ली
और बाद में एक ' अपराधी
' को
ढूंढने के लिए
फ़िल्म देखी ।
लेकिन ओशो ने
कहा कि एक से
अधिक व्यक्ति
हैं और जब
उन्होंने देखा
कि हम कितने
असहाय और
तनावग्रस्त
होते जा रहे
हैं उन्होंने
तलाश छोड़ देने
को कहा ।
उन्होंने
सन्देश भेजा
कि वे ऊर्जा
को वापस उस व्यक्ति
को भेज सकते
हैं, दुगुनी
मात्रा में
लौटा सकते हैं, लेकिन
जीवन के प्रति
उनका आदर
समग्र रूप से
है और वे किसी
भी शक्ति का
उपयोग विनाश
के लिए नहीं
कर सकते ।
ओशो बड़ी
तेजी से कमजोर
होते जा रहे
थे और उनके पेट
का दर्द बढ़ता
जा रहा था ।
उनके पेट के
एक्स-रे लिए
गए परन्तु
उनसे कुछ भी
पता नहीं चला
। दर्द उनके ' हारा
' की
ओर बढ़ता जा
रहा था और
उन्होंने कहा
कि यदि दर्द
हारा तक पहुंच
जाता है तो
उनके जीवन को
खतरा है । ऐसा
लगता था कि
उनका इस संसार
से नाता टूटता
जा रहा है ।
कभी-कभी
ओशो हमें
देखने बाहर
आते तो मुझे
अपनी
असहायवस्था
पर क्रोध आता, मैं
बुद्धा हॉल
में खड़ी हो
जाऊं और
चिल्लाकर उनसे
कहूं, ' मत जाओ ' लेकिन
वे जा रहे थे ।
जब भो मैं
उनकी ओर देखती
तो सुनाई पड़ता
कि वे मुझसे कह
रहे हैं,
' तुम
अकेली हो, तुम
अकेली हो।'
उस समय
मेरा मन होता
कि मैं उनसे
दूर चली जाऊं और
बुद्धा हॉल
में पीछे जाकर
नाचूं।
क्योंकि मैं
कम-से-कम
उन्हें वहां
से पूरी शक्ति
से महसूस कर
सकती थी और
उनकी शून्य दृष्टि
से विचलित
नहीं हो सकती
थी। एक रात
मैं
नाचते-नाचते
उन्मत्त-सी हो
गई और बुद्धा
हॉल के चारों
तरफ लगी जाली
में जा गिरी।
मैं बड़बड़ कर
रही थी, पुराने
दर्शन के समय
की भांति
जिबरिश कर रही
थी। मैंने
देखा कि वे
विलीन हो रहे
हैं; मैं
उत्सवभाव से
नाच न सकी।
अन्तिम बार
जब वे बुद्धा
हॉल में आए तो
मेरे मन में
कोई उमंग नहीं
थी। मैं उनकी
कुर्सी के ठीक
सामने बैठी थी
और वे मेरी
तरफ आए कुछ
देर रुके और
फिर दाईं ओर
मुड़ गए और मंच
के दूसरे
किनारे पर गए।
वहां उस ओर
बैठे सभी
लोगों को
नमस्कार किया।
मैं साक्षात
दुख की मूर्ति
बनी बैठी थी।
ओशो जब मंच
के बिल्कुल
दूसरे किनारे
पर खड़े थे
मैंने स्वयं
से कहा कि आज
मैं अन्तिम
बार ओशो को देख
रही हूं और
उचित यही है
कि मैं अपने
दुख को यहीं
समाप्त कर दूं
-नहीं तो सारा
जीवन यह दुख
मुझे ढोना
पड़ेगा। मैं
अपनी बांहें
लहरा-लहराकर
संगीत की धुन
पर नाचने लगी।
ओशो मंच का
चक्कर लगाकर
धीरे- धीरे एक
बार फिर ठीक मेरे
सामने पहुंच
गए, केवल कुछ
फुट की दूरी
पर ।
हमारी
नजरें तो नहीं
मिलीं लेकिन
वे वहां खड़े
थे। मैंने
नृत्य करते
हुए अपनी
बांहें हिलाई
और कहा, ' तो ऐसा ही
होने दें।
आपने हमारे
लिए इतने
वर्षों तक
शरीर में रहने
की चेष्टा की।
यदि आपके जाने
का समय आ गया
है तो ऐसा ही
हो। ' मैंने
उन्हें अलविदा
कहा? ‘ऊं' यदि आपको
जाना ही है तो
मैं आपके लिए आनन्दित
हूं। अलविदा, प्यारे
सद्गुरु।'
वे मुड़े और
पोडियम से
बाहर जाने
लगे। जाने से
पहले वे फिर
मुड़े और
जरा-सा अपने
दाईं ओर देखा -
बुद्ध सभागार के
पार सब लोगों
के पार, आकाश की ओर।
मैंने उनकी आंखों
में एक
मुस्कान देखी, यदि
मुझसे कोई
पूछे कि उस मुस्कान
को देखकर मुझे
कैसा लगा तो
मैं कहूंगी
जैसे किसी
यात्री को
लम्बी यात्रा
के बाद दूर से
अपना घर दिखाई
देने लगता है।
वह मुस्कान
मैं आज भी
अपनी आंखें
बन्द करके देख
सकती हूं परन्तु
मैं उसका
वर्णन नहीं कर
सकती। वह
मुस्कान उनकी
आंखों से उनके
चेहरे पर हलके
से फैल गई।
मेरा चेहरा
दमक रहा था और
मैं अकेली हूं
ऐसा एहसास हुआ
।
जैसे ही वे
बाहर गए मैंने
अपने दोनों
हाथ सिर के
ऊपर ले जाते
हुए जोड़े और
उन्हें
नमस्कार किया
। और वे चले गए
।
उस रात मैं
अपनी एक मित्र
के साथ भोजन
कर रही थी
उसने कहा कि
उसे लगता है
कि उसने ओशो
को अन्तिम बार
देखा हो। यह
कुछ ऐसी बात
थी जो मैं
किसी से नहीं
कह सकती थी-वह
इतनी
अकल्पनीय थी, मैंने
उसे अनुभव
किया था,
मैं जानती
थी और फिर भी
उसे नकार रही
थी। मुझे
सफिया मिला और
उसने पूछा, ' ओशो
कैसे हैं? मुझे
डर लग रहा है। ' मैंने
उत्तर दिया, ' मुझे
भी।' अगले
दिन मैं बहुत
विचलित थी
परन्तु मैं यह
स्वीकार नहीं
कर पा रही थी
कि वह बेचैनी
इस कारण थी कि मैंने
सोचा था कि
ओशो जा रहे
हैं। मुझे
हमेशा ऐसा
लगता था कि
यदि ओशो देह
छोड़ देंगे तो
मैं भी मर
जाऊंगी। मैं
उनके बिना जीने
की कल्पना भी
नहीं कर सकती
थी।
उस रात हमें
सन्देश मिला
कि ओशो अपने
कमरे में ही
रहेंगे और हमें
उनके बिना ही
ध्यान करना है।
अब मैं उस समय
के बारे में
सोचती हूं जब
उन्होंने कहा
था कि जब उनके
लोग उनके बिना
मौन की गहराई
तक पहुंच
जाएंगे,
वे अपना
शरीर छोड़
देंगे ।
परन्तु उस रात
मैं ऐसा कुछ
नहीं सोच रही
थी।
अन्तिम दो
रातों को
बुद्धा हॉल
में ध्यान करना
मेरे लिए
असम्भव हो गया
। वीडियो
प्रवचन के बीच
ही मैं बुद्धा
हॉल से उठकर
बाहर भाग गई
और अपने लाड़ी
रूम - जो मेरे
लिए एक गर्भ
थी - में चली गई
।
हम बुद्धा
हॉल में उनके
बिना ही बैठे
और ध्यान किया
। भारतीय
संगीत और मौन।
ओशो भारतीय
संगीत को अधिक
पसन्द करते थे, उनका
कहना था कि यह
ध्यान के लिए
सहयोगी है।
अगले दिन रिक्यग़
में बैठे
मैंने स्वयं
को एक कोमल
आनन्दानुभूति
से
सराबोर
पाया। मैंने
स्वयं से कहा
कि यह मेरी
सम्भावना है
मैं इसके
योग्य हूं। यदि
मैं चाहूं तो
ऐसे जी सकती
हूं। शेष दिन
मैं बेचैन थी
परन्तु जानती
नहीं थी क्यों? मुझे
अपना सत्य, अपना
चित्त साफ
दिखाई दे रहा
था। मुझे लग
रहा था कि
मेरा मन
अंधेरों में
गिरने को
लालायित है, दुखों
में जीने को
लालायित है और
साथ ही यह भी
अनुभव हुआ कि
अंधेरों को न
चुनने की
क्षमता भी
मुझमें है।
मैं जानती थी
कि मैं चुनाव
कर सकती हूं। पूरा
दिन मैं इसी
अवस्था में
रही।
मैं ओशो के
कमरे के ठीक
ऊपरवाले कमरे
में बैठी थी।
मैं उनकी छत
पर रह रही थी ।
यह सचमुच बहुत
ठंडी थी।
परियों की कथा
का अन्तिम
अध्याय,
जो इस
पुस्तक का
उपसंहार
होनेवाला था लिखते
हुए मैंने
पूरी दोपहर
बिताई। छह बजे
से थोड़ी देर
पहले मैं 'अन्तिम
अध्याय '
टाइप
करने के लिए आनन्दों
के ऑफिस में
बैठी थी कि
मनीषा रोते
हुए आई, ' मेरा ख्याल
है कि ओशो जा
रहे हैं। ' हम
दोनों ने एक
भारतीय डाँक्टर
को उनके घर से
निकलते देखा -ओशो
को देखने के
लिए बाहर से
कभी कोई डाँक्टर
नहीं बुलाया
जाता था जब तक
कि कोई गम्भीर
बात न हो-अत : इसका
अर्थ था कि
बात कुछ
गम्भीर है।
मैं सात बजे
के ध्यान के लिए
तैयार होने
अपने कमरे में
गई। मेरा झेन मित्र
तथा प्रेमी मार्को
मुझे मिलने
आया हुआ था।
सायंकालीन
सभाओं में
जाने से पहले
हम एक साथ
नाचते, हंसते
परन्तु आज
किसी भयावह
घड़ी में रुक
गईं दो
आत्माओं की
भांति हम खड़े
थे । वह अपने
सफेद रोब पर
शॉल ओढ़े खड़ा
था, मुझसे उसने
कहा, ' तुम्हारी आखों के
भीतर जो भय है
वह मुझे डरा
रहा है। क्या
हो रहा है?' मैंने
कहा,' मुझे अभी
कुछ पता नहीं, परन्तु
लगता है ओशो
को कुछ हो रहा
है। '
मनीषा मेरे
कमरे में आई
और उसने बताया
किं ओशो ने
शरीर छोड़ दिया
है । वह रोने
लगी और बोली, ' मुझे
बहुत क्रोध आ
रहा है, वे विजयी
हुए। ' वे लोग
अर्थात
अमरीकी सरकार
और मैंने कहा, ' नहीं, अब
हम देखेंगे वे
उन्हें मार
नहीं सकते। '
वह चली गई
और पहला काम
जो मैंने किया
वह था बिस्तर
पर गिरना और
उन्हें
पुकारना कि, ' ओशो, यह
प्रारम्भ है।
मैं जानती हूं
कि यह
प्रारम्भ है ।
' स्पष्टता
की उस घड़ी के
बाद मुझे एक
आघात-सा लगा।
कहीं आंखें
गड़ाए मैं धीरे-
धीरे सीढ़ियों
से उतरी ।
मुझे मालूम
नहीं था कि
मैं कहां जा
रही थी और
क्या कर रही
थी। अब तक
सबको मालूम हो
गया था और
पूरे घर में
आश्रम में
मुझे रुदन
सुनाई दे रहा
था ।
मुझे मुक्ता
मिली जो बग़ीचे से गुलाब
तोड़ने जा रही
थी, जो अर्थी पर
रखे जाने थे।
मैं गुलाब
रखने के लिए
किसी सुन्दर
बर्तन को
ढूंढने लगी ।
कुछ करते जाना
भला लग रहा था।
मुझे एक चांदी
की ट्रे जिसका
व्यास चार फुट
था और जिसे
पारसियों के
व्याह-शादियों
के अवसर पर
उपयोग में
लाया जाता है-मिल
गई । उनकी एक
शिष्या ज़रीन
ने उन्हें
भेंट में दी
थी और उन्हें
वह बहुत पसन्द
थी। आवेश जो
वर्षों से ओशो
के ड्राइवर के
रूप में कार्य
करता आ रहा था
द्वार पर खड़ा
था, ओशो को
बुद्धा हॉल
में ले चलने
की प्रतीक्षा
में। उसकी
नज़रों में भय
था, जब उसने
मुझसे कहा कि वह
नहीं जानता कि
क्या हो रहा
है। किसी ने उसे
कुछ नहीं
बताया। मैंने
उसे अपनी ओर
खींच लिया और
उसे बांहों में
भर लिया
परन्तु कुछ
बोल न सकी।
कुछ मिनटों के
बाद मैंने
उससे कहा कि
मैं शब्दों
में कुछ नहीं
कह सकती ।
उसने मेरी ओर
देखा और कहा, ' वे
चले गए? 'तब वह
फूट-फूटकर रो
पड़ा, लेकिन मैं
उसके पास रुक न
सकी। ऐसे लग
रहा था कि उस
शाम हम में से
हर व्यक्ति
अकेलेपन की
गहराई में था।
प्रत्येक
संन्यासी का
ओशो के साथ
अपना अनूठा और
अन्तरंग सम्बंध
था जहां कोई
दूसरा प्रवेश
नहीं कर सकता।
मुझे
गलियारे में
आनन्दी मिली।
वह कान्तिमय दिख
रही थी। वह
मुझे ओशो के कमरे
में ले गई, जहां
वे बिस्तर पर
लेटे हुए थे ।
उसने मेरे
पीछे दरवाजा
बन्द कर दिया।
मैं फ़र्श पर
झुकी, मेरा सिर ठंडे
संगमरमर पर था
और मैं धीरे-से
फुसफुसाई, 'मेरे
सद्गुरु।' मैं
अहोभाव से भर
गई ।
ओशो को
बुद्ध सभागार
तक लाने में
मैंने भी सहायता
की । वहां मंच
पर फूलों से
ढकी उनकी
अर्थी को मंच
पर रखा गया ।
वे अपना
मनपसन्द रोब
तथा वह टोपी
जिस पर एक जापानी
साध्वी
द्वारा दिए
मोती जड़े थे
पहने हुए थे ।
दस हजार
बुद्धों ने
उत्सव मनाया ।
हम उन्हें
श्मशान-घाट ले
गए । पूना की
भीड़ भरी सड्कों
में से होता
हुआ यह लम्बा
रास्ता है ।
अंधेरा हो गया
था और वहां
हजारों लोग थे
। मैं ओशो के
चेहरे से आखें
न हटा सकी ।
सारे रास्ते
पर गीत-संगीत
चलता रहा ।
श्मशान-घाट
नदी के पास
छोटी-सी घाटी
में है। यहां
से सहस्रों
लोग
दाह-संस्कार
देख सकते थे।
मिलारेपा और
अन्य
संगीतकार
पूरी रात
गाते-बजाते रहे-सभी
सफेद रोब पहने
थे। आश्चर्य
की बात है ओशो
पूना के
पुराने दिनों
सफेद वस्त्र
पहना करते थे
और वे कहते थे
कि यह
पवित्रता का
प्रतीक है।
मैं सोचा करती
थी कि जब हम
सम्बोधि को
प्राप्त
होंगे तो सफेद
वस्त्र पहनेंगे
और यहां उनकी
मृत्यु के
अवसर पर हम
सभी संन्यासी
सफेद वस्त्र
पहने हैं।
कौए बोलने
लगे थे ऐसा
लगा जैसे भोर
हो गई हो।
मैंने आखें
बन्द कर कौओं
की आवाज सुनी
और हैरान होती
हूं, ' हे भगवान
क्या मेरी आखें
इतनी देर से
बन्द थी?'
परन्तु
उन्हें खोलने
पर देखती हूं
कि अभी आधी
रात का समय
मैंने स्वयं
को शारीरिक
रूप से
अस्वस्थ-सा
अनुभव किया।
पूरे शरीर में
दर्द था। मुझे
ऐसी किसी महान
बात का अनुभव
नहीं हुआ जिनकी
मैंने गुरु के
देह त्याग के
समय पर घटित
होने की कभी
कल्पना की थी।
ओशो की मृत्यु
ने मुझे अपने
यथार्थ को
देखने का अवसर
प्रदान किया।
अगली सुबह
मैं जागी, यद्यपि
वास्तव में
मैं इस
सम्बन्ध में
सोच नहीं रही
थी, मुझे लगा कि
आश्रम खाली
होगा। मैं बाहर
आई और आश्रम
वैसा ही भरा
था। बुद्धा
हॉल में ध्यान
चल रहा था।
लोग मार्ग
बुहार रहे थे
और सबके लिए
नाश्ता तैयार
था। यद्यपि हम
सभी देर रात
तक जागते रहे
थे फिर भी
नाश्ता तैयार
था, बड़े प्रेम
से बनाया गया
था। यह बात
मेरे हृदय को
छू गई। इस बात
से मुझे 'आश्वासन
मिला कि ओशो
का सपना साकार
होगा ।
अमृतो और
जयेश ओशो के
पास थे जब
उन्होंने
शरीर छोड़ा।
अमृतो के
शब्दों में -
उस रात (18
जनवरी) वे
कमजोर-से-कमजोर
होते गए। शरीर
की हर रा
लन-चलन पीड़ा दायी
हो गई। सुबह
मैंने देखा कि
उनकी नब्ज भी
कमजोर व
अनियमित थी।
मैंने उनसे
कहा कि मुझे
तो ऐसा लग रहा
है जैसे कि
आपका शरीर
मृत्यु को
प्राप्त हो
रहा है।
उन्होंने सिर
हिलाया।
मैंने उनसे
पूछा कि क्या
हम किसी
हृदयरोग-विशेषज्ञ
को बुलाएं जो
हृदय को पुनर्जीवित
करने की
व्यवस्था करे
तो उन्होंने कहा, ' नहीं
बस मुझे जाने
दो। अस्तित्व
अपना समय
निर्धारित
करता है। '
जब मैं
उन्हें
बाथरूम जाने
के लिए सहारा
दे रहा था तो
वे बोले,
'और तुम
इस समूचे कमरे
में इस बाथरूम
की मैट जैसा
गलीचा बिछवा
देना। ' फिर
उन्होंने
अपनी कुर्सी
की ओर चलने का
अनुरोध किया।
वे कुर्सी पर
बैठ गए और
कमरे की चीज़ों
के विषय में
बताने लगे कि
उनका क्या
करना है।
छोटे-से
स्टीरियो की
ओर संकेत करते
हुए बोले ,' यह
किसको दिया
जाए? यह ऑडियो है? निरूपा
को पसन्द आएगा? ' निरूपा
कई वर्षों से
उनका कमरा साफ़
करती आ रही है।
फिर उन्होंने
पूरे कमरे का
चक्कर लगाया
और प्रत्येक
वस्तु के लिए
निर्देश दिए।
कमरे में डिह्ममिडिफायर
की ओर इशारा
करते हुए वे
बोले, ' इन्हें तुम
निकलवा देना-'उन्हें
उनका शोर अधिक
लगता था। ' और
याद रखना एक
एयरकंडीशनर
हमेशा चलता
रहे।'
विश्वास
नहीं होता, उन्होंने
बड़े सामान्य
रूप से हर चीज़
को गौर से
देखा । वे
बहुत ही शान्त
लग रहे थे, ऐसा
प्रतीत हो रहा
था जैसे
सप्ताहान्त
की छुट्टी पर
जा रहे हों ।
वे बिस्तर
पर बैठ गए और
मैंने उनसे
पूछा कि हम उनकी
समाधि के लिए
क्या करें? वे
बोले, ' बस मेरी
अस्थियों को
च्चांगत्सु
में रख देना, पलंग
के नीचे । फिर
लोग वहां आकर
ध्यान कर सकते
हैं। '
'और इस कमरे
के बारे में
क्या?' मैंने पूछा
।
'यह कमरा समाrधे के
लिए ठीक रहेगा?' उन्होंने
पूछा ।
'नहीं,'
मैंने
कहा, ' च्चांग्त्सु
सुन्दर होगा।'
मैंने कहा
कि उनके इस
शयन-कक्ष को
हम ऐसा ही
रखना चाहेंगे।
' तो
इसे सुन्दर
बना लेना,' उन्होंने
कहा। और फिर
बोले कि वे
इसमें नया
संगमरमर
लगवाना पसन्द
करेंगे ।
'उत्सव के
सम्बन्ध में
क्या?' मैंने उनसे
पूछा ।
'बस दस मिनट
के लिए मुझे
बुद्धा हॉल
में ले जाना,' उन्होंने
कहा, ' और फिर सीधे
श्मशान-घाट; और
हां, ले जाने से पहले
मुझे टोपी व
मोजे पहना
देना।'
मैंने उनसे
पूछा कि मैं
आप सबको क्या
कहूं । उन्होंने
मुझे आप सबको
बताने के लिए
कहा कि अमरीका
में शारलट
नॉर्थ
कैरोलाइना की
जेल में रहने
के बाद शरीर
जर्जर होता
चला गया था।
उन्होंने कहा
आक्लोहोमा
जेल में
उन्हें थैलियम
नामक विष दिया
गया और
रेडिएशन से
उन्हें गुज़ारा
गया, जिसका कि
हमें
चिकित्सा-विशेषज्ञों
से परामर्श
करने पर ही
पता चला।
उन्होंने
बताया कि
उन्हें इस तरह
से विष दिया गया
जिसका पीछे
कोई प्रमाण न
छूटे। ' मेरा अशक्त
वह असहाय शरीर
अमरीकी सरकार
के ईसाई मतान्धों
का काम है। 'उन्होंने
यह भी कहा कि
अपनी शारीरिक
पीड़ा को उन्होंने
प्रकट नहीं
होने दिया उसे
अपने तक ही रखा, ' लेकिन, इस
शरीर में रहना
नरक हो गया है
। '
फिर वे लेट
गए और आराम
करने लगे। मैं
जयेश के पास
गया और जो हो
रहा था उसे
बताया कि
स्पष्टत: ओशो
शरीर छोड़ रहे
हैं। ओशो ने
जब दोबारा
बुलाया तो
मैंने उन्हें
कहा कि जयेश
भी आया हुआ है।
उन्होंने
जयेश को भीतर
लाने के लिए
कहा। हम उनके
बिस्तर पर बैठ
गए और
उन्होंने
हमसे अन्तिम
शब्द कहे ।
'मेरे
सम्बन्ध में
कभी भूतकाल
में बात मत करना।
' उन्होंने
कहा: ' मेरे पीड़ित
शरीर के बोझ
से मुक्त होकर
यहां मेरी
उपस्थिति कई
गुना हो जाएगी।
मेरे लोगों को
स्मरण दिलाना
कि वे अब मुझे
और भी महसूस
कर पाएंगे।
उन्हें तत्कण
पता चलेगा।'
एक बात पर मैंने
उनका हाथ पकड़ा
और रोने लगा।
उन्होंने
मेरी ओर थोड़ी
कड़ी नज़रों से
देखा। ' नहीं,
नहीं,' उन्होंने
कहा, ' यह ढंग नहीं
है। '
मैंने तत्क्षण
रोना बन्द कर
दिया और वे
बड़े सुन्दर का
से मुस्कुराए
।
ओशो ने फिर
जयेश से बात
की और कहा कि
वे किस ढंग से
अपने काम का
विस्तार चाहते
हैं।
उन्होंने कहा
कि क्योंकि अब
वे अपना शरीर
छोड़ रहे हैं
बहुत से और
लोग आनेवाले
हैं और बहुत
से लोगों में
रुचि जगेगी और
उनका कार्य
अविश्वसनीय
रूप से
बढ़नेवाला है जिसकी
हम कल्पना भी
नहीं कर सकते।
यह बात उन्हें
स्पष्ट थी कि
शरीर का बोझ न
रहने पर वे
वास्तव में
अपने कार्य के
विस्तार में
सहायक हो
सकेंगे। फिर
उन्होंने कहा ' मैं
अपना सपना
तुम्हें
सौंपता हूं। 'फिर
वे इतनी धीमी
आवाज़ में बोले
कि उसे सुनने के
लिए जयेश को
अपना कान उनके
बहुत पास ले
जाना पड़ा और
ओशो ने कहा: ' और
स्मरण रहे कि
आनन्दो मेरी
सन्देशवाहक
है।' फिर
वे रुके और
कहा, 'नहीं आनन्दों
मेरी मीडियम
होगी।'
इस पर जयेश
एक तरफ़ हो गया
और ओशो ने
मुझे कहा, ' मीडियम
शब्द ठीक
रहेगा?' मैंने इसके
पहले की बात
नहीं सुनी थी
अत. मेरी कुछ
समझ में न
आया।' मीटिंग? 'मैंने
पूछा।
'नहीं,'
उन्होंने
उत्तर दिया,' आनन्दो
के लिए, मीडियम-वह
मेरी मीडियम
होगी।'
वे चुप
होकर लेट गए
और हम उनके
पास बैठे रहे, जबकि मेरा
हाथ उनकी नब्ज
पर था।
धीरे-धीरे वह
मन्द होती गई।
जब मैं बहुत
कठिनाई से
नब्ज महसूस कर
रहा था,
मैंने कहा, ' ओशो, आई
थिंक दिस इज
इट (ओशो, मेरा खयाल
है कि यह अन्त
है)
उन्होंने
केवल धीमे-से
सिर हिलाया और
आंखें बन्द कर
लीं सदा के
लिए ।
मां प्रेम
शून्यो
(समाप्त)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें